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६७२ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ
'जैसे समुद्रके ऊपर कल्लोल उपजती है, विनशती है, वैसे ही स्व-सम्यग्ज्ञानमयी समुद्र में वह स्वप्नसमयका जगत् उपजता है और जाग्रत समयका जगत् विनशता है, जाग्रत समयका जगत् उपजता है और स्वप्न-समयका जगत् विनशता है।'
इस प्रकारके दृष्टान्तोंसे सम्पूर्ण ग्रन्थ व्याप्त है । एकके बाद एका दृष्टान्तोंका ऐसा संग्रह किया है और कहनेकी शैली भी ऐसी है कि पाठक पढ़ते ही विस्मित हो जाता है। ग्रन्थके अन्तमें अकिंचन भावना है और सबसे अन्त में है-भेद-विज्ञान । भेद-विज्ञानमें पुनः आत्माकी चर्चा की गई है, आत्मज्ञान या सम्यग्ज्ञानको ही आदिसे अन्त तक एक ही शैलीमें निरूपित किया गया है।
ग्रन्थके अनुवादकी यह विशेषता है कि हमें यह पता नहीं चलता है कि यह भाषा पण्डित फूलचन्द्रजीकी है या क्षु० ब्र० धर्मदासजी की है। पण्डित जीने यथास्थान अधिक-से-अधिक ग्रन्थ-लेखकके शब्दोंको ही दुहराया है। शैली भी रूपान्तरणके पश्चात् लेखककी ज्यों-की-त्यों बनी रही है। यह अनुवादकी बहुत बड़ी
। भाषा सरल होनेपर भी संस्कृतनिष्ठ है। लेकिन अनुवाद से पण्डितजीके संस्कृतनिष्ठ होनेका आभास नहीं मिलता, वरन् मूल लेखकके संस्कृतनिष्ठ होनेका प्रतिभास होता है। लेखकने यद्यपि ग्रन्थ गद्यमें लिखा है, किन्तु उसकी कवित्व शक्तिका परिचय भी मिल जाता है। संस्कृतमें भी काव्य रचनाका उनका अच्छा ज्ञान था। इसका प्रमाण उनका लिखा हआ निम्नलिखित श्लोक है
श्रीसिद्धसेनमुनि-पाद-पयोज-भक्त्या,
देवेन्द्रकीर्ति गुरुवाक्य-सुधारसेन । जाता मतिविबुधमण्डनेच्छोः
श्रीधर्मदासमहतो महतो विशुद्धा ॥ विद्वान् लेखकने सभी शास्त्रीय विषयोंको महान आध्यात्मिक ग्रन्थोंका आधार लेकर ही लिखा है। उदाहरणके लिए. "भेदज्ञान-विवरण" का प्रकरण "समयसार" के संवर अधिकारकी प्रथम दो गाथाओंकी आत्मख्याति टीकापर आधारित है । लेखकने कई स्थानोंपर "समयसार-कलश" के श्लोक उद्धृत किए हैं । एक स्थानपर शास्त्रका प्रमाण शब्दोंमें न देकर भावरूपमें ऐसा लिखते हैं-'शास्त्रमें लिखते हैं कि मुनि बाईस परीषह सहन करता है, तेरह प्रकारका चारित्र पालता है, दशलक्षण धर्म पालता है, बारह भावनाओंका चिन्तवन करता है और बारह प्रकारके तप तपता है इत्यादि मुनि करता है। अब यहाँ ऐसा विचार आता है कि मुनि तो एक और परीषह बाईस, चारित्र तेरह प्रकारका, दशलक्षण धर्म व एक धर्मके दशलक्षण, बारह तप और बारह भावना इत्यादिक बहत ? मुनि कुछ और है तथा बाईस परीषह कुछ और हैं, बाईस परीषहका तथा मुनिका अग्नि-उष्णताके समान व सूर्य-प्रकाशके समान मेल नहीं है। " आकाशमें सूर्य है । उसका प्रतिबिम्ब घी-तेलसे तप्त कढ़ाई में पड़ता है। तो भी उस सूर्य के प्रतिबिम्बका नाश होता नहीं ।
काँचके महलमें कुत्ता अपना ही प्रतिबिम्ब देखकर भों-भों करके मरता है । स्फटिककी भीतमें हाथी अपनी ही प्रतिच्छाया देखकर स्वयं ही भीतसे भिड़-भिड़ाकर अपना दाँत स्वयं तोड़कर दुःखी हुआ।
इस प्रकार एकके पश्चात् एक कई दृष्टान्त एक साथ एक ही बातको स्पष्ट करने के लिए दिये गये हैं । इतना ही नहीं इसपर भी यदि किसोको समझमें न आये, तो सम्बन्धित चित्र भो दिए गए हैं। पूरी पुस्तकमें कुल २२ चित्र दिए गए हैं । चित्रके नीचे उस विषयका शीर्षक भी दिया गया है । उदाहरणके लिए, पृ० ६३ पर “षट् मतवाले' शीर्षक एक चित्र है। उसके नीचे लेखकको अपनी भाषामें निम्नांकित तीन पंक्तियाँ हैं"स्वस्वरूपस्वानुभवगम्य सम्यक्ज्ञानमयि स्वभाववस्तुको यथार्थ स्वरूपानुभव समज करिकै षट् जन्मांधवत ये हैं जैन, शिव, विष्णु, बौद्धादिक षट् मतवाले परस्पर विवाद विरोध करते हैं।' इसी प्रकार पृ० १२९ पर दो चित्र
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