Book Title: Fulchandra Shastri Abhinandan Granth
Author(s): Jyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
Publisher: Siddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Hiroin सिद्धान्ताचार्य पं. फूलचन्द्र शास्त्री आभनन्दन ग्रन्थ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धान्ताचार्य पण्डित फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ संपादक मण्डल डॉ० ज्योतिप्रसाद जैन, लखनऊ पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री, वाराणसी पं० जगन्मोहनलाल शास्त्री, कटनी पं० नाथूलाल शास्त्री, इन्दौर पं० माणिकचन्द्र चवरे, कारंजा प्रो० खुशालचन्द्र गोरावाला, वाराणसी डॉ० देवेन्द्रकुमार जैन, नीमच प्रबन्ध सम्पादक जैन बाबूलाल फागुल्ल प्रकाशक सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ प्रकाशन समिति, वाराणसी Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक सिद्धान्ताचार्य पण्डित फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ प्रकाशन समिति वाराणसी ( उत्तर प्रदेश) प्रकाशन १९८५ मूल्य एक सौ एक रुपया मुद्रक कमल प्रिंटिंग प्रेस भेलूपुर, वाराणसी-१० Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र जी सिद्धान्तशास्त्री Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय विगत तीन-चार दशकोंमें अभिनन्दन करने और अभिनन्दन-ग्रन्थ तथा स्मृति-ग्रन्थोंके प्रकाशनकी परम्पराका विशेष रूपसे प्रचलन हो गया है। आधुनिकमें जागरणके अग्रदूत पू० श्री १०५ गणेश वर्णीजीके अभिनन्दन ग्रंथ प्रकाशन इस धाराका उद्गम है। प्रस्तुत अभिनन्दन-ग्रन्थ उसी शृङ्खलाकी एक कड़ी हैं । प्रकाशनके क्षेत्रमें इसे एक नई विधाका रूप देनेका भी प्रयास है। सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्रजी भारतीय मनीषियोंमें बहुश्रुत विद्वान् है। जो भी एक बार आपके परिचयमें आता है, वह आपसे प्रभावित हुए बिना नहीं रहता। एक सरल व्यक्तित्त्व विद्वत्ताका मान-दण्ड स्थापित करने वाला है, सहज ही इसका निश्चय हो जाता है । साहित्य-साधनाके क्षेत्रमें अर्द्ध शताब्दीसे भी ऊपर समय से आप सतत सम्पादन, अनुवाद तथा ग्रन्थ-रचनामें संलग्न हैं । राष्ट्रीय तथा सामाजिक आन्दोलनोंमें आपकी विशिष्ट भूमिका रही है । आप जागरणके कार्यों में सदा अग्रणी रहे हैं। यही कारण है कि राष्ट्र तथा समाजमें अपना स्थान बनाये हुए हैं । आपकी अपनी अहमियत तथा स्वतन्त्र अस्तित्व है । सम्पूर्ण जैन समाजमें आपका स्थान विशिष्ट है। यद्यपि दो-तीन वर्षोंसे श्रद्धेय पण्डितजीके अभिनन्दनकी चर्चा सुननेमें आ रही थी। किन्तु इस दिशामें न तो कोई योजना ही प्रकाशित हो सकी और न कोई संस्था या समिति ही अग्रसर हो सकी सुयोगकी बात थी कि सिद्धान्त शास्त्रीजीके जयधवला प्रकाशनार्थ काशी आनेपर उनके परम अनुरागी महावीर प्रेस और सेठ भगवानदास परिवारको करणानुयोगके एकमात्र अधिकारी पण्डितजीके प्रति 'गुणिषु प्रमोदं रूपसे आयोजन न होना खटका । इस परिवारने भा० दि० जैन संघके प्राक् प्रधानमंत्री प्रो० खुशालचन्द्रजी गोरावालाकी सहमति से योजनाबद्ध कार्य चलाया और एक समिति गठित की गई। अभिनन्दन ग्रन्थके सम्पादक मण्डलमें डॉ० ज्योतिप्रसाद जैन, सिद्धान्ताचार्य पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री, पं० जगन्मोहनलाल शास्त्री, पं० नाथूलाल शास्त्री, ब्र० माणिकचन्द चवरे, प्रो० खुशालचन्द्र गोरावाला, डॉ० देवेन्द्रकुमार शास्त्री का गठन किया गया था । प्रस्तावित योजनाका प्रारूप प्रकाशित हो चुका था। जैन पत्र-पत्रिकाओंमें भी सूचना तथा विवरण प्रकाशित किया गया। अभिनन्दन-ग्रन्थके सम्पादनमें डॉ० देवेन्द्रकुमार शास्त्रीका सक्रिय सहयोग रहा। जिनशासनके सफल प्रभावक एवं सच्चे संपोषक श्रद्धेय पण्डितजीके प्रति पू० एलाचार्य मुनिश्री विद्यानन्दजीकी मंगल कामनासे बम्बई वालोंने भी आर्थिक सहयोग प्रदानकर अपनी भक्ति-भावना प्रदर्शित की है। समितिका यह अभिमत है कि विद्वत्ताका सम्यक् मूल्यांकन व सम्मान ही सच्ची श्रुत-सेवा है। हम न्वित इसलिये भी है कि प्र० एलाचार्य महाराज मनिश्री विद्यानन्दजीका शभ आशीर्वाद हमें मिला है। उनकी मंगल कामनाके परिणामस्वरूप हम जिन-सरस्वती-पुत्रको यह पवित्र अर्घ्य समर्पित कर सके हैं। ग्रन्थ प्रकाशन तथा समारोहमें महाराजा बहादुर सिंह, श्री बाबूलाल पटौदी, श्री रतनलालजी पाटनी, पं० हीरालालजी गंगवाल, सुरेश पाण्डेयजी आदिके सहयोगके लिए भी हम आभारी हैं । हम उन सभी सहयोगियों, दातारों तथा लेखकोंके आभारी हैं जिन्होंने अभिनन्दन-ग्रन्थ तथा अभिनन्दन के इस शुभ कार्यमें तन, मन और धनसे सहयोग प्रदान किया है। अन्तमें, यह अभिनन्दन ग्रन्थ पाठकोंके लिए ही नहीं, विद्वद्वर्ग, अध्येताओं तथा अनुसन्धित्सुओं एवं समाजके प्रगतिशील विचारकोंके लिए भी सारवान सिद्ध होगा। सेठ डालचन्द्र जैन बाबूलाल जैन फागुल्ल अध्यक्ष मंत्री Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय भारतीय संस्कृति, समाज और साहित्य इन तीनोंकी मूल चेतना एक है। वैदिक तथा श्रमण, ऋषि और मुनि, बार्हत और आर्हत जैसे भेद केवल बाह्य रूपोंको विविध दृष्टिकोणोंसे समझनेके लिए है। मूलतः उन सबमें सांस्कृतिक प्रवाह एक है । हमारी संस्कृति जिस अहिंसाके धरातल पर सुस्थित है, वह अविचल है । इतिहासकी घटनाओंमें ऐसी परिस्थितियाँ भले ही उत्पन्न होती रही हो, किन्तु संस्कृतिका मूल स्वरूप सदा अक्षुण्ण रहा है। शत-सहस्र शताब्दियोंसे अनादि, अनिधन किंवा सनातन परम्परागत श्रुतकी गरिमासे मण्डित सारस्वत आचार्यों, मेधावी श्रुतनिष्ठ साधकों, साधुओं एवं पण्डितोंसे यह परम्परा सदा प्रवर्तमान रही है। आज हमारे देशमें जो भी विद्वान् दृष्टिगोचर हो रहे हैं वे श्रुतदेवीके सच्चे उपासक हैं। उनकी विद्वत्ता साधनाके आयामों में ही परिलक्षित होती है । वे किसी जाति तथा समाजमें उत्पन्न होनेपर भी मानवीय चेतनाके अखण्ड रूप हैं । उनकी विलक्षणता मानव जातिका सुन्दर इतिहास है । भारतीय संस्कृति और उसके इतिहासकी मूल धारासे जैनधर्म उसी प्रकार संपक्त है, जैसे दूधमें मिठास । अतः भारतीय संस्कृतिके उन्नयनमें जैन विद्वानों तथा पण्डितोंका महत्त्वपूर्ण अवदान रहा है। जिन तपःपूत साधकोंने अपनी साधनाके द्वारा आत्मनिष्ठा, गुरुता तथा आर्दश मानकको परम्परागत विशेषताओंके रूपमें उजागर कर नवल धवल आयामोंमें विभिन्न पक्षोंको समायोजित कर उदात्त धरातल पर प्रतिष्ठित तथा प्रकाशित किया, उन सारस्वत विद्वानोंमें पण्डितजीका विशिष्ट स्थान है। भारतीय साहित्यके इतिहासमें, जैनदर्शन तथा तत्त्वज्ञान के मनीषियोंमें उनका नाम उल्लेखनीय रहेगा। प्राच्य विद्याके क्षेत्रमें जर्मन विद्वानोंने जो उल्लेखनीय कार्य किया, उनसे कम महत्त्वका काम पण्डित जीने नहीं किया। जैनधर्मकी मूल आगम श्रुतको प्रकाशित करने वाले शुद्ध पाठोंसे समन्वित तथा आधुनिक सम्पादन विधिसे सम्पादित सिद्धान्त ग्रन्थोंका प्रकाशन अपने आपमें महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक घटना है। इस महान् कार्यमें पण्डितजीका सहयोग रहा है। प्राकृत भाषामें रचित इन महान् सैद्धान्तिक ग्रन्थोंका सम्पादन तथा हिन्दी अनुवाद करना महती साधना एवं दीर्घकालीक श्रुताभ्यासका परिणाम है। साधारण लेखक तथा सामान्य पाठककी पहुँच उन तक नहीं है। आगम तथा सिद्धान्त ग्रन्थोंका जिनका विशिष्ट अध्ययन है, वे ही इनका वाचन कर फलश्रुति उपलब्ध कर सकते हैं। आगमके आजीवन अभ्यासी पं० फलचन्द्रजीकी महती श्रुत-साधनाका ही यह परिणाम है कि “षखण्डागम" का रहस्य हिन्दी अनुवादके माध्यमसे पूर्व-पश्चिम जगतके समक्ष स्पष्ट हो सका है । बीसवीं शताब्दीकी पण्डित-परम्परामें आगमका भाव खोलने में सक्षम विद्वान के रूप में सदा स्मरणीय रहेंगे। दिगम्बर जैन पण्डितोंकी परम्परामें वर्तमान पण्डित कैलाशचन्द्रजी, पण्डित फुलचन्द्रजी तथा पण्डित जगन्मोहनलालजी ऐसे सुमेरु-माणिक्य हैं जो सम्यक् श्रद्धान, ज्ञान और चारित्रके प्रतीक हैं। वीतराग धर्म, दर्शन, साहित्य एवं तीर्थमें इनकी श्रद्धा अगाढ़ एवं अविचल है । ये स्वयं जीवन्त तीर्थके समान है। इन सभी विद्वानोंने अपने गम्भीर अध्ययन, लेखन, सम्पादन, प्रवचन, अध्यापन, शोध तथा अनुसन्धान-कार्य, संस्थानिर्माण एवं संचालन, पत्रकारिता आदि साहित्यिक प्रवृत्तियोंसे लेकर सामाजिक, सांस्कृतिक तथा आध्यात्मिक सभी प्रवृत्तियोंमें विशिष्ट सहयोग देकर समाजमें स्थायी कीर्तिमान स्थापित किया है। आदरणीय पण्डितजी इन सभी कार्योंमें अग्रणी रहे हैं । समाजको समयपर नवीन दिशाकी ओर उन्मुख करनेमें आपकी सूझ-बूझ विलक्षण तथा प्रशंसनीय रही है। किन्तु आप स्वयं समाजके आन्तरिक कलहों, विवादों और समस्याओंसे दूर रहे है । आपके व्यक्तित्वमें यह विरोधाभास भासित होता रहा है । वास्तवमें आपका जीवन विरोधाभासोंसे | Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डॉ० ज्योतिप्रसाद जैन पं० जगन्मोहनलाल शास्त्री सम्पादक मण्डल डॉ० देवेन्द्रकुमार जैन पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री पं० नाथूलाल शास्त्री Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय : ५ भरपूर रहा है। सामाजिक अवमानना, संघर्ष, यातना, अवपीडन सभी कुछ आपने सहा, परन्तु समाजको सम्यक् दिशाका निर्देश करनेमें आप कभी पीछे नहीं रहे । इस अभिनन्दन ग्रन्थकी मूलभूत विशेषता यह है कि यह तथ्यपरक तथा गुणात्मक है । इसका मूल प्रारूप वस्तुवादी समीक्षात्मक रहा है। प्रसंगतः व्यक्तित्व और कर्तुं स्वका सरलतम विवरण भी संयोजित करना पड़ा है। प्रशंसात्मक लेखोंकी भरतीसे तथा जैनधर्म एवं उसकी विभिन्न विधाओंपर विविध विद्वानोंके लेखोंके आकलनसे इस ग्रन्थको मुक्त रखा गया है। दूसरे शब्दोंमें ग्रन्थका कलेवर बढ़ानेकी दृष्टिसे हमने किसी प्रकारकी सामग्रीका संकलन नहीं किया। आदरणीय पण्डितजीके अद्यावधि प्रकाशित तथा अप्रकाशित लेखोंका ही मुख्य रूपसे संकलन किया गया है। उनके व्यक्तित्वकी सम्पूर्ण छविको अंकित करने हेतु उनका जीवनपरिचय, भेंट-वार्ता तथा रेखा-चित्रका समावेश किया गया है । " कृतित्व समीक्षा " के अन्तर्गत पण्डितजी की मौलिक, सम्पादित एवं अनूदित कृतियों के सम्बन्धमें विभिन्न विद्वानोंके समीक्षात्मक लेख दिये गये हैं । ग्रन्थ के अन्तर्गत संयोजित विषयवार प्रत्येक इकाईको हमने एक स्वतन्त्र खण्डके रूपमें प्रस्तुत किया है । अतः यह ग्रन्थ पाँच खण्डों में विभाजित है । प्रथम खण्डमें इस देश के विभिन्न क्षेत्रोंमें कार्यरत समाजसेवियों, सहपाठियों, मित्रों, हितैषियों, धर्मप्रेमियों, शिष्यों तथा भक्तोंकी स्नेहासिक्त साधु-शुभ भावना, शुभ कामना, श्रद्धा भावना एवं संस्मरणोंका संकलन किया गया है । यद्यपि हम व्यक्तिगत पत्र लिखकर आदरणीय पण्डितजी के सम्पर्क में आने वाले सभी व्यक्तियोंसे सम्पर्क स्थापित नहीं कर सके हैं, क्योंकि पहले हमारी परिकल्पनामें यह प्रारूप नहीं था । अनन्तर रूप-रेखा बननेके पश्चात् समयाभावके कारण न तो हम सभी विद्वानोंसे लम्बे समयतक पत्राचार कर पाये और न पण्डितजीके जीवनसे सम्बन्धित पूरा विवरण आकलित कर सके हैं । कम समय और सीमित साधनोंमें हम जैसा जो कुछ कर पाये हैं, वह पाठकोंके सम्मुख है । सुधी पाठक ही इसका समुचित मूल्यांकन कर सकेंगे। , द्वितीय खण्डमें जीवन-परिचय भेंटवार्ता तथा रेखाचित्र आकलित हैं। से व्यक्तित्वका एक चित्र उभारनेका प्रयत्न किया गया है। वर्तमान साहित्य में कृतित्व अपूर्ण माना जाता है। अतः विभिन्न आयाम में व्यक्तित्व तथा कृतित्वका के रूपमें संयोजित किया गया है। तृतीय लण्ड में आदरणीय पण्डितजीका व्यक्तित्व उभर कर सामने आया है। विभिन्न विद्वानों तथा शुभचिन्तकों द्वारा लिखे संस्मरणात्मक लेख तथा जीवनकी घटनाओंका समावेश किया है। इन विविध विधाओंके माध्यम व्यक्तिके व्यक्तित्वके बिना अखण्ड परिचय सम्पूर्ण ग्रन्थ चतुर्थखण्ड में पण्डितजीके पच्चीस लेखोंका संकलन है। इसमें धर्म और दर्शनसे सम्बन्धित कई महत्व पूर्ण लेख संकलित हैं । कुछ लेखोंसे तो विद्वत् जगत् भी अनभिज्ञ हैं उदाहरण के लिए, "भावमन और द्रव्यमन " एक ऐसा लेख है जो लगभग अर्द्ध शताब्दी पूर्व "शान्ति-सिन्धु " में प्रकाशित हुआ था। सभी लेख गम्भीर तथा मर्म पूर्ण हैं। भाषा सरल तथा बोधगम्य है वर्षों पूर्व लिखे गये ये लेख आज भी ताजे हैं। इनको पढ़कर सामान्य पाठक भी स्फूर्तिका अनुभव कर सकता है। इतना ही नहीं, इतिहास तथा पुरातत्त्व" विषयक लेखोंमें कई नवीन तथा शोधपूर्ण हैं जो नई दृष्टि प्रदान करते हैं । अनुसन्धान तथा शोधपरक लेखोंकी अपनी विशेषता है। पंचम खण्डमें आदरणीय पण्डितजीकी मौलिक सम्पादित तथा अनूदित कृतियों पर विभिन्न विद्वानोंके समीक्षात्मक लेख है। इन लेखोंसे जहां पण्डितजीको साहित्य साधनाका बोध होता है वहीं विषयका परिचय Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ प्राप्त होता है तथा महामहिम व्यक्तित्व उभरकर छविरूपमें अंकित होता है व्यक्तित्वके स्पष्ट अवबोधके लिए इस प्रकारके समालोचनात्मक लेखोंका होना आवश्यक था । महावीर प्रेस के व्यवस्थापक तथा अभिनन्दन ग्रन्थमें आदिसे अन्त तक रुचि लेकर इसे सुरुचि सम्पन्न बनाने में जिनका अथक प्रयत्न तथा विशिष्ट योगदान है, उन सम्मान्य बाबूलालजी फागुल्लके प्रति आभा व्यक्त करते हैं। अन्तमें उन साधु-सन्तों, गुरुजनों, सम्मान्य विद्वानोंके प्रति आभारी हैं जिन्होंने आदरणीय पण्डितजी के प्रति शुभकामना प्रकट कर जीवन तथा कृतिश्वके सम्बन्धमें यथासमय अपने विचार लेखबद्ध कर भेजनेकी कृपा की सुधी धर्मप्रेमियोंके प्रति भी आभार व्यक्त करते हैं। - डॉ० देवेन्द्रकुमार शास्त्री मौलिक रचनाएँ १. जैनधर्म और वर्ण व्यवस्था - भारतवर्षीय दि० जैन परिषद् पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली, १९४५ २. विश्वशान्ति और अपरिग्रहवाद - गणेशप्रसाद वर्णी जैन ग्रन्थमाला, वाराणसी, १९४९ ३. जैनतत्त्वमीमांसा - अशोक प्रकाशन मन्दिर, वाराणसी, १९६०, ( पृ० ३१५ ) ( संशोधित तथा परिवर्द्धित संस्करण, पृ० ४२२ अशोक प्रकाशन मन्दिर, वाराणसी, १९७८ ) ४. वर्ण, जाति और धर्म - भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, वाराणसी, १९६३ सम्पादित ग्रन्थ १. प्रमेयरत्नमाला - चौखम्बा संस्कृत सीरिज, बनारस, १९२८ ई० २. आलापपद्धति - श्री सकल दि० जैन पंचान, नातेपुते ( सोलापुर ), १९३४ ई० ३. धवला खण्ड १, भा० १, पुस्तक १, जैन साहित्य उद्धारक फण्ड, अमरावती, १९३९ " 11 ४. धवला खण्ड १, भा० २, पुस्तक ३ १९४१ १९४२ ५. धवला खण्ड १, भा० ३, ४, ५ पुस्तक ४, ६. जवघवला १ श्री भारतवर्षीय दि० जैन संघ, चौरासी, मथुरा, १९४४ 73 71 १९४८ ७. जयघवला २ ८. सप्ततिकाप्रकरण (हिन्दी अनुवाद सहित ) आत्मानन्द जैन प्रचारक पुस्तकालय, आगरा, १९४८ ९. धवला, पुस्तक ९ – जैन साहित्य उद्धारक फंड, कार्यालय, अमरावती, १९४९ १०. तत्वार्थ सूत्र ( हिन्दी अनुवाद भाष्य सहित ) गणेशप्रसाद वर्णी जैन ग्रन्थमाला, वाराणसी, १९५०, ११. पंचाध्यायी ( हिन्दी अनुवाद ), गणेशप्रसाद वर्णी जैन ग्रन्थमाला, वाराणसी, १९५० १२. महाबन्ध, पुस्तक २, - भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, फरवरी, १९५३ 11 33 १३. महाबन्ध, पुस्तक ३, १९५४ १४. धवला, पुस्तक १० - जैन साहित्य उद्धारक फंड, कार्यालय, अमरावती, १९५४ 13 "" १५. धवला, पुस्तक ११ १६. धवला, पुस्तक १२ १९५५ १९५५ १९५५ १७. घवला, पुस्तक १३ - १८. जयधवला ३ श्री भारतवर्षीय दि० जैन संघ, चौरासी, मथुरा, १९५५ 33 " 11 21 Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय : ७ " ' १९५६ "' १९५७ १९. जयधवला, पुस्तक ४-श्री भारतवर्षीय दि० जैन संघ, चौरासी, मथुरा, १९५६ । २०. जयधवला, पुस्तक ५- " ११. महाबन्ध, पुस्तक ४,-भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, काशी, १९५६ २२. महाबन्ध, पुस्तक ५ -" २३. महाबन्ध, पुस्तक ६-" २४. ज्ञानपीठ पूजाञ्जलि-भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, १९५७, द्वि सं० १९६९, तृ० सं० १९७७, च० सं० १९८२ २५. धवला, पुस्तक १४-जैन साहित्य उद्धारक फंड, कार्यालय, विदिशा, १९५७ २६. धवला पुस्तक १५-" , १९५७ २७ धवला, पुस्तक १६-" , १९५८ २८. जयधवला, पुस्तक ६-श्री भारतवर्षीय दि० जैन संघ, चौरासी, मथुरा, १९५८ २९. जयधवला, पुस्तक ७-" " , १९५८ ३०. महाबन्ध, पुस्तक ७-भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, काशी, १९५८ ३१. जयधवला. पुस्तक ८-श्री भारतवर्षीय दि० जैन संघ, चौरासी, मथुरा, १९६१ ३२. जयघवला, पुस्तक ९-" , १९६३ ३३. समयसारकलश (भावार्थ सहित)-श्री दि० जैन स्वाध्याय मन्दिर ट्रस्ट, सोनगढ़, १९६४ ३४. कानजी स्वामी अभिनन्दन ग्रन्थ, दि० जैन मुमुक्षु मण्डल, बम्बई १९६४ ३५. खानिया तत्व-चर्चा, पुस्तक १-आचार्यकल्प पं० श्री टोडरमल ग्रन्थमाला, जयपुर १९६७ ३६. खानिया तत्त्व-चर्चा, पुस्तक २-" " जयपुर १९६७ ३७. जयघवला, पुस्तक १०-श्री भारतवर्षीय दि० जैन संघ, चौरासी, मथुरा, १९६७ ३८. जयधवला, पुस्तक ११-" , १९६८ ३९. सम्यग्ज्ञान-दीपिका (सम्पादन व अनुवाद)-श्री दि० जैन मुमुक्षु मण्डल, भावनगर १९७०, वी०नि० सं० २४९६ ४०. जयधवला, पुस्तक १२-श्री भारतवर्षीय दि० त्रैन संघ, चौरासी, मथुरा, १९७१ ४१. जयधवला, पुस्तक १३-" ४२. धवला, पुस्तक १-जीवराज जैन ग्रन्थमाला, संस्कृत संरक्षक संघ, सोलापुर, १९७३ ४३. धवला, पुस्तक २-" , १९७६ ४४. लब्धिसार-क्षपणासार-श्रीमद् राजचन्द्र आश्रम, अगास, १९८० ४५. आत्मानुशासन-श्री गणेशवर्णी दि. जैन संस्थान, वाराणसी, १९८३ ४६. जयधवला, पुस्तक १४–भा० दि० जैन संघ, चौरासी, मथुरा, १९८३ ४७. जयधवला, पुस्तक १५ , १९८४ ४८. धवला, पुस्तक १ (पुनःसंशोधन व सम्पादन)-जीवराज जैन ग्रन्थमाला, सोलापुर १९८० ४९. धवला, पुस्तक २-" " " , १९८१ ५०. धवला, पुस्तक ३-" , १९८३ ५१. धवला पुस्तक ४-(खण्ड १, पुस्तक ४, भा० ३-४-५) १९८४ " १९७२ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ प्रकाशन समिति के पदाधिकारी संरक्षक परामर्शदाता मण्डल तथा सदस्य श्री पंडिताचार्य चारुकीर्ति स्वामीजी, श्रवणबेलगोला श्री पं० धन्यकुमार भोरे, कारंजा ब्र० पं० सुमति शाह, शोलापुर पं० पन्नालाल साहित्याचार्य, सागर श्रीधर्मगुरु वीरेन्द्र हेगड़े, धर्मस्थल डॉ० दरबारीलाल कोठिया, वाराणसी साहू श्रेयांसप्रसाद जैन, बम्बई डॉ० राजकुमार जैन साहित्याचार्य, आगरा सेठ लालचन्द्र जैन, बम्बई श्री यशपाल जैन, दिल्ली सेठ भगवानदास जैन, सागर श्री लक्ष्मीचन्द्र जैन, दिल्ली सेठ देवकुमार सिंह, इन्दौर डॉ० लालबहादुर शास्त्री, दिल्ली श्रीमती गजाबेन, बाहुबली डॉ० कस्तूरचन्द्र कासलीवाल, जयपुर श्रीमती चन्द्रावती जैन, इन्दौर डॉ. राजाराम जैन, आरा श्रीमती सरयू दफ्तरी, बम्बई श्री प्रकाश हितैषी, दिल्ली श्री रतनलाल गंगवाल, कलकत्ता डा० हरीन्द्रभूषण, उज्जैन श्री महाराजा बहादुर सिंह, इन्दौर पं० हीरालाल गंगवाल, इन्दौर साहू अशोककुमार जैन, दिल्ली डाँ० सागरमल जैन, वाराणसी साहू रमेशचन्द्रजी जैन, दिल्ली पं० माणिकचन्द्र भिसीकर, बाहुबली अध्यक्ष प्रो. उदयचन्द्र जैन, वाराणसी सेठ डालचन्द्र जैन, सागर डॉ० फूलचन्द्र प्रेमी, वाराणसी उपाध्यक्ष डॉ० कमलेशकुमार जैन, वाराणसी श्री बाबूलाल पटौदी, इन्दौर डॉ. जयकुमार जैन, मुजफ्फरनगर श्री नेमिचन्द्र पाटनी, जयपुर डॉ. रमेशचन्द्र जैन, बिजनौर श्रीमती सेठानी नर्मदाबाई, डोंगरगढ़ श्री नरेन्द्र विद्यार्थी, छत्तरपुर श्री हरिश्चन्द्र जैन, जबलपुर । पं० भंवरलाल न्यायतीर्थ, जयपुर स० सि० धन्यकुमार जैन, कटनी डॉ० लालचन्द्र जैन, वैशाली श्री राजमल जैन, भोपाल डाँ० सुदर्शनलाल जैन, वाराणसी श्रीमंत सेठ ऋषभकुमार जैन, खुरई पं० नरेन्द्र कुमार भिसीकर, शोलापुर श्री इन्द्रजीतजी जैन, एडवोकेट, कानपुर श्रीयुगलकिशोर 'युगल', कोटा मंत्री बाबू महावीरप्रसाद एडवोकेट, हिसार बाबूलाल जैन फागुल्ल, वाराणसी श्री भगतराम जैन, दिल्ली संपादक मण्डल श्री ज्ञानचन्द्र खिन्दूका, जयपुर डॉ० ज्योतिप्रसाद जैन, लखनऊ श्री गुलशनराय जैन, मुजफ्फरनगर पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री, वाराणसी श्री सुकुमारचन्द्र जैन, मेरठ पं० जगन्मोहनलाल शास्त्री, कटनी श्री अभयकुमार जैन, बम्बई पं० नाथूलाल शास्त्री, इन्दौर श्री सुरेश पाण्डे, इन्दौर पं० माणिकचन्द्र चवरे, कारंजा श्री गुलाबचन्द्र दर्शनाचार्य, जबलपुर प्रो० खुशालचन्द्र गोरावाला, वाराणसी डा० एस० के० जैन, दिल्ली डॉ. देवेन्द्रकुमार जैन, नीमच श्री सुमतप्रसाद जैन, दिल्ली Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची खण्ड : १ : शुभाशीर्वचन • अभिवादन • संस्मरण शुभाशीर्वचन सिद्धान्तचक्रवर्ती एलाचार्य विद्यानन्द मुनि बहुमुखी प्रतिभाके धनी भट्टारक चारुकीर्ति स्वामीजी मंगल कामना पण्डिता ब्र० सुमतीबाई शाह जैन-कर्म सिद्धान्तके प्रौढ़ विद्वान् पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री अध्यात्म विद्याके प्रमुख वेत्ता पण्डित नाथूलाल शास्त्री आगम साहित्यके निष्काम सेवक पं० कमलकुमार जैन, व्याकरणतीर्थं जैन समाज उपकृत है श्री अक्षयकुमार जैन मेरे प्रेरक पं० बालचन्द्र शास्त्री अपूर्व श्रुताराधक पं० पन्नालाल साहित्याचार्य कर्मठ स्वाभिमानी विद्वान् डॉ० भागचन्द्र जैन भास्कर वक्तृत्व-कृतित्वके स्वयंभू पं० कमलकुमार जैन शास्त्री 'कुमुद' फूलचन्द्र ‘पुष्पेन्दु' शास्त्री भूली विसरी यादें पं० भैयालाल शास्त्री सादगी और सरलताकी जीवन्तमूर्ति श्री बालचन्द्र जैन, एम० ए० मेरे प्रणाम श्री बाबुलाल जैन गोयलीय एक नमन मेरा भी श्री नरेन्द्र प्रकाश जैन सहृदय पंडितजी पं० कुंजीलाल जैन मेरे श्रद्धा सुमन पं० प्रकाश हितैषी विविध विशेषताओंके धनी पं० अमृतलाल जैन जैनागम उपासक श्री बाबूभाई चुन्नीलाल मेहता संचारिणी ज्ञानशिखा डॉ० हरीन्द्रभूषण जैन सरस्वतीके वरद पुत्र डॉ० हुकमचन्द भारिल्ल आगमज्ञ लौहपुरुष : पण्डितजी श्री नेमिचन्द पाटनी प्रामाणिक व्यक्तित्व कृषिपण्डित श्रीमंत सेठ ऋषभकुमार पूज्य गुरुवर्य ! तुम्हें प्रणाम श्री जवाहरलाल-मोतीलाल जैन वाङ्मयके प्रामाणिक विद्वान् श्री इन्द्रजीत जैन एडवोकेट जैन सिद्धान्तके महान संरक्षक श्री मिश्रीलाल पाटनी कृतज्ञता-ज्ञापन पं० पद्मचन्द्र शास्त्री शुभ-कामना श्री सुबोधकुमार जैन अद्भुत व्यक्तित्वके धनी श्री सत्यन्धर कुमार सेठी सरस्वती पुत्र श्री चन्दनमल 'चाँद' Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० : सिद्धान्ताचार्य पं० फलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ अद्भुत ज्ञानके धनी श्री भगतराम जैन युगचेतनाके प्रतीक डॉ. जयकुमार जैन अगाघ वैदुष्यके धनी प्रो० उदयचन्द्र जैन अद्वितीय साहित्य सेवी सवाई सिंघई सेठ हरिश्चन्द्र, सुमेरचन्द्र जैन श्रुत देवता सदृश व्यक्तित्व पं० ज्ञानचन्द्र जैन 'स्वतन्त्र' सरलताकी प्रतिमूर्ति डॉ० सुदर्शनलाल जैन मेरा उन्हें शत शत प्रणाम डॉ० रमेशचन्द जैन अनुपम विद्वत्ताके धनी डॉ० फूलचन्द्र जैन प्रेमी तीर्थतुल्य वन्दनीय/अभिनव टोडरमल डॉ० कमलेशकुमार जैन क्रान्तिकारी व्यक्तित्व पं० कपूरचन्द वरैया अभिनन्दनीयका अभिनन्दन-बनाम जैनसिद्धान्तका अभिनन्दन श्री कमलकुमार जैन आगम निष्ठ मनीषी डॉ० श्रेयांसकुमार जैन सादगी एवं सच्चरित्रताकी साक्षात् मूर्ति श्री सुरेन्द्रकुमार जैन सौंरया सादा जीवन उच्च विचारके धनी श्री शशिप्रभा जैन शशाङ्क . मेरे पितृतुल्य गुरुजी श्रीमती मुन्नी जैन सरलता और सहजताके स्रोतोत्तर श्री लक्ष्मीचन्द्र 'सरोज' बीनाके रत्न श्री कुन्दनलाल जैन पुण्यपुरुष पं० विमलकुमार जैन सौंरया सातिशय प्रज्ञाके धनी श्री राजमल जैन आत्मबलके धनी श्री कपूरचन्द भाईजी विचक्षण प्रतिभावान् सौ० पोसेरिया चन्द्रिका जैन प्रेरणास्पद व्यक्तित्व श्री दीनानाथ तिवारी देशभक्त पण्डितजी पं० दरबारीलाल जैन पितृतुल्य व्यक्तित्व श्री मुन्नालाल जैन आदरणीय गुरुजी श्री भैयालाल पुरोहित मेरी डायरीके पृष्ठोंमें सिद्धान्तशास्त्रीजी राजवैद्य पण्डित भैया शास्त्री समाज सेवामें अग्रणी श्री पूरनचन्द्र जैन किया सुनहरे शब्दोंमें पण्डित रूप चरितार्थ श्री कल्याणकुमार 'शशि' शत शत अभिनन्दन है हास्यकवि हजारीलाल जैन 'काका' हों शतायु काटें भव बंधन वैद्य कपूरचन्द्र विद्यार्थी खण्ड:२:जीवन-परिचय . भेंटवार्ता.रेखाचित्र मेरे पिताजी श्रीमती नीरजा जैन, M.Sc. भेट वार्ता १-२ डॉ० नेमीचन्द्र जैन आस्थाके शिखर डॉ० देवेन्द्रकुमार जैन WW००० m Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची : ११ खण्ड : ३ : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व पूज्य वर्णीजीकी दृष्टिमें पण्डितजी पं० रमेशचन्द्र बांझल पं० टोडरमलके चरण चिह्नोंपर पं० जगन्मोहनलाल शास्त्री जैन भारतीके ओजस्वी सपूत डॉ० ज्योतिप्रसाद जैन विरल विभूति श्री यशपाल जैन उदार व्यक्तित्वके धनी डॉ० लालबहादुर शास्त्री वर्तमान दि० जैन पाण्डित्यकी प्रमुख कड़ी प्रो० खुशालचन्द्र गोरावाला बहु आयामी विद्वत्ता डॉ० दरबारीलाल कोठिया, न्यायाचार्य समाजके ज्याति पुंज साहु श्रेयांस प्रसाद जैन मेरे श्रद्धा सुमन श्रीमती चंचलाबेन शाह प्रेरक व्यक्तित्व श्रीमती सरयू दफ्तरी मेरे दृष्टिदाता विद्यागुरु श्रीमती गजान जैन सिद्धान्तके प्रखर विद्वान् भैया राजकुमार सिंह प्राचीन भारतीय परम्पराके मनीषी श्री महाराजा बहादुरसिंह श्रमण-संस्कृतिके उन्नायक श्री बाबूलाल पाटौदी समाजके गौरव श्रीमंत सेठ भगवानदास जैन समाजकी विभूति श्री सेठ डालचन्द्र जैन जैन सिद्धान्तके मर्मज्ञ पं० भँवरलाल न्यायतीर्थ जिनके प्रति मेरे मनमें सबसे अधिक आदरके भाव हैं श्री बलभद्र जैन जैन सिद्धान्तके पारगामी विद्वान् डॉ० कस्तूरचन्द कासलीवाल बुन्देलखण्डकी माटीसे गढ़ा गया श्री नीरज जैन एक मेधावी व्यक्तित्व स० सि० धन्यकुमार जैन अचिंत्यनिष्ठा और सतत् लगनकी विभूति श्रीमंत सेठ राजेन्द्रकुमार जैन शत्-शत् नमन श्रीमती नर्मदा बाई जैन बीसवीं सदीका चिरयुवा मनस्वी पुष्पदन्त भूतबलि प्रो० राजाराम जैन सुधारवादी प्रखर विद्वान् नेता पं० यतीन्द्रकुमार वैद्यराज निर्भीक व्यक्तित्व श्री सुजानमल जैन स्वाभिमानी व्यक्तित्व श्री राजमल पवैया १०२ १०३ १०४ खण्ड : ४: साहित्य सर्जना धर्म और दर्शन १. जैनधर्म २. हिंसा और अहिंसा ३. विश्वशान्ति और अपरिग्रहवाद ( अप्रकाशित) ('ज्ञानोदय', मार्च १९५१) ( श्री गणेशप्रसाद वर्णी ग्रन्थमाला प्रकाशन वी०नि० २४७३) १०७ ११२ ११८ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ ४. जैनधर्म और वर्ण व्यवस्था ५. देव- पूजा ६. गुरूपास्ति ७. स्वाध्याय ८. संयम ९. तप १०. दान ११. सम्यग्दर्शन १२. स्वावलम्बी जीवनका सच्चा मार्ग १३. साधु और उनकी चर्या १४. मुनि और श्रावक धर्म १५. जैनदर्शनका हार्द १६. कार्य-कारणभाव - मीमांसा १७. अनेकान्त और स्याद्वाद १८. भावमन सम्बन्धी वाद और खुलासा १९. भावमन और द्रव्यमन २०. महाबंध : एक अध्ययन २१. बन्धका प्रमुख कारण : मिथ्यात्व २२. श्रमण परम्पराका दर्शन २३. केवली जिन कवलाहार नहीं लेते २४. षट्कारक -व्यवस्था २५. स्वभाव-परभाव-विचार इतिहास तथा पुरातत्त्व १. श्रुतधर - परिचय २. सम्यक् श्रुत परिचय ३. अंगश्रुतके परिप्रेक्ष्यमें पूर्वगत श्रुत ४. ऐतिहासिक आनुपूर्वी में कर्म - साहित्य ५. पौरपाट ( परवार ) अन्वय ६. सिद्धक्षेत्र कुंडलगिरि ७. अहारक्षेत्र : एक अध्ययन ८. श्री जिन तारणतरण और उनकी कृतियाँ ९. अतिशय क्षेत्र निसईजी अनुसन्धान तथा शोधपरक १. कषायप्राभृत दिगम्बर आचार्योंकी ही कृति है २. तत्त्वार्थसूत्र और उसकी टीकाएँ ( भा० दि० जैन परिषद् पब्लिशिंग हाऊस, दिल्ली १९४५ ) ( 'शान्ति सिन्धु', फरवरी १९३७ ) ( ' शान्ति सिन्धु', मार्च १९३७ ) ( 'शान्ति सिन्धु', मार्च १९३७ ) 'शान्ति सिन्धु', अप्रैल १९३७ ) ( 'शान्ति सिन्धु', अप्रैल १९३७ ) ( ' शान्ति सिन्धु', मई १९३७ ) ( 'ज्ञानोदय', अक्टूबर १९५० ) ( ज्ञानोदय', सितम्बर १९५० ) ( आत्मानुशासन की प्रस्तावना ) ( ज्ञानपीठ पूजांजलि की प्रस्तावना ) ( ' तुलसी प्रज्ञा', जुलाई, सितम्बर १९८२) ( जैनतत्त्व-मीमांसा ) जैनतत्त्व - मीमांसा ) ( ' शान्ति सिन्धु', सितम्बर १९३७) ( 'शान्ति सिन्धु' जनवरी १९३७ ) २४७ ( आ० शान्तिसागर जन्मशताब्दी स्मृति ग्रंथ ) २५२ ( जैनतत्त्व - मीमांसा ) २७४ ( 'जैन सन्देश शोधांक', दिसम्बर १९४१ ) २.८० २८५ २८९ २९४ ( जैनसिद्धान्तभास्कर, जनवरी १९४६ ) ( 'सन्मति सन्देश', जुलाई १९७३ ) ( 'सन्मति सन्देश', जुलाई १९७३ ) ( कानजी स्वामी अभिनन्दन ग्रन्थ ) ( कानजी स्वामी अभिनन्दन ग्रन्थ ) ( 'तुलसी प्रज्ञा' खण्ड ६ - अंक ९ ) ( अप्रकाशित ) ( अप्रकाशित ) ( अप्रकाशित ) ( वैभवशाली अहार ज्ञानसमुच्चयसार प्रस्तावना ) ( अप्रकाशित ) १३० १३९ १४१ १४३ १४५ १४७ १४८ १५२ १५९ १६० १६५ १७६ १८२ २२० २४१ ३०५ ३०८ ३२५ ३३३ ३३८ ३७० ३८१ ३८५ ४०९ ( सन्मति सन्देश, जुलाई १९७१ ) ४१७ ( आचार्य शान्तिसागर जन्मशताब्दी स्मृति ग्रंथ ) ४२६ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची : १३ ( समयसार कलश की प्रस्तावना) ४४३ ( अप्रकाशित) ४५९ (गुरु गोपालदास बरैया स्मृति-ग्रन्थ १९६७ ) ४७० ( अप्रकाशित) ४८३ (सप्ततिका प्रकरण प्रस्तावना) ४८७ ३. सययसार कलशको टीकाएँ ४. पुरुषार्थसिद्धयुपाय : एक अनुशीलन ५. जैन सिद्धान्तदर्पण : एक अनुचिन्तन ६. तेरानवें सूत्रमें 'संजद' पद ७. सप्ततिका प्रकरण : एक विवेचनात्मक अध्ययन समाज एवं संस्कृति १. जैन समाजकी वर्तमान सांस्कृतिक परम्परा २. जिनागमके परिप्रेक्ष्यमें जिनमंदिर प्रवेश ३. सोनगढ़ और जैनतत्त्वमीमांसा ४. धर्म और देवद्रव्य ५. मूलसंघ शुद्धाम्नायका दूसरा नाम तेरापन्थ है ६. वर्ण व्यवस्थाका आन्तर रहस्य ७. महिलाओं द्वारा प्रक्षाल करना योग्य नहीं ८. शिक्षा और धर्मका मेल ९. अध्यात्म-समाजवाद १०. बुन्देलखण्डका सांस्कृतिक वैभव ११. महिला मुक्ति-गमनकी पात्र नहीं पत्रकारिता एवं विविध १. आज का प्रश्न २. श्री वीरस्वामीका जन्म और उनके कार्य ३. धवलादि ग्रंथोंके उद्धारका सत्प्रयत्न और उसमें बाधाएँ ४. भ. महावीर स्वामीकी जयंती मनाइये ५. फलटणके बीसाहंबड पंचोंके नाम पत्र ६. समाजका दुर्भाग्य ७. हरिजन मंदिर प्रवेश चर्चा ८. महावीर जन्मदिन ९. सम्प्रदाय जाति और प्रान्तवाद १०. सेवा व्रत ११. अहिंसाका प्रतीक रक्षाबन्धन १२. महावीर निर्वाण दिन : दीपावली १३. भावना और विवेक १४. चरमशरीरी भ० बाहुबली १५. मेरे जन्मदाता वर्णीजी १६. मंगल स्वरूप गुरुजी (भा० दि० जैन विद्वत्परिषद रजत-जयन्ती पत्रिका)५१७ (वर्ण जाति और धर्म ) ५२१ ('सन्मति सन्देश', मार्च १९७३) ५२७ ( 'शान्ति सिन्धु', सितम्बर वी० नि० २४६२ ) ५३३ . ( अप्रकाशित) ५३५ ('ज्ञानोदय' अगस्त १९४९) ( अप्रकाशित) ५४४ ( 'शान्ति सिन्धु', सितम्बर १९३७) ('ज्ञानोदय' जुलाई १९४९) ( 'सन्मति सन्देश' सितम्बर १९७२ ) ५५७ ( अप्रकाशित) ५५९ ( सम्पादकीय) ( 'शान्ति सिन्धु', १९३६) ('शान्ति सिन्धु', १९३७ ) ५७० ५४९ ५५२ ( 'शान्ति सिन्धु', १९३७) ('शान्ति सिन्धु', अप्रैल १९३७) ५७४ ('शान्ति सिन्धु', दिसम्बर १९३७) ('शान्ति सिन्धु', १९३७) ५७९ ('ज्ञानोदय', सितम्बर १९४९ ) ५८१ ('ज्ञानोदय', अप्रैल १९५०) ५८४ ('ज्ञानोदय', जुलाई १९५०) ५८७ ('ज्ञानोदय', सितम्बर १९५०) ५८९ ( ज्ञानोदय', सितम्बर १९५०) ('ज्ञानोदय', नवम्बर १९५०) ५९२ ('ज्ञानोदय', दिसम्बर १९५०) ५९४ ( गाण्डीवम्', २३ फरवरी १९८१ ) ५९६ (श्री गणेशप्रसाद वर्णी स्मृति-ग्रन्थ, १९७४) ५९८ ( गुरु गोपालदास वरैया स्मृति-ग्रन्थ, १९६७) ६०२ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०७ १४ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ खण्ड : ५ : कृतित्व समीक्षा १. धवला-जयधवलाके सम्पादनकी विशेषताएँ डॉ० फूलचन्द्र प्रेमी २. महाबन्धकी सैद्धान्तिक समीक्षा डॉ० देवेन्द्रकुमार जैन ३. तत्त्वार्थसूत्रटीका : एक समीक्षा डॉ० पन्नालाल जैन ४. पंचाध्यायोटीका : एक अध्ययन पं० नाथूलाल शास्त्री ५. सवार्थसिद्धि : समालोचनात्मक अनुशीलन डॉ. देवेन्द्रकुमार जैन ६. अमृतकलशके टीकाकार पं० जगन्मोहनलाल शास्त्री ७. जैनतत्त्वमीमांसा : एक प्रामाणिक कृति पं० माणिकचन्द्र भिसीकर ८. जैनतत्त्वमीमांसा : एक समीक्षात्मक अध्ययन डॉ० उत्तमचन्द्र जैन ९. ज्ञानपीठ-पूजाञ्जलि : एक अध्ययन डॉ. लक्ष्मीचन्द्र सरोज १०. वर्ण, जाति और धर्म : एक चिन्तन डॉ० ज्योतिप्रसाद जैन ११. जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा : एक समीक्षा पं० प्रकाश हितैषी शास्त्री १२. लब्धिसार-क्षपणासार : एक अनुशीलन पं० नरेन्द्रकुमार भिसीकर १३. आत्मानुशासन : एक परिशीलन डॉ० दरबारीलाल कोठिया १४. सम्यग्ज्ञानदीपिका : शास्त्रीय चिन्तन डॉ. देवेन्द्रकुमार जैन १५. सप्ततिका प्रकरण : एक अध्ययन डॉ० देवेन्द्रकुमार जैन १६. आलापपद्धति : एक समीक्षात्मक अध्ययन डॉ० देवेन्द्रकुमार जैन ६१८ ६२२ ६२५ ६२९ ६३२ ६३६ ६३८ ६४३ ६६१ ६६७ ६६९ ६७३ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड १ पाशीर्वचन • अभिवादन • संस्मरण Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुभाशीर्वाद आचार्य समन्तभद्रजी महाराज, बाहुबली ....< धर्मानुरागी विद्वद्वयं सिद्धांतशास्त्री पण्डित फूलचन्द्रजी द्वारा जीवनमें धवला, जयधवला, महाबंध आदि ग्रन्थोंका महान् कार्य सम्पन्न हुआ है। इसी प्रकार जिनवाणीको सेवा सम्पन्न करनेके लिए निरामय दीर्घायुष्यका लाभ हो, ऐसा शुभाशीर्वाद। ॥ ॐ स्वस्ति । Owa Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धान्तचक्रवर्ती एलाचार्य विद्यानन्द जी मुनि Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आशीर्वचन ANS सिद्धान्त MENTS सिद्धान्तचक्रपतीं एलाचार्य विद्यानन्द मुनि Camp Koper gaon Dee /१, 1984 ‘भास्ति एषां यशः कामे जरामरगजं भप। - धनिरागी भइपरिणामी पं.सी फूल चन्द सिदान्त शास्त्रीजी से हमारी सब से पहली भेट दहली में हुई। उसके चार पोरनपुर बम्बई में हमारे १६८४ वर्षामोग में दो महीने तक भी समपसार, इत्यादि का स्वाध्याय करने का अवसर मिना। उनकी समझनि की शैली अति सरल तथा शास्त्रोक्त है। वह जैन साहित्य,सांस्कृति और लिदान्त के मर्मज, सरल स्वभावी अत्यन्त बिनम्र ति. इस युग के पतिभा संपल निदान है। उनले विचार तथा लेरव त्यादि से स्सा भास होता है कि शुरु से ही उनका ज्ञान परिपक्व तया सह। विद्वत समाज सदा उनका कृतज्ञ रहेगा। हमारा शुभाशीबीरवि पंडितजी स्वस्थ्य रहें. दीर्याय में ताकि जनधर्म की और भी सेवा कर सकें। शुभाशीवार - Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-प्रन्थ बहुमुखी प्रतिभाके धनी • भट्टारक चारुकीर्ति स्वामीजी, श्रवणबेलगोला वास्तवमें जिस समाजमें मेधावी विद्वानोंका समादर और सत्कार होता है, वही समाज जीवित है। विद्वान् समाजका प्राण है । आजके इस संघर्षमय वातावरणमें भी किसी सारस्वत पुरुषका अभिनन्दन, ग्रन्थ प्रकाशनके द्वारा होना बहुत ही महत्व रखता है । सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्रीजीका जीवन जिनवाणीके सच्चे स्वरूपके उद्घाटनमें ही बीता है। आपकी कई मौलिक रचनाओंके अध्ययनसे यह अनुभव हुआ है कि आपकी चिन्तन शक्ति गहरी और तात्त्विक है । आप जैसे अगाध पांडित्य और बहुमुखी प्रतिभा संपन्न विद्वान्का सन्मान समाजका ही सन्मान है । ___ हमारी शुभकामना है कि इस पुनीत कार्यमें लगे आपको पूर्ण सफलता मिले और इस कृतिमें समाविष्ट विशिष्ट सामग्री धार्मिक जगतकी समष्टि और व्यष्टि दोनोंके लिए नया स्रोत बने । इति 'भद्रं भूयात्' इत्याशीर्वाद पूर्वक । मंगल कामना .पद्मश्री पण्डिता ब्र० सुमतीबाई शहा, सोलापुर पंडितजीने अपनी पूरी आयु ग्रन्थ संशोधनमें लगाई । मूडबिद्रीके तालेमें रहा हुआ धवल, महाधवल और जयधवलका हिन्दी अनुवाद करके जैन समाजको स्वाध्याय करनेके लिए यह ग्रन्थकी सुविधा उपलब्ध की। पंडितजी एक बड़े तत्वज्ञ और मर्मज्ञ हैं। वे हमारे यहाँ बहुत बार आये। उनके सहवासमें यहाँके त्यागी और आश्रमवासियोंको उनसे फायदा हुआ। उनकी तबियत अच्छी नहीं रही तो भी स्वाध्यायके समय उनका पूरा लक्ष्य अध्यात्म रहता था। पंडितजी स्वस्थ रहें यही कामना करती हूँ। जैन कर्म-सिद्धान्तके प्रढ़ विद्वान् .पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री, वाराणसी पंडित फलचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्री जैन कर्म सिद्धान्तके प्रौढ़ विद्वान् है। सन् १९२१-२३ में मैं पं० फुलचन्द्रजी और पं० जगन्मोहनलालजी, स्व० गुरुवर्य पं. गोपालदासजीके द्वारा संस्थापित जैन सिद्धान्त विद्यालयमें उनके शिष्य स्व० पं० वंशीधरजी न्यायालंकार तथा स्व० पं० देवकीनन्दनजीके पास जैन सिद्धान्तका अध्ययन करते थे और एक ही कमरेमें रहते थे। तभी पं० फलचन्द्रजी कर्मकाण्ड गोम्मटसारके अध्येता प्रसिद्ध थे। उसके पश्चात् तो जब षट्खण्डागमके प्रकाशनका भार स्व० डॉ० हीरालालजीने लिया तो पं० फलचन्द्रजी और स्व० पं० हीरालालजीने मुख्य रूपसे उसके अनुवादका कार्य किया। उसके पश्चात् जब भा० दि० जैन संघ मथुराने बनारसमें जयधवला कार्यालय स्थापित करके कसायपाहुडके प्रकाशनका भार लिया तब पं० फूलचन्द्रजी ही उसके मुख्य सम्पादक नियुक्त किये गये और वे बनारस रहने लगे। हम लोग तो उनके सहायक मात्र थे । कसायपाहुडके भी अनुवादका मुख्य श्रेय उन्हींको है। उन्होंने भारतीय ज्ञानपीठसे प्रकाशित तीसरे सिद्धान्त ग्रन्थ महाबन्धका भी अनुवाद किया है । इस तरह तीनों सिद्धान्त ग्रन्थोंके मुख्यरूपसे अनुवादक वे ही हैं । उनके समान अन्य कोई विद्वान् सिद्धान्त ग्रन्थोंका अधिकारी विद्वान् नहीं है। अतः वे अभिनन्दनीय हैं। हम तो उन्हींके अनुवादोंको पढ़कर सिद्धान्त ग्रन्थोंके ज्ञाता बने हैं। Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म विद्याके प्रमुख वेत्ता • पंडित नाथूलाल शास्त्री, इन्दौर देशके लब्धप्रतिष्ठ प्रकाण्ड विद्वान् सिद्धांताचार्य पं० फूलचन्द्रजी सिद्धांतशास्त्रीकी देश, समाज एवं साहित्यकी महान् सेवाओंके प्रति कृतज्ञता प्रकाशनार्थ उनका जितना भी अभिनन्दन किया जाये, थोड़ा है। पंडितजी अत्यंत सरल, उदार, निरभिमानी और सतत जागरूक मनीषी हैं । उन्होंने जैनधर्मके महान् ग्रन्थ धवला, जयधवला और महाधवला टीकाओंके हिन्दी अनुवाद एवं सम्पादनका अपूर्व कार्य कर जैन इतिहासमें अपनी उज्ज्वल कीर्ति अर्जित की है। जैन सिद्धांतके आप मर्मज्ञ एवं वर्तमान जैन समाजमें अग्रणी हैं। अपनी वयोवृद्ध एवं अस्वस्थ अवस्था में भी उनका ग्रन्थ सम्पादन कार्य निरन्तर चल रहा है । एक वर्ष पूर्व पंडितजी वाराणसीसे दि० जैन उदासीन आश्रम, इन्दौर में आ गये हैं । उनके दैनिक प्रवचनों का लाभ भी मुमुक्षु जनताको प्राप्त हो रहा है I पंडितजीने देशके स्वतंत्रता आन्दोलनमें भाग लेकर आज तक खादीके मोटे वस्त्र पहिनना चालू रखा है। सादा जीवन, उच्च विचारके वे आदर्श हैं। पंडितजी जैनधर्मके कर्म सिद्धांतके अधिकारी विद्वान् माने जाते । उन्होंने जैन अध्यात्म विद्या गूढ़ रहस्यको अपनी लेखनी द्वारा सुबोध शैलीमें जैन तत्त्व मीमांसा आदि ग्रन्थों में विशद रूपेण प्रकट किया है । इस अभिनन्दनके प्रसंग पर मैं आदरणीय पंडितजीको दीर्घायु कामना करते हुए आशा करता हूँ उनके अनुभवका लाभ समाजको प्राप्त होता रहेगा । आगम साहित्यके निष्काम सेवक • पं० कमलकुमार जैन, व्याकरणतीर्थं, कलकत्ता प्रथम खण्ड : १७ शिरसा सदानमनीय परमादरणीय विद्वद्वर्य सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्री समाजके लब्धप्रतिष्ठ विद्वानों में सर्वोपरि विद्वान् हैं और हैं आगमसाहित्यके निष्काम सेवक । सन् १९२७ में जब वे श्री स्याद्वादमहाविद्यालय काशीमें प्रधानाध्यापक पदको सुशोभित कर रहे थे। तब पूज्य प्रातः स्मरणीय गुरुवर्य वर्णीजी श्री गणेशप्रसादजी महाराज जो मुझे काशीमें श्री स्याद्वाद महाविद्यालय में ले गये थे । उनके माध्यम से ही मेरा सर्वप्रथम परिचय सिद्धान्ताचार्यजीसे हुआ था । ये अत्यन्त सरल परिणामी, निरभिमानी परन्तु स्वाभिमानकी साक्षात् मूर्ति हैं । अभीक्ष्ण्य ज्ञानोपयोगी महान् विद्वान् हैं । आपका जीवन आध्यात्मिकतासे ओतप्रोत है । अन्तमें हम आपके शतायु होनेकी हार्दिक मंगल कामना करते हैं । जैन समाज उपकृत है • श्री अक्षयकुमार जैन, दिल्ली यह जानकर प्रसन्नता हुई कि सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्रजी शास्त्रीकी साहित्यिक एवं सामाजिक सेवाओंके उपलक्ष में अभिनन्दन ग्रन्थ भेंट किया जा रहा है। पण्डितजी से समस्त समाज भली-भाँति परिचित हैं । उसके साहित्य, दर्शन एवं धार्मिक कृतियोंसे समस्त जैन समाज उपकृत है । इस महान कार्यके लिए मेरी शुभकामनाएँ स्वीकार कीजिए । ३ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ : सिद्धान्ताचार्य पं० फुलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ मेरे प्रेरक ● पं० बालचन्द्र शास्त्री, हैदराबाद आ० पंडित जीसे लम्बे समयसे मेरा निकटतम सम्बन्ध रहा । वे सुयोग्य विद्वान्, लेखक, वक्ता, स्वतन्त्र विचारक और ग्रन्थ सम्पादक हैं । सिद्धान्त ग्रन्थोंके सम्पादनमें उनका महत्त्वपूर्ण योगदान है । समाज सेवाका भी काफी कार्य किया है । सन् १९२७-२८ में मैं श्री स्याद्वाद महाविद्यालय, वाराणसी में विद्याध्ययन कर रहा था, तब आप यहाँ धर्माध्यापक थे । आप आरम्भसे ही स्वतंत्र वृत्तिके स्वाभिमानी विद्वान् रहे हैं । एक घटना वश आपने विद्यालयसे त्यागपत्र दे दिया और 'प्रमेयरत्नमाला' के सटिप्पण सम्पादनमें लग गये । अक्टूबर १९४० की बात है । पंडितजी अमरावतीमें डॉ० हीरालालजीके साथ षट्खण्डागमका सम्पादन कार्य कर रहे थे। पं० हीरालालजी सिद्धान्तशास्त्री भी इसमें सहयोग कर रहे थे । मुझे भी यहाँ बुलाया गया । तिलोयपण्णत्तिके सम्पादन कार्यमें सहयोग हेतु डॉ० हीरालालजीने मुझसे कहा । मैं संकोच कर रहा था क्योंकि मैं प्राकृतसे परिचित नहीं था, क्योंकि जैन विद्यालयोंमें संस्कृत छाया के आधारपर प्राकृतके जैन ग्रन्थोंके पढ़नेपढ़ानेकी पद्धति रही है । फिर भी पंडितजीने मुझे साहस और मार्गदर्शन दिया । सिद्धान्त ग्रन्थोंके सम्पादन कालकी अनेक बातें हैं, जिन्हें लिखनेके लिए काफी स्थान चाहिए। मेरी हार्दिक कामना है कि वे दीर्घायुष्य होकर सार्वजनिक कार्यो को करते रहें । अपूर्व श्रुताधक • डॉ० पन्नालाल साहित्याचार्य, सागर सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्रजी शास्त्री आगमके विशिष्ट ज्ञाता हैं । उन्होंने तत्तत्प्रकरणोंके विशेषार्थं लिखकर विषयको स्पष्ट किया है। सच पूछा जाय तो आगम ग्रन्थोंका उद्धार आपकी प्रतिभाका ही सुफल है । तत्त्वका निर्णय कर उसे आप निर्भीकतासे प्रकट करते हैं। एक बार मैं आपके साथ बाहुबली (कुंभोज) गया था । पूज्य आचार्य समन्तभद्रजी महाराजको आपने ग्रन्थ भेंट किया । प्रत्युत्तरमें आचार्य महाराजने शिरपर पीछी रखते हुए आशीर्वाद दिया कि आपको श्रुतकेवली बनना है । इन आगम ग्रन्थोंका उद्धार आपकी हो मनीषाके बलपर हुआ है और आगे भी होगा । इस अभिनन्दनके प्रसङ्गपर मैं पण्डितजीकी श्रुतसेवाका मनसा, वाचा, कर्मणा अभिनन्दन करता हूँ । कर्मठ स्वाभिमानी विद्वान् • डॉ० भागचंद्र जैन भास्कर, जयपुर श्रद्धेय पं० फूलचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्रीका समग्र जीवन पुरुषार्थ, आत्मविश्वास, सजगता, एकाग्रता, गंभीरता, व्यहारकुशलता और मानवीय गुणों के साथ बहुमुखी विकासका प्रतीक रहा है । उनकी संवेदनशीलता और निर्भीकताने एक कर्मठ स्वाभिमानी विद्वान्, पंडितके रूपमें प्रतिष्ठा अर्जित की है । आपका सीधा-सादा हँसमुख सादगीभरा जीवन आपकी कर्मशीलता, शालीन जीवटता और लक्ष्यनिष्ठताको अभिव्यक्त करता है । श्री पंडित जी कर्मसिद्धान्त के उच्चकोटि के सन्मान्य विद्वान् हैं । अदम्य उत्साह, सहिष्णुता, अनुभव, ज्ञान, मनोबल और व्यापक दृष्टिके सायेमें विहित आपके शैक्षणिक और सामाजिक उदात्त कार्य एक विशेष सामयिक उत्तरदायित्व भावनाओंसे ओतप्रोत रहे हैं । सुशील, सहृदय और कर्मठ समाजसेवकके रूपमें आपने युगबोधको नये आयामोंसे भरा है । आपकी सिद्धान्तनिष्ठा और सुसंगत रचनात्मक दृष्टिकोण श्लाघनीय है । मैं अपनी शुभकामना व्यक्त करता हूँ कि आप दीर्घकाल तक जैन साहित्यकी सेवा करते रहें । Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम खण्ड: १९ वक्तृत्व-कृतित्वके स्वयंभू .५० कमलकुमार जैन शास्त्री, 'कुमुद'-फूलचन्द्र 'पुष्पेन्दु' शास्त्री, खुरई पूज्य-पण्डितजी का सम्पूर्ण जीवन असत्को ललकारता हुआ सामाजिक, धार्मिक और राष्ट्रीय क्षेत्रमें निरन्तर सत्-क्रान्तिके बीज बोता रहा है। पूज्य वर्णीजी तथा सत्पुरुष कानजी स्वामीको निश्चय-व्यवहारके धर्म काँटे पर संतुलित करके आपने उनके स्वर्ण समन्वयत्वको वचनात्मक और रचनात्मक रूपमें अंगीकार किया। चुनौतियोंसे भरे हुए आपके प्रामाणिक व्यक्तित्वने यथार्थतत्त्व निर्णय करके समीचीनताका जो पथ-प्रशस्त किया उस पर चलनेसे तथाकथित संतों और दार्शनिकोंके ऊहापोहात्मक विकल्प स्वयमेव शान्त हो जाते हैं। इस अवसर पर हम आपके दीर्घायुष्यकी मंगल कामना करते हैं। भूली विसरी यादें .पं. भैयालाल शात्री, बीना मेरे पिता श्रीरयावलालजी और पूज्य माता जानकी बाईके चार पुत्र और एक पुत्री इस तरह कुल पाँच सन्तान हुई । इनमें मनमोले (मोहनलाल) धरमोले (धर्मदास) फुल्ले (पं० फूलचन्द शास्त्री) और भैयालाल, हम लोग ये चार भाई हैं। हम चारों भाई झांसी जिलेके अन्तर्गत सिलावन गाँवमें छोटी-मोटी दुकानदारी, बन्जी, साहूकारी एवं खेती कार्य करते थे । हमारे गाँवमें स्कूल न होनेसे गाँवके लड़कोंके साथ रोटी बाँधकर तीन मील दूर खजुरिया गाँव पैदल जाते थे। मेरे भाई पं० फूलचन्दजीकी बचपनमें धर्मके प्रति विशेष रुचि थी । अतः वे मेरी बहिनके गाँव मवई चले गये जहाँ उनको तत्त्वार्थसूत्रको पढ़नेमें निपुणता प्राप्त हुई। इससे हम सभीको बहुत खुशी हुई क्योंकि उस समय तत्त्वार्थसूत्र मात्र पढ़ लेने वालेको भी अच्छा पण्डित माना जाता था। भाई साहब घरके काम करते, पर विशेष रुचि न होनेसे उदासीन जैसे ही रहते थे। पढ़ने और धर्म काममें ही इनका ज्यादा मन रहता था। साढ़मलसे श्री धर्मदास, धर्मचन्द, मनोहरलाल, पं० हीरालालजी तथा मेरे गुरु पं० शीलचन्द जी के साथ वे इन्दौर पढ़नेके लिए गये और वहाँ पं० घनश्यामदासजीसे पढ़ने लगे किन्तु अस्वस्थ होनेके कारण घर वापस आ गये और घरके काममें लग गये । बन्जीसे थोड़ा बहुत जो मिल जाता था उससे बड़ी कठिनाई पूर्वक जिस किसी तरह परिवारका गुजारा चलाते थे। बड़े कष्ट और गरीबीके वे दिन । भाई साहबको ज्ञानी बननेकी ही विशेष अभिरुचि थी। सौभाग्यसे साढूमलमे दानवीर श्री लक्ष्मीचन्द जीने श्री महावीर दिगम्बर जैन पाठशालाका शुभारम्भ कराया और इन्दौरसे पं० घनश्यामदासजीको अध्यापन कार्य हेतु बला लिया । बहत ही सरल और सहृदयतासे वे सभीको पढ़ाते थे । करीब ५ वर्ष बाद साढ़मलसे अध्ययन करके मेरे भाई साहब एवं पं० किशोरीलालजीको आगेका अध्ययन पूरा करनेके उद्देश्यसे मुरैनाके जैन सिद्धान्त विद्यालय भेज दिया गया। मुरैनामें उद्भट विद्वानोंसे जैन धर्मशास्त्रोंका अध्ययन कर विद्वत्ता प्राप्त की। अध्ययनके बाद भाई सा० ने बनारस, बीना, जयपुर, नातेपुते आदिके जैन विद्यालयोंमें अध्यापन कार्य किया, उसके बाद जिनवाणीकी सेवाके लिए जैन ग्रन्थोंके सम्पादन और अनुवाद आदि साहित्यिक गतिविधियोंको जीवनका मुख्य उद्देश्य बनाया । भाई सा० का कुटुम्बके प्रति हमेशा उदारभाव रहा है। हम सभी लोगोंको बीना लाने और व्यापारमें लगानेका श्रेय भाई सा० को है । हम सब उनके आभारी हैं । आज सम्पूर्ण जैन समाज उनका अभिनन्दन कर रही है यह सुनकर और जानकर हम सभीको परम प्रसन्नता और गौरव है कि हमारे घर ऐसा 'रत्न' पैदा हुआ, जो जिनवाणीकी अनेक प्रकारसे सेवा करके जीवनको सार्थक बना रहे हैं । हम सभीकी हार्दिक शुभकामना है कि वे शतायु हों। Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ सादगी और सरलताको जीवन्तमूर्ति .श्री बालचन्द्र जैन, एम० ए०, जबलपुर पं० फलचन्द्रजीकी विशिष्टता, उनकी विद्वत्ता और गंभीर अध्ययनमें ही नहीं अपितु उनकी सादगी और सरलतामें निहित है । विद्वान् तो बहुतसे हो जाते हैं किन्तु विद्या ददाति विनयंका जो सही उदाहरण मैंने आदरणीय पंडितजीमें पाया वह अन्यत्र दुर्लभ रहा । माननीय पंडितजी विद्यार्थियोंको भी अपना साथी और छोटा भाई मानते रहे, ऐसा मेरा अनुभव है। जब कभी भी हम लोग किसी विशिष्ट अथवा उलझे हुए प्रसंग पर पंडितजीकी सलाह लेने पहँचते थे तो वे सुलझे हुए विचारोंसे हम लोगोंको गौरवान्वित करते थे । विचारोंकी सरलता और सौम्यता भलायी नहीं जा सकती। पंडितजीकी सादगीने हममेंसे बहुतोंके जीवन पर भारी प्रभाव छोड़ा है जो हमारे लिये आगे हितकारी सिद्ध हआ। सिद्धान्त ग्रन्थोंके मर्मज्ञ होनेके साथ पंडित श्री फूलचन्द्रजी शास्त्री आधुनिक विचारोंका भी सम्मान करते हैं। वस्तुतत्त्वका वैज्ञानिक विचार उनको विशेषता रही है। मैं आदरणीय पंडितजीके दीर्घकालीन जीवनकी प्रार्थना करता हूँ। मेरे प्रणाम .श्री बाबूलाल जैन गोयलीय, अहमदाबाद श्रद्धेय पं० फूलचन्द्र जी सिद्धान्तशास्त्री समाजके जानेमाने प्रतिष्ठित विद्वान् है जिन्होंने अपना सारा जीवन जैन वाङ्मयके उद्धारमें समर्पित किया है। सरस्वती आप पर प्रसन्न है। पूर्वजन्म या वर्तमानमें प्रबल वीतराग देव-गुरुभक्तिके बिना यह सम्भव नहीं । वे सभी महात्मा धन्य हैं जिन्हें यह सुयोग मिला और जिसके परम अवलम्बनसे स्वपरकल्याणार्थ मार्गमें प्रवृत्त हुए। महान् ग्रन्थोंके सम्पादन-संशोधन, स्वतंत्र लेखन आदि पुष्कल साहित्य निर्माण द्वारा यथार्थ रूपमें आपने श्रुतभण्डारोंको समद्ध किया है, जिसके स्वाध्यायसे आत्मार्थी जनोंको आचार्य भगवन्तोंके प्ररूपित मार्गका और आपके स्वतंत्र चिन्तनका लाभ मिला है, मिलता रहेगा। परमश्रत प्रभावक मण्डल, अगाससे प्रकाशित 'लब्धिसार' ग्रन्थके सम्पादनमें मेरी प्रार्थना पर आपने जो सहयोग दिया-आत्मभाव पिरोया उसके लिए तो आपका बहुत बड़ा अविस्मरणीय उपकार है। अत्यन्त हर्षकी बात है कि अनेक बाधाओंके बीच भी यह कार्य सम्पन्न हो गया। सारे समाजके श्रद्धापात्र, अपनी कोटिके अनन्य विद्वान्, श्रुतभक्तिरत महात्मा श्रीमान् पज्य पण्डितजीके प्रति में अपनी मंगल भावना जोड़ता हैं । उनका जीवन अधिक समय तक विद्वज्जनोंके लिए भी प्रेरणाका स्रोत बनता रहे । उनको मेरा सादर प्रणाम । एक नमन मेरा भी • श्री नरेन्द्र प्रकाश जैन, फिरोजाबाद आधी सदीसे भी अधिक समय तक माँ जिनवाणीकी अकथनीय सेवा करनेवाले श्रद्धेय पण्डितजीके अभिनन्दनसे सम्पूर्ण समाज गौरवान्वित होगा। उनकी विद्वत्ता अप्रतिम है। वह वाणी और लेखनी दोनोंके धनी हैं और निधड़क होकर अपनी बात कहते रहे हैं। पैसा, पद और प्रभुत्व उनपर कभी हावी नहीं हो पाया । उन्होंने जीवन भर शब्दोंकी उपासना की है, इसीलिए आज शब्द उनकी आरती उतार रहे हैं। ऐसे मनीषीके चरणोंमें एक प्रणाम मेरा भी सविनय अर्पित है। Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम खण्ड : २१ सहृदय पंडितजी .पं० कुंजीलाल जैन, फिरोजाबाद श्रीमान् सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्रीको अभिनन्दन ग्रन्थ भेंट किया जा रहा हैजानकर बड़ी प्रसन्न ता हुई। वे इसके सर्वथा योग्य हैं। नहीं तो आजके अर्थ और तिकड़म प्रधान युगमें योग्यतामात्र अभिनंदन किये जानेकी कसौटी नहीं रह गई है। सिद्धान्त ग्रन्थोंके वे अनुपम विद्वान् है इस रूपमें तो उनकी ख्याति है ही परन्तु वे इतने सहृदय भी हैं इसका अनुभव कर मुझे सुखद आश्चर्य हुआ। पं० पूज्य आचार्य श्री समन्तभद्रजी महाराजकी चरणरज लेने तथा क्षेत्रकी वन्दना करने जब मैं कुंभोज (बाहुबली) पहुँचा था उस समय पंडितजी वहाँ अपनी 'तत्वमीमांसा' की विशद व्याख्या करते हए ठहरे थे। मैं वहाँ एक दिनके लिये गया था परन्तु विरोधीकी बातको धैर्यपूर्वक सुनना एवं उसे यदि वह उचित हो तो स्वीकार भी कर लेना, आजके युगमें उन जैसे उद्भट विद्वान्के लिये 'अहं' का प्रश्न बने बिना नहीं रहता। चर्चामें रस आनेसे मैं वहाँ ३ दिन ठहर गया। विचारोंमें अन्तर होते हुए भी कटुताका लेश भी नहीं आने पाया। इतनी वृद्ध अवस्थामें भी पंडितजीने मेरी सुविधाओंकी बड़ो चिन्ता रक्खी । पंडितजी शतायु एवं नीरोग रहकर आर्ष सिद्धान्तोंका बिना किसी झिझकके जिस प्रकार कल्पित तीर्थकर सूर्यकीर्तिकी प्रतिभाका विरोध किया है-प्रचार करते रहें ऐसी श्री जिनेन्द्र चरणोंमें प्रार्थना है। मेरे श्रद्धा सुमन .५० प्रकाश हितैषी, दिल्ली आजसे ५८ या ६० वर्ष पूर्व जब मैं बीना इटावा (सागर) की नाभिनन्दन दि० जैन पाठशालामें पढ़ता था। उस समय पं० फूलचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्री वहाँके प्रधानाध्यापक थे। तबसे में पंडितजीको निकटसे जानता हैं। उस समय आप जैन समाजमें समाजसुधारक एवं रूढ़ियोंके विरोधमें आवाज उठानेवाले प्रमख विद्वान माने जाते थे। जो कि इसका श्रेय अन्य लोगोंको मिला तथा राष्ट्रीय क्षेत्रमे वहाँके प्रमुख कार्यकर्ताओमें गण्य थे। छात्रोंसे अपनी सन्तानकी तरह प्यार करते थे। सभी त्यौहारोंपर घर जैसा मिष्ठान्न भोजन छात्रोंको कराना, उनकी हर तरहकी चिन्ता करना, उनकी सुविधाका ध्यान आपकी अपनी विशेषता थी। जितने आप व्यवस्था प्रिय थे, उतने ही पढ़ाई में बड़े सक्त थे। पढ़ाईमें कमजोरी दिखाने के कारण मुझे भी १-२ मर्गा बनना पड़ा था। उस समयके छात्र भी अपने गुरुका हार्दिक सत्कार करते थे । उनके अगाध पाण्डित्यका परिचय तो धवल, जयधवल आदि करणानयोगके महान जटिल ग्रन्थोंके सम्पादनमें एवं खानिया चर्चाके समय प्राप्त हुआ है । अपने जितने बड़े विद्वान् हैं, उतने ही सरल हैं । असहाय लोगोंको हर प्रकारका सहयोग देनेके आपकी स्वभावमें जन्मजात संस्कार हैं। सिद्धान्तके रक्षणके लिए आपको कई संस्थाओंसे सम्बन्ध तोड़ देना पड़ा है। सोनागढ़में भी जब व्यक्ति पूजाका महत्त्व बढ़ा तो आपने स्पष्ट कह दिया कि मैं सब प्रकारसे आपके इस गुरुडमवादसे सम्बन्ध विच्छेद करता हूँ। आपने लौकिक तुच्छ स्वार्थके लिए सिद्धान्तकी बलि कभी नहीं चढ़ने दी । मेरी मंगलकामना है कि आदरणीय शास्त्रीजी इसी प्रकार धर्म और समाजकी सेवा करते रहें। Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ विविध विशेषताओंके धनी .५० अमृतलाल जैन, शास्त्री, लाडनूं व्याप्तः सर्वत्र भूमौ शशधरधवल: शम्भुहासापहासी कीर्तिस्तोमो यदीयो जनयति नितरां क्षीरपाथोधिशङ्काम् । यस्मिन् सम्मग्नकाया अमरपतिगजो दिग्गजाश्चन्द्रतारा जाताः सर्वाङ्गशुभ्राः स जयति सततं फूलचन्द्रो बुधेन्द्रः ।। -अमृतलाल: श्रद्धेय पण्डित फलचन्द्र जी सिद्धान्ताचार्य, वाराणसीके द्वारा सम्पादित, अनूदित तथा स्वतन्त्र रूपसे लिखित शताधिक ग्रन्थों, उनके विशेषार्थों और विस्तृत प्रस्तावनाओंके अध्ययनसे यह स्पष्ट ज्ञात हो जाता है कि उनका समस्त विषयोंपर समान अधिकार है। किन्तु उनके जीवनका बहुभाग आगम-साहित्यके सम्पादन एवं हिन्दी रूपान्तरणमें बीता है। जिस आगमिक कार्यको अनेक विद्वान् मिलकर भी पूरा नहीं कर सकते थे, उसे अकेले आपने सम्पन्न किया है। फलतः विद्वत्संसारमें आप आगमज्ञके रूपमें प्रसिद्ध हैं और इसी रूपमें आपने अमर कीर्ति प्राप्त की है। इस श्रुत-साधनाकी लम्बी अवधिमें मैं सन् १९४४ से १९७९ तक आपके निकट सम्पर्कमें रहा हूँ। जहाँ तक मुझे स्मरण है, सन् १९४४ में कटनीमें विद्वत्परिषद्का प्रथम अधिवेशन हुआ था। उसमें शताधिक जैन विद्वान् उपस्थित हुए थे, जिनमें न्यायालङ्कार पण्डित वंशीधरजी इन्दौर और प्रसिद्ध कहानीकार जैनेन्द्र कुमारजी दिल्ली प्रमुख थे । अधिवेशनके प्रारम्भमें ही इन दोनों प्रमुख विद्वानोंने विद्वत्परिषदकी स्थापनाको लेकर आक्षेपोंकी झड़ी लगाकर वि०प० की निरर्थकता बतलाई। इसे सुनकर सभी विद्वान् मौन रहे, सिद्धान्ताचार्यजी अकेले पड़ गये, पर निर्भीक रहे । आप बोलनेके लिए खड़े हुए तो प्रस्तुत दोनों विद्वान परिहास करने लगे, पर आपने एक घण्टेके भाषण में सभी आक्षेपोंका खण्डन किया । फलतः दोनों विद्वानोको निरुत्तर होना पड़ा। बहुत पुरानी बात है । पण्डितजीका परिवार बीना गया हुआ था। पण्डितजी अकेले ही वाराणसीमें थे। मैंने पण्डितजीसे भोजनके लिए निवेदन किया । आप प्रतिदिन जिस समय मेरे घर आकर भोजन प्रारम्भ करते, संयोगवश एक वृद्धा आ जाती। पण्डितजी तत्काल अपनी थाली उसे दे देते। तुरन्त दुसरी थाली पंडितजीको दी जाती, पर वे उसे कभी स्वीकार नहीं करते, भूखे ही उठ जाते-प्रतिदिन ऊनोदर तप तपते । इस अवसर पर आप कहते-अधिक भोजन करना पाप है-'योऽधिकं भुङ्क्ते स पापं भुङ्क्ते'। थोड़ा-बहुत सामान देकर मैंने वृद्धासे कहा-आप पण्डितजीके भोजनके समय न आया करें । पर वह कब माननेवाली थी। कहती थीकि इतने ज्ञानीका जूठा खानेसे इस जन्ममें नहीं, तो अगले जन्ममें उसे भी विशिष्ट ज्ञान प्राप्त होगा । पण्डितजी सरीखी करुणा शायद ही कहीं देखनेको मिले। इस प्रकार समयज्ञता, तल्लीनता, श्रुत-सेवा, उदारता, निर्भीकवक्तृता, और अप्रतिम समाधातृताआदि विविध विशेषताओंको देखकर मैं पूज्य पण्डितजीके प्रति श्रद्धावनत हूँ और उन्हें हार्दिक श्रद्धाञ्जलि समपित करता हूँ। Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम खण्ड : २३ जैनागम उपासक .श्री बाबूभाई चुन्नीलाल मेहता, जयपुर सत्यतः, विद्वर्य पं० श्री फूलचद्रजी सिद्धान्तशास्त्रीकी धर्म क्षेत्रमें साहित्यिक सेवा अपूर्व है। उनका बहुत बड़ा योगदान है। पंडितजीने खानिया तत्त्वचर्चाके समय अकेले, समाजको गौण करके मात्र आगम और धर्मकी सुरक्षाकी खातिर चर्चा करके जैनधर्मके धर्मस्तंभको गाढ़ा किया पक्का लिया । दढ करके सुरक्षित रखा। खानिया चर्चा में पंडितजीका साहस धैर्य, क्षयोपशम, तर्क, सूक्ष्म सूझ-बूझ, पैनी दृष्टि, दूरदर्शिता और आगमकी उपासना देव, गुरु, धर्मका अत्यन्त भक्तिका परिचय देकर जैन जगतमें स्वर्णाक्षरोंमें नाम अंकित रहेगा। पंडितजी हमारे समाजके गौरव है। धवलादि शास्त्रोंके सिद्धान्त शास्त्रोंके अच्छे ज्ञाता और अध्यात्म प्रवक्ता भी रहे हैं। देव भक्ति विभक्ति और समाज 'उत्कर्षका कार्यमें भी आपका बड़ा-बड़ा योगदान रहा है। सिद्धान्त ग्रन्थोंका सम्पादन और अनुवाद करके धर्म प्रेमी समाजपर बहुत अनुग्रह किया है। और अस्वस्थ होते हए भी आज दिन तक भी स्वतः साहित्य लेखके मंगल कार्यमें अविरत लगे हुए है। उनका सम्मान जितना किया जाय उतना कम है। पंडितजीकी मंगलमय ध्रुवकारण परमात्माका आश्रय करके शास्त्र निवेदन और भक्तिका फल भिन्न वस्तुभूत ज्ञानमय परमात्माका श्रद्धान, ज्ञान और अनुभवन होकर अतिन्द्रिय आत्मिक लाभको प्राप्त हों। यही मंगल कामना करता हूँ। संचारिणी ज्ञानशिखा • डॉ. हरीन्द्रभूषण जैन, उज्जैन पूज्य पंडितजी के बहुमुखी व्यक्तित्वसे सम्बन्धित अनेक महत्त्वपूर्ण बातें हैं जिन्हें समग्ररूपसे लिख पाना अशक्य है। २-११-४४ को कलकतामें वीर शासन महोत्सवके अवसरपर दि० जैन विद्वत्परिषद्की स्थापना हुई थी। आदरणीय पं० फूलचन्द्रजीके मंगलाचरणसे कार्य प्रारम्भ हुआ। तत्कालीन प्रबन्चकारिणीके पदाधिकारियोंमें आप संयुक्त मंत्री थे। १९५५ के द्रोणगिरि अधिवेशनकी अध्यक्षता पं० फलचन्द्रजीने की थी। इस सम्मेलनकी महत्त्वपूर्ण विशेषता थी-एक बृहद् जैन शिक्षा सम्मेलनको आयोजना, जो सागरमें माननीय पं० वंशीधरजी न्यायालंकार, इन्दौरकी अध्यक्षतामें सम्पन्न हुआ जिसमें जैन धर्मके नवीन पाठ्यक्रम का निर्माण किया गया था। ___आदरणीय पं० फूलचन्द्रजी मूर्तिमान्, चलते-फिरते जैन सिद्धान्त हैं। उन्होंने अपने जीवनका बहुभाग, दि. जैन मूलागम-षट्खण्डागमकी धवला, जयधवला, महाधवला टीकाओंके अध्ययन, मनन, विवेचन, शोध एवं हिन्दी अनुवाद कार्यमें व्यतीत किया है । आज भी वे, अप्राप्य उन्हीं ग्रन्थोंकी द्वितीयावृत्ति हेतु इनके संशोधन कार्यमें व्यस्त हैं। ___ मुझ जैसे अनेक नई पीढ़ी एवं नई पद्धतिके जैनविद्वानोंके लिए वे कल्पवृक्ष साबित हुए हैं । ऐसे विद्वानोंको सदा अध्ययन, शोध एवं साहित्य निर्माणकी प्रेरणा देना और उनके मार्गमे आनेवाली बाधाओंको दूर करना पंडित जीका स्वभाव रहा है। पंडित जीकी अपनी एक महत्वपूर्ण विशेषता है, और वह है बुन्देलखण्डके प्रति अतिशय अनुराग । इस अनुरागसे प्रेरित होकर उन्होंने वाराणसीमें अध्ययनार्थ आनेवाले बुन्देलखण्ड प्रान्तके छात्रोंको सहायताके लिए क्या कुछ नहीं किया, इस बातको सभी विद्वान् एवं छात्र अच्छी तरह जानते हैं। हम ऐसी संचारिणी ज्ञानशिखाके प्रति अपनी श्रद्धा-भक्ति समर्पित करते हुए भगवान् जिनेन्द्रदेवसे प्रार्थना करते हैं कि पंडित जी चिरायु होकर जैन साहित्य, समाज एवं राष्ट्रकी सेवा करते रहें। Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ सरस्वतीके वरद पुत्र • डॉ० हुकमचंद भारिल्ल, जयपुर धवलादि महाग्रन्थोंके यशस्वी संपादक, करणानुयोगके प्रकाण्ड पण्डित, सिद्धान्ताचार्य पदवीसे विभूषित उन गिने-चुने विद्वानोंमेंसे हैं, जिन्होंने टूट जाने की कीमतपर भी कभी झुकना नहीं जाना । संघर्षों के बीच बीता उनका जीवन एक खुली पुस्तकके समान है, जिसके प्रत्येक पृष्टपर उनके संघर्षशील अडिग व्यक्तित्वकी अमिट छाप है। रणभेरी बजने पर स्वाभिमानी राजपूतका शान्त बैठे रहना जिसप्रकार संभव नहीं रहता, उसीप्रकार अवसर आनेपर किसी भी चुनौतीको अस्वीकार करना -- छात्रतेजके धनी पंडित फूलचंदजीको कभी संभव नहीं रहा । कठिन से कठिन चुनौतीको सहज स्वीकार कर लेना, उनकी स्वभावगत विशेषता रही है । चुनौतियोंसे जूझनेकी अद्भुत क्षमता भी उनमें है । खानिया तत्त्वचर्चा" उनकी इसी स्वभावगत विशेषताका सुपरिणाम है, जो अपने आपमें एक अद्भुत ऐतिहासिक वस्तु बन गई है । पूज्य गुरुदेव श्रीकानजी स्वामीकी आध्यात्मिक क्रान्तिके धवल इतिहासमें पंडितजीकी " खानिया तत्त्वचर्चा" एवं "जैन तत्त्व-मीमांसा" एक कीर्ति स्तंभके रूपमें सदा ही स्मरणकी जाती रहेंगी । मोटी खादीकी धोती, कुर्ता और टोपीमें लिपटा साधारण-सा दिखनेवाला उनका असाधारण व्यक्तित्व प्रथम दर्शनमें भले ही साधारण लगे, पर निकट सम्पर्क होनेके साथ-साथ उनके व्यक्तित्वकी दृढ़ता और दृढ़ संकल्पका परिचय सहज ही होने लगता है । सिद्धान्त शास्त्रोंके गहन अध्येताका अभिनन्दन वास्तवमें एक प्रकारसे सिद्धान्त शास्त्रोंका ही अभिनन्दन है । यद्यपि सरस्वती के आराधकों, उपासकों, लाड़ले सपूतोंको इन लौकिक अभिनन्दनोंकी आकांक्षा नहीं होती, होनी भी नहीं चाहिए; तथापि सरस्वती माताकी प्रतिदिन वंदना करनेवाली जिनवाणी भक्त धर्मप्रेमी समाजको भी अपनी भावनाओंको व्यक्त करनेके अधिकारसे वंचित नहीं किया जा सकता है । पंडितजी उस वरिष्ठतम पीढ़ीके प्रतिनिधियोंमेंसे एक हैं जो प्रायः निश्शेष हो चुकी है या निश्शेष होती जा रही है । सिद्धान्तज्ञानके रूपमें आज उनके पास जो भी अनुपम निधि उपलब्ध है; हमारा कर्तव्य है कि हम उसका अधिकतम लाभ लें । कोई ऐसा बृहत् उपक्रम किया जाना चाहिए, जिससे उनके ज्ञानको आगामी पीढ़ीके लिए सुरक्षित किया जा सके । पंडित फूलचंद्रजी सिद्धान्ताचार्यका सिद्धान्तज्ञानमय जीवन अध्यात्ममय हो, आनन्दमय हो जावे -इस मंगल कामनाके साथ उन्हें प्रणाम करता हूँ । आगमज्ञ लौहपुरुष : पण्डितजी • श्री नेमिचन्द पाटनी, आगरा सितम्बर सन् १९६३ में ब्र० श्री लाड़मलजी तथा ब्र० सेठ हीरालालजी पाटनी द्वारा खानिया ( जयपुर ) में आचार्य महाराज श्री शिवसागरजीकी उपस्थितिमें एक तत्वचर्चाका आह्वान किया गया था, जिसका उद्देश्य पू० कानजी स्वामी द्वारा प्रतिपादित अपेक्षाओंको आगमके विपरीत ठहराना था । अतः उन्होंने दोनों पक्षके विद्वानोंको आमन्त्रित किया। उसका एक आमन्त्रण-पत्र मुझे भी प्राप्त हुआ था । निमन्त्रण प्राप्त होनेपर मैंने सोनग से सम्पर्क किया, तो वहाँसे श्रीयुत् रामजी भाई द्वारा निर्णय मिला कि तत्त्वका निर्णय तो स्वकल्याणार्थ किया जाता है; क्योंकि आगमकी अनेक अपेक्षायें हैं, उनका हार-जीतकी मुख्यता लेकर निर्णय नहीं हो सकता । अतः अपनेको वाद विवादमें पड़ना श्रेयस्कर नहीं है । सोनगढ़ द्वारा यह निर्णय प्राप्त होनेपर मैं तो निश्चित हो गया था। Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम खण्ड : २५ उस समय मेरा स्थायी निवास जयपुर ही था। अतः आयोजित चर्चा प्रारम्भ होनेके नियत दिवसपर प्रातःकाल ही मुझे यकायक स्व. पं० चैनसुखदासजीका टेलीफोन प्राप्त हुआ कि पं० फुलचन्दजी बनारससे चर्चामें भाग लेने आ गये हैं। आपको बुलाया है। मुझे आश्चर्य हुआ और पहुँचकर मैंने पण्डितजी साहबको सोनगढ़का निर्णय भी सुनाया, तो पण्डितजीने कहा-भाई, आगम हमारे साथ है, जो भी हमको ज्ञान है, उसको प्रस्तुत करने में क्या डर है ? उसपर भी यदि हमारी कोई भूल होगी, तो हमें स्वीकार करने में क्या संकोच है ? और हम तो अब वाराणसीसे आ गये है सो अब वापिस तो जावेंगे नहीं। आप हमारे साथ रहना चाहें तो ठीक, अन्यथा हम अकेले ही जावेंगे । उनके इस निर्णयके आगे मुझे भी नतमस्तक होना पड़ा। पण्डितजीने यह भी कहा कि चर्चामें जाने के पूर्व पं० श्री टोडरमलजी साहबकी साधनास्थली-जहाँ बैठकर टोडरमलजीने आगमका अध्ययन किया था, वहाँकी भूमिको नमन करके चर्चा में चलेंगे। फलतः हम दोनों तेरापंथी मन्दिर (जहाँ वे शास्त्र-प्रवचन करते थे) गये । दर्शनादि करके हम दोनों ही अपनी कार द्वारा नियत समयपर नियतस्थान खानियाकी नशिया पर चर्चाके लिए पहँच गये। हमारे वहाँ पहुँचते ही सब आश्चर्यमें पड़ गये, क्योंकि उनको यह अनुमान नहीं था । फलतः उपस्थित विद्वान् जिनमें स्व० पं० श्री मक्खनलालजी शास्त्री मुरैना मुख्य थे, आचार्य महाराजके सामने एकत्रित हुए और चर्चा प्रारम्भ होनेके पूर्व तत्सम्बन्धी नियम-उपनियम बनाये गये। इस बीच ही आयोजनकर्ताओंने सारे भारतके चोटीके विद्वानोंको तार देकर एकत्रित किया। इस प्रकार खानिया चर्चा प्रारम्भ हो गयी। नियम-उपनियम बनाते समय पंडितजी की दृढ़ता एवं गहरी सूझबूझका मुझे प्रत्यक्ष परिचय हुआ । अपर पक्षकी ओरसे सर्वप्रथम प्रस्तुत किया गया कि निर्णायक कौन होगा? उनका उद्देश्य किसी प्रकार किसी को भी निर्णायक ठहराकर अन्तमें सोनगढ़की मान्यताओंको आगम विरुद्ध घोषित करना था । अतः पण्डितजीने सर्वप्रथम यह निर्णय कराया कि चर्चा लिखित होगी और दोनों ही पक्षोंकी चर्चाको दोनों मिलकर प्रकाशित तः निर्णायककी आवश्यकता नहीं रहती। निर्णायक तो पाठक ही रहेगा: इस चर्चाका निर्णायक कोई नहीं होगा। फिर भी एक अध्यक्ष नियुक्त कराने पर जोर दिया गया, ताकि वे विवादस्थ मुद्दा उपस्थित होने पर अपना निर्णय दे सकें। लेकिन पण्डितजीने अपने बलिष्ठ तर्कों द्वारा स्वीकृत करा लिया कि इस चर्चामें मात्र लिखित उत्तर-पत्रोंका आदान-प्रदान ही होना है। अतः अध्यक्षके स्थान पर मात्र मध्यस्थको हो रखा जावे और मध्यस्थके लिये नाम उपस्थित होने पर भी मात्र प्रौढ़ विद्वान ही मध्यस्थ होना चाहिए । इस स्वीकृतिके द्वारा स्व० पं० श्री बंशीधरजी शास्त्री इन्दौर निवासीको मध्यस्थ नियुक्त किया गया । इसके बाद दूसरा विवादग्रस्त मुद्दा उपस्थित किया गया कि चर्चामें मात्र संस्कृत प्राकृतमें ग्रन्थों के प्रमाण ही उपस्थित किये जा सकेंगे। इसमें भी अपर पक्ष चतुराईसे अप्रमाणिक संस्कृत ग्रन्थोंको मान्य कराते हुए, मोझमार्ग प्रकाशक आदि प्रामाणिक हिन्दी साहित्यको अमान्य घोषित कराना चाहता था। उसका भी पण्डितजी ने बड़ी दृढ़ताके साथ निषेध करते हुए अपर पक्षके द्वारा ही यह स्वीकृत करा लिया कि वर्षों के पहलेके सभी ग्रंथ चाहे वे हिन्दीके भी क्यों न हों प्रमाणिक माने जाव तथा प्रमाणरूपमें चर्चा में प्रस्तुत किये जा सकेंगे। इस प्रकार चर्चाकी विधि तय हुई कि शंका उपस्थित करने वाला पक्ष जो भी शंका उपस्थित करेगा, उस शंका पर उत्तर-प्रत्युत्तरके रूपमें तीन दौरं ही चलाये जा सकेंगे, उससे आगे उत्तर-प्रत्युत्तर नहीं चलेंगे तथा दोनों ही पक्ष लिखित रूपमें अपनी-अपनी शंका दूसरे पक्षके सामने प्रस्तुत कर सकेंगे। Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ इसके अतिरिक्त भी अनेक छोटे-मोटे मुद्दे तय करा लिये गये, ताकि चर्चा विवादका रूप नहीं ले सके। उसमें भी मुख्य महा था कि नियत समय पर दोनों पक्ष अपने-अपने लिखित पत्रोंको सबके समक्ष मात्र पढ़कर ही सुना सकेंगे। कोई भी उस सम्बन्धमें कोई स्पष्टीकरण अथवा टीका-टिप्पणी नहीं कर सकेगा। अर्थात् जो कोई भी उपस्थित रहे वे मात्र सुन सकेंगे कोई कुछ भी बोल नहीं सकेगा तथा उन लिखित पत्रों पर दोनों पक्षों द्वारा नियत किये गये प्रतिनिधि गण ही हस्ताक्षर करेंगे तथा उनमेंसे ही कोई चाहे तो उत्तर पत्रोंका पठन कर सकेगा. अन्य कोई भी विद्वान उस समय किसी प्रकारका हस्तक्षेप नहीं कर सकेगा। इस प्रकार अनेक नियम-उपनियम बननेके पश्चात् चर्चा प्रारम्भ करनेके लिए श्री पं० मक्खन लालजीने शंका प्रस्तुत करनेका आग्रह किया। पण्डितजी साहबने तत्काल स्वीकृति दे दी । इस प्रकार चर्चा प्रारम्भ हो गई । तब पं० मक्खन लालजीने पण्डितजीसे शंका उपस्थित करनेके लिए कहा । पण्डितजीने छूटते ही उत्तर दिया हमको तो कोई शंका है नहीं, आपको ही हमारा कथन आगमानुकूल नहीं लगता है, अतः आपको ही शंका है । आप उपस्थित करें । बुद्धिके अनुसार जो भी सम्भव होगा, निवारण करनेका प्रयत्न करेंगे, आदि-आदि । इस सारे प्रसंगमें कई बार ऐसी स्थितियाँ उपस्थित हुई कि चर्चा प्रारम्भ ही नहीं हो पावेगी । ऐसे समयमें देखा कि पण्डितजी लोह पुरुषकी तरह अपने पक्षपर डटे रहे और पण्डितजीके बलिष्ट तर्कों द्वारा अपर पक्षको आपकी बात स्वीकार करनेके लिए बाध्य होना पड़ा। पण्डितजीकी लम्बी सूझ-बूझका तो मुझे तब परिचय हुआ, जब निर्णोत नियमों-उपनियमोंके कार्यान्वयनके समय उनकी उपयोगिताका मूल्यांकन हआ। विस्तारसे उन सारी बातोंका व्यौरा देना तो सम्भव नहीं है, लेकिन पण्डितजीका व्यक्तित्व सर्वाङ्गीण और अनोखा है, इसका प्रत्यक्ष अनुभव हुआ । श्री पण्डितजीके अदम्य साहसकी तो जितनी भी प्रशंसा की जावे, कम ही है। चर्चामें पण्डितजीके सहयोगी हस्ताक्षर करने वालोंमें तो पहले दिन मैं अकेला एक ही था। दूसरे शब्दों में कहा जावे तो अपर पक्षकी ओर तो सम्पूर्ण भारतवर्ष के उच्चतम कोटिके अनेक विद्वान् थे। परन्तु पण्डितजीके साथ तो एक भी विद्वान् नहीं था । वे अकेले ही थे। लिखित चर्चामें नियम रखा गया था कि प्रथम दिन जो प्रश्न उपस्थित किये जावे अर्थात शंका प्रतिशंका उत्तर-प्रत्युत्तर आदि लिखित रूपमें प्रस्तुत कर सबको सुनाने का समय दोपहर १ बजे (खानिया जो कि जयपुरसे ४ किलोमी० दूर है वहाँ पहुँचकर आचार्य महाराजके सन्मुख बांचकर आदान-प्रदान करनेका) नियत था। उसकी एक प्रति अपर पक्षको एक प्रति मध्यस्थको तथा एक प्रति अपनेस् वयंके पास रखनेका निश्चय किया गया था । इस प्रकार सुवाच्य अक्षरोंमें ३-३ प्रति देना होता था। अपर पक्षकी ओरसे जो भी शंकायें उपस्थित की गई थीं वे इतनी थीं कि उनका दूसरे दिन एक बजे तक सुवाच्य सक्षरोंमें लिखकर ३-३ प्रति देना मुझे असम्भव ही लग रहा था । अतः मैंने पण्डितजी साहबसे कहा कि यह सब सायं ४ बजेसे कल एक बजे तक कैसे सम्भव होगा ? आपको आगम-प्रमाण इकट्ठे करके उत्तर लिखने पड़ेंगे । अकेले व्यक्तिसे यह कैसे सम्भव होगा? लेकिन मुझे वे शब्द अभीतक याद हैं। पंडितजीने कहा कि "हिम्मत हारने वालोंसे काम मेरे साथ नहीं चलेगा। मैं अकेला ही सारा कार्य कर लूगा, आप भी हट जावें।' पण्डितजीके ये शब्द सुनकर मुझमें अतीव उत्साह पैदा हुआ और हम सब उनकी सहायताको जुट गये । दुसरे दिन पण्डितजीके साथ सहयोग करनेके लिये भारत भरके चोटीके विद्वानोंमेंसे मात्र एक ही ऐसे विद्वान निकले जिन्होंने अतीव साहस व उत्साह पूर्वक पण्डितजी Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहबका सहयोग करनेको अपने आपको प्रस्तुत किया। वे हैं— श्रीमान् पण्डित जगन्मोहनलालजीशास्त्री, कटनी । इस प्रकार पण्डितजीके साथ हस्ताक्षर करने वालोंमें हम दो व्यक्ति एवं आपकी सहायताके लिये सोनगढ़से भेजे हुए २ विद्वान् ब्र० श्री चन्दुभाई तथा पं० चिमनभाई मोदी थे । तथा सुवाच्य अक्षरोंमें लिखनेका कार्य मेरे बहनोई स्व० लादुलालजी पहाड़ियाने किया था । रहने के लिये सबकी व्यवस्था मेरे ही निवास स्थानपर थी तथा खानिया जाने आनेकी व्यवस्था मेरी स्वयं की कार द्वारा होती थी। इस प्रकार हमने आपके अदम्य साहसको इस चर्चा के समय अत्यन्त नजदीक से परखा है । उनके परिश्रमकी क्षमता तो अद्भुत तथा उनका क्षयोपशम ज्ञान, आगमका अध्ययन, स्मरणशक्तिकी अगाधता तथा उसको उपस्थित करनेकी क्षमता आदि अनेक ऐसी विशेषताओंका चर्चाके समय परिचय हुआ जिनका वर्णन करनेसे तो यह लेख ही एक पुस्तक बन जायेगा । मुझे यह कहने में तनिक भी संकोच नहीं है कि निःस्वार्थ भावसे, बिना किसी प्रकारको किञ्चित् भी अपेक्षाके, बिना कोई आर्थिक प्रयोजनके; मात्र एक आगमके पक्षको लेकर इतना श्रम करनेवाला व्यक्ति मुझे तो अभी तक अन्य कोई देखने को नहीं मिला। फिर, आगमका इतना सूक्ष्म अध्ययन करके उसे हृदयंगम करनेवाले ऐसे व्यक्तिसे मेरा अभीतक परिचय नहीं हुआ। पंण्डितजीकी स्मरण शक्ति इतनी प्रबल है कि वे शंकाओंके उत्तर लिखते समय यह बता देते थे कि अमुक शास्त्रकी अमुक गाथामें इसका स्पष्टीकरण मिलेगा और बहुधा वह वहाँ ही मिल जाता था । प्रथम खण्ड २७ पंडितजी साहब के प्रति मैं अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करता हुआ उनके दीर्घ एवं यशस्वी जीवनकी कामना करता हूँ । प्रामाणिक व्यक्तित्व • कृषिपण्डित श्रीमंत सेठ ऋषभकुमार, खुरई श्रद्धासर्वस्व पं० फूलचन्द्रजी सिद्धांतशास्त्री हमारे पड़ोस बीनाकी ही गौरवमयी प्रतिभा हैं । इनके प्रामाणिक व्यक्तित्व, समालोचक वक्तृत्व और अनुभवपूर्ण परामर्शसे स्थानीय जैन समाजने सदैव ही जागरणलाभ पाया है। इनकी सामाजिक क्रान्ति और गांधीवादी विचारधाराका अनुसरण हमने पग-पगपर किया है । अनुभवी प्रयोगशालामें पके हुए इनके दार्शनिक निर्णय हमें शतप्रतिशत मान्य हैं। सुलझी हुई दृष्टि और सिद्धान्त ज्ञानके हम नितान्त पक्षधर हैं । सामाजिक संगठनों की एकताके लिये तो मानो आपका अवतार ही हुआ है । पारस्परिक वैमनस्यवैषम्य मिटाने के लिये प्रतिकूलताओंसे भी आपने लोहा लिया है । विविध संस्थाओंकी समस्याओंके सफल समाधान आपके ही आश्रित हैं । लगभग १५ वर्ष पूर्व यहाँ स्थानीय दि० जैन समाजमें जो एक गहरी दरार पड़ गई थी उसको पाटने में जी-तोड़ परिश्रम करके आपने सफलता प्राप्त की थी । व्याख्यानवाचस्पति स्व० पं० देवकीनंदनजीके बाद दो सर्वमान्य विद्वान् ऐसे हैं जिन्होंने विघटन के गर्त में गिरती हुई समाजका सदैव उद्धार किया है । प्रबुद्ध युगल-पं० फुलचन्द्रजी शास्त्री तथा पंडित जगन्मोहनलालजी शास्त्री इन दो अनुभव वृद्ध वृषभों द्वारा समाज संगठनका रथ इस उच्च समभूमि पर चल रहा है । उसपर धार्मिक चेतनाकी पताका फहर-फहर कर प्रतिक्षण हमें दिशा ज्ञान दे रही है । कृतज्ञता के कोटि-कोटि स्वरों द्वारा भाते हैं । हम आआपका हार्दिक अभिनन्दन करते हुए दीर्घायुष्य की भावना Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ पूज्य गुरुवर्य ! तुम्हें प्रणाम .श्री जवाहरलाल-मोतीलाल, भीण्डर मैंने अपनी २० वर्षकी आयुमें ही जैन सिद्धान्त ग्रन्थोंका अध्ययन कर लिा था, किन्तु अनेक शंकायें थीं जिन्हें मैं नोट करता जाता था। इनके समाधानके लिए मैंने अनेक जैन विद्वानोंसे सम्पर्क किया और बहुतोंका समाधान भी मिला, किन्तु जबसे मैंने धवलादि करणानुयोगके सर्वोपरि ज्ञाता पं० फूलचन्द्रजी सिद्धान्ताचार्यसे सम्पर्क कर जिस प्रामाणिकतासे समाधान पाया तबसे अपने मानसमें 'विद्यागुरु' के रूपमें आपको स्थापित किया । बीसों विस्तृत पत्र मेरे पास उनके हैं जिन्हें यदि प्रकाशित किया जाय तो सिद्धान्त ग्रन्थ विषयक शंकाओंके समाधानकी एक अच्छी पुस्तक बन सकती है। वृद्धावस्थामें भी वे मेरी शंकाओंका प्रामाणिक और स्नेहपूर्वक समाधान करते चले आ रहे हैं। . एक पत्रमें आपने लिखा कि-अब ८० वर्षकी मेरी उम्र हो गई है अतः अब स्थिति ऐसी है कि कभी कुछ पढ़ने-लिखने में उपयोग लगता है, कभी नहीं लगता। फिर भी शक्ति बटोरकर कुछ न कुछ करता रहता हूँ। आप सबका स्नेह मिला हुआ है; यही मेरा सम्बल है। आगमके निर्णयकी कसौटी यह है कि उत्तरकालकी रचनाकी प्रमाणता पूर्वकालीन रचनाके आधारपर होती है। पूर्वापरकी प्रमाणताके आधारपर विषयके निर्णय तक पहुँचा जाता है। एक बार मैंने वाराणसी जाकर पन्द्रह दिनके करीब पूज्य पंडित जीका सानिध्य प्राप्त किया और साक्षात् शंकाओंके समाधानकी प्राप्तिका आनंद लिया। जब मैं वाराणसीसे वापस भीण्डर आने लगा तो उन्होंने कहाआप स्वाध्यायशील हैं । सदा इसीमें मन लगाये रहें। पर इतना ध्यान रखें कि चारों अनुयोगोंमें आदेय तो आत्मा ही है । अध्ययन चाहे किसी अनुयोगका हो पर निर्णय लेते समय आगमिक आधार अवश्य हुँढ लें।। इस तरह लिखनेको अनेक बातें हैं। यह प्रसन्नता है कि आपका अभिनन्दन किया जा रहा है । मैं आपके पूर्ण स्वस्थ चिरज्जीवनकी कामना करता हूँ। जैन वाङ्मयके प्रामाणिक विद्वान् • श्री इन्द्रजीत जैन एडवोकेट, कानपुर पंडित फलचन्द्र जी जैन वाङ्गमयके आधिकारिक एवं प्रामाणिक मनीषि एवं विद्वान् हैं । आपकी प्रखर लेखनी एवं कुशाग्र बुद्धिमत्ताने जैन सिद्धान्तके गूढ़तम रहस्योंको उजागर किया है। मुझे आदरणीय पंडितजीके सम्पर्क में आये हुए बहत समय हो गया है। मैंने उनसे जैनदर्शन सिद्धान्तोंको खूब समझा है। परम पवित्र पर्यषण पर्वपर वे कानपुर कई बार पधारे और अत्यन्त निकटतर एवं गहराईसे वे नाना विषयोंपर प्रवचन करते थे । उनकी सिद्धान्तोंको समझानेकी शैली भी विलक्षण एवं स्पष्ट रहती है । यदि इस पंचम कालमें तीर्थंकर भगवान होते तो श्रद्धेय पंडित फलचन्द्रजी अवश्य ही गणधर होते । जैन सिद्धांतके महान् संरक्षक .श्री मिश्रीलाल पाटनी, लश्कर आपके हृदयमें सिद्धांतकी धार्मिक मार्मिक चर्चाका भंडार समुद्र मानिंद अथाह भरा हुआ है। आपसे मिलनेपर अधिकतर धार्मिक तत्त्व चर्चा आत्म कल्याण निज स्वभावकी पहचान सिद्धांतपर ही होती है पारिवारिक चर्चामें आप अपना समय नष्ट नहीं करते है । आप त्यागी मुनि गणोंको भी निग्रंथ अवस्थामें उचित शास्त्रानुकूल आचरणमें प्रवर्तन शील रहे, शिक्षा निर्भीक निरभयतासे देते हैं। जिनसे उनके ज्ञान आचरणमें सुधार आवे । आप हितोपदेशी धर्मरक्षक मर्मज्ञज्ञानके वक्ता हैं । मैं आपके गुणोंको देखकर दीर्घायुकी कामना करता हैं। Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम खण्ड : २९ कतज्ञता-ज्ञापन .पं० पद्मचन्द्र शास्त्री, दिल्ली यदि समाज कृतज्ञ है तो मान्य पंडित श्री फुलचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्रीके उपकारोंको 'यावच्चन्द्रदिवाकरौ' मानना चाहिए । अपनी पीढ़ीके सम-सामयिक सिद्धान्त महारथियोंमें पंडितजीका नाम मूर्धन्य है। वे अपनी निर्भीकताके लिए भी प्रसिद्ध है । आगे-पीछेका ख्याल किए बिना सिद्धांत-पोषणका लक्ष्य उनके जीवनमें उनसे पूरा होता रहा है । वे सिद्धान्तमें अपने विषयके बे-जोड़ विद्वान् हैं-उन्हें हमारे नमन । एक बार जब मेरी नौकरी छूट गई और मैं सब ओरसे निराश हो गया कि एक दिन अचानक सड़कपर पंडितजीसे भेंट हो गई। बोले-भइया, क्या हाल है ? मैंने व्यथा सुनाई तो द्रवित हो उठे और बोलेतुम चिंता मत करो अभी मेरे पास काम करो, आदि । मुझे याद है और जीवन भर याद रहेगा कि उन्होंने मुझे 'एडवांस' आर्थिक सहायता दी, समाजसे मेरा परिचय कराया, मुझे काम दिलाया-मुझे संबल मिला । मैं आज जो हूँ, जैसा हैं उन्हींके आशीर्वादसे हैं। मेरी शक्ति नहीं कि मैं अपनी व परिवारकी ओरसे उनके उपकार-भारसे बे-बोझ हो सकूँ । उनके प्रति जितनी भी कृतज्ञताका ज्ञापन किया जाय मेरे लिए थोड़ा ही रहेगा। शुभ-कामना • श्री सुबोधकुमार जैन, आरा मैं पहली बार पं० फलचन्द्र जी शास्त्रीसे लगभग २२ वर्ष पूर्व उस समय मिला था जब कि बिहारके गवर्नर श्री अनन्तशयनम आयंगरने श्री जैन सिद्धान्त भवनकी हीरक जयन्तीकी अध्यक्षता करते हुए पं० फूलचन्द्र शास्त्री को अपने कर कमलोंसे सिद्धान्ताचार्यकी पदवी प्रदान की थी। जैनागमके शोधन एवं लेखनके क्षेत्र में पंडित जी ने जो कार्य किया है, वह अवश्य स्मरणीय रहेगा तथा जैन सिद्धान्तके आधुनिक आचार्यों में उनका नाम बराबर स्वर्णाक्षरोंमें लिखा जाएगा। आज जैन समाज उनका अभिन्दन कर रहा है, वह वास्तवमें उनका अभिनन्दन नहीं जैन समाजका अपना अभिनन्दन है । इस शुभ अवसरपर मैं उन्हें सादर श्रद्धांजलियाँ अर्पित कर रहा हैं। अद्भुत व्यक्तित्त्वके धनी •श्री सत्यन्धर कुमार सेठी, उज्जैन परम श्रद्धेय प्रकाण्ड सैद्धान्तिक महाविद्वान् पंडित फूलचंद्रजी साहब शास्त्री जैन जगत्के माने हुए अद्भुत व्यक्तित्त्वके धनी एक आदर्श विद्वान् है। जिन्होंने अपने जीवन कालमें मां सरस्वतीकी सेवा करके अपने आपको अमर बना दिया है। धवला, जयधवला और महाबन्ध जैसे महान् ग्रन्थोंका सम्पादन करके उनको प्रकाश में लानेका आपही की श्रेय है। आप एकमात्र सैद्धान्तिक विद्वान् है। आप प्राचीन पद्धतिके विद्वान् हैं । लेकिन आपके विचारोंमें उदारता है और हृदयमें विशालता है। आप संस्कृत और प्राकृत भाषाके महान् विद्वान् है फिर भी आपकी प्रवचन शैली इतनी सरल और सीधी है कि साधारणसे साधारण श्रोताके हृदयमें भी तत्त्वका प्रवेश हो जाता है और वह सही पकड़ कर लेता है । ऐसे महाविद्वान्के चरणों में श्रद्धा सुमन अर्पण करता हुआ मैं अपने आपको धन्य मानता हैं। और शुभ कामना करता हूँ कि यह महाविद्वान् चिरंजीवि बनकर माँ सरस्वतीकी सेवा करते रहें। Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ सरस्वती पुत्र .श्री चन्दनमल 'चाँद', बंबई जीवनके लगभग साठ वर्ष जिस व्यक्तिने धर्म, दर्शन, साहित्य, सेवा, अध्यापन आदिमें लगाये और अपनी वाणी एवं लेखनी द्वारा जिन-वाणीका प्रचार किया, वह व्यक्ति है सरस्वती पुत्र पं० फूलचन्द्रजी शास्त्री । बहमखी प्रतिभाके धनी पंडितजीने मौलिक साहित्य सृजन, सम्पादन एवं समाज सेवाके विविध क्षेत्रोंमें महत्वपूर्ण सेवाएँ दी हैं । कर्म सिद्धान्तके बेजोड़ विद्वानके रूपमें आप सुविख्यात है । उनके ज्ञान, सम्पादन एवं सेवाकार्योंकी सुवास प्राप्त करता रहा हूँ। उनके सेवामय शतायुष्यकी शुभकामना करता हुआ मैं भी अभिनन्दनकी मालामें अपना एक पुष्प गुंफित कर रहा हूँ। अद्भुत ज्ञानके धनी .श्री भगतराम जैन, दिल्ली आदरणीय पं० फूलचन्द्रजी बहुत वर्षों तक अ०भा० दिगम्बर जैन परिषदके कार्यसमितिके सदस्य रहे व उन्होंने सदैव परिषद्की रीति-नीतिका समर्थन किया । अ० भा० दिगम्बर जैन परिषदका मैं सन् १९४५ से मन्त्री हूँ, जिसके कारण पूज्यनीय पं० फूलचन्द्रजीसे मेरा तभीसे सम्पर्क बना हुआ है। मुझे याद है कि १९५० में दिल्ली में होनेवाले परिषद्का अधिवेशन जो आदरणीय साहू श्रेयांसप्रसादजीकी अध्यक्षतामें बड़े विशालरूपसे हुआ था, उस समय आदरणीय पं० फूलचन्द्रजी, पं० महेन्द्रकुमारजी, पं० परमेष्ठीदासजी आदिने अधिवेशनमें प्रस्तत करने के लिए कुछ महत्त्वपर्ण प्रस्ताव भेजे थे, जिन्हें परिषदकी प्रबन्ध समितिने स्वीकृति प्रदान कर अधिवेशनमें रखने का निर्णय लिया । परमपज्य करनजी स्वामीके व्यापक प्रचार-प्रसार एवं साहित्य प्रकाशनको देखकर जिन तत्त्वोंने सदैव समाजका विघटन किया है, उन्होंने कांजी स्वामी एवं उनके प्रकाशनके विरोधमें भी व्यापक कार्य प्रारम्भ किये । उस समय समाजके मध्यस्थ विद्वानोंने विचार किया कि दिगम्बर जैन समाजके जो प्रमुख विद्वान् हैं, वे एक स्थानपर बैठकर सभी विवादग्रस्त विषयोंपर विचार विमर्श करें। जयपुरमें बहुत अधिक विद्वान् एकत्रित हुए और उन्होंने उन सभी विषयोंपर चर्चाय की । पं० फूलचन्द्र जीने जिस विद्वत्ताके साथ विरोधी विद्वानोंकी उठाई हई शंकाओंका समाधान किया, वह अद्भुत था।। उसकी साहित्यिक और सामाजिक सेवायें सदैव अनुकरणीय है। अभिनन्दनके इस शुभ प्रसंगमें श्रद्धासुमन उनके चरणोंमें अर्पित करता हूँ और यह भावना रखता हूँ कि उनकी छत्र-छाया समाजपर सदैव बनी रहे । युगचेतनाके प्रतीक • डॉ. जयकुमार जैन, मुजफ्फरनगर पूज्य पंडितजीमें युगचेतनाका स्वरूप मिलता है । 'वर्ण जाति और धर्म' में जनमङ्गलकारी युगचेतना सर्वत्र देखी जा सकती है । उनका जीवन एक सन्त, महापुरुष, उदारचरित तथा पुण्यात्मा मानवका जीवन है । विकत्थना एवं परनिन्दामें उन्हें कथमपि रसानुभूति नहीं होती है। पंडितजीका व्यक्तित्व एवं कृतित्व इतना महान् है कि यह सम्मान उन्हें कई दशक पूर्व ही मिल जाना चाहिये था । परन्तु मेरा विश्वास है कि संसारमें जिनका सम्मान विलम्बसे हआ, उन्हें चिरस्थायी कीर्ति मिली। पण्डितजी भी इसके अपवाद नहीं होंगे । साहित्यसपर्या के इस पवित्र अवसर पर पज्य पण्डितजीके प्रति मेरी 'रंकवराटिका' स्वीकार करें। Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम खण्ड: ३१ अगाध वैदुष्यके धनी •प्रो० उदयचन्द्र जैन, वाराणसी पूज्य पंडित जीका वैदुष्य अगाध है। कर्म सिद्धान्तके तो आप तलस्पर्शी विद्वान् है । यही कारण है कि धवला, जयधवला और महाधवला (महाबन्ध) जैसे उच्चकोटिके जैन सिद्धान्तके ग्रन्थोंमें आपकी अनोखी पैठ है । जैनतत्त्वमीमांसामें तथा खानिया तत्त्वचर्चा (२ भागों) में जैनदर्शन तथा जैन सिद्धान्तके निमित्त-उपादान, कार्यकारण, कर्ता-कर्म, क्रमनियमित पर्याय, सम्यक् नियति स्वरूप, निश्चय-व्यवहार आदि विषयोंपर आपने जो तलस्पर्शी विवेचन किया है वह आपके द्वारा सिद्धान्त ग्रन्थोंके गहन अध्ययन, मनन और चिन्तनका ही आप स्वाभिमानी तथा स्वतन्त्र प्रकृतिके मनीषी हैं । किसीके बन्धनमें रहना आपको पसन्द नहीं है। गजको संस्थाओंमें अधिक समय तक कार्य नहीं किया है। आपके जीवनका अधिकांश समय स्वतंत्र रूपसे साहित्यिक, सामाजिक आदि कार्य करते हुए ही व्यतीत हुआ है । सन् १९४० से १९८३ तक वाराणसीमें स्वतन्त्र रूपसे रहते हुए ही आपने अनेक महत्त्वपूर्ण कार्य किये हैं। प्रातः स्मरणीय पूज्य गणेशप्रसादजी वर्णी जैन विद्वानोंके लिए आधुनिक राजा भोज थे। वर्णीजीने जैनधर्म, जैनवाङ्मय और जैन संस्कृतिके उद्धार एवं विकासमें महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है । इसलिए पं० देवकीनन्दनजी शास्त्री, पं० पन्नालालजी काव्यतीर्थ, पं० महेन्द्रकुमारजी न्यायाचार्य और पं० फूलचन्द्रजी शास्त्री प्रभृति विद्वानोंने वर्णीजीके प्रति कृतज्ञताज्ञापन स्वरूप सन् १९४७ में श्री गणेशप्रसाद वर्णी जैन ग्रन्थमालाकी स्थापना की थी। दि० जैन विद्वत्परिषदकी कार्यकारिणी समितिके अधिवेशनके अवसर पर श्री मढियाजी (जबलपुर) में वर्णी ग्रन्थमालाकी स्थापनाका प्रस्ताव स्वीकृत कराया। मैंने श्री स्याद्वाद महाविद्यालय, वाराणसीमें रहकर सन् १९४९ में सर्वदर्शनाचार्य तथा एम० ए० की परीक्षा उत्तीर्ण की। तब आपने मुझसे कहा कि जब तक अन्यत्र योग्य स्थान न मिले तब तक वर्णी ग्रंथमालामें रहकर कार्य करना चाहो तो करो। अन्यत्र स्थान मिल जानेपर वर्णी ग्रन्थमालाको छोड़नेकी स्वतन्त्रता रहेगी। मुझे पंडितजीका उक्त कथन अच्छा लगा। तदनुसार मैंने वर्णी ग्रन्थमालामें रहकर कार्य करना प्रारम्भ कर दिया और लगभग १० माह तक पंडित जीके निर्देशन में कार्य किया। उस समय मैंने आचार्य समन्तभद्रको महत्त्वपूर्ण दार्शनिक कृति 'आप्तमीमांसा'का अष्टशती और अष्टसहस्रीके आधारसे हिन्दी में विवेचन लिखा था। सन् १९७५ में पंडितजीने विशेष प्रयत्न करके वर्णो संस्थानसे 'आप्तमीमांसा-तत्त्वदीपिका'का प्रकाशन कराया। इसके प्रकाशनसे काशी हिन्द विश्वविद्यालयमें जैन-बौद्धदर्शनके रीडरके चयनमें मझे विशेष लाभ हुआ । यह मेरे प्रति पंडितजीके स्नेह और कृपाका ही फल था। इस प्रकार पंडितजीमें अनेक गुण विद्यमान हैं जिनकी गणना करना यहाँ संभव नहीं है। अन्तमें श्री जिनेन्द्रदेवसे यही प्रार्थना है कि पंडित जी शतायु होकर स्वस्थ रहते हुए चिरकाल तक हम लोगोंका मार्गदर्शन करते रहें। इस शभ अवसर पर मैं श्रद्धेय पंडित जीके चरणों में सविनय अपनी प्रणामाञ्जलि समर्पित करता हूँ। Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ अद्वितीय साहित्य सेवी •सवाई सिंघई सेठ हरिश्चन्द्र, सुमेरचन्द्र जैन, जबलपुर आज मुझे करणानुयोगके उस उद्भट विद्वान्के प्रति शुभकामनाएं व्यक्त करनेका सौभाग्य प्राप्त हो रहा है जिसने अमूल्य साहित्य उद्धारका महान कार्य करके अपने जीवनको सफल बनाया है। यद्यपि अनेक विद्वान् जैनसिद्धान्त ग्रन्थोंके उद्धार कार्यमें संलग्न रहे हैं किन्तु करणानुयोगकी कठिनतम गुत्थियोंको सुलझाने में आपका जो स्थान रहा है ऐसा विद्वान् भारतमें दूसरा नहीं है। पुरातन जिनधर्मके साहित्यका जो प्रकाश आप लाये हैं वह दि० जैन समाजकी अजर-अमर और अमूल्य निधि है। जबलपुरकी जैन समाजसे आपका अतिशय लगाव है। पूज्य आचार्य श्री विद्यासागरजीके सानिध्यमें जबलपुरमें जब वाचना हई तब अन्य विद्वानोंके साथ आप काफी समय तक उसमें सक्रिय रूपसे संलग्न रहे। इस तरह हम किन शब्दोंमें उनका गुणानुवाद करें? बस ! यही कामना है कि आप दीर्घायु हों। श्रुत देवता सदृश व्यक्तित्व .५० ज्ञानचन्द्र जैन 'स्वतन्त्र', गंजबासौदा आदरणीय श्रद्धेय पूज्य पं० फूलचन्द्रजी सिद्धान्ताचार्य मेरी दृष्टिमें श्रुत देवता तो हैं ही पर वे विद्वत् समाजके पितामह भी हैं और मैं उनको अपने पितामहके तुल्य मानता हूँ। पूज्य पंडित जी अद्भत प्रज्ञाके धनी हैं । आपकी विवेचना शक्ति, तर्कणा शक्ति और सूझबूझ अनोखी है। वस्तु स्वरूपको समझानेकी शैली इतनी सहज, सरल एवं सरस है कि श्रोतागण मन्त्रमग्धसे रह जाते हैं। माँ सरस्वतीका जिसपर वरद हस्त रहा, ऐसे ज्ञानके भंडार विद्वत तिलक, विद्वत शिरोमणि, आर्यपुरुष पं० फूलचन्द्रजी हमारे समाजकी दिव्य एवं अनुपम निधि हैं। पंडित जीमें यह विशेषता है कि आगमके आधार पर निष्पक्ष बोलते है। प्रसंगवश खरी-खरी कहने में चूकते नहीं, वह भी समताके दायरेमें रहकर। प्रकृतिसे सरल भद्र शांत एवं व्यक्तित्वके धनी हैं। इतना ही नहीं, आपका व्यक्तित्व दूसरोंके प्रति प्रेरणास्पद रहा है। ऐसे श्रुतदेवताके चरणोंमें मेरे शतशः वंदन प्रणमन एवं नमन हैं। सरलताको प्रतिमूर्ति • डॉ० सुदर्शनलाल जैन, वाराणसी पूज्य पं० फूलचन्द्रजी सिद्धान्ताचार्य उस कोटिके भव्य जीव हैं जिनमें ज्ञानकी अगाधता तो है परन्तु अहंकारादिका अत्यन्ताभाव है । सरलताकी वह साक्षात् प्रतिमूर्ति हैं। वाणीकी मधुरता और ज्ञानदानकी तीव्र इच्छा सदैव उनके मुखारविन्दकी शोभाको बढ़ाती रहती है। कभी भी कोई उनके पास किसी भी कार्यसे क्यों न गया हो कभी खाली हाथ नहीं लौटा । धनका वैभव तो नहीं है परन्तु धनवानोंसे अधिक प्रेम धन उनके पास है। फलतः रूखा-सुखा जो भी सत्कार उनसे प्राप्त होता है उसकी मिठास सम्भवतः छप्पन प्रकारके व्यञ्जनोंसे भी प्राप्तव्य नहीं है । बाह्यदृष्टिसे कोई इन्हें पहचान नहीं सकता कि ये महातपस्वी हैं । जलसे भिन्न कमलको तरह गृह थी में रहकर तप-साधना करना सबसे कठिन है । लोभ, क्रोध, माया, चापलूसी, अहंकार आदि भाव जो आत्माके विभाव परिणाग है, से कोसों दूर हैं । सरलता, ज्ञानदान आदि गुण उनके शरीरके अभिन्न अङ्ग है। ऐसे समर्पित व्यक्तित्वके धनी एवं सरलताके प्रतिमूर्ति पण्डितजीके प्रति मेरा शत शत वन्दन । Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम खण्ड : ३३ मेरा उन्हें शत शत प्रणाम .डॉ० रमेशचन्द जैन, बिजनौर दिगम्बर जैनोंमें मूल आगमके नाम पर षट्खण्डागम तथा कषायपाहुड जैसे ग्रन्थोंको ही मान्यता प्राप्त है। इन ग्रन्थों पर हमारे महान् आचार्योने धवल, महाधवल तथा जयधवल नामकी जो टीकायें लिखीं थीं, वह केवल दर्शनार्थियोंके दर्शनकी वस्तु थीं। इन ग्रन्थों पर जिन महान् मनीषियोंने कार्य कर इनके अनुवाद और मूल पाठ जनसाधारण और विद्वानोंको सुलभ कराये, उनमें श्रद्धेय पंडितजीका नाम अग्रगण्य है। पूज्य पंडितजीकी विद्वत्ताकी थाह पाना हम जैसे अल्पज्ञ लोगोंके लिए बड़ा कठिन है। विद्वत्ता और सरलताका मणिकाञ्चन संयोग पण्डितजीमें उपस्थित है। उनसे मिलने पर ऐसी आत्मीयता जाग्रत होती है कि व्यक्ति सदा सदाके लिए उनका हो जाता है । साधनहीन छात्रों और व्यक्तियोंको उचित सहायता और मार्गदर्शन देना उनकी चर्याक प्रमुख अङ्ग हैं। जैसे एक बालक अपने पिताके गुणोंका सम्पूर्ण वर्णन नहीं कर सकता है, केवल उनको अनुभूति कर सकता है उसी प्रकार श्रद्धेय पण्डितजीके गुणोंकी अनुभूति ही की जा सकती है, समग्र रूपसे उनका वर्णन करनेका विचार सूर्यको दीपक दिखाने जैसा है। उनकी गुणगरिमा मेरे लिए प्रकाश स्तम्भ है। आध्यात्मिक सत्पुरुष कानजी स्वामीके सम्पर्कमें रहकर आपने हजारों लोगोंको आध्यात्मिक चेतना प्रदान की है। आचार्य कुन्दकुन्द अमृतचन्द्राचार्य प्रभृति आध्यात्मिक सन्तोंके पण्डित जी सफल व्याख्याता हैं। पण्डितजी द्वारा लिखे हुए ग्रन्थ और टीकायें सहस्राधिक वर्षों तक उनकी कीर्तिको अक्षुण्ण रखनेमें समर्थ हैं। साठसे अधिक वर्षों तक जिनवाणोकी अनवरत सेवा करने वाले जैन समाजके वे अद्वितीय विद्वान् है । अभिनन्दन ग्रन्थोंकी परम्परा उनका अभिनन्दन कर स्वयं अभिनन्दित हो रही है । मेरा उन्हें शत शत प्रणाम स्वीकृत हो। अनुपम विद्वत्ताके धनी • डॉ० फूलचन्द्र जैन प्रेमी, वाराणसी पूज्य पंडितजी उन विरले उच्चकोटिके सिद्धान्तवेत्ता विद्वानोंमेंसे हैं जिन्होंने किसी निश्चित जीविका बिना ही अपने सम्पूर्ण जीवनका एक मात्र लक्ष्य जैन साहित्यकी सेवा बनाया है। इस वृद्धावस्था में भी इस लक्ष्यमें युवकों जैसे उत्साहके साथ संलग्न है। उनका जुझारू और जीवट व्यक्तित्व एक अद्वितीय प्रेरणा प्रदान करता है । जबमें श्री स्याद्वाद महाविद्यालयमें १९६६के आसपास पढ़ने आया तभीसे उनका निकट सानिध्य और मार्गदर्शन प्राप्तिका सौभाग्य रहा है । लाडनंसे पुनः बनारस आने के बादसे और भी निकटता प्राप्त रही। आपसे षट्खण्डागम और कसायपाहड जैसे महान् सिद्धान्त ग्रन्थों एवं इनकी टीकाओंके कुछ भाग पढ़नेका भी सौभाग्य मिला । आत्मानुशासन ग्रन्थका जब पंडितजीने सम्पादन प्रारम्भ किया तब मुझं उसमें सहयोगको कहा। मैंने इसे अपना अहोभाग्य माना और उनके साथ इस कायमें लगा । इस बीच और अन्य ग्रन्थोंके अध्ययनके दौरान देखा कि पूज्य पंडितजीके मनमें यह बराबर लगा रहता है कि हमारे पूर्वाचार्योंके इस अपूर्व ज्ञानको लम्बे काल तक कैसे सुरक्षित रखा जाय ताकि इसकी परम्परा विकसित होती रहे और इसके आधार पर मुमक्ष आत्म कल्याण करते रहें। जैसे धर्म-दर्शन-न्याय-सिद्धान्त-इतिहास आदि किसी भी विषय पर जब कभी पूज्य पंडितजीसे प्रश्न करते वे सप्रमाण और सधे हुए शब्दोंमें उत्तर देते । उनका कहना है कि हमारे आगम ग्रन्थोंमें आचार्योंने सब कुछ लिखा है फिर बिना आगम प्रमाणके मैं बात करना और सुनना पसन्द नहीं करता। इस अभिनन्दनके अवसर पर मेरी हार्दिक भावना है कि अनुपम विद्वत्ताके धनी पितातुल्य स्नेह देने वाले स्वाभिमानी पज्य पंडितजीका लम्बे समय तक साक्षात मार्गदर्शन मिलता रहे। Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ तीर्थतुल्य वन्दनीय | अभिनव टोडरमल • डॉ० कमलेशकुमार जैन, वाराणसी बुन्देलखण्डके अमरसपूत सिद्धान्ताचार्य पण्डित फूलचन्द्रजी शास्त्री उन विरल सरस्वती साधकोंमेंसे हैं, जिनकी लेखनीसे प्रसूत मौलिक चिन्तन-सूत्रों, अकाट्य-तों, शोध-तथ्योंका सर्वत्र समादर है । उनका जीवन प्रारम्भसे ही जैन-सिद्धान्तके मर्मोको उद्घाटित करने में समर्पित रहा है। स्वतन्त्र साहित्य-साधना पण्डितजीका जीवन-धन है। इसीलिए किसी भी प्रकारकी सरकारी, असरकारी, अर्धसरकारी सेवामें उन्होंने रुचि नहीं ली और सेवा-निवृत्तिके पश्चात् होनेवाली आपाधापी-खे दनिन्नतासे सदैव दूर रहकर 'जलसे भिन्न कमल' की उक्तिको चरितार्थ किया है, कर रहे हैं। उन्होंने अपने जीवनमें जैनदर्शन सम्मत कर्म-सिद्धान्तको स्वीकार किया है और सम्प्रति उसी श्रेयोमार्गके पथिक है। पूज्य पण्डितजीने आजीवन जैनदर्शनके 'स्याद्वाद' सिद्धान्तका न केवल वाचन किया है, अपितु पाचन भी किया है। इसीलिए उनके जीवनमें परस्पर विरोधी, किन्तु सापेक्ष दृष्टिसे अविरोधी अक्खड़ता और सरलताका अद्भुत सामञ्जस्य है। उनके दैनिक जीवनमें उपर्युक्त उभयगुणों का सापेक्ष प्रयोग स्याद्वाद सिद्धान्तका अनुपम निदर्शन है। जैन-सिद्धान्त एवं न्यायके अद्वितीयवेत्ता श्रद्धेय पण्डित फलचन्द्रजी सिद्धान्ताचार्य गुरु गोपालदास बरैयाकी शिष्य-परम्पराके अग्रणी विद्वान् हैं। उनके द्वारा की गई साहित्य सेवा, समाज सेवा, देश सेवा उनके महनीय व्यक्तित्वकी परिचायक है । अभिनन्दनकी पुण्यवेलामें तीर्थतुल्य वन्दनीय-अभिनव टोडरमल पूज्य पण्डित जीके दीर्घायुष्यकी हम अन्तःकरणसे मंगलकामना करते हैं । क्रान्तिकारो व्यक्तित्व .५० कपूरचन्द वरैया, लश्कर देश, कालकी परिस्थितिके अनुसार भारतीय समाजमें अनेक उतार-चढ़ाव आते रहते हैं। जैन समाज भी इसका अपवाद नहीं । हरिजन-मन्दिर-प्रवेश पर समाजमें बड़ा तूफान मचा। 'वर्ण व्यवस्था पर तरहतरहकी अटकलबाजियां शुरू हुई। उस समय दो तरहकी धारणाएँ प्रचलित थीं। एक वह वर्ग था जो इस व्यवस्थाको जन्मना सिद्ध करनेपर उतारू था, दुसरा वर्ग कर्मणा (गुण, स्वभाव व आजीविका) का पक्षपाती था। दोनों ओरसे इस सम्बन्धमें काफी कहा और लिखा गया (ट्रेक्टोंके माध्यमसे) पंडितजी कब मौन रहने वाले थे? 'जैनधर्म और वर्ण व्यवस्था' में आपने लिखा कि 'जाति नाम कर्मके उदयसे सभी मनुष्योंकी ज एक है, यदि उसके चार भेद माने भी जाते हैं तो केवल आजीविकाके कारण ही। चार वर्णोकी सत्ता मनुष्यके अपने गुण, कर्म स्वभाव व वृत्तिके आधारसे है, अन्य किसी प्रकारसे नहीं। 'वादे-वादे जायते तत्त्वबोध.' वाद-विवादसे तत्वबोध पैदा होता है। किसके लिये ? जो स्वयं वीतरागभाव (तटस्थबुद्धि) से तत्त्वोंका निर्णय करना चाहते हैं । साहित्यिक सेवाओं के अलावा आपकी सामाजिक गतिविधियाँ भी क्रान्तिकारी रही हैं। बन्देलखण्ड में गजरथ-विरोधी आन्दोलन चला जिसमें आपने भाग लेकर अनशन तक किया, यही नहीं दस्साओंको प्रजाधिकार दिलाने में सक्रिय भूमिका निभाई । पंडित जी कहा करते है कि सामाजिक क्षेत्रमें मतभेद हाना बुरी बात नहीं, द्वन्द्वका भाव नहीं होना चाहिए। वृद्धावस्था होते हुए भी आपमें अभी युवकोचित उत्साह है । मैं आपके यशस्वी जीवन वृद्धि की कामना करता हूँ और चाहता हूँ कि आप इसी प्रकार जिनवाणी माताकी सेवामें निरन्तर तत्पर रहकर स्वपर कल्याण करते रहें। Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम खण्ड : ३५ अभिनंदनीयका अभिनंदन-बनाम जैनसिद्धान्तका अभिनंदन •श्री कमलकुमार जैन, छतरपुर जैन सिद्धान्तके मनीषी, विशेष रूपसे कर्म सिद्धान्तके अद्वितीय अध्येता माननीय पं० फूलचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्री वाराणसीको ऐसा विरला ही व्यक्ति होगा जो न जानता हो । यह तो सम्भव हो सकता है कि बहुतोंने प्रत्यक्ष न देखा हो परन्तु जिसने जैन होनेके नाते णमोकार मंत्रका भी ज्ञान किया है वह पूज्यपंडित जी को अवश्य ही जानता होगा। पंडितजीको हमलोग चलता फिरता जैनागम भी कहें तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी । निश्चित रूपसे पंडितजीका पर्यायवाची नाम यदि ढूँढ़ना पड़े तो वह जैनागम ही होगा। १९५५ में श्री दिगम्बर जैन सिद्धक्षेत्र द्रोणगिरिमें बुन्देलखंडकी बहुप्रचलित परन्तु बहुत वर्षोंसे बन्द गजरथ परम्पराका और प्रथम बार चन्देके माध्यमसे प्रारम्भ होनेवाले गजरथका उद्घाटन हुआ। उस समय अखिल भारतीय स्तरकी संस्थाओंके अधिवेशन हुये । विदेशी विद्वानोंका भी आगमन हुआ। इस अवसर पर अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर जैन विद्वत्परिषद का अधिवेशन था और विशेषता यह थी कि इस अधिवेशनकी अध्यक्षता भी माननीय पंडितजी ने की । पंडितजीका जो सारगर्भित अध्यक्षीय भाषण जो इस अवसरपर हुआ वह महत्त्वपूर्ण था। पंडितजी पूर्व में गजरथोंमें विपुल धनका अपव्यय देखकर उस धनका सदुपयोग जिनवाणीके प्रचार प्रसार अध्ययन मननकी ओर करनेकी भावनासे विरोधी थे । उन्होंने बड़ी दृढ़ताकै साथ अनेक गजरथोंका सशक्त विरोध भी किया। १९५५ में सम्पन्न इस गजरथ महोत्सवमें जो कि चन्देसे प्रारम्भ था अतः एक तो इसमें किसीको पदवी न देनेका प्रस्ताव किया क्योंकि इसके पूर्व गजरथ कारकोंको सिंघई, सवाई सिंघई, सेठ, श्रीमन्त आदि पदवियोंसे अलंकृत करनेकी परम्परा रही है। दूसरी बात यह कही गई कि इस आयोजनसे द्रव्य बचे उसका उपयोग सार्वजनिक हितमें, जिनवाणीके प्रचार प्रसारमें होना चाहिये । पंडितजीके दोनों प्रस्ताव इस गजरथ महोत्सवमें स्वीकृत किये गये और क्रियान्वयन भी यहीसे हुआ । प्रथम तो यह हुआ कि गजरथ कारकोंको कोई भी पदवी प्रदान नहीं की गई। दूसरा कार्य सार्वजनिक हितमें यह हुआ कि पूज्य वर्णीजीके आदेशानुसार बड़ा मलहरामें एक हायर सेकेण्डरी स्कूल प्रारम्भ कर दिया गया । जैन सिद्धान्त पर तो आपका गंभीर ज्ञान है ही जैन इतिहास और पुरातत्त्वमें भी आपकी विशेष रुचि है पंडित जी जब कभी कभी कहीं तीर्थस्थान मन्दिरोंमें दर्शनार्थ जाते हैं वहाँकी मूर्तियोंके इतिहास पर पहले दृष्टि डालते हैं, मूर्ति लेखोंके संग्रहकी प्रवृत्ति है, और उसके आधार पर इतिहासकी महत्त्वपूर्ण जानकारीके साथ ही जैन जातियोंके क्रमबद्ध इतिहासकी खोज करते हैं। शिक्षा जगत्में तो पंडितजीका कार्य अभूतपूर्व ही है अनेक शिक्षा संस्थाओंके जनक पूज्य गणेशप्रसादजी वर्णीसे आपका निकटका सम्बन्ध रहा है। सामाजिक क्षेत्रमें भी पंडितजीका महत्त्वपूर्ण योगदान है। इन्होंने समाजगत रूढ़ियोंका विरोध किया । बहुव्यय साध्य अनावश्यक गजरथोंका सशक्त विरोध किया और समाजको प्रगतिशील बनाने में योगदान दिया। धर्म प्रचारके रूपमें पंडितजी एक प्रमुख आध्यात्मिक वक्ताके रूपमें प्रसिद्ध हैं। हजारोंकी विशाल जनसभामें पंडितजीका आध्यात्मिक प्रवचन श्रोताओंको मन्त्रमुग्ध करता है जहाँ आजका श्रोता कर्म सिद्धान्त जैसे क्लिष्ट विषयको गम्भीरतासे सुन पानेमें भी अपनेको अक्षम मानता है वहीं पंडितजीके प्रवचनकी यह खूबी है कि गम्भीरसे गम्भीर विषयको इतना सरल और रोचक बना देंगे कि श्रोताओंको उसमें बड़ा आनन्द आयेगा। अभिनन्दनके इस स्वर्णिम अवसर पर जैन सिद्धान्तके मर्मज्ञ सिद्धान्ताचार्य माननीय पंडित फलचन्द्रजीचरणोंमें मैं अपनी श्रद्धा अर्पित करते हुए उनके स्वस्थ एवं दीर्घ जीवनकी मंगल कामना करता हूँ। Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ आगम निष्ठ मनीषी • डॉ० श्रेयांसकुमार जैन, बड़ौत विद्वत शिरोमणि श्री पं० फुलचन्द्र जैन सिद्धान्ताचार्य वर्तमान विद्वत परम्पराके देदीप्यमान रत्न है। इन्होंने धवल, जयधवल के अनुवाद और सम्पादनमे जो कार्य किया है, वह सहयोगात्मक कार्य स्तुत्य है । द्रव्यानुयोग और करणानुयोगके अनेक ग्रन्थोंकी टीकाएँ आपने शास्त्रीय शैलीमें की है, जिनसे विद्वत परम्परा और समस्त समाज अत्यन्त उपकृत है। जीवनका ध्येय ही चिन्तन मनन और लेखन है, ऐसे आगमनिष्ठ मनीषीके अभिनन्दनसे आनन्दित हूँ। अभिनन्दन करते हुए मेरी कामना है कि शत शरद् ऋतुओं की सुरभिसे सुरभित होकर आगमकार्यमें व्याप्त रहें। सादगी एवं सच्चरित्रताको साक्षात मूर्ति • सुरेन्द्रकुमार जैन सौरया, बिजनौर पूज्य पण्डितजी श्रमण धर्मके मूर्धन्य विद्वान् तथा सादगी, सच्चरित्रता, संयम तथा सहनशीलताकी साक्षात् मूर्ति हैं। उनका जीवन "सादा जीवन एवं उच्च विचार"की उक्तिको चरितार्थ करनेवाला है । जैन धर्मका कोई भी सिद्धान्त तथा कोई भी ग्रन्थ ऐसा नहीं है जिसका उन्होंने अध्ययन न किया हो । षट्खण्डागम जैसे प्राचीन जैन ग्रन्थोंका वाचन कर विषयको भली-भाँति समझाना आपकी विद्वदवर्यताका ज्वलन्त प्रमाण है । आज जबकि व्यक्ति धर्मसे विमुख तथा धार्मिक सिद्धान्तोंसे अनभिज्ञ है। एसेमें धार्मिक विद्वानोंकी महती आवश्यकता है । ऐसे समयमें सिद्धान्ताचार्यजी समय-समय पर हम जैसे व्यक्तियोंको स मार्ग पर अग्रसित करते रहें। इसी आशाके साथ मैं जैनधर्म के सुप्रसिद्ध विद्वान् पंडितजीको श्रद्धासुमन अर्पित करता हूँ। सादा जीवन उच्च विचारके धनी .श्री शशिप्रभा जैन शशाङ्क, आरा आदरणीय पण्डितजी यथानाम तथा गणवाले व्यक्तित्वसे विभूषित हैं। मुझे उनके कई बार प्रवचन सुननेका सौभाग्य मिला। वाणीकी तेजस्विताके धारक पण्डितजीमें श्रोताओंके अन्तःकरणको स्पर्श करनेकी अपूर्व क्षमता है। माँ श्री पूज्या चन्दाबाईजी सादा जीवन उच्चविचारके धनी शास्त्रीजीके गुणोंकी प्रशंसिका थीं । उनके इस अभिनन्दनके शुभावसर पर मेरी विनयाञ्जलि अर्पित है। मेरे पितृतुल्य गुरुजी .श्रीमती मुन्नी जैन, वाराणसी मुझे यह जानकर बहत प्रसन्नता हो रही है कि सुप्रसिद्ध मनीषी पण्डितजीका अभिनन्दन हो रहा है। सन् १९७४ में जब पहली बार बनारस आई तबसे निरन्तर मुझे पूज्य पण्डितजी एवं पूज्यनीया अम्माजीका अपार स्नेह प्राप्त रहा है । लाडनूं से पुनः बनारस आनेके बादसे तो आ० पण्डितजीके पास ही मेरा आवास होनेसे दोनोंका बराबर सहयोग और मार्गदर्शन मिला । स्वाध्याय परायण स्नेहशीला अम्माजीकी सरलता और वात्सल्यभावकी कृतज्ञताके प्रति जो कुछ भी लिखू कम होगा और पूज्य पण्डितजीकी विद्वत्ताका वर्णन करना सूर्यको दीपक दिखाना है। मुझे पण्डितजीने प्राकृताचार्य कर लेनेको प्रेरित ही नहीं किया अपितु षट्खण्डागम और कषायपाहड, प्राकृत-प्रकाश आदि ग्रन्थोंके पाठ्यक्रममें निर्धारित अंशोंको मुझे पढ़ाया भी। यह मेरा गौरव और सौभाग्य है कि इतने उच्चकोटिके विद्वानसे मुझ जैसोंको पढ़नेका सुअवसर और स्नेह प्राप्त हुआ। मेरी हार्दिक भावनायें हैं कि पूज्य पण्डितजी पूर्ण स्वस्थ रहकर दीर्घायुष्य प्राप्त करें। Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम खण्ड : ३७ सरलता और सहजताके स्रोतोत्तर .श्री लक्ष्मीचन्द्र 'सरोज', जावरा सिद्धान्ताचार्य पण्डित प्रवर फलचन्द्र जी शास्त्री, उन वरिष्ठ और विशिष्ट विद्वानोंमेंसे हैं, जिनके व्यक्तित्व और कृतित्वसे प्रतिस्पर्धा करना असम्भव नहीं तो काफी कष्ट साध्य अवश्य है। वे बुन्देलखण्डके एक ऐसे कीर्तिमान स्तम्भ है, जिसकी कीति-कथा उत्तर-दक्षिण पूरब-पश्चिममें समान रूपसे मुखरित हुई है। पण्डितश्रीका जीवन अतीव संघर्ष प्रधान रहा । उनका अपना बहुमुखी व्यक्तित्व है । उन्होंने अपनी लौह लेखनीसे जिस धार्मिक साहित्यका सजन किया, वह उनके अगाध अध्ययन और अमित परिश्रमका परिचायक है। यह कहना कोई अतिशयोक्ति अलंकार नहीं होगा कि पण्डितजी की अनेक कृतियोंने अनेकानेक विद्वानोंको सही अर्थों में विद्वान् बनानेमें सुरुचिपूर्ण सहयोग दिया है । आप उच्चकोटिके भाष्यकार, ग्रन्थ-पत्र सम्पादक, लेखक-समाज-सेवक और स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी रहे हैं । आप विख्यात विचारक, कुशल प्रवक्ता, पूर्ण शिक्षक हैं। सरल शब्दोंमें सुलझे विचार रखना, कठिन विषयको सरल बनाकर समझाना, विद्वत्ताके साथ चातुर्य जोड़ना आपका स्वभाव है। सरलता और सहजताके आप एक ही स्रोतोत्तर है । आपके अध्ययन-अनुभव-अभ्यासकी जितनी भी सराहना की जावे, कम है। बीनाके रत्न •श्री कुन्दनलाल जैन, दिल्ली आदरणीय पंडित जी स्वतन्त्र विचारोंके व्यक्ति हैं और बड़े ही स्वाभिमानी है । पराधीनता अथवा दूसरोंका अनावश्यक दबाव उन्हें कभी भी स्वीकार्य नहीं रहा । यही कारण है कि किसी भी संस्थामें वे लगातार जमकर कई वर्षों तक नहीं टिक सके। पंडितजीमें राष्ट्रीय भावना कूटकूट कर भरी हुई है। पंडितजीने वाराणसीमें बड़ी ख्याति अर्जित की । विशेषतया सन् १९४२ के स्वातन्त्र्य संग्राममें स्याद्वाद विद्यालयके छात्रोंको पंडितजीका भरपूर मार्गदर्शन प्राप्त हआ, यद्यपि पंडितजी स्या० वि. से सम्बन्धित नहीं थे फिर भी अंग्रेजी नौकरशाहीसे पीड़ित छात्रोंको पंडितजीसे तन मन धनका पूरा सहयोग प्राप्त होता था। भूमिगत छात्रोंकी सुरक्षा तथा आर्थिक सहायता पंडित जी किया करते थे। इस स्वाधीनता आन्दोलनके केन्द्रोंमें स्या०वि०, काशी विद्यापीठ एवं हिन्दू विश्वविद्यालय प्रमुख थे। आदरणीय पंडितजीके स्वाध्याय और अध्ययन चिन्तन एवं मननका तो कहना ही क्या है, आप तो अगाध पांडित्यके धनी एवं ज्ञानके सागर हैं । यद्यपि वे पुरानी पीढ़ीके विद्वान् कहे जाते हैं पर उनके विचारोंमें नवीनता एवं प्रगतिशीलताका अदभुत समन्वय है। वे रूढ़िवादिता और दकियानूसीपनके प्रबल विरोधी हैं। उन्हें हर तर्कसंगत बात अच्छी लगती है। पराधीनता उन्हें स्वीकार्य नहीं अत: उन्होंने अपना सारा जीवन स्वयंभोजीके रूपमें ही बिताया है, सेठों या धनिकोंकी चापलूसी या खुशामद उन्हें तनिक भी पसन्द नहीं है। आदरणीय पंडितजी स्वस्थ और प्रसन्न रहते हुए शतायु हों और जैनागमकी सेवा करते रहें इसी हार्दिक शुभ कामनाके साथ उन्हें अपनी प्रणामाञ्जलि प्रस्तुत करते हुए विराम लेता हूँ। जीवेत शरदः शतम् । Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ पुण्यपुरुष •पं० विमलकुमार जैन सौंरया, टीकमगढ़ ___ श्रद्धेय पूज्य पण्डित फूलचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्री ज्हाँ सिद्धान्तके महामना हैं वहाँ समाज और संस्कृतिकी सेवामें ऐसे ही अनुपम हैं । जिनवाणीकी जो महती सेवा करके युगों-युगों तक जन-जनका जो उपकार किया अवश्य ऐसे पुण्य पुरुषके कृतित्व एवं व्यक्तित्वसे हमारी समाज अपने आपमें गौरवान्वित है। अपने इन्हीं विशेष गुणोंके कारण पूज्य श्रद्धेय पण्डित फलचन्द्रजी गुण गरिमाके सागर बन गये। ऐसे महान व्यक्तित्वके चरणोंमें मैं श्रद्धापूर्वक प्रणाम करता हआ उनके सुखी दीर्घ यशस्वी जीवनके प्रति जिनेन्द्र प्रभुसे प्रार्थना करता हूँ। सातिशय प्रज्ञाके धनी .श्री राजमल जैन, भोपाल सिद्धान्ताचार्य श्रद्धेय पण्डित फूलचन्द्रजी शास्त्री जो कि जैन जगत्के महान् सिद्धान्तवेत्ता, सातिशय जिनवाणी माताके गढतम रहस्योंके मर्मज्ञ विद्वान एवं आत्मसाधकके विषयमें आज कौन परिचित नहीं है। वे लगभग ६० वर्षसे सर्वज्ञ प्रणीत सिद्धान्तोंकी सेवामें निःस्वार्थ भावसे कार्यरत है । आपकी लेखनीसे लिखे गये करणानुयोगके मल आगम-धवला जयधवला एवं महाबंधादि अनेक-अनेक उच्चकोटिके ग्रन्थोंके सम्पादक एवं अनुवादक, अनेक मौलिक कृतियोंके लेखक एवं निबन्ध लेखनके द्वारा हम जैसे अज्ञानियोंका जो उपकार किया है, उसके लिए हम चिर ऋणी रहेंगे। कुछ वर्षोसे पू० १०८ मुनि विद्यासागरजीकी प्रेरणासे करणानुयोगके मूल आगम धवणादि ग्रन्थोंका ग्रीष्म कालमें लगभग १॥