Book Title: Fulchandra Shastri Abhinandan Granth
Author(s): Jyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
Publisher: Siddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi

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Page 705
________________ ६६६ : सिद्धान्ताचार्यं पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ संक्षेपमें, पण्डितजी द्वारा लिखित इस टीकाको निम्नलिखित विशेषताएँ कही जा सकती हैं(१) यह किसी टीकाकी टीका-टिप्पणी न होकर टीकाका विशदीकरण मात्र है । (२) विषयके प्रामाणिक विवेचन तथा स्पष्टीकरण हेतु स्थान-स्थानपर सीधे शब्दों में या भावोंमें जिनागमको उद्धृत किया गया है। (३) टीका-टिप्पणी करते समय तुलनात्मक विवेचन किया गया है । इस प्रकारकी टीकासे भविष्य में करणानुयोगके तुलनात्मक अध्ययनको बल मिलेगा । (४) भाषाशास्त्रीय होनेपर भी सरल है । करणानुयोगके किसी एक ग्रन्थका सम्यक् स्वाध्यायी सरलतासे इसे समझ सकता है। यद्यपि पण्डितप्रवर टोडरमलजीने हिन्दी टीकाको बहुत सरल बना दिया है, फिर भी कहीं विषय की गम्भीरता रह गई है, तो उसे स्पष्ट करनेमें पण्डितजीका अध्ययन व श्रम सार्थक हुआ है । (५) जहाँ-कहीं अर्थ लगाने में विद्वान् भी भूल करते हैं, विशेषकर उनका स्पष्टीकरण पण्डितजीकी इस टीका हो गया है । अतः स्वाध्यायी एवं विद्वानोंके लिए यह विशेष रूपसे उपयोगी है । (६) अपनी चौंतीस पृष्ठीय प्रस्तावना में ग्रन्थ-परिचयके साथ ही 'सैद्धान्तिक चर्चा' के अन्तर्गत मूल विषयका परिचय तथा अर्थसंदृष्टिका पृथक विवरण दिया गया है जो प्रत्येक स्वाध्यायी के लिए पढ़ना अनिवार्य है । (७) लब्धिसारकी वृत्तिकी रचनाके सम्बन्धमें पण्डितजीकी इस सम्भावनाको नकारा नहीं जा सकता कि हमारे सामने ऐसा कोई तथ्य नहीं है जिससे सिद्धान्तचक्रवर्ती नेमिचन्द्रको इसका रचयिता स्वीकार किया जाए। इतना अवश्य कहा जा सकता है कि इसकी रचनाकी शैली आदिको देखते हुए उसी कालके उक्त भट्टारकोंके सम्मिलित सहयोगसे इसकी रचना की गई होगी। यदि किसी एक भट्टारककी रचना होती तो अन्य इसका उल्लेख अवश्य करते । (८) मूल गाथाओं के सम्पादनमें भी पण्डितजी ने अपने दायित्वका पूर्ण निर्वाह किया है । अत मुद्रित प्रतिमें जहाँ जहाँ संस्कृत शब्द हैं, वहाँ वहाँ पण्डितजीने स्वविवेकशालिनी बुद्धिसे प्राकृत शब्दान्तर वाले पाठोंका अधिग्रहण किया है । मूल गाथाके पाठोंमें किए गये इस परिवर्तनका उल्लेख पण्डितजीने अपने 'प्राक्कथन' में किया है । छन्द तथा भावकी दृष्टिसे इन पाठोंमें अधिकतर 'ओकार' से प्रारम्भ होने वालोंके स्थानपर 'उकार' बहुल हैं । (९) गाथा १६७ की संस्कृत वृत्ति और हिन्दी टीका दोनों नहीं हैं। पण्डितजीने इनकी पूर्ति कर दी है। अर्थ के साथ ही विशेष भी दिया है। इसी प्रकार गाथा ४७५ का उत्तरार्द्ध त्रुटित होनेसे पण्डितप्रवर टोडरमलजी समझ में न आनेसे उसका अर्थ नहीं लिख सके । पं० फूलचन्द्रजीने 'जयधवला' से उक्त अंशकी पूर्ति कर विशेष में सम्पूर्ण गाथाके अर्थका स्पष्टीकरण किया है । इन विशेषताओंको देखकर यह निश्चित ही कहा जा सकता है कि टोकाके सम्पादनमें तथा टीकाटिप्पण लिखने में पण्डितजीने जिस सूझ-बूझका परिचय दिया है, वह यथार्थ में सम्पादन के क्षेत्रमें मानदण्ड स्थापित करने वाला है । वर्तमान अनुसन्धित्सुओं को इससे प्रेरणा ग्रहण कर शोध व अनुसन्धान- जगत्में नये क्षितिजोंको प्रकाशित करनेमें इसका भरपूर उपयोग करना चाहिए । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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