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६७० : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ
क्षुल्लकजी प्राकृत, संस्कृत, हिन्दी आदि भाषाओंके तथा सभी अनुयोगोंके अच्छे ज्ञाता थे । संस्कृत और हिन्दी पद्य-रचना पर उनका समान अधिकार था। रस, अलंकार, छन्दशास्त्र, न्यायशास्त्र आदिके ज्ञाता विद्वान् लेखक थे।
___ इस ग्रन्थमें मुख्य रूपसे आत्माके शुद्ध स्वभावका वर्णन किया गया है। क्योंकि वही आत्मज्ञान कराने के लिए प्रकट रूपसे दीपकके समान है। आत्मज्ञानके मायने सम्यग्ज्ञान है। सम्यग्ज्ञानको भेद-विज्ञान भी कहा जाता है । भेद-विज्ञान होनेपर आत्मा स्वयं स्वरूपसे उद्भासित हो जाता है। स्व-प्रकाशक होनेसे पर-प्रकाशकत्व सार्थक हो जाता है। अपनी प्रस्तावनामें ग्रन्थकारने कई महत्वपूर्ण बातें कही हैं जिससे सहज ही अनुमान हो जाता है कि यह अपूर्व शास्त्र है। उनके ही शब्दोंमें-"इस ग्रन्थमें केवल स्व-स्वभाव, सम्यग्ज्ञानानुभव सूचक शब्द-वर्णन है । कोई दृष्टान्तमें तर्क करेगा कि-"सूर्यमें प्रकाश कहाँसे आया ?" उसे स्व-सम्यग्ज्ञानानुभव जो इस ग्रन्थका सार है, उसका लाभ नहीं होगा।"
इससे स्पष्ट है कि यह एक आध्यात्मिक शास्त्र है। अध्यात्मकी भाषा लौकिक भाषासे कुछ विलक्षण होती है। जहाँ भाषा सामान्य होती है, वहाँ अर्थ विशिष्ट होता है। कहीं-न-कहीं शब्द या अर्थमें सांकेतिक विशिष्टता झलकती है । जैसा कि आचार्य कुन्दकुन्ददेवने “अष्टपाहुड" में वर्णन किया है, ठीक वैसा ही यहाँ लिखते हुए कहते हैं-''जिस अवस्थामें स्व-सम्यग्ज्ञान सोता है, उस अवस्थामें तन-मन-धन वचनादिसे तन्मयी यह जगत्-संसार जागता है तथा जिस अवस्थामें यह जगत्-संसार सोता है, उस अवस्थामें स्व-सम्यग्ज्ञान जागता है-यह विरोध तो अनादि, अचल है और वह तो हमसे, तुमसे, इससे या उससे मिटनेका नहीं है, मिटेगा नहीं और मिटा नहीं था ।"
क्षुल्लकजीने यह पुस्तक केवल जैनोंके लिए ही नहीं, सभी पढ़ने योग्य मनुष्योंके लिए लिखी थी। यद्यपि पूरी पुस्तक गद्यमें है, किन्तु स्थान-स्थानपर दोहे-चौपाईमें भी भावोंको समेट कर प्रकट किया है। कहीं लोगोंको यह भ्रम न हो कि यह पुस्तक तो केवल जैनोंके लिए है। अतः स्पष्ट करते हुए वे लिखते है-“यह पुस्तक जैन, विष्णु आदि सभीको पढ़ने योग्य है, किसी विष्णुको यह पुस्तक पढ़नेसे भ्रान्ति हो कि यह पुस्तक जैनोक्त है-उससे कहता हूँ कि इस पुस्तककी भूमिकाके प्रथम प्रारम्भमें ही जो मन्त्र नमस्कार है, उसे पढ़कर भ्रान्तिसे भिन्न होना। स्वभावसूचक जैन, विष्णु आदि आचार्योंके रचे हुए संस्कृत काव्यबद्ध, गाथाबद्ध ग्रन्थ अनेक है, परन्तु यह भी एक छोटी-सी अपूर्व बस्तु है । जिस प्रकार गुड़ खानेसे मिष्टताका अनुभव होता है, उसी प्रकार इस पुस्तकको आदिसे अन्त तक पढ़नेसे पूर्णानुभव होगा। बिना देखे, बिना समझे वस्तुको कुछके बदले कुछ समझता है । वह मूर्ख है । जिसे परमात्माका नाम प्रिय है, उसे यह ग्रन्थ अवश्य प्रिय होगा।"
इस ग्रन्थकी प्रमुख विशेषता है-दृष्टान्तोंका प्रमुखतासे प्रयोग । स्थान-स्थानपर प्रत्येक बातको दृष्टान्त के द्वारा समझाया गया है। लिखनेकी शैली ही दृष्टान्तमूलक है। उदाहरणके लिए, जैसे हरे रंगकी मेंहदीमें लाल रंग है परन्तु वह दिखाई देता नहीं, पत्थरमें अग्नि है परन्तु वह दिखाई देती नहीं, दूधमें घी है परन्तु वह दिखाई देता नहीं तथा फूलमें सुगन्ध है परन्तु वह ( आँखोंसे ) दिखाई देती नहीं, वैसे ही जगतमें स्वसम्यग्ज्ञानमयी जगदीश्वर है परन्तु चर्मनेत्र द्वारा वह दिखाई देता नहीं। पर किसीको सद्गुरुके वचनोपदेश द्वारा तथा काललब्धिके पाक द्वारा स्वभाव-सम्यग्ज्ञानसे तन्मय ( जगदीश्वर ) स्वभाव-सम्यग्ज्ञानानुभवमें दिखाई देता है।"
इस प्रकार एक ही बातको समझानेके लिए विविध दृष्टान्तोंका एक साथ दृष्टान्त-मालाके रूपमें प्रयोग किया गया है । एक उदाहरण है
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