-२ माह तक वाचनका क्रम चल रहा है। मैंने स्वयं इस सुअवसर पर सागर एवं जबलपुर जाकर कई दिनों तक काम किया। पंडितजीका जीवन लोकेषणा एवं वित्तषणासे परे है। उन्होंने आगम-अध्यात्ममें वर्णित तथ्योंको मात्र शब्दों या धारणामें ही ग्रहण नहीं किया है, बल्कि अपने दैनिक जीवन में भी उसको अपनाया है। ऐसे जैन समाजके सर्वोत्कृष्ट विद्वान् पंडितजीके इस अभिनन्दन समारोह पर मैं अपने श्रद्धा सुमन उनके चरणोंमें समर्पित करते हुए उनके दीघ्रजीवी होनेकी हृदयसे भावना करता है। आत्मबलके धनी •श्री कपूरचन्द भाईजी, बंडा पिछली अर्ध शताब्दीमें 'पूज्य वर्णीजी' द्वारा निखारे रत्नोंकी मालामें, 'पूज्य पंडित प्रवर फूलचन्द्रजी' सिद्धान्तशास्त्री अत्यन्त चमकते हुए विद्वत्रत्न है। उनके द्वारा अनेक सिद्धान्त ग्रन्थोंकी टीका व अनेकानेक मौलिक लेखों व ग्रन्थोंमें पूज्य पंडित श्री ने अनेक सिद्धान्त गुत्थियोंको सहज ही सुलझाया है। हर सिद्धान्त विषय पर उनका दिया गया निर्णयात्मक उत्तर हर तत्त्वजिज्ञासु को स्वीकार होता है। आज भी उनकी कलम निरन्तर इस जीवन संध्यामें, जब बाह्य स्वास्थ्य भी साथ नहीं देता, अपने अन्तरके बल पर चलती रहती है; मुमुक्षुओंका मार्ग प्रशस्त करती रहती है। हम पंचपरमेष्ठी भगवन्तोंको स्मरण कर कामना करते हैं कि शतायुके पूर्ति पर उसकी हम सब अमृत जयन्ती मनाएँ। Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम खण्ड : ३९ विचक्षण प्रतिभावान् •सौ० पोसेरिया चन्द्रिका जैन, इन्दौर श्रद्धेय सर्वमान्य पं० दादा फलचन्द्रजी सारे भारतके जैन समाज व अन्य समाजके जाने-माने मूर्धन्य विद्वान् हैं। जो उनके सम्पर्कमें आया उनकी वाणी और लेखनीसे प्रभावित ही हुआ। आपके यथार्थ सूक्ष्म गूढ़ तात्त्विक ज्ञानकी श्रेष्ठता अद्वितीय है। आप करणानुयोगके तो प्रकाण्ड विद्वान् है हों। वह इतिहासकी अविस्मरणीय घटना है। बीसवीं सदीमें जब आध्यात्मिक एक महापुरुष कानजी स्वामीका आविर्भाव हुआ। यह स्वर्ण युग आया था टोडरमल बनारसीदासके बाद, पुर्वाचार्योंकी तत्त्वज्ञान तरंगणी उछली और फिर सारे देशमें यहाँ तक विदेशमें भी वह अमृतधारा बह चली। तो सारे देशमें खलबल मची सब दौड़े-भागे पश्चिममें, अरे यह बात हमने सुनी ही नहीं अथवा इन्हें सुनाई नहीं गई, सुनाई ही गई नहीं। किन्हीं विद्वानों तक चर्चाका विषय रहती थी जब समयसारका सार खुला तो पाखंडोंके गढ़ ढहने लगे । मुनि त्यागी पंडितोंकी पोप लीला खुलने लगी। कई चोंके, चमके, गरजे, पर एक पं० फूलचन्द्र ही खरे उतरे जो मेरुवत् स्थिर रहे । और आज ५० वर्षोंके बाद भी शुद्धमति अचल हैं। इसका सबल प्रमाण है उनकी एक खानिया तत्त्व चर्चा जिसने प्रत्यक्ष देखा है अथवा पढ़ा है। जिन्होंने ६० पंडितोंके साथ तत्त्व चर्चा कर सफल निर्णयात्मक समाधान कर चकित किया है लगता है उनके ऊपर वाग्देवी जिनवाणी माताने वरदहस्त किया हो। जहाँ बड़े-बड़े नामी गरामी दिग्गज विद्वान् गंगामें गंगादास और जमनामें जमनादास बनते देखे जाते हैं । वहाँ पं० फूलचन्द्रने किसी भी भय, आशा, स्नेह, मान मर्यादाका विचार किये बिना ही अपना अमूल्य श्रद्धा मस्तक नहीं झुकाया । धार्मिक जगत्की कौनसी समस्या न हो, जो दादाको न छुई हो। धवलादि ग्रन्थों के अनुवादके अलावा अनेकों ग्रन्थोंकी टीकायें, प्रस्तावनायें, सम्पादन, संशोधन कार्य किया है । जहाँ पूर्वाचार्योंकी परम्परामें शुद्धाम्नायके अनुकूल सौ टंच है । . कानजी स्वामीको प्रभावित युगमें जो मूल सिद्धान्तोंमें ऊहापोहके घनघोर बादलोंमें मतभेद उभरा तो आपने जैनतत्त्वमीमांसा लिखकर तत्त्व जिज्ञातुओंपर बड़ा उपकार किया है । पर जिनके चक्षुओंपर पक्ष मोहका ऐनक चढ़ा है वे वस्तु सही होते भी सही नहीं देख पाते । यह तो उनकी स्वयंकी भूल है । दादा जी और नयी पीढ़ीके तत्त्व प्रचारके माध्यमोंमें भले ही भिन्नता भासित हो, परन्तु मौलिक सिद्धान्तोंकी स्वच्छता और प्रखरतामें इंच मात्र भी विरोध नहीं है। उनके चेहरेमें भोलापन, वाणीमें सरलता, जीवनमें सादगी, तत्त्व ज्ञानकी गम्भीरताको लिए सदा-सदा काल मुमुक्षुओंमें गुरुपनेकी गरिमासे प्रतिष्ठित रहेंगे। जो कर्मोदय जनित आधि, व्याधि, उपाधिमें सदा धैर्यवान समताशील रहे । वे चिरायु हों। सब भगवान् वीतरागकी वाणीको समझ कर हमारा चिर आराध्य जो अलौकिक महान् दुर्लभ निधि सम्यग्दर्शन है । उसका लाभ हो इन्हें । उनके द्वारा जो जिन शासनकी सेवा हुई है । उसका समाज सदा ऋणी रहेगा। पंडितजीका ऋण हलका करना है तो उनके द्वारा अनुवादित धवगदि ग्रन्थोंको स्वाध्याय द्वारा जन जनकी विषय वस्तु बनाया जाय । Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ प्रेरणास्पद व्यक्तित्व .श्री दीनानाथ तिवारी, बीना सिद्धान्ताचार्य पंडित फूलचन्द्रजी शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ योजना, निस्सन्देह, प्रेरणास्पद विकासोन्मुख, मार्ग दर्शक व्यक्तित्वका समुचित सम्मान ही नहीं, वरन् समाज, साहित्य, एवं अध्यात्म के माध्यमसे राष्ट्र सेवाका वास्तविक मूल्यांकन है। देशभक्त पंडितजी .५० दरबारीलाल जैन, ललितपुर पं० फूलचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्री जैन समाजके ही नहीं अपितु भारतके मान्य विद्वानोंमें अपना विशिष्ट स्थान रखते हैं। सन् १९४२ भारतवर्षके इतिहासमें एक मीलके पत्थरकी भांति स्वतन्त्रताकी यात्राका बोध कराता है। इस वर्ष जुलाईमें मैंने श्री स्याद्वाद महाविद्यालय, वाराणसी अध्ययन हेतु प्रवेश लिया था। अभी मैं विद्यालय और काशीके वातावरणसे परिचित भी नहीं हो पाया था कि ९ अगस्त ४२ को "भारत छोड़ो" आन्दोलन आरम्भ हो गया। बनारसमें ४२ के आन्दोलनमें विद्यार्थी वर्गका महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। शिक्षा जगतमें भी पंडितजीकी सेवायें चिरस्मरणीय है । ललितपुरमें श्री वर्णी जैन कालेजकी स्थापनामें पंडितजीका महत्त्वपूर्ण योगदान है। पार्श्वनाथ जैन गुरुकुल, खुरईके लिए विपुल धनराशि संग्रह करनेमें उन्हें बहुत याद किया जाता है । वे कहते हैं 'देश और समाजके हितके लिए अपने को बड़े से बड़े खतरेमें डालनेसे मत चूको, तुम्हें सफलता अवश्य प्राप्त होगी।' पिततल्य व्यक्तित्व .श्री मुन्नालाल जैन, वाराणसी मझे पूज्य पंडितजीके घर उनके सहायकके रूपमें कुछ महीने रहनेका सौभाग्य मिला है। इस वृद्धावस्थामें भी मैंने देखा कि उन्हें कार्य करनेका युवाओं जैसा उत्साह है। वे निरन्तर लेखन और सम्पादन कार्यों में लगे रहते हैं। अनेक शोधकर्ता और जिज्ञासु उनके घर निरन्तर आते और अपनी शोध तथा अविविध जटिलसमस्याओंका सप्रमाण समाधान पाकर सन्तुष्ट हो चले जाते । मैंने भी अनेक दार्शनिक और आगमिक बातोंकी जानकारी लेनेका लाभ उठाया। मझे उनके साथ सहायकके रूपमें ही महाराष्ट्र और कर्नाटक प्रान्तके अनेक स्थानोंकी यात्राका सौभाग्य मिला । उनका जगह-जगह भव्य स्वागत और प्रवचन चलता था। वे मुझ जैसे छात्रकी भी सुविधाओंका पूरा ध्यान रखते। मैंने अनुभव किया कि उनके सम्पर्कमें आनेवाले सभीके प्रति समानरूपसे पितातुल्य स्नेह और उन्नतिकी चाह है उनमें मेरी शुभकामना है कि वे शतायु हों और सदा हम लोगोंका मार्गदर्शन करते रहें। आदरणीय गुरुजी •श्री भैयालाल पुरोहित, बीना। जिस समय पंडितजी श्री नाभिनन्दन दिगम्बर जैन विद्यालय, बीनाके प्रधानाध्यापकके पदपर आसीन थे उस समय विद्यार्थीके रूपमें मैं विद्याध्ययन करता था । वास्तवमे योग्य गुरुमें जो गुरु स्वभाव होना चाहिये वह पूर्णरूपेण पाया । मुझे ही क्या पूरे शिष्य समुदायका उनके प्रति भक्तिका अनुराग भूलता न था । उन जैसी पाठ शैली विरले गरुमें ही पायी जाती है। उनकी देनसे मैं कुछ सम्पन्नताकी ओर आकर योग्य समाजमें बैठ पाया । मेरा जीवन उनकी कृपाका फल है। अभिनन्दनकी सफलताका आकांक्षी हैं। Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरी डायरीके पृष्ठों में सिद्धान्तशास्त्रीजी • राजवैद्य पण्डित भैया शास्त्री आयुर्वेदाचार्य, शिवपुरी पूर्वकी बात है जब मैं लगभग अर्द्ध शताब्दि अध्ययन करता था तब पं० फूलचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्रीका नाम सुना करता था उनके दर्शनोंकी उत्कण्ठा मनमें होती थी । सन् १९४८ में एकबार मैंने अपनी सन्देश डायरी सर्वप्रथम पूज्य वर्णीजीसे सन्देश लिखाया फिर पं० फूलचन्द्रजीसे पश्चात् न्यायाचार्य पं० महेन्द्र कुमारजीसे इन तीनों मनीषि गुरुओंके सन्देश लेकर घर चला गया, सन्देश क्या थे मेरे जीवनको नई दिशा देने वाले थे । सिद्धान्तशास्त्रीजीने अपनी कलमसे मेरी डायरी पर लिखा । प्रथम खण्ड : ४१ "जीवनकी साधना सेवा, त्याग और आत्म शुद्धि है । जिसने इस त्रयीको अपनाया उसीका जीवन सफल है ।' 31 मैंने पण्डितजीके जीवनसे यही सबक सीखा है कि सेवा और त्यागवृत्तिसे आत्मशुद्धि होकर मानवमानव अपने उत्कर्षकी ओर अग्रेसित हो अन्तिम मंजिल पर पहुँच जाता है । अब यह सेवा चाहे तो मानवकी हो या उसके जीवन चर्या से सम्बन्धित कार्य कलापोंको परिमार्जित कर आगे उत्कर्षकी ओर ले जानेवाली ये सामाजिक धार्मिक सैद्धान्तिक और आत्मिक बोधका महत्त्व प्रायः सभी जानते हैं और मानते भी हैं । पूज्य पंडितजीने समाजके क्षेत्रमें धर्मके बीच और आत्मिक विकासके क्षेत्रमें बहुत बड़ी सेवा की है । अभिनन्दनके इस अवसर पर मेरी शुभकामनाएँ हैं कि पूज्य शास्त्रीजी निरोग और चिरायु हों । समाज सेवामें अग्रणी • श्री पूरनचन्द्र जैन, वाराणसी सिद्धान्त शिरोमणि पूज्य पं० फूलचन्द्रजी सिद्धान्ताचार्य जैन समाजके जाने माने वयोवृद्ध विद्वान् हैं । समाजोत्थानकी सभी प्रवृत्तियोंमें वे सदैव आगे रहे हैं तथा उसके लिए विविध कष्टोंको उठाया है । कितनी ही सामाजिक तथा साहित्यिक संस्थाओंके जन्म में पंडितजीका हाथ है । इनमें श्री गणेश वर्णी दि० जैन संस्थान प्रत्यक्ष उदाहरण है। जिसके लिए पण्डितजीने अपना सब कुछ लगा दिया तथा आज भी इसके लिए वे दिनरात चिन्तित रहते हैं । वर्तमानमें संस्थानका जो मूर्तरूप संस्थान भवन पुस्तकालय, प्रकाशन तथा धौव्य फंड आदि है वह सब पूज्य पण्डितजीके सफल प्रयासका ही प्रतिफल है । मुझे दो-तीन बार पंडितजीके साथ सहायकके रूपमें यात्रा करने का भी सुअवसर प्राप्त हुआ है उस समय पण्डितजीको समीपसे देखा है । उनकी आत्मीयता, सहजता तथा वात्सल्य भावको भुला पाना कठिन है । हमारा सौभाग्य है कि ऐसी निःस्पृह विभूति हमारे बीच मौजूद है । हम पण्डितजीके दीर्घायु एवं अरोग्यकी मंगल कामना करते हैं । उनके चरणोंमें विनम्र शतशः प्रणाम ! ६ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "किया सुनहरे शब्दों में पण्डित रूप चरितार्थ श्री कल्याणकुमार 'शशि', रामपुर लब्धिसार, सर्वार्थसिद्धि, जयधवला ज्ञान ग्रहीत, पंचाध्यायी, जैनतत्त्वमीमांसा आदि पुनीत । मुखरित है पूर्वाचार्यों का, आध्यात्मिक संगीत, इससे लाभान्वित होंगे, शोधार्थी गणनातीत । पंडित फूलचन्द्र निधि, सैद्धान्तिक भण्डार, मुमुक्षुओंको लक्ष्य प्राप्ति के खुले मिलेंगे द्वार ॥ इन ग्रन्थोंमें कल्लोलित है, आत्मिक सिन्धु अगाध, शुद्ध ज्ञान पर्याय विवर्द्धत, शाश्वत अव्याबाध | साहित्यिक सामाजिक रूचियाँ, जुड़ती चली अबाध; विविध रूपमें संग चल रही, चिरस्थायिनी साध । शिलान्यासकी प्रथम ईंट ही निकली पानीदार; उच्च गगनचुम्बी शिखरों की, यही ईंट आधार ॥ विश्व शान्ति राष्ट्रीय भावना, निर्विवाद परमार्थ, विस्मय युक्त विषमताओं में, सम्मुख रहा यथार्थ । रहे महत्वकांक्षाओं में, निर्मोही निःस्वार्थ, किया सुनहरे शब्दोंमें, पाण्डित्य रूप चरितार्थ । शंका समाधानके योद्धा, आडम्बर में उदासीन, तर्काश्रित तकरार; जैनागम की मीनार ॥ कर्मठता की सक्रियता में, कहीं न रञ्च विराम, श्रमकी साधक तत्परताओं में गौण रहा विश्राम । लड़ा दासता के विरोध में स्वतन्त्रता संग्राम, इस अभिनन्दनीय जीवन को शत्शत् बार प्रणाम । स्याद्वाद के अनेकान्त के दिये सटीक विचार, किन्तु रञ्च भी अहङ्कार को किया नहीं स्वीकार ।। Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शत शत अभिनन्दन है हास्यकवि हजारीलाल जैन 'काका' सकरार देश, धर्म के लिये समर्पित जिनका तन मन धन है, श्रीमान् फूलचन्द शास्त्री का शत-शत अभिनन्दन है। वैसाख बदी चौथ सम्वत अट्ठावन की आई, श्रीसिंघई दरयावलाल घर बजने लगी बधाई, ग्राम सिलावन जिला ललितपुरने ऐसी निधि पाई, मात जानकीबाई इनको गोदी ले मुस्काई, सुन्दर बालक लखकर प्रमुदित हआ सभीका मन है, पंडित फूलचन्द्र शास्त्री का शत-शत अभिनन्दन है। होनहार विरवान चीक ने पत्तों वाले होते, महापुरुष भी इसी तरह कर्तव्य परायण होते, चार मील पैदल चल पढ़ने ग्राम खजुरिया जाते, तन मनसे पढ़नेवाले ही आगे नाम कमाते, फिर पहुँचे इन्दौर वहाँ भी किया खूब अध्ययन है, पंडित फूलचन्द्र शास्त्री का शत-शत अभिनन्दन है। पहले अध्यापक बनकर शिशुओं को ज्ञान सिखाया. बाद बनारस स्याद्वाद विद्यालयको अपनाया, धर्माध्यापक बनकर की तन-मन से सेवा भारी. सोलापुर में धवला के अनुवाद की कीनी त्यारी, धवला जयधवला का मिलकर कीना सम्पादन है, पंडित फूलचन्द्र शास्त्री का शत-शत अभिनन्दन है। भरा खुब भण्डार सरस्वती माँका कलम चलाकर, जैनतत्त्वमीमांसा जैसे तात्त्विक ग्रन्थ बनाकर, फिर भारत माँ की सेवा को सेनानी बन आये, तीन माह तक झाँसी कारागह में दिवस बिताये. बाँध न पाया इन्हें मोहका कोई भी बन्धन हैं, पंडित फलचन्द्र शास्त्री का शत-शत अभिनन्दन है। Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थे इसी तरह सामाजिक कार्योंमें सहयोग दिया है, वर्णी कालेज ललितपुर को चन्दा खुब किया है, गुरुकुल और तीर्थ क्षेत्रों को काफी दान दिलाया, वर्णी ग्रन्थमाला स्थापित करके समृद्ध बनाया, जैन जाति की सेवा में बीता जिनका जीवन है, पंडित फूलचन्द्र शास्त्री का शत-शत अभिनन्दन है | जानें कितनी उपाधियों से जुड़ा आपका नाता, पूरी पुस्तक भर सकतो यदि खोलें इनका खाता, वीर प्रभू से यही विनय है इन्हें रहे सुख साता, जुग जुग जिये मार्ग दर्शन दें रक्षा करें विधाता, ये वाणीके जादूगर हैं 'काका' इन्हें नमन है, श्रीमान् फूलचन्द्र शास्त्री का शत-शत अभिनन्दन हैं । हों शतायु काटें भव बंधन वैद्य कपूरचंद्र विद्यार्थी, दमोह जो सेवा के लिए समर्पित, जिनका तन मन सदा रहा है । जिनवाणी श्रुत के प्रणयन हित संघर्षो का क्लेश सहा है ॥ १ ॥ जैनतत्त्वमीमांसा. कहती, विद्वत्ता की गहन कहानी । महाबंध .के. संपादन में, अतिशयताकी भरी निशानी ॥ ३ ॥ जिनने, षट्खंडागम दुर्लभ संपादन कर सुलभ बनाया । टीका धवला जयधवला की, करके जन जन को समझाया ॥ २ ॥ शील स्वभाव मौन सेवा व्रत, जिनवाणी का पाठन चिंतन । हर क्षण जिनका ध्येय रहा है, अन्वेषण शोधन थुति बंधन ॥ ४ ॥ ऐसे जिन सिद्धान्त शिरोमणि, फूलचंद्र जी का अभिनन्दन । करते मधु मुद मय भावों से, हो शतायु काटें भव बंधन ।। ५ ।। Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड २ जीवन परिचय • भेंटवार्ता • रेखाचित्र Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन-परिचय मेरे पिताजी मेरे श्वसुर पूज्य पं० फूलचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्री मुझे अपनी बेटी के लिये वे पिता तुल्य तो हैं ही, मुझे उन्हें पिताजी कहनेमें ही आनन्द आता है; उन्हें दादाके नाम से सम्बोधित करते हैं । उनका जन्म वैशाख वदी ४ को श्रीमती नीरजा जैन, M. Se., रुड़की समान मानते हैं । अतः मेरे किन्तु घरके अन्य सभी सदस्य सन् १९०१ वि० सं० १९५८ हुआ था । उनके कर्मशील ८४ वर्षोंके लिये यदि एक-एक पृष्ठ भी दिया जाये तो भी कम है । पिताजीका जन्म बुन्देलखंडके एक गाँव सिलावनमें हुआ था जो कि ललितपुरसे १६ मील दूर है । यह गाँव ललितपुरको महरौनी, मड़ावरा और टीकमगढ़से जोड़नेवाली सड़क पर बसा हुआ है । उनके पिता सिंघई दरयावलालजी, प्रसिद्ध बरया वंशके वंशज थे और माताका नाम जानकी बाई था। इनकी सबसे बड़ी एक बहन प्राणोबाई थीं, फिर दो बड़े भाई और उनसे छोटे एक भाई हुए। छोटे भाईका नाम श्री भैयालाल है । तीन चार वर्षकी अवस्थामें ही पिताजीकी आँखें फूल गई थीं । कोई डाक्टरी इलाज तो उस समय उपलब्ध नहीं था, अतः आँखोंमें रोहे पड़ गये हैं, ऐसा समझ कर आँखों में नमक घिसा गया जिससे रोहे गल जायें और आँखों पर पट्टी बाँध दी गयी । फलस्वरूप पूरी आँखोंमें सफेद जाला छा गया । आँखोंकी ज्योति बहुत कमजोर हो गई तथा छः इन्च पर रखी हुई वस्तु ही दिखाई दे पाती थी । ऐसी विकट परिस्थितिमें गाँव की ही एक गुजर स्त्री गीजरन बाईने तीन साल तक पिताजीकी भरपूर सेवा की। उसका नित्यका कार्य था कि हाथीका नख, सफेद रत्ती व लाल चन्दन घिसकर एक विशेष अंजन तैयार करना तथा आँखोंमें लगाना । इस सेवाका ही परिणाम निकला कि आँखोंकी ज्योति पुनः लौट आई और आज ८४ वर्ष hat अवस्था में भी पिताजी अपना पढ़ने-लिखनेका कार्य ( ६-७ पृष्ठ प्रतिदिन लिखना ) स्वयं कर लेते हैं । पिताजीके दादा मल रूपसे पासके ही एक गाँव खजुरिया के रहनेवाले थे । वहाँ पर उनके द्वारा निर्मित पक्का मकान भी था । वहाँ पर कभी रथ चला था, जिसमें उनके माता-पिता इन्द्र-इन्द्राणी बने थे । खजुरिया में बरया वंशकी वेदी अभी भी मौजूद है । पिता साहूकारी करते थे और व्यवसाय फैलने पर सिलावनमें आकर बस गये थे । माता-पिता दोनों ही अत्यन्त सीधे स्वभाव के थे । अतः साहूकारी धीरे-धीरे घटती चली गई । सिलावनमें ही बसने पर घरमें एक चैत्यालय स्थापित किया जो कि अभी भी विद्यमान है । घरमें चैत्यालय तथा सड़कका गाँव होनेसे व्यापारी बैलगाड़ियों पर माल लादकर रातको मड़ावरा, महरौनी आदिसे ललितपुरको जाते हुए या वापसीमें सुबह सिलावनमें पड़ाव करते थे । उस समय बिना दर्शन किये भोजनका प्रश्न ही नहीं उठता था और रास्ते में सिलावन ही एकमात्र गाँव था, जहाँ दर्शन मिलते थे । इसलिये घर पर दर्शन करने वालोंकी भीड़ लगी रहती थी । रोज चार, छः, दस व्यक्ति बाहर से आते थे घर पर ही निवृत्त होकर पूजन इत्यादि करते थे । घर के सभी बालक इन लोगोंकी सेवामें जुटे रहते थे । पिताजी अन्य भाइयों सहित लोगों को पानी पिलाना, नहा-धोकर पूजनके लिये कुँएसे जल भर लाना आदि कार्य प्रतिदिन करते थे । सेवा परायणताके संस्कार बाबाजीके कारण पिताजीमें बचपन से ही बैठ गये थे । Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ पिताजीकी स्कूली शिक्षा बहुत ही थोड़ी हुई है । सिलावनमें तो स्कूल था ही नहीं, अतः पढ़ने के लिये खजुरियाकी प्राइमरी पाठशाला में पैदल जाना पड़ता था, जो कि सिलावनसे ढाई मील दूर है । रास्तेमें दो नदियाँ पड़ती थीं, जो बरसात में भर जाती थीं । अतः उन्हें घेर कर सड़कसे होकर स्कूल जाना पड़ता था । पिताजीकी स्कूलमें कक्षा १ तक की शिक्षा हुई है । फिर, भाइयों तथा गाँवके लड़कों ने स्कूल जाना बन्द छूट गया । पढ़ने में वे बचपन से ही होशियार थे और कक्षा में प्रथम किताब भी मिली थी । पिताजीको इतना याद है कि सन् १९११ में स्कूलोंमें तमगे बाँटे गये थे । उस समय पिताजीकी अवस्था १० वर्ष कर दिया तो इनका भी स्कूल जाना आने पर उन्हें पुरस्कार स्वरूप एक जार्ज पंचमके गद्दी पर बैठनेकी खुशीमें की रही होगी । बड़े भाई अपने मामा के यहाँसे 'तत्त्वार्थ सूत्र पढ़ना सीख आये थे । अतः पिताजी की रुचि हुई कि वे भी तत्त्वार्थसूत्र सीखें । अपने मौसीके लड़के श्री रज्जूलाल बरयाके पास उन्होंने तत्त्वार्थसूत्र पढ़ना सीखा । तत्पश्चात् मबई में अपनी बहन के यहाँ 'भक्तामर' पढ़ना सीखा । उस समयकी एक घटना बड़ी रोचक है— पिताजी घोड़े पर सवार होकर अपनी बहनके यहाँ जा रहे थे । रास्तेमें टीकमगढ़के परिसर में एक आदमी सड़कसे कुछ दूर हटकर कराहते दिखाई पड़ा । पिताजी अपने घोड़ेसे उतरे व उसके पास गये । वह बुखारसे बेहाल था । अतः पिताजीने उसे घोड़े पर बिठाया और स्वयं लगाम पकड़ कर पैदल चलने लगे मार्ग में ही रात हो गयी । थोड़ा आगे चलने पर बाँयीं ओर से एक सर्प आया और पैरोंमें लिपटता हुआ बिना काटे चला गया। धीरे-धीरे उस आदमीको लेकर बहनके गाँव पहुँचे और उसे वहाँ सुला दिया । बुखार उतरने पर वह प्रातःकाल चला गया । । इन्हीं सबमें पन्द्रह-सोलह वर्षकी आयु हो गई । उस समय सादूमल, सौंरई, जिजियावन आदि गाँव के लड़के इन्दौर सर० सेठ सा० के विद्यालय में पढ़ने गये थे । खजुरिया गाँवके गड़रया मामाने जब बताया तो पिताजी अपने काकाके पीछे लग गये कि वे भी पढ़ने इन्दौर जायेंगे । छुट्टियोंमें जब लड़के गाँव लौटे तो वापसी में उन लोगोंके साथ उन्हें इन्दौर भेजा गया । लगभग एक-सवा वर्ष वहाँ पर संस्कृत, छहढाला, आदि का अध्ययन किया । उस समय विद्यालय में प्रधानाध्यापक स्व० श्री पं० मनोहरलालजी थे व स्व० श्री पं० अमोलकचन्दजी धर्माध्यापक थे । बाबू सूरजमलजी सुपरिटेण्डेण्ट थे और लाला हजारीलालजी मन्त्री थे । वहाँसे गर्मी की छुट्टियों में घर लौटते समय उनके पास घरसे काफी पैसे आ गये थे । शौकमें आकर उन्होंने कोट, पैण्ट, कमीज बनवाया, एक बेल्ट व मूठ लगी छड़ी खरीदी। जिस दिन इन्दौर से चलना श्रा, दर्जीने उस दिन कपड़े नहीं दिये । उन्होंने अपने साथियों से जब कहा कि अगले दिन चलेंगे, तब वे सब बड़े नाराज हुए । उन्हें छोड़कर वे सभी गाड़ी पकड़ने स्टेशन चले गये पर समयसे नहीं पहुँचने के कारण गाड़ी छूट : गयी और सब साथियोंको उल्टे पाँव वापस आना पड़ा । सबको लौटते हुए देख पिताजीने खूब तालियाँ बजाईं व मजाक उड़ाया । इस पर वे सब और कुढ़ गये और सबने तय किया कि फूलचन्द्रको साथ लेकर नहीं चलेंगे, इसलिए वे खंडवा होकर चल दिये । दैवयोग से भोपाल में पिताजी की उनसे पुनः भेंट हो गई । ललितपुर पहुँचने पर उन सबने एक अलग बैलगाड़ी को व पिताजीको उसमें शामिल नहीं किया । उसी बैलगाड़ी में तीन लुटेरोंने भी सांझा किया। रात हो जाने पर वे लुटेरे नियत स्थान पर उतरे । गाड़ीवानने जब पैसे माँगे तो उन्होंने लड़कों व गाड़ीवानको पीटा तथा सामान छीन लिया। उधरसे निकलने वाली सभी गाड़ियोंको वे लूटते रहे । पिताजीकी गाड़ी जब पीछेसे आई तो उसे भी लुटेरोंने रोका । पिताजी अपनी नयी अंग्रेजी पोशाक में, हाथमें चमकीली मूठ वाली छड़ी लिए गाड़ी में सो रहे थे । गाड़ीवानने भयभीत होकर Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खण्ड : ४७ पिताजीसे कहा, 'बाबूजी! बाबूजी! देखिये ये क्या कहते हैं।' लुटेरोंने भी झाँककर छड़ी आदि देखी तो समझा कि कोई अंग्रेज अफसर है, और गाड़ी छोड़कर भाग लिये । उनके सभी साथी तो ललितपुरके अस्पतालमें भर्ती किये गये, किन्तु पिताजी घर पहुँच गये। गर्मीकी छुट्टियां खत्म होनेपर वे पढ़नेके लिए फिर इन्दौरको चले पर रास्तेमें मन उचाट हो गया और भोपालसे ही लौट आये। फिर काफी दिन तक घर पर ही रहे। कुछ दिनों बाद पिताजी, अपने पिताजीके साथ, भैलोनी एक विवाहमें सम्मिलित हए । चूँकि पिताजी इन्दौरसे पढ़कर घर आये थे इसलिए पिताजीको देखनेको सबको उत्सुकता होने पर, उन्हें बुलाया गया। एक बुजुर्गने पिताजीसे पूछा "बेटा, कब आये हौ।" पिताजीके यह उत्तर देने पर कि "अभी तो आया हूँ", व बुजुर्ग सिरसे पीठ तक हाथ फेरते हुए बोले "ओ, बेटा तो तुर्की सीख आऔ ।" यह व्यंग सुनकर पिताजीकी आँखोंमें आँसू भर आये और तभी उन्होंने निश्चय किया कि अपनी भाषा और अपने पहनावेको कभी नहीं भूगे । पिताजीके इस निश्चयकी झलक आज भी उनके जीवनमें देखी जाती है। उसी समय साढ़मलमें स्व० सेठ लखमीचन्द्रजीने छात्रावास सहित एक पाठशाला खोली। एक बार ललितपुर जाते समय सेठजी सिलावनमें घर पर रुके तब उन्होंने पिताजीको नये फैशनके कपड़े पहने घूमते देखा। उन्होंने पूछा कि ये कौन हैं व ज्ञात होने पर, पिताजीको साढ़ मल पाठशालामें पढ़नेके लिए बुला लिया। पिताजीने वहाँ पर मध्यमा तक अध्ययन किया। स्व. पू० पं० घनश्यामदासजी प्रधानाध्यापक थे । वे व्युत्पन्न विद्वान थे। वर्तमानमें जो कुछ पिताजी हैं वह सब उनके परिश्रमका फल है। साढूमलमें जब गांधीजीका १९२० में आन्दोलन चला तो पिताजी उसमें भाग लेने लगे और गाँवके लोगोंको एकत्रित करके व्याख्यान आदि देने लगे। इससे घबड़ाकर कलक्टरकी ओरसे संदेश आया कि यह आंदोलन बन्द हो, अन्यथा पाठशाला बन्द कर दी जायेगी। सेठजी राष्ट्रीय विचारधाराके व्यक्ति थे। बुन्देलखण्डमें उन्हींके सत्प्रयत्नोंसे बेगार प्रथा बन्द हुई थी। अतः उन्होंने पिताजी आदिको बुलाकर कहा कि 'तुम लोग सेवाका कोई दूसरा रास्ता चुन लो। ये तुम्हारे पढ़नेके दिन है, इसलिए इस आन्दोलन में पड़नेसे कोई लाभ नहीं है।" अन्तमें पिताजीने अपने सहयोगियोंसे विचार-विमर्श करके 'मुट्ठी फण्ड' की स्थापना की और अनाज इकट्ठा करके उसे गरीबोंमें वितरित करते रहनेका कार्य चालू किया । वहाँसे फिर वे मुरैना विद्यालयमें पढ़ने चले गये। वहाँ श्री पण्डित जगन्मोहनलालजी शास्त्री व श्री पं. कैलाशचन्द्रजी शास्त्री उनके सहाध्यायी थे। स्व. श्री पण्डित वंशीधर जी न्यायालंकार वहाँ पर कर्मकाण्ड पढ़ाते थे । वे पिताजीकी कुशाग्र बुद्धिसे बहुत प्रभावित हुए। धर्मशास्त्रमें पिताजीकी विशेष रुचि थी, इसीलिए उनकी प्रसिद्धि भी हो गई थी। स्व० श्री पं० बंशीधरजीको सन्तोष हो चला था कि उन्हें ऐसा छात्र मिल गया है जो उनके बाद भी उनकी विद्याको जीवित रखेगा। मुरैना विद्यालयमें ही पू० पं० देवकीनन्दनजी सिद्धान्तशास्त्रीसे पिताजीका परिचय हुआ। पं० जी स्वभावसे ही उदारमना व्यक्ति थे। मुरैनामें ही ऐसा प्रसंग आया कि बुन्देलखण्डके सभी छात्रों व अध्यापकोंने मुरैना विद्यालय छोड़ दिया। मुरैनामें अपनी शिक्षा पूरी करके पिताजी घर लौट आये । उसी समय बुन्देलखण्डमें ही एक शिक्षा संस्था खोली जाये इस विचारसे उपयुक्त स्थानकी खोज होने लगी । इसके लिए जबलपुर उचित दिखाई पड़ा। जबलपुरकी समाजके पास उपयुक्त भवन होनेसे इसके लिए वह तैयार भी हो गई। पू० बड़े वर्णोजीके वहाँ पहुँचने पर एक लाख रुपये का चन्दा भी हो गया। उस समय श्रद्धेय पं० बंशीधरजी न्यायालंकार व श्रद्धेय पं० देवकीनन्दनजी भी उपस्थित थे। श्रुत पंचमी का दिन (संवत् Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ १९२२-२३) उद्घाटनके लिए निश्चित किया गया। बादमें स्व. पं० देवकीनन्दनजी सा० तो कारंजा चले गये तथा पू० वर्णोजी, स्व० श्री बंशीधरजी और पिताजी अपने-अपने स्थानोंको लौटते समय रास्ते में कटनी रुके। वहाँ जिन मन्दिरमें जाकर सबने दर्शन पूजन किया। बादमें दोनों विद्वान् तो सामायिक करने लगे और पिताजी कर्मकाण्ड का स्वाध्याय करने लगे। - इसके बाद पू० वर्णीजीके सामायिकसे निवृत्त होकर वहाँ आने पर पिताजीने उनके सामने चौकी व कर्मकाण्ड ग्रन्थ रख दिया । पर अपने स्वभावके अनुसार उन्होंने पिताजीको ही प्रवचन करनेके लिए प्रेरित किया। पिताजीके बहत मना करने पर भी वे नहीं माने । अन्तमें पिताजीको ही प्रवचन करनेके लिए बाध्य गाम्मटसार (कर्मकाण्ड) पिताजीका पठित विषय तो था ही इसलिए उन्हें उसका प्रवचन करने में कोई कठिनाई नहीं हई । इसी समय स्व० श्री बंशीधरजी भी सामायिक परी करके वहाँ आ गये। पू० वर्णीजी उनसे बोले, 'भैया यह लड़का तो बहत होशियार दिखता है।' पंण्डितजीके समर्थन करने पर वर्णीजी बोले, 'भैया ! श्रुत पंचमीके दिन तुम जबलपुर अवश्य आ जाना। तुम्हारी अध्यापक पद पर हमने नियुक्ति कर ली है । अपने गुरुजीके पास पढ़ना भी व पढ़ाना भी।' उनकी आज्ञानुसार पिताजी श्रुतपंचमीको जबलपुर पहुँच गये और शिक्षा मन्दिरका उद्घाटन होने पर वे अपने नियत कार्य में लग गये । पर वहाँको व्यवस्थाकी सम्यक देख-रेख न होनेसे पिताजी ७-८ महीनेके भीतर ही शिक्षा मन्दिर छोड़कर बनारस चले गये। जबलपुर में ही रहते हए पिताजीका बाबू फूलचन्द्र जी, (जो बादमें जज हुए) से अच्छा स्नेह हो गया था । बाबू फूलचन्द्र जी उस समय शिक्षा मन्दिरमें ही रहते थे व कॉलेज पढ़ने जाते थे। उनके साथ एक बड़ी आकर्षक घटना घटी। वे नल पर स्नान करने गये थे। स्नानके पहले उन्होंने गलेसे सोनेकी चेन निकालकर एक तरफ रख दी जिससे उसपर किसीकी नजर न पड़े। फिर उनके ध्यानसे यह बात उतर गयी व चेन वहीं छोड़कर वे चले आये और कॉलेज चले गये। कुछ समय बाद पिताजी निवृत्त होने वहाँ गये और हाथ धोनेके लिए मिट्टी खोजते समय उस चेन पर उनकी नजर पड़ गई । लगभग १० तोलेकी उस चेनको पिताजीने गलेमें पहन लिया व कुर्तेके बटन बन्द कर लिए जिससे किसीको दिखाई न दे । शिक्षा मन्दिरमें लौटने पर बाबू फुलचन्द्र जी बड़े हताशसे दिखाई दिये और उन्होंने अपनी चेन भूल जानेकी बात बताई। वे अपनी माँ की डाँटसे बहुत डर रहे थे । पिताजीने उनसे कहा कि चलो खोजते हैं और वहाँ जाकर दोनों हूँढने लगे। काफी देर हो जाने पर जब पिताजीने देखा कि बाबू फूलचन्द्र जी बहुत हताश हो चुके हैं और आँखोंमें आँसू भर आये हैं तो पिताजीने अपने कर्तेके बटन खोल लिए जिससे कि चेन बाहर निकल आयी। कुछ देर में ब नजर पिताजी पर पड़ी तो चेन दिखाई दे गई और वे बोले कि तुमने पहले क्यों नहीं बताया। इस पर पिताजीने कहा कि तुम्हें फिर परेशान कैसे करते । बनारसमें पू० बड़े वर्णीजीसे पिताजीको पुनः भेंट हो गई। उन्होंने पिताजीको विशेष बुद्धिमान समझकर उनकी विशेष वृत्ति २५) रु० महोना निश्चित कर दो। २-३ महीने तक वे वहाँ पर रहे । गर्मीकी छट्रियोंमें घर लौट आये। किन्तु उसी समय पिताजीका विवाह हो गया। उनकी धर्मपत्नीने जीवन भर उनकी बहुत सेवाकर अपने सौभाग्य, शोलका अच्छा परिचय दिया। घरकी स्थितिको समझकर स्व० पूज्य पं० देवकीनन्दनजीके अनुरोधपर उन्होंने साढ़मल विद्यालयका प्रधानाध्यापकका पद स्वीकार कर लिया। किन्तु ७-८ महीने बाद बनारस विद्यालयके विशेष आमंत्रणपर वे साढमलका पद छोड़कर सन् १९२४ में धर्माध्यापक होकर बनारस चले गये। वे बनारस हिन विश्वविद्यालयमें भा प्रति शनिवारको धर्मको शिक्षा देनेके Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खण्ड : ४९ लिये जाते थे। फलस्वरूप वहाँसे २५) रु० तथा विद्यालयसे ५०) रु० वेतन मिलता था। इससे वे अपना और अपने भाइयों सहित परिवारके निर्वाहमें सहयोग करते रहे। इस प्रकार बनारसमें लगभग चार वर्ष निकल गये । कारण विशेष होनेपर सन् १९२८ में वे त्यागपत्र देकर सिलावन लौट आये। किसी कार्यवश पिताजीको बीना जानेका अवसर मिल गया। उस दौरान वहाँकी समाजने पिताजीको शास्त्रसभाके लिये आमंत्रित किया। उन्होंने सभामें प्रवचन किया। उसे सुनकर स्व० श्रीमान् सिंघई परमानन्दजीने अपनी गोदीमें बिठा लिया और बोले, 'पाठशालाके लिये ऐसा ही विद्वान् चाहिये ।' अन्तमें प्रधानाध्यापक पदपर पिताजीकी नियुक्ति हो गयी । वहाँपर ६०) रु० महीना वेतन निश्चित हुआ। पाठशाला खुलनेपर पिताजीने वहाँका काम सम्भाल लिया। कुछ समय तो कार्य करते ही निकल गया। बादमें उनके विचारमें आया कि अपने भाइयों सहित पूरे कुटुम्बको बुलाकर उनके लिये दुकान क्यों न खुलवा दी जाये। उस समय एक दुकान भी खाली हो रही थी। इसलिये उन्होंने सबको बीना बुला लिया और उन्हें दुकान करवाकर सब साथमें रहने लगे। इस कालमें स्व० श्री सिंघईजीसे स्नेह स्थापित हो गया और उनके जीवन पर्यन्त बना रहा । सिंघईजीको कोई सन्तान नहीं थी। अतः स्वर्गवास होनेके पूर्व पिताजी की सलाहसे उन्होंने अपने कुटुम्बके एक लड़केको बुलाकर उसको गोद ले लिया। पिताजीकी राजनीतिक गतिविधियोंका जिक्र हम पहले भी कर चुके हैं। बीनामें रहते हुए उनकी यह गतिविधियाँ बराबर जारी रहीं और वे कांग्रेसके आंदोलनोंमें भी शरीक होने लगे। वे छात्रों और जनताको लेकर जुलूस निकालते रहे तथा विदेशी वस्त्रोंके बहिष्कारमें सक्रिय सहयोग देते रहे। इसके लिये उन्होंने एक युक्ति यह निकाली थी कि मंदिरमें देशी वस्त्र रखवा देते थे। जो भी महिला विदेशी साड़ी पहनकर आये वह उतारकर देशी साड़ी पहन जाये। बीनामें पिताजी चार वर्षों तक रहे और राजनीतिक आन्दोलनके अलावा वे कई सामाजिक आन्दोलन चलाते रहे । इनमें समैयाओंको मिलाना मुख्य है । हिम्मत, जूझनेकी प्रवृत्ति व निस्पृहता पिताजीमें कूट-कूटकर भरी है इसका प्रमाणस्वरूप ये कुछ चुनी हुई घटनाएँ दी जाती है। श्रा प० कमलकुमारजी व्याकरणतीर्थ बनारसमें पढ़ते थे। वे अंतिम वर्षकी परीक्षामें फेल हो गये थे। उन्होंने बीनामें पिताजीको लिखा । पिताजीने उनको बीना बला लिया और समाजसे छात्रवत्ति निश्चिा दी। कुछ दिन वे बीनामें पढ़ाते रहे और फिर उन्हें परीक्षा आदि देनेके लिये छुट्टी देकर बनारस भेज दिया । परीक्षा देकर वे पुनः बीना आ गये। उसी समय विद्यार्थी छोटेलाल पिताजीके पास आया और कमलकुमारजीके साथ अपनी बहनकी शादी करानेको कहने लगा। पं० कमलकुमारजीसे पूछनेपर उन्होंने आर्थिक स्थितिकी कठिनाई बतलाई, किन्तु समझानेपर वे विवाहके लिये तैयार हो गये। आर्थिक स्थितिमें जो कठिनाई थी उसका हल निकालकर यह विवाह सम्पन्न करा दिया। समैया समाज, परवार समाजका एक अंग है, यह समझकर पिताजीकी हमेशा यह इच्छा रही है कि इन दोनों समाजोंको एक हो जाना चाहिये । आगासौद वाले सेठ मन्नूलालजीसे पिताजीका अच्छा सम्पर्क था। इसलिये उनके आग्रहपर पिताजी मल्हारगढ़ निसईजीके वार्षिकोत्सवमें सम्मिलित हए। वहाँ पहुँचनेपर ज्ञात हुआ कि मल्हारगढ़की जैन समाजके भाई आमंत्रण देनेपर भी समैया समाजके प्रीतिभोजमें सम्मिलित नहीं होते है। इस कारण वहाँकी जैन समाजने पिताजीको भी अलगसे भोजनके लिये आमंत्रित किया जिससे वे भी प्रीतिभोजमें सम्मिलित न हो सके। परन्तु पिताजीने उनकी बात अनसुनी कर दी एवं समाजके लोगोंको ही प्रीतिभोजमें शामिल होनेके लिये राजी कर लिया। इसमे दोनों समाजोंमें मेलका वातावरण बननेकी अनुकूल स्थिति दिखाई देने लगी। Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ । सुमैया समाजसे ही सम्बन्ध रखने वाली एक और पटना है। विद्यार्थी छोटेलालकी बहन का पं० कमलकुमारजी के साथ विवाह करा ही दिया था, उससे प्रभावित होकर छोटेलालजीकी माँ अपनी दूसरी लड़कीको लेकर पिताजीके घर आ गई और बताया कि समैया समाजका एक लड़का उन्होंने अपनी लड़की के साथ विवाह के लिये निश्चित कर लिया है, लड़का भी सहमत है परन्तु बीनाकी पूरी समाजकी इसपर गहरी प्रतिक्रिया हुई और जिस दिन सगाईका दस्तूर निश्चित हुआ उसी दिन स्व० श्रीसिंघईजी श्रीनन्दलालजी की बैठकमें जैन समाज एकत्रित हुई। उसमें पिताजीको बुलाया गया और उनसे कहा गया कि, 'इस विवाहको कराने में आपकी साजिश है ऐसा मालूम हुआ है। अतः आप इस सम्बन्धको रोक दें।' पिताजी के यह कहने पर कि, 'मेरा इसमें कोई हाथ नहीं है, अलबत्ता इसके कि लड़की की माँ मेरे यहाँ ठहरी हुई हैं, ' 'समाजने उनसे आग्रहपूर्वक कहा कि, 'यदि ऐसी बात है तो आपको इस सगाईके दस्तूर में सम्मिलित नहीं होना चाहिये । फिर भी आप नहीं मानेंगे तो आप विचार कर लें कि इसका नतीजा क्या होगा।' इसपर पिताजीने उत्तर दिया, 'क्या होगा, चूहेकी दौर मंगरे तक' और क्या होगा। इसके बाद बैठक समाप्त हो गई और पिताजी उठकर चले आये । फिर भी बीनाकी समाजने मेरे प्रति कोई प्रतिकूल प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की । 7 में रहते हुए एक दूसरी घटना घटित हो गई । पिताजी बीनामें हैं यह जानकर ब्र० शीतलप्रसाद जी बीना आये। उनके प्रति समाजमें कुछ कारणोंसे रोष होनेसे, उनका विरोध होने लगा। इसलिये पिताजी के सामने कठिन समस्या उपस्थित हो गयी। किसी तरह पिताजीने उनका निर्वाह किया व रातमें उनके व्याख्यान के लिये सार्वजनिक सभा बुलायी। सभा के दौरान सभाके मंत्रीका पत्र मिला कि आप इस सभाको बन्द करायें अन्यथा समाजको इसपर विचार करना पड़ेगा। किन्तु पिताजीको मालूम था कि बीना समाजने ब्रह्मचारीजीका बहिष्कार नहीं किया है, इसलिये पिताजीने आजीविकाकी न चिन्ता करते हुए भी सार्वजनिक रूपसे यह घोषणा कर दी कि सभाके मंत्रीका वह पत्र व्यक्तिगत ही समझा जाये तथा सभाको बराबर चालू रखा । बीनामें जिस मकान में मास्टर कनछेदीलालजी रहते थे उसीमें पिताजी भी रहते थे । इसलिये पिताजी का मास्टर सा० से अच्छा सम्बन्ध होनेके कारण उनकी पत्नीका देहावसान होनेपर अंतिम संस्कारकी पूरी व्यवस्था पिताजीको ही करनी पड़ी। मा० साहबकी पत्नीके पास सोनेका काफी जेवर था। दाह संस्कारके समय उनके शरीरसे और जेवर तो उतार लिया गया, परन्तु बाहोंपर सोनेकी बखुरियोंपर किसीका ध्यान नहीं गया क्योंकि वे ब्लाउजके अन्दर थीं । तीसरे दिन श्री पं० जगन्मोहनलालजी शास्त्री भी आ गये थे, क्योंकि उनका मास्टर सा० से स्नेह सम्बन्ध था । अतः पिताजी व पंडितजी दोनों ही राख समेटनेके लिये श्मशान भूमि गये। राख समेटते हुए बरियाँ हाथमें आ गई। उन्हें देखकर पंडितजीने पिताजीको यह सलाह दी कि वे अपने पास ही उनको रख लें और जब मास्टर सा० को याद आये तब उन्हें सौंप दें। किन्तु पिताजीने कहा, 'हम साधारण परिस्थिति के आदमी हैं। लोग समझेंगे कि पानी नहीं, इसलिये बता रहे हैं। अतः अभी चलकर उन्हें सौंप देना चाहिये, स्नान बादमें करेंगे ।' बीना पाठशालाकी आर्थिक स्थिति कमजोर हो जानेके कारण पिताजीको बीनासे नातेपुते (सोलापुर) जाना पड़ा। वहाँ पिताजी लगभग छः वर्ष रहे । वहाँपर भी उनकी राजनीतिक व सामाजिक गतिविधियाँ बराबर चालू रहीं । राजनीतिक दृष्टिसे वे कॉंग्रेस कमेटीके सदस्य होने के नाते नातेपुते (सोलापुर) में हुए जिला कांग्रेस अघिवेशन में तथा श्री नरीमैनकी अध्यक्षतायें हुए पूनाके तथा लोहपुरुष बल्लभभाई पटेलकी अध्यक्षता में हुए यवतमालके प्रांतीय कांग्रेस अधिवेशनोंमें सम्मिलित हुए । Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खण्ड ५१ वहाँ रहते हुए पिताजीने आचार्य शान्तिसागर सरस्वती भवनकी ओरसे एक प्रेसकी स्थापना कर उसका संचालन किया और उसकी ओर से " शान्ति सिन्धु' नामक मासिक पत्रका सम्पादन भी किया । पत्र लगभग दो वर्ष चला । इसी बीच एक क्षुल्लक श्री विमलसागरजीको पिताजी पढ़ाते रहे। वे बेलगाँव के रहने वाले थे जहाँ उन्होंने गांवके बाहर जंगलमें एक कुटिया बना रखी थी। गर्मीमें वे वहाँ चले गये और वहाँके भाइयों द्वारा पिताजीको आमन्त्रित कर लिया। वहाँ पर पिताजी एक महीना रहे। वहाँ रहते हुए वे रात्रिमें क्षुल्लकजी के पास चले जाते थे । सेठ कल्लप्पा अन्ना लेंगड़ेका एक नोकर लालटेन लेकर पिताजीको वहाँ पहुँचा आता था, और सुबह १० बजे वे सेठजीके घर आ जाते थे और दिनमें वहीं रहते थे। रातको पुनः कुटिया पर चले जाते थे। एक दिन पता लगा कि सेठजीको पत्नी पिताजीको झूठी थाली नहीं छूती है। यह ज्ञात होनेपर पिताजीने सेठजी से कहा कि वे उनके यहां भोजन नहीं करेंगे। कारण पूछनेपर पिताजीने बताया कि आपके घरपर आपस में भी छुआ-छूत का पालन होता है । यह सुनकर सेठजी बोले कि उसे ( पत्नीको ) तो वे समझा नहीं सकते, पर जब वे नातेपुते आयेंगे तो पिताजीके घर अवश्य भोजन करेंगे। इतना ही नहीं, उन्होंने अपने इस वचनका पालन भी किया । जैसा कि अभी-अभी लिखा जा चुका है कि सेठजीका आदमी रोज रातको पिताजीको कुटिया में पहुँचा आता था। एक दिन वह पिताजीको पहुंचाने गया तो उसने कुटियाके पीछे कुछ लोगोंको मन्त्रणा करते देखा । यह देखकर उसने पिताजी से कहा कि पंडितजी कुटियाके पीछे चोर बैठे हैं। यह सुनकर पिताजीने कहा कि होंगे हमें क्या मतलब, और भयवश लघुशंका करने लगे। इसके बाद कुटिया में पहुँचकर दरवाजा बन्द कर लिया । फिर उन लोगोंने नौकरको पकड़कर मारना शुरू कर दिया। नौकरकी चिल्लाहट सुनकर पिताजीने थोड़ा दरवाजा खोला कि उनके कुल्हाड़ी दिखानेपर दरवाजा बन्द कर लिया । फिर भी उसे पिटवा हुआ देखकर पिताजीके पुनः दरवाजा खोलनेपर, उन लोगोंने नौकरकी कमीज, पायजामा व लालटेन छुटा ली व उसे धक्का देकर कुटियाके अन्दर कर दिया। अन्त में जब पिताजी वहाँसे चलने लगे तो सेठजीने उन्हें सत्कारपूर्वक बिदा किया । सन् १९३६-३७ में फलटण में व्यवहारवादी और अध्यात्मवादी भाइयोंके मध्य भाव मनको लेकर वाद-विवाद चल पड़ा समस्याका हल न देखकर, "शान्ति सिन्धु" के सम्पादक होने के नाते पिताजीको लिखा गया। पिताजीने "शान्ति सिन्धु" में टिप्पणी द्वारा उसका खुलासा किया, किन्तु उससे व्यवहारवादी सन्तुष्ट नहीं हुए और पिताजीको फलटण बुलाया । वहाँ पहुँचकर पिताजीने अनेक प्रमाण देकर उन्हें समझाया फिर भी वे लोग संतुष्ट नहीं हुए। उनका कहना था कि भाव मनसे केवलज्ञान प्राप्त होता है, इसलिए वह वात्माकी शुद्ध पर्याय है बहुत चर्चा होने बाद उन्होंने पिताजीको पुनः स्पष्टीकरण लिखनेको कहा। पिताजीने इस विषयको ध्यान में रखकर एक स्वतन्त्र लेख "शान्ति सिन्धु" में प्रकाशित किया। उस लेखमें पिताजीने स्पष्ट कर दिया कि "भाव-मन आत्माके ज्ञानकी विभाव पर्याय है किन्तु पुदगलके निमित्त से होने के कारण उसे आगम पौद्गलिक भी स्वीकारता है। इसलिए स्वभावके आलम्बनसे होनेवाला उपयोग ही स्वभाव पर्यायका उपादान हो सकता है, अन्यका आलम्बन करने वाला उपयोग नहीं ।" परन्तु इस चर्चाने आगे चलकर इतना तूल पकड़ा कि अन्तमें पिताजीको वहाँसे हटना ही पड़ा । । इस प्रकारकी घटनायें पिताजीके आ गये । इतना सब हो जानेके बाद भी चालू रखा । जीवनमें भरी पड़ी है। नातेपुते छोड़कर पिताजी बीना अपने घर उन्होंने अपनी राजनीतिक व सामाजिक गतिविधियों को बराबर Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्य इसी बीच अमरावतीमें स्व० श्री डॉ० हीरालालजीने एक पत्र द्वारा पिताजीको धवला ( षट्संडागम ) के सम्पादन में सहयोग करनेके लिये आमंत्रित किया। स्व० श्री पं० हीरालालजी शास्त्री वहाँ पहले ही पहुँच चुके थे और उन्होंने सत्प्ररूपणा प्रथम पुस्तक का अनुवाद कर भी लिया था परन्तु उनके मुद्रणकी स्वीकृति धवला प्रबन्ध समिति नहीं दे रही थी इसलिए पिताजीको वहाँ बुलाया गया था। पिताजी के वहाँ पहुँचने पर स्व० डा० हीरालालजीने कहा कि "श्री पं० हीरालालजीने यह अनुवाद किया है। इसमें आप जो भी संशोधन करना चाहें या पुनः अनुवाद करना चाहें इसके लिये आप स्वतन्त्र हैं ।" पिताजीने उसको ख्याल में रखकर दूसरी प्रेस कापी तैयार की। पिताजीको यह तो मालूम ही था कि धवला समिति इसके मुद्रणकी स्वीकृति नहीं दे रही है। इस लिए पिताजीने डॉ० सा० के सामने एक प्रस्ताव रखा कि यदि वे स्वीकार करें तो पिताजी इस अनुवादको लेकर स्व० श्री पू० पं० देवकीनन्दनजीको कारंजा दिखा लाया करें। उनकी इसमें अनुमति मिलने पर पिताजी १०-१५ दिनमें कारंजा जाने लगे तथा मूल व अनुवाद पढ़कर उन्हें सुनाने लगे। फल यह हुआ कि अन्तमें उसके मुद्रणकी स्वीकृति मिल गई और इस प्रकार एक वर्षके भीतर पट्संदागम (धवला) की प्रथम पुस्तकका प्रकाशन हो गया । यह क्रम दूसरी, तीसरी व चौथी पुस्तक के मुद्रण तक चलता रहा। किन्तु स्व० श्री पं० हीरालालजी तथा पिताजी में अनबनकी स्थिति बने रहने के कारण पिताजी अमरावती छोड़कर बीना चले आये । उसी समय पिताजी के प्रथम बालकका स्वर्गवास भी हो गया था। बीना चले आनेका वह भी एक कारण था । उसी समय देवगढ़ में गजरथ होनेवाला था तथा श्री गजाधरजीके दस्साओंके यहाँ विवाह करनेके कारण समाजमें हलचल उत्पन्न हो गयी थी। इसलिए पिताजीने इन दोनों बातोंकी ओर विशेष ध्यान देकर उन्हें आन्दोलनों का रूप प्रदान कर दिया | पिताजीका दस्साओंको मंदिरमें पूरी सुविधा दी जाये यह आन्दोलन तो पहलेसे ही चल रहा था कि इसी बीच बामौराके गजाधर नामक एक युवकने दस्साओंके यहाँ शादी कर ली। इस कारण समाजके द्वारा उसका मंदिर बन्द करने पर खुरईमें दोनों पक्षोंमें मुकदमा चलने लगा। पिताजी दस्सा पूजाधिकारके पक्षधर तो थे हो, इसलिए उन्होंने उसके मुकद्दमे में दिलचस्पी ली और गजाधरकी ओरसे गवाही देने खुरई भी गये । वहाँ पिताजीके बड़े साले श्री मुन्नालालजी वैधने पिताजीको भोजन के लिये आमंत्रित किया। खुरईकी समाजने पिताजीको भोजन करानेसे वैद्यजीकी रोक दिया । फलस्वरूप पिताजी भोजन करनेके लिये दस्साओं के यहाँ गये । इसके बाद यह आन्दोलन फिर भी चालू रहा। कुछ समय बाद कुरवाईमें परवार सभाका अधिवेशन होने वाला था कि इसी बीच पूज्य पं० देवकीनन्दनजी बीना आये और स्व० श्री सिंघई श्रीनन्दनलालजी के यहाँ भोजन करके चले गये। किन्तु यह कहते गये कि यदि फूलचन्द्र (पिताजी ) कुरवाई अधिवेशनमें आयेंगे तो मैं नहीं आऊंगा । परन्तु किसी कार्यवश पिताजीको इन्दौर जाना पड़ा। वहाँपर पिताजी स्व० श्री पं० देवकीनन्दनजी के यहाँ ही ठहरे | पंडितजीने पिताजीको कुरवाई चलने का आग्रह किया । यह सुनकर पिताजी बिगड़ पड़े और बोले, 'बीना में तो आप कुछ और कह आये हैं और यहाँपर चलने का आग्रह करते हैं ।' अन्तमें पंडितजी बोले कि मैंने तुम्हारी दृढ़ता समझ ली है, अतः तुम्हारे साथ सभाको समझौता ही करना पड़ेगा ऐसा दिखाई देता है । इसलिये वे दोनों कुरवाई गये । Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खण्ड ५३ कुरवाईमें परवार सभाका अधिवेशन होनेपर पिताजीकी ओरसे यह प्रस्ताव रखा गया कि दस्साओं को मन्दिर प्रवेश एवं पूजा प्रचालका अधिकार दिया जाये। पिताजी द्वारा यह प्रस्ताव रखे जानेपर दोनों ओर से वाद-विवाद चलता रहा । अन्तमें यह सुझाव आया कि दोनों ओर एक उपसमितिका निर्माण किया जाये और उसके अध्यक्ष पं० देवकीनन्दनजी हों और दिनमें उसकी बैठक होकर उसमें जो निर्णय हो उसको सभाके सामने रखा जाये। इस आधारपर दोनों ओरके सदस्योंकी एक उपसमिति बनी। समाजकी ओरसे स्व० सवाई सिंघई गनपतलालजी गुरहा, खुरई, सवाई सिंघई धन्यकुमारजी, कटनी स्व० श्री चौधरी पलटूरामजी, ललितपुर और श्री पं० जगन्मोहनलालजी, शा० कटनी, चुने गये, पिताजीकी ओरसे स्व० पं० महेन्द्रकुमारजी न्यायाचार्य, स्व० श्री नन्दकिशोरजी वकील, विदिशा और पिताजी चुने गये । , दूसरे दिन दोपहरको १ बजे यह सम्मिलित बैठक हुई जो तीन घंटे चली बैठक इस नतीजेपर पहुँची कि सभा यह प्रस्ताव पास करे कि 'अपने-अपने गाँवकी परिस्थितिको ध्यान में रखकर दस्साओंके लिये मन्दिर खोल दिया जाये । परवार सभा इसमें पूरी तरह सहमत है।' इस प्रस्तावको परवार सभाने स्वीकार कर लिया । फलस्वरूप पिताजीने यह आन्दोलन करना बन्द कर दिया । पिताजीको सदासे ही यह चिन्ता रही है कि समाजका पैसा व्यर्थ में खर्च न हो। ऐसे बहुत से कार्य हैं। जिनकी ओर समाज बिल्कुल ध्यान नहीं देती । जैसे कि समाजके बहुतसे व्यक्ति असमर्थ या आजीविका हीन हैं । ऐसी बहुतसी विधवायें हैं जिनके संरक्षण व खाने पीनेकी समुचित व्यवस्था नहीं है, ऐसे बहुत से पुराने मन्दिर हैं जो जर्जर स्थिति में हैं और उनकी मरम्मत व पूजनादिकी समुचित व्यवस्था नहीं है । देश कालके अनुसार साहित्यको प्रकाशमें लानेकी ओर भी समाज ध्यान नहीं देती है। ये और इसी प्रकारकी कई और भी जटिल समस्याएँ हैं जिनकी ओर समाजका चित्त आकर्षित करनेके लिए तथा जहाँ मन्दिरों व वेदियोंकी बहुलता है, वहाँ नये मन्दिर या वेदियों का निर्माण रोकनेके लिए, पिताजीने गजरथ विरोधी आन्दोलन प्रारम्भ किया था। पिताजी जहाँ आवश्यकता हो वहां पंचकल्याणक प्रतिष्ठाके विरुद्ध नहीं थे। किन्तु सामाजिक प्रतिष्ठा के ख्यालसे जो भाई आवश्यक रूपसे मन्दिर या वेदीका निर्माण कर पंचकल्याणक प्रतिष्ठा आदि द्वारा गजरथ चलाकर सिंघई, सवाई सिंघई आदि बनते हैं उसके विरुद्ध अवश्य है । इस आन्दोलनका समाजने स्वागत भी किया और विरोध भी फल स्वरूप जबलपुरमें इसपर विचार करनेके लिए परवार सभाका एक अधिवेशन बुलाया गया। उसमें पिताजी भी सम्मिलित हुए । इस समाजकी यह विशेषता है कि पिताजीका एक विरोधीके रूपमें सम्मिलित होनेपर भी उनके साथ किसी प्रकारका असदव्यवहार नहीं किया गया। किन्तु सभाका अधिवेशन प्रारम्भ होनेपर उनके बगल में श्री रज्जूलाल बरयाको अवश्य बिठा दिया गया। परिणामस्वरूप पिताजी जब गजरथ विरोधी आन्दोलनके प्रस्ताव के समर्थन में बोलनेके लिए खड़े होना चाहते थे तो श्री रज्जूलाल वरया पिताजीका कुरता पकड़कर उन्हें उठने नहीं देते थे, और कहते थे कि तुम अपने पिताजीसे पूछो कि वे इन्द्र-इन्द्राणी क्यों बने थे । अंतमें पू० पं० देवकीनन्दनजी सर्वानुमति से पंच चुने गए और सभाने यह तय किया कि देवगढ़ के गजरथमें उनके फैसलेको घ्यानमें रखा जाए। पू०प० जीने अन्तमें जो फैसला दिया उसकी मुख्य बातें इस प्रकार है १. विरोध पक्षकी यह दलील कि समाजमें बेकारी, अशिक्षा, जीर्णोद्धार, शास्त्रोद्धार आदिमें समर्थक पक्षकी भी सहानुभूति है । २. विशेष पक्षने जो गजरथ प्रथाको आज अनावश्यक व अनुपयोगी सिद्ध करना चाहा था उसका खंडन करके समर्थक पक्षने उसकी आवश्यकता व उपयोगिता भली-भाँति सिद्ध की है । Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ ३. विरोध पक्षवालोंने जीर्णोद्धार, शास्त्रोद्वार और असहाय लोगोंकी सहायता आदिकी तरफ ध्यान देनेके लिए श्रीमानोंका ध्यान आकर्षित करनेकी कोशिश की है, इसमें उनकी यह सद्भावना प्रशंसनीय है । समाजोद्वार, जिनवाणी प्रचार अज्ञान निवारणके लिए जनताका विशेष रूपसे जो ध्यान आकर्षित किया है, उनकी उस अन्तःकरणसे निकली हुई भावनाका हम स्वागत करते हैं और इसलिए यह उचित प्रतीत होता है कि हमारे धर्म प्रभावक उदार श्रीमान् आगम सम्मत शास्त्रोद्धार, जीर्णोद्धार व इतर धार्मिक कार्योंकी आर ध्यान देवें । इस प्रकार पिताजी द्वारा अनेक गतिविधियों तो चल ही रही थीं कि उनके दूसरे साले श्री गोकुलचन्दजीने सत्याग्रह करनेका निश्चय किया । उसमें सम्मिलित होनेके लिए पिताजी भी लडवारी गए। श्री गोकुलचन्द जी उसी समय गिरफ्तार कर लिए गए और उन्हें ललितपुर जेल भेज दिया गया। किन्तु पिता जी उस समय बीना लौट आये। कुछ दिनों बाद श्री गोकुलचन्द जीके मुकदमेकी सुनवाई देखनेके लिए पिताजी ललितपुर गये। वहाँ पर कचहरी में ही पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया । इसी समयकी एक पटना पिताजीके जीवन के अन्य पहलूपर प्रकाश डालती है। वारंट कटनम कुछ समय लग रहा था। गर्मीका मौसम तो था ही अतः प्यास लगनेपर उन्होंने सिपाहीसे कहा। सिपाहीने जवाब दिया कि वह मुसलमान है। यह सुनकर पिताजीने कहा कि मैं काँग्रेसी हूँ। फिर भी मैं आपके तामलोरका व घड़का पानी नहीं पीऊँगा। अन्य कोई भी व्यवस्था करें तो मुझे पानी पीने में एतराज नहीं है। यह जवाब सुनकर सिपाही प्रसन्न हुआ और एक ब्राह्मणको बुलवाकर कुएँ से पानी पिलवाया । न्यायाधीशने पिताजीको १ माहकी कैद व एक सौ रुपया जुर्माना किया। जुर्माना न देनेपर ३ माह की सजा सुनवाई। किन्तु घरसे जुर्माना वसूल हो जानेपर पिताजीको कच्ची कैदमें १९ दिन तथा झाँसी जेलमे १ महीना ११ दिन रहना पड़ा । झाँसी जेल में रहते हुए पिताजी बीमार हो गये, इसलिए उन्हें जेलके अस्पताल में भेज दिया गया । वहाँ पर उन्हें दलिया और दूध दिया जाता था किन्तु दूधमें मिलावट होनेके कारण वे उसे पी नहीं पाते थे और बगलमें पड़े नाईको दे देते थे । इस कारण पिताजी भूखसे पीड़ित रहने लगे । । नाईसे पिताजीकी यह दशा नहीं देखी गयी। इसलिये वह किसी प्रकार अस्पतालसे निकलकर किसी अफसरके यहाँ गया और उनकी सेवा करके दो रोटियाँ और करेलेकी सब्जी ले आया । उन्हें पिताजीके सामने रखकर कहने लगा, “आपके लिए ही हम लाये हैं आप खा लो।" किन्तु पिताजीने मना करते उससे हुए कहा, "तुमने इनको प्राप्त करनेके लिए श्रम किया है इसलिए इन्हें तुम ही खाओ ।" अन्तमें वह रोने लगा इसलिए बाँटकर दोनोंने खाया । खाते हुए पिताजी उससे बोले, "इस चहारदीवारीके भीतर तो हम तुम भाईभाई हैं, किन्तु जेलसे बाहर जाने पर मैं जैन और तुम नाई। फिर मैं तुम्हारे हाथका नहीं खाऊँगा ।" सजा पूरी होनेपर जेलसे छूटकर पिताजी बीना चले आये और घरपर रहने लगे । इसी बीच मथुरा संघके प्रधान मन्त्री श्री पं० राजेन्द्रकुमारजीका पत्र आया कि पिताजी बनारस आकर कषायपाहुड़ ( जयधवला) के सम्पादन में योगदान करने लगे । इसलिए पिताजी सन् १९४१ में बनारस चले गये और कषायपाहुड़ (जयधवला) के सम्पादनका भार सम्भाल लिया । इस कार्य में श्री पं० कैलाशचन्द्रजी शास्त्री और स्व० श्री पं० महेन्द्रकुमारजी न्यायाचार्य भी योगदान करते थे । पिताजी पूरे समय कार्य करते थे और उनका मुख्य कार्य ग्रन्थका अनुवाद करना होता था । इन अनुवादको पं० कैलाशचन्द्रजी देखते थे और पं० महेन्द्रकुमारजी टिप्पण आदि तैयार करते थे। इस प्रकार प्रथम भागका कार्य तीनोंके सम्मिलित प्रयत्नसे चलता रहा। प्रथम भागका मुद्रण हो जाने पर स्व० पं० Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खण्ड : ५५ महेन्द्रकुमारजी तो अलग हो गये, किन्तु पं० कैलाशचन्द्रजी कुछ दिनों तक उससे जुड़े रहे। पं० कैलाशचन्द्रजी के अलग हो जानेपर अनुवाद संपादन आदिका पूरा भार पिताजीको ही सम्भालना पड़ा। - इसके बाद कुछ दिन तो पिताजी वेतन पर ही काम करते रहे, परन्तु कुछ अड़चन उपस्थित होने पर पिताजी नौकरीसे अलग हो गये । समझौता होने पर अपने घरसे ही स्वतन्त्र रूपसे कषायपाहुड़के सम्पादनका कार्य करने लगे। इस बीच पिताजीको लीवर हो गया । डाक्टरकी सलाहसे अन्न छोड़ना पड़ा और केवल फलोंके रस और दूध पर ही उन्हें निर्वाह करना पड़ा। इस कारण आजीविका बन्द हो गई तथा घरकी स्थिति बिगड़ने लगी। घरका सोना-चाँदी बेचकर किसी प्रकार घरका निर्वाह करनेके लिए बाध्य होना पड़ा। पिताजीकी इस स्थितिका पू० बड़े वर्णीजीको पता लग गया। उस समय पू० बड़े वर्णीजी बरुआसागरमें थे । अतः उन्होंने श्री बाबू रामस्वरूपजीसे कहकर छ: सौ रुपये सहायताके लिए भिजवा दिये। उस समयकी स्थितिको देखते हुए, छः सौ रुपये एक वर्षका वेतन होता है। इन रुपयोंसे पिताजीको स्वास्थ्य लाभ करने में आसानी अभी वे स्वास्थ्य लाभ कर ही रहे थे कि उसी समय सन् १९४५ में अमरावतीसे श्रीमान् सिंघई पन्नालालजी पिताजीके घर आ गये। पिताजीने उनकी पूरी सेवा की। कलकत्तामें भगवान महावीरकी वीर शासन जयन्तीके समारम्भका आयोजन हुआ था। स्व० सर सेठ हुकुमचन्दजी उसके अध्यक्ष चुने गये थे । उसमें सम्मिलित होनेके लिए सभी विद्वानोंके साथ पिताजी भी कलकत्ता गये। वहाँ ३-४ दिन तक उत्सव चलता रहा। उसमें देश-विदेशके अनेक विद्वान् सम्मिलित हुए थे। श्रीमान सिंघई पन्नालालजी भी साथ गये थे कि उसी बीच वहाँसे वे अकस्मात् चले आये । बादमें मालूम हुआ कि वे आराकी अस्पतालमें काफी समय तक पड़े रहे और वहीं उनका स्वर्गवास हो गया । यह मालूम पड़ने पर पिताजीने उनके घरवालोंको सूचना दे दी। अधिवेशनके समय ही विद्वत् परिषद्की स्थापना की गई तथा पिताजी इसके संयुक्त मंत्री बनाये गये। विद्वत् परिषद्का कार्यालय पिताजीके ही जिम्मे था। इस कार्यको पिताजीने मनोयोग पूर्वक आगे बढ़ाया। उसके फलस्वरूप कटनीमें विद्वत परिषदका प्रथम अधिवेशन हआ जिसके अध्यक्ष पू० बड़े वर्णीजी बने । पिताजी के मन्त्रित्व कालमें ही मथुरामें शिक्षण शिविरका आयोजन किया गया जो पर्याप्त सफल रहा। इन्हीं दिनों एक घटना और हई। स्याद्वाद विद्यालय ने अपनी समाजके बहतसे लडकोंको निष्कासित कर दिया। उनकी स्थितिको देखकर स्व० श्री पं० पन्नालालजी धर्मालंकार, स्व० श्री पं० महेन्द्रकुमारजी न्यायाचार्य और पिताजीने एक भवन किराये पर लेकर उसमें छात्रावासकी स्थापना कर दी । पिताजी उसके संयुक्त मन्त्री बनाये गये थे। उसमें प्रविष्ट छात्रोंको संभव सुविधाएँ भी प्रदान की। बादमें सेठ श्री . जोखीराम बैजनाथजीने एक पुराना छात्रावास तथा उससे लगी हई जमीन खरीद कर छात्रावासको सौंप दी। श्री मौजीलालजीके विशेष प्रयत्नसे यह कार्य सम्पन्न हुआ। इसके कुछ समय बाद राजस्थानके एक नगरमें पंचकल्याणक संपन्न हुआ था । वहाँ पर स्व० सर सेठ हुकुमचंदजी, स्व० सेठ बैजनाथजी और स्व० श्री पं० देवकीनन्दनजी भी पहुँचे थे । सुअवसर जानकर स्व. श्री पं० पन्नालालजी और पिताजी वहाँ गये और सर सेठ सा० के सामने यह प्रस्ताव रखा कि "आपने विश्वविद्यालय में एक जैन मन्दिर बनाने के लिए रु० ५००००) स्वीकार किये थे। किन्तु वहाँ पर पथक जैन मन्दिर बननेकी स्वीकृति न मिलनेके कारण वह रुपया आपके पास ही है। अब विश्वविद्यालयके पास हो Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ सेठ बैजनाथजीके सहयोग से एक छात्रावास स्थापित हो गया है। उसमें एक जैन मन्दिरकी अति आवश्यकता है अतः वह रुपया यदि छात्रावासको मिल जाये तो उसमें जैन मन्दिरका निर्माण हो जायेगा।" सर सेठ सा० ने यह निवेदन स्वीकार कर लिया। फलस्वरूप एक समझौता पत्र तैयार किया गया। उसपर सेठ सा० के और छात्रावासके संयुक्त मंत्री होनेके नाते पिताजीके हस्ताक्षर हुए बादमें सर सेठ सा० ने आकर उसकी शिलान्यास विधि सम्पन्न कर दी । पू० बड़े वर्णीजी के संकेत पर स्व० साहू शान्तिप्रसादजीने वहाँ एक नये छात्रावासका निर्माण और करा दिया । इसी बीच षट्संडागम ( धवला ) की प्रथम पुस्तकका ९२ सूत्र विवादका विषय बन गया। उसमें 'संजद' पद छूटा हुआ था। उसके सम्पादन मुद्रणके समय पिताजी तो इस पक्ष में थे कि इस सूधमें 'संजद' पद और होना चाहिये, किन्तु स्व० श्री पं० हीरालालजी इस पक्ष में नहीं थे किन्तु स्व० श्री डॉ० हीरालालजी जो इस सम्बन्ध में कुछ समझते नहीं थे। इसलिए अन्तमें पिताजी सहित उन दोनोंकी रायसे यह तय हुआ कि टिप्पणी में यह लिख दिया जाये कि यहाँ 'संजद' पद होना चाहिए ऐसा मालूम पड़ता है। फिर भी प्रूफका कार्य पिताजी ही देखते थे, इसलिए पिताजीने मूल सूत्रको तो 'संजय' पदके बिना ही रहने दिया किन्तु उसके अर्थमें 'संयत' पद जोड़ दिया। बादमें यह सूत्र विवादका विषय बन गया। इसलिए बम्बईकी समाजके आमंत्रण पर दोनों पक्ष के विद्वान् वहाँ एकत्रित हुए । 'संजद' पदके पक्ष में पिताजी, श्री पं० कैलाशचन्द्र जी और स्व० श्री पं० वंशीधर जी न्यायालंकार थे । विरोध पक्ष में स्व० श्री पं० मक्खनलालजी शास्त्री, स्व० श्री क्षुल्लक सूर सिंह जी और स्व० श्री प० रामप्रसाद जी आदि थे। दोनों पक्ष के विद्वानोंमें तीन दिन तक लिखित चर्चा चलती रही। अन्तमें विरोधी पक्ष के विद्वानोंने रिकार्डको कॉपी रख ली और समाजसे घोषणा करा दी कि तीन दिनके लिए ही सबको आमंत्रित किया गया था अतः यह बैठक समाप्त की जाती है । इस प्रकार इस बैठकसे नतीजा तो कुछ नहीं निकला परन्तु स्व० डॉ० हीरालालजी 'द्रव्य स्त्री मोक्ष जा सकती है, इसके पक्षधर अवश्य बन गये । अतः इस विषयको लेकर पिताजी और डा० सा० के मध्य जैन संदेश के द्वारा लेख माला चलती रही जो श्री पिताजी को लीवर का रोग हो जानेसे रुक गई जिसे स्व० श्री पं० नाथूराम जी प्रेमीने पुस्तकाकार रूपमें छाप दिया उसे पढ़कर प्रज्ञाचक्षु स्व० श्री पं० सुखलाल जी संघवी ने एक पत्र द्वारा यह स्पष्टीकरण किया था कि अभी तक पक्ष प्रतिपक्षमें जितने वाद-विवाद चले हैं उनमें इतनी शालीनता नहीं रखी गई जितनी इस वाद विवाद में देखी गई। साथ ही पिताजी के विषय में उन्होंने यह भी लिखा कि यदि समाज पिताजीका पूरी तरहसे सदुपयोग करे तो वे समाजके लिए बहुत उपयोगी हो सकते हैं । स्व० पं० सुखलालजी के अभिनन्दन ग्रन्थ में यह पत्र छपा है । पिताजीका जहाँ तक ख्याल है कि पूर्वोक्त दोनों घटनाएं लीवर की बीमारी से पहले ही घटित हो गई थीं । सन् १९४५-४६ के आस पास सोनगढ़से विद्वत् परिषद्को आमन्त्रण मिलनेपर, पिताजीने कार्यकारिणी की स्वीकृति पूर्वक निद्वत् परिषद्का एक अधिवेशन सोनगढ़ में सम्पन्न कराया। वहाँ विद्वत परिषद् कार्यालय का कर्मचारी बीमार पड़नेपर, पिताजीको सोनगढ़ १५ दिन रुकना पड़ा। इस कारण पिताजी श्री कानजी स्वामी व अन्य प्रमुख सदस्योंके सम्पर्क में आये । जहाँतक पिताजीको स्मरण है, प्रवचनके बाद पंचाध्यायी के आधारपर शंका समाधान विशेष रूपसे चला करता था। उसमें कार्यकारण भाव मुख्य रहता था। उस समय कुछ भाइयोंका यह कहना था कि Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्रावली सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री के कुछ अविस्मरणीय क्षणों की झाँकी - चित्रों में Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८२ में बाहुबली का सहस्राब्दि मस्तकाभिषेक करते हुए पण्डित फूलचन्द्र जी सिद्धान्तशास्त्री Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्य-साधना में रत-सिद्धान्त ग्रन्थों के सम्पादन में लीन पं० फूलचन्द्र जी शास्त्री सत्याग्रही के समय पं० फूलचन्द्र जी शास्त्रा चिन्तन की मुद्रा में पं० फूलचन्द्र जी शास्त्री Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत तथा कर्म-ग्रन्थों के अध्ययन-मनन एवं संपादन से तुष्ट पंडित फूलचन्द्र जी सिद्धान्तशास्त्री अपनी साधना-सेवा और संतोष के साथ पंडित जी की जीवन सहयोगिनी सौ० पुतलीबाई जी Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mmy FREE Alhe पं० फूलचन्द्र जी, पुत्र अशोक, पुत्रवधू नीरजा. पुत्री पुष्पा, दामाद डॉ० नेमीचन्द जैन तथा नातिनी-कल्पना, नाती-रवि व नीता पंडित जी का पूरा परिवार-पंडित जी, धर्मपत्नी, पुत्र डॉ० अशोक जैन, पुत्रवधू श्रीमती नीरजा जैन एवं पौत्र चि० अनिमेष Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपने साले वैद्य श्री भगवानदास जी के साथ पं० फूलचन्द्र जी शास्त्री पंडित जी की ज्येष्ठ पुत्री शांति बाई तथा दामाद डॉ० ज्ञानचन्द्र जैन पं० फूलचन्द्र शास्त्री के छोटे भाई पं० भैयालाल जी शास्त्री का पूरा परिवार Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपराष्ट्रपति श्री जत्ती से वीर निर्वाण भारती पुरस्कार ग्रहण करते हुये पं० फूलचन्द्र जी शास्त्री आगरा जैन समाज के द्वारा सम्मानित पं० फूलचन्द्र जी शास्त्री Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वाद महाविद्यालय, वाराणसी के अध्यापक मण्डल में पं० महेन्द्र कुमार जी, कैलाशचन्द्र जी, पं० मुकुन्द शास्त्री खिस्ते के साथ पं० फूलचन्द्र जी सिद्धान्तशास्त्री अ० भा० दि० जैन विद्वत्परिषद के कटनी में प्रथम अधिवेशन के समय श्रद्धेय वर्णी जी तथा अनेक विद्वानों तथा श्रीमानों के साथ बैठे पं० हुए फूलचन्द्र जी शास्त्री Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिमूर्ति (बोरीवली ) क्षेत्र पर जैनतत्त्वमीमांसा के वाचन के अवसर पर श्री १०८ विद्यानन्द जी महाराज से चर्चा में लीन पंडित जी त्रिमूर्ति ( बोरीवली ) क्षेत्र पर १९८४ के दशलक्षण पर्व के अवसर पर श्री १०८ विद्यानन्दजी महाराज को श्रीमती सरयू दपतरी के साथ आहार देते हुए पंडित जी Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागर में धवल वचनिका के समय उहापोह में निमग्न आचार्य विद्यासागर जी और पं० फूलचन्द्र जी सिद्धान्तशास्त्री सागर में वाचना करते हुए श्री पं० फूलचन्द्र जी शास्त्री, वाराणसी Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूज्यवर आचार्य विद्यासागर जी तथा अग्रज अनन्य सहयोगी पं० जगन्मोहनलाल जो के साथ तत्त्वचर्चा में लीन पंडित जी सागर - १९७४ में पंडित जी की अध्यक्षता में सम्पन्न एक समारोह में माननीय मोरार जी देसाई के साथ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन सिद्धान्त भवन, आरा की हीरक जयन्ती के शुभ अवसर पर बिहार के तत्कालीन राज्यपाल श्री अनन्त शय्यनम् अय्यंगार द्वारा पण्डित फूलचन्द्र जी. शास्त्री को सिद्धान्ताचार्य की उपाधि प्रदान करते हए माता हर प्रकार की #ammar पहुंचा imme पूज्यवर श्री १०८ आचार्य विद्यासागर जी के सान्निध्य में सम्पादित धवल वचनिका की पूर्णा पर सागर समाज की ओर से दानवीर सेठ भगवानदास जी द्वारा सम्मानित Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पण्डित जी के अनन्य सहयोगी तथा हितैषी श्री भैया राजकुमार सिंह जी, इन्दौर श्री सेठ डालचन्द्रजी जैन, सागर अध्यक्ष अभिनन्दन ग्रन्थ प्रकाशन समिति श्री सेठ भगवानदास जी जैन, सागर श्री बाबूलालजी पाटौदी, इन्दौर Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पण्डितजी को अनन्य भक्त श्रीमती सौ० सरयू दफ्तरी, बम्बई Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री गणेश वर्णी संस्थान, नरिया, वाराणसी के भवन-उद्घाटन समारोह में श्री निर्मलकूमार जी सेठी तथा श्रीमती सेठानी नर्मदाबाई जी के साथ पंडित जी वीतराग कथा प्रेमी श्री साकरचन्द्र शाह, बम्बई के साथ पं० फूलचन्द्र जी शास्त्री am Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाराणसी में आत्मानुशासन की पांडुलिपि तैयार करते हए पं० हीरालाल जी गंगवाल के साथ पंडित जी अभिनन्दन ग्रंथ के सम्पादक डॉ. देवेन्द्रकुमार जी तथा प्रकाशन समिति के मंत्री बाबूलाल जैन फागुल्ल के साथ पं० फूलचन्द्र जी शास्त्री Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिलावन में पंडितजी के पैतृक मकान का प्रवेश द्वार। सिलावन में पंडितजी के रहने का मकान । पंडितजी की जन्मभूमि सिलावन का जैन मन्दिर । Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खण्ड : ५७ जिस प्रकार कार्यकी योग्यता के आधारपर निज वस्तुमें उपादानता मानी जाती है, उसी प्रकार पर वस्तु में भी निमित्तताकी योग्यता होती है। किन्तु पिताजीने उन्हें बतलाया कि परवस्तु में निमित्तता उपचारसे मानी जाती है, इसलिए उसमें वस्तुगत निमित्तताकी योग्यता होती है, यह सवाल ही नहीं उठता। इसके कुछ समय बाद ही स्व० श्री अयोध्याप्रसादजी गोयलीयने, जो कि भारतीय ज्ञानपीठके मंत्री थे । महाबंध संपादनका प्रस्ताव पिताजीके सामने रखा, जिसे पिताजीने सहर्ष स्वीकार कर लिया । दूसरे भागसे लेकर सातवें भागतक उन्होंने सफलतापूर्वक सम्पादन किया जिसका प्रकाशन भारतीय ज्ञानपीठसे हुआ है। प्रथम भागका वाचन पिताजी पं० सुमेरुचन्दजी दिवाकरको पहले ही करा चुके थे। इस प्रथम भागका संपादन पं० जी सा० ने ही किया है । सन् १९४९ के आसपास भारतीय ज्ञानपीठसे एक मासिक पत्र 'ज्ञानोदय' का प्रकाशन आरंभ हुआ, तब पिताजी भी उसके संपादक रहे २-३ वर्षोंके बाद जब स्व० पं० महेन्द्रकुमार ज्ञानपीठके व्यवस्थापक पद से हटे तो उन्होंने 'ज्ञानोदय' का संपादकत्व भी छोड़ दिया। उसी समय पिताजीने भी संपादक पद छोड़ दिया । सामाजिक संस्थाओंको सहयोग करना तथा पुष्ट करना पिताजीका एक प्रमुख व्यसन सा रहा है । इसके लिये वे अपना घर परिवार भी भूल जाते थे । सन् १९५० के आसपास आचार्य पू० समन्तभद्र जी महाराज, जो उस समय क्षुल्लक थे, के विशेष आग्रहपर उनके चातुर्मास के समय खुरईमें ३-४ माह रहकर गुरुकुलकी सेवामें सहयोग दिया। इस दौरान पिताजीने गुरुकुलके लिए लगभग ६०-७० हजार रुपयोंका दान समाजसे प्राप्त किया । यह् तो हम पहले ही लिख आए हैं कि पिताजी नौकरीको त्यागकर अपने घरपर ही कार्य करने लगे थे। उनकी भीतरसे यह इच्छा थी कि जिस महापुरुष ( पू० वर्णी जी) ने उनके जीवनको बनाया है और आपत्ति के समय उनकी सहायता की है उस महात्माके प्रति कृतज्ञता ज्ञापन करनेके अभिप्रायसे उनके नामपर एक साहित्य संस्था खड़ी की जाये । पिताजीको उसी समय इन्दौर आनेका सुअवसर प्राप्त हो गया । पिताजीने अपने इस अभिप्रायको पू० स्व० श्री पं० देवकीनन्दनजी के सामने रखा । पिताजी के प्रस्तावको सुनकर उन्होंने पूरा समर्थन किया । साथ ही प्रारम्भिक अवस्था में उसको आर्थिक सहायता पहुँचाने में मदद की। इस प्रकार इन्दौर में ही उनकी अध्यक्षता में श्री गणेशप्रसाद वर्णों दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला की स्थापना हुई जो अब भी गणेश वर्णी ( शोध ) संस्थानके रूपमें जानी जाती है । इस प्रकार कुछ काल इस संस्थाको पुष्ट करनेमें निकल गया । चूंकि पिताजी ललितपुरके पासके ही रहनेवाले थे, अतः उनकी काफी इच्छा थी कि इस प्रदेशके लिए कुछ करें। सन् १९४६ में पू० बड़े वर्णीजीका चातुर्मास ललितपुरमें सम्पन्न हुआ था । उस समय पिताजी बीना आए हुए थे । पिताजीको विचार आया कि वर्णीजीके दर्शन करते हुए बनारस जायें । इसलिए एक झोला लेकर ललितपुर गए और क्षेत्रपाल तथा वर्गीजीके दर्शन किए। पिताजीको देखकर वर्णीजीने समाजसे कहा कि "अब इन्हें जाने नहीं देना ये चले गए तो फिर लौटकर नहीं आयेंगे ।" अतः पिताजीको वहीं पर ४-५ महीना रुकना पड़ा। इस दौरान अनेक सभायें आदि करके, वर्णोजीके चातुर्मासके उपलक्ष्य में एक शिक्षा संस्था खड़ी करनी है, ऐसा वातावरण बनाया । इस उद्देश्यसे चंदा एकत्रित करना प्रारंभ किया। चार-पाँच महीने के बमसे लगभग एक लाख रूपया एकत्रित किया और अन्तमें समाजको सलाह दी कि ललितपुर में कालेजकी बहुत कमी है, इसलिए वर्णीजीके नामपर कालेजकी स्थापना की जाये। इस कार्यके लिए क्षेत्रपालके भवनोंको उपयोग में लानेकी बात भी कही। काफी ऊहापोहके बाद श्री गणेश वर्णी इंटर कॉलेजकी स्थापना की गयी । ८ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ उन्हीं दिनों भारतीय दर्शनोंका अध्ययन करनेके लिए एक विदेशी विद्वान् (नाम याद नहीं) भारत आये हुए थे । इस निमित्त वे अनेक विश्वविद्यालयोंमें गये और सभी दर्शनोंका अध्ययन करके सामग्री एकत्रित की । वे बनारस हिन्दू विश्वविद्यालयमें भी आकर ठहरे। उनकी इच्छा थी कि बनारसमें सभी दर्शनोंके विद्वान् सुलभ हैं, इसलिए इन सभी विद्वानोंमे मिलकर सभी दर्शनोंकी पृष्ठभूमिको समझा जाये । STIE RE उसी समय श्री पार्श्वनाथ विद्याश्रममें स्व० डा० गुलाबचन्द्रजी शोध कार्य करते थे । डॉ० सा० का उस विदेशी विद्वान् से सम्पर्क होनेपर उन्होंने अपनी इच्छा डॉ० सा० को बतलायी और पूछा कि जैनदर्शनका ऐसा कौन विद्वान् है जिससे मिलकर जैनदर्शनकी पृष्ठभूमिको समझा जाये । परिणामस्वरूप डॉ० सा० पिताजीको आमंत्रित कर उस विदेशी विद्वान् के पास ले गये । पिताजीकी उस विद्वान् से लम्बी चर्चा हुई। इस चर्चा में उस विद्वान् ने दो प्रश्न मुख्य रूपसे पूछे। एक तो यह कि जैनधर्मको माननेवाले सभी भाई अपने नाम के आगे जैन क्यों लिखते हैं ? पिताजीने उत्तर दिया कि अन्य धर्मावलंबियोंमें माँस मदिराके त्यागकी कोई निश्चित व्यवस्था नहीं है जबकि जैनधर्मावलंबियोंमें इनके अनिवार्य त्यागकी व्यवस्था है । इसलिए प्रवासके समय यह जानने के लिए कि माँस-मदिराका त्यागी कौन भाई है, ताकि उसके साथ खाया पिया जा सके यह जानने के लिए, अपने नामके आगे जैन लगाते हैं । उस विद्वान्‌का दूसरा प्रश्न था कि सभी धर्मो में हिंसा, झूठ, चोरी आदि को निषिद्ध बतलाया है। जैन धर्ममें भो है । फिर ऐसी कौन-सी बात है जिससे कि जैनधर्म अन्य धर्मोसे अलग समझा जाये ?" इस प्रश्नको सुनकर पिताजी क्षणभर तो विचार करते रहे । उसी समय णमोकार मंत्रका स्मरण हो आया और उत्तर ध्यानमें आ गया । पिताजीने उत्तर दिया कि 'व्यक्ति स्वातन्त्र्य जैन धर्मका उद्देश्य है और स्वावलम्बन उसकी प्राप्तिका मार्ग है । ये दो बातें यदि अन्य किसी दर्शन में मिल जायें तो हम उसे स्वीकार करनेके लिए तैयार हैं।' इसे सुनकर वह विद्वान् बहुत प्रसन्न हुआ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खंण्ड : ५९ और अपने उद्गार प्रगट करते हुए कहा “अन्य दर्शनोंमें यह बातें नहीं पायी जातीं। हम कहेंगे कि इस धर्म का एक भी अनुयायी शेष रहे तो इस धर्मको जीवित रहना चाहिए। संसारको अलौकिकप्रकाश देनेवाला दर्शन यही है।" श्री पं० रतनचन्दजी जो कि पिताजीके विद्यार्थी थे, अकलतरामें पढ़ाते थे। उनकी यह तीव्र इच्छा थी कि पिताजी अकलतरासे प्रारम्भकर पूरे छत्तीसगढ़ प्रदेशमें भ्रमण करें। उनकी इच्छानुसार अकलतरा समाजके आमंत्रणको पिताजीने स्वीकार कर लिया और छत्तीसगढ़ प्रदेशके दौरेपर गये । इसी दौरेके सिलसिले में पिताजी राजिम नामक गाँव गये। वहाँ रात्रिके समय वे कुछ भाइयोंके साथ बातचीत कर रहे थे कि एक भाई आये और दूसरे दिनके लिए पिताजीका आमंत्रण कर गये । वह भाई दस्सा थे। वहाँ उपस्थित किसीने उनके यहाँ भोजनके लिए नहीं जाना चाहिए ऐसा नहीं कहा । अतएव पिताजीने उनके यहाँका निमंत्रण स्वीकार कर लिया। दूसरे दिन भोजनके समय पिताजीको रोकनेका प्रयत्न किया गया । परन्तु रोकनेपर भी पिताजी भोजन करनेके लिए गये। कुछ भाइयोंने यह धमकी भी दी कि ऐसा करनेपर आपका चंदा नहीं हो सकेगा। पिताजीने उनको यही उत्तर दिया कि वे खाली हाथ वापिस चले जायेंगे परन्तु उस भाईका अपमान नहीं करेंगे। इतना ही नहीं किन्तु उस भाईको मन्दिर प्रवेशका अधिकार दिलाकर ही वहाँसे जायेंगे, ऐसा पिताजीने कहा । इस कार्य के लिए पिताजीको वहाँ दूसरी बार भी जाना पड़ा, परन्तु उस भाईको दर्शन पूजनका अधिकार दिलाकर ही पिताजी माने । इसके बाद सन् १. ५७-५८ में श्री कानजी स्वामीको लेकर समाजमें सोनगढ़की चर्चा चलने लगी। इसके लिए पू० वर्णीजीके सांनिध्यमें ईसरीमें एक विद्वत सम्मेलन भी हो लिया था। किन्तु उससे कुछ निष्कर्ष निकलता न देखकर पिताजीके मनमें इस विषयको लेकर एक स्वतन्त्र पुस्तक लिखनेका विचार आया। फलस्वरूप पिताजीने एक पस्तक लिखी और प्रमुख विद्वानोंको उसे दिखाया । इसपर इन विद्वानोंने सलाह दी कि विद्वत् परिषद्की ओरसे प्रमुख विद्वानोंको आमन्त्रित किया जाये और वहाँ इसे पढ़कर इसपर विचार विनिमय किया जाये । परिणामस्वरूप बीना समाजकी ओरसे विद्वत परिषद्के द्वारा विद्वानोंको आमन्त्रण भेजा गया। वहाँ इस पुस्तकपर संगोपांग चर्चा होकर, इस विषयमें एक प्रस्ताव पास किया। बादमें जैन तत्त्व-मीमांसाके नामसे, कलकत्ता मुमुक्षु मंडलकी सहायता मिलनेपर उसे प्रकाशित कर दिया गया। इसी समय जैन पत्रोंमें सोनगढ़ विरोधी चर्चा जोरोंसे चल पड़ी। स्व. श्री पं० मक्खनलालजीने अपने अखबार द्वारा चर्चाके लिए पिताजीको चैलेंज भी दिया। पिताजीके पास कोई साप्ताहिक या मासिक अखबार तो था नहीं, इसलिए उनके पत्रके उत्तरमें पिताजीने उनको पत्र लिखा कि "जिस धर्म और आगमको आप मानते हो उसी धर्म और आगमको हम भी मानते हैं, इसलिए हमारे और आपके बीचमें वाद-विवाद तो हो नहीं सकता, किन्तु शंका-समाधान अवश्य हो सकता है। यदि आप राजी हों तो आपके पत्र "जैन दर्शन" द्वारा ही चर्चा चलायी जा सकती है।" परन्तु उन्होंने पत्र द्वारा सूचना दी कि वे अपने अखबारके द्वारा पिताजी के विचारोंका प्रचार नहीं होने देंगे । और इस प्रकार यह चर्चा न हो सकी। इसके कुछ समय बाद ब्र० लाडमलजीका एक मुद्रित पत्र मिला। जिसमें दोनों पक्षके विद्वानोंको खानिया (जयपुर) में तत्त्वच के लिए आमंत्रित किया गया था। उस समय पिताजी कारंजा गुरुकुलमें ठहरे हुए थे। इसलिए ब्र० श्री पं० माणिकचन्दजी चवरेकी सलाहसे पिताजीने पत्रका उत्तर देते हुए चर्चाके कुछ नियम लिखकर भेजे और लिखा कि इन नियमोंके आधारपर वे चर्चाके लिए तैयार है। Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ वहाँसे उत्तर आया कि, "श्री पं० जगन्मोहनलालजी शास्त्रीसे सभी बातें हो ली हैं। आपने जो नियम भेजे हैं उनपर यहाँ आनेपर विचार किया जायेगा।" पिताजीने कारंजासे पन: लिखा कि "पं० जीसे जो भी चर्चा हुई है वह लिखिये और जबतक कि आपकी ओरसे उन नियमोंको स्वीकार नहीं किया जायेगा, हम च के लिए नहीं आयेंगे।" - इसके बाद उन्होंने उन नियमोंको कई विद्वानोंके पास भेजा। उनमें प्रमुख स्व० पं० श्री मक्खनलालजी और पं० वंशीधरजी व्याकरणाचार्य, बीना थे। स्व० पं० मक्खनलालजीका ब्र० लाडमलजीके पास यह उत्तर आया "हमने नियम देख लिए है। उन्हें चर्चा के लिए बुला लिया जाये।' श्री पं० वंशीधरजीका यह उत्तर आया "नियमोंसे कोई डर नहीं । उन्हें चर्चाके लिए बुला लिया जाये ।' ये दोनों उत्तर ब्र० लाडमलजीने पिताजीको लिखकर भेज दिये तथा आनेके लिए आग्रह किया। उस समय पिताजी कारंजासे डोंगरगढ़ पहुँच गये थे। समय कम था। इसलिए तार द्वारा ब्र० लाडमलजीके पास स्वीकृति भेज दी और दूसरे दिन चर्चा करने जयपुर चल दिये ।। जयपुरमें ब्र० लाडमलजीने जिस स्थानका पता दिया था उस स्थानपर पिताजी पहुँचे । वह एक मंदिर था। मालिनसे मिलनेपर ज्ञात हुआ कि यहाँ कोई नहीं आया है और चर्चा खानियामें होनी है, अतः खानिया जायें। रातका समय था । क्या करें यह पिताजी नहीं समझ पाये। इतने में एक सरावगी भाई आ गये। उनसे भी पिताजीने चर्चा की। उन्होंने पिताजीका नाम पूछा । नाम ज्ञात होनेपर वे बोले, “यहाँ मालूम हुआ था कि चर्चा के लिए आप नहीं आ रहे हैं। इसलिए सबके पास तारसे सुचना भेजी गयी है कि पं० फूलचन्द्रजी च के लिए नहीं आ रहे हैं इसलिए कोई न आवे बादमें पुनः तार देकर सबको बुलाया गया है ।" हमारे यह पूछनेपर कि खानिया कितनी दूर है, तब उन्होंने बताया कि वह जंगल में है तथा रातको नहीं पहुंचा जा सकता। पिताजी असमंजसमें पड़ गये। काफी विचार करने के बाद पिताजीने उनसे कहा कि स्व० श्री पं० चैनसुखदासजी जहाँ रहते है वहाँ रिक्शासे पहुँचवा दीजिए । तब उन्होंने बताया कि पं० जी पासमें ही रहते हैं, रिक्शेकी क्या जरूरत है। मालिनसे वे बोले कि इनको पं० जोके यहाँ पहुँचा आओ, आठ आने पैसे देंगे। मालिनके तैयार न होनेपर वे स्वयं ही पिताजीको पं० जीके निवास स्थानपर पहुँचा आये। प्रातःकाल यह बात फैल गई कि पं० फूलचन्द्रजी चर्चाके लिए आ गये हैं। इसलिए श्रीयुत नेमीचन्द जी पाटनी, पिताजीके पास आये और बोले कि सोनगढ़से उनके पास पत्र आया है कि वे स्वयं चर्चामें भाग न लें और कुछ दिनोंके लिए जयपुरसे अन्यत्र चले जायें। यह सुनकर पिताजीने पाटनीजीसे कहा कि “यदि ऐसी बात है तो चर्चामें आप हमारे साथ न रहें। हम तो इन विद्वानोंके मध्यमें ही रहते हैं, अतः हमें उनके साथ चर्चा करना आवश्यक है।" फलस्वरूप उन्होंने पिताजीका साथ देना निश्चित कर लिया। श्री मन्दिरजीमें दर्शन करनेकी चर्चा चलने पर पिताजीने पाटनीजीसे कहा कि वे उस मन्दिरमें जाना चाहते हैं जहाँ स्व. श्री पं० टोडरमलजी बैठते थे और शास्त्रोंकी टीका लिखा करते थे। यह सुनकर पाटनीजीने बताया कि प्रतिदिन वे स्वयं भी वहीं जाते हैं, अतः आप भी चलें, यह बहुत अच्छी बात है। अन्तमें वे दोनों उस मन्दिरमें गये और श्री जीके दर्शन किये और उस स्थानकी रज अपने मस्तकपर चढ़ायी जहाँ पर स्व० श्री पं० टोडरमलजी बैठकर काम करते थे । परोक्षमें यह निवेदन भी किया "हम आपके नगरमें आये हैं। आपका बल मिलनेपर ही हमें इस कार्यमें सफलता मिलेगी ।" बादमें प्रवचन करके पिताजी जहाँ ठहरे थे वहाँ चले आये। जहाँ तक पिताजीको याद है उस दिनका भोजन तो पिताजीने स्व० श्री पं० चैनसुखदासजीके साथ ही किया, बादमें श्री पाटनीजीके Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खण्ड : ६१ साथ पिताजी उनके निवास स्थान पर चले गये और जयपुर खानिया तत्त्व चर्चा के अन्त तक पिताजी वहीं रुके रहे । पाटनीजीके बहनोईने इस कार्य में अच्छा योगदान दिया । दूसरे दिन वे दोनों मिलकर खानियाजी चले गये । वहाँ भगवान्‌ के दर्शन करनेके बंशीधर जी, इन्दौर और स्व० श्री जोवंधरजी, इन्दौरसे मिले । वे वहाँ आ चुके थे । बताया कि यद्यपि चर्चा आजसे शुरू होनी थी, परन्तु स्व० श्री पं० मक्खनलालजीने विद्वान् नहीं आ सके हैं, इसलिए कलसे चर्चा प्रारम्भ की जाये । दूसरे दिन पुनः वे दोनों खानियाजी गये । उस दिन वहाँपर बहुतसे भाई आ गये थे । आ० श्री शिवसागरजी भी ससंघ वहाँ विराजमान थे । मंगलाचरण होनेके बाद उन्होंके समक्ष सर्वप्रथम पिताजीने खड़े होकर बतलाया कि "ब्र० लाडमलजीका जो पत्र मिला है उसके आधारसे हम चर्चा करनेके लिए आये हैं । ब्र० लाडमलजीने अपने पत्र में लिखा है कि श्री पं० मक्खनलालजीने चर्चा के लिए आपके नियम स्वीकार कर लिए हैं, इसलिए आप चचकेि लिए आयें ।" बाद स्व० श्री पं० ब्र० श्री लाडमलजीने कहा है कि आज सब इस पर स्व० श्री पं० मक्खनलालजी खड़े हो गये और बोले कि अपने पत्र में हमने कहाँ दी है ? तब पिताजीने ब्र० लाडमलजीसे कहा कि "आपने तो मुझे ऐसा ही लिखा है, हैं ?" यह सुनकर ब्र० लाडमलजी गये और श्री पं० मक्खनलालजीका वह पत्र उठा लाये पढ़कर सुनाया । नियमोंकी स्वीकृति फिर ये क्या कहते और उसे सभामें पत्र सुननेके बाद स्व० श्री पं० मक्खनलालजी बोले, "अनेकान्त है । अच्छा चलिये नियमोंको लिख लिया जाये ।" और इस प्रकार आसानीसे तत्त्वचचके नियम लिखे गये । इसके बाद मध्यस्थ किसे बनाया जाये यह प्रश्न सामने आया । पिताजी तुरन्त खड़े हुए और स्व ० श्री पं० चैनसुखदासजीका नाम प्रस्तावित कर दिया। यह सुनकर स्व० श्री० पं० इन्द्रलालजी शास्त्री बिगड़ पड़े और उल्टी सीधी बातें करने लगे । यह सब चलते हुए काफी समय हो गया था, इसलिए दूसरे दिनके लिए सभा स्थगित कर दी गई । दूसरे दिन पिताजी से पुनः पूछा गया कि मध्यस्थ किसे बनाना स्वीकार करेंगे । पिताजीने पुनः अपना निश्चय दुहरा दिया। इसके बाद दोनों पक्ष के विद्वानोंने मिलकर विचार-विमर्श किया और श्री पं० बंशीधरजी न्यायालंकारको मध्यस्थके रूपमें स्वीकार कर लिया। इसके बाद पं० मक्खनलालजीने छह प्रश्न उत्तर के लिए रखे और पं० पन्नालालजी साहित्याचार्यने उन्हें लिखकर पिताजीको दिया । किन्तु उस पर किसीके हस्ताक्षर न देखकर पिताजी ने उन्हें वापिस लौटा दिया । बादमें चर्चा होकर पं० भक्खनलालजीके हस्ताक्षर करा दिये गये और मध्यस्थके मार्फत पिताजीको सौंप दिये गये। साथ ही दोनों पक्ष के विद्वानोंने अपने-अपने प्रतिनिषि स्व० श्री पं० माणिकचन्दजी न्यायाचार्य स्व० श्री पं० मक्खनलालजी न्यायालंकार, स्व० श्री पं० जीवंधर जी न्यायतीर्थ, श्री पं० पन्नालालजी साहित्याचार्य और श्री पं० बंशीधरजी व्याकरणाचार्य गये । पिताजी की ओरसे श्री पं० जगन्मोहनलालजी शास्त्री तथा श्री पं० नेमीचन्दजी पाटनी प्रतिनिधि बने । अगले दिन पिताजीकी ओरसे श्री पं० जगन्मोहनलालजीने उत्तर पढ़े और दूसरे पक्षसे जो प्रश्न मिले उन्हें उत्तरके लिए स्वीकार कर लिया। इसके अगले दिन दूसरे पक्ष के विद्वानोंकी ओरसे यह कहा गया कि "पहले दिन जो छह प्रश्न उपस्थित किये गये थे वे किसी पक्षकी ओरसे न होकर साधारण थे । उसपर पं० फूलचन्द्र • जीके पक्षने जो लिखा है वह पूर्वपक्ष कहलाया और इस पक्षकी ओरसे जो उत्तर लिखा गया है, वह उत्तर पक्ष कहलाया ।" इस पर पिताजाने दूसरे पक्षसे यह कहा कि, "उन प्रश्नोंको देखा जाये कि वे साधारण हैं या Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ किसी पक्षकी तरफसे आये हैं।" तब मध्यस्थने उस दिनके कागजको देखा। उस पर दूसरे पक्षके प्रमुख विद्वान श्री पं० मक्खनलालजीके हस्ताक्षर थे। इसलिए दूसरे पक्षके विद्वानोंको अपना प्रस्ताव वापिस लेना पड़ा और 'उत्तर' के स्थान पर 'प्रतिशंका' यह शब्द लिखना पड़ा। तत्पश्चात् यह क्रम दो दौर तक चलता रहा। चर्चाके सातवें या आठवें दिन एक सुन्दर घटना घटी-स्व. पं० माणिकचन्द्रजीन्यायाचार्य और स्व० पं० वंशीधरजी न्यायालंकार चर्चाके स्थलपर पहुँच गये। अन्य कोई विद्वान् नहीं पहुँचे थे। उसी समय पिताजी वहाँ पहुँचे । पहुँचकर उन दोनों विद्वानोंको प्रणाम किया । पिताजीको देखकर स्व० पं० माणिकचन्द्रजी बोले-“पं० जी, आपने अपने निबन्धों द्वारा अपूर्व प्रमेय उपस्थित किया है।" यह सुनकर पिताजी बोले "गुरुजी आपने हमें जैमा पढ़ाया है वैसा हमने लिख दिया है।' इसपर न्यायाचार्यजीने कहा "पं० जी आज भी आप हमें उसी रूपमें मानते हो तो यह मानकर चलना कि यह पं० फूलचन्द्र नहीं बल्कि पं० माणिकचन्द्र लिख रहा है।" जबकि पं० माणिकचन्द्रजी न्यायाचार्य दूसरे पक्षके प्रतिनिधि थे, फिर भी पिताजी द्वारा लिखे गये निबन्धोंको सुनकर अपना आन्तरिक अभिप्राय व्यक्त किया। तीसरा दौर अपनी-अपनी जगहसे डाक द्वारा भेजनेका निश्चय किया गया। इसके बाद पिताजोकी आँखोंमें मोतियाबिन्द हो गया। इस कारण लिखना-पढ़ना बन्द हो गया और जीवन निर्वाहकी समस्या पुनः उपस्थित हो गयी। सौभाग्यसे स्व० श्री भाई वंशीधरजी शास्त्री, एम० ए०, से भेंट हो गयी। वे उदार प्रकृतिके विद्वान् थे अतः उनके परामर्शसे भाद्रपदमें पिताजोको कलकत्ता बुलाया जाने लगा और इस प्रकार यह समस्या अंशतः हल हो गयी। इन्हीं दिनोंमें पिताजी स्व० साहू शान्तिप्रसादजीके सम्पर्क में आये और उनकी इच्छाको ख्यालमें रखकर पिताजीने "वर्ण, जाति और धर्म" पुस्तक लिखी जो भारतीय ज्ञानपीठसे प्रकाशित हई। एक बार पिताजी स्व० साहजीसे मिलने गये। उस समय साहजीने यह इच्छा व्यक्त की कि "आप कलकत्तामें रहने लगी और आपकी सारी व्यवस्था हो जायेगी।" पिताजीने उत्तर दिया कि “शामके वक्त पक्षी अपने हिसाबसे बसेरा करता है और सुबह उड़ जाता है।" यह सुनकर साहूजी चुप हो गये। फिर भी उन्होंने अपने इस प्रस्तावको नहीं छोड़ा। इस बारेमें उनका एक पत्र भी पिताजीके पास आया। उस पत्रको पढ़कर पिताजी असमंजसमें पड़ गये। यह बात किसी तरह लाला जगतप्रसादजीको मालूम हो गयी। वे स्वयं तो नहीं आये पर एक व्यक्तिसे कहला भेजा कि "हम तो साहजीकी सविसमें हैं, इसलिए लिख नहीं सकते। परन्तु अभी तो आप जब सभामें उपस्थित होते हो, तो आप फटी टोपी और कुर्तेमें अच्छे लगते हो। वहाँ जाने पर दो कौड़ीकी इज्जत रह जायेगी।" यह सन्देश मिलनेपर पिताजीने कलकत्ता जानेका अपना विचार त्याग दिया। दूसरी बार पुनः स्व० साह सा० से भेंट होनेपर साहजी बोले "हम आफिस जा रहे हैं। उसी गाड़ी में आप हमारे साथ चलना। उस समय पिताजीको आँखोंमें मोतियाबिन्द जोरोंपर था। यह बात साहजीको मालूम भी थी इसलिए गाड़ीमें साहजी बोले, आपका काम कैसे चलता है। इसपर पिताजीने कहा-बहते हुए पानीके सामने पत्थर आ जानेपर वह रास्ता बना लेता है।' साहजी यह सनकर चप रहे और जहाँ वे ठहरे थे वहाँ भेज दिया। इन्हीं दिनों के आस पास श्वेताम्बर समाजने साहित्यका इतिहास लिखनेका निर्णय लिया। यह देखकर दिगम्बरोंमें भी यह सवाल उठ खड़ा हुआ । पर दिगम्बर तो पक्के दिगम्बर है। उनकी कोई विधिवत् योजना नहीं बनती और बन भी जाये तो समाजका सहयोग मिलता नहीं। अतः श्री वर्णो ग्रन्थमालाकी बैठकके समय Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खण्ड : ६३ श्री पं० जगन्मोहनलालजी ने यह प्रश्न उपस्थित किया कि "दिगम्बर समाजमें जितनी भी साहित्यिक संस्थायें हैं वे इस ओर ध्यान देना नहीं चाहतीं। वर्णी ग्रन्थमालाका भी यही हाल है। इस बातको सुनकर सदस्योंमें चिन्ता पैदा हो गयी । अन्तमें पिताजीने समितिकी ओरसे यह कह दिया कि इसकी व्यवस्था की जायेगी । फलस्वरूप मुद्रित सर्वार्थसिद्धिको भारतीय ज्ञानपीठको सौंप दिया गया और उसपर श्री वर्णी ग्रन्थमालाका जितना व्यय हुआ था वह ज्ञानपीठसे प्राप्त करके इस कार्यको आगे बढ़ाया गया। श्री पं० कैलाशचन्दजोने इस योजनाके अन्तर्गत 'जैन साहित्यका इतिहास' पर तोन पुस्तकें लिखों और प्रकाशित की गई । छत्तीसगढ़के दौरके समय डोंगरगढ़ वाले दानवीर सेठ भागचन्द जीसे पिताजीका परिचय हो गया था। इस कारण पिताजीकी बड़ी पुत्री चि० शान्तिकी डाक्टरी शिक्षामें सेठ सा० का सहयोग मिलता रहा । इसलिये कई बार पिताजीको डोंगरगढ़ जानेका अवसर भी मिला। इस दौरान पिताजी व सेठ सा० में स्नेह उत्तरोत्तर प्रगाढ होता गया। मथुरा संघको जयधवलाके प्रकाशनमें अर्थकी आवश्यकता थी। तब पिताजी व पं० भैयालाल भजनसागरकी यलाह पर सेठ सा० ने मथुरा संघके कुण्डलपुर अधिवेशनकी अध्यक्षता स्वीकार कर ली और वहाँपर जयधवलाके प्रकाशन हेतु ग्यारह हजार रुपये दिये थे। पिताजीकी सलाहपर ही उन्होंने श्री प्रकाशचन्दजीको गोद लिया था। इसके बाद किसी कारणवश उनका स्वर्गवास हो गया। फिर भी सेठानी श्रीमती नर्मदा बाईसे पिताजीका सम्पर्क बना रहा। पिताजीकी इच्छा थी कि श्री गणेश वर्णी ग्रन्थमालाका विकास किया जाए और उसमें शोधकी व्यवस्था भी की जाये। इसलिए उसका नाम बदलकर श्री गणेश वर्णी शोध संस्थान रखा जाए। इसके लिए श्री वर्णी ग्रन्थमालाकी बैठकमें यह प्रस्ताव पास किया गया और उसके अनुसार नियमावली बनायी गयी जो कुंडलपुरमें हुई ग्रन्थमालाको प्रबन्ध समितिको बैठकमें स्वीकार की गयी और उसी प्रबन्ध समितिको श्री वर्णी शोध संस्थानकी प्रबन्ध समितिमें बदल दिया गया। किन्तु इस संस्थाका कोई स्वतन्त्र भवन न होनेसे बहन सेठानी नर्मदा बाईके सामने पिताजीने यह प्रस्ताव रखा कि वे इसके लिए एक भवन बनवा दें। इस प्रस्ताव को सेठानी सा० ने सहर्ष स्वीकार कर लिया। फलस्वरूप संस्थाको अपना एक भवन मिल गया। सोनगढ़ पञ्चकल्याणक प्रतिष्ठाके समय एक विद्वत-सम्मेलन आमन्त्रित किया गया था। मैं उसका अध्यक्ष था। पहले दिनकी कार्यवाही सम्पन्न करते समय विद्वानोंके सामने तीर्थों की सुरक्षा कैसे हो यह सवाल मुख्य था। वक्ताओंके व्याख्यानके बाद मैंने समाजका वर्तमान चित्रण उपस्थित करते हुए कहा जो पहले पैदल यात्रा करते थे, अब वे पैदल न चलकर साइकिल या स्कूटरसे यात्रा करने लगे हैं, जो पहले साइकिल या स्कुटरसे आते-जाते थे वे अब मोटर कारसे आने जाने लगे हैं। जो पहले मिठीके कच्चे मकानमें रहते थे वे अब पक्के मकानमें रहने लगे हैं। जो पहले पक्के मकानमें रहते थे उनको रहने के लिए अब हवेली भी कम पड़ने लगी हैं। तो क्या जितना हम कमाते हैं वह सब भोगके लिए ही होना है या धर्मके लिए भी उसमेंसे कुछ भाग रहना है । इसपर श्रोता समाज स्वयं ही विचार करे। मेरा इतना कहना था कि समाजमें स्वेच्छासे तीर्थरक्षाके लिए दान लिखाया जाने लगा। श्री पुरणचंद जी गोदीका का तो इस मंगल कार्यके लिए एक लाख रुपया अन्तरिक्ष पार्श्वनाथमें पंचकल्याणक प्रतिष्ठाके समय ही जाहिर हो गया था। इसके अतिरिक्त साठ-सत्तर हजार और दानमें लिखाये गये। तीर्थ सुरक्षा कोषका यह श्री गणेश है । उसके बाद आ० बाबूभाईको अध्यक्षता और उनके निर्देशनमें उस कोषकी उत्तरोत्तर वृद्धि होती गई। Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ : सिद्धान्ताचार्य पं० फलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ कहते हैं कि इस कोषमें इस समयतक एक करोड़ रुपयोंसे अधिक रुपया लिखाया जा चुका है, वसूली भी पर्याप्त हो गई है । अभी तक उससे तीर्थ-रक्षाके ये काम सम्पन्न किए जा चुके हैं । १. जिस तीर्थ क्षेत्रपर जिस बातकी कमी दिखाई देती है उस क्षेत्रपर उसकी पूर्तिके लिए अनुदान देना । इस अनुदानके अनेक भेद हैं-जीर्णोद्धार, धर्मशालाका निर्माण, पूजाकी व्यवस्था आदि । २. तीर्थोका सर्वेक्षण करके उनकी विस्तृत जानकारी लिपिबद्ध करना । ३. गृहस्थाचारके अनुरूप तात्त्विक भमिका तैयार करना । ४. समाजमें फैली हुई धर्मके नामपर कुरीतियोंके उच्चाटनमें योगदान करना । ५. शिक्षाके प्रचारमें आवश्यक सहयोग करना आदि । ये पिताजीके जीवनकी कुछ मुख्य घटनाएँ हैं जो उनके साथ बैठकर की गई बातचीतके आधार पर लिखी गई हैं। ऐसी बहुत सी बातें हैं जो समयाभावके कारण नहीं लिखी जा सकी है और बहुत सी बातोंको काफी संक्षिप्त करके लिखा गया है। घटनाक्रम भी सही नहीं है, और कभी समय मिला तो पूरी जीवनी बादमें लिखी जायेगी ऐसी आशा है। फिर भी जो भी लिखा जा सका है उसमें पिताजीके जीवनकी एक झलक तो मिल ही जाती है। पिताजीने अपने जीवनमें स्वाभिमान और स्वावलंबनको आधार बनाया और विवेकमें जो बात सही लगी उसके लिए लड़ते रहे । विद्यार्थी उन्हें बहुत प्रिय रहे हैं और कितने ही विद्यार्थियोंको उन्होंने अनेक प्रकारसे मदद देकर आगे बढ़ाया। अभी भी ८४ वर्षकी अवस्थामें वे सक्रिय हैं और अपना सारा कार्य करते हैं। अनेक कार्य उन्होंने हाथमें ले रखे हैं और हम श्री जिनेन्द्र प्रभुसे प्रार्थना करते हैं कि वे शतायु होकर अपना अमूल्य योगदान जैनदर्शनको प्रदान करते रहें। AAJinni Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भेंट-वार्ता : १ मैं शुरूसे क्रान्तिकारी रहा हूँ पं० फूलचन्द्र शास्त्री / डॉ० नेमीचन्द्र जैन इन्दौर, ८ जनवरी, १९८५ डॉ० नेमीचन्द्र जैन : जहाँ तक मैं आपके बारेमें जान पाया हूँ, आपका जन्म ११ अप्रैल, १९०१ में सिलावनमें हुआ। आप हजारों वर्ष तक रहें, यही हमारी शुभाकांक्षा है । फूलचन्द्र जैन : यह पर्याय रहे या न रहे, यह आत्मा तो रहेगा । ने, : आपका विवाह सन् १९२२-०३ ई० में हुआ ? फू. : १९२१ में असहयोग आन्दोलन चला, उसके बाद विवाह हुआ। फिर पठन, पाठन और लेखन-यही तीन काम तो हमारे बराबर चलते आ रहे हैं। ने. : समाजमें आपका आना-जाना बराबर बना रहा । फू. : समाजमें आना-जाना तो आन्दोलन के रूपमें हुआ। ने. : यह तो बहुत अच्छी बात है, आन्दोलन करना बहुत कठिन है और आन्दोलन कराना तो और भी अधिक कठिन है। आपने सामाजिक आन्दोलन कबसे शरू किया? फू. : सामाजिक आन्दोलन तो हमारा सन् १९२० से ही चालू हो गया था। सबसे पहले यह असहयोग आन्दोलन चला. तो हम पाठशालामें पढ़ाते थे, वहीं व्याख्यान देना शुरू कर दिया। इस कारण कलेक्टर की तरफसे सूचना आई कि आपकी पाठशाला बन्द कर दी जायेगी। सेठने हमसे पूछा कि भाई, तुम किस तरहसे बन्द कर सकते हो, यह हल्ला-गुल्ला करना। उस समय यह हल्ला-गुल्ला ही कहलाता था। हमने मट्ठी-फण्ड खोला । लोगोंमें जाकर आठवें दिन इकट्ठा करना और गरीबोंमें बाँटना । ने. : अच्छा. १९२१ में समाजकी दशा क्या थी ? फ.: लोग उस समय मर्यादाका पालन करते थे। शहरी जीवनमें गिरावट आ गयी। सन् १९३५४० से सरकारी कालेजोंने गिरायो । ने. : यानी कालेजोंने हमारी मर्यादाको कम किया था । फू. : कम किया है; क्योंकि हम भी पढ़े हैं। स्कूल-पाठशालाओं में पढ़े हैं। हम धर्मको भूलने लगे। मन्दिर जाना जरूरी है, उसके बिना भोजन नहीं मिलता था। पहले माँ पूछती थों-मन्दिर हो आये। यदि हमने कहा कि नहीं गये, तो भोजन नहीं मिलेगा। परन्तु जिस समय पाठशालामें पढ़ने लगे, तो फिर मन्दिर गौण होने लगा । पाठशाला मन्दिर तो हैं, परन्तु वह आवश्यकताकी पूर्ति नहीं करते हैं। पाठशालामें शाब्दिक ज्ञान और मन्दिरमें जीवनका ज्ञान होता है। ने. : अब बताइये आप पण्डित कैसे बने ? पहले तो आप पाठशालामें थे; अब पण्डित कैसे बने ? कौनसा सन् था? फू. : हम खुरई, बीना खजुरियामें जो २-३ मील पर था, तो वहाँ पर पढ़े भी हैं स्कूलमें और वहीं पर जाकर अपनी मौसीके लडकेके पास जाकर तत्त्ववाद भी सीखा । Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ ने. कौन-सा सन् था वह : ? फू. होगा यही सन् १९१५, १६, १७ का । ने. : " तत्त्वार्थसूत्र" के बाद "भक्तामर स्तोत्र" सीख लिया । फू.: बाँचना सीख लिया । अर्थं नहीं आया। जैसे कोई पढ़ता है तो पढ़कर तत्त्वार्थसूत्र सुना दिया । फिर उसके बाद हम आये थे तो हमारे एक गढ़रिया मामा थे । ने. : कौन से मामा ? गढ़रिया मामा । गढ़रिया मामा क्या होते हैं ? फू. गढ़रिया गढ़ा गांवके रहनेवाले तो वह एक लड़का यहाँ आया था आपके इन्दौरमें पढ़नेके लिए । हमारे साथमें स्कूलमें पढ़ता था । उन्होंने आकर कहा कि ये ससुरे धूलमें लोटता फिरता है, तेरा साथी देख इन्दौर में बड़ा पण्डित पहुँच गया है पढ़नेके लिए बस हमको लग गया। . : आप चले थे वहाँ से । फू. तो फिर हमारे काकाने हमें यहाँ पर भेज दिया । ने. : यह आपकी शुरूआत है । आप कब तक रहे ? फू. : यही वर्ष छः महीने रहे । वहाँ पढ़े, फिर मुरैना चले गये । ने. : तो इन पाठशालाओंमें कब तक पढ़ते रहे, कितने वर्ष ? फू. : ५-६ वर्षं । .: इसके बाद आपको लगा कि आप पण्डित हो गये । मुरैनामें २|| - ३ वर्ष रहे । फू. : ऐसा है कि साढूमल में २॥ - ३ वर्ष रहे | उसके बाद, बात यह है कि उस समय में यह था कि सरकारी परीक्षा नहीं दिलाना अभ्यास करना। वह तो हो गया। उस समय घरकी स्थिति भी ढीली होने लगी थी। पं० देवकीनन्दनजीका हमारे जीवनमें बहुत बड़ा उपकार है । वह बहुत सामाजिक इंसान था ( मुरैनामें) इसमें कोई सन्देह नहीं। उनके जीवनको तो आज भी भूलते नहीं। तो उन्होंने हमको साहूमल पाठशाला में अध्यापक बना दिया। फिर थोड़ी-थोड़ी धर्म-ज्ञानमें हमारी प्रसिद्धि हो गयी थी। ने. : प्रसिद्धि आपकी अध्यापनके कारण हो गई थी ? फू. : अध्यापनके कारण नहीं, पढ़ते समय यह प्रसिद्धि हो गयी थी । गोम्मटसार कर्मकाण्डके हम विशेष जानकार माने जाते हैं । इसलिए हो गई थी । ने. साहूमल में थे तब ? : फू. साहूमल में नहीं, मुरैनामें थे तब हो गई थी। : . : अच्छा पंडितजी, यह बताइये कि आपका जैनधर्म पर सर्वमौलिक ग्रन्थ कौन-सा है ? , फू.. जैनधर्मके ऊपर वैसे तो हमारे विचार जो हैं पहलेसे ही तात्विक रहे हैं । देखिये हमने सन् ३८ में नातेपुते सोलापुर) में कुछ दिन सर्विस की यहाँ पर एक विवाद चला था फल्टणमें कि भावमन जो । है वह मोक्ष, केवलज्ञानको उत्पन्न करता है, इसलिए ज्ञानका शुद्ध रूप है । " ने. भावमन ? फू. भावमनके सम्बन्धमें दो पक्ष थे- एक आध्यात्मिकोंका और एक व्यवहारवादियों का व्यवहारवादी कहते थे - भावमन शुद्ध होता है, वह केवलज्ञान को उत्पन्न करता है। अध्यात्मवादीका कहना थानहीं, भावमन तो उपशम भाव है, वह शुद्ध कैसे होगा ? वह विवाद हमारे पास आया था, तो हमने उसपर टिप्पणी लिखी थी जो 'शान्तिसिन्धु' में छपी थी। यदि भावमन आत्माका आलम्बन लेकर है तो उपयोग हो यह पंक्ति उस समय लिखी थी, जिस समय कानजी स्वामीसे हमारा गया, तो मोक्ष केवलज्ञान उत्पन्न होता सम्पर्क नहीं हुआ था । । נ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खण्ड : ६७ ने. : यह टिप्पणी सर्वप्रथम आपकी मौलिक कृति थी? फू. : मौलिक थी। ने. : क्या शीर्षक था उसका ? फ. : भावमन । भावमन जो है ज्ञानकी समग्र पर्याय है । ने. : और कानजी स्वामीसे सम्पर्क कब हुआ आपका ? फू. : कानजी स्वामीका सम्पर्क तो भाई १९५९ के बादकी बात है। ने. : वे आपके सम्पर्कमें आये कि आप उनके सम्पर्कमें आये । फू. : ऐसा हुआ कि यह हमारी प्रसिद्धि तो हो गई थी कि हम थोड़ा अध्यात्म जानते हैं तो विद्वत् परिषद्के हम मंत्री थे और सन् १९४८ की बात होगी शायद । तो सोनगढ़में विद्वत् परिषद्को लेकरके हम गये थे। उससे हमारा सम्पर्क हुआ। १०-१२ वर्ष छूटा रहा । फिर यह अध्यात्मके ऊपर खूब चर्चा चली जैन पत्रों में। तो अध्यात्मके ऊपर चर्चा विशेष चलनेसे हमें लगा कि ईश्वरवादी नहीं हैं हम, तो व्यक्तिवादी हैं और व्यक्ति ही गिरता है गिरते ही उठता है ऐसा हमारा जीवन रहा, इसलिए हमने फिर वह जैनतत्त्वमीमांसा नामक एक पुस्तक लिखी। ने.: और यह राष्ट्रीय क्षेत्रमें जब आए तो आप तो सन् १९१८-२० से आ गये । फू. : सन् १९२० से ही आ गये । ने. : क्या-क्या मुख्य कार्य किये आपने ? | फ.: राष्ट्रीय क्षेत्रमें जेल भी गये। ने.: कौनसे वर्ष में ? फू. : 'भारत छोड़ो' आन्दोलनमें हम जेल गये हैं। डॉ० नेमीचन्द्र जी जैन पण्डित जी से भेंटवार्ता लेते हुए Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ ने. : अच्छा यह बताइये सामाजिक क्रांतिमें आपकी कोई रुचि है। फ. : सामाजिक क्रांतिमें गजरथ विरोधी आन्दोलन भी हमने किया । ने. : अच्छा-अच्छा, कौन-सा सन् था यह ? फ. : यह सन् ३८ से। यह जो चला था ये देवगढ़ उसका आन्दोलन करनेवाले तो सब हम ही मुख्य। ने. : क्यों किया आपने विरोध ? फू.: इसलिए कि यह समयके अनुकूल नहीं है और हर जगह लोग जो हैं पैसा होता है तो शिक्षासंस्थाओंमें और स्वाध्याय आदिमें नहीं लगाते हैं और इनका खर्च करते और अपना भी खर्च करते हैं और समाजका भी खर्च करते हैं और कुछ लाभ तो मिलता नहीं है सिर्फ सवाई सेठ बन जाते है, इसलिए आन्दोलन किया था और एक दफे हमने उपवास भी किया इसके लिए केवलारी में । ने.: क्या प्रभाव पड़ा? फू. : केवलारोमें समझौता किया हमसे, फिर वह तोड़ दिया। मानते ही नहीं, अब तो व्यापार हो गया प्रा । आन्दोलन जो है वह व्यापार हो गया । अब तो व्यापारके लिए करते हैं लोग पंचकल्याणक । भेंट-वार्ता : २ ६५ मेरे लेखन का आधार आगम है इन्दौर, ३१ जनवरी, १९८५ डा० नेमोचन्द्र जैन : जिन्दगी जैसे अंजलिका जल होता है और सन्दियोंमेंसे निकल जाता है, वैसे ही समय भी बराबर तेजीसे चला जा रहा है । लेकिन आपने यह समयको रोकनेका प्रयत्न किया है -साहित्य के माध्यम से। साहित्यके माध्यमसे समयको भी थामा जा सकता है, रोका जा सकता है, वह प्रयत्न आपने किया है । जैन साहित्यके क्षेत्रमें आपका आना कब हुआ । पण्डित फूलचन्द्र शास्त्री : जैन साहित्यके क्षेत्रमें तो वैसे अखबार निकालनेकी दृष्टिसे कहते हो तो सन् ३६ में हम आ गये । 'शान्तसिन्धु' पत्रिका में । ने.: 'धवला' का सम्पादन चल रहा था ? फ.: सन १९३७-३८ में धवलाका सम्पादन काम चल रहा था अमरावतीमें। डा० हीरालालजी उस कामको कर रहे थे। उन्होंने अनुवाद तैयार कर लिया था। परन्तु कमेटी और विचार करनेके लिए उनसे कह रही थी। क्योंकि डा० हीरालालजीने एक लेख लिखा था । लेखके ऊपर बहत टीका टिप्पणी हई थी। इसलिए कमेटी थोड़ी सावधान थी कि ऐसा न हो कि यह ग्रंथ भी निकले और उस पर टीका-टिप्पणी चले, तो फजीहत होगी। इसलिए हमको बुलाया गया धवलाके प्रथम भागके पुनर्लेखनके लिए, मैंने उसको लिखा । जहाँ थोडा बहत संशोधन करना था, संशोधन किया, जहाँ उसको मानना था उसीको ले लिया। इस हमने तैयार किया और एक युक्ति निकाली कि भाई, यह छपेगा कैसे ? हमने कहा कि हमारे गुरुजी हैं पण्डित देवकीनन्दनजी, कारंजा। कारंजा अमरावतीके पासमें है । आप कहें तो हम उनको दिखाकर ले आया करें । कमेटीने स्वीकृति दे दी। हम हर हफ्ते या पन्द्रह दिनमें कारंजा जाने लगे और पढ़ करके सुनाते थे । वे सुनते थे कहीं उन्होंने कोई एक आध बात बताई तो नोट कर लेते थे, ताकि और अन्तिम रूप हो गया और अन्तिम रूप हो जानेसे कमेटीने मंजूरी दे दी कि छापो । तो उसमें जो अड़चन थी, वह निकल गई। | Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खण्ड : ६९ ने. : इस तरहसे आप जैन साहित्य सृजनमें या टीकामें या जो भी हो, उसमें आप आये । फू.: हाँ। फिर तो काम करते रहे। फिर वहाँ काम किया । चूँकि हमारे साथी जो हैं डॉ० होरालालजी उग्र प्रकृतिके थे थोड़े । ने. : आपको प्रेरणा इसमें मिली पण्डित देवकीनन्दनजी से । फू. : पण्डित देवकीनन्दनजीसे प्रेरणा क्या मिली ? वैसे तो हम पत्रिका निकालते ही थे - अंतःप्रेरणासे निकालते थे । अन्तमें उनका सहयोग मिल गया । अंतःप्रेरणा यही मिली कि हमको यह काम करना चाहिए । इस काम में हम आ गये । यहाँ आ जानेके बादमें ४-५ वर्ष तो हम आजीविका में रहे । ३ वर्ष तो वहीं रहे, फिर उनका थोड़ा स्वरूप देख करके डॉ० हीरालालजीके साथ हमारे विवाद हो जाया करते थे कभी -कभी । फिर हमारे पहला बच्चा हुआ, तो उसका स्वर्गवास हुआ तो हम घर आये थे, उसके बाद हम गये ही नहीं । ने. : आपके मौलिक ग्रंथ कितने होंगे ? फू. : मौलिक तो वैसे तो देखिए, एक तो हमने 'जैनतत्त्वमीमांसा' लिखी और एक 'वर्ण, जाति और धर्म' पुस्तक लिखी । एक तस्वार्थसूत्र की टीका की । .: मौलिक ग्रंथोंमें आपने कौन-कौन सी मौलिकताएँ सामने रखीं ? फू. : व्यक्ति - स्वातन्त्र्य - स्वावलम्बनको ध्यानमें रखकर हमने लिखा और 'वर्ण जाति और धर्म' में सामाजिक व्यवस्थाको आगमसे, सामाजिक व्यवस्थाके विरोध में हमको क्या मिलता है, यह दृष्टि हमारी मुख्य रही । ने. : विरोधमें रही है ? फू. : विरोधमें मतलब यह है कि समाजका वर्तमानमें जो ढाँचा है जातिवादका उसके हम विरुद्ध हैं । हम संगठन तो चाहते हैं, परन्तु समाज गुटोंमें जो बँटी है, वह विषमता नहीं चाहते हैं । जैसे जैनधर्मके आधार पर दिगम्बर जैन धर्मके आधार पर, एक संगठन होना चाहिए, ऐसा हमारा मत है । . : क्योंकि विषमताओंसे शोषण होता है । फू. : शोषण भी होता है और योग्य भी हो, तो हम कहते हैं अयोग्य है:- अगर हमारी जातिका नहीं है तो ने. : अच्छा, तो जातिका होना जरूरी है । फू. : जातिका होना जरूरी नहीं, फिर भी मानते हैं कि जातिका होना चाहिए । हाँ, संस्कार वाला वो होना चाहिए । जिस संस्कारमें वह पला-पुसा है और जैसा हमको काम लेना है उसके अनुकूल तो होना चाहिए | परन्तु जाति उसमें बाधक बनती हैं, तो यह हमको स्वीकार्य नहीं । हम तो कहते हैं कि हरिजनको भी पात्र यदि हम बना लेते हैं तो वह हमारे धर्मको धारण करनेका पूरा अधिकारी है, फिर हम तो यह मानते हैं । ने. : व्यक्ति स्वातंत्र्यको मानते हैं । फू.: हाँ । ने. : इसमें जाति कहाँ आड़े आती है । फू.: हमारे यहाँ तो संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त होना चाहिए, यह आगमकी आज्ञा है । ने. : अच्छा, पर्याप्त यानी क्या ? : संज्ञी पंचेन्द्रिय ताकि जो समझदारी आ जाए, विवेक आ जाए, तो हमारी बात सुने, तो विवेक से ग्रहण कर ले । सत्-असत् हेय उपादेयको जाने । फू. Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ ने. : अच्छा यह बताइये कि टीका करने में कौन-कौन सी सावधानियां रखनी चाहिए । फू. : टीका करनेमें मूलको ध्यानमें रखना चाहिए । हमारे आचारमें एक व्यक्ति स्वातंत्र्य स्वावलंबनके आधारपर हमारा लेखान चलना चाहिए क्योंकि ये सब स्वतंत्रताके पोषक ग्रन्थ हैं। चाहे चरणानुयोग हो या करणानुयोग हो, प्रमाण युक्त उदाहरण है उसमें तो कोई बात ही नहीं है। चरणानुयोग है-हमारी आध्यात्मिक वृत्तिके अनुरूप । हमारी प्रवृत्ति क्या होती है ? आध्यात्मिक वृत्ति अगर हमारी ऐसी निष्कषाय की है, तो हमारा उठना-बैठना भी उसी जातका होगा । ने. : भाषा कैसी रखते हैं आप? फु. : भाषा तो हमारी चालू है, सरल है। कहीं पारिभाषिक शब्द आ जाते है कई जगह स्पष्ट कर देते हैं, कई जगह वैसा ही चलता है। जैसे अनुवाद है तो उसमें विशेषार्थमें स्पष्ट करेंगे, अनुवादमें नहीं। अनुवाद तो जैसा मूल होता है, वैसा ही वहाँ लिख देते हैं । विशेषार्थमें उसे स्पष्ट कर देते हैं । ने. : टीकाकार बनने में क्या सावधानियाँ रखना चाहिए, जैसे कि मैं टीकाकार बनना चाहता हूँ तो आप मुझसे क्या कहेंगे। फू. : पहले तो विषय स्पष्ट होना चाहिए । ने.: पहली बात, दुसरी...." फ.: दूसरी भाषापर अधिकार होना चाहिए, तीसरे अनुगम भी होना चाहिए थोड़ा। अनुगमका मतलब यह है कि उस विषय सम्बन्धी जानकारी दसरे ग्रन्थोंसे भी हमारी तुलनात्मक जानकारी परिपक्व होनी चाहिए । ये तीन बातें अगर किसीको ध्यानमें हैं, तो टीकाकार हो सकता है । ने. : यह बहुत जरूरी है । आज लोग इसका ध्यान रखते हैं या नहीं। फ. : कोई रखते हैं कोई नहीं रखते हैं। यह चलता तो है। अखबार ये जो छापखाना आ गया प्रेस तो उससे तात्त्विक दृष्टिसे तो हानि ही हुई है । ने. : आपका प्रमुख योगदान या अवदान धर्मके क्षेत्रमें है, दर्शनके क्षेत्रमें या संस्कृतिके क्षेत्रमें है या समाजके क्षेत्रमें क्या है ? फू. : असलमें हमारे योगदानकी बात करते हैं, आपने तो मुख्य रूपसे समाजके निर्माणको भी दृष्टिमें रखा और तत्वज्ञानको भी मुख्यतयासे हमने ध्यानमें रखा और दोनोंको ध्यानमें रखा। . ने.: जैसे रेलकी पटरियाँ होती हैं और उसपर पहिया दौड़ता है, वैसे ही इन दो पटरियोंपर आपका साहित्य चलता है। फ. : चलता है । तत्त्वज्ञान सामने रखा, समाजके निर्माणको भी ध्यानमें रखा। हम विद्वत् परिषद्के अध्यक्ष बन भी गये थे तो हमने एक बात लिख दो उसमें अपने व्याख्यानमें कि भाई आप यह तो मानते ही हो कि हमारे जो शास्त्र मिलते हैं उत्तरकालमें उनमें पांचवें स्थानपर शूद्रको स्थान मिला है । तो इतना तो मानो आप लोग, जिसके कि आधारपर जो हमारे प्रमुख विद्वान् थे, जिनको समर्थन करना चाहिए, वे चुप रहे । ने. : उनकी रोजी-रोटीका प्रश्न था । जैन सात्यि जो अपना है उसमें कोई नया मोड़ लेना चाहते हैं-नया मोड़ देना चाहते हैं । फू. : नया मोड़-तो जातिवाद पहले खत्म होना चाहिए । ये जातिवाद जबतक चलेगा तबतक जैन समाजमें बँटवारा रहेगा। जो समितिने साहित्यिक धर्मकी प्रवृत्ति जिसे हम कहते है हुई नहीं है, जातिवादके Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खण्ड : ७१ आधारपर ही व्यक्ति सोचेगा और जातिवादके आधारपर ही व्यक्ति काम करेगा, इसलिए वह धर्मका काम तो नहीं होगा। इससे अपने आप द्वार खुल जायेंगे। दूसरे साहित्यका जो क्षेत्र है, वह हम बहुत संकुचित कर रहे हैं । इस मामलेमें हम लोगोंको पैसा भी नहीं मिलता है । ने.: पारिश्रमिक नहीं मिलता है। फू. : पारिश्रमिक तो अलग बात है, प्रकाशनके लिए भी पैसा नहीं देते हैं । समाज मन्दिर और मूर्तियाँ देखती हैं। हम कहते हैं कि मन्दिर मूर्तियाँ तो अपनी जगह हैं और वे होने ही चाहिए। वह समाजको ले -संस्था परन्तु एक साहित्यिक संस्थाको दष्टिसे भी सोचना चाहिए आदमीको। देश छोटा नहीं है । पूरा विश्व जिसको आज ब्रह्माण्ड विश्व कहते हैं, वह इतना बड़ा देश है तो हमारा साहित्य उन तक कैसे पहुँचे, उन विविध भाषाओंमें, यह कैसे पहुँचे, उसपर ध्यान देना चाहिए । दिगंबर समाज इस ओर ध्यान नहीं देती है, श्वेताम्बर समाज तो ध्यान देती है । वह इस दृष्टिसे काम कर रही है । और हमारी समाज जो है कूपमण्डूक बनी हुई है । ने. : षट्खण्डागम ग्रन्थका वाचन हुआ आचार्य विद्यासागरजीके सांनिध्यमें, दो जगह हुए तीन जगह हुए मुझे मालूम नहीं है। फू. : १॥