Book Title: Fulchandra Shastri Abhinandan Granth
Author(s): Jyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
Publisher: Siddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi

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Page 715
________________ ६७६ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ गया है । ऐसी हालत में इन कर्मोंको अनुकूल व प्रतिकूल बाह्य सामग्रीके संयोग-वियोग में निमित्त मानना उचित नहीं है । वास्तवमें बाह्य सामग्रीकी प्राप्ति अपने-अपने कारणोंसे होती है। इसकी प्राप्तिका कारण कोई कर्म नहीं है । पण्डितजीने आचार्य वीरसेन स्वामी और आचार्य पूज्यपाद स्वामी दोनोंके मतोंका उल्लेख करते हुए स्पष्ट रूपमें बताया ( आज से ४२ वर्ष पूर्व ) कि तत्त्वतः बाह्य सामग्रीकी प्राप्ति न तो साता - असाताका फल है और न लाभान्तराय आदि कर्मके क्षय व क्षयोपशमका फल है; परन्तु बाह्य सामग्री अपने-अपने कारणों से प्राप्त होती है । अपने-अपने कारण क्या हैं ? इनका भी पण्डितजीने उल्लेख किया है। हम सब जानते हैं कि पैसा कमाना हो, तो व्यापार या उद्योगके साधन जुटाना, रकमको व्याज पर लगाना, सेठ साहुकार तथा व्यापारियों से मित्रता स्थापित करना आदि जितने बाह्य साधन हो सकते हैं और उनमेंसे जितने, जो कुछ हम अपना सकते हैं, उन सभी साधनोंसे बाह्य सामग्री की प्राप्ति होती है । लौकिक व्यवहारका अपलाप नहीं किया जा सकता। यदि बाहरी सामग्री देने वाले एक मात्र कर्म हों, तो औरोंको तो नहीं पर जैनोंको कम-से-कम हाथ पर हाथ रख कर बैठ जाना चाहिये था; कुछ कमाने-धमानेकी क्या आवश्यकता थी ? आगममें व्यवहारकी सर्वथा अवहेलना नहीं है । इसी बातको स्पष्ट करते हुए पण्डितजी आगे लिखते हैं- - इस प्रत्यक्ष, 'यद्यपि जैनदर्शन कर्मको मानता है, तो भी वह यावत् कार्यके प्रति उसे निमित्त नहीं मानता । वह जीवकी विविध अवस्थाएँ - शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छ्वास, वचन और मन इनके प्रति कर्मको निमित्त कारण मानता है । उसके तसे अन्य कार्य अपने-अपने कारणोंसे होते हैं । कर्म उनका कारण नहीं है । उदाहरणार्थ, पुत्र का प्राप्त होना, उसका मर जाना, रोजगार में नफा-नुकसान का होना, दूसरेके द्वारा अपमान या सम्मान किया जाना, अकस्मात् मकानका गिर पड़ना, फसलका नष्ट हो जाना, ऋतुका अनुकूल-प्रतिकूल होना, अकाल या सुकालका पड़ना, रास्ता चलते-चलते अपघातका हो जाना, किसीके ऊपर बिजलीका गिरना, अनुकूल व प्रतिकूल विविध प्रकारके संयोगों व वियोगों का मिलना आदि ऐसे कार्य हैं, जिनका कारण कर्म नहीं है । भ्रम से इन्हें कर्मोंका कार्य समझा जाता है । वास्तवमें जैनधर्ममें भावकी प्रधानता है, कर्मकी नहीं । अतः विद्वान् लेखकने जो मन्तव्य दिया है, वह जैन आगमोंसे ही उद्धृत है जो मान्य है । संक्षेपमें, टीकाकी सभी विशेषताओंके साथ ही विवेचन भी अनुसन्धानपूर्ण तथा आगमकी सम्यक् दृष्टिको दर्शाने वाला है । आगमका सही निर्णय ही हमारे जीवनके लिए और धर्म-पालनके लिए उपयोगी रहा है, है और बना रहेगा । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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