-२ महीने चला है । ने.: उसकी उपयोगिता क्या है ? फू. : उपयोगिता केवल इतनी कह सकते हैं कि लोगोंका ध्यान इस तरफ खींचे और अपने मूल ग्रन्थ का मान करके इनका स्वाध्याय करने लगे। इतनी उपयोगिता है। __ ने. : हम तीर्थंकरका एक श्रावकाचार अंक निकाल रहे हैं तो एक आदर्श श्रावककी कल्पना क्या है आपकी ? फू. : श्रावकाचार एक बात विशेष है श्रावक जैनधर्ममें वही कहना लाभकारी है कि वह मूल धर्मको अंगीकार करनेके लिए अपने मनमें विचार रखता है कि कदाचित् ऐसा मौका आये कि निर्विकार बने । क्योंकि निर्विकार होनेका श्रावक रास्ता नहीं है। निर्विकार होनेका पूरा रास्ता वही है। अकेले आत्माको बनानेका । अकेले आत्मामें रह जाऊँ और यह जो मेरे ऊपर आवरण है, संयोग है, वह मुझे हर जाये, इसका रास्ता तो एक ही है, यह अपवाद मार्ग है । ने. : अब हम कहाँसे चलना शुरू करें इस मार्गपर । श्रावक कहाँसे चलना शुरू करे। फ.: पहले तो देवको देखे, गुरुको देखे, साहित्यको देखे, तीनोंको देखे । ये हमारे है हमें इनके साथ रहना है । उपदेशोंके अनुसार चलना है । ने. : श्रद्धा होनी चाहिए-निश्चित बात है। फू. : फिर अहिंसाकी तो बातें हैं कि आठ मूलगुणोंका पालना हो यह बात आनी चाहिए। इसके बाद वह श्रावक कहलानेका अधिकारी है । ने. : और उसका आचरण कैसा होना चाहिए जो सामाजिक आचरण । फ.: सामाजिक आचरण-एक तो अपने समाजमें ही उठने बैठनेका परिणाम होना चाहिए उसको । अन्य समाजमें जो जाते हैं, उनके गुण दोष हमारेमें प्रवेश कर जाते हैं, इसलिए जहाँ तक है जिन समाजोंसे, अहिंसाकी बात नहीं है या धर्मकी बात विशेष नहीं है, उन समाजोंसे तो सम्पर्क नहीं होना चाहिए और इन Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ तीनोंको भूलना नहीं चाहिए । यहाँ तो प्रत्येक जैनको आना ही चाहिए मन्दिरमें, भले ही वह हाथ जोड़कर चला जाए। ने. : संगठनका कोई उपाय बतलाइये, इलाज सुझाइये । फ. : संगठन करनेका उपाय है एक कि हम एक जगह रहें, एक गोष्ठी बनाएँ और गोष्ठीमें हम ऐसे लोगोंको लें जो चिन्तक हों, विचारक हों। उन लोगोंको भी थोड़ा बहुत जगह दें जिनका समाजमें प्रभुत्व हो या आर्थिक दृष्टिसे सम्पन्न हों। उनको लेनेसे क्या होगा एक सब तरहके विचारोंका केन्द्र बन जाएगा। आकलन हो सकेगा और वहाँ पर हमें यह निर्णय करना चाहिए पहले तो मन्दिरका निर्णय करना चाहिए कि इन सबको मन्दिर जाना होगा। ने. : मन्दिरको भी आकर्षक बनानेकी जरूरत तो है । मन्दिर जैसे अभी हमारे सामने है ऐसे नहीं है कि मन्दिर निमंत्रण देते हों कि आओ हमारे यहाँ। उसमें आर्कषणके लिए जैसे हम कई उपाय कर सकते हैं जैसे वहाँ ऐसो पुस्तकें रखें जिनको पढ़नेकी जिज्ञासासे लोग आवें, ऐसी कथाएँ लिखी जाएँ। कथाओंके द्वारा प्रवेश होता है। तत्त्वज्ञान तो व्यक्तिका जीवन है समाजका जीवन जो है कथाएँ है, ऐसा मैं मानता हूँ। ने. : कथाओंके माध्यमसे वह तत्त्वकी ओर जाएगा। फू. : हाँ । तत्वकी ओर जाएगा। लड़के होंगे, बच्चे होंगे। छोटीसे छोटी किताबें तैयार हों, उनमें ऐसी हों कि जो उनमें आकर्षण पैदा करें । ने.: यानी मन्दिर और साहित्य इन दो पर हमारा ध्यान जाना चाहिए, तो हमारी आने वाली पीढ़ी। फ. : बिल्कुल संगठित बन सकेगा। हम विचारकोंका एक संगठन होना चाहिए । CNaon CG Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रेखा-चित्र आस्था के शिखर डॉ. देवेन्द्रकुमार शास्त्री, नीमच हिमगिरिके धवल, आलोकस्नात, शृंग को समतल उपत्यकामें मुस्कराता हुआ देवदारु सदृश दीर्घ, देदीप्यमान, समुन्नत तनमें लिपटा हुआ सरल मन, ज्ञानकी भास्वर रश्मियोंसे आलोकित वन-बीथियोंके पावन निझर एवं अट्टहाससे समल्लसित पर्वत-सरिताओंके विस्तीर्ण तीरपर समासीन भव्यजनोंकी मण्डलियोंसे सेवितउन्नत वदनपर उदात्त मनकी आभाको विकीर्ण करता हआ मानो प्रकाशका पुंज ही हो । जिसने अपना प्रकाश हा सदा विकोण किया; भले ही तिमिराच्छन्न सघन निशाके वातावरणमें घटाटोप मेघोंके मण्डल मँडराते रहे हों या दुर्दिन की भाँति तीव्र गर्जन, वर्षण, धारा-सम्पात एवं उल्कापात ही क्यों न होता रहा हो ? __इकहरे, गौरवर्ण, लम्बे, छरहरे शरीरपर वृद्धावस्थाकी सिकुड़न किसी द्वीपकी रचना करती हुई भूकम्पका स्मरण दिलाती है, साथ ही अपनी अकम्प दढ़ता एवं स्थिरताका बोध कराती है। न जाने कितने प्रभंजन आए और गए, वात्याचक्रोंके प्रचण्ड अंधड़ोंसे प्रकम्पित न होनेवाला दृढ़ मानस आज भी तत्त्वज्ञानके शिखर पर अविचल है । समाजकी धाराको मोड़ देनेवाला यह व्यक्तित्व आज भी विलक्षण है, निराला है। प्रायः यह कहा जाता रहा है कि प्रतिभावान कलाकार, साहित्यकारके जीवनमें संघर्ष होना अनिवार्य है । संघर्षकी भूमिमें ही ऐसे तन्तु जन्म लेते हैं जिनसे कला तथा साहित्यका जन्म व विकास होता है । पण्डितजीको बचपनसे ही संघर्षकी भूमिमें पलना पड़ा । किन्तु यहाँ तक कुछ नहीं था। जिस प्रकार वन-खण्डमें या उपत्यकाओंपर बढ़नेवाले तरु-पादप मारुतके साथ केलि करते हुए आहत नहीं होते, वही स्थिति अभाव और दरिद्रतामें उन्नत होनेवालोंकी प्रारम्भिक दशा होती है। किन्तु संघोंसे सतत जूझनेवाले अपनी दृढ़ता का कसा परिचय देते हैं, यही मनुष्य जीवनकी सफलताकी सबसे बड़ी कहानी है। उसे शब्दोंके वाग्जालमें कहनेसे क्या लाभ है ? इतना संकेत भर पर्याप्त है कि धैर्यको शिलापर आसीन व्यक्ति आँधियोंके थपेड़े लगनेपर भी जो चंचल नहीं होते, वास्तवमें वे ही महान हैं, धन्य हैं ! किन्तु सामान्य जन विचलित होते हैं जो स्वाभाविक है । परन्तु सफल साहित्यकार इन दोनोंके बीच सामंजस्य स्थापित कर चलता है, तभी वह सरस्वतीके मन्दिरमें अपने भावोंका अर्घ्य लेकर सम्यज्ञानदीपके द्वारा सच्ची उपासना कर सकता है। मूर्तिको दीपक दिखाना ही सच्ची आरती व पूजा नहीं है, वरन निर्मल भावोंके पात्र में ज्ञान लौसे पवित्र वर्तिकाको प्रज्ज्वलित करना ही सरस्वतीकी सच्ची आराधना व पूजा है । पण्डितजीका सम्पूर्ण जीवन आराधनासे ओतप्रोत रहा है । श्रेयस्कर कार्योंमें प्रायः विघ्न आते हैं । कभी-कभी तो व्यवधानोंकी माला ही लम्बी कतार बाँधकर खड़ी हो जाती है। किन्तु मनस्वी व्यक्ति विघ्न-बाधाओंकी चिन्तामें डूबते नहीं है। वे सदा उनके बीच मुस्कराते रहते हैं । यही उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि होती है। वे अपने कार्यमें व्यापत तथा संलग्न रहते हैं । न जाने कितने आवरण एक-एक कर हटते जाते हैं । फिर, वही स्वच्छ स्थिति निर्मित हो जाती है। जीवनके अनेक कार्यों से योग्य आजीविकाको प्राप्ति होना महान् पुण्यका कार्य माना जाता है । मनोनकल कार्य-व्यापारकी प्राप्ति होनेपर तथा कार्यके सन्तोषजनक परिणामके विपरीत सामाजिक दबाव होनेपर यदि उससे हटना पड़े, तो कितनी व्यथा होती है ? इसका अनुमान पाठक ही लगा सकते हैं । परन्तु धीर Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ '७४ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ व्यक्ति अपनी नीति कभी नहीं छोड़ते । सिद्धान्तके पीछे पण्डितजोने सब कुछ छोड़ा, पर अपनी धर्म-नीतिसे कभी विमुख नहीं हुए। ___ सामाजिक सैलाबके सैलाब उमड़े, चर्चा-वार्ताओंका दौर चला, लेख मालाएँ लिखी गईं, समाज-सुधारक के नामपर कीचड़ भी उछाला गया, किन्तु आपकी जड़े सुदूरगामी क्षेत्रों तक इतने आयामोंमें विस्तृत रहीं कि बड़े-से-बड़े तूफान, आँधी, बवंडर आपका उन्मुलन नहीं कर सके। आप सभी अवस्थाओंमें हिमालयपर स्थित देवदारुकी भाँति अटल अवस्थित रहे। आप मलमें इतने गहन हैं कि आपके तर्क, प्रमाण, आगम व युक्तियाँ अकाट्य हैं। अभी आपको हिलानेकी किसीमें सामर्थ्य नहीं है। शरीरकी ढलती हुई अवस्था सम्प्रति आपको चल-विचल करने लगी है जो दीर्घ कालकी रुग्णताका परिणाम है । किन्तु अनेक युगोंसे जिस तत्त्वज्ञानकी भूमिकापर उन्मुक्त वातावरणमें आत्मनिर्भर होकर स्वतन्त्र रूपसे साहित्योपजीवी रहकर अपना आदर्श प्रस्तुत किया है, वही जीवनमें अथसे इति तक एक विशाल वृत्तके रूपमें ज्ञान-बिन्दुओंको सार्थकता प्रदान करेगा। ___ उपासककी उपासना अखण्ड की है, कालिक की है, नित्य की है, ध्रुव ही शाश्वत है । सम्पूर्ण जीवनका इतिवृत्त ध्रुवसे प्रारम्भ होकर ध्रुव तक ले जाता है। यदि ध्रुवधामको पा लिया, तो सब कुछ पा लिया । श्रद्धेय पण्डितजीके शब्दों में ___ 'अतीत कालको देखते हुए मेरा वर्तमान पर्याय-जीवन एक बिन्दुके बराबर भी नहीं है । जब वर्तमान शरीराश्रित जीवनको देखते हैं, तो अवश्य ही पिछले पांच वर्ष अनेक आपदाओंसे ओत-प्रोत प्रतीत होते हैं। फिर भी, वह मेरा अपना जीवन नहीं है। क्योंकि मेरा अपना जीवन ज्ञान-दर्शन स्वभावी है । उसमें अभी तक भी खण्ड पड़ा है और न भविष्यमें खण्ड पड़नेवाला है। पर्यायका स्वभाव बदलना है। वह बदलती रही है और बदलती रहेगी। संयोगी जीवनमें संयोगका होना और उसका बिछुड़ना भी क्रमप्राप्त है । उसमें इष्टानिष्ट बुद्धिसे सुख-दुःखकी मान्यता होना यही अज्ञान है । एक ज्ञान-मार्ग ही ऐसा है जो अज्ञानको पूरी तरहसे समाप्त करने में समर्थ है । इसलिये वही उपासना करने योग्य है। यह मेरा जीवन-वृत्त है।" अनवरत हिमपातकी ठिठुरनेसे अकड़ते हुए वृक्ष भले ही धवल तथा जीर्ण-शीर्ण प्रतीत हों, किन्तु वृद्धताकी ठिठुरन जिनकी बुद्धिको स्पर्श तक नहीं करती, वे श्वेत खद्दरधारी, जाकिट तथा सफेद टोपीको पहने हए उपनेत्रोंसे सुशोभित शरीरसे बुढ़ापेकी दस्तक देते हों, पर युवा मनकी भाँति आज भी अपने अध्ययन, लेखन तथा प्रवचनमें किसी प्रकारकी शिथिलता नहीं आने देते ।। भौतिक प्रकृतिकी रंगशालामें विधि रंगोंका परिवर्तन होना स्वाभाविक है प्रभातकालीन बालातप और सन्ध्याकालीन सिन्दूरी अरुणिमा जीवनके उत्थान-पतनके मानों विविध चित्रोंको चित्रित करती हई लक्षित होती है । पण्डितजीके जीवनने भी कई उतार-चढ़ाव देखे हैं और उनके विविध रूप-रंग भी हैं, किन्तु जैसे रंगस्थलीकी भूमिमें कभी कोई परिवर्तन परिलक्षित नहीं होता, वैसे ही पण्डितजीकी प्रज्ञा तथा ज्ञानका आकलन करनेवाली मेधा आज भी ज्यों की त्यों अपनी प्रबुद्धताका परिचय देती है। यथार्थमें जगत्की कर्मशालामें रंग-रूपके सिवाय क्या है ? जो भी आव.र्षण है, वह रूपका है, रंग का है। नवोन्मेषशालिनी प्रज्ञा इस रहस्यको जानती है, वास्तविकताको पहचानती है। इसलिए वह आकर्षण-विकर्षणों तथा कायामायाकी आशक्तिसे संश्लिष्ट नहीं होती। काश! हममें यही प्रज्ञा होती, तो साधु सदृश उजले मन तथा सिद्ध समान पावन चैतन्यको निर्मल ज्ञानको धारामें सम्यक् रूपसे आकलन कर भलोभाँति शब्दोंको अभिव्यक्ति प्रदान कर पाते । Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ३ व्यक्तित्व और कर्तृत्व Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ****** न्यायाचार्य पूज्य श्री गणेशप्रसाद जी वर्णी www.jalnelibrary.org Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूज्य वर्णीजोकी दृष्टिमें पण्डितजी पं० रमेशचन्द बांझल, इन्दौर विद्वत्वर्य पण्डित शिरोमणि श्री फूलचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्री जिनागममें करणानुयोगके विशिष्ट ज्ञाता माने जाते हैं । पण्डितजीने करणानुयोगका सच्चा प्रतिनिधित्व किया है और यही कारण है कि धवल आदि सिद्धान्त ग्रन्थोंकी टीका करनेके कारण धर्मानुरागी मुमुक्षुओंको कर्म-सिद्धान्तकी अवस्थाओं एवं परिस्थितियोंकी पूरी झाँकी देखनेको मिलती है । आर्षानुयायी विद्वानोंकी विभिन्न विशेषताओंमें से एक यह भी महत्त्वपूर्ण विशेषता रही कि आत्मविज्ञापन एवं यशोलिप्साके लिये साहित्य-सृजन नहीं किया । व्यक्तिगत परिचयकी अपेक्षा उन्होंने प्राणी मात्रको प्रयोजनमत तत्त्वोंका विशद वर्णन करना एवं प्राणियोंको अविकल मोक्ष-मार्गमें स्थापित करना तथा स्थित मोक्ष-मार्गियोंके प्रति निविचिकित्सा, स्थितिकरण और वात्सल्य भाव रखना अपना पुनीत अनुष्ठान स्वीकार किया जो कि पं० श्री फुलचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्रीमें स्पष्ट परिलक्षित होता है। पं० जी साहब बड़े धार्मिक, सामाजिक, क्रान्तिकारी, निष्पह प्रवचनकार स्वाभिमानी है और आर्षभक्ति (आपमें) कूट कूट कर भरी है । आपका करणानुयोगका अनुभव बड़ा व्यापक है । आपकी निरीक्षण-शक्ति बड़ी अद्भुत और तीव्र है । करणानुयोगके तो निष्णात पण्डित हैं ही, साथ ही संस्कृतके उद्भट विद्वान् हैं । सृजनात्मक साहित्यकी अभिव्यक्तिके लिये सरल एवं सुबोध हिन्दीको अपनाया (गया है) ताकि भाषाका अल्पज्ञ मुमुक्षु भी हृदयंगम कर सके । पूज्य गणेशप्रसाद वर्णीजीने दो भागोंमें 'मरी जीवन गाथा' के अनेकानेक स्थलोंपर पं० श्री फूलचन्द्रजी को प्रसिद्ध किया है। १. कटनीमें विद्वत्-परिषद् कटनीमें भारतवर्षीय दि० जैन विद्वत्-परिषद्का प्रथम अधिवेशन हुआ, जिसमें अनेक विद्वान् पधारे थे। इनमें एक पं० श्री फूलचन्द्र जी सिद्धान्तशास्त्री हैं; जिनके विषयमें वर्णीजीने उल्लेख किया कि "तथा बनारससे पण्डित फूलचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्री भी, जो कि करणानुयोगके निष्णात और मर्मज्ञ पण्डित है आये थे । आप तो विद्वत-परिषद के प्राण हैं ।' (भा० १ पृष्ठ ५२४) अतः स्पष्ट परिलक्षित होता है कि आप अपने समयके अद्वितीय करणानुयोगके ज्ञाता हैं। २. सागर में शिक्षण-शिविर ___सागरमें धार्मिक शिक्षण-शिविर महोत्सवमें पं० श्री फूलचन्द्र जी सिद्धान्तशास्त्री आदि अनेक उच्चकोटिके विद्वानों के आगमनसे समाज अत्यन्त गौरवान्वित हो रहा था एवं ममक्ष जैनधर्मसे अत्यन्त लाभ हो रहे थे। पं० श्री फूलचन्द्रजीने धवल ग्रन्थके तेरानवे , सूत्रमें 'संजद' पद होना चाहिए, इस विषय पर मार्मिक भाषण किया, जिसका वर्णीजीने उल्लेख किया "इन्हीं चार दिनोंमें विद्वत्-परिषद्को कार्यकारिणीको बैठक हुई । 'संजद' पदकी चर्चा हुई, जिसमें श्री पं० फूलचन्द्र जी सिद्धान्तशास्त्रीका तेरानवे सूत्र में 'संजद' पदको आवश्यकतापर मार्मिक भाषण हुआ और उन्होंने सबकी शंकाओंका समाधान भी किया। इसमें श्री पं० वर्द्धमानजीने अच्छा भाग लिया था । अन्तमें सब विद्वानोंने मिलकर निर्णय दिया कि धवल सिद्धान्तके तेरानवें सूत्रमें 'संजद' पदका होना आवश्यक है।" (भाग १ पृष्ठ ५४६) Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ ३. गोपाचलके अञ्चलमें मरारमें कार्तिक माहके आष्टाह्निक पर्वमें पं० फूलचन्द्र जी सिद्धान्तशास्त्री आदि अनेक विद्वान पधारे थे । सभीके प्रवचन हुए । पं० जीके विषयमें वर्णीजी लिखते हैं "पं० फूलचन्द्र जीके व्याख्यान बहुत ही रोचक हुए ।" (भाग १ पृ० ५९१) ४. उदासोनाश्रम और संस्कृत-विद्यालयका उपक्रम चैत्र कृष्ण ३ सं० २००६ को उदासीनाश्रम की स्थापनाके समय पं० फूलचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्री आये । आपके द्वारा धर्मकी जीवन में आवश्यकता एवं दान पर प्रवचन हुए, जिससे समाजके परिणाम ऋजु हुए, कुछ भाई ब्रह्मचर्य व्रत लेकर आश्रममें रहनेको आये । पं० जी सा० के बनारस लौट जानेके बाद पू० वर्णी जीने प्रवचनमें कहा 'पं० फूलचन्द्र जी बनारससे आये थे । वे आज बनारस वापस चले गये। आप स्वच्छ बात करते है, किन्तु समयकी गतिविधि देखकर व्यवहार करें, तब उनका प्रयास सफल हो सकता है।" (भा० २ पृष्ठ १७६) ५. क्षेत्रपालमें चातुर्मास ___सं० २००८ का चातुर्मास ललितपुर नगरस्थ क्षेत्र क्षेत्रपालमें हुआ। वर्णीजीके इस चातुर्माससे ललितपुर दि० जैन समाज धर्मसे आशातीत लाभान्वित हुआ। समाजके आग्रहवश पं० फूलचन्द्र जी पधारे । आपके निष्पह मर्मस्पर्शी अविकल प्रवचनोंसे समाजने अपूर्व लाभ लिया। आपकी निष्पहता, निर्भयता विचारकता एवं कर्मठ व्यक्तित्त्वपर वर्णीजीने अपने प्रवचनमें कहा "जनताके आग्रहवश बनारससे पं० फूलचन्द्र जी शास्त्री भी आ गये । आप बहुत ही स्वच्छ तथा विचारक विद्वान् हैं। किसी कामको उठाते हैं, तो उसके सम्पन्न करने करानेमें अपने आपको तन्मय कर देते है । किसी प्रकारका दुर्भाव इनमें देखने में नहीं आया ।" (भा० २ पृ० २८३) इन शब्दोंसे स्पष्ट झलकता है कि आप उत्तम निष्पह समाजसेवी हैं। आपने जिस कार्यको सम्हाला, उसे अच्छे रूपमें सम्पन्न किया। ६. विविध विद्वानोंका समागम श्रावण शुक्ल ४ स० २००८ को पं० श्री फूलचन्द्र जी सिद्धान्तशास्त्रीका प्रवचन हुआ। प्रवचनमें स्वतंत्रता एवं स्वावलम्बन तथा परतंत्रता एवं परावलम्बनपर विशद व्याख्या करते हुए स्त्री, पुत्रादिकका मोह छोड़नेके लिए सुमधुर भाषामें प्रेरणात्मक चित्रण किया। व्याख्यानसे प्रेरित हो वर्णीजीने उस व्याख्यानका सार दूसरे दिन संक्षिप्त रूपसे इस प्रकार कहा "श्रावण शुक्ल ४ सं० २००८ को पं० फूलचन्द्रजीका प्रवचन बहुत मनोहर हुआ । आपने कहा कि आत्माको संसार में रखने वाली यदि कोई वस्तु है तो पराधीनता है और संसार से पार करने वाली कोई वस्तु है तो स्वाधीनता है। हम स्वतन्त्र चैतन्य पुञ्ज आत्म द्रव्य है। हमारा आत्म द्रव्य अपने आपमें परिपूर्ण है । उसे परकी सहायताकी अपेक्षा नहीं है। फिर भी, यह जीव अपनी शक्तिको न समझ पद-पद पर पर-द्रव्यके सहायताकी अपेक्षा करता है और सोचता है कि इसके बिना हमारा काम नहीं चल सकता । यही इसकी पराधीनता है। जिस समय परकी सहायताकी अपेक्षा छूट जावेगी उस दिन मुक्ति होनेमें देर न लगेगी । अविवेकी मनुष्य स्त्री-पुत्रादिकको Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय खण्ड : ७७ अपना हितकारी समझकर उनमें राग करता है, परन्तु विवेकी मनुष्य समझता है कि पुत्रादिकका परिकर संसारचक्रमें फँसाने वाला है, इसलिए उसमें तटस्थ रहता है। मनुष्य पुत्रको बहुत प्रेमकी दृष्टिसे देखते हैं, किन्तु यथार्थ बात इसके विपरीत है। मनुष्य सबसे अधिक प्रेम स्व-स्त्रीसे रखता है । इसीसे उसने स्त्रीका नाम प्राणप्रिया रक्खा है। स्त्री भी इसकी आज्ञाकारिणी रहती है। वह प्रथम पतिको भोजन कराती है पश्चात् आप भोजन करती है। पहले पतिको शयन कराती है, पश्चात् आप शयन करती है । उसकी वैयावृत्य करनेमें किसी प्रकारका संकोच नहीं करती। यह सब है, परन्तु पुत्रके होनेपर यह बात नहीं रहती। यदि भोजनमें विलम्ब हो गया, तो पति कहता है-विलम्ब क्यों हुआ? स्त्री कहती है-पुत्रका काम करूं या आपका । पुत्र ज्यों-ज्यों वृद्धिको प्राप्त होता है, त्यों-त्यों पिता द्वारा ह्रासको प्राप्त होता है। समर्थ होने पर तो पुत्र समस्त सम्पदा का स्वामी बन जाता है । अब आप स्वयं निर्णय कीजिए कि पुत्रने उत्पन्न होते ही आपकी सर्वाधिक प्रेमपात्र स्त्रीके मनमें अन्तर कर दिया; पीछे आपकी समस्त सम्पत्तिपर स्वामित्व प्राप्त कर लिया, तो वह पुत्र कहलाया या शत्रु ? आपकी सम्पत्तिको कोई छीन ले तो उसे आप मित्र मानेंगे या शत्रु ? परन्तु मोहके नाशमें यथार्थ बातकी ओर दृष्टि नहीं जाती है। यह मोह दर्शन, ज्ञान तथा चारित्र इन तीनों गुणोंको विकृत कर देता है। इसलिये हमारा प्रयत्न ऐसा होना चाहिए कि जिससे सर्वप्रथम मोहसे पिण्ड छुट जावे।" (भाग २ पृ० २८८,२८९) इस दृष्टान्तके माध्यमसे पं० जोने स्त्री, पुत्र-प्रेमका जो वैराग्योत्पादक चित्रण किया, वह अद्वितीय है । इससे आपके जीवनके विरागताकी झांकी झलकती है । श्रावण शुक्ल १४ सं० २००८ को क्षेत्रपालमें रक्षाबन्धनका उत्सव हुआ। पं० श्री फूलचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्रीका रक्षाबन्धन-पर्वके विषयमें प्रवचन हुआ। पं० जीकी प्राञ्जल शैलीसे समाज गद्गद् हो गया। प्रवचनका सार कहते हुए वर्णीजीने कहा "सबका सार यही था कि अपराधीसे अपराधी व्यक्तिकी भी उपेक्षा न कर उसके उद्धारका प्रयत्न करना चाहिए। श्री अकम्पनाचार्यने बलि आदि मन्त्रियोंके द्वारा घोर कष्ट भोगकर भी उनकी आत्माका उद्धार किया है। जैनधर्मकी क्षमा वस्तुतः अपनी उपमा नहीं रखती।" (भा० २ पृ० २९०) ७. इंटर कालेजका उपक्रम ललितपुर बुन्देलखण्ड प्रान्तका केन्द्र स्थान है मूलसंघ कुन्द-कुन्द अन्वयका अनुयायी दि. जैन परवारोंका गढ़ है। यहाँ आत्म-ज्ञानकी शिक्षाका आयतन नहीं था । परन्तु पं० श्री फलचन्द्र जी सिद्धान्तशास्त्रीकी विशिष्ट प्रेरणासे समाजमें शिक्षाका केन्द्र खोलनेकी हृदयमें लहर दौड़ने लगी। पं० जी की प्रेरणासे समाजके गणमान्य लोगोंने बहत अनुदान लिखाया और कॉलेज खोलनेका संकल्प किया। इस संकल्पका समाचार वर्णीजीको मिला. वे अतिशय प्रसन्न हुये और कहा "मुझे यह जानकर हर्ष हुआ कि पं० फूलचन्द्रजीकी विशिष्ट प्रेरणासे नगरके लोगोंमें इंटर कालेज खोलनेकी चर्चा धीरे-धीरे जोर पकड़ती जाती है। वे इस विषय में बहुत प्रयत्न कर (भा० २ पृ० २९४) Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्रो अभिनन्दन-ग्रन्थ “पर्युषण पर्व आ गया। पं० फूलचन्द्रजी यहाँ थे ही अतः सूत्रजी पर उनका सारगर्भित व्याख्यान होता था।" (भा० २ पृ० २९४) ८. तीव्र वेदना कार्तिक कृष्णा ११ सं० २००८ को शारीरिक अवस्था विकृत होनेसे एक फोड़ा हो गया। फोडाका आपरेशन हुआ तब पं० फूलचन्द्रजी सा० उनके पासमें थे। वर्णीजीने कहा"आपरेशनके समय पं० फूलचन्द्रजी पास में थे।" (भा० २ पृ० ३०३) मार्गशीर्ष २९ को चौधरी जीके मन्दिरमें प्रातःकाल जनता सम्मेलन हुआ। पं० श्री फूलचन्द्रजीने अपने व्याख्यानमें कालेजको उत्तरोत्तर वृद्धिंगत करें, सौमनस्यसे काम करें, ताकि समाजकी युवा पीढ़ीका भविष्य उज्ज्वल हो । पं० जीके प्रवचनका सार कहते हुए वर्णीजीने अपने व्याख्यानमें कहा "पं. फुलचन्द्रजीका भी व्याख्यान हुआ और आपने इस बातका प्रयास किया कि सब सौमनस्यके साय कालेजका काम आगे बढ़ावें ।" ( भा० २ पृ० ३०३) ९. पपौरा और अहार क्षेत्र मार्गशीर्ष शुक्ल ५ सं० २००९ को मेलोत्सव पर अपार जनता आई हुई थी। पं० फूलचन्द्रजी सा० की उपस्थितिसे समाज अत्यन्त धर्म लाभान्वित हो रहा था। धर्म-प्रचारसे मेलाकी शोभा बढ़ रही थी। पं० फूलचन्द्र जी साहबकी उपस्थितिसे मेलाकी जो उन्नति हुई, उसको व्यक्त करते हुये पूज्य वर्णीजीने कहा"पं० फूलचन्द्रजीके पहुँच जानेसे मेलाको बहुगुणी उन्नति हुई।" ( भा० २ पृ० ३०५) पं० फलचन्द्रजीका वर्णीजीके पास आना और तत्त्व-चर्चाका तो उल्लेख मेरी जीवन गाथाके दोनों भागोंमें अनेक स्थलों पर देखनेको मिलता है। पं० फूलचन्द्रजीने परवती मूल संघ आम्नायी आचार्यों द्वारा रचित शास्त्रोंका मन्थन कर कर्म सिद्धान्त के एक-एक विषय पर जितनो कुशलता एवं बुद्धिमत्तापूर्वक वर्णन किया, उसका वर्णन करना सम्भव नहीं है । सिद्धान्तके क्षेत्रमें आपकी पैठ बहुत गहरी है। ___इस प्रकार असंदिग्ध रूपसे कहा जा सकता है कि पं० फूलचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्री विद्वान् आर्षाम्नायी है । सिद्धान्त प्रतिपादनमें वे बेजोड़ हैं । इसलिये सिद्धान्त ग्रन्थोंकी उनके द्वारा की गयी टीका जैन दर्शनकी अनुपम निधि है। Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पं० टोडरमलजीके चरण चिन्हों पर • पं० जगन्मोहनलाल शास्त्री, कटनी श्रीमान् पं० फलचन्द्र जी सिद्धान्तशास्त्री विशिष्ट क्षयोपशम के धनी विद्धान् है । सन् २१ में जब मैं और पं० कैलाशचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्री काशी स्याद्वाद विद्यालयका अपना-अपना कोर्स पूरा कर मोरैना जैन सिद्धान्त विद्यालयमें जैनधर्मके विशिष्ट अध्ययनको आए तब उसी समय श्रीमान् पं० फूलचन्द्रजी भी (संभवतः साढ़मल से) मोरैना आए थे । इनके एक साथी थे पं० किशोरीलालजी । यद्यपि उस समय ये हमारी कक्षामें न थे पर आज तो हमसे कई कक्षाएँ आगे पार कर गये हैं । पंडितजी इस प्रकार हमारे बाल-सखा है। हमारा उनका स्नेह भावगत ६२ वर्षोंसे है । हमारा मुरैनाका कोर्स पूरा होनेके समय सन् २३ में एक विशिष्ट घटना विद्यालयमें हुई । विद्यालयके कुछ कार्यकर्ता व पदाधिकारियोंकी जाति तथा प्रान्त पक्षपात परक नीतिने एक अग्रवाल छात्रको जिसका नाम जगदीश था (जो अब डा. जगदीशचन्द्रके नामसे जैनाजैन विद्वत् गोष्ठीमें नक्षत्रकी तरह चमक रहा है। उसे निरपराध हो सुपरि० द्वारा बेतकी कड़ी बेंटसे सिरपर जोरोंकी मार मारी गई । संभवतः इस शकमें कि ये हमारी पार्टीकी जासूसी कर दूसरी पार्टीको बताएगा, जबकि ऐसा नहीं था, क्योंकि वह नीचे जहाँ इनकी पार्टीकी मीटिंग थी उस विद्यालय भवनकी मात्र घड़ीमें टाइम देखने गया था। उसकी कुल उम्र १२-१३ सालकी होगी । सिर फट गया और रक्त धारासे कपड़े तर बतर हो गये । अस्पतालमें इलाज हुआ। तत्कालीन अधिष्ठाताके पास इस दुर्घटनाकी सूचना दी गई। रक्तरंजित वस्त्र भी पार्सलसे भेजे गये ताकि घटनाकी गंभीरता उनकी समझमें आ जाय । परीक्षाएं चल रही थीं। अधिष्ठाता जी आये पर कोई पूछताछ न कर न्यायका गला घोंटकर चले गये । वह छात्र तथा उसे बचानेवाला धन्नालाल जमादार जो गोलालारे था दोनोंको विद्यालयसे निकाल दिया गया । इस विरोधमें गोलापूर्व, अग्रवाल, परवार, गोलालारे-दक्षिण प्रान्तीय आदि २८ छात्रों और दो अध्यापकोंने विद्यालय त्याग कर दिया। जिनमें एक पं० फलचन्द्र भी थे। अन्याय सहन करना इनकी प्रकृतिमें प्रारम्भसे ही न था। जबलपुरमें इस निमित्तसे नवीन 'शिक्षा मन्दिर' की स्थापना पूज्य वर्णोजी द्वारा हुई और उन छात्रों व पाठकोंको स्थान दिया गया । उक्त घटनाको हम सब लोगोंने कभी अखबारों में नहीं लिखा, समाजमें नहीं रखा आज तक यह इतिहास जो मोरैना विद्यालयके पतनका कारण हुआ गुप्त ही रखा इस भयसे कि गुरुवर्य स्व. पंडित गोपालदासजी वरैया का नाम विद्यालयके साथ जुड़ा है । अतः किसी भी प्रकार विद्यालयको क्षति न पहुँचे । कार्यकर्त्ता तो बदलते रहेंगे । इस सद्भावनासे सब मौन रहे । चूँकि पं० फूलचन्द्र की जीवनीसे इस घटनाका सम्बन्ध है। इस समय इसके जानकार और उस अन्यायको मौनपूर्वक सहन करनेवाले अब हम ५-६ व्यक्ति ही हैं। इसलिए इसका उल्लेख सहसा आ ही गया। मोरैना विद्यालयके पतनका कारण उक्त जातीय पक्षपात बना । पं० फूलचन्द्रजी उस समय कर्मकाण्ड गोम्मटसार पढ़ते थे अतः, शिक्षा मन्दिर जबलपुर उनकी नियुक्ति वर्णीजी द्वारा छात्रत्वके साथ पाठकत्वके पदपर भी हुई। पं. वंशीधरजी न्यायालंकारजी इस अध्यायमें प्रपीड़ित थे और सर्विस त्यागकर छात्रोंके साथ चले आये थे के पास अध्ययन करते थे और जीवकाण्ड तकके छात्रोंको पढ़ाते थे। बादका पूरा इतिहास जो पं० फूलचन्द्रजी की जीवनीसे संबद्ध है लम्बा है यहाँ उसका उल्लेख लेखको बढ़ायेगा अतः उसे यहीं छोड़ रहा हूँ। छात्रावस्था पूर्णकर कार्य क्षेत्रमें उन्होंने २-३ वर्ष बाद ही पदार्पण किया। पं० कैलाशचन्द्रजीने अस्वस्थताके कारण जब काशी विद्यालय छोड़ा तब पं० फूलचन्द्रजीने उस पद को सम्हाला। कुछ समय बाद उससे विरत हुए और पं० कैलाशचन्द्रजी स्वस्थ होकर पुनः अपने पद पर आ गए । पं० फूलचन्द्रजी सदासे आगमके दृढ़ श्रद्धानी रहे । आगमोक्त वार्ता कहनेसे पीछे नहीं हटे। इस आगम सम्मत सिद्धान्त संरक्षण में उन्होंने अनेक बार-समाजके सुप्रसिद्ध विद्वानों तथा तत्कालीन जैनाचार्योसे भी टक्कर ली, आजीविका विहीन हये पर सिद्धान्त पक्ष नहीं छोड़ा। Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० : सिद्धान्ताचार्य पं० फलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ देशके असहयोग आन्दोलनमें भी श्री पं० जीने सक्रिय भाग लिया और जेलकी यात्रा भी की। सामाजिक सुधारके वे पक्षपाती रहे, पर आगमबाह्य सुधारकी बात उन्होंने स्वप्नमें भी नहीं की। इसीसे जब सुधारवादी नेताओंसे उनका मतभेद बना तो सामाजिक क्षेत्र छोड़कर साहित्यिक क्षेत्रको अपना प्रमुख कर्मक्षेत्र बनाया और आज भी उसीमें संलन्न है । पूज्य वर्णी गणेशप्रसाद जी तथा पं० देवकीनन्दनजीके वे अनन्यभक्त थे। आज भी ( उनके दिवंगत हो जाने पर भी उनको इन दोनों महानुभावों पर अमित श्रद्धा है । देवगढ़ गजरथके पक्ष प्रतिपक्ष में पं० देवकीनन्दनजीके प्रतिपक्षमें ये खड़े थे, गुरु शिष्यत्व संबन्धकी भी परवाह न कर वे अपने सिद्धान्तपर अटल रहे, पर गुरु भक्ति नहीं छोड़ी। वर्णी ग्रन्थमालाकी स्थापनाका श्रेय पं० फूलचन्द्रजीको ही है । सहयोगी बादमें अनेक हों पर मूल पुरस्कर्ता पं० फूलचन्द्रजी हैं उसके जन्म कालसे आज ४० वर्ष तक वे ही उसके निर्वाहक हैं। लाखों रुपयोंका व्यय, अनेक ग्रन्थोंका प्रकाशन केवल इस एक व्यक्तिकी श्रद्धा और शक्ति पर अवलम्बित रहा। लाखों रुपयोंका फंड आज भी वर्णी संस्थानमें है।। वर्णो ग्रन्थमालामें कई वर्षसे उसके मन्त्री थे। एक बार अध्यक्ष महोदयसे कुछ सैद्धान्तिक मतभेद हो गया। उनसे कहा गया कि आप उक्त चर्चाको बदलकर ग्रन्थ छापो । पंडितजीने कहा यह आगम सम्मत है । इसलिए मैं इसे नहीं बदल सकता । मैं इस ग्रन्थको ग्रन्थमाला से न छापूँगा, आपकी मर्यादाका ध्यान रखूगा अतः ग्रन्थ अन्यत्र से प्रकाशित कराया । ___ एक बार जब मैं सम्मेदशिखरजीकी यात्राके बाद बनारस आया तो पं० फूलचन्द्रजी कषायपाहुड़ ( जयधवला) के किन्ही भागोंका अनुवाद कर रहे थे। मैं दस दिन बनारस रहा । उन दस दिनोंमें पं० जीने एक लकीर भी नहीं लिखी पर अनेक ग्रन्थोंका आलोड़न ७-८ घंटे प्रतिदिन करते रहे। मैंने सहसा पूछा कि आपने कुछ इन दिनों लिखा नहीं ? तब आपकी आजीविका कैसे चलेगी? पं० जी का उत्तर उनकी आत्माका स्वच्छ प्रतिबिम्ब था __ उन्होंने यह उत्तर दिया कि अमुक पंक्ति अटक गई है उसका अर्थ अन्य आगम ग्रंथोंसे मेल नहीं खा रहा है । मैं गंभीरताके साथ यह देख रहा हूँ कि यहाँ क्या विवक्षा है और अन्यत्र किस विवक्षासे लिखा गया है । या इसका अर्थ सपझने में मेरी भूल है जबतक विषय स्पष्टरीत्या सुलझता नहीं, तबतक कलम कैसे चलाऊं। मैंने कहा कि ऐसी स्थितिमें आपका पारिवारिक व्यय तो नहीं चल सकेगा । उनका उत्तर था कि यह आप लोगोंके सोचनेका काम है मेरा नहीं। मैं तो ईमानदारीसे श्रम करके सिद्धान्तके रहस्योंको अन्य आचार्योंके मन्तव्योंके आधारपर खोलने पर ही अपनी कलम चलाऊँगा। ___ मैं चकि उस समय वर्णी ग्रन्थमालाका उपाध्यक्ष और भा० दि० जैन संघ मथुराका प्रधान मंत्री था। श्री पं० कैलाशचन्द्रकी साहित्य विभागके मंत्री थे। दोनोंने परस्पर विचार किया कि साहित्यका वह भी जैन आगम साहित्यके अनुवाद व सम्पादनका कार्य मिट्टी खोदनेकी मजदूरीका काम नहीं है कि जितनी खोदे उसी मापसे मजदुरी दी जाय । उपायान्तर न देखकर पारिश्रमिककी दर डेवढ़ी कर दी, भले इससे ग्रन्थ मँहगे पड़ेंग पर इन महान् ग्रन्थोंपर होने वाले श्रमको देखकर वह कुछ भी नहीं है। सूविख्यात पं० टोडरमल जी अपने युगके सुप्रतिष्ठित निष्णात विद्वान् थे। उन्होंने मोक्षमार्ग प्रकाशक तो लिखा पर अपने समयमें श्री गोम्मटसार जीवकांड, कर्मकाण्ड, लब्धिसार, क्षपणासार, त्रिलोकसार आदि प्राकृत भाषाके उत्कृष्ट कोटिके करणानुयोग ग्रन्थों की संस्कृत टीकाओंका हिन्दी अनुवाद भी किया था जो अपने में महान कार्य था। उनका क्षयोपशम इतना उत्कृष्ट था कि वे उन कठिनतर ग्रन्थोंका स्वबुद्धिसे सरलतम Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय खण्ड ८१ अनुवाद कर सके फिर भी विषय करणानुयोगका अत्यन्त जटिल है गणित विषयक अनेक उलझनें है पर पं० जी उन्हें सुलझा सके। पर पठन-पाठन न हो सका । । वर्तमान शती में स्वनामधन्य पं० गोपालदास जी वरैया हुए जिनके समय में करणानुयोग दर्शनमात्रकी वस्तु थी । माना प्रथमानुयोग और चरणानुयोगका स्वाध्याय करने वाले विरले विद्वान् थे । मूल मात्र तत्वार्थसूत्रका वाचन कर देने वाला ही बड़ा विद्वान् माना जाता था । उस युग में बिना किसीकी सहायताके गुरु गोपालदास जीने इन महान् ग्रंथोंका केवल स्वाध्याय ही नहीं किया, सैकड़ों शिष्योंको अध्यापन कराया । यह इतिहास प्रसिद्ध है कि आचार्य नेमिचंद्र चक्रवर्ती जिनके समयको १२०० वर्ष हो गया वे इन पट्खण्डागमका स्वाध्याय कर रहे थे। इतनेमें उनके शिष्य श्री चामुण्डराय जी उस समय आए और बन्दनाकर बैठ गए । आचार्य श्रीने ग्रन्थ वाचन बंद कर दिया तब श्री चामुण्डराय जीने पूछा तो आचार्य बोले, ये महान् ग्रन्थ हैं तुम इनके श्रवणमननके योग्य नहीं हो। श्री चामुण्डराय जीने पुनः अभ्यर्थना की कि फिर हम जैसे श्रावक इन ग्रंथोंके रहस्यको कैसे समझ पाएँगे तो उन्होंने उनके इस निमित्तको लेकर गोम्मटसारादि ग्रन्थोंकी रचना की । स्व० पं० टोडरमल जी भी इन ग्रन्थोंको देखना चाहते थे और उनकी हिन्दी टीका लिखनेका विचार रखते थे पर कालब्धि नहीं आई थी वे अपने अल्पसे जीवनकालमें न दर्शन कर पाए न स्वाध्याय ही । जो कार्य पं० टोडरमल जीने अपनी प्रज्ञाके बलपर करणानुयोगके ग्रन्थोंके अनुवादको लिखा उसी प्रकार यद्यपि पं० फूलचंद्रजी गुरु गोपालदास जीके शिष्य पं० वंशीधर जी तथा पं० देवकीनन्दन जी द्वारा गोम्मटसारादि ग्रन्थोंका अध्ययन कर चुके थे। तथापि हस्तलिखित प्रति जो प्राकृत भाषामें निबद्ध थी उसे शुद्ध करना फिर अनुवाद करना, फिर ग्रन्थान्तरोंसे उसका सामञ्जस्य मिलाना और इसने विशाल ग्रन्थको पूरा कर प्रकाशित करनेका कार्य इस युगका महान् कार्य सुमेरु यात्रा जैसा था। पं० फूलचन्द्र जी अपनी जन्मान्तर की प्रज्ञाके संस्कारसे तथा वर्तमान आगमकी अटूट श्रद्धाके कारण इसे लिख सके अतः हम इन्हें इस युग के पं० टोडरमल जी ही मानते हैं । इस दुबले पतले लम्बे छरहरे बदनके व्यक्तिमें कितना गाम्भीर्य है, कितनी धर्म बद्धा है, कितनी दृढ़ता है, कितना अध्यवसाय है, कितना धर्म सेवा व समाज सेवाकी लगन है वह उनके जीवनके कार्य कलापों तथा पवित्र जीवनसे दर्पण की तरह स्पष्ट है । मैं उनके प्रति सद्भावनायें प्रकट कर सकता हूँ । अतः इस अवसर में उनका सहस्रशः अभिनन्दन करता है । जैन भारतीके ओजस्वी सपूत • डॉ० ज्योतिप्रसाद जैन, लखनऊ सिलावन जैसे एक छोटेसे ग्राम में एक साधारण स्थितिके परिवारमें जन्में पण्डितजीका बाल्य एवं कुमारकाल प्रायः विपन्नावस्थामें ही व्यतीत हुआ। उन्हें वे सुख-सुविधाएँ एवं साधन प्राप्त नहीं हुए जो बाकी पीढ़ियोंके बहुभाग युवकों को प्राप्त हुए । समाजकी धार्मिक शिक्षा संस्थाओं में शास्त्री उपाधि पर्यन्त शिक्षा प्राप्त करके उन्होंने शीघ्र ही वैसी ही संस्थाओं में अल्पवेतन पर अध्यापन कार्य करके जीवन निर्वाह प्रारंभ किया । गार्हस्थ्यके दायित्व भी ऊपर आ गये । बड़ा संघर्षमय जीवन रहा । किन्तु यदि आर्थिक दृष्टि से अल्पसन्तोषी रहना एक विवशता अथवा संस्कारजन्य गुण था, तो ज्ञानार्जनकी पिपासा उत्कट थी । ज्ञानका ११ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ क्षयोपशम अच्छा था, मेधा तेजोमय थी, लगनपूर्वक किए गये सतत शास्त्राभ्यासने उन्हें बड़े-बड़े ग्रन्थोंके सम्पादन, अनुवाद, टीकाव्याख्यादिमें निष्णात बना दिया और शास्त्री पण्डितोंकी अग्रिम पंक्तिमें प्रतिष्ठित करा दिया। इस लेखन कार्यसे जो अतिरिक्त आय हई उसके बल पर गार्हस्थिक दायित्योंका निर्वाह सन्तोषजनक रूपसे हो पाया, पुत्र-पुत्रियोंका लालन-पालन किया, उन्हें उत्तम शिक्षा दिलाकर, विवाहादि करके अपने पैरोंपर खड़ा कर दिया। जो कुछ किया स्वपुरुषार्षसे किया। इस बुद्धिजीवी विद्वानकी निजी आवश्यकताएं अति सीमित तथा खान-पान, रहन-सहन बड़ा सादा एवं सरल रहा । वह खादीव्रती रहते आये है, और स्वातन्त्र्य संग्राममें सक्रिय भाग लेनेके कारण १९४१ में तीन मासका कारावास भी भोगे हुए हैं। अब तो जीवनकी सन्ध्यामें, लौकिक क्षेत्रमें प्रायः कृतकृत्य होकर एक उदासीन श्रावकके रूपमें इन्दौरमें रहकर अपनी वृद्धावस्थाको सार्थक कर रहे हैं । श्री पण्डितजीका सम्पूर्ण जीवन जैन शास्त्रोंके अध्ययन अध्यापन, धवल, जयधवल, महाधवल जैसे अगामिक ग्रन्थराजों तथा तत्त्वार्थसूत्र, तत्त्वार्थसिद्ध, आत्मानुशासन, लब्धिसार, पंचाध्यायी प्रभृति महत्त्वपूर्ण शास्त्रोंके सम्पादन, अनुवाद, टीका-व्याख्या आदि जैनतत्वमीमांसा एवं वर्ण-जाति और धर्म जैसी मौलिक कृतियोंके प्रणयन, ज्ञानपीठ पूजाञ्जलिका सम्पादन, खानिया-तत्त्वचर्चा जैसी विस्तृत शास्त्रीय चर्चा, पत्रोंमें शंका-समाधान, अनेक विविधविषयक शोध-खोजपूर्ण गंभीर लेखों-निबन्धों आदिके लेखनमें व्यतीत हुआ है । साथ ही वह श्रेष्ठ प्रवचनकार एवं ओजस्वी सुवक्ता हैं । आगम ग्रन्थोंका आलोचन करनेका उन्हें सुअवसर मिला, फलस्वरूप कर्म-सिद्धान्तका तो उनके समकक्ष तलस्पर्शी मर्मज्ञ वर्तमानमें स्यात् ही कोई अन्य हों। जब अध्यात्मवाद एवं निश्चय-धर्मकी ओर उनकी दृष्टिका कुछ विशेष झुकाव हुआ तो अनेक पण्डितोंने उनकी आलो तु वह कुछ विशेष दमदार प्रमाणित नहीं हुई। पण्डितजीके लेखनमें, और वक्तताओं एवं चर्चाओंमें भी, एक सुलझी हुई दृष्टि एवं स्वतन्त्र विचार प्रवृत्तिके दर्शन होते हैं। वह कई पुरातन ग्रन्थकारों और उनके ग्रन्थों या मन्तव्योंकी पर्यालोचना करते रहे हैं, किन्तु वह आलोचना प्रायः सदाग्रहविहीन और युक्तियुक्त अथवा तर्कपूर्ण रही । वह दिगम्बर आम्नायके मूलाधार आगमों एवं आगमिक साहित्यके मन्तव्योंका अतिक्रमण नहीं करती। इस प्रकार वर्तमान शताब्दीके जिन विद्वानोंने जैन भारतीके भण्डारको सर्वाधिक समृद्ध किया है तथा जैन धर्म, संस्कृति, सिद्धान्त एवं दर्शनको समझनेकी सम्यक दृष्टि प्रदान करनेमें योग दिया है, उनमें श्री पं० फलचन्द्रजी शास्त्रीका स्थान चिरस्मरणीय रहेगा। ___ हमारे तो पण्डितजीके साथ पचासों वर्ष पुराने सम्बन्ध हैं । वह हमारी अग्रज पीढ़ीके विद्वान् हैं । उनसे स्नेह एवं प्रेरणा निरन्तर मिलती रही है। जब भी लखनऊ पधारे या पाससे भी निकले अथवा कानपुर आदि भी आये, तो उन्होंने हमें दर्शन देनेकी अवश्य कृपा की । स्वभावके भी बडे विनोदी हैं दूसरों पर तो हँस ही सकते हैं, वह स्वयं ही अपने ऊपर हँस सकते हैं । अपनी दुर्बलताओंको भी ढोंगके आवरणमें ढंकनेका प्रयल नहीं करते, लजीली मुस्कानके साथ उन्मुक्त स्वीकार कर लेते हैं विद्वानोंमें यह बात प्रायः विरल ही होती है। हमारे तो वह सदैव आदरके भाजन रहे हैं। बड़े भाग्यसे ऐसे वयोवृद्ध, ज्ञानवृद्ध, अनुभववृद्ध अग्रजोंकी स्नेहपूर्ण कृपा प्राप्त होती है। __इस सुअवसर पर हम अपने उन गुरुतुल्य अग्रज बन्धु पंडितप्रवर फुलचन्द्रजी सिद्धान्ताचार्य के चिरायुष्य, सुस्वास्थ्य एवं सार्थक एवं वार्धक्यकी मंगलकामना करते हुए, उनके प्रति आदरपूर्ण स्नेहांजली अर्पित करते हैं। Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विरल विभूति • श्री यशपाल जैन, दिल्ली सिद्धान्ताचार्य पं० फुलचन्द्र शास्त्रीके प्रति मेरे मनमें बड़ी आत्मीयता और आदरभाव रहा है, इसलिए नहीं कि वह जैन- दर्शनके प्रकाण्ड पंडित हैं, इसलिए भी नहीं कि उन्होंने जैनधर्म और जैन वाङ्मयकी सराह - नीय सेवा की है, बल्कि इसलिए कि इतने विद्वान् होते हुए भी वह अत्यन्त सरल हैं, निरभिमानी और संवेदनशील हैं । प्रायः देखने में आता है कि विद्वान् अपनी विद्वत्ता और साबु अपनी साधुताके दंभसे आक्रान्त रहते हैं, किन्तु पण्डितजी ने अपनी विद्वत्ताको अपने मानव पर कभी हावी नहीं होने दिया । यही कारण है कि वह अहंकारसे युक्त रहकर सामान्य जनकी भाँति अपना जीवन जीते हैं । पंडितजी से सर्वप्रथम कब भेंट हुई, अब याद नहीं आया । धुंधला-सा स्मरण है कि किसी जैन समारोह में उनसे मिलना हुआ, लेकिन जब मैंने 'प्रेमी अभिनंदन ग्रन्थ' का कार्य अपने हाथमें लिया तो उनसे काफी पत्राचार हुआ । एक बार काशीमें उनके निवास स्थान पर भी गया और अनेक विषयोंपर उनसे चर्चा की । वे सब चर्चाएँ अब विस्मृत हो गई हैं, पर इतना ध्यान अब भी बना है कि उनकी विषय-प्रतिपादन शैलीमें न कहीं अस्पष्टता थी, न विचारोंमें जटिलता । उन्होंने जैन तत्त्व ज्ञानका शास्त्रीय ढंगपर अध्ययन किया है, उसकी सूक्ष्मताओं को समझा है, परन्तु अपने मौलिक चिन्तनसे उसे बहुत ही सबोध बना दिया है । पंडितजी का जन्म बुन्देलखण्ड के एक ग्राममें हुआ। वहींके एक विख्यात तीर्थ कुण्डेश्वरमें ७ वर्ष मुझे भी रहने का सौभाग्य प्राप्त हुआ । अपने अनुभवके आधारपर सारे देशकी कई बार परिक्रमा करनेके बाद, कह सकता हूँ कि वहाँकी भूमि और जन की आज भी अपनी विशेषता है । यद्यपि समयने और परिस्थितियोंने बहुतकुछ परिवर्तित कर दिया है, तथापि वहाँका लोकजीवन आज भी बड़ा निष्कपट है । पंडितजीको बचपनमें अपनी जन्म भूमिसे जो संस्कार प्राप्त हुए, उनकी जड़ें उत्तरोत्तर मजबूत होती गयीं। उनका कर्मक्षेत्र व्यापक बना, उनके ज्ञानका भण्डार विस्तृत हुआ, पर उनके हृदयकी निर्मलता यथापूर्व बनी रही । जैनधर्म, जैनदर्शन और जैन साहित्यकी पंडितजीने अथक सेवा की। उन्होंने 'षट्खण्डागम' (धवला ) के सम्पादन में जैनतत्त्ववेत्ता डॉ० हीरालालका हाथ बँटाया, 'तत्त्वार्थसूत्र' की हिन्दी में टीका तैयार की, 'सर्वार्थसिद्धि' की हिन्दी टीका लिखी । 'पंचाध्यायी' तथा 'लब्धिसार' का सम्पादन किया, और भी बहुत से ग्रन्थोंके सम्पादन तथा अनुवादमें योगदान दिया। कहनेकी आवश्यकता नहीं कि जैनधर्म और जैनदर्शनके ये ऐसे ग्रन्थ हैं, जिनका अनुशीलन करके भारतीय पाठकोंको अनुवाद और टीका द्वारा सुलभ करना आसान नहीं था; लेकिन पण्डितजीने तो अपने जीवनको उसी दुरूह कार्यके लिए समर्पित कर दिया था । वह दर्शनको गहराईयोंमें डुबकी लगाते गये और मूल्यवान से - मूल्यवान रत्न निकाल कर लाते रहे । सबसे बड़ी बात उन्होंने यह की कि उनको जो निधियाँ प्राप्त हुईं, उन्हें अपने तक ही सीमित नहीं उसे युक्तभावसे समाजको दिया । पंडितजी जितना देते गये, उतना ही रक्खा । अत्यन्त उदारतापूर्वक अपने अर्जनका विसर्जन किया । जो पाया, जो निःस्वार्थ भावसे देता है, उसका भण्डार कभी रिक्त नहीं होता। उनका भण्डार समृद्ध होता गया । तृतीय खण्ड : ८३ पण्डितजी लेखनी के जितने धनी हैं, उतने ही धनी वाणीके भी हैं । बड़े ओजस्वी वक्ता हैं। मुझे याद आता है कि अ० भा० जैन विद्वत् परिषद् के एक अधिवेशनमें पण्डितजी किसी दुरूह विषयपर बोले कि और श्रोता मुग्ध होकर बहुत देर तक उन्हें सुनते रहे थे । एक नहीं, प्रायः सभी अवसरों पर ऐसा ही होता है । अपने विषयके सरल प्रतिपादन के साथ-साथ श्रोताओं की बहुत-सी शंकाओंका भी वह सहज - समाधान कर देते हैं । Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थं पण्डितजीकी रुचि शिक्षामें भी कम नहीं है। उन्होंने कई शिक्षण-संस्थाओंमें जहाँ अध्यापन कार्य किया, वहाँ कई विद्यालयों, महाविद्यालयों और गुरुकुलोंकी नींवको भी पक्का कराया । ललितपुरका वर्णी कालेज और खुरईके दिगम्बर जैन गुरुकुलको उन्होंने विपुल धन दिलवाया, बल्कि वर्णी कालेज तो उन्होंकी सूझ-बूझका परिणाम है। जिनकी धर्म में गहरी अभिरुचि होती है, वे राजनीतिसे प्रायः दूर रहते हैं। लेकिन पण्डितजीने राजनीतिके प्रति लगाव न रखकर भी देश-प्रेमको अपने हृदयमें ऊँचा स्थान दिया है। जिस समय स्वाधीनतासंग्राम अपने अंतिम दौरमें पहुंच रहा था, पण्डितजीने व्यक्तिगत सत्याग्रहमें भाग लिया। उसके परिणामस्वरूप वह जेल गये और तीन महीने झाँसीके कारावासमें व्यतीत किये । पण्डितजी उस पीढ़ीकी विभूति हैं; जो अब धीरे-धीरे लुप्त होती जा रही है। राजनीतिने देशकी एकताको ही खंडित नहीं किया है, व्यक्तिकी समग्रताको भी टुकड़े-टुकड़े कर दिया है। आदमी आज अपनेसे ही पराया हो गया है । आत्मकल्याण पर स्वार्थका पर्दा पड़ गया है और व्यष्टिके हितने समाजके हितको गौण बना दिया है । किन्तु पण्डितजी हैं कि आज भी अपनी आस्थाको अखंड बनाये रखकर उस मार्ग पर चल रहे हैं, जो आत्म हितकारी होने के साथ-साथ समाजके लिए भी लाभदायक है। यद्यपि वय और अस्वस्थताने पंडितजी भौतिक शरीरको शिथिल कर दिया है और उनका इधर-उधर आना-जाना भी बहुत कम हो गया है, फिर भी उनकी प्रज्ञा पूर्णरूपसे सचेत है और समाजको समुन्नत करने के लिए वह यथासंभव अपना योगदान दे रहे हैं। ___मैं पंडितजीका हार्दिक अभिनन्दन करता हूँ। वह स्वस्थ रहें, दीर्घायु हों, ऐसी मेरी कामना और प्रभुसे प्रार्थना है। उदार व्यक्तित्वके धनी • डॉ० लालबहादुर शास्त्री, दिल्ली पं० फूलचन्द्र जी सिद्धान्ताचार्य जैन समाजके उन गिने चुने विद्वानोंमेंसे हैं जिनकी सेवाएँ जैन समाजके लिये आदर्शभूत रही हैं। प्राचीन धवला आदि ग्रन्थोंका जिनका समझना आजके विद्वानोंके लिये कठिन था हिन्दी रूपान्तर करके उन्हें जनसाधारणके बोधगम्य बना दिया यह आपकी बहुत बड़ी देन है। इसके अतिरिक्त आपने और भी अनेक ग्रन्थोंकी सरल और सुबोध टीकाएं लिखी हैं जिनका पठन-पाठन आज सर्वत्र जैन समाजमें प्रचलित है। आपके इस सेवा कार्यका समाजपर जो उपकार है उसके परिवर्तनमें समाजके द्वारा आपको अबतक उतना सम्मान नहीं मिला जितना मिलना चाहिये था। यह पहला ही अवसर है कि आदरणीय पंडित जीको समाजकी तरफसे अभिनन्दन ग्रन्थ समर्पित किया जा रहा है। पंडितजी गुरु गोपालदासजीकी तीसरी पीढ़ीके विद्वान् हैं जब कि मैं चौथी पीढ़ीसे सम्बन्धित हूँ। अपनी इस किशोर अवस्थासे ही मैं पंडितजीसे परिचित हूँ। लेकिन सन् १९४६ में जब मैं बनारस पहुँचा तब मेरा उनसे विशेष परिचय हुआ । उन दिनों दिगम्बर जैन संघ मथुराका साहित्य विभाग, वाराणसी में पं. कैलाशचन्द्रजीके निर्देशनमें चल रहा था जिसके पण्डितजी प्रमख स्तम्भ थे। वहाँ मैं मोक्षप्रकाशके हिन्दी (खड़ी बोली) में रूपान्तरित कर रहा था। मैंने देखा कि पंडितजी जैसे उच्चकोटिके विद्वान् है वैसे ही वे बड़े मिलनसार विनम्र स्वभावके व्यक्ति हैं। दुसरेके सुख दुःखमें सम्मिलित होना उनका सहज स्वभाव है। वे जब कभी आप बीती Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय खण्ड : ८५ घटनाएँ सुनाते थे हृदय भर आता था। समाजमें उन्होंने जहाँ भी काम किया सम्मानकी अपेक्षा उन्हें असम्मान ही अधिक मिला । फिर भी उन्होंने अपने स्वाभिमानकी सदा रक्षा ही की है । गुरु गोपालदासजीकी कृपा से जब विद्वानोंकी परम्पराका सृजन हुआ तब विद्वानोंको अपने आर्थिक कष्टके निवारणके लिये अध्ययन अध्यापनकी सामाजिक सेवाएँ स्वीकार करना पड़ीं। परिणाम यह हुआ कि विद्वानोंको समाज अपना सेवक समझने लगी धीरे-धीरे उनके साथ पीरवयर्थी भिश्ती खर जैसा व्यवहार होने लगा । आदरणीय पं० जीने भी कहीं कहीं इस स्थितिका सामना किया । इस कारण मेरे हृदय में भी स्वाभिमान के संस्कार उदित होते थे। अपने अनुगतके लिये समर्पित होकर रहना पंडितजीका सहज स्वभाव था । मेरे सीधे हाथका अंगूठा बुरी तरह पक गया था। मैंने उसका बहुत कुछ उपचार किया लेकिन ठीक होना तो दूर रहा वह और अधिक पकता ही गया । पं० जी मुझे दवाखाना ले गये । रोगियोंकी भीड़के कारण पंडितजी मेरे साथ २-३ घंटे बैठे रहे । अंगूठा का आपरेशन होगा सुनकर मैं रोने लगा, पंडितजी ने मुझे धैयं बंधाया । और आपरेशन कराके मुझे सावधानीके साथ घरपर ले आये इस घटना के कारण वे मुझसे दूर रहते हुये भी चाहे जब निकट आ जाते हैं । बनारस में क्षय रोगसे पीड़ित होने पर भी भा० दि० जैन संघने भी जीवनकी रक्षा करने के लिए तन-मन-धनकी बाजी लगा दी थी। पंडितजी भी इसमें अनुमोदक थे । सोनगड़की मान्यताओं को लेकर यद्यपि पंडितजीके साथ मेरे मतभेद हैं फिर भी आजतक मनमें भेद कभी नहीं हुआ। पंडितकी जब कभी देहली आते हैं तो मैं बड़े स्नेहसे मिलता हूँ। सैद्धान्तिक मान्यताएँ तो पिता पुत्र, पति पत्नी और गुरु शिष्य आदिमें भी भिन्न-भिन्न देखी जाती हैं पर समझदार व्यक्तियों में इससे मनमुटाव नहीं होता । इन्दौर पहुँचा वहाँ मालूम हुआ कि मेरे स्नेही मित्र पं० मिलने की उत्सुकता हुई। जब मैं आश्रमके निकट पहुंचा दालान में स्नान करते हुये दिखाई उनके शरीरकी यह दुर्दशा देखकर अभी कुछ माह पहले मैं प्रवासमें घूमता हुआ फूलचन्द्रजी इंदौर उदासीन आश्रम में हैं। मुझे उनसे तो सड़क परसे एक सज्जन जिनका शरीर कंकाल जैसा था आश्रम के बाहर दिये । जब मैं बिल्कुल निकट पहुँचा तो मालूम हुआ पं० फूलचन्द्रजी हैं मेरी आँखमें आँसू आ गये । उधर उन्होंने जब कुछ देरमें मुझे पहचाना तो कहने लगे कि आपका स्वास्थ्य भी बहुत गिर गया है - आप भी इस शरोरके कारण मुझे एकदम पहचानने में नहीं आये हमारी परस्पर काफी देर तक सामाजिक चर्चाएँ होती रहीं। विद्वानोंके संबंध में पं० जी ने कहा कि अब विद्वानोंकी सृष्टि कम हो रही है। अब वे ही विद्वान् रहेंगे जिनके अध्ययनका क्रम तो नहीं रहेंगा फिर भी वे सप्ताह दो सप्ताहकी अवधि के अन्दर शिक्षण शिविरों में पड़कर विद्वान् बन जायेंगे । और श्रोता लोग उन्हींकी बातको समझेंगे । गहन अध्ययन, मनन, चिंतनकी अब कोई भी आवश्यकता नहीं है । मैं सुनकर हँसने लगा । पं० फूलचन्द्रजी अपना शेष जीवन अब इंदौर आश्रममें ही बिताना चाहते हैं। वे अब अपनी सभी घरेलू झंझटोंसे मुक्त होकर एकाकी निस्पृह चित्तसे समय व्यतीत करना चाहते हैं। अब आप प्रायः सामाजिक कार्यों में हाथ नहीं बटाते फिर भी धवला आदिके अध्ययन अध्यापन आदिमें अवश्य सम्मिलित होते हैं ।, श्री पं० जी दीर्घजीवनकी मैं हार्दिक कामना करता हूँ। Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ वर्तमान दि० जैन पाण्डित्यकी प्रमुख कड़ी • प्रो० खुशालचन्द्र गोरावाला, वाराणसी युक्ति शास्त्राविरोधिवाक् जिनशासन या जैन - विद्याका उद्गम यदि तीर्थकरकी दिव्यध्वनि है तो उसकी कसौटी दृष्ट और इष्टका अविरोध अथवा युक्ति है । और युक्तिकी पुष्टि वह (आगम ) स्वयं है । इसीलिए 'आगम चक्खू साहू' मय जैनसंघमें शास्त्राभ्यासीके या स्वाध्यायी गृहस्थकी अपनी असाधारण स्थिति है । यद्यपि वीतराग केवली प्रभुकी दिव्यध्वनि ही होती है किन्तु उसे शब्द वाक्य रूपसे गणधर प्रभु ग्रंथते हैं इसलिए वह 'ग्रन्थ 'रूपको प्राप्त होती है । फिर इनके शिष्यों-प्रशिष्यों; पूज्य आचार्यों द्वारा गुरु-शिष्य परम्पराकी अनेक पीढ़ियों तक सुनकर कंठस्थ रखनेके कारण 'श्रुत' रूपमें चलती है । और जब स्मृति या क्षयोपशम हीनतर होने लगे तब दिव्यध्वनिके 'त्राण' (सुरक्षित रखने के लिए ) गुणधर आदि आचार्योंने उसे लिपिबद्ध कराके 'शास्त्र' रूपसे भावी पीढ़ियोंके लिए छोड़ दिया है । इस विधिसे हमारी चक्षुष्मत्ताका आधार शास्त्र या आगम है । क्योंकि अनेक युगपरिवर्तनोंमें हुए वीतराग प्रभुओंने समय- समयपर उसका प्ररूपण मात्र किया है । वस्तु स्वभाव या तत्त्वप्ररूपणा तो अनादिकाल से यही चली आ रही ( आगम ) है । और आगे भी चलेगी, क्योंकि वीतरागीका ज्ञान शाश्वत है । जैन पण्डित परम्परा 1 साधु और शास्त्राभ्यासी गृहस्थोंकी पूरकता और पूर्यता भी काफी प्राचीन है । 'श्रुत' के बाद 'शास्त्र' रूप देनेवाले उत्कट महाव्रती साधु ही थे । और ऐसा माना जाता था कि ये आचार्य, उपाध्याय और साधु परमेष्ठी ही धर्मोपदेशके अधिकारी हैं । क्योंकि ये ख्याति - लाभ - पूजासे परे होते थे । किन्तु काल दोषसे ऐसा भी समय आया जब शास्त्राभ्यासी गृहस्थोंको यह दायित्व सम्हालना पड़ा । ऐतिहासिक युगमें इस परम्पराको आदिपुरुष संभवतः पंडित आशाधरजी थे । इनके बाद बुधजन, दौलतराम द्यानतराय, भागचन्द्र आदिकी भाषामय रचनाओंके रूपमें यह धारा प्रवाहित रही । तथा जिनवाणी साधक पंडित टोडरमलजी आदिके स्वान्तः सुखाय प्रयत्नके फलस्वरूप गुरुओं के गुरु पूज्यश्री १०५ गणेश वर्णी महाराज गुरु गोपालदास से वर्तमान पण्डितमण्डलीको प्राप्त हुई हैं । पूज्य गणेश वर्णीजीने तो जिनवाणीका आद्य-ज्ञान पाते ही श्रुतकालीन आचार्योंके चरण चिह्नोंपर यथा-काल एवं काय चलनेका निश्चय करके गृह त्यागी रूपसे ही शासनसेवाका पुनीत कार्य अपनाया था । किन्तु गुरु गोपालदासजी भावी पीढ़ीकी सुखशीलताको आँक सके थे । अतः उन्होंने स्पष्ट कर दिया था कि धर्मशास्त्रोंकी आजीविका का साधन शास्त्रका पठन-पाठन, वाचनादि न होकर यथासम्भव असि - मसि कृष्णादि स्वतन्त्र वाणिज्य ही होने चाहिये । तभी जीविका और जीव-उद्धार कलाओंकी खिचड़ी नहीं होगी । गुरु गोपालदास परम्परा प्रातःस्मरणीय गुरुजी के प्रधान शिष्यों स्व० पं० देवकीनन्दन, खूबचन्द्र वंशीधर, मक्खनलालजी आदिने यद्यपि आजीविकोंकी दृष्टिसे गुरुजीका अनुगमन नहीं किया, किन्तु तत्कालीन समाज और परिस्थितियोंके कारण स्वल्प- सन्तुष्ट जीवन व्यतीत किया। गुरुजीके प्रशिष्यों में स्व० शार्दूलपण्डित राजेशकुमारजी और राजस्थान केशरी स्व० पं० चैनसुखदासजीने गुरुजीकी परम्पराको बढ़ानेका पर्याप्त प्रयास किया । और गांधीजी के आश्रमकी त्याग एवं कष्ट सहिष्णुकी परम्पराको अपनी संस्थाओंमें चलाकर समाजको क्रमशः अच्छे Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुतीय खण्ड : ८७ विद्वान और नेता दिये हैं। इनके हो साथी और सहाध्यायी सिद्धान्तशास्त्री पण्डित फूलचन्द्रजी है जिन्होंने छात्रावस्थामें ही अपनी करणानुयोग प्रौढ़ताका परिचय दिया था। और गरुओंको भी प्रभावित किया था । और उसके बलपर अनेक स्थान भी प्राप्त किये थे । तथा द्रव्यानुयोगकी भी साधना की थी। स्थानभ्रष्टापि शोभन्ते किन्तु संस्थाओंको बाह्याभ्यन्तर परिवर्तनशील परिस्थितियों और अपनी मान्यताओंके कारण करणानुयोगके मूर्धन्य पण्डित तथा प्राकृत वाङ्मय साधक शास्त्रीजीको संस्थाओंका मोह अनेक बार छोड़ना पड़ा, ये जिनवाणी साधनाके समस्त रूपों पठन-पाठन, वाचन-प्रवचन, सम्पादन-प्रकाशनमें अडिग रहे। और अपनी इस असाधारण उपलब्धिका अपने सामाजिक (सुधारक या निमित्त पोषक, आध्यात्मिक आदि) रूपोंमें भी उपयोग करते रहे हैं। तथा यह कम आश्चर्यकी बात नहीं है कि अपने स्वाध्याय, लेखन और चिन्तवनके बलपर ही सिद्धान्तशास्त्रीजी किसी भी छिपे कोनेमें बैठे-बैठे भी चमकते रहे हैं। यह भूतार्थ है कि शास्त्रीजीकी इन्हीं क्षमताओंके कारण गुरुओंके सम्मानवर्द्धक, साथियोंके प्रकाशक और अनुजोंके प्रतिष्ठापक भा० दि० जैनके संस्थापक महामंत्री स्व० पण्डित राजेन्द्रकुमारजीने संघसे श्री जयधवलाके प्रकाशनकी योजना चलायी थी। और धवला-प्रकाशक मण्डलीको कह दिया था फूलचन्द्रेष्वनादरः, कि त्वमेकः प्रभुः" । शास्त्रीजीके एकांकी प्रयाससे अब जयधवलाका प्रकाशन पूर्णा पर है। भा. दिगम्बर जैन संघको भी इसकी पूर्णा पर विशेष आयोजन करना चाहिये ऐसा मेरा विचार था । क्योंकि आज निश्चय या द्रव्यादृष्टिके मुखर वक्ता तथा व्यवहार या पर्यायदृष्टिके घोर आचरक यह नहीं जानते कि सन् १९४० से ही भा० दि० जैनसंघ तथा जैन सन्देशके द्वारा सीमित रूपमें समर्थित तथा प्रचारित कानजी स्वामीकी कथनी और अब पंथको संघके विचार-स्वातंत्र्यमय वातावरणमें शास्त्रीजीने ही प्रथम शास्त्रीय भूमिका दी थी। और हम अनुजोंके विनोद "पण्डितजी आप तो निमित्त प्रमखतासे उपादान क्षमताकी भूमिकामें पहुँच गये है। और हम जहाँके तहाँ 'मज्झे चिट्ठ' ही है" को सुनकर मस्करा देते थे । अपने ज्ञान और उसकी साधनामें ही पूरा जीवन लगा देने वाले शास्त्रीजीको सविनय प्रणाम । बहु आयामी विद्वत्ता .डॉ० दरबारीलाल कोठिया, न्यायाचार्य, वाराणसी विद्वद्वर पं० फूलचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्री वक्ता भी है. लेखक भी हैं, सम्पादक भी हैं, अध्यापक भी हैं और समाज सेवी भी। जब वे प्रवचन या भाषण करते हैं तो श्रोता प्रसन्न होते हैं और कुछ लेकर जाते हैं । अनेकान्त आदि पत्र-पत्रिकाओंमें प्रकाशित लेख कितने महत्त्वपूर्ण होते हैं, इसे उनके पाठक अच्छी तरह जानते हैं। भारतीय ज्ञानपीठ आदिसे प्रकाशित-सम्पादित उनके सर्वार्थसिद्धि, ज्ञानपीठ पूजांजलि, धवला, जयधवला आदि ग्रन्थोंको जिन्होंने पढ़ा है वे उनकी सम्पादन-कुशलतासे भी परिचित होंगे । पण्डितजीने संस्थाओंमें अधिक अध्यापन नहीं किया, किन्तु जो थोड़े-बहुत लोग उनके अध्यापनसे लाभान्वित हुए है वे उनकी अध्यापन शैलीको भी जानते हैं । वे प्रश्नों एवं शङ्काओंके समय पूर्ण गम्भीर रहते हैं और उनका समाधान करते है। सिद्धान्तविदोंमें तो वे प्रमुख हैं । पण्डितजीकी समाज-सेवा भी कम नहीं है । संस्था खड़ी करना, उसे आगे बढ़ाना और गजरथ-विरोध जैसे आन्दोलनोंमें आगे रहना जैसी सामाजिक प्रवृत्तियोंमें उन्होंने खूब भाग लिया है। Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ उनका सबसे बड़ा गण यह है कि वे व्यक्तिके कष्टमें उसके न केवठ मनोबलको बढ़ाते हैं, अपितु उसे सहानुभूतिके साथ संभव सहयोग करते हैं । वीर सेवा मन्दिर, दिल्लीको जब हमने छोड़ दिया और जैन पुस्तकभण्डार खोलकर स्वतंत्र व्यवसाय करने लगे तो पण्डितजीने हमें श्री गणेश वर्णी दि० जैन ग्रन्थमालासे बहुतसे ग्रन्थ उधार भिजा दिये तथा लिखा कि और जरूरत हो तो निःसंकोच मंगा लेना। उनकी साहित्यिक एवं सामाजिक सेवाओंको समाज कभी नहीं भूलेगा। हमारी इस मंगलमय अवसर पर उन्हें शत-शत मंगल-कामनाएँ हैं वे शतायुः हों और समाज एवं वाङ्मयकी सेवा में सतत संलग्न रहें । समाजके ज्योति पुंज • साहु श्रेयांसप्रसाद जैन, बम्बई ___ जैन साहित्यके विकासमें पं० फूलचन्द्रजी शास्त्रीका बहुमूल्य अवदान रहा है। जैन सिद्धान्तके उच्चकोटि के ग्रन्थोंका सम्पादन तथा अनुवाद आदि लेखन कार्य में वे समाज के ज्योति पुंज माने जायेंगे । आप जैसे विद्वानको पाकर समाज स्वयं गौरवान्वित हआ है। मूडबिद्रीकी तीर्थ यात्राके समय जिन महान् सिद्धान्त ग्रन्थोंको दर्शन करके हम धन्य हो लेते थे, किन्तु जिनकी विषय वस्तु से अपरिचित रहकर केवल श्रद्धा व्यक्त करके सन्तुष्ट हो जाते थे, उन ग्रन्थोंका अध्ययन पंडितजीने बहुत धीरजसे किया और महान् परिश्रमसे उनका सम्पादन किया। भारतीय ज्ञानपीठको यह गौरव प्राप्त है कि महाधवलके जो सात भाग प्रकाशित किये उनमेंसे ६ भाग पंडितजी द्वारा सम्पादित हैं। प्राचीन प्राकृत, संस्कृत, अर्धमागधी आदि भाषाओंपर पण्डितजीका असाधारण अधिकार है। सिद्धान्तकी व्याख्या वह जिस प्रभावकारी ढंगसे प्रस्तुत करते हैं, वह उसकी शैलीका चमत्कार है । मैं तो उन्हें अपने युगका ऐसा आचार्य मानता हूँ जो भगवान महावीरको आचार्य परम्पराकी एक कड़ी है, जिसने अपना जीवन ग्रन्थोंके अध्ययन अध्यापनमें बिताया । वह यदि निर्ग्रन्थ न भी हुआ तब भी उसका पद उपाध्यायकी भाँति आदरपूर्ण है। तत्त्व-चमि उनकी क्षमता अद्वितीय है। पण्डितजीने जैन-धर्मके उदार स्वरूपकी जो व्याख्या अपनी पुस्तक वर्ण जाति और धर्ममें की है, जो ज्ञानपीठसे ही प्रकाशित हुई है, उसने मुझे बहुत प्रभावित किया है। मेरे प्रिय अनुज स्वर्गीय साहू शान्तिप्रसादजीका सौभाग्य था कि वह पण्डितजीके सम्पर्क में मुझसे अधिक आये, किन्तु पण्डितजीके साथ मेरा जो भी परिचय हुआ है उसने उनके सरल और प्रेम प्रदान करनेवाले व्यक्तित्वकी छाप सदाके लिए मेरे मनपर अंकित कर दी है। ज्ञानपीठ पूजांजलिका सम्पादन करके पण्डितजीने संस्कृत-प्राकृतके उन पाठोंका मर्म उजागर किया है, जो हम दैनिक पूजा-वन्दना में पढ़ते हैं। साहित्यिकके अतिरिक्त समाजके कार्योंमें भी पं० फुलचन्द्रजी अग्रणी रहे हैं । आप जैन समाजकी अनेक संस्थाओंसे सक्रिय रूपमें सम्बद्ध है और उनकी गतिविधियोंमें अत्यन्त निष्ठा व श्रद्धाके साथ रुचि लेते हैं । और उनको अपना बराबर मार्गदर्शन देते हैं। मुझे अ.शा है, उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व से सम्बन्धित यह ग्रन्थ सभी के लिए प्रेरणादायक होगा। पं. फूलचन्द्रजी शास्त्री के यशस्वी जीवन के लिए अपनी शुभकामनाएँ भेजता हूँ और अभिनन्दन ग्रन्थके सफल प्रकाशनकी कामना करता हूँ। Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय खण्ड : ८९ मेरे श्रद्धा सुमन .श्रीमती चंचलाबेन शाह, बम्बई विद्वद्वर्य पण्डित फुलचंद सिद्धांतशास्त्रीजीसे मेरा परिचय बहुत पुराना है । नातेपुते, फलटण, बाहुबली, कारंजा और बम्बई पोदनपुर वगैर जगहमें उनका धर्मोपदेश सुन पायी हूँ। करणानुयोगके वे तो विशेष अभ्यासी होनेसे धवलादि ग्रन्थोंका संपादन कर सके है । तथा और अनुयोगका भी उनका अभ्यास होनेसे उनके प्रवचनमें चारों अनुयोगका समन्वयात्मक मर्म (वीतराग विज्ञानताका) सरलतासे श्रोताओंको आकलन कराते हैं। तत्त्वार्थसूत्रसे लेकर धवलादि ग्रन्थ तथा तत्वमीमांसा जैसा उनका स्वतन्त्र ग्रन्थ संपादन मौलिकता रखता है। वे स्त्री शिक्षाके प्रेमी है तथा स्वातंत्र्य सैनिक भी हैं। उनको स्वस्थ शतायुष प्राप्त हो और जैनधर्म प्रभावना हो ऐसी श्री जिनेश्वर चरणमें मेरी प्रार्थना है । प्रेरक व्यक्तित्व .श्रीमती सरयु दफ्तरी, बम्बई प० पू० १०८ एलाचार्य मुनिधी विद्यानंदजी महाराजके बोरिवलीके चातुर्मास कालमें पूज्य पण्डितजी के मार्गदर्शनमें स्वाध्याय द्वारा आत्मकल्याणके नजदीक जानेका जो सुवर्ण अवसर मिला, उस संदर्भमें मुझे बहुत ही आनंद हो रहा है । यह सौभाग्य बहुत ही कम लोगोंको मिलता है और यह मेरे पल्लेमें पड़ा यह बात मेरे जीवनमें बड़ी महत्ता रखती है। ___इस उम्रमें भी आपने जिस उत्साहसे शास्त्रका निरूपण किया और आपकी दिनचर्या प्रफुल्लित एवं कार्यान्वित रखी वह देखकर मैं सचमुच अचरजमें पड़ गई। परम पूज्य एलाचार्य महाराजजीने भी इस संदर्भ में समाधान अभिव्यक्त किया है। आपके इस मंगल कार्य के प्रति आभार प्रदर्शित करना शायद औपचारिकता होगी । फिर भी मेरे इस भावको आप तक पहुँचाना मेरा आनंदनिधान है। अहिसा परमो धर्मः। मेरे दृष्टिदाता विद्यागुरु •श्रीमती गजाबेन, बाहुबली आदरणीय पण्डित फूलचंदजी मेरे विद्यागुरु रहे। उनके द्वारा हमारा लब्धिसारका अध्ययन हुआ। जैनतत्त्वज्ञानमें जो प्रवेश पाया और दृष्टि मिली वह तो वास्तव में उनका महान् उपकार है। करणानुयोग, द्रव्यानुयोग तथा चरणानुयोगमें सर्वत्र उनकी गति है । धवला, महाबंध आदि सिद्धान्त ग्रंथोंके ज्ञाताओंमें उनका स्थान वर्तमानमें सर्वतोपरि है। खासकर अध्यात्म और करणानुयोग सिद्धान्त इनका मिलान करके वे कैसे परस्पर पूरक है यह दिखलाना उनकी विद्वत्ताकी खास विशेषता है । जीवन भर अव्यभिचारी निष्ठासे जैनागम और जैनतत्त्वज्ञानका गंभीर तलस्पर्शी अध्ययन किया उस मंथनमेंसे जैनतत्त्वमीमांसाका उदय हआ है । उन्होंने जीवन भर दिगंबर जैन साहित्यकी सेवा की वह समाज दीर्घकाल तक स्मरण रखेगी । एक जैनतत्त्वमीमांसा ग्रन्थ उनके अध्ययन तथा मननकी गहराई तथा विद्वत्ताका परिचायक है। उन्हें जैन साहित्यकी सेवाके लिए दी निरामय आयु प्राप्त हो यही मंगल भावना । १२ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९० : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ जैन-सिद्धान्तके प्रखर विद्वान् • भैया राजकुमार सिंह, इन्दौर श्री सिद्धान्ताचार्य पंडित फूलचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्रीसे मेरा सम्पर्क कई वर्षोंसे है। दश-लक्षण पर्व और अन्य धार्मिक एवं सामाजिक समारोहोंमें पंडितजी अनेक बार आमंत्रित होकर इन्दौर पधारे और यहाँकी जनताको अपने प्रभावक एवं कल्याणकारी वक्तृत्वसे अपूर्व लाभ पहुँचाया । पंडितजी सरलता और सादगीके आदर्श है। संयत और नपी-तुली भाषामें जैन सिद्धान्त और आध्यात्मका सार श्रोताओंको समझाने की आपकी विशेषता है। आप जैन सिद्धान्तके प्रखर विद्वान् और विद्वानोंमें अग्रगण्य हैं। प्राचीन षट्खंडागम सूत्रकी धवला, जयधवला और महाधवल टीकाओंका हिन्दी अनुवाद एवं विद्वत्ता पूर्ण सम्पादनके कारण आपकी समाजमें विशेष ख्याति है । जैन विद्या, संस्कृति और साहित्यके लिये पंडितजीकी अमूल्य सेवायें हैं । उनके मधुर व्यवहार, स्पष्टवादिता, सहनशीलता, स्वाभिमानता, उदारता और प्रामाणिकतासे समाज गौरवान्वित है । ग्रन्थ सम्पादन एवं लेखन कार्यमें निरन्तर रहते हुए गृहस्थ होकर भी आप एक योगीका सा जीवन व्यतीत कर रहे हैं । समाजको आपने बहुत कुछ दिया है । आपके विचारोंमें प्राचीनता और आधुनिकताका स्वस्थ सामंजस्य है। श्री पं० फूलचन्द्रजी सौभाग्यसे हमारे समीप ही दि० जैन उदासीनाश्रममें आकर शान्तिमय जीवन व्यतीत करते हुए अपना ग्रन्थ सम्पादन कार्य कर रहे हैं और प्रतिदिन अपने अध्यात्म प्रवचन द्वारा श्रोताओंको लाभ पहुँचा रहे हैं। पंडितजी प्रारंभसे ही राष्ट्रीय भावनाओंसे ओतप्रोत होनेसे शुद्ध खादीके वस्त्र पहनते आये हैं। आज आपके महपाठी श्री पं० जगन्मोहनलालजी, पं० कैलाशचन्द्रजी सिद्धान्ताचार्य इस प्रकार यह रत्नत्रयी हमारे समाजकी अनुपम विभूति है । निःसंदेह आपकी सेवाओंसे हमारा समाज उपकृत है। समाज और विद्वानोंके समक्ष अपने साधनापूर्ण जीवनसे आपने अपूर्व आदर्श प्रस्तुत किया है । पंडितजीके प्रति इस अभिनन्दनके महान् आयोजन सुअवसर पर मैं अपनी अभिनन्दनांजलि अर्पित करते हुए उनकी दीर्घायुकी कामना करता हूँ। प्राचीन भारतीय परम्पराके मनीषी •श्री महाराजा बहादुर सिंह, इन्दौर आदरणीय सिद्धान्ताचार्य पंडित फूलचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्री, वाराणसी हमारे समाजके मूर्धन्य विद्वान् हैं। स्वास्थ्य लाभ हेतु कुछ समय तक इन्दौरमें रहनेसे आपके सान्निध्य एवं अनेक बार धार्मिक प्रवचनोंका लाभ मुझे मिलता रहा है। मैं आपके सौम्य स्वभाव, सादगी पूर्ण जीवन और निरभिमानी व्यक्तित्वसे प्रभावित हूँ । पंडितजी प्राचीन भारतीय परम्पराके मनीषी हैं, जिन्होंने अपने शोधपूर्ण लेखों एवं ग्रन्थों द्वारा भारतीय साहित्यको समृद्ध किया है । जैन शास्त्रों पर उनका गहन चिन्तन है। अनेक विषयोंपर शास्त्रीय प्रमाणोंके आधारपर उन्होंने पाठकोंको दिशा दान दिया है। Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय खण्ड : ९१ जब कभी किसी भी धार्मिक कार्यक्रममें उन्हें स्मरण किया जाता है, सदैव अपना सहयोग प्रदान करनेमें तत्पर रहते हैं। समाजको उनके प्रवचनों और धार्मिक एवं सामाजिक समस्याओंके समाधानका लाभ अभी भी प्राप्त हो रहा है। मुझे यह जानकर अत्यन्त आश्चर्य और हर्ष है कि पंडितजी इन्दौरके स्वरूपचन्द हुकमचन्द दि० जैन पारमार्थिक संस्थाओंके अन्तर्गत छात्रावास एवं संस्कृत महाविद्यालयके (लगभग ६६ वर्ष पूर्व) विद्यार्थी भी रहे हैं। वे किसी संस्थासे बँधे न रहकर बहुत समयसे स्वतन्त्र ग्रन्थ संपादन कार्य करते आ रहे हैं। पूज्य गणेशप्रसादजी वर्णोकी स्मतिमें उन्होंने वर्णी शोध संस्थानके संचालनका दायित्व ले रखा है, जिसे आत्म निर्भर करनेका उनका संकल्प है । मेरी मंगल कामना है कि पंडितजी स्वस्थ रहते हए चिरायु हों। एवं सभी मानव मात्रको उनसे ज्ञान वृद्धि मिले। श्रमण-संस्कृतिके उन्नायक •श्री बाबूलाल पाटौदी, इन्दौर श्रद्धेय पं० फूलचन्द्रजी शास्त्री वर्तमान समयके जैनदर्शनके मूर्धन्य विद्वान् है । उनकी सरलता, सौम्यता, सादगी आत्मीयभाव सिद्धान्तके प्रति दृढ़ता आदि गुण बरबस मनुष्यको अपनी ओर खींच लेते हैं । श्रद्धेय पंडितजीके श्रमण संस्कृतिके उन्नयन निमित्त जो सतत् प्रयत्न एवं पुरुषार्थ किया है, उसका हमारे वणिक समाज पर चाहे कोई प्रभाव न हुआ हो पर मैं यह कह सकता हूँ कि इतना महान् कार्य यदि विदेशमें कोई विद्वान करता तो निश्चय ही वहाँकी जनता एवं शासन उसे राष्ट्रीय सम्मानसे अवश्य विभूषित करता । जैनधर्मावलम्बियोंको गर्व होना चाहिये कि पंडित फूलचन्द्रजीके अहनिश प्रयत्नोंका ही यह परिणाम है कि धवला-जयधवला, महाधवल जैसे महान् आर्ष ग्रन्थको उन्होंने आजकी भाषामें जनताके समक्ष रख दिया। पंडितजीने अपने लम्बे जीवनमें अनेक तत्त्व ग्रन्थोंपर टीका एवं भाषानुवाद लिखकर जो वर्तमान पीढ़ी पर उपकार किया है वह स्वर्णाक्षरों में अंकित रहेगा। अपने सरल जीवनके साथ जटिल तत्वों पर भी अपने विचार निर्भीकता पूर्वक प्रकट करनेको अपूर्व क्षमता पंडितजीमें है। उन्हें अपने जीवनमें अनेकों संघर्षोंका सामना करना पड़ा । वे सदैव राष्ट्रवादी रहे उनपर भी राष्ट्रपिता बापूका असर हुआ, आजादीके आन्दोलनमें सक्रिय रूपसे भाग लिया, खादीको अपनाया पर अपने धर्म एवं सिद्धान्त पर दृढ़ रहे। युग प्रवर्तक बाबा गणेश प्रसादजी वर्णीको उन्होंने विधि केन्द्रोंकी स्थापना एवं उनके संचालनमें पूर्ण सहयोग प्रदान करते हुए अपने आपको समर्पित कर दिया। वैचारिक स्वतन्त्रता एवं आगमके प्रति अटूट आस्थाका एक ही उदाहरण पर्याप्त है। सोनगढ़में आदरणीय कानजी स्वामीने जब तक जैन सिद्धान्त एवं तत्त्वके प्रति अगाध श्रद्धासे कार्य किया, बावजूद नाना विरोधोंके वे उनके साथ रहें, पर जब उन्होंने देखा कि शनैः-शनैः व्यक्ति पूजाका पाखंड वहाँ प्रवेश कर रहा है तो तत्काल आम जनताके बीच साहस एवं धैर्यके साथ अपनी असहमति प्रकट की तथा उस स्थानको सदैवके लिये त्याग कर दिया । सौभाग्यसे श्रीमंत सेठ राजकूमारसिंहजी कासलीवाल के आग्रह और निवेदनको स्वीकार कर आजकल पण्डितजी उदासीन आश्रम तुकोगंज इंदौरमें विराज रहे हैं। यहाँ भी उनका सतत अध्ययन, स्वाध्याय लेखन Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ चल रहा है। मैंने पूज्य एलाचार्य महाराजके सानिध्यमें बोरीवली त्रिमूर्ति स्थलपर भी पण्डितजीको देखा है। नियमित स्वाध्याय एवं शेष समयमें लेखन उनका कर्तव्य कर्म था। वे एक ऐसे कर्मयोगी पण्डित हैं जो धर्मको जीनेमें आस्था रखते हैं । संक्षेपमें उनका समग्र जीवन धर्ममय है। अखिल भारतीय संस्थाओं तथा समग्र समाजसे मैं कहना चाहँगा कि पण्डितजीका सही सम्मान तभी होगा, जब हम यह संकल्प करें कि वर्तमान विद्वानोंकी पीढ़ीके पश्चात भी हम इस विद्वत् ज्योतिको बुझने नहीं देंगे, तथा होनहार विद्वानोंके पढ़ाने उनके गृहस्थाश्रमको चलानेके लिए विश्वविद्यालय स्तरपर आर्थिक योगदान देंगे, तथा भविष्यके लिए भी उनके जीवन निर्वाहकी सुरक्षाका प्रबन्ध करेंगे । स्मरणीय है कि समाजके इन विद्वानोंने ही आर्य धर्म एवं श्रमण संस्कृतिको अपने उच्चतम शिखरपर पहुँचानेका भगीरथ प्रयत्न किया है । यह देन स्व. पंडित गोपालदासजी बरैया तथा स्व० बाबा वर्णीजी जैसी महान् विभतियोंकी है । पंडित फूलचंदजी द्वारा प्रवर्तित कार्योंके प्रति हमें श्रद्धा सुमन अर्पित करना है तथा संस्थाओंको विवादसे ऊपर उठकर विद्वान तैयार करने में लगाना है जिससे हमारी संस्कृति एवं जिनवाणीकी रक्षा सम्भव हो सकें। ___अन्तमें मैं पूज्य पंडितजीके प्रति अपना अपरिसीम आदर भाव प्रकट करते हुए उन्हें तथा उनके कर्तृत्वको प्रणाम करता हूँ। समाजके गौरव • श्रीमंत सेठ भगवानदास जैन, सागर आदरणीय पं० फूलचंद्र जी जैन सिद्धांतशास्त्री बनारस ( उ. प्र. ) से हमारा सम्बन्ध गत् ५० वर्षोंसे है और निरन्तर ही एक दूसरे के प्रति लगाव-झुकायका भाव, धर्म-प्रेम और समाज हितकी भावनाके कार्योंकी प्रेरणा भी निरंतर बनी हुई है। ___पंडितजी सफल लेखक, रचनाकार, टीकाकार, साहित्य मनीषी, तत्त्व आराधक एवं चितक और जिनेन्द्रोपासक हैं । आपने धार्मिक ग्रन्थोंका अध्ययन-मनन-चिंतन व पठन-पाठन कर आध्यात्मिक जगतमें अविरल ख्याति अर्जित की है-अतः ऐसे मूर्धन्य विद्वान्का अभिनंदन किया जाना भी वास्तविकता से परे नहीं है। जैन सिद्धांतके महान् ग्रन्थ श्री धवला, जयधवला, महाधवला जैसे ग्रन्थोंकी टीकायें अपनी विलक्षण प्रतिभा एवं सैद्धांतिक शैली से जो निरूपण व विश्लेषण कर समाजको समर्पित की हैं-वास्तवमें उनमें आपने "गागरमें सागर" को भर दिया है। इन टीकाओं के अलावा भी आपने लेखनी के द्वारा जिनवाणीके भंडारको भरने में कोई कमी नहीं रखी है और अभी भी सरस्वतीकी सेवा करने का व्रत लिये हये हैं। पंडितजी की जन्म एवं कर्म भुमि बुंदेलखंड होने से यहाँ की समाजके श्रेष्ठिवर्ग जैन समाज एवं तीर्थक्षेत्रोंके प्रति भी उनका असीम अनुराग एवं श्रद्धाका भाव बना हुआ है। बुंदेलखंड में १६वीं शताब्दीके महान जैन आध्यात्मिक संत जिन तारण स्वामीके तीर्थस्थलों व साहित्यके प्रति उनकी अपार श्रद्धा बनी हुई है। प्रसन्नताकी बात है कि हमारे अनुग्रहके फलस्वरूप वह श्रीमद् जिन तारण स्वामीके जीवन दर्शनपर एक शोध पूर्ण प्रबंध लिख रहे हैं। 'बृहद तीन बत्तीसी संग्रह'-की आधुनिक टीका तथा 'श्री तारण तरण जिनवाणी संग्रह'-का संपादनका कार्य भी आध्यात्मिक जगत में एक उपलब्धि है। Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय खण्ड : ९३ श्री जिनेन्द्र देवसे हम आपके आरोग्यराय, दीर्घ एवं यशस्वी जीवनकी मंगलकामना करते हैं । आप संपूर्ण जैन समाजकी अमूल्य निधि हैं । समाजको आपके प्रति गर्व है । आशा है आप इसी तरह समाजका नेतृत्व करते रहेंगे । समाजकी विभूति • श्री सेठ डालचन्द जैन, सागर वास्तव में यदि पूछा जाय तो वही व्यक्ति धन्य हैं और महानता का द्योतक हैं, जोकि अपने जीवनके कर्त्तव्य मार्गमें अपनी समाज, राष्ट्र एवं धर्मके प्रति पूर्ण आस्थावान्, लगनशीलता और कर्मठताका प्रतीक बन कर अपने दायित्वों का निष्ठापूर्वक वहन करता हुआ ऐसे अनुकरणीय कार्योंकी अमिट छाप समाजमें प्रस्तुत कर देता है, जो जीवन पर्यन्त ही नहीं, बल्कि इतिहास भी सदैव उसके कार्योंके प्रति श्रद्धावनत रहा करता है । ऐसे ही मानव पुंजोंकी श्रृंखलामें आदरणीय साहित्य-मनीषी, तत्त्व रसिक, ग्रंथ रचना एवं टीकाकार सिद्धांताचार्य पंडित फूलचंद्रजी शास्त्रीका आदरणीय स्थान है । 'व्यक्ति जन्मसे नहीं कर्मसे महान् बनता है ।' इसके साथ ही यह यह बात भी शत प्रतिशत सत्य है, कि 'व्यक्तिके गुणोंकी सर्वत्र पूजा हुआ करती है ।' गुणोंके कारण व्यक्ति समाज और संप्रदायवादके दायरेसे ऊपर उठकर सर्वप्रिय और लोकप्रिय बन जाता है । श्री जिनेन्द्रदेवसे प्रार्थना है कि वह सरस्वतीके इन वरद पुत्रको दीर्घायु एवं स्वस्थ्य जीवन प्रदान करें; ताकि यह समाजका नेतृत्व करते रहें । जैन सिद्धान्तके मर्मज्ञ • पं० भँवरलाल न्यायतीर्थ, जयपुर सिद्धान्ताचार्य पंडित फूलचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्री प्राचीन पीढ़ीके उन विद्वानोंमेंसे हैं जिसने अपना सारा जीवन माँ सरस्वती की उपासना में ही समर्पित किया हुआ है और आज भी इस वृद्धावस्था में उसी धुन में संलग्न हैं । साहित्य सेवाका मानो व्रत ही ले रखा है । आज भी इस वृद्धावस्थामें साहित्य सेवामें ही आप लगे हुए हैं। जब कभी आप मुझे पत्र लिखते हैं तो किसी ग्रन्थके बारेमें ही होता है। से अमुक ग्रन्थ भिजवाइये - सम्पादन टीकाके लिए अपेक्षित है । जितना काम हो है । आपसे करीब चालीस वर्षोंसे पत्र व्यवहार होता रहता है । और जब कभी जयपुर अमुक ग्रन्थ भण्डार जाय जीवनकी उपयोगिता किसी धार्मिक उत्सव या आपका सादा जीवन, सादा वेशभूषा -- खादी संगोष्ठी आदिमें मिलना होता है तो बड़े प्रेम पूर्वक मिलते हैं । का कोट खादी की टोपी पहने देखकर कोई अनुमान नहीं लगा सकता कि एक विशिष्ट विद्वान् हमारे सामने हैं। आपको ज्ञानका कोई अभिमान नहीं । कहीं भी सैद्धान्तिक चर्चा हो, आप पहुँचते रहते हैं । इतनी लगन है जैन सिद्धान्तके प्रति । आप राष्ट्रीय विचारधाराके स्वतन्त्रता सेनानी हैं और कृष्ण मन्दिरकी यात्रा भी कर चुके हैं । अच्छे पत्रकार-लेखक हैं और समाज सुधारके हामी हैं । पुरानो पीढ़ी के शास्त्रकी गद्दी पर बैठकर प्रवचन करने बाले विद्वानोंमें आज इने गिने विद्वान् ही उपलब्ध हैं । पण्डितजी उनमें से ही हैं । पूज्य पंडितजी स्वस्थ दीर्घायु हों, साहित्य सेवामें संलग्न रहकर जैन सिद्धान्तकी प्रचार-प्रसार करते रहें - यही कामना है । आपका अभिनन्दन ग्रंथ नई पीढ़ीको अवश्य प्रेरणा प्रदान करेगा । Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ जिनके प्रति मेरे मनमें सबसे अधिक आदरके भाव हैं ● पं० बलभद्र जैन, आगरा दुबले पतले, गोमुखी और लम्बे, खद्दरके परिधानसे विभूषित, जिनके माथे की लकीरोंमें अगाध विद्वत्ता की लिपि उजागर है— उनका नाम है पंडित फूलचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्री । उन्होंने धवल, जयधवल, महाघवल, सर्वार्थसिद्धि जैसे सिद्धांत ग्रन्थोंकी टीका की । वे करणानुयोग और जैन कर्मसिद्धान्तके अधिकारी विद्वान् हैं । बात उन दिनोंकी है, जब मैं जैन सन्देश साप्ताहिकका सम्पादक था । जैन समाजमें 'संजद पदकी चर्चा गर्म थी । डॉ० हीरालालजीका एक लेख आया, जिसमें प्रबल युक्तियों द्वारा पूज्य आचार्य शान्तिसागरजी महाराजके अभिमतका समर्थन किया गया था । मैंने उसे इस टिप्पणीके साथ प्रकाशित किया कि यदि संजद पद समर्थक किसी विद्वान्ने इसका उत्तर भेजा, तो उसे इन स्तम्भों में सहर्ष स्थान दिया जायगा । तभी मुझे पंडित फूलचन्द्रजीका उत्तर मिला, जो डाक्टर साहबकी युक्तियोंका अनेक शास्त्रीय प्रमाणों और तर्कों द्वारा निराकरण करने वाला था । उसे पढ़कर मुझे लगा कि सिद्धान्तपर पण्डितजीकी पकड़ कितनी गहरी और दृष्टि कितनी पैनी है, उतनी शायद दूसरे विद्वानोंकी नहीं है । पत्रमें वह लेख छपा और दोनों विद्वानों की यह लेखमाला महीनों तक चली। इस बीच इस सम्बन्धमें मैंने अन्य कई विद्वानोंके भी लेख प्रकाशित किये । किन्तु विज्ञ पाठकों का अभिमत यही रहा कि पंडितजीके लेखोंमें परम्परा के अनुकूल जो युक्ति प्रमाण एवं गाम्भीर्य और प्रौढ़ता दर्शन होते हैं, वे अन्य लेखों में परिलक्षित नहीं होते । मैं उनकी प्रौढ़ एवं गम्भीर विद्वत्ताका तभी से कायल हूँ और मेरे मनमें उनके प्रति गहरे आदरके भाव है । दूसरा अवसर खानियाकी चर्चाके समय आया । उस चर्चा के दो परिणाम समाजके सामने आये । एक तो कानजी स्वामीकी सैद्धान्तिक मान्यताओंकी कमजोरी एवं शास्त्रीय समर्थन - ये दोनों पक्ष उजागर हुए, दूसरे जो विद्वान् छद्म रूपमें अपने आपको आर्षमार्गानुयायी कहकर समाज में अपनी प्रतिष्ठाको भुना रहे थे, किन्तु वस्तुतः जो कानजी स्वामीके पृष्ठ पोषक और पक्ष समर्थक थे, उनका वास्तविक रूप समाजके सामने प्रगट हो गया । इसका परिणाम यह हुआ कि वे कानजी स्वामीके कैम्पमें अपनी जड़ नहीं जमा पाये और आर्षमार्गी श्रद्धालु वर्गकी श्रद्धा से वंचित हो गये । उनकी स्थिति 'इतो भ्रष्टस्ततो भ्रष्टः ' गई । किन्तु इस प्रसंग में मैं पंडित फूलचन्द्रजीकी सराहना किये बिना नहीं रहूँगा कि उन्होंने अपने आपको उसी रूपमें पेश किया, जो वे वास्तवमें हैं । अपने विचारोंके प्रति उनका यह न्याय था, यह उनकी ईमानदारी और नैतिकता थी । खानियाकी यह चर्चा सैद्धान्तिक थी । यह चर्चा दोनों पक्षोंकी ओरसे पुस्तककाररूपमें प्रकाशित हो चुकी है । दोनों पक्षोंकी इस चर्चाका मैंने सावधानीके साथ अध्ययन किया है । इसे पढ़कर मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि कानजी पक्ष निमित्त उपादान, पुण्य-पाप, शुभ-अशुभ भाव, अन्तरंग - बहिरंग चारित्र, निश्चय - व्यवहार आदिकी चर्चा करते हुए निमित्तकी उपेक्षा, पुण्यकी हेयता, शुभ भावोंको मोक्षमार्ग में अनुपयोगिता, बहिरंग चारित्र उपेक्षा और व्यवहारकी सर्वथा अस्कतार्थता पर विशेष जोर देता है, वह केवल बौद्धिक व्यायाम है, इन मान्यताओं का कोई शास्त्रीय आधार नहीं है और ये विचार जैन संस्कृति और परम्पराके विघातक भी हैं । किन्तु क्रमबद्ध पर्यायकी मान्यताका कोई युक्तिसंगत उत्तर आर्षमार्गे पक्ष के पास नहीं है । इस परिचर्चा में कानजी पक्षका प्रतिनिधित्व पण्डितजीने जिस दृढ़ता एवं आत्मविश्वास के साथ किया । उससे पण्डितजीने सभी श्रोताओं पर यह छाप अंकित कर दी कि कानजी कैम्पमें सैद्धांतिक पक्षका प्रतिपादन करनेकी क्षमता रखनेवाला और अधिकारी विद्वान् पंडित फूलचन्द्रजीको छोड़कर दूसरा कोई विद्वान् नहीं है । Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय खण्ड : ९५ जहाँ तक सामाजिक विषयोंका सम्बन्ध है, पंडितजीके विचार उदार, अग्रगामी और क्रान्तिकारी हैं। अन्तर्जातीय और विजातीय विवाह, जैन मन्दिरोंमें हरिजनोंको प्रवेशका अधिकार, अस्पृश्यता निवारण, सामाजिक बहिष्कार, गजरथोत्सव और पंचकल्याणक प्रतिष्ठा, मृत्युभोज, विधवा विवाह आदि विषयों के संबन्ध में पण्डितजीकी मान्यताओं में मानवीय पहलू ही मुखर हुआ है । इसमें कोई सन्देह नहीं है कि पण्डितजीके सभी विचार सुपाच्य नहीं है, सुग्राह्य भी नहीं हैं। यहाँ विनम्रतापूर्वक मुझे यह स्वीकार करने में कोई संकोच नहीं है कि मैंने स्वयं पण्डितजीके कई विचारोंका विरोध किया है। मसलन जैनमन्दिरोंमें हरिजनोंके प्रवेश सम्बन्धी अधिकार पर केवल मानवीय पहलसे ही विचार नहीं किया जा सकता। निश्चय ही जैन समाजमें हरिजनोंकी कोई समस्या नहीं है, क्योंकि जैन समाजमें कोई हरिजन है ही नहीं। जैनमन्दिरोंमें कहीं भी हरिजनों या जैनेतरोंका प्रवेश निषिद्ध नहीं है, वशर्ते वे जैन परम्पराके नियमोंके अनुसार प्रवेश करें। किन्तु उन्हें जैनमन्दिरोंमें प्रवेश करनेका काननी अधिकार तो नहीं दिया जा सकता । कानूनी अधिकार देनेका अर्थ है-जैन मन्दिरों पर उनके स्वामित्वका अधिकार, जैन परम्पराके उन्मूलनकी स्वीकृति । पंडितजी वर्षों तक राष्ट्रीय धारासे जुड़े रहे । स्वतन्त्रता संग्रामके सम्मानित सेनानी रहे और इसके लिये वे जेल भी गये। कुल मिलाकर उनका व्यक्तित्व बहुमुखी रहा है। वे बहुश्रुत विचारक मनीषी है, क्रान्तिकारी विचार धाराके अग्रणी नेता हैं, उनका हृदय मानवीय स्पन्दनसे परिपूर्ण है। कानजी सम्प्रदायको सैद्धान्तिक आधार देने, विद्वानोंका परिकर जमा करने और प्रचारात्मक पक्षको रचनात्मक रूप देनेमें उनकी प्रमुख भूमिका रही है । उनकी साहित्य-साधना जो गुणात्मक और संख्यात्मक प्रसून प्रसूत किये हैं उस पर हमें गर्व है। जैन सिद्धान्तके पारगामी विद्वान् • डॉ० कस्तूरचन्द्र कासलीवाल, जयपुर वर्तमान जैन मनीषियोंमें पण्डित फलचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्रीका स्थान सर्वोपरि है । वे सिद्धान्त ग्रन्थोंके पारगामी विद्वान् हैं । षट् खण्डागम. गोम्मटसार, राजवात्तिक जैसे महान् ग्रन्थोंका पूरा मर्म उनके मस्तिष्कमें भरा पड़ा है । उनको सैद्धान्तिक चर्चायें सुनने योग्य है। विगत ४ दशकसे वे जैन समाजमें अत्यधिक सम्मानित विद्वान् माने जाते हैं । जो भी एक बार उनके सम्पर्कमें आ जाता है वह उन्हींका बन जाता है। जयपुर में भी वे जब कभी आते ही रहते हैं। मुझे यह देखकर बड़ी प्रसन्नता हुई कि समाज उनको सुनने में पूरी रुचि रखता है । जयपुरमें सन् १९६३ में खानियोंमें जो चर्चा हुई थी और जो खानिया चर्चाके नामसे प्रसिद्ध है, वह पंडितजीके जीवनको सबसे महत्वपूर्ण घटना है। मुझे स्मरण है कि रात्रिको वे किस प्रकार ग्रन्थोंमेंसे उद्धरण छाँटते थे और उनके निशान लगाते थे। उनकी स्मरण शक्ति भी गजब की थी उस समय वे कहते थे कि अमुक ग्रन्थकी अमक पंक्ति देखो शायद उसमें यही लिखा हुआ है। उस समय उनके सैद्धान्तिक ज्ञानको देखकर बड़ा आश्चर्य होता था। पंडितजीमें आज भी काम करनेकी उतनी ही लगन एवं समर्पणकी भावना है। उनके जीवनका अधिकांश भाग उच्च ग्रन्थों के अध्यापन, अध्ययन, शास्त्र प्रवचन, ग्रन्थ सम्पादन, लेखन एवं सम्पादनमें व्यतीत हुआ है। आज भी वृद्ध होनेपर भी वे उसी तरह समर्पित हैं । समाजके वे वरिष्ठतम विद्वान हैं जिनका जितना अभिनन्दन किया जावे वही कम है। वे विद्वानोंके जनक है। समाजके बहुतसे विद्वान् उनसे किसी न किसी रूपमें उपकृत है। वे विद्वानोंका पूरा ध्यान रखते हैं। ऐसे विद्वानका अभिनन्दन ग्रंथ प्रकाशित हो रहा है यह उनकी सेवाओंके प्रति आभार व्यक्त करना है। मैं उसका हार्दिक अभिनन्दन करता हूँ तथा उनके शतायु एवं यशस्वी जीवनकी कामना करता हूँ। Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ बुन्देलखण्डको माटोसे गढ़ा गया एक और ऐकलव्य .श्री नीरज जैन, सतना धुन रे धुनियां अपनी धुन, और काऊ की एक नैं सुन । बुन्देलखण्डी व्यक्तिकी यही अस्मिता है। यह उसके व्यक्तित्वकी विशेषता नहीं, उस व्यक्तित्वकी आधारशिला है। एकदम स्थिर, अकम्प और अटूट । सिद्धान्ताचार्य पण्डित फूलचन्द्रजी नखसे शिख तक बुन्देलखण्डी हैं । उनकी पक्की धुन और अजेय इच्छा-शक्तिका आभास देनेवाली अनेक घटनाएँ उनके जीवनवृत्तमें बिखरी दिखाई देती हैं। मोरैनाके विद्यालयका सत्तर साल पूर्वका वही बुन्देलखण्डी विद्यार्थी आज सिद्धान्ताचार्य पण्डित फूलचन्द्र सिद्धान्तशास्त्रीके नामसे हमारे अभिनन्दनका पात्र बना हुआ, अपने उस गुरुका यश-प्रसार कर रहा है । जिनके मुखसे यद्यपि दो अक्षर भी सुननेका कभी उसे अवसर नहीं मिला, पर प्रेरणाके स्रोत वे गुरु उसके लिए सतत वन्दनीय हैं। स्वनामधन्य गुरुणाम् गुरु, स्याहादवारिधि, वादिगजकेसरी, न्याय-वाचस्पति पंडित गोपालदासजी बरैया हो वह आदर्श गुरु थे। इस बीसवीं शताब्दीमें ईस्वी सन्के साथ-साथ वार्धक्यकी ओर अग्रसर पण्डितजी जीवन-वाटिकाके चौरासी पतझर देख चुके हैं। आम जैन विद्वान्की तरह आजीविकाके संघर्ष, अनिश्चय, अभाव और आदरअनादरके आरोह-अवरोह पण्डितजीने भी खूब भोगे हैं। परन्तु उन सबके बीच खुरदरी खादीका सादा परिधान धारण किये, सरल खड़ी बोलीके बीच सरल बुन्देलखण्डीकी मिठाससे पगी नर्म और तर्कपूर्ण वाणीके बलपर, अपनी बेलाग और सशक्त लेखनीको पतवार बनाकर, बुन्देलखण्डका यह अभिनव-ऐकलव्य अपनी साधनाके पथपर निरन्तर बढ़ता ही रहा। "जैनतत्त्वमीमांसा" के लेखकको अब समाजमें किसी प्रकारके परिचयकी आवश्यकता नहीं है। उनके गहन-ज्ञानकी झाँकी प्रस्तुत करनेके लिए यह एक कृति ही पर्याप्त मानी जा सकती है। परन्तु समाजके लिये पण्डितजीकी प्रेरणा और परामर्श, उस विषयमें उनका चिन्तन और अनुभव, ये सब हमें प्राप्त होते हैं उनकी एक दूसरी पुस्तक "वर्ण, जाति और धर्म" में। इस कृतिके द्वारा पण्डितजीने जैन समाजमें व्याप्त वर्णभेद और छुआछूत जैसी आत्मघाती और सिद्धान्त-विरुद्ध प्रवृत्तियोंके बारेमें जैन आचार्योंकी समत्वसे भरी उदारतापूर्ण विचारधाराका अच्छा प्रसार किया है । कहना न होगा कि जैनाचार्योंके उसी सामाजिक औदार्यने । परम्पराको विरोधी परिस्थितियोंमें भी न केवल जीवित रखा वरन् उत्कर्ष पर पहुँचाया है और वही व्यावहारिक उदारता आजके युगमें भी हमारे अस्तित्वके लिये “साँस लेनेकी तरह" जरूरी हो गई है। ग्रन्थ-प्रशस्तियों, अभिलेखों और मतिलेखोंके आधारपर कतिपय जातियोंके इतिहासका अन्वेषण और अध्ययन तथा अपने प्रवचनों-भाषणोंमें दहेज-प्रथाका विरोध पण्डितजीके सामाजिक चिन्तनकी सहज-स्फूर्त देन है। पण्डित फुलचन्द्रजी अपनी उपलब्धियोंसे स्वतः गौरवान्वित हैं। आज उनका अभिनन्दन करके हम अपने आपको गौरवान्वित कर पा रहे है. यह हमारा सौभाग्य है। Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय खण्ड : ९७ एक मेधावी व्यक्तित्व •स० सि० धन्यकुमार जैन, कटनी पंडितप्रवर श्री फूलचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्री भारतवर्षमें जैन-संसारके गिने-चुने विद्वानोंमेंसे एक हैं। इन्होंने अपने जीवनकालमें जैन-साहित्यकी अनुपम सेवा को है । सिद्धान्तके वस्तुतत्वकी विवेचना-विश्लेषण करनेकी इनकी पद्धति इतनी सरल और रुचिकर है कि गूढ़से गूढ़ वस्तु भी साधारण जिज्ञासुओंके लिए भी सहज और बोधगम्य बन जाती है। श्री फूलचद्रन्जीकी साहित्य-मर्मज्ञता और लेखन-शैली भी अनूठी ही है । साहित्य सृजन, सम्पादन एवं अनुवाद आदिका जितना विपुल कार्य इनके द्वारा सम्पन्न हुआ है, उसका मूल्यांकन भविष्यमें जब इतिहासज्ञ करेंगे, तभी जन साधारण इनकी बहुमुखी प्रतिभाको देख नतमस्तक हो उठेंगे। बड़ेसे बड़े रहस्य-ग्रंथों और कठिनसे कठिनतम स्थलोंको भी अपनी शैली, सूक्ष्म विवेचन और सहास्य और सरलतम भाषामें समझा देनेकी क्षमता मुझे सिर्फ इनमें ही दिखी है । प्रवचनके समय इनकी सम्मोहक वाणी किसीको भी अपनी लपेटने ले सकने में पूर्ण समर्थ है। जैन-वाङ्गमयकी जो अनुपम सेवा इन्होंने की है, उसकी कितनी भी अनुशंसाको जावे, वह थोड़ी ही रहेगी। कुछ मनीषियोंका तो यह मत भी है कि करणानुयोगके जिन दुरूह ग्रंथोंका आलोड़न कर इन्होंने अपनी विशेष कुशलता और जिस सूझ-बूझसे सम्पादन व भाषानुवाद किया है, वह अन्य व्यक्तियोंके लिए केवल कठिन कार्य ही नहीं, बल्कि अशक्य भी सिद्ध होगा। वे वयोवद्ध हैं। सरलता, सात्विकता, सादगी एवं धार्मिकता की वे प्रतिमूर्ति हैं । तेरासी वर्षकी आयुमें भी वे साहित्य-निर्माणमें पर्ण सक्रिय हैं । यद्यपि जराजीर्ण शरीर साहित्य-साधनामें बाधाएँ उपस्थित करता है, किन्तु उनकी वृत्तिको देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि वे जिनवाणीके लिए कृत-संकल्प है। उनका सम्पूर्ण जीवन मानों माँ सरस्वती जिन-वागदेवीको समर्पित है। यसे परिचय एवं सम्पर्क है। उनका भरपूर सान्निध्य भी मुझे मिला है । अपनी स्मृतियों से एक प्रसंगकी चर्चा यदि मैं करूँ, तो शायद यह अप्रासंगिक न होगा। "काफी समयसे जैन-दर्शनके विद्वानोंमें धार्मिक-सैद्धांतिक प्रश्नोंको लेकर मतभेद चले आ रहे थे । इन मतभेदोंको दूर करनेके लिए धर्मबन्धुओंमें काफी दिनोंसे चर्चा चल रही थी। अन्ततोगत्वा जयपुरमें परमपूज्य आचार्य १०८ श्री शिवसागरजी महाराजके सान्निध्यमें विद्वानोंको आमन्त्रित कर, दोनों पक्षके विद्वानोंमें विचार-विनिमय द्वारा मतभेदोंको दूर करनेको योजना बनाई गई थी। सबकी इच्छा थी कि यदि विद्वत्-समाज मतभेदोंको दूर करने एवं सर्वसम्मत निराकरण हूँढ़ने में सफल हो जावें तो जैन-जगता बड़ा हित होगा। मतभेद समाप्त हों, भ्रान्तियाँ निमल हों, तो इससे बड़ी जिनवाणोकी सेवा दूसरी न होगी। पूज्य आचार्यश्रीके संघकी उपस्थितिमें सन् १९३३में, जयपुरमें इसी सद्हेतुसे तत्वचर्चाके लिए एक बृहत विद्वत्-गोष्ठी आयोजित की गई थी। आचार्यश्रीके समक्ष दोनों पक्षोंकी चर्चा चली । ३१ जैन विद्वानोंने गोष्ठीमें भाग लिया। आठ-दस दिनोंमें ग्यारह बैठकें हईं। इतने पर भी जब मतभेदोंका पूर्ण निराकरण होता सम्भव न दिखा, तब अन्तमें मतभेद-मूलक प्रश्नोंको लिखित रूपसे प्रस्तुत करनेका मार्ग निर्धारित किया गया । विवाद चलता रहा । गोष्ठियाँ होती रहीं। इसी क्रममें सन् ६६में मतभेद-मूलक प्रश्नोंके लिखित समाधानों पर विचार एवं समीक्षा करने हेतु एक बैठक कटनी नगरमें भी आयोजित की गई। आमंत्रण मिलने Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९८ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ पर आदरणीय पं० फूलचन्द्रजी कटनी पधारे । पूज्य पं० जगन्मोहनलाल जी सिद्धान्तशास्त्री भी इनके सहयोगी पक्षकार थे । समाधानोंको अन्तिम रूप देने में इनका सहयोग अपेक्षित था। भाई श्री नेमीचन्द्रजी पाटनी भी समाधान-चर्चामें भाग लेने हेतु कटनी पधारे थे । प्रथम पक्षके आलेखित प्रश्नोंके उत्तरोंके वाचनमें तीन सप्ताहकी कालावधि लगी। इस पूरे कालमें मैं आदरणीय पण्डितजीके दार्शनिक सैद्धान्तिक असीम ज्ञानकी गहराईका सूक्ष्म एवं गहन अवलोकन करता रहा । वस्तुतत्वके प्रति उनकी दृष्टि बड़ी पैनी थी। पूर्वाचार्योंके कथन एवं शास्त्रोक्त प्रमाणोंकी पुष्टि करनेकी उनकी पकड़ बहुत गहरी थी। अपरपक्षकी शंकाओंका खण्डन और निराकरण अकाट्य था। उत्तेजनामय विवादके समय भी उनका धैर्य, प्रखरता, सरलता और सहृदयता अवलोकनीय थी । श्रोता तो क्या, विद्वान् भी उनके तर्कों और तथ्योंके समक्ष नतमस्तक हो उठते थे। इससे उनमें प्रकाण्ड पांडित्यकी अनूठी झलकके दर्शन होते थे । इन दिनोंमें भी इन कार्यक्रमोंमें पूर्ण तन्मयतासे लगातार भाग लेता रहा । तब मुझे अनुभव हुआ कि पंडितजी देश और समाजके लिए कितने मूल्यवान और उपयोगी हैं। निःसन्देह आदरणीय पं० फूलचन्दजी जैमसमाजकी अमूल्यतम निधि हैं । रचनात्मक कार्यों में भी पण्डितजी सदैव गतिशील रहे हैं। साहित्य-सृजनको प्रेरणा एवं गति देनेके उद्देश्य तथा पवित्र भावनासे ही इन्होंने वाराणसी 'नरिया' में 'वर्णी शोध संस्थान' की स्थापना की है । एक बृहत् लायब्ररीमें दुर्लभ ग्रन्थोंका संग्रह किया है । शोध छात्रोंके प्रोत्साहन हेतु छात्रवृत्ति एवं निःशुल्क शिक्षक तथा निर्देशनकी भी समुचित व्यवस्था की है। ___ समाज द्वारा विद्वानोंको समादृत किया ही जाना चाहिए। इतना ही नहीं, बल्कि वृद्धावस्थामें तथा अभावोंके समय इन्हें समाज द्वारा भरपूर आर्थिक सहायता भी दी जानी चाहिए। विद्वान् ही तो हमारी समाजके सम्मान है। सच कहें तो विद्वानोंका सम्मान तो एक बहाना मात्र है, इसके माध्यमसे हम और हमारा समाज ही सम्मानित होता है। ___ मेरी मंगलकामना है कि आदरणीय पंडितजी शतायु हों और दीर्घकाल तक हमारे बीच रहकर स्वस्थ तथा निराकुल रह सकें। सदैव जैनवाङ्गमयकी सेवा करते रहनेका उनका ध्येय और व्रत पूरा हो। हमारा समस्त जैनजगत उनके कार्योंके प्रति सदैव ही ऋणी रहेगा। मेरे वे श्रद्धेय हैं। उनके प्रति मेरी हार्दिक विनम्रांजलि समर्पित है। अचित्यनिष्ठा और सतत् लगनकी विभूति • श्रीमंत सेठ राजेन्द्र कुमार जैन, विदिशा जैनदर्शन के सिद्धान्त अध्यात्मकी उन ऊँची शिखरोंके कलश है जो चिरंतन और शास्वत आलोकसे प्रकाशित हैं। इनको हृदयंगम करनेसे ही अपूर्व सुख और शांतिका मार्ग प्रशस्त होता है, सिद्धान्तोंकी समीक्षा इनमें दृढ़ निष्ठा और सतत् लगनका ही प्रतिफल है । सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्रजी उन्हीं ऊँचाईयों पर रहकर सदैव इन्हें भांजते संजोते रहे हैं । बुन्देलखण्डके पांडित्यका यह पुंज सहजता, सरलता और दृढ़तम लगमका व्यक्तित्व है और जैनदर्शनके द्वादशांगका समचा सार उनके कंठमें विराजमान लगता है। जीवनकी सफलता और इस जगतके प्रति होनेवाला कर्तव्य बोध इस विभूतिने अनुकरणीय बना दिया है । विदिशासे पंडितजीका निकटतम सम्पर्क रहा । षट्खंडागमके प्रकाशन कालके प्रारम्भ सन् १९३४ से हमारे Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय खण्ड : ९९ परिवारकी निकटता आदरणीय पंडितजीसे रही। कोई भी वर्ष शायद ऐसा रहा हो जब पंडितजी विदिशा न पधारे हों। विदिशामें दो पुत्रियोंके सम्बन्ध उनने किये अतः उनके व्यक्तिगत जीवनसे यहाँका घर-घर प्रभावित रहा। सिद्धान्त और दर्शन ज्ञान उनकी मौलिकतासे गहराई तक प्रवेशकी बुद्धि आज भी इतनी उम्रमें उनकी अभूतपूर्व है । लेखन शैली बड़से बड़े विषयोंका प्रतिपादन जिस सहजतासे करती है वह भी अपूर्व है समाजमें वह एक इतिहास है। वे बुन्देलखंडके परवार समाजमें विद्वान् शिरोमणी हैं । परवार समाजके इतिहासकी जो खोज उनके मौलिक प्रतिपादनके अर्थ है वह अपने आपमें इतिहास बनेगी। पुरातत्त्वमें भी उनकी सूझबूझ और खोज निष्ठा सराहनीय है। उन्हें जो इस क्षेत्रमें बहुमान है वह भी इस उम्रके विद्वान् वर्ग में कम मिलता है । विदिशा पुरातत्त्वका महत्त्वपूर्ण इतिहास है और इसमें उनकी रुचि परिलक्षित होती रही है। स्वाध्यायका प्रचार-प्रसार उनका जीवन बन गया है एक ही कार्य में उनकी निष्ठा सदैव जागरूक रहती है। पण्डितजीका जीवन अनुकरणीय है उन्होंने जीवनकी सफलताका सोपान जीवनभर उमंग उत्साहसे चढ़ा है और अब भो इसी हेतु उन्होंने इन्दौरको अपना बनाया है। भगवान् उन्हें दीर्घायु और स्वस्थता प्रदान करें ताकि हम संसार लोलुपी उनका और-और लाभ प्राप्त करते रहें। शत्-शत् नमन .श्रीमती नर्मदा बाई जैन, डोंगरगढ़ जैन-जगतके लिए समर्पित, जिनका तन-मन-धन है, सिद्धान्ताचार्य श्री फूलचन्द्रजीका शत्-शत् वन्दन है । सिद्धान्ताचार्य पण्डित फूलचन्द्रजी शास्त्रीको मुझे काफी निकटसे जाननेका सौभाग्य मिला है। इसलिये और भी कि उन्होंने हमेशा मुझे अपनी छोटी बहिनके समान स्नेह प्रदान किया। मैंने सबसे पहले उन्हें डोंगरगढ़में उस समय देखा जब वे सन् १९४७ में पहिली बार डोंगरगढ़ पधारे थे । पूज्य सेठजी १५ अगस्त, १९४७ की रात्रिमें कार दुर्घटनासे आहत होकर, स्थानीय चिकित्सालयमें भर्ती थे । मैं उस समय सिवनीमें थी। टेलोफोन मिलते ही मैं डोंगरगढ़ आ गई। पण्डित फुलचन्द्र जी उस समय डोंगरगढ़ आये थे और अपने छोटे भाई श्री भैयालालजीके घर रुके थे। श्री भैयालालजी जैन स्थानीय पाठशालामें अध्यापनका कार्य करते थे। पूज्य सेठजीके अस्पताल में भर्ती रहने तक तथा घर आनेके बाद भी भाई साहब प्रतिदिन कुशल-क्षेम पूछने घर आते रहे। वे घंटों हमारे घर बैठते तथा सेठजीके साथ जैनधर्म तथा जैनधर्मके प्राचीन ग्रन्थों पर उनके द्वारा किये जा रहे शोध कार्यों पर चर्चा करते रहते । उनके सरल एवं मधुर स्वभावसे हमलोग काफी प्रभावित हुए । जैनधर्मके इतने प्रकाण्ड विद्वान्, निरभिमानी एवं सरल स्वभावी महामानवका मैंने पहली बार दर्शन किये। भारतीय दिगम्बर जैनसंघ द्वारा उस समय तक कषायपाहुड़ (जयधवला) के दो भाग प्रकाशित किये जा चके थे तथा तीसरे भागकी तैयारी चल रही थी। वीर निर्वाण संवत् २४७४ में पूज्य सेठजी भारतवर्षीय Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० : सिद्धान्ताचार्य पं० फ्लचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थं दिगम्बर जैनसंघके कुंडलपुर अधिवेशनमें संघके सभापति चने गये थे। अतः संघके कार्योंके सिलसिलेमें भाई साहबका अक्सर डोंगरगढ़ आना होता था। इस प्रकार हमारे परिवारसे उनका पारिवारिक सम्बन्ध बन गया था। सन १९५२में मैं अपने भतीजे श्री प्रकाशचन्द, राजेन्द्र एवं सरोज (भतीजी) के साथ उत्तर भारतका भ्रमण करते हए बनारस पहुँची । स्व० सेठजी कई धार्मिक एवं समाजसेवी संस्थानोंसे संलग्न होने के कारण काफी व्यस्त रहते थे, कारण हम लोगोंके साथ नहीं जा सके थे। हम लोगोंके बनारस पहुँचनेपर भाई फूलचन्द्रजी साहबका आग्रह हुआ कि हम उनके घर पर ही रुकें और बनारसके रहते तक भोजन भी उनकी रसोईमें ही करें । बड़े भाईका आदेश कैसे टाल सकती थी । भाई साहब व भाभीजीने हमें यह सोचनेका अवसर ही नहीं दिया कि हम अपने घरसे बाहर हैं। उस समय वर्णी शोध संस्थानके नये भवनका निर्माण कार्य सुचारु पूर्वक चल रहा था। इस भवनके निर्माणमें इन मनीषियों द्वारा किया गया अथक परिश्रम, त्याग एवं लगन शीघ्र ही साकार हो गया। हमें भी इस पुनीत कार्य में अपना सहयोग देनेका सौभाग्य प्राप्त हुआ। इसके कई वर्षों बाद स्व० सेठजी साहब कुंभोज बाहुबलि जानेका प्रोग्राम बनाये । हमारे सौभाग्यसे उस समय भाई साहब डोंगरगढ़ आये थे । स्व. सेठ साहबके अनुरोध पर वे हम लोगों के साथ यात्रामें जानेके लिए तत्पर हो गये । हमारा यह सौभाग्य रहा कि इतने महान् व्यक्तिके साथ हमें तीर्थयात्राका अवसर मिला तथा भाई साहब प्रत्येक जैन तीर्थ जहाँ हम गये उनका इतिहास एवं उसके सम्बन्धमें अपने अक्षय ज्ञानभंडारसे महत्त्वपूर्ण जानकारी देते रहते । जिसके कारण हमें तीर्थ यात्राके साथ-साथ धर्म ज्ञानका लाभ भी मिलता रहता । इसी दौरान सौभाग्यसे श्री पूज्य १०८ आचार्य समन्तभद्र महाराजश्री का दर्शन लाभ हुआ तथा श्री पूज्य गजाबेनसे भी परिचय हुआ । प्रवचन सुना तथा शिक्षा भी मिली । उसके बाद लगभग १५ वर्ष पूर्व भाई साहबसे कलकत्तामें भेंट हुई। पर्युषण पर्वके अवसरपर पूज्य स्व० सेठ साहब और सरोजके साथ कलकत्ता गयी थी। उस समय भाई साहब कलकत्तामें थे । वहाँ भी उनके आग्रहको ध्यानमें रखते हुए हमें उनका आतिथ्य स्वीकार करना पड़ा। उन्हें हमारे कारण काफी असुविधा उठानी पड़ती। परन्तु, उनके चेहरेपर सदा मुस्कुराहट और आत्मीयताकी झलक मिलती रहती। उनकी निश्छल स्नेह, मधुर व्यवहार एवं शालीनतामें आजन्म नहीं भूल सकती। सिद्धान्ताचार्य पंडित फलचन्द्रजी शास्त्रीके विषयमें जो भी लिखा जाय कम है। वे जैनदर्शनके मूर्धन्य विद्वान् है । साहित्यके प्रचार, प्रसार एवं सृजनमें उनका योगदान अविस्मरणीय है। भाई फूलचन्द्रजी जैनधर्मके प्राकृत भाषामें लिखे गये प्राचीन ग्रन्थोंका शोधकर उनको सरल भाषामें प्रकाशित करनेमें भगोरथ प्रयास किया तथा उनकी अनवरत साधनाके फलस्वरूप जैन साहित्यकी जिस ज्ञान गंगाका उद्गम हुआ उसकी पावन धारामें आनेवाले सैकड़ों वर्षों तक लाखों प्राणी अपना अज्ञान कालुस्य धोते हुए नई ज्योति और नई दिशा प्राप्त करते रहेंगे । इन्हीं शुभ-कामनाओंके साथ मैं हार्दिक अभिनन्दन करती हूँ तथा उनके शतायुको कामना करती हूँ। Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय खण्ड : १०१ बीसवीं सदीका चिरयुवा मनस्वी पुष्पदन्त-भूतबलि •प्रो० डॉ० राजाराम जैन, आरा - बहु आयामी व्यक्तित्त्वके विषयमें अधिक लिख पाना प्रायः कठिन ही होता है । जिसने जीर्ण-शीर्ण एवं सर्वथा अप्रकाशित शौरसेनी जैनागमोंके उद्धारका आजीवन व्रत ले लिया हो, महान क्रान्तिकारी जैनधर्ममें व्याप्त आगमविरुद्ध परम्पराओंके विरोधमें निर्भीकतापूर्वक लिखते रहनेका संकल्प किया हो, उन्ननीषु अभावग्रस्त छात्रोंके मनोबलको बढ़ाकर उन्हें प्रगतिशील बनाए रखनेका दृढ़ व्रत लिया हो, अपने महान् प्रेरक गुरुतुल्य पंडित गणेशप्रसाद वर्णीकी जैन-शोध सम्बन्धी अभिलाषाओंको साकार करनेका प्रण किया हो, जैन दर्शन एवं कर्मसिद्धान्तके मर्मको स्पष्ट करनेके लिए जिसने विविध प्राच्यजैनाचार्योंके ववाङ्मयके अध्ययनमें सारा जीवन न्यौछावर कर दिया हो, देशकी आजादीके संघर्षपूर्ण वर्षोंमें जिसने व्यक्तिगत क्षति एवं जेलयात्राके कष्टोंकी भी परवाह न की हो, समाज एवं राष्ट्रको व्यक्ति एवं परिवारसे निरन्तर सर्वोपरि माना हो, उस आदर्श साधकके विषयमें कुछ भी निष्पक्ष एवं न्यायपूर्ण लिखनेके लिए उसी जैसी बहु आयामी साधना एवं प्रौढ़ लेखनीकी आवश्यकता है। पूज्य पंडितजीने अपने जीवनमें विश्राम करना नहीं सीखा । शौरसेनी जैनागमोंके अभूतपूर्व सम्पादनके अतिरिक्त प्रमेयरत्नमाला, तत्वार्थसूत्र, सर्वार्थसिद्धि जैसे ग्रन्थरत्नोंका पाण्डित्यपूर्ण सम्पादन एवं समीक्षात्मक अध्ययन, जैनतत्त्वमीमांसा, खानिया तत्त्वचर्चा. वर्णजाति एवं धर्म जैसे उत्कृष्ट कोटिके में विचारोत्तेजक गम्भीर ग्रन्थोंका लेखन, भारतीय सामाजिक एवं दार्शनिक जगतके लिए गौरवका विषय है। : पत्र-सम्पादन कलाके क्षेत्रमें भी पंडितजीके कृतित्त्वका उदाहरण नहीं मिलता। भारतीय ज्ञानपीठ काशीने जुलाई १९४९ में एक उच्चस्तरीय शोध-पत्रिका "ज्ञानोदय" (मासिक) का प्रकाशन किया था जिसके सम्पादक मण्डलमें पण्डित फूलचन्द्रजी भी थे। अपने आदर्शोके प्रति अक्खड़ एवं फक्कड़ स्वभाव वाले महास्वाभिमानी इस मनीषीने अपने आदर्शों सिद्धान्तोंके मूल्यपर कभी समझौता नहीं किया । भले ही वह टूटता रहा किन्तु झुका नहीं । अकेला बना रहा किन्तु दृढ़तापूर्वक आगे बढ़ता रहा । ऐसे सपूत किसी समाजको बड़े ही पुण्य-भाग्यसे मिलते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि उनका जीवन पुष्पदन्त भूतबलिकी जिनवाणीके प्रति सुरक्षाको चिन्ता समन्तभद्रकी सर्वोदय-भावना, उमास्वामी एवं पूज्यपादके पाण्डित्य, अकलंक एवं विद्यानन्दकी दार्शनिकता तथा अभिमान मेरा पुष्पदन्तकी मनस्विता एवं अक्खड़पनके तत्वोंसे मिलकर निर्मित हुआ है । आगम-विरुद्ध परम्पराओं एवं सामाजिक कुरीतियोंके प्रति उनकी विद्रोही विचारधारासे कुछ लोगोंके त्यौवर लाल-पीले भी होते रहे हैं किन्तु इससे उनकी विचार-पद्धति अप्रभावित ही रही। वस्तुतः यह सम्मान श्री० पं० फलचन्द्रजीका ही नहीं, इस माध्यमसे प्राचीन आचार्यों एवं उनकी प्राच्यवाणीका भी सम्मान-अभिनन्दन है, जो सरस्वतीके समस्त आराधकों एवं शिक्षा जगत्के लिए गौरवका विषय है । उन्हें मेरे शतशः प्रणाम । Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ : सिद्धान्ताचार्य पं० फलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ सुधारवादी प्रखर विद्वान् नेता .५० यतीन्द्र कुमार वैद्यराज, लखनादौन अत्यन्त साधारण शुद्ध खादीकी वेषभूषामे हर प्रकारकी कृत्रिमता (बनावट) से दूर, सरल स्वभावी, मिलनसार पं० फूलचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्रीको कोई सरलतासे पहचान सका है। आजके इने-गिने शीर्ष विद्वानोंमें उनका प्रमुख स्थान है। वे दीर्घकालसे जैन शासनकी सेवामें समर्पित हैं । कलमके धनी होनेसे जिनवाणीके भंडारको खूब समृद्धि की है । प्रातः स्मरणीय पूज्य गणेश प्रसादजीके शिष्य सच्चे भक्त है। वर्णी ग्रन्थमालाके द्वारा की गई उनकी सेवा कभी भुलाई नहीं जा सकती। मैं पाँच वर्ष पहले कुम्भोज बाहुबलि गया था वहाँके महान् संत कर्मठ साधक मुनी महाराज समन्तभद्रजीके मुखसे निकले ये वचन अभी तक याद हैं। 'वर्तमानमें सम्पूर्ण जैन वाङ्गमयका तलस्पर्शी ठोस विद्वान् है तो पं० फूलचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्री हैं।' मेरा पं फूलचन्दजीसे प्रेम परिचय करीब ४० वर्षसे है । मैं उस समय छत्तीसगढ़में चिकित्सा कार्यरत था । पंडितजीके लभ्राता पंडित भैयालालजी उस समय डोंगरगढ (छत्तीसगढ़) में रहते थे । वहींसे पंडितजीसे सम्पर्क स्थापित हुआ। यद्यपि उनकी ओर मेरी य ग्यतामें जमीन आसमानका फर्क था। पर वे इतने आत्मीय स्नेहसे व्यवहार करते थे। जैसे बराबरी वालेसे होता है। उस समय छत्तीसगढ़की जैन समाज जहाँ अधिकतर परवार लोग रहते हैं। उनमें बड़ी सेन तथा छोटी सेन (दस्सा) समाज ऐसे दो वर्ग थे। अनेक दस्सा ऐसे भी थे जिन्हें आपसी रागद्वेषसे जाति च्युत कर दिया गया था। उनके साथ अछूतों जैसा व्यवहार होता था खानपान तो क्या उन्हें देव दर्शन पूजनसे भी च्युत किया जाता था। अपने धार्मिक अधिकारोंके लिये वे बेचन रहते थे। इन बुराइयोंको दूर करनेके लिये । उदार धर्म समाज प्रेमी सेठ भागचंद जीकी अध्यक्षतामें प्रगतिवादी जैन संघ बनाया गया था । मैं उसका मंत्री था। सेठ भागचंद्र जी पंडित फलचंदजीके बहत श्रद्धालु भक्त थे उसकी प्रेमके कारण पण्डितजी बनारससे ४-५ बार आकर मेरे साथ स्थान-स्थान पर जाकर अपने भाषणोंसे शास्त्री प्रमाणोंसे सिद्ध कर उन्हें दर्शन पूजाका अधिकार दिलाया था। वे बिना हिचकके उन्हीं दस्सा भाइयोंके यहाँ ठहरकर सहभोज करके उनकी हीन भावना को दूर करते थे। मेरा विश्वास है नि स्वार्थ समाजसेवी समर्पित उदार सेवा भावी भविष्यका ज्ञान रखते हैं। पंडितजी हर जगत् भविष्यवाणी करते हैं। आज आप जिनके हाथका पानी नहीं पीते । देव दर्शनमें रुकावट करते हो तीस साल बाद अपनी बेटियाँ व्याह कर सम्मान करेंगे। आज दस्सा बीसाका भेद मिट रहा है आपसमें हजारों सम्बन्ध हो रहे हैं । दि० जैनका युग है । पंडित जीकी भविष्यवाणी सत्य हो रही है। पंडितजी सदासे सूधारवादी नेता है सामाजिक रूढ़ियोंको समूल्य नष्ट करने में जितने आन्दोलन हुए हैं समाजमें पूरा सहयोग रहा है। . आज वे वृद्धताको प्राप्त है। मैं ३ माह पहले उनसे मिलने इन्दौर उदासीन आश्रम गया था। बहुत स्नेह किया । मैंने पूछा अभी भी कुछ जागृतिकी तमन्ना है। तो बोले मैं बूढा हूँ तो क्या हुआ दिलका नौजवान हूँ । शरीर शिथिल हो गया पर भावना प्रधान हूँ । कामना है । शतंजीवम शरदः भूयश्य शदः शतान् शत मदीनाः शतान् शतं प्रव्रजाम शरदः शतम् भुयश्य शदः शतात् । Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय खण्ड : १०३ निर्भीक व्यक्तित्व •श्री सुजानमल जैन, अजमेर सन् १९५६-५७ के आसपासकी बात है पंडित फूलचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्री श्री दि० जैन मुमुक्षु मण्डल उदयपुरके आमंत्रणपर प्रवचनार्थ जाना था। मैं तथा मेरे मित्र श्री लक्ष्मीलालजी बंडी पंडित साहबको लिवाने अजमेर आये थे। उस दिन देहलीसे आनेवाली गाड़ीके समयसे देरसे आनेके कारण मैं तथा पंडित साहब अजमेर में सेठ भागचन्दजी सोनीके यहाँ ठहरे । दिनभरमें अजमेरमें पंडित साहबसे कई विचारकों तथा स्थानीय विद्वानोंने चर्चा की थी। इससे पंडित साहबको उस समयकी अजमेरकी सामाजिक तथा धार्मिक स्थितिका सहज ही अवमान हो गया और उन्होंने यह जान लिया कि अजमेरको जैनधर्मके सिद्धान्तोंका जिनका प्रतिपादन पूज्य कानजी स्वामीजी द्वारा हो रहा है विरोधी है यह बात उनके मानस पर चुभ सी गई। सायंकाल भोजन करते समय शांत वातावरणमें पं० साहबसे रहा नहीं गया था उन्होंने अपने मनकी बात कहनेका यह सुअवसर है, ऐसा मानकर या उनकी निर्भीक वृत्तिसे उन्हें ललकार आनेसे उन्होंने शांत और गम्भीर वातावरणको भंग कर सेठ साहबको सम्बोधन करते हुए कहा कि सेठ साहब इस मन्दिरजी और नसियांजीका निर्माण तो आपके पूज्य पितामहने अजमेरमें शुद्धाम्नायके प्रचार-प्रसारके लिए पंडित श्री सदासुखदासजीके सदुपदेशसे ही कराया था। सेठ साहबने पंडित साहबके कथनको स्वीकारता दी। पंडित साहबने तुरन्त अपने में बैठी चुभनसे कहा कि उसी अजमेरमें आपके आपके होते हुए सोनगढ़के प्रसार प्रचारका जो शुद्धाम्नायका ही प्रसार-प्रचार है और जिसके द्वारा वर्तमानमें भारत भरमें अध्यात्मका डंका बज रहा है, उसका विरोध हो रहा है यह तो अति शर्मनाक है और उसमें आपका सहयोग है या आप मध्यस्थ होकर देख रहे हैं यह और अधिक लज्जाजनक है। भोजन के मिष्ठ और नमकीन स्वाद के रसमें लिप्त उस समय तो मुझे ऐसा लगा कि पण्डित साहबको लौकिक व्यवहारका भी ज्ञान नहीं हैं क्या वे यह बात बादमें नहीं कह सकते या अन्य मधुर शब्दोंमें नहीं कह सकते थे जो उन्होंने भारत एक दि० समाजके महान् नेताको इस प्रकारकी भाषामें कही। लेकिन मुझे इस बातका महत्व तथा कथनकी निर्भीकताका एहसास जब हुआ जब मैंने पं० साहब द्वारा लिखित जैनतत्त्व. मीमांसा के प्रथम संस्करणके प्राक्कथनको पढ़ा। जिस समय भारतके करीब-करीब सारे विद्वान् सोनगढ़में पूज्य स्वामीजी द्वारा, जिनोक्त और आचार्यों द्वारा रचित ग्रन्थोंके सिद्धान्तोंके प्रतिपादन और प्रसार प्रचारका विरोधकर रहे थे या डगमगा रहे थे या चुप्पीसाधे थे ऐसे समयमें पण्डित साहबसे उन सिद्धान्तोंको समझा न्याय तर्क आगम और नयकी कसौटी पर कसकर देखा और उन्हें यथावत् पाया तो यह चिन्ता किये बिना कि सारा विद्वत्समाज विरोधमें है उन्होंने इस सत्यका विश्लेषण एक पुस्तकाकारमें लिखकर इटावाकी विद्वतपरिषदकी ज्ञानगोष्ठी में उसका वाचन किया जो इतिहासकी एक अनुपम घटना थी इस गोष्ठीमें अनेक विद्वानों तथा ज्ञानियोंने भाग ही नहीं लिया वरन पण्डितजी के वाचन पर विभिन्न विद्वानोंने अपनी पूर्व मान्यताओंके आधार पर भिन्न २ प्रकार के तर्कोको रखा परन्तु पं० साहबने निर्भीकतासे सभी उठाये गये तर्कोका आगमके आधार से समाधान किया और पुरानी सिद्धान्त विरुद्ध मान्यताओंका खंडन कर कुन्दकुन्दाचार्यों द्वारा प्रतिपादित मान्यताओंका प्रतिपादन किया जिसका ही प्रतिफल है कि आज भारतके कोने-कोनेसे गाँव-गाँवसे अध्यात्मकी गूंज आ रही है तब मुझे अपनी उस समयकी भूलका एहसास हुआ कि यह विद्वान् कोरा पण्डित नहीं लेकिन जैनागमका ज्ञाता और उस पर अटल प्रतीति होने का कारण जिसके रग-रगमें निर्भीकता Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ : सिद्धान्ताचार्य पं० फुलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ समा गई है वह कैसे भोजनके मिष्ठ स्वादमें सिद्धान्तोंके विरोधको अनदेखी करता । उन्हें तो भोजनके मिष्ठान में भी सिद्धान्तों के विरोधकी कडुवाहटका स्वाद आ रहा था यही कारण था कि उन्होंने न भोजनका समय देखा, न मिष्ठानका स्वाद और न भारत के सर्व मान्यधी और श्रीमान् नेताको देखा और न आतिथ्यको, लेकिन उन्होंने उन सबसे अधिक देखा जैन सिद्धान्तोंको, जो सबसे सर्वोत्कृष्ट थे तथा प्राण थे । इस तरह के निर्भीक वृत्तिवाले विद्वान् देखनेको कदाचित् ही मिलते हैं । हम में भी जिनोक्त और आगमोक्त सिद्धान्तोंके प्रति इसी प्रकार की प्रगाढ़ श्रद्धा जागृत हो और उनका निर्भीकतासे प्रतिपादन कर सके या उनके विरोधका निर्भीकतासे मुँहतोड़ प्रत्युत्तर दे सके तो ही हमारा पण्डित साहब के प्रति वास्तविक अभिनन्दन है । इस निर्भीक वृत्तिके प्रति मेरा हार्दिक वन्दन । स्वाभिमानी व्यक्तित्व ● श्री राजमल पवैया, भोपाल परम आदरणीय सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्री से मेरा परोक्ष परिचय तो बहुत पुराना है । प्रत्यक्ष परिचय तो सन् १९५० में हुआ । दिसम्बर सन् १९३३ में जब अ० भा० दि० जैन परिषद्का अधिवेशन जनता प्रसादजी कलरैयाकी अध्यक्षतामें हुआ, तब अमरावती के स्वनामधन्य प्रो० हीरालालजीने धवलाके प्रकाशनकी योजना समाजके सामने रखी, उस योजनाको मूर्तरूप दिया विदिशा के श्रीमंत सेट लक्ष्मीचन्दजीने । उस समय अधिवेशनमें जो हर्ष उल्लास छाया वह आज भी चित्रपटकी भाँति आँखों में झूलता है । मा० पण्डितजीने अनेकों ग्रन्थोंका संपादन तो किया ही, कई स्वतन्त्र ग्रन्थोंकी भी रचना की । वर्ण, जाति और धर्म" लिखकर आपने रूढ़िवादियोंपर भयंकर प्रहार करके आगमका अर्थ समाजके सामने सरल और सुबोध भाषामें प्रमाण सहित रखा, इस ग्रन्थसे पोंगापंथियोंकी चूलें हिल गईं, आज तक वे इसका आगम सम्मत उत्तर नहीं दे सके । आध्यात्मिक संत पूज्य कानजी स्वामीसे आपके बड़े मधुर सम्बन्ध रहे, सिद्धान्तों पर स्वामीजी आपसे सदैव चर्चा करते रहते थे और परामर्श भी करते थे । आपकी समयसार कलशकी हिन्दी टीका पर तो स्वामीजी इतने मुग्ध हुए कि उन्होंने इसपर कई बार प्रवचन किये । आप निरन्तर साहित्य साधना में लीन रहते हैं, आज भी कई महत्वपूर्ण ग्रन्थोंकी टीका कर रहे हैं । शारीरिक स्वास्थ्य की घोर प्रतिकूलतामें भी आप जैन साहित्यकी सेवामें अपना जीवन समर्पित किये हुए हैं । पूज्य पण्डितजी समाजमें चोटी के महान् विद्वान्, सिद्धान्तोंके ज्ञाता निर्भीक वक्ता । आपने अपना संपूर्ण जीवन स्वाभिमानपूर्वक स्वावलम्बनसे बिताया है । प्रतिकूल परिस्थितियोंमें भी आपकी दृढ़ता एवं स्मित हास्य दर्शनीय होता है । स्पष्ट राय देनेमें आप कभी हिचकते नहीं हैं । शंकाओंके समाधान में आपका कोई जवाब नहीं है । जैन धर्मके सिद्धान्तों की रक्षाका भाव आपमें कूटकूट कर भरा है । धर्म प्रचारके लिए आप इस ८३ वर्षकी वृद्धावस्थामें भी युवकोंकी तरह जागरूक रहते हैं । आप शतायुसे भी अधिक जीवित रहते हुए जैन साहित्यकी सेवा करते रहें, यही मेरी हार्दिक भावना है । Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ४ साहित्य सर्जना धर्म और दर्शन • इतिहास तथा पुरातत्व अनुसंधान तथा शोधपरक • समाज एवं संस्कृति पत्रकारिता एवं विविध Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म और दर्शन १. जैनधर्म २. हिंसा और अहिंसा ३. विश्वशान्ति और अपरिग्रहवाद ४. जैनधर्म और वर्ण व्यवस्था ५. देव-पूजा ६. गुरूपास्ति ७. स्वाध्याय ८. संयम ९. तप १०. दान ११. सम्यग्दर्शन १२. स्वावलम्बी जीवनका सच्चा मार्ग १३. साधु और उनकी चर्या १४. मुनि और श्रावक धर्म १५. जैनदर्शनका हार्द १६. कार्य-कारणभाव मीमांसा १७. अनेकान्त और स्याद्वाद १८. भावमन सम्बन्धी वाद और खुलासा १९. भावमन और द्रव्यमन २०. महाबंध : एक अध्ययन २१. बन्धका प्रमुख कारण : मिथ्यात्व २२. श्रमण परम्पराका दर्शन २३. केवली जिन कवलाहार नहीं लेते २४. षट्कारक-व्यवस्था २५. स्वभाव-परभाव विचार Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म जिसे लोकमें जैनधर्मके नामसे अभिहित किया जाता है, वह अपने स्वावलम्बन प्रधान दर्शनका धनी होनेके कारण व्यक्ति-स्वातन्त्रकी प्राणप्रतिष्ठा करने वाला लोकोत्तर धर्म है। उसके अनुसार लोकमें जड़ और चेतन जितने भी (अपनी-अपनी स्वतन्त्र सत्ता रखने वाले) पदार्थ हैं, वे सब अपने अन्वयी स्वभावके कारण ध्रुव होकर भी अपने व्यतिरेकी स्वभावके कारण स्वयं अपनी पर्यायोंके कर्ता होकर विवक्षित पर्यायसे पर्यायान्तर रूप जीवन में प्रवाहित होते रहते हैं। यह उनका अपना जीवन है। इसमें अन्य किसीका हस्तक्षेप नहीं है। जैसा कि आगमसे ज्ञात होता है कि द्रव्य छह हैं । उनके नाम हैं-जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल । संख्याकी दृष्टिसे जीव अनन्त हैं । पुद्गल उनसे अनन्तगुने हैं। पुद्गलोंका मूल रूप परमाणु है । इस द्रव्यकी गणनामें मुख्य रूपसे परमाणु ही विवक्षित है। धर्म, अधर्म और आकाश ये प्रत्येक एक-एक हैं तथा काल द्रव्य अणुरूप होकर असंख्यात है। - इन छह द्रव्योंमें जो आकाश द्रव्य है उसके ठीक मध्यमें लोकाकाश है, इस कारण आकाश द्रव्य दो भागोंमें विभक्त हो गया है-लोकाकाश और अलोकाकाश । जो आकाश शेष पाँच द्रव्योंका आधार है, वह लोकाकाश है तथा शेष अलोकाकाश है। सवाल यह है कि जब प्रत्येक द्रव्य अपने-अपने जीवन-प्रवाहमें परनिरपेक्ष है, तब यह जीव नामक पदार्थ अन्यके निमित्तसे परतंत्रताको स्वीकार कर क्यों तो पराधीन बनता है और पुद्गल भी परमाणुरूप अपने मूल स्वभावको छोड़कर क्यों स्कंध अवस्थाको धारण करता रहता है ? सवाल हृदयंगम करने लायक है । समाधान यह है कि पुद्गलका तो ऐसा स्वभाव ही है। वह चाहे स्कंध अवस्थामें रहे और चाहे परमाण अवस्थामें रहे। चाहे उसकी परनिरपेक्ष स्वभाव पर्याय हो। परसापेक्ष विभाव पर्याय ही क्यों न हो? दोनों अवस्थाओंमें उसमें बंधने और छुटनेका गुण है। जब बंध अवस्थामें रहता है तब उसे स्कंध कहते हैं और जब मुक्त अवस्थामें रहता है, तब उसे परमाणु कहते हैं। किन्तु जीवोंकी चाल इससे सर्वथा भिन्न है। उनका सदा एक रूप रहनेवाला मूल स्वभाव न तो बंध का ही कारण है और न मुक्ति का ही कारण है। जिसे हम बंध और मोक्ष शब्दसे अभिहित करते हैं, वह उनकी अवस्था ही है । मूल स्वभाव तो जैसा पहिले संसार अवस्था में रहता है, ठीक वही मोक्ष अवस्थामें भी बना रहता है। इससे सिद्ध हुआ कि अवस्थाका नाम ही बंध है और स्वयंमें कारण विशेषके मिलनेपर जब वह संसार अवस्था (बंध अवस्था) विलयको प्राप्त होकर मात्र मूल आत्मा स्वभाव पर्याय सहित शेष रह जाता है, तो उसीका नाम मोक्ष है। यह तो न्यायका सिद्धान्त ही है कि कारणके बिना कार्य नहीं होता। साथ ही यह भी नियम है कि स्वयं ही वस्तु अपने व्यतिरेकी स्वभावके कारण कार्यरूपसे परिणमती है। साथ ही यह भी अकाट्य नियम है कि प्रतिसमय होनेवाले प्रत्येक परिणमनके समय उसका कोई बाह्य निमित्त अवश्य होता है। इससे सिद्ध है कि यह संसारी जीव अनादिसे स्वयं ही अज्ञानी और रागीद्वेषी हो रहा है और अनादिसे उसका बाह्य Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ निमित्त कर्मबन्ध भी बना चला आ रहा है। जैसे बीजसे वृक्ष और वृक्षसे बीजकी संतति अनादि है, उसी प्रकार जीव और कर्मबन्धकी परम्परा भी अनादि है। किन्तु जैसे विवक्षित वृक्ष और उसके बीजका अभाव हो जानेपर उनकी परम्परा नहीं चलती, उसी प्रकार संसारी जीवके अज्ञान और रागद्वेषके साथ बन्धक अभाव हो जानेपर, उस जीवके संसारकी परम्परा भी नहीं चलतो । इसीका नाम मोक्ष है । इस प्रकार इतने विश्लेषणसे हम जानते हैं कि स्वयं स्वीकारकी गयी परालम्बन प्रधानवृत्तिके कारण ही इस संसारी जीवके अपने जीवन में अज्ञान, असंयम और राग-द्वेष आदि दोषोंका संचार होता है। और इस कारण यह जीव पर-पदार्थोंसे अपनी आत्माको युक्त करता है; पर पदार्थ नहीं । इसलिये अपने में व्यक्ति स्वातन्त्र्यकी प्राण-प्रतिष्ठा करने के लिये जहाँ अपनी बुद्धिमें मूल स्वभावके अवलम्बन पूर्वक उनकी भावना द्वारा अज्ञान और रागद्वेषादि पर-संयोगी भावोंसे मुक्त होना आवश्यक है वहीं उनके उपजीवी परपदार्थों का क्रमशः ज्ञापन करते हए शरीरातिरिक्त बुद्धि पूर्वक स्वीकार किये गये, उन सब पदार्थोसे वियुक्त होना भी आवश्यक है। यह नहीं हो सकता कि बुद्धिपूर्वक संयोग भी बनाये रखा जाय और मुक्तिका मार्ग भी प्रशस्त हो जाये । संयोग का कारण अज्ञान और रागद्वेष है । इसलिये इन दोषोंका परिहार करनेके लिये संयोगके प्रति अनास्थापूर्वक, उनका त्याग करना आवश्यक है । तात्पर्य यह है कि जैसे स्त्री, पुत्र, कुटुम्ब और धनादि पर-पदार्थोंको बुद्धिपूर्वक छोड़कर एकाकी हुआ जा सकता है, वैसे इस पर्यायमें रहनेकी आयुका अन्त हुए बिना शरीरसे मुक्त होना सम्भा नहीं है । शरीरसे मूर्छा छोड़ी जाती है और वस्त्रादि बाह्य पदार्थोंका बुद्धिपूर्वक त्याग किया जाता है। अतः आत्माराधनाका इच्छुक प्राणी शरीरमें ममत्वरूप मूर्छाका त्याग करता है और वस्त्रप्रमुख पर-पदार्थोंका बुद्धिपूर्वक त्याग करता है। इतना अवश्य है कि जब तक अपनी पुरुषार्थहीनताके कारण परावलम्बनके प्रतीक-स्वरूप बाह्य वस्तुओंका एकदेश त्याग करता है. तबतक उसे गहस्थ कहते हैं। इसका जीवन जलमें रहते भिन्न कमलके समान होता है। कक्षा-भेदसे इसके अनेक भेद हैं। जिस गहस्थके अन्तमें एक लंगोट मात्र परिग्रह रह जाता है, उसे ऐलक कहते हैं। यह मुनिका छोटा भाई है। मुनि के साथ वन ही इसका जीवन है । वह तप और शरीरकी स्थितिका साधन जानकर मात्र आहार ग्रहण करनेके लिये गाँवमें गृहस्थके घर जाता है। किन्तु जब वह परपदार्थोंसे पूरी तरह विरक्त होकर पूर्ण स्वावलम्बनके प्रतीकस्वरूप गुरुसाक्षी पूर्वक श्रमणदीक्षाको स्वीकार कर ध्यान और अध्ययनके साथ आत्माराधनाको ही अपना प्रधान लक्ष्य बना लेता है, तब वह पूर्णरूपसे श्रमण धर्मका अधिकारी माना जाता है। यह जैनधर्मका मूलरूप है । गृहस्थधर्म इसका अपवाद है। इसके प्रयोजन विशेषके कारण आचार्य, उपाध्याय और साधु ये तीन भेद भले ही किये गये हों; पर हैं वे सब श्रमण (साधु) ही। "श्रमण" शब्द "समण" शब्दका संस्कृत रूप है। इससे तीन अर्थ फलित होते हैं-श्रम. सम और शम । इससे हम जानते हैं कि श्रमण वह है जो श्रमणोचित क्रियाओंको दूसरेकी सहायताके बिना स्वयं सम्पन्न करता है। श्रमण (समण) वह है जो प्राणीमात्रमें समता परिणामों से युक्त होकर अपना जीवन यापन करता है । तथा श्रमण (शमण) वह है जो रागद्वेषका परिहार करके आत्माराधनामें तत्पर रहता है। Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : १०९ इसके लिये इस प्राणीको क्या करना चाहिये, इसकी क्रमबद्ध प्ररूपणा जैन साहित्यमें दृष्टिगोचर होती है। उसे संक्षेपमें मोक्ष-मार्ग शब्दसे अभिहित करते हुए बतलाया है कि परसे भिन्न आत्मा की श्रद्धा (अनुभति), परसे भिन्न आत्माका ज्ञान, और परसे भिन्न आत्मामें अवस्थिति ही, साक्षात् मोक्ष-मार्ग है जो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र स्वरूप है। यह अज्ञान, असंयम और रागद्वेषसे मुक्त होनेका मार्ग होनेसे "मोक्षमार्ग" शब्द द्वारा अभिहित किया गया है। यह जीव जब इस मार्गको अपना जीवन बना लेता है. तब उसके परिणाम स्वरूप कर्मबन्ध तो स्वयं रुक ही जाता है, संचितकर्म भी आत्मासे जुदा हो जाता है । उसके लिये अलगसे पुरुषार्थ करनेकी आवश्यकता उसे नहीं करनी पड़ती। जो एकाकी आत्माकी प्राप्तिका मार्ग है, वही कर्मबन्धसे मक्तिका मार्ग है। अपनेको अपना जानकर प्राप्त करना हो परसे मुक्ति है-यह जिनागमका सार हैं । परमार्थसे देखा जाये, तो पर-पदार्थ कभी भी अपने नहीं हुए, अज्ञानवश ही हमने उन्हें अपना माना है । अतः अज्ञानसे मुक्त होना ही जीवनका प्रधान लक्ष्य होना चाहिये । अभी तक हमने जो कुछ भी लिखा है वह अध्यात्म को मुख्य करके ही लिखा है। उसका व्यवहार पक्ष भी उतना ही प्रांजल है और हृदयंगम करने लायक है । __आत्माश्रित भाव का नाम ही आध्यात्म है और पराश्रितभाव का नाम ही व्यवहार है । ये दोनों युगपत् होते हैं । जब यह जीव आत्मभावना की भूमिका में एकाग्र होता है, तब मुख्यता से अध्यात्मकी चरितार्थता बन जाती है और जब देव-गुरु-शास्त्र और व्रतादिक को आलम्बन कर प्रवृत्ति को मुख्यता देता है, तब व्यवहार की उपयोगिता स्वीकार की गयी है। इसके लिये देव-गुरु और शास्त्र के स्वरूप को हृदयपटल पर अकित कर लेना उपयोगी माना गया है । क्योंकि देव आत्मा का प्रतिनिधि है । इसके स्वरूपकी यथावत् श्रद्धा होने पर आत्माका साक्षात्कार होना सम्भव माना गया है। गुरु देवत्वकी प्राप्तिके मार्गको दिखाने के लिये दीपकके समान है और शास्त्र स्वयंका ज्ञान कराता हुआ उस विधिका प्ररूपण कराता है जिस विधिको अपनाकर संसार के दलदलमें फंसा हुआ यह प्राणी उससे उद्धारके मार्गको आत्मसात करने में समर्थ होता है । जैसा कि भगवान् कुन्दकुन्दके वचनों से ज्ञात होता है-रत्नत्रयमें प्रथम स्थान सम्यग्दर्शनका है । उक्त तीनका आगम प्रतिपादित जो स्वरूप है, उसका तीन मूढ़ता, छह अनायतन, आठ मद और शंकादि आठ दोषरहित तथा आठ अंग सहित श्रद्धान, रुचि प्रतीति करना सम्यग्दर्शन है, यह धर्मका मूल है । देवके लक्षणमें तीन बातोंकी मुख्यता है । वह वीतराग होना चाहिये, सर्वज्ञ होना चाहिये और हितोपदेशी होना चाहिए । इसी प्रकार गुरुके लक्षणमें भी इन बातोंकी मुख्यता रहती है-उसे पंचेन्द्रियके विषयोंसे विरक्त होना चाहिए, लौकिक जनोंके सम्पर्क, तथा आरम्भ और वस्त्रादि परिग्रहसे रहित होना चाहिए तथा ज्ञान-ध्यान और तपकी आराधनामें तत्पर होना चाहिए। देवकी वाणीका नाम ही शास्त्र है, वह वीतरागताका मार्ग प्रशस्त करने वाली होती है। जैसे ब्राह्मण धर्ममें संध्याकर्म करना मुख्य माना गया है, उसी प्रकार जैनधर्ममें प्रतिदिन इन तीनकी उपासना करना आवश्यक कृतिकर्म माना गया है । यह मनि और श्रावक दोनोंका प्रथम कृतिकर्म है। इसके स्थानमें अधिकतर भाई-बहिन शासन देवताके नाम पर रागी-द्वेषी क्षेत्रपाल, धरणेंद्र, पद्मावती आदिकी उपासना करने लगे हैं । इस समय ऐसे मुनि भी मिलेंगे जो इस कल्पित मार्गके प्रचार में लगे रहते हैं । वे विचारे यह जानने में असमर्थ है कि जो स्वयं मोहा और रागो-द्वेषी हैं और संसार-समुद्रको पार करने Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११०: सिद्धान्ताचार्य पं० फलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ में स्वयं असमर्थ हैं, वे दूसरेको कैसे तारने में समर्थ हो सकते हैं ? लौकिक कामनाकी पूर्तिका होना पुरुषार्थ और भाग्याधीन है। इनकी वन्दना, पूजा करनेसे संचित पुण्यबन्धकी हानि होती है और वर्तमानमें पाप बन्धका भागी होना पड़ता है। इसलिये जिस प्रकार अज्ञानमूलक यह मूढ़ता छोड़ने योग्य है, उसी प्रकार शेष मढ़ता और अनायतनोंके विषयमें भी जान लेना चाहिये। आठ मदोंमें ज्ञानमदका प्रथम स्थान है, वर्तमानमें ज्ञानकी प्राप्ति होना क्षयोपशमके आधीन है और क्षयोपशम यह परमार्थ है । इसलिये अध्यात्ममें तो इसे हेय माना ही गया है; व्यवहार में भी वह हेय ही है। क्योंकि वह प्रतिष्ठाका साधन न होकर आत्म-प्राप्तिका साधन है। उसमें जो अध्यात्म-प्ररूपणाको ही मोक्षमार्गमें एकान्त साधन मानकर, उसके अहंकारसे गर्विष्ठ हुए, समाजको दिग्भ्रमित करने में लगे रहते हैं, उनको हम किन शब्दोंमें याद करें ? दूसरा और तीसरा स्थान जातिमद और कुलमदका है । यह सब जानते हैं कि मन्दिर, मुनि, आर्यिका, श्रावक और श्राविका ये सब धर्मके आयतन हैं। वर्तमानमें आप इनमेंसे किसीके पास भी चले जाइये, सर्वत्र जाति और कुलका बोलबाला दिखायी देगा । समस्त आचार्योंका तो कहना है कि जाति और कुल देहके आश्रित देखे जाते हैं और देहमें ममताका नाम ही संसार है । इसलिये जो इनके बड़प्पन मानने में अपना बड़प्पन देखते हैं, वे त्रिकाल तक अनन्त संसारके पात्र बने रहते हैं। विवेकसे देखा जाय तो शुद्धि अन्यका नाम है और छुआछुत अन्यका नाम है, वह कल्पना मात्र है । आजीविकाके लिये पुराने कालमें जिन विभागोंकी स्थापना की गयी थी, उन्होंने वर्तमानमें जन्मना जातिका स्थान ले लिया है, जिससे संसार दुःखके गर्त में फंसता चला जा रहा है । इससे धर्मके प्रचार-प्रसारमें जो बाधा पहुँची है, वह कल्पनातीत है। बहुत दिन पहलेकी बात है, काशी विद्यापीठ, बनारसमें दर्शनगोष्ठीका आयोजन हुआ था। इसमें दादा धर्माधिकारी मख्य वक्ता थे। उन्होंने जैनदर्शनकी व्याख्या करते हए कहा था कि वर्तमानमे है, बनते नहीं"। उनकी इस टिप्पणीको सुनकर हम और पण्डित महेन्द्रकुमार जी न्यायाचार्य हतप्रभ होकर रह गये । उनकी इस बातका हम क्या उत्तर देते ? हम दोनोंके पास इसका कोई उत्तर नहीं था। जब बाबा साहब डॉ० अम्बेडकर भारत सरकारके कानून मन्त्री थे और उन्होंने अछूतोंको बौद्ध बनाकर उनकी स्वतन्त्र समाजकी स्थापना कर दी थी, ऐसे समयमें हम दोनों भाई उनके निवास स्थान पर उनसे मिलने गये । हम दोनोंकी उपस्थितिमें उनके लिये जब चाय बनकर आयी, तब उन्होंने मात्र इसलिये हम दोनोंसे आग्रह नहीं किया कि हम दोनों उनके यहाँ चाय नहीं ले सकेंगे। चर्चाके प्रसंगसे हम दोनोंने उनसे यह पूछा कि आपने बौद्ध धर्मकी ही दीक्षा क्यों ली और दूसरोंको दिलायी? जैनधर्म में क्या कमी थी कि जिससे न तो आपने स्वयं ही जैनधर्मकी दीक्षा ली और न दूसरोंको ही इसके लिये प्रेरित किया। उनका एक उत्तर था कि "यद्यपि जैनधर्म जातिवादसे मुक्त है, यह हम जानते हैं, परन्तु आजका जैन जातिवादके भंवर में फंसा हुआ है। यदि हम जैनधर्म स्वीकार भी करते, तो क्या आजका जैन हमें अपने बराबरीका स्थान देनेको तैयार हो जाता ? हम यह अच्छी तरहसे जानते हैं कि हमारा जैन बन जानेके बाद भी वही स्थान बना रहता जो हिन्दू रहते हुए बना हुआ था । हम इतना अवश्य कर सकते हैं कि बम्बई में जहाँ हमारी संस्था है। वहाँ बौद्ध मन्दिरके बगलमें समाजकी सहायतासे जैन मन्दिर बनानेको तैयार हैं। क्या आपकी समाज इसे स्वीकार करेगी ?" एक घटना मेरे जेल जीवनकी है । जेलमें मेरे बीमार पड़ जानेपर मुझे अस्पतालमें भेज दिया गया। वहाँ भोजन में दूध और दलिया मिलता था। दूधमें आरारोट जैसी कुछ वस्तु मिली रहती थी, इसलिये उसे Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : १११ मैं पी नहीं पाता था। दलिया मात्र ही मेरा भोजन रह गया था। इससे मैं क्षुधा से पीड़ित रहने लगा। दूध मैं अपने बगलमें साथी को दे देता था। वह नाई था। ऐसा कई दिन हुआ । अन्त में उसने मेरी पीड़ा जानकर उसे दूर करनेका उपाय सोचकर वह किसी प्रकार अस्पतालसे निकलकर किसी अधिकारीके यहाँ गया। और सेवावत्ति करके दो फलका और करेलाको शाक प्राप्त कर ली और आकर मेरे पास रखकर आग्रह करने लगा कि यह मैं आपके लिये लाया हूँ। आप निःसंकोच ले लीजिये। मैं असमंजस में पड़ गया । मैं सोचने लगा कि श्रम तो उसने किया है, उसके श्रमका मैं कैसे फायदा उठाऊँ ? मेरे मना करने पर वह रोने लगा और कहने लगा कि "आप मेरा ख्याल रखते हैं और मैं आपके कष्ट में संभागी न बनें, यह कैसे हो सकता है ?" अन्तमें बँटवारा करके उसे खाया और खाते हुए मैंने उससे कहा कि इस चहार-दीवारीके भीतर हम दोनों भाई-भाई हैं-मनुष्य है । बाहर जानेपर फिर हमारा आपका कोई रिश्ता नहीं रहेगा। हम वैश्य बन जायेंगे और तुम नाई। जहाँ तक हम सोच सकते हैं; इस जातिवाद और कुलवादने जैनधर्मकी बहुत हानि की है। यह ज्ञान मदसे भी बड़ा है। ज्ञानमद तो पढ़े-लिखोंमें ही होता है और खासकर गद्दीपर बैठनेपर तो कहना ही क्या है ? परन्तु यह जातिवाद और कुलवाद व्यक्ति-व्यक्तिके जीवन में घुसा हुआ है। हमने बहुत अवसर खोया और खोते जा रहे हैं। हम नहीं जानते कि हमें अपने मूलरूपमें आनेका फिर कभी अवसर आयेगा या नहीं? हम पहिले सम्यग्दर्शनके आठ अंगोंका उल्लेख कर आये हैं। उनमें एक स्थितिकरण अंग है। इसका आशय यह है कि व्यक्तिके जीवनमें किसी प्रकारकी चूक रहनेपर भी केवल इस कारण उसे अपनेसे जुदा नहीं करना चाहिये। परंतु हम देखते हैं कि वर्तमानमें पूरा समाज उसकी महत्ताको भल गया है। इस कारण हमने खोया बहत, पाया कुछ भी नहीं। और अब स्थिति यह है कि कोई किसीकी सुनता ही न हम जिनसे कुछ सीखनेकी आशा करते है, वे हमसे भी बदतर होते जा रहे हैं । शुद्धिके नामपर आहारादिको निमित्त कर कहीं किसी का बहिष्कार करनेके लिये प्रोत्साहन दिया जाता है और कहीं अन्य किसीका बहिष्कार करनेके लिये प्रोत्साहन दिया जाता है। इसी तरह एक अंगका नाम वात्सल्य भी है। पुराने लोगोंमें इसके कुछ चिह्न दिखायी देते थे। अब कोई किसीको पूछता ही नहीं है। परस्पर पुण्य-पापका नाम लेकर टीका-टिप्पणी अवश्य करेंगे। पर कोई किसीकी संभाल करनेको तैयार नहीं दिखायी देता। इसके बाद भी अपनेको परम धर्मात्मा और पुण्यात्मा माननेसे नहीं हिचकिचाते । वे विचारे नहीं जानते कि वात्सल्यका क्या अर्थ है ? यह हमें बोहरे व पारसियोंसे सीखना चाहिये। आ० कुंदकूदने चारित्रके दो भेद लिखे हैं-सम्यक्त्वाचरण चारित्र और संयमाचरण चारित्र । संयमाचरण चारित्रके सम्बन्धमें हम पहिले उल्लेख कर आये हैं। सम्यक्त्वाचरण चारित्र संयमाचरण चारित्रके पूर्व की अवस्था है। इसमें सात व्यसनोंका त्याग और आठ मूलगुणोंको स्वीकार करना मुख्य है। जो देव-शास्त्रगुरु की उपासनापूर्वक उक्त व्रतोंको स्वीकार कर लेता है, उसे ही सम्यक्त्वाचरण चारित्रका अधिकारी माना गया है । प्रत्येक गृहस्थके जीवनमें इन नियमोंका होना आवश्यक है। इससे प्रत्येक व्यक्तिका जीवन तो संस्कारी बनता ही है, अपने परिवारको और समाजको भी संस्कारी बनाने में सहायता मिलती है । जैसे खराद पर रखे हुये मणिमें चमक आती है, उसी प्रकार उक्त नियमोंके पालन करनेसे व्यक्तिके जीवनमें विशेषता परिलक्षित होने लगती है । सामान्यतः यह जैन जीवन है। जैनधर्मका सार भी इसे ही कहा जा सकता है । | Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंसा और अहिंसा "प्रमत्त योगात प्राणव्यपरोपणं हिंसा" इस सूत्रमें प्रमत्तयोगसे प्राणोंको विनाश करनेको हिंसा बतलाया है। इससे ज्ञात होता है कि यद्यपि प्राणोंका विनाश करना हिंसा है, पर वह प्रमत्तयोगसे किया हुआ होना चाहिए । जो प्राणोंका विनाश प्रमत्त योगसे अर्थात् राग-द्वेष रूप प्रवृत्तिके कारण होता है वह तो हिंसा है शेष नहीं, यह इस सूत्रका तात्पर्य है। यहाँ प्रमत्त योग कारण है और प्राणोंका विनाश कार्य है। आगममें प्राण दो तरहके बतलाये हैं-द्रव्य प्राण और भाव प्राण । प्रमत्तयोगके होनेपर द्रव्यप्राणोंका विनाश होता ही है ऐसा कोई नियम नहीं है, हिंसाके अन्य निमित्त मिल जानेपर द्रव्यप्राणोंका विनाश होता भी है और नहीं मिलनेपर नहीं भी होता है । इसी प्रकार कभी-कभी प्रमत्तयोगके नहीं रहने पर भी द्रव्यप्राणोंका विनाश देखा जाता है। उदाहरणार्थ-साघु ईयर्यासमितिपूर्वक गमन करते हैं। उनके रंचमात्र भी प्रमत्त योग नहीं होता, तथापि कदाचित् गमन करनेके मार्गमें अचानक क्षुद्र जन्तु आकर और पैरसे दबकर मर जाता है। यहाँ प्रमत्तयोगके नहीं रहनेपर भी प्राण व्यपरोपण है, इसलिए मुख्यतया प्रमत्तयोगसे जो भाव प्राणोंका विनाश होता है वह हिंसा है, ऐसा यहाँ तात्पर्य समझना चाहिए । हिंसाका मथितार्थ जैन आगममें हिंसा विकारका पर्यायवाची माना गया है । जीवनमें जो भी विकार विद्यमान है उससे प्रतिक्षण आत्मगुणोंका ह्रास हो रहा है। वह विकारभाव कभी-कभी भीतर ही भीतर काम करता रहता है और कभी-कभी बाहर प्रस्फुटित होकर उसका काम दिखाई देने लगता है। किसी पर क्रोध करना, उसको मारनेके लिए उद्यत होना, गाली देना, अपमान करना, झूठा लांछन लगाना, सन्मार्गके विरुद्ध साधनोंको जुटाना आदि उस विकारके बाहरी रूप हैं और आत्मोन्नति या आत्मोन्नतिके साधनोंसे विमुख होकर रागद्वेष रूप परिणतिका होना, उसका आभ्यान्तर रूप है। ऐसे विकार भावसे आत्मगुणोंका हनन होता है, इसलिए तत्त्वतः इसीका नाम हिंसा है। __ मुख्यतया प्रत्येककी दृष्टि अपने जीवनके संशोधनकी न होकर बाहरकी ओर जाती है। वह इतना ही विचार करता है कि मैंने अन्य जीवोंपर दया की, उन्हें नहीं मारा तो मेरे द्वारा अहिंसाका पालन हो गया । वह अपने जीवनका रंचमात्र भी संशोधन नहीं करता, भीतर छिपे हुए विकारभावको नहीं देखता । इससे वह हिंसाको करते हए भी अपनेको अहिंसक समझ बैठता है। जगतमें जो विशृंखलता फैली हुई है वह इसका प्रांजल उदाहरण है । तत्त्वतः भूल कहाँ हो रही है उसकी खोज होनी चाहिए। इसके बिना हिंसासे अपनी रक्षा नहीं हो सकती और न अहिंसाका मर्म ही समझमें आ सकता है। जीवनकी सबसे बड़ी भूल ही हिंसाका कारण है मनुष्यके जीवनमें यह सबसे बड़ी भूल है, जिससे वह ऐसा मान बैठा है कि दूसरेका हिताहित करना मेरे हाथमें है । जिसने जितने अधिक बाहरी साधनोंका संचय कर लिया है वह उतना अधिक अपनेको शक्तिमान् अनुभव करता है । साम्राज्य-लिप्सा, पूँजीवाद, वर्गवाद और संस्थावाद इसका परिणाम है । ईश्वरवादको इसी मनोवृत्तिने जन्म दिया है। जगत्में बाहरी विषमताका बीज यही है। अतीत कालमें जो संघर्ष हुए या वर्तमानमें जो भी संघर्ष हो रहे हैं उन सबका कारण यही है। जब मनुष्य अपने जीवनमें इस तत्त्वज्ञानको | Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : ११३ स्वीकार कर लेता है कि अन्यसे अन्यका हित या अहित होता है तब उसकी अंतर्मुखी दृष्टि फिर कर बहिर्मुखी हो जाती है। वह बाह्य साधनोंके जटाने में लग जाता है. उनके जटानेमें सफल होने पर उसे अ मानता है । जीवनमें बाह्य साधनोंको स्थान नहीं है यह बात नहीं है किन्तु इसकी एक मर्यादा है । दृष्टिको अन्तर्मुखी रखते हुए अपने जीवनकी कमजोरीके अनुसार बाह्य साधनोंका आलम्बन लेना एक बात है किन्तु इसके विपरीत बाह्य साधनोंको ही सब कुछ मान बैठना दूसरी बात है। तत्त्वतः प्रत्येक पदार्थ स्वतन्त्र और अपनेमें परिपूर्ण है। उसमें जो भी परिवर्तन होता है वह उसकी अपूर्णताका द्योतक न होकर उसकी योग्यतानुसार ही होता है, इसलिए किसी भी पदार्थको शक्तिका संचय करनेके लिए किसी दूसरे पदार्थकी आवश्यकता नहीं लेनी पड़ती। निमित्त इतना बलवान नहीं होता कि वह अन्य द्रव्यमें कुछ निकाल दे या उसमें कुछ मिला दे। द्रव्यमें न कुछ आता है और न उसमेंसे कुछ जाता ही है । अनन्तकाल पहले जिस द्रव्यका जो स्वरूप था आज भी वह जहाँका तहाँ और आगामी कालमें भी वह वैसा ही बना रहेगा। केवल पर्याय क्रमसे बदलना उसका स्वभाव है, इसलिए इतना परिवर्तन इसमें होता रहता है। माना कि यह परिवर्तन सर्वथा अनिमित्तक नहीं होता है, किन्तु इसका यह भी अर्थ नहीं कि निमित्ताधीन होता है । जैसे वस्तुकी कार्यमर्यादा निश्चित है, वैसे सब प्रकारके निमित्तोंकी कार्यमर्यादा निश्चित नहीं। धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, कालद्रव्य और आकाशद्र व्य--ये ऐसे निमित्त है जो सदा एक रूपमें कार्य के प्रति निमित्त होते हैं। धर्मद्रव्य सदा गतिमें निमित्त होता है। अधर्मद्रव्य स्थितिमें निमित्त होता है। कालद्रव्य प्रति समयकी होनेवाली पर्यायमें निमित्त होता है और आकाश द्रव्य अवगाहनामें निमित्त होता है। इन द्रव्योंके निमित्तत्वकी यह योग्यता नियत है। इसमें त्रिकालमें भी अन्तर नहीं आता। इन द्रव्योंका अस्तित्व भी इसी आधारपर माना गया है। किन्तु इनके सिवा प्रत्येक कार्यके प्रति जो जुदे-जुदे निमित्त माने गये हैं, वे पदार्थके स्वभावगत कार्यके अनुसार ही निमित्त कारण होते हैं। वे अमुक ढंगसे कार्यके प्रति निमित्त हैं ऐसी व्यवस्था उनकी निश्चित नहीं है । उदाहरणार्थ एक युवती एक ही समयमें साधुके लिए वैराग्यके होने में निमित्त होती है और रागीके लिए रागके होने में निमित्त होती है । इसका यही अर्थ है कि जिस पदार्थकी जिस काल में जिस प्रकारके स्वभावगत कार्यमर्यादा होती है, उसीके अनुसार अन्य पदार्थ उसके होने में निमित्त कारण होता है। इसलिए जीवनमें निमित्तका स्थान होकर भी वस्तुकी परिणतिको उसके आधीन नहीं माना जा सकता। यह तात्त्विक मीमांसा है, जिसका सम्यग्दर्शन न होनेके कारण ही जीवनमें ऐसी भूल होती है जिससे यह दूसरेके बिगाड़-बनावका कर्ता अपनेको मानता है और बाह्य साधनोंके जुटानेमें जुटा रहता है । तात्त्विक दृष्टिसे विचार करनेपर इस परिणतिका नाम ही हिंसा है । हमें जगत्में जो विविध प्रकार मूलक वृत्तियाँ दिखलाई देती हैं वे सब इनके परिणाम हैं। जगत्की अशान्ति और अव्यवस्थाका भी यही कारण है । एक बार जीवनमें भौतिक साधनोंने प्रभुता पाई कि वह बढ़ती ही जाती है । धर्म और धर्मायतनोंमें भी इसका साम्राज्य दिखलाई देने लगा है। अधिकतर पढ़े-लिखे या त्यागी लोगोंका मत है कि वर्तमानमें जैनधर्मका अनुयायी राजा न होने के कारण अहिंसा धर्मकी उन्नति नहीं हो रही है। मालूम पड़ता है कि उनका यह मत आन्तरिक विकारका ही द्योतक है। तीर्थंकरोंका शारीरिक बल ही सर्वाधिक माना गया है, किन्तु उन्होंने स्वयं अपने जीवनमें ऐसी असत्कल्पना नहीं की थी और न वे शारीरिक बल या भौतिक बलके सहारे धर्मका प्रचार करनेके लिए उद्यत ही हुए थे । भौतिक साधनोंके प्रयोग द्वारा किसीके जीवन की शुद्धि हो सकती है यह त्रिकाल में भी सम्भव नहीं है । उन्मादसे उन्मादकी ही वृद्धि होती है । यह भौतिक साधनोंका उन्माद ही अधर्म है। इससे आत्माकी निर्मलताका लोप होता है और वह इन साधनोंके बलपर संसारपर छा जाना चाहता है। उत्तरोत्तर उसकी Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ महत्वाकांक्षाएं बढ़ती जाती हैं जिससे संसारमें एकमात्र घृणा और द्वेषका ही प्रचार होता है। वर्तमान कालमें जो विविध प्रकारके वाद दिखलाई देते हैं वे इसीके परिणाम हैं । संसारने भीतरसे अपनी दृष्टि फेर ली है। सब बाहरकी ओर देखने लगे हैं । जीवनकी एक भूलसे कितना बड़ा अनर्थ हो रहा है यह समझने और अनुभव करनेकी वस्तु है । यही वह भूल है जिसके कारण हिंसा पनपकर फूल-फल रही है । हिंसाके भेद व उसके कारण __शास्त्रकारोंने इस हिंसाके दो भेद किये हैं-भावहिंसा और द्रव्यहिंसा। भावहिंसा वही है जिसका हम ऊपर निर्देश कर आये हैं। द्रव्यहिंसामें अन्य जीवका विघात लिया गया है। यह भावहिंसाका फल है इसलिए इसे हिंसा कहा गया है। कदाचित् भावहिंसाके अभावमें भी द्रव्यहिंसा होती हुई देखी जाती है, पर उसकी परिगणना हिंसाकी कोटिमें नहीं की जाती है । हिंसाका ठीक अर्थ आत्म-परिणामोंकी कलुषता ही है। कदाचित् कोई जड़ पदार्थको अपकारी मानकर उसके विनाशका भाव करता है और उसके निमित्तसे वह नष्ट, भी हो जाता है, वहाँ यद्यपि किसी अन्य जीवके द्रव्यप्राणोंका नाश नहीं हुआ है तो भी जड़-पदार्थको छिन्न-भिन्न करने में निमित्त होनेवाला व्यक्ति हिंसक ही माना जायगा, क्योंकि ऐसे भावोंसे जो उसके आत्माकी हानि होती है, उसीका नाम हिंसा है। संसारी जीवके कषायमूलक दो प्रकारके भाव होते हैं-रागरूप और द्वेषरूप। इनमेंसे द्वेषमूलक जितने भी भाव होते हैं उन सबकी परिगणना हिंसामेंकी जाती है। कदाचित् ऐसा होता है, जहाँ विद्वेषकी ज्वाला भड़क उठनेका भय रहता है। ऐसे स्थलपर उपेक्षाभावके धारण करनेकी शिक्षा दी गयी है । उदाहरणार्थ--कोई व्यक्ति अपनी स्त्री, भगिनी, माता या कन्याका अपहरण करता है या धर्मायतनका ध्वंस क ता है तो बहुत सम्भव है कि ऐसा करने वाले व्यक्तिके प्रति विद्वेषभाव हो जाय । किन्तु ऐसे समयमें स्त्री आदि की रक्षाका भाव होना चाहिए, उसे मारनेका नहीं । हो सकता है कि रक्षा करते समय उस व्यक्तिकी मत्य हो जाय । यदि रक्षाका भाव हुआ तो वही आपेक्षिक अहिंसा है और मारनेका भाव हआ तो वही हिंसा. है । मुख्यतया ऐसी हिंसाको ही संकल्पी हिंसा कहते हैं । कहीं-कहीं यह हिंसा अन्य कारणोंसे भी होती है शिकार खेलना आदि । सो इसकी परिगणना भी संकल्पी हिंसामें होती है। संकल्पी हिंसा उसका नाम है जो इरादतन की जाती है । कसाई आदि जो भी हिंसा करते हैं उसे भी इसी कोटिकी हिंसा समझना चाहिये, मानाकि उनकी यह आजीविका है पर गाय आदिको मारते समय हिंसाका संकल्प किये बिना वध नहीं हो सकता, इसलिये वह संकल्पी हिंसा है । आरम्भी और संकल्पीहिंसामें इतना अन्तर है कि आरम्भमें गृह निर्माण करना, रसोई बनाना, खेती बाड़ी करना आदि कार्यकी मुख्यता रहती है। ऐसा करते हुए जीव मरते है अवश्य, पर इसमें सीधा जीवनको नहीं मारा जाता, पर संकल्पमें जीव-वधकी मुख्यता रहती है। यहाँ कार्यका श्रीगणेश जीव वधसे ही होता है। रागभाव दो प्रकारका माना गया है-प्रशस्त और अप्रशस्त । जीवन शुद्धिके निमित्तभत पदार्थों में राग करना प्रशस्त राग है और शेष अप्रशस्त राग है। है तो यह दोनों प्रकारका रागभाव हिंसा ही, परन्तु जब तक रागभाव नहीं छूटा है तब तक अप्रशस्त रागसे प्रशस्त रागमें रहना उत्तम माना गया है । इसीसे शास्त्रकारोंने दान देना, पूजा करना, जिन मन्दिर बनवाना, पाठशाला खोलना, उपदेश करना, देशकी उन्नति करना आदि कार्योंका उपदेश दिया है । जीवनमें जिसने पूर्ण स्वावलम्बनको उतारनेकी अर्थात् मुनि धर्मकी दीक्षा ली है, उसे बुद्धिपूर्वक सब प्रकारके रागद्वेषके त्याग करनेका विधान है । क्योंकि बुद्धिपूर्वक किसी भी प्रकारका रागद्वेष बना रहना जीवन Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : ११५ की बड़ी भारी कमजोरी है। इस दृष्टिसे तो सब प्रकारके विकार भावहिंसा ही माने गये हैं । यही कारण है कि मुनिको सब प्रकारकी प्रवृत्तिके अन्तमें प्रायश्चित करना पड़ता है। किन्तु गृहस्थकी स्थिति इससे भिन्न हैं । उसका अधिकतर जीवन प्रवृत्तिमूलक ही व्यतीत होता है । वह जीवनकी कमजोरीको घटाना चाहता है । जो कमजोरी शेष है उसे बुरा भी मानता है, पर कमजोरीका पूर्णतः त्याग करने में असमर्थ रहता है, इसलिये वह जितनी कमजोरीके त्यागकी प्रतिज्ञा करता है उतनी उसके अहिंसा मानी गयी है और जो कमजोरी शेष है वह हिंसा मानी गई है। किन्तु यह हिंसा व्यवहारमूलक ही होती है, अतः इससे इसका निषेध नहीं किया गया है । पहले जिस आपेक्षिक अहिंसाकी या आरम्भजन्य हिंसाकी हम चर्चा कर आये हैं वह गृहस्थकी इसी वृत्तिका परिणाम है, यह हिंसा संकल्पी हिंसाकी कोटिको नहीं मानी गयी है। अहिंसाके ऊपर किये गये आपेक्षका निषेध कुछ लोग हिन्दुस्तानकी परतन्त्रताका मुख्य कारण बौद्ध और जैनोंकी अहिंसाको बतलाते हैं। भा० वा० सन्त सा० लिखते हैं कि-"आज यदि संसारकी प्रवत्तिका स्थल रूपसे अवलोकन किया जावे तो बौद्ध और लोगों के द्वारा मानी हुई अहिंसाको कहीं भी स्थान नहीं मिल सकता है यह स्वीकार करनेमें कुछ भी आपत्ति नहीं मालूम पड़ती है। प्रसंग आनेपर समरांगणमें अपने शत्रु के साथ युद्ध करते हए अपने देश और धर्मकी रक्षा करने के लिए यदि हजारों मनुष्योंकी हिंसा हुई तो भी वह क्षात्र धर्मके विरुद्ध नहीं है। जबतक क्षत्रिय और वीर जातियोंकी ऐसी कल्पना थी तबतक विदेशी लोगोंके द्वारा अपने देशके ऊपर आक्रमण होनेपर अपने देशके वीर लोग उनके साथ युद्ध करके जय संपादन करते थे, इतना ही नहीं यदि आपसमें वैमनस्य भी हुआ तो भी देशके ऊपर आपत्ति आनेपर वे लोग वैमनस्यको भूलकर देशका रक्षण करते थे । परन्तु जैसे-जैसे बौद्धधर्मका प्रसार बढ़ता गया वैसे-वैसे क्षत्रिय और दूसरी जातियोंकी वीरवृत्ति कम होती गई और उसका यह परिणाम हुआ कि अशोकादिक राजाओंके द्वारा अहिंसाकी घोषणा सम्पूर्ण देशोंमें करनेपर शत्रुओंके साथ लड़ते हुए हिन्दू राजाओंका एकसरीखा पराभव होता गया जिसके परिणाम स्वरूप सम्पूर्ण देश परतन्त्र हो गया । अपनी खुशी. से स्वीकार किये हुए इस निःशस्त्रीकरणके लिये जैनधर्मका प्रसार भी कारण हुआ। परमेश्वरने मनुष्यके शरीरमें जो तामसवृत्ति निर्माणकी है उसका योग्य प्रमाणमें और योग्य समयके ऊपर यदि उपयोग नहीं किया तो तामसी जगतमें आत्मसंरक्षण करना अत्यन्त कठिन हो जायगा ।' इस प्रकार श्री सन्तके लिखे हुए लेखका अच्छी तरहसे मनन करनेपर यह निष्कर्ष निकलता है कि हिन्दुस्तानकी परतन्त्रताका और कायरताका कारण जैनधर्म द्वारा स्वीकार की हुई अहिंसा भी है । उनके मतसे अहिंसा और कायरतामें कुछ भी अन्तर नहीं मालूम पड़ता है। यदि एक मनुष्य आपत्तिके समय किसी दूसरे मनुष्यकी रक्षा करता है अथवा वह विना कारण किसीको संकटमें नहीं डालता है तो उनके मतसे वह सबसे बड़ी भयंकर कायरता करता है। यदि श्री सन्त सा० का लिखनेका यह अभिप्राय न होकर किसीके विना कारण अपने देशके ऊपर आक्रमण करनेपर स्वतःके और देशके रक्षण करने के लिये हमें घोरतम हिंसा भी करनी पड़े तो भी वह क्षम्य है यह हो तो इससे जैनधर्मके अहिंसातत्त्वका ही समर्थन होता है। जैनधर्ममें अहिंसाका प्रतिपादन करते हुए यही तत्त्व आगे रक्खा गया है-इससे आत्मसंरक्षण भी होता है और बिना कारण दूसरेकी हानि भी नहीं होती है । परन्तु सन्त सा०का इस साधारणसे तत्त्वके ऊपर ध्यान नहीं गया हो यह बात नहीं, परन्तु उनके इस आक्षेपका अर्थ अपने पड़ोसीके ऊपर दोषारोपण करनेके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं कहा जा सकता है । यदि वे निष्पक्षताके साथ अपने देशके पूर्वेतिहासका निरीक्षण करें तो यह सिद्ध करने में थोड़ी भी Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ कठिनता नहीं हो सकती है कि हमारे देशके पतन और परतन्त्रताका कारण अहिंसा न होकर कुछ देशद्रोही जयचन्द सरीखे मनुष्योंकी काली करतूत ही है । इस काम में संस्कृतिके संघर्ष और ईश्वरवादने भी बहुत कुछ मदद की है । जिस संस्कृति ने "मूर्ख यह प्राणी अपने सुख और दुःखका स्वामी न होकर उसके सुख और दुःखका स्वामित्व ईश्वरकी मर्जी के ऊपर है" इस सिद्धान्त की घोषणा को और संसारको उसीका पाठ पढ़ाया । लेखक महाशय उस संस्कृतिको तो आँखें मींचकर स्वीकार करते हैं परन्तु विकारी भावोंका विश्लेषण करके तात्त्विक आत्मवृत्तिकी द्योतक स्वतन्त्रारूप अहिंसाके ऊपर इस पापके घड़ेके फोड़नेका व्यर्थ ही असफल प्रयत्न करते हैं । फिर भी यह निर्विवाद सत्य है कि जैनधर्मकी अहिंसा यदि उसका पालन करनेवाला विजेता हो तभी उसको अहिंसककी कोटिमें स्वीकार करती है उसे परचक्रका आक्रमण थोड़ा भी सहन नहीं होता है । परचक्रका अतत्व और अहिंसकभाव इन दोनों विरोधी तत्त्वोंके लिये जैनधर्म में प्रतिपादनकी हुई अहिंसा में स्थान नहीं है जो कायर होकर दूसरेकी स्वाधीनता स्वीकार करता है वह अपने विरोधी शत्रुओं को कैसे जीत सकता है, इसके लिए तो उसे पूर्ण स्वतन्त्रताका भोक्ता ही होना पड़ेगा । हाँ ! यह सत्य है कि जैनधर्मकी असा शत्रुके ऊपर विजय तामसिक वृत्तिसे न स्वीकार करके पूर्ण सात्त्विक वृति से संपादन करनेका पाठ पढ़ाती है । उसका यह सबसे प्रथम पाठ है कि तुम अपने विकारी स्वार्थोकी पुष्टिके लिए दूसरोंके ऊपर आक्रमण न करके विकारी स्वार्थोके नाश करनेके लिए दूसरोंके ऊपर आक्रमण करके विजय संपादन करो । ऐसा करते हुए कभी-कभी अपने आत्मीयजनोंके साथ भी विरोध करना पड़ता है, परन्तु वहाँपर भी हमें अपने आत्मीयजनोंको भूलकर विकारी भावोंको ही अपने विरोधका लक्ष्य बनाना चाहिए। इस तरह यदि पूर्ण सात्विकभावों से विरोधी शक्ति के साथ संघर्ष करते हुए हम व्यवहारी जगत्में एक बार असफल हुए भी दीखें तो भी हमारी उस असफलतामें ही सफलताका तत्त्व छिपा हुआ है, यह बात संसारके किसी भी न्याय्ययुद्ध सिद्धकी जा सकती है । जैनधर्मकी अहिंसाकी इस प्रकार तात्त्विक भूमिका होनेपर भी हमें संत सा० के इस आक्षेपका कि "जैनधर्मकी अहिंसा देशकी पराधीनताका कारण हुई" उत्तर उसके व्यवहारी रूपको सामने रख कर दे देना और भी उचित प्रतीत होता है । कारण किसी भी सिद्धान्तके कितने ही सुन्दर होनेपर उसके अनुयायी यदि उसका उचित पालन न करके विकृत तत्त्वको स्वीकार करलें तो उससे लाभके स्थानमें हानिकी अधिक संभावना रहती है । परन्तु इस प्रश्नके उत्तरके लिए हमें अतीत भारतको सम्पन्न भारत और आपत्तिग्रस्त भारत - इस प्रकार दो अवस्थाओं में विभाजित करना होगा । सम्पन्न भारत से मतलब स्वशासित भारत से है और आपत्तिग्रस्त भारत से मतलब परशासित अथवा दूसरे देशों में उत्पन्न हुई संस्कृतिके द्वारा शासित भारत मे है । इनमे से भारत जिस समय स्वशासित था उस समय हिन्दुस्तानमें उत्पन्न हुई दूसरी संस्कृतियाँ इस देशके वैभवको बढ़ाने में जितनी कारण हुई उससे कहीं अधिक जैन संस्कृति इस देशकी अभिवृद्धिका कारण हुई । स्वशासित भारतमें दूसरी संस्कृतियोंके लांछनरूप कारनामें जिस प्रकार प्रकट किये जा सकते हैं वह बात जैन संस्कृति में ढूंढ़नेको भी नहीं मिल सकती । इसकी आध्यात्मिक भूमिका स्वतन्त्र होते हुए भी अपनी संस्कृति की रक्षाके लिये इसने दूसरी संस्कृतियोंके ऊपर कभी भी आक्रमण नहीं किया । परन्तु यह बात दूसरोंके सम्बन्धमें नहीं कही जा सकती है इसके लिये साक्षी इतिहास है । रह गई आपत्ति ग्रस्त भारतकी बात सो हमारे देशके ऊपर आपत्ति कैसे आई उसमें हाथ किसका था इस बातका यदि सन्त सा० विचार करें तो उन्हें जैनधर्मकी अहिंसाके ऊपर आक्षेप करनेके लिये स्थान ही नहीं रहता है । आज ऐसे भी ऐतिहासिक प्रमाण मौजूद हैं जिनसे यह सिद्ध किया जा सकता है कि जैनेतर संस्कृतिमें उत्पन्न हुए और उसीके अभिमानी मनुष्य जिस समय हिन्दुत्वकी विरोधी संस्कृतिका सब तरहसे सहायता Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थखण्ड: ११७ कर रहे थे उसी समय जैन संस्कृतिमें उत्पन्न हुए और उसीके अभिमानी नरश्रेष्ठ केवल जैन संस्कृति के लिये नहीं किन्तु अपनी पड़ोसिनी दूसरी संस्कृतियोंकी रक्षाके लिये भी सहायक हुए। सहायक हुए इतना ही नहीं उनके सत्प्रयत्न और सर्वस्व अर्पण करनेसे उनकी रक्षा हुई । रह गई बौद्धोंके अहिंसाके ऊपर आक्षेप करने की बात सो इसका बौद्धधर्मनुयायी जितना उचित उत्तर दे सकते हैं उतना यद्यपि में नहीं दे सकता है। फिर भी अपने देशकी पूर्व परंपराका अध्ययन करनेसे इतना हम भी लिख सकते हैं कि हमारे देश में एक ऐसा वर्ग था जो बौद्ध संस्कृति नाश करनेके लिये जी जानसे प्रयत्न करता रहा । जिससे देशकी संपूर्ण शक्ति गृहकलहमें वट जानेके कारण ही भारतको परतन्त्रताके दिन देखने पड़े । रह गई उनकी अहिंसासे कायरताकी बात सो इसके लिये हम सन्त सा०को जापानकी याद दिला देना ही पर्याप्त समझते हैं। संभव है सन्व सा० जापानके बढ़ते हुए वैभव और कीर्तिका स्मरण करके व्यर्थ ही अहिंसाके ऊपर संस्कृति भेदसे उत्पन्न हुई अपनी मानसिक कलुपताको नहीं प्रकट करेंगे । 00000 1000000 Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्वशान्ति और अपरिग्रहवाद अहिंसा और विश्व ___ शान्तिवादियोंके भारतमें दो दो सम्मेलन हुए-एक शान्ति निकेतनमें और दूसरा सेवाग्राममें । ये दोनों स्थान इस युगके दो महापुरुषोंकी साधनाभूमि रहे हैं। कवीन्द्र-रवीन्द्र और महात्मा गाँधीने अपने लोकोत्तर कार्यों द्वारा भारतका सिर तो विश्वमें ऊँचा किया ही पर विश्वको भी जीवन और जगत्के सम्बन्धमें नई दृष्टि दी । खास कर गाँधीजी की अहिंसाका मानव जाति पर अमिट प्रभाव पड़ा है । और अधिकांश विचारक अब यह मानने लगे हैं कि अहिंसाके द्वारा प्रत्येक मानवीय समस्याका शान्तिपूर्ण हल किया जा सकता है। अहिंसा एक विधायक शक्ति है और विश्वका विचारक बहुभाग उसके प्रयोग और परीक्षणमें लगा हआ है। यह होते हुए भी बहुतसे विचारकोंका अहिंसामें जरा भी विश्वास नहीं है । भारतने अहिंसक उपायोंसे जो स्वतन्त्रता प्राप्त की वह विश्व इतिहासकी अभूतपूर्व घटना है, पर उसका विश्वकी राजनीति पर उतना प्रभाव नहीं पड़ा जितनी आशा की जाती थी । भारतको स्वतन्त्रता मिलनेके बाद जो घटनाएं घट रही हैं और जिस ढंगपर कल्पित तीसरे युद्धकी तैयारीमें विभिन्न देश लगे हुए हैं, उससे स्पष्ट है कि अहिंसाका ठीक मर्म अभी जनताके हृदयमें नहीं पैठ सका है। अन्तर्राष्ट्रीय दलबन्दी वर्तमान विश्व दो बड़े गुटोंमें विभाजित है--एक अमेरिकन गुट जो पूंजीका प्रतिनिधि है और दूसरा रूस जो श्रमका प्रतिनिधि है । इसे श्रम और पूंजीकी प्रतिद्वन्द्वता कहना अधिक उपयुक्त होगा। जीवनमें विशेष स्थान पूँजीका है या श्रमका यही मुख्य विवादका विषय है। अमेरिकन गुट पूँजीको प्रथम स्थान देना चाहता है और रूस श्रमको, यही इन दोनोंके बीचका झगड़ा है । यह लड़ाई विश्वके कोने-कोने में फैलती जा रही है। अमेरिकाके पक्षमें विश्वकी अधिकतर सरकारें, पूँजीपति और वे साम्प्रदायिक संस्थाएँ हैं जिनका निर्माण और विकास मुख्यतया पूँजीवादी तत्त्वोंके आधार पर हुआ है। तथा रूसके पक्षमें किसान, मजदूर और मध्यम वर्गकी जनता है। अब तो कुछ देशोंकी सरकारें भी रूसका साथ देने लगी हैं। चीनके कम्यनिस्ट देश हो जानेके बाद तो रूसका बल विशेषरूपसे बढ़ा है । इस स्थितिको देखते हुए यह कहा जा सकता है कि उत्तरोतर पूँजीकी ताकत घटनेके साथ श्रमकी शक्ति बढ़ रही है। आम जनता पूँजीकी अपेक्षा श्रमको विशेष महत्त्व देने लगी है। पूँजीवादको हार पिछला विश्वयुद्ध पूँजी और श्रमके बीच न हो सका। हिटलर रूस पर चढ़ाई करनेके बाद उसे यह रूप देना चाहता था, किन्तु उस समय ब्रिटेन और उसके साथी देशोंने इस ओर दुर्लक्ष्य किया, नहीं तो उस समय पूँजीके आगे श्रमको झुकना ही पड़ता। रूसको पंगु बनानेका वही समय था। उस समय ब्रिटेनके सामने झूठी प्रतिष्ठाका लोभ और उठती हुई नई ताकतका भय था, इसलिए उसने हिटलरका विश्वास न कर रूसका साथ देना ही उचित समझा। इससे जर्मनी हार तो गया पर इसे उसकी हार न मान कर पूंजीवादको ही हार कहनी पड़ती है। पूंजीवादकी यह ऐसी हार है जो सम्भवतः कभी भी जीतमें परिणत नहीं की जा सकती। Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : ११९ पूजीवादी मनोवृत्ति पूंजीवादी मनोवृत्ति किसीका विश्वास नहीं करती। गत युद्धसे यह दोष स्पष्ट रूपसे लक्ष्यमें आ रहा है। हिटलर जर्मनीकी ताकत इसलिये बढ़ाना चाहता था कि जिससे वह भी मित्र राष्ट्रों की तरह दूसरे देशोंका शोषण कर सके । सन्धि और समझौतेसे जब यह कार्य सम्पन्न नहीं किया जा सका तब उसने युद्धका सहारा लिया। वस्तुतः उसकी इच्छा ब्रिटेनको उतना पंगु बनानेकी नहीं थी, जितना कि वह अपने पड़ोसी रूससे डरता था । ब्रिटेन और अमेरिका इससे उचित लाभ नहीं उठा सके और इसलिये पूजीकी ताकत श्रमकी ताकतसे उत्तरोत्तर घटती गई । भारतकी प्राचीन युद्ध परम्परा इतिहाससे स्पष्ट है कि भारतमें युद्धोंमें विजय पानेके अर्थमूलक तीन आधार रहे हैं । राजा, धर्म और जातीयता । वैदिक कालसे ये तीनों शब्द अर्थ विशेषमें प्रयुक्त होते आये हैं। मनुस्मृतिके अनुसार राजा ईश्वरका अंश होनेसे प्रभुसत्ताका पर्यायवाची है, धर्म अर्थमलक समाज व्यवस्थाका प्रतिनिधि होनेसे वर्गप्रभुत्वका पर्यायवाची है और जातीयताका अर्थ उच्चत्व तथा नीचत्वके आधारसे वर्गोको स्थायीरूप प्रदान करना है । ईश्वरवाद तो इस व्यवस्थाका पोषक रहा ही है। किन्तु उन समस्याओंको जो ईश्वरवादके मानने पर उठ खड़ी होती हैं, कर्मवादसे सुलझानेका प्रयन्न किया गया है। वर्णाश्रम धर्मको अधिकतर लड़ाईयोंमें जय इसी आधारपर मिली है। किन्तु दूसरे देशोंसे सम्पर्क बढ़ने के बाद भारतवर्षकी स्थितिमें अन्तर आया है। अब ईश्वरवाद और जातिवादका समाजमें कोई स्थान नहीं रहा है । इनका स्थान एकमात्र पूंजीने ले लिया है। पूंजीकी श्रमके साथ जो लड़ाई पहले प्रच्छन्नरूपसे चल रही थी, वह अपने सब आवरणोंको समाप्त कर स्पष्टरूपसे दिखाई देने लगी है। मार्क्सके संगठनका आधार इस स्थितिको साफ करने में मार्क्सवाद ने बड़ी सहायता की है। मार्स विश्वकी समस्त घटनाओंको आर्थिक दृष्टिकोणसे देखता है। उसका कथन है कि समाजका मुख्य आधार आर्थिक व्यवस्था है। किसी समाजकी उन्नति और अवनतिका मल कारण उसकी उन्नत और अवनत आर्थिक व्यवस्था ही होती है। समाजका आर्थिक और राजनैतिक ढांचा इसी आधार पर विकसित होता है। व्यक्तिके जीवनमें जो परिवर्तन दृष्टिगोचर होते हैं, उसका मुख्य कारण आर्थिक आधार ही है। मार्सका यह कथन इतिहासके अनशीलनका परिणाम है। मार्क्सने समाज व्यवस्थाके पंजीवादी आर्थिक ढाँचेको बदलने के लिए मात्र श्रमपर अधिक जोर ही नहीं दिया है, किन्तु उसके संग उनके उपाय भी प्रस्तुत किये हैं । मुख्य प्रश्न , इस प्रकार हम देखते हैं कि इस समय पूंजी और श्रमके आधारपर विश्व दो भागोंमें बँट गया है। पूंजीवाद और समाजवादके आगे शेष सब वाद फ़ीके पड़ते जा रहे है । ईश्वरवादी प्रत्येक व्यवस्थामें ईश्वरकी दुहाई देनेका प्रयत्न करते हैं अवश्य, पर अब वे अनीश्वरवादियोंको नास्तिक कहनेका साहस नहीं करते । अब तो विश्वके विचारकोंके सामने यह मुख्य प्रश्न है कि विश्व में सद्भाव और प्रेमका संचार कैसे हो? यद्यपि हम यह जानते हैं कि पूंजीवाद और समाजवादकी समस्याके ठीक तरहसे हल हुए बिना यह सब हो सकना असम्भव है। यदि विश्वमें हमें युद्ध विरोधी भूमिका तैयार करनी है तो सर्वप्रथम इन वादोंकी समस्या हल करनी होगी। हमें देखना होगा कि तत्त्वतः किस मार्गको स्वीकार करने पर विश्वशान्तिका मार्ग प्रशस्त हो सकता है। Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ मध्यम मार्ग पर अविश्वास पूँजीवाद और समाजवादकी हमें यहाँ विस्तृत चर्चा नहीं करनी है। हमें तो उन उपायोंकी छानबीन करनी है जिसके आधारसे विश्वको इनकी ऐकान्तिक बराईसे बचाया जा सके। प्रश्न यह है कि व्यक्तिको मर्यादित श्रमकी स्वतन्त्रताके साथ क्या उसी हद तक अर्थकी स्वतन्त्रता दी जा सकती है ? पण्डित जवाहरलाल नेहरू पूँजीवाद और समाजवाद इनमेंसे किसो एक के पक्षमें नहीं थे। मुख्यतया वे उत्तराधिकारमें प्राप्त महात्मा गांधीकी शिक्षाओंको कार्यान्वित करना चाहते थे। उनका कहना है कि यदि रोटो और कपड़ेका प्रश्न हल हो जाय और सबको शिक्षा, स्वास्थ्य और आमोद-प्रमोदके साधन जुटा दिये जाय तो इन दोनोंकी बराईसे विश्वकी रक्षा की जा सकती है। उन्होंने इन विचारोंको अनेक भाषणोंद्वारा व्यक्त किया है। यद्यपि पण्डितजीके ये विचार समझौतेकी भूमिका प्रस्तुत करते हैं अवश्य, पर दूसरी ओर इस कथन पर उतना विश्वास नहीं किया जाता । श्रमवादी तो इसे पूँजीवादके लिए खुली छूट मानते हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि यह इस युगकी प्रधान समस्या है, जिसने इतना उग्ररूप धारण कर लिया है। विश्व व्यवस्था में व्यक्ति स्वातन्त्र्य प्रथम शर्त साधारणतः यह जनमतका युग है। किसी भी देशकी आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक व्यवस्था कैसी हो यह काम वहाँकी जनताके निश्चित करनेका है। इस युग में वे ही शिक्षायें विश्वकी शान्ति और सुव्यवस्थामें सहायक हो सकती हैं जो पूर्णतः व्यक्ति-स्वातन्त्र्यकी पोषक होनेके साथ साथ व्यक्तिके वैयक्तिक और सामाजिक जीवनको ऊँचा उठाने में सहायक हों। हमने विश्वके महापुरुषोंके जीवन और उनकी शिक्षाओंका अध्ययन किया है। इस दृष्टिसे हमारा ध्यान श्रमण भगवान् महावीर पर विशेषरूपसे केन्द्रित हो जाता है। इन्होंने श्रम, शम और समके आधार पर जिन उदार तत्त्वोंको अपने जीवनमें उतारा था, उनकी विश्वको सदा आवश्यकता बनी रहेगी। उनका ठीक तरहसे प्रचार करनेपर न केवल विश्वमें शान्ति और सूव्यवस्थाके निर्माण करने में सहायता मिलेगी, अपितु व्यक्तिके चरित्र-निर्माणका मार्ग भी प्रशस्त होगा। मूल प्रवृत्ति और राज्य - यहाँ सर्व प्रथम यह देखना है कि इन महापुरुषोंने संघर्षके मूलमें कौनसी बात देखी। विश्वमें संघर्ष क्यों पनपता है और मनुष्य मनुष्यका शत्रु क्यों बनता है ? यह तो निश्चित है कि विश्वका प्रत्येक प्राणी सखकी कामना रखता है। उसका सारा श्रम, उद्योग और शक्ति इसी कामनाकी पूर्तिके लिए है। सर्वश्रेष्ठ चेतन होनेसे मनुष्यके उद्योग और साधन अधिक विकसित है । दर्शनमें उसके आध्यात्मिक सुखका विश्लेषण है और विज्ञानमें भौतिक सुखका अनुसन्धान । मनुष्य ही नहीं पशु-पक्षी और कीट-पतंग भी अपने सुख-साधनका प्रयत्न करते रहते हैं। बाह्य संग्रहके मूलमें यही आत्म-सुखकी प्रवृत्ति काम करती है। परन्तु जिस तरह मनष्यकी बुद्धि, शक्ति और सुखकी आकांक्षा विकसित है उसी प्रकार उसकी लालसा, साधन और संग्रहकी भावना भी प्रबल है । साधारण पशु-पक्षियोंकी जीवनवृत्तिके विश्लेषणसे यह बात स्पष्ट हो जाती है । उनमें यह प्रवत्ति बहत ही अल्प मात्रामें पाई जाती है। चींटी आदि कुछ ही प्राणी ऐसे हैं जिनमें इस प्रवत्तिकी बहुलता देखी जाती है। शेष तिर्यंच अपने-अपने भोजनकी खोजमें निकलते हैं और उसके मिल जाने पर वे शान्त हो जाते हैं। फिर वे ऐसा कोई काम नहीं करते जिसे समाज-विरोधी कहा जा सके। किन्तु मनुष्योंमें यह संग्रह करनेकी प्रवृत्ति आवश्यकतासे अधिक पाई जाती है। ये जितनेकी आवश्यकता होती है उससे कहीं अधिकका संचय करते हैं और इनका यह काम समाज-विरोधी नहीं माना जाता, प्रत्युत इसके अनुकूल समाजने कुछ ऐसे नियमोंका निर्माण किया है जिनके विरुद्ध आचरण करनेवालेको समाज (राज्य) की ओर से कठोर दण्ड भोगना पड़ता है। Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : १२१ राज्यका विकास साधारणतः प्रत्येक जीवधारीके लिए जीवन उद्धारके समान आजीविकाका प्रश्न अत्यन्त आवश्यक माना गया है । इस भावको व्यक्त करते हुए एक कविने कहा है कला बहत्तर पुरुषकी तामें दो सरदार । एक जीवकी जीविका दुतिय जीव उद्धार ॥ भौतिक शरीरके स्थायित्वके लिए आजीविका मुख्य है और आत्मोद्धारके लिए जीवन संशोधनकी कलामें अभिज्ञता प्राप्तकर तदनकल आचरण करना मख्य है। प्राचीन नियम यह था कि मनष्य एक ही मार्गसे आजीविका करे । समाजके संधारणके लिये इस नियमका होना अत्यन्त आवश्यक था। किन्तु धीरे-धीरे इस नियममें परिवर्तन हुआ और कथित उच्च वर्ग के मनुष्योंको यह अधिकार दिया गया कि वे दूसरे मार्गोंसे भी आजीविका कर सकते हैं। यान्त्रिक युग के बाद तो इस व्यवस्थाका यह गुण कि 'एक व्यक्ति पूँजीका अधिक संचय न कर सके और दूसरा व्यक्ति उसके अभावमें भूखों न मर सके' नष्ट हो गया है। राज्यसे यह आशाकी जा सकती थी कि वह ऐसी स्थितिके निर्माण करने में अपनी शक्तिका उपयोग करे जिससे प्राचीन आर्थिक व्यवस्थामें विशेष उलट-फेर किये बिना यह समस्या सुलझ जाय, किन्तु राज्य इस ओर विशेष ध्यान देने में असमर्थ रहा। फलतः ऐसी सामाजिक संस्था स्थापित हुई जो पिछली समाज संस्थाके विरोधी तत्त्वोंकी शिक्षा देने लगी। ऊपर हम समाजवादकी चर्चा कर आये हैं। इसका संगठन ऐसे ही तत्त्वोंके आधारपर हुआ है। पिछली सामाजिक संस्थाके अनुसार व्यक्ति पूँजीका अधिकारी माना गया है और राज्य उसकी रक्षा करता है, इसमें यह अधिकार व्यक्तिसे छीनकर राज्यको दिया गया है और इसके विरुद्ध आचरण करनेवाला व्यक्ति कठोर दण्डका भागी होता है । मूर्छा अब देखना यह है कि जिस आधारपर यह संघर्ष चाल है उसकी तहमें कौनसी मनोवृत्ति काम करती है। प्राचीन ऋषियोंने इसका गहराईसे विचार किया है। उन्होंने इसका कारण मूर्छाको बतलाया है । यह मी ऐसी वृत्ति है जिसके कारण विश्व में अनादिसे संघर्ष होते आये हैं और सदा होते रहेंगे। एक व्यवस्थाका स्थान दसरी व्यवस्था लेती है, पर इससे न तो संघर्षका अन्त होता है और न स्थायी शान्ति ही स्थापित हो सकती है। दार्शनिक चिन्तनकी भूल ___ व्यक्ति और राष्ट्रके जीवनमें सबसे बड़ी भूल उसके दार्शनिक चिन्तनमें यह है कि वह अपने सुखदुखका एक मात्र आधार बाह्य साधनोंके होने न होने पर अवलम्बित मान बैठा है, जिसने जितने अधिक बाह्यसाधनोंका संचय कर लिया है वह उतना ही अधिक अपनेको सुख मिलनेकी आशा करता है । साम्राज्पलिप्सा, पूंजीवाद, वर्गवाद, और संस्थावाद यहाँ तक कि समाजवाद भी इसका परिणाम है । ईश्वरवादको इसी मनोवृत्तिने जन्म दिया है । जगत्में संघर्षका बीज यही है। जब मन्ष्य इस तत्त्वज्ञानको स्वीकार कर लेता है कि अन्यसे अन्यका हित या अहित होता है तब उसकी अन्तर्मुखी दृष्टि फिरकर बहिर्मखी हो जाती है। वह बाह्य साधनोंके जुटाने में लग जाता है और इस कार्य में सफलता मिलने पर उसे अपने जीवनकी सफलता मानता है। जीवनमें बाह्य साधनोंको सर्वथा स्थान नहीं है, यह बात नहीं है। दृष्टिको अन्तर्मुखी रखते हुए जीवनकी कम Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ जोरीवश आवश्यकतानुसार बाह्य साधनोंका अवलम्बन लेना एक बात है तथा इसके विपरीत बाह्य-साधनोंको ही सब कुछ मान बैठना दूसरी बात है । अर्थ और विवेक पूंजी चाहे व्यक्तिके हाथमें रहे या राष्ट्रके हाथमें वह एकमात्र अनर्थ परम्पराकी जननी है । अर्थकी गरमी सबसे बड़ी गरमी है। जिसके पास यह पहँचता है उसे ही पथभ्रष्ट कर देता है। एक ही वस्तु थी जो व्यक्ति और राष्ट्रको इसकी गरमीसे बचा सकती थी और वह था विवेक । किन्तु इस समय क्या व्यक्ति और क्या राष्ट्र दोनों ही अपने-अपने स्वरूपको भूले हुए हैं। दोनों ही उपादनकी वृद्धि द्वारा वार्षिक आयके बढ़ानेकी फिकरमें हैं । विश्वका यही हाल है । इससे स्वार्थपरतामें वृद्धि होकर मानवताका ह्रास हो रहा है। जहाँ देखो वहाँ पैसेकी लट दिखाई देती है। समस्त धर्म-कर्म इसीमें समाया हआ है। जो धार्मिक संस्थाएं इसकी गरमीको कम करनेके प्रचारके लिए स्थापित की जाती हैं वे धनिकोंकी जीहुजूर बनी हुई है। व्यक्ति धर्ममें मूर्छासे काम न ले। धर्म मात्र आत्मशुद्धि का साधन बना रहे । जो व्यक्ति राग,द्वेष और मोह पर विजय पानेमें असमर्थ हैं वे तत्कालीन परिस्थितिके अनुसार सहयोगमलक अपनी आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था बना लें। किन्तु इतना ध्यान रखें कि इस द्वारा किसी व्यक्तिको स्वतन्त्रताका अपहरण न होने पावे। सन्त-परम्पराके इस उपदेशकी तरफ आज किसीका ध्यान नहीं है। सब अपने-अपने पद और स्वरूपको भूले हुए हैं। वास्तवमें देखा जाय तो इसकी जड़ में एक मात्र मूर्छा ही काम कर रही है । पूंजीवादी राष्ट्रोंमें यह जितनी मात्रामें देखी जाती है, समाजवादी राष्ट्रोंमें वह उससे कम नहीं है। रोगका अचूक निदान मूर्छा मुर्छाको कम करनेका मार्ग यह था कि उत्पादनका विकेन्द्रीकरण किया जाय । जहाँ हजारों मनुष्य मिलकर एक साथ काम करते हैं ऐसे कल-कारखाने न खोले जायँ । राष्ट्र के लिए जितने मालकी आवश्यकता है उतना ही उत्पादन किया जाय। जिन वस्तुओंके बिना दूसरे राष्ट्रोंका काम नहीं चलता हो वे वस्तुएँ ही उन राष्ट्रोंको दी जायँ और बदलेमें ऐसी वस्तुएँ ही स्वीकार की जायँ जिनके बिना यहाँका काम नहीं चलता। भौतिकविज्ञानको विशेष प्रोत्साहन न देकर आध्यात्मिकविज्ञानको ही प्रमुखता दी जाय। संहारक अस्त्रोंका निर्माण सर्वथा बन्द कर दिया जाय । रक्षाकी अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था की जाय । किन्तु इस समय सब काम इससे विपरीत हो रहे हैं और फिर रट लगाई जाती है कि विश्व में स्थायी शान्तिकी स्थापना होनी चाहिए । शान्ति आत्माका परिणाम है । वह भौतिक-साधनोंके बलपर नहीं प्राप्त की जा सकती है। व्यक्ति जिस तरह राष्ट्रकी इकाई है, उसी प्रकार उसकी मूर्छा भी राष्ट्रीय मूर्छाका अंग है और राष्ट्रीय मूर्छा विश्व मूर्छाका ही अंग है । यहाँ राष्ट्रीय मूर्छा और राष्ट्रीय प्रेमका भेद स्पष्ट समझ लेना चाहिए । मूर्छाका अर्थ है जीवन संशोधनके विरुद्ध पड़नेवाले साधनोंमें अपनत्वकी भावना। जिस भावनाके कारण व्यक्ति मात्र भौतिक इकाईमें सब सुख साधनोंको बटोरनेका प्रयत्न करता है वह मूर्छा ही है। व्यक्तियोंकी यही संकुचित स्वार्थमय ममता विकसित होकर राष्ट्रीय मूर्छा या स्वार्थोंको जन्म देती है, प्राचीन भारतीय ऋषियोंने राष्ट्रीय विकासमें व्यक्तिके शद्ध विकासकी शर्त इसीलिए रखी थी। पश्चिमी राष्ट राष्ट्रीयताकी झोंकमें चरित्र विकासको महत्त्व नहीं देते, इसलिए मुट्ठीभर राजनीतिक अपने राजनीतिक प्रभावसे जब चाहें समूचे विश्वको विक्षुब्ध कर सकते हैं। पिछले दो महायुद्ध इसके ज्वलंत प्रमाण हैं। प्रश्न है इस मूर्छा-संकुचित राष्ट्रीय स्वार्थका उन्मूलन कैसे हो ? व्यक्तित्व या राष्ट्रीयताकी ओटमें भौतिक आकांक्षाओंका विस्तार कर क्या विश्वमें सुख-शान्ति स्थापित की जा सकती है? पूँजीवाद व्यक्तिकी आकांक्षा और उसकी पूर्तिके Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : १२३ साधनोंपर प्रतिबन्ध नहीं लगाता और समाजवाद केवल पूतिके साधनोंका समाजीक रण तो चाहता है पर आकांक्षाओंको सीमित करना अभी उसके लक्ष्यमें नहीं आया है । पूजीवाद प्रस्तुत विषमताका ऐसा ही गलत निदान और उपचार है, इसलिए उसका मुलोच्छेद जरूरी है। समाजवादका बाह्य उपचार ठीक है पर निदान ठीक न होनेसे वह स्थायी नहीं है। वह आर्थिक दबाव पड़ने पर पुनः विषमताका रूप धारण कर सकता है । व्यवस्थायें बाह्य उपचार है। रोगका अचूक निदान है मर्छा। वह भीतर से उठती है और जब तक इस मूलवृत्तिका शोधन नहीं होता तब तक शान्ति और सुव्यवस्था दुराशामात्र है । स्वतन्त्रता का अर्थ अब प्रश्न यह है कि इस मच्छ के त्यागके लिये व्यक्ति और राष्ट्र किस मार्गको स्वीकार करें। यह तो मानो हुई बात है कि मानव इतिहास और दर्शनका अन्तिम निचोड़ है व्यक्तिकी पूर्ण स्वतन्त्रता और चरम विकास । यहाँ स्वतन्त्रता शब्द विचारणीय है 'स्व' और 'तन्त्र' इन दो शब्दोंका मिलकर अर्थ होता है अपना शासन । इसका भावरूप अर्थ हुआ स्वाधीनता। प्रत्येक व्यक्तिका अन्यके आधीन न होकर मात्र अपने आधीन होना ही उसकी स्वतन्त्रता है। जब कोई व्यक्ति अन्य व्यक्तिके अधिकारमें होता है तब वह पराधीन कहलाता है । दूसरेके अधिकारमें रहकर व्यक्ति इच्छानुसार अपना विकास नहीं कर पाता। बात-बातमें वह परमुवापेक्षी बना रहता है। वस्तुतः उसकी यह पराधीनता आरोपित है। सनातन प्रक्रियासे उसमें जो कमजोरियाँ आ गई है वही यह सोचनेके लिये प्रेरित करती हैं कि अन्यका सहारा लिये बिना उसका काम नहीं चल सकता । यही धारणा उसकी परतन्त्रता है और इससे मुक्ति पाना ही उसकी स्वतन्त्रता है । ___स्वतन्त्रता यह जड़-चेतन प्रत्येक व्यक्तिका नैसर्गिक अधिकार है। इसका ठीक तरहसे ज्ञान होनेपर व्यक्तिकी मर्जी अपने आप कम होने लगती है । श्रमण भगवान् महावीरने इस नैसर्गिक अधिकारकी ओर विश्वका ध्यान आकृष्ट किया था। इन्होंने गम्भीर वाणीमें कहा था-- "आबुसो ! अपनी स्वतन्त्रताके समान सबकी स्वतन्त्रता अनुभव करो। जब कोई व्यक्ति किसी अन्य वस्तुको अपने अधिकारमें करनेकी इच्छा करता है तब वह उसे अपने अधिकारमें करने में तो समर्थ नहीं होता, मात्र स्वयं वह अपनी इच्छाओंका दास बन जाता है !" विश्वको प्रत्येक व्यक्तिके इस नैसर्गिक अधिकारको समझना है। राज्यने इसकी स्वीकृति दी है अवश्य, पर वह औपचारिक है । इसके आध्यात्मिक रहस्यको समझे बिना जीवनमें व्यक्ति-स्वातन्त्र्यकी पूर्ण प्रतिष्ठा नहीं हो सकती। विविध दर्शन और जगत् यों तो प्रागैतिहासिक कालसे विविध सिद्धान्तोंकी सष्टि होती आई है। मानवीय कमजोरियोंने भी इनके निर्माणमें बहुत कुछ हाथ बटाया है। इन सिद्धान्तोंका जीवनके उत्थान और पतनसे घनिष्ट सम्बन्ध है । इस युगमें जिन समस्याओंको राजनीतिक आधारसे सुलझाया जाता है पूर्व कालमें उनके हल करने में धार्मिक दृष्टिकी मुख्यता रहती थी। धर्मका दर्शनके साथ घनिष्ट सम्बन्ध है। सुपाच्य या दुष्पाच्य जैसा भी भोजन मिलता है उसीके अनुरूप जीवनका निर्माण होता है। दर्शन जीवनका सबसे बड़ा भोजन है। इसका व्यक्ति और राष्ट्र के जीवनपर गहरा प्रभाव पड़ता है। विश्व क्या है और व्यक्तिका उसके साथ क्या सम्बन्ध है ? यह समस्या निर्विवाद रूपसे अभी तक नहीं सुलझ सकी है । इसके अस्तित्व के विषयमें 'है' और 'न' का झगड़ा अभी तक लगा हुआ है। और भी ऐसे प्रश्न हैं जो विचारकोंको उलझनमें डाले हुए हैं। उनमें व्यक्तिकी स्वतन्त्रता और परतन्त्रतासे सम्बन्ध रखनेवाला प्रश्न मुख्य है। वेदान्त तथा उससे सम्बन्ध Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ : सिद्धान्ताचार्य पं० फलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ रखनेवाले अधिकतर दर्शन यह मानने के लिये कभी भी तैयार नहीं हैं कि व्यक्ति स्वतन्त्र अपनेमें कुछ है या वह पथक होकर भी अपने जीवनके लिये स्वयं उत्तरदायी है। भारतवर्षमें इन दर्शनोंका बड़ा विकास हुआ है और दूसरे राष्ट्रोंपर भी इसका गहरा प्रभाव पड़ा है। समस्त व्यवस्थाएँ और उनके दुष्परिणाम इन दर्शनोंके प्रयोगोंका ही फल हैं । किन्तु दूसरी ओर ऐसे दर्शनका भी उदय हआ है जिसने विश्वकी समस्त समस्याओंको व्यक्तिस्वातन्त्र्यके आवारपर सुलझानेका प्रयत्न किया है । इसकी घोषणा है कि एक द्रव्य दूसरे द्रव्यमेंसे न तो कुछ निकाल ही सकता है और न उसमें कुछ मिला ही सकता है। किन्तु जिस कालमें जिस द्रव्यकी जैसी योग्यता होती है तदनुरूप उसका परिणमन होता है। जीवनमें निमित्तका स्थान है अवश्य, पर वह व्यक्तिको स्वतंत्रताको अपहरण करनेमें असमर्थ है। व्यक्तिको स्वतन्त्रता इस दर्शनकी रीढ़ है। यह दर्शन मानवीय कल्पना और उसके स्वार्थोंकी अपेक्षा विश्व के तथ्यपूर्ण जीवनक्रमको ध्यानमें रखकर विश्वका अवलोकन करता है। यद्यपि अब तक मानव जगतमें इसके उक्त मौलिक सिद्धान्तकी अवहेलना होती आई है, पर इससे उसकी उपयोगितामें अन्तर नहीं आता। इसने जगत्की समस्त समस्याओंका मूल कारण, व्यक्तिकी कमजोरी बतलाया है और वह कमजोरी है व्यक्तिको मर्छा, इसलिये यह उन समस्याओं के हलके लिए बाह्य व्यवस्थाओंकी अपेक्षा व्यक्ति की और राष्ट्रकी अन्तःशुद्धिपर अधिक जोर देता है। व्यक्तिस्वातन्त्र्य और अपरिग्रहवाद जैसा कि हम पहले बतला आये हैं कि विश्व में जड़-चेतन जितने भी पदार्थ हैं वे सब स्वतन्त्र हैं, कोई किसी के आधीन नहीं हैं। फिर भी यह प्राणी मूविश अन्य बाह्य-साधनोंका संग्रह करता है और उनका अपनेको स्वामी मानता है या उनमें इष्टानिष्ट कल्पना कर सुखी-दुःखी होता है। किन्तु व्यक्तिस्वातन्त्र्यके सिद्धान्तके साथ इस भावनाका कोई मेल नहीं बैठता। इन दोनोंमें पूर्व-पश्चिमका अन्तर है। जिसने व्यक्तिस्वातन्त्र्यके सिद्धान्तको अपने जीवन में स्थान दिया है वह यह अनुभव करता है कि ये धन, पुत्र, स्त्री, मकान और शरीर आदि भिन्न हैं। इनका परिग्रह मेरा स्वरूप नहीं है । मेरा स्वरूप तो मात्र जानना देखना है। इसलिए वह मानता है कि जो व्यक्ति या राष्ट्र इन्हें अपनी उन्नतिका साधन मानकर इनका अधिकाधिक संग्रह करना चाहता है वह न तो कभी सुखी हुआ है और न हो सकता है । इनसे सुख मिलता है ऐसा मानना भी भ्रम है और इनमें सुख है ऐसा मानना भी भ्रम है। जैसा कि हम पहले बतला आये हैं कि सुख आत्माका स्वभाव है। उसकी प्राप्ति के लिये अपनी ओर ही देखना होगा, इन बाह्यसाधनोंकी ओर नहीं । क्योंकि इनका त्याग किये बिना व्यक्तिस्वातन्त्र्यकी प्रतिष्ठा नहीं हो सकती। श्रमण भगवान् महावीरने अने जीवनके विविध प्रयोगों द्वारा विश्वका एकमात्र यही शिक्षा दी थी। श्रमण होनेके पहले उनके हाथमें राज्य था। लेकिन उनके विचार उस राज्यसत्ता बलपर नहीं फैल सकते थे और न उससे विश्वशान्तिका मार्ग ही प्रशस्त हो सकता था। उन्होंने देखा कि विश्वके लिये व्यक्तिस्वातन्त्र्यकी शिक्षा अनिवार्य है। उन्हें विश्वके मानव समाजको यह अनुभव कराना था कि यह जमीन, यह धन और यहाँ तक कि यह शरीर, वाणा और मन भी उसका नहीं है । वह तो मात्र इन सबका ज्ञातादष्टा है । इसलिये स्वयं उन्होंने व्यक्तिस्वातन्त्र्यको प्रतिष्ठित करनेके लिये एकमात्र अपरिग्रहवादका मार्ग अपनाया था। उनकी घोषणा थी कि अपरिग्रही होना स्वतन्त्रता-प्राप्तिकी प्रथम शर्त है। व्यक्ति स्वतन्त्र होना चाहे और वह अपने जीवनमें मूच्र्छाका त्यागकर पूर्ण स्वावलम्बनको स्वीकार न करे, वह बाह्य Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : १२५ साधनोंके व्यामोहमें उलझा रहे यह नहीं हो सकता। जो राष्ट्र या व्यक्ति स्वतन्त्र होना चाहता है, उसे अपने दैनंदिनके जीवनमें स्वावलम्बनका व्रत स्वीकार करना ही होगा। अपरिग्रहवाद इसके सिवा और क्या सिखाता है । जो अपना नहीं है उसके परिग्रहमें आसक्ति मत करो, यही तो उसकी शिक्षा है ।। श्रमण भगवान् महावीर अपरिग्रहवादके मर्तमान स्वरूप थे। उन्होंने अपने जीवनमें ऐसी कोई गाँठ बाँध कर नहीं रखी थी जो कि उन्हें पीछेकी ओर धकेलती हो। वे जाति, लिंग, वय, स्वदेश, विदेश आदि सब प्रकारके विकल्पोंसे परे थे । उनकी एक मात्र शिक्षा थी कि पर पर है । उसका स्वीकार जीवनके पतनका कारण है। अपरिग्रहवादको व्यावहारिक शिक्षा अब देखना यह है कि अपरिग्रहवादके सिद्धान्तको अपने व्यावहारिक जीवनमें कैसे उतारा जाय । अपरिग्रहका अर्थ है परिग्रहका अभाव । परिग्रहके दो भेद हैं-बाह्य और आभ्यन्तर । इनमें आभ्यन्तरपरिग्रह मुख्य है । इसका दूसरा नाम मूर्छा है। बाह्य-परिग्रह इसके सद्भावमें होता है। इसीसे अधिकतर विचारकोंने मूर्छाको ही परिग्रह कहा है। मूर्छा यह समस्त दुर्गुणोंका मूल है और व्यक्तिस्वातन्त्र्यका अपहरण करनेवाली है। किसी व्यक्ति या राष्ट्रको अपना उत्थान करनेके लिये इसका त्याग करना अत्यन्त आवश्यक है। परिग्रहत्यागके दो मार्ग है--साधुमार्ग और गृहस्थमार्ग । साधु वह होता है जो अपने दैनंदिनके जीवनमें पूर्ण स्वावलम्बनकी प्रतिज्ञा कर भौतिक साधनोंका मात्र शरीरकी आवश्यकताकी पूर्तिके लिये कमसे कम उपयोग करता है । वह भौतिक साधनोंका न तो अर्जन करता है और न संचय ही। उपयोग ऐसे साधनोंका करता है जो सार्वजनिक होते हैं। उदाहरणार्थ वह ऐसे मकान, मठ या गफा आदिमें उठता-बैठता है जहाँ प्राणीमात्रको आने-जानेकी किसी प्रकारकी रुकावट नहीं होती है। भोजन भी किसी गृहस्थके स्वेच्छासे देनेपर ही लेता है। सो भी दिनमें एक बार लेता है । केशोंके बढ़ जानेपर उनका अपने हाथसे उत्पाटन करता है। इसके लिये कंची आदिका उपयोग नहीं करता। यात्रा पैदल करता है। सवारीका उपयोग नहीं करता। सब ऋतुओंमें नग्न रहता है। वस्त्रको मूर्छाका कारण जानकर उसका पूर्णरूपसे त्याग कर देता है। गृहस्थोंसे अधिक ममता न बढ़ जाय इसलिये आवश्यकतानुसार नगर में अधिकसे अधिक पाँच दिन और ग्राममें एक दिन ही ठहरता है। उसमें भी नगर या ग्रामके बाहर ही ठहरता है। मात्र भोजनके लिये नगर या ग्राममें आता-जाता है। भोजनके लिये पात्रका उपयोग नहीं करता। दोनों हाथोंकी अंजुलि बनाकर उससे भोजनका काम सम्पन्न करता है। भोजन खड़े-खड़े लेता है और इसके लिये गृहस्थोंको उत्साहित नहीं करता । साधुको केवल तीन उपकरण रखनेकी अनुज्ञा है-पीछी, कमण्डलु और शास्त्र । पीछी भूमिशोधनके काम आती है, कमण्डलु मल-मूत्रके विसर्जन करने पर शुद्धि के काम आता है और शास्त्र ज्ञानान का साधन है। अधिकतर लोगोंको साधकी यह चर्या व्यवहारमें अटपटी सी दिखाई देती है। वे इसे निठल्ले लोगोंकी व्यर्थकी उठाठेव मानते है । हम यह जानते हैं कि साधुसंस्था दूषित हो गई है और ऐसे लोगोंकी कमी नहीं जो मात्र पेट भरनेके लिये साधु बनते हैं । पर इससे साधुमार्गकी व्यर्थता नहीं सिद्ध की जा सकती है। साधुका जीवनयापन करना अध्यात्मशोधका सर्वोत्कृष्ट मार्ग है । जो जीवन में सच्चा साधु है वह समाजसे जितना लेता है उससे कहीं अधिक देता है। समाजने इस संस्थाके महत्त्वको भुला दिया है या वह ऐसे Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ लोगोंके पीछे लग गई है जो या तो ढोंगी हैं या आलसी । वास्तवमें हमें साधचर्याके उक्त नियमोंका बारीकीसे अध्ययन करना चाहिये । उनसे एकमात्र स्वालम्बनकी ही शिक्षा मिलती है । भला विचारिये तो कि व्यक्तिस्वातन्त्र्यको प्रतिष्ठित करनेका इससे उत्तम मार्ग और क्या हो सकता है ? श्रमण भगवान् महावीर और उनके पूर्ववर्ती तीर्थंकरोंने उक्त चर्याको अपने जीवनमें अच्छी तरहसे उतारा था। उन्होंने अपने अनुयायी साधुओंको भी एकमात्र इसी चर्याकी शिक्षा दी थी । सम्भवतः बुद्धदेवसे उनका इसी बातमें मतभेद था । बुद्धदेव मध्यम मार्गके पक्षपाती थे। उनकी शिक्षाओंसे ज्ञात होता है कि उन्हें वैदिक धर्म और श्रमण धर्मके मध्यका मार्ग अधिक पसन्द था । पर उनका यह कार्य महावीरकी आत्माको टससे मस न कर सका। वे दृढ़ निश्चयी और कठोर अनुशासनके पूर्ण पक्षपाती थे । कैवल्य लाभके बाद तो उनकी आत्मा और भी निखर उठी थी। उन्हें सम्यक् प्रकारसे ज्ञात था कि मात्र इस मार्गके अनुसरण करनेसे ही संसारी प्राणी मुक्तिका अधिकारी होता है । इसलिये उन्होंने अपने अनुयायी साधुओंको न केवल परिग्रहका पूर्णरूपसे त्याग करनेका उपदेश दिया था, अपितु आत्मसंशोधनकी दृष्टिसे इसका कठोरतासे पालन भी कराया था। परिग्रहके त्यागका दूसरा मार्ग है गृहस्थधर्म । गृहस्थका अर्थ है घरमें रहनेवाला । घर उपलक्षण है । इससे वे सभी भौतिक या दूसरे साधन लिये गये हैं जिनके बिना जीवनयापन करने में गहस्थ अपनेको असमर्थ अनुभव करता है । वह जीवनकी की कमजोरीवश बाह्य-साधनोंका अवलम्बन तो लेता है, पर उनका परिमाण करता है । इसे गृहस्थका परिग्रहपरिमाणव्रत कहते हैं। जैन-शास्त्रोंमें इसकी विस्तृत चर्चा देखनेको मिलती है । वहाँ इस व्रतके व्यावहारिक उपयोगका सावधानीपूर्वक सर्वांग विचार किया गया है । प्राचीन कालमें बाह्य-परिग्रह क्षेत्र, वास्तु, हिरण्य, सुवर्ण, धन, धान्य, दासी, दास, कुप्य और भाण्ड इन दश भागोंमें विभक्त किया गया था। यह विभाग उस समयका है जब देशमें दास-दासी प्रथा प्रचलित थी। यह भी हो सकता है कि जिस प्रदेशमें दास-दासी प्रथा चालू हो उसे ध्यानमें रखकर ये भेद किये गये हों । जैन धर्मके अनुसार प्रत्येक गृहस्थ को इस दश प्रकारके परिग्रहका परिमाण करना पड़ता है। वह आवश्यकतासे अधिकका संचय नहीं कर सकता । आवश्यकता तात्कालिक रहन-सहनसे आँकी जाती है। प्रथम शर्त यह है कि कोई भी व्यक्ति अन्याय मार्गसे आजीविका नहीं कर सकता। न्यायवृत्तिका अर्थ राज्यके नियमोंके अनुसार अर्थका उपार्जन करना तो है ही। साथ ही आवश्यकतासे अधिकका संचय न करना भी इसमें गभित है । इसके सिवा आचार-ग्रन्थोंमें कुछ ऐसे भी नियम बतलाये हैं, जिनसे व्यक्तिकी इच्छाको सीमित करनेमें सहायता मिलती है । प्रथम तो प्रत्येक गृहस्थको यह नियम करना पड़ता है कि वह यावज्जीवन आजीविका निमित्त या इसी प्रकार दूसरे कार्य निमित्त अमुक क्षेत्रके बाहर नहीं जायेगा । साथ ही उसे यह भी नियम करना पड़ता है कि वह अमक समय तक इतने क्षेत्रके बाहर नहीं जायगा । प्रथम प्रकारकी मर्यादाका क्षेत्र विस्तत होता है और दूसरे प्रकारकी मर्यादा अमुक समयके लिये उस क्षेत्रको संकुचित करती है। इससे यावज्जीवन तक क्षेत्रकी मर्यादा विस्तृत होने पर भी प्रतिदिनका व्यवहारक्षेत्र सीमित होता रहता है । यद्यपि वर्तमानमें इस पद्धतिके अनुसार गृहस्थोंका वर्तन नहीं पाया जाता है और न राष्ट्रका ही इस ओर ध्यान है तथापि इससे इस पद्धतिको अव्यावहारिक नहीं ठहराया जा सकता । वस्तुतः समाजवाद और पूँजीवादकी ऐकान्तिक बुराईको दूर कर व्यक्तिस्वातन्त्र्यकी प्रतिष्ठा करनेवाला यही एक ऐसा मार्ग है, जिसे जीवनमें स्वीकार किये बिना विश्वशान्तिकी कल्पना साकार रूप नहीं ले सकती । अभी विश्वशान्ति सम्मेलनके निमित्तसे भारतमें देश-विदेशके अनेक प्रतिनिधि इकठे हुए थे । यों तो ये सभी प्रतिनिधि सेवाभावी और विश्वशान्तिके इच्छुक थे। किन्तु इनमेंसे विश्वशान्तिकी प्रेरणादायिनी शक्ति Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : १२७ यदि किसीसे प्राप्तकी जा सकती है तो वे थे स्वीडन निवासी स्वेन एरिक राइवर्ग । इन्होंने अपने जीवनको एक प्रकारसे अपरिग्रही बना लिया है । इसका वे कठोरतापूर्वक पालन करते हैं। अन्य प्रतिनिधियोंके साथ इन्हें भी ताजमहल होटलमें ठहराया गया था। यह देख इन्हें बड़ा आश्चर्य हआ। परिणामस्वरूप ठहरना अस्वीकार कर दिया। वे वहाँ जाकर ठहरे जहाँ भारतकी सच्ची आत्मा निवास करती है। उस समय वहाँ उन्होंने जो उद्गार प्रकट किये थे वे अन्धकारमें भटकने वाले विश्वको प्रकाशका काम देते हैं। वे कहते हैं _ 'हम उस भारतको देखने आये हैं जहाँ बैठकर विश्वका शान्तिदूत शान्तिसूत्रका संचालन करता था।' अपरिग्रहवादकी व्यावहारिक शिक्षाका इससे बढ़ा प्रमाण और क्या हो सकता है । सन्त परम्परा और अपरिग्रहवाद जहाँ तक जैन तीर्थङ्करोंकी चर्याका सम्बन्ध है उन्होंने परिग्रहको कभी भी अपने पास नहीं फटकने दिया था। उनकी परम वीतराग, शान्तिदायिनी नग्न-मुद्रा आज भी विश्वके संतप्त हृदयको शीतलता प्रदान करती है। वह मौनभावसे एकमात्र यही शिक्षा देती है उत्तम शौच सर्व जग जाना | लोभ पापको बाप बखाना ॥ आशाफांस महा दुखदानी । सुख पावै सन्तोषी प्रानी ।। x उत्तम आकिंचन गुण जानौ । परिग्रह चिन्ता दुख ही मानौ ।। फांस तनक सी तन में साले । चाह लँगोटी की दुख भाले ।। साधारणतः हम देखते हैं कि विश्वका बहुभाग जैन तीर्थङ्करोंकी इस आदर्श गरिमाको नहीं समझ सका है। अधिकतर व्यक्ति उनकी नग्न-मूर्ति देखकर विकारका अनुभव करते हैं । हम तो इस सम्बन्धमें इतना ही कहेंगे कि "जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मरति देखी तिन तैसो ।" फिर भी हमारी समझसे यह उत्तर सही होकर भी अपूर्ण है । मुख्य झगड़ा आदर्शका है, इसलिए हम इस तत्त्वको भीतर घुस कर छानबीन करना चाहेंगे । थप्पड़का उत्तर थप्पड़से देनेमें कोई लाभ नहीं है । देखना यह है कि मात्र भौतिक साधनोंका अवलम्बन लेना ही व्यक्तिका जीवन है या उसका वास्तविक जीवन इससे कोई भिन्न वस्तु है । जहाँ तक सन्तोंका अनुभव है उन्होंने सदा ही बाह्य-साधनोंका स्वीकार करना जीवनकी सबसे बड़ी कमजोरी माना है । तीर्थंकरोंके समान जीसस क्राइस्टने भी इस सत्यको समझा था । तभी तो उन्होंने कहा था कि सुईके छेदसे ऊँट जा सकेगा, लेकिन पैसेका मोह रखनेवाला अहिंसाका साक्षात्कार नहीं कर सकेगा, चाहे नाम उसका वह लेता रहे।' बहुत दूरकी बात जाने दीजिये । महात्मा गांधीकी जीवनचर्याका अध्ययन करनेसे ही यह बात साफ हो जाती है कि जीवनको पूर्ण स्वावलम्बी और निर्विकार बनानेके लिए बाह्य आलम्बनका त्याग करना परम आवश्यक है। उन्होंने इस सत्यको छिपानेका भी प्रयत्न नहीं किया। अपरिग्रहवादकी महत्ता पर किये गये उनके विवेचनका सार है नग्नता आत्माके निर्विकारीपनका चिह्न है। निर्विकारी सदा नग्न रहता है। उसे आच्छादनकी क्या आवश्यकता । Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह १२८ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ वर्णीजी ने अपने जीवनका बहुभाग अपरिग्रहवादकी शिक्षामें बिताया है। कभी-कभी इस विषयकी चर्चा करते हए वे अपनेको खोये हुए सा अनुभव करने लगते है। यह उनका प्रतिदिनका कार्य है। इस विषयमें वे क्या कहते हैं यह उन्हींकी शब्दोंमें पढ़िये 'संसारमें जितने पाप हैं उनकी जड़ परिग्रह है। आज जो भारतमें बहुसंख्यक मनुष्योंका घात हो गया है तथा हो रहा है उसका मूलकारण परिग्रह ही है। यदि हम इससे ममत्व घटा देवें तो अगणित जीवोंका घात स्वयमेव न होगा। इस अपरिग्रहके पालनेसे हम हिंसा पापसे मुक्त हो सकते हैं और अहिंसक बन सकते हैं। श्री वीर प्रभुने तिलतुषमात्र परिग्रह न रखके पूर्ण अहिंसा व्रतको रक्षा कर प्राणियोंको बता दिया कि यदि कल्याण करनेकी अभिलाषा है तब दैगम्बर पदको अङ्गीकार करो । यही उपाय संसार बन्धनसे छूटनेका है।' इस प्रकार हम देखते हैं कि विश्व में जितने भी सन्त पुरुष हए हैं उन्होंने एकमात्र यही शिक्षा दी है कि भौतिक साधनोंके बलपर कभी भी कोई व्यक्ति या राष्ट्र अपनी उन्नति करने में समर्थ नहीं होता है । इससे मात्र पशुता ही फूलती-फलती है। अध्यात्म जोवनको रक्षा सर्वोत्कृष्ट मार्ग यह तो मानी हई बात है कि राष्ट्र या विश्व जिस नीतिको अपनाता है उसका प्रभाव व्यक्तिके जीवनपर अवश्य पडता है। ऐसे बहुत ही कम व्यक्ति हैं जो अपने मानवीय गुणों द्वारा राष्ट्र या विश्वको प्रभावित करते हैं। मुख्य प्रश्न समाजका है । उसने एक प्रकारसे अपने आध्यात्मिक जीवनको भुलासा दिया है। वह केवल भौतिक साधनोंके बलपर विश्व-शान्तिकी कल्पना किये हुए है। अशान्ति कोई नहीं चाहता पर इसे दूर कैसे किया जाय इस ओर किसीका ध्यान नहीं है। जैसा कि हम पहले बतला आये हैं कि जीवनमें भौतिक साधनोंका स्थान है अवश्य, पर इसकी एक मर्यादा है। अध्यात्म जीवन व्यक्तिकी निजी सम्पत्ति है। सर्व प्रथम उसकी रक्षाको प्रमुखता देनी होगी। अपरिग्रहवादको शिक्षा इसका अपरिहार्य परिणाम है। राज्यकी नीति ऐसी होनी चाहिए जिससे इस दिशामें व्यक्तिको अधिकसे अधिक प्रभावित किया जा सके। महात्मा गांधीने इसकी महत्ता अनुभव की थी। उसे वे साकार रूप देना चाहते थे। लेकिन उनके बादका भारत कुछ और ही बनना चाहता है। शायद वह अमेरिका बनेगा। तब क्या वह विश्वको शान्तिका सन्देश देनेका अधिकारी रह सकेगा। हम यह कभी भी मानने के लिये तैयार नहीं हैं, हम ही क्या कोई भी बुद्धिमान् व्यक्ति यह नहीं मान सकता कि पश्चिमीय ढंगपर कल-कारखानों, भौतिक प्रयोगशालाओं और यातायातके साधनोंका विस्तार करने पर भारत अपनी आध्यात्मिकताकी रक्षा कर विश्वको शान्ति पथपर ले चलने में समर्थ हो सकेगा। आजका अणुबम और हाइड्रोजन बम इसी नीतिका परिणाम है । युद्धसे युद्धको प्रोत्साहन मिलता है और आध्यात्मिकताका लोप होता है। अर्थका सम्बन्ध मानव जीवनसे है अवश्य, लेकिन जीवनका एकमात्र यही प्रश्न मुख्य नहीं है । बल्कि व्यक्तिकी अपनी भावनाएँ भी उसके साथ हैं। इनमेंसे किसी एककी अवहेलना नहींकी जा सकती। आर्थिक ढाँचेको केवल निष्प्राण मशीन बनाना उचित नहीं है । आवश्यकता इस बातकी है कि प्रत्येक राष्ट ऐसी नीति स्वीकार करे जिससे आर्थिक सन्तुलनके साथ व्यक्तिको अपने आध्यात्मिक जीवनके विकासमें पूरी सुविधा मिलती रहे। १. जैन परम्पराके वर्तमान सन्त न्यायाचार्य पं० गणेशप्रसादजी वर्णी । २. वर्णीवाणी। Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : १२९ पहले हम अपरिग्रहवादकी विस्तारसे चर्चा कर आये हैं। व्यक्तिके जीवनपर उसकी व्यावहारिक शिक्षाका क्या प्रभाव पड़ता है इसका भी हम निर्देश कर आये हैं । साधारण नियम यह है कि व्यक्तियों के निर्माणसे ही विश्वका निर्माण होता है। सन्त पुरुषोंने इसकी महत्ता हृदयंगमकी थी। किन्तु राजनीतिज्ञ आज इस तत्त्वको भूले हुए हैं । वे शक्तिके बलसे विश्वपर अपनी व्यवस्था लादना चाहते हैं। यदि सचमचमें उनके मस्तिष्कमें यह बात समाई हुई है कि विश्वमें शान्ति स्थापित होनी चाहिये, चाहे उसके लिए कितना ही बड़ा मूल्य क्यों न चुकाना पड़े तो सर्व प्रथम उन्हें ऐसी शिक्षाओंकी ओर ध्यान देना होगा जो मानवताकी पूर्ण प्रतिष्ठा करनेमें सहायक हो सकें। केवल विश्वशान्तिका ढिंढोरा पीटनेमात्रसे विश्वशान्ति स्थापित नहीं हो सकती। हमने विश्वशान्तिके साधनोंपर सावधानी पूर्वक विचार किया है। उसका एकमात्र उपाय अपरिग्रहवाद की शिक्षा है। इसके लिये निम्नलिखित योजना लाभप्रद हो सकती है साधुसंस्थाके संगठनको मात्र स्वावलम्बनके आधारपर बढ़ावा दिया जाय । साधसंस्थाको साम्प्रदायिक दलबन्दीसे मुक्त रखा जाय । व्यक्तिके सदाचारपर विशेष ध्यान दिया जाय । यह कार्य साधुसंस्थाके जिम्मे किया जाय । साधुसंस्था अलिप्त भावसे इस कार्यकी संम्हाल करे। विश्वविद्यालयों में औद्योगिक शिक्षाके साथ चरित्रनिर्माणको शिक्षापर विशेष ध्यान दिया जाय । समाजमें स्वावलम्बन और अपरिग्रहवादकी शिक्षा देनेवाली धार्मिक संस्थाओंको ही प्रमुखता दी जाय। उन सिद्धान्तोंकी शिक्षा, जो व्यक्तिस्वातन्त्र्यके मार्गमें रोड़ा हैं, तत्काल बन्द की जाय । सम्प्रदायवाद, ईश्वरवाद और जातीयताका जिन उपायोंसे अन्त हो वे उपाय अमल में लाये जायें । श्रम किसी प्रकारका ही क्यों न हो, राष्ट्रीय सम्पत्ति समझ कर उसकी पूर्ण प्रतिष्ठा की जाय । प्रत्येक गाँवको स्वावलम्बी बनानेकी दृष्टिसे गह उद्योगको प्रोत्साहन दिया जाय । बडे-बडे कल-कारखाने न खोले जायँ । जो हैं या जिनका निर्माण किये बिना राष्ट्रका काम नहीं चल सकता, उनका एकाधिपत्य व्यक्तिके हाथ में न रह सके इसकी तत्काल व्यवस्था की जाय । प्रत्येक देशकी सरकारके रहन-सहनका ढंग आडम्बरपूर्ण और भयोत्पादक न हो, इस ओर ध्यान दिया जाय। जनसाधारणके जीवन स्तरको ध्यानमें रखकर हो सरकारी नौकरीका मान निश्चित किया जाय । प्रत्यय Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म और वर्णव्यवस्था हमारे देशमें चार वर्णोंमें अन्तिम वर्णके मनुष्य शद्र माने जाते हैं। ये मानव तनधारी सबसे अभागे प्राणी हैं। हजारों वर्षोंसे ब्राह्मणोंने क्षत्रियोंसे साजिश करके इनसे सब अधिकार छीन लिये हैं। इन्हें जनेऊ पहिनने, व्रत-संस्कार करने आदिका कोई अधिकार नहीं दिया गया है। इतना ही नहीं, ये न तो दूसरे वर्णके मनुष्योंके साथ बराबरीसे बैठ-उठ सकते हैं और न सार्वजनिक स्थान जैसे प्रार्थनागृह, मन्दिर और धर्मशाला आदिमें आ-जा सकते हैं । इनकी शिक्षा और स्वास्थ्यकी ओर भी समुचित ध्यान नहीं दिया गया है ! ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्योंकी सेवा करते रहना यही इनका स्वर्ग है और यही इनकी मुक्ति !! भारतीय संविधान और रूढ़िवादी जैन भारतवर्षको स्वराज्य मिलनेके बाद भारत सरकार और जनप्रतिनिधियोंका इस ओर ध्यान गया है। भारतीय संविधान सभाने जिस संविधानको स्वीकार किया है, उसमें दो सिद्धान्त निश्चित रूपसे मान लिये गये हैं। १. हम मनुष्योंमें किसी भी प्रकारकी अस्पृश्यता नहीं मानते । २. हिन्दुओंके प्रत्येक सार्वजनिक स्थान और सम्पत्तिका, चाहे वह मन्दिर, धर्मशाला या ट्रस्ट ही क्यों न हो, सभी हिन्दू समान रूपसे उपयोग कर सकते हैं । यह तो मानी हुई बात है कि हिन्दू शब्द किसी धर्म विशेषका वाची नहीं है। सुदूरपूर्व कालसे जितने धर्मोके मनुष्य यहाँ निवास करते थे और जिन धर्मोके प्रवर्तक यहाँ जन्मे थे, वे सब हिन्दू शब्दकी व्याख्यामें आते हैं । इस व्याख्याके अनुसार न केवल वैदिक धर्मके अनुयायी हिन्द ठहरते हैं अपितु जैन, बौद्ध और सिखये भी हिन्द ही माने जाते हैं । संविधानकी २५वों धाराके नियम नं० २ में इस बातका स्पष्ट रूपसे उल्लेख कर दिया गया है कि Hindu includes Jain, Bauddha and Sikhas, जहाँ तक हम देखते हैं सिखों और बौद्धोंको इसमें कोई आपत्ति नहीं हैं। वे इस तथ्यको न केवल स्वीकार करते हैं, अपितु इसका प्रचार भी करते हैं; क्योंकि इसमें वे अपना सांस्कृतिक लाभ देखते हैं। राहल जी ने अनेक बार लिखा है कि हमें किसी भी हालतमें अपनेको हिन्दू कहलाना नहीं छोड़ना है। किन्तु कुछ रूढ़िवादी जैन इस तथ्यको स्वीकार करनेसे हिचकिचाते हैं। उनके सामने मुख्य प्रश्न जैन मन्दिरोंका है । उन्हें भय है कि हिन्दू शब्द की उक्त व्याख्या मान लेने पर हमें जैन मन्दिर कथित अस्पृश्योंको खोलने पड़ेंगे; जबकि वे इसके लिए तैयार नहीं हैं । इस समय जैन समाजमें विवाद दो स्तरों पर चल रहा है। प्रथम तो यह कि "जैन हिन्द हैं या नहीं, और दूसरा यह कि अस्पृश्य जैन मन्दिरोंमें जा सकते हैं या नहीं।" प्रथम प्रश्न ऐतिहासिक है और दूसरा सांस्कृतिक । ___ कुछ जैनोंका ख्याल है कि संस्कारसे 'जैन हिन्द नहीं हैं' इस बातके स्वीकार करा लेने पर ‘कथित अस्पृश्य जैन मन्दिरोंमें जा सकते है या नहीं? इस प्रश्न : अलगसे निर्णय कराने की आवश्यकता नहीं Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : १३१ रहती । वे सोचते हैं कि इस तरह जैन मन्दिर उन कानूनोंसे अपने आप बरी हो जाते हैं; जो कथित अस्पृश्योंको मन्दिर प्रवेशका अधिकार देते हैं। बात साफ है । जैन हिन्दु नहीं है यह कहना तो उनका बहाना मात्र है। वास्तवमें वे केवल इतना हो चाहते हैं कि जैन मंदिरोंमें अस्पृश्यता पूर्ववत् कायम बनी रहे । वे ऐसा क्यों चाहते हैं, इसका कारण बहुत स्पष्ट है। किन्तु हम उसमें जाना नहीं चाहते । हमारे सामने मुख्य प्रश्न संस्कृति का है। आगम इस विषयमें क्या कहता है, हमें तो यहाँ इसी बातका निर्णय करना है। भारतको दो प्रमुख संस्कृतियाँ ___उसमें भी सर्वप्रथम हमें यह देखना है कि वर्ण क्या वस्तु है और उसकी स्थापना यहाँ किन परिस्थितियों में हुई? यह तो सर्वविदित है कि भारतवर्षमें श्रमण और वैदिक ये दो संस्कृतियाँ मुख्य है । इन दोनोंके आचार विचार और क्रिया-कलापमें महान् अन्तर है। वैदिक-संस्कृति मुख्यरूपसे ईश्वरवादियोंकी परम्परा है और श्रमण-संस्कृति स्वावलम्बियोंकी परम्परा है। इन दोनोंमें पूर्व पश्चिमका अन्तर है । पतंजलि ऋषिने हजारों वर्ष पहले अपने भाष्यमें इसे स्वीकार किया है। वे इन दोनोंके विरोधको अहि-नकुलके समकक्ष का मानते हैं । 'हस्तिना ताड्यमानोऽपि न गच्छेत् जैन मन्दिरम्' इत्यादि वचन इसी विरोधके सूचक हैं । इसलिए जब कभी हम सांस्कृतिक दृष्टिसे विचार करते हैं, तब हमें इनके अन्तरको सामने रखना आवश्यक हो जाता है, अन्यथा पदार्थका निर्णय करने में न केवल कठिनाई आती है, अपितु दिशाभ्रम होनेका भय रहता है। वर्ण शब्दकी व्याख्या वर्ण क्या है यह प्रश्न बहुत कठिन नहीं है। इसका अर्थ आकार या रूप रंग होता है। प्राचीन ऋषियोंने इसी अर्थमें इसका प्रयोग किया था। उन्होंने मनुष्योंके रूप-रंगको जानकारीके लिए उनकी आजीविका और चर्याको मुख्य साधन माना था। मनुष्य जन्मसे अपनी आजीविका लेकर नहीं आता। किन्तु वह जिन परिस्थितियों में बढ़ता है और उसे अपने विकासके जैसे साधन उपलब्ध होते हैं, उनके आधारसे उसकी आजीविका निश्चित होती है । डा० अम्बेडकर आजकी कथित 'महार' जातिमें जन्मे हैं । 'महार' दक्षिणमें एक अछूत जाति है । इनके माता पिता इसी जातिके एक अंग थे। किन्तु आज वे कानूनके महान् पण्डित हैं। भारतको उनपर नाज है। वे भारतीय संविधानके मुख्य कर्ता-धर्ता हैं। उनकी बुद्धि और प्रतिभाका विश्वने लोहा माना है। यों तो वैदिकोंकी पुरानी व्यवस्थाके अनुसार वे अस्पृश्य ठहरते हैं पर आज वे किसी भी उच्चकोटिके ब्राह्मणसे हीनकोटिके नहीं माने जा सकते। इस तथ्यको प्राचीन ऋषियोंने भी अनुभव किया था। तभी तो उन्होंने कहा था क्रियाविशेषाद् व्यवहारमात्राहयाभिरक्षाकृषिशिल्पभेदात् । शिष्टाश्च वर्णाश्चतुरोवदन्ति न चान्यथा वर्णचतुष्टयं स्यात् ।। -वरांग चरित सर्ग २५ श्लोक ११ प्राचीन शिष्ट पुरुषोंने चार वणोंका जिन कारणों से प्रतिपादन किया था, उन्हींका इस इलोकमें सुस्पष्ट रूपसे वर्गीय रण किया गया है। वे कारण छह है-१. क्रियाविशेष, २. व्यवहार मात्र, ३. दया, ४. प्राणियोंकी रक्षा, ५. कृषि और ६. शिल्प । श्लोकके अन्तिम चरणमें बतलाया है कि चार वर्णों की सत्ता इन्हीं कारणोंसे मानी जा सकती है, अन्य किसी भी प्रकारसे चार वर्ण नहीं हो सकते । Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ इनमें प्रारम्भके दो सामान्य कारण हैं और अन्तके चार क्रमसे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चार वर्णों के सूचक हैं । सर्वप्रथम आचार्य क्रियाविशेषको चार वर्णोंका हेतु कहना चाहते हैं, परन्तु उन्हें भय है कि कहीं कोई इस आधारसे मनुष्योंके वास्तविक भेद न मान बैठे, इसलिए वे कहते हैं कि मनुष्योंको ऐसा कहना कि 'यह अमुक वर्णका है, यह अमुक वर्णका है' व्यवहार मात्र है। लोकमें ब्राह्मण आदि शब्दके द्वारा कथन करनेकी रूढ़ि है-कोई ब्राह्मण कहलाता है और कोई क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र । इसके सिवा इस कथनकी अन्य कोई मौलिक विशेषता नहीं है । यदि थोड़ी देरको यह मान भी लें कि व्यवहारमें इन नामोंके प्रचलित होनेके कोई अन्य कारण अवश्य है, तो वे दया, अभिरक्षा, कृषि और शिल्प इनके सिवा और हो ही क्या सकते हैं । यही कारण है कि प्राचीन कालमें इन क्रियाओंके आधारसे ब्राह्मण आदि चार वर्णोका नामकरण किया गया था। १ ब्राह्मण वर्ण पहला कारण दया है। यह अहिंसाका प्रतीक है। अहिंसा आदि पाँच व्रतोंको स्वीकार कर उनका पालन करना ही ब्राह्मण वर्ण की मुख्य पहिचान है। 'ब्राह्मण कौन' इसका निर्देश प्राचीन साहित्यमें विस्तृत आधारोंपर किया है ? इसकी व्याख्या करते हुए उत्तराध्ययनमें कहा है तसपाणे वियाणित्ता, संगहेण य थावरे । जो न हिंसइ तिविहेणं, तं वयं बूम माहणं ॥ जो त्रस-स्थावर सभी प्राणियोंको भली भाँति जानकर उनकी मन, वचन और कायसे कभी हिंसा नहीं करता, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं । कोहा वा जइ वा हासा, लोहा वा जइ वा भया । मुसं न वयई जो उ, तं वयं बूम माहणं ।। जो क्रोधसे, हास्यसे, लोभसे अथवा भयसे असत्य नहीं बोलता उसे हम ब्राह्मण कहते हैं । चित्तमन्तमचित्तं वा, अप्पं वा जइ वा बहुं । न गिण्हाइ अदत्त जे, तं वयं बूम माहणं ॥ सचित्त या अचित्त कोई भी पदार्थ, भले ही फिर वह थोड़ा हो या ज्यादा, जो बिना दिये नहीं लेता उसे हम ब्राह्मण कहते हैं। दिव्वमाणुसतेरिच्छं, जो न सेवइ मेहुणं । मणसा कायवक्केणं, तं वयं बूम माहणं ॥ जो देव, मनुष्य और तिर्यंच सम्बन्धी सभी प्रकारके मैथुनका मन, वचन और शरीरसे कभी सेवन नहीं करता, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं। जहा पोम्म जले जायं, नोवलिप्पइ वारिणा ॥ एवं अलित्तं कामेहि, तं वयं बूम माहणं ।। जिस प्रकार कमल जलमें उत्पन्न होकर भी जलसे लिप्त नहीं होता, इसी प्रकार जो संसारमें रह कर भी काम भोगोंसे सर्वथा अलिप्त रहता है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं। आदिपुराणमें भी ब्राह्मण वर्णकी उत्पत्तिका सुस्पष्ट निर्देश किया है । वहाँ बतलाया है कि भरत चक्रवर्तीने तीन वर्णके व्रती श्रावकोंको ब्राह्मण वर्णका कहा था और तभीसे ब्राह्मण वर्ण लोकमें प्रसिद्धिको प्राप्त हुआ। Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड:१३३ चार वर्णों के कार्योंका निर्देश करते हुए वहाँ यह श्लोक आया है ब्राह्मणा व्रतसंस्कारात् क्षत्रियाः शस्त्रधारणात् । वणिजोऽर्थार्जनान्न्यायाच्छूद्रा न्यग्वृत्तिसंश्रयात् ॥ ---आ० पु०, पर्व ३८ श्लोक ४६ जिन्होंने व्रतोंको स्वीकार किया है वे ब्राह्मण हैं, जो आजीविकाके लिए शस्त्र स्वीकार करते हैं वे क्षत्रिय हैं, जो न्यायमार्गसे अर्थार्जन करते हैं वे वैश्य हैं और जो जघन्य वृत्ति स्वीकार करते हैं वे शूद्र हैं। इससे भी यही ज्ञात होता है कि ब्राह्मण वर्णका मुख्य आगर आजीविका नहीं है, किन्तु व्रतोंका स्वीकार करना है। तभी तो पद्मचरितमें कहा है-- व्रतस्थमपि चाण्डालं तं देवा ब्राह्मणं विदुः ॥११,२०।। इस श्लोकमें रविषेण आचार्यने कितनी बड़ी बात कही है। इससे जैनधर्मकी आत्मा निखर उठती है। वे इसमें स्पष्ट रूपसे उस चाण्डाल (चाण्डाल कमसे आजीविका करने वाले) को भी ब्राह्मण रूपसे स्वीकार करते हैं जो जीवनमें व्रतोंको स्वीकार करता है। जैनधर्मके अनुसार वर्ण व्यवस्थाका रहस्य क्या है यह इसमें उद्घाटित करके बतलाया गया है। कोई भी मनुष्य आजीविका क्षत्रिय, वैश्य, शद्र किसी वर्णकी क्यों न करता हो यदि वह व्रतोंका पालन करने लगता है, तो वह वर्णसे ब्राह्मण हो जाता है यह इसका तात्पर्य है। मनुस्मृतिमें ब्राह्मणके अध्ययन, अध्यापन, दान और प्रतिग्रह-ये चार मुख्य कार्य बतलाये हैं । अन्यत्र आदिपुराणमें भी इन कार्योंका निर्देश किया गया है। किन्तु इनका पूर्वोल्लेखोंसे समर्थन नहीं होता । वस्तुतः ब्राह्मण वर्णकी स्थापना आजीविकाकी प्रधानतासे न की जाकर जीवनमें व्रतोंका महत्व प्रस्थापित करनेके लिए ही की गई थी। आगे चल कर ब्राह्मण वर्ण स्वयं एक जाति बन गई। यह वैदिक धर्मकी ही कृपा समझिये। २. क्षत्रिय वर्ण दूसरा कारण अभिरक्षा है। किसी भी देशमें ऐसे लोगोंकी बड़ी आवश्यकता होती है जो परचक्रसे देशकी रक्षा करते हुए समाज में सुव्यवस्था बनाये रखते हैं । अभिरक्षा शब्द द्वारा कार्यकी सूचना की गई है। यह कार्य क्षत्रिय वर्णकी मुख्य पहिचान है। इसके अनुसार शासन, सेना और पुलिसमें लगे हुए मनुष्य क्षत्रिय वर्णके माने जा सकते हैं। साधारणतः यह समझा जाता है कि शस्त्र धारण करना और मार-काट करना क्षत्रियोंका काम है। किन्तु जो लोग ऐसा कहते हैं, वे इस बातको भुला देते हैं कि शस्त्र-विद्यामें निपुणता प्राप्त करना तथा देश और समाजपर आपत्ति आनेपर उसके वारण का उद्यम करना यह किसी एक वर्णका काम नहीं है। वर्णमें मुख्यता आजीविकाकी रहती है। यदि हम यह कहें कि वर्ण आजीविकाका पर्यायवाची है, तो कोई अत्युक्ति न होगी। जिस समय आदिनाथ जन्मे थे, उस समय उनका कोई वर्ण न था; किन्तु जब उन्होंने प्रजाकी रक्षा द्वारा अपनी आजीविका करना निश्चित किया और आजीविकाके आधार से मनुष्योंको तीन भागोंमें विभक्त कर दिया, तब वे स्वयं अपनेको क्षत्रिय वर्णका कहने लगे। अभिप्राय यह है कि यदि कोई पुलिस, सेना और शासनके प्रबन्धमें लग कर इस द्वारा अपनी आजीविका करता है, तो वह क्षत्रिय वर्णका कहा जाता है, अन्यथा नहीं। क्षत्रियोंका वर्ण अर्थात् कार्य बतलाते हुए महाकवि कालिदास रघुवंशमें राजा दिलीपके मुखसे क्या कहलाते हैं, यह उन्हींके शब्दोंमें सुनिये Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ क्षतात्किल त्रायत इत्युदनः क्षत्रस्य शब्दो भुवनेषु रूढ़ः । अर्थात् क्षत्रिय शब्द पृथिवी पर, आपत्तिसे रक्षा करना, इस अर्थमें रूढ़ है। इससे स्पष्ट है कि बहत प्राचीन कालकी बात तो जाने दीजिए, महाकवि कालिदासके कालमें क्षत्रिय नामकी कोई जाति विशेष नहीं मानी जाती थी। किन्तु जो अभिरक्षा द्वारा अपनी आजीविका करते थे, वे ही क्षत्रिय कहे जाते थे। क्षत्रिय वर्णके कार्यमें अभिरक्षा शब्द अपना विशेष महत्त्व रखता है। शासनकी नीति क्या हो यह इस शब्द द्वारा स्पष्ट किया गया है। आक्रमण और सुरक्षा-ये शासन-व्यवस्थाके दो मुख्य अंग माने जात हैं । किन्तु आक्रमण करना यह क्षत्रियों का काम न होकर मात्र परचक्रसे देशकी रक्षा करना और देशके भीतर सुव्यवस्था बनाये रखना उनका काम है यह 'अभिरक्षा' शब्दसे व्यक्त होता है । आजकल राजनीतिमें अहिंसाके प्रवेशका श्रेय महात्मा गांधीको दिया जाता है। यह हम मानते है कि महात्मा गांधीने आजकी दूषित राजनीतिमें एक बहुत बड़ी क्रांति की है । इससे न केवल भारतवर्षका मस्तक ऊँचा हआ है; अपितु विश्वको बड़ी राहत मिली है। किन्तु यह कोई नई चीज नहीं है । हजारों वर्ष पहले जैन-शासकोंकी यही नीति रही है। भारतने दूसरे देशोंपर कभी आक्रमण नहीं किया, मात्र आक्रमणसे इस देशकी रक्षा की, यह इसी नीतिका सुन्दर फल है। आज विश्व इस चीजको समझ रहा है और वह इसके लिए भारतकी प्रशंसा भी करने लगा है। ३. वैश्य वर्ण तीसरा कारण कृषि है। प्रत्येक देशकी अभिवृद्धिका मख्य कारण कृषि, वाणिज्य, उपयोगी पशुओंका पालन, और उनका क्रय-विक्रय करना माना गया है। कार्य विभाजनके साथ यह कार्य करना जिन्होंने स्वीकार किया था, उन्हें वैश्य संज्ञा दी गई थी। उक्त कार्य वैश्य वर्णकी मुख्य पहिचान है। इस समय भारतवर्षमें वैश्य वर्ण एक स्वतंत्र जाति मान ली गई है और उसका मुख्य काम दलाली करना रह गया है। कृषि और उपयोगी पशुओंका पालन करना यह काम उसने कभीका छोड़ दिया है । इन दोनों कार्योंको करने वाले अब प्रायः शद्र माने जाते हैं । इसी नीतिका परिणाम है कि देशमें आर्थिक विषमता अपना मुँह बाये खड़ी है । कृषक वर्ग देशकी रीढ़ है। "उसके हाथ में ही व्यापार रहना चाहिए", यह हमारे देशकी पुरानी व्यवस्था थी । आजकल वह व्यवस्था सर्वथा लुप्त हो गई है, जिससे न केवल भारतवर्ष दुःखी है; अपितु विश्वमें त्राहि-त्राहि मची हुई है। उत्पादन और वितरणका परस्पर सम्बन्ध है। उत्पादन एकके हाथमें हो और वितरण दूसरेके हाथमें, यह परम्परा समाज-व्यवस्थाको नष्ट करनेके लिए घुनका काम करती है । हम रूसकी आर्थिक प्रणालीको दोष दे सकते हैं: पर बारीकीसे देखनेपर विदित होता है कि उसमें इसी तत्त्वकी प्रकारान्तरसे प्रतिष्ठा की गई है। इसमें सन्देह नहीं कि इससे किसी हद तक व्यक्तिको स्वतंत्रताका घात होता है और व्यक्तिको आर्थिक दष्टिकोणसे समष्टिके अधीन रहनेके लिए बाध्य होना पड़ता है. किन्तु वर्तमान उत्पादन और वितरणकी प्रणालीके चाल रहते इस दोषके प्रक्षालनका अन्य कोई उपाय भी नहीं है। प्राचीन कालमें कृषकको ही सर्वेसर्वा माना गया था। वही उत्पादक था और वही वितरक । उस समय आजके समान कृषकोंसे व्यापारियोंका स्वतंत्र वर्ग न था । यह बात इसीसे स्पष्ट है कि उस समय कृषि और वणिज एक ही व्यक्तिके हाथमें रखे गये थे। Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : १३५ ४. शूद्र वर्ण चौथा कारण शिल्प है। गृह उद्योगमें इसका महत्त्व सर्वोपरि है। प्राचीनकालमें यह काम करने वाले मनुष्योंको ही शूद्र वर्णका कहा गया था इसमें सन्देह नहीं । किन्तु धीरे-धीरे यह स्थिति बदलती गई और आजीविकाके आधारसे अनेक जातियाँ बनने लगीं। समाजमें ऐसे मनुष्योंका एक स्वतंत्र वर्ग बना, जो नाच-गानसे अपनी आजीविका करने लगा। इसके बाद इस स्थितिमें और भी अनेक परिवर्तन हुए और अन्तमें उन मनुष्योंका एक वर्ग सामने आया, जिनका पेशा सेवावृत्ति करना रह गया। समाजमें ये स्थित्यन्तर कैसे हुए, इसके कारण अनेक हैं। किन्तु यहाँ हम उन कारणोंका विचार नहीं करेंगे; क्योंकि यह एक स्वतंत्र निबन्धका विषय है। तत्काल हमें यह देखना है कि शूद्रोंकी इस स्थितिके उत्पन्न करनेमें मुख्य कारण कौन है ? यह तो हम पहले ही बतला आये हैं कि हमारे देशकी श्रमण और वैदिक-ये दो संस्कृतियाँ मख्य है, इसलिए शूद्रों की वर्तमान स्थितिके कारणोंकी छानबीन करनेके लिए इनके साहित्यका आलोडन करना आवश्यक हो जाता है। उसमें भी सर्वप्रथम प्राचीन जैन और बौद्ध साहित्यको लीजिये । बौद्धोंके "धम्मपद" और जैनोंके "उत्तराध्ययन में समान रूपसे यह गाथा आती है कम्मुणा बंभणो होइ, कम्मुणा होइ खत्तिओ। वइसो कम्मुणा होइ, सुदो हवइ कम्मुणा ॥ इसमें चारों वर्णोकी स्थापनाका मुख्य आधार कर्म माना गया है । यद्यपि इससे इस बातपर प्रकाश नहीं पड़ता कि किस वर्णका कर्म क्या है ? फिर भी श्रमण संस्कृतिके अनुसार इन चार वर्णोकी स्थापनाका मुख्य आधार सामाजिक उच्चता और नीचता तथा जातिवाद नहीं है, इतना इससे स्पष्ट हो जाता है। इन वर्णोका पृथक्-पृथक् कर्म क्या है इसकी विशद व्याख्या आचार्य जटासिंहनन्दिने अपने वरांगचरितमें की है। इसका उल्लेख हम पहले कर ही आये हैं । - जैन-परम्परामें इसके बाद आदिपुराणका काल आता है। आदिपुराणमें चार वर्णों के वे ही कार्य लिखे हैं, जिनका उल्लेख जटासिंहनन्दिने किया है। किन्तु शूद्रोंके कार्योंमें उसके कर्त्ताने एक नये कर्मका प्रवेश और किया है, जिसे उन्होंने न्यग्वृत्ति (सेवावृत्ति) शब्दसे सम्बोधित किया है। वे शूद्र वर्णके कार्यका शिल्पकर्मके रूपमें उल्लेख न कर उसके स्थानमें मुख्य रूपसे न्यग्वृत्ति शब्दका निर्देश करते हैं । यह तो श्रमण-परम्पराकी स्थिति है । अब थोड़ा वैदिक-परम्पराका आलोडन कीजिए । वैदिक-परम्परामें वेदोंका प्रथम स्थान है। उनमें ऋग्वेद पहला है । इसके पुरुषसूक्तमें सृष्टिके उत्पत्ति क्रमका निर्देश करते हुए लिखा है कि जिस विराट् पुरुषने नदी, तालाब, वृक्ष, लताएँ, पशु, देव और दानव बनाए, उसका ब्राह्मण मुख है, क्षत्रिय बाहु है, वैश्य जंघाएँ हैं और शूद्र दोनों पैर हैं । अथर्ववेदमें भी यह उल्लेख आता है, किन्तु वहाँ वैश्योंको जंघाओंकी उपमा न देकर उदरकी उपमा दी गई है। - वेदोंके बाद ब्राह्मण और उपनिषद् काल आता है; किन्तु वहाँ इनके कार्योंका अलगसे विचार नहीं किया गया है। Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ इसके बाद मनुस्मृति काल आता है । मनुस्मृति ब्राह्मण धर्मका प्रमुख ग्रन्थ है । इसकी रचना मुख्यतया चार वर्णों के धर्म कर्त्तव्योंका कथन करनेके लिए की गई थी। यहाँपर हम प्रसंगसे धर्मके सम्बन्धमें दो शब्द कह देना चाहते हैं । 'धर्म' शब्द मुख्यतया दो अर्थों में व्यवहृत होता है-एक व्यक्तिके जीवन संशोधनके अर्थमें जिसे हम आत्मधर्म कहते हैं और दूसरा समाज कर्तव्यके अर्थमें । मनुस्मृतिकारने इन दोनों अर्थों में धर्म शब्दका उल्लेख किया है । वे समाज कर्त्तव्यको वर्णधर्म कहते हैं और दूसरेको सामान्य धर्म कहते हैं । धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष-इन चार पुरुषार्थों में धर्म पुरुषार्थसे वर्ण धर्म ही लिया गया है। उनके मतसे सामान्य धर्म अर्थात आत्मधर्मके अधिकारी सब मनुष्य है, किन्तु समाज कर्त्तव्य सबके जुदे-जुदे हैं । गीतामें 'स्वधर्मे निधनं श्रेय.'से इसी समाज धर्मका ग्रहण होता है। मनुस्मृतिकार ९वें अध्यायमें शूद्र वर्ण के कार्योंका निर्देश करते हुए कहते हैं विप्राणां वेदविदुषां गृहस्थानां यशस्विनाम् । शुश्रूषैव तु शूद्रस्य धर्मो नश्रेयसः परः ॥३३४।। वेदपाठी, गृहस्थ और यशस्वी विप्रोंकी सेवा करना यही शूद्रोंका परम धर्म है जो निश्रेयस का हेतु है । इसके आगे वे पुनः कहते हैं शचिरुत्कृष्टशुश्रूषुर्मूदुवागनहंकृत। ब्राह्मणाद्याश्रयो नित्यमुत्कृष्टां जातिमश्नुतेः ॥३३५॥ पवित्र रहने वाला, अच्छी टहल करने वाला, धीमेसे बोलने वाला, अहंकारसे रहित और ब्राह्मण आदि तीन वर्षों के आश्रयमें रहने वाला शूद्र ही उत्तम जातिको प्राप्त होता है । इस तरह इन दोनों परम्पराओंके साहित्यका आलोडन करनेसे यह बात बहुत साफ हो जाती है कि शुद्र वर्ण का मुख्य कर्त्तव्य तीन वर्गों की सेवा करना मनुस्मृति की देन है। आदिपुराणमें यह बात मनुस्मृतिसे आई है । आदिपुराणमें जो शूद्रोंके स्पृश्य और अस्पृश्य-ये भेद किये गये है, वह भी मनुस्मृति व इतर ब्राह्मण ग्रन्थोंका अनुकरणमात्र है । यह इसीसे स्पष्ट है कि आदिपुराणके पहले अन्य किसी आचार्यने शूद्रोंके न तो कारु-अकारु और स्पृश्य-अस्पृश्य-ये भेद किये हैं और न उनका काम तीन वर्गों की सेवा करना ही बतलाया है। आदिपुराणकारको ऐसा क्यों करना पड़ा इसके लिए हमें भारतकी तात्कालिक और इससे पहलेकी परिस्थितिका अध्ययन करनेकी आवश्यकता है। इस समय भारतवर्ष में हिन्दुओं और मुसलमानोंका विरोध जिस स्तरपर चालू है ठीक वही स्थिति उस समय श्रमण-ब्राह्मणों की थी। उस समय श्रमणों और श्रमणोपासकोंको 'नंगा लुच्चा' कहकर अपमानित किया जाता था, उनके मंदिर ढाये जाते थे, मूत्तियोंके अंग भंगकर उन्हें विद्रूप बनाया जाता था, बौद्धोंको 'बुद्ध' शब्द द्वारा संबोधित किया जाता था और जैन-बौद्ध-साधुओंको अनेक प्रकारसे कष्ट दिये जाते थे। मीनाक्षी के मन्दिरमें अंकित चित्र आज भी हमें उन घटनाओंकी याद दिलाते हैं। ८-९वीं शताब्दिमें यह स्थिति इतनी असह्य हो गई थी जिसके परिणामस्वरूप बौद्धोंको तो यह देश ही छोड़ देना पड़ा था और जैनोंको तभी यहाँ रहने दिया गया था जब उन्होंने ब्राह्मणोंके सामने सामाजिक दृष्टिसे एक तरहसे आत्मसमर्पण कर दिया था। यह तो हम आगे चल कर बतलायेंगे कि आदिपुराणमें मनुस्मृतिसे कितना अधिक साम्य है । यहाँ केवल इतना ही उल्लेख करना पर्याप्त है कि आदिपुराणमें शूद्र वर्णका जो सेवावृत्ति कार्य बतलाया गया है उसका श्रमण परम्परासे मेल नहीं खाता । इस प्रकार शूद्र वर्णका प्रधान कार्य क्या था और बादमें उनकी सामाजिक स्थिति में किस प्रकार परिवर्तन होता गया इसका संक्षेप में निर्देश किया। Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : १३७ मनुस्मृति और शूद्रवर्ण अब यहाँ यह देखना है कि शूद्र वर्णकी इस तरहकी निकृष्ट अवस्थाके होनेमें मनुस्मृतिका कितना हाथ है । यह तो हम पहले ही बतला आये हैं कि मनुस्मृतिमें चारों वर्गों के कार्यों और उनके परस्पर सम्बन्धका विस्तृत विचार किया गया है। उसके कर्ता ग्रन्थके आदिमें मंगलाचरणके बाद स्वयं लिखते हैं भगवन् सर्ववर्णानां यथावदनुपूर्वशः ।। अन्तरप्रभवाणां च धर्मान्नो वक्तुमर्हसि ॥२॥ हे भगवन् ! सब वर्गों और संकीर्ण जातियोंके धर्मोको आद्यन्त आप हमें कहनेके योग्य हैं । मनुस्मृति कहती है "ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य इनकी निष्कपट-भावसे सेवा करना यही एक धर्म शद्रका कहा गया है (१.९१) । शूद्र सन्ध्या करनेके अधिकारी नहीं तथा जो द्विज प्रातः और सायंकालके समय संध्या नहीं करता, वह भी शूद्रके समान सब प्रकारके द्विज कर्त्तव्यसे बहिष्करणीय है (२.१०३)। शुद्र-कन्यासे चारों वर्णो के मनुष्य विवाह कर सकते हैं, परन्तु शूद्र-शूद्र कन्यासे ही विवाह कर सकता है (३.१३) । श्राद्धमें भोजन करते समय ब्राह्मणको चाण्डाल""न देखे (३-२३९)। शूद्रोंके राज्यमें निवास न करे (४.६१)। शद्रको उपदेश न देवे और न जूठ और हवनमें बचा हुआ शाकल्य देवे, तथा शूद्रोंको धर्म और व्रतोंका उपदेश न करे (४.८०)। शूद्रोंको धर्म और व्रतका उपदेश करने वाला मनुष्य उसी शूद्र के साथ असंवत नामक नरकको प्राप्त होता है (४.८१) । श्राद्ध कर्मके अयोग्य शूद्रका पका अन्न न खावे, किन्तु अन्न न मिलनेपर एक रात्रि निर्वाह योग्य उससे कच्चा अन्न ले लेवे (४-२२३) । मृतक शूद्रको गाँवके दक्षिण द्वारसे ले जावे (५-९२) । मरे हुए ब्राह्मणको शूद्रके द्वारा न ले जाय, क्योंकि शूद्रके स्पर्शसे दूषित हुई वह शरीरकी आहुति स्वर्ग देने वाली नहीं होती (५.१०४)। शूद्रोंको मासमें एक बार हजामत बनवाना चाहिए और ब्राह्मणका जूठा भोजन करना चाहिए (५.१४०) । केवल जातिसे जीविका निर्वाह करने वाला धर्महीन ब्राह्मण राजाकी ओरसे धर्मवक्ता हो सकता है, परन्तु शूद्र कदापि नहीं हो सकता (८.२०)। जो शूद्र अपनेसे उच्च वर्णकी निन्दा करे, तो राजा उसकी जिह्वा निकाल ले, क्यं कि उसका पैरसे जन्म है और उसको अपनेसे उच्चको कहनेका अधिकार नहीं है (८. २७०) । यदि कोई शूद्र ब्राह्मणको नीच आदि कुवचन कहे तो अग्निमें तपाकर १० अंगुलकी लोहेकी कील उसके मुंहमें ठोक दे । ८.२७१) । (८.२७२) । मनु जी की आज्ञा है कि शूद्र जिस अंगसे द्विजातियोंकी ताड़ना करे उसी अंगका भंग करना चाहिए (८-२७९)। हाथसे मारे तो हाथ, पैरसे मारे तो पैर भंग कर देना चाहिए (८.२८०) । शूद्र के ब्राह्मणके आसनपर बैठनेपर लोहा गर्म करके उसकी पीठ दाग दे, देशसे निकाल दे और उसके शरीरसे मांस पिण्ड कटवा दे (८.२८१) । शूद्रके ब्राह्मणपर थूकनेपर दोनों होंठ कटवा दे, मूतनेपर लिंगेन्द्रिय छिदवा दे और अपान वायु छोड़नेपर गुदा छेदन कर दे (८.२८२)। जो शूद्र अभिमानवश द्विजातिको बाल पकड़ कर पीड़ा दे या पैर या वृषणोंको कष्ट दे; तो उसके हाथको कटवा दे (८२८३)। शूद्र यदि भर्ता आदि द्वारा रक्षित स्त्रीके साथ गमन करे तो उसका सर्वस्व राजा हर लेवे । यदि अरक्षित स्त्रीके संग गमन करे; तो उसकी लिंगेन्द्रिय कटवा दे (८.३७४)। क्रीतदास या प्राप्तदास इन्हींसे टहल सेवा करावे, क्योंकि ब्रह्मा जीने शूद्रको ब्राह्मणका दास कर्म करनेके लिए ही उत्पन्न किया है (८.४१३), (८.४१४)। (८.४१६) । शूद्रका काम है कि वह निरंतर अपने कार्यमें रत रहे (८.४१८) । स्वर्ग की प्राप्तिके वास्ते और इस लोक में अपनी गुजरके वास्ते शूद्र ब्राह्मणकी सेवा करे, क्योंकि वह ब्राह्मणका सेवक है । सेवक शब्दसे शूद्रकी कृतकृत्यता है (१०.१२२) । ब्राह्मणकी सेवा करना शद्रका परम धर्म कहा है, शूद्र जो अन्य कर्म करता है, Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ वह सब निष्फल हो जाता है (१०.१२३) । सेवक शूद्रके वास्ते ब्राह्मण उच्छिष्ट भोजन, पुराने वस्त्र और घान्योंके बाकी बचे कण और पुराने बर्तन देवे (१२.१२५) । शूद्रका उपनयन संस्कार न करे (१०.१२६) । क्योंकि उसके पास धन बढ़ जानेपर वह ब्राह्मणों को सताने लगता है (१०.१२९) । " भारतीय परम्परा में विषमताके बीज मनुस्मृतिने बोए, यह इन उल्लेखोंसे स्पष्ट हो जाता है । उपसंहार भारतवर्ष में ईसवी चौथी शताब्दि के पूर्व अछूतपनकी बीमारी नहीं थी । जब ब्राह्मण धर्मका भारतवर्षमें प्राबल्य हुआ और वे जैन-बौद्धोंको परास्त कर मनुस्मृतिके आधारसे समाजव्यवस्थाको दृढ़ मूल करने में समर्थ हुए, तभी से इस भयानक बीमारीने हमारे देश में प्रवेश किया है । बौद्ध इस देशको छोड़कर चले गये इसलिए वे इस बीमारी के शिकार न हो सके, किन्तु जैनोंको ८९वीं शताब्दी में इसके सामने न केवल नतमस्तक होना पड़ा. अपितु समानता के आधारपर स्थापित अपनी पुरानी सामाजिक व्यवस्थासे उन्हें चिरकालके लिए हाथ धोने पड़े ! ब्राह्मण धर्मकी समाज व्यवस्थाके अनुसार अछूतपन एक स्थायी वंशानुगत कलंक है, जो किसी तरह धुल नहीं सकता । आजके रूढ़िवादी जैनी कुछ भी क्यों न कहें, पर हमें इस बातका संतोष है कि जैनधर्मकी उस उदात्त भावना के दर्शन उसके विशाल साहित्य में आज भी होते हैं, जिसने इसका सदा काल तिरस्कार किया है । तभी तो आचार्य जिनसेन कहते हैं मनुष्यजातिकै वृत्तिभेदाहिताद् जातिकर्मोदयोद्भवा । भेदाच्चातुविध्य महाश्नुते || - आदिपुराण पर्व ३८ श्लोक ४५ जाति नाम कर्मके उदयसे उत्पन्न हुई मनुष्य जाति एक है । यदि उसके चार भेद माने भी जाते हैं, तो केवल आजीविका के कारण ही हैं । Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देव-पूजा यह संसारी जीव आत्मकल्याणका इच्छुक है । परन्तु जब तक इसे पूर्ण सुखकी प्राप्ति नहीं हुई है, पराधीन सुखको हो यह आत्म-सुख मानता है। इन्द्रियद्वारा पदार्थ के ग्रहण करने पर तज्जन्य अनुभव करनेके लिये ही यह धड़पड़ करता है तब तक यह आत्मकल्याणका मार्ग चूका हुआ है-इनमें कुछ भी संदेह नहीं है, कारण इच्छाके अनुकूल इन्द्रियों के द्वारा निरन्तर पदार्थोका ग्रहण होता रहेगा अथवा जिस पदार्थको आज यह अपने लिये हितकर समझता है उसमें इसकी सर्वदा उसी प्रकारकी कल्पना बनी रहेगी, यह निश्चित नहीं कहा जा सकता है। हम देखते हैं कि इस समय जो पदार्थ हमें हितकर मालूम पड़ता है, इच्छा बदलनेपर उसी पदार्थकी प्राप्तिके लिये हमारी अरुचि उत्पन्न हो जाती है। आज जो पदार्थ हमें तिरस्करणीय मालूम पड़ता है अतएव उसे हम अपनेसे बिल्कुल दूर कर देते हैं। दूसरे दिन उसी पदार्थकी प्राप्तिके लिये हम अत्यन्त व्याकुल हो उठते हैं । इतना ही नहीं, किन्तु ज्यों-ज्यों वह पदार्थ हमसे दूर होता जाता हैं, त्यों-त्यों उसकी प्राप्तिके लिये हमारी इच्छा और अधिक तीव्र होती जाती है और अन्तमें उसकी प्राप्ति न होने पर हमारी वही इच्छा दुःखरूपमें परिणत होकर अनुकूल दुसरे पदार्थोकी प्राप्ति में भी अरुचिको उत्पन्न करने लगती है। इस तरह यह निश्चित हो जाता है कि सच्चा सुख इन्द्रियों के द्वारा परवस्तुके ग्रहण करने में न होकर कोई विलक्षण ही वस्तु है। फिर वह सुख क्या वस्तु है, यह प्रश्न हमारे सामने एकदम खड़ा रहता है । इस प्रश्नके उत्तरके लिए हमें दःख और सखके स्वरूपका विचार करना होगा। उनके स्वरूपका विचार करने पर यह स्पष पड़ जाता है कि इच्छाओंके ऊपर इच्छाओंका उत्पन्न होना ही दुःख है और उन इच्छाओंका अभाव करना ही सुख है इस तरह दुःख और सुखके स्वरूपका निर्णय हो जाने पर हमें यदि सुखकी प्राप्ति करना है तो उसकी प्राप्ति इच्छाओं के अनुकूल विषयोंको जुटानेमें न होकर इच्छाओंके सर्वथा अभाव करने पर ही हो सकेगी यह हमें और समझ लेना चाहिये । कारण, इच्छाके अनुकूल उसका खाद्य देनेसे यद्यपि एक इच्छा शान्त हो जाती है, परन्तु उसके स्थानमें उसी समय दूसरी इच्छा खड़ी रहती है। इस तरह हम निरन्तर इच्छाओंके अभावका प्रयत्न करते हैं और निरन्तर इच्छायें उत्पन्न होती रहती हैं। इसका कारण-इच्छाओंके अभाव मार्ग चुका हुआ है, यही समझना चाहिए । इच्छाओं के अभाव करनेका सबसे उत्तम उपाय यदि है तो वह यही हो सकता है कि हम इच्छाओंकी पुष्टि न करके उनके नाशका प्रयत्न करें। यदि हम इच्छाओंका सर्वथा नाश कर सके तो इच्छाजन्य दुःखका अभाव होकर परम वितृष्णरूप सुख की हमारी आत्मामें उत्पत्ति होगी, इसमें कोई सन्देह नहीं और उस वितृष्णरूप सुखका विरोधी कोई कारण न रहनेसे वह सुख स्थाई और अनन्तरूप होगा। इस तरह सुखके स्वरूपका पता लग जाने पर हमें उसके मार्गका भी पता लगाना ही होगा। कारण, बिना मार्गके उस निराकुलतारूप सुखकी प्राप्ति होना अत्यन्त कठिन है। निराकुलतारूप सुखके मार्ग का निश्चय करते हुये वह निर्विकल्पदशाका ही पोषक होना चाहिये । कारण, जब तक अपनी आत्मामें विकल्प अवस्था है तब तक यह जीव अपना कल्याण नहीं कर सकता है। इसके लिये इसे सहायक आदर्शको अत्यन्त आवश्यकता है। परन्तु मानसिक विकल्प बहत करके इन्द्रियों के Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० : सिद्धान्ताचार्य पं० फुलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ द्वारा ग्रहण किये हये पदार्थमें ही होता है, इसलिये यह जीव अपरिपक्व अवस्थामें अपने जीवनका ध्येय किसी भी वस्तुको बना लेता है, ऐसे जीवके अपने जीवनका एक भी ध्येय स्थिर नहीं रहता है, इसीलिये यह अवस्था इस जीवके कल्याण के लिये सहायक न होकर उसके लिये बाधक ही सिद्ध होती है। कारण इस अपरिपक्व थामें यह जीव विकल्प छोड़नेकी इच्छा तो करता है, परन्तु वह छूटता नहीं है। परन्तु विकल्पसे रहित हुये बिना पूर्णशांति अथवा सुखकी प्राप्ति नहीं हो सकती है। इसके साथ दूसरी बात यह है कि यदि पूर्ण शान्तिकी प्राप्तिके लिये यह प्राणी समस्त विकल्पोंको एकदम छोड़नेका भी प्रयत्न करे तो वह असंभव है। पूर्ण शान्ति केवल नासाग्रदृष्टि, निर्जनस्थान और घरकुटुम्ब आदिके त्यागमें नहीं है । वह तो आत्मपरिणाम हैं, इसलिये इन्द्रियोंका निरोध और रागद्वेष रहित मनकी स्थिरता होनेपर ही उसकी प्राप्ति हो सकती है । ___इस तरह जबकि संसारके बंधनों अथवा दुःखसे छूटनेके लिये इसका ध्येय अथवा सच्चा आदर्श निविकल्पदशा किंवा पूर्णशांति है तो इसे उसकी प्राप्ति करना ही चाहिए। उसकी प्राप्तिके दो मार्ग सम्भव हैं। पहिला विकल्पके कारणरूप बाह्य वस्तुओंका त्याग करके धीरे-धीरे आत्मवतिको अपनी आत्मामें स्थिर करना और दूसरा विकल्परूप अवस्थामें रह कर भी अथवा विकल्प अवस्थाके कारणरूप अवस्थामें रह कर भी अथवा विकल्प अवस्थाके कारणरूप बाह्य पदार्थ और शरीर आदिके ऊपर प्रेम करते हुए भी धीरे-धीरे उनका त्याग करना-इन दोनों अवस्थाओंमें निर्विकल्प अवस्था उत्पन्न करनेवाली सामग्रीमें मनको स्थिर करना अत्यन्त आवश्यक है। इस समय जो पहिले मार्गका आश्रय कर चुके हैं, उन्होंने तो बाह्य-क्रियाओंको व्यर्थका महत्व न देकर राग, द्वेष और मोहसे रहित शुद्ध आत्मपरिणतिको अपने आत्मामें स्थिर करना चाहिए परन्तु हम पहले मार्गसे अभी दूर हैं और दूसरे मार्गमें भी हमारी स्थिरता निर्विकल्प अवस्थाको उत्पन्न करनेवाली सामग्रीके बिना नहीं हो सकती है, इसलिए अपने लिये निर्विकल्प अवस्थाको उत्पन्न करनेवाली अथवा शान्तिकी सामग्री एकत्र करना चाहिये। सामग्रीके सम्बन्धमें जिसने उस निर्विकल्प अवस्थाको प्राप्त कर लिया हो, ध्येयकी सिद्धिके लिए वही अपनी पूजाकी उपयुक्त सामग्री समझना चाहिए । परन्तु आज अपने लिए ऐसे पवित्र आत्माके साक्षात् दर्शन नहीं होते हैं, इसलिए हम और आप उस परमात्माकी आदर्शरूपसे स्थापना करते है। परन्तु उस स्थापनाको साक्षात् परमात्मा न समझकर उस स्थापनामें अपने अन्तर्चक्षुओं के द्वारा ध्यान करना चाहिए । ऐसा करनेसे यद्यपि स्थापनामें परमात्माके दर्शन नहीं होंगे तो भी उस निमित्तसे अपनी अन्तरात्मामें परमात्मज्योति जागृत होगी । इससे यह निष्कर्ष निकल आता है कि स्थापनापूजा भी परमात्माकी पूजा है । कारण, परमात्मा साक्षात् रहो अथवा परोक्ष रहो, अपनेको जब भी सबसे पहिले परमात्माके दर्शन होंगे तब अपनी अन्तरात्मामें ही होंगे अर्थात् ध्यान द्वारा यह आत्मा स्वयं अपनेमें ही परमात्मदशाका अनुभव करेगा। उसे कर्मके निमित्तसे होनेवाला विकारीभाव अलग अनुभवमें आवेगा। और शुद्ध चिद्रप आत्मा अलग अनुभवमें आवेगा। इस अनुभवके माहात्म्यसे उसकी यह विवेकदृष्टि अपने आप जागृत हो जाती है कि मैं स्वयं जन्म आदि रोगोंसे रहित हूँ, ज्ञानधन हूँ, वीतराग हूँ, चिन्मय परम सुखका भोक्ता हूँ। यह दिखनेवाली विकारी अवस्था मेरी न होकर उपाधिजन्य है । जब तक मैं इसे अपनी समझता हूँ, तभी तक यह मुझसे सम्बन्ध किये हए हैं । इस विकारी अवस्था मेंसे ममत्वभावकी कमी होते ही वह अपने आप मुझसे दूर हो जावेगी और मेरा यह स्वभावसे शुद्ध, परन्तु उपाधिसे सम्बन्धको प्राप्त, अतएव अशुद्ध-आत्मा अपनेमें ही परमात्मदशाका अनुभव करने लगेगा। Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : १४१ इस तरह इस संसारी प्राणीको आत्मस्वरूप अथवा सच्चे सुखकी प्राप्तिके लिए साक्षात् परमात्मा अथवा स्थापनाके रूपमें परमात्मा ही कारण है। वह परमात्मा वीतराग सर्वज्ञ और हितोपदेशी ही हो सकता है। वही अपना इष्ट देव है, उसकी ही अपनेको पूजा करनी चाहिये । स्थापनाके रूप में यदि हम और आप उस महाप्रभुकी पूजा करते हैं तो भी साक्षात् देवकी पूजा करते हैं। इसके अतिरिक्त विकल्प रूप अवस्थामें अपने लिये दूसरा कोई भी तत्त्व अपने आत्मकल्याणका विषय नहीं हो सकता है। गुरुमें भी अंशरूपसे परमात्मज्योति जागृत होती है, इसलिए वह भी अपनी उपासनाकी वस्तु समझनी चाहिए। गृहस्थको इस प्रकार परमात्माकी अनन्यभावसे निरन्तर पूजा करनी चाहिये। हमारे आत्मीक सुखकी प्राप्तिके लिए यही सबसे सरल और हितकर मार्ग है । गुरूपास्ति विषयाशावशातीतो निरारम्भोऽपरिग्रहः । ज्ञानध्यानतपोरक्तस्तपस्वी स प्रशस्यते ।। समन्तभद्रस्वामीने गुरुका लक्षण बतलाते हुये रत्नकरण्डश्रावकाचारमें कहा है कि जो पाँच इन्द्रियोंके विषयोंसे विरक्त है, संसारके सर्व प्रकारके प्रलोभनोंसे जिसका मन उदास हो गया है। जिसने व्यापार आदि सर्वप्रकारके आरम्भका त्याग कर दिया है । जो बाह्य और आभ्यन्तर-इस तरह दोनों प्रकारके परिग्रहसे रहित है और जो निरन्तर ज्ञान, ध्यान तथा तपमें लीन रहता है वह साधु-गुरु प्रशंसायोग्य है । परिवर्तनका नाम संसार है इसलिये इस परिवर्तनमें पड़े हुये सब जीव संसारी समझने चाहिये । उस संसारकी उत्पत्ति अपने विभाव-परिणामोंसे होती है। जब तक यह संसारी प्राणी अपने स्वस्वरूपसे च्युत है अर्थात् परभावमें निजभावकी कल्पना करता है, तब तक विभावपरिणति होना स्वाभाविक बात है। बहुतसे प्राणी अपनेसे सर्वथा भिन्न परभाव ऐसे गृह, स्त्री और पुत्रादिकका त्याग करके भी आत्मा और कर्मके संयोगसे उत्पन्न होनेवाले परभावोंमें अर्थात् परनिमित्तक भावोंमें अपनत्वकी कल्पना करते हैं। उसी प्रकार बहुतसे प्राणी पर-कर्मनिमित्तक भावोंके होते हुये भी तथा उन भावोंके निमित्तसे उत्पन्न होनेवाली आत्माकी विकारी अवस्थाका प्रत्यक्ष अनुभव करते हुए भी आत्माको वर्तमानसे भी सर्वथा शुद्ध मानते हैं । परन्तु ये दोनों ही मान्यतायें वस्तुस्थितिको छोड़कर है। यद्यपि स्वतंत्र आत्मा अनन्त ज्ञानादि गुणवाला है तो भी अनादिकालसे इस आत्माके कर्मबन्ध होनेके कारण केवलज्ञानादि गुण शक्तिरूपसे है, प्रकट नहीं। उन गुणोंकी व्यक्तता रहते हुये जो काम होता है वह अशुद्ध आत्माके नहीं होता है । दियासलाइयोंकी पेटी जो काम नहीं कर सकती है वह एक जलती हुई सींक काम करती है। इस तरह कर्मबद्ध आत्माको सर्वथा शुद्ध मानना जिस प्रकार मिथ्या है, उसी प्रकार उसको सर्वथा रागी और द्वेषी कल्पना करना भी मिथ्या है। आत्माको । रागी और देषी कहा जाता है इसका कारण, परनिमित्त है। कारण, व्यवहार परनिमित्तसे उत्पन्न हये धर्मको ग्रहण करता है। वहाँपर केवलज्ञानादि शक्ति रहते हये भी वह उसका विषय नहीं होनेसे उसे ग्रहण नहीं करता है। उसी प्रकार निश्चयसे जो आत्माको शुद्ध-बुद्ध और निरंजन आदि कहा जाता है Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ इसका कारण केवल वस्तु स्वरूपकी मुख्यता है। कारण, निश्चय केवल वस्तुस्वरूपको ग्रहण करता है, यहाँ पर राग और द्वेष आदि परिणति रहते हुये भी वह निश्चयनयका विषय न होनेके कारण निश्चयनय उसे ग्रहण नहीं करता है । इस तरह इन दोनों नयोंके विषय में व्यवहारका विषय हेय है और निश्चया विषय उपादेय है, इसप्रकार की दृढ़श्रद्धाके द्वारा परवस्तु के ऊपर होनेवाले मोह, राग और द्वेषको क्रमसे त्याग करना चाहिए | इतना ही नहीं, किन्तु इन औदयिक भावोंकी तरह क्षायोपशमिक और औपशमिक अवस्था में भी हेयबुद्धि रहनी चाहिए। और स्वस्वरूपको प्राप्ति के लिये निरन्तर अभ्यास करना चाहिए । परन्तु अनादिकालीन वासनाका सहसा त्याग करना कठिन है, उसके लिए अति अभ्यासकी आवश्यकता है। जैसे-जैसे यह प्राणी संसार में रतिको दुःखरूप और संसारकी अवस्थाओंके त्यागको सुखरूप अनुभव करेगा, वैसे-वैसे इस प्राणीकी परवस्तुके ऊपरकी मोहरूप वासना छूटती जावेगी । परवस्तुसम्बन्धी ममत्वकी कमी हो जानेके कारण राग और द्वेषरूप परिणति अपने आप कम होती जाती हैं । इस तरह धीरे-धीरे घर, स्त्री आदि पदार्थों के छूट जानेपर शरीर सम्बन्धी इष्टानिष्ट बुद्धिकी भी कमी हो जाती है और यह प्राणी इन सबको दुःखका कारण समझकर उनका त्याग कर देता है। इसके बाद इसकी स्थिति आत्मामें होती है, चर्या भी आत्मा के लिये ही करता है और यह अपना सम्बन्ध अपनी आत्मासे हो जोड़ता है। अर्थात् इसकी जो कुछ भी प्रवृत्ति होती है। वह सब आत्माके लिए ही होती है, दूसरे पदार्थों के लिए नहीं । जिस प्रकार सोनेको शुद्ध करनेके लिये उसे तपाया जाता है, पीटा जाता है और दूसरे पदार्थका मेल किया जाता है, वह सब विधि सोनेकी अशुद्धता दूर करने में ही सहकारी होती है। उसी प्रकार परम वैराग्यको प्राप्त हुआ साबु बाह्य समस्त क्रियाओंको करता हुआ भी वे सब उसके कर्मबन्धके लिये कारण न होकर कर्म- निर्जराके लिये ही कारण होती हैं । सत्यदृष्टिसे ऐसा साधु ही सच्चे मोक्षमार्ग अथवा आत्मकल्याणका उपासक समझना चाहिए। उसके आचार्य उपाध्याय आदि अनेक बाह्य वेष दिखते हुये भी तत्वतः वह एकरूप है। शिक्षा और दीक्षा आदिके निमित्तसे वे सब उसकी उपाधियाँ हैं, निजस्वरूप नहीं। ऐसे महात्माको यद्यपि वर्तमान में मोक्षकी प्राप्ति नहीं हुई है, परन्तु उस मार्ग के ऊपर आरूढ़ होनेके कारण साध्यरूपसे नहीं तो भी साधनरूपसे वह महात्मा सबके द्वारा वंदनीय है, अपनी कृति मोक्षमार्गका साक्षात् प्रदर्शक होनेके कारण वही महात्मा हमारा गुरु है, आत्मकल्याणका साक्षात् साधन करनेवाला होनेसे वही महात्मा सच्चा साधु है । अपनेको ऐसे महात्माकी ही निरन्तर वंदना, स्तुति और पूजा करनी चाहिए । यदि वे अपने समक्ष न हों तो भी उनका परोक्ष वंदनामें अपना चित्त रहना चाहिए । SIZA Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वाध्याय स्वाध्याय इस शब्दका वास्तविक अर्थ आत्मचिन्तवन समझना चाहिए । स्व शब्दका अर्थ आत्मा और अध्याय शब्दका अर्थ चितवन अथवा ध्यान है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि प्रतिदिन इस प्राणीको आत्म-चितवनमें अपना समय व्यतीत करना चाहिए। शास्त्र आदिके अध्ययन करने को भी स्वाध्याय कहते हैं, उसका इतना ही प्रयोजन है कि इस विषमतारूप संसारका और इस जगत् में विद्यमान समस्त पदार्थोंका यदि योग्य परिज्ञान नहीं हुआ तो आत्मतत्त्वकी परख करना कठिन हो जावेगी । कारण, यह संसारी प्राणी मोह और अज्ञानके कारण शरीराधित क्रियाओंको ही आत्मत्वकी कल्पना करके बैठा है। इसलिए जब वह भेदविज्ञानके कारणभूत शास्त्रोंका निरन्तर अभ्यास करने लगेगा तभी इसे शुद्ध आत्मस्वरूपका ज्ञान हो सकेगा । स्वाध्यायका सबसे प्रथम प्रयोजन भेदविज्ञानकी प्राप्ति है, इसलिए सर्वप्रथम भेदविज्ञान के कारणभूत द्रव्यानुयोगका स्वाध्याय करना ही उपयुक्त है। परन्तु इस जीवकी पहली अवस्था इतनी अपरिपक्व है कि उसके रहते हुये भेदविज्ञानके प्रतिपादक शास्त्रोंका स्वाध्याय करके भी इसे अपने आत्मस्वरूपका ज्ञान नहीं होता है । इसलिए सबसे पहले पुण्य और पाप और उसके फलके ज्ञान करानेवाले तथा उसी प्रकार धीरे-धीरे विवेचनात्मक पद्धति से पदार्थों के स्वरूपके और अपनी आभ्यान्तर-बाह्य क्रियाओंका ज्ञान करानेवाले शास्त्रोंका भी स्वाध्याय करना चाहिए । ऐसा करनेसे अपनेको पुण्य-पापरूप अवस्था, पदार्थोंका यथार्थ स्वरूप और स्वयं आचरण करने योग्य चारित्र इनका यथार्थं बोध हो जायगा । यहाँ पर इतना ध्यानमें रखना चाहिए, कि संसारमें जो व्यवहार और विचारोंमें एकान्तता नजर आती है, उसका कारण केवल उस विषयकी प्रधानताको प्रतिपादन करनेवाले शास्त्रोंका ही स्वाध्याय सम झना चाहिए। हमारे यहाँ वस्तुतत्त्व और उसके व्यवहारका विवेचन करनेवाले चार अनुयोग होते हुए भी उनके स्वाध्यायका क्रम बहुजन समाजको मालूम नहीं होनेसे अपनी इच्छाके अनुसार किसी एक अनुयोगके ग्रन्थोंका स्वाध्याय करके वे उसके एकान्ती बन जाते हैं, परिणाम यह होता है कि किसीको व्यवहारमें धर्म दिखता है तो किसीको विचारोंमें । कोई रूढ़िसे आई हुई, परन्तु लौकिक क्रियाओंको ही धर्मका चोगा पहनाकर उनसे मुक्ति प्राप्त करना चाहते है तो कोई व्यवहार जगत्को सर्वथा असत्य मानकर विचारोंकी प्रमुखता से ही मोक्ष प्राप्त करना चाहते हैं । परन्तु वे व्यवहारी जिन्हें आत्मतत्त्वके स्वरूपके पहचानकी गंध भी नहीं है ऐसे लोग शास्त्रका आधार लेकर लौकिक क्रियाओंको करते हुए मोक्षमार्गी नहीं हो सकते हैं । शास्त्रकारोंने ऐसे जीवोंको व्यवहाराभासी कहा है उसी प्रकार जो बहुजन समाजके ऊपर क्या परिणाम होगा, इधर थोड़ा भी लक्ष्य न देकर इस व्यवहारप्रधानी जगत्को अपने विचारोंका ही केन्द्र बनानेका सुखस्वप्न देखते हैं और स्वयं भी उन विचारोंकी मनोहर कल्पनाओंसे अपनेको संसारमुक्त समझनेका प्रयत्न करते हैं। ऐसे लोग जिनकी दृष्टि में यह भी योग्य और वह भी योग्यकी दृढ़ श्रद्धा जमी हुई हैं, उनको अज्ञानी कहते हैं । परन्तु वे इस बातको बिल्कुल भूल जाते हैं कि यह संसार पुद्गल और चेतनाका मेल होनेके कारण हमारी क्रियाओंमें दोनों ही तत्त्वोंका प्रतिबिम्ब पड़े बिना नहीं रह सकता है, अतएव जो क्रिया आत्मा और शरीर इन दोनोंकी पोषक न होकर हानिकर है, उनका भी हमें त्याग करना होगा। उसी प्रकार जो विचार भेद-विज्ञानकी ओटमें शरीर सम्बन्धी क्रियाकी तरफ बिल्कुल दुर्लक्ष्य करते हैं, उनका भी हमें त्याग करना होगा। इसलिए केवल विचारवादियोंको भी शास्त्रकारोंने मिथ्यादृष्टि कहा है। इस तरह Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ यह सिद्ध हो जाता है कि हमारे विचारोंकी सुधारणाकी तरह हमारे आचारकी सुधारणाका होना भी आवश्यक है। द कोई यह कहे कि आचार-धर्म शरीर-धर्म होनेसे उधर लक्ष्य नहीं दिया तो भी चलेगा तो उनका यह कहना ठीक नहीं । कारण कि जिस प्रकार आचार-धर्ममें शरीर-धर्मकी प्रधानता है उसी प्रकार विचार-धर्ममें शरीर निमित्तका अभाव भी तो नहीं है। एक जगह यदि आत्माकी प्रधानता है तो शरीरका निमित्तपना है ही। उसी प्रकार दूसरी जगह यदि शरीरकी प्रधानता है तो आत्माका निमित्तपना है ही। इसलिए आचार और विचारोंका परस्पर आत्मा और शरीर-इन दोनोंके ऊपर परिणाम होता है । अब यदि किसीका आचार-धर्म अनिर्मल हो तो उसके विचार-धर्मके मलिन करने में भी वह कारण होगा। तथा जिसका विचार-धर्म मलिन हो उसका आचार-धर्म भी मलिन होगा ही। जो लोग विचारोंके बिना अपने आचारमें और आचारके बिना अपने विचारोंमें निर्मलता लानेका प्रयत्न करते हैं, वे धर्मका पालन न करके उसका उपहास करते हैं, ऐसा समझना चाहिए। इस कथनसे यह निष्कर्ष अपने आप निकल आता है कि स्वाध्याय करते हुए हमें सभी अनुयोगोंकी ओर लक्ष्य रखना चाहिए । यदि हम ऊपर कहे हुए कथनके अनुसार स्वाध्याय करने लगे तो उससे हमें इन विशेष गुणोंकी प्राप्ति होगी। आत्माका हित किसमें है ? इसकी प्राप्ति स्वाध्यायसे ही होती है। आत्माका अहित करनेवाला इन्द्रियसुख सुख न होकर दुःखका प्रतिकार मात्र है, वह अल्पकाल तक ही रहता है, पराधीन है, रागकी परम्पराको बढ़ानेवाला है, कष्टसाध्य है, भयको उत्पन्न करनेवाला है शरीरके परिश्रमसे उत्पन्न होता है, और अपवित्र ऐसे शरीरके स्पर्शसे उत्पन्न होता है, इसके विपरीत आत्मसुख सम्पूर्ण दुःखोंके नाशसे उत्पन्न होता है, नित्य है निर्बाध है और आत्मोत्थ है । यह विवेक भी स्वाध्यायसे ही प्राप्त होता है । उसी प्रकार पापकर्मके निमित्तभूत अशुभ परिणामोंका त्यागरूप अथवा शुद्धोपयोगके कारणरूप भावसंवर, प्रतिदिन संवेग, रत्नत्रयमें स्थिरता, गुप्तियोंकी रक्षा और दूसरोंको कल्याग मार्गके उपदेश देनेकी सामर्थ्य स्वाध्यायसे ही प्राप्त होती है। स्वाध्यायसे पहिले अशुभ परिणतिका त्याग होकर शुभ परिणतिमें प्रवृत्ति होती है, तदनन्तर वह भी संसारका कारण है, यह विवेक प्राप्त होनेपर शुद्धपरिणति उपादेय है, ऐसा समझ कर यह आत्मा अपने विचारों में उज्ज्वलता उत्पन्न करता है और आत्मधर्मको प्राप्त करके परमार्थका भोक्ता बनता है। अतएव आत्माका सच्चा मार्गदर्शक जैनशास्त्रोंका स्वाध्याय निरन्तर करना चाहिए। आजकल उपन्यास, गल्प और नाटक आदि मानवजीवनका विनाश करनेवाला साहित्य-निर्माण हो रहा है। उसमें उन्हीं बातोंके चित्र रंगे गये हैं जिन्हें हम और आप प्रतिदिन आखें मीचकर करते हैं, अतएव ऐसे साहित्यसे अपने मनको रोक लेना यह केवल आत्म-शास्त्रकी दृष्टिसे हितकर है, इतना ही नहीं, किन्तु समाजशास्त्रकी दृष्टिसे भी हितकर है । यदि आपको अपना और अपनी समाजका स्वास्थ्य ठीक रखना है तो उसका त्याग करना ही श्रेयस्कर है । Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संयम शास्त्रों में संयम के दो भेद बताये है -- एक इन्द्रियसंयम और दूसरा प्राणिसंयम । संयमका स्वरूप बतलाते हुए आचार्योंने मनोनिग्रह, इन्द्रियविजय, कषायोंका जीतना और योगप्रवृत्तिका रोकना अत्यन्त आवश्यक बतलाया है। इससे यह बात सहज ही समझ में आ जाती है कि संयम में आत्मस्वरूपकी रक्षाकी अत्यन्त मुख्यता है । कारण, इन्द्रिय और मनके द्वारा पर-पदार्थके जान लेनेपर कषायसे उसमें इष्टानिष्ट बुद्धि होकर योग द्वारा यह आत्मा उनके ग्रहण और त्यागकी भावना उत्पन्न करता है, जो अपने लिए अपनी इच्छा के अनुकूल मालूम पड़ता है, उसे यह प्राप्त करना चाहता है और जो प्रतिकूल प्रतीत होता है, उसका त्याग करना चाहता है । यह वासना इस जीवकी अनादिकालसे चली आ रही है और इसीके आधीन होकर यह परवस्तु के ग्रहणका त्याग नहीं कर सकता है। इसलिए परवस्तु सम्बन्धी राग और द्वेषरूप परिणति के त्यागके लिये इन्द्रिय और मनको स्वाधीन रखना अत्यन्त आवश्यक है । परन्तु वे स्वाधीन तभी हो सकते हैं, जब हमारी राग और द्वेषरूप प्रवृत्ति कम होती जावे । तथा राग और द्वेषरूप प्रवृत्ति के कम करने के लिए हमें अपना शारीरिक, वाचनिक और मानसिक व्यापार भी कम करना होगा । हम मन, वचन और काय द्वारा परवस्तु के साथ जितना अधिक सम्बन्ध जोड़ेंगे उतना ही अधिक हमारा राग और द्वेष बढ़ता जावेगा और उस पदार्थको उतना ही अधिक जाननेकी उत्सुकता भी बढ़ेगी । यद्यपि किसी भी पदार्थको जानना अनिष्ट कर नहीं है, परन्तु किसी भी पदार्थके जाननेपर उसमें जो इष्टानिष्ट कल्पना होकर उसे ग्रहण करने और त्याग करनेके भाव होते हैं, वे ही हमारा अपाय करनेवाले हैं । रूप रसादिको विषय शब्दसे कहना उपचार मात्र है । विषय तो परपदार्थ में इष्टानिष्ट कल्पना ही है । जहाँपर किसी भी वस्तुके ग्रहण करनेपर हमारी आत्मामें ज्ञान के सिवाय दूसरा कोई भी विकल्प उत्पन्न नहीं होता है, वह अवस्था आत्माका निजधर्म है, अतएव उसका त्याग कभी भी नहीं हो सकता है । परन्तु वस्तुके जाननेके उत्तरक्षण में ही जहाँ आत्मा उस वस्तु से प्रभावित हो उठता है, आत्मामें ज्ञानके साथ दूसरे भावोंकी धारा बहने लगती हैं और इस तरह यह आत्मा धीरे-धीरे ज्ञानकी उत्सुकता से रहित होकर पदार्थके ग्रहण और त्यागकी उत्सुकता से आबद्ध हो जाता है । वहींसे उक्त पदार्थजन्य असंयमकी धारा इस आत्मामें प्रवाहित होने लगती है । इस तरह यह आत्मा अनन्त पदार्थोंके ग्रहण और त्यागसे अपनेको जोड़े हुए है अतएव यह स्वतः की रक्षाको भूलकर उनकी रक्षा और विनाशके प्रयत्नको अपनी ही रक्षा और विनाश समझता है । यही इसका महान् असंयम है, इस असंयमसे बचनेके लिए इसे परत्वमें परबुद्धि और निजत्व में निजबुद्धि तो करनी ही होगी । साथ ही इन पदार्थों में मेरा कल्याण होता है, इस भावनाको भी भुलाकर धीरे-धीरे पदार्थोंका त्याग करते जाना होगा, परन्तु यह त्याग द्वेषसे न होकर उदासीनता से होना चाहिए। द्वेषसे जिस वस्तुका त्याग किया जाता है यद्यपि वह पदार्थ अपने से दूर भी हो जाता है, परन्तु उस पदार्थ के निमित्तसे उत्पन्न हुई द्वेषरूप वासना दूर न हो कर वह इस आत्माको निरन्तर व्याकुलताका अनुभव कराती रहती है । इतने विवेचनसे यह सिद्ध हो जाता है कि इन्द्रिय द्वारा पदार्थ के ग्रहण करनेपर भी पदार्थोंमें जो इष्टानिष्ट कल्पना है, उसका त्याग करना सच्चा संयम है । इसीको इन्द्रिय- संयम कहते हैं । इसके साथ एक और महत्त्वकी बात है, वह यह कि परवस्तु के त्याग और निजत्वके ग्रहणके साथ अपने में अहिंसाकी भावना सतत जागृत रहनी चाहिए । अहिंसाका पालन केवल दूसरे जीवोंकी रक्षा के लिए ही किया जाता है यह बात नहीं है, किन्तु अहिंसा भावके १९ Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ जागृत होनेसे ही अपने आत्माकी सच्ची रक्षा होती है। दूसरे जीवोंकी रक्षा तो उस अहिंसा भावके जागृत करनेके लिए निमित्तमात्र है। जब तक दूसरे जीवोंकी रक्षाकी मुख्यता रहती है तब तक परजीवकी रक्षासे उत्पन्न होनेवाले भावका दयामें अन्तर्भाव होता है और धीरे धीरे जब यह आत्मा दयाकी पूर्ण विकसित अवस्था तक पहुँचकर अपने में समता तत्त्वका अनुभव करने लगता है, तब दयाका रूपान्तर अहिंसामें हो जाता है । यही प्राणिसंय मकी पूर्णत्वावस्था है। इस तरह संयमके दो भाग हो जानेपर भी उनका अर्थ एक ही है। इस संयमकी प्राप्तिके लिए क्रमिक त्यागकी अत्यन्त आवश्यकता है। अक्रमसे किया गया त्याग हमें संयम तक न पहुँचाकर असंयममें ही संयमका अभिमान करनेके लिए सहायक होता है। Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तप अपने शरीर, इन्द्रिय और मनके ऊपर विजय प्राप्त करनेके लिये तप किया जाता है। तप इस शब्दमें प्रतिपक्षीके ऊपर विजय प्राप्त करनेके लिए निरोध रूप अर्थ गर्भित है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि संक्लेशका अनुभव न करते हुये हमें शरीर, इन्द्रिय, और मनको अपने स्वाधीन करना चाहिये । शरीर और इन्द्रिय सम्बन्धी विकारोंके ऊपर विजय सम्पादन करना बाह्यतप कहलाता है तथा मन सम्बन्धी विकारोंके ऊपर विजय सम्पादन करना आभ्यंतर तप है। इष्ट, गरिष्ट और स्वादिष्ट रसादिकके सेवन करनेसे और अनेक प्रकारके संस्कार करनेसे शरीर विकारी होता है । शरीरका विकार इन्द्रिय और मनमें दर्प उत्पन्न करता है, जिससे प्राणीको प्रवृत्ति स्वभावतः विषयोंकी ओर होती है । विषय ग्रहण करने में इष्टानिष्ट कल्पनाका होना स्वाभाविक बात है। इस तरह रागद्वेषसे आधीन होकर यह प्राणी हित और अहितकी पहिचान करने में असमर्थ हो जाता है। ऐसे प्राणीकी हित और अहितकी कल्पना अपने अनुकूल और प्रतिकुल पदार्थ तक ही सीमित हो जाती है । यहाँपर यह ध्यान रखना चाहिये कि कोई भी पदार्थ अनुकूल और प्रतिकूल न होकर इसकी भावना ही पदार्थमें इष्टानिष्ट कल्पनाके लिए बाध्य करती है। इस तरह यह रागादिके अविषयरूप पदार्थमें रागादिकी कल्पना करनेके कारण आत्मस्वरूपसे सर्वदा च्युत रहता है यही तो इसका महामिथ्यात्व है । कुछ प्राणियोंकी ऐसी भी कल्पना हो जाती है कि पर-पदार्थ सर्वथा अनिष्टकर हैं इसलिए वे पर-पदार्थके त्यागमें ही आत्मस्वरूपको प्राप्तिकी श्रद्धा करके अपनेको मोक्षमार्गी समझने लगते हैं। परन्तु वे आत्मस्वरूपकी प्राप्तिसे अत्यन्त दूर खड़े रहते हैं, अतएव वे भी उसी श्रेणी में चले जाते हैं। उन प्राणियोंकी तो और भी शोचनीय अवस्था हो जाती है, जो अपनेको शुद्धोऽहं, बुद्धोऽहम, तो कहते हैं परन्तु वे न तो बाह्यपदार्थों में उपरतिको ही प्राप्त होते हैं और न आत्मस्वरूपमें रतिको ही । रति और अरति ये धर्म कषायजन्य न होकर जहाँ विवेकजन्य होते हैं वहींसे उस प्राणीकी प्रणति सत्यमार्गका अनुसरण करने लगती है। यही मानसिक विजय सबसे प्रथम तप है । पूर्वऋषियोंने कर्मक्षयका प्रधान कारण तपश्चर्या बतलाई है, उसका बीज इसीमें अन्तर्निहित है । जहाँसे यह मानसिक विकास इस प्राणीको प्राप्त होने लगता है, वहींसे यह परपदार्थके सम्बन्धसे भी मुक्त होने लगता है। सम्यग्दर्शनका उत्पत्तिका क्रम दिखलाते हुए आचार्योंने अधःकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण रूप परिणामोंके होते ही कर्म निर्जराकी क्रमिक प्रवृत्ति का प्रतिपादन किया है । इससे इस कथनकी और भी स्पष्टता हो जाती है। _इस तरह आभ्यंतर तप मानसिक शुद्धि है। प्रायश्चित, विनय, वैयावृत्य व्युत्सर्ग, स्वाध्याय और ध्यान-ये उसके साक्षात् पोषक हैं तथा उस मनकी शुद्धिके लिए शरीर और इन्द्रियोंका निग्रह करना अत्यन्त आवश्यक है। इसके लिए अनशन, ऊनोदर, वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्तशय्यासन और कायक्लेशइनसे सहायता मिलती है । यदि कोई अनशन आदिकके द्वारा ही तप समझता हो तो उसकी वह भूल है। ये दोनों आभ्यन्तर और बाह्य परस्पर सापेक्ष हैं, अतएव इनका पालन परस्पर सापेक्षतासे ही करना चाहिए । जो भाई मनकी शुद्धि न होते हुए भी अथवा कषायोंकी न्यूनता न होनेपर भी इन एकाशनादिकसे कर्मनिर्जरा समझते हैं, उनको इस कथनपर अवश्य ही ध्यान देना चाहिये । इसके साथ तपके लिए आचार्योंने ज्ञानाभ्यासकी अत्यन्त मुख्यता बतलाई है। कारण कि ज्ञानाभ्यासके बिना हेय क्या है ? और उपादेय क्या है ? यह समझमें न आनेके कारण अज्ञानपूर्वक किया गया तप कर्मनिर्जराके लिए कारण नहीं होता है । इस तरह यह सिद्ध हो जाता है कि विवेक पूर्वक आत्मशुद्धि के लिए जो क्लेश सहन किया जाता है, उसीको तप कहते हैं । Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दान दान इस शब्दकी व्याख्या जितनी सरल है उतनी कठिन भी है। इसका कारण प्रत्यक्ष दान करते समय हम व्यवहारमें उसके महत्त्वको भूल जाते हैं । जहाँ कर्तृत्व गुण में अहंपना उत्पन्न होता है, वहीं पर मनुष्यको किसी भी कार्य के साथ अपने नामादिकके जोड़नेकी अभिलाषा उत्पन्न होती है, वहीं पर वह उस कार्यके साथ अपने स्वामित्वक प्रकट करनेकी खटपट करता है। इसके विपरीत जब कोई उदात्तभावसे प्रेरित होकर किसी प्रकारका कार्य करता है, वहाँ पर दुसरेको यह जानना भी कठिन हो जाता है कि इसका कर्ता कौन है । किस भावनासे प्रेरित होकर इसने यह कार्य किया है। अति प्राचीन प्रतिमा और शास्त्रोंके देखनेसे हमारे इस अभिप्रायकी पुष्टि होती है। भगवान् महावीर स्वामीके मोक्ष जानेके आरंभ कालमें हमारे साधु और श्रावक वर्गमें व्यक्तिगत कर्तृत्वसामर्थ्य रहते हुए भी बहजनके कल्याणके लिये उनका उदात्त गुण ही काम करता था। उनमें मायाममता कुछ भी न होकर वे लोककल्याणकी भावनासे प्रेरित होकर ही प्रत्येक कार्य करते थे । यही कारण है कि आज हमें उदात्त कृतियोंके कर्ताके अन्वेषण के लिये सबसे अधिक इतिहास संशोधनका काम करना पड़ता है, फिर भी हम उन महात्माओंके संबंध में पूर्ण परिचित नहीं हो सकते हैं। स्वामी समन्तभद्रको भस्मकव्याधिका शमन बनारसमें हुआ या कांचीपुरमें, यह आज उनके उपलब्ध जीवन चरित्र और संशोधित इतिहाससे विवादस्थ ही है। परन्तु आज समाजसुधार और धर्मसेवाका क्षुद्र काम करनेवाला भी अपने इतिहासको स्वयं निर्माण करता हुआ नजर आता है। उसकी खटपट है कि मैं भविष्यमें एक सबसे बड़ा समाजसुधारक और धर्मधुरीण समझा जाऊं। लोकमें उज्ज्वल इतिहास निर्माण करना मनुष्यमात्रका काम है। जीवन लीलाके नष्ट हो जानेपर भी कृति और कीर्ति अमर रहना मनुष्यमात्रके जीवनका सार है, परन्तु यह उनके नामसे न होकर उनके कार्योंसे होना चाहिये । कीतिका गणधर्म निर्मल और उज्ज्वल होनेके कारण उसमें धब्बा थोड़ा भी नहीं खपता है । वह अपने कर्ताकी सहृदयता अथवा नीरसताको उसी समय प्रकट कर देती है। अंतस्थहेतु जितना अधिक मनुष्यके कार्य प्रकट नहीं करते हैं जितना कि उसका व्यवहार। यह बात कर्ताके निकटवर्ती जन ही जानते हैं । दूरसे पहाड़ तो सुन्दर दिखता है। परन्तु उस पहाड़ पर आरोहण करनेवालेको वह कुछ हिमाद्रि नहीं हो जाता है । उसके लिये तो वह काले और निम्नोन्नत पहाड़ियोंका ढिग ही बना रहता है । मझे एक गजरथ चलाने वालेका स्मरण है। सुदूरवर्ती लोगोंके लिए यदि वह महत पुण्यका कारण धार्मिक कार्य था तो निकटवर्ती लोगोंके लिये वह किसी महत्पापका आवरण या प्रायश्चित्त था। प्रायश्चित्त शब्दका व्यवहार मैंने गौणरूपसे इसलिये किया है कि वह अंतरंग विरागतासे प्रेरित होकर किया जाता है। उसमें आगे वैसे पापकी संभावना नहीं रहती है। मुझे एक ऐसे दृष्टांतका भी स्मरण है कि किन्हीं दो व्यक्तियोंमें किसी एक धार्मिक कार्यमें मतभेद उठ खड़ा हुआ था। उस झगड़ेका निकाल एक पक्षमें होनेपर विजेता विरुद्ध बाजू के लोगोंसे कहता था कि-ये लोहेके चने हैं। इनको चबानेवालेके दाँत ही टूटते हैं। फल यह हुआ कि उस कार्यके विध्वंसमें ही दोनोंको संतोष करना पड़ा। Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : १४९ यहाँपर विचारनेकी बात है कि ऐसे मामले क्यों उठ खड़े होते हैं। विचारके बाद यही कहना पड़ता है कि आजकल लोगोंमें उदात्त और सात्त्विकभावके अतिरिक्त दांभिक प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है। लोग कर्तव्यकी अपेक्षा कार्यको अधिक महत्त्व देने लगे हैं । छोटेसे छोटा और बड़ेसे बड़ा कार्य करते हुए बहुत कुछ मनुष्योंकी यह भावना रहती हैं कि जनताके सामने 'इसका कर्ता मैं हूँ' यह बात स्पष्ट नजर आनी चाहिए। उन्हें आज पुण्यबंधके प्रयोजक शुभ-परिणामोंकी इतनी कीमत नहीं रही है जितनी कि यशोगानकी। आज हम आगन्तुक अतिथिकी अपेक्षा निमंत्रित अतिथिको अधिक महत्व देते हैं । सीधे शब्दोंमें इसका यही अर्थ है कि हम सच्ची भूखकी कल्पनाको भूलकर खोटी भूखके पीछे दौड़ते है। हम श्रीमंत मनुष्यका जितना अधिक सत्कार करते हैं, गरीबका सत्कार करने में उसका शतांश भी नहीं रहता है। परन्तु यह विचार मनमें कभी भी नहीं आता है कि जिस खेतमें पानी दिया जा चुका है उसी खेतमें पुनः पुनः पानी देनेसे क्या फायदा । तृषित कौन और क्षुधित कौन यह भावना तो हमारी कभीकी नष्ट हो गई है। महतो महत्फलम्' यह तो हमें मालूम है, परन्तु महत्वकी मोजमाप गुणाधिष्टित न रहकर वैभवाधिष्ठित होती जा रही है ! परन्तु यह निश्चित समझिये कि रोज मिष्ठान्नभोजीको मिष्ठान्नका भोजन कराने पर उससे शुभ कामनाकी आशा करना असम्भव बात है । शुभकामनाकी आशा तो तृषित अथवा क्षुधितसे ही की जा सकती है। यहाँ पर मैं पाठकोंको एक स्थानका स्वतःका अनुभव लिख देनेके लिए अपनी इच्छाको संवृत नहीं कर सकता हूँ। मैं कहीं पर विमानोत्सबके लिये गया हआ था। वहाँ पर पंडितजी इस दृष्टि से मुझे भो विशिष्ट पाहुनोंके लिये किए गए पाहुनचारका सौभाग्य प्राप्त हुआ । परन्तु वह स्थान भी भेदसे खाली नहीं था। मुझसे भी आगे जिनका नम्बर था उनके लिए और भी अधिक स्वतंत्र व्यवस्था थी। अतिथि-सत्कार करनेवाली बाई थोड़ी भोली थी, इसलिए उसने मुझे ही प्रथम नम्बरका पाहुना समझकर मुझे ही सर्वश्रेष्ठ सामग्री परोसनेका प्रारम्भ कर दिया। यह बात चाणाक्ष दूसरी बाईने देख ली । पहले तो उस बाईने संकेतसे परोसनेवाली बाईको समझाया, परन्तु जब उस बाईका दूसरी बाईके संकेतके ऊपर ध्यान नहीं गया तो उसे वहीं पर मेरे देखते ही स्पष्ट मना करना पड़ा । यहाँ पर पाठकोंको यह ध्यानमें रखना चाहिये कि पूर्वोक्त व्यवस्थामें शोलाका कुछ भी सम्बन्ध नहीं था। इस व्यवहारसे मेरी आँखोंमें चक्क प्रकाश पड़ गया। मुझे अपनी भूल वहींसे समझमें आई, और उस दिनसे लेकर आज तक मैं जान बूझकर ऐसी भूल नहीं होने देता हूँ। अब मुझे बहजन समाजके लिए तैयार किए हुए भोजनमें जो आनंद आता है, वह आनंद स्वतन्त्र व्यवस्थामें कभी भी नहीं आता है। दक्षिण प्रान्तकी अपेक्षा यह भेद-भाव उत्तरप्रान्तमें अधिक देखने में आता है। मेरी समझसे जैन-समाजको छोड़कर यह परिस्थिति दुसरी समाजमें भी इतने रूपमें नहीं है । दक्षिणप्रान्तमें यह भेद नहीं ही है, यदि ऐसा कहा जावे तो भी चलेगा। श्वेताम्बर समाजमें ही लीजिये, उनके यहाँ ग्रन्थप्रकाशनका काम जितनी उत्तम पद्धतिसे चालू है। अधिक से अधिक खर्च करके सुन्दरसे सुन्दर पद्धतिसे ग्रन्थ प्रकाशित करते हैं। परन्तु हमारी समाजमें इस ओर शतांश भी लक्ष्य नहीं दिया जाता है। जिस किसी तरहसे ग्रन्थ प्रकाशित करके वे अपने कर्तव्यकी इतिश्री समझते हैं। परिणाम यह होता है कि समाजके बाहिर उन ग्रंथोंका उल्लेख करने योग्य उपयोग नहीं होता है। मणि थोड़े होते हैं इस कथनको तो आत्मप्रौढिके अतिरिक्त और कुछ भी महत्व नहीं दिया जा सकता है। थोड़ी देरके लिये यदि इस कथनको वस्तु स्थिति ही मान ली जावे तो भगवान् महावीरके समय भी वही स्थिति लागू करनी पड़ेगी । परंतु हमारे पुराण-ग्रन्थ ही नहीं, इतिहास भी आज इसको साक्षी देता है कि उस Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ समय संसारमें जैनियोंकी संख्या सबसे अधिक थी । भगवान् आदिनाथ स्वामीका काल तो इससे और भी उज्ज्वल था । विदेह क्षेत्रमें तो व्यवहार मिथ्यादृष्टी नामको भो नहीं हैं, फिर वहाँ आपकी पूर्वोक्त व्याप्तिका क्या अर्थ किया जावे ? थोड़ा सोच समझकर ही उत्तर दीजिये । बात तो यह है कि आप सामंजसपनेकी सांप्रदायिकता के आवरण में झोंक देनेका असफल प्रयत्न कर रहे हैं और आत्मप्रौढ़से उस दोषको छिपा देना चाहते हैं । परन्तु यह याद रखिये कि इस दोष से आप स्वयं पतित होते जा रहे हैं और दूसरोंको भी अपनी ओर खींच रहे हैं । त्राणकी भावना आपमें से बिल्कुल नष्ट हो चुकी है । आप उसे छिपाइये, परन्तु वह अब छिप नहीं सकती । संसार उसके तांडव नृत्यसे जागृत हो उठा है । वह आपकी और कबतक प्रतीक्षा करेगा, वह आपको अपना नेता बनाना चाहता है, परन्तु उस साम्प्रदायिकता के परे । दान इस तत्त्वका विकास लोकोपयोगी कार्य और परस्परके व्यवहारकी दृष्टिसे हुआ है । लोकोपयोगी कार्योंमें धर्मरुचि और दया- ये दो तत्त्व काम करते हैं । तथा परस्परके व्यवहारमें ' आदान-प्रदानकी पद्धति मुख्य है । यहाँ धर्मरुचिसे मोक्षमार्ग इष्ट है । इसलिए मोक्षमार्गीके आत्मकल्याण में अव्याहत रत रहने के लिये उसके अनुकूल आहारादिक साधनों का प्रदान करना मोक्षमार्गकी अपेक्षासे दान है । यह दान गुणाधिष्ठित माना गया है । अर्थात् इस दानमें गुणकी मुख्यता रहती है । इस सम्बन्धमें गुणोंका विभाग करते हुए आचार्यों ने विरत और अविरतकी अपेक्षासे दो भेद किये हैं । विरत भी दो भेद कर दिये हैं, एक देशविरत और दूसरा महाविरत । इस तरह अविरतको जघन्य, देशविरतको मध्यम और महाव्रतीको उत्तम पात्र बतलाया है, यद्यपि मिथ्यादृष्टिसे लेकर चौथे गुणस्थान तक जीवकी अविरत यह संज्ञा है, फिर भी यहाँपर अविरतसे अविरत सम्यग्दृष्टि ही समझना चाहिए । यहाँपर सम्यग्दृष्टिकी पहिचान क्या है इस प्रश्नके उत्तर में यही समझना चाहिए कि सम्यक्त्व यह आत्माका गुण है, इसलिए उसका इन्द्रियोंके द्वारा साक्षात्कार नहीं हो सकता है । इसलिए इन्द्रियद्वारा सम्यग्दृष्टिकी पहिचान होना कठिन ही है, फिर भी बहुतसे तत्त्वोंका ज्ञान उसके कार्योंके द्वारा किया जाता है । इसमें भी अव्यभिचरित कार्य ही अपने कारणके ज्ञापक होते हैं । अब विचारनेकी बात यह रह जाती है कि सम्यक्त्वके अव्यभिचरित कार्य क्या हैं । इसके लिये सबसे पहिले यह देखना होगा कि सम्यक्त्वकी उत्पत्ति किस स्थितिमें और किन कारणोंसे होती है । इस तत्त्वको अच्छी तरहसे आकलन कर लेनेपर हमें सम्यक्त्वके कार्योंका बहुत कुछ परिज्ञान हो सकता है । सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति में पाँच लब्धियाँ कारण बतलाई हैं । यद्यपि ये पाँचों ही लब्धियाँ सम्यग्दर्शनकी अविनाभाविनी नहीं हैं । उनमेंसे आदिकी चार ( क्षयोपशमलब्धि, देशनालब्धि, विशुद्धिलब्धि और प्रायोग्यलब्धि) ये मिथ्यादृष्टि के भी होती हैं, फिर भी जहाँपर सम्यग्दर्शनका सद्भाव होगा, वहाँ पर ये अवश्य ही होंगी । इससे यह निश्चित हो जाता है कि जिस आत्मामें सम्यग्दर्शनका सद्भाव है, वहाँ पर इन चारों लब्धियोंके कार्य अवश्य ही होते हैं । इससे यह तात्पर्य निकल आता है कि सम्यग्दृष्टि जीव हिताहित परीक्षक और तत्त्व विमर्शक तो होगा ही । साथ ही करणलब्धिके द्वारा उसके अनन्तानुबंधी और मिथ्यात्वका अभाव हो जानेके कारण वह न्यायमार्ग से व्यवहार करने वाला भी होगा । जब तक इस जीवके अनन्तानुबंधी और मिथ्यात्वका अभाव नहीं हो जाता है, तब तक वह हिताहित परीक्षक और तत्त्व विमर्शक होते हुये भी अहितको छोड़कर हितको स्वीकार करने तथा अतत्त्वको छोड़कर तत्त्वरूप चलनेकी उसकी Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थखण्ड : १५१ रुचि ही नहीं होती हैं । अब आप देखेंगे कि सम्यग्दृष्टि जीवके सामने न्याय्य और अन्याय्य - इन दो बाजू के उपस्थित होने पर अपना नुकसान उठा कर भी वह न्याय्यवृत्तिका ही समर्थन करेगा । कदाचित् अज्ञान के कारण उसके हाथसे अन्यायावृत्तिके पोषक भी कार्य होते रहेंगे परन्तु वे कब तक, जब तक उसकी समझ में यह नहीं आवेगा कि मेरा यह अज्ञान है, अतएव मेरे ये कार्य आत्मघातकी और समाज स्वास्थ्य के लिये विघातक हैं । उसकी समझमें इतनी बातके आते ही वह उसी समय अपनी हठको छोड़कर अपने दोषको स्पष्ट शब्दो में 'कबूल कर लेगा । इतना ही नहीं बल्कि उसको भूलने उपन्न हुये नुकसानको भरकर उस दोषको निकालने का भी वह भरसक प्रयत्न करेगा । विश्लेषण करके यदि यह अर्थ निकाला जावे तो इस प्रकार अर्थ निष्पन्न होगा कि मिथ्यात्व के त्यागसे अतत्त्वको छोड़कर तत्त्वबुद्धि और अनन्तानृबंधी के अभावसे तदनुकूल प्रवृत्ति होती है । इतने विवेचनसे यह स्वयं सिद्ध हो जाता है कि सम्यग्दृष्टिके जाननेका मुख्य साधन क्या है जहाँ पर किसी भी तत्त्व विचारककी स्वभावतः इस प्रकारकी वृत्ति देखने में आवे वहाँपर सम्यग्दर्शनका अंश जागृत है, ऐसा समझने में कुछ भी आपत्ति नहीं है। सच्चे देशविरत और महाविरतके भी ऐसे ही कुछ विलक्षण सामर्थ्य उत्पन्न होती हैं । बाह्यचारित्र देशविरत और महाविरतके पहिचानका कुछ चिह्न नहीं हैं। हाँ ! उस देशविरत और महाविरत रूप परिणामके होनेपर बाह्यचारित्र अपने आप होता है । इस तरह इन तीन प्रकारके पात्रोंको दान देना पात्रदान है । यहाँपर संसार सम्बन्धी कुछ भी प्रयोजनकी मुख्यता नहीं रहती है । यह पात्रदान चार विभागों में बाँटा गया है। आहारदान, औषधिदान, शास्त्रदान और अभयदान ( वसतिकादान ) - इन चारों ही दानोंका अर्थ प्रसिद्ध है । फिर भी यहाँ पर आहारदानसे औषधिदानको पृथक कहने के प्रयोजनका खुलासा कर देना उचित प्रतीत होता है । साधु अनुद्दिष्ट आहार ग्रहण करते हैं अर्थात् श्रावकके घर श्रावकके द्वारा अपने लिये ही तैयार किये हुए आहारमें से साधु आहार ले लेते हैं । परन्तु औषधिके लिये यह बात लागू नहीं हो सकती है । औषधि रोगका प्रतिकार है । अतएव जिस साधुको जिस प्रकारकी शारीरिक बाधा उत्पन्न हुई होगी उसी प्रकारको औषधिको देकर शरीरबाधाका निराकरण किया जावेगा । यहाँपर उद्दिष्ट दोषका परिहार नहीं हो सकता है । आहारदान से भिन्न औषधिदानको रखनेका यही प्रयोजन प्रतीत होता है । दयासे प्रेरित होकर जो दान दिया जाता है उसमें गुण और अवगुण न देखकर परिस्थितिकी प्रधानता होती है । तीसरी समदत्ति है । इसमें आदान प्रदानका भाव रहता है । परन्तु आजका विकृत रूप समदत्ति कभी भी नहीं कही जा सकती है । यह किसी दोषका प्रमार्जन न होकर दोषकी अभिवृद्धि मात्र है । जहाँपर श्रावकोंसे जबर्दस्ती भोजन ठहराये जाते हैं, उसमें भी अमुक वस्तु ही बनानी होगी, इत्यादि बातें ठहराई जाती हैं, उसको धर्ममें स्थान कँसे मिल सकता है । पानी जैसी पतली वस्तुके साथ कोमलताका व्यवहार करनेवाले जैन भाई अपने सहधर्मी भाइयोंके साथ कठोरताका व्यवहार करते हैं, इसको अधर्म नहीं तो और किन शब्दोंमें कहा जावे । श्रावकोंका यह कठोर व्यवहार कभी भी त्यजनीय है । इससे गरीबोंको कितने अधिक संकटों का सामना करना पड़ता है, इस बातको हमारे विचारे श्रीमन्त क्या जानें । इस तरह यह दानका व्यावहारिकरूप समझना चाहिए। संपत्ति और शक्ति विनियोगकी वस्तु है, संग्रह करनेकी नहीं । जो इनके संग्रह करनेमें ही महत्त्व समझता है, वह समाज और धर्मका द्रोही तो है ही साथ ही आत्मवंचक भी है । Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यग्दर्शन शास्त्रोंमें सम्यग्दर्शनकी चर्चा कई प्रकारसे की गयी है। कहीं जीवादि सात पदार्थोके श्रद्धानको सम्यग्दर्शन कहा है; कहीं आप्त, आगम और गुरुके यथार्थ श्रद्धानको सम्यग्दर्शन कहा है; कहीं स्वानुभुतिको सम्यग्दर्शन कहा है और कहीं स्वपर विवेकको सम्यग्दर्शन कहा है। इन सबका अभिप्राय एक है। इनके द्वारा एकमात्र यही ज्ञान कराया गया है कि एक जानने-देखने वाली शक्ति क्या है और तदितर पदार्थ क्या है। ___ जीवनमें सम्यग्दर्शनका बड़ा महत्त्व है । यह वह विवेक-सूर्य है जिसके उदित होनेपर मिथ्यात्वरूपी तम सुतरां पलायमान हो जाता है । यह स्वतन्त्रता प्राप्तिकी प्रथम सीढ़ी है । अधिकतर व्यक्ति विविध प्रकारके तप करते हैं, नग्न रहते हैं और साधु बननेका दावा भी करते हैं, पर इसके बिना यह सब क्रिया-कलाप संसारका कारण है । यह सब प्रकारके अहंकारसे मनुष्यकी रक्षा करता है । इसके होनेपर नामरूपका अहंकार तो होता ही नहीं, जीवनमें प्राप्त हुई ऋद्धि-सिद्धिका भी अहंकार नहीं होता। शास्त्रोंमें आठ मद, छह अनायतन, शंकादि आठ दोष और तीन मूढताओंकी विस्तारपूर्वक चर्चा की गई है। यह इन बुराइयोंसे व्यक्तिकी सदा रक्षा करता है। __सम्यग्दर्शन दो शब्दोंके मेलसे बनता है । सम्यक् और दर्शन । प्रत्येक पदार्थका जो स्वरूप है उसे ठीक तरहसे अनुभव करना ही सम्यग्दर्शन है, यह इसका तात्पर्य है। जैसा कि हम देखते हैं कि संसार अवस्थामें जीव और शरीर दोका मेल हो रहा है। इनके कार्य भी मिलकर हो रहे हैं । इसलिए प्रत्येक व्यक्तिको यह विवेक करना कठिन हो जाता है कि इनमें कौन कार्य शरीर का है और कौन कार्य आत्माका है। बहुतसे तो ऐसे भी व्यक्ति है जो शरीर और आत्माको दो नहीं मानते । वे माता-पितासे इसकी उत्पत्ति मानते हैं और शरीरके विनाशको ही आत्माका मरण मानते हैं । वे एकमात्र कामको ही जीवनका पुरुषार्थ मानते हैं । इनके इस मतको व्यक्त करते हुए एक कविने कहा है 'यावज्जीवेत् सुखं जीवेत् ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत् । भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः ॥" इसमें न केवल वर्तमान जीवनको चिरकाल तक जीवित रखकर उसे हर प्रकारसे पुष्ट करनेकी बात कही गई है, किन्तु यह कार्य यदि समाज-विरोधी तत्त्वोंको स्वीकार करके सम्पन्न किया जा सकता है तो इस द्वारा वैसा करनेकी छूट दी गई है। जिनके हाथमें धर्मका झंडा है, उन्हें यह एक प्रकारकी चुनौती है। इस द्वारा कहा गया है कि परलोककी बात छोड़ो, पुण्य-पापकी बात छोड़ो, अपने लौकिक जीवनकी ओर देखो, वही सब कुछ है । किन्तु जो आत्मा और शरीरको दो मानते हैं उनमेंसे भी बहुतोंकी गति इससे कुछ भिन्न नहीं है । वे वचनों द्वारा आत्माकी बात तो करते हैं, मन्दिरमें जाकर पूजा प्रभावनाकी क्रिया भी सम्पन्न करते हैं और भोजनमें भी चुन-चुनकर पदार्थ उपयोगमें लाते हैं, पर उनकी दृष्टिका यदि सूक्ष्मतासे अध्ययन किया जाय तो यही ज्ञात होता है कि उनका समस्त श्रम एकमात्र शरीरके लिए ही हो रहा है। वे शरीराश्रित क्रियाओंसे आत्माश्रित क्रियाओंका विवेक करनेमें असमर्थ है। Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड: १५३ इस समय आत्मधर्मकी अपेक्षा रूढिधर्मको विशेष प्रमुखता मिल गयी है। आम जनता आत्मधर्मका विचार न कर मात्र रूढ़िधर्मका विचार करने लगी है। तत्त्वोपदेश, पूजा, खान-पान और सामाजिक व्यवहारमें ऐसे तत्त्वप्रविष्ट हो गये हैं, जो स्पष्टतः धर्मविरोधी हैं। पर उनका समर्थन करनेका प्रयत्न किया जाता है और जो हम प्रवृत्तिका विरोध करते हैं, उन्हें धर्मद्रोही कहा जाता है। जैनधर्म सामाजिक व्यवहारमें ऊँच-नीचके कल्पित भेदको वास्तविक नहीं मानता, कल्पित जाति और कुलके अहंकारको छोड़नेकी बात कहता है, भोजन किसके हाथसे मिला है इसका विचार न कर मात्र भोजन शुद्धिका विचार करता है, जीहुजूरी उपदेशोंमें ईश्वरवादकी छाया होनेसे उन्हें जीवन शुद्धि में प्रयोजक नहीं मानता और पूजनमें द्रव्यकी उठाधरीकी अपेक्षा परिणामोंकी शुद्धिपर अधिक जोर देता है फिर भी वर्तमान समयमें हमसे सर्वथा विरुद्ध प्रवृत्ति हो रही है और उसे धर्म समझकर उसका समर्थन किया जाता है। इस समय जीवनकी प्रत्येक प्रवृत्तिमें विकार आ गया है अतः उसके संशोधनकी महती आवश्यकता है । शास्त्रोंमें कर्म और कर्मफलको आत्मधर्म माननेकी कट आलोचनाकी गयी है, पर उनकी बात सुनता ही कौन है। सबकी दृष्टि लौकिक क्रियाकाण्डमें उलझी हुई है । जो मोक्षमार्गसे दूर हैं वे तो ऐसा करते ही हैं, किन्तु जो अपनेको प्रतिभाधारी, व्रती, साधु मानते हैं, वे भी प्रायः ऐसा ही करते हुए पाये जाते हैं। आज उल्टी गंगा बहाई जा रही और यह सब हो रहा है जैनधर्मके नामपर। आचार्य कुन्दकुन्दने धर्मकी व्याख्या की है । वे प्रवचनसारमें लिखते हैं : "चारित्तं खलु धम्मो धम्मो जो सो समोत्ति णिद्दट्ठो । मोहक्खोहविहीणो परिणामो अप्पणो हु समो ॥७॥" चारित्र ही धर्म है जो 'सम' इस शब्द द्वारा निर्दिष्ट किया जाता है और समका अर्थ है मोह और क्षोभसे रहित आत्माका परिणाम । सनातन प्रक्रियासे जीवनमें कमजोरी आई हुई है जिसके कारण जीव अपने स्वरूपको पहिचानने में असमर्थ है। इतना ही नहीं वह मोह और कषायवश अन्य बाह्य-पदार्थों में उलझा रहता है और कर्मके निमित्तसे इसकी जो विविध अवस्थाएँ होती हैं, उन्हें अपना स्वरूप मानता रहता है तथा उनके संयोग-वियोगमें सुखी-दुःखी भी होता रहता है। सम्यग्दर्शनका काम इनका विवेक करा देना है। इस का उद्देश्य और गन्तव्य मार्ग निश्चित हो जाता है । वह उस धर्मको पहचानने लगता है, जो उसका स्वभाव है, वह सोचता है। "एगो मे सासदो आदा णाणदंसणलक्खणो। सेसा मे बाहिरा भावा सव्व संजोगलक्खणा ॥" मेरी आमा शाश्वत होकर स्वतन्त्र तो है ही किन्तु उसका स्वभाव भी एक मात्र ज्ञान-दर्शन है । इसके सिवा मुझमें और जो कुछ भी दिखाई देता है वह सब संयोगका फल है। सम्यग्दर्शनकी चर्चा पञ्चाध्यायीमें विस्तृत आधारोंपर की गई है । इसमें चेतनाके तीन स्तर बतलाये हैं-कर्मचेतना, कर्मफलचेतना और ज्ञानचेतना। इनमें से प्रारम्भकी दो चेतनाएँ अज्ञान दशामें होती हैं। ज्ञानीके एकमात्र ज्ञानचेतना होती है । वह मात्र ज्ञान-दर्शनको ही अपना स्वभाव मानता है और उसीमें रममाण होनेका प्रयत्न करता है । कदाचित् जीवनकी कमजोरीवश वह संयोगज भावोंमें भी रति और अरति करता हुआ पाया जाता है। तो भी उसे वह अपना स्वभाव नहीं मानता। सम्यग्दर्शनकी महिमा बड़ी है । यह जीवनका वह स्रोत है, जिसके कारण जीव अपनी स्वतन्त्रताको अनुभव करता है। उसे न जीवनका Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ भय रहता है और न मरणका ही । वह सब प्रकारके भयोंसे मुक्त होता है, क्योंकि वह इन्हें बाह्य पदार्थों के संयोग-वियोग से सम्बन्ध रखनेवाली अवस्थाएँ मानता है । वह सोचता है कि जीवनके इहलोक और परलोक ये भेद शरीर सम्बन्धकी अपेक्षासे किये जाते हैं । जब तक वर्तमान शरीरका सम्बन्ध है तब तक इहलोक कहलाता है और आगामी शरीर सम्बन्धकी अपेक्षा परलोक, ऐसा व्यवहार किया जाता है । जब कोई यह विचार करता है कि मेरा परलोक अच्छा हो तब उसका यह विचार मुख्यतया आगामी शरीरसे सम्बन्ध रखनेवाला होता है । ऐसा विचार इहलोक और परलोकको माननेवाले प्रत्येक जीवका होता है । किन्तु परलोक सर्वथा व्यक्तिके विचारपर अवलम्बित नहीं । विचारका आचारसे मेल होना चाहिये । उसमें भी विचार और आचार- ये दोनों बाह्य परिस्थितिसे उतने प्रभावित नहीं होते जितने क वे उस उस व्यक्तिके जीवन क्रमपर अवलम्बित रहते हैं । यह कौन नहीं जानता कि प्रत्येक व्यक्ति सुख चाहता है । सुख प्राप्तिका मार्ग भी एक ही हो सकता है । फिर भी व्यक्ति-व्यक्ति के आचार और विचारमें भेद क्यों दिखाई देता है ? क्यों एक जीवनशुद्धिके अनुकूल अपना आचरण करता है और विचार भी तदनुकूल बनाता है और दूसरा इससे ठीक विपरीत प्रवृत्ति करता हुआ दिखाई देता है । उत्तर स्पष्ट है कि संसारके सभी प्राणी अपनेको पहिचाननेमें असमर्थ । जिन्होंने न केवल अपनेको पहचाना है, अपितु वैसे पुरुषोंसे सम्पर्क स्थापित किया है और साधन भी वैसे ही जुटाये हैं, वे मात्र जीवन शुद्धिकी ओर ध्यान देते हैं । उनका समस्त श्रम और विचार अपने लिए होता है । वे यह स्पष्ट मानते हैं कि दूसरोंके लिए न तो मैं कुछ कर सकता हूँ और न दूसरे ही मेरे लिए कुछ कर सकते हैं । लोकमें जो भी उपकार व्यवहार दिखाई देता है वह निमित्त नैमित्तिक सम्बन्धका फल है । उसके आधारपर अपने में अन्य कर्तृत्वका आरोप करना मिथ्या है और अन्य में अपने कर्तृत्वका आरोप करना भी मिथ्या है | किन्तु जिन्होंने अपनेको पहचाना नहीं है, उनकी स्थिति इससे ठीक विपरीत है । शास्त्रोंमें इस प्रवृत्तिका कारण मिथ्यात्व परिणाम बतलाया गया है। जीवमें होता तो है यह परिणाम नैमित्तिक, किन्तु सद्भाव रहने तक अनेक प्रकारकी विपरीतताएँ जन्म लेती रहती हैं । ऐसे व्यक्तिकी, जो मिथ्यात्वरूप परिणामके आधीन है, बुद्धि ठिकाने लाना बड़ा ही कठिन काम है । एक मात्र काललब्धि हो इसकी प्रयोजक मानी गयी है । कालfor rtant अपनी योग्यता है । प्रत्येक वस्तुको जब जैसी योग्यता होती है, उसीके अनुसार कार्य होता है । यह सोचना कि हम कभी भी कोई कार्य कर सकते हैं निरा मिथ्या यह मिथ्यात्व जब तक जीवनमें घर किये हुए है, तबतक उद्धार होना असम्भव | कभी-कभी यह होता है कि संसारी जीव इस यथार्थताको जानता है, पर जीवनमें इस तत्त्वज्ञानके न उतरनेके कारण वह मूढ़ ही बना रहता है। मुख्यतया प्रत्येक प्राणीको अपने जीवनकी गाँठ खोलनी है । लौकिक जीवनका अर्थ है बाहरकी ओर देखना और आध्यात्मिक जीवनका अर्थ है भीतरकी ओर देखना । अभी तक यह प्राणी अपने लिए घर, स्त्री, धन आदिका संग्रह करता रहा है, और जब जो पर्याय मिली उसीको अपनी मानता रहा है । यह इसका बाहरी जीवन है । इस बाहरी जीवनका त्यागकर इसे वह वस्तु प्राप्त करनी है जो इसकी अपनी है और जिससे इसकी स्वतन्त्र प्राप्तिका मार्ग प्रशस्त बनता है । जीवनमें सम्यग्दर्शनका महत्व इसी दृष्टिसे माना गया है। यह वह शक्ति है, जिससे जीवनकी गाँठ खोलनेमें सहायता मिलती है । 4 यों तो इसकी प्राप्ति चारों गतिके जीवों को होती है, पर जो असंज्ञी हैं उन्हें इसकी प्राप्ति नहीं हो सकती । संज्ञियों में भी इसकी प्राप्ति उन्होंको होती है जिन्होंने व्यक्तिस्वातन्त्र्य के आधारपर स्वावलम्बनको अपने जीवनमें उतारनेका निर्णय किया है फिर चाहे भले ही वे वर्तमानमें परावलंबिनी वृत्तिका रंचमात्र भी Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुथ खण्ड : १५५ त्याग न कर सकें। सम्यग्दर्शन धर्मका आवश्यक अंग है। पूर्ण धर्मकी प्राप्ति उसीके सद्भावमें होती है । एक बात अवश्य है कि यह सब कर्मभूमिज मनुष्यके ही सम्भव है । देव और नरक गति भोग प्रधान होनेसे वहाँ मात्र दृष्टि लाभ होता है, क्योंकि वहाँ स्वावलम्बिनी-वृत्तिका जीवनमें अंशमात्र भी उतारना सम्भव नहीं है। रही तिर्यंच गतिकी बात सो इस पर्यायमें पूर्ण विकास सम्भव नहीं होनेसे वहाँ भी पूर्ण धर्मकी प्राप्ति सम्भव नहीं है। यद्यपि स्थिति ऐसी है फिर भी कुछ भाई कर्मभूमिज मनुष्योंमें अनुकूल द्रव्य, क्षेत्र और कालके रहते हुए भी ऐसा विधान करते हैं कि यह मनुष्य इतना धर्म धारण कर सकता है और यह मनुष्य इतना । इसके लिए वे पीछेके कुछ श्रावकाचारों और पुराणोंके प्रमाण उपस्थित करते हैं। यहाँ हमें इन प्रमाणोंकी गहराईसे छानबीन नहीं करनी है, किन्तु इतना अवश्य कहना है कि जीविकोपयोगी कर्मके आधारसे धर्म धारण करनेकी योग्यतामें अन्तर मानना तीर्थंकरोंकी आज्ञाके विरुद्ध है । वर्ण व्यवस्थाको किसी न किसी रूपमें भारतीय सभी परम्पराओंने स्वीकार किया है, पर कौन परम्परा इसे किस रूपमें स्वीकार करती है यही सबसे अधिक महत्त्वका प्रश्न है। हम यह जानते हैं कि अब देश, काल ऐसा उपस्थित हआ है, जिसके कारण कुछ काल बाद पुरानी सामाजिक व्यवस्थाएँ, केवल अध्ययन और खोजकी वस्तुएँ रह जायेंगी, पर उस दृष्टिसे हमें उनको अस्वीकार नहीं करना है । हमें तो यहाँ उनके वास्तविक अन्तरको जानकर ही अस्वीकार करना है । जैसा कि मनुस्मति आदिसे ज्ञात होता है कि ब्राह्मण परम्परा जन्मसे वर्ण व्यवस्थापर जोर देती है। उसमें ब्राह्मणकी सन्तान ब्राह्मण और शूद्रकी सन्तान शूद्र ही मानी जाती है, फिर चाहे वह कर्म कोई भी क्यों न करे। हम देखते हैं कि वर्तमानमें अधिकतर कथित ब्राह्मण अध्ययन-अध्यापन आदि कम न करके अन्य-अन्य कम करते हैं। कोई रसोई बनाता है, कोई पानी भरता है, कोई जूतोंकी दुकान करता है. कोई कपड़ा बेचता है और कोई नौकरी करता है, फिर भी वह और उसकी सन्तान ब्राह्मण ही मानी जाती है । यही अवस्था दूसरे वर्णों की है । किन्तु जैनधर्मने जन्मसे वर्ण व्यवस्थापर कभी भी जोर नहीं दिया है। उसने वर्णका आधार एकमात्र कर्मको ही माना है। फिर भी वह इस आधारसे ऊँच-नीचकी कल्पना त्रिकालमें नहीं करता है। उसके मतसे न कोई कर्म बुरा है और न कोई कर्म अच्छा । वह अच्छाई और बुराई या उच्चत्व और नीचत्व व्यक्ति के जीवनसे स्वीकार करता है । जो व्यक्ति हिंसाकी ओर गतिशील है वह बुरा ही बुरा है और जो जीवनमें अहिंसाको प्रश्रय देता है उसकी अच्छाईको पूछना किससे है। यही बात उच्चत्व और नीचत्वकी है। इसलिए जन्मना वर्णव्यवस्था के आधारसे किसी मनुष्यको धर्म धारण करनेके योग्य मानना और किसीको अयोग्य मानना जैनधर्मकी आत्माके विरुद्ध है। यह कल्पित जाति और कूलका अभिमान तो सम्यग्दृष्टिसे ही छुट जाता है । वह सभी प्रकारके अभिमानसे सर्वथा मुक्त हो जाता है। जानकर बड़ा अफसोस होता है कि विचारका स्थान रूढ़िवादिताने ले लिया है. सम्यग्दृष्टिका स्थान परम विचारकका है, इस बातको प्रायः भुला दिया गया है। मानाकि 'नान्यथावादिनो जिनाः' इस आधारपर वह जिनाज्ञाको प्रमाण माननेके लिए सदा तत्पर रहता है, पर जिनाज्ञाके नामपर सभी बातोंको वह आँख मीच कर स्वीकार करता जाय यह नहीं हो सकता। जैन-परम्परामें युक्ति अनुभव और आगमइन तीन बातोंको प्रमुखता दी गयो है । आगममें भी यहाँ पूर्व-पूर्व आगमकी प्रमाणता मानी गयी है । सम्यग्दष्टि तीर्थंकरोंके वचनोंको प्रमाण माननेके लिए अपने निःशंकित गणका उपयोग करता भी है तो इसका यह अर्थ नहीं कि वह उनके नामपर आजतक जो कुछ भी लिखा गया है, उस सबको प्रमाण मानता है । वह उत्तर वचनका पूर्व वचनके साथ मिलान करता है। यदि उत्तरवचन पूर्व वचनके अनुकूल होता है तो वह Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ उसे प्रमाण मानता है अन्यथा वह उसका त्याग कर देता है । धर्म और सिद्धान्त के नामपर वह जो कुछ भी बोलता है, वह श्रमण भगवान् महावीरकी वाणी है, इस विश्वासके आधापर ही बोलता है । धर्मका कोई भी वक्ता या लेखक मात्र अनुवादक माना गया है । मैं इस विषयका लेखक या वक्ता हूँ । इस अहंकारका उसे त्याग करना पड़ता है । पूर्वाचार्य किसी ग्रन्थके आदि या अन्तमें अपने नामका उल्लेख नहीं करते थे, इसका कारण एकमात्र यही था । वे सम्हल सम्हलकर उन्हीं वचनोंका संग्रह करते थे, जिनकी यथार्थताका वे अच्छी तरहसे निर्णय कर लेते थे । किन्तु उत्तरकालमें एक ही परम्परामें अनेक मतों और पंथोंका निर्माण हो जानेके कारण अनेक अपसिद्धान्तोंने प्रवेश पा लिया है। इसका कारण कहीं देश-काल रहा है और कहीं व्यक्ति । इतिहास इसका साक्षी है कि हम मूल परम्पराकी यथावत् रक्षा न कर सके। भगवान् महावीर निर्वाणके कुछ ही काल बाद हममें मतभेद हो गया और हम दिगम्बर और श्वेताम्बर- इन दो भागों में बँट गए । जिस मार्गको उस समय हमारे पूर्वजोंने परिस्थितिवश स्वीकार किया था, वह हमारी परम्पराका एक अपरिहार्य अंग बनके ही रहा । इसके बाद भी ऐसी परिस्थितियोंका निर्माण हुआ, जिनके कारण हम और भी पीछे हटे हैं । तुलना के लिए रत्नकरण्डक और दूसरे आचार ग्रन्थ लिए जा सकते हैं । रत्नकरण्डकमें सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र के आधारसे मात्र मोक्ष मार्गका निरूपण है, किन्तु इसकी तुलनामें जब हम दूसरे आचार-ग्रन्थोंकी मीमांसा करते हैं तो उनमें हमें अनेक नई बातोंका प्रवेश दिखाई देता है । उनमें मात्र मोक्षमार्गका निरूपण न होकर उस समय के सामाजिक रीति-रिवाजोंका भी विधि-विधान करके उनके अनुसार चलनेकी बात कही गयी है । इस परिस्थितिका समर्थन करनेके लिए यशस्तितिलककार सोमदेवसूरि तो यहाँ तक लिखते हैं सर्व एव हि जैनानां प्रमाणं लौकिको विधिः । यत्र सम्यक्त्वहानिर्न न यत्र व्रतदूषणम् ॥ यद्यपि इसके द्वारा जैनोंको लौकिक विधिको प्रमाण माननेकी सशर्त शिक्षा दी गयी है, पर प्रश्न यह है कि सोमदेवसूरिको यह बात कहनेके लिए क्यों बाध्य होना पड़ा ? क्या उनके काल तक जैन लोग लौकिक विधिको प्रमाण नहीं मानते थे और इसलिए उनका इतरजनोंसे विरोध था ? जहाँ तक उक्त कथनसे तो यही ज्ञात होता है कि जैनोंने लौकिक विधिको कभी भी प्रमाण नहीं माना है । उनकी परम्परा सदा उदार और सर्वसंग्राहक रही है । उन्होंने मनुष्योंके आर्य और म्लेच्छ— ये भेद स्वीकार करके भी उनके समान अधिकार माने हैं । किन्तु कालदोषसे उत्तरोत्तर वैदिको के सामने जैन कमजोर पड़ते गए और अन्तमें जाकर जैनोंको वैदिकोंके सामाजिक विधि-विधान स्वीकार करनेके लिए बाध्य होना पड़ा। हमने अपने सामाजिक रीतिरिवाजोंको तिलांजलि देकर वे सब रीति-रिवाज स्वीकार कर लिए जो वैदिकों की अपनी विशेषता रही है । आज तो हम सामाजिक दृष्टिसे तत्त्वतः वैदिक बने बैठे हैं । और आश्चर्य यह है कि हम इस स्थितिको ही अपनी मानने लगे हैं । वस्तुतः उक्त कथन इसी बातकी स्वीकृति मात्र है । यह तो हम पहले ही बतला आये हैं कि सम्यग्दर्शन वस्तुजातके यथार्थ स्वरूपके बोध करनेमें सहायता प्रदान करता है । इसके होनेपर व्यक्तिकी शुद्धिका मार्ग प्रशस्त हो जाता है, फिर वह अपने व्यक्तिगत कर्तव्योंकी ओर विशेष रूपसे ध्यान देने लगता है । सामाजिक रीति-रिवाज मोक्षप्राप्ति में बाधक माने गए हैं इसलिए जैसे-जैसे व्यक्तिकी आन्तरिक उन्नति होती जाती है, वैसे-वैसे वह सामाजिक रीति-रिवाजों से अपनेको मुक्त करता जाता है । व्रत प्रतिमाके अतिचारोंमें परविवाह करना एक अतिचार माना गया है । इसकी तहमें यही बात छिपी हुई है। विवाह स्वयं अपनेमें धार्मिक विधि नहीं है । वह तो व्यक्तिकी कमजोरी Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थखण्ड १५७ की स्वीकृतिका सबसे बड़ा प्रमाणपत्र है। यही कारण है कि व्रती होनेके बाद किसी भी मनुष्यको ऐसे सामाजिक कार्यों से जुदा रहनेके लिए कहा गया है। जैसा कि हम देखते हैं कि एक जीवन संशोधनके मार्ग में लगा रहता है और दूसरा चोरी जारीमें समय बिताता है । क्या चोरी जारी करने वाला व्यक्ति उस दुनियासे बाहर निवास करता है जहाँ गला फाड़-फाड़कर व्यक्ति के जीवनके सुधारकी बात कहो जाती है। उसके वहीं रहते हुए और ऐसे उपदेशोंके सुनते हुए भी उसके इस तत्त्वको आचरणमें लानेकी रुचि क्यों नहीं होती है ? सम्यग्दृष्टि इसका कारण जानता है। इसलिए उसे न तो मरणके कारण उपस्थित होनेपर विवाद होता है और न जोवनके कारण उपस्थित होनेपर हर्ष होता है। उसका जीवन निर्भय होता है। भयका कारण कर्म रहते हुए भी उसकी निर्भय वृत्तिमें अन्तर नहीं आने पाता । सम्यग्दर्शन व्यक्ति स्वातंत्र्यको प्रतिष्ठित करनेका सर्वोत्तम साधन है । इसका आध्यात्मिक रहस्य यहीं से समझ में आता है, इसलिए उसकी वृत्ति में अन्यकी वांछा व विचिकित्साको रंचमात्र भी स्थान नहीं मिलता। वह यह भी मानता है कि दूसरे पदार्थ मेरा हिताहित करनेकी सामर्थ्य रखते हैं, इस भावनासे उनका आदर-सत्कार करना मूढ़ता है। उसका जीवन एकमात्र स्वावलम्बनकी ओर प्रवाहित होने लगता है । वह किसीकी कमजोरीको जीवनका अवश्यम्भावी परिणाम जानकर उसकी उपेक्षा करता है। वह रागादिको विकारीभाव जान उनसे हटकर अपने स्वरूपमें स्थित होना ही प्रशस्त मानता है । उसके विकल्पमें राग नहीं आता यह बात नहीं है, फिर भी वह अपने उपयोगको स्वभावकी ओर ले जानेका प्रयत्न करता है और जहाँ तक बनता है इसी वृत्तिका ख्यापन करता रहता है। तस्व निर्णयका यह अवश्यम्भावी परिणाम है, इसलिए ये गुण सम्यग्दर्शनके साथ नियमसे प्रकट होते हैं । इसीसे रत्नकरण्डकमें कहा हैनांगहीनमलं छेत्तु दर्शनं जन्मसन्ततिम् । न हि मन्त्रोऽक्षरन्यूनो निहन्ति विषवेदनाम् || वह दर्शन दर्शन नहीं जिसके होनेपर ये गुण प्रकाशमें नहीं आते, ऐसा दर्शन संसार- परम्पराका छेदन करने में समर्थ नहीं होता, क्योंकि यह स्पष्ट है कि जो मन्त्र परिपूर्ण होता है वही विषवेदनाको दूर कर सकता है, अन्य नहीं । कभी-कभी ऐसा होता है कि मनुष्य की बुद्धि पन्थके व्यामोहमें पड़कर जीवन सम्बन्धी कार्यों में विमुख होने लगती है। पम्योंका निर्माण क्यों होता है यह इतिहासकी वस्तु हो सकती है, पर एक बात स्पष्ट है कि पन्ध स्वयं धर्म नहीं है। उन्हें धर्मका मार्ग मानना भी ठीक नहीं है। इनमें ऐसी अनेक बातें आ मिलती हैं जिनका आग्रह बढ़ जानेसे मनुष्य बहुत दूर भटक जाता है। मनुष्य बहुत दूर भटक जाता है । उस समय प्रत्येक मनुष्यका ध्यान धर्मकी ओर न जाकर पन्थ रक्षाकी ओर विशेष रूपसे जाने लगता है । हिन्दुओंमें चोटी और जनेऊका आग्रह, मुसलमानों में दाड़ी और खतनाका आग्रह तथा सिखोंमें केशरक्षा, कंघी और कृपाणका आग्रह इसी वृत्तिका परिणाम है | पन्थ मात्र बाहर की ओर देखता है। वह न केवल मनुष्यको अन्धा बनाता है, अपितु उसे धर्म पर संगठित रूपसे आक्रमण करनेके लिए उत्साहित भी करता है। जीवनमें विकारको समझकर उससे छुटकारा पाने के लिए दृढतर प्रयत्न करना ही धर्म है। इसका कार्यक्रम बहुत ही सीधा-सादा है। इसमें आडम्बर को स्थान नहीं । चोटी रखने या जनेऊ के पहिननेसे विकारका अभाव नहीं हो सकता और न ही ऐसा नहीं करनेसे विकारको प्रश्रय ही मिल सकता है । उसके त्यागके लिए आत्माका संशोधन करना होगा । विश्व क्या है और उसमें आत्माका स्थान क्या है इसका निर्देश हम पहले ही कर आये हैं । हमें अपने Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ स्वरूपका विचार इस दृष्टिसे करना होगा। पन्थकी बात जाने दीजिये। विचारकोंने और सन्तोंने उसे तो प्रशस्त माना ही नहीं, उन्होंने भीतर ही भीतर घुसकर आत्माको छाननेका प्रयत्न किया है । सात तत्त्वोंकी चर्चा कौन नहीं जानता । वह आत्माको छाननेका एक प्रकार है। मनुष्य गेहूँको छानते समय चलनीका उपयोग करता है। उससे वह गेहूँमें मिली हुई मिट्टीको निकालकर बाहर फेंक देता है। हमें अपनी बुद्धिका उपयोग चलनीके स्थानमें करना है। आत्मामें पुद्गलके निमित्त से अनन्त विकार आ मिले है। उनका हमें संशोधन करना है। मनुष्यकी यह बुद्धि एक मात्र सम्यग्दर्शनके होनेपर जागृत होती है, इसलिए सम्यग्दर्शनकी बड़ी महिमा है । आचार्य कुन्दकुन्द इसकी महिमाका व्याख्यान करते हुए षट्प्राभूतमें लिखते हैं दसणभट्टा भट्टा दसणभट्टस्स णोत्थ णिव्वाण । सिझंति चरियभट्टा दंसणभट्टा ण सिझंति ॥ इसमें चारित्रकी अपेक्षा दर्शनपर विशेष जोर दिया गया है। आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं कि जो सम्यग्दर्शनसे च्यत है, उसे जीवनके प्रत्येक कार्यसे च्युत समझना चाहिए। वह मक्ति-लाभ नहीं कर सकता। ऐसा व्यक्ति जो चारित्रसे च्युत है, सिद्ध हो सकता है, पर सम्यग्दर्शनसे च्युत हआ व्यक्ति कभी भी सिद्ध नहीं हो सकता। सम्यग्दर्शन अनन्त शक्तिसम्पन्न आत्माके विश्वासका केन्द्र है। इसके द्वारा प्रत्येक प्राणी आत्मासे जड़-तत्त्वोंके पार्थक्यको अनुभवमें लाता है । आत्मामें वैसी योग्यताके होनेपर सर्वप्रथम यह विश्वास गुरुके निमित्तसे प्रस्फुटित होता है । इसके बाद सतत मनन और अनुभवके द्वारा वह दृढ़मल होने लगता है। सम्यग्दर्शनके विविध लक्षण इस उत्पत्ति क्रमको ध्यानमें रख कर ही किये गये हैं। जब हम सात तत्त्वोंका निर्णय करते हैं या देव, गुरु और शास्त्रके स्वरूपको समझनेका प्रयत्न करते हैं, तब हम इस प्रक्रिया द्वारा मात्र अपने स्वरूपपर विश्वास लाते है । घूम-फिरकर पर से भिन्न आत्माके पथक अस्तित्व और उसके स्वरूपको अनुभवमें लाना ही सम्यग्दर्शन है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। आगममें सम्यग्दर्शनके मुख्य दो भेद मिलते हैं-व्यवहार सम्यग्दर्शन और निश्चय सम्यग्दर्शन । ये भेद नयदष्टिसे किये गये हैं, तत्त्वतः सम्यग्दर्शन एक है। वह आत्माका गुण है और पर्याय भी । गुण और पर्यायमें अन्तर यह है कि गुण अन्वयी होता है और पर्याय व्यतिरेकी। जब तक जीवको स्व-पर-विवेक नहीं होता तब तक वह मिथ्यादर्शन इस नामसे पुकारा जाता है और स्व-पर-विवेकके होनेपर वही सम्यग्दर्शन कहलाता है । सम्यग्दर्शन यह जीवनकी स्वाभाविक अवस्था है और मिथ्यादर्शन नैमित्तिक अवस्था है। यद्यपि निमित्त भेदसे सम्यग्दर्शनके भी अनेक भेद किये जाते हैं, पर उन निमित्तोंसे मिथ्यादर्शनके निमित्तमें अन्तर है। सम्यग्दर्शनके होने में दर्शन मोहनीयका उपशम, क्षय या क्षयोपशम मुख्य रूपसे विवक्षित है और मिथ्यादर्शनमें दर्शनमोहनीयका उदय लिया गया है। इस तरह विचार करनेपर सम्यग्दर्शनकी महत्ता स्पष्ट हो जाती है। इससे जीवनमें एक नई क्रान्ति जन्म लेती है। मनुष्यके आचार और विचारमें जो अन्तर आता है वह इसीका फल है। स्वर्गकी सम्पदा इसके सामने न कुछ है । इसके होनेपर मनुष्य नरकके दुःख हँसते-हंसते भोग लेता है। मोक्ष प्राप्तिका यह सबसे बड़ा प्रमाणपत्र है । ऐसी यह पवित्र निधि है । इसलिए भला इसे कौन नहीं चाहेगा। Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वावलम्बी जीवनका सच्चा मार्ग स्वावलम्बन दो शब्दोंसे मिल कर बना है-स्व और अवलम्बन । इसका अर्थ है किसी भी आत्मकार्यमें परमुखापेक्षी नहीं होना । धर्म व्यक्तिके जीवनमें आई हुई कमजोरीको दूर कर उसे स्वावलम्बी बनाता है। इसे जीवनमें उतारनेका मुख्य मार्ग यतिधर्म है। गृहस्थ धर्म कमजोरीको स्वीकार करके चलता है, पर यतिधर्म इस प्रकारकी कमजोरीको थोड़ा भी प्रश्रय नहीं देता। आशय यह कि यतिधर्मके आचरणसे पूर्ण स्वावलम्बनकी शिक्षा मिलती है और गृहस्थ-धर्म शनैः शनैः स्वावलम्बनकी ओर ले जाता है। इसके लिए सर्वप्रथम यह श्रद्धा करनी होती है कि मैं भिन्न हूँ और ये शरीर, स्त्री, पुत्र, धनादि भिन्न है । इस श्रद्धाके दृढ़ होनेपर यह जीव इन पदार्थों के त्यागके लिए प्रयत्नशील होता है । वह ममकार और अहंकारभावका त्याग करता है। जो परका रंचमात्र भी सहारा लिये बिना स्वावलम्बन पूर्वक जीवन यापन करनेका अभिलाषी होता है, वह यतिधर्मकी दीक्षा लेता है और जो भीतरी कमजोरीवश यकायक ऐसा करनेमें अपनेको असमर्थ पाता है वह गृहस्थ-धर्मको स्वीकर करता है । गृहस्थ शनैः शनैः स्वावलम्बनकी शिक्षा लेता है । जैसे-जैसे स्वावलम्बनपूर्वक जीवन बिताने में उसके दृढ़ता आती है, वैसे-वैसे वह परपदार्थोके आलम्बनको छोड़ता जाता है और अन्तमें वह भी पूर्ण स्वावलम्बनका अभ्यासी बन जाता है। माना कि यति शरीरके लिए आहार लेता है, मल-मूत्रका त्याग करता है, थकावट आदिके आनेपर विश्राम करता है. स्वमें चित्तके न रहने पर अन्यको उपदेश आदि देता है, केश आदिके बढ़ जानेपर उनका उत्पाटन करता है और तीर्थयात्रादिके लिए गमनागमन करता है, इसलिए यह शंका होती है कि यतिको पूर्ण स्वावलम्बी कैसे कहा जाय ? प्रश्न है तो मार्मिक और किसी अंशमें जीवनकी कमजोरीको व्यक्त करनेवाला भी, पर यह कमजोरी यकायक दूर नहीं की जा सकती है । शरीरका सम्बन्ध ऐसा नहीं है, जिसका त्याग एक झटके में किया जा सके । जैसे धन, पुत्र आदि जुदा हैं, वैसे शरीर जुदा नहीं है। शरीर और आत्मप्रदेश एक क्षेत्रावगाही हो रहे हैं और इनका परस्पर संश्लेष भी हो रहा है । अतः शरीरके रहते हुए यावन्मात्र प्रवृत्तिमें इनका निमित्त-नैमित्तिक-सम्बन्ध बना हुआ है। यही कारण है कि पूर्ण स्वावलम्बन (यति धर्म) की दीक्षा ले लेनेपर भी संसार अवस्थामें जीवन्मुक्त अवस्था मिलनेके पूर्व तक बहुत सी शरीराश्रित क्रियाओंमें आत्मा निमित्त होता रहता है। यदि उन क्रियाओंसे सर्वथा उपेक्षा भाव रखनेका प्रयत्न किया जाता है तो आत्माश्रित ध्यान-भावना आदि क्रियाओंका किया जाना ही कठिन हो जाता है । पर इतने मात्रसे स्वावलम्बन पूर्वक जीवनयापनकी भावना लुप्त नहीं हो जाती है, क्योंकि शरीरके सम्बन्धके साथ रागभावके रहते हए बुद्धिपूर्वक या अबुद्धिपूर्वक शरीरमूलक सब प्रकारकी क्रियाओंको सर्वथा नहीं छोड़ा जा सकता। जिन क्रियाओंके नहीं करनेसे शरीरकी स्थिति बनी रह सकती है वे क्रियाएँ तो छोड़ दी जाती है, किन्तु जो क्रियाएँ शरीरकी स्थितिके लिए आवश्यक है, उन्हें स्वीकार करना पड़ता है। दृष्टि शरीरके अवलम्बनको कम करते हए स्वावलम्बनकी ही रहती है। यह शरीरके लिए की जानेवाली क्रियाओंको प्रशस्त नहीं मानता र कारणवश ऐसी क्रियाके नहीं करनेपर परम आनन्दका अनुभव करता है । स्वावलम्बी जीवनका यही सच्चा मार्ग है, जो इस प्राणीको संसार गतसे निकालकर मुक्तिका पात्र बनाता है । संसारका प्रत्येक प्राणी ऐसे स्वावलम्बनका अभ्यासी बने यह हमारी कामना है । Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधु और उनकी चर्या मोक्षमार्गमें आचार्य परम्परासे प्राप्त सम्यक् श्रुतकी प्रतिष्ठा सर्वोपरि है । जो साधु अपने मनरूपी मर्कटको अपने वशमें रखना चाहता है, उसे अपने चित्तको सम्यक् श्रुतके अभ्यासमें नियमसे लगाना चाहिए । श्रुतस्कन्ध हरे भरे, फूल-पत्तोंसे लदे हुए एक वृक्ष के समान है । जैसे वृक्ष में अनेक शाखा-उपशाखाएँ होती हैं, फूल - फल होते हैं, वैसे ही श्रुत भी अनेकान्त स्वरूप पदार्थको नय उपयनका आश्रय लेकर व्याख्या करनेमें प्रवीण है (आत्मा०, १६९ ) । यह हम श्रुतके बलसे ही जानते हैं कि जो वस्तु एक अपेक्षासे तत्स्वरूप है वही वस्तु दूसरी अपेक्षासे अतत्स्वरूप भी है । यह विश्व अनादि-अनन्त भी है यह हम इसीसे समझते हैं ( वही १७० ) । न कोई वस्तु सर्वथा स्थायी है और न सर्वथा क्षणविनाशीक ही है (वही, १७१) । किन्तु एक ही समय में वह उत्पाद व्यय और ध्रौव्यस्वरूप त्रयात्मक सिद्ध होती है (वही, १७१) । इस प्रकार विश्व में जितने भी पदार्थ हैं उनके सामान्य स्वरूपके निर्णय करनेमें सम्यक् श्रुतकी जितनी उपयोगिता है, प्रत्येक पदार्थके असाधारण स्वरूपके निर्णय करनेमें भी श्रुतकी उतनी ही उपयोगिता है । यह भी हम श्रुतसे ही जानते हैं कि प्रत्येक आत्मा ज्ञानस्वभाव है, इसलिए स्वभाव से च्युत न होकर उसमें रमना ही उसकी प्राप्ति है और वही उसका मोक्ष है (वही, १७४) । इस समय रयणसार हमारे सामने है । उसमें प्रक्षिप्त गाथाओंको चुन-चुनकर यदि अलग कर दिया तो उसे भी आचार्य कुन्दकुन्दके आगमानुसारी रचनाओंमें वही स्थान प्राप्त है, जो स्थान समयप्राभृत और प्रवचनसार आदिका स्वीकार किया गया है । उसमें श्रावक और साधुके मुख्य कार्योंका निर्देश करते हुए लिखा है कि जैसे श्रावकधर्म में दान और पूजा मुख्य हैं, इनके बिना वह श्रावक नहीं हो सकता । वैसे ही मुनिधर्म में ध्यान और अध्ययन —ये दो कार्य मुख्य । इनके बिना मुनि मुनि नहीं ।" यही कारण है कि प्रवचनसारमें आचार्य कुन्दकुद साधुको आगमचक्षु स्वीकार करते हुए (वही, २३४) कहते हैं कि नाना प्रकारके गुण-पर्यायोंसे युक्त जितने भी पदार्थ हैं वे सब आगमसिद्ध हैं, ऐसा जो जानते हैं और अनुभवते हैं, वस्तुतः वे ही साधुपदसे अलंकृत सच्चे साधु हैं वही, २३५ ) । कारण कि जिनको आगमके अनुसार जीवादि पदार्थोंमें श्रद्धा नहीं है वे बाह्यमें साधु होकर भी सिद्धिको प्राप्त करनेके अधिकारी नहीं होते, यह स्पष्ट है (वही, २३७) । मोक्षमार्ग में आगम सर्वोपरि है । उसके हार्दको समझे बिना कोई भी संसारी प्राणी मोक्षमार्गके प्रथम सोपानस्वरूप सम्यग्दर्शनको भी प्राप्त नहीं कर सकता । ग्रन्थकारने सम्यग्दर्शनके जिन दस भेदोंका ग्रन्थके प्रारम्भमें उल्लेख किया है उनमेंसे अवगाढ़ सम्यग्दर्शन तो सकल श्रुतधर श्रुतकेवली के ही होता है । इससे ही उसकी प्रारम्भमें श्रुताधारता स्पष्ट हो जाती है । परमावगाढ़ सम्यग्दर्शन मुख्यतया केवली के माना गया है सो वे तो श्रुतके जनक ही हैं । जिससे यह सहज ही ध्वनित होता है कि जो श्रुतके अध्ययन मननपूर्वक सम्यग्दर्शनको प्राप्त करता है, वही समग्रभावसे उपदेष्टा हो सकता है । अब रहे सम्यग्दर्शन के शेष आठ भेद सो उनकी प्राप्तिके मूलमें भी किसी न किसी रूपमें श्रुतके अभ्यासकी सर्वोपरिता स्वीकार की गई है । वह भी स्वयं १. दाणं पूया मुक्खं सावयधम्मे ण सावया तेण विणा । झाणाज्झयणं मुक्खं जइधम्मे तं विणा तहा सो वि ।। रयग०, गा० १०॥ Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थं खण्ड : १६१ नहीं, किन्तु पूरी तरह आम्नायके ज्ञाता गुरुकी सन्निधिपूर्वक ही स्वीकार की गई है। समग्र आगमपर दृष्टिपात करनेसे यही तथ्य फलित होता है ( ११-१४) । आगममें मोक्षमार्गका गुरु कैसा होना चाहिए इसका स्पष्टरूपसे निर्देश करते हुए रत्नकरण्ड श्रावकाचारमें लिखा है कि जिसमें अणुमात्र भी विषयसम्बन्धी आशा नहीं पाई जाती, जो आरम्भ और परिग्रहसे रहित है तथा जो ज्ञान, ध्यान और तपमें लीन है, मोक्षमार्ग में उसे ही गुरु माना गया है ( ४ ) यद्यपि "आत्मानुशासन" में गुरुका सीधा लक्षण तो दृष्टिगोचर नहीं होता । परन्तु इसमें यतिपतिमें सम्यक् श्रुतका अभ्यास, निर्दोष वृत्ति, पर प्रतिबोधन करनेमें प्रवीणता, मोक्षमार्गका प्रवर्तन, ईर्ष्यारहित वृत्ति, भिक्षावृत्तिमें दीनताका अभाव और लोकज्ञता आदि जिन गुणोंका विधान किया गया है (६) उससे मोक्षमार्गका गुरु कैसा होना चाहिये यह स्पष्ट ज्ञात हो जाता । आगे (६६-६७) पद्योंमें जिन विशेषताओंका निर्देश किया गया है उनपर दृष्टिपात करनेसे भी उक्त तथ्यका ही समर्थन होता है । इतना अवश्य है कि शिष्योंकी सम्हाल करनेमें उसे प्रमादी नहीं होना चाहिए (१४१-१४२) । और न स्नेहालु या शिष्योंके दोषोंके प्रति दुर्लक्ष्य करनेवाला होना चाहिए । यह मोक्षमार्ग के गुरुका संक्षेपमें स्वरूप निर्देश है। यह हो सकता है कि क्वचित् कदाचित् उसमें मूलगुणोंके पालनमें या उत्तरगुणोंका समग्रभावसे परिशीलन करनेमें कुछ कमी देखी जाय या शरीर संस्कार आदि रूप प्रवृत्ति भी दृष्टिगोचर हो तो भी इतनेमात्रसे उसका मुनिपद सर्वथा खण्डित नहीं हो जाता । यही कारण है कि नैगमादिनयोंकी अपेक्षा तत्त्वार्थसूत्रमें पुलाक, वकुश और कुशील इन तीन प्रकारके मुनियों को भी निर्ग्रन्थरूपमें स्वीकार किया गया है । यहाँ यह कहा जा सकता है कि जिन मुनियोंमें मूलगुणों और उत्तरगुणोंमें कमी देखी जाय, उन्हें मुनि मानना कहाँ तक उचित है। प्रश्न मौलिक है और पुराना भी । गुणभद्रसूरिने तो इस विषयको विशेष चर्चा नहीं की । मात्र इतना लिखा है कि जैसे मृगगण हिंस्र प्राणियोंके भयवश रात्रिमें नगरके समीप आ जाते हैं वैसे ही इस कालमें खेद है कि मुनिजन भी भयवश रात्रिमें नगर के समीप आ जाते हैं । किन्तु इस विषय की विशेष चर्चा सोमदेवसूरि और पं० आशाधरजीने विशेषरूपसे की है। ग्यारहवीं शताब्दिके विद्वान् सोमदेवसूरि लिखते हैं कि जिस प्रकार जिनेन्द्रदेवकी लेपादिसे युक्त जिनप्रतिमा पूजी जाती है, वैसे ही पूर्वकालके मुनियों की छाया मानकर वर्त्तमानकालके मुनि पूज्य हैं । मुनियोंको मात्र भोजन ही तो देना है, इसमें वे सन्त हैं कि असन्त इसकी क्या परीक्षा करनी ।२ १३वीं शताब्दिके विद्वान् पं० आशाधरजी भी इसी मतके जान पड़ते हैं । वे भी इसी बातका समर्थन करते हुए लिखते हैं कि - 'जिस प्रकार प्रतिमाओंमें जिनदेवकी स्थापना की जाती है, उसी प्रकार पूर्वकालीन मुनियोंकी इस कालके मुनियोंमें स्थापना कर भक्तिपूर्वक उनकी पूजा करनी चाहिये । खोद - विनोद करनेमें कोई लाभ नहीं । इस प्रकार हम देखते हैं कि मुनियोंके आचार सम्बन्धी यह प्रश्न उत्तरोत्तर जटिल होता गया है । वर्त्तमानमें जो मुनि हैं, उन्हें हम मुनि न मानें और मनमें वर्तमान मुनियोंकी स्थापना कर बाह्यमें उनकी पूजा ९. इतस्ततश्च त्रस्यन्तो विभावर्यां यथा मृगाः । वनाद्विशन्त्युपग्रामं कलो कष्टं तपस्विनः ॥ आत्मानुशासन, १९७ । २. यशस्तिलकचम्पू, उत्तरखण्ड, ४०५ । ३. सागारधर्मामृत, अ० २ श्लो० ६४ । २१ Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ करें, आहार दें, उनका उपदेश सुनें, ऐसा करना कहाँ तक उचित है? इस विषयपर समर्थ आचार्योंके वचनोंसे कुछ प्रकाश पड़ता है या नहीं यह हमें देखना है । तत्त्वार्थसूत्रके अनुसार निर्ग्रन्थोंके उत्तर-भेदोंपर विशद प्रकाश डालते हुए मूलगुण आदिकी अपेक्षा कमीवाले मुनियोंके विषयमें तत्त्वार्थवातिकमें जो कुछ कहा गया है, उसे यहाँ हम शंका-समाधानके रूपमें अविकल दे देना चाहते हैं । यथा शंका-जैसे गृहस्थ चारित्रके भेदसे निर्ग्रन्थ नहीं कहलाता, वैसे ही पुलाकादिकमें भी चारित्रका भेद होनेसे निर्ग्रन्थपना नहीं बन सकता ? . समाधान-यह कोई दोष नहीं, क्योंकि जैसे चारित्र और अध्ययन आदिका भेद होनेपर भी जातिसे वे सब ब्राह्मण कहलाते हैं, वैसे ही पुलाकादिक भी निर्ग्रन्थ कहलाते हैं। इसके कारणका निर्देश करते हुए वहाँ बतलाया है कि 'यद्यपि निश्चयनयकी अपेक्षा गणहीनोंमें उक्त संज्ञाकी प्रवृत्ति नहीं होती, परन्तु संग्रह और व्यवहारनयकी अपेक्षा निर्ग्रन्थके समस्त भेदोंका उसमें संग्रह हो जाता है । इसका विशेष खुलासा करते हुए वहाँ पुनः लिखा है कि बात यह है कि उक्त पुलाक, वकुश और कुशील-इनमें वस्त्र, आभूषण और आयुध आदि नहीं पाये जाते। मात्र सम्यग्दर्शन और निर्ग्रन्थ रूपको समानता देखकर ही उन्हें निर्ग्रन्थ स्वीकार किया गया है। शंका-इस पर पुनः शंका हई कि जिन्होंने व्रतोंको भंग किया है, ऐसे व्यक्तियों में भी यदि निर्ग्रन्थ शब्दका प्रयोग करते हैं तो धावकोंको भी निर्ग्रन्थ कहना चाहिए ? समाधान-श्रावकोंमें निर्ग्रन्थ रूपका अभाव है, इस कारण उनमें निर्ग्रन्थ शब्दको प्रवृत्ति नहीं होती। हमें तो निर्ग्रन्थ रूप प्रमाण है। - शंका-यदि आपको निर्ग्रन्थ रूप प्रमाण है तो अन्य जो उस रूपवाले हैं, उनमें निर्ग्रन्थपनेकी प्राप्ति होती है ? समाधान-नहीं, क्योंकि उनमें सम्यग्दर्शन नहीं पाया जाता, इसलिए उन्हें निर्ग्रन्थ नहीं माना जा सकता। किन्तु जिनमें सम्यग्दर्शनके साथ नग्नता दिखाई देती है उनमें निर्ग्रन्थ व्यवहार करना उचित है। केवल नग्नता देखकर निर्ग्रन्थ व्यवहार करना उचित नहीं। श्लोकवार्तिककारका भी यही अभिप्राय है । इन दोनों समर्थ आचार्योंका यह अभिप्राय उस प्रकाशस्तम्भके समान है जो विशाल और गहरे समुद्र में प्रकाश और मार्गदर्शन दोनोंका काम करता है। इस समय मुनि, आयिका, श्रावक और श्राविका सबके लिए इस मंगलमय अभिप्रायके अनुसार चलनेकी बड़ी आवश्यकता है, क्योंकि इस अभिप्रायके मूलमें सम्यग्दर्शन मुख्य है । वह आत्मधर्मका आधार स्तम्भ है । इसमें यही तो कहा गया है कि क्वचित्, कदाचित् बाह्य-चारित्रमें परिस्थितिवश यदि किसी प्रकारकी कमी आ भी जाय तो उतनी हानि नहीं, जितनी कि सम्यग्दर्शनसे च्यत होनेपर इस जीवको उठानी पड़ती है। इसी बातको ध्यानमें रखकर आचार्य कुन्दकुन्द दर्शनप्राभतमें कहते हैं दसणभट्टा भट्टा दंसणभट्टस्स णत्थि णिव्वाणं । सिज्झांति चरियभट्टा सणभट्टा ण सिज्ांति ॥३॥ इसका अर्थ करते हुए पण्डितप्रवर जयचन्दजी छावड़ा लिखते हैं जो पुरुष दर्शनसे भ्रष्ट हैं वे भ्रष्ट हैं, जो दर्शनसे भ्रष्ट हैं उनको निर्वाण नहीं होता, क्योंकि यह प्रसिद्ध है कि जो चारित्र-भ्रष्ट है, वे तो सिद्धिको प्राप्त हो जाते हैं, परन्तु जो दर्शन भ्रष्ट हैं वे सिद्धिको प्राप्त नहीं होते ॥३॥ Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : १६३ - इसी बातको भावार्थमें स्पष्ट करते हुए वे पुनः कहते हैं-जैसे वृक्षकी. शाखा आदि कट जाये और जड़ बनी रहे तो शाखा आदि शीघ्र ही पुनः उग आयेंगे और फल लगेंगे, किन्तु जड़ उखड़ जानेपर शाखा आदि कैसे होंगे? इसी प्रकार धर्मका मूल दर्शन जानना ॥३॥ यह सब शास्त्रोंका निचोड़ है । जीवनमें जिनागमके अनुसार अनेक प्रकारके जीवाजोवादि पदार्थों के सम्यक् निर्णय पूर्वक हेय उपादेयका जानना ही सम्यग्दृष्टिका लक्षण है।' इसके होनेपर व्रत, संयम नियमका आचरण करना हो इष्ट फलको देनेवाला होता है. अन्यथा वे न होने के समान है. क्योंकि केवल उनके होनेसे संसार छेद नहीं होता। इस पूरे कथनका सार यह है कि कदाचित् दूसरेकी बलजबरीसे पाँच मूलगुणों और रात्रिभोजन त्यागरूप व्रतमें दोष लग जाय या क्वचित्, कदाचित् उपकरण और शरीरके संस्कार आदिका परिणाम हो जाय या कदाचित् किसी साधुके उत्तरगुणोंमें विराधना हो जाय तो भी उसके द्रव्यलिंगकी अपेक्षा इस प्रकारको विविधता होनेपर भी वह साधपदसे च्युत नहीं होता। ऐसा होनेपर भी उसके संयमस्थानोंसे सर्वथा पतन नहीं होता। जघन्यादिके भेदसे उसके संयमस्थान बने रहते हैं। यही कारण है कि आगममें ऐसे मुनियोंको भी स्वीकार कर उनकी गुरु पदपर प्रतिष्ठा की गई है। स्वपक्षके समर्थनमें यह दो आचार्योका अभिप्राय है जो अनुकरणीय है। किन्तु लोकमें ऐसे मुनियोंकी कमी नहीं जो गुरुपर्व क्रमसे प्राप्त आगमकी अवहेलना कर उत्सूत्र आचरण करने में हिचकिचाहटका अनुभव नहीं करते । ऐसे मुनियोंको ध्यानमें रखकर ग्रन्थकारने ये उदगार प्रकट किये हैं कि ग्रहण किये गये तपको स्त्रियोंके कटाक्षरूपी लुटेरों द्वारा यदि लूट लिया जाता है तो जन्म-परम्पराको बढ़ानेवाले उस तपकी अपेक्षा गृहस्थ होकर जीवन यापन करना ही श्रेष्ठ है (१९८)। वे इतना ही कह कर नहीं रह जाते । वे पुनः उसे समझाते हुए कहते हैं कि साधो ! यह शरीर और स्त्री दोनों एक डग भी निश्चयसे तेरे साथ जानेवाले नहीं हैं। इनमें अनुराग कर तू धोखा खा रहा है । इस शरीरसे जो तूने गाढ़ स्नेह कर रखा है और इस कारण विषयोंमें अपनेको उलझा रखा है उसे छोड़, इसीमें तेरा कल्याण है (१९९)। हम यह जानते हैं कि सर्वथा भिन्न दो पदार्थ मिलकर एक नहीं हो सकते । फिर भी तू पूर्वोपाजित किसी कर्मके अधीन होकर इन शरीर आदि पदार्थोंमें अभेद-बुद्धि करके तन्मय हो रहा है। पर वास्तवमें वे तुझ स्वरूप है नहीं। फिर भी तू उनमें ममत्व-बुद्धि करके इस संसाररूपी वनमें छेदे-भेदे जानेकी चिन्ता न करके भटक रहा है (२००) । विचार कर यदि तु देखेगा तो यह निश्चय करनेमें देर नहीं लगेगी कि ये माता-पिता और कुटम्बीजन तेरे कोई नहीं हैं। इनका सम्बन्ध शरीर तक ही सीमित है। अतः शरीर सहित इनमें अनुराग करनेसे क्या लाभ ? उसे छोड़। परमार्थसे देखा जाय तो तु कर्मादि पर वस्तुके सम्बन्धसे रहित होनेके कारण शुद्ध है, ज्ञेयरूप समस्त विषयोंका ज्ञाता है तथा रूप-रसादिसे रहित ज्ञानमूर्ति है। यह तेरा सहज स्वरूप है। फिर भी इस शरीर में अनुरागवश तू इस द्वारा अपवित्र किया जा रहा है। सो ठीक ही है, कारण कि यह अपवित्र जड़-शरीर लोकमें ऐसी कौन-सी वस्तु है जिसे अपवित्र नहीं करता (२०२), अतः इस शरीरके स्वभावको हेय जानकर उसमें साहस पूर्वक मुर्छाको छोड़ देना यही तेरा प्रधान कर्तव्य है। यह मोह बीजके समान है। बीजसे ही वृक्षकी जड़ और अंकुर उत्पन्न होते है । मोहका भी वही काम है। रागद्वेषकी उत्पत्तिका मूल कारण यह मोह ही है। १. सूत्रपाहुड, गा० ५। २. तत्त्वार्थवार्तिक, अ०९ सू० ४७ । Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ एकबार पदार्थोंमें अहंबुद्धिका त्याग हो जाने पर राग-द्वेष स्वयं काल पाकर विलयको प्राप्त हो जाते हैं (१८१)। इन्द्रियाँ पाँच हैं-स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र । उनमें स्पर्शन और रसना ये दो इन्द्रियाँ सबसे प्रबल हैं। कदाचित् शेष इन्द्रियोंके विषयोंसे यह विरक्त भी हो जाय, पर इन दो इन्द्रियोंके विषयसे विरक्त होना आसान नहीं है। हमने देखा है कि साधु इष्ट और गरिष्ठ भोजन लेता है तो भी वह उतना अपवादका पात्र नहीं होता जितना कि स्पर्शन-जन्य दोषके कारण उसे न केवल अपवादका पात्र होना पड़ता है, अपितु लोकमें उसकी प्रताड़ना भी की जाती है। यही कारण है कि इस ग्रन्थमें स्त्रीके दोष दिखा कर साधुको किसी भी प्रकारसे स्त्री सम्पर्कसे दूर रहनेकी शिक्षा पद-पदपर दी गई है। और कहा गया है कि मन तो नपुंसक है। वह विषयका उपभोग क्या करेगा । उसमें यह सामर्थ्य ही नहीं (१३७) । यद्यपि हम जानते हैं कि प्राचीन कालमें भी ऐसे पण्डित और साधु होते रहे हैं, जिन्होंने अपने मलिन चारित्र द्वारा निर्मल जैनमार्गको मलिन करनेमें कोई कोर-कसर नहीं रख छोड़ी।' मलाचारमें ऐसे साधुओंके पाँच प्रकार बतलाये गये हैं। उनके नाम हैं-पार्श्वस्थ, कुशील, संसक्त, अपगतसंज्ञ और मृगचरित्र । वहाँ इन्हें संघ बाह्य कहकर इनकी वन्दना करनेका भी निषेध किया गया है। लिंगपाहुडमें भी आचार्य कुन्दकुन्दने ऐसे मुनियोंको मुनिपदके अयोग्य कहा है। अतः समग्र ग्रन्थका सार यह है कि साधु जैसे ऊँचे पद हर प्रकारसे उसकी सम्हाल करनी चाहिये । बालक तो पालना आदिसे गिरनेसे डरता है, फिर साधु संयम जैसे महान् पदका अधिकारी होकर भी उससे गिरने में भय न करे, यह आश्चर्यकी बात है। Chan Com १. पण्डितैभ्रष्टचारित्रैः वठरैश्च तपोधनै । शासनं जिनचन्द्रस्य निर्मलं मलिनीकृतम् ।। २. मूलाचार, षडावश्यक अधिकार गा० ९५ । ३. देखो, गाथा १४, १७, २० आदि । ४. आत्मानुशासन पृ० १६६ । Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि और श्रावक-धर्म जैनधर्म निवृत्ति प्रधान धर्म है। इसमें मुक्ति और उसके कारणोंकी मीमांसा सांगोपांग और सूक्ष्मताके साथ की गयी है । इसका यह अर्थ नहीं कि इसमें प्रवृत्तिके लिये यत्किचित् भी स्थान नहीं है । वस्तुतः प्रवृत्ति कथंचित् निवृत्ति की पूरक है । अशुभ और शुभसे निवृत्ति होकर जीवकी शुद्ध आत्मस्वरूपमें प्रवृत्ति हो यह इसका अन्तिम लक्ष्य है । यहाँ शुभसे हमारा अभिप्राय शुभरागसे है । राग भी बन्धका कारण है, इसलिए वह भी हेय है । इसका अपना दर्शन है जो आत्माकी स्वतन्त्र सत्ताको स्वीकार करता है । आचार्य कुन्दकुन्द समयसार - परसे भिन्न आत्माकी पृथक् सत्ताका मनोरम चित्र उपस्थित करते हुए कहते हैं - अहो आत्मन् ! ज्ञानदर्शनस्वरूप तू अपनेको स्वतन्त्र और एकाकी अनुभव कर । विश्वमें तेरे दायें-बायें, आगे-पीछे और ऊपर-नीचे पुद् गलकी जो अनन्त राशि दिखालाई देती है उसमें अणुमात्र भी तेरा नहीं है । वह जड़ है और तू चेतन है । वह विनाशक है और तू अविनाशीक पदका अधिकारी । उसके पास सम्बन्ध स्थापित कर तूने खोया ही है, कुछ पाया नहीं । संसार खोनेका मार्ग है । प्राप्त करनेका मार्ग इससे भिन्न है । जैनधर्म एकमात्र उसी मार्गका निर्देश करता है जो आत्माके निज स्वरूपकी प्राप्ति में सहायक होता है । यद्यपि कहीं-कहीं स्वर्गादिरूप अभ्युदयकी प्राप्ति धर्मका फल कहा गया है, किन्तु इसे औपचारिक ही समझना चाहिए । धर्मका साक्षात् फल आत्मविशुद्धि है । इसकी परमोच्च अवस्थाका नाम ही मोक्ष है । यह न तो शून्यरूप है और न इसमें आत्माका अभाव ही होता है । संसारमें संकल्प-विकल्प और संयोगजन्य जो अनेक बाधाएँ उपस्थित होती हैं, मुक्तात्मामें उनका सर्वथा अभाव हो जाता है, इसीलिए जैनधर्म में मुक्तिप्राप्तिका उद्योग सबके लिए हितकारी माना गया है । १. मुनिधर्म दूसरे शब्दों में यह वात यों कही जा सकती है कि जैनधर्म प्रत्येक आत्माकी स्वतन्त्र सत्ताको स्वीकार करके व्यक्ति-स्वातन्त्र्यके आधारपर उसके बन्धनसे मुक्त होनेके मार्गका निर्देश करता है। तदनुसार इसमें मोक्षमार्गके दो भेद किये गये हैं- प्रथम मुनिधर्म और दूसरा गृहस्थधर्म । मुनिधर्म पूर्ण स्वावलम्बनकी दीक्षाका दूसरा नाम है | अट्ठाईस मूलगुण इसमें किसी भी प्रकारकी हिंसा, असत्य, चोरी और अब्रह्मके लिए तो स्थान है ही नहीं । साथ ही साथ साधु अन्तरंग और बहिरंग पूर्ण परिग्रहका त्यागी होता है । वह अपना समस्त आचार-व्यवहार यत्नाचार पूर्वक करता है । चलते समय जमीन शोधकर चलता है। बोलनेका संयम रखता है । यदि बोलता भी है तो हित, मित और प्रिय वचन ही बोलता है । शरीर द्वारा संयमकी रक्षा के लिए अयाचित और अनुद्दिष्ट निर्दोष भोजन दिनमें एक बार लेता है । पात्र और आसनको स्वीकार नहीं करता । आहारके ग्रहणकी पूर्ति अञ्जलिबद्ध दोनों हाथोंसे हो जाती है और खड़े-खड़े ही उपकरणोंमें आसक्ति किये बिना आहार लिया जा सकता है, इसलिए पात्र और आसनका आश्रय नहीं लेता । संयमकी रक्षा और ज्ञानकी वृद्धिके लिए वह पीछी; कमण्डलु और शास्त्रको स्वीकार करता है । किन्तु उनके उठाने धरनेमें किसीको बाधा न पहुँचे, इस अभिप्रायसे वह पूरी सावधानी रखता है । मल-मूत्र आदिका क्षेपण भी निर्जन्तु और एकान्त स्थानमें करता है । काय Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ और मनकी यद्वा-तद्वा प्रवृत्तिसे विरत रहता है । केश सम्मूर्च्छन जीवोंकी उत्पत्तिके स्थान है इस अभिप्रायसे वह स्वयं अपने हाथसे उनके उत्पाटनका व्रत स्वीकार करता है । इसके लिए किसीसे कर्तरी और छुरा आदिकी याचना नहीं करता । कोई स्वेच्छासे लाकर देने भी लगे तो वह उन्हें स्वीकार नहीं करता। उनके स्वीकार करनेमें या उनसे काम लेनेमें वह अपने स्वावलम्बन-व्रतकी हानि मानता है । उसकी अन्य परिग्रह आदि समान शरीरमें भी आसक्ति नहीं होती, इसलिए वह न तो शरीरका संस्कार करता है और न स्नान ही करता है । आवरण और परिग्रहका त्याग कर देनेसे वह नग्न रहता है। आहार उतना ही लेता है जो शरीरके सन्धारणके लिए आवश्यक होता है। उसके मुंहमें आहारजन्य दुर्गन्ध आदिके उत्पन्न न होनेके कारण उसे दन्तधावन आदिकी भी आवश्यकता नहीं पड़ती। तथा वह अपने पाँच इन्द्रियोंके विषयोंसे सदा विरक्त रहता है। यह प्रत्येक साधुकी जीवन-भरके लिए स्वीकृत चर्या है। इसका वह प्रतिदिन शरीरमें आसक्ति किये बिना उत्तम रीतिसे पालन करता है। __ साधुके मूलगुण अट्ठाईस होते है-पांच महाव्रत, पाँच समिति, पाँच इन्द्रियोंके विषयोंका निरोध, सात शेष गुण और छह आवश्यक । इनमेंसे बाईस मूलगुणोंका विचार पूर्व ही कर आये हैं । छह आवश्यक सामायिक, चविंशतिस्तव. वन्दना. प्रतिक्रमण. प्रत्याख्यान और व्य सर्ग। साधु इनका भी उत्तम रीतिसे पालन करता है । जीवन-मरण, लाभ-अलाभ, संयोग-वियोग, मित्र-शत्रु और सुख-दुःखमें समता परिणाम रखना और त्रिकाल देववन्दना करना सामायिक है । चौबीस तीर्थंकरोंको नाम निरुक्ति और गुणानुकीर्तन करते हुए मन, वचन और कायकी शुद्धिपूर्वक प्रणाम करना चतुर्विंशतिस्तव है। पाँच परमेष्ठी और जिनप्रतिमाको कृतिकर्मके साथ मन, वचन और कायकी शुद्धिपूर्वक प्रणाम करना वन्दना है । द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावके आलम्बनसे व्रतविशेषमें या आहार आदिके ग्रहणके समय जो दोष लगता है, उसकी मन, वचन और कायकी सम्हालके साथ निन्दा और गर्दा करते हुए शुद्धि करना प्रतिक्रमण है। तथा अयोग्य नाम, स्थापना और द्रव्य आदिका मन, वचन और कायसे त्याग कर देना प्रत्याख्यान है। विशेष नियम ये साधुके मूल गुण हैं । इनका वह नियमित रूपसे पालन करता है। इनके सिवा उक्त धर्मके पूरक कुछ उपयोगी नियम और हैं जिनको जीवनमें उतारनेसे साधुधर्मकी रक्षा मानी जाती है। वे ये हैं-१. जो अपनेसे बड़े पुराने दोक्षित साधु हैं, उनके सामने आनेपर अभ्युत्थान और प्रणाम आदि द्वारा उनकी समुचित विनय करता है । २. आगमार्थके सुनने और ग्रहण करनेमें रुचि रखता है। ३. गुरु आदिसे शंकाका निवारण विनयपूर्वक करता है । ४ श्रुतका अभ्यास बढ़ जानेपर न तो अहंकार करता है और न उसे छिपाता है । ५. ज्ञान और संयमके उपकरणोंके प्रति आसक्ति नहीं रखता। ६. जिस पुस्तकका स्वाध्याय करता है, उसे ही स्वाध्याय समाप्त होने तकके लिए स्वीकार करता है। अनावश्यक पुस्तकोंके संग्रहमें रुचि नहीं रखता । अनुसन्धानके लिए अधिक पुस्तकोंका अवलोकन करना वर्जनीय नहीं है, परन्तु उनके संग्रहमें रुचि नहीं रखता । ७. अपने गुरु और गुरुकुलके अनुकूल प्रवृत्ति करता है । ८. संयमके योग्य क्षेत्र, निर्जन वन, गिरि-गुफा या चैत्यालय आदिमें निवास करता है। ९. अन्य साधुओंकी आवश्यकतानुसार वैयावृत्य करता है। १०. गाँवमें एक दिन और शहरमें पाँच दिन निवास करता है। ११. पहले अपनी गुरु-परम्परासे आये हुए आगमका विधिपूर्वक अध्ययन करके अनन्तर गुरुकी आज्ञासे अन्य शास्त्रोंका अध्ययन करता है। १२. अध्ययन करनेके बाद यदि अन्य धर्मायतन आदि स्थानमें जानेकी इच्छा हो तो गुरुसे अनेक बार , अनुज्ञा लेकर अकेला नहीं जाता है किन्तु अन्य साधुओंके साथ जाता है । अकेले विहार करनेकी गुरु ऐसे साधुको ही अनुज्ञा देते हैं - पन्छाप Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : १६७ जो सूत्रार्थका ज्ञाता है, उत्तम प्रकारसे तपश्चर्या में रत है, जिसने सहनशक्ति बढ़ा ली है, जो शान्त और प्रशस्त परिणामवाला है, उत्तम संहननका धारी है, सब तपस्वियोंमें पुराना है, अपने आचारकी रक्षा करने में समर्थ है और जो देशकालका पूर्ण ज्ञाता है । जो इन गुणोंका धारी नहीं है, उसके एकलविहारी होनेपर गुरुका अपवाद होनेका, श्रुतका विच्छेद होनेका और तीर्थक मलिन होनेका भय बना रहता है। तथा स्वैराचारको प्रवृत्ति बढ़ने लगती है। और भी अनेक दोष हैं, इसलिए हर कोई साधु एकलविहारी नहीं हो सकता। जो इस प्रवृत्तिको प्रोत्साहन देते हैं, वे भी उक्त दोषोंके भागी होते हैं । प्रायः जो गारव दोषसे युक्त होता है, मायावी होता है, आलसी होता है, व्रतादिके पूर्णरूपसे पालन करनेमें असमर्थ होता है और पापबुद्धि होता है, वही गुरुको अवहेलना करके अकेला रहना चाहता है । १३. आर्यिका या अन्य स्त्रीके अकेली होनेपर उससे बातचीत नहीं करता और न वहाँ ठहरता ही है। १४. यदि बातचीत करनेका विशेष प्रयोजन हो तो अनेक स्त्रियोंके रहते हुए ही दूरसे उनसे बातचीत करता है। १५. आयिकाओं या अन्य व्रती श्राविकाओंके उपाश्रयमें नहीं ठहरता । १६. अपनी प्रभाववृद्धि के लिए मन्त्र, तन्त्र और ज्यो तषविद्याका उपयोग नहीं करता। १७. तैलमर्दन आदि द्वारा शरीरका संस्कार नहीं करता और सुगन्धित द्रव्योंका उपयोग नहीं करता। १८. शीत आदिको बाधासे रक्षाके उपायोंका आश्रय नहीं लेता। १९. वसतिका आदिका द्वार स्वयं बन्द नहीं करता तथा वहाँ आनेवाले अन्य व्यक्तिको नहीं रोकता । २०. दीपक या लालटेनकी रोशनीको कम-अधिक नहीं करता । बैटरी भी पासमें नहीं रखता । २१. उष्णताका वारण करनेके लिए पंखे आदिका उपयोग नहीं करता। २२. अपने साथ नौकर आदि नहीं रखता । २३. किसीके साथ विसंवाद नहीं करता। २४. तीर्थादिकी यात्राके लिए अर्थका संग्रह नहीं करता और न इसकी पूर्ति के लिए उपदेश देता है । २५. तथा यात्राके समय किसी प्रकारकी सवारीका उपयोग नहीं करता। पैदल ही विहार करता है। इन नियमों के सिवा और भी बहुतसे नियम है जिनका वह संयमकी रक्षाके लिए भले प्रकार पालन करता है। २. आर्यिकाओंके विशेष नियम उक्त धर्मका समग्ररूपसे आर्यिकाएँ भी पालन करती हैं। इसके सिवा उनके लिए जो अन्य नियम बतलाये गये हैं, उन्हें भी वे आचरणमें लाती हैं। वे अन्य नियम ये हैं-वे परस्परमें एक-दूसरेके अनुकूल होकर एक-दूसरेको रक्षा करती हुई रहती हैं । २. रोष, वैरभाव और मायाभावसे रहित होकर लज्जा और मर्यादाका ध्यान रखती हुई उचित आचारका पालन करती हैं। ३. सूत्रका अध्ययन, सूत्रपाठ, सूत्रका श्रवण, उपदेश देना, बारह अनुप्रेक्षाओंका चिन्तवन, तप, विनय और संयममें सदा सावधान रहती हैं। ४. शरीरका संस्कार नहीं करतीं। ५. सादा बिना रँगा हुआ वस्त्र रखती हैं। ६. जहाँ गृहस्थ निवास करते हैं, उस मकान आदिमें नहीं ठहरतीं । ७. कभी अकेली नहीं रहतीं । कमसे कम दो-तीन मिलकर रहती है। ८. विना प्रयोजनके किसीके घर नहीं जाती। यदि प्रयोजनवश जाना ही पड़े तो गणिनीसे अनुज्ञा लेकर मिलकर ही जाती हैं। ९. रोना, बालक आदिको स्नान कराना, भोजन बनाना, दाईका कार्य और कृषि आदि छह प्रकारका आरम्भ कर्म नहीं करतीं । १०. साधुओंका पाद-प्रक्षालन व उनका परिमार्जन नहीं करतीं। ११ वृद्धा आर्यिकाको मध्यमें करके तीन, पाँच या सात आर्यिकाएँ मिलकर एक-दूसरेकी रक्षा करती हुई आहारको जाती हैं । १२. आचार्यसे पाँच हाथ, उपाध्यायसे छह हाथ और अन्य साधुओंसे सात हाथ दूर रहकर गो-आसनसे बैठकर उनकी वन्दना करती हैं। जो साधु और आर्यिकाएँ इस आचारका पालन करते हैं, वे जगत्में पूजा और कीतिको प्राप्त करते हए अन्समें यथानियम मोक्ष-सुखके भागी होते हैं । Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ ३. गृहस्थधर्म मोक्ष-प्राप्तिका साक्षात् मार्ग मुनिधर्म ही है। किन्तु जो व्यक्ति मुनिधर्मको स्वीकार करनेमें असमर्थ होते हुए भी उसे जीवनव्रत बनानेमें अनुराग रखते हैं, वे गृहस्थ धर्मके अधिकारी माने गये हैं । मुनिधर्म उ-सर्ग मार्ग है और गृहस्थधर्म अपवाद मार्ग है । तात्पर्य यह है कि गृहस्थधर्मसे आंशिक आत्मशद्धि और स्वावलम्बन की शिक्षा मिलती है, इसलिए यह भी मोक्ष का मार्ग माना गया है। समीचीन श्रद्धा और उसका फल __ जो मुनिधर्म या गृहस्थधर्मको स्वीकार करता है उसकी पाँच परमेष्ठी और जिनदेव द्वारा प्रतिपादित शास्त्रमें अवश्य श्रद्धा होती है । वह अन्य किसीको भोक्षप्राप्तिमें साधक नहीं मानता इसलिए आत्मशुद्धिकी दष्टिसे इनके सिवा अन्य किसीकी वन्दना और स्तुति आदि नहीं करता। तथा उन स्थानोंको आयतन भी नहीं मानता, जहाँ न तो मोक्षमार्गकी शिक्षा मिलती है और न मोक्षमार्गके उपयुक्त साधन ही उपलब्ध होते हैं । लौकिक प्रयोजनकी सिद्धिके लिए दूसरेका आदर-सत्कार करना अन्य बात है। वह जानता है कि शरीर मेरा स्वरूप नहीं है, इसलिए शरीर, उसकी सुन्दरता और बलका अहंकार नहीं करता। धन, ऐश्वर्य, कुल और जाति ये या तो माता-पिताके निमित्तसे प्राप्त होते हैं या प्रयत्नसे प्राप्त होते हैं । ये आत्माका स्वरूप नहीं हो सकते, इसलिए इनका भी अहंकार नहीं करता । ज्ञान और तप ये समीचीन भी होते हैं और असमीचीन भी होते हैं । जिसे आत्मदृष्टि प्राप्त है, उसके ये समीचीन हो ही नहीं सकते, इसलिए इन्हें मोक्षमार्गका प्रयोजक जान इनका भी अहंकार नहीं करता। धर्म आत्माका निज रूप है यह वह जानता है, इसलिए अपनी खोयी हई उस निधिको प्राप्त करनेके लिए वह सदा प्रयत्नशील रहता है। पाँच अणुव्रत इस प्रकार दृढ़ आस्थाके साथ सम्यग्दर्शनको स्वीकार करके वह अपनी शक्तिके अनुसार गृहस्थधर्मके प्रयोजक बारह व्रतोंको धारण करता है । बारह व्रत ये हैं-पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाक्त । हिंसा, असत्य, चोरी अब्रह्म और परिग्रहका वह एकदेश त्याग करता है, इसलिए उसके पाँच अणुव्रत होते हैं । तात्पर्य यह है कि वह त्रस-हिंसासे तो विरत रहता ही है। बिना प्रयोजनके एकेन्द्रिय जीवोंका भी वध नहीं करता । ऐसा वचन नहीं बोलता जिससे दूसरोंकी हानि हो या बोलनेसे दूसरोंके सामने अप्रमाणित बनना पड़े। अन्यकी छोटी,बड़ी किसी वस्तुको उसको आज्ञाके बिना स्वीकार नहीं करता । अपनी स्त्रीके सिवा अन्य सब स्त्रियोंको माता, बहिन या पुत्रीके समान मानता है और आवश्यकतासे अधिक धनका संचय नहीं करता। तीन अणुव्रत इन पाँच व्रतोंकी वृद्धिके लिए वह दिव्रत, देशव्रत और अनर्थदण्डविरतिव्रत-इन तीन गुणवतोंको भी धारण करता है। दिव्रतमें जीवन-भरके लिए और देशव्रतमें कुछ कालके लिए क्षेत्रकी मर्यादा की जाती है। गहस्थका पुत्र, स्त्री और धन-सम्पदासे निरन्तर सम्पर्क रहता है। इस कारण उसकी तृष्णामें वृद्धि होना सम्भव है। ये दोनों व्रत उसी तृष्णाको कम करनेके लिए या सीमित रखने के लिए स्वीकार किये जाते हैं। प्रथम व्रतको स्वीकार करते समय वह इस प्रकारकी प्रतिज्ञा करता है कि मैं जीवन-भर अपने व्यापार आदि प्रयोजनकी सिद्धि इस क्षेत्रके भीतर रहकर ही करूँगा। इसके बाहर होनेवाले व्यापार आदिसे या उसके निमित्तसे होनेवाले लाभसे मुझे कोई प्रयोजन नहीं है। समय-समयपर यथानियम दूसरे व्रतको स्वीकार करते समय वह अपने इस क्षेत्रको और भी सीमित करता है और इस प्रकार अपनी तृष्णापर उत्तरोत्तर नियन्त्रण स्थापित करता जाता है। इतना ही नहीं वह आजीविकामें और अपने आचार-व्यवहारमें उन्हीं साधनोंका Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थखण्ड : १६९ उपयोग करता है, जिनसे दूसरे प्राणियोंको किसी प्रकारकी बाधा नहीं होने पाती । जिनसे दूसरोंकी हानि होने की सम्भावना होती है उनका वह निर्माण भी नहीं करता और ऐसा करके वह स्वयंको अनर्थदण्डसे बचाता है । चार शिक्षाव्रत वह अपने जीवनमें कुछ शिक्षाएँ भी स्वीकार करता है । प्रथम तो वह समता तत्त्वका अभ्यास कर अपने सामायिक शिक्षाव्रतको पुष्ट करता है । दूसरे पर्व दिनोंमें एकाशन और उपवास आदि व्रतोंको स्वीकार कर वह प्रोषधोपवास व्रतकी रक्षा करता है । शरीर सुखशील न बने और आत्मशुद्धिकी ओर गृहस्थका चित्त जावे, इस अभिप्रायसे वह इस व्रतको स्वीकार करता । वह अपने आहार आदिमें प्रयुक्त होनेवाली सामग्रीका भी विचार करता है और मन तथा इन्द्रियोंको मत्त करनेवाली तथा दूसरे जीवोंको बाधा पहुँचाकर निष्पन्न की गयी सामग्रीका उपयोग न कर उपभोग - परिभोग परिमाणव्रतको स्वीकार करता है। अतिथि सबका आदरणीय होता है और उससे संयमके अनुरूप शिक्षा मिलती है, इसलिए वह अतिथिसंविभागव्रतको स्वीकार कर सबकी यथोचित व्यवस्था करता है । ये गृहस्थके द्वारा करने योग्य बारह व्रत हैं । इनके धारण करनेसे उसका गार्हस्थिक जीवन सफल माना जाता है । ४. कृतिकर्म - देवपूजा हमने मुनिधर्म और गृहस्थधर्मका सामान्यरूपसे दिग्दर्शन कराते समय जिस प्रमुख धर्मका बुद्धिपूर्वक उल्लेख नहीं किया है वह है कृतिकर्म । कृतिकर्म साधु और गृहस्थ दोनोंके आवश्यक कार्योंमें मुख्य है । यद्यपि साधु सांसारिक प्रयोजनोंसे मुक्त हो जाता है, फिर भी उसका चित्र भूलकर भी लौकिक समृद्धि, यश और अपनी पूजा आदिकी ओर आकृष्ट न हो और गमनागमन, आहार ग्रहण आदि प्रवृत्ति करते समय लगे हुए दोषों का परिमार्जन होता रहे, इसलिए साधु कृतिकर्मको स्वीकार करता है। गृहस्थकी जीवनचर्या ही ऐसी होती है जिसके कारण उसको प्रवृत्ति निरन्तर सदोष बनी रहती है, इसलिए उसे भी कृतिकर्म करनेका उपदेश दिया गया है । पर्यायवाची नाम मूलाचार में कृतिमकर्मके चार पर्यायवाची नाम दिये हैं- कृतिकर्म, चितिकर्म, पूजाकर्म और विनयकर्म ।' इनकी व्याख्या करते हुए वहाँ कहा गया है कि जिस अक्षरोच्चाररूप वाचनिक क्रियाके, परिणामोंकी विशुद्धिरूप मानसिक क्रियाके और नमस्कारादि कायिक क्रियाके करनेसे ज्ञानावरणादि आठ प्रकारके कर्मोंका 'कृत्यते छिद्यते' छेद होता है उसे कृतिकर्म कहते हैं । यह पुण्यसंचयका कारण है, इसलिए इसे चितिकर्म भी कहते हैं । इसमें चौबीस तीर्थंकरों और पाँच परमेष्ठी आदिकी पूजा की जाती हैं, इसलिए इसे पूजाकर्म भी कहते हैं तथा इसके द्वारा उत्कृष्ट विनय प्रकाशित होती है, इसलिए इसे विनयकर्म भी कहते हैं । यहाँ विनयat 'विनीयते निराक्रियते' ऐसी व्युत्पत्ति करके इसका फल कर्मों की उदय और उदीरणा आदि करके उनका वहाँ वह नाश करना भी बतलाया गया है । तात्पर्य यह है कि कृतिकर्म जहाँ कर्मों की निर्जराका कारण उत्कृष्ट पुण्य संचयमें हेतु है और विनयगुणका मूल है, इसलिए उसे प्रमादरहित होकर साधुओं और गृहस्थोंको यथाविधि करना चाहिए । १. मूलाचार, षडावश्यकाधिकार, गाथा ७९ । २२ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० : सिद्धान्ताचार्य पं० फलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ समय-विचार . कृतिकर्म कब किया जाये इस प्रश्नका समाधान करते हुए लिखा है कि कृनिकर्म तीनों सन्ध्याकालोंमें करना चाहिए ।' वीरसेन स्वामी अपनी धवला टीका में कहते हैं कि तीन बार ही करना चाहिए ऐसा कोई एकान्त नियम नहीं है। अधिक बार भी किया जा सकता है, पर तीन बार अवश्य करना चाहिए। यह तो हम आगे बतलानेवाले हैं कि तीन सन्ध्याकालोंमें जो कृतिकर्म किया जाता है, उसमें सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव और वन्दना इन तीनोंकी मुख्यता है, इसलिए आजकल जिन विद्वानों और त्यागियोंका यह मत है कि साधुको प्रतिदिन देववन्दना करनी ही चाहिए, ऐसा कोई नियम नहीं है, उनका वह मत आग मसंगत नहीं जान पड़ता। तीनों सन्ध्याकालोंमें किया जानेवाला कृतिकर्म साधु और श्रावक दोनोंका एक समान है। अन्तर केवल इतना है कि साधु अपरिग्रही होनेसे कृतिकर्म करते समय अक्षत आदि द्रव्यका उपयोग नहीं करता और गहस्थ उसका भी उपयोग करता है। गृहस्थका कृतिकर्म मूलाचारमें कृतिकर्म के व्याख्यानके प्रसंगसे विनयकी व्याख्या करते हए उसके पाँच भेद किये हैंलोकानुवृत्तिविनय, अर्थविनय, कामविनय, भयविनय और मोक्षविनय । अर्थविनय, कामविनय और भयविनय ये संसारकी प्रयोजक हैं यह स्पष्ट ही है। लोकानुवृत्तिविनय दो प्रकार की है-एक वह जिसमें यथावसर सबका उचित आदर-सत्कार किया जाता है और दूसरी वह जो देवपूजा आदिके समयकी जाती है । यहाँ देवपूजा अपने वैभवके अनुसार करनी चाहिए यह कहा है। इससे विदित होता है कि गृहस्थ कृतिकर्म करते समय अक्षत आदि सामग्रीका उपयोग करता है । वह सामग्री कैसी हो इसके सम्बन्धमें मूलाचार प्रथम अधिकारके श्लोक २४ की टीकामें आचार्य वसुनन्दि कहते हैं-जिनेन्द्रदेवकी पूजाके लिए गन्ध, पुष्प और धूप आदि जिस सामग्रीका उपयोग किया जावे, वह प्रारक और निर्दोष होनी चाहिए। इससे भी गृहस्थ कृतिकर्म करते समय सामग्रीका उपयोग करता है इसकी सूचना मिलती है। आलम्बन __ कृतिकर्म करने का मुख्य हेतु आत्मशुद्धि है । इसलिए यह विधि सम्पन्न करते समय उन्हींका आलम्बन लिया जाता है, जिन्होंने आत्मशुद्धि करके या तो मोक्ष प्राप्त कर लिया है या जो अरहन्त अवस्थाको प्राप्त हो गये हैं । आचार्य, उपाध्याय और साधु तथा जिन-प्रतिमा और जिनवाणी-ये भी आत्मशुद्धिमें प्रयोजक होनेसे उसके आलम्बन माने गये हैं। यहाँ यह प्रश्न होता है कि देवपूजा आदि कार्य बिना रागके नहीं होते और राग संसारका कारण है, इसलिए कृतिकर्मको आत्मशुद्धिमें प्रयोजक कैसे माना जा सकता है। समाधान यह है कि जबतक सराग अवस्था है, तबतक जीवके रागकी उत्पत्ति होती ही है। यदि वह राग लौकिक प्रयोजनकी सिद्धिके लिए होता है तो उससे संसारकी वृद्धि होती है। किन्तु अरिहन्त आदि स्वयं राग और द्वेषसे रहित होते हैं । लौकिक प्रयोजनसे उनकी पूजाकी भी नहीं की जाती है, इसलिए उनमें पूजा आदिके निमित्तसे होनेवाला राग मोक्षमार्गका प्रयोजक होनेसे प्रशस्त माना गया है। मूलाचारमें भी कहा है कि जिनेन्द्रदेवकी र्भात करनेसे पूर्व संचित सब कर्मों का क्षय होता है आचार्य के प्रसादसे विद्या और मन्त्र सिद्ध होते हैं । ये संसारसे तारनेके लिए नौकाके समान है। अरिहन्त, वीतराग धर्म, द्वादशाग १. षट्खण्डागम, कर्म अनुयोगद्वार, सूत्र २८ । २. मूलाचार, षडावश्यकाधिकार, गाथा ८४ । Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थखण्ड : १७१ वाणी, आचार्य, उपाध्याय और साधु- इनमें जो अनुराग करते हैं, उनका यह अनुराग प्रशस्त होता है। इनके अभिमुख होकर विनय और भक्ति करनेसे सच को सिद्धि होती है। इसलिए भक्ति रागपूर्वक मानी गयी है किन्तु यह निदान नहीं है। निदान सका होता है और भक्ति निष्काम यहीं इन दोनोंमें अन्तर है। 1 विधि वन्दना लिए जाते समय श्री जिनालयके दृष्टिपथमें आनेपर 'दृष्टं जिनेन्द्रभवनं भवतापहारि' पाठ पढ़े। अनन्तर हाथ-पैर धोकर 'णिसही पिसही जिसही" ऐसा तीन बार उच्चारण करके जिनालय में प्रवेश करे । भगवान् जिनेन्द्रदेव के दर्शनसे पुलकित वदन और आत्मविभोर हो उनके सामने हाथ जोड़कर खड़ा हो जावे । अनन्तर दोषविशुद्धि के लिए ईर्यापथशुद्धि करके यथाविधि सामायिकदण्डक, त्योस्सामिदण्डक चैत्यभक्ति और पंचगुरुभक्ति पड़े । अन्तमें देववन्दना करते समय लगे दोषके परिमार्जन के लिए यथाविधि समाधिभक्ति पढ़कर देववन्दनाका कृतिकर्म सम्पन्न करे । इस कृतिकर्मको करते समय कहाँ बैठकर अष्टांग नमस्कार करे कहां खड़े-खड़े ही नमस्कार करे तथा कहाँ मन, वचन और कायको शुद्धिके सूचक तीन आवर्त करे आदि सब विधि विविध शास्त्रोंमें बतलायी गयी है। इस विधिको सूचित करनेवाला एक सूत्र षट्खण्डागम के कर्म अनुयोगद्वारमें भी आया है। उसके अनुसार कृतिकर्मके छह भेद होते हैं---उसका प्रथम विशेषण आत्माधीन है। कृतिकर्म पूरी स्वाधीनता के साथ करना चाहिए, क्योंकि पराधीन होकर किये गये कार्यसे इष्ट फलकी प्राप्ति नहीं होती। दूसरा विशेषण तीन प्रदक्षिणा देना है । गुरु जिन और जिनगृहकी वन्दना करते समय तीन प्रदक्षिणा देकर नमस्कार करना चाहिए । तीसरा विशेषण तीन बार करना है। प्रदक्षिणा और नमस्कार आदि क्रिया तीन-तीन बार करनी चाहिए। या एक दिनमें जिन गुरु और जिनगृह आादिकी वन्दना कमसे कम तीन बार करनी चाहिए यह इसका भाव है। चौथा विशेषण भूमिपर बैठकर तीन बार अष्टांग नमस्कार करना है। सर्वप्रथम हाथ-पैर धोकर शुद्ध मनसे जिन मन्दिरमें जाकर जिनदेवको बैठकर अष्टांग नमस्कार करे यह प्रथम नति है पुनः उठकर और जिनेन्द्रदेवकी प्रार्थना करके बैठकर अष्टांग नमस्कार करना यह दूसरी नति है पुनः उठकर सामायिकदण्डक आत्मशुद्धि करके तथा कषायके साथ शरीरका उत्सर्ग करके जिनेन्द्रदेवके अनन्त गुणोंका ध्यान करते हुए चौबीस तीर्थकर जिन जिनालय और गुरुओंकी स्तुति करके भूमिमें बैठकर अष्टांग नमस्कार करना, यह तृतीय नवि है। इस प्रकार एक कृतिकर्ममें तीन अष्टांग नमस्कार होते हैं। पाँचवाँ विशेषण चार बार सिर नवाना है । सामायिकदण्डकके आदिमें और अन्तमें तथा त्योम्सामिदण्डक के आदिमें एक कृतिकर्ममें सब मिलाकर चार बार सिर झुकाकर नमस्कार किया जाता है। छठा विशेषण बारह आवर्त करना है । दोनों हाथोंको जोड़कर और कमल के समान मुकुलित करके दक्षिण भागसे प्रारम्भ करके वाम भागकी ओर ले जाकर और वाम भागसे पुनः दक्षिण भागकी ओर घुमाते हुए ले आना आवर्त है। इतनी विधि करने से एक आवर्त होता है। एक कृतिकर्म में ऐसे बारह आवर्त होते हैं। सामायिकदण्डके आदिमें और अन्तमें तथा स्वोस्त मिदण्डकके आदिमें और अन्तमें तीन-तीन आवर्त होते हैं, इसलिए इनका जोड़ बारह हो जाता है । और अन्तमें इस प्रकार १. णिसही यह चैत्यालयका पर्यायनाम प्रतीत होता है । समेया समाजमें और इन्दौर आदि नगरोंमें इस शब्दका प्रयोग आज भी किया जाता है । २. 'तमादाहीणं पदाहिणं तिक्खुत्त' तियोणदं चदुसिरं बारसावत्तं तं सव्वं किरियाकम्मं णाम ||२८|| Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२: सिद्धान्ताचार्य पं. फलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ मूलाचारमें अन्य सब विधि षट्खण्डागमके अनुसार कही है। मात्र वहाँ अष्टांग नमस्कार दो बार करनेका ही विधान है-प्रथम सामायिकदण्डकके प्रारम्भमें और दूसरा त्थोस्सामिदण्डकके प्रारम्भमें । हरिवंशपुराणमें भी भूमिस्पर्शरूप दो ही अष्टांग नमस्कारोंका उल्लेख है-प्रथम सामायिकदण्डकके प्रारम्भमें और दूसरा त्थोस्सामिदण्डकके अन्तमें। इससे प्रतीत होता है कि पूर्व कालमें देशभेदसे कृतिकर्मके बाह्य आचारमें थोड़ा बहुत अन्तर भी प्रचलित रहा है । इतना अवश्य है कि देववन्दनाके समय सामायिकदण्डक, त्थोस्सामिदण्डक, पंचगुरुभक्ति और यथासम्भव समाधिभक्ति यथाविधि अवश्य पढ़ी जाती है। इस विषयकी विस्तृत चर्चा श्री पं० पन्नालालजी सोनीने क्रिया-कलापमेंकी है। विशेष जिज्ञासुओंको वहाँसे ज्ञान प्राप्त करके अपने कृतिकर्ममें संशोधन करनेमें उससे सहायता लेनी चाहिए। वर्तमान पूजाविधि __ वर्तमानमें जो दर्शनविधि और पूजाविधि प्रचलित है, उसमें वे सब गुण नहीं रहने पाये है, जो षट्खण्डागम आदिमें प्रतिदिन क्रिया-कर्ममें निदिष्ट किये गये हैं। अधिकतर श्रावक और त्यागीगण जिन्हें जितना अवकाश मिलता है, उसके अनुसार इस विधिको सम्पन्न करते हैं । व्रती श्रावकोंमें और साधुओंमें त्रिकाल देववन्दनाका नियम तो एक प्रकारसे उठ ही गया है। प्रतिक्रमण और आलोचना करनेकी विधि भी समाप्तप्राय ही है। यह कृतिकर्मका आवश्यक अंग है। फिर भी समग्र पूजाविधिको देखनेसे ऐसा अवश्य प्रतीत होता है कि उसमें पूर्वोक्त देववन्दना (कृतिकर्म) का समावेश अवश्य किया गया है । इतना अवश्य है कि कुछ आवश्यक क्रियाएँ छूट गयी हैं और कुछ नयी आ मिली हैं। कृतिकर्म प्रारम्भ करनेके पूर्व ईर्यापथशुद्धि करनी चाहिए उसे वर्तमान समयमें व्रती श्रावक भी नहीं करते । अव्रती श्रावकोंकी बात अलग है । सामायिक-दण्डक समग्र तो नहीं पर उसका प्रारम्भिक भाग पंच नमस्कार मन्त्र और चत्तारिदण्डकको पूजाविधिमें यथास्थान सम्मिलित कर लिया गया है । मात्र उसे पढ़कर पुष्पांजलि क्षेपण कर देते हैं । त्थोस्सामिदण्डक के स्थानमें :श्रीवृषभो नः स्वस्ति' यह स्वस्तिपाठ और पंचगुरुभक्तिके स्थानमें 'नित्याप्रकम्पा' यह स्वस्तिपाठ वर्तमान पूजाविधिमें सम्मिलित है, जो कृतिकर्मके अनुसार है। अर्थात् पहले 'श्रीवृषभो नः स्वस्ति' यह पढ़कर बादमें पंचगुरुभक्ति पढ़ी जाती है । किन्तु इनके बीचमें चैत्यभक्ति नहीं पढ़ी जाती। प्राचीन चैत्यभक्ति दो मिलती हैं-एक लघुचैत्यभक्ति और दूसरी बृहच्चैत्यभक्ति । इसमेंसे लघुचैत्यभवित पूजाविधिमें अवश्य सम्मिलित की गयी है, किन्तु वह अपने स्थानपर न होकर देव, शास्त्र और गुरु तथा बीस तीर्थकरकी पूजाके बादमें आती है । जिसे वर्तमानमें कृत्रिमाकृत्रिम जिनालय पूजा कहते हैं, वह लघुचैत्यभक्ति ही है । इसे पढ़कर इसका आलोचना पाठ भी पढ़ते हैं और अन्तमें 'अथ पौर्वाहिक' इत्यादि पढ़कर नौ बार णमोकार मन्त्रका जाप भी करते हैं । 'अथ पौर्वाहिक' इत्यादि पाठ द्वारा पंचगुरुभक्तिका कृत्य विज्ञापन किया गया है, इसलिए इसके आगे पंचगुरुभक्ति करनी चाहिए, इसे कोई नहीं जानता। कृतिकर्मके अन्तमें पहले समाधिभक्ति पढ़ी जाती थी, उसे पूजाविधिके अन्तमें वर्तमान समयमें भी यथास्थान पढ़ते हैं। जिसे आजकल शान्तिपाठ कहा जाता है वह समाधिभक्ति ही है। अन्तर केवल इतना है कि समाधिभक्तिमें 'प्रथमं करणं चरणं द्रव्यं नमः' यहाँसे लेकर आगेका पाठ पढ़ा जाता था और शान्तिपाठमें 'शान्तिजिनं शशि'-इत्यादि पाठ भी सम्मिलित कर लिया गया है । इससे उद्देश्यमें भी अन्तर आ गया है। - इतना सब लिखनेका अभिप्राय इतना ही है कि वर्तमान पूजाविधिमें यद्यपि पुराने कृतिकर्भका समावेश किया गया है, पर कृत्यविज्ञापन, प्रतिक्रमण और आलोचना पाठ छोड़ दिये गये हैं। विधिमें जो एकरूपता थी वह भी नहीं रहने पायी है । देववन्दनाके समय हमें क्या कितना करना चाहिए यह कोई नहीं जानता । Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : १७३ द्रव्यकी बहलता और प्रधानता हो जानेसे कृतिकर्म देवदर्शन और देवपूजा-इस प्रकार दो भागोंमें विभक्त हो गया है । वस्तुतः इन दोनों में कोई अन्तर नहीं है। गृहस्थ अपने साथ प्रासुक द्रव्य लाकर यथास्थान उसका प्रयोग करे यह बात अलग है । इसका निषेध नहीं है । पण्डितप्रवर आशाधरजीने श्रावककी दिनचर्या में त्रिकाल देववन्दनाके समय दोनों प्रकारसे पूजा करनेका विधान किया है। प्रातःकालीन देववन्दनाका विधान करते हुए वे लिखते हैं कि श्री जिनमन्दिर में जाते समय गहस्थ को चार हाथ भूमि शोधकर जाना चाहिए । मन्दिरमें पहुँचकर और हाथ-पैर धोकर सर्वप्रथम 'जाव अरहंताणं' इत्यादि वचन बोलकर पहले ईर्यापथशुद्धि करनी चाहिए । अनन्तर 'जयन्ति निजिताशेष-' इत्यादि पढ़ कर या पूजाष्टक पढ़कर देववन्दना करनी चाहिए । सर्वप्रथम जिनेन्द्रदेवकी पजा करे । उसके बाद श्रुत और सूरिकी पूजा करे। इसे वे जघन्य वन्दनाविधि कहते हैं । तात्पर्य यह है कि अष्ट द्रव्यसे यदि गृहस्थ देववन्दना करता है तो सर्वोत्कृष्ट है और यदि अष्टद्रव्यके बिना करता है तो भी हानि नहीं है । मात्र देववन्दना यथाविधि होनी चाहिए। पूजाविधिका अन्य प्रकार साधारणतः देवपूजाका जो पुरातन प्रकार रहा है और उसका वर्तमान समयमें प्रचलित पूजाविधिमें जिस प्रकार समावेश किया गया है, उसका हमने स्पष्टीकरण किया ही है। साथ ही उसमें न्यूनाधिकता हुई है, उसपर भी हम विचार कर आये हैं। यहाँ हम पूजाके उस प्रकारका भी उल्लेख कर देना चाहते हैं, जिसे सोमदेवसूरिने यशस्तिलकचम्पूमें निबद्ध किया है, क्योंकि वर्तमान प्रजाविधिपर इसका विशेष प्रभाव दिखलाई देता है । वे लिखते हैं प्रस्तावना पुराकर्म स्थापना संनिधापनम् । पूजा पूजाफलं चेति षड्विधं देवसेवनम् ॥-कल्प ३६।। देवपूजा छह प्रकारकी है--प्रस्तावना, पुराकर्म, स्थापना, संनिधापन, पूजा और पूजाफल । इन छह कर्मोंका विस्तृत विवेचन करते हुए वे लिखते हैं-जिनेन्द्रदेवका गुणानुवाद करते हुए अभिषेकविधि करनेकी प्रस्तावना करना प्रस्तावना है। पीठके चारों कोणोंपर जलसे भरे हुए चार कलशोंकी स्थापना करना पुराकर्म है। पीठपर यथाविधि जिनेन्द्र देवको स्थापित करना स्थापनाकर्म है। ये जिनेन्द्रदेव है, यह पीठ मेरुपर्वत है, जलपर्ण ये कलश क्षीरोदधिके जलसे पूर्ण कलश हैं और मैं इन्द्र हैं, जो इस समय अभिषेकके लिए उद्यत हुआ हूँ-ऐसा विचार करना संनिधापन है । अभिषेकपूर्वक पूजा करना पूजा है और सबके कल्याणकी भावना करना पूजाफल है। . श्री सोमदेव द्वारा प्रतिपादित यह पूजाविधि वही है जो कि वर्तमान समयमें प्रचलित है । मात्र इसमें न तो वर्तमान समयमें प्रत्येक पूजाके प्रारम्भमें किये जानेवाले आह्वान, स्थापना और सन्निधीकरणका कोई विधान किया है और न विसर्जन विधिका ही निर्देश किया है । यद्यपि यहाँपर जिन-प्रतिमा स्थापित करनेको स्थापना और उसमें साक्षात् जिनेन्द्रदेवकी कल्पना करनेको संनिधापन कहा है, इसलिए इससे आह्वानन, स्थापना और सन्निधीकरणका भाव अवश्य लिया जा सकता है। जो कुछ भी हो, इतना स्पष्ट है कि इस विधिमें उस आचारका पूरी तरहसे समावेश नहीं होता, जिसका निर्देश हम पहले कर आये हैं । विचारणीय विषय इतना लिखनेके बाद हमें वर्तमान पूजाविधिमें प्रचलित दो-तीन बात का संकेत कर देना आवश्यक प्रतीत होता है । प्रथम बात आह्वान, स्थापना और सन्निधीकरणके विषयमें कहनी है। वर्तमान समयमें जितनी पूजाएं की जाती हैं, उनको प्रारम्भ करते समय सर्वप्रथम यह क्रिया की जाती है। जैन परम्परामें स्थापना Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ निक्षेपका बहुत अधिक महत्त्व है इसमें सन्देह नहीं। पण्डितप्रवर आगाधरजीने जिनाकारको प्रकट करनेवाली मूतिके न रहनेपर अक्षत आदिमें भी स्थापना करनेका विधान किया है। किन्तु जहाँ साक्षात् जिनप्रतिमा विराजमान है और उसके आलम्बनसे पंचपरमेष्ठी और चौबीस तीर्थकर आदिकी पूजा की जा सकती है, वहाँ क्या आह्वान आदि क्रियाका किया जाना उपयुक्त है ? देववन्दनाकी जो प्राचीन विधि उपलब्ध होती है, उसमें इसके लिए स्थान नहीं है, यह बात उस विधिके देखने से स्पष्टतः लक्ष्यमें आ जाती है। दूसरी बात विसर्जनके सम्बन्धमें कहनी है। विसर्जन आकार पूजाको स्वीकार करनेवालेका किया जाता है। किन्तु जैनधर्मके अनुसार कोई आता है और पूजामें अर्पण किये गये भागको स्वीकार करता है, इस मान्यताको रंचमात्र भी स्थान नहीं है। पाँच परमेष्ठीके स्वरूपका विचार करनेसे यह बात और भी स्पष्ट हो जाती है । आगममें देववन्दनाकी जो विध बतलायी है, उसके अनुसार देववन्दना-सम्बन्धी कृतिकर्म अन्तमें समाधिभक्ति करनेपर सम्पन्न हो जाता है, इसलिए मनमें यह प्रश्न उठता है कि पूजाके अन्त में क्या विसर्जन करना आवश्यक है । इस समय जो विसर्जन पढ़ा जाता है उसके स्वरूपपर भी हमने विचार किया है । उससे मिलते-जुलते श्लोक ब्राह्मणधर्म के अनुसार किये जानेवाले क्रियाकाण्डमें भी पाये जाते हैं। तुलना कीजिए आह्वानं नैव जानामि नैव जानामि पूजनम् । विसर्जनं न जानामि क्षमस्व परमेश्वर ।।१।। मन्त्रहीनं क्रियाहीनं द्रव्यहीनं तथैव च । तत्सर्व क्षम्यतां देव रक्ष रक्ष जिनेश्वर ||२|| इनके स्थानपर ब्राह्मण धर्ममें ये श्लोक उपलब्ध होते हैं आवाहनं न जानामि न जानामि विसर्जनम् । पूजनं नेव जानामि क्षमस्व परमेश्वर ।।१।। मन्त्रहीनं क्रियाहीनं भक्तिहीनं जनार्दन । यत्पूजितं मया देव परिपूर्ण तदस्तु मे ॥२॥ 'ज्ञानतोऽज्ञानतो वापि' इत्यादि श्लोक भी ब्राह्मण क्रियाविधिमें कुछ हेरफेरसे होना चाहिए ऐसा हमारा खयाल है । किन्तु तत्काल उपलब्ध न होनेसे वह नहीं दिया गया है। देवाः' इत्यादि श्लोक प्रतिष्ठापाठका है। पंचकल्याणककी समस्त क्रिया मुख्यतया चतुर्णिकायके देव सम्पन्न करते हैं, इसलिए पंचकल्याणक-प्रतिष्ठामें उनका आह्वान और स्थापना की जाती है तथा क्रियाविधिके सम्पन्न होनेपर उनका विसर्जन भी किया जाता है। इसलिए वहाँपर इस श्लोककी सार्थकता भी है । देवपूजामें इसकी रंचमात्र भी सार्थकता नहीं है। तीसरी बात अभिषेकके विषयमें कहनी है। सामान्यतः अभिषेकके विषयमें दो मत पाये जाते हैं। एक मत यह है कि जिन-प्रतिमाकी पंचकल्याणक-प्रतिष्ठा हो जाती है. इसलिए उसका अभिषेक जन्य-कल्याणकका प्रतीक नहीं हो सकता । दूसरे मतके अनुसार अभिषेक जन्मकल्याणकका प्रतीक माना गया है। सोमदेवसूरि इस दूसरे मतके अनुसर्ता जान पड़ते हैं, क्योंकि उन्होंने अभिषेक-विधिका विधान करते समय वह सब क्रिया बतलायी है, जो जन्माभिषेकके समय होती है । फिर भी यह अवश्य ही विचारणीय हो जाता है कि यदि अभिषेक जन्मकल्याणकके समय किये गये अभिषेकका प्रतीक है तो इसमें पंचामृताभिषेक कहाँसे आ गया। १. सागारधर्मामृत, अध्याय २, श्लोक ३१ । Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : १७५ जन्मकल्याणकके समय तो केवल जलसे अभिषेक किया जाता है। आगमिक परम्पराके अनुसार इसके ऐतिहासिक अनुसन्धानको आवश्यकता है । इससे तथ्योंपर बहुत कुछ प्रकाश पड़नेकी सम्भावना है । निष्कर्ष देवपूजाके विषयोंमें इतना ऊहापोह करनेसे निष्कर्षके रूपमें हमारे मनपर जो छाप पड़ी है वह यह है कि वर्तमान पूजाविधिमें कृतिकर्मका जो आवश्यक अंश छूट गया है, यथास्थान उसे अवश्य ही सम्मिलित कर लेना चाहिए और प्रतिष्ठापाठके आधारसे इसमें जिस तत्त्वने प्रवेश कर लिया है उसका संशोधन कर देना चाहिए, क्योंकि पंचकल्याणक-प्रतिष्ठाविधिमें और देवपूजामें प्रयोजन आदिकी दृष्टिसे बहुत अन्तर है। वहाँ अप्रतिष्ठित प्रतिमाको प्रतिष्ठित करना यह प्रयोजन है और यहाँ प्रतिष्टित प्रतिमाको साक्षात् जिन मानकर उसकी जिनेन्द्रदेवके समान उपासना करना यह प्रयोजन है । Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनदर्शनका हार्द सिरिवड्ढमाणजिण, जेण विहाणेण खविदकम्मं सो। किच्चा तहोवएसं णिव्वुइं पत्तो णमो तस्स ।। इस समय सर्वज्ञ सर्वदर्शी परब्रह्म परमात्मा अन्तिम तीर्थंकर भगवान् महावीरका धर्मतीर्थ चल रहा है । एक तो प्रतिवर्ष उनका गर्भ-निष्क्रमण दिन मनाया जाता है। दूसरे ऐसा नियम है कि प्रत्यक्ष या परोक्ष जिसके पादमूलमें बैठकर धर्मपथ स्वीकार करें उसके चरणोंमें विनय प्रकट करनी चाहिए। इस नियमके अनु सार मैं उन मंगलमय जिनदेव भगवान् महावीरका स्मरण-वन्दन कर प्रकृत विषयका संक्षेपमें ऊहापोह करनेके लिए सन्नद्ध होता हूँ। भारतीय परम्परामें एक दो धर्मदर्शनोंको दुर्लक्ष्य कर इस समय जितने भी जड़-चेतनके स्वतन्त्र अस्तित्वको स्वीकार करनेके लिए धर्मदर्शन प्रचलित हैं, उनमें जैन दर्शनका निराला स्थान है। इसमें प्रतिपादित तत्त्वज्ञानकी पृष्ठभूमिमें स्वावलम्बनमूलक व्यक्ति-स्वातन्त्र्यका महत्त्वपूर्ण योगदान होनेसे लोकमें अपनी अनूठी प्रतिष्ठा प्राप्त की है। इस दर्शनके अनुसार लोकमें जैनधर्मके रूपमें जो विचारमार्ग और तदनुरूप आचारमार्ग प्रचलित है, उन सबमें उक्त दोनों तथ्य मूर्तिमान् होकर प्रतिफलित हुए हैं। अज्ञानमूलक विषय-कषायपर जिस विधिसे विजय प्राप्त करनेके फलस्वरूप जिन होकर जिन्होंने स्वयं अनुभूत उपदेश द्वारा जिस धर्मतीर्थका प्रवर्तन किया है। उसे ही लोकमें जैनदर्शन इस नामसे अभिहित किया जाता है । इस दर्शनके पुस्तकारूढ़ होनेका समय कालगणनाकी दृष्टिसे भले ही अन्य दर्शनोंके पुस्तकारूढ़ होनेके मकालीन या कुछ आगे-पीछेका हो, परन्तु उसमें भगवान महावीरके प्रथम शिष्य गौतम गोत्रीय इन्द्रभूति गणधरसे लेकर गुरु परम्परासे आये हुए उसी अनुभति उपदेशको विषय विभागके साथ निबद्ध किया गया है जिसका प्रवर्तन सर्वज्ञ सर्वदर्शी तीर्थंकर आदिनाथ (ऋषभदेव) से लेकर तीर्थकर महावीरकी दिव्यध्वनि द्वारा हुआ है। __उसके अनुसार छह द्रव्य और पाँच अस्तिकायके समुच्चय रूप यह लोक अकृत्रिम अतएव अनादिअनिधन है। इसमें जीवों और पदगलोंका संयोग निमित्तक या छहों द्रव्योंका स्वाभाविक-सहज जो परिवर्तन दृष्टिगोचर होता है, वह प्रत्येक छह द्रव्य या पदार्थका अपना कार्य है । परमार्थसे वह स्वयं उसका कर्ता है और परिणाम उसका कार्य है । जैसे प्रत्येक द्रव्य स्वरूपसे स्थिति अर्थात् ध्रौव्य लक्षणसे लक्षित होकर ख्यालमें आता है, अन्यथा किसी भी वस्तुमें यह वही है जिसे आजसे दस वर्ष पूर्व हमने देखा था, ऐसा ऊर्ध्वता-प्रत्यक १. जयधवला, पु. १, पृ० ७० । २. धवला, पु० १, पृ० ५५॥ ३. प्रवचनसार १/८२ । ४. धवला, पु० १, पृ० ६५ । ५. पंचास्तिकाय, गा० ३ तथा २२ । Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : १७७ मुलक (एकत्वमूलक) व्यवहार नहीं हो सकता।' वैसे ही द्रव्य उत्तराकारकी अवाप्ति और पूर्वाकारका परित्याग रूप उत्पाद, व्यय लक्षणवाला भी है। अन्यथा किसी भी व्यक्तिमें पिछली बार जब हमने आपको देखा था, उससे आज कितने अधिक बदल गये हो इत्याकारक व्यतिरेकमूलक व्यवहार नहीं हो सकता ।२ जिसे हमने यहाँ उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य स्वरूप कहा है "सत्" यह उसका दूसरा नाम है। "सत्" कहो या "द्रव्य"-ये दो नहीं हैं एक ही है। यह प्रत्येक द्रव्यमें घटित हो ऐसा उसका सामान्य लक्षण है । इसीसे जैनदर्शनमें "अभाव" नामका स्वतन्त्र पदार्थ न होकर उसे भावान्तर स्वभाव स्वीकार किया गया है। स्वामी समन्तभद्रने इसी तथ्यको ध्यानमें रखकर कहा भी है-भवत्यभावो हि भावलक्षण:। हम कहते हैं कि इस भूतलपर घट नहीं है तो इसका अर्थ होता है कि यहाँ केवल भूतल है । घट यदि चाहिए ही तो अन्यत्र देखिये। वैसे अभावको चार प्रकारका माना गया है, सो वह विवक्षा भेदसे एक ही द्रव्यमें घटित हो जाता है। विवक्षित कार्यके सम्मुख हुए द्रव्यको प्रागभाव शब्दसे अभिहित किया जाता है। उस कार्यका ध्वंस होनेपर वही प्रध्वंसाभाव शब्दसे पुकारा जाता है । वर्तमानमें विवक्षित पर्याय अवस्था अन्य दूसरे द्रव्य की विवक्षित पर्यायकी अपेक्षा इतरेतराभावरूप संज्ञाको प्राप्त होती है। तथा प्रत्येक द्रव्यके स्वचतुष्टय अत्यन्त भिन्न होनेसे प्रत्येक द्रव्य दूसरे द्रव्योंकी अपेक्षा अत्यन्ताभावरूप कहा जाता है। इससे हम जानते हैं कि लोकमें जो भी पदार्थ है वे सब सत्स्वरूप ही हैं । विवक्षाभेदसे वही सत् प्रयोजनवश अभाव शब्द द्वारा अभिहित किया जाता है। पूर्वमें हम तत्त्वमीमांसाके प्रसंगसे कर्ता-कर्मका उल्लेख कर आये हैं । अतः उससे ऐसा समझना चाहिए कि जड़-जेतन जितने भी द्रव्य है, वे सामान्यपनेकी अपेक्षा ध्रुव या नित्य स्वभाव वाले होकर भी अपनी कक्षा के भीतर होने वाले उत्पाद-व्यय रूप परिणाम स्वभावके कारण अध्रुव या अनित्य भी हैं, अतः परमार्थसे वे स्वयं परिणाम लक्षण क्रियाके द्वारा या परिस्पंद लक्षण क्रियाके द्वारा अर्थक्रियाके कर्ता होते हैं, फिर भी सर्वथा अनपेक्ष होकर अपनी अर्थक्रिया करते हों ऐसा एकान्तसे जैनदर्शन नहीं स्वीकार करता। किन्तु वह प्रत्येक द्रव्यके प्रतिसमय होने वाली अर्थक्रिया रूप कार्य में बाह्य व्याप्तिवश या कालप्रत्यासत्तिवश अन्यकी निमित्तता भी स्वीकार करता है। जैनदर्शनका इस विषयमें जो कटाक्ष है वह इतना ही कि प्रत्येक द्रव्य प्रतिसमय जो अर्थक्रिया करता है, वह न तो उपादान और बाह्य संयोग-इन दोनोंका मिलकर एक कार्य है और न ही विवक्षित द्रव्य ही क्योंकि वह तो स्वयं अपना कार्य करने में असमर्थ है, अतएव अन्य कोई पदार्थ आकर उसमें अर्थक्रिया द्वारा कार्यका निर्माण कर देता है। किन्तु वस्तुस्थिति यह नहीं है। यदि विचार कर देखा जाय तो प्रतिसमय प्रत्येक द्रव्यमें जो कार्य होता है, वह मात्र उसी द्रव्यका अपना कार्य है। उसने हो स्वयं अपने समर्थ उपादानके अनसार कर्ता होकर उस कार्यको जन्म दिया है। उस समय उस कार्यके होने में जो बाह्य निमित्त है. वह स्वयं उसी समय अपने परिणाम रूप स्वरूपके कारण विवक्षित द्रव्यसे सर्वथा भिन्न होकर अपने परिणाम लक्षण या क्रियालक्षण कार्यका कर्ता हो रहा है। जैसे एक व्यक्ति साइकिलसे आया। कुछ देर बाद किसीने पच्छाको कि १. परीक्षामुख, ४-५ । २. वही, ४,८ । ३. तत्त्वार्थसूत्र, ५/२९ । ४. आप्तमीमांसा, का०१०-११ । ५, समयसार, आत्मख्याति, परिशिष्ट । ६. वहो, गाथा ८४ आत्मख्याति ! Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८: सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ यह साइकिल कौन लाया, तब वह उत्तर देता है कि "मैं लाया।" थोड़ी देर बाद दूसरे व्यक्ति ने पछा कि आप कैसे आये? तब वह उत्तर देता है कि साइकिलसे आया। इसका अर्थ है कि चलनेकी क्रिया स्वयं साइकिलने भी की और उस व्यक्तिने भी की । फिर भी वे दोनों परस्परके कार्यमें निमित्त हैं। इससे निश्चित हुआ कि एककी क्रिया दूसरा नहीं कर सकता । फिर भी वे एक दूसरेकी गतिक्रिया के होने में परस्पर निमित्त अवश्य हैं। प्रत्येक द्रव्यके कर्ता-कर्म आदि षट-कारकके विषयमें यही जैनदर्शनका हार्द है, जो प्रत्येक द्रव्य के अपने-अपने स्वभावमें ही घटित होता है और यही परमार्थ है।' अन्य सब व्यवहार है। अतएव ऐसे व्यवहारको उपचरित शब्दसे अभिहित किया जाता है। अन्यथा प्रत्येक द्रव्यका जो उत्पाद-व्यय-ध्रुवस्वभाव दृष्टि-पथमें आता है वह घटित नहीं हो सकता । यहाँ इतना विशेष जानना चाहिए कि जैसे प्रत्येक द्रव्य उत्पादादि तीन लक्षणवाला होनेसे उसमें स्वयंके द्वारा अर्थक्रिया घटित की जा सकती है, वैसे ही उसे जब तक अनुवत्त प्रत्यय और व्यावृत्त प्रत्ययका विषय नहीं स्वीकार किया जाता, तब तक भी उसमें अर्थक्रिया घटित नहीं हो सकती। यहाँ जो अनुवृत्ताकार प्रत्यय और व्यावृत्ताकार प्रत्ययका प्रसंगसे उल्लेख किया है, सो उन द्वारा क्रमसे साक्ष्य-लक्षण सामान्य और व्यतिरेक-लक्षण विशेषका ज्ञान कराया गया है। प्रत्येक द्रव्यमें ऐसे भी अस्तित्व आदि धर्म पाये जाते हैं, जिनके कारण दो या दोसे अधिक द्रव्य सदृश्य प्रत्ययके गोचर होते हैं । साथ ही प्रतियोगी मनुष्य, तिर्यञ्च आदि रूप पर्यायाश्रित ऐसे भी धर्म पाये जाते हैं जिनके कारण उनमें पार्थक्य प्रतीतिमें आता है । यह दो या दोसे अधिक द्रव्योंको निमित्त कर प्रत्येक द्रव्यमें पाये जाने वाले धर्मोकी अपेक्षा मीमांसा है । एक द्रव्यकी अपेक्षा विचार करनेपर हमें प्रत्येक द्रव्य पर-अपर विवर्तव्यापी भी प्रतीत होता है" और क्रमभावो परिणाम रूप भी प्रतीतिमें आता है, इसलिए उसे क्रमसे ऊर्ध्वता-सामान्य-रूप और पर्यायविशेष रूप भी स्वीकार करना आवश्यक हो जाता है। इस प्रकार प्रत्येक द्रव्य इन धर्मोंसे घटित होनेके कारण सामान्य-विशेषात्मक स्वीकार किया है और यही प्रमाण ज्ञानका विषय है। इसीसे प्रत्येक द्रव्य अनेकान्त स्वरूप है, यह स्पष्ट हो जाता है। अतः अनेकान्त क्या है और व्यवहार पदवीमें उतार कर उसे कैसे समझा या समझाया जा सकता है इस पर भी संक्षेपमें प्रकाश डालना क्रमप्राप्त है, अतः उसकी मीमांसा की जाती है। अनेकान्तका शब्दार्थ है-अनेके अन्ताः यस्मिन् असौ अनेकान्तः। जिसमें अनेक धर्म तादात्म्यभावसे रहते हैं, उसका नाम अनेकान्त है । इससे तो हम इतना ही जानते हैं कि जड़-चेतन प्रत्येक द्रव्यमे अनेक धर्म पाये जाते हैं । इससे हम यह नहीं जान पाते कि प्रत्येक द्रव्यको अनेकान्तात्मक स्वीकार करने में वास्तविक प्रयोजन क्या है ? आचार्योंने इसे ही स्पष्ट करनेके अभिप्रायसे अनेकान्तके लक्षणको सुस्पष्ट करते हुए लिखा है तत्र यदेव तत् तदेव अतत्, यदेव एकं तदेव अनेकम्, यदेव सत् तदेव असत्, यदेव नित्यं - देव अनित्यम्-इत्येकस्मिन् वस्तुत्वनिष्पादकपरस्परविरुद्धशक्तिद्वयप्रकाशनमनेकान्तः । १. प्रवचनसार, गा० १६ तत्त्वदीपिका । २. परीक्षामुख, ४/२। ३. वही, ४/४ । ४. वही, सूत्र ४८। ५. वही, सूत्र ४/५ । ६. वही, सूत्र ४/७। ७. वही, ४/१ । ८, समयसार, परिशिष्ट । Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थखण्ड १७९ यद्यपि स्वरूपादि चतुष्टयस्वरूप वस्तुएँ अनन्त है। उन्हें बुद्धिगम्य करके परस्पर विरुद्ध दो दृष्टिकोणोंसे देखनेपर प्रत्येक वस्तु किस रूपमें उजागर होती है, इसीका ख्यापन करते हुए परमागम में अनेकान्तका यह लक्षण प्रस्तुत किया गया है वस्तुत है वही अतत् है, जो एक है वही अनेक है, जो सत् है वही असत् है तथा जो नित्य है वही अनित्य है । इस प्रकार एक ही वस्तु में वस्तुत्व की निष्पादक परस्पर विरुद्ध दो शक्तियों के प्रकाशन का नाम अनेकान्त है। यद्यपि अपनी-अपनी स्वतन्त्र सत्ताके कारण जो पदार्थ अस्तित्व स्वरूप प्रतीत होते हैं, वे पृथक्-पृथक् है इस अपेक्षा जीव द्रव्य अनन्त है, पुद्गल द्रव्य उनसे भी अनन्तगुणे हैं, धर्म, अधर्म और आकश द्रव्य । प्रत्येक एक-एक हैं तथा काल द्रव्य लोकाकाश के जितने प्रदेश हैं तत्प्रमाण है अर्थात् असंख्यात हैं। उसमें से यहाँ विवक्षित आत्मा अनेकान्त स्वरूप कैसे सिद्ध होता है यह देखेंगे। उसमें भी अनेकान्त के स्वरूप का स्थापन करते हुए वस्तुत्व के निष्पादक परस्पर विरुद्ध जिन चार युगलों का हम पूर्व में निर्देश कर आये है उनको ध्यान में रखकर क्रम से विचार करेंगे । १. पहला युगल सहज ज्ञानादि स्वरूप होनेसे आत्मा तत्स्वरूप ही है और बाहर अनन्त शेषोंको जानने आदिकी अपेक्षा अतत्स्वरूप ही है । २. आत्मा अपने गुण पर्यायों के समुदायपनेकी अपेक्षासे एक ही है और गुणपर्यायोंके भेदकी अपेक्षासे वह अनेक ही है । ३. आत्मा स्वद्रव्यादि चतुष्टय रूपसे होनेकी शक्तिरूप स्वभाव वाला होनेसे सत् ही है और परद्रव्यादि चतुष्टयरूप न होनेकी शक्तिरूप स्वभाव वाला होनेसे असत् ही है । ४. आत्मा अनादि निधन अविभाग एकरस परिणत होनेके कारण नित्य ही है और क्रमशः होनेवाले एक समयकी मर्यादा वाले रूप वृत्त्यंशसे परिणत होनेके कारण अनित्य ही है। इस प्रकार एक ही आत्मा एक ही समय में उक्त चार युगलरूप होनेसे अनेकान्त स्वरूप है यह निश्चित होता है । जितने भी द्रव्य हैं, उनमेंसे प्रत्येकको इसी प्रकार अनेकान्त स्वरूप घटित कर लेना चाहिए । प्रत्येक द्रव्य प्रतिसमय अनेकान्त स्वरूप कैसे है यह उसका संक्षेपमें स्पष्टीकरण है जब उसका वचनमुखसे विचार किया जाता है तो शब्दों द्वारा उसका कथन दो प्रकारसे घटित होता है-एक क्रमिक रूपसे और दूसरा यौगपद्य रूपसे । इसके अतिरिक्त कथनका कोई तीसरा प्रकार नहीं है । जब अस्तित्व आदि अनेक धर्म काल, आत्मा (स्वरूप) गुणिदेश और संयोग आदिकी अपेक्षा भिन्न-भिन्न रूपसे विवक्षित होते हैं, तब एक शब्दमें अनेक धर्मो के प्रतिपादनकी शक्ति न होनेसे उन द्वारा प्रत्येक द्रव्यका क्रमसे प्रदिपादन किया जाता है । इसीका नाम विकलादेश है। परन्तु जब वे ही अस्तित्व आदि धर्म काल, आत्मा; गुणिदेश और संयोग आदिको अपेक्षा अभेदरूपसे विवक्षित होते हैं तब एक ही शब्द एक धर्ममुखेन तादात्म्यरूपसे एकत्वको प्राप्त सभी धर्मोका अखण्ड रूपसे युगपत् कथन हो जाता है । इसीका नाम सकलादेश है । विकलादेश नय रूप है और सकलादेश प्रमाण रूप है । इस व्यवस्थाके अनुसार जिस समय एक द्रव्य अखण्ड रूपसे विवक्षित होता है उस समय वह अस्तित्वादि धर्मोकी अभेदवृत्ति या अभेदोपचार करके पुराका पूरा द्रव्य एक वचन द्वारा कहा जाता है । Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ इसीका नाम सकलादेश है, क्योंकि द्रव्याथिक नयसे सभी धर्मो से अभेद त्ति घटित हो जानेसे अभेद है तथा पर्यायाथिक नयसे प्रत्येक धर्ममें स्वरूपकी अपेक्षा भेद होनेपर भी अभेदोपचार कर लिया जाता है । स्याद्वाद इसीका नाम है । अब आग सप्तभंगी द्वारा इसे स्पष्ट किया जाता है। प्रश्नके वश होकर एक वस्तुमें अविरोधपूर्वक विवि प्रतिषेध कल्पनाका नाम सप्तभंगी है। यहाँ सप्तभंगी पद से स्पष्टतः जिन सात भंगोंका बोध होता है वे हैं-१. स्यात् है ही जीव, २. स्यात् नहीं ही है जीव, ३. स्यात् अवक्तव्य ही है जीव, ४. स्यात् है और नहीं ही है जीव, ५. स्यात् है और अवक्तव्य ही है जीव, ६. स्यात् नहीं है और अवक्तव्य ही है जीव, ७. स्यात् है, नहीं है और अवक्तव्य ही है जीव । प्रत्येक भंगमें 'जीव' पद द्रव्यवाची होनेसे विशेष्य है और 'अस्ति' धर्मवाची होनेसे विशेषण है । उनमें परस्पर विशेषण, विशेष्यभावके द्योतन करनेके लिए 'एव' पद का प्रयोग किया गया है। इससे अस्तित्व के अतिरिक्त इतर धर्मों की निवृत्तिका प्रसंग आनेपर उन धर्मो के सद्भावको द्योतन करनेके लिए उक्त वाक्यमें 'स्यात्' -कथंचित्' शब्दका प्रयोग किया गया है। यह 'स्यात्' पद तिङन्त प्रतिरूपक निपात है । यहाँ सप्तभंगीमें प्रत्येक भंगको 'स्यात्' पदसे युक्त करनेके दो प्रयोजन है। प्रथम प्रयोजनके अनुसार 'स्यात्' पद प्रत्येक भंगमें अनेकान्तका द्योतन करता है तथा दूसरे प्रयोजनके अनुसार प्रत्येक वाक्यमें जो गम्य अर्थ है उसका विशेषण होनेसे वह अपेक्षा विशेषको सूचित करता है। इससे हम जानते हैं कि प्रथम भंग ‘जीव है ही' यह अपेक्षा विशेषसे कहा गया है तथा दूसरे भंगमें 'जीव नहीं ही है यह भी अपेक्षा विशेषसे कहा गया है। इसी प्रकार शेष ५ भंगोंमें भी समझ लेना चाहिए । यहाँ इतना विशेष है कि सप्तभंगीके प्रत्येक भंगमें कथनकी अपेक्षा स्वतन्त्र एक-एक धर्म की मुख्यता है । किन्तु यहाँ अभिप्रायमें पूरी वस्तु विवक्षित है । १. सप्तभंगीके प्रथम भंगमें अस्तित्व धर्म द्वारा जीवकी सिद्धि की गई है। यह द्रव्याथिक वचन है, अतः समग्र वस्तुका परिग्रह करने के लिए 'स्यात्' पद द्वारा अन्य धर्मों की अभेदवृत्ति स्वीकार कर ली गई है। इससे यह भंग सकलादेशी हो जाता है। २. दूसरे भंगमें पर चतुष्टयके निषेध द्वारा पर्यायमुखेन जीवकी सिद्धि की गई है । यह पर्यायवचन है, अतः समग्र वस्तुका परिग्रह करनेके लिए 'स्यात्' पद द्वारा अन्य धर्मों का अभेदोपचार कर लिया गया है । इससे यह भंग भी सकलादेशी हो जाता है । ३. तीसरे भंगमें अर्थपर्यायोंकी मुख्यता है और अर्थपर्यायोंका वचनमुखेन कथन हो नहीं सकता, इसलिए इसमें वचन द्वारा उनके न कह सकने रूप सामर्थ्यकी अपेक्षा वस्तुको अवक्तव्य धर्म द्वारा अभिहित किया गया है ।। यह भी पर्यायवचन है, इसलिए स्यात् पद द्वारा अन्य धर्मो का अभेदोपचार करनेसे यह भग भी सकलादेशी हो जाता है। ४. चौथे भंगमें अर्थपर्यायभित व्यंजनपर्यायोंकी मुख्यता है। यह भी पर्यायाथिक वचन है । इसलिए 'स्यात्' पद द्वारा अन्य धर्मों का अभेदोपचार करनेसे यह भंग भी सकलादेशी हो जाता है। ५. पांचवें भंगमें अवान्तर पर्यायसामान्य और उसमें गभित वचन द्वारा न कह सकने रूप विशेष पर्यायोंके समुच्चय रूप एक धर्मकी मुख्यता है। यह भी पर्यायवचन है, इसलिए 'स्यात्' पद द्वारा अन्य धर्मोका अभेदोपचार करनेसे यह भंग भी सकलादेशी हो जाता है । ६. छठे भंगमें पर्याय विशेष और उसमें गर्भित वचन द्वारा न कह सकने रूप अन्य पर्यायोंके समुच्चय रूप एक धर्मकी मुख्यता है, इसमें यह भी पर्यायवचन है, इसलिए 'स्यात्' पद द्वारा अन्य धर्मो का अभेदोपचार करनेसे यह भंग भी सकलादेशी हो जाता है। Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : १८१ ७. सातवाँ भंग सामान्य-विशेष रूप व्यंजनपर्यायों और उनमें गभित अर्थ-पर्यायोंके समुच्चय रूप एक धर्मकी मख्यतासे कहा गया है । यह भी पर्याय वचन है। इसलिए इसमें प्रयुक्त 'स्यात्' पद द्वारा अन्य धर्मोका अभेदोपचार करनेसे यह भंग भी सकलादेशी हो जाता है। अथवा यह स्यात् पद सामान्य, विशेष और अवक्तव्य इन तीनों धर्मोंकी अक्रमवृत्तिको सूचित करनेके लिए दिया गया है। यह सप्तभंगीकी संक्षिप्त मीमांसा है। इसी प्रकार अन्य सप्रतिपक्ष दो धर्मोकी मुख्यतासे अन्य सप्तभंगियोंकी सिद्धिकी जा सकती है। इसमें प्रत्येक भंग द्वारा परी वस्तु कही गई है। इसलिए यह प्रमाणसप्तभंगी है । नय-सप्तभंगीमें 'स्यात्' पद अन्य धर्मोंको गौण करनेके लिए प्रयुक्त होता है। नय-सप्तभंगीमें 'स्यात्' पदका प्रयोग न करनेकी भी परम्परा है। WImms Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्य-कारणभाव-मीमांसा जीवन-संशोधनमें तत्त्वनिष्ठाका जितना महत्त्व है, कर्ता-कर्म-मीमांसाका उससे कम महत्त्व नहीं है । आचार्य कुन्दकुन्दने भूतार्थरूपसे अवस्थित जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्षके श्रद्धानको सम्यग्दर्शन कहकर जीवा-जोवाधिकारके बाद कर्तकर्मअधिकार लिखा है, उसका कारण यही है। तथा आचार्य पूज्यपादने सर्वार्थसिद्धिमें 'सदसतोः' इत्यादि सूत्रकी व्याख्या करते हए मिथ्यादृष्टिके स्वरूपविपर्यास और भेदाभेदविपर्यासके समान कारणविपर्यास होता है यह उल्लेख इसी अभिप्रायसे किया है। यह तो मानी हुई बात है कि विश्वमें जितने भी दर्शन प्रचलित है उन सबने तत्त्वव्यवस्थाके साथ कार्यकारणका जो क्रम स्वीकार किया है, उसमें पर्याप्त मतभेद है। प्रकृतमें प्रत्येक दर्शनके आधारसे उनकी मीमांसा नहीं करनी है । यहाँ तो मात्र जैनदर्शनके आधारसे विचार करना है। तत्त्वार्थसूत्रमें द्रव्यका लक्षण सत करके उसे उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यस्वभाव बतलाया गया है । गण अन्वयस्वभाव होनेसे ध्रौव्यके अविनाभावी हैं और पर्याय व्यक्तिरेकस्वभाव होनेसे उत्पाद और व्ययके अविनाभावी हैं, इसलिए प्रकारान्तरसे वहाँपर द्रव्यको गुण-पर्यायवाला भी कहा गया है। चाहे द्रव्यको गुण-पर्यायवाला कहो और चाहे सत् अर्थात् उत्पादव्यय-ध्रौव्य स्वभाव कहो, दोनों कथनोंका अभिप्राय एक ही है। यों तो अपने-अपने विशेष लक्षणके अनुसार जातिकी अपेक्षा सब द्रव्य छह हैं-जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल । उसमें भी जीवद्रव्य अनन्तानन्त हैं, पुद्गलद्रव्य उनसे भी अनन्तगुणे हैं, धर्म, अधर्म और आकाश द्रव्य एक-एक है तथा कालद्रव्य असंख्यात है। फिर भी द्रव्यके इन सब भेद-प्रभेदोंमें द्रव्यका पूर्वोक्त एक लक्षण घटित हो जानेसे वे सब एक द्रव्य शब्द द्वारा अभिहित किये जाते हैं। तात्पर्य यह है कि लोकमें अपनी-अपनी स्वतन्त्र सत्ताको लिए हुए चेतन और जड़ जितने भी पदार्थ है वे सब अन्वयरूप शक्तिको अपेक्षा ध्रौव्यस्वभाववाले होकर भी पर्यायकी अपेक्षा प्रति समय स्वयं उत्पन्न होते हैं और स्वयं विनाशको प्राप्त होते हैं । कर्मने जीवको बाँधा है या जीव स्वयं कर्मसे बन्धको प्राप्त हुआ है। इसी प्रकार कर्म जीवको क्रोधाधिरूपसे परिणमाता है या जीव स्वयं क्रोधादिरूपसे परिणमन करता है । इन दोनों पक्षोंमें कौन-सा पक्ष जैनधर्म में तत्त्वरूपसे ग्राह्य है, इस विषयकी आचार्य कुन्दकुन्दने समयप्राभूतमें स्वयं मीमांसा की है। उनका कहना है कि जीव द्रव्य यदि स्वयं कर्मसे नहीं बँधा है और स्वयं क्रोधादिरूपसे परिणमन नहीं करता है तो वह अपरिणामी ठहरता है और इस प्रकार उसके अपरिणामी हो जानेपर एक तो संसारका अभाव प्राप्त होता है दूसरे सांख्यमतका प्रसंग आता है। यह कहना कि जीव स्वयं तो अपरिणामी है, परन्तु उसे क्रोधादि भावरूपसे क्रोधादि कर्म परिणत करा देते हैं उचित प्रतीत नहीं होता, क्योंकि जीवको स्वयं परिणमन स्वभाववाला नहीं माननेपर क्रोधादि कर्म उसे क्रोधादि भावरूपसे कैसे परिणमा सकते हैं ? अर्थात् नहीं परिणमा सकते । यदि इस दोषका परिहार करनेके लिए जीवको स्वयं परिणमनशील माना जाता है तो क्रोधादि कर्म जीवको क्रोधादि भावरूपसे परिणमाते हैं, यह कहना तो मिथ्या ठहरता ही है । साथ ही इस परसे यही फलित होता है कि जब यह जीव स्वयं क्रोधरूपसे परिणमन करता है तब वह स्वयं क्रोध है, जब स्वयं मानरूपसे परिणमन करता है तब वह स्वयं मान है, जब स्वयं मायारूपसे परिणमन करता है तब Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड: १८३ वह स्वयं माया है और जब स्वयं लोभरूपसे परिणमन करता है तब वह स्वयं लोभ है।' आचार्य कुन्दकुन्दने यह मीमांसा केवल जीवके आथयसे ही नहीं की है। कर्मवगंणायें ज्ञानावरणादि कर्मरूपसे कैसे परिणमन करती हैं इसकी मीमांसा करते हुए भी उन्होंने इसका मुख्य कारण परिणामस्वभावको ही बतलाया है। एक द्रव्य अन्य द्रव्यको क्यों नहीं परिणमा सकता, इसके कारणका निर्देश करते हुए वे समयप्राभूतमें कहते हैं जो जहि गुणे दवे सो अण्णम्हि दुण संकमदि दध्वे । सो अण्णमसंकतो कह तं परिणामए दव्वं ॥ १६३॥ जो जिस द्रव्य या गुणमें अनादि कालसे वर्त रहा है उसे छोड़कर वह अन्य द्रव्य या गुणमें कभी भी संक्रमित नहीं होता। वह जब अन्य द्रव्य या गुणमें संक्रमित नहीं होता तो वह उसे कैसे परिणमा सकता है, अर्थात् नहीं परिणमा सकता ॥ १६३॥ तात्पर्य यह है कि लोकमें जितने भी कार्य होते हैं वे सब अपने उपादानके अनुसार स्वयं ही होते हैं । यह नहीं हो सकता कि उपादान तो घटका हो और उससे पटकी निष्पत्ति हो जावे । यदि घटके उपादान पकी उत्पत्ति होने लगे तो लोकमें न तो पदार्थोंकी ही व्यवस्था बन सकेगी और न उनसे जायमान कार्योंकी ही गणेश प्रकुर्वाणो रचयामास वानरम्' जैसी स्थिति उत्पन्न हो जावेगी । जिसे जैनदर्शनमें उपादान कारण कहते हैं उसे नैयायिकदर्शनमें समवायीकारण कहा है । यद्यपि नैयायिकदर्शनके अनुसार जड़-चेतन प्रत्येक कार्यका मुख्य कर्त्ता इच्छावान्, प्रयत्नवान् और ज्ञानवान् सचेतन पदार्थ ही हो सकता है, समवायीकारण नहीं । उसमें भी वह सचेतन पदार्थ ऐसा होना चाहिए जिसे प्रत्येक समयमैं जायमान सब कार्योंके अदृष्टादि कारकसाकल्यका पूरा ज्ञान हो। इसीलिए उस दर्शनमें सब कार्यों के कर्तारूपसे इच्छावान्, प्रयत्नवान् और ज्ञानवान् ईश्वरकी स्वतन्त्ररूपसे स्थापना की गई है । इस प्रकार हम देखते हैं कि जिस दर्शनमें सब कार्योंके कर्तारूपसे ईश्वरपर इतना बल दिया गया है वह दर्शन ही जब कार्योत्पत्ति में समवायी कारणोंके सद्भावको स्वीकार करता है। अर्थात् अपने अपने समवायीकारणोंसे समयेत होकर ही जब वह घटादि कार्योंकी उत्पत्ति मानता है ऐसी अवस्थामें अन्य कार्यके उपादानके अनुसार अन्य कार्यकी उत्पत्ति हो जाय यह मान्यता तो त्रिकालमें भी सम्भव नहीं है । यही कारण है आचार्य कुन्दकुन्दने परमार्थसे जहाँ भी किसी कार्यका कारणकी दृष्टिसे विचार किया है, वहाँ उन्होंने उसके कारगरूपसे उपादान कारणको ही प्रमुखता दी है। वह कार्य चाहे संसारी आत्माका शुद्धि सम्बन्धी हो और चाहे घटपटादिरूप अन्य कार्य हो, परमार्थ से होगा वह अपने उपादानके अनुसार स्वयं ही, यह उनके कथनका आशय है । जैनदर्शन में प्रत्येक द्रव्यको परिणामस्वभावो मानने की सार्थकता भी इसी में हैं। प्रश्न यह है कि जब प्रत्येक द्रव्य परिणमनशील है तो वह प्रत्येक समयमें बदलकर अन्य अन्य क्यों नहीं हो जाता, क्योंकि प्रथम समय में जो द्रव्य है वह जब दूसरे समय में बदल गया तो उसे प्रथम समयवाला मानना कैसे संगत हो सकता है ? इसलिए या तो यह कहना चाहिए कि कोई भी द्रव्य परिणमनशील नहीं हैं या यह मानना चाहिए कि जो प्रथम समय में द्रव्य है वह दूसरे समय में नहीं रहता । उस समय अन्य द्रव्य उत्पन्न हो जाता है। इसी प्रकार दूसरे समयमें जो द्रव्य है वह तीसरे समय में नहीं रहता, क्योंकि उस समय में अन्य नवीन द्रव्य उत्पन्न हो जाता है। यह क्रम इसी प्रकार अनादिकाल से चला आ रहा है और अनन्तकाल १. समयप्राभूत, गाथा ११६ से १२० तक । २. समयप्राभृत, गाथा १२० से १२४ तक । Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ : सिद्धान्ताचार्य पं० फलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ तक चलता रहेगा । प्रश्न मार्मिक है, जैनदर्शन इसकी महत्ताको स्वीकार करता है । तथापि इसकी महत्ता तभी तक है जबतक जैनदर्शनमें स्वीकार किये गये 'सत्' के स्वरूप निर्देश पर ध्यान नहीं दिया जाता । वहाँ यदि 'सत्' को केवल परिणामस्वभावी माना गया होता तो यह आपत्त अनिवार्य होती । किन्तु वहाँ 'सत' को केवल परिणामस्वभावी न मानकर यह स्पष्ट कहा गया है कि प्रत्येक द्रव्य अपने अन्वयरूप धर्मके कारण ध्रुवस्वभाव है तथा उत्पाद-व्ययरूप धर्मके कारण परिणामस्वभावी है। इसलिए 'सत्' को केवल परिणामस्वभावी मानकर जो आपत्ति दी जाती है, वह प्रकृतमें लालू नहीं होती। हम 'सत्' के इस स्वरूपपर तत्त्वार्थसूत्रके अनुसार पहले ही प्रकाश डाल आये हैं। इसी विषयको स्पष्ट करते हुए आचार्य कुन्दकुन्द प्रवचनसारके ज्ञेयाधिकारमें क्या कहते हैं, यह उन्हीं के शब्दों में पढ़िए - समवेदं खलु दव्वं संभव-ठिदि-णाससण्णिद?हिं ।। एक्कम्मि चेव समए तम्हा दध्वं खु तत्तिदयं ।।१०।। द्रव्य एक ही समयमें उत्पत्ति, स्थिति और व्ययसंज्ञावाली पर्यायोंसे समवेत है अर्थात् तादात्म्यको 'लए हए है, इसलिए द्रव्य नियमसे उन तीनमय है ॥१०॥ इसी विषयका विशेष खुलासा करते हुए वे पुनः कहते हैं पादुब्भवदि य अण्णो पज्जाओ पज्जओ वयदि अण्णो । दव्वस्स तं पि दव्वं णेव पणट्ठ ण उप्पण्णं ।।१।। द्रव्यकी अन्य पर्याय उत्पन्न होती है और अन्य पर्याय व्ययको प्राप्त होती है। तो भी द्रव्य स्वयं न तो नष्ट ही हुआ है और न उत्पन्न ही हुआ है ॥११॥ यद्ययि यह कथन थोड़ा विलक्षण प्रतीत होता है कि द्रव्य स्वयं उत्पन्न और विनष्ट न होकर भी अन्य पर्यायरूपसे कैसे उत्पन्न होता है और तभिन्न अन्य पर्यायरूपसे कैसे व्ययको प्राप्त होता है। किन्तु इसमें विलक्षणताकी कोई बात नहीं है । स्वामी समन्तभद्र ने इसके महत्त्वको अनुभव किया था। वे आप्तमीमांसामें इसका स्पष्टीकरण करते हुए कहते हैं न सामान्यात्मनोदेति न व्येति व्यक्तमन्वयात् । व्येत्युदेति विशेषात्ते सहैकत्रोदयादि सत् ॥५७।। हे भगवन् ! आपके दर्शनमें सत् अपने सामान्य स्वभावकी अपेक्षा न तो उत्पन्न होता है और न अन्वय धर्मकी अपेक्षा व्ययको ही प्राप्त होता है, फिर भी उसका उत्पाद और व्यय होता है, सो यह पर्यायकी अपेक्षा ही जानना चाहिए, इसलिए सत् एक ही वस्तुमें उत्पादादि तीनरूप है यह सिद्ध होता है ॥५७॥ आगे उसी आप्तमीमांसामें उन्होंने दो उदाहरण देकर इस विषयका स्पष्टीकरण भी किया है। प्रथम उदाहरण द्वारा वे कहते हैं घट मौलि-सुवर्णार्थी नाशोत्पादस्थितिष्वयम् । शोक-प्रमोद-माध्यस्थ्यं जनो याति सहेतुकम् ।।५९।। घटका इच्छुक एक मनुष्य सुवर्णकी घटपर्यायका नाश होनेपर दुखी होता है, मुकुटका इच्छुक दूसरा मनुष्य सुवर्णकी घट पर्यायका व्यय होकर मुकुट पर्यायकी उत्पत्ति होनेपर हर्षित होता है और मात्र सुवर्णका इच्छुक तीसरा मनुष्य घट पर्यायका नाश और मुकुट पर्यायकी उत्पत्ति होनेपर न तो दुखी होता है और न हर्षित ही होता है, किन्तु माध्यस्थ्य रहता है। इन तीन मनुष्योंके ये तीन कार्य अहेतुक नहीं हो सकते । इससे सिद्ध है कि सुवर्णकी घट पर्यायका नाश और मुकुट पर्यायकी उत्पत्ति होनेपर भी सुवर्णका न तो नाश होता है और न उत्पाद ही, सुवर्ण अपनी घट, मुकुट आदि प्रत्येक अवस्थामें सुवर्ण ही बना रहता है ॥५९॥ Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : १८५ दूसरे उदाहरण द्वारा इसी विषयको स्पष्ट करते हुए वे पुनः कहते हैं पयोव्रतो न दध्यत्ति न पयोऽत्ति दधिव्रतः । अगोरसवतो नोभे तस्मात्तत्त्वं त्रयात्मकम् ॥६०|| जिसने दूध पीनेका व्रत लिया है वह दही नहीं खाता, जिसने दही खानेका व्रत लिया है वह दूध नहीं पीता और जिसने गोरस सेवन नहीं करनेका व्रत लिया है वह दूध और दही दोनों का सेवन नहीं करता। इससे सिद्ध है कि तत्त्व उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य इन तीनमय है ।।६।। आशय यह है कि गोरसमें दूध और दही दोनों गर्भित हैं, इसलिये प्रत्येक तत्त्व (द्रव्य) द्रव्यदृष्टिसे ध्रौव्यस्वरूप है, किन्तु दूध और दही इन दोनोंमें भेद है, क्योंकि दूधरूप पर्यायका व्यय होनेपर ही दहीकी उत्पत्ति होती है, इसलिए विदित होता है कि वही तत्त्व पर्याय दृष्टिसे उत्पाद और व्ययस्वरूप भी है। सर्वार्थसिद्धिमें इस विषयका और भी विशदरूपसे स्पष्टीकरण किया गया है। उसमें आचार्य पूज्यपाद कहते हैं चेतनस्याचेतनस्य द्रव्यस्य स्वां जातिमजहत उभयनिमित्तवशात् भावान्तरावाप्तिरुत्पादनमुत्पादः, मत्पिण्डस्य घटपर्यायवत् । तथा पूर्वभावविगमनं व्ययः । यथा घटोत्पत्तौ पिण्डाकृतेः । अनादिपारिणामिकस्वभावेन व्ययोत्पादाभावाद् ध्रुवति स्थिरीभवतीति ध्रुवः । ध्रुवस्य भावः कर्म वा ध्रौव्यम् । यथा मृत्पिण्डघटाद्यवस्थासु मृदाद्यन्वयः । तैरुत्पाद-व्यय-ध्रौव्ययुक्तं उत्पाद-व्ययध्रौव्ययुक्तं सत् । -सर्वार्थ सिद्धि अ० ५ सू० ३० अपनी-अपनी जातिको न छोड़ते हुए चेतन और अचेतन द्रव्यकी उभयनिमित्तके वशसे अन्य पर्यायका उत्पन्न होना उत्पाद है। जैसे मिट्टीके पिण्डका घट पर्यायरूपसे उत्पन्न होना उत्पाद है ! उन्हीं कारणोंसे पूर्व पर्यायका प्रध्वंस होना व्यय है। जैसे घटकी उत्पत्ति होनेपर पिण्डरूप आकृतिका नाश होना व्यय है । तथा अनादि कालसे चले आ रहे अपने पारिणामिक स्वभावरूपसे तत्त्वका न व्यय होता है और न उत्पाद होता है । किन्तु वह स्थिर रहता है। इसीका नाम ध्रुव है । ध्रुवका भाव या कर्म ध्रौव्य है । तात्पर्य यह है कि पिण्ड और घटादि अवस्थाओंमें मिट्टी अन्वयरूपसे तदवस्थ रहती है, इसलिये जिसप्रकार एक ही मिट्टी उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यस्वभाव है उसीप्रकार इन उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यमय सत् है । वस्तुतः परमाणसे निश्चय उपादानको कार्यका नियामक कहा गया है। क्योंकि कार्य द्रव्यसे अव्यवहित पूर्ववर्ती द्रव्यको प्रागभाव कहते हैं और प्रागभावका अभाव ही कार्य द्रव्य कहलाता है। यहाँ जो प्रागभावका लक्षण दिया है वही निश्चय उपादानका लक्षण हैं, इसलिये आत्ममीमांसाकारिका १० में जो यह आपत्ति दी गई है कि प्रागभाव न माननेपर कार्य द्रव्य अनादि हो जायगा सो यही आपत्ति निश्चय उपादानके नहीं स्वीकार करनेपर भी प्राप्त होती है। प्रागभावका उक्त सुनिश्चित लक्षण किस दृष्टि से स्वीकार किया गया है इसका विस्तारसे १. यहाँ पर निमित्त शब्द व्यवहार और निश्चय उभय कारणवाची है। तदनुसार निमित्त शब्दसे बाह्य निमित्त और निश्चय उपादान दोनोंका ग्रहण हुआ है । तात्पर्य यह है कि अपने-अपने निश्चय उपादानके अनुसार कार्यकी स्वयं उत्पत्तिमें अज्ञानी जीव अपने प्रयत्न द्वारा या अन्य द्रव्य अपनी क्रिया द्वारा या उसके बिना ही निमित्त होता है । इसलिए टीकामें उभय निमित्तके वशसे उत्पन्न होना ऐसा कहा है। २, कार्यात्प्रागनन्तरपर्यायः तस्य प्रागभावः । तस्यैव प्रध्वंसः कार्य घटादिः । १० ९७ । २४ Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ विवेचन करते हुए आचार्य विद्यानन्दने अपनी प्रसिद्ध अष्टसहस्री टीकामें जो कुछ भी लिखा है यह उन्हीं के शब्दोंमें पढ़िये __ ऋजुसूत्रनयार्पणाद्धि प्रागभावस्तावान् कार्यस्योपादानपरिणाम एव पूर्वानन्तरात्मा । न च तस्मिन् पूर्वानादिपरिणामसन्ततौ कार्य सद्भावप्रसंगः, प्रागभावविनाशस्य कार्यरूपतोपगमात् । 'कायोत्पादः क्षयो हेतोः' इति वक्ष्यमाणत्वात् । प्रागभावतत्प्रागभावादेस्तु पूर्व-पूर्वपरिणामस्य सन्तत्यनादेविवक्षितकार्यरूपत्वाभावात् ।। यथार्थमें ऋजसत्रनयकी मख्यतासे तो अव्यवहित पर्ववर्ती उपादान परिणाम ही कार्यका प्रागभाव है। और प्रागभावके इस रूपसे स्वीकार करनेपर पूर्वकी अनादि परिणाम सन्ततिमें कार्यके सद्भावका प्रसंग नहीं आता है, क्योंकि प्रागभावके विनाशमें कार्य रूपता स्वीकार की गई है। 'कार्यका उत्पाद ही क्षय है, क्योंकि इन दोनोंका हेतु एक है' ऐसा आगे शास्त्रकार स्वयं कहनेवाले हैं। प्रागभाव, उसका प्रागभाव इस रूपसे पूर्वतत्पूर्व परिणामरूप सन्ततिके अनादि रूपसे विवक्षित होनेके कारण उसमें विवक्षित कार्यपनेका अभाव है। -]० १००। इससे एक तो यह निश्चित हो जाता है कि अव्यवहित पूर्व पर्याययुक्त द्रव्य नियत कार्यका ही उपादान होता है । दूसरे उक्त कथनसे यह भी निश्चित हो जाता है कि इससे पूर्व क्रमसे वस्तु जिस रूपमें अवस्थित रहती आई है वह पूर्वोक्त नियत कार्यका व्यवहार उपादान कहलाता है । यह व्यवहार उपादान इसलिये कहलाता है, कारण कि उसमें उक्त नियत कार्यके प्रति ऋजुसूत्रनयमे कारणता नहीं बनती। यतः वह केवल द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षा उपादान कहा गया हैं, इसलिये उसकी व्यवहार उपादान संज्ञा है। शंका-पूर्व में प्रागभावका लक्षण कहते समय मात्र नियत कार्यसे अव्यवहित पूर्व पर्यायको ही ऋजुसूत्रनयसे उपादान कहा गया है, इसलिये उस कथनको भी एकान्त क्यों न माना जाय ? समाधान-उक्त कथन द्वारा द्रव्याथिकनयके विषयभूत द्रव्यकी अविवक्षा करके प्रागभावका लक्षण कहा गया है, इसलिये कोई दोष नहीं है। यदि दोनों नयोंकी विवक्षा करके प्रागभावका लक्षण कहा जाय तो अव्यवहित पूर्व पर्याय युक्त द्रव्यको प्रागभाव कहेंगे । इस प्रकार समस्त कथन युक्ति युक्त बन जाता है। शंका-यदि ऐसा है तो व्यबहार हेतुके कथनके समय उसे कल्पना स्वरूप क्यों कहा जाता है । श्री जयधवला (पृ० २६३) में इस विषयके कथनको स्पष्ट करते हुए आचार्य वीरसेनने यह कहा है कि प्रागभाव का अभाव द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव सापेक्ष होता है ? यदि द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव कल्पनाके विषय हैं तो फिर प्रागभावके अभावको द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव सापेक्ष नहीं कहना चाहिये था। क्या हमारी इस शंकाका आपके पास कोई समाधान है ? समाधान-हमने पर द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावको कहीं भी काल्पनिक नहीं कहा है, वे इतने ही यथार्थ हैं जितना कि प्रकृत वस्तु स्वरूप। हमारा तो कहना यह है कि प्रत्येक कार्यमें पर द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावको अन्वय-व्यतिरेकके आधारपर काल प्रत्यासत्तिवश निमित्त कहना यह मात्र विकल्पका विषय है और इसलिये उपचरित है। आगममें जहाँ भी यह कहा गया है कि है, इसने इसे परिणमाया है, इसने इसका उपकार किया है, यह इसका सहायक है यह सब कथन असद्भूत व्यवहारनयका वक्तव्य है। इस नयका आशय भी यह है कि यह नय प्रयोजनवश अन्यके कार्य आदिको अन्यका कहता है। यह तो सुनिश्चित है कि प्रत्येक वस्तु और उसके गुण-धर्म परमार्थसे पर निरपेक्ष होते हैं, स्वरूप पर सापेक्ष नहीं हुआ करता । वस्तुका नित्य होना यह जैसे वस्तुका स्वरूप है उसी प्रकार उसका परिणमन करना Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थखण्ड : १८७ यह भी वस्तुका स्वरूप है नय केवल अंश ज्ञान होनेसे वह मात्र उनको विवक्षासे उनकी सिद्धि करता है, इसलिये विवक्षा या अपेक्षा नयज्ञानमें होती है वस्तु तो धर्म और धर्मी दोनों दृष्टियोंस पर निरपेक्ष स्वतः सिद्ध है । इतना अवश्य है कि जब एक-एक अशकी अपेक्षा वस्तुको जाना जाता है या उसका कथन किया जाता है तो मात्र दूसरे अंशरूप भी वस्तु है इसको भूलकर मात्र उसी अंशरूप वस्तुको न स्वीकार कर लिया जाय इस तथ्यको ध्यान में रखनेके लिए अपेक्षा या विवक्षा लगाई जाती है । इसलिये अपेक्षा नयज्ञान या नयरूप कथनमें ही होती है, वस्तुमें या उसके स्वरूप सिद्ध धर्मोमें नहीं यह सिद्धान्त कार्य कारणपर भी पूरी तरहसे लागू होता है । निश्चय उपादान स्वरूपसे स्वयं है और निश्चय स्वरूप कार्य (पर्याय ) स्वरूपसे स्वयं है । विवक्षा या अपेक्षा मात्र उनकी सिद्धिमें लगती है । जैसे यह कहना कि यह इस कारणका कार्य है, या यह कहना कि यह इस कार्यका कारण है। इसलिये यह कथन सद्भूत व्यवहारनयका विषय हो जाता है, क्योंकि निश्चय स्वरूप कारणता भी वस्तुका स्वरूप है और निश्वय स्वरूपकार्यता भी वस्तुका स्वरूप है। मात्र उनका एकदूसरेकी अपेक्षासे कथन किया गया है, इसीलिये इस कथनको सद्द्भूत व्यवहारनयका विषय कहा गया है। अब रह गया कर्म और नो कर्मको दृष्टिमें रखकर व्यवहार हेतु और उसकी अपेक्षा व्यवहाररूप कार्यका कथन, सो पहले तो यह देखिये कि ज्ञानावरणादि कर्म और उनसे भिन्न शरीरादि समस्त पदार्थोंकी नोकर्म सज्ञा क्यों है ? ज्ञानावरणादिको आत्माका कर्म क्यों कहा जाता है इस तथ्य को स्पष्ट रूपसे समझने के लिये प्रवचनसार अ. २ गा. २५ की तत्त्वदीपिका टीकाके इस कथनपर दृष्टिपात कीजिये - क्रिया खल्वात्मना प्राप्यत्वात् कर्म । तन्निमित्तप्राप्तपरिणामः पुद्गलोऽपि कर्म । आत्माके द्वारा प्राप्य होनेसे क्रिया नियमसे आत्माका कर्म है और उस क्रियारूप राग, द्वेष, मोह और योगको निमित्तकर (व्यवहारसे हेतु कर) जिसने अपना परिणाम प्राप्त किया है ऐसा पुद्गल भी उसका कर्म कहलाता है । ज्ञानावरणादि कर्म वास्तवमें पुद्गलका परिणाम है, फिर उस परिणामकी ज्ञानावरणादि कर्म संज्ञा क्यों रखी गई ? उक्त कथन द्वारा इसी तथ्यको स्पष्ट किया गया है। निमित्तता आनयत है, नोकर्म अर्थात् ईषत् कर्म । सवाल यह है कि शरीरादिको नोकर्म क्यों कहा गया है ? समाधान यह है कि नोर्म दो भेद है. एक तो औदारिक आदि पांच शरीर और दूसरे उनके अतिरिक्त लोकवर्ती सपस्त पदार्थ । इनमे से तो औदारिक आदि पांच शरीरोंको नोकर्म तो इसलिये कहा गया है, क्योंकि ज्ञानावरणादि कर्मों के उदयसे जो-जो अज्ञान आदिक कार्य होते हैं उनमें इनकी नियमरूप निमित्तता नहीं। दूसरे मे अज्ञानादिके समान जीवोंके वैभाविक भाव नहीं है। तीसरे घातिया कर्मोंका क्षय हो जानेपर इन औदारिक आदि शरीरोंमें अज्ञानादि भावोंकी उत्पत्तिता में व्यवहारसे निमित्तता भी नहीं रहती । इसीलिये आगम में इन्हें नोकर्म समूहमें सम्मिलित किया गया है। अब रहे अन्य पदार्थ सो वे भी स्वरूपसे निमित्त तो नहीं हैं, व्यवहारसे जब उनका राग, द्वेष और मोह मुलक जीवकार्यों के साथ निमित्तनैमिरिक सम्बन्ध बनता है तभी उनमें इस सम्बन्धको देखकर नोकर्म व्यवहार होता है, सर्वदा नहीं । शंका - घटादि कार्य तो परमार्थसे जीवकार्य नहीं हैं ? समाधान- घटादि कार्यों के होनेमें अज्ञानी जीवके योग और 'मैं कर्ता' इस प्रकार के विकल्पोंमें निमितताका व्यवहार होनेसे व्यवहारसे वे भी जीव-कार्य कहलाते हैं । अतः अज्ञानादि घटादि कार्योंमें अन्य पदार्थों के समान व्यवहार हेतु होनेसे आगम में इन्हें भी नोकर्म माना गया है । शंका-उपयोग स्वरूप ज्ञानके साथ भी तो ऐसा व्यवहार बन जाता है कि घटपटादि पदार्थों के कारण मुझे घट ज्ञान पटज्ञान आदि हुआ । धर्मादिक द्रव्योंके कारण मुझे धर्मादिक द्रव्योंका ज्ञान होता है ? अतः Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ इन घट-पटाटि और धर्मादिक द्रव्योंको भी ज्ञानोत्पत्तिका व्यवहार हेतु स्वीकार कर उन्हें नोकर्म कहना चाहिये। समाधान-घट-पटादि और धर्मादिक द्रव्योके साथ ज्ञानका व्यवहारसे ज्ञेय-ज्ञायक सम्बन्ध तो है । ज्ञानोत्पत्तिके व्यवहार साधन रूपसे निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध नहीं है । परीक्षामुखमें कहा भी है नार्थालोको कारणम्, परिच्छेद्यत्वात् तमोवत । अर्थ और आलोक ज्ञानोत्पत्तिके (व्यवहार) कारण नहीं है, क्योंकि वे ज्ञेय हैं, अन्धकारके समान । इस प्रकार ज्ञानावरणादिको कर्म और शरीरादिको नोकर्म क्यों कहा गया इसकी सिद्धि हो जानेपर इनके साथ संसार अवस्थामें जीव कार्यो के साथ जो कार्य-कारणभाव कहा गया है वह असद्भूत व्यवहारनयसे ही कहा गया है । तब यह इस कार्यका कारण है या इस कारणका यह कार्य है ऐसा असद्भूत व्यवहार तो बन जाता है। पर निश्चयनय न तो इस व्यवहारको स्वीकार करता है और न ही सद्भुत व्यवहारको ही स्वीकार करता है । इतना हो नहीं, प्रत्युत अपना निषेधकरूप स्वभाव होनेके कारण वह ऐसे व्यवहारका निषेध ही करता है। ‘एवं ववहारणओ पडिसिद्धो जाण णिच्छयणयेण (समयसार गाथा २७२) इस प्रकार निश्चयनयके द्वारा व्यवहारनय निषेध रने योग्य जानो यह वचन इसी तथ्यको ध्यानमें रखकर कहा गया है । इस प्रकार प्रागभाव और उपादान कारण इनमें एक वाक्यता कैसे है और इस आधारपर निश्चय उपादानमें विवक्षित कार्यकी नियामकता कैसे बनती है इसका सम्यक् विचार किया। अब आगे प्रकृत विषय उपादान-उपादेयभावको और तदनुषंगी व्यवहार निमित्त-नैमित्तिकभावको ध्यानमें रखकर 'दृष्टिका माहात्म्य' इस प्रकरणके अन्तर्गत कैसी दृष्टि बनानेसे जीवका संसार चालू रहता है और बढ़ता है तथा कैसी दृष्टि बनानेसे जीव मोक्षमार्गी बन कर मुक्तिका पात्र होता है इस विषयपर संक्षेपमें ऊहापोह करेंगे। ५. दृष्टिका माहात्म्य दृष्टियाँ दो प्रकारकी है-एक व्यवहार दृष्टि और दूसरी निश्चय दृष्टि । अनेकान्त स्वरूपकी समग्रभावसे स्वीकार करनेवाली प्रमाण दृष्टि सकलादेशी होनेसे प्रकृतमें उससे प्रयोजन नहीं है। समयसार गाथा २७२ में इन दोनों दृष्टियोंका स्वरूप निर्देश तथा उनके फलका निर्देश इस प्रकार किया गया है आत्माश्रितो निश्चयनयः, पराश्रितो व्यवहारनयः । तत्रैवं निश्चयनयेन पराश्रितं समस्तमध्यवसानं बन्धहेतुत्वेन मुमुक्षोः प्रतिषेधयता व्यवहारनय एव किल प्रतिसिद्धः, तस्यापि पराश्रितत्वाविशेषात् । प्रतिषेध्य एवं, चायं आत्माश्रितनिश्चयनयाश्रितानामेव मुच्यमानत्वात् । पराश्रितव्यवहारनयस्यकान्तेनामुच्यमानेनाभव्येनाप्याश्रियमाणत्वात् । ___ आत्माश्रित (स्व. आश्रित) निश्चयनय है, पराश्रित (परके आश्रित) व्यवहारनय है। वहाँ पूर्वोक्त प्रकारसे पराश्रित समस्त अध्यवसान (परमें एकत्व बुद्धिरूप या पर पदार्थों में उपादेय रूपसे इष्टानिष्ट बुद्धिरूप समस्त विकल्प) बन्धके कारण होनेसे मुमुक्षुओंको उनका निषेध करते हुए ऐसे निश्चयनयके द्वारा वास्तवमें व्यवहारनयका ही निषेध कराया गया है, क्योंकि जैसे अध्यवसानभाव पराश्रित हैं वैसे ही व्यवहारनय भी पराश्रित है, उनमें कोई अन्तर नहीं है-वे एक हैं। और इस प्रकार अध्यवसान भाव निषेध करने योग्य ही हैं, क्योंकि आत्माश्रित निश्चयनयका आश्रय करनेवाले ही (स्वरूपलाभ कर कर्मोसे) मुक्त होते है और पराश्रित व्यवहारनयका आश्रय तो एकान्तसे कर्मोसे नहीं छूटनेवाला अभव्य जीव भी करता है ।।२७२॥ Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : १८९ परमें आत्म बुद्धिका नाम या उपादेय भावसे परमें इष्टानिष्ट बुद्धिका नाम पराश्रयपना है और स्वतः सिद्ध होनेसे अनादि-अनन्त नित्य उद्योतरूप और विशद ज्योति एक ज्ञायकमें तल्लीनतारूप आत्म परिणामका होना स्वाश्रितपना है। इनमेंसे जीवनमें पराश्रयपनेका होना एक मात्र संसारका कारण है। संसारपद्धतिको आगममें जो संयोग मूलक कहा है सो उस द्वारा भी उक्त प्रकारक पराश्रयपनेको ही स्वीकार किया गया है । इस तथ्यको स्पष्ट रूपसे समझनेके लिये मूलाचार टीका का यह वचन द्रष्टव्य है अनात्मनीनभावस्य आत्मभावः संयोग-अ. १, गा. ४८ । जो भाव आत्माके नहीं हैं उनमें आमभावका होना संयोग है, इसीका नाम पराश्रयपना है । तात्पर्य यह है कि कर्मोदयको निमित्त कर जितने भी भाव होते हैं वे तो पर हैं ही, मैं सम्यग्दृष्टि हूँ, मुनि हूँ, ऐसा कौन कार्य है जिसे परकी सहायताके विना सम्पन्न किया जा सके । यहाँ तक कि सिद्धोंकी ऊर्ध्वगति भी नियत स्थान तक धर्मास्तिकायको सहायतासे होती है। यदि वे स्वयं गमन करते होते तो लोकानसे ऊपर उनके गमनको कौन रोक सकता था इत्यादि विकल्प भी पर हैं। तथा इनमें आत्मभावका होना ही संयोग या पराश्रयपना है। इस प्रकार जो पराश्रितरूप उपयोग परिणाम अनादिकालसे इस जीवके वर्तता चला आ रहा है उसीको प्रकृतमें व्यवहारनय कहा गया है। अज्ञानकी भूमिकामें सर्वदा रहनेवाला यह भाव अभव्य जीवके तो होता ही है, ऐसे भव्य जीवके भी होता है, क्योंकि अज्ञान अवस्था में पर्याय दृष्टिवाले दोनों ही एक समान हैं। उनमें कोई भेद नहीं है । __ शंका-ज्ञानी या अन्तरात्मा जीवके जो शुभोपयोग होता है उसे तो परम्परा मोक्षका कारण कहा ही है सो क्यों ? समाधान--परमार्थसे मोक्षका साक्षात् कारण तो निश्चय रत्नत्रयपरिणत आत्मा ही है । शुभोपयोगको जो मोक्षका परम्परा कारण कहा जाता है सो एक तो सातवें गुणस्थानसे लेकर चौदहवें गुणस्थान तक शुभोपयोग होता ही नहीं। इससे पूर्वके चौथे आदि तीन गुणस्थानोंमें बहुलतासे शुभोपयोग अवश्य होता है और वह निश्चय रत्नत्रयका सहचर होनेके कारण व्यवहारसे अनुकूल माना गया है। तथा स्वरूप परिणमनपूर्वक जो निश्चय रत्नत्रयरूप शुद्धि प्राप्त हई वह शुभोपयोग कालमें यथावत बनी रहती है, उसकी हा होती, इसीलिये ही शुभोपयोगको व्यवहारसे परम्परा मोक्षका कारण कहा है, क्योंकि निश्चय रत्नत्रय परिणत आत्मा मोक्षका साक्षात् कारण, सविकल्प भूमिकामें कहो या प्राक् पदवीमें कहो व्यवहारसे उसके अनुकूल शुभोपयोग, इस प्रकार शुभोपयोगको व्यवहारसे मोक्षका परम्परा कारण स्वीकार किया गया है । इसकी पुष्टि इस प्रमाणसे हो जाती है-- बाह्यपंचेन्द्रिय वषयभूते वस्तुनि सति अज्ञानभावात् रागाद्यध्यवसानं भवति तस्मादध्यवसानाद बन्धो भवतीति पारंपर्येण वस्तू बन्धकारणं भवति, न च साक्षात।-परमात्मप्रकाश, प०३५४॥ पञ्चेन्द्रियोंकी विषयभूत बाह्य वस्तुके होनेपर अज्ञान भावसे रागादि अध्यवसान होता है, इसलिए अध्यवसानसे बन्ध होता है । इस प्रकार बाह्य वस्तु व्यवहारसे परम्परा बन्धका कारण है। यद्यपि शुभोपयोगको मोक्षका परम्परा व्यवहार हेतु कहा है किन्तु मोक्षप्राप्तिके समय या उससे अव्यवहित पूर्व समयमें शुभोपयोग जब होता ही नहीं तब इस दृष्टिसे तो वह मोक्षका परम्परा व्यवहार कारण तो हो नहीं सकता। किन्तु जो निश्चय रत्नत्रय मोक्षका साक्षात् कारण है वह चतुर्थ गुणस्थानसे लेकर चौदहवें गुणस्थान तकका व्यवहारसे एक ही है ऐसा स्वीकार करने पर ही शुभोपयोगको मोक्षका परम्परा व्यवहार कारण कहना बनता है। Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९० : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ शंका--जीवकी निर्विकल्प अवस्थामें जो अबुद्धिपूर्वक राग होता है उसे भी मोक्षका परम्परा व्यवहार कारण कहना चाहिये ? समाधान--जीवकी निर्विकल्प अवस्थामें जो अबुद्धि पूर्वक राग होता है वह शुभोपयोगकी जातिका ही होता है, इसलिये उसे भी परम्परा व्यवहारसे मोक्षका कारण कहने में कोई आपत्ति नहीं है। शंका--कतिपय शास्त्रोंमें यह भी उल्लेख मिलता है कि कोई सम्यग्दृष्टि जीव व्रतादिका आचरण कर स्वर्ग जाता है और वहाँसे चय हो मनुष्य जन्म पा अन्तमें मोक्षका अधिकारी बनता है और इस दृष्टिसे शुभोपयोग मोक्षका परम्परा कारण है ऐसा माना जाय तो क्या आपत्ति है ? समाधान--यहाँ भी पिछले मनुष्य जन्मके रत्नत्रयसे लेकर मोक्ष प्राप्त होने तक का रत्नत्रय एक ही है, मात्र इस दृष्टिको सामने रखकर ही उसके साथ बुद्धिपूर्वक या अबुद्धिपूर्वक वर्तनेवाले शुभरागको मोक्षका परम्परा व्यवहार कारण कहा जा सकता है। वास्तवमें देखा जाय तो शुभोपयोगके कालमें जो सम्यग्दर्शनादि रूप स्वभाव पर्याय होती हैं या अबुद्धिपूर्वक प्रशस्त रागके कालमें जो स्वानुभूति और शुभोपयोग होता है उस शुभोपयोग और अबुद्धि पूर्वक प्रशस्त रागको ही स्वभाव परिणतिका व्यवहारसे निमित्त कहा गया है. क्योंकि ज्ञानधारा जब तक सम्यक रूपसे परि. पाकको प्राप्त नहीं होती है तभी तक ज्ञानधारा और कर्मधाराके एक साथ होनेको आगम स्वीकार करता है। इन सब दृष्टियोंको ध्यानमें रखकर यह कलश काव्य द्रष्टव्य हैयावत्पाकमुपैति कर्मविरतिर्ज्ञानस्य सम्यङ् न सा, कर्म-ज्ञानसमुच्चयोऽपि विहितस्तावन्न काचित क्षतिः । किन्त्वत्रापि समुल्लसत्यवशतो यत् कर्मबन्धाय तत्, मोक्षाय स्थितमेकमेव परमं ज्ञानं विमुक्तं स्वतः ॥११०।। जब तक ज्ञानकी कर्मविरति भलीभाँति परिपूर्णताको प्राप्त नहीं होती तब तक ज्ञान और कर्मका एक साथ रहना आगम सम्मत है, इससे आत्माकी कोई क्षति नहीं होती अर्थात उस कालमें सम्यग्दर्शनादि परिणाम शुद्धिके अनुसार यथावत् बने रहते हैं। किन्तु इतनी विशेषता है कि इस भूमिकामें भी आत्मामें अवशपने (पुरुषार्थकी हीनतावश) जो कर्म प्रकट होता है वह तो बन्धका कारण है और स्वतः विमुक्त स्वभावमात्र जो परम ज्ञान है वह मोक्षका कारण है ॥११०॥ तात्पर्य यह है कि कर्मधारा स्वतः बन्धस्वरूप है, इसलिये वह बन्ध का हेतु है और ज्ञानधारा स्वयं मोक्षस्वरूप है, इसलिये वह मोक्षका हेतु है । शुद्ध आत्मस्वरूपमें अचलरूपसे जो चैतन्य परिणति होती है उसीका नाम ध्यान है, क्योंकि स्वानुभूति कहो, शुद्धोपयोग कहो या निश्चय ध्यान कहो इन तीनोंका एक ही अर्थ है। जीव के ऐसा ध्यान कब होता है इसका निर्देश करते हुए आचार्यदेव कुन्दकुन्द पंचास्तिकायमें कहते हैं-- जस्स ण विज्जदि रागो दोसो मोहो य जोगपरिकम्मो। तस्स सहासहडहणो झाणमओ जायए अगणी ॥१४६।। जिसके जीवनमें मिथ्यात्व की सत्ता नहीं है तथा जिसका उपयोग राग, द्वेष और मन, वचन, कायरूप परिणतिको नहीं अनभव रहा है उसीके शुभाशुभ भावोंको दहन करने में समर्थ ध्यानरूपी अग्नि उदित होती है ॥१४६॥ Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : १९१ जिसे यहाँ स्वानुभूति, शुद्धोपयोग या ध्यान कहा है उसीका दूसरा नाम स्वद्रव्यप्रवृत्त परिणाम भी है, स्वाश्रित निश्चयनय भी यही है । पराश्रित परिणाम इससे भिन्न है जिसे आगममें परद्रव्य-प्रवृत्त परिणाम भी कहते हैं, जो अज्ञानका दूसरा नाम है। समयसार गाथा २ में जो स्वसमय और परसमयका स्वरूप निर्देश किया गया है वह भी उक्त तथ्यको ध्यानमें रखकर ही किया गया है । _शंका-सम्यग्दृष्टि और तत्पूर्वक र तीके सविकल्प भूमिकामें जो रागपूर्वक कार्य देखे जाते हैं सो उस समय उनके वे परिणाम परद्रव्यप्रवृत्त माने जायँ या नहीं ? समाधान-सम्यग्दष्टि या तत्पूर्वक व्रतीके राग परिणति तथा मन, वचन, कायकी प्रवृत्ति मात्र ज्ञेय है, वह उनका कर्ता नहीं, क्योंकि ज्ञानी के बुद्धिपूर्वक राग, द्वेष और मोहका अभाव होनेसे जो उसके राग पूर्वक प्रवृत्ति देखी जाती है या कर्मबन्ध होता है वह अबुद्धिपूर्वक रागादि कलंकका सद्भाव होनेसे ही होता है। इस प्रकार इस समग्र कथनका सार यह है कि जो अपने स्वसहाय होनेसे अनादि-अनन्त, नित्य उद्योतरूप और विशद-ज्योति ज्ञायक भावके सन्मुख होता है उसके मोक्षमार्गके सन्मुख होने पर उसका उपादान भी उसीके अनुकूल प्रवृत्त होता है और जो अपने उक्त स्वभावभूत ज्ञायक भावको भूलकर संसार मार्गका अनुसरण करता है उसका उपादान भी उसीके अनुकूल प्रवृत्त होता है । ऐसी सहज वस्तु व्यवस्था है जिसे बाह्य सामग्री अन्यथा करने में समर्थ नहीं है। इतना विशेष है कि जो जीव मोक्षमार्गके सन्मुख होता है उससे निमित्त व्यवहारके योग्य बाह्य सामग्रीका योग स्वयं मिलता है, बुद्धिका व्यापार उसमें प्रयोजनीय नहीं और जो जीव संसार मार्गके सन्मुख होता है उसके निमित्त व्यवहारके योग्य बाह्य सामग्रीका कभी अबुद्धिपूर्वक योग मिलता है और कभी बुद्धिपर्वक योग मिलता है । ऐसा ही अनादि कालसे चला आ रहा नियम है। अभी तक बाह्य कारण और निश्चय उपादानकी क्रमसे मीमांसा की। अब आगमानुसार यह स्पष्ट किया जायगा कि जड़-चेतनके प्रत्येक कार्यमें इन दोनों उपाधियोंका योग सहज ही मिलता रहता है । जिसे अज्ञानीके योग और विकल्परूप प्रयोग निमित्त कहा गया है उसका योग भी अपने कालमें सहज ही होता है। मात्र उस कालमें उसके बुद्धि और प्रयत्नपूर्वक होनसे उसकी स्वीकृतिको ध्यानमें रखकर उसे प्रायोगिक कहा गया है । इतना विशेष है कि सम्यग्दर्शन आदि स्वभाव परिणत जीवोंके संसार अवस्थामें जितने भी विभाव कार्य होते हैं वे सब अबुद्धिपूर्वक विस्रसा ही स्वीकार किये गये हैं। कारण कि उनमें इस जीवके स्वपनेका भाव नहीं होता। उनका मात्र वह ज्ञाता द्रष्टा ही होता है। समयसार आत्मख्याति टीकामें इसी तथ्यको स्वीकार करते हुए लिखा है यो हि ज्ञानी स बुद्धिपूर्वकराग-द्वेष-मोहरूपास्रवभावाभावात् निरास्रव एव, किन्तु सोऽपि यावत् ज्ञानं सर्वोत्कृष्टभावेन द्रष्टुं ज्ञातुमनुचरितं वाशक्तः सन् जघन्यभावेनैव ज्ञानं पश्यति जानात्यनुचरति तावत्तस्यापि जघन्यभावान्यथानुपपत्त्याऽनुमीयमानाबुद्धिपूर्वक कलंकविपाकसद्भावात् पुद्गलकर्मबन्धः स्यात् । ___ जो परमार्थसे ज्ञानी है उसके बुद्धिपूर्वक राग, द्वेष और मोहरूप आस्रव भावोंका अभाव होनेसे वह निरास्रव ही है। इतना विशेष है कि वह जब तक ज्ञानको सर्वोत्कृष्टरूपसे देखने, जानने और आचरनेमें अशक्त होता हुआ जघन्य भावसे ही ज्ञान को देखता, जानता और आचरता है तब तक उसके भी जघन्य भाव की अन्यथा उत्पत्ति नहीं हो सकती, इससे अनुमान होता है कि उसके अबुद्धिपूर्वक कर्मकलंक रूप विपाकका सद्भाव होनेसे पुद्गल कर्मका बन्ध होता है। Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ ज्ञानी के मिथ्यात्वरूप भाव तो होता ही नहीं । नौवें गुणस्थान तक द्वेष और दशवें गुणस्थान तक रागका सद्भाव होनेसे वह उनका स्वामी नहीं है, इसलिये उसके राग और द्वेषका सद्भाव अबुद्धिपूर्वक ही स्वीकार किया गया है । अतः राग-द्वेष के कारण जो कर्मबन्ध होता है स्वभाव सन्मुख होनेसे ज्ञानीके बुद्धिपूर्वक वह नहीं होता । अबुद्धिपूर्वक होनेवाले राग-द्वेष और उदयके साथ ही उसका अविनाभाव सम्बन्ध है | और यह ठीक भी है, क्योंकि संसारके जितने भी कार्य हैं उनमें ज्ञानीका स्वामित्व न रहने से उन सबको उसके अबुद्धिपूर्वक स्वीकार करना ही न्यायोचित है । वह दृष्टिमुक्त होनेसे मुक्त ही है, क्योंकि उसने पर्यायमें परमात्मा बननेके द्वार में प्रवेश कर लिया है । इस प्रकार इतने विवेचनसे यह स्पष्ट हो जाता है कि ज्ञानी के संसार के सभी कार्य बुद्धिपूर्वक होते ही नहीं, इसलिये परमागमने अज्ञानी के योग और विकल्पके साथ ही उनकी व्याप्ति स्वीकार की है । यतः ऐसे ही कार्योंके साथ अज्ञानीके बुद्धि (अभिप्राय) पूर्वक कर्तृत्व घटित होता है, अत आचार्योंने इन्हीं कार्यों को प्रायोगिक स्वीकार किया है । इनके सिवाय अन्य जितने भी कार्य होते हैं वे सब विस्रसा ही स्वीकार किये गये हैं । शंका- यहाँ पर ज्ञानीके बुद्धिपूर्वक रागादि भावोंका अभाव बतलाया है सो यह बात हमारे समझमें नहीं आती, क्योंकि ज्ञानधारा और कर्मधाराके एक साथ रहनेमें आत्माको किसी प्रकारको क्षतिको आगम स्वीकार नहीं करता । हम देखते हैं कि सविकल्प अवस्थामें ज्ञानीके गृहस्थ अवस्थाके सभी कार्य तथा भावलिंगी सन्त के भी २८ मूलगुणों का पालन, आहारादिका ग्रहण, तत्त्वोपदेश, शिष्योंका ग्रहण- विसर्जन, गुरुसे अपने द्वारा किये गये दोषोंकी निन्दा गर्हापूर्वक प्रायश्चित्त लेना आदि सभी कार्य बुद्धिपूर्वक होते हुए ही देखे जाते हैं । कर्ता-कर्म अधिकार में भी जिस द्रव्यका जब जो परिणाम होता है उस समय उस द्रव्यका कर्त्ता उस द्रव्यको हो स्वीकार किया गया । अतः राग-द्वेषादि भाव जीवोंकी ही पर्याय है । जीव हो स्वयं उसरूप परिमता है, इसलिये प्रकृतिमें ऐसे जीवको एक तो निरास्रव मानना उचित नहीं है । दूसरे ज्ञानी के भी श्रावक और भावलिंगी साधुके जितने भी कर्तव्य कर्म कहे गये हैं उन्हें अबुद्धिपूर्वक मानना भी उचित नहीं है । चरणानुयोगको रचना भी श्रावक और मुनिकी प्रवृत्ति कैसी हो इसी अभिप्रायसे हुई है । वह जिनवाणी हैं, इसलिये यही मानना उचित है कि ज्ञानी भी जब सविकल्प अवस्थामें वरतता है तब शुभाचारको श्रावक और मुनि कर्तव्य कर्म ही मानने चाहिये । उन्हें आगम में व्यवहार मोक्ष मार्गरूपसे स्वीकार करनेका प्रयोजन भी यही है ? समाधान - प्रश्न मार्मिक है । उसका समाधान यह है कि प्रकृतमें जो बुद्धिपूर्वक और अबुद्धिपूर्वक कार्यों का विभाजन किया गया है 'वह यह मेरा कार्य और मैं इसका करनेवाला, इस कार्यके किये बिना मेरा तरणोपाय नहीं, ऐसे अभिप्रायपूर्वक जो कार्य होते हैं वे बुद्धिपूर्वक कार्य कहलाते हैं तथा इनके सिवाय अन्य कार्य अबुद्धिपूर्वक कहलाते हैं । आचार्य विद्यानन्दने अबुद्धिपूर्वक कार्यका अर्थ अतर्कतोपस्थित किया है सो इससे भी उक्त कथनी ही पुष्टि होती है, क्योंकि प्रकृतमें राग, द्वेष और मोहपूर्वक की गई प्रवृत्ति या अभिप्राय मोक्ष प्राप्ति के लिये इष्ट नहीं है । इस दृष्टिसे शुभोपयोग भी अनुपादेय माना गया है। उसका विकल्पकी भूमिका कहो या प्राक् पदवी कहो उस समय होना और बात है और यह मोक्ष प्राप्तिके लिए परमार्थसे करणीय है ऐसे अभिप्रायपूर्वक उसे उपादेय मानना और बात है । ज्ञानीका अभिप्राय तो एकमात्र अपने त्रिकाली ज्ञायक स्वभावमें लीनता प्राप्त करनेका ही रहता है । और इसीलिये आचार्य अमृतचन्द्रदेवने Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुथं खण्ड : १९३ 'स्वरूपमें रमना चारित्र है' चारित्रका यह लक्षण किया है। यतः चारित्र सम्यग्दर्शनका अविनाभावी है. इसी लिये आगम में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इनमेंसे प्रत्येकके लक्षणके साथ स्वरूप लाभको अविनाभावी स्वीकार किया गया है । स्वरूप लाभ न हो और सम्यग्दर्शन आदि परिणाम हो जायँ ऐसा नहीं है । शुभाचारको चरणानुयोग शास्त्र स्वयं मोक्षप्राप्ति में बाह्य निमित्तरूप से स्वीकार करता है । इसलिए यही तथ्य फलित होता है कि ज्ञानीकी दृष्टि सर्वदा सविकल्प अवस्था में भी आत्मस्वरूप पर ही रहती है । वह स्वयं शुभाचारको संसारका प्रयोजक होनेसे अपना अपराध ही मानता रहता है, क्योंकि ऐसी दृष्टिके बिना उसका, शानी कहो, सम्यग्दृष्टि कहो, अध्यात्मवृत्त कहो, अन्तरात्मा कहो या स्वसमय कहो, होना नहीं बन सकता । इतने विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि लोकमें साभिप्राय जितने भी कार्य होते हैं उनकी प्रायोगिक संज्ञा है, शेष सब कार्य वैखसिक कहलाते हैं। २. उभयरूपसे निमित्त शब्दका प्रयोग साधारणतः निमित्त शब्द कारण, उपाधि, साधन वा हेतुवाची स्वीकार किया गया है। यह बाह्यकारण और उपादान दोनोंके अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। यथा द्रव्यस्य निमित्तवशात् उत्पद्यमाना परिस्पन्दात्मिका क्रियेत्यवसीयते । -स० वा० अ० ५ सू० २२ । द्रव्यके दोनों बाह्य और आभ्यन्तर ( उपादान) निमित्तोंके वशसे उत्पन्न होनेवाले परिस्पन्दका नाम क्रिया है ऐसा निश्चित होता है। क्रियाके इस लक्षण व्यवहार हेतुके साथ निश्चय उपादानके लिए भी निमित्त शब्द व्यवहृत हुआ है । 7 कहीं इन दोनोंके लिए बाह्य और आभ्यन्तर हेतु संज्ञा भी व्यवहृत हुई है (त० वा० अ० २ सू० ८), तथा कहीं बाह्य और इतर उपाधि संज्ञा भी प्रयुक्त हुई है ( स्व० स्तो० श्लो० ५९ ) । इन उदाहरणोंसे यह स्पष्ट हो जाता है कि लौकिक या परमार्थ स्वरूप जो भी कार्य होता है उसमें व्यवहार हेतु और निश्चय हेतुका सन्निधान अवश्य होता है । यतः निश्चय हेतु ( निश्चय उपादान) कार्य द्रव्यका ही एक अव्यवहित पूर्व रूप है, इसलिये वह नियमसे कार्यका नियामक स्वीकार किया गया है। किन्तु व्यवहार हेतु कार्यका अविनाभावी है, इसलिये मात्र व्यवहारसे उसे कार्यका नियामक कहा जा सकता है । फिर भी वह निश्चय हेतुका स्थान नहीं ले सकता । इन दोनों में विन्ध्य-हिमगिरिके समान महान् अन्तर है - 'अन्तरं महदन्तरम्' क्योंकि निश्चय हेतु कार्य द्रव्यके स्वरूपमें अन्तर्निहित है और व्यवहार हेतु बाह्य वस्तु है, इसलिये इन दोनोंमें महान् अन्तर होना स्वाभाविक है, निश्चय हेतु कार्य द्रव्यका पूर्व रूप होनेसे सद्भूत है और व्यवहार हेतु कार्य द्रव्यसे भिन्न होनेके कारण उसमें असद्भूत है । ३. शंका-समाधान शंका- जब उक्त दोनों ही हेतु कार्यके प्रति गमनयसे स्वीकार किये गये है तब दोनोंका दर्जा एक समान माननेमें क्या आपत्ति है ? समाधान - आगम में सद्भूत और असद्भूत व्यवहारके भेदसे नैगमनय दो प्रकारका स्वीकार किया गया है । यत बाह्य वस्तु निमित्तता असदभूत व्यवहारनवसे स्वीकार की गई है और निश्चय उपादानमें कार्यके प्रति हेतुता सद्भूत व्यवहारनयसे स्वीकार की गई है, अतः इन दोनोंको एक समान दर्जा नहीं दिया जा सकता है । मात्र हेतुता सामान्य की दृष्टिसे दोनों ही समान हैं। आशय यह है कि यह इसका कार्य है २५ Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ और यह इसका कारण है यह व्यवहार तो दोनों हेतुओंपर समानरूपसे लागू होता है । मात्र बाह्य हेतु और कार्य इनमें निमित्त-नमित्तक भाव जहाँ असद्भूत व्यवहारनयसे घटित होता है वहाँ निश्चय उपादान और कार्य इनके मध्य निमित्त-नैमित्तक भाव सद्भूत व्यवहारनयसे घटित होता है। शंका-जब कार्यके साथ निश्चय उपादानका सम्बन्ध सद्भुत व्यवहारनयसे घटित किया जाता है तो उपादानके पूर्व उसे निश्चय विशेषण क्यों दिया गया है ? __समाधान-यतः प्रत्येक निश्चय उपादानमें प्रत्येक कार्यके प्रति स्वरूपसे हेतुता विद्यमान है, अतः उपादानके पूर्व उसे निश्चय विशेषण दिया गया है। ४. व्यवहाराभासियोंका कथन ___ यह वस्तुस्थिति है । इसके ऐसा होते हुए भी अपने इन्द्रिय प्रत्यक्ष, तर्क और अनुभवको प्रमाण मानकर तथा साथ ही आगमकी दुहाई देते हुए एक ऐसे नये मतका बुद्धिपूर्वक प्रचार किया जा रहा है कि अव्यवहित पूर्व समयवर्ती द्रव्य अनेक शक्तिसम्पन्न होता है, इसलिये कब कौन कार्य हो यह बाह्य सामग्रीपर अवलम्बित है और उसका कोई नियम नहीं कि कब कैसी बाह्य सामग्री मिलेगी, इसलिये जब जैसी सामग्री मिलती है, कार्य उसके अनुसार होता है, अतः कार्यका नियामक बाह्य निमित्त ही होता है, उक्त उपादान नहीं । इसके साथ ही बुद्धि पूर्वक एक ऐसे मतका भी प्रचार किया जा रहा है कि प्रत्येक द्रव्यको शुद्ध पर्याय तो नियत क्रमसे ही होती है, किन्तु अशुद्ध पर्यायके सम्बन्धमें ऐसा कोई नियम नहीं है। वे नियत क्रमसे भी होती है और नियत क्रमको छोड़कर आगे-पीछे भी होती है । इस विषयको और स्पष्ट करते हुए उनका कहना है कि जब कि आगममें उदासीन बाह्य निमित्त और प्रेरक बाह्य निमित्तोंका पृथक्-पृथक् उल्लेख दृष्टिगोचर होता है तो दोनोंको एक कोटिमें बिठलाना ठीक नहीं है । हमारा यह कहना नहीं कि जो-जो क्रियावान् पदार्थ हैं वे सब प्रेरक निमित्त हो होते हैं। उदाहरणार्थ चक्षु इन्द्रिय क्रियावान् पदार्थ होकर भी रूपोपलब्धिमें प्रेरक बाह्य निमित्त नहीं है। वह उसी प्रकारसे रूपोपलब्धिमें व्यवहार हेतु है जैसे गति करते हुए जीवों और पुद्गलोंकी गति क्रियामें धर्मद्रव्य या ठहरते हुए जीवों और पुद्गलोंके स्थित होने में अधर्म द्रव्य व्यवहार हेतु हैं। इष्टोपदेशमें 'नाज्ञो विज्ञत्वमायाति' यह कथन ऐसे ही क्रियावान् पदार्थोकी व्यवहार हेतुताको धर्म द्रव्यके समान बतलाने के लिए किया गया है। किन्तु इनके सिवाय आगममें ऐसे उद्धरण भी दृष्टिगोचर होते हैं जिनके आधारसे उदासीन व्यवहार हेतुओंसे अतिरिक्त प्रेरक व्यवहार हेतुओंकी स्वतंत्र रूपसे सिद्धि होती है। उदाहरणार्थ सर्वार्थसिद्धि में द्रव्य वचन पौद्गलिक क्यों है इसकी पुष्टिमें बतलाया गया है कि भाव वचनरूप सामर्थ्यसे युक्त क्रियावान् आत्माके द्वारा प्रेर्यमाण पुद्गल द्रव्य वचनरूपसे परिणमन करते हैं, इसीलिये द्रव्य वचन पौद्गलिक है। उल्लेख इस प्रकार है तत्सामोपेतेन क्रियावतात्मना प्रेर्यमाणाः पुद्गलाः वाक्त्वेन विपरिणमन्त इति द्रव्यवागपि पौद्गलकी। (अ० ५ सू० १९)। तत्त्वार्थवार्तिकमें भी यह विवेचन इसी प्रकार किया गया है । इसके लिए देखो अ० ५, सू० १७ और १९ । इसी प्रकार पञ्चास्तिकाय (गाथा ८५ व ८८ जयसेनीया टीका) और बृहद्रव्यसंग्रह (गाथा १७ व २२ संस्कृत टीका) में भी ऐसे उल्लेख मिलते हैं जो उक्त कथनकी पुष्टिके लिये पर्याप्त हैं। Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : १९५ इस प्रकार ये कतिपय उद्धरण हैं जिनके आधारसे ऐसे प्रेरक व्यवहार हेतुओंका समर्थन होता है जो लोकमें चक्षु इन्द्रियसे विलक्षण प्रकारसे दूसरे द्रव्यों के कार्यों में व्यवहार हेतु होते हुए देखे जाते हैं। इससे यह स्पष्ट ज्ञात हो जाता है कि यद्यपि चक्षु इन्द्रिय क्रियावान् होकर भी रूपकी उपलब्धिमें प्रेरक बाह्य हेतु भले हो न हो, किन्तु इसका कोई यह अर्थ करे कि जितने भी क्रियावान् पदार्थ है वे सब धर्मादि व्योंके समान उदासीन व्यवहार हेतु ही होते हैं तो यह कथन पूर्वोक्त आगम प्रमाजोंसे बाधित हो जाता है, इन्द्रिय प्रत्यक्ष, अनुभव और युक्तिसे विचार करनेपर भी इस कथनकी सत्यता प्रमाणित नहीं होती। कारण कि लोकमें ऐसे बहुतसे उदाहरण दृष्टिगोचर होते हैं जिनको ध्यानमें लेनेपर व्यवहारसे प्रेरक निमित्तोंकी सिद्धि होती है। अपने इस कथनकी पुष्टिमें वे वायुका उदाहरण विशेषरूपसे उपस्थित कर कहते हैं कि जिस प्रकार वायुका संचार होनेपर वह ध्वजा आदि अन्य पदार्थों के उड़नेम व्यवहारसे प्रेरक निमित्त होता है उसी प्रकार सभी प्रेरक निमित्तोंके विषयमें जानना चाहिए। पञ्चास्तिकाय समय व्याख्या टोकासे इसकी पुष्टि होती है । यथा ___ यथा गतिपरिणतो प्रभंजनः वैजयन्तीनां गतिपरिणामस्य हेतुकर्ताऽवलोक्यते न धर्मः । स खलु निष्क्रियत्वान्न कदाचिदपि गतिपरिणाममेवापद्यते, कुतोऽस्य सहकारित्वेन परेषां गतिपरिणामस्य हेतुकतृत्वम् । गाथा ८८।। जिस प्रकार गतिपरिणत वायु ध्वजाओंके गतिपरिणामका हेतुकर्ता देखा जाता है, धर्म द्रव्य नहीं । वह वास्तव में निष्क्रिय होनेसे कभी भी गतिपरिणामको नहीं प्राप्त होता, इसलिए इसका सहकारीपनेरूपसे दूसरेके गतिपरिणामका हेतु कर्तृत्व कैसे हो सकता है । यह व्यवहारसे प्रेरक निमित्तोंका एक उदाहरण है । लोकमें ऐसे हजारों उदाहरण देखे जाते हैं, इसलिए इन सब उदाहरणोंको देखते हुए यह सिद्ध होता है कि जहाँपर निष्क्रिय पदार्थोके समान सक्रिय पदार्थ व्यवहारसे उदासीन निमित्त होते हैं वहाँ तो प्रत्येक कार्य अपने-अपने विवक्षित निश्न अनुसार ही होता है और जहाँपर सक्रिय पदार्थ व्यवहारसे प्रेरक निमित्त होते हैं वहाँपर प्रत्येक कार्य निश्चय उपादानसे होकर भी जब जैसे व्यवहारसे प्रेरक निमित्त मिलते हैं वहाँ पर प्रत्येक कार्य उनके अनुसार होता है। व्यवहारसे प्रेरक निमित्तोंके अनुसार कार्य होते हैं इसका यह तात्पर्य नहीं है कि गण-पर्यायरूप प्रत्येक उपादानभूत वस्तु अपने स्वचतुष्टयरूप स्वभावको छोड़कर व्यवहारसे प्रेरक निमित्तरूप परिणम जाती है। क्योंकि स्वका उपादान और अन्यका अपोहन करके रहना यह प्रत्येक वस्तुका वस्तुत्व है। किन्तु इसका यह तात्पर्य है कि उस समय व्यवहारसे प्रेरक निमित्तोंमें जिस प्रकारके कार्योंमें प्रेरक निमित्त होने की योग्यता होती है, कार्य उसी प्रकारके होते हैं, निश्चय उपादानके अनुसार नहीं होते। अकाल मरण या इसी प्रकारके जो दूसरे कार्य कहे गए हैं उनकी सार्थकता व्यवहारसे प्रेरक निमित्तोंका उक्त प्रकारसे कार्योंका होना मानने में ही है । आगम में अकालमरण, उदीरणा, अपकर्षण, उत्कर्षण और संक्रमण जैसे कार्योको स्थान इसी कारणसे दिया गया है। ५. व्यवहाराभासियोंके कथनका निरसन यह ऐसे व्यवहाराभासियोंका कथन है जो किसी विशिष्ट प्रयोजन वश सम्यक नियतिका खण्डन करनेके लिए कटिबद्ध है । और जिन्होंने अपना लक्ष्य एकमात्र यही बना लिया है कि अपने उद्देश्यकी सिद्धिके लिए कहींपर आगमको गौण कर और कहींपर आगमके अर्थमें परिवर्तन कर आगमके नामपर अपने कथनको पुष्ट करते रहना है। ऐसा लिखकर वे जैन दर्शनसे कितने दूर जा रहे हैं या चले गए हैं इसका उन्हें रंचमात्र भी भय नहीं है । Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६ : सिद्धान्ताचार्य पं० फुलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ १. उदाहरणार्थ 'यः परिणमति स कर्ता' का सीधा अर्थ है - 'जो कार्य रूप परिणमन करता है ।' किन्तु व्यवहारसे जो प्रेरक निमित्त कहे जाते हैं, कार्योंका यथार्थ कर्तुत्व उनको प्राप्त हो जाय और बाह्य वस्तु जो प्रत्येक कार्यका व्यवहार कारण है उसका तद्भिन्न द्रव्यके कार्यके प्रति कार्यकारीपना सिद्ध हो जाय, इसलिए वे उक्त श्लोकांशका 'जिसमें परिणमन होता है' यह अर्थ करते हैं । २. दूसरा उदाहरण समयसार गाथा १०७ का है। इसमें 'आत्मा पुद्गल द्रव्यको परिणमाता है आदि व्यवहारनयका वक्तव्य है' यह कहा गया है। उसकी आत्मख्याति टीकामें आ० अमृतचन्द्र देवने ऐसे उपयोग परिणामको विकल्प बतलाकर इस विकल्पको उपचरित ही कहा है । यथा यत्तु व्याप्यव्यापकभावाभावेऽपि प्राप्यं विकार्यं निर्वर्त्यं च पुद्गलद्रव्यात्मकं कर्म गृह्णाति परिणमयत्युत्पादयति करोति बध्नाति चात्मेति विकल्पः स किलोपचारः || २०७|| और व्याप्य-व्या|कभावका अभाव होनेपर भी प्राप्य विकार्य तथा निर्वर्त्यरूप जो पुद्गल द्रव्यस्वरूप है उसे आत्मा ग्रहण करता है परिणमाता है, उत्पन्न करता है, करता है और बाँधता है इस प्रकारका जो विकल्प होता है वह वास्तवमें उपचार है । किन्तु व्यवहारभासी व्यक्ति बाह्य हेतुओंकी कार्यकारीपना सिद्ध करनेके अभिप्राय से उक्त सूत्रगाथाका यह अर्थ करते हैं कि आत्मा पुद्गलद्रव्यका उपादान रूपसे परिणमन करनेवाला नहीं होता आदि । यह उन महाशयों का कहना है । किन्तु यह कैसे ठीक नहीं है इसके लिए आगेके कथनपर दृष्टिपात कीजिये -- अत्ता कुणदि सभावं तत्थ गदा पोग्गला सभावेहिं । अच्छंति कम्मभावं अण्णागाहमवगाढा ||६५ ॥ - पं० काय | आत्मा स्वभाव (मोहादि ) करता है और जीवके साथ एक क्षेत्रावगाहरूपसे वहाँ प्राप्त हुए पुद्गल स्वभावसे कर्मभावको प्राप्त होते हैं ।। ६५ ।। इस गाथा द्वारा पुद्गलकार्य जीव द्वारा किये बिना ही जीव और पुद्गल अपना-अपना कार्य स्वयं कैसे करते हैं यह स्पष्ट किया गया है । इस पर पुद्गल कर्मरूप अपने कार्यको जीवको सहायता के बिना कैसे करता है यह शंका होने पर आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं जह पुग्गलदव्वाणं बहुप्पयारेहि खंधणिप्पत्ती । अकदा परेहिं दिट्ठा तह कम्माणं वियाणाहि ||६६ || जिस प्रकार पुद्गल द्रव्योंकी अनेक प्रकारसे स्कन्धोंकी उत्पत्ति परके द्वारा किये बिना होती हुई दिखलाई देती है उसी प्रकार कर्मोकी विविधता परके द्वारा नहीं की गई जानो ।। ६६ । । यहाँपर प्रत्येक द्रव्य अपना कार्य अन्यके द्वारा नहीं किये जानेपर स्वयं प्रति समय अपने कार्योंका कर्ता कैसे है यह पुद्गल स्कन्धोंका उदाहरण देकर स्पष्ट किया गया है। पुद्गल स्कन्धोंके द्व्यणुकसे लेकर महस्कन्ध तक नाना भेद हैं । उनमेंमें शून्य वर्गणाओंको छोड़कर वे सब सत्स्वरूप हैं । उनमें ऐसी आहारवर्गणाएँ भी हैं जिनसे तीन शरीर और छह पर्याप्तियोंकी संरचना होती है। मनोवर्गणाएँ भी हैं जिनसे विविध प्रकारके मनोंकी संरचना होती है । भाषावर्गणाएँ भी है जिनसे तत, वितत आदि ध्वनियोंको संरचना होती हैं । तैजसवर्गणाएँ भी हैं जिनसे निःसरण और अनि सरण स्वभाव तथा प्रशस्त और अप्रशस्त तेजस शरीरों की संरचना होती है । कार्मणवर्गणाएँ भी हैं जिनसे ज्ञानावरणादि विविध प्रकारके आठ कर्मोंकी संरचना होती हैं। ये पाँचों संसारी जीवोंसे सम्बद्ध होने योग्य वर्गणाएँ हैं । प्रश्न है कि इन्हें ऐसी कौन बनाता है और इनमेंसे आहारादि पाँच वर्गणाओं में संसारी जीवोंके साथ सम्बद्ध होने की पात्रता कौन पैदा करता है । क्या Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : १९७ वे स्वभावसे संसारी जीवोंसे सम्बद्ध होने की पात्रता युक्त बनती हैं या संसारी जीव उन्हें अपने मोह राग, द्वेष आदिसे वैसा बना लेता है। साथ ही यह विभाग कौन करता है कि इतने परमाणुओंसे लेकर इतने परमाणओं तकके स्कन्ध आहारवर्गणा योग्य होंगे आदि तथा एक प्रकारकी वर्गणाओंसे दूसरे प्रकारकी वर्गणाओंके मध्य इतना अन्तर रहेगा। यदि कहो कि ये वर्गणाएँ स्वयं ही बनती और बिछड़ती रहती है तो संसारके सब कार्य स्वयंकृत मान लेनेमें आपत्ति ही क्या है। आगमका भी यही आशय है । आचार्य कुन्दकुन्ददेवने इसी स्वयंकृत नियमको ध्यानमें रखकर यह निर्देश किया है कि जिस प्रकार सब स्कन्धोंकी उत्पत्ति परसे न होकर स्वयं होती है उसी प्रकार ज्ञानावरणादि कर्मोकी उत्पत्ति भी स्वयंकृत जाननी चाहिये । इतने कथनसे यह भी फलित होता है कि संसारी जीव अपने रागादि परिणामोंको स्वयं करते है और एक क्षेत्रावगाहरूपसे वहाँ स्थित पुद्गल कार्मणवर्गणाएँ स्वयं कर्मरूप परिणमती रहती है। इससे आगममें व्यवहार और निश्चयनयकी अपेक्षा जो षट्कारक व्यवस्था बतलाई गई है उसका आशय भी भले प्रकार समझमें आ जाता है । साथ ही यह भी समझमें आ जाता है कि आचार्योंने व्यवहार कथनीको क्यों तो उपचरित बतल.या और निश्चय कथनीको क्यों परमार्थ स्वरूप बतलाया। प्रकृतमें जो जिसका न हो उसको व्यवहार प्रयोजन वश या व्यवहार हेतु वश उसका कहना व्यवहार है तथा जो जिसका हो उसको निश्चय प्रयोजन या निश्चय हेतुवश उसीका कहना निश्चय है। संसारी जीवोंके रागादिकी उत्पत्तिके मोहनीय आ व्यवहार हेतु है, अतः इन रागादिको नैमित्तिक कहना व्यवहार है तथा इन रागादिको स्वकालके प्राप्त होनेपर संसारी जीव स्वयं उत्पन्न करते हैं और उदयादिरूप पुद्गल कर्म उनके होने में स्वयं व्यवहार हेतु होते हैं, इतना विशेष है कि निश्चयनयका कथन पर निरपेक्ष होता है क्योंकि वह वस्तुका स्वरूप है। किन्तु व्यवहार नयका कथन पर सापेक्ष होता है, क्योंकि वह वस्तुका स्वरूप नहीं है। अतः रागादिको संसारी जीवोंका स्वयंकृत कार्य कहना निश्चय है। और पर निमित्तक कहना व्यवहार है । आगमज्ञ उसीका नाम है जो वहारको व्यवहारनयसे ही स्वीकारता है और निश्चयको निश्चयनयसे ही स्वीकारता है। किन्तु जो उक्त कथनको विपरीतरूपसे जानते या कहते हैं वे आगमज्ञ कहलानेके अधिकारी नहीं हैं। इस तथ्यका समर्थन समयसार गाथा ४१४ की आत्मख्याति टीकाके इस वचनसे भले प्रकार होता है ततो ये व्यवहारमेव परमार्थबुद्धया चेतयन्ते ते समयसारमेव न संचेतयन्ते । य एव परमार्थ परमार्थबुद्धथा चेतयन्ते ते एव समयसारं चेतयन्ते । इसलिये जो व्यवहारको ही परमार्थ बुद्धिसे अनुभवते हैं वे अकेले समयसारको नहीं अनुभवते तथा जो मात्र परमार्थको परमार्थ बुद्धिसे अनुभवते हैं वे ही समयसारको अनुभवते हैं । इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि व्यवहार कथन व्यवहार स्वरूप ही है उसे वस्तु स्वरूप या वस्तुके कार्यका निश्चय कारण मानना आगविरुद्ध है। इसलिए बाह्य कारण सहायक है यह कहना भी व्यवहार अर्थात् उपचरित (कल्पना मात्र) हो जाता है। यदि हम निमित्तपने की दृष्टिसे सविकल्प योगयुक्त अज्ञानी जीव और तदितर बाह्य कारणोंको देखते हैं तो उनमें कोई अन्तर नहीं रह जाता है । केवल बाह्य-व्याप्तिके आधारपर कालप्रत्यासत्तिवश उक्त जीवोंमें कर्तापनेका तथा अन्यमें करणता आदिका व्यवहार किया जाता है। आचार्य अमृतचन्द्रने इस तथ्यको स्पष्ट करनेके अभिप्रायसे समयसार गाथा ८४ की आत्मख्याति टीकामें घटोत्पत्तिके प्रति कुम्भकारके योग और विकल्पको घट निर्माणकी क्रिया न कहकर उसे मिट्टीको उस क्रियाके प्रति अनुकूल कहा है जब कि प्रत्येक व तु स्वभावसे किसी के अनुकूल और प्रतिकूल होती नहीं। अनुकूल या प्रतिकूल कहना यह मात्र व्यवहार है । तात्पर्य यह हुआ कि मिट्टी स्वयं कर्ता होकर घटकी उत्पत्ति रूप क्रिया करती है और कुम्भकारका योग Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८: सिद्धान्ताचार्य पं० फुलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ और विकल्प रूप व्यापार व्यवहारसे उसके अनुकूल होता है । अतः यही मानना उचित है कि कार्यकी उत्पत्ति होती तो है अपने निश्चय उपादानके स्वसमयमें प्राप्त होनेपर स्वयंकृत ही, पर उसमें जो सविकल्प क्रियावान् अज्ञानी जीव और तदितर क्रियावान् पदार्थ अन्वय व्यतिरेकरूप बाह्य व्याप्तिवश स्वकालके प्राप्त होनेपर व्यवहार हेतु होते हैं उनकी वह व्यवहार हेतुता धर्मादि द्रव्योंके समान ही जाननी चाहिए । वे अपनी-अपनी उक्त विशेषता द्वारा दसरे निष्क्रिय धर्मादि द्रव्योंके समान ही व्यवहार हेतु होते हैं यह तथ्य पूर्वोक्त कथनसे तो स्पष्ट है ही। निष्क्रिय पदार्थ दूसरोंके क्रिया लक्षण अथवा परिणाम लक्षण कार्यो में यथासम्भव किस प्रकार व्यवहार हेतु होते हैं इसका स्पष्टीकरण करते समय जो सर्वार्थसिद्धिका उद्धरण दे आये हैं उससे भी स्पष्ट है। उक्त उल्लेखमें जहाँ धर्मादि द्रव्योंकी व्यवहार हेतुताको क्रियावान् चक्षु इन्द्रियकी व्यवहार हेतू ताके समान बतलाया गया है वहाँ उससे यह भी सिद्ध हो जाता है कि सविकल्प क्रियावान् अज्ञानी जीव और तदितर क्रियावान् पदार्थोकी व्यवहार हेतुता धर्मादि द्रव्योंके समान ही होती है । और इसीलिए आचार्य पूज्यपादने जिस प्रकार धर्म द्रव्यको अन्यकी गतिमें व्यवहार हेतु कहा है, उसी अन्य सब व्यवहार हेत होते हैं इस तथ्यको इष्टोपदेशमें 'नाज्ञो विज्ञत्वमायाति' इत्यादि कथन द्वारा अन्य सब पदार्थों की व्यवहार हेतुताको निष्क्रिय धर्म द्रव्यकी व्यवहार हेतुताके समान स्वीकार किया है। निश्चय उपादान और व्यवहार निमित्त इन दोनोंका प्रति समय किस प्रकार योग मिलता है इसका समर्थन स्वामी कार्तिकेयकी द्वादशानुप्रेक्षासे भले प्रकार हो जाता है । यथा णिय-णियपरिणामाणं णिय-णियदव्वं पि कारणं होदि । अण्णं बाहिरदव्वं णिमित्तमत्तं वियाणेह ॥२१७।। सब द्रव्य अपने-अपने परिणामके निश्चय उपादान कारण होते हैं, अन्य बाह्य द्रव्यको निमित्त मात्र जानो ॥२१७॥ वस्तुतः आगममें जहाँ भी निश्चयसे कार्यको नियामकता स्वीकार की गई है वहाँ मात्र निश्चय उपादानको ही प्रधानता दी गई है । असद्भूत व्यवहारनयसे काल प्रत्यासत्तिवश अवश्य ही निश्चयकी सिद्धिके अभिप्रायसे व्यवहार हेतुको स्थान मिला हुआ है। प्रकृतमें निश्चयकी सिद्धिका अर्थ है प्रति क्षण निश्चय उपादानके होनेपर अगले समयमें जो कार्य हो उसको अपने अन्वय-व्यतिरेकके द्वारा कालप्रत्यासत्तिवश सूचित करे । बस बाह्य कारण या असद् व्यवहार हेतुका इतना ही काम है। वह निश्चय उपादानके कार्यमें दखल दे यह उसका कार्य नहीं है। हम इस तथ्यको न भूले यही जैन दर्शनका आशय है। इससे अन्य मानना वह जैनदर्शन नहीं होगा। किन्तु विश्वको कर्तारूपसे माननेवाला ईश्वरवादी दर्शन होगा । ६ अन्य दर्शनोंका मन्तव्य अपने इस कथनकी पुष्टिमें हम सर्व प्रथम नैयायिक दर्शनको लेते हैं । नैयायिक दर्शन कार्यकी उत्पत्तिमें समवायी कारण, असमवायी कारण और निमित्त कारण ये तीन कारण मानता है। जिससे समवेत होकर कार्य उत्पन्न होता है वह समवायी कारण है, संयोग आदि असमवायी कारण है। इन दोनोंसे अतिरिक्त निमित्त कारण है। नैयायिक दर्शन आरम्भवादी या असत् कार्यवादी दर्शन है। वह कारणमें कार्यकी सत्ता स्वीकार नहीं करता और न ही स्वरूपसे वस्तुको द्रव्यदृष्टिसे नित्य और पर्याय दृष्टिसे अनित्य ही मानता है । इसलिये उस दर्शनमें निमित्त कारणपर अधिक जोर दिया गया है । यद्यपि उस दर्शनमें प्रेरक निमित्त कारण और उदासीन निमित्त कारण ऐसे भेद दृष्टिगोचर नहीं होते, फिर भी वह सभी निमित्त कारणोंके मध्य कर्तारूपसे ईश्वरको सर्वोपरि मानता है। इसलिए इस दर्शनमें ईश्वरके अतिरिक्त अन्य सब उदासीन निमित्त कारण Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : १९९ हो जाते हैं । यतः इस दर्शनमें कर्ताके लक्षण में ज्ञान, क्रिया और चिकीर्षाको समाहित किया गया है, इसलिए जड़ और चेतन सम्बन्धी सभी कार्य में उसकी प्रधानता हो जाती है। इस दर्शनमें निमित्तोंके उक्त प्रकारसे भेद किये बिना भी उक्त प्रकारका विभाजन स्पष्ट प्रतीत होता है। संक्षेपमें यह नैयायिक दर्शनका कथन है। वैशेषिक दर्शनकी मान्यता भी इसी प्रकार की है। बौद्धदर्शन अनात्मवादी दर्शन होनेके साथ वह क्षणिणवादपर आधृत है । वह अन्वयी द्रव्यको स्वीकार नहीं करता । फिर भी ज्ञानकी उत्पत्तिके समनन्तर प्रत्यय, अधिपति प्रत्यय, आलम्बन प्रत्यय और सहकारी प्रत्यय ये चार कारण स्वीकार करनेके साथ उसने अन्य कार्योंके हेतु (मुख्य हेतु) और प्रत्यय (गौण) ये दो कारण स्वीकार किये हैं। यह असत्कार्यवादी दर्शन है फिर भी समनन्तर प्रत्ययके आधारपर यह उपादानउपादेय भावको स्वीकार करता हैं । अव्यवहित पूर्ववर्ती ज्ञानक्षण समनन्तर प्रत्यय है, इन्द्रियाँ अधिपति प्रत्यय है, विषय आलम्बन प्रत्यय हैं तथा प्रकाश आदि अन्य सब कारण सहकारी प्रत्यय हैं। प्रत्येक समयके ज्ञानकी उत्पत्तिके ये चार कारण हैं। अन्य कार्योंकी उत्पत्तिके दो कारण होते हैं। उनमेंसे बीज आदिको हेतु कहते हैं और प्रत्येक समयके कार्योंकी उत्पत्तिके भमि आदि अन्य कारणोंको प्रत्यय कहते हैं । किसीकी अपेक्षा करके ही कार्यकी उत्पत्ति होती है, इसलिए मूलत यह सापेक्षवादी दर्शन है । इसलिए इसका नाम प्रतीत्य समुत्पाद भी है। सांख्य सत्यकार्यवादी दर्शन है . यह कारणमें कार्योंकी सर्वथा सत्ता स्वीकार कर उनका आविर्भाव तिरोभाव मानता है। उसका कहना है कि प्रत्येक कार्यके लिये पृथक्-पृथक् उपादानका ग्रहण होता है, सबसे सब कार्योंकी उत्पत्ति नहीं देखी जाती । आकाश कुसुम आदि असत्से कार्यकी उत्पत्ति नहीं होती, शक्यसे ही शक्य कार्यकी उत्पत्ति होती है और प्रत्येक कार्यका कारण अवश्य होता है। इससे विदित होता है कि नियत कारणसे ही नियत कार्यकी उत्पत्ति होती है। इस दर्शनने आविर्भाव और तिरोभाव मानकर भी उपादानसे भिन्न कारणोंपर जरा भी बल नहीं दिया है । इसकी मान्यता है कि मूल में प्रकृति और पुरुष दो ही तत्त्व हैं जो सर्वथा नित्य है । इसके बाद भी वह आविर्भाव और तिरोभावके आधारपर कार्य कारण भावको स्वीकार करता है । उसके मतसे सब कार्य जैसे हम देखते हैं उसी रूपमें पहलेसे ही विद्यमान है। मात्र वे अपने-अपने कालमें उजागर हो जाते हैं और अपने-अपने कालमें ओझल हो जाते हैं। यह तीन दर्शनोंका मन्तव्य है। नैयायिक दर्शन कार्यमें कारणकी सत्ता न माननेके कारण कार्यकारणकी मुख्यतासे अन्य निमित्तवादी दर्शन है। ईश्वरकी कर्ताके रूपमें स्वतंत्र सत्ता भी उसने इसी कारण स्वीकार की है। मेघादि अजीव कार्योंका बनना-बिगडना, बरसना, बिजलीका उत्पन्न होना, चमकना आदि समस्त कार्य अन्य पुरुषकृत न होकर भी ईश्वराधिष्ठित होकर ही कार्यरूप परिणत होते हैं। ईश्वर सब कार्योका साधारण कारण है। उसके बिना पत्ता भी नहीं हिल सकता। बौद्ध दर्शन क्षणिकवादी दर्शन है। यह कारणमें कार्यकी सत्ता स्वीकार नहीं करता, इस दर्शनमें भी स्वभावसे कार्योंकी उत्पत्ति में अन्य निमित्तोंको मुख्यता मिल जाती है । क्षणिकवादी दर्शन होनेसे यह कार्योंकी उत्पत्ति अन्य निमित्त सव्यपेक्ष मानकर भी व्ययको सर्वथा निरपेक्ष मानता है। १. चत्वारः प्रत्ययाः हेतु: आलम्बनमनन्तरम् । तथैवाधिपतेयं च प्रत्ययो नास्ति पञ्चमः ॥ -माध्यमिककारिका । २. अस्मिन् सति इदं भवति । हेतुप्रत्ययसापेक्षो भावनामुत्पादः प्रतीत्यसमुत्पाद । Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २००: सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ एक सांख्यदर्शन ऐसा है जिसकी अन्य निमित्तवादी दर्शनोंमें परिगणना नहीं होती। कारण कि वह कारणोंके समान कार्योंकी भी सर्वथा सत्ता स्वीकार करता है । मात्र कार्यका आविर्भाव-तिरोभाव होना मानता है। ७. जैन दर्शनका मन्तव्य यह उक्त तीन दर्शनोंके मन्तव्योंका स्पष्टीकरण है। अब इसके प्रकाशमें जैन दर्शनके मन्तव्योंपर दष्टिपात करते हैं । यह न तो सर्वथा नित्यवादी दर्शन है और न सर्वथा अनित्यवादी हो । वस्तु स्वरूपसे परिणामी नित्य है यह इसका मन्तव्य है। इसलिए प्रत्येक समयमें होनेवाला परिणाम परमार्थसे परनिरपेक्ष स्वयं होता है। जिस समय जो परिणाम होता है उससे पहले और बादमें द्रव्यदृष्टिसे वह सत् है और पर्याय दृष्टिसे असत् है । तथा अपने कालमें पर्याय दृष्टिसे भी सत् है । इसी तथ्यको स्पष्ट करते हुए पञ्चास्तिकायमें कहा भी है देव-मनुष्यादिपर्यायास्तु क्रमवर्तित्वादुपस्थिताऽतिवाहिताहिताहतस्वसमया उत्पद्यन्ते विनश्यन्ति चेति । गा० १८ समयव्याख्या । देव और मनुष्यादि पर्यायें क्रमवर्ती होनेसे अपना-अपना समय प्राप्त होने और निकल जानेपर उत्पन्न होती हैं और व्ययको प्राप्त होती है । इस विषयमें स्वामि-कार्तिकेयानुप्रेक्षाका यह वचन भी द्रष्टव्य है कालाइलद्धिजुत्ता णाणासत्तीहि संजुदा अत्था । परिणममाणा हि सयं ण सक्कदे को वि वारेदु ॥२१९।। कालादि लब्धियोंसे युक्त तथा नाना शक्तियोंसे संयुक्त पदार्थ स्वयं परिणमन करते हैं इसे कौन वारण कर सकता है ॥२१९॥ तेसु अतीदा णंता अणंतगुणिदा य भाविपज्जाया। एक्को वि वट्टमाणो एत्तियमेत्तो वि सो कालो ।।२२१।। द्रव्योंकी उन पर्यायोंमेंसे अतीत पर्यायें अनन्त हैं, भावी पर्याय उनसे अनन्तगुणी हैं और वर्तमान पर्याय एक है । सो जितनी ये अतोत, भावी और वर्तमान पर्याय हैं उतने ही कालके समय हैं ॥२२१।। आशय यह है कि प्रत्येक द्रव्यकी तीनों कालसम्बन्धी जितनी पर्याय है, कालके समय भी उतने ही हैं । न्यूनाधिक नहीं । प्रत्येक वस्तुका यह स्वयं सिद्ध स्वभाव है कि प्रत्येक नियत समयमें नियत पर्याय ही स्वयं होती है और उस समयके व्ययके साथ उस पर्यायका भी व्यय हो जाता है। इस क्रमको कोई अन्यथा नहीं कर सकता। प्रत्येक वस्तु अनेकान्तस्वरूप है इसे स्पष्ट करते हुए जिस स्वचतुष्टयकी अपेक्षा वस्तुको सत्स्वरूप प्रसिद्ध किया गया है उसमें स्वकाल और कोई नहीं, यही है। ८. शंका-समाधान शंका-यद्यपि प्रत्येक वस्तु की प्रति समयकी पर्याय प्रत्येक वस्तुका उसी प्रकार स्वरूप है जिस प्रकार सत्त्व आदि सामान्य धर्म प्रत्येक वस्तुके स्वरूप है इसमें सन्देह नहीं। हमारा विवाद स्वरूपके विषयमें नहीं है, किन्तु हमारा विवाद पर्याय स्वरूपके उत्पत्तिके विषयमें है। हमारा कहना तो इतना ही है कि प्रत्येक वस्तुकी प्रति समयकी पर्यायकी उत्पत्ति परकी सहायतासे ही होती है । देखा भी जाता है कि मिट्टी घटरूप तभी परिणमती है जब उसे कुम्भकारके अमुक प्रकारके व्यापारका सहयोग मिलता है। जिनागममें बाह्य निमित्तोंकी स्वीकृतिका प्रयोजन भी यही है । अतः कार्य-कारणकी मीमांसा करते समय इसका अपलाप नहीं करना चाहिए? Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : २०१ समाधान - प्रश्न महत्त्वका है इसपर सांगोपांग विचार तो कर्ताकर्म मीमांसा अधिकारमें ही करेंगे, फिर भी सामान्यसे उसपर दृष्टिपात कर लेना आवश्यक प्रतीत होता है । प्रश्न यह है कि जो बाह्य निमित्त है वह अन्य द्रव्यके कार्य कालमें स्वयं अपनो परिणामलक्षण या उसके साथ परिस्पन्दलक्षण क्रिया करता है या अन्यकी क्रिया करता है ? यदि स्वयं अपनी ही क्रिया करता है तो अन्यके कार्य में वह सहायक किस प्रकार होता है ? जब कि वह स्वयं अपनी ही क्रिया में व्याप्त रहता है तो वह अन्य द्रव्यकी क्रिया जब कर ही नहीं सकता तब वह अन्य द्रव्यके कार्य में वास्तवमें सहायक ही कैसे हो सकता है, अर्थात् नहीं हो सकता यही निश्चित होता है | और यदि अपनी उक्त दोनों प्रकारकी क्रियाओंको छोड़कर अन्य द्रव्यके कार्य में व्याप्त रहता है तो वह स्वयं अपरिणामी हो जाता है । इन दोनों प्रकारकी आपत्तियोंसे बचनेका एकमात्र यही उपाय है और वह यह कि परमार्थसे न तो एक द्रव्य अपने कार्यको छोड़कर अन्य द्रव्यके कार्यमें निमित्त ही होता है और न ही वह उस कार्य के होनेमें परमार्थसे कुछ सहायता ही करता है । मात्र अन्वयव्यतिरेकके आधारपर काल प्रत्यासत्तिवश यह व्यवहार किया जाता है कि इसने इसका कार्य किया या यह इसके कार्य में सहायक है । सच पूछा जाय तो निमित्तवाद जहाँ अन्य निमित्तवादी दर्शनोंका अन्तरात्मा है वहाँ जैनदर्शनमें वह बाह्य कलेवरमात्र है । इसी तथ्यको आचार्य पूज्यपादने भी सर्वार्थसिद्धि में व्रतोंको लक्ष्य कर स्पष्ट शब्दोंमें स्वीकार किया है । वे लिखते हैं तत्र अहिंसाव्रतमादौ क्रियते, प्रधानत्वात् । सत्यादीनि हि तत्परिपालनार्थानि सस्यस्य वृत्तिपरिक्षेपवत् । - अ० ६, सू० १ । यहाँ पाँच व्रतोंमें अहिंसा व्रतको आदिमें रखा है, क्योंकि वह सब व्रतोंमें मुख्य है । धान्यके खेत के लिए जैसे उसके चारों ओर बाड़ी होती है उसी प्रकार सत्यादिक सभी व्रत अहिंसाके परिपालनके लिए हैं । देखो, यहाँ अहिंसा व्रतको खेतमें उपजी धान्यकी उपमा दी है और सत्यादिक चार व्रतोंको व्यवहार से उसकी सम्हाल के लिए बाड़ी बतलाया है । यह तो प्रत्येक स्वाध्याय प्रेमी जानता है कि प्रकृतमें अहिंसा और सत्यादिक दोनों आत्माके शुभ परिणाम है । इस प्रकार एक आत्मपनेकी अपेक्षा दोनोंमें अभेद होने पर भी आचार्यने भेद विवक्षा में अहिंसाको कार्य और सत्यादिकको उसके बने रहनेका व्यवहार हेतु (निमित्त ) कहा है । इसी प्रकार संवर स्वरूप व्रतोंमें और प्रशस्त राग स्वरूप व्रतोंमें क्या अन्तर है इसे स्पष्ट करते हुए वे कहते हैं तेषु हि कृतपरिकर्मा साधुः सुखेन संवरं करोतीति ततः पृथक्त्वेन उपदेशः क्रियते । - सर्वा० अ० ६, सू० १ । व्रतोंमें दृढ़प्रतिज्ञ हुआ साधु सुख पूर्वक संवर करता है, इसलिये यहाँ व्रतोंका संवररूप व्रतोंसे पृथक् उपदेश करते हैं 1 यही अभिप्राय आचार्य अकलंक देवने तत्त्वार्थवार्तिकमें भी व्यक्त किया है । आचार्य विद्यानन्द तो व्रतोंको संवरसे पृथक् बतलाते हुए लिखते हैं- न संवरो व्रतानि परिस्पन्ददर्शनात् गुप्त्यादिसंवरपरिकर्मत्वाच्च । - त० श्लो० अ० ६. सू० १ । व्रत संवरस्वरूप नहीं हैं, क्योंकि व्रतोंमें मन, वचन और कायकी प्रवृत्ति देखी जाती है तथा वे मन, वचन और कायकी निवृत्तिरूप गुप्ति आदि संवरके परिकर्मस्वरूप हैं । इन आचार्योंका यह ऐसा कथन जिससे बाह्य निमित्त - नैमित्तिक सम्बन्ध पर स्पष्ट प्रकाश पड़ता है । इस कथन से एक बात तो यह स्पष्ट हो जाती है कि पञ्चेन्द्रियोंके विषयोंका लोलुपी व्यक्ति या जीवनमें २६ Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ : सिद्धान्ताचार्य पं० फुलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-प्रन्थ सहायकरूपसे जिसने मकान, धनसम्पदा आदिको प्रमुख स्थान दे रखा है वह तो वीतराग मोक्षमार्गका अधिकारी किसी भी अवस्थामें नहीं हो सकता, जो व्रती होनेपर भी उनके अहंकारसे ग्रस्त है वह भी उक्त प्रकारके मोक्षमार्गका अधिकारी नहीं हो सकता। हाँ जिसकी स्वभावसे विषयोंमें अरुचि हो गई है और जो बाह्याभ्यन्तर परिग्रहके बड़प्पनसे मुक्त है वही वीतरागमय संवररूप होनेका अधिकारी है। दूसरी बात यह स्पष्ट हो जाती है कि बाह्य निमित्त अन्यके कार्यका किंचित्कर तो होता नहीं। मात्र बाह्य व्याप्तिवश अन्यके कार्यकी बाह्य भूमिका कैसी रहती है इसका स्पष्टीकरण करके विवक्षित कार्यके होनेकी सूचना करता रहता है। इसका आशय यह है कि वीतरागरूप कार्य हो तो ही व्रतादिकमें निमित्त का व्यवहार है, अन्यथा नहीं। श्वेताम्बर परम्परासे दिगम्बर परम्परामें यही मौलिक भेद है। श्वेताम्बर परम्पराका कहना है कि व्यवहाररूप व्रतोंका पालन करते-करते परमार्थ स्वरूप निश्चयकी प्राप्ति हो जाती है। वे यह भी कहते हैं कि मूर्छाका त्याग अपरिग्रहव्रत है, वस्त्रादिकका ग्रहण-त्याग परिग्रह नहीं है। किन्तु यह आबाल-गोपाल प्रसिद्ध है कि वस्त्रादिकके ग्रहण-त्यागकी इच्छाके बिना उनका ग्रहण-त्याग नहीं हो सकता । यदि ऐसी इच्छाके बिना भी उनका ग्रहणत्याग होता है तो मकान आदि दश प्रकारके बाह्य त्यागकी आवश्यकता हो क्या रह जाती है । और फिर प्रत्येक गृहस्थ बाह्य दश प्रकारके परिग्रहकी मर्यादा करके शेषका त्याग ही क्यों करें और बाह्य परिग्रहका पूर्ण त्याग करके तथा इसके साथ उसमें मूर्छा न रखकर साधु ही क्यों बने । फिर तो सम्पूर्ण परिग्रहके सद्भावमें साधु कहलानेमें आपत्ति ही क्यों मानी जाय । पिछी, कमण्डलु और शास्त्र भी परिग्रह है इसमें सन्देह नहीं । फिर भी चरणानुयोग परमागममें प्रयोजन विशेषको ध्यानमें रखकर उनके ग्रहणका उपदेश है। उसमें भी शास्त्रके लिए यह नियम है कि स्वाध्यायकी दृष्टिसे १-२ शास्त्रोंको ही साधु स्वीकार करे और उनका स्वाध्याय पूरा होनेपर उनको भी जहाँ स्वाध्याय पूरा हो जाय वहीं विसर्जित कर दे । किन्तु इन तीनको छोड़कर ऐसा कोई कारण तो नहीं दिखलाई देता कि वह उन्हें स्वीकार करे । इस विवेचनसे स्पष्ट है कि जितने भी बाह्य निमित्त आगममें कहे गये हैं वे अन्य द्रव्यके कार्यों के बाह्य निमित्त होकर भी परमार्थसे उनके कार्योंके अणुमात्र भी कर्ता नहीं होते। मात्र उनमें लौकिक दृष्टिको ध्यानमें रखकर अन्वय-व्यतिरेकके आधारपर अहं कर्ता इस प्रत्ययसे ग्रसित और कार्यों के लिये प्रयत्नशील अज्ञानी जीवोंमें ही कर्तापनेका व्यवहार किया जाता है, अन्यमें नहीं। देखो, यह शुभ राग और निश्चय रत्नत्रय एक आत्मामें अपने अपने कारणोंसे एक साथ जन्म लेते है, पर जहाँ शुभ भावको ही वोतराग भावका कर्ता स्वीकार नहीं किया गया वहाँ अत्यन्त भिन्न बहिर्द्रव्य अन्यके कार्यका कर्ता कैसे हो सकता है। इस विषयको स्पष्ट रूपसे समझनेके लिए समयसार मोक्ष अधिकारीकी ये सूत्रगाथाएँ द्रष्टव्य हैं बंधाणं च सहावं वियाणिओ अप्पणो सहावं च । बंधेसु जो विरज्जदि सो कम्मविमोक्खणं कुणइ ।।२९३।। जीवो कम्मं य तहा छिज्जति सलक्खहेहि णियएहिं । पण्णाछेदणएण उ छिण्णा णाणत्तमावण्णा ।।२९४।। बन्ध (राग) के स्वभावको और आत्माके स्वभावको जानकर बन्धों (रागादि भावों) से जो विरक्त होता है वह कर्म (रागादि भावों) से विरक्त हो जाता है ॥२९३॥ जीव और रागादिरूप बन्ध अपने-अपने स्वलक्षणोंके द्वारा इस प्रकार छेदे जाते हैं जिससे वे प्रज्ञारूपी छनीसे छिन्न होकर नानापनेको प्राप्त हो जाते हैं ।।२९४।। Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : २०३ नानापनेको प्राप्त हो जाते हैं इसका अर्थ है कि रागादि भावों और आत्मामें जो एकपनेकी बुद्धि थी वह दूर हो जाती है। आत्माका लक्षण ज्ञायकस्वरूप आत्माको लक्ष्य कर प्रवृत्त हुईं सहभावी और क्रमभावी पर्यायोंसे अन्तलीनपनेको प्राप्त हआ चैतन्य भाव है और बन्धका लक्षण आत्मद्रव्यमें असाधारण पसे प्राप्त हुए रागादि भाव हैं । इस प्रकार ये दोनों लक्षण भेदसे अत्यन्त भिन्न-भिन्न हैं । इनके मध्य अत्यन्तसूक्ष्म सन्धि है। उस सन्धिको समझकर जो उसमें अपनी प्रज्ञाछनीको अनन्त पुरुषार्थसे पटक कर अपने चैतन्यस्वरूप आत्मासे रागादि भावोंको जुदा करता है वह नियमसे कर्मोसे विरक्त होकर परमार्थका भागी होता है। संसार परिपाटीसे छुटनेका एकमात्र यही उपाय है । इसी तथ्यके समर्पक आत्मख्यतिके इन शब्दों पर दृष्टिपात कीजिए ...... सहजविज़म्भमाणचिच्छक्तितया यथा यथा विज्ञानघनस्वभावो भवति तथा तथास्रवेभ्यः निवर्तते । यथा यथास्रवेभ्यश्च निवर्तते तथा तथा विज्ञानघनस्वभावो भवतीति । -सा० गा० ७४। सहज बढ़ी हई चेतनारूप शक्तिपनेसे जैसे-जैसे (आत्मा) विज्ञानघन स्वभाव होता है वैसे-वैसे (वह) रागादिरूप आत्रवोंसे जुदा होता है । जैसे-जैसे आस्रवोंसे जुदा होता है वैसे-वैसे विज्ञानवन स्वभाव होता है। प्रवचनसार गाथा ४५ की तात्पर्य वृत्ति टीकाका यह वचन भी इसी अर्थको व्यक्त करता हैद्रव्यमोहोदयेऽपि सति यदि शुद्धात्मभावनाबलेन भावमोहेन न परिणमति तदा बन्धो न भवति । द्रव्य मोहके उदय रहने पर भी यदि आत्मा शुद्धआत्मा (त्रिकाली ज्ञायकस्वभाव आत्मा) की भावनाके बलसे भावमोहरूपसे परिणमन नहीं करता है तब बन्ध नहीं होता है। सातवें गुणस्थान तक क्षयोपशम सम्यग्दर्शनके कालमें भी यथासम्भव सविकल्प और निर्विकल्प दोनों अवस्थाओंमें मिथ्यादष्टिके होनेवाले कर्मोका बन्ध नहीं होता। यदि कहा जाय कि यहाँ मिथ्यादर्शन कर्मका उदय नहीं है सो यह कहना भी ठीक नहीं, क्योंकि सम्यक् प्रकृति भी मिथ्यादर्शन कर्मका ही अंश है । इतना अवश्य है कि उसमें आत्माके निश्चय सम्यग्दर्शनरूप स्वभावपर्यायके नष्ट होने में बाह्य निमित्तरूप होनेकी क्षमता नहीं है । यही कारण है कि उस समय शुद्धात्माकी भावना होने से या उसके बलसे उत्पन्न हुए निश्चय सम्यग्दर्शन आदि रूप परिणामके होनेमात्रसे सम्यक् प्रकृतिके उदय रहते हुए भी जीवके तन्निमित्तक किसी भी कर्मका बन्ध नहीं होता। इतना ही क्यों ? जब यह जीव मिथ्यात्व गुणस्थानमें भी क्षयोपशमलब्धि आदि रूप परिणामोंके सन्मुख होता है तब उसके भी मिथ्यात्व गुणस्थानमें मिथ्यादर्शन निमित्तक बहुत सी कर्म प्रकृतियोंका क्रमसे बन्धापसरण होकर बन्ध व्युच्छित्ति हो जाती है और जब तक यह जीव ऐसी योग्यता सम्पन्न रहता है उनका बन्ध नहीं होता और करणलब्धिका बल पाकर मिथ्यादर्शन प्रकृतिका उदय-उदीरणा भी क्रमसे हीन बल होती हुई मिथ्यात्व गुणस्थानके अन्तिम समय तक ही उसका उत्तरोत्तर अत्यन्त क्षीण उदय होता जाता है । यह सब क्या है ? क्या यह अपने त्रिकाली ज्ञायक स्वभाव आत्माकी भावनाका बल नहीं है ? एकमात्र उसीका बल है जिससे यह जीव दृष्टिमुक्त हो जाता है । सातवें गुणस्थानसे लेकर आधे भी द्रव्य मोहका उदय रहते हुए भी यह जीव शुद्धात्माकी भावनाके बलसे क्रमसे कर्मोकी न केवल हानि करता है किन्तु उसकी यथासम्भव प्रकृतियोंका क्रमसे उपशम और क्षय भी करता जाता है। इस भावनामें ऐसी कोई अपूर्व शक्ति है जिसके बलसे यह जीव क्रमसे संसारका अन्त करने में समर्थ होता है । वस्तुतः आचार्य जयसेन शुद्धा मभावनाकी इसी सामर्थ्यको हृदयंगम कर उक्त प्रकारसे उसकी प्ररूपणा करने में समर्थ हुए। एक बात और है जो प्रकृतमें मुख्य है। और वह यह कि स्वभाव प्राप्त जीवके जब जितनी विशुद्धि प्राप्त होती है वह किसी भी कर्मबन्धका हेतु नहीं है। प्रकृतमें आचार्य जयसेनने 'द्रव्यमोहादये सत्यपि' Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ इत्यादि वचन इसी अभिप्रायको व्यक्त करनेके लिए दिया है यह तथ्य है। प्रकृतमें द्रव्यमोह पदसे सामान्य मोहनीय कर्मका ग्रहण किया है। पहले जो कुछ भी लिख आये हैं उसमें भी यही दृष्टि है। इस प्रकार प्रत्येक कार्यके प्रति उपादान-उपादेय भावसे अन्तर्व्याप्तिका और निमित्त-नैमित्तिक भावसे बहिातिका समर्थन होने पर भी बहुतसे व्यवहारैकान्तवादी इन दोनोंके योगको स्वीकार न कर अपने ऐन्द्रियिक श्रुतज्ञानके बलपर वैभाविक कार्योंका अनियमसे सिद्ध होना बतलाते हैं। श्वेताम्बर सम्प्रदायने जैसे सवस्त्र मुनिमार्गका समर्थन करनेके लिए वस्त्रको परिग्रहसे पृथक् कर दिया और उसकी पुष्टिमें स्त्रीमुक्तिको आगम कह कर स्त्रीलिंग, अन्य लिंग या गृहस्थ लिंगसे मुक्तिको स्वीकार कर लिया । लगभग ठीक यही स्थिति इन व्यवहारैकान्तवादियों की है। इन्हें मात्र सम्यक् नियति को भी एकान्त कह कर उसका खण्डन करना है । इसके लिए उन्होंने यह मार्ग चुना कि जितनी स्वभाव पर्यायें हैं वे तो क्रमसे अपने-अपने समयमें ही होती हैं । पर विभाव पर्यायोंके विषयमें यह नहीं कहा जा सकता । कौन पर्याय कब होगी इसका कोई नियम नहीं किया जा सकता। ९. उक्त एकान्त मतकी पुनः समीक्षा किन्तु उनका यह कथन कैसे आगम विरुद्ध है इसकी हम संक्षेपमें कुछ आगम प्रमाण देकर पुनः समीक्षा करेंगे । स्वामी समन्तभद्रने सम्यक् देवकी परीक्षा प्रधान अपने आप्तमीमांसा ग्रन्थमें संसारी जीवोंके प्रत्येक कार्यकी अपेक्षा दैव और पुरुषार्थके युगपत् योगको गौण मुख्य भावसे कैसे स्वीकार किया है इस पर दृष्टिपात कीजिए अबुद्धिपूर्वापेक्षायामिष्टानिष्टं स्वदैवतः । बुद्धिपूर्वव्यपेक्षायामिष्टानिष्टं स्वपौरुषात् ॥९१।। अबुद्धिपूर्वक अर्थकी प्राप्तिकी विवक्षामें प्रत्येक इष्ट और अनिष्ट अर्थका सम्पादन दैवके बलसे होता है तथा बुद्धिपूर्वक अर्थकी प्राप्तिकी विवक्षामें इष्ट और अनिष्ट प्रत्येक अर्थ पुरुषार्थके बलसे प्राप्त होता है ॥९ ॥ इसकी टीका करते हुए आचार्य अकलंकदेव तथा विद्यानन्द लिखते हैं ततोऽतकितोपस्थितमनुकूलं प्रतिकूलं वा दैवकृतम् बुद्धिपूर्वापेक्षापायात्, तत्र पुरुषकारस्याप्रधानत्वात् दैवस्य प्राधान्यात् । तद्विपरीतं पौरुषापादितं, बुद्धिपूर्वाव्यपेक्षापायात्, तत्र देवस्य गुणत्वात् पौरुषस्य प्रधानत्वात् । इसलिये बिना कल्पना या विचारके अनुकूल या प्रतिकूल जो वस्तु प्राप्त होती है उसकी प्राप्ति देवसे होती है, क्योंकि बुद्धिपूर्वक वस्तु प्राप्तिकी अपेक्षा न होने से वहाँ पुरुषार्थ गौण है और दैव मुख्य है । उससे विपरीत अनुकूल या प्रतिकूल वस्तुकी प्राप्ति पुरुषार्थसे होती है, क्योंकि बुद्धि पूर्वक वस्तुकी प्राप्तिकी विवक्षाका अभाव नहीं होनेसे वहाँ दैव गौण है और पुरुषार्थ मुख्य है । यहाँ दैव और पुरुषार्थके स्वरूप पर प्रकाश डालते हुए आचार्य भट्टाकलंकदेव लिखते हैंयोग्यता कर्म पूर्वं वा दैवमुभयदृष्टम् । पौरुषं पुनरिह चेष्टितं दृष्टम् । वस्तुगत योग्यता और पूर्व कर्म दैव कहलाता है। ये दोनों इन्द्रियगम्य नहीं हैं, तथा ऐहिक मन, वचन और कायके व्यापारका नाम पुरुषार्थ है जो इन्द्रियगम्य है । यहाँ आचार्यदेवने तीन बातोंका निर्देश किया है, जिसे इष्ट या अनिष्ट वस्तुकी प्राप्ति होती है तद्गत योग्यता, तथा जिसे उक्त वस्तुकी प्राप्ति होती है उसका पुरुषार्थ और पूर्वमें सम्पादित किया गया कर्म साथ Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : २०५ ही योग्यता शब्दसे जिस इष्ट या अनिष्ट वस्तुकी प्राप्ति होती है तद्गत योग्यता भी ली जा सकती है, क्योंकि प्रत्येक वस्तु या कार्यका सम्पादन स्वकालमें ही होता है ऐसा नियम है। इसका सप्रमाण उल्लेख इसी अध्यायमें पहले ही कर आये हैं। तथा निश्चय उपादानका अनुगत होनेसे पुरुषार्थसे निश्चय उपादानका भी ग्रहण हो जाता है, क्योंकि पुराकृत कर्मका उदयादि और संसारी प्राणीकी ऐहिक चेष्टाएँ उसीके अनुसार होती हैं। अब आप थोड़ा करणानुयोगकी दृष्टिने भी विचार कीजिये । दर्शन मोहनीयके करणोपशमको निमित्त कर होनेवाले आत्मविशद्धिरूप निश्चय सम्यग्दर्शनके होनेकी प्रक्रिया यह है कि अनिवृत्तिकरणके बहुभाग बीतने पर यह जीव दर्शन मोहनीयकी एक, दो या तीनों प्रकृतियोंका अन्तरकरण उपशम करता है। उसके बाद प्रथम स्थितिको प्राप्त द्रव्यका उसके काल तक उदयपूर्वक उसकी निर्जरा करता है। उदय समाप्त होने पर जिस समय उदयका अभाव है उसी समय यह जीव शुद्धात्माकी भावनाके बलसे निश्चय उपादानके अनुसार निश्चय सम्यग्दर्शनको प्राप्त करता है तभी दर्शनमोहनीयके अन्तरकरण उपशम में निश्चय सम्यग्दर्शनकी उत्पत्तिकी अपेक्षा निमित्तपनेका व्यवहार होता है। इस उद्धरणसे मुख्यतया दो तथ्योंपर स्पष्ट प्रकाश पड़ता है । प्रथम तो यह कि जब यह जीव निश्चय उपादानके अनुसार अपने आध्यात्मिक पुरुषार्थके बलसे निश्चय सम्यग्दर्शनको प्राप्त हुआ उसी समय दर्शन मोहनीयके अन्तरकरण उपशममें निमित्तपनेका व्यवहार होता है। इसीलिये जो व्यवहारैकान्तवादी यह मानते हैं कि विवक्षित कार्यका अव्यवहित पूर्व समयवर्ती निश्चय उपादान अनेक योग्यतावाला होता है उनके उस मतका निरसन हो जाता है। तत्वार्थश्लोकवातिकमें निश्चय सम्यग्दर्शन स्वकालमें ही प्राप्त होता है, इसके लिये वहाँ कहा है प्रत्यासन्नमुक्तीनामेव भव्यानां दर्शनमोहप्रतिपक्षः संपद्यते नान्येषाम्, कदाचित्कारणासन्निधानात् । तत्त्वार्थश्लोकवा, ९१ । जिनको मोक्ष प्राप्त होना अति सन्निकट है ऐसे भव्य जीवोंके ही मिथ्यादर्शन आदिके प्रतिपक्षभूत निश्चय सम्यग्दर्शन आदिकी प्राप्ति होती है, अन्य भव्योंके नहीं, क्योंकि अन्तरंग-बहिरंग कारणोंका सन्निधान कदाचित् होता हो ऐसा नहीं है, क्योंकि निश्चय सम्यग्दर्शनके पूर्व अव्यवहित पूर्व जो पर्याय युक्त जीव होता है उसीमें ऐसी योग्यता होती है कि उसके अव्यवहित उत्तर समयमें निश्चय सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति होना निश्चित है । यथा निश्चयनयाश्रयणे तु यदनन्तरं मोक्षोत्पादस्तदेव मुख्यं मोक्षस्य कारणमयोगिकेवलिचरमसमयवति रत्नत्रयमिति ।-त० श्लो० पृ० ७१ । निश्चयनयका आश्रय करने पर तो जिसके बाद मोक्षकी उत्पत्ति होती है वही अयोगिकेवलीका अन्तिम समयवर्ती रत्नत्रय परिणाम मोक्षका मुख्य कारण है । पर्याय विशेष युक्त द्रव्यमें निश्चय उपादानताका समर्थन करते हुए उसी परमागमके इन वचन पर भी दृष्टिपात कीजिये ते चारित्रस्योपादानम्, पर्यायविशेषात्मकस्य द्रव्यस्योपादानत्वप्रतीतेः । वे निश्चय सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान निश्चय चारित्रके उपादान कारण हैं, क्योंकि पर्यायविशेषसहित द्रव्यमें ही उपदानपनेकी प्रतीति होती है । ऐसा नियम है कि निश्चय सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञानके साथ बारहवें गुणस्थानके प्रथम समयमें ही क्षायिक Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ व्यवहारके योग्य निश्चय चारित्रकी प्राप्ति हो जाती है, फिर भी यह जीव मोक्षको प्राप्त नहीं होता । यह एक प्रश्न है इसका समाधान करते हुए आचार्य विद्यानन्द कहते हैं क्षीणकषायप्रथमसमये तदाविर्भावप्रसक्तिरिति न वाच्या, कालविशेषस्य सहकारिकारणापेक्षस्य तदा विरहात् । -श्लो० वा० पृ. ७१ । शंका-क्षीणकषायके प्रथम समयमें मोक्षोत्पादका प्रसंग प्राप्त नहीं होता है ? समाधान-ऐसा नहीं करना चाहिए, क्योंकि (व्यवहारनयसे) अपेक्षित काल विशेषका वहाँ अभाव है। यह ऐसा उल्लेख है जिससे अनेक तथ्योंपर प्रकाश पड़ता है। (१) नियत पर्यायका नियत काल ही व्यवहार हेतू होता है। (२) प्रत्येक द्रव्य नियत पर्यायकी स्थितिमें पहँचने पर ही वह विवक्षित कार्यका निश्चय उपादान होता है। (३) सापेक्ष कथन व्यवहारनयका विषय है, इसलिए कालको सहकारी कारण कहना असद्भत व्यवहारनयसे ही घटित होता है। (४) निश्चयनय परनिक्षेप ही होता है। १०. शंका-समाधान शंका-प्रकृतमें आप उपादानके पूर्व निश्चय विशेषण क्यों लगाते हैं । समाधान-प्रत्येक द्रव्यमें अपना-अपना कार्य करनेकी योग्यता होती है पर प्रत्येक द्रव्य पर्यायसे व्यतिरिक्त स्वतन्त्र नहीं पाया जाता और पर्याय काल द्रव्यके जितने समय होते हैं उतनी ही होती हैं, इसलिए निश्चयसे किस पर्यायके बाद अगले समयकी कौन पर्याय होगी इसका नियमन प्रत्येक समयकी पर्यायके आधार पर ही होता रहता है । व्यवहारसे काल द्रव्यके विवक्षित समयके आधार पर भी उसका परिगमन किया जा सकता है । अतः १२ वें गुणस्थानके प्रथम समयसे चारित्र एक प्रकारका होनेसे यहाँ कालकी मुख्यतासे उक्त कथन किया गया है। यही कारण है कि प्रत्येक द्रव्यमें अपने-अपने कार्यरूप परिणमनेकी योग्यताके रहते हए भी कार्यकारण परम्परामें आयवहित पूर्व पर्याय युक्त द्रव्यको ही परमार्थसे उपादान स्वीकार कर उससे नियत कार्यकी उत्पत्ति स्वीकार की गई है । विवक्षित उपादानके पूर्व निश्चय विशेषण लगानेका यही कारण है। शंका-योग्यता क्या वस्तु है ? समाधान-समाधान यह है योग्यता हि कारणस्य कार्योत्पादनशक्तिः । कार्य हि कारणजनत्वशक्तिस्तस्याः प्रतिनियमः। शालिबीजांकुरयोः भिन्नकालत्वाविशेषेऽपि शालिबीजस्येति कथ्यते । - श्लो० वा० गा० ७८ । कारणकी कार्यको उत्पादन करनेकी शक्तिका नाम योग्यता है और कार्य कारणपूर्वक जन्यत्व-शक्तिवाला होता है । इसीका नाम योग्यताका प्रतिनियम है। जैसे शालि बीज और अंकुरमें भिन्न कालपनेरूप विशेष होने पर भी शालि-बीजमें ही शालि अंकुरके उत्पन्न करनेकी शक्ति है, यव बीजमें नहीं । वैसे ही य बीजमें ही यव-अंकुरको उत्पन्न करनेकी शक्ति है, शालि-बीजमें नहीं यह कहा जाता है। प्रकृतमें शालि-बीजमें ही शालि-अंकुरके उत्पन्न करनेकी योग्यता होने पर भी कौन शालि बीज किस समय अपने अंकुरको जन्म दे इसका नियम है। भले ही निश्चय उपादान और उसके अंकुरमें समय भेद हो पर शालि-बीजके उस भमिकामें पहँचने पर उससे नियममें अंकूरकी उत्पत्ति होगी ही ऐसा प्रतिनियम है । यहाँ मिटी आदिका अन्वय-व्यतिरेकके आधार पर कालप्रत्यासत्ति होनेसे सदभाव रहेगा ही इसमें सन्देह नहीं पर मिट्टी आदि व्यवहारसे निमित्तमात्र ही हैं, वे परमार्थसे अंकुरके उत्पन्न करनेकी क्षमता नहीं रखते यह भी सुनिश्चित है। इसी तथ्यका स्पष्टीकरण तत्त्वार्थवार्तिकमें इन शब्दोंमें किया है Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : २०७ यथा मृदः स्वयमन्तर्घटभवनपरिणामाभिमुख्ये दण्ड-चक्र-पौरुषेयप्रयत्नादि निमित्तमात्रं भवति । जैसे मिट्टीके स्वयं भीतरसे घटपरिणामके अभिमुख होने पर दण्ड, चक्र और पुरुष प्रयत्न आदि निमित्तमात्र होते हैं। इस उल्लेखसे हम जानते हैं कि विवक्षित कार्यको जन्म देने की शक्ति निश्चय उपादनमें ही होती है, अन्य बाह्य पदार्थ असद्भूत व्यवहारसे ही निमित्तमात्र होते है। उनमें निश्चय उपादानके कार्यको जन्म देनेकी योग्यता या भवितव्य तो नहीं ही होती, पर उनमें व्यवहार-हेतुता वश ऐसा व्यवहार कर लिया जाता है। इस प्रकार इतने विवेचनसे यह सिद्ध होता है कि व्यवहार-निश्चयका योग सुनिश्चितरूपसे होता रहता है। इनमें अनियम मानना एकान्त है। शंका-निश्चय सम्यग्दर्शनके विषय में कुछ लोग कहते हैं कि सातवें गणस्थानसे होता है । कछ ग्यारहवें गुणस्थानसे मानते हैं और कुछ तेरहवें गुणस्थानसे भी मानते हैं। पर आप तो चौथे गुणस्थानसे ही उसे स्वीकार करते हैं सो इस विषयमें आगम क्या है ? समाधान-(१) सर्व प्रथम हम श्री परमागम समयसार शास्त्रको ही लेते हैं। शुद्धनयकी व्याख्या करते हुए वहाँ कहा है जो पस्सदि अप्पाणं अबद्ध-पुढें अणण्णयं णियदं । अविसेसमसंजुत्तं तं सुद्धणयं वियाणीहि ॥१४|| जो आत्माको अबद्ध अस्पृष्ट अनन्य, नियत, अविशेष और असंयुक्त अनुभवता है उस आत्मको शुद्धनय जानो ।।१४।। आत्मख्याति टीकामें इसकी व्याख्या करते हए लिखा है यः खल्वबद्धस्पृष्टस्यानन्यस्य नियतस्याविशेषस्यासंयुक्तस्य चात्मनोऽनुभूतिः स शुद्ध नयः । सा त्वनुभूतिरात्मेत्यात्मक एव प्रद्योतते । परमार्थसे अबद्ध, अस्पृष्ट, अनन्य, नियत, अविशेष और असंयुक्त आत्माकी जो अनुभूति होती है वह शुद्धनय है और वह अनुभति आत्मा ही है इस प्रकार एक आत्मा ही प्रकृष्टरूपसे अनुभवमें आता है। पहले इसी शास्त्रकी छठवीं गाथाकी टीकाम त्रिकाली स्वभावभूत आत्माकी व्याख्या करते हए बतलाया है-आत्मा स्वतःसिद्ध होनेसे अनादि-अनन्त है, सतत उद्योतस्वरूप है विशद ज्योति है और स्वरूपसे ज्ञायक है। इस प्रकारके आत्माकी अनुभूतिको प्रकृतमें सम्यग्दर्शन कहा है। इतना ही नहीं, उसे आत्मा ही कहा है। ऐसा कहनेका कारण है, वह यह कि ऐसी निरन्तर भावना करनेसे करणानुयो गके अनुसार जिसके दर्शन मोहनीयको तीन और अनन्तानुबन्धी चार इन सात प्रकृतियोंका उपशम, क्षय या क्षयोपशम हो गया है, वह श्रद्धामें उपचार व्यवहार और भेदव्यवहार दोनोंसे मुक्त हो जाता है। तथा उसके मुख्यरूपसे उक्त प्रकारके एक आत्माकी भावनाको छोड़कर अन्य कोई विकल्प नहीं रहता है । यहाँ उक्त प्रकारको अनुभूति और आत्मामें अभेद होनेसे उक्त स्वानुभूतिको ही आत्मा कहा है यह इस कथनका तात्पर्य है । संसारी आत्मा ऐसो दृष्टि मुक्तिस्वरूप भावनाको अविरत सम्यग्दृष्टि चतुर्थ गुणस्थानमें हो प्राप्त हो जाता है, इसीलिए आगमके रहस्यको स्वीकार करनेवाले चतुर्थ गुणस्थानसे ही निश्चय सम्बग्दर्शनको स्वीकारते हैं। यहाँ उसके होनेवाली मन, वचन और कायकी प्रवृत्तिरूप सविकल्प अवस्थाको ही जिनागममें प्राक् पदवी शब्दसे सम्बोधित किया गया है। सविकल्प अवस्थामें जबतक उसके ऐसा व्यवहार बना रहता है, जब तक निश्चय सम्यग्दर्शनके साथ बने रहनेसे आत्माका पतन नहीं होता, क्योंकि ऐसे व्यवहारके विरुद्ध जब तक उत्कृष्ट संक्लेश परिणाम नहीं होता तब तक Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ वह व्यवहार, सविकल्प अवस्था में निश्चय सम्यग्दर्शन स्वरूप आत्मशुद्धिका अविनाभावी है यह प्रकृतमें व्यवहार नयके हस्तावलम्बनका तात्पर्य है । वह व्यवहारनयके विषयमें आँख मीच कर सर्वथा गड़गप्प हो जाता है ऐसा उसका तात्पर्य नहीं है। यह तो ठीक है कि समयसार परमागम गुणस्थान आदिके भेदसे मोक्षमार्गका स्वरूप निर्देश नहीं किया गया है । अतः उक्त तथ्यके समर्थनमें हम आगमकी सप्रमाण चर्चा कर लेना आवश्यक समझते हैं इसके पहले हम सर्वार्थसिद्धिको ही लेते हैं तद् द्विविधम्, सराग-वीतरागविषयभेदात् । प्रशमसंवेगानुकम्पास्तिक्याद्यभिव्यक्तिलक्षणं प्रथम् । आत्मविशुद्धिमात्रमितरत् । वह सम्यग्दर्शन दो प्रकारका है--सराग सम्यग्दर्शन और वीतराग सम्यग्दर्शन । प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य आदिकी अभिव्यक्ति लक्षणवाला प्रथम सम्यग्दर्शन है और आत्माकी विशुद्धिमात्र दूसरा सम्यग्दर्शन है। सूत्र १-२ । तत्त्वार्थवातिकमें भी उक्त प्रकारसे सम्यग्दर्शनके दो भेद और लक्षण निबद्ध किये गये हैं । उनकी विशेष व्याख्या करते हुए लिखा है रागादीनामनुद्रेकः प्रशमः, संसाराद् भीरुता संवेगः, सर्वप्राणिषु मैत्री अनुकम्पा, जीवादयोऽर्थाः यथास्वं भावैः सन्तीति मतिरास्तिक्यम् ।..""सप्तानां कर्मप्रकृतीनां आत्यन्तिके पगमे सत्यात्मविशुद्धिमात्रमितरत् वीतरागसम्यक्त्वमिप्युच्यते ।-सू० १-२।। रागादिकका विशेषरूपसे प्रकट नहीं होना प्रशम है, संसारसे डरना संवेग है, प्राणीमात्रमें मैत्रीभाव अनुकम्पा है और जीवादि पदार्थोंका जैसा स्वरूप है वे उसी रूप हैं ऐसी मतिका होना आस्तिक्य है".""सात कर्म प्रकृतियोंके अत्यन्त अभाव होने पर जो आत्मामें विशुद्धि विशेष प्राप्त होती है वह दूसरा वीतराग सम्यग्दर्शन कहा जाता है। सूत्र १-२ । तत्त्वार्थवाति कमें इस उल्लेखको देखकर कितने ही विद्वान् क्षायिक सम्यग्दर्शनरूपसे प्राप्त हुई आत्मविद्धिको ही वीतराग सम्यग्दर्शन स्वीकार करते हैं । वे सम्यग्दर्शनके व्यवहारसे प्रतिबन्धक मिथ्यात्व आदि सात प्रकतियोंके उपशम और क्षयोपशमसे प्राप्त हुई आत्म विशुद्धिकी किस सम्यग्दर्शनमें परिगणना करते है वे ही जानें । अस्तु, अब यहाँ वस्तु-स्थिति क्या है इसकी मीमांसा करनेके लिए सर्वप्रथम तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकमें क्या कहा है इस पर विचार करते हैं। उसमें भी सर्वप्रथम प्रशमादिके स्वरूपका निर्देश करते हुए कहा है तत्रानन्तानुबन्धीनां रागादीनां मिथ्यात्व-सम्य ग्मिथ्यात्वयोश्चानुद्रेकः प्रशमः । द्रव्य-क्षेत्र-कालभव-भावपरिवर्तनरूपात् संसाराद् भीरुता संवेगः । त्रसस्थावरेषु प्राणिषु दयानुकम्पा । जीवादितत्त्वार्थेषु युक्त्यागमाभ्यामविरुद्धेषु याथात्म्योपगमनमास्तिक्यम् । एतानि प्रत्येक समुदितानि वा स्वस्मिन् स्वसंविदितानि परत्र काय-वाग्व्यवहारविशेषलिंगानुमितानि सरागसम्यग्दर्शनं ज्ञापयन्ति । -पृ० ८६ ।। वहाँ अनन्तानुबन्धीरूप रागादिकके तथा मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्वके अनुद्रेकको प्रशम कहते हैं । द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव इन पाँच प्रकारके परिवर्तनरूप संसारसे भीरुताको संवेग कहते हैं । त्रस और स्थावर प्राणियोंमें दयाका होना अनुकम्पा है। तथा युक्ति और आगमसे अविरुद्ध जीवादि पदार्थोंमें यथार्थपनेको प्राप्त होना आस्तिक्य है । ये प्रत्येक मिलकर स्वयंमें स्वसंविदित होकर तथा अन्य जीव में शरीर और वचनके व्यवहार विशेष प हेतुसे अनुमित होकर सराग सम्यग्दर्शनको ज्ञापित करते हैं । Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थखण्ड : २०९ आगे तत्त्वार्थश्रद्धानरूप सम्यग्दर्शनमें और प्रशमादिकमें अन्तरको स्पष्ट करते हुए लिखा हैननु प्रशमादयो यदि स्वस्मिन् स्वसंवेद्याः श्रद्धानमपि तत्त्वार्थानां किन्न स्वसंवेद्यम् यतस्तेभ्योऽनुमीयते । स्वसंवेद्यत्वाविशेषेऽपि तैस्तदनुमीयते न पुनस्ते तस्मादिति कः श्रद्दधीतान्यत्र परीक्षकादिति चेत् ? नैतत्सारम् दर्शनमोहोपशमा दविशिष्टात्मस्वरूपस्य तत्त्वार्थश्रद्धानस्य स्वसंवेद्यत्वानिश्चयात् । स्वसंवेद्यं पुनरास्तिक्यं तदभिव्यंजकं प्रशम-संवेगानुकम्पावत् कथंचित्ततो भिन्नम्, तत्फलत्वात् । तत एव फलतद्वतोरभेदविवक्षायामास्थिक्यमेव तत्त्वार्थश्रद्धानमिति, तस्य तद्वत्प्रत्यक्ष सिद्धत्वात्तदनुमेयत्वमपि न विरुद्धयते । मतान्तरापेक्षया च स्वसंविदतेऽपि तत्त्वार्थश्रद्धाने विप्रतिपत्तिसद्भावात् तन्निकरणाय तत्र प्रशमादिलिंगादनुमाने दोषाभावः सम्यग्ज्ञानमेव हि सम्यग्दर्शनमिति हि चिद्विप्रवदन्ते तान् प्रति ज्ञानात् भेदेन दर्शनं प्रशमादिभिः कार्यविशेषैः प्रकाश्यते ||८६|| शंका - प्रशमादिक यदि स्वयंमें स्वसंवेद्य हैं तो जीवादि पदार्थोंका श्रद्धान स्वसंवेद्य क्यों नहीं है, जिससे कि प्रशमादिकसे पदार्थोंके श्रद्धानरूप सम्यग्दर्शनका अनुमान किया जाता है, क्योंकि स्वसंवेद्यपनेकी अपेक्षा भेद न होनेपर भी प्रशमादिकके द्वारा तत्त्वार्थ श्रद्धानरूप सम्यग्दर्शनका अनुमान किया जाता है, परन्तु तत्त्वार्थ श्रद्धानरूप सम्यग्दर्शनके द्वारा प्रशमादिकका अनुमान नहीं किया जाता, परीक्षकको छोड़कर और कौन ऐसा श्रद्धान करेगा ? समाधान -- यह कहना सारभूत नहीं है, क्योंकि दर्शनमोहादिके उपशमादियुक्त आत्मश्रद्धानरूप सम्यग्दर्शनके स्वर वैद्य पनेका निश्चय नहीं होता । परन्तु आस्तिक्य स्वसंवेद्य है जो प्रशम, संवेग और अनुकम्पा - के समान तत्त्वार्थ श्रद्धानरूप सम्यग्दर्शनका अभिव्यंजक है, इसलिए तत्त्वार्थं श्रद्धानरूप सम्यग्दर्शनसे कथंचित् भिन्न है, क्योंकि वह तत्त्वार्थ श्रद्धानरूप सम्यग्दर्शनका फल है । इसलिए फल और फलवान् में कथंचित् अभेद विवक्षा में आस्तिक्य ही तत्त्वार्थ श्रद्धान है । यतः सम्यग्दर्शन आस्तिक्य के कारण प्रत्यक्षसिद्ध होनेसे सम्यग्दर्शनको अनुमानका विषय माननेमें भी कोई विरोध नहीं है । दूसरे मतकी अपेक्षा तो यद्यपि तत्त्वार्थ श्रद्धानरूप सम्यग्दर्शन स्वसंवेद्य है ऐसा होनेपर भी विवादका सद्भाव होनेसे उसका निराकरण करनेके लिए सम्यग्दर्शनका प्रशमादिकके द्वारा अनुमान किया जाता है ऐसा माननेमें कोई विरोध नहीं है । कितने ही व्यक्ति सम्यग्ज्ञान ही सम्यग्दर्शन है ऐसा विवाद करते हैं उनके प्रति सम्यग्ज्ञानसे सम्यग्दर्शन में भेद है इस बातको सम्यग्दर्शन के कार्यरूप प्रशमादिकके द्वारा प्रकट की जाती है । यद्यपि सरागियों में सम्यग्दर्शनके कार्यरूप प्रशमादिक तो होते हैं परन्तु वीतरागियों में कायादिकके व्यापार विशेषके अभाव में वे नहीं दृष्टिगोचर होते हैं ऐसा प्रश्न होनेपर आचार्य उत्तर देते हुए कहते हैंसर्वेषु सरागेषु सद्दर्शनं प्रशमादिभिरनुमीयते इत्यनभिधानात् । यथासम्भवसरागेषु वीतरागेषु च सद्दर्शनस्य तदनुमेयत्वमात्मविशुद्धिमात्रत्वं चेत्यभिहितत्वात् । समस्त सम्यग्दृष्टियोंमें सम्यग्दर्शन प्रशमादिकके द्वारा अनुमित होता है ऐसा हमने नहीं कहा है । किन्तु यथासम्भव सराग और वीतराग जीवोंमें सम्यग्दर्शन प्रशमादिक के द्वारा अनुमित होता है और वह आत्मविशुद्धिमात्र है ऐसा हमने कहा है । परमात्मप्रकाश टीका में सराग सम्यग्दर्शन और व्यवहार सम्यग्दर्शन एक ही हैं इसका स्पष्टीकरण करते हुए लिखा है- प्रशम-संवेगानुकम्पास्तिक्याभिव्यक्तिलक्षणं सरागसम्यववं भण्यते, तदेव व्यवहारसम्यक्त्वमिति । तस्य विषयभूतानि षड्द्रव्यणीति । पृ० १४३ | २७ Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्यकी अभिव्यक्ति लक्षणवाला सरागसम्यक्त्व कहा जाता है । वही व्यवहार सम्यक्त्व है। इसके विषय छह द्रव्य हैं। इतने विवेचनसे ये तथ्य फलित होते हैं (१) निश्चय सम्यग्दर्शनकी उत्पत्ति ज्ञायक स्वरूप आत्माके उपयोगके विषय होनेपर तत्स्वरूप एकाकार परिणतिरूप स्वानुभवके कालमें ही होती है। (२) ऐसी अवस्थाके प्रथम समयसे लेकर दर्शन मोहनीयकी यथासम्भव प्रकृतियोंके अन्तरकरण उपशम आदि तथा अनन्तानुबन्धीके उदयाभावरूप उपशम या विसंयोजनारूप क्षयमें व्यवहार हेतुता घटित होती है। यह व्यवहार हेतुता आत्मविशुद्धिरूप निश्चय सम्यग्दर्शनके काल तक सतत बनी रहती है। (३) अव्यवहित पूर्व समयवर्ती द्रव्य उपादान और अव्यवहित उत्तर समयवर्ती द्रव्य कार्य यह क्रम भी सतत चलता रहता है। मात्र सम्यग्दर्शनके कालके भीतर ज्ञायक आत्मलक्षी परिणामकी ओर झुकावका विच्छेद कभी नहीं होता। इतनी विशेषता है कि सविकल्प दशामें उस ओरका झुकाव बना रहता है और निर्विकल्प दशामें उपयोग ज्ञायक स्वरूप आत्मासे एकाकार होकर उपयुक्त रहता है । (४) आत्मविशुद्धिरूप निश्चय सम्यग्दर्शनके वे प्रशमादिक व्यवहारसे स्वीकार किये गये हैं । इसीसे प्रशमादिक भाव उक्त सम्यग्दर्शनके व्यवहारसे निमित्त हैं। कारण कि इन द्वारा निश्चयसम्यग्दर्शनके अस्तित्व की सूचना मिलती है । एक अपेक्षा ये ज्ञापक निमित्त भी हैं। (५) उक्त कथनसे ज्ञात होता है कि किन्हीं सरागी जीवोंमें ज्ञान और वैराग्य शक्ति व्यक्तरूपसे दृष्टिगोचर होती है और किन्हीं में वह व्यक्तरूपसे दृष्टिगोचर नहीं होती। ज्ञान और वैराग्य शक्तिका योग सब सम्यग्दृष्टियोंके होता ही है इतना अवश्य है।। (६) आस्तिक्य सम्यग्ज्ञानका भेदविशेष है। इसलिए एक आत्मापनेकी अपेक्षा सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानमें अभेद करके अस्तिक्यभावको भी यहाँ सम्यग्दर्शन कहा गया है । __ आत्मविशुद्धिरूप निश्चय सम्यग्दर्शन तो है, परन्तु चाहे यह जीव सरागी भले ही क्यों न हो, किसी किसीके उसका संवेग आदिरूप व्यवहार नहीं होता यह तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकके उक्त उल्लेखसे स्पष्ट ज्ञात होता है। इससे मालूम पड़ता है कि जीवकी प्रत्येक पर्यायका मूल कारण उपादानका होना पर्याप्त है। उसके साथ यदि पर वस्तुके प्रति ममकार और अहंकारके रूपमें उपयोग परिणाम रहता है तो संसारकी सृष्टि होती है और ज्ञायकस्वरूप आत्माको विषय कर उपयोग परिणाम होता है तो मोक्ष जानेके मार्गका द्वार खुलकर उसपर यह जीव चलने लगता है। प्रत्येक पर्यायका कालविशेष व्यवहार निमित्त है ऐसा एकान्त नियम है । अन्य बाह्य संयोग बनो या न बनो । यदि बाह्य संयोग बनता है तो वह भी स्वकालमें ही बनता है। कभी भी किसी पदार्थका संयोग हो जाय ऐसा नहीं है । इसी तथ्यको स्पष्ट करते हुए तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकमें यह वचन आया है प्रत्यासन्नमुक्तीनामेव भव्यानां दर्शनमोहप्रतिपक्षः सम्पद्यते नान्येषाम्, कदाचित्कारणासन्निधानात् ॥११॥ जिनका मुक्ति प्राप्त करना अति सन्निकट है ऐसे भव्य जीवोंको ही दर्शनमोहके प्रतिपक्षका लाभ होता है, अन्य जीवोंको नहीं, क्योंकि कदाचित् अन्तरंग और बाह्य साधनोंका सन्निधान नहीं होता। . ऐसा नियम है कि सभी कार्य बाह्य संयोगरूप निमित्तोंके अनुसार ही होते है ऐसा न होकर उनके होनेमें निश्चय उपादानरूप अन्तरंग कारण ही मुख्य है । यथा Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : २११} ण च कज्जं कारणाणुसारी चेव इति णियमो अत्थि, अन्तरंगकारणावेक्खाए पवत्तस्स कज्जस्स बहिरंगकारणाणुसारित्तणियमाणुववत्तीदो । -धवला पु० १२, पृ० ८१ । प्रत्येक कार्य बाह्य कारण के अनुसार ही होता है ऐसा नियम नहीं है, क्योंकि अन्तरंग कारणकी अपेक्षा प्रवृत्त हुए कार्योंका बहिरंग कारगके अनुसार प्रवृत्त होनेका नियम नहीं बन सकता। पाँच परिवर्तनोंमेंसे भाव परिवर्तनके स्वरूपपर दृष्टिपात करनेसे भी यही सिद्ध होता है कि प्रत्येक कार्यमें उसका अन्तरंग कारण ही मुख्य है । यथा पंचेन्द्रियः संज्ञी पर्याप्तको मिथ्यादृष्टिः कश्चिज्जीवः, स सर्वजघन्यां स्वयोग्यां ज्ञानावरणप्रकृतेः स्थितिमन्तः कोटीकोटीसंज्ञकामापद्यते । तस्य कषायाध्यवसायस्थानान्यसंख्येयलोव प्रमितानि षट्स्थानपतितानि तत्स्थितियोग्यानि भवन्ति । तत्र सर्वजघन्यकषायाध्यवसायस्थाननिमित्तान्यनुभागाध्यवसायस्थानान्यसंख्येयलोकप्रमितानि भवन्ति । एवं सर्वजघन्यां स्थिति सर्वजघन्यं कसायाध्यवसायस्थानं सर्वजघन्यमेवानुभागाध्यवसायस्थानमास्कन्दतस्तद्योग्यं सर्वजघन्यं योगस्थानं भवति । तेषामेव स्थिति-कषायानुभागस्थानानां द्वितीयमसंख्येयभागवृद्धियुक्तं योगस्थानं भवति । एवं च तृतीयादिषु चतुःस्थानपतितानि श्रेण्यसंख्येयभागप्रमितानि योगस्थानानि भवन्ति । तथा च तामेव स्थिति तदेव कषायाध्यवसायस्थानं च प्रतिपद्यमानस्य द्वितोयमनुभवाध्यवसायस्थानं भवति । तस्य च योगस्थानानि पूर्ववद्वेदितव्यानि । एवं तृतीयादिष्वपि अनुभवाध्यवसायस्थानेषु आ असंख्येयलोकपरिसमाप्ते । एवं तामेव स्थितिमापद्यमानस्य द्विती कषायाध्यवसायस्थानं भवति । तस्याप्यनुभवाध्यवसायस्थानानि योगस्थानानि च पूर्ववद्वेदितव्यानि । एवं तृतीयादिष्वपि कषायाध्यवसायस्थानेषु आ असंख्ययलोकपरिसमाप्तेर्वृद्धिक्रमो वेदितव्यः । एवं उक्तायाः अघन्यायाः स्थितेस्त्रिशत्सागरोपमकोटीकोटीपरिसमाप्तायाः कषायादिस्थानानि वेदितव्यानि । पंचेन्द्रिय संज्ञी पर्याप्तक मिथ्यादृष्टि कोई एक जीव ज्ञानावरण प्रकृतिको सबसे जघन्य अपने यो य अन्तःकोटाकोटिप्रमाण स्थितिको बाँधता है। उसके उस स्थितिके योग्य षट्स्थानपतित असंख्यात लोक प्रमाण कषाय अध्यवसायस्थान होते है। और सबसे जघन्य इस कषायाध्यवसायस्थानके निमित्तरूप असंख्यात लोकप्रमाण अनुभागाध्यवसायस्थान होते हैं। इस प्रकार सबसे जघन्य स्थिति, सबसे जघन्य कषायाध्यवसायस्थान और सबसे जघन्य अनुभागाध्यवसायस्थानको प्राप्त हुए इस जीवके तद्योग्य सबसे जघन्य योगस्थान होता है । तत्पश्चात् स्थिति, कषायाध्यवसायस्थान और अनुभागाध्यवस्थायस्थानके जघन्य रहते हुए दूसरा योगस्थान होता है जो असंख्यात भागवृद्धि संयुक्त होता है। इसी प्रकार तीसरे, चौथे आदि योगस्थानोंकी अपेक्षा भी समझना चाहिये। ये सब योगस्थान अनन्त भागवृद्धि और अनन्तगुण वृद्धिको छोड़कर शेष चार स्थानपतित ही होते हैं, क्योंकि सब योगस्थान संख्यामें श्रेणिके असंख्यातवें भाग प्रमाण है । तदनन्तर उसी जघन्य स्थिति और उसी जघन्य कषायाध्यवसायस्थानको प्राप्त हुए जीवके दूसरा अनुभागाध्यवसायस्थान होता है। इसके योगस्थान पहलेके समान जगश्रेणिके असंख्यातवें भागप्रमाण जानना चाहिये। इस क्रमसे असंख्यात लोक प्रमाण अनुभागाध्यवसायस्थानोंके होने तक तीसरे आदि अनुभागाध्यसायस्थानोंका यही क्रम जानना चाहिये । तत्पश्चात् उसी स्थितिको प्राप्त हुए जीवके दूसर! कषायाध्यवसानस्थान होता है। इसके भी अनुभागाध्यवसायस्थान और योगस्थान पहलेके समान जानना चाहिये । इस प्रकार असंख्यात लोक प्रमाण कषायाध्यवसायस्थानोंके होने तक तीसरे आदि कषायाध्यवसायस्थानोंमें वृद्धिका क्रम जानना चाहिये । यहाँ उक्त जघन्य Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .२१२: सिद्धान्ताचार्य पं० फलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ स्थितिके जिस प्रकार कषायादिस्थान कहे हैं उसी प्रकार एक समय अधिक उक्त जघन्य स्थितिके भी कषायादिस्थान जानने चाहिये । और इसी प्रकार एक-एक समय अधिकके क्रमसे तीस कोड़ा-कोडी सागरोपमप्रमाण उत्कृष्ट स्थिति तक प्रत्येक स्थितिके कषायादिस्थान जानने चाहिये । इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि प्रत्येक कार्यका नियामक मुख्यतासे निश्चय उपादानको मानना ही आगम सम्मत है इसमें किसी प्रकारके सन्देह के लिए स्थान नहीं है। ११ पाँच हेतुओंका समवाय । साधारण नियम यह है कि प्रत्येक कार्यकी उत्पत्तिमें ये पाँच कारण नियमसे होते हैं । स्वभाव, पुरुषार्थ, काल, नियति और कर्म । यहाँ पर स्वभावसे द्रव्यकी स्वशक्ति या नित्य उपादान लिया गया है। पुरुषार्थसे जीवका बल-वीर्य लिया गया है, कालसे स्वकाल और परकालका ग्रहण किया है, नियतिसे समर्थ उपादान या निश्चयकी मुख्यता दिखलाई गई है और कर्मसे बाह्य निमित्तका ग्रहण किया गया है । इन्हीं पाँच कारणोंको सूचित करते हुए पंडितप्रवर बनारसीदासजी नाटकसमयसार सर्वशुद्ध ज्ञानाधिकारमें कहते हैं पद सुभाव पूरब उदे निहचे उद्यम काल । पच्छपात मिथ्यात पथ सरवंगी शिवचाल ।। ४१।। गोम्मटसार कर्मकाण्डमें पाँच प्रकारके एकान्तवादियोंका कथन आता है। उसका आशय इतना ही है कि जो इनमेंसे किसी एकसे कार्यकी उत्पत्ति मानता है वह मिथ्यादृष्टि है और जो कार्यकी उत्पत्तिमें इन पाँचोंके समवायको स्वीकार करता है वह सम्यग्दृष्टि है । पण्डितप्रवर बनारसीदासजीने उक्त पद द्वारा इसी तथ्यकी पुष्टि की है। अष्टसहस्री १० २५७ में भट्टाकलंकदेवने एक श्लोक दिया है। उसका भी यही आशय है । श्लोक इस प्रकार है तादृशी जायते बुद्धिर्व्यवसायश्च तादृशः। सहायास्तादृशाः सन्ति यादृशी भवितव्यता ।। जिस जीवकी जैसी भवितव्यता (होनहार) होती है उसकी वैसी ही बुद्धि हो जाती है । वह प्रयत्न भी उसी प्रकारका करने लगता है और उसे सहायक भी उसीके अनुसार मिल जाते हैं । - इस श्लोकमें भवितव्यताको मुख्यता दी गयी है। भवितव्यता क्या है ? जीवकी समर्थ उपादान शक्तिका नाम ही तो भवितव्यता है। भवितव्यताकी व्युत्पत्ति है- भवितुं योग्यं भवितव्यम्, तस्य भावः भवितव्यता । जो होने योग्य हो उसे भवितव्य कहते हैं और उसका भाव भवितव्यता कहलाती है । जिसे हम योग्यता कहते हैं उसीका दूसरा नाम भवितव्यता है । द्रव्यकी समर्थ उपादान शक्ति कार्यरूपसे परिणत होनेके योग्य होती है इसलिए समर्थ उपादान शक्ति, भवितव्यता और योग्यता ये तीनों एक ही अर्थको सूचित करते है । कहीं-कहीं अनादि या नित्य उपादानको भी भवितव्यता या योग्यता शब्द द्वारा अभिहित किया गया है सो प्रकरणके अनुसार इसका उक्त अर्थ करनेमें भी कोई आपत्ति नहीं है, क्योंकि भवितव्यतासे उक्त दोनों अर्थ सूचित होते हैं । भव्य और अभव्यके भेदमें भवितव्यता भी इसीका नाम है। उक्त श्लोकमें भवितव्यताको प्रमुखता दी गयी है और साथमें व्यवसाय-पुरुषार्थ तथा अन्य सहायक सामग्रीका भी स्चन किया है सो इस कथन द्वारा उक्त पाँचों कारणोंका समवाय होनेपर कार्यकी सिद्धि होती है यही सूचित होता है, क्योंकि स्वकाल उपादानकी विशेषता होनेसे भवितव्यतामें गभित है ही। १. देखो गाथा ८७९ से ८८३ तक । Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : २१३ भवितव्यका समर्थन करते हुए पण्डितप्रवर टोडरमलजी मोक्षमार्ग प्रकाशक (अधिकार ३, पृष्ठ ८१) में लिखते हैं __.."सो इनकी सिद्धि होइ तौ कषाय उपशमने” दुःख दूरि होइ जाइ सुखी होइ । परन्तु इनकी सिद्धि इनके किए उपायनिके आधीन नाहीं, भवितव्यके आधीन है। जाते अनेक उपाय करते देखिये है अर सिद्धि न हो है। बहुरि उपाय बनना भी अपने आधीन नाहीं, भवितव्यके अधीन है। जातें अनेक उपाय करना विचार और एक भी उपाय न होता देखिए है । बहुरि काकतालीय न्यायकरि भवितव्य ऐसी हो होइ जैसा आपका प्रयोजन होइ तैसा ही उपाय होइ अर तातै कार्यकी सिद्धि भी होइ जाइ तौ तिस कार्यसंबंधी कोई कषायका उपशम होइ। यह पण्डितप्रवर टोडरमलजीका कथन है। मालूम पड़ता है कि उन्होंने 'तादृशी जायते बुद्धिः' इस श्लोकमें प्रतिपादित तथ्यको ध्यानमें रख कर ही यह कथन किया है। इसलिए इसे उक्त अर्थके समर्थनमें ही जानना चाहिए। इस प्रकार कार्योत्पत्तिके पूरे कारणों पर दृष्टिपात करनेसे भी यही फलित होता है कि जहाँ पर कार्योत्पत्तिके अनुकूल द्रव्यका स्ववीर्य या स्वशक्ति और उपादान शक्ति होती है वहाँ अन्य सामग्री स्वयमेव मिल जाती है, उसे मिलाना नहीं पड़ता । यह मिलाना क्या है ? यह एक विकल्प है तथा तदनुकूल वचन और कायकी क्रिया है, इसीको मिलाना कहते हैं। इसके सिवाय मिलाना और कुछ नहीं । वास्तवमें देखा जाय तो यह कथन जैनदर्शनका हार्द प्रतीत होता है। जैनदर्शनमें कार्यकी उत्पत्तिके प्रति जो उपादान-निमित्त सामग्री स्वीकार की गयी है उसमें द्रव्यको स्वशक्तिके साथ उपादानका प्रमुख स्थान है। उसके अभावमें अन्य निमित्तोंकी कथा करना ही व्यर्थ है। स्वामी समन्तभद्रने आप्तमीमांसामें जब यह प्रतिपादन किया कि विविध प्रकारका कामादि कार्यरूप भावसंसार कर्मबन्धके अनुरूप होता है और वह कर्मबन्ध अपने कामादि बाह्य हेतुओंके निमित्तसे होता है तब उनके सामने यह प्रश्न उठ खड़ा हुआ कि ऐसा मानने पर तो जीवके संसारका कभी भी अन्त नहीं होगा, क्योंकि कर्मबन्ध होनेके कारण यह जीव भावसंसारकी सृष्टि करता रहेगा और भावसंसारकी सृष्टि होनेसे निरन्तर कर्मबन्ध होता रहेगा। फिर इस परम्पराका अन्त कैसे होगा? आचार्य महाराजने स्वयं उठे हुए अपने इस प्रश्नके महत्त्वको अनुभव किया और उसके उत्तरस्वरूप उन्हें कहना पड़ा-'जीवास्ते शुद्धय द्धितः ।' अर्थात् वे जीवशुद्धि और अशुद्धि नामक दो शक्तियोंसे सम्बद्ध है । परन्तु इतना कहनेसे उक्त आपेक्षको ध्यानमें रखकर किये गये समाधान पर पूरा प्रकाश नहीं पड़ता, इसलिए वे इन शक्तियोंके आश्रयसे स्पष्टीकरण करते हुए पुनः कहते हैं शुद्धयशुद्धी पुनः शक्ती ते पाक्यापाक्यशक्तिवत् । साद्यनादी तयोव्यक्ती स्वभावोऽतकंगोचरः ॥१००। पाक्यशक्ति और अपाक्यशक्तिके समान शुद्धि और अशुद्धि नामवाली दो शक्तियाँ हैं तथा उनकी व्यक्ति सादि और अनादि है । उनका स्वभाव ही ऐसा है जो तर्कका विषय नहीं है ॥१०॥ यहाँ पर जो ये दो प्रकारकी शक्तियाँ कही गयी है उन द्वारा प्रकारान्तरसे उपादान शक्तिका ही प्रतिपादन कर दिया गया है। जीवोंमें ये दोनो प्रकारकी शक्तियाँ होती है । उनमेंसे अशुद्धि नामक शक्तिकी व्यक्ति तो अनादि कालसे प्रति समय होती आ रही है जिसके आश्रयसे नाना प्रकारके पुद्गल कर्मोका बन्ध होकर कामादिरूप भावसंसारकी सृष्टि होती है । जो अभव्य जीव हैं उनके इस शक्तिकी व्यक्ति अनादि Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ अनन्त है और जो भव्य जीव है उनके इस शक्तिकी व्यक्ति अनादि होकर भी सान्त है। किन्तु जब इस जीवके शुद्धि शक्तिकी व्यक्तिका स्वकाल आता है तब यह जीव अपने स्वभाव सन्मुख होकर पुरुषार्थ द्वारा उसकी व्यक्ति करता है, इसलिए शुद्धि शक्तिकी व्यक्ति सादि है। यहाँ पर जो अशुद्धि शक्तिकी व्यक्तिको अनादि कहा गया है सो वह कथन सन्तानपने की अपेक्षासे ही जानना चाहिए, पर्यायाथिकनयकी अपेक्षा तो उसकी व्यक्ति प्रति समय होती रहती है। जिससे प्रत्येक संसारी जीवके प्रति समयसम्बन्धी भावसंसाररूप सष्टि होती है। यहाँ पर यह कहना उचित प्रतीत नहीं होता कि ये दोनों शक्तियाँ जीवकी हैं तो इनमेंसे एककी व्यक्ति अनादि हो और दूसरेकी व्यक्ति सादि हो इसका क्या कारण है ? समाधान यह है कि इनका स्वभाव ही ऐसा है जो तर्कका विषय नहीं है। इसी विषयको स्पष्ट करनेके लिए आचार्य महाराज ने पाक्यशक्ति और अपारयशक्तिको उदाहरणरूपमें उपस्थित किया है। आशय यह है कि जिस प्रकार वही उड़द अग्निसंयोगको निमित्त कर पकता है जो पाक्यशक्तिसे युक्त होता है। जिसमें अपाक्यशक्ति पाई जाती है वह अग्निसंयोगको निमित्त कर त्रिकालमें नहीं पकता ऐसी वस्तुमर्यादा है उसी प्रकार प्रकृतमें जानना चाहिए । इस दृष्टान्तको उपस्थित कर आचार्य महाराज यही दिखलाना चाहते हैं कि प्रत्येक द्रव्यमें आन्तरिक योग्यताका सद्भाव स्वीकार किये बिना कोई भी काय नहीं हो सकता। उसमें भी जिस योग्यताका जो स्वकाल (समर्थ उपादानलक्षण) है उसके प्राप्त होने पर ही वह कार्य होता है, अन्यथा नहीं होता। इससे यदि कोई अपने पुरुषार्थकी हानि समझे सो भी बात नहीं है, क्योंकि जीवके किसी भी योग्यताको कार्यका आकार पुरुषार्थ द्वारा ही प्राप्त होता है। जीवको प्रत्येक कार्यकी उत्पत्ति में पुरुषार्थ अनिवार्य है। उसकी उत्पत्तिमें एक कारण हो और अन्य कारण न हों ऐसा नहीं है। जब कार्य उत्पन्न होता है तब अन्य निमित्त भी होता है, क्योंकि जहाँ निश्चय (उपादान कारण) है वहाँ व्यवहार (निमित्त कारण) होता ही है। इतना अवश्य है कि मिथ्यादृष्टि जीव निश्चयको लक्ष्य में नहीं लेता और मात्र व्यवहार पर जोर देता रहता है, इसीलिए वह व्यवहाराभासी होकर अनन्त संसारका पात्र बना रहता है। ऐसे व्यवहाराभासीके लिए पण्डितप्रवर दौलतरामजी छहढालामें क्या कहते हैं यह उन्हींके शब्दोंमें पढ़ियेः कोटि जनम तप तपें ज्ञान बिन कर्म झरे जे । ज्ञानीके छिनमें त्रिगुप्तितें सहज टरें ते ।। मुनिव्रत धार अनन्त बार ग्रीवक उपजायो। पै निज आतम ज्ञान बिना सुख लेश न पायो ।। जैसा कि हम पहले लिख आए हैं भविव्यता उपादानकी योग्यताका ही दूसरा नाम है । प्रत्येक द्रव्यमें कार्यक्षम भवितव्यता होती है इसका समर्थन करते हुए स्वामी समन्तभद्र अपने स्वयम्भूस्तोत्रमें कहते हैं: १. यहाँ पर जीवोंके सम्यग्दर्शनादिरूप परिणाम शद्धि शक्तिके अभिव्यंजक है और मिथ्यादर्शनादिरूप परि णाम अशुद्धिशक्तिके अभिव्यंजक है इस अभिप्रायको ध्यानमें रखकर यह व्याख्यान किया है। वैसे शुद्धिशक्तिका अर्थ भव्यत्व और अशुद्धि शक्तिका अर्थ अभव्यत्व करके भी व्याख्यान किया जा सकता है। भद्र अकलंकदेवने अष्टशतीमें और आचार्य विद्यानन्दने अष्टसहस्रीमें सर्वप्रथम इसी अर्थको ध्यानमें रखकर व्याख्यान किया है। इसी अर्थको ध्यानमें रखकर आचार्य अमृतचन्द्रने पञ्चास्तिकाय गाथा १२० की टीकामें यह वचन लिखा है--संसारिणी द्विप्रकाराः भव्या अभव्याश्च । ते शुद्धस्वरूपोपलम्भ शक्तिसदभावासद्भावाभ्यां पाच्यापाच्यमुद्गवदभिधीयन्त इति । Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अलंघ्यशक्तिर्भवितव्यतेयं तुद्वयाविष्कृतकार्यलिंगा । अनीश्वरो जन्तुरहंक्रियार्त्तः संहत्य कार्येष्विति साध्ववादी ||३३|| आपने (जिनदेवने) यह ठीक ही कहा है कि हेतुद्वयसे उत्पन्न होनेवाला कार्य ही जिसका ज्ञापक है ऐसो यह भवितव्यता अलंघ्यशक्ति है, क्योंकि संसारी प्राणी 'मैं इस कार्यको कर सकता हूँ' इस प्रकारके अहंकारसे पीड़ित है वह उस भवितव्यता) के बिना अनेक प्रकारके अन्य कारणोंका योग मिलने पर भी कार्योंके सम्पन्न करने में समर्थ नहीं होता । चतुर्थखण्ड : २१५ उपादानरूप योग्यतानुसार कार्य होता है इसका समर्थन भट्टाकलंकदेव तत्त्वार्थवार्तिक (अ० १ सूत्र २० ) में इन शब्दों में करते हैं यथा मृदः स्वयमन्तर्घटभवनपरिणामाभिमुख्ये दंड - चक्र - पौरुषेय - प्रयत्नादि निमित्तमात्रं भवति, यतः सत्स्वपि दंडादिनिमित्तेषु शर्करादिप्रचितो मृत्पिण्डः स्वयमन्तर्घटभवनपरिणामनिरुत्सकत्वान्न घटीभवति, अतो मृत्पिण्ड एव बाह्यदण्डादिनिमित्तसापेक्ष आभ्यन्तरपरिणामसानिध्याद् घटो भवति न दण्डादयः इति दण्डादीनां निमित्तमात्रत्व भवति । जैसे मिट्टीके स्वयं भीतरसे घटभवनरूप परिणामके अभिमुख होने पर दण्ड, चक्र और पुरुषकृत प्रयत्न आदि निमित्तमात्र होते हैं, क्योंकि दण्डादि निमित्तोंके रहनेपर भी बालुकाबहुल मिट्टीका पिण्ड स्वयं भीतरसे घटभवनरूप परिणाम (पर्याय) से निरुत्सुख होने के कारण घट नहीं होता, अतः बाह्यमें दण्डादि निमित्तसाक्षेप मिट्टीका पिण्ड ही भीतर घटभवनरूप परिणामका सानिध्य होनेसे घट होता है, दण्डादि घट नहीं होते, इसलिए दण्डादि निमित्तमात्र हैं । इस प्रकार इन उद्धरणोंसे स्पष्ट है कि उपादानगत योग्यता के कार्यभवनरूप व्यापारके होनेपर ही वह कार्य होता है, अन्यथा नहीं होता । ऐसे परिणमनकी क्षमता प्रत्येक द्रव्यमें होती है । जीवके इस परिणमन करनेरूप व्यापारको पुरुषार्थ कहते हैं । यदि तत्त्वार्थवार्तिक उक्त उल्लेखपर बारीकी से ध्यान दिया जाता है तो उससे यह भी विदित हो जाता है कि घट निष्पत्ति के अनुकूल कुम्हारका जो व्यापार होता है वह भी निमित्तमात्र होता है, वास्तव में कर्ता निमित्त नहीं । उनके 'निमित्तमात्र है' ऐसा कहने का भी यही तात्पर्य है । सब कार्य स्वकालमें ही होते हैं इसे भी भट्टाकलंकदेवने तत्त्वार्थवार्तिक (अ० १, सूत्र० ३ ) में स्वीकार किया है । वह प्रकरण निसर्गज और अधिगमज सम्यग्दर्शनका है । इसी प्रसंगको लेकर उन्होंने सर्वप्रथम यह शंका उपस्थित की है- भव्यस्य कालेन निःश्रेयसोपत्तेः अधिगमसम्यक्त्वाभावः । ७। यदि अवधृतमोक्षकालात् प्रागधिगमसम्यक्त्वबलात् मोक्षः स्यात् स्यादधिगमसम्यग्दर्शनस्य साफल्यम् । न चादोऽस्ति । अतः कालेन योsस्य मोक्षोऽसौ निसर्गजसम्यक्त्वादेव सिद्ध इति । इस वार्तिक और उसकी टीकामें कहा गया है कि यदि नियत मोक्षकालके पूर्व अधिगमसम्यक्त्व के बलसे मोक्ष होवे तो अधिगमसम्यक्त्व सफल होवे । परन्तु ऐसा नहीं है, इसलिए स्वकालके आश्रयसे जो इस भव्य जीवको मोक्षकी प्राप्ति होती है वह निसर्गज सम्यक्त्व से ही सिद्ध है । इस प्रकार हम देखते हैं कि उक्त कथन द्वारा भट्टाकलंकदेवने भी इस तथ्यको स्वीकार किया है कि प्रत्येक भव्य जीवको उसकी मोक्ष प्राप्तिका स्वकाल आतेपर मुक्तिलाभ अवश्य होता है । इससे सिद्ध है कि लोकमें जितने भी कार्य होते हैं वे अपने कालके प्राप्त होनेपर ही होते हैं, आगे पीछे नहीं होते । Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ यहाँ पर यह शंका की जा सकती है कि जब वहीं पर भद्राकलंकदेवने कालनियमका निषेध कर दिया है तब उनके पूर्व वचनको कालनियमके समर्थनमें क्यों उपस्थित किया जाता है। कालनियमका निषेधपरक उनका वह वचन इस प्रकार है. कालानियमाच्च निर्जरायाः । ९ । यतो न भव्यानां कृत्स्नकर्मनिर्जरापूर्वकमोक्षकालस्य नियमोऽस्ति । केचिद् भव्याः संख्येन कालेन सेत्स्यन्ति केचिदसंख्येन, केचिदन्तेन, अपरे अनन्तानन्तेनापि न सेत्स्यन्तीति, ततश्च न यक्तं 'भवस्य कालेन निःश्रेयसोपपत्तेः इति ।। इस वार्तिक और उसकी टीकाका आशय यह है कि यतः भव्योंके समस्त कर्मोकी निर्जरापूर्वक मोक्षकालका नियम नहीं है, क्योंकि कितने ही भव्य संख्यात काल द्वारा मोक्ष लाभ करेंगे। कितने ही असंख्यात काल द्वारा और कितने ही अनन्त काल द्वारा मोक्ष लाभ करेंगे। दूसरे जीव अनन्तानन्त काल द्वारा भी मोक्षलाभ नहीं करेंगे। इसलिए 'भव्य जीव काल द्वारा मोक्ष लाभ करेंगे' यह वचन ठीक नहीं है । व्यवहाराभासी इसे पढ़कर उस परसे ऐसा अर्थ फलित करते हैं कि भट्टाकलंकदेवने प्रत्येक भव्य जीवके मक्ष जानेके कालनियमका पहले शंकारूपमें जो विधान किया था उसका इस कथन द्वारा सर्वथा निषेध कर दिया है। परन्तु वस्तुस्थिति ऐसी नहीं है। यह सच है कि उन्होंने पिछले कथनका इस कथन द्वारा निषेध किया है । परन्तु उन्होंने यह निषेध नयविशेषका आश्रय लेकर ही किया है, सर्वथा नहीं। वह नयविशेष यह है कि पूर्वोक्त कथन एक जीवके आश्रयसे किया गया है और यह कथन नाना जीवोंके आश्रयसे किया गया है । सब भव्य जीवोंको अपेक्षा देखा जाय तो सबके मोक्ष जानेका एक कालनियम नहीं बनता, क्योंकि दूर भव्योंको छोड़कर प्रत्येक भव्य जीवके मोक्ष जानेका कालनियम अलग-अलग है, इसलिए सबका एक कालनियम कैसे बन सकता है ? परन्तु इसका यदि कोई यह अर्थ लगावे कि प्रत्येक भव्य जीवका भी मोक्ष जानेका कालनियम नहीं है तो उसका उक्त कथन द्वारा यह अर्थ फलित करना उक्त कथनके अभिप्रायको ही न समझना कहा जायगा। अतः प्रकृतमें यही समझना चाहिए कि भट्टाकलंकदेव भी प्रत्येक भव्य जीवके मोक्ष जानेका काल नियम मानते हैं। इसी बातका समर्थन करते हुए पंचास्तिकाय गाथा ११ को टीकामें भी कहा है : ....."यदा तु द्रव्यगुणत्वेन पर्यायमुख्यत्वेन विवक्ष्यते तदा प्रादुर्भवति विनश्यति । सत्पर्यायजातमतिवाहितस्वका'मुच्छिनत्ति, असदुवस्थितस्वकालमुत्पादयति चेति । "और जब प्रत्येक द्रव्य द्रव्यको गौणता और पर्यायको मुख्यतासे विवक्षित होता है तब वह उपजता है और विनाशको प्राप्त होता है। जिसका स्वकाल बीत गया है ऐसे सत् (विद्यमान) पर्यायसमूहको नष्ट करता है और जिसका स्वकाल उपस्थित है ऐसे असत् (अविद्यमान) पर्यायसनहको उत्पन्न करता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । इस प्रकार इस कथनसे भी यही विदित होता है कि प्रत्येक कार्य अपने-अपने स्वकालके प्राप्त होनेपर ही होता है। पर इसका यह अर्थ नहीं कि स्वकालके प्राप्त होनेपर वह व्यवहारसे अपने आप हो जाता है। इम अपेक्षा होता तो है वह स्वभाव आदि पाँचके समवायसे ही । पर जिस कार्यका जो स्वकाल है उसके प्राप्त होनेपर ही इन पाँचका समवाय होता है और तभी वह कार्य होता है ऐसा यहाँपर समझना चाहिए । आचार्य कुन्दकुन्द मोक्षपाहुडमें कालादिलब्धिके प्राप्त होनेपर आत्मा परमात्मा हो जाता है इसका समर्थन करते हुए स्वयं कहते हैं अइसोहणजोएणं सुद्ध हेमं हवेइ जह तह य । कालाईलद्धीए अप्पा परमप्पओ हवदि ॥२४॥ Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : २१७ इसका अर्थ करते हए पण्डितप्रवर जयचन्द्रजी छावड़ा लिखते हैं जैसे सुवर्ण पाषाण है सो सौधनेंकी सामग्रीके सम्बन्ध करि शुद्ध सुवर्ण होय है तैसें काल आदि लब्धि जो द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावरूप सामग्रीकी प्राप्ति ताकरि यह आत्मा कर्मके संयोगकरि अशुद्ध है सो ही परमात्मा होय है ॥२४॥ इसी तथ्यका समर्थन करते हुए स्वामी कार्तिकेय भी अपनी द्वादशानुप्रेक्षामें कहते हैं कालाइलद्धिजुत्ता णाणासत्तीहिं संजुदा अत्था । परिणममाणा हि सयं ण सक्कदे को वि वारेहूँ ।। इसका अर्थ पण्डित जयचन्दजी छावड़ाने इन शब्दोंमें किया है सर्व ही पदार्थ काल आदि लब्धिकरि सहित भये नाना शक्तिसंयुक्त हैं तैसैं ही स्वयं परिणमै हैं तिनकू परिणमतै कोई निवारने' समर्थ नाहीं ॥२१९।। । इस विषयमें मान्य सिद्धान्त है कि ६ माह ८ समयमें ६०८ जीव मोक्ष जाते हैं और यह भी सुनिश्चित है कि अनन्तानन्त जीवराशिमेंसे युक्तानन्तप्रमाण जीवराशिको छोड़कर शेष जीवराशि भव्य है सो इस कथनसे भी उक्त तथ्य ही फलित होता है। इस प्रकार इतने विवेचनसे यह स्पष्ट हो जानेपर भी, कि प्रत्येक कार्य अपने-अपने स्वकालमें अपनीअपनी योग्यतानुसार ही होता है, और जब जो कार्य होता है तब अन्य निमित्त भी तदनुकूल मिल जाते है, यहाँ यह विचारणीय हो जाता है कि प्रत्येक समयमें वह कार्य होता कैसे है ? क्या वह निश्चयसे स्वयं होता हुआ भी अन्य कोई कारण है जिसको निमित्तकर वह कार्य होता है ? विचार करनेपर विदित होता है कि वह इस साधन सामग्रीके मिलनेपर भी अपनी-अपनी परिणमनशक्तिके बलपर स्वकालमें ही होता है। यही कारण है कि जिन पाँच कारणोंका पूर्वमें उल्लेख कर आये हैं उनमें कालको भी परिगणित किया गया है। इसमें भी हम कार्योत्पत्तिका मुख्य साधन जो पुरुषार्थ है उसपर तो दृष्टिपात करें नहीं और हमारा जब जो होगा, होगा ही यह मान कर प्रमादी बन जाँय यह उचित नहीं है। सर्वत्र विचार इस बातका करना चाहिए कि यहाँ ऐसे सिद्धान्तका प्रतिपादन किस अभिप्रायसे किया गया है। वास्तवमें चारों अनुयोगोंका सार वीतरागता ही है, वसे विपर्यास करने के लिए सर्वत्र स्थान है। उदाहरण स्वरूप प्रथमानुयोगको ही लीजिए। उसमें महापुरुषों की अतीत जीवन घटनाओंके समान भविष्यसम्बन्धी जीवन घटनाएँ भी अंकित की गई है। अब यदि कोई व्यक्ति उनकी भविष्यसम्बन्धी जीवन घटनाओंको पढे और कहे कि जैसे इन महापरुषोंकी भविष्य जीवन घटनाएँ सुनिश्चित रहीं उसी प्रकार हमारा भविष्य भी सुनिश्चित है, अतएव अब हमें कुछ भी नहीं करना है । जब जो होना होगा, होगा ही, तो क्या इस आधारसे उसका ऐसा विकल्प करना उचित कहा जायगा? यदि कहो कि इस आधारसे उसका ऐसा विकल्प करना उचित नहीं है । किन्तु उसे उन भविष्य सम्बन्धी जीवन घटनाओंको पढ़कर ऐसा निर्णय करना चाहिए कि जिस प्रकार ये महापुरुष अपनी अपनी हीन अवस्थासे पुरुषार्थ द्वारा उच्च अवस्थाको प्राप्त हए हैं उसी प्रकार हमें भी अपने पुरुषार्थ द्वारा अपने में उच्च अवस्था प्रकट करनी है। तो हम पूछते हैं कि फिर प्रत्येक कार्य स्वकालमें होता है इस सिद्धान्तको सुनकर उसका विपर्यास क्यों करते हो । वास्तवमें यह सिद्धान्त किसीको प्रमादी बनानेवाला नहीं है। जो इसका विपर्यास करता है वह प्रमादी बनकर संसारका पात्र होता है और जो इस सिद्वा तमें छिपे हुए रहस्य को जान लेता है वह परको कर्तृत-वृद्धिका त्याग कर पुरुषार्थ द्वारा स्वभाव सन्मुख हो मोक्षका ૨૮ Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ पात्र होता है। प्रत्येक कार्य स्वकालमें होता है ऐसी यथार्थ श्रद्धा होनेपर 'परका मैं कुछ भी कर सकता हैं' ऐसी कर्तृत्वबुद्धि तो छूट ही जाती है। साथ ही 'मैं अपनी आगे होनेवाली पर्यायोंमें कुछ भी फेर-फार कर सकता हूँ' इस अहंकारका भी लोप हो जाता है । उक्त कर्तृत्वबुद्धि छूटकर ज्ञाता-द्रष्टा बनने के लिए और अपने जीवनमें प्रगट करने के लिए इस सिद्धान्तको स्वीकार करनेका बहत बड़ा महत्त्व है। जो महानुभाव समझते है कि इस सिद्धान्तके स्वीकार करनेसे अपने पुरुषार्थकी हानि होती है, वास्तव में उन्होंने इसे भीतरसे स्वीकार ही नहीं किया ऐसा कहना होगा । यह उस दीपकके समान है जो मार्गका दर्शन करानेमें निमित्त तो है पर मार्गपर स्वयं चला जाता है। इसलिए इसे स्वीकार करनेसे पुरुषार्थकी हानि होती है ऐसी खोटी श्रद्धाको छोड़कर इसके स्वीकार द्वारा मात्र ज्ञाता-द्रष्टा बने रहनेके लिए सम्यक पुरुषार्थको जागृत करना चाहिए । तीथंकरों और ज्ञानी सन्तोंका यही उपदेश है जो हितकारी जानकर स्वीकार करने योग्य है। श्रीमदराजचन्द्रजी कहते हैं जो इच्छो परमार्थ तो करो सत्य पुरुषार्थ । भवस्थिति आदि नाम लई छेदो नहीं आत्मार्थ ॥ जो भवस्थिति (काललब्धि) का नाम लेकर सम्यक् पुरुषार्थ से विरत हैं उन्हें ध्यानमें रखकर यह दोहा कहा गया है। इसमें बतलाया है कि यदि तूं पुरुषार्थकी इच्छा करता है तो सम्यक् पुरुषार्थ कर । केवल काललब्धिका नाम लेकर आत्माका घात मत कर । प्रत्येक कार्यकी काललब्धि होती है इसमें सन्देह नहीं। पर वह किसी जीवको सम्यक् पुरुषार्थ करनेसे रोकती हो ऐसा नहीं है । स्वकाललब्धि और योग्यता ये दोनों उपादानगत विशेषताके ही दूसरे नाम हैं । व्यवहारसे अवश्य ही उस द्वारा विवक्षित कार्यके निमित्तभूत नियत कालका ग्रहण होता है। इसलिए जिस समय जिस कार्यका सम्यक पुरुषार्थ हआ वही उसकी काललब्धि है, इसके सिवाय अन्य कोई काललब्धि हो ऐसा नहीं है । इसी अभिप्रायको ध्यानमें रखकर पण्डितप्रवर टोडरमल्लजी मोक्षमार्गप्रकाशक ( पृ० ४६२ ) में कहते हैं इहाँ प्रश्न-जो मोक्षका उपाय काललब्धि आएँ भवितव्यतानुसारि बने है कि मोहादिकका उपशमादि भएँ बने है अथवा अपने पुरुषार्थतें उद्यम किए बने सो कहो। जो पहिले दोय कारण मिले बने है तौ हमकौं उपदेश काहैकौं दीजिए है। अर पुरुषार्थतें बने है तो उपदेश सर्व सुनि तिन विष के ई उपाय कर सकै, कोई न कर सकै सो कारण कहा ? ताका समाधान-एक कार्य होने विषे अनेक कारण मिलें हैं सो मोक्षका उपाय बने है। तहाँ तो पर्वोक्त तीनों हो कारण मिलै ही है। अर न बने है तहाँ तीनों ही कारण न मिले हैं। पूर्वोक्त तीन कारण कहे तिन विष काललब्धि वा होनहार तो किछु वस्तु नाहीं । जिस काल विषै कार्य बनै सोई काललब्धि और जो कार्य भया सोई होनहार । बहुरि कर्मका उपशमादि है सो पुद्गलकी शक्ति है। ताका आत्मा कर्ता हर्ता नाहीं । बहुरि पुरुषार्थ तें उद्यम करिए है सो यह आत्माका कार्य है। तातें आत्माकौं पुरुषार्थ करि उद्यम करनेका उपदेश दोजिए है। तहाँ यहु आत्मा जिस कारण तें कार्यसिद्धि अवश्य होय तिस कारणरूप उद्यम करे तहाँ तो अन्य कारण मिलैं ही मिलैं अर कार्यकी भी सिद्धि होय ही होय । वे आगे (पृ० ४६५ में) पुनः कहते हैं-- ... अर तत्त्व निर्णय करने विषै कोई कर्मका दोष है नाहीं। अर तू आप तो महंत रह्यौ चाहै अर अपना दोष कर्मादिककै लगावै सो जिन आज्ञा मानें तो ऐसी अनीति संभवे नाहीं । तोकौं विषय Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थखण्ड : २१९ कषायरूप ही रहना है तातै झूठ बोलै है । मोक्षकी साँची अभिलाषा होय तो ऐसी युक्ति काहे कौं बनावै । संसारके कार्यनि विषै अपना पुरुषार्थतें सिद्धि न होती जाने तौ भी पुरुषार्थकरि उद्यम किया करें । यह। पुरुषार्थ खोई बैठे । मो जानिए है, मोक्षको देखादेखी उत्कृष्ट कहै है । याका स्वरूप पहिचानि ताको हितरूप न जाने है। हित जानि जाका उद्यम बन सो न करे वह असंभव है । प्रकृत में यह बात विशेष ध्यान देने योग्य है कि शास्त्रों में जहाँ-जहाँ कालादिलब्धिका उल्लेख किया है। वहाँ उसका आशय मुख्यतया आत्माभिमुख होनेके लिए ही है, अन्य कुछ आशय नहीं है । इसे स्पष्ट करते हुए आचार्य जयसेन पञ्चास्तिकाय गाथा १५० - १५१ की टीकामें कहते हैं— यदायं जीवः आगमभाषया कालादिलब्धिरूपमध्यात्मभाषया शुद्धात्माभिमुखपरिणामरूपं स्वसंवेदनज्ञानं लभते । जब यह जीव आगमभाषाके अनुसार कालादिलब्धिरूप और अध्यात्मभाषाके अनुसार शुद्धात्माभिमुख परिणामरूप स्वसंवेदनज्ञानको प्राप्त होता है । १२. उपसंहार इस प्रकार यहाँ तक जो हमने उपादानकारणके स्वरूपादिकी मीमांसा के साथ प्रसंगसे उपादानकी योग्यता और स्वकालका तथा उसका अविनाभावी व्यवहारकालका विचार किया उससे यह स्पष्ट हो जाता है कि जो कर्म निमित्त कहे जाते हैं वे भी उदासीन निमित्तोंके समान कार्योत्पत्ति के समय मात्र निमित्तमात्र होते हैं, इसलिए जो व्यवहाराभासी लोग इस मान्यतापर बल देते हैं कि जहाँ जैसे बाह्य निमित्त मिलते हैं. वहाँ उनके अनुसार ही कार्य होता है, उनकी वह मान्यता समीचीन नहीं है । किन्तु इसके स्थान में यही यह मान्यता समीचीन और तथ्यको लिए हुए हैं कि प्रत्येक कार्य चाहे वह शुद्ध द्रव्य सम्बन्धी हो और चाहे अशुद्ध द्रव्यसम्बन्धी हो, अपने-अपने निश्चय उपादानके अनुसार ही होता है । उसके अनुसार होता है । इसका यह अर्थ नहीं है कहाँ परद्रव्य निमित्त नहीं होता । परद्रव्य निमित्त तो वहाँपर भी होता है । पर उसके रहते हुए भी कार्य निश्चय उपादानके अनुसार ही होता है यह एकान्त सत्य है । इसमें सन्देह के लिए स्थान नहीं है । यही कारण है कि मोक्षके इच्छुक पुरुषोंको अनादि रूढ लोकव्यवहार से मुक्त होकर अपने द्रव्यस्वभावको लक्ष्य में लेना चाहिए आगम में ऐसा उपदेश दिया गया है । यहाँ यह शंका की जाती है कि यदि कार्यों की उत्पत्ति अन्य निमित्तोंके अनुसार नहीं होती है तो उन्हें निमित्त ही क्यों कहा जाता ? समाधान यह है कि ये कार्योंको अपने अनुसार उत्पन्न करते हैं इसलिए उन्हें विस्रसा या प्रयोग कारण नहीं कहा गया | किन्तु अज्ञानी के विकल्प और क्रियाव्यापार के समय उनको सूचन करनेमें निमित्त होती है इस बात को निमित्त कहा गया है । विस्रसा निमित्तोंके विषय में विवाद ही नहीं है । क्रियाकी प्रकृष्टता अन्य द्रव्यों के ध्यान में रखकर ही उन्हें प्रयोग इस प्रकार प्रत्येक कार्य यथासम्भव उक्त पाँच हेतुओंके समवायमें होता है । उनमें ही निश्चय उपादान और व्यवहार निमित्तों का अन्तर्भाव हो जाता है । इसलिये आगममें सर्वत्र उक्त दो हेतुओंका निर्देश कहीं पर दो को मुख्यतासे और कहीं पर गौण -- मुख्यरूप में दृष्टिगोचर होता है । Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त और स्याद्वाद 'अनेकान्त' शब्द अनेक और अन्त इन दो शब्दोंके मेलसे बना है। उसका सामान्य अर्थ है-अनेके अन्ताः धर्मा यस्यासौ अनेकान्तः । जिसमें अनेक अन्त अर्थात् धर्म पाये जाते हैं उसे अनेकान्त कहते हैं । जो भी जीवादि पदार्थ हैं वे सब अनेकान्तस्वरूप हैं यह इस कथनका तात्पर्य है। जो कोई पदार्थ अस्तिरूप है वह प्रत् क त्रैकालिक होनेके साथ अर्थक्रियाकारी भी है। और वह तभी उक्त विधिसे अर्थक्रियाकारी बन सकता है जब उसे अनेकान्तस्वरूप स्वीकार किया जाय । इसी तथ्यको स्पष्ट करते हुए स्वामी कार्तिकेय स्वरचित द्वादशानुप्रेक्षामें कहते हैं जं वत्थु अणेयंतं तं चिय कज्जं करेदि णियमेण । बहुधम्मजुदं अत्थं कज्जकरं दीसदे लोए ।। २२५ ॥ जो वस्तु अनेकान्त स्वरूप है वही नियमसे कार्य करने में समर्थ है, क्योंकि लोकमें बहत धर्मवाला अर्थ ही कार्यकारी देखा जाता है ॥२२५।। . शंका-वस्तु बहुत धर्मोंवाली होती है इसका क्या अर्थ है ? जैसे जीव द्रव्य लीजिये । वह दर्शन, ज्ञान, चारित्र, सुख और वीर्य आदि अनन्त धर्मोंवाला है या अस्तित्व, वस्तुत्व आदि अनन्त धर्मोवाला है। इस प्रकार वस्तु बहुत धर्मोवाली है, अनेकान्तका क्या यह अर्थ लिया जाय या इसका कोई दूसरा अर्थ है । समाधान-विचार कर देखा जाय तो प्रत्येक वस्तु केवल उक्त विधिसे ही अनेकान्तस्वरूप नहीं स्वीकार की गई है । किन्तु प्रर क वस्तुको अनेकान्तस्वरूप स्वीकार करनेका प्रयोजन ही दूसरा है। बात यह है कि प्रत्येक वस्तुका स्वरूप क्या है इसे स्पष्ट करते हुए जैनदर्शनमें यह स्पष्ट किया गया है कि प्रत्येक वस्तु जैसे स्वद्रव्यादिकी अगेक्षा अस्तिस्वरूप है वैसे वह परद्र यादिकी अपेक्षा अस्तिस्वरूप नहीं है, क्योंकि एक द्रव्यमें अन्य सजातीय और विजातीय अन्य द्रव्योंका अत्यन्ताभाव है। यदि ऐसा स्वीकार न किया जाय तो न तो प्रत्येक द्रव्यका स्वतन्त्र अस्तित्व ही सिद्ध होता है और न ही प्रत्येक जीवकी बन्ध-मोक्ष व्यवस्था हो बन सकती है । यह तो है ही, इसके साथ ही एक वस्तुमें भी धर्मी और अनन्त धर्मोंकी अपेक्षा विचार करनेपर उनमेंसे भी प्रत्येकका अपने-अपने विवक्षित स्वरूपादिकी अपेक्षा स्वतन्त्र अस्तित्व सिद्ध होता है, क्योंकि जैसे प्रत्येक धर्मी स्वरूपसे सत् है वैसे ही गुण-पर्याय रूप प्रत्येक धर्म भी स्वरूपसे सत् हैं । कोई किसीके कारण स्वरूपसत् हो ऐसा नहीं है । जैनदर्शनमें स्वरूपसे सत् और पररूपसे असत् इत्यादि तथ्यको स्वीकार कर जो अनेकान्तकी प्रतिष्ठा है उसका प्रमुख कारण यही है। भेदविज्ञान जैनदर्शनका प्राण है, इसलिये उक्त विधिसे अनेकान्तको हृदयंगम करनेपर ही भेदविज्ञानमें निपुणता प्राप्त होना सम्भव है, अन्य प्रकारसे नहीं । उदाहरणार्थ जब यह कहा जाता है कि रत्नत्रय ही मोक्षमार्ग है तब उसका अर्थ होता है कि रत्नत्रयको छोड़कर अन्य कोई मोक्षमार्ग नहीं है । इसे और खुलासा कर समझा जाय तो यह कहा जायगा कि यद्यपि जीव वस्तु अनन्त धर्मगर्भित एक पदार्थ है, परन्तु उसमें भी मोक्षमार्गता मात्र रत्नत्रयपरिणत आत्मामें ही घटित होती है, अन्य अनन्त धर्मपरिणत आत्मामें नहीं । इस प्रकार विविध दृष्टिकोणोंसे देखनेपर एक ही वस्तु कैसे अनेकान्तस्वरूप है यह स्पष्ट हो जाता है, इसलिये उसके स्वरूपका ख्यापन करते हुए समयसार आत्मख्याति टीकामें कहा भी है तत्र यदेव तत् तदेव अतत् यदेवेकं तदेवानेकं यदेव सत् तदेव असत् यदेव नित्यं तदेव अनित्यं इत्येकस्मिन् वस्तुत्वनिष्पादकपरस्परविरुद्धशक्तिद्वयप्रकाशनमनेकान्तः। Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : २२१ स्वतन्त्र सत्ताकी वस्तुएँ अनन्त है। उन्हें बुद्धिगम्य करके विविध दृष्टिकोणोंसे देखनेपर प्रत्येक वस्तू कैसी प्रतीतिमें आती है इसीका ख्यापन करते हुए परमागममें कहा है जो तत् है वही अतत् है, जो एक है वही अनेक है, जो सत् है वही असत् है तथा जो नित्य है वही अनित्य है इस प्रकार एक ही वस्तुमें वस्तुत्वकी प्रतिष्ठा करनेवाली परस्पर विरुद्ध दो शक्तियों के प्रकाशनका नाम अनेकान्त है। ५. चार युगलों की अपेक्षा अनेकान्तकी सिद्धि यद्यपि जीवद्रव्य अनन्त हैं। पुद्गल द्रव्य उनसे भी अनन्तगुणे हैं। धर्म, अधर्म और आकाश द्रव्य प्रत्येक एक-एक हैं तथा कालद्रव्य लोकाकाशके जितने प्रदेश है तत्प्रमाण है। उनमेंसे यहाँ उदाहरणस्वरूपका एक जीव द्रव्यकी अपेक्षा विचार करते हैं । उसमें भी अनेकान्तके स्वरूपका ख्यापन करते समय जिन परस्पर विरुद्ध चार युगलों का निर्देश कर आये हैं उनको ध्यानमें रखकर क्रमसे मात्र आत्मतत्त्वका निरूपण करेंगे-- १. पहला युगल है-आत्मा तत्स्वरूप ही है और अतत्स्वरूप ही है, क्योंकि अन्तरंगमें अपने सहज ज्ञानस्वरूपके द्वारा तत्स्वरूप ही है और बाहर अनन्त ज्ञेयोंको जानता है इस अपेक्षा वह अतत्स्वरूप ही है। २. दूसरा युगल है-आत्मा एक ही और अनेक ही है, क्योंकि सहप्रवृत्तमान गुण और क्रमशः प्रवृत्तमान पर्यायों स्वरूप अनन्त चैतन्यरूप अंशोंके समदायपने की अपेक्षा वह एक ही है और सहज ही अविभक्त एक द्रव्यमें व्याप्त सह प्रवृत्तमान गुण और क्रमशः प्रवृत्तमान पर्यायस्वरूप अनन्त चैतन्य अंशरूप पर्यायोंकी अपेक्षा वह अनेक ही है । यहाँ भेद-कल्पनामें गुणोंको पर्याय कहा गया है। ३. तीसरा युगल है--आत्मा सत् ही है और असत् ही है, क्योंकि वह अपने स्वद्रव्य-क्षेत्र-काल-भावरूपसे होने की शक्तिरूप स्वभाववाला है, इसलिये सत ही है और परद्रव्य क्षेत्र-काल-भावरूप न होनेकी शक्तिरूप स्वभाववाला है, इसलिये असत् ही है। ४. चौथा युगल है-आत्मा नित्य ही है और अनित्य ही है क्योंकि अनादि-निधन-अविभाग एकरस परिणत होने के कारण वह नित्य ही है और क्रमश प्रवर्तमान एक समयकी मर्यादावाले अनेक वृत्त्यंशरूपसे परिणत होनेके कारण वह अनित्य ही है। इस प्रकार एक ही आत्मा तत् है और अतत् है. एक हैं और अनेक है, सत् है और असत् है तथा नित्य है और अनित्य है। इसलिये वह अनेकान्तस्वरूप है यह निश्चित होता है । इसी प्रकार जितना भी द्रव्यजात हैं उनमेंसे प्रत्येकको अनेकान्तस्वरूप घटित कर लेना चाहिये । शंका-श्री समयसार परमागममें आत्माको ज्ञानमात्र कहा गया है सो यदि आत्मद्रव्य ज्ञानमात्र होनेसे स्वयं ही अनेकान्तस्वरूप है तो फिर आत्मतत्त्वकी सिद्धिके लिए पृथक्से अनेकान्तकी प्ररूपणा क्यों की जाती है ? समाधान--अज्ञानी जन आत्मतत्त्वको ज्ञानमात्र नहीं मानते, इसलिये आत्मतत्त्व ज्ञानमात्र है यह उपदेश दिया जाता है। वस्तुतः अनेकान्तके बिना ज्ञानमात्र आत्मतत्त्वकी सिद्धि होना सम्भव नहीं है, इसलिए पृथक अनेकान्तकी प्ररूपणा की जाती है । शंका-जैसे प्रत्येक वस्तु अनन्त धर्मगर्भित एक वस्तु है वैसे ही आत्मा भी अनन्त धर्मगभित एक वस्तु है । फिर प्रकृतमें उसे ज्ञानमात्र क्यों बतलाया गया है। समाधान--लक्ष्य-लक्षणमें अभेद करके आत्माको ज्ञानमात्र कहने में कोई विप्रतिपत्ति नहीं है। यद्यपि आत्मा भी अन्य द्रव्योंके समान अनन्तधर्मभित एक वस्तु है। किन्तु उसमें साधारण और असाधारण दोनों. Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ प्रकारके धर्म है। जो साधारण धर्म हैं वे अन्य द्रव्योंसे आत्मद्रव्यके भेदक नहीं हो सकते । जो असाधारण होकर भी पर्यायरूप है वे भी एक त्रिकालवर्ती आत्मद्रव्यका ख्यापन करने में असमर्थ हैं । और जो असाधारण होकर भी त्रिकाल व्याप्ति समन्वित है जैसे चारित्र, सुख और वीर्य आदि सो वे भी बोधगम्य होनेपर ही माने जाते हैं । अतः वे स्वयं आत्मतत्त्वको अन्य द्रव्योंसे पृथक् करने में असमर्थ हैं । रहा दर्शन सो वह अनाकारस्वरूप है। एक ज्ञान ही ऐसा है जो अनुभवगोचर है, इसलिए उस द्वारा आत्मतत्त्वको अन्य द्रव्योंसे पृथक् करना सम्भव है, इसलिए जिनागममें आत्माको ज्ञानमात्र स्वीकार किया गया है। म तत्त्वार्थवार्तिकमें लक्षण किसे कहते हैं इसका निर्देश करते हुए बतलाया है परस्परव्यतिकरे सति येनान्यत्वं लक्ष्यते तल्लक्षणम् । सभी पदार्थ (परक्षेत्रपनेकी अपेक्षा) परस्पर मिलकर रहते हैं. इसलिए जिसके द्वारा एक पदार्थको दूसरे पदार्थसे जुदा किया जाता है उसे लक्षण कहते हैं । इस दृष्टिसे विचार करनेपर द्रव्य (सामान्य) गुण (प्रत्येक द्रव्य व्यापी त्रिकाली विशेष धर्म) और पर्याय (प्रत्येक द्रव्यव्यापी एक समयवर्ती धर्मविशेष) का लक्षण स्वतन्त्र रूपसे प्रतीतिमें आता है। यही कारण है कि प्रकृतमें इसी दृष्टिको माध्यम बना कर अनेकान्तस्वरूप वस्तुकी व्यवस्था की गई है । एक ही वस्तु दूसरी वस्तुसे अत्यन्त भिन्न है यह तो है ही। उसे दिखलाना यहाँ मुख्य प्रयोजन नहीं है। यहाँ तो एक ही वस्तु द्रव्य, गुण और पर्यायपनेकी अपेक्षा कैसे तत्-अता, एक-अनेक, सत्-असत और नित्य-अनित्य स्वरूप है यह दिखलाया है। जैनदर्शनमें प्रत्येक वस्तुको अनेकान्तस्वरूप दिखलाना यह मुख्य प्रयोजन है। अन्यथा प्रत्येक वस्तु स्वयंमें अनेकान्तस्वरूप नहीं सिद्ध होती। तत्त्वार्थवार्तिक अ० सूत्र ४२में जीव पदार्थ अनेकान्तात्मक कैसे है इसका विचार करते हुए लिखा है-- जीव पदार्थ एक होकर भी अनेकरूप है, क्योंकि वह अभावसे विलक्षण स्वरूपवाला है । वस्तुतः देखा जाय तो अभावमें कोई भेद दृष्टिगोचर नहीं होता। उसके विपरीत भावमें तो अनेक धर्म और अनेक भेद दृष्टिगोचर होते हैं । जो घटका उत्पाद है वही पट आदि अनन्त पदार्थोंका उत्पाद नहीं है । इस प्रकार स्वकी अपेक्षा उत्पाद एक होकर भी उसमें परकी अपेक्षा अनन्तरूपता घटित हो जाती है। यह एक उदाहरण है। परसे भेद दिखलानेकी अपेक्षा इस प्रकार सर्वत्र समझ लेना चाहिये। इस प्रकार लोकमें जितने भी सदभावरूप पदार्थ हैं उनमेंसे प्रत्येक कैसे अनेकान्तस्वरूप हैं इसका संक्षेपमें ऊहापोह किया। ६. स्याद्वाद और अनेकान्त अब अनेकान्तस्वरूप वस्तुका वचन मुखसे विचार करते हैं। अनेकान्तस्वरूप एक ही वस्तुका शब्दों द्वारा कथन दो प्रकारसे होता है-एक क्रमिकरूपसे और दूसरा योगपद्यरूपसे । इनके अतिरिक्त कथनका तीसरा कोई प्रकार नहीं है। जब अस्तित्व आदि अनेक धर्म कालादिकी अपेक्षा भिन्न-भिन्न रूपसे विवक्षित होते हैं तब एक शब्दमें अनेक धर्मों के प्रतिपादनकी शक्ति न होनेसे उनका क्रमसे प्रतिपादन किया जाता है । इमीका नाम विकलादेश है। परन्तु जब वे ही अस्तित्वादि धर्म कालादिकी अपेक्षा अभेदरूपसे विवक्षित होते हैं तब एक ही शब्द द्वारा एक धर्ममुखेन तादात्म्यरूपसे एकत्वको प्राप्त सभी धर्मों का अखण्डरूपसे युगपत् कथन हो जाता है । इसीका नाम सकलादेश है। विकलादेश नयरूप है और सकलादेश प्रमाणरूप है। कहा भी है-विकलादेश नयाधीन है और सकलादेश प्रमाणाधीन है। Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्य खण्ड : २२३ ७. सकलादेशकी अपेक्षा ऊहापोह जिस समय एक वस्तु अखण्डरूपसे विवक्षित होती है उस समय वह अस्तित्वादि धर्मोंकी अभेदवृत्ति या अभेदोपचार करके पूरीको पूरो एक शब्द द्वारा कही जाती है। इसी का नाम सकलादेश है, क्योंकि द्रव्यार्थिक नयसे सभी धर्मों में अभेदवत्ति घटित हो जानेसे अभेद है तथा पर्यायाथिक नयसे प्रत्येक धर्ममें दूसरे धर्मोसे भेद होने पर भी अभेदोपचार कर लिया जाता है। जिसे स्याद्वाद कहते हैं उसमें इस दष्टिसे प्रत्येक भंग समग्र वस्तुको कहनेवाला माना जाता है इसीको आगे सप्तभंगीके द्वारा स्पष्ट करते हैं८. सप्तभंगीका स्वरूप और उसमें प्रत्येक भंग की सार्थकता सप्तभंगीका कहनेसे इसके अन्तर्गत सात भंगोंका बोध होता है । वे हैं-(१) स्यात् है ही जीव, (२) स्यात् नहीं ही है जीव, (३) स्यात् अवक्तव्य ही है जीव, (४) स्यात् है और नहीं है जीव, (५) स्यात् है और अवक्तव्य है जीव, (६) स्यात नहीं है और अवक्तव्य है जीव तथा (७) स्यात है, नहीं है और अवक्तव्य है जीव । प्रश्नके वश होकर एक वस्तुमें अविरोधपूर्वक विधि-प्रतिषेध कल्पनाका नाम सप्तभंगी है। किसी वस्तुको जाननेके लिए जिज्ञासा सात प्रकारको होती है, इसलिए एक सप्तभंगीमें भंग भी सात ही होते है। ये भंग पूर्वमें दिये ही हैं। शंका-उक्त सात भंगोंमें यदि 'स्यादस्त्येव जीवः' यह भंग सकलादेशी है तो इसी एक भंगसे जीवद्रव्यके सभी धर्मोंका संग्रह हो जाता है, इसलिये आगेके सभी भंग निरर्थक हैं ? समाधान-गौण और मुख्य विवक्षासे सभी भङ्ग सार्थक हैं। द्रव्याथिक नयकी प्रधानता और पर्यायाथिक नयकी गौणतामें प्रथम भङ्ग सार्थक हैं। तथा पर्यायाथिक नयकी मुख्यता और द्रव्याथिकनयकी गौणतामें दूसरा भङ्ग सार्थक है। यहाँ इतना विशेष जानना चाहिये कि यहाँ प्रधानता केवल शब्द प्रयोगकी है। वैसे प्रमाण सप्तभंगीकी अपेक्षा वस्तु तो प्रत्येक भंगमें पूरी ही ग्रहण की जाती है। जो शब्दसे कहा नहीं गया है अर्थात् गम्य हुआ है वह प्रकृतमें अप्रधान है । तृतीय भंगमें कहने की युगपत् विवक्षा होनेसे दोनों ही अप्रधान हो जाते हैं, क्योंकि दोनोंको एक साथ प्रधानभावसे कहनेवाला कोई शब्द नहीं है। चौथे भंगमें क्रमशः उभय धर्म प्रधान होते हैं । इसी सरणिसे आगेके तीन भंगोंका विचार कर लेना चाहिये। ८. प्रत्येक भंगमें 'अस्ति' आदि पदोंको सार्थकता _ 'स्थादस्त्येव जीवः' इस वाक्यमें 'जीव'पद विशेष्य है-द्रव्यवाची है और 'अस्ति' पद विशेषण हैगुणवाची है । उसमें परस्पर विशेषण विशेष्यभाव है इसके द्योतनके लिये 'एव' पदका प्रयोग किया गया है। इससे इतर धर्मोकी निवृत्तिका प्रसंग प्राप्त होनेपर उन धर्मोके सद्भाव को द्योतन करनेके लिए उक्त वाक्यमें 'स्यात्' शब्दका प्रयोग किया गया है। यहाँ 'स्यात्' तिङन्तप्रतिरूपक निपात है। प्रकृतमें इसका अर्थ अनेकान्त लिया गया है। शंका-जब कि 'स्यात्' पदसे ही अनेकान्तका द्योतन हो जाता है तो फिर 'अस्त्येव जीवः' या 'नास्त्येव जीवः' इत्यादि पदोंके प्रयोगकी कोई सार्थकता नहीं रह जाती है ? समाधान-माना कि 'स्यात्' पदये अनेकान्तका द्योतन हो जाता है फिर भी विशेषार्थी विशेष शब्दोंका प्रयोग करते हैं । जैसे जीव कहनेसे मनुष्यादि सभीका ग्रहण हो जाता है, फिर भी विवक्षित पर्यायविशिष्ट जीवको जाननेवाला उस-उस शब्दका प्रयोग करता है। इसलिये पूर्वोक्त कोई दोष नहीं है । एक बात और है । वह यह कि यद्यपि 'स्यात्' पद अनेकान्तका द्योतक होता है और जो द्योतक होता है वह किसी वाचक शब्दके द्वारा कहे गये अर्थको ही अनेकान्तरूप द्योतन करता है, अतः वाचक द्वारा प्रकाश्य धर्मकी सूचनाके लिये इतर शब्दोंका प्रयोग किया जाता है। बात यह है कि जब हम किसी विवक्षित धर्मके Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्य द्वारा वस्तुका कथन करते हैं तब वस्तुमें रहनेवाले अन्य सब धर्म अविवक्षित रहते हैं, इसलिये उनको सूचित करने के लिये स्यात् ' पदका प्रयोग किया जाता है। यदि 'स्यात्' पदका प्रयोग न किया जाय तो सभी प्रयोग अनुक्ततुल्य हो जाते हैं। स्यात् पद अनेकान्तका द्योतक है इस अर्थको स्पष्ट करते हुए आप्तमीमांसा में आचार्य समन्तभद्र कहते हैं वाक्येष्वनेकान्तद्योतो गम्यं प्रति विशेषणम् । स्यान्निपातोऽयं योगित्वात्तत्र केवलिनामपि ।। १०३ ।। हे भगवन् ! आपके शासन में 'स्यादस्त्येव जीव' या 'स्यान्नास्त्येव जीवः' इत्यादि वाक्योंमें अर्थके सम्बन्धवश 'स्यात्' पद अनेकान्तका द्योतक होता है और गम्य अर्थका विशेषण होता है प्रकृतमें 'स्यात्' पद निपात है । यह केवलियों और श्रुतकेवलियों दोनोंको अभिमत है । करने के युक्त यहां आचार्य समन्तभद्रने यह स्पष्ट किया है कि सभी प्रत्येक भङ्गको 'स्यात्' पदसे दो प्रयोजन हैं । प्रथम प्रयोजनके अनुसार तो प्रत्येक वाक्य में 'स्यात्' पद अनेकान्तका द्योतक होता है, क्योंकि निपात द्योतक होते हैं ऐसा वचन है । दूसरे प्रयोजनके अनुसार जिस वाक्य में जो गम्य अर्थ है उसका विशेषण होनेसे वह अपेक्षा विशेषको सूचित करता है। इससे हम जानते हैं कि प्रथम भंगमें 'जीव है हो' यह जो कहा गया है वह अपेक्षा विशेषसे ही कहा गया है और दूसरे भंगमें 'जीव नहीं ही है' यह जो कहा गया है वह भी तो अपेक्षा विशेषसे ही कहा गया है। इस प्रकार प्रत्येक भंग में 'स्यात्' पदका प्रयोग होनेसे एक 'धर्मोका अनुक्त स्वीकार हो जाता है दूसरे विवक्षित भंग किस अपेक्षासे कहा गया है इसका सूचन हो जाता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । सप्तभंगी में सात भंगों के प्रत्येक पदकी सार्थकताका निर्देश हम पहले ही कर आये हैं । एक बात यहाँ विशेष जाननी चाहिये कि कहीं किसी वक्ताने स्यात् पदका प्रयोग नहीं भी किया हो तो वहाँ वह है ही ऐसा समझ लेना चाहिए क्योंकि ऐसा वचन भी है कि 'स्यात्' शब्द के प्रयोगका आशय रखनेवाला वक्ता कदाचित् 'स्यात्' शब्दका प्रयोग नहीं भी करता है तो भी वह प्रकरण आदिको ध्यान में रख कर समझ लिया जाता है। कहा भी है तथा प्रतिज्ञाशयतोऽप्रयोगः । जिसके अभिप्रायमें उस प्रकारकी प्रतिज्ञा है, वह 'स्यात्' शब्दका प्रयोग नहीं करता तो भी कोई दोष नहीं है । ९. कालादि आठकी अपेक्षा विशेष खुलासा पहले हम यह बतला आये हैं कि प्रथम भंगमें यतः द्रव्यार्थिकनयकी मुख्यता रहती है, इसलिये उसके द्वारा कालादिकी अपेक्षा अभेदवृत्ति करके पूरी वस्तु स्वीकार कर ली जाती है और दूसरे भगमे यतः पर्याया किनकी प्रधानता रहती है. इसलिये वहाँ कालादि की अपेक्षा अभेदोपचार करके उसके द्वारा समग्र वस्तु स्वीकार कर ली जाती है । अतः प्रकृतमें उन कालादि आठका निर्देश करके उन द्वारा प्रकृत विषय पर विशेष प्रकाश डालते हैं । वे कालादि आठ ये हैं- काल, आत्मरूप अर्थ, सम्बन्ध, उपकार, गुणिदेश, संसर्ग और शाब्द । इन आठकी अपेक्षा खुलासा इस प्रकार है (२) 'कथंचित् है ही जीव' यहाँ अस्तित्वविषयक जो काल है वही काल अन्य अशेष धर्मोका है इसलिये समस्त धर्मों की एक वस्तुमें कालकी अपेक्षा अभेदवृत्ति बन जाती है। (२) जैसे अस्तित्व वस्तुका आत्मस्वरूप है वैसे अन्य अनन्त धर्म वस्तुके आत्मस्वरूप हैं, इसलिये समस्त धर्मोकी एक वस्तुमें आत्मस्वरूपकी अपेक्षा अभेदवृत्ति बन जाती है । (३) जो द्रव्य अस्तित्वका आधार है वही अन्य अनन्त धर्मोका आधार होने से अर्थकी अपेक्षा समस्त धर्मों की एक वस्तुमें अभेदवृत्ति बन जाती है। (४) वस्तुके साथ अस्तित्वका जो तादात्म्य Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : २२५ लक्षण सम्बन्ध है वही अन्य समस्त धर्मोंका भी है, इसलिये सम्बन्धकी अपेक्षा समस्त धर्मोकी एक वस्तुमें अभेदवृत्ति पाई जाती है। (५) गुणीसे सम्बन्ध रखनेवाला जो देश अस्तित्वका है वही देश अन्य समस्त धर्मो का है, इसलिये गुणिदेशकी अपेक्षा समस्त धर्मों की एक वस्तुमें अभेदवृत्ति बन जाती है। (६) जो उपकार अस्तित्वके द्वारा किया जाता है वही अनन्त धर्मो के द्वारा किया जाता है, इसलिये उपकारकी अपेक्षा एक वस्तुमें समस्त धर्मोकी अभेदवृत्ति बन जाती है। (७) एक वस्तुरूपसे अस्तित्वका जो ससर्ग है वही अनन्त धर्मोका है, इसलिये संसर्गकी अपेक्षा एक वस्तुमें समस्त धर्मोकी अभेदवृत्ति बन जातो है । (८) जिस प्रकार 'अस्ति' यह शब्द अस्तित्व धर्मरूप वस्तुका वाचक है उसी प्रकार वह अशेष धर्मात्मक वस्तुका भी वाचक है, इसलिये शब्दकी अपेक्षा एक वस्तुमें समस्त धर्मोंकी अभेदवृत्ति बन जाती है। यह सब व्यवस्था पर्यायार्थिक नयको गौणकर द्रव्यार्थिक नयकी मुख्यतासे बनती है । परन्तु पर्यायार्थिक नयकी प्रधानता रहनेपर अभेदवृत्ति सम्भव नहीं है। खुलासा इस प्रकार है--बात यह है कि पर्यायाथिक नयकी प्रधानता रहनेपर अभेदवृति सम्भव नहीं है, क्योंकि (१) इस नयकी विवक्षासे एक वस्तुमें एक समय अनेक धर्म सम्भव नहीं हैं । यदि एक कालमें अनेक धर्म स्वीकार भी किये जायें तो उन धर्मोंकी आधारभूत वस्तुमें भी भेद स्वीकार करना पड़ता है। (२) एक धर्मके साथ सम्बन्ध रखनेवाला जो वस्तुरूप है वह अन्यका नहीं हो सकता और जो अन्यसे सम्बन्ध रखनेवाला वस्तुरूप है वह उसका नहीं हो सकता । यदि ऐसा न माना जाय तो उन धर्मोमें भेद नहीं हो सकता । (३) एक धर्मका आश्रयभूत अर्थ भिन्न है और दूसरे धर्मका आश्रयभूत अर्थ भिन्न है । यदि धर्मभेदसे आश्रय भेद न माना जाय तो एक आश्रय होनेसे धर्मों में भेद नहीं रहेगा। (४) सम्बन्धीके भेदसे सम्बन्धमें भी भेद देखा जाता है, क्योंकि नाना सम्बन्धियोंकी अपेक्षा एक वस्तुमें एक सम्बन्ध नहीं बन सकता है। (५) अनेक उपकारियोंके द्वारा जो उपकार किये जाते हैं वे अलग-अलग होते हैं उन्हें एक नहीं माना जा सकता है (६) प्रत्येक धर्मका गुणिदेश भिन्न-भिन्न होता है वह एक नहीं हो सकता । यदि अनन्त धर्मोका एक गुणिदेश मान लिया जाय तो वे धर्म अनन्त न होकर एक हो जायेंगे । अथवा भिन्न-भिन्न वस्तुओंके धर्मोंका भी एक गुणिदेश हो जायगा। (७) अनेक संसर्गोकी अपेक्षा संसर्ग में भी भेद है, वह एक नहीं हो सकता। (८) तथा प्रतिपाद्य विषयके भेदसे प्रत्येक शब्द जुदाजुदा है। यदि सभी धर्मोको एक शब्दका वाच्य माना जायगा तो वाचकके अभेदसे उन वाच्यभूत धर्मोमें भी भेद नहीं रहेगा । इस प्रकार पर्यायष्टिसे विचार करनेपर कालादिकी अपेक्षा अर्थभेद स्वीकार किया जाता है। फिर भी उनमें अभेदका उपचार कर लिया जाता है । अत. इस विधिसे जिस वचन प्रयोगमें अभेदवृत्ति और अभेदोपचारकी विवक्षा रहती है वह वचन प्रयोग सकलादेश है यह निश्चित होता है। यद्यपि प्रमाण सप्तभंगीका प्रत्येक भंग सुनयवाक्य है, फिर भी वह प्रमाणाधीन है, क्योंकि उसके द्वारा अशेष वस्तु कही जाती है। यह प्रमाण सप्तभंगीके दो भंगोंकी मीमांसा है। शेष पाँच भंगोंकी मीमांसा भी इसी विधिसे कर लेनी चाहिये । इन भंगोंको विशेष रूपसे समझने के लिये तत्त्वार्थवातिक अ०४के अन्तिम सूत्रवृत्तिपर दृष्टिपात करना चाहिये। १० पूर्वोक्त विषयका सुबोध शैलीमें खुलासा ___यहाँ तक हमने शास्त्रीय दृष्टिसे अनेकान्तके स्वरूपका विचार किया। आगे उसपर सुबोध शैलीमें विशेष प्रकाश डाला जाता है। यहाँ यह कहा जा सकता है कि जो वस्तु तत्स्वरूप हो वही अतत्स्वरूप कैसे हो सकती है, क्योंकि एक ही वस्तुको तत्-अतत् स्वरूप माननेपर विरोध दिखाई देता है। परन्तु विचारकर देखा जाय तो इसमें विरोधकी कोई बात नहीं है। खुलासा इस प्रकार है २० Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ यहाँपर वस्तुको जिस अपेक्षासे तत्स्वरूप स्वीकार किया है उसी अपेक्षासे उसे अतत्स्वरूप नहीं स्वीकार किया है। उदाहरणार्थ एक ही व्यक्ति अपने पिताकी अपेक्षा पुत्र है और अपने पुत्रकी अपेक्षा पिता है. इसलिए जिस प्रकार एक ही व्यक्तिमें भिन्न-भिन्न अपेक्षाओंसे पितत्व और पुत्रत्व आदि विविध धर्मोका सद्भाव बन जाता है उसी प्रकार प्रत्येक पदार्थ द्रव्याथिक दृष्टिसे तत्स्वरूप है, क्योंकि अनन्तकाल पहले वह जितना और जैसा था उतना और वैसा ही वर्तमानकालमें भी दृष्टिगोचर होता है और वर्तमानकालमें वह जितना और जैसा है उतना और वैसा ही वह अनन्तकाल तक बना रहेगा। उसमेंसे कोई एक प्रदेश या गुण खिसक जाता हो और उसका स्थान कोई अन्य प्रदेश या गण ले लेता हो ऐसा नहीं है, इसलिए तो वह सदाकाल तत्स्वरूप किन्तु इस प्रकार उसके तत्स्वरूप सिद्ध होनेपर भी पर्यायरूपसे भी वह नहीं बदलता हो ऐसा नहीं है, बते हैं कि जो बालक जन्मके समय होता है। कालान्तरमें वह वही होकर भी अन्य रूप भी हो जाता है, अन्यथा उसमें बालक, युवा और वृद्ध इत्यादिरूपसे विविध अवस्थाएँ दृष्टिगोचर नहीं हो सकतीं, इसलिए विवक्षाभेदसे तत् और अतत् इन दोनों धर्मोंको एक ही वस्तुमें स्वीकार करने में कोई बाधा नहीं आती। मात्र अन्वयको स्वीकार करनेवाले द्रव्याथिकनयकी दृष्टिसे विचार करनेपर तो प्रत्येक पदार्थ हमें तत्स्वरूप ही प्रतीत होता है और उसी पदार्थको व्यतिरेकको स्वीकार करनेवाले पर्यायाथिकनयकी दृष्टिसे देखनेपर वह मात्र अतत्स्वरूप ही प्रतीत होता है। इसलिए प्रत्येक पदार्थ द्रव्याथिकनयसे तत्स्वरूप ही है और पर्यायाथिकनयसे अतत्स्वरूप ही है। इसी प्रकार प्रत्येक पदार्थ सत् भी है और असत् भी है। प्रत्येक पदार्थ स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्वभावरूपसे अस्तिरूप ही है, इसलिए तो वह सत् ही है और उसमें परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल और परभावका सर्वथा अभाव है इसलिए इस दृष्टिसे वह असत् ही है। प्रत्येक पदार्थकी नित्यानित्यता और एकानेकता इसी प्रकार साध लेनी चाहिये, क्योंकि जब हम किसी पदार्थका द्रव्यदृष्टिसे अवलोकन करते हैं तो वह जहाँ हमें एक ओर नित्य प्रतीत होता है वहाँ उसे पर्यायदृष्टिसे देखनेपर उसमें अनेकता और अनित्यता भी प्रमाणित होती है। शास्त्रोंमें प्रकृत विषयको पुष्ट करनेके लिए अनेक उदाहरण दिये गये हैं। विचार करनेपर विदित होता है कि प्रत्येक द्रव्य एक अखण्ड पदार्थ है। इस दृष्टिसे उसका विचार करनेपर उसमें द्रव्यभेद, क्षेत्रभेद, कालभेद और भावभेद सम्भव नहीं है, अन्यथा वह अखण्ड एक पदार्थ नहीं हो सकता, इसलिए द्रव्यार्थिकदृष्टि (अभेददृष्टि) से उसका अवलोकन करनेपर वह तत्वस्वरूप, एक, नित्य और अस्तिरूप ही प्रतीतिमें आता है। किन्तु जब उसका नाना अवयव, अवयवोंका पृथक्-पृथक क्षेत्र, प्रत्येक समयमें होनेवाला उनका परिणामलक्षण स्वकाल और उसके रूप-रसादि या ज्ञान दर्शनादि विविध भाव इन सबकी दृष्टिसे विचार करते हैं तो वह एक अखण्ड पदार्थ अतत्त्वरूप, अनेक, अनित्य और नास्तिरूप ही प्रतीतिमें आता है। प्रत्येक पदार्थ तद्धिन्न अन्य अनन्त पदार्थोंसे पृथक होनेके कारण उसमें उन अनन्त पदार्थोका अत्यन्ताभाव है यह तो स्पष्ट है ही, अन्यथा उसका स्वद्रव्यादिकी अपेक्षा स्वरूपास्तित्व आदि ही सिद्ध नहीं हो सकता और न उन अनन्त पदार्थों में अपने-अपने द्रव्यादिकी अपेक्षा भेदक रेखा ही खींची जा सकती है। आचार्य समन्तभद्र ने अत्यन्ताभावके नहीं माननेपर किसी भी द्रव्यका विवक्षित द्रव्यादिरूपसे व्यपदेश करना सम्भव नहीं है यह जो आपत्ति दी है वह इसी अभिप्रायको ध्यानमें रख कर ही दी है। साथ ही गुण-पर्यायोंके किंचित् मिलित स्वभावरूप वह स्वयं ही एक है और एक नहीं है, नित्य है और नित्य नहीं है, तत्स्वरूप है और Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : २२७ तत्स्वरूप नहीं है तथा अस्तिरूप है और अस्तिरूप नहीं है, क्योंकि द्रव्याथिक दृष्टिसे उसका अवलोकन करनेपर जहाँ वह एक, नित्य, तत्स्वरूप और अस्तिरूप प्रतीतिमें आता है वहाँ पर्यायाथिकदृष्टिसे उसका अवलोकन करनेपर वह एक नहीं है अर्थात् अनेक है, नित्य नहीं है अर्थात् अनित्य है, तत्स्वरूप नहीं है अर्थात् अवत्स्वरूप है और अस्तिरूप नहीं है, अर्थात नास्तिरूप है ऐसा भो प्रतीतिमें आता है। अन्यथा उसमें प्रागभाव, प्रध्वंसाभाव और अन्योन्याभावकी सिद्धि न हो सकनेके कारण न तो उसका विवक्षित समयमें विवक्षित आकार हो सिद्ध होगा और न उसमें जो गणभेद और पर्यायभेदकी प्रतीति होती है वह भी बन सकेगी। आचार्य समन्तभद्रने प्रागभावके नहीं माननेपर कार्यद्रव्य अनादि हो जायगा, प्रध्वंसाभावके नहीं माननेपर कार्यद्रव्य अनन्तताको प्राप्त हो जायगा और इतरेतराभावके नहीं माननेपर वह एक सर्वात्मक हो जायगा यह जो आपत्ति दी है वह इसी अभिप्रायको ध्यानमें रखकर ही दी है। स्वामी समन्तभद्र 'प्रत्येक पदार्थ कथंचित सत् है और कथंचित् असत् है' इसे स्पष्ट करते हए कहते है : सदेव सर्वं को नेच्छेत् स्वरूपादिचतुष्टयात् । असदेव विपर्यासान्न चेन्न व्यवतिष्ठते ॥१५॥ । ऐसा कौन पुरुष है, जो, चेतन और अचेतन समस्त पदार्थ जात स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्वभावकी अपेक्षा सत्स्वरूप ही है, ऐसा नहीं मानता और परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल और परभावकी अपेक्षा असत्स्वरूप ही है, ऐसा नहीं मानता, क्योंकि ऐसा स्वीकार किये बिना किसी भी इष्टतत्त्वकी व्यवस्था नहीं बन सकती ।।१५।। उक्त व्यवस्थाको स्वीकार नहीं करनेपर इष्ट तत्त्वकी व्यवस्था किस प्रकार नहीं बन सकती इस विषय को स्पष्ट करते हुए विद्यानन्दस्वामी उक्त श्लोककी टोकामें कहते हैं स्वपररूपोपादानापोहनव्यवस्थापाद्यत्वाद्वस्तुनि वस्तुत्वस्य, स्वरूपादिव पररूपादपि सत्त्वे चेतनादेरचेतनादित्वप्रसंगात् तत्स्वात्मवत्, पररूपादिव स्वरूपादप्यसत्त्वे सर्वथा शून्यतापत्तेः, स्वद्रव्यादिव परद्रव्यादपि सत्त्वे द्रव्यप्रतिनियमविरोधात् । इसमें सर्वप्रथम तो वस्तुका वस्तुत्व क्या है इसका स्पष्टीकरण करते हुए आचार्य विद्यानन्दने कहा है कि जिस व्यवस्थासे स्वरूपका उपादान और पररूपका अपोहन हो वही वस्तुका वस्तुत्व है। फिर भी जो इस व्यवस्थाको नहीं मानना उसके सामने जो आपत्तियाँ आती हैं उनका खुलासा करते हुए वे कहते हैं १. यदि स्वरूपके समान पररूपसे भी वस्तुको अस्विरूप स्वीकार किया जाता है तो जितने भी चेतनादिक पदार्थ हैं वे जैसे स्वरूपसे चेतन हैं वैसे ही वे अचेतन आदि भी हो जावेंगे । २. पररूपसे जैसे उनका असत्त्व है उसी प्रकार स्वरूपसे भी यदि उनका असत्त्व मान लिया जाता है तो स्वरूपास्तित्वके नहीं बननेसे सर्वथा शन्यताका प्रसंग आ जायगा। ३. तथा स्वद्रव्यके समान परद्रव्यरूपसे भी यदि सत्त्व मान लिया जाता है तो द्रव्योंका प्रतिनियम होने में विरोध आ जायगा। यत उक्त दोष प्राप्त न हों अतः प्रत्येक चेतन-अचेतन द्रव्यको स्वरूपसे सद्रूप ही और पररूपसे असद्रूप ही मानना चाहिए । ११. उदाहरण द्वारा उक्त विषयका स्पष्टीकरण एक घटके आश्रयसे भट्टाकलंकदेवने घटका स्वात्मा क्या और परात्मा क्या इस विषयपर महत्त्वपूर्ण प्रकाश डाला है । इससे समय-प्राभूत आदि शास्त्रोंमें स्वसमय और परसमयका जो स्वरूप बतलाया गया है Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ उसपर मौलिक प्रकाश पड़ता है, इसलिए यहाँपर घटका स्वात्मा क्या और परात्मा क्या इसका विविध दृष्टियोंसे ऊहापोह करना इष्ट समझकर तत्त्वार्थवार्तिक, (अ० १, सूत्र ६) में इस सम्बन्धमें जो कुछ भी कहा गया है उसके भावको यहाँ उपस्थित करते हैं . १. जो घट बुद्धि और घट शब्दकी प्रवृत्तिका हेतु है वह स्वात्मा है और जिसमें घट बुद्धि और घट शब्दकी प्रवृत्ति नहीं होती वह परात्मा है । घट स्वात्माकी दृष्टिसे अस्तित्वरूप है और परात्माकी दृष्टिसे नास्तित्वरूप है। २. नामघट, स्थापनाघट, द्रव्यघट और भावघट इनमेंसे जब जो विवक्षित हो वह स्वात्मा और तदितर परात्मा । यदि उस समय विवक्षितके समान इतररूपसे भी घट माना जाय या इतर रूपसे जिस प्रकार वह अघट है उसी प्रकार विवक्षित रूपसे भी वह अघट माना जाय तो नामादि व्यवहारके उच्छेदका प्रसंग आता है। ३. घट शब्दके वाच्य समान धर्मवाले अनेक घटोंमेंसे विवक्षित घटके ग्रहण करने पर जो प्रतिनियत आकार आदि है वह स्वात्मा और उससे भिन्न अन्य परात्मा । यदि इतर घटोंके आकारसे वह घट अस्तित्व रूप हो जाय तो सभी घट एक घटरूप हो जायेंगे और ऐसी अवस्थामें सामान्यके आश्रयसे होनेवाले व्यवहारका लोप ही हो जायगा। ४. द्रव्यार्थिकदृष्टिसे अनेक क्षणस्थायी घटमें जो पूर्वकालीन कुशूलपर्यन्त अवस्थायें होती हैं वे और जो उत्तरकाल न कपालादि अवस्थायें होती हैं वे सब परात्मा और उनके मध्यमें अवस्थित घटपर्याय स्वात्मा । मध्यवर्ती अवस्थारूपसे वह घट है, क्योंकि घटके गुण-क्रिया आदि उसी अवस्थामें होते हैं। यदि कुशलान्त और कपालादिरूपसे भी घट होवे तो घट अवस्थामें भी उनकी उपलब्धि होनी चाहिए । और ऐसी अवस्थामें घटकी उत्पत्ति और विनाशके लिए जो प्रयत्न किया जाता है उसके अभावका प्रसंग आता है। इतना ही क्यों, यदि अन्तरालवर्ती अवस्थारूपसे भी वह अघट हो जावे तो घटकार्य और उससे होनेवाले फलकी प्राप्ति नहीं होनी चाहिये । ५. उस मध्य कालवर्ती घटस्वरूप व्यञ्जनपर्यायमें भी घट प्रति समय उपचय और अपचयरूप होता रहता है, अतः ऋजुसूत्रनयको दृष्टिसे एक क्षणवर्ती घट ही स्वात्मा है और उसी घटकी अतीत और अनागत पर्याय परात्मा हैं । यदि प्रत्युपन्न क्षणकी तरह अतीत और अनागत क्षणों से भी घटका अस्तित्व माना जाय तो सभी घट वर्तमान क्षणमात्र हो जायेंगे । या अतीत अनागतके समान वर्तमान क्षणरूपसे भी असत्त्व माना जाय तो घटके आश्रयसे होनेवाले व्यवहारका ही लोप हो जायगा। ६. अनेक रूपादिके समुच्चयरूप उसी वर्तमान घटमें पृथुबुध्नोदराकारसे घट अस्तित्वरूप है, अन्यरूपसे नहीं; क्योंकि उक्त आकारसे ही घट व्यवहार होता है, अन्यसे नहीं। यदि उक्त आकारसे घट न होवे तो उसका अभाव ही हो जायगा और अन्य आकारसे रहित पदार्थोमें भी घटव्यवहार होने लगेगा। ७. रूपादिके सन्निवेशविशेषका नाम संस्थान है। उसमें चक्षुसे घट-ग्रहण होने पर रूपमुखसे घटका ग्रहण हुआ इसलिए रूप स्वात्मा है और रसादि परात्मा हैं। वह घट रूपसे अस्तित्वरूप है और रसादिरूपसे नास्तित्वरूप है । जब चक्षुसे घटको ग्रहण करते हैं तब यदि रसादि भी घट है ऐसा ग्रहण हो जाय तो रसादि भी चक्षुग्राह्य होनसे रूप हो जायेंगे और ऐसी अवस्थामें अन्य इन्द्रियों की कल्पना ही निरर्थक हो जायगी । अथवा चक्षु इन्द्रिय से रूप भी घट है ऐसा ग्रहण न होवे तो वह चक्षु इन्द्रियका विषय ही न ठहरेगा। ८. शब्दभेदसे अर्थभेद होता है, अतः घट, कुट आदि शब्दोंका अलग अलग अर्थ होगा। जो घटनक्रियासे परिणत होगा वह घट कहलायेगा और जो कुटिलरूप क्रियासे परिणत होगा वह कुट कहलायेगा। Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : २२९ ऐसी अवस्थामें घटन क्रियाका कर्तृभाव स्वात्मा है और अन्य परात्मा । यदि अन्यरूपसे भी घट कहा जाय तो पटादिसे भी घट व्यवहार होना चाहिए और इस तरह सभी पदार्थ एक शब्दके वाच्य हो जायेंगे । अथवा घटन क्रियाको करते समय भी वह अघट होवे तो घट व्यवहारकी निवृत्ति हो जायगी। ९. घट शब्दके प्रयोगके बाद उत्पन्न हुआ घटरूप उपयोग स्वात्मा है, क्योंकि वह अन्तरंग है और अहेय है तथा बाह्य घटाकार परात्मा है, क्योंकि उसके अभावमें भी घटव्यवहार देखा जाता है । वह उपयोगाकारसे है अन्य रूपसे नहीं। यदि घट उपयोगाकारसे भी न हो तो वक्ता और श्रोताके उपयोगरूप घटाकारका अभाव हो जानेसे उसके आश्रयसे होनेवाला व्यवहार लुप्त हो जायगा । अथवा इतररूपसे भी यदि घट होवे तो पटादिको भी घटत्वका प्रसंग आ जायगा । १०. चैतन्यशक्तिके दो आकार होते हैं-ज्ञानाकार और ज्ञेयाकार । प्रतिबिम्बसे रहित दर्पणके समान ज्ञानाकार होता है और प्रतिबिम्बयुक्त दर्पणके समान ज्ञयाकार होता है। उसमें घटरूप ज्ञेयाकार स्वात्मा है, क्योंकि इसीके आश्रयसे घट व्यवहार होता है और ज्ञानाकार परात्मा है, क्योंकि वह सर्वसाधारण है । यदि ज्ञानाकारसे घट माना जाय ता पटादि ज्ञानके कालमें भी ज्ञानाकारका सन्निधान होनेसे घटव्यवहार होने लगेगा और यदि घटरूप ज्ञेयाकारके कालमें घट नास्तित्वरूप माना जाय तो उसके आश्रयसे इतिकर्तव्यताका लोप हो जायगा । यह एक ही पदार्थमें एक कालमें नयभेदसे सत्त्वधर्म और असत्त्वधर्मकी व्यवस्था है। आशय यह कि प्रत्येक पदार्थमें जब जो धर्म विवक्षित होता है तब उसकी अपेक्षा वह अस्तित्वरूप होता है और तदितर अन्य धर्मोंकी अपेक्षा वह नास्तित्वरूप होता है। अस्तित्व धर्मका नास्तित्व धर्म अविनाभावी है, इसलिए जहाँ किसी एक विवक्षासे अस्तित्व घटित किया जाता है वहाँ तद्धिन्न अन्य विवक्षासे नास्तित्व धर्म होता ही है। न तो केवल अस्तित्व ही वस्तुका स्वरूप है और न केवल नास्तित्व ही। सत्ताका लक्षण करते हुए आचार्यों ने उसे सप्रतिपक्ष कहा है वह इसी अभिप्रायसे कहा है। . उदाहरणार्थ जब हम किसी विवक्षित मनुष्यको नाम लेकर बुलाते हैं तो उसमें उससे भिन्न अन्य मनुष्योंको बुलानेका निषेध गर्भित रहता ही है। या जैसे हम किसी विवक्षित पर्यायके ऊपर दष्टि डालते हैं तो उसमें तद्भिन पर्यायोंका अभाव गर्भित रहता हो है। या जब हम किसीके भव्य होनेका निर्णय करते है तो उसमें अभव्यताका अभाव गभित है ही। इसलिए कहीं पर मात्र विधिद्वारा किसी धर्म विशेषका सत्त्व स्वीकार किया गया हो तो उसमें तदितरका अभाव गभित ही है ऐसा समझना चाहिए। एक वस्तु में विवक्षित धर्मकी अपेक्षासे अस्तित्व और अन्यकी अपेक्षासे नास्तित्व यही अनेकान्त है । इससे विवक्षित वस्तूमें धर्मविशेषकी प्रतिष्ठा होकर उसमें अन्यका उस रूपसे होनेका निषेध हो जाता है। यहाँ जिस प्रकार सदसत्त्वकी अपेक्षा अनेकान्तका निर्देश किया है उसी प्रकार तदतत्त्व, एकानेकत्व और भेदाभेदत्व आदिकी अपेक्षा भी उसका निर्देश कर लेना चाहिए। इस विषयको स्पष्ट करते हुए नाटकसमयसारके स्याद्वाद अधिकारमें पण्डितप्रवर बनारसीदासजी कहते है द्रव्य क्षेत्र काल भाव चारों भेद वस्तु ही में अपने चतुष्क वस्तु अस्तिरूप मानिये । परके चतुष्क वस्तु न अस्ति नियत अंग ताको भेद द्रव्य परयाय मध्य जानिये ।। दरव जो वस्तु क्षेत्र सत्ताभूमि काल चाल स्वभाव सहज मूल सकति बखानिये । Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० : सिद्धान्ताचार्य पं० फलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ याही भाँति पर विकलप बुद्धि कलपना व्यवहार दृष्टि अंश भेद परमानिये ॥१०॥ प्रवचनसार ज्ञेयाधिकार गाथा १०३ से ११५ तक विशेष द्रष्टव्य है। इसमें एक ही द्रव्य कैस तत्अतत्स्वरूप आदि है यह स्पष्ट करनेके साथ सप्तभंगीका भी निर्देश किया गया है। १२. जिनागममें मूल दो नयोंका हो उपदेश है प्रवचनसार और तत्त्वार्थसूत्र आदिमें द्रव्यका “गुणपर्ययवद्रव्यम्" । यह लक्षण दृष्टिगोचर होता है । इसपर तत्त्वार्थवातिकमें शंकासमाधान करते हुए भट्टाकलंकदव कहते हैं गुणा इति संज्ञा तन्त्रान्तराणाम्, आर्हतानां तु द्रव्यं पर्यायश्चेति द्वितीयमेव तत्त्वम्, अतश्च द्वित.यमेव तद्वयोपदेशात् । द्रव्यार्थिकः पर्यायार्थिक इति द्वावेव मूलनयौ । यदि गुणोऽपि कश्चित् स्यात्, तद्विषयेण मूलनयेन तृतीयेन भवितव्यम् । न चास्त्यसाविति अतो गुणाभावात् गुणपर्यायवदिति निर्देशो न युज्यते ? तन्न, किं कारणम्, अर्हत्प्रवचनहृदयादिषु गुणोपदेशात् । उक्तं हि अर्हत्प्रवचने 'द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणाः' इति । अन्यत्र चोक्तम् गुण इदि दव्वविधाणं दव्ववियारो य पज्जयो भणिदो । तेहिं अणूणं द्रव्वं अजुदपसिद्धं हवदि णिच्चं ॥ यदि गणोऽपि विद्यते, ननु चोक्तम्-तद्विषयस्ततीयो मलनयः:प्नोति ? नैष दोषः, द्रव्यस्य दावात्मानौ सामान्य विशेषश्चेति । तत्र सामान्यमत्सर्गोऽन्वयः गण इत्यनर्थान्तरम। विशेषो भेदः पर्याय इति पर्यायशब्दः । तत्र सामान्यविषयो नयो द्रव्याथिकः। विशेषविषयः पर्यायाथिकः । तदुभयं समुदितमयुतसिद्धरूपं द्रव्यमित्युच्यते । न तद्विसयस्तृतीयो नयो भवितुमर्हति, विकल्पादेशत्वान्नयानाम् । तत्समुदायोऽपि प्रमाणगोचरः, सकलादेशत्वात् प्रमाणस्य । गुणा एव पर्याया इति वा निर्देशः । अथवा उत्पाद-व्यय-ध्रौव्याणि न पर्यायाः। न तेभ्योऽन्ये गुणा सन्ति । ततो गुणा एव पर्याया इति सति समानाधिकरण्ये मतौ सति गुण-पर्यायवदिति निर्देशो युज्यते । पृ० २४३।। शंका-गुण यह संज्ञा अन्य दर्शनोंकी है । आहत दर्शनमें तो द्रव्य और पर्याय इस प्रकार दो रूप ही तत्त्व है और इसलिये तत्त्वको दो रूप स्वीकार कर उन दोका उपदेश दिया गया है। द्रव्याथिक और पर्यायाथिक ये दो मूल नय हैं। यदि गुण भी कोई पृथक् तत्त्व है तो उसको विषय करनेवाला तीसरा नय होना चाहिये । परन्तु तीसरा नय नहीं है, इसलिये गुणका अभाव होनेसे 'गुण-पर्यायवद् द्रव्यम्' यह निर्देश नहीं बन सकता? समाधान-ऐसा नहीं है, क्योंकि अर्हत्प्रवचन आदि आगमोंमें गुणका उपदेश है । अर्हत्प्रवचनमें कहा भी है-जो द्रव्यके आश्रयसे हों और स्वयं गुणरहित हों वे गुण हैं । अन्यत्र भी कहा है प्रत्येक द्रव्यके त्रिकाली स्वरूपका ख्यापन करनेवाला गुण है और द्रव्यका विकार पर्याय कहा गया है। इन दोनोंसे सदा काल अयुतसिद्ध द्रव्य है। शंका-यदि गुण अस्तिरूप है तो हम जो कह आये हैं कि उसको विषय करनेवाला तीसरा नय होना चाहिये ? समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि द्रव्य सामान्य और विशेष इन दो रूप है । उनमेंसे सामान्य, उत्सर्ग, अन्वय और गुण ये एक ही अर्थके वाचक शब्द है । तथा विशेष, भेद और पर्याय ये तीनों पर्यायवाची शब्द हैं। उनमेंसे सामान्यको विषय करनेवाले नयका नाम द्रव्याथिक है और विशेषको विषय Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थं खण्ड : २३१ करनेवाले नयका नाम पर्यायार्थिक है । इन दोनोंसे अयुतसिद्ध समुदायरूप द्रव्य कहा जाता है । अतएव गुणको विषय करनेवाला तीसरा नय नहीं हो सकता, क्योंकि नय विकल्पोंके अनुसार प्रवृत्त होते हैं । सामान्य और विशेषका समुदित रूप प्रमाणका विषय है, क्योंकि प्रमाण सकलादेशी होता I अथवा गुण ही पर्याय है ऐसा निर्देश करना चाहिये । अथवा उत्पाद, व्यय और धौव्य हैं, पर्याय नहीं है और उनसे भिन्न गुण नहीं हैं । इसलिये गुण ही पर्याय हैं । ऐसी अवस्था में समानाधिकरणमें मवुप, प्रत्यय करनेपर 'गुण-पर्यायवद् द्रव्यम्' यह निर्देश बन जाता है । आशय यह है कि गुणोंका सामान्य में अन्तर्भाव होनेपर वे द्रव्यार्थिक नयके विषय हैं और भेद विवक्षामें गुण और पर्यायोंमें अभेद स्वीकार करनेपर वे पर्यायार्थिक नयके विषयरूपसे स्वीकृत किये जाते हैं, इसलिये द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक ये दो ही नय सिद्ध होते हैं, तीन नहीं । तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकमें भी द्रव्यके उक्त लक्षणपर विचार करते हुए आचार्य विद्यानन्द कहते हैं नन्वेवमत्रापि पर्यायवद् द्रव्यमित्युक्ते गुणवदित्यनर्थकम्, सर्वद्रव्येषु पर्यायबन्धस्य भावात् । गुणवदिति चोक्ते पर्यायवदिति व्यर्थम्, तत एवेति तदुभयं लक्षणं द्रव्यस्य किमर्थमुक्तम् । शंका - जो गुण पर्यायवाला हो वह द्रव्य है इस लक्षण में भी जो पर्यायवाला हो वह द्रव्य है इतना कहने पर जो गुणवाला है वह द्रव्य है ऐसा कहना निरर्थक है, क्योंकि सभी द्रव्योंमें पर्यायोंकी अनुवृत्ति देखी जाती है । और यदि जो गुणवाला हो वह द्रव्य है ऐसा कहनेपर जो पर्यायवाला हो वह द्रव्य है ऐसा कहना व्यर्थ है, क्योंकि सभी द्रव्य गुणवाले देखे जाते हैं, इसलिये द्रव्यका लक्षण उभयरूप किसलिये कहा गया है ? यह एक शंका है । इसका समाधान करते हुए आचार्य विद्यानन्द कहते हैं सहानेकान्तसिद्धये । क्रान्तसिद्धये ॥२॥ पृ० ४३८ ॥ जो गुणवाला हो वह द्रव्य है यह वचन सह अनेकान्तकी सिद्धिके लिये कहा गया है तथा जो पर्यायवाला हो वह द्रव्य है यह वचन क्रम अनेकान्तकी सिद्धि के लिये कहा गया है || २ || गुणवद् द्रव्यमित्युक्तं तथा पर्यायवद् द्रव्यं आशय यह है कि प्रत्येक द्रव्य युगपत् अनेक धर्मोका आधार है । इस प्रकार परस्पर विरुद्ध अनेक धर्मो सद्भाव एकद्रव्यमें बन जाता है इसलिये सह अनेकान्तकी सिद्धिके लिये द्रव्यका जो गुणवाला हो वह द्रव्य है यह लक्षण योजित किया गया है । परन्तु जो द्रव्यजात है वह नित्य होने के साथ परिणामी भी है इस प्रकार क्रम अनेकान्तकी सिद्धिके लिये द्रव्यका जो पर्यायवाला हो वह द्रव्य है यह लक्षण कहा गया है। इस प्रकार प्रत्येक द्रव्य परस्पर विरुद्ध अनेक धर्मोका आधार होनेके साथ कथंचित् ( किसी अपेक्षासे) है और कथंचित् ( किसी अपेक्षासे) अनित्य ही है यह सिद्ध हो जाता है । नित्य इस प्रकार प्रत्येक द्रव्यके अपेक्षा भेदसे तत् अतत्, एक-अनेक, सत्-असत् और नित्य-अनित्य सिद्ध होने में कोई बाधा नहीं आती । शंका- यदि सापेक्ष दृष्टिसे वस्तुको अनेकान्तात्मक माना जाता है तो प्रत्येक वस्तु स्वरूपसे अनेकान्तरूप है यह नहीं सिद्ध होता ? समाधान - अनेकान्त यह वस्तुका स्वरूप है, क्योंकि अपने स्वरूपको ग्रहणकर और परके स्वरूपका अपोहनकर स्थित रहना यह वस्तुका वस्तुत्व है । इसलिये अपेक्षा भेदसे अनेकान्तरूप वस्तुकी सिद्धि करना अन्य बात है । स्वरूपकी दृष्टिसे देखा जाय तो निरपेक्षरूपसे वह स्वयं ही अनेकान्तमय है । Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ १३. स्यात् पदको उपयोगिता इस प्रकार प्रत्येक वस्तु स्वयं अनेकान्तस्वरूप कैसे है और इस रूप उसकी सिद्धि कैसे होती है इसका स्पष्टीकरण करनेके बाद अब जयधवला पु० १ पृ० २८१ के आधारसे स्यात् पदकी उपयोगितापर विशेष प्रकाश डालते हैं। रसकषाय किसे कहते हैं इसका समाधान करते हुए आचार्य यतिवृषभ कहते हैं कि कषायरसवाले द्रव्य या द्रव्योंको कषाय कहते हैं । (ज० ध०, पु० १, पृ० २७७) इस सूत्रकी टीका करते हुए आचार्य वीरसेन कहते हैं कि द्रव्य दो प्रकारके पाये जाते हैं एक कषाय (कसैले) रसवाले और दूसरे अकषाय (अकसैले) रसवाले । इसलिये उक्त सूत्रका यह अर्थ होता है कि जिस एक या अनेक द्रव्योंका रस कसैला होता है वे स्यात् कषाय कहलाते हैं । इसपर यह शंका हुई कि सुत्रमें 'स्यात' पदका प्रयोग नहीं किया गया है, फिर यहाँ स्यात् पदका प्रयोग क्यों किया गया है। इसका समाधान करते हुए आचार्य वीरसेन कहते हैं कि जिस प्रकार प्रभा दो स्वभाववाली होती है। एक तो वह अन्धकारका ध्वंस करती है और दूसरे वह सभी पदार्थों को प्रकाशित करती है उसी प्रकार प्रत्येक शब्द प्रतिपक्ष अर्थका निराकरणकर इष्टार्थका ही समर्थन करता है । इसलिये विवक्षित अर्थके साथ प्रतिपक्ष अर्थ है इसे द्योतित करनेके लिये यहाँ सूत्रमें 'स्यात्' पदके प्रयोगका अध्याहार किया गया है। इतना स्पष्ट करनेके बाद उक्त तथ्यको ध्यानमें रखकर सप्तभंग की योजना की गई है। यथा (१) द्रव्य स्यात् कषाय है। (२) स्यात् नोकषाय है। ये प्रथम दो भंग हैं। इनमें प्रयुक्त हुआ 'स्यात्' पद क्रमसे नोकषाय और कषाय तथा कषाय-नोकषायविषयक अर्थ पर्यायोंको द्रव्यमें घटित करता है। (३) स्यात अवक्तव्य है। यह तीसरा भंग है। यहाँ कषाय और नोकषायविषयक अर्थपर्यायोंकी अपेक्षा द्रव्यको अवक्तव्य कहा गया है । और स्यात् पद द्वारा कषाय-नोकषायविषयक व्यंजनपर्यायों को द्रव्यमें घटित किया गया है। (४) द्रव्य स्यात् कषाय और नोकषाय है । यह चौथा भंग है। यहां प्रयुक्त हुआ स्यात् पद द्रव्यमें कषाय और नोकषाय विषयक अर्थपर्यायोको घटित करता है।। (५) द्रव्य स्यात् कषाय और अवक्तव्य है। यह पाँचवाँ भंग है। इसमें प्रयुक्त हुआ स्यात् पद द्रव्यमें नोकषायपनेको घटित करता है। (६) द्रव्य स्यात् नोकषाय और अवक्तव्य है। यह छठा भंग है। इसमें प्रयुक्त हुआ स्यात् पद कषायपनेको घटित करता है। (७) द्रव्य स्यात् कषाय, नोकषाय और अवक्तव्य है । यह सातवाँ भंग है। इसमें प्रयुक्त हुआ स्यात् पद कषाय नोकषाय और अवक्तव्य इन तीनों धर्मोंकी अक्रमवृत्तिको सूचित करता है। इससे विदित होता है कि प्रमाण सप्तभंगीका प्रत्येक भंग किस प्रकार अपूर्व धर्मके साथ समग्र वस्तुको सूचित करता है। इस दृष्टिसे देखा जाय तो ये सातों भंग अपुनरुक्त हैं यह सूचित होता है। इसीका नाम स्याद्वाद है । तथा इसीको कथंचित्वाद भी कहते हैं । १४. अनेकान्त कथंचित् अनेकान्तस्वरूप है ___इस प्रकार प्रमाण सप्तभंगीके द्वारा अनेकान्तस्वरूप वस्तुका कथन करनेके बाद अनेकान्तरूप वस्तु सर्वथा अनेकान्तरूप है या कथंचित् अनेकान्तरूप है इसे स्पष्ट करने के लिये तत्त्वार्थवार्तिक अ० १ स०६ में शंका-समाधान करते हुए लिखा है Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : २३३ शंका-अनेकान्तमें यह विधि-प्रतिषेध कल्पना नहीं घटित होती। यदि अनेकान्तमें भी विधि-प्रतिषेध कल्पना घटित होती है तो जिस समय प्रतिषेध कल्पना द्वारा अनेकान्तका निषेध किया जाता है उस समय एकान्तकी प्राप्ति होती है। यदि अनेकान्तमें भी अनेकान्त लगाया जाता है तो अनवस्था दोष आता है, इसलिये वहाँ अनेकान्तपना ही बननेसे उसमें सप्तभंगी घटित नहीं होती? समाधान--नहीं, क्योंकि अनेकान्तमें भी सप्तभंगी घटित हो जाती है । यथा (१) स्यात् एकान्त है, (२) स्यात् अनेकान्त है, (३) स्यात् उभय है, (४) स्यात् अवक्तव्य है, (५) स्यात् एकान्त अवक्तव्य है, (६) स्यात् अनेकान्त अवक्तव्य है, (७) स्यात् एकान्त, अनेकान्त अवक्तव्य है। शंका-यह कैसे ? समाधान-प्रमाण और नयकी मुख्यतासे यह व्यवस्था बन जाती है। इसे स्पष्ट करते हुए वे लिखते हैं एकान्त दो प्रकारका है-सम्यक् एकान्त और मिथ्या एकान्त। अनेकान्त भी दो प्रकारका हैसम्यक् अनेकान्त और मिथ्या अनेकान्त । खुलासा इस प्रकार है । प्रमाणके द्वारा निरूपित वस्तुके एक देशको सयक्तिक ग्रहण करनेवाला सम्यक है। एक धर्मकी सर्वथा अवधारणा करके अन्य धर्मोका निराकरण करनेवाला मिथ्या एकान्त है। तथा एक वस्तुमें युक्ति और आगमसे अविरुद्ध अनेक विरोधी धर्मोको ग्रहण करनेवाला सम्यक् अनेकान्त है और वस्तुको सत्-असत् आदि स्वभावसे शून्य कहकर उसमें अनेक धर्मोकी मिथ्याकल्पना करनेवाला मिथ्या अनेकान्त है। इनमेंसे सम्यक् एकान्त नय कहलाता है और सम्यक अनेकान्त प्रमाण कहलाता है। उक्त तथ्यको स्पष्ट करते हुए आचार्य समन्तभद्र स्वयंभूस्तोत्रमें कहते हैं अनेकान्तोऽप्यनेकान्तः प्रमाण-नयसाधनः । अनेकान्तः प्रमाणात्ते तदेकान्तोऽपितान्नयात् ।।१०३।। . हे भगवान आपके शासनमें प्रमाण और नयके द्वारा साधित होनेसे अनेकान्त भी अनेकान्त स्वरूप है। प्रमाणकी अपेक्षा अनेकान्तस्वरूप है और विवक्षित नयकी अपेक्षा एकान्तस्वरूप है ॥१०३॥ विकलादेश और सप्तभंगी इस प्रकार विवक्षित नयकी मुख्यतासे वस्तुके कथंचित् एकान्तस्वरूप सिद्ध होनेपर विकलादेश क्या है और उस दृष्टिसे सप्तभंगी कैसे बनती है इस पर ऊहापोह करते हैं एक अखण्ड वस्तु में गुणभेदसे अंश कल्पना करना विकलादेश है। इसमें भी कालादिकी अपेक्षा भेदवृत्ति और भेदोपचारसे सप्तभंगी घटित हो जाती है। यथा 'स्यादस्त्येव जीवः' यह प्रथम भंग है तथा 'स्यान्नास्त्येव जीवः' यह दूसरा भंग है । इसी प्रकार उत्तर पांच भंग जान लेने चाहिये । सर्व सामान्य आदि किसी एक द्रव्यार्थादेशकी अपेक्षा पहला विकलादेश है । इस भंगमें वस्तुमें यद्यपि अन्य धर्म विद्यमान हैं तो भी कालादिकी अपेक्षा भेद विवक्षा होनेसे शब्द द्वारा वाच्यरूपसे वे स्वीकृत नहीं हैं। न तो उनका विधान ही है और न प्रतिषेध ही है । इसी प्रकार अन्य भंगोंमें भी स्वविवर्जित धर्मकी प्रधानता रहती है । तथा अन्य धर्मोके प्रति उदासीनता रहती है । न तो उनका विधान ही होता है और न प्रतिषेध हो । शंका-'अस्त्येव जीव' इसमें एव पद लगाकर विशेषण-विशेष्यभावका नियमन करते हैं तब अर्थात् ही इतर धर्मोकी निवृत्ति हो जाती है. उदासीनता कहाँ रही ? ३० Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ समाधान - इसलिये इतर धर्म को द्योतन करनेके लिये 'स्यात्' पदका प्रयोग किया जाता है । तात्पर्य यह है कि एवकारके प्रयोगसे जब इतर निवृत्तिका वस्तुतः प्रसंग प्राप्त होता है तब 'स्यात् ' पद विवक्षित धर्मके साथ इतर धर्मोकी सूचना दे देता है । । यहाँ भी पहला भंग द्रव्यार्थिकनकी विवक्षा से कहा गया है और दूसरा भंग पर्यायाधिकनकी विवा से घटित होता है । द्रव्यार्थिक नय सत्त्वको विषय करता है और पर्यायार्थिक नय असत्त्वको विषय करता है । यहाँ असा अर्थ सर्वथा अभाव नहीं है । किन्तु भावान्तरस्वभाव धर्म ही यहाँ असत्त्वपद से स्वीकृत है । यह प्रमाण सप्तभंगी के साथ नय सप्तभंगीको संक्षिप्त प्ररूपणा है । १५. मोक्षमार्ग में दृष्टिकी मुख्यता है अब सवाल यह है कि जीवनमें मोक्षमार्गकी प्रसिद्धि के अभिप्रायसे द्रव्यानुयोग परमागम में आत्माको जो स्वतः सिद्ध होनेसे अनादि अनन्त, विशदज्योति, और नित्य उद्योतरूप एक ज्ञायकस्वरूप बतलाया गया है सो क्यों, क्योंकि जब आत्मा द्रव्य पर्याय उभयरूप है तब आत्मा प्रमत्त नहीं है, अप्रमत्त नहीं है ऐसा कहकर पर्यायस्वरूप आत्माका निषेध क्यों किया गया है ? यह एक सवाल है जो उन महाशयों की ओर से उठाया जाता है जो तत्त्वप्ररूपणा और मोक्षमार्ग प्ररूपणाको मिलाकर देखते हैं । वस्तुतः ये महाशय आचार्योंको दृष्टिमें करुणाके पात्र हैं। यहाँ यह दृष्टिमें नहीं लेना है कि उपयोग लक्षणवाला जीव अनेकान्तस्वरूप कैसे हैं । आत्मज्ञान करते समय यह तो पहले ही हृदयंगम कर लिया गया है। यहाँ तो यह दृष्टिमें लेना है कि किस रूप में स्वात्माकी भावना करनेसे हम मोक्षमार्ग के अधिकारी बनकर मोक्षके पात्र हो सकते हैं। समयसार परमागम में इसी तथ्यको विशदरूपसे स्पष्ट किया गया है। हमें समयसार परमागमका मनन इसी दृष्टिसे करना चाहिये। वैसे विचार कर देखा जाय तो वहाँ हमें अनेकान्तगर्भित स्याद्वादवाणीका पद-पद पर दर्शन होता है क्योंकि उसमें आचार्य कुन्दकुन्दने परसे भिन्न एकत्वरूप आत्माको दिखलाते हुए उस द्वारा उसी अनेकान्तका सुचन किया है। वे यह नहीं कहते कि जिसका कोई प्रतिपक्षी ही नहीं है ऐसे एकत्वको दिखलाऊँगा । यदि वे ऐसी प्रतिज्ञा करते तो वह एकान्त हो जाता जो मिथ्या होनेसे इष्टार्थकी सिद्धिमें प्रयोजक नहीं होता । किन्तु प्रतिज्ञा करते हुए कहते हैं कि मैं आत्माके जिस एकत्वका प्रतिपादन करनेवाला हूँ उसका परसे भेद दिखलाते हुए ही प्रतिपादन करूँगा । यदि कोई समझे कि वे इस प्रतिज्ञा वचनको ही करके रह गये है सो भी बात नहीं है, क्योंकि जहाँ पर भी उन्होंने आत्माने शायकस्वभावकी स्थापना की है वहाँ पर उन्होंने परको स्वी कार करके उसमें परका नास्तित्व दिखलाते हुए ही उसकी स्थापना की है। इसी प्रकार प्रकृतिमें प्रयोजनीय अन्य तत्वका कथन करते समय भी उन्होंने गौण-मुख्यभावसे विधि-निषेध दृष्टिको साधक ही उसका कथन किया है। अब इस विषयको स्पष्ट करने के लिए हम समयप्राभूतके कुछ उदाहरण उपस्थित कर देना चाहते हैं १. ' ण वि होदि अपमत्तो ण पमत्तो' इत्यादि गाथाको लें । इस द्वारा आत्मामें ज्ञायकस्वभावका 'अस्तित्वधर्म' द्वारा और उसमें प्रमत्ताप्रमत्तभावका 'नास्तित्वधर्म' द्वारा प्रतिपादन किया गया है ।' दृष्टियाँ दो है-- द्रव्याधिकदृष्टि और पर्यायार्थिकदृष्टि द्रव्यार्थिक दृष्टिसे आत्माका अवलोकन करने पर वह ज्ञायकस्वभाव ही प्रतीतिमें आता है क्योंकि यह आत्माका त्रिकालाबाधित स्वरूप है किन्तु पर्यायार्थिकदृष्टिसे उसी आत्माका अवलोकन करने पर वह प्रमत्तभाव और अप्रमत्तभाव आदि विविध पर्यायरूप ही प्रतीत होता है । इन दोनों रूप आत्मा है इसमें सन्देह नहीं । परन्तु यहाँ पर बन्धपर्यायरूप प्रमत्तादि क्षणिक भावोंसे रुचि हटाकर Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : २३५ इस आत्माको अपने ध्रुवस्वभावको प्रतीति करानो है, इसलिए मोक्षमार्गमें द्रव्यार्थिकदृष्टि (निश्चयनय) की मुख्यता होकर पर्यायार्थिकदृष्टि (व्यवहारनय) गौण हो जाती है । अर्थात् दृष्टि में उसका निषेध हो जाता है । यही कारण है कि यहाँ पर द्रव्याथिकदष्टिकी मुख्यता होनेसे आत्मा ज्ञायकस्वभाव है इसकी अस्तित्व धर्म द्वारा प्रतीति कराई गई है और आत्माके त्रिकालाबाधित ज्ञायकस्वभावमें प्रमत्तादि भाव नहीं हैं यह जानकर आत्मामें इनकी नास्तित्व धर्म द्वारा प्रतीति कराई गई है । तात्पर्य यह है कि प्रकृतिमें द्रव्याथिकनयका विषय विवक्षित होनेसे विवक्षितका 'अस्तित्व' द्वारा और अविवक्षितका 'नास्तित्व' द्वारा कथन कर अनेकान्तकी ही प्रतिष्ठा की गई है। ___२. अब ‘ववहारेणुवदिस्सइ णाणिस्स' इत्यादि गाथाको लें। इसमें सर्वप्रथम उस ज्ञायकस्वभाव आत्मामें पर्यायाथिक दृष्टिसे ज्ञान, दर्शन, चारित्र और वीर्य आदि विविध धर्मोकी प्रतीति होती है यह दिखलानेके लिए व्यवह रनयसे उनका सद्भाव स्वीकार किया गया है इसमें सन्देह नहीं। किन्तु द्रव्यार्थिक दृष्टिसे उसी आत्माका अवलोकन करनेपर ये भेद उसमें लक्षित न होकर एकमात्र त्रिकाली ज्ञायकस्वभावी आत्मा ही प्रतीतिमें आता है, इसलिए यहाँपर भी गाथाके उत्तरार्धमें ज्ञायकस्वभाव आत्माकी अस्तित्व धर्म द्वारा प्रतीति कराकर उसमें अनुपचरित सद्भुत व्यवहारका 'नास्तित्व' दिखलाते हुए अनेकान्तको ही स्थापित किया गया है। ३. जब कि मोक्षमार्गमें निश्चयके विषयमें व्यवहारनयके विषयका असत्त्व ही दिखलाया जाता है तो उसके प्रतिपादनकी आवश्यकता ही क्या है ऐसा प्रश्न होनेपर 'जह ण वि सक्कमणज्जो' इत्यादि गाथामें दृष्टान्त द्वारा उसके कार्यक्षेत्रको व्यवस्था की गई है और नौवीं तथा दशवी गाथामें दृष्टान्तको दार्टान्तमें घटित करके बतलाया गया है । इन तीनों गाथाओंका सार यह है कि व्यवहारनय निश्चयनयके विषयका ज्ञान करानेका साधन (हेतु) होनेसे प्रतिपादन करने योग्य तो अवश्य है, परन्तु मोक्षमार्गमें अनुसरण करने योग्य नहीं है । क्यों अनुसरण करने योग्य नहीं है इस बातका समर्थन करनेके लिए ११वीं गाथामें निश्चयनयकी भूतार्थता और व्यवहारनयकी अभूतार्थता स्थापित की गई है। यहाँपर जब व्यवहारनय है और उसका विषय है तो निश्चयनयके समान यथावसर उसे भी अनुसरण करने योग्य मान लेने में क्या आपत्ति है ऐसा प्रश्न होनेपर १२वीं गाथा द्वारा उसका समाधान करते हुए बतलाया गया है कि मोक्षमार्गमें उपादेयरूपसे व्यवहारनय अनुसरण करने योग्य तो कभी भी नहीं है। हाँ गुणस्थान परिपाटीके अनुसार वह जहाँ जिस प्रकारका होता है उतना जाना गया प्रयोजनवान् अवश्य है। इस प्रकार इस वक्तव्य द्वारा भी व्यवहारनय और उसका विषय है यह स्वीकार करके तथा उसका त्रिकाली ध्रुवस्वभावमें असत्त्व दिलाते हुए अनेकान्तकी ही प्रतिष्ठा की गई है। ४. गाथा १३में जीवादिक नौ पदार्थ हैं यह कहकर व्यवहारनयके विषयको स्वीकृति देकर भी भूतार्थरूपसे वे जाने गये सम्यग्दर्शन है सो प्रकृतमें भूतार्थरूपसे उनका जानना यही है कि जीवपदार्थ नौ तत्त्वगत होकर भी अपने एकत्वसे व्याप्त रहता है यह कहकर मोक्षमार्ग में एकमात्र निश्चयनयका विषय ही उपादेय है यह दिखलाया गया है। इसके बाद गाथा १४में भूतार्थरूपसे नौ पदार्थोके देखनेपर एकमात्र अबद्धस्पृष्ट, अनन्य, नियत, अविशेष और असंयुक्त आत्माका ही अनुभव होता है, अतएव इस प्रकार आत्माको देखनेवाला जो नय है उसे शुद्धनय कहते हैं यह कहकर व्यवहारनयके विषयको गौण और निश्चयनयके विषयको मुख्य करके पुनः अनेकान्तकी ही प्रतिष्ठा की गई है। ५. १५वीं गाथामें उक्त, विशेषणोंसे उक्त आत्माको जो अनुभवता है उसने पुरे जिनशासनको अनुभवा यह कहकर पूर्वोक्त प्रतिपादित निश्चय मोक्षमार्गकी महिमा गाई गई है। व्यवहारनय है Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थं और उसका विषय भी है, परन्तु उससे मुक्त होनेके लिए व्यवहारनयके विषय परसे अपना लक्षा हटाकर निश्चयनयके विषयपर अपना लक्ष्य स्थिर करो। ऐसा करनेसे ही व्यवहाररूप बन्धपर्याय छूट कर निश्चय रत्नत्रयस्वरूप मुक्तिकी प्राप्ति होगा । जिस महान् आत्माने व्यवहाररूप बन्धपर्यायको गौण करके निश्चय रत्नत्रयकी आराधना द्वारा साक्षात् निश्चय रत्नत्रयको प्राप्त किया है उसीने तत्त्वतः पूरे जिनशासनको अनुभवा है । सोचिये तो कि इसके सिवा जिनशासनका अनुभवना और क्या होता है। जैनधर्मके विविध शास्त्रोंको पढ़ लिया, किसी विषयके प्रगाढ़ विद्वान् हो गये यह जिनशासनका अनुभवना नहीं है । जिनशासन तो रत्नत्रयस्वरूप है और उसकी प्राप्ति व्यवहारको गौण किये बिना तथा निश्चयपर आरूढ़ हुए बिना हो नहीं सकती, अतः जिसे पूरे जिनशासनको अपने जीवनमें अनुभवना है उसे हेय या ब धमार्ग जानकर व्यवहारको गौण और मोक्षमार्गमें उपादेय जानकर निश्चयको मुख्य करना ही होगा तभी उसे निश्चय रत्नत्रयस्वरूप जिनशासनके अपने जीवनमें दर्शन होंगे। यह इस गाथाका भाव है। इस प्रकार हम देखते हैं कि इस गाथा द्वारा भी गौण-मुख्यभावसे उसी अनेकान्तका उद्घोष किया गया है। ६. 'दसण-णाण-चरित्ताणि' यह सोलहवीं गाथा है । इसमें सर्वप्रथम साधु अर्थात् ज्ञानीको निरन्तर दर्शन, ज्ञान और चारित्रके सेवन करनेका उपदेश देकर व्यवहारका सूचन किया है। परन्तु विचार कर देखा जाय तो ये दर्शन, ज्ञान और चारित्र आत्माको छोड़कर अन्य कुछ भी नहीं है, इसलिए इस द्वारा भी तत्स्वरूप अखण्ड आत्मा सेवन करने योग्य है यह सूचित किया गया है। तात्पर्य यह है कि निश्चयका ज्ञान करानेके लिए व्यवहार द्वारा ऐसा उपदेश दिया जाता है इसमें सन्देह नहीं, पर उसमें मुख्यता निश्चयकी ही रहती है । इसके विपरीत यदि कोई उस व्यवहारकी ही मुख्यता मान ले तो उसे तत्स्वरूप अखण्ड और अविचल आत्माकी प्रतीति त्रिकालमें नहीं हो सकती । इस गाथाका यही भाव है। इस विषयको स्पष्टरूपसे समझने के लिए गाथाके उत्तरार्धपर ध्यान देनेकी आवश्यकता है, क्योंकि गाथाके पूर्वाधमें जो कुछ कहा गया है उसका उत्तरार्धमें निषेध कर दिया है। सो क्यों ? इसलिए नहीं कि दर्शन, ज्ञान और चारित्र आदि पर्यायदृष्टिसे भी अभूतार्थ हैं, बल्कि इसलिए कि व्यवहारनयसे देखने पर ही उनकी सत्ता है । निश्चयनयसे देखा जाय तो एक ज्ञायकस्वरूप आत्मा ही अनुभवमें आता है, ज्ञान, दर्शन चारित्र नहीं । इसलिए इस कथन द्वारा भी एक अखण्ड और अविचल आत्मा ही उपासना करने योग्य है यही सूचित किया है। इस प्रकार विचार करके देखा जाय तो इस गाथा द्वारा भी व्यवहारको गौण करके और निश्चयको मुख्य करके अनेकान्त ही सूचित किया गया है। - इस प्रकार आचार्य कुन्दकुन्दने व्यवहारसे क्या कहा जाता है और निश्चयसे क्या है इसकी सन्धि मिलाते हए सर्वत्र अनेकान्तकी ही प्रतिष्ठा की है । इतना अवश्य है कि बहुत सा व्यवहार तो ऐसा होता है जो अखण्ड वस्तमें भेदमलक होता है। जैसे आत्माका ज्ञान. दर्शन और चारित्र आदिरूपसे भेद-व्यवहार र बन्धपर्यायकी दृष्टिसे आत्मामें नारकी, तिर्यञ्च, मनुष्य, देव, मतिज्ञानी, श्रतज्ञानी, स्त्री, पुरुष और नपुंसक आदिरूपसे पर्यायरूप भेदव्यवहार । ऐसे भेदद्वारा एक अखण्ड आत्माका जो भी कथन किया जाता है, पर्यायकी मुख्यतासे आत्मा वैसा है इसमें सन्देह नहीं, क्योंकि आत्मा जब जिस पर्यायरूपसे परिणत होता है उस समय वह तद्रूप होता है, अन्यथा आत्माके संसारी और मुक्त ये भेद नहीं बन सकते, इसलिये जब भी आत्माके ज्ञायक स्वभावमें उक्त व्यवहारका 'नास्तित्व' कहा जाता है तब भेदमूलक व्यवहार गौण है और त्रिकाली ध्रुवस्वभावकी मुख्यता है यह दिखलाना ही उसका प्रयोजन रहता है । परन्तु बहुत-सा व्यवहार ऐसा भी होता है जो आत्मामें बाह्य निमित्तादिकी दृष्टिसे या प्रयोजन विशेषसे आरोपित किया जाता है । यह व्यवहार आत्मामें है नहीं, पर परसंयोगकी दृष्टिसे उसमें कल्पित किया Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : २३७ गया है यह उक्त कथनका भाव है। इस विषयको ठीक तरहसे समझनेके लिए स्थापना निक्षेपका उदाहरण पर्याप्त होगा। जैसे किसी पाषाणकी मतिमें इन्द्रकी स्थापना करनेपर यही तो कहा जायगा कि वास्तवमें वह पाषाणकी मूर्ति इन्द्र स्वरूप है नहीं, क्योंकि उसमें जीवत्व, आज्ञा, ऐश्वर्य आदि आत्मगुणोंका अत्यन्ताभाव है । फिर भी प्रयोजनविशेषसे उसमें इन्द्रकी स्थापना की गई है उसी प्रकार बाह्य निमित्तादिकी अपेक्षा आरोपित व्यवहार जानना चाहिए । बाह्य निमित्तादिकी दृष्टिसे आरोपित व्यवहार, जैसे कुम्हारको घटका कर्ता कहना। प्रयोजन विशेषसे आरोपित व्यवहार, जैसे शरीरकी स्तुतिको तीर्थंकरकी स्तुति कहना या सेनाके निकलनेपर राजा निकला ऐसा कहना आदि । विचार कर देखा जाय तो रागादिरूप जीवके परिणाम और कर्मरूप पुद्गल परिणाम ये एक दूसरेके परिणमनमें निमित्त (उपचरित हेत) होते हए भी तत्त्वत. जीव और पद्गल परस्परमें कर्तृ-कर्मभावसे रहित हैं । ऐसा तो है कि जब विवक्षित मिट्री अपने परिणामस्वभावके कारण घटरूपसे परिणत होती है तब कुम्हारकी योग-उपयोगरूप पर्याय स्वयमेव उसमें निमित्त व्यवहारको प्राप्त होती है। ऐसी वस्तुमर्यादा है। परन्तु कुम्हारकी उक्त पर्याय घट पर्या यकी उत्पत्तिमें व्यवहारसे निमित्त होनेमात्रसे उसकी कर्ता नहीं होती, और न घट उसका कर्म होता है, क्योंकि अन्य द्रव्यमें अन्य द्रव्यके कर्तुत्व और कर्मत्व धर्मका अत्यन्त अभाव है। फिर भी लोक-व्यवहारवश कुम्हारकी विवक्षित पर्यायने मिट्टी की घट पर्यायको उत्पन्न किया इस प्रकार उस पर मिट्टीकी घट पर्यायके कर्तृत्व धर्मका और घटमें कुम्हारके कर्मत्वधर्मका आरोप किया जाता है । यद्यपि शास्त्रकारोंने भो इसके अनुसार लौकिक दृष्टिसे वचन प्रयोग किये हैं, परन्तु है यह व्यवहार असत् ही। यह तो बाह्य निमित्तादिकी दष्टिसे आरोपित व्यवहारकी चरचा हई। अब प्रयोजनविशेषसे आरोपित व्यवहारके उदाहरणोंका विश्लेषण कीजिए-जितने भी संसारी जीव एक कालमें कमसे कम दो और अधिकसे अधिक चार शरीरोंका संयोग अवश्य होता है । यहाँ तक कि तीर्थंकर सयोगी-अयोगी जिन भी इसके अपवाद नहीं हैं। अब विचार कीजिए कि जीवके साथ एकक्षेत्र वगाहीरूपसे सम्बन्धको प्राप्त हुए उन शरीरोंमें जो अमुक प्रकारका रूप होता है, उनका यथासम्भव जो अमुक प्रकारका संस्थान और संहनन होता है इसका व्यवहार हेतु पुद्गल विपाकी कर्मोंका उदय ही है, जीवकी वर्तमान पर्याय नहीं तो भी शरीरमें प्राप्त हुए प आदिको देखकर उस द्वारा तीर्थंकर केवली जिनकी स्तुतिकी जाती है और कहा जाता है कि अमुक तीर्थंकर केवली लोहित वर्ण हैं, अमुक तीर्थंकर केवली शुक्ल वर्ण है और अमुक तीर्थकर केवलो पीतवर्ण हैं आदि । यह तो है कि जब शरीर पुद्गल द्रव्यकी पर्याय है तो उसका कोई न कोई वर्ण अवश्य होगा । पुद्गलकी पर्याय होकर उसमें कोई न कोई वर्ण न हो यह नहीं हो सकता । परन्तु विचार कर देखा जाय तो तीर्थङ्कर केवलीकी पर्यायमें उसका अत्यन्त अभाव ही है क्योंकि तीर्थङ्कर केवली जीवद्र व्यकी एक पर्याय है जो अनन्त ज्ञानादि गुणोंसे विभूषित है। उसमें पुद्गलद्रव्यके गुणोंका सद्भाव कैसे हो सकता है ? अर्थात् त्रिकालमें नहीं हो सकता । फिर भी तीर्थङ्कर केवलीसे संयोगको प्राप्त हुए शरीरमें अन्य तीर्थङ्कर केवलीसे संयोगको प्राप्त हुए शरीरमें वर्णका भंद दिलानेरूप प्रयोजनसे यह व्यवहार किया जाता है कि अमुक तीर्थङ्कर केवली लोहित वर्ण हैं और अमुक तीर्थङ्कर केवली पीतवर्ण हैं आदि । जैसा कि हम लिख आये है कि तीर्थङ्कर केवली जीव द्रव्यकी एक पर्याय है। उसमें वर्णका अत्यन्त अभाव है । फिर भी लोकानुरोधवश प्रयोजन विशेषवश तीर्थकर केवली में उक्त प्रकारका व्यवहार किया जाता है जो तीर्थङ्कर केवलीमें सर्वथा असत् है, इसलिए प्रयोजन विशेषसे किया गया यह आरोपित असत् व्यवहार ही जानना चाहिये। Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८: सिद्धान्ताचार्य पं० फलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ सेनाके निकलनेपर राजा निकला ऐसा कहना भी आरोपित असद् व्यवहारका दूसरा उदाहरण है। विचार कर देखा जाय तो सेना निकली यह व्यवहार स्वयं उपचरित है। उसमें भी सेनासे राजामें अत्यन्त भेद है। वह सेनाके साथ गया भी नहीं है। अपने महलमें आराम कर रहा है। फिर भी लोकानुरोधवश प्रयोजनविशेषसे सेनाके निकलनेपर राजा निकला या राजाकी सवारी निकली यह व्यवहार किया जाता है जो सर्वथा असत है इसलिये प्रयोजन विशेषसे किये गये इस व्यवहारको भी आरोपित असद् व्यवहार ही जानना चाहिए। इसी प्रकार लोकमें और भी बहतसे व्यवहार प्रचलित हैं, क्योंकि वे किसी द्रव्यके न तो गण ही हैं और न पर्याय ही हैं इसलिए जो व्यवहार विवक्षित पदार्थों में पर्यायदृष्टिसे प्रतीतिमें आता है वह मोक्षमार्गमें अनुपादेय होनेसे आश्रय करने योग्य नहीं माना गया है अतएव उसे गौण करके अनेकान्तमूर्ति ज्ञायकस्वभाव आत्माकी स्थापना करना तो उचित है। किन्तु जो व्यवहार वस्तु भूत न होनेसे सर्वथा असत है, मात्र लौकिकदष्टिसे ज्ञानमें उसकी स्वीकृति है। उसका मोक्षमार्गमें सर्वथा निषेध ही करना चाहिये । वस्तुमें अनेकान्तकी प्रतिष्ठा करते समय आत्मामें ऐसे व्यवहारको गौण करनेका प्रश्न ही नहीं उठता, क्योंकि जो व्यवहार भूतार्थ होता है उसे ही नय विशेषके आश्रयसे गौण किया जाता है। किन्तु जिसकी विवक्षित वस्तु में सत्ता ही नहीं है उसे गौण करनेका अर्थ ही उसकी सत्ताको स्वीकार करना है जो युक्तियुक्त नहीं है । इसलिए जितना भी असत् व्यवहार है उसे दुरसे ही त्यागकर और जितना पर्यायदृष्टि से भूतार्थ व्यवहार है उसे गौण करके एकमात्र ज्ञायकस्वभाव आत्माकी उपासना ही मोक्षमार्गमें तरणोपाय है ऐसा निर्णय यहॉपर करना चाहिए। यहाँपर यह प्रश्न होता है कि वर्णादि तो पुद्गल के धर्म है, इसलिए आत्मामें ज्ञायकस्वभावके अस्तित्वको दिखलाकर उसमें उनका नास्तित्व दिखलाना तो उचित प्रतीत होता है। परन्तु आत्मामें ज्ञायकभावके अस्तित्वका कथन करते समय उसमें प्रमत्तादि भावों के नास्तित्वका कथन करना उचित प्रतीत नहीं होता, क्योंकि ये दोनों भाव (ज्ञायक भाव और प्रमत्तादि भाव) एक द्रव्यके आश्रयमे रहते हैं, इसलिए एक द्रव्यवृत्ति होनेसे ज्ञायकभावके अस्तित्वके कथनके समय इन भावोंका निषेध नहीं बन सकता, अतएव इस दृष्टि से अनेकान्तका कथन करते समय 'कथंचित् आत्मा ज्ञायक भावरूप है और कथंचित् प्रमत्तादि भावरूप है' ऐसा कहना चाहिए। यह कहना तो बनता नहीं कि आत्मामें प्रमत्तादि भावोंकी सर्वत्र व्याप्ति नहीं देखी जाती, इसलिये आत्मामें उनका निषेध किया है, क्योंकि कहींपर (प्रमत्तगुणस्थान तक) प्रमत्तभावकी और आगे अप्रमत्तभावकी व्याप्ति बन जानेसे आत्मामें ज्ञायकभावके साथ इनका सद्भाव मानना ही पड़ता है। यह एक प्रश्न है । समाधान यह है कि इस अनेकान्तस्वरूप प्रत्येक पदार्थका कथन शब्दोंसे दो प्रकारसे किया जाता है। एक क्रमिकरूपसे और दूसरा यौगपद्यरूपसे । कथन करनेका तीसरा कोई प्रकार नहीं है । जब अस्तित्व आदि अनेक धर्म कालादिकी अपेक्षा भिन्न-भिन्न अर्थरूप विवक्षित होते हैं उस समय एक शब्दमें अनेक धर्मों के प्रतिपादनको शक्ति न होनेसे क्रमसे प्रतिपादन होता है। इसे विकलादेश कहते हैं। परन्तु जब उन्हीं अस्तित्वादि धर्मोंकी कालादिकी दृष्टि से अभेद विवक्षा होती है तब एक ही शब्दके द्वारा एक धर्ममुखेन तादात्म्यरूपसे एकत्वको प्राप्त सभी धर्मोका अखण्डभावसे युगपत् कथन हो जाता है । यह सकलादेश कहलाता है। विकलादेश नयरूप है और सकलादेश प्रमाणरूप । इसलिए वस्तुके स्वरूपके स्पर्शके लिए सकलादेश और Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : २३९ विकलादेश दोनों ही कार्यकारी हैं ऐसा यहाँ समझना चाहिए। एक ही वचनप्रयोग जिसे हम सकलादेश कहते हैं वह विकलादेशरूप भी होता है और सकलादेश रूप भा। यह वक्ताके अभिप्रायपर निर्भर है कि वह विवक्षित वचन प्रयोग किस दृष्टि से कर रहा है। यथावसर उसे समझनेकी चेष्टा तो की न जाय और उसपर एकान्त कथनका आरोप किया जाय यह उचित नहीं है । अतएव वक्ता कहाँ किस अभिप्रायसे वचनप्रयोग कर रहा है इसे समझकर ही पदार्थका निर्णय करना चाहिए। 'कथंचित् जीव है ही' यह वचनप्रयोग सकलादेश भी है और विकलादेशरूप भी। यदि इस वाक्यमें स्थत 'है' पद अन्य अशेष धर्मोको अभेदवृत्तिसे स्वीकार करता है तो यही वचन सकलादेशरूप हो जाता है और इस वाक्यमें स्थित 'है' पद मुख्यरूपसे अपना ही प्रतिपादन करता है तथा शेष धर्मों को 'कथंचित्' पद द्वारा गौणभावसे ग्रहण किया जाता है तो यही वचन विकलादेशरूप हो जाता है। कौन वचन सकलादेशरूप है और कौन वचन विकलादेशरूप यह वचन प्रयोगपर निर्भर न होकर वक्ताके अभिप्रायपर निर्भर करता है। अतएव 'जीव ज्ञायकभावरूप ही है। ऐसा कहनेपर यदि इस वचनमें अभेदवृत्ति की मुख्यता है तो यही वचन सकलादेशरूप हो जाता है और इस वचनमें कथंचित् पद द्वारा गौणभावसे अन्य अशेष धर्मोको स्वीकार किया जाता है तो यही वचन विकलादेशरूप भी ो जाता है ऐसा यहाँपर समझना चाहिए । यद्यपि यह बात तो है कि सम्यग्दृष्टिके ज्ञान में जहाँ ज्ञायकस्वभाव आत्माकी स्वीकृति है वहाँ उसमें संसार अवस्था और मुक्ति अवस्थाकी भी स्वीकृति है । वह जीवकी संसार और मुक्त अवस्थाका अभाव नहीं मानता । संसारमें जो उसकी नर-नारकादि और मतिज्ञान-श्रुतज्ञानादि रूप विविध अवस्थायें होती हैं उनका भी अभाव नहीं मानता। यदि वह वर्तमानमें उनका अभाव माने तो वह मुक्तिके लिए प्रयत्न करना ही छोड़ दे । सो तो वह करता नहीं, इसलिए वह इन सबको स्वीकार करके भी इन्हें आत्मकार्यकी सिद्धि में अनपादेय मानता है, इसलिए वह इनमें रहता हआ भी इनका आश्रय न लेकर त्रिकाली नित्य एकमात्र ज्ञायकस्वभावका आश्रय स्वीकार करता है। निश्चयनय और व्यवहारनयके विषयोंको जानना अन्य बात है और जानकर निश्चयनयके विषयका अवलम्बन लेना अन्य बात है । मोक्षमार्गमें इस दृष्टिकोणसे हेयोपादेयका विवेक करके स्वात्मा और परमात्माका निर्णय किया गया है । यदि लौकिक उदाहरण द्वारा इसे समझाना चाहें तो यों कहा जा सकता है कि जैसे किसी गृहस्थका एक मकान है। उसमें उसके पढ़ने-लिखने और उठने-बैठनेका स्वतन्त्र कमरा है । वह घरके अन्य भागको छोड़कर उसीमें निरन्तर उठता-बैठता और पढ़ता-लिखता है। वह कदाचित् मकानके अन्य भागमें भी जाता है। उसकी सार-सम्हाल भी करता है। परन्तु उसमें उसकी विवक्षित कमरेके समान आत्मीय बुद्धि न होनेसे वह मकानके शेष भागमें रहना नहीं चाहता । ठीक यही अवस्था सम्यग्दृष्टि की होती है। जो उसे वर्तमानमें नर-नारक आदि वर्तमान पर्याय मिली हुई है वह उसीमें रह रहा है । अभी उसका पर्यायरूपसे त्याग नहीं हुआ है। परन्तु उसने अपनी बुद्धि द्वारा द्रव्यार्थिकनयका विषयभूत ज्ञायकस्वभाव आत्मा ही मेरा स्वात्मा है ऐसा निर्णय किया है, इसलिए वह व्यवहारनयके वियभूत अन्य अशेष परभावोंको गौण कर मात्र उसीका आश्रय लेता है । कदाचित् रागरूप पर्यायकी तीव्रतावश वह अपने स्वात्माको छोड़कर परमात्मामें भी जाता है तो भी वह उसमें क्षणमात्र भी टिकना नहीं चाहता । उस अवस्थामें भी वह अपना तरणोपाय स्वात्माके अवलम्बनको ही मानता है। अतएव इस दृष्टिकोणसे विचार करनेपर सम्यग्दृष्टिका विवक्षित आत्मा स्वात्मा अन्य परात्मा यही अनेकान्त फलित होता है । इसमें 'आत्मा कथंचित ज्ञायक भावरूप है और कथंचित् प्रमत्तादि भावरूप है' इसकी स्वीकृति आ ही जाती है, परन्तु ज्ञायकभाव में प्रमत्तादिभावोंकी 'नास्ति' है, इसलिए इस अपेक्षासे यह अनेकान्त फलित होता है कि 'आत्मा Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ ज्ञायक भावरूप है अन्य रूप नहीं ।' आचार्य अमृतचन्द्रने आत्माको ज्ञायकभावरूप माननेपर अनेकान्तकी सिद्धि किस प्रकार होती है इसका निर्देश करते हुए लिखा है तत्स्वात्मवस्तुनो ज्ञानमात्रत्वेऽप्यन्तश्चकचकायमानज्ञानस्वरूपेण तत्त्वात् बहिरुन्मिषदनन्तज्ञेयतापन्नस्वरूपातिरिक्तपररूपेणातत्त्वात् सहक्रमप्रवृत्तानन्तचिदंशसमुदयरू विभागद्रव्येणैकत्वात् अविभागकद्रव्यव्याप्तसहक्रमप्रवृत्तानन्तचिदंशरूपपर्यायरनेकत्वात् स्वद्रव्य-क्षेत्र-काल-भावभवनशक्ति-स्वभावत्वेन सत्त्वात् परद्रव्यक्षेत्र-काल-भाव भवनशक्तिस्वभाववत्त्वेनासत्त्वात् अनादिनिधनाविभागैकवृत्तिपरिणतत्वेन नित्यत्वात् क्रमप्रवृत्तकसमयावच्छिन्नानेकवृत्त्यंशपरिणतत्वेनानित्यत्वात्तदतत्त्वमेकानेकत्वं सदसत्त्वं नित्यानित्यत्वं च प्रकाशत एव ।। आत्माके ज्ञानमात्र होनेपर भी भीतर प्रकाशमान ज्ञानरूपसे तत्पना है और बाहर प्रकाशित होते हुए अनन्त ज्ञेयरूप आकारसे भिन्न पररूपसे अतत्पना है । सहप्रवृत्त और क्रमप्रवृत्त अनन्त चैतन्य अंशोंके समुदायरूप अविभागी द्रव्यकी अपेक्षा एकगना है और अविभागी एक द्रव्यमें व्याप्त हुए सदप्रवृत्त और क्रमप्रवृत्त अनन्त चैतन्य-अंशरूप पर्यायोंकी अपेक्षा अनेकपना है। स्वद्र व्य, क्षेत्र, काल और भावरूप होनेकी शक्तिरूप स्वभाववाला होनेसे सत्पना है और परद्रव्य, क्षेत्र काल और भावरूप नहीं होनेकी शक्तिरूप स्वभाववाला होनेसे असत्पना है तथा अनादिनिधन अविभागी एक वृत्तिरूपसे परिणत होने के कारण नित्यपना है और क्रमशः प्रवर्तमान एक समयवर्ती अनेक बृत्त्यंशरूपसे परिणत होने के कारण अनित्यपना है, इसलिए ज्ञानमात्र आत्मवस्तुको स्वीकार करनेपर तत-अतत्पना, एक-अनेकपना, सदसत्पना और नित्यानित्यपना स्वयं प्रकाशित होता ही है। अतएव अनेकान्त के विचारके प्रसंगसे मोक्षमार्गमें निश्चयनयके विषयको आश्रय करने योग्य माननेपर एकान्तका दोष कैसे नहीं आता इसका विचार किया। इसके विपरीत जो बन्धु अनेकान्तको एक वस्तुके स्वरूपमें घटित न करके 'भव्य भी हैं और अभव्य भी हैं' इत्यादि रूपसे या कुछ पर्यायें अमुक कालमें अमुकरूप हैं और कुछ पर्यायें तद्भिन्न दसरे कालमें दूसरेरूप है' इत्यादि रूपसे अनेकान्तको घटित करते हैं उन्हें अनेकान्तको शब्द श्रुतमें बाँधनेवाली स्याद्वादकी अंगभूत सप्तभंगीका यह लक्षण ध्यानमें ले लेना चाहिये । प्रश्नवशादेक स्मिन् वस्तुन्यवरोधेन विधि-प्रतिषधकल्पना सप्तभंगी। प्रश्नके अनुसार एक वस्तुमें प्रमाणसे अविद्ध विधि और प्रतिषेधरूप धर्मोकी कल्पना सप्तभंगी है। सप्तभंगीमें प्रथम भंग विधिरूप होता है और दुसरा भंग निषेधरूप होता है । विधि अर्थात् द्रव्याथिक तथा प्रतिषेध्य अर्थात् पर्यायाथिक । आचार्य कुन्दकुन्दने द्रव्याथिकको प्रतिषेधक और व्यवहारको प्रतिषेध्य इसी अभिप्रायसे लिखा है। जिस दृष्टिमें भेदव्यवहार है उसके आश्रयसे बन्ध है और जिसमें भेदव्यवहारका लोप है या अभेदवृत्ति है उसके आश्रयसे बन्धका अभाव है यह उनके उक्त कथनका तात्पर्य है । इस प्रकार अनेकान्त और उसे वचनव्यवहारका रूप देनेवाला स्याद्वाद है। उसकी संक्षेपमें मीमांसा की। Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और भावमन सम्बन्धी वाद खुलासा बी० [सं० २४६३में फलटणमें थी १०५ ० विमलसागर जी महाराज आदि ४ सल्लक और श्रीयुत ब्र० देवप्पा कापसीकर व ब्र० नन्दलालजी इनका चतुर्मास था । चतुर्मासमें समयसारके ऊपर ब्र० नन्दलालजीका प्रवचन होता था । समयसार में निश्चय दृष्टिसे कर्म निमित्तक भावोंको पर पुद्गलरूप कहा गया है इसलिए समयसारका व्याख्यान करनेवाले निश्चय दृष्टि भावमनको पौद्गलिक कहते हैं । नन्दलालजी भी अपने व्याख्यानमें इसी विषयका उल्लेख करते होंगे इसके ऊपर श्री १०५ क्षुल्लक सूरिसिंह महाराजने यह प्रचन किया है कि भाव मन पौद्गलिक न होकर आत्माका धर्म है । आगे यही विषय बारम्बार निकलनेके कारण वादका विषय हो गया तथा यह वाद उन दोनोंमें सीमित न रहकर बाहिर फैलने लगा । इसी कारणसे श्री १०५ ० सूरिसिंहजी महाराजने शान्तिसिन्धु में श्रीयुक्त तलकचन्द वेणीचन्दजी शहा वकील इनके नामसे भावनके सम्बन्ध में प्रकाशनार्थं एक लेख भेजा था। जिसके ऊपर दोनों दृष्टिकोणोंको बिलकुल स्पष्ट करनेके लिये मैंने एक टिप्पणी दे दी थी । इस लेख के प्रकाशित हो जानेके कारण फलटणकी परिस्थिति और भी अधिक विषम हो गई और अन्तमें इस विषयके योग्य निर्णय के लिए श्रीमान् तलकवन्द वेणीचन्द शहा वकीलने तार द्वारा मुझे और श्रीयुक्त पं० बाहुबलिजी शास्त्रीका बुलाया। रात्रिको इस विषयका विचार करनेके लिए श्री १००८ आदिनाथ भगवान् के मन्दिर में विचार विनिमय हुआ । प्रारम्भ में श्री शहा तलकचन्द वेणीचंद वकील सा० से पूछने पर कि आपने हम लोगोंको बुलाया है इसका क्या कारण है ? उसके उत्तरमें आपने कहा कि हमारे यहाँ भावमनके सम्बन्धमें वाद चालू है इसलिये शास्त्राधारसे इस विषयका उचित निर्णय करानेके लिये आप लोगों को बुलाया गया है । इसके बाद श्रीयुक्त वकील सा० ने भावनके सम्बन्धमें उनको जो कुछ कहना था- अत्यन्त पद्धति पूर्वक प्रश्नरूपमें हम लोगोंके सामने रक्खा 1 श्रीयुत् वकील सा० का कहना यह था कि भावमन यह लब्धिरूप या ज्ञानरूप होनेके कारण एकेंद्रिय लेकर केवल पर्यंत सब जीवोंके व्यक्त और अव्यक्त रूपमें होता है। यदि एकेंद्रियादिक जीवोंके भावमन न माना जाये तो उनके कर्मबंध कैसे हो सकता है। उसी प्रकार ज्ञानरूप होनेके कारण वह केवली अवस्थामें भी नष्ट नहीं होता। इस कथनसे श्रीमान् १०५ ० मूरिसिंह महाराज सहमत थे। इसके बाद हम लोगोंने श्रीयुक्त, नन्दलालजी सा० से पूछा कि आपको इस विषयमें कुछ कहना हो तो कहिये। जिसके ऊपर ब्र० जीने कहा कि हमें विशेष कुछ नहीं कहना है। इसी कथनपर आपलोग विचार करिए। तदनन्तर मैंने वकील सा. से कहा कि भावमन यह ज्ञानकी पर्याय अथवा लब्धिरूप होते हुए भी सभी जीवोंके नहीं पाया जाता है । कर्मबन्धका कारण भावमन न होकर मिथ्यात्व आदिक ही समझना चाहिए । भावन यह क्षायोपशमिक भाव होनेके कारण सभी जीवोंकी सभी अवस्थाओं में उसका रहना कोई आवश्यक बात नहीं है । जहाँ नोइंद्रियावरण कर्मका क्षयोपशम रहता है, वहीं पर भावमन होता है । नोइंद्रियावरण कर्मका क्षयोपशम शिपंचेंद्रिय जावक मिध्यात्व गुणस्थानसे लेकर १ वं गुणस्थान तक ही होता है, अतएव ११ Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ भावमनका सद्भाव वहीं तक पाया जाता है । गुणस्थानसे लेकर सिद्ध परमेष्ठी तक भावमनका न होकर उसकी एक पर्याय विशेष है ऐसा नियम नहीं किया जा सकता है । महाराजोंके चले जानेपर आजकी चर्चा एकेंद्रिय जीवसे लेकर असंज्ञिपंचेन्द्रिय जीव तक और तेरहवें सद्भाव नहीं पाया जाता है। भावमन यह ज्ञान सामान्य और पर्याय विशेष द्रव्यकी सभी अवस्थाओंमें उपलब्ध होनी ही चाहिये, इस तरह और भी बहुत कुछ चर्चा होकर १२ बजे के करीब सभी बन्द कर दी गई । दूसरे दिन सुबह यह विचार करके कि इस मनोमालिन्यका कारण केवल भावमन सम्बन्धी चर्चा न होकर और भी कुछ होना चाहिए इसलिए इस विषयके विचारके लिए एक अ भवी बयोवृद्ध बुद्धिमान्की और आवश्यकता है। अतएव फलटण के प्रसिद्ध वकील, अध्यात्मप्रेमी श्रीमान् दोशी चन्दूलालजी सा० को और बुलाया गया। प्रसन्नताकी बात है कि आप मे इस निवेदनको स्वीकार कर लिया । इस समय श्रीयुक्त पं० बाहुबलीजी शास्त्रीके न आ सकने के कारण वकील सा० और मैं इस तरह हम दोनों उभय पक्षके कथनको सुन आये। बाद सायंकालको हम तीनोंने मिलकर यह निश्चय किया कि मनोमालिन्य के ऐसे कोई विशेष कारण नहीं हैं, केवल अपने-अपने पक्षकी पुष्टि के लिये यह वाद बढ़ गया है। अथवा पूज्य महाराजोंकी दूसरी बातोंके विचार करनेका श्रावकोंको विशेष अधिकार नहीं है अथवा इसमें विशेष स्वारस्य नहीं है । अतएव शास्त्रीय दृष्टिसे भावमन के सम्बन्ध में उचित निर्णय दे दिया जावे और वह शांतिसिधु में जाहिर कर दिया जावे ताकि यह वाद अपने आप शान्त हो जावेगा । इस तरह हम तीनोंका एक मत हो जानेपर तीनों जनोंका शास्त्रीय दृष्टिसे विचार-विनिमय चालू हो गया। यहाँपर इस बातका विशेषरूपये उल्लेख कर देना आवश्यक प्रतीत होता है कि सहूलियतकी दृष्टिसे श्रीयुक्त शास्त्री बाहुबलिजी शर्माने पूर्वपक्ष और मैंने उत्तर पक्षका काम लिया था तथा श्रीयुत वकील सा० मध्यस्थीका काम करते थे। चर्चाका विषय हमारी टिप्पणी रक्खी गई थी । चर्चाका प्रारम्भ करते हुए श्रीशास्त्रीजीने भावमन संयोगज धर्म है इस वाक्यके ऊपर आपत्ति उपस्थित की । इस विषयमें उनका कहना यह था कि यदि भावमन आत्माका निजभाव है, तो वह संयोगज कभी भी नहीं हो सकता है। इसके ऊपर मैने कहा कि भावमन निजभाव न होकर आत्माका वैभाविक भाव है । अतएव उसे संयोगज मानना ही इष्ट है । वह वैभाविक भाव कैसे है ? आत्माकी सभी अवस्थाओं में क्यों नहीं हो सकता है। इसके लिये मैंने गोमट्टसार और सर्वार्थसिद्धि के आधार निकाल कर दिखलाये । अन्तमें भावमन तेरहवें गुणस्थानमें नहीं पाया जाता है । इस प्रकार के स्पष्ट शास्त्रोल्लेख सहित इसका निर्णय शांतिसिन्धु में प्रकाशित कर दिया जावे, ऐसा अधिकार दोनों महानुभावोंने मुझे दिया जिस अधिकारसे उस समय की चर्चाको ध्यानमें रखकर मैंने यह निर्णय शांतिसिन्धु में प्रकाशित कर दिया था। इस निर्णय पक्षविशेषकी पुष्टिका ध्यान न रखकर शास्त्र मर्यादाका ही ध्यान रक्खा गया है । निर्णय इस निर्णय भावमनका लक्षण, भावमन किस ज्ञानका भेद है, भावमनका स्वामी, भावमनका भाव, उसको जीव सम्बन्धी माननेमें हेतु उसको पौद्गलिक माननेमें हेतु इत्यादि विषयोंका क्रमसे विवेचन किया गया है। 3 लक्षणविचार ज्ञानावरण कर्मके भेदोंमेंसे नोइन्द्रियावरण कर्मके क्षयोपशमको लब्धिरूप भावमन कहते हैं और उसीके वस्तु ग्रहणरूप प्रवृत्तिको उपयोगरूप भावमन कहते हैं। गोमट्टसार जीवकांडके संज्ञिमागंणा प्रकरण में यही कहा है Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'नो इंद्रियं मनः तदावरणक्षयोपशमः तज्जनितबोधनं वा संज्ञा' नोइन्द्रिय मनको कहते हैं । उस नोइन्द्रियावरण कर्मके क्षयोपशमसे अथवा उससे उत्पन्न होनेवाले ज्ञानको संज्ञा कहते । यहाँपर यह ध्यानमें रखना चाहिये कि संज्ञा और भावमन एकार्थवाची शब्द हैं । 'वीर्यान्तरायनोइन्द्रियावरणक्षयं पशमापेक्षया आत्मनो विशुद्धिर्भावमनः ।' - सर्वार्थसिद्धि. वीर्यान्तराय और नोइन्द्रियावरण कर्मके क्षयोपशमसे जो आत्मा में विशुद्धि उत्पन्न होती है उसको भावमन कहते है । इस लक्षणमें जो वीर्यान्तराय कर्मका क्षयोपशमका उल्लेख किया है, उसका कारण इतना ही समझना चाहिये कि किसी भी ज्ञानकी प्रवृत्ति सामथ्यंवीर्यके विना नहीं हो सकती है । अतएव प्रत्येक ज्ञानमें वीर्यका सम्बन्ध जोड़ा है । चतुर्थखण्ड : २४३ भावमन किस ज्ञानका भेद है ? 'तत्रेन्द्रियप्रत्यक्षमवग्रहादिधारणापर्यंततया चतुर्विधमपि बह्वादिद्वादशभेदमष्टचत्वारिंशत्संख्यं प्रतीन्द्रियं प्रतिपत्तव्यम् । अनिन्द्रियप्रत्यक्षस्य चोक्तप्रकारेणाष्टचत्वारिंशद्भ ेदेन मनोनयनरहितानां चतुर्णामपीन्द्रियाणां व्यंजनावग्रहस्याष्टचत्वारिंशद्भ ेदेन च समुदितस्येन्द्रियानिन्द्रियप्रत्यक्षस्य षट्त्रिंशदुत्तरा त्रिशती संख्या प्रतिपत्तव्या । " - प्रमेय रत्नमाला. शास्त्र कारोंने मतिज्ञानके ३३६ भेद किये हैं । अवग्रह आदि चारको पाँच इन्द्रिय और मनसे गुणा करके बहु आदिक १२ प्रकारके पदार्थोंसे गुणा करनेपर अर्थके २८८ भेद होते हैं और मन तथा नेत्र इन्द्रियसे रहित शेष चार इन्द्रियोंसे बहु आदिक १२ प्रकारके पदार्थों का गुणा करनेपर व्यजनावग्रहके ४८ भेद होते हैं । इस तरह कुल मतिज्ञानके भेद ३३६ होते हैं । इस तरह यह पता चल जाता है कि भावमन यह मतिज्ञानका एक भेद है । उसी भावमनका विषय श्रुतज्ञानके द्वारा जाना हुआ पदार्थ भी पड़ता है । इस कथनसे भावमनका आलंबन श्रुतज्ञानके लिये भी होता है । यह जाना जाता है । इस तत्त्वकी पुष्टि "श्रुतमनिन्द्रियस्य" इस सूत्र - से होती है । भावमनका स्वामी ? मनसहित जीवको संज्ञी कहते हैं और मन रहित जीवको असंज्ञी कहते हैं । 'मनो व्याख्यातं सह तेन ये वर्तते ते समनस्काः संज्ञिन इत्युच्यन्ते । पारिशेष्यादितरे संसारिणः प्राणिनोऽसंज्ञिन इति सिद्धम् । - सर्वार्थसिद्धि मनका व्याख्यान पहिले कर आये, जो मनसहित हैं उन्हें समनस्क अर्थात् संज्ञी कहते हैं । तथा बाकी जो संसारी प्राणी हैं वे अमनस्क अर्थात् असंज्ञी समझना चाहिये । एकेन्द्रियसे लेकर असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्यंत अमनस्क समझना चाहिये और समनस्कता भी बारहवें गुणस्थान पर्यंत होती है । सणीसपदी खीणकसाओत्ति होदि नियमेण । थावर काय पहूदी असण्णित्ति हवे असण्णी हु ।। ६९७|| 'संज्ञिमार्गणायां संज्ञिजीवः संज्ञिमिथ्यादृष्ट्यादिक्षीणकषायांतं भवति' । - जीवकांड. संज्ञिमार्गणा में संज्ञीजीव संज्ञिमिथ्या दृष्टिसे लेकर बारहवें गुणस्थान पर्यंत होता है और असंज्ञी एकेन्द्रियसे लेकर असंज्ञी पर्यंत होता है । इससे यह सिद्ध हो जाता है कि सयोगकेवलीके भावमन नहीं होता है, फिर भी इसकी पुष्टि के लिये और खुलासा किया जाता 1 योगिनो हि द्रव्यमनः सदपि न भावमनः सहितं द्रव्येंद्रियं च न भावेद्रिययुक्तं क्षायिकज्ञानेन सह क्षायोपशमिकस्य भावमनोज्ञस्य विरोधात् । - श्लोक वार्तिक. Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ सयोगकेवली द्रव्यमन होते हुए भी भावमनसहित द्रव्यमन नहीं होता है । उसी तरह भावेन्द्रिय सहित द्रव्येन्द्रिय न हो कर केवल द्रव्येन्द्रिय ही होती हैं । कारण क्षायिकज्ञानके साथ क्षायोपशमिक भावमन और भावेन्द्रियों के रहनेका विरोध है । अर्थात् जहाँपर क्षायिकज्ञान होता है, वहाँपर क्षायोपशमिक ज्ञान नहीं रह सकता है । भावमन यह क्षायोपशमिक ज्ञानका एक भेद है अतएव सयोगकेवली अवस्था में उसका सद्भाव बिल्कुल ही नहीं हो सकता है । गोमट्टसार जीवकांडमें भी कहा है । पज्जत्ती पाणा विय सुगमा भाविदियं ण जोगिहि | तहि वाचस्सासाउगकायत्तिगदुगमजोगिणो आऊ ।। सयोगिजिने भावेंद्रियं न, द्रव्येंद्रियापेक्षया षट् पर्याप्तयः वागुच्छ्वासनिःश्वासायुःकायप्राणा श्वत्वारि भवंति । शेषेंद्रियमनः प्राणाः षट् संति । सयोगी जिनमें भावेंद्रिय अर्थात् पाँच भाव इन्द्रियाँ और भावमन नहीं होता है । द्रव्येन्द्रियकी अपेक्षासे सयोगी भगवान् के छह पर्याप्तियाँ कही जा सकती हैं । वचन, उच्छ्वास, आयु और कायबल इस तरह केवल चार ही प्राण जिन भगवान्‌ के होते हैं । बाकीके पाँच इन्द्रिय प्राण और एक मनप्राण इस तरह छह प्राण उनके नहीं होते हैं । झाणं तह झायारो झेयवियप्पा य होंति मणसहिए । तं णत्थि केवलीदुगे तम्हा झाण ण सभवई । - - भावसंग्रह. ध्यान, 'याता व ध्येयांचे विकल्प हे मनसहित जीवाच्या ठिकाणी संभवतात । हे विकल्प सयोगकेवली व अयोगकेवली यांच्या ठिकाणी संभवत नाहींत यांचे कारण हें आहे की उपर्युक्त केवलिद्ववाच्या ठिकाणीं मन नाहीं । वीर्यांतराय कर्माच्या क्षयोपशम व नो इंद्रियावरण कर्माचा क्षयोपशम आला म्हणजे आत्म्याचे प्रदेश मन स्वरूपानें परिणत होता त । या केवलींद्वयानी अंतराय कर्माचा य वीर्यांतराय कर्माचा नाश केल्यामुळे त्याचा ठिकाणी मन कसे असणार ? अर्थात् केवली अमनस्क असतात । 'अमनस्का: केवलिनः' असे आगमांत लिहिले आहे मनसहित जीवामध्यें ध्यान होते । पृष्ठ ३ ५ अनु० पं० जिनदास पार्श्वनाथजी फडकुले न्यायतीर्थं । इस कथनसे बिल्कुल ही स्पष्ट हो जाता है कि भाव मनका स्वामी मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे लेकर बारहवें गुणस्थानतक एक संज्ञी पंचेंद्रिय ही होता है । एकेंद्रियसे लेकर असंज्ञी पंचेद्रिय पर्यंत भावमन नहीं पाया जा सकता है। भाव विचार जीवके पाँच भाव कहे गये हैं । उनमेंसे भावमनका सद्भाव क्षायोपशपिक भावमें ही होता है जो उसके लक्षणसे ही स्पष्ट है । भावमन यह मतिज्ञान का एक भेद है । और मतिज्ञान यह क्षायोपशमिक है अतएव भावमन यह क्षायोपशमिक ही ठहरता है । इसकी पुष्टि ऊपर के कथन से भले प्रकार हो जाती है । अतएव इसके लिये स्वतंत्र प्रमाण देनेकी विशेष आवश्यकता नहीं है । भावमन जीवका धर्म है इसमें हेतु - भावमन यह ज्ञान विशेष होने के कारण वह जीवका धर्म है, ऐसा मान लेने में विशेष कुछ भी आपत्ति नहीं है । 'चेतनालक्षणो जीवः' जीवका लक्षण ही चेतना अर्थात् ज्ञान और दर्शन किया है, अतएव वह जीवका धर्म ठहर जाता है । भाव मनको पौद्गलिक माननेमें हेतु - ऊपर हम भावमनको ज्ञान विशेष है, ऐसा स्वीकार कर आये हैं । फिर भी यहाँ पर उसे पौद्गलिक सिद्ध करना यह परस्पर विरोध हैं । परन्तु दृष्टि भेदसे विचार करनेपर यह विरोध अपने आप नष्ट हो जाता Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : २४५ है । कारण ऊपर ज्ञानकी विभावरूप अवस्था विशेषको भावान कहा गया है और यहाँपर निमित्तकी मुख्यतासे वर्णन किया जा रहा है। जब कि भावमन यह जीवकी शुद्ध अवस्थामें नहीं पाया जाता है और क्षयोपशमरूप है तो वह नैमित्तिक होना ही चाहिए. इसमें कुछ भी संदेह नहीं हैं। स्वर्ण में किट कालिमाके निमित्तसे उत्पन्न हुई जो विरूपता है वह स्वर्णकी मानी जावे अथवा उस प्रकारका श्रद्धान किया जावे, तो इससे अपनी श्रद्धा मिथ्या कही जावेगी। कारण कि यह निमित्तजन्य अवस्था है; शुद्ध स्वर्णकी निज परणति नहीं है । उसी प्रकार भावमन यह जीवकी अशुद्ध अवस्थामें उत्पन्न हुई कर्मनिमित्तक परणति है। अतएव वह जीवकी नहीं कही जा सकती है। यदि जीवको कहना भी हो, तो विभावरूपसे ही उसे जीवकी कहनी होगी; स्वभावरूपसे नहीं। परन्तु विभाव यह जीवका निजभाव-स्वभाव नहीं है। वह तो परके निमित्तसे उत्पन्न हुआ विकारी भाव है। अब देखना यह है कि इस विभाव अवस्थामें निमित्त कौन है ? यह सबको ही विदित है कि संसारी आत्मा कर्मबद्ध है। अतएव अपने-अपने विरोधी कर्मका सद्भाव रहते हुए जितने भी भाव उत्पन्न होते हैं, वे सबके सब विभाव हैं। कारण कि उनमें कर्मके उदयादि कारण पड़ते हैं । अतएव यह सिद्ध हो जाता है कि विभाव अवस्थामें निमित्त कर्म हैं। भावमन भी अपने विरोधी नोइन्द्रियावरण कर्मके सद्भावमें ही उत्पन्न होता है। अतएव वह ज्ञानकी पर्यायविशेष होते हुए भी स्वभाव नहीं है । इसीलिए तो उसे पौद्गलिक कहा जाता है। भगवान् पूज्यपादने जो उसे 'पुद्गलावलंबनात् पुद्गलम्' ऐसा कहा है उसका भी यही कारण समझना चाहिये। यहाँपर यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि सर्वार्थसिद्धिकारको जब वह केवलशानरूप इष्ट था, तो उसी जगह उसे 'पुद्गलावलंबनात् पुद्गलम्' ऐसा कहनेकी क्या आवश्यकता थी। परन्तु थोड़ा सूक्ष्मदृष्टिसे विचार किया जावे, तो यह बात उसी समय समझमें आ जाती है कि पूज्यपाद स्वामीको एक ही जगह उपादान और निमित्त इन दोनों कारणोंका वर्णन करना इष्ट था। अत एव उन्होंने पुद्गलोपकार्य पदार्थोंमें निमित्त की मुख्यतासे भावमनका भी संग्रह कर लिया। यदि भावमन केवलज्ञानरूप ही है। उसमें कर्मका थोड़ा भी सम्बन्ध नहीं है, तो उसे पुद्गलोपकार्य नही कहना चाहिये था । संसारी आत्माको जब कि कथंचित् मूर्ति स्वीकार किया है, तो भावमनको कथंचित् पौद्गलिक मान लेनेमें विशेष आपत्ति नहीं दिखाई देती है । संसारी आत्माको कथंचित् मूर्तिक माननेमें प्रमाणबंधं प्रत्येकत्वं लक्षणो भवति तस्य नानात्वम् । तस्मादमूर्तिभावो नैकांताद्भवति जीवस्य । -श्लोकवार्तिक कर्म और आत्माके बंधकी अपेक्षासे एकपना है और लक्षणकी अपेक्षासे दोनोंके भिन्नपना है। इसलिये आत्माके अमूर्तिपना एकांतसे नहीं हो सकता है । वह कथंचित् ही मानना चाहिये । अब विचार करिये कि यदि कोई कर्मके निमित्तसे होनेवाले गुणधर्मीको सर्वथा आत्माका मानने लगे, तो क्या उसकी यह मान्यता समीचीन कही जा सकेगी? समयसारका प्रयोजन भी तो इसी दुषित दृष्टिको हटानेका है। हाँ, यदि कोई किसी आत्माको अशुद्ध अवस्थामें रहते हुए भी उस समय उसे शुद्ध मानने लगे, Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ : सिद्धान्ताचार्यं पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ तो उसकी वह मान्यता मिथ्या ही कही जावेगा । अशुद्धताके रहते हुए भी शुद्धताको न मानना दूसरी बात है और स्वरूप दृष्टिसे शुद्धताका अनुभव करना, दूसरी बात है । इस तरह यह सिद्ध हो जाता है कि नयभेदसे यह सब कथन परस्पर विरोधी नहीं है । यदि भावमन सर्वथा जीवका मान लिया जावे, तो वह आत्माकी शुद्ध अवस्थामें, क्यों उपलब्ध नहीं होता है ? यह प्रश्न खड़ा ही रहता । उसी प्रकार बद्ध अवस्था किसकी है। ऐसा प्रश्न किया जावे तो सहज हो कोई यही उत्तर देगा कि यह जीवकी पुद्गलके योगसे हुई है । तो इससे यह भी समझ लेना चाहिये कि उस अवस्था के निमित्तसे उत्पन्न होनेवाले जितने भी गुणधर्म हैं वे सब एकके न होकर भी निमित्तके सद्भावमें ही होते हैं । उन गुणधर्मो में कहीं आत्मा उपादान रहता है और कहीं पुद्गल उपादान रहता है । मुझे विश्वास है कि इस ऊपरके कथनसे भावमानके संबंधमें दोनों दृष्टिकोणों का उत्तम प्रकार से खुलासा हो गया होगा । Soumy COMMAR Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावमन और द्रव्यमन भावमन आत्माका स्वभाव नहीं है। वह ज्ञानकी एक पर्याय है जो लबियरूप भी है और उपयोगरूप भी। ज्ञानावरणी कर्मके क्षयोपशम रूप होनेके कारण उसे संयोगज माना गया है। अतः भावमन विभाव भाव है। यहाँ आत्मा ही भावमनका आत्मा ही उपादान कारण है; द्रव्यमन उपादान कारण नहीं है। क्योंकि द्रव्यमन पुद्गल की पर्याय है और अंगोपांग नामकर्मके उदयके निमित्तसे उसकी रचना हुई है। जैसे मिट्रीके घड़में मिट्टी उसका उपादान कारण है, वैसे ही ज्ञान (आत्मा) ही भावमनका उपादान कारण है । 'घी का घड़ा लाओ' यह कहना व्यवहार है । यहाँ जैसे घी के निमित्तसे घड़ेको घी का घड़ा कहा जाता है, वैसे ही भावमनके निमित्त से द्रव्यमनको भी मन कहनेका व्यवहार है। सिद्धान्त शास्त्रोंमें उपादान कारणकी मुख्यतासे भावमन ज्ञानात्मक कहा जाता है इसमें किसीका भी विरोध नहीं है। परन्तु अध्यात्म शास्त्रोंमें कार्य-कारण और व्याप्य-व्यापक सम्बन्धकी मुख्यतासे भावमनको पौद्गलिक कहा गया है । यदि ऐसा न माना जाय और इसकी उपेक्षा की जाय तो इससे तत्त्वहानिकी सम्भावना है । प्रमाणके लिए आचार्योंके वाक्य उद्धृत हैं “मिथ्यादष्ट्यादीनि गुणस्थानानि हि पौद्गलिकमोहकर्मप्रकृतिविपाकपूर्वकत्वे सति निन्यमचेतनत्वात् कारणानुविधायीनि कार्याणीति कृत्वा यवपूर्विका यवा यवा एवेति न्यायेन पुद्गला एव, न तु जीवः। जो ये मिथ्यादृष्टि आदि गुणस्थान हैं वे पुद्गलरूप मोहकमकी प्रकृतिके उदय होनेसे होते हैं इसलिये नित्य ही अचेतन है क्योंकि जैसा कारण होता है उसीके अनुसार काम होता है जैसे-जैसे जो होते हैं वे यव ही है इसी न्यायकर वे पुद्गल ही हैं जीव नहीं हैं । यः खलु मोहरागद्वेषसुखदुःखादि रूपेणांतरुत्प्लवमानं कर्मणः परिणामं स्पर्शरसगंधवर्णशब्दबंधसंस्थानस्थौल्यसौम्यादिरूपेण बहिरुत्प्लवमानं नोकर्मणः परिणामं च समस्तमपि परमार्थतः पुद्गलपरोणामपुद्गलयोरेव घटमृत्ति कयोरिव व्याप्यव्यापकभावसद्भावात् कर्मत्वेन क्रियमाणं पुद्गलपरिणामात्मनार्घटकुम्भकारयोरिव व्याप्यव्यापकभावाभावात् कर्तृकर्मत्वासिद्धौ न नाम करोत्यात्मा । __निश्चयकर मोह, राग, द्वेष, सुख, दुःख आदि स्वरूपकर अंतरंगमें उत्पन्न होता है वह तो कर्मका परिणाम है और स्पर्श, रस, गंध, वर्ण, शब्द, बंध, संस्थान, स्थौल्य, सूक्ष्म आदि रूपकर बाहर उत्पन्न होता है वह नोकर्मका परिणाम है । इस प्रकार ये सभी, परमार्थसे पुद्गल और पुद्गल परिणामका ही घट और मिट्टीके समान व्याप्यव्यापकभाव होनेसे स्वतन्त्र व्यापक कर्तारूप पुद्गल द्रव्यके द्वारा स्वयं व्याप्यमान होनेके कारण कर्मके ही कार्य समझना चाहिये । पुद्गल परिणाम राग द्वेषादि और कुम्भकारकी तरह व्याप्यव्याप्यकभाव नहीं होनेके कारण कार्यकारणभाव सिद्ध न हो सकनेसे इन राग द्वेषादिका कर्ता आत्मा नहीं हो सकता है। ___इससे यह पता चल जाता है कि द्वेष आदि भावोंका उपादान कारण आत्माका चारित्र गुण होते हुए भी वे स्वतंत्र आत्माके न होनेके कारण और पुद्गल कर्मके साथ उनका व्याप्यव्यापक सम्बन्ध होनेके कारण वे पुद्गलके कहे जाते हैं उसी प्रकार भावमनका उपादान कारण आत्माका ज्ञान गुण होते हुए भी भावमन स्वतंत्र आत्मामें उपलब्ध न होनेके कारण और पुद्गलके साथ उसका व्याप्यव्यापकसम्बन्ध होनेके कारण भावमन यह पौद्गलिक कहा जाता है । घटोत्पत्तिमें निमित्त यद्यपि कुम्भकार है फिर भी कुम्भकार और घटका व्याप्य Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ व्यापक सम्बन्ध नहीं है इसलिये घटका कर्ता कुम्भकार नहीं कहा जाता है। इसलिये उपादान कारण ज्ञान गुण होते हुए भी व्याप्यव्यापक और कार्यकारणसम्बन्ध होनेसे भावमनको पौद्गलिक मान लेने में विशेष कुछ आपत्ति नहीं है। नहीं तो वह आत्माका स्वाभाविक धर्म ठहर जावेगा। यदि दो वस्तुओंके संयोगजन्य कार्य और स्वतंत्र एक वस्तु के कार्यको ध्यानमें लाया जावं तो यह भेद उसी समय ध्यान में आ सकता है । अध्यात्मशास्त्रोंमें आपके निजस्वरूपके दिखानेका प्रयोजन रहता है। पुद्गलके निजस्वरूपके दिखानेका प्रयोजन नहीं है अतएव भावमन संयोगजधर्म होनेके कारण निश्चयदृष्टिसे वह आत्माका नहीं कहा जा सकता है । प्रत्येक संयोगजधर्ममें इसी दृष्टिको सामने रखने पर शुद्ध वस्तुका बोध हो सकता है। विचार करिये यदि कोई भी स्वरूपका चितवन करने वाला भव्य राग द्वेष जीवका है, मिथ्याज्ञान जीवका है, मतिज्ञान जीवका है, भावमन जीवका है, औपशमिकभाव जीवका है, गुणस्थान आदि जीवके है ऐसा चितवन करता रहे तो क्या उसे शुद्ध स्वरूपका बोध अथवा उसकी प्राप्ति हो सकती है? कभी नहीं स्वरूप प्राप्ति के लिये तो उसे दिव्यदृष्टि ही होना पड़ेगा। ये सब पर्यायदृष्टि विषय है इसलिये आत्माको सर्व कालीन ऐसा नहीं माना जा सकता है और जो जिसके सर्वकालं न नहीं होते हैं वे उसके नहीं कहे जा सकते हैं । भावमनके सम्बन्धमें भी यही समझना चाहिये । इसीसे कुम्भकार निमित्त होते हुए भी घट कुम्भकार क्यों नहीं कहा जाता है और भावपन पौद्गलिक क्यों कहा जाता है-इसका स्पष्ट खुलासा हो जाता है। रह गई धोके घटकी बात सो भी और घटका कोई व्याप्यव्यापक और कार्यकारण सम्बन्ध नहीं है उस भाव के लिये यह दृष्टांत उपयोगी नहीं है। 'भावमन पौगलिक है और पीका घटा इन दोनों वचनोंके व्यवहार करनेमें बड़ा भारी केवल आधार आधेय सम्बन्धसे घीका घड़ा यह वचन व्यवहार प्रवृत्त होता है कथनका खंडन नहीं होता है । -- अन्तर है। धीका घड़ा यहाँ पर अतएव ऐसे उदाहरणोंसे मूल भावमन क्षायोपशमिक भाव है यह तो पंडितजीको इष्ट ही होगा । अब हम यहाँपर यह पूछते हैं कि जब के भावमन आत्माका निजभाव है फिर उस क्षायोपशमिक ज्ञानको हेय क्यों बताया है। यदि आप कहेंगे वह सर्वथा निजभाव नहीं है तो फिर उसे पौद्गलिक मान लेनेमें आपत्ति ही क्यों होनी चाहिये । कि जल में सूर्यका प्रतिबिंब पड़ता है । अब यदि वह केवल जलका कहा जावे तो सूर्यके अभाव में भी जलमें सूर्यका प्रतिबिंब दिखना चाहिये ? परन्तु ऐसा नहीं होता है इसीलिये वह प्रतिबिम्ब सूर्यका कहा जाता है कारण प्रतिबिंब और सूर्यका व्याप्यव्यापक और कार्यकारण संबंध है। यहाँ पर यद्यपि फल उपादान कारण है फिर भी वस्तु मूलस्वरूपके लिये उपयुक्त कथन ही उपयोगी है। आशा है इससे पंडितजीको दूसरे दृष्टिकोणका पता लग जायेगा । तत्त्वार्थ सूत्रके दूसरे अध्यायका पहला सूत्र है - 'औपशमिकक्षायिकौ भावौ मिश्रश्च जीवस्य स्वतत्त्वमौदयिकपरिणामिकश्च । तत्त्वार्थमुत्रके दूसरे अध्यायका पहिला सूत्र औपशमिकक्षायिको' इत्यादि है। इसमें औपशमिक आदि पाँच भाव जीवके स्वतः के स्वरूप है ऐसा भगवान् उमास्वामीने कहा है । 'स्वतत्त्वं आत्मनः स्वभावाः श्रद्धेयाः ' ऐसा स्वतत्त्व शब्दका खुलासा है । विचार -- पंडितजीने भावमनको क्षायोपशमिक भाव होनेके कारण तत्त्वार्थसत्रका उल्लेख करके आत्माका निजभाव कहा है इसका हम निषेध भी तो नहीं करते हैं । परन्तु यह कथन पर्याय दृष्टिसे है । इधर पंडितजीका लक्ष्य ही नहीं जाता है और इसलिये अध्यात्म शास्त्रों में दिव्यदृष्टिसे प्रतिपादित विषयको वे सबंधा भुला देना चाहते हैं। हम पंडितजीसे ही पूछते हैं कि ये अदायिक क्षायोपशमिक आदि भाव यदि सर्वथा जीव " Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थखण्ड : २४९ के हैं तो अध्यात्मशास्त्रोंमें 'ये हैय है' ऐसा उपदेश क्यों दिया जाता है। ये सब आत्माके निजस्वरूप हैं इनका श्रद्धान करना चाहिये' इत्यादि उपदेश देना चाहिये था । उसी तरह तत्त्वार्थसूत्र के दशवें अध्यायमें 'औपशमिकादिव्यत्वानां च ' ऐसा कथन करके सिद्धजीवके इनका निषेध क्यों किया जाता है, मेरी प्रार्थना है कि पंडितजी दोनों दृष्टिकोणोंको प्रतिपादन करनेवाले दोनों शास्त्रोंका समन्वय करके इस विषयका विचार करेंगे । यह तो निश्चित ही है कि क्षायोपशमिक और औपशमिक आदि भावोंमें आत्मा उपादान कारण है तथा औद यिक भावोंमें जितने जीवविपाकी है उनमें आत्मा और पुद्गलविपाकी भावोंमें पुद्गल उपादान कारण है इस लिये उपादान कारणकी मुख्यतासे वे भाव उस उसके कहे जायेंगे। परन्तु यहाँपर प्रयोजन शुद्ध जीवके स्वरूपके प्रतिपादन करनेका होनेके कारण पुद्गलनिमित्तक अथवा पुद्गलउपादान कारणका जितने भी भाव हैं उन सबको पौद्गलिक कहा जाता है कारण उन भावोंका व्याप्यव्यापक संबंध कर्मके साथ है। इसका हम पहले ही खुलासा कर आये हैं । क्षायोपशमिक आदि भाव हेय हैं इसमें प्रमाण कम्मुदयज पज्जाया हे खाओवमियणाणं खु। सगव्वमुवादेयं णिच्छित्ति होदि सण्णाणं ||४|| - द्वादशानुप्रेक्षा. कर्मके उदयसे उत्पन्न होनेवाली पर्यायें और क्षायोपशमिक ज्ञान हेय हैं। तथा निज द्रव्य उपादेय है ऐसा निश्चय होना सम्यग्ज्ञान है । पदार्थ जिस समय जिस परिणाम - अवस्थारूपसे परिणत होता है उस समय वह तत्स्वरूप माना ता है । इस नियमसे वह उस समय तन्मय होता है । वह अवस्था उस पदार्थसे अभिन्नरूप रहती है । जैसे धर्म परिणत आत्मा धर्म माना जाता है । यह भावमन जीवसे कथंचित् अभिन्न है कारण नोइन्द्रियाकरणकर्मके क्षयोपशम से आत्मप्रदेश भावमनरूपसे परिणत होते हैं । इसलिये मन यह आत्मासे और आत्मा मनसे कथंचित् अभिन्न है और मनके अभाव होनेपर भी आत्मा रहता है [ वह भावमन आत्मामें रहता है] उस ( भावमन) का अभाव [अत्यन्ताभाव] नहीं होता है इसलिये वह भावमन कथंचित् भिन्न है [संज्ञा, लक्षण, प्रयोजन इसकी अपेक्षासे भिन्न है ] भावमन कहीं पर भी नहीं नोइन्द्रियावरणकर्मके विचार —- जो पदार्थ जिस समय जिस अवस्था रूपसे परिणत होता है वह पदार्थ उस समय उस रूप माना जाता है इसमें मुझे कुछ भी विशेष विवाद नहीं है । परन्तु आगे चलकर पंडितजी ने जो भावमनको कथंचित् अभिन्न सिद्ध करनेके लिये नोइंद्रियावरण कर्मके क्षयोपशमसे भावमनरूप आत्मप्र देश परिणत होते हैं ऐसा लिखा है इस विषयमें जरूर आपत्ति है वह यह कि आत्मप्रदेशों को तो कहा है। हाँ आत्मप्रदेश द्रव्यमनरूप अवश्य परिणत होते हैं उसमें भी कारण नोइन्द्रियावरण कर्मका क्षयोपशम न होकर पुद्गल विपाकी अंगोपांगनामकर्मका उदय ही समझना चाहिये क्षयोपशम भावमन अवश्य होता है। परन्तु वह ज्ञानविशेष है आत्माके प्रदेश विशेष नहीं भावमन वह ज्ञान विशेष होते हुए भी निश्चय दृष्टिसे उसे आत्माका न कहना इसमें कारण उसका विभावरूप होना ही है । यहाँपर उसे आत्मा से कथंचित् भिन्न और कचित् अभिन्न सिद्ध करनेमें विशेष प्रयोजन ही नहीं है। यह कथन तो तब उपयोगी था जब कि मनको आत्मासे सर्वथा भिन्न माना जाता अथवा गुण गुणी आदिमें सर्वथा भेद या अभेद माना जाता । यहाँपर तो तत्त्वचर्चाका दृष्टिकोण ही दूसरा हैं । यहाँपर तो यह विचार करना है कि पर वस्तुके सम्बन्धसे रहित ऐसा शुद्ध आत्मा और परवस्तुसे सम्बन्धको प्राप्त ऐसा अशुद्ध आत्मा इन दोनोंमें जब भेद देखना होगा तो सम्बन्धसे उत्पन्न होनेवाले धर्मोंको किसका कहना चाहिये । यदि स्वरूपदृष्टिसे उन धर्मीको आत्माका कहा जाय तो स्वतन्त्र शुद्ध अवस्थाका अशुद्ध अवस्थासे क्या फरक रहेगा । ३२ Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ यदि फरक न माना जावे तो मुक्तिके लिये प्रयत्न करना ही निष्फल ठहर जावेगा। इसलिये अध्यात्मशास्त्रमें संयोगसे उत्पन्न होनेवाले धर्माको जिसके संयोगसे वे उत्पन्न होते हैं उसका कहा जाता है । ऐसा मानने अथवा श्रद्धान करनेपर तत्त्व हानि न होकर तत्त्व प्राप्ति ही होती है। आगे चलकर पंडितजीने जो यह लिखा है कि मनका अभाव हो जानेपर भी आत्मा रहता है। (भावमन आत्मामें रहता है। उसका अभाव (अत्यन्ताभाव) नहीं होता है। इस वाक्यो ऊपरसे तो सचमचमें मुझे ऐसा मालूम पड़ता है कि इस लेखके लेखक स्वयं पंडितजी नहीं है । हो सकता है कि इस प्रकार लिखने में मेरा अज्ञान कारण हो परन्तु मुझे जैसा समझमें आता है उस प्रकार लिख देना अनुचित भी नहीं है। भावमनका अभाव हो जानेपर भी आत्मा रहता है इसका पं० जी ने जो कोसमें खुलासा किया है कि वह मन आत्मामें रहता है । इधर उसका अभाव बताते हैं दूसरी ओर उसका सद्भाव बताते है । मेरी समझसे ऐसा लिखनेके दो कारण हो सकते हैं। एक तो यह कि भावमन विशिष्ट आत्मप्रदेश रूप है और दूसरा यह कि वह सामान्यज्ञान स्वरूप है । परन्तु ये दोनों कल्पनायें बराबर नहीं है इसका खंडन हमारे ऊपरके कथनसे हो जाता है । भावमन यह ज्ञान विशेष है । इसलिये उसका सद्भाव सर्वदा रहना ही चाहिये ऐसा कोई नियम नहीं है । क्रमभावी पर्याय होती है और सहभावी गुण होता है इस नियमके अनुसार भावमनको क्रमभावी समझना चाहिये, कारण वह ज्ञान गुणकी विशेष पर्याय है। सामान्यज्ञान गुण नहीं । दूसरे पंडितजीने जो अत्यन्ताभावका निषेध किया है सो पर्यायके अभावमें अत्यन्ताभाव कारण नहीं होता है । अत्यन्ताभाव तो भिन्न दो द्रव्योंमें होता है यहाँ उसका विधान कौन करेगा । यहाँ तो प्रध्वंसाभाव समझना चाहिये । परन्तु प्रध्वंसाभाव हो जाने पर भी वह पर्याय उस वस्तु में रहती ही है यह कल्पना कुछ नई है। इस तरहसे तो संसार अवस्था का प्रध्वंस हो जानेपर भी मुक्तजीवमें संसार अवस्थाका सद्भाव मानना पड़ेगा। परन्तु ऐसा नहीं है। भावमन यह सर्वथा पौद्गलिक माननेपर उसको ज्ञानस्वरूप नहीं कहा जा सकता है । उसको अचेतन कहना पड़ेगा। अकलंकादिक आचार्योने भावमनका आत्मामें अन्तर्भाव किया है। द्रव्यमन मात्र रूपादिक पुद्गल गुणोंसे सहित होनेके कारण वह पौद्गलिक है। पुद्गल विपाको कर्मके उदयसे द्रव्यमन होता है । द्रव्यमनका (भद) जो निर्वृत्ति युक्त द्रव्यमन है वह आत्माके प्रदेशरूप अष्टदल कमलाकार बनता अभ्यन्तर निर्वृतियुक्त मन कहते हैं । अर्थात् इस आकारके आत्मप्रदेशोंको अर्थात् मनको आत्मा माननेमें कुछ हानि नहीं है। अर्थात् अभ्यन्तर निर्वृत्ति, क्षयोपशमसे उत्पन्न होनेवाली विशुद्धि और उसकी सहायतासे पदार्थको माननेके लिये होनेवाली प्रवृत्ति यह सब (तीनों) आत्मस्वरूप ही हैं ऐसा समझना चाहिये । इस अष्टदल कमलाकार आत्मप्रदेशोंके ऊपर गुणदोषोंका विचार करनेके लिये सहायता करनेवाले जिन पुद्गल परमाणुओंकी रचना होती है उसको पोद्गलिक कहते हैं । अर्थात् बाह्य निवृत्ति पौद्गलिक है। विचार-"भावमनको सर्वथा पौद्गलिक माननेपर उसको ज्ञानरूप नहीं कहा जा सकता है" पंडितजीके इस वाक्यका तो यही अर्थ होता है कि वह सर्वथा पौद्गलिक तो नहीं है किन्तु कथंचित् पौद्गलिक है। यदि पंडितजीको यह अर्थ इष्ट हो तो अकलंकादिक आचार्योंने उसका जो केवल आत्मामें अन्तर्भाव किया है वह पंडितजीके उपर्युक्त कथनसे तो कभी भी नहीं बन सकता है। यदि पंडितजीको उसे केवल ज्ञानस्वरूप मानना इष्ट था तो 'सर्वथा पौद्गलिक माननेपर' इस प्रकारका वचन प्रयोग नहीं करना चाहिये था। क्योंकि उनके ऊपरके कथनसे तो वह कथंचित् अचेतन और कथंचित् चेतन ही सिद्ध होता है । पंडितजी यदि इस विषयका स्पष्ट खुलासा कर दें तो बड़ी अच्छी बात हो। इस विषयमें मेरी तो यह समझ है कि कोई भी Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : २५१ विशेष धर्म भिन्न दो द्रव्योंका कभी भी नहीं हो सकता है। वह किसी एक द्रज्यका ही होना चाहिये । इस दृष्टिसे विचार करनेपर ज्ञान यह आत्माका धर्म होनेके कारण और भावमन यह ज्ञान विशेष होनेके का ण वह आत्माका हो ठहरता है। उसे पौदगलिक कभी भी नहीं कहा जा सकता है । ऐसे स्थलोंमें 'भावमनको सर्वथा पौद्गलिक माननेपर' यह वाक्य प्रयोग ही अयोग्य है। अब जो अध्यात्मशास्त्रोंमें भावमनको पौद्गलिक कहा जाता है इसका अर्थ यह नहीं है कि वह पदगलके धर्म है, पुदगलमें और इन धर्म में गुणाणी सम्बन्ध है। यह कुछ भी नहीं होते हुए भी निश्चयदृष्टि इन औपाधिक भावोंको आत्माका ग्रहण नहीं करता है अतएव वे उपाधिजन्य अर्थात् पौद्गलिक कहे जाते हैं। आगे चलकर पंडितजीने "द्रव्यमन मात्र रूपादिगुणानी युक्त असले मुळे तें पौद्गलिक आहे' ऐसा लिखा है सो पंडितजीके इस एकान्तका खंडन आगे चलकर स्वयं पंडितजीके द्वारा ही आभ्यन्तर निर्वृत्ति रूप द्रव्यमनको आत्माके प्रदेश रूप स्वीकार लेनेसे हो जाता है। इसके आगे जो कुछ लिखा गया है उस विषयमें विशेष कुछ लिखनेकी आवश्यकता नहीं है। यदि भावमन पौदगलिक होता तो वह मर्तिक पदार्थको ही जानता परन्तु शुद्ध आत्मानुभव यह इंद्रियका विषय नहीं है । इस आत्मानुभवरूप विषयमें स्पर्शनादिक इन्द्रियोंका उपयोग नहीं होता है परन्तु भावमनका मात्र उपयोग होता है। कारण वह मूर्त और अमतं दोनोंको जानता है। पंचाध्यायीकारने तो आत्मानुभवके समय मन यह ज्ञान ही होता है ऐसा स्पष्ट कहा है । इस सम्बन्धमें पंचाध्यायीके आधार यहाँपर देने में विशेष कुछ हानि नहीं है । पंडित जीने जो यह लिखा है कि 'यदि भावमन पौद्गलिक होता तो वह मूर्तिक पदार्थको ही जानता' इस वाक्यका सीधे शब्दोंमें यही अर्थ होता है कि जो विचारे ज्ञान केवलं मूर्तिक पदार्थको जानते हैं वे पौद्गलिक हैं। ऐसा अर्थ करनेपर अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और इन्द्रियज्ञान ये सब पौद्गलिक ठहर जावेंगे। परन्तु पंडितजी ऐसा कथन करते समय यह बिल्कुल ही भूल जाते हैं कि ये ज्ञान भी भावमनकी तरह आत्मोपादानकारणक और क्षायोपशमिक है । फिर भावमन तो पौद्गलिक नहीं और ये ज्ञान विचारे पौद्गलिक ? यह कैसा न्यार है । सब जगह न्याय एक ही लागू होता है। आशा है पंडितजी अपने उपर्युक्त वाक्यका योग्य विचार करेंगे । आगे चलकर पंडितजीने जो यह लिखा है कि आत्मानुभवमें इंद्रियोंका उपयोग नहीं होता है यह बात हमें भी मान्य है परन्तु इससे इन्द्रियज्ञान पौद्गलिक और भावमन आत्मीक नहीं सिद्ध हो सकता है, यह विशेषता क्षयोपशमकी समझना चाहिये। श्रेणी तो दोनोंकी एक ही है। भावमन ऐसा क्षायोपशमिक ज्ञान है कि उसमें अनभव करने और विचार करनेकी सामर्थ्य उत्पन्न होती है इतने मात्रसे वह क्षयोपशम रूप जातिको उल्लंघन नहीं कर सकता है । वह तो विषय भेद है जाति भेद नहीं। मतिज्ञान आदि चारों ज्ञानोंमें विषय भेदसे ही भेद है जाति तो चारोंकी क्षायोपशमिक ही है। आगे चलकर पंडितजीने जो यह लिखा है कि आत्मानुभवके समय भावमन स्वयं ज्ञान ही होता है । यहाँपर इतना अवश्य पछना है कि जिसको आत्मानभव नहीं होता है उसका भावमन क्या ज्ञानरूप होता है या नहीं ? यदि होता है तो फिर यहाँ और कौनसी विशेषता उत्पन्न हो गई। यदि नहीं होता है तो आत्मानुभवको छोड़कर शेष दशामें भावमन यह पौदगलिक ही ठहरेगा। Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाबंध : एक अध्ययन १. षट्खण्डागमका मूल आधार और विषयनिर्देश चौदह पूर्वोमें अग्रायणीय पूर्व दूसरा है। इसके चौदह अर्थाधिकार है । पाँचवाँ अर्थाधिकार चयनलब्धि है, वेदनाकृत्स्नप्राभूत यह इसका दूसरा नाम है। इसके चौबीस अर्थाधिकार हैं। जिनमेंसे प्रारम्भके छह अर्थाधिकारों के नाम है-कृति, वेदना, स्पर्श, कर्म, प्रकृति और बन्धन। इन्हीं छह अर्थाधिकारोंको प्रकृत षट्खण्डागम सिद्धान्तमें निबद्ध किया गया है। मात्र चूलिका अनुयोगद्वार सहित जीवट्ठाण इसका अपवाद है। एक तो जीवस्थान चूलिकाकी सम्यक्त्वोत्पत्ति नामक आठवी चूलिका दृष्टिवाद अंगके दुसरे सूत्र नामक अर्थाधिकारसे निकली है । दूसरे गति-आगति नामक नौवीं चूलिका व्याख्याप्रज्ञप्तिसे निकली है। यह षट्खण्डागम सिद्धान्तको प्रातःस्मरणीय आचार्य पुष्पदन्त भूतब लिने किस आधारसे निबद्ध किया था इसका सामान्य अवल कन है। प्रत्येक खण्डका अन्तः स्पर्श करने पर विहित होता है कि परमागममें बन्धन अर्थाधिकारके बन्ध, बन्धक, बन्धनीय और बध विध न नामक जिन चार अर्थाधिकारोंका निर्देश किया गया है उनमेसे बन्ध नामक अर्थाधिकारसे प्रारम्भकी सात चूलिकाएं निबद्ध की गई है। इन सब चूलिकाओंमें प्रकृतमें उपयोगी होनेसे कर्मोंकी मूल व उत्तर प्रकृतियोंको उस उस कर्मकी उत्तर प्रकृतियोके बन्ध व अधिकारी भेदसे बननेवाले स्थानोंको, कर्मोंकी जघन्य व उत्कृष्ट स्थितियोंको तथा गति भेदसे प्रथम सम्यक्त्वकी उत्पत्ति के सन्मख हए जीवोंके बंधनेवाली प्रकृतियोंसम्बन्धी तीन महादण्डकोंको निबद्ध किया गया है। षट्खण्डागमका दूसरा खण्ड क्षुल्लक बन्ध है। इसमें सब जीवोंमें कौन जीव बन्धक है और कौन जीव अबन्धक है इसका सुस्पष्ट खुलासा करना प्रयोजन होनेसे बन्धक नामक दूसरे अर्थाधिकारको निबद्ध कर जो जीव बन्धक हैं वे क्यों बन्धक हैं और जो जीव अबन्धक हैं वे क्यों अबन्धक है इसे स्पष्ट करने के लिये चौदह मार्गणाओंके अवान्तर भेदोसहित सब जीव कर्मके उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशमसे यथासम्भव बद्ध और अबद्ध होते हैं इसे निबद्ध किया गया है। आगे छठवें खण्डमें बन्धनके चारों अर्थाधिकारोंको निबद्ध करना प्रयोजन होनेसे इस खण्डको क्षुल्लक बन्ध कहा गया है। इस खण्डमें उक्त दो अनुयोगद्वारोंको छोड़कर अन्य जितने भी अनुयोगद्वार निबद्ध किये गये हैं, प्रकृतमें उनका स्पष्टीकरण करना प्रयोजनीय नहीं होनेसे उनके विषयमें कुछ भी नहीं लिखा जा रहा है । षट्खण्डागमका तीसरा खण्ड बन्ध स्वामित्वविचय है। यद्यपि क्ष ल्लक बन्धमें सब जीवोंमेंसे कौन जीव बन्धक है और कौन जीव अबन्धक है इसे स्पष्ट किया गया है पर वहाँ अधिकारी भेदसे बन्धको प्राप्त होने वाली प्रकृतियोंका नाम निर्देश नहीं किया गया है और न यही बतलाया गया है कि उक्त जीव किस गुणस्थान तक किन प्रकृतियोंका बन्ध करते हैं और उसके बाद वे उन प्रकृतियोंके अबन्धक होते हैं यह सब ओघ और आदेशसे सप्रयोजन स्पष्ट करनेके लिए इस खण्डको निबद्ध किया गया है। षट्खण्डागमका चौथा खण्ड वेदना है और पाँचवें खण्डका नाम वर्गणा है। इन दोनों खण्डोंमेंसे प्रथम खण्डमें कर्म प्रकृति प्राभूतके कृति और वेदना अर्थाधिकारोंको तथा दूसरे खण्डमें स्पर्श, कर्म और प्रकृति अर्थाधिकारोंके साथ बन्धन अर्थाधिकारके बन्धनीय अर्थाधिकारको निबद्ध किया गया है । Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थखण्ड : २५३ इस प्रकार उक्त पाँच खण्डों में निवद्ध विषयका सामान्य अवलोकन करनेपर विदित होता है कि उक्त पाँचों खण्डोंमें कर्म विषयक सामग्रीका भी यथासंभव अन्य सामग्री के साथ यथास्थान निबद्धीकरण हुआ है । फिर भी बन्धन अधिकारके बन्ध, बन्धक, बन्धनीय और दग्धविधान इन चारों अर्थाधिकारोंको समग्र भावसे निबद्धीकरण नहीं हो सका है। अतः इन चारों अर्थाधिकारोंको अपने अवान्तर भेदोके साथ निवद्ध करनेके लिए छठवें खण्ड महाबन्धको निबद्ध किया गया है। वर्तमानमें जिस प्रकार प्रारम्भके पांच सण्डोंपर आचार्य वीरसेनकी धवला नामक टीका उपलब्ध होती है उस प्रकार महाबन्धपर कोई टीका उपलब्ध नहीं होती । इसका परिमाण अनुष्टुप् श्लोकोंमें चालीस हजार लोक प्रमाण स्वीकार किया गया है। आचार्य वीरसेनके निर्देशानुसार यह आचार्य भूतबलीकी अमर कृति है। यद्यपि इसका मूल आधार बन्धन नामक अर्थाधिकार है, परन्तु उसके आधारसे आचार्य भूतबलीने इसे निबद्ध किया है, इसीलिए यहाँ उसे उनकी अमर कृति कहा गया है । २ महाबन्ध इस नामकरणकी सार्थकता यह हम पहले ही बतला आये है कि षट्खण्डागम सिद्धान्त में दूसरे खण्डका नाम क्षुल्लक बन्ध है और तीसरे खण्डका नाम बन्धस्वामित्वविचय है। किन्तु उनमें वन्धन अर्थाधिकारके चारों अर्थाधिकारोंमें से मात्र बन्धक अर्थाधिकारके आधारसे विषयको सप्रयोजन निबद्ध किया गया है । तथा वर्गणाखण्ड में वर्गणाओंके तेईस भेदोंका सांगोपांग विवेचन करते हुए उनमेंसे प्रसंगवश ज्ञानावरणादि कर्मकि योग्य कार्माण वर्गणाएँ हैं यह बतलाया गया है । वहाँ बन्ध तत्त्वके आश्रयसे बन्ध, बन्धक बन्धनीय और बन्धविधान इन चारोंको एक श्रृंखला में बाँधकर निबद्ध नहीं किया गया है जिसकी पूर्ति इस खण्ड द्वारा की गई है, अतः इसका महाबन्ध यह नाम सार्थक है । 2 ३. निबद्धीकरण सम्बन्धी शेलीका विचार किसी विषय का विवेचन करनेके लिए तत्सम्बन्धी विवेचन के अनुसार उसे अनेक प्रमुख अधिकारोंमें विभक्त किया जाता है। पुनः अवान्तर प्रकरणों द्वारा उसका सर्वांग विवेचन किया जाता है। प्रवृतमें भी इसी पद्धति द्रव्यकर्म बन्ध तत्त्वको प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्ध इन चार प्रमुख अधिकारोंमें विभक्त कर उनमेसे प्रत्येकका ओप और आदेश से अनेक अनुयोग द्वारोंका आलम्बन लेकर विचार किया गया है। इससे द्रव्यकर्मबन्ध तस्य सम्बन्धी समग्र मीमांसाको निबद्ध करनेमें सुगमता आ गई है। समग्र षट्खण्डागम इसी शैली में निबद्ध किया गया है। अतः महाबन्धको निबद्ध करने में भी यही शैली अपनाई गई हैं । ऐसा करते हुए मूलमें कहीं भी किसी पारिभाषिक शब्दको व्याख्या नहीं की गई है । मात्र प्रकरणानुसार उसका उपयोग किया गया है। किन्तु एक पारिभाषिक शब्द एक स्थल पर जिस अर्थ में प्रयुक्त हुआ है, सर्वत्र उसी अर्थ में उसका प्रयोग हुआ है। ४. कर्म शब्द के अर्थकी व्याख्या फर्म शब्दका अर्थ कार्य हैं। प्रत्येक द्रव्य, उत्पाद, व्यय और ध्रुव स्वभाववाला होनेसे अपने ध्रुवस्वभावका त्याग किये बिना प्रत्येक समयमें पूर्व पर्यायका व्यय होकर जो पर्याय रूपसे नया उत्पाद होता है। वह उस द्रव्यका कर्म कहलाता है । यह व्यवस्था द्रव्योंके समान जीव और पुद्गल द्रव्यमें भी घटित होती है । किन्तु यहाँ जीवके मिथ्यात्व अविरति प्रमाद, कषाय और योग में से क्रमसे यथासम्भव पाँच, चार, तीन, दो या एकको निमित्त कर कार्मणवर्गणाओंका जो ज्ञानावरणादिरूप परिणमन होता है उसे 'कर्म' कहा गया · Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ है । ज्ञानावरणादिरूपसे स्वयं कार्मणवर्गणायें परिणमी, इसलिए नोआगम भावकी अपेक्षा तो वह कर्मरूप परिणाम स्वयं पुलका है। किन्तु उन कार्मणवर्गणाओंके परिणमनमें जीवके मिथ्यात्व आदि भाव निर्मित होते हैं, इसलिए निमित्त होनेकी अपेक्षा उसे उपचारसे जीवका भी कर्म कहा जाता है । इस प्रकार इन ज्ञानावरणादि कर्मोंको जीवका कहना यह नोआगम द्रव्यनिक्षेपका विषय है, नोआगम भाव निक्षेपका विषय नहीं, इसलिए आगममें इसे द्रव्य कर्मरूपसे स्वीकार किया गया है। काल प्रत्यासति या बाह्यव्याप्ति वश विवक्षित दो द्रव्यों में एकता स्थापित कर जब एक द्रव्यके कार्यको दूसरे द्रव्यका कहा जाता है तभी नोआगमनयकी अपेक्षा ज्ञानावरणादिरूप पुद्गल परिणामको जीवका कार्य कहा जा सकता है, अन्यथा नहीं यह उक्त कथनका तात्पर्य है । इस प्रकार प्रकृतमें उपयोगी कुछ तथ्योंका निर्देश करनेके बाद अब महाबन्ध परमागममें निवद्ध विषयपर सांगोपांग विचार करते हैं। ५. महाबन्ध परमागम में निबद्ध विषय यह तो हम पहले ही बतला आये हैं कि बन्ध, बन्धक बन्धनीय और बन्धविधान इन चारों विषयोंको ध्यानमें रखकर महाबन्धमें बन्ध तत्वको निवद किया गया है। यह प्रत्येक द्रव्यगत स्वभाव है कि प्रत्येक द्रव्यके कार्यों में बाह्य और आभ्यन्तर उपाधिकी समग्रता होती है । यतः ज्ञान-र्शन स्वभाववाला जीव स्वतंत्र द्रव्य है और प्रत्येक जीव द्रव्य पृथक् पृथक् सत्ता सम्पन्न होनेसे सब जीव अनन्त है तथा पर्यायदृष्टिसे वे संसारी और मुक्त ऐसे दो भागोंमें विभक्त हैं । जो चतुर्गतिके परिभ्रमण से छुटकारा पा गये हैं उन्हें मुक्त कहते हैं । किन्तु जो चतुर्गति परिभ्रमणसे मुक्त नहीं हुए हैं उन्हें संसारी कहते हैं । अब प्रश्न यह है कि जीवोंकी ये दो प्रकारकी अवस्थायें कैसे होती हैं ? यद्यपि इस प्रश्नका समाधान पूर्वोक्त इस कथनसे हो जाता है कि प्रत्येक द्रव्यके कार्य में बाह्य और अन्तरंग उपाधिकी समग्रता होती है फिर भी यहां उस वाह्य सामग्रीको सांगोपांग मीमांसा करनी है, आभ्यन्तर उपाधिके साथ जिसकी प्राप्ति होनेपर जीवोंकी संसार (चतुगंति परिभ्रमणरूप) अवस्था नियमसे होती है। भगवान् भूतबलीने इसी प्रश्न के उत्तरस्वरूप महाबन्ध परमागमको निवद्ध किया है। इसमें जीव सम्बद्ध उस बाह्य सामग्रीकी कर्म संज्ञा रख कर और उसे व्यवहारनय ( नैगमनय) से जीवका कार्य स्वीकार कर बतलाया गया है कि वे कर्म कितने प्रकारके हैं, उनकी प्रकृति, स्थिति और अनुभाग क्या है । संख्या में वे प्रदेशोंकी अपेक्षा कितने होते हैं । बन्धकी अपेक्षा ओघ और आदेशसे कौन जीव किन कमका बन्ध करते हैं । ये सब कर्म मूल और अवान्तर भेदोंकी अपेक्षा कितने प्रकारके है। क्या सभी पुद्गल कर्मभावको प्राप्त होते हैं या नियत पुद्गल ही कर्मभावको प्राप्त होते हैं । उनका अवस्थान काल और क्षेत्र आदि कितना है, आदि प्रकृत विषय सम्बन्धी प्रश्नोंका समाधान विधि रूपसे महाबन्ध परमागम द्वारा किया गया है। इसमें सब कमोंके प्रकृतिवन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्ध ऐसे चार भेद करके उक्त विधिसे बन्ध तत्त्वकी अपेक्षा सब कमका विचार किया गया है ऐसा यहाँ समझना चाहिए। १. प्रकृति बन्ध प्रकृति बन्ध यह पद प्रकृति और बन्ध इन दो शब्दों से मिलकर बना है। प्रकृति, शील और स्वभाव ये एकार्थवाची शब्द है। इससे ज्ञात होता है कि जीवके मिथ्यादर्शन आदिको निमित्त कर जो कार्मण वर्गायें कर्म भावको प्राप्त होती हैं उनकी मूल प्रकृति जीवकी विविध नर-नरकादि अवस्थाओंके होनेमें तथा मिथ्यादर्शनादि भावके होनेमें निमित्त होती हैं । अर्थात् जब जीव अपनी पुरुषार्थहीनता के कारण आभ्यन्तर उपाधिवश जिस अवस्थाको प्राप्त होता है उसकी उस अवस्थाके होनेमें ये ज्ञानावरणादि कर्म निमित्त (व्यवहार हेतु) होते हैं यह उनकी प्रकृति है । Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थखण्ड : २५५ किन्तु कार्मण वर्गणात्रोंके, मिध्यादर्शन आदिके निमित्तसे कर्म भावको प्राप्त होने पर वे कर्म जीवसे सम्बद्ध होकर रहते हैं या असम्बद्ध होकर रहते हैं इसीके उत्तर स्वरूप यहाँ बन्ध-तत्वको स्वीकार किया गया है । परमागममें बन्ध दो प्रकारका बतलाया है- एक तादात्म्य सम्बन्ध रूप और दूसरा संयोग सम्बन्धरूप | इनमेंसे प्रकृतमें तादात्म्य सम्बन्ध विवक्षित नहीं है, क्योंकि प्रत्येक द्रव्यका अपने गुण पर्यायके साथ ही तादात्म्यरूप बन्ध होता है, दा द्रव्यों या उनके गुण पर्यायोंके मध्य नहीं। संयोग सम्बन्ध अनेक प्रकारका होता है सो उसमें भी दो या दो से अधिक परमाणुओं आदिमें जैसा श्लेष बन्ध होता है वह भी यहाँ विवक्षित नहीं है, क्योंकि पुल पवान द्रव्य होने पर भी जीव स्पर्शादि गुणोंसे रहित अमूर्त द्रव्य है, अतः जीव और पुद्गलका श्लेष बन्ध बन नहीं सकता । स्वर्णका कीचड़के मध्य रह कर दोनोंका जैसा संयोग सम्बन्ध होता है ऐसा भी यहाँ जीव और कर्मका संयोग सम्बन्ध नहीं बनता, क्योंकि स्वर्णके कीचड़के मध्य होते हुए भी स्वर्ण कीचड़से अलिप्त रहता है, क्योंकि कीचड़के निमित्तसे स्वर्ण में किसी प्रकारका परिणाम नहीं होता । मात्र परस्पर अवगाहरूप संयोगसम्बन्ध भी जीव और कर्मका नहीं स्वीकार किया जा सकता, क्योंकि जीव प्रदेशोंका विस्रसोपचयों के साथ परस्पर अवगाह होने पर भी विस्रसोपचयोंके निमित्त से जीव में नरकादिरूप व्यञ्जन पर्याय और मिथ्यादर्शनादि भावरूप किसी प्रकारका परिणाम नहीं होता तब यहां किस प्रकारका बन्ध स्वीकार किया गया है ऐसा प्रश्न होने पर उसका समाधान यह है कि जीव के मिथ्यादर्शनादि भावोंको निमित्त कर जीव प्रदेशोंमें अवगाहन कर स्थित वियोपचयोंके कर्म भावको प्राप्त होने पर उनका और जीव प्रदेशोंका परस्पर अवगाहन कर अवस्थित होना यही जीवका कर्मके साथ बन्ध है । ऐसा बन्ध ही प्रकृतमें विवक्षित है । इस प्रकार जीवका कर्मके साथ बन्ध होने पर उसकी प्रकृतिके अनुसार उस बन्धको प्रकृति बन्ध कहते है। इसी प्रकृति बन्धको ओघ और आदेशसे महाबन्धके प्रथम अर्थाधिकारमें विविध अनुयोग द्वारोंका आलम्बन लेकर निबद्ध किया गया है । वे अनुयोग द्वार इस प्रकार हैं- ( १ ) प्रकृति समुत्कीर्तन (६) सर्वबन्ध (३) नोसर्वबन्ध (४) उत्कृष्टबन्ध (५) अनुष्टकृष्बन्ध (६) जघन्यबन्ध (७) अजघन्यवन्ध (८) सादिबन्ध ( ९ ) अनादिवन्ध (१०) भुवबन्ध (११) अध्रुवबन्ध ( १ ) बन्त्रस्वामित्वविचय (१३) एक जीवकी अपेक्षा काल (१४) एक जीवकी अपेक्षा अन्तर (१५) सन्निकर्ष (१६) भंगविषय (१७) भागाभागानुगम ( १८ ) परिमाणानुगम (१९) क्षेत्रानुगम ( २० ) स्पर्शनानुगम (२१) नाना जीवोंको अपेक्षा कालानुगम (२२) नाना जीयोंकी अपेक्षा अन्तरानुगम (२३) भावानुगम (२४) जीव अल्पबहुत्वानुगम और (२५) अद्धा अल्पबहुत्वानुगम | १. प्रकृति समुत्कीर्तन प्रथम अनुभाग द्वार प्रकृति समकीर्तन है। इसमें कर्मोकी आठों मूल और उत्तर प्रकृतियोंका निर्देश किया गया है। किन्तु महाबन्धके प्रथम सापत्र के मुटित हो जानेसे महाबन्धका प्रारम्भ किस प्रकार हुआ है इसका ठीक ज्ञान नहीं हो पाता है। इतना अवश्य है कि इस अनुयोग द्वारका अवशिष्ट जो भाग मुद्रित है. उसके अवलोकनसे ऐसा सुनिश्चित प्रतीत होता है कि वर्मणासण्डके प्रकृति अनुयोग द्वारमें ज्ञानावरणकी पाँच प्रकृतियोंका जिस विधिसे निरूपण उपलब्ध होता है महाबन्धमें भी ज्ञानावरणको पांच प्रकृतियोंके निरूपणमें कुछ पाठ भेदके साथ लगभग वही पद्धति अपनाई गई है। प्रकृति अनुयोग द्वारके ५९ वें सूत्रका अन्तिम भाग इस प्रकार है संवच्छर- जुग - पुव्व - पव्व -- पलिदोवम -- सागरोव मादओ विधओ भवंति ||१९|| Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ इपके स्थानमें महाबंधमें इस स्थलपर पाठ हैअयणं संवच्छर-पलिदोवम-सागरोवमादओ भवंति । इसी प्रकार प्रकृति अनुयोग द्वारके अवधिज्ञान सम्बन्धी जो सत्र गाथाएँ निबद्ध हैं वे सब यद्यपि महाबन्धके प्रकृति समुत्कीर्तन में भी निबद्ध हैं, पर उनमें पाठभेदके साथ व्यतिक्रप भी देखा जाता है। उदाहरणार्थ प्रकृति अनुयोग द्वारमें 'काले चउण्ण उड्ढी' यह सूत्र गाथा पहले है और 'तेजाक म्म सरीरं' यह सुत्र गाथा बाद में । किन्तु महाबन्धमें 'तेजाकम्म सरीरं' सूत्र गाथा पहले है और काले चदुण्हं वुड्ढी' यह सूत्र गाथा बाद में। इसी प्रकार कतिपय अन्य सुत्र गाथाओंमें भी व्यतिक्रम पाया जाता है। आगे दर्शनावरणसे लेकर अन्तरायतक शेष सात कों की किसकी कितनी प्रकृतियाँ है मात्र इतना उल्लेख कर प्रकृति समुत्कीर्तन अनुयोग द्वार समाप्त किया गया है। इतना अवश्य है कि नाम कर्मकी बन्ध प्रकृतियोंकी ४२ संख्याका उल्लेख कर उसके बाद यह वचन आया है। 'यं तं गदिणामं कम्मं तं चविषं-णिरयगदि याव देवगदि त्ति । यथा पगदिभंगो तथा कादव्वो।' इसमें आये हुए 'पगदिभंगो कादवो' पदसे विदित होता है कि सम्भव है इस पदद्वारा वर्गणाखण्ड के प्रकृति अनयोगद्वारके अनुसार जाननेकी सूचना की गई है। समस्त कर्म विषयक वाङ्मयमें ज्ञानावरणादि कर्मोका जो पाठ विषयक क्रम स्वीकार किया गया है उसके अनुसार ज्ञानकी प्रधानताको लक्ष्यमें रखकर ज्ञानावरण कर्मको सर्वप्रथम रखकर तदनन्तर दर्शनावरण कर्मको रखा है-यतः दर्शनपूर्वक तत्वार्थोका ज्ञान होनेपर ही उनका श्रद्धान किया जाता है, अतः दर्शनावरणके बाद मोहनीय कर्मका पाठ स्वीकार किया है। अन्तराय यद्यपि घातिकर्म है, पर वह नामादि तीन कोके निमित्तसे ही जीवके भोगादि गुणोंके घातने में समर्थ होता है इसलिए उसका पाठ अघाति कोंके अन्तमें स्वीकार किया है । आयु भवमें अवस्थितिका निमित्त है. इसलिए नाम कर्मका पाठ आयुकर्मके बाद रखा है तथा भवके होनेपर ही जीवका नीच-उच्चपना होना सम्भव है, इसलिए गोत्र कर्मका पाठ नाम कर्मके बाद स्वीकार किया है । यद्यपि वेदनीय अघातिकर्म है पर वह मोहके बलसे ही सुखदुःखका वेदन करनेमें समर्थ है, अन्यथा नहीं, इसलिए मोहनीय कर्मके पूर्व घातिकर्मके मध्य उसका पाठ स्वीकार किया है। यह आठों कोंके पाठक्रमको स्वीकार करने विषयक उक्त कथन गोम्मटसार कर्मकाण्डके आधारसे किया है। बहुत सम्भव है कि इस पाठकर्मका निर्देश स्वयं प्रातःस्मरणीय आचार्य भूतबलीने प्रकृत अर्थाधिकारके प्रारम्भमें किया होगा। पर उसके प्रथथ ताडपत्रके त्रुटित हो जाने के कारण ही हमने गोम्मटसार कर्मकाण्डके आधारसे यह स्पष्टीकरण यह तो सुनिश्चित है कि २३ प्रकारकी पुद्गल वर्गणाओंमेसे सत्स्वरूप सभी वर्गणाओंसे ज्ञानावरणादि कर्मोंका निर्माण नहीं होता। किन्तु उनमेंसे मात्र कामण वर्गणाएँ ही ज्ञानावरणादि कर्म भावको प्राप्त होती हैं । उसमें भी अपने निश्चय उपादानके अनुसार ही वे वर्गणाएँ मिथ्यादर्शनादि बाह्य हेतुको प्राप्त कर कर्मभावको प्राप्त होती हैं, सभी नहीं। जिस प्रकार यह नियम है उसी प्रकार उपादान भावको प्राप्त हुई सभी कार्मणवर्गणाएँ ज्ञानावरणादि रूपसे कर्मभावको प्राप्त नहीं होती। किन्तु जैसे गेहूँरूप परिणमन करनेवाले बीजरूप स्कन्ध अलग होते है और चनेरूप परिणमन करनेवाले बीजरूप स्कन्ध अलग होते हैं यह सामान्य नियम है वैसे ही ज्ञानावरणरूप परिणमन करनेवाली कामण वर्गणाएँ जुदी है और दशनावरणादिरूप परिणमन करनेवाली कार्मणवर्गणाएँ अलग है । इन ज्ञानावरणादि कर्मोंका अपनी-अपनी जातिको छोड़कर अन्य कर्म रूप संक्रमित नहीं होनेका यही कारण है। तथा इसी आधारपर दर्शन मोहनीय और चारित्र मोहनीयका परस्पर संक्रमण नहीं होता यह स्वीकार किया गया है । चारों आयुओंका भी परस्पर संक्रमण नहीं होता, बहुत सम्भव है इसका भी यही कारण हो । Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. सर्वबन्ध- नोसर्वंबन्ध अनुयोगद्वार यह प्रकृति समुत्कीर्तन अनुयोगद्वारका सामान्य अवलोकन है । आगे जितने भी अनुयोगद्वार आये हैं उनद्वारा इसी प्रकृति समुत्कीर्तन अनुयोगद्वारको आलम्बन बनाकर विशेष ऊहापोह किया गया है। उनके नाम पहले ही दे आये हैं । जिस अनुयोग द्वारका जो नाम है उसमें अपने नामानुरूप ही विषय निबद्ध किया गया है । यथा सर्वबन्ध और नोसर्वबन्ध इन दो अनुयोग द्वारोंको लें । इनमें यह बतलाया गया है कि ज्ञानावरणादि आठों कर्मों से ज्ञानावरण और अन्तराय कर्मका बन्ध व्युच्छित्ति होने तक सर्वबन्ध होता है, क्योंकि इन दोनों कर्मोंकी जो पाँच-पाँच प्रकृतियाँ हैं उनका अपने बन्ध होनेके स्थल तक सतत बन्ध होता रहता है । दर्शनावरण कर्मका सर्व बन्ध भी होता है और नोसर्वबन्ध भी होता है । सासादन गुणस्थान तक इसकी सभी प्रकृतियोंका बन्ध होनेसे सर्वबन्ध होता है, आगेके गुणस्थानोंमें नोसर्वबन्ध होता है, क्योंकि दूसरे गुणस्थानके अन्तमें स्त्यानarat बन्धव्युच्छित्ति हो जाती है । और अपूर्वकरणके प्रथम भाग में निद्रा और प्रचलाकी बन्ध व्युच्छित्ति होती है । इसी प्रकार मोहनीय और नामकर्मके विषयमें भी जानना चाहिए। इन दो कर्मोंमें सर्वबन्धसे तात्पर्य जो प्रकृतियाँ अधिक से अधिक युगपत् बँध सकती हैं उनकी विवक्षासे है । तथा उनसे कर्मका बन्ध जब होता तब वह नोसर्वबन्ध कहलाता है । वेदनीय, आयु, गोत्र इन तीन कर्मोका नोसर्वबन्ध ही होता है, क्योंकि इन कर्मोंकी एक कालमें अपनी-अपनी विवक्षित एक प्रकृतिका ही बन्ध होता है । यह उक्त दो अनुयोग द्वारोंका स्पष्टीकरण है । इसी प्रकार अन्य अनुयोग द्वारोंका स्पष्टीकरण समझना चाहिए । इस अल्प निबन्ध में समग्र विवेचन सम्भव नहीं है । दिशा मात्रका ज्ञान कराया गया है । इतना अवश्य है कि महाबन्धमें जो बन्धस्वामित्वविचय अनुयोगद्वार निबद्ध है उसीके अनुसार बन्धस्वामित्वविचय तीसरे खण्डकी रचना हुई है । दोनोंका विषय एक है, और शैली भी एक है । मात्र अन्तर इतना है कि बन्धस्वामित्वविचयमें ओघके समान प्रत्येक मार्गणा और उसके अवान्तर भेदोंमें किन प्रकृतियोंका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है इसको प्रकृतियोंके नामनिर्देशपूर्वक निबद्ध किया गया है, जब कि महाबन्धके बन्ध स्वामित्व विचयमें जिस मार्गणास्थानके विषयकी पहले कहे गये जिस ओघ या मार्गणास्थानके विषयके साथ समानता है उसका 'एव' के साथ उस मार्गणास्थानका निर्देश करके संक्षेपीकरण कर दिया गया है । यथा - एवं ओघ मंगो पंचिदिय --तस० २ मनसि । इतना अवश्य है कि महाबन्धमें इस अनुयोगद्वारका बहुत कुछ भाग और एक जीवकी अपेक्षा काल अनुयोगद्वारका प्रारम्भका कुछ भाग इस विषय सम्बन्धी ताडपत्रके नष्ट 'जाने से त्रुटित हो गया है । जिसकी पूर्तिबन्धस्वामित्व विषय, वगणाखण्ड तथा अन्य उपयोगी सामग्री के आधारसे की जा सकती । पहले जिस एक ताडपत्रके नष्ट होनेका निर्देश कर आये हैं उसकी भी यथासम्भव वर्गणाखण्ड के प्रकृति समुत्कीर्तन अनुयोगद्वार आदिसे पूर्ति की जा सकती है । चतुर्थखण्ड : २५७ २. स्थितिबन्ध अवस्थान कालको स्थिति कहते हैं । ज्ञानावरणादि मूल और उनकी उत्तर प्रकृतियोंका बन्ध होनेपर उनका जितने काल तक अवस्थान रहता है उसे स्थितिबन्ध कहते हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है । वह मूल प्रकृति स्थितिबन्ध और उत्तर प्रकृति स्थितिबन्धके भेदसे दो प्रकारका है। उन्हीं दोनों स्थितिबन्धों का इस अर्थाधिकार में निरूपण किया गया है। सर्वप्रथम मूल प्रकृति स्थितिबन्धके प्रसंगसे ये चार अनुयोगद्वार निबद्ध किये गये हैं— स्थितिबन्धस्थान प्ररूपणा, निषेक प्ररूपणा, आबाधाकाण्ड प्ररूपणा और अल्पबहुत्व । इन चारों अनुयोगद्वारोंको वेदना खण्डके वेदना काल विधानमें जिस विधिसे निबद्ध किया है वही विधि यहाँ अपनाई गई है । दोनों स्थलोंपर सूत्र रचना सदृश है। मात्र महाबन्धमें परम्परोपनिधाके प्रसंगसे बहुत स्थल त्रुटित हो गया ३३ Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्य है ऐसा प्रतीत होता है। महाबन्धमें इस स्थलपर इसका कोई संकेत दृष्टिगोचर नहीं होता। संक्षेपमें स्पष्टीकरण इस प्रकार है १४ जीव समासोंमें स्थितिबन्धस्थान स्थितिबन्धस्थान - प्ररूपणा सक्ष्मनिगोदिया लक्ष्यपर्याप्त से लेकर संज्ञी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्तक तक उत्तरोत्तर कितने गुणे होते हैं यह स्थितिबन्धस्थान प्ररूपणा इस अनुयोगद्वारमें निबद्ध किया गया है। तथा इसी अनुयोगद्वारके उक्त चौदह जीवसमासोंमें संक्लेश विशुद्धिस्थानोंके अल्प बहुत्वको निबद्ध किया गया है यहाँ पर जिन परिणामोंसे कर्मोकी स्थितियोंका बन्ध होता है उनकी स्थितिबन्ध संज्ञा करके इस अनुयोगद्वारमें स्थितिबन्धके कारणोंके आधारसे अल्प बहुत्वका विचार किया गया है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । परिवर्तमान असाता, अस्थिर, अशुभ, दुभंग, दुःस्वर, अनादेय, अयशः कीति और नीच गोत्र प्रकृतियोंके बन्धके योग्य परिणामों को संक्लेश स्थान कहते हैं । तथा साता, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशः कीर्ति और उच्चगोत्र प्रकृतियोंके बन्ध योग्य परिणामोंको विशुद्धिस्थान कहते हैं। यहाँ पर वर्धमान कयायका नाम संक्लेश और हीयमान वायका नाम विशुद्धि यह अयं परिगृहीत नहीं है, क्योंकि ऐसा स्वीकार करने पर दोनों स्थानोंको एक समान स्वीकार करना पड़ता है और ऐसी अवस्थामें जघन्य कषाय स्थानोंको विशुद्धिरूप, उत्कृष्ट कषाय स्थानोंको संक्लेष रूप तथा मध्यके कषाय स्थानोंको उभयरूप स्वीकार करना पड़ता है । स्थानोंसे विशुद्धि स्थान थोड़े हैं इस प्रकार जो प्रवाह्यमान गुरुओंका उपदेश चला आ रहा है, साथ उक्त कथनका विरोध आता है। तीसरे उत्कृष्ट स्थिति बन्धके कारणभूत विशुद्धि स्थान जघन्य स्थिति बन्धके कारणभूत विशुद्धि स्थान बहुत हैं यह जो गुरुयोंका उपदेश उपलब्ध होता है साथ भी उक्त कपनका विरोध आता है, इसलिए हीयमान कषाय स्थानोंको विशुद्धि कहते हैं समीचीन नहीं है। दूसरे संक्लेश इस कथन के अल्प है और इस कथन के यह मानना यद्यपि दर्शन मोहनीय और चारित्र मोहनीयकी उपशमना और क्षपणामें प्रति समय अव्यवहित पूर्व समयमें उदयागत अनुभाग स्पर्धकोंसे अगले समय में गुणहीन अनुभाग स्पधंको के उदयसे जो कषाय उदय स्थान उत्पन्न होते हैं उन्हें विशुद्धि स्वरूप स्वीकार किया गया है, इसलिए हीयमान कषायको विशुद्धि कहते हैं यह नियम यहाँ बन जाता है यह ठीक है। परन्तु इस नियमको जीवोंकी अन्यत्र संसार स्वरूप अवस्थामें लागू नहीं किया जा सकता है, क्योंकि उस अवस्थामें छह प्रकारकी वृद्धि और छह प्रकारकी हानि द्वारा कवाय उदय स्थानोंकी उत्पत्ति देखी जाती है। माना कि संसार अवस्था में भी अनन्तगुण हानिका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त स्वीकार किया गया है, इसलिए वहाँ भी अन्तर्मुहूर्त काल तक अनुभाग स्पर्धकोंको हानि होनेसे उतने ही काल तक विशुद्धि बन जाती है यह कहा जा सकता है। परन्तु यहाँ विशुद्धिका यह अर्थ विवक्षित नहीं हैं किन्तु यहाँ पर साता अदिके बन्धके योग्य परिणामोंको विशुद्धि कहते हैं । और असाता आदिके बन्धके योग्य परिणामोंको संक्लेश कहते हैं यही अर्थ विवक्षित है । अन्यथा उत्कृष्ट स्थितिके बन्धके योग्य विशुद्धिस्थान अल्प होते हैं यह नियम नहीं बन सकता। इसलिए जघन्य स्थिति बन्धसे लेकर उत्कृष्ट स्थिति बन्ध तक संक्लेश स्थान उत्तरोत्तर अधिक होते हैं और उत्कृष्ट स्थिति बन्धसे लेकर जघन्य स्थिति बन्ध तक विशुद्धि स्थान उत्तरोत्तर अधिक होते हैं यह सिद्ध हा जाता है और ऐसा सिद्ध हो जानेपर लक्षण भेदसे दोनों प्रकारके परिणामों को पृथक पृथक् ही मानना चाहिए। इन दोनों प्रकारके परिणामोंका पृथक् पृथक् लक्षण पूर्व में किया ही है । इस प्रकार १४ जीव समासोंमें संक्लेश, विशुद्धि स्थानोंकी अपेक्षा अल्प बहुत्वके समाप्त होने पर इसी अनुयोग द्वारमें संयतों सहित १४ जीव समासोंमें पर्याप्त और अपर्याप्त दोनों प्रकारके जीवोंको विवक्षित कर जपन्य और उत्कृष्ट स्थितिबन्धके अल्पबहुत्वका निर्देश करके इस अनुयोग द्वारको समाप्त किया है। Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : २५९ २. निषेक प्ररूपणा दसरा अनुयोग द्वार निषेक प्ररूपणा है । इसको अनन्तरोपनिघा और परम्परोपनिषा के आधारसे निबद्ध कर इस अनुयोग द्वारको समाप्त किया गया है। स्पष्टीकरण इस प्रकार है-आयु कर्मको छोड़कर अन्य कर्मोका जितना-जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति बन्ध होता है उसमेंसे आबाधाको कम कर जितनी स्थिति शेष रहती है उसके प्रथम समयसे लेकर अन्तिम समय तक स्थितिके प्रत्येक समयमें उत्तरोत्तर क (क चयकी हानि होते हुए प्रत्येक समयमें बद्ध द्रव्य निषेक रूपसे विभक्त होता है। इसे विशेष रूपसे समझनेके लिए जीवस्थान चूलिका (पृ० १५० से १.८ तक) को देखिए । प्रत्येक समयमें जितना द्रव्य बंधता है उसकी समय प्रबद्ध संज्ञा है। स्थिति बन्धके समय आबाधाको छोड़कर स्थितिके जितने समय शेष रहते है उनमेंसे प्रत्येक समयमें समय प्रबद्ध मेंसे जितना द्रव्य निक्षिप्त होता है उसकी निषेक संज्ञा है तथा स्थिति बन्धके होने पर उसके प्रारम्भके जितने समयोंमें समय-प्रबद्ध सम्बन्धी द्रव्यका निक्षेप नहीं होता उसकी आबाधा संज्ञा है। प्रथम निषेकसे दूसरे निषेक में, दूसरे निषेकसे तीसरे निषेकमें इत्यादि रूपसे अन्तिम निषेक तक उत्तरोत्तर जितने द्रव्यको कम करत जाते हैं उसकी चय संज्ञा है। इसी प्रकार अन्य विषयोंको समझ कर प्रकृत प्ररूपणाका स्पष्टीकरण कर लेना चाहिए। ३. आबाधाकाण्डक प्ररूपणा __ तीसरा अनुयोग द्वार आबाधाकाण्डक प्ररूपणा है। आयुकर्मको छोड़कर शेष कर्मोका जितना उत्कृष्ट स्थितिबन्ध हो उसकी स्थितिके सब समयोंमें वहाँ प्राप्त आबाधाके समयोका भाग देनेपर जितना लब्ध आवे उतने समयोंका एक आबाधाकाण्डक होता है। अर्थात उत्कृष्ट स्थितिबन्धसे लेकर उत्कृष्ट स्थितिमेसे जितने समय कम हुए हों वहाँ तक स्थितिबन्धके प्राप्त होनेपर उस सब स्थितिबन्ध सम्बन्धी विकल्पोंको उत्कृष्ट आबाधा होती है । अतः इन्हीं सब स्थितिबन्धके विकल्पोंका नाम एक आबाधाकाण्डक है। ये सब आबाधाकाण्डक प्रमाण स्थितिबन्धके भेद पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण होते हैं। इसी विधिसे अन्य आबाधाकाण्डक जानने चाहिए । यह नियम स्थितिबन्धमें वहीं तक समझना चाहिए जहाँ तक उक्त नियमके अनुसार आबाधाकाण्डक प्राप्त होते हैं। आयु कर्म के स्थितिबन्ध में उसकी आबाधा परिगणित नहींकी जाती, वह अतिरिक्त होती है, इसलिए कर्म भूमिज मनुष्य और तिर्यंचोंमें उत्कृष्ट या मध्यम किसी भी प्रकारकी आयुका बन्ध होनेपर आबाधा पूर्व कोटिके त्रिभागसे लेकर आसंक्षेपाद्धाकाल तक यथा सम्भव कुछ भी हो सकती है। नारकियों, भोगभूमिज तिर्यचों और मनुष्यों तथा देवोंमें भुज्यमान आयुमें छह महिना अवशिष्ट रहने पर वहाँ से लेकर आसंक्षेपाद्धाकाल तक आबाधा कुछ भी हो सकती है। अतः आयुकर्ममें उक्त प्रकारके आबाधाकाण्डक के सम्भव होनेका प्रश्न ही नहीं उठता। ३. अल्पबहुत्व प्ररूपणा इस अनुयोग द्वारमें १४ जीवसमासोंमें जघन्य और उत्कृष्ट-आबाधा, आबाधास्थान, आबाधाकाण्डक, नानागुण हानिस्थान, एकगुण हानिस्थान जघन्य और उत्कृष्ट स्थितिबन्ध और स्थितिबन्धस्थान पदोंके आलम्बनसे जिस क्रमसे इन पदोंमें अल्प बहुत्व सम्भव है उसका निर्देश किया गया है ।। ४. चौवीस अनुयोगद्वार आगे उक्त अर्थपदके अनुसार २४ अनुयोगद्वारोंका आलम्बन लेकर ओघ और आदेशसे स्थितिबन्धको विस्तारके साथ निबद्ध किया गया है। अनुयोगद्वारोंके नाम वही हैं जिनका निर्देश प्रकृतिबन्धके निरूपणके प्रसंगसे कर आये हैं । मात्र प्रकृतिबन्धमें प्रथम अनुयोग द्वारका नाम प्रकृतिसमुत्कीर्तन है और यहाँ उसके स्थानमें Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० : सिद्धान्ताचार्यं पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ प्रथम अनुयोगद्वारका नाम अडाच्छेद है अढा नाम कालका है। ज्ञानावरणादि किस कर्मका जघन्य और उत्कृष्ट कितना स्थितिबन्ध होता है, किसकी कितनी आबाधा होती है और आबाधाको छोड़कर जहाँ जितनी कर्मस्थिति अवशिष्ट रहती है उसमें निषेक रचना होती है, इस विषयको इस अनुयोगद्वारमें निवद्ध किया गया है। शेष अनुयोगद्वारोंमें अपने-अपने नामानुसार विषयको निबद्ध किया गया है । सर्वं स्थितिबन्ध और उत्कृष्ट स्थितिबन्धमें यह अन्तर है कि सर्वस्थितिवन्ध अनुयोगद्वारमें उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होनेपर सभी स्थितियोंका अन्ध विवक्षित रहता है और उत्कृष्ट स्थितिबन्ध अनुयोगद्वारमें उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होनेपर मात्र अन्तकी उत्कृष्ट स्थिति परिगृहीत की जाती है। यहाँ इतना विशेष और जान लेना चाहिए कि अनुत्कृष्टमें उत्कृष्टको छोड़कर जघन्यसहित सबका परिग्रह हो जाता है तथा अजघन्यमें जवन्यको छोड़कर उत्कृष्ट सहित सबका परिग्रह हो जाता है। उक्त नियम प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्ध में सर्वत्र लागू होते हैं । मात्र जहाँ प्रकृति आदि जिस बन्धका कथन चल रहा हो वहाँ उसके अनुसार विचार कर लेना चाहिए। ५. सादि-अनादि ध्रुव - अध्रुव स्थितिबन्ध स्थितिबन्ध चार प्रकारका होता है- उत्कृष्ट स्थिति बन्ध, अनुत्कृष्ट स्थिति बन्ध, जघन्य स्थिति बन्ध और अजघन्य स्थिति बन्ध । इन चारों प्रकारके स्थिति बन्धों में से कौन स्थितिबन्ध सादि आदिमेसे किस प्रकार का होता है इसका विचार इन चारों अनुयोग द्वारोंमें किया गया है । यथा ज्ञानावरणादि सात कर्मो का उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संशी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक के अपने योग्य स्वामित्व के प्राप्त होनेपर ही होता है। इसलिए यह सादि है और चूंकि वह नियतकाल तक ही होता है उसके बाद पुनः जब उसके योग्य स्वामित्व प्राप्त होता है तभी वह होता है, मध्य कालमें नहीं, इसलिए वह उत्कृष्ट स्थिति बन्ध अध्रुव है । तथा मध्यके कालमें जो उससे न्यून स्थिति बन्ध होता है वह सब अनुत्कृष्ट स्थितिबन्ध है । यतः वह उत्कृष्ट स्थिति बन्धके बाद ही सम्भव है और तभी तक सम्भव है जब तक पुनः उत्कृष्ट स्थिति बन्ध प्राप्त नहीं होता। इसलिए यह भी सादि और अध्रुव है । जघन्य स्थिति बन्ध क्षपक श्रेणी में मोहनीयका नौवें गुणस्थानमें और शेष छहका दसवें गुणस्थानके अन्तिम समयमें होता है । इसलिए यह भी सादि और अध्रुव है । किन्तु पूर्व अनादि कालसे उक्त सातों कर्मो का अनादि जो स्थितिबन्ध होता है वह जघन्य स्थितिबन्ध कहलाता है क्योंकि इसमें जघन्य स्थिति बन्धको छोड़कर शेष सबका परिग्रह हो जाता है। इसलिए तो वह अनादि है और ध्रुव है तथा उपशम श्रेणीमें ग्यारहवें गुणस्थान । से गिरनेपर पुनः इन कर्मोंका यथा स्थान बन्ध प्रारम्भ हो जाता है आयुकर्मका बन्ध कादाचित्क होनेसे उसमें सादि और अध्रुव ये दो ही जाय इसलिए इन चारों अनुयोग द्वारोंका वहाँ स्पष्टीकरण किया है। ६. बन्ध स्वामित्व प्ररूपणा इसलिए वह सादि और अध्रुव है । विकल्प बनते हैं विशेष जानकारी हो स्थिति बन्धके स्वामित्वको समझने के लिए कुछ तथ्योंका यहाँ विचार किया जाता है। यथासामान्य नियम यह है कि सातावेदनीय आदि प्रकृतियोंके बन्ध योग्य परिणामोंको विशुद्धि कहते हैं और असातावेदनीय आदि प्रकृतियोंके बन्ध योग्य परिणामोंको सं क्लेश कहते हैं। इस नियम के अनुसार ज्ञानावरणादि सभी कर्मोंका स्थिति बन्ध किस प्रकार होता है इसका यहाँ विचार करना है । बन्ध चार प्रकारका है - प्रकृति बन्ध, स्थिति बन्ध, अनुभाग बन्ध और प्रदेश बन्ध । इनमें से प्रकृति बन्ध और प्रदेश बन्ध योगसे होता है तथा स्थिति बन्ध और अनुभाग बन्ध कषायसे होता है। ऐसा होते हुए भी यदि कषाय - उदय स्थानोंको ही स्थितिबन्धाध्यवसान स्थान मान लिया जावे तो कषाय उदय स्थान के बिना मूल प्रकृतियोंका बन्ध न हो सकने से सब प्रकृतियोंके स्थितिबन्धाप्यवसानस्थान समान हो जायेंगे । अतएव सब मूल Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : २६१ प्रकृतियोंके अपने-अपने उदयसे जो परिणाम उत्पन्न होते हैं वे अपने-अपने स्थितिबन्धके कारण हैं, अतः उन्हें ही यहाँ स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान स्वीकार किया गया है। श्री समयसार आस्रव अधिकार (गाथा १७१) में बतलाया है कि ज्ञान गुणका जब तक जघन्यपना है तब तक वह यथाख्यात चारित्रके पूर्व अन्तमुहूर्त-अन्तमुहूर्तमें पुन. पुनः परिणमन करता है, इसलिए उसके साथ रागका सद्भाव अवश्यंभावी होनेसे वह बन्धका हेतु होता है । आगे : गाथा १७२ में) इसे और भी स्पष्ट करते हए बतलाया है कि यद्यपि ज्ञानीके बुद्धिपूर्वक अर्थात् मैं रागादि भावोंका कर्ता हूँ और वे भाव मेरे कार्य है इस प्रकार रागादिके स्वामित्वको स्वीकार कर राग, द्वेष और मोहका अभाव होनेसे वह निरास्रव ही हैं, फिर भी जबतक वह अपने ज्ञान (आत्मा) को सर्वोत्कृष्ट रूपसे अनुभवने, जानने और उसमें रमनेमें असमर्थ होता हआ उसे जघन्य भावसे अनुभवता है, जानता है और उसमें रमता है तब तक जघन्य भावकी अन्यथा उत्पत्ति न हो सकनेके कारण अनुभीयमान अबुद्धिपूर्वक कर्म कलंकके विपाकका सद्भाव होनेसे उसके पुद्गल कर्मका बन्ध होता ही है। यह आगम प्रमाण है । इससे ज्ञात होता है कि केवल कषाय-उदयस्थानोंकी स्थिति बन्धाध्यवसानस्थान संज्ञा न होकर कषाय-उदयस्थानोंसे अनुरंजित ज्ञानावरणादि कर्मोमेंसे अपने-अपने न.मके उदयसे होनेवाले परिणामोंकी स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान संज्ञा है। अब इन स्थितिबन्धाध्यवसानस्थानोंके सद्भावमें ज्ञानावरणादि कर्मोका उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जधन्य और अजघन्य स्थितिबन्ध किसके होता है इसका विचार करते हैं । ज्ञानावरणका बन्ध करनेवाले जीव दो प्रकारके हैं-सातबन्धक और असातबन्धक, क्योंकि जो जीव ज्ञानावरणीय कर्मोंका बन्ध करते हैं वे यथासम्भव सातावेदनीय और असातावेदनीय इनमेंसे किसी एकका बन्ध अवश्य करते हैं। उनमेंसे सातबन्धक जीव तीन प्रकारके है-चतुःस्थानबन्धक, त्रिस्थानबन्धक और द्विस्थानबन्धक । जघन्य स्पर्धकसे लेकर उत्कृष्ट स्पर्धक तक सातावेदनीयका अनुभाग चार भागोंमें विभक्त है। उनमेंसे प्रथम खण्ड गुडके समान है । दूसरा खण्ड खाँडके समान है, तीसरा खण्ड शर्कराके समान है और चौथा खण्ड अमृतके समान है। जिसमें ये चारों स्थान होते है उसे चतुःस्थानबन्ध कहते हैं, जिसमें अन्तिम खण्डको छोड़कर प्रारम्भके तीन स्थान होते हैं उसे त्रिस्थानबन्ध कहते हैं तथा जिसमें प्रारम्भके दो स्थान होते हैं उसे द्विस्थानबन्ध कहते हैं । जिसमें प्रारम्भका एक भाग हो ऐसे अनुभागसहित सातावेदनीयका बन्ध नहीं होता, सत्व होता है, इसलिए यहाँ सातावेदनीयका एक स्थान बन्ध नहीं कहा। उक्त प्रकारसे सातावेदनीयके बन्धक जीव भी तीन प्रकारके हो जाते हैं। असातबन्धक जीव भी तीन प्रकारके हैं-द्विस्थानबन्धक, त्रिस्थानबन्धक, और चतुःस्थानबन्धक । जघन्य स्पर्धकसे लेकर उत्कृष्ट स्पर्धक तक असातावेदनीयका अनुभाग चार भागोंमें विभक्त है। उनमेंसे प्रथम खण्ड नीमके समान है, दूसरा खण्ड कांजीरके समान है, तीसरा खण्ड विषके समान है और चौथा खण्ड हालाहलके समान है । जिसमें प्रारम्भके दो स्थान होते हैं उसे द्विस्थानबन्ध कहते है, जिसमें प्रारम्भके तीन स्थान होते हैं उसे त्रिस्थानबन्ध कहते हैं तथा जिसमें चारों स्थान होते हैं उसे चतुःस्थानबन्ध कहते हैं। इस प्रकार असाताके उक्त स्थानोंके बन्धक जीव भी तीन प्रकारके होते है। यहाँ सातावेदनीयके चतुःस्थानबन्धक जीव सबसे विशुद्ध होते हैं। यहाँ अत्यन्त तीव्र कषायके अभावस्वरूप मन्द कषायका नाम विशुद्धता है। वे अत्यन्त मन्द संक्लेश परिणामवाले होते हैं यह इसका तात्पर्य है। उनसे सातावेदनीयके त्रिस्थानबन्धक जीव संक्लिष्टतर होते हैं अर्थात् उत्कट कषायवाले होते हैं । उनसे सातावेदनीयके द्विस्थानबन्धक जीव संक्लिष्टतर होते है। अर्थात् सातावेदनीयके त्रिस्थानबन्धक जीव जितने उत्कट कषायवाले होते हैं उनसे द्विस्थानबन्धक जीव और अधिक संक्लेशयुक्त कषायवाले होते हैं : Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ असातावेदनीयके द्विस्थानबन्धक जीव सबसे विशुद्ध होते है । अर्थात् मन्द कषायवाले होते हैं। उनसे त्रिस्थानबन्धक जीव संक्लिष्टतर होते हैं । अर्थात् अति उत्कट संक्लेश युक्त होते हैं। उनसे चतुःस्थानबन्धक जीव संक्लिष्टतर होते हैं । अर्थात अत्यन्त बहुत कषायवाले होते हैं। इस कथनसे यह स्पष्ट हो जाता है कि केवल कषायकी मन्दता होना इसका नाम विशुद्धि और कषायकी तीव्रताका होना इसका नाम संक्लेश नहीं है, क्योंकि कषायकी मन्दता और तीव्रता विशद्धि और संक्लेश दोनोंमें देखी जाती है, अत आलम्बन भेदसे विशुद्धि और संक्लेश समझना चाहिए । जहाँ सच्चे देव, गुरु और शास्त्र तथा दया दानादिका आलम्बन हो वह कषाय विशुद्धि स्वरूप कहलाती है तथा जहाँ संसारके प्रयोजन भूत पंचेन्द्रियोंके विषयादि आलम्बन हो वह कषाय संक्लेश स्वरूप कहलाती है। कषायकी मन्दता और तीव्रता दोनों स्थलोंपर सम्भव है । इस हिसाबसे ज्ञानावरणीय कर्मके स्थिति बन्धका विचार करनेपर विदित होता है कि साता वेदनीयके चतुःस्थान बन्धक जीव ज्ञानावरणीयका जघन्य स्थिति बन्ध करते हैं। यहाँ दो बातें विशेष ज्ञातव्य है । प्रथम यह कि उक्त जीव ज्ञानावरणीयका जघन्य स्थिति बन्ध ही करते हैं ऐसा एकान्तसे नहीं समझना चाहिए । किन्तु ज्ञानावरणका अजघन्य स्थितिबन्ध भी उक्त जीवोंके देखा जाता है। द्वितीय यह कि यहाँ ज्ञानावरण कहनेसे सभी ध्रुव प्रकृतियोंको ग्रहण करना चाहिए । साता वेदनीयके त्रिस्थान बन्धक जीव ज्ञानावरणका अजघन्य अनुत्कृष्ट स्थितिबन्ध करते हैं। यहाँ यद्यपि अजघन्यमें उत्कृष्टका और अनुत्कृष्टमें जघन्यका परिग्रह हो जाता है, पर उक्त जीव ज्ञानावरणकी उत्कृष्ट और जघन्य स्थितिका बन्ध नहीं करते हैं, क्योंकि उक्त जीवोंमें इन दोनों स्थितियोंके बन्धकी योग्यता नहीं होती है। साता वेदनीयके द्विस्थान बन्धक जीव सातावेदनीयका ही उत्कृष्ट स्थितिबन्ध करते हैं। यहाँ उक्त जीव सातावेदनीयका ही उत्कृष्ट स्थितिबन्ध करते हैं इस कथनका यह आशय है कि वे ज्ञानावरण कर्मकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध नहीं करते । यह आशय नहीं कि वे मात्र सातावेदनीय कर्मकी उत्कृष्ट स्थितिका ही बन्ध करते हैं । किन्तु वे साता वेदनीयको अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्ध करते हैं। उक्त कथनका यह आशय यहाँ समझना चाहिए । असातावेदनीयके द्विस्थान बन्धक जीव ज्ञानावरगीयकी वहाँ सम्भव जघन्य स्थितिका बन्ध करते हैं त्रिस्थान बन्धक जीव ज्ञानावरणकी अजघन्य अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करते हैं, क्योंकि इनके उत्कृष्ट संक्लेशरूप और अति विशुद्ध दोनों प्रकारके परिणाम नहीं पाये जाते। चतुस्थान बन्धक जीव असाताके ही उत्कृष्ट स्थिति बन्धके साथ ज्ञानवरणका भी उत्कृष्ट स्थिति बन्ध करते है। यहाँपर ज्ञानवरण कर्मकी मुख्यतासे उसके जघन्य और उत्कृष्ट स्थितिबन्धके स्वामीका विचार पिया । उक्त तथ्योंको ध्यानमें रखकर इसी प्रकार अन्य सात कर्मोके विषयमें भी जान लेना चाहिए। ७. एक जीवकी अपेक्षाकाल-अन्तरप्ररूपणा स्थितिबन्ध चार प्रकारका है-जधन्यस्थितिबन्ध, उत्कृष्टस्थितिबन्ध, अजघन्यस्थितिबन्ध और अनुत्कृष्टस्थितिबन्ध । हम पहले सादि आदि चारों अनुयोग द्वारोंकी अपेक्षा उत्कृष्ट आदि चारों स्थितिन्बधोंका तथा स्वामित्वका ऊहापोह कर आये हैं उसे ध्यानमें रखकर किस कर्मके किस स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल कितना होता है यह एक जीवकी अपेक्षा काल और अन्तर प्ररूपणामें बतलाया गया है। इसी प्रकार नाना जीवोंकी अपेक्षा क्षेत्र आदि शेष अनुयोग द्वारोंका विचार कर लेना चाहिए। Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : २६३ ८. भुजगार-पदनिक्षेप-वृद्धि अर्थाधिकार भुजगार स्थितिबन्ध-पिछले समयमें कम स्थितिबन्ध होकर अगले समयमें अधिक स्थितिका बन्ध होना भुजगार स्थितिबन्ध कहलाता है। पिछले समयमें अधिक स्थितिबन्ध होकर अगले समयमें कम स्थितिबन्ध होना अल्पतर स्थितिबन्ध कहलाता है। पिछले समयमें जितना स्थितिबन्ध हआ हो, अगले समयमें उतना ही स्थितिबन्ध होना अवस्थित स्थितिबन्ध कहलाता है तथा पिछले समयमें स्थितिबन्ध न होकर अगले समयमें पुनः स्थितिबन्ध होने लगना अवक्तव्य स्थितिबन्ध कहलाता है। इस अनुयोगद्वारमें इन चारों स्थितिबन्धोंकी अपेक्षा समुत्कीर्तना, स्वामित्व, एक जीवकी अपेक्षा काल, अन्तर, नाना जीवोंकी अपेक्षा भंग विचय, भागाभाग, परिमाण क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर भाव और अल्पबहुत्व इन अनुयोगद्वारोंका आलम्बन लेकर ज्ञानावरणादि आठों कर्मोंके स्थितिबन्धका विचार किया गया है । पदनिक्षेप -- भुजगार विशेषको पदनिक्षेप कहते हैं । इसमें स्थितिबन्धकी उत्कृष्ट वृद्धि, उत्कृष्ट हानि और उत्कृष्ट अवस्थान तथा जघन्य वृद्धि, जघन्य हानि और जघन्य अवस्थान इन छह पदों द्वारा समुत्कीर्तना, स्वामित्व और अल्पबहत्व इन तीन अनुयोग द्वारोंका आलम्बन लेकर स्थितिबन्धका विचार किया गया है। वृद्धि-पदनिक्षेपविशेषको वृद्धि कहते हैं । इसमें स्थितिबन्ध सम्बन्धी चार वृद्धि, चार हानि, अवस्थित और अवक्तव्य इन पदों द्वारा समुत्कीर्तना आदि १३ अनुयोग द्वारोंका आलम्बन लेकर ज्ञानावरणादि कर्मोकी स्थितिबन्धका विचार किया गया है। ९. अध्यवसान बन्ध प्ररूपणा इसमें मुख्यतया तीन अनुयोग द्वार है-प्रकृति, समुदाहार, स्थिति समुदाहार, और जीव समुदाहार । प्रकृति समुदाहारमें किस कर्मकी कितनी प्रकृतियाँ है इसका निर्देश करनेके बाद उनका अल्पबहुत्व बतलाया गया है। स्थिति समुदाहारमें प्रमाणानुगम, श्रेणिप्ररूपणा और अनुकृष्टि प्ररूपणा इन तीन अधिकारोंके द्वारा ज्ञानावरणादि कर्मोकी जघन्य स्थितिसे लेकर उत्कृष्ट स्थिति तक सभी स्थितिके अध्यवसान स्थानाका ऊहापोह किया गया है। साधारणतः स्थितिबंधाव्यवसान स्थानोंका स्वरूप निर्देश हम पहले कर आये हैं । समयसारके आस्रव अधिकारमें बन्धके हेतुओं का निर्देश करते हुए वे जीव परिणाम ओर पुद्गल परिणाम के भेदसे दो प्रकारके बतलाकर लिखा है कि जो मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योगरूप पुद्गलके परिणाम है वे कर्मबन्ध के हेतु है तथा जो राग, द्वेष और मोहरूप जीवके परिणाम हैं वे पुद्गलके परिणाम प आस्रवके हेतु होनेसे कर्मबन्धके हेतु कहे गये हैं। यह सामान्य विवेचन है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि जिस कर्मके जितने उदयविकल्प है उनसे युक्त होकर ही ये द्रव्य और भावरूप आस्रवके भेद कर्मबन्धके हेतु होते है, इसलिए प्रकृतमें स्थितिबंधाध्यवसान स्थानोंमें प्रत्येक कर्मके उदयविकल्पोंको ग्रहण किया गया है ऐसा यहाँ समझना चाहिए। जीवसमुदाहारमें ज्ञानावरणादि कर्मोके बन्धक जीवोंको सातबन्धक और असातबन्धक ऐसे दो भागोंमें विभक्त कर और उनके आश्रयसे विशद विवेचन कर इस अधिकारको समाप्त किया गया है। इस सम्बन्धमें स्पष्ट विवेचन हम पहले ही कर आये हैं। इस समग्र कथनको हृदयंगम करनेके लिए वेदनाखण्ड पुस्तक ११ की द्वितीय चूलिकाका सांगोपांग अध्ययन करना आवश्यक है। १०. उत्तर प्रकृति स्थितिबन्ध अर्थाधिकार पूर्वमें मूल प्रकृतियों की अपेक्षा स्थितिबन्धका प्रकृतमें प्रयोजनीय जैसा स्पष्टीकरण किया है उसी प्रकार उत्तर प्रकृतियोंकी अपेक्षा स्पष्टीकरण जानना चाहिए। जो मूल प्रकृतियोंके स्थितिबन्धका विवेचन Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ करते हुए अनुयोगद्वार स्वीकार किये गये हैं वे ही यहाँ स्वीकार कर उत्तर प्रकृति स्थितिबन्धकी प्ररूपणाकी गई है। अनुभागबन्धकी अपेक्षा ज्ञानावरणादि कर्मोकी सब प्रकृतियाँ दो भागोंमें विभक्त हैं। पुण्य प्रकृतियाँ और पाप प्रकृतियाँ । पण्य प्रतियोंको प्रशस्त प्रकृतियाँ और पाप प्रकृतियों को अप्रशस्त प्रक है। किन्तु स्थितिबन्धकी अपेक्षा तिर्यञ्चायु, मनुष्यायु और देवायुको छोड़कर शेष ११७ प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध यथासम्भव उत्कृष्ट संकटेश या तत्प्रायोग्य संकटेश परिणामोंसे होता है, इसलिए शुभ और अशुभ इन सब प्रकृतियोंकी स्थिति अशुभ ही मानी गई है। मात्र पूर्वोक्त तीन आयुओंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध यथा सम्भव तत्प्रायोग्य विशुद्व परिणामोंसे होता है, इसलिए इन तीन आयुओंकी उत्कृष्ट स्थिति शुभ मानी गई है। यहाँ इतना विशेष समझना चाहिए कि उक्त ११७ प्रकृतियों में से जिन प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सातावेदनीयके बन्धकालमें होता है वहाँ उत्कृष्ट संक्लेश या तत्प्रायोग्य संक्लेशका अर्थ सातावेदनीयके बन्ध योग्य जघन्य या तत्प्रायोग्य जघन्य विशुद्धिके अन्तर्गत संक्लेश परिणाम लिया गया है । तथा जिन प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध असातावेदनीयके बन्धकालमें होता है वहाँ उत्कृष्ट संक्लेव या तत्प्रायोग्य संक्लेशका अर्थ असातावेदनीयके बन्ध योग्य उत्कृष्ट संक्लेश या तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट संक्लेशके अन्तर्गत संक्लेश परिणाम लिया गया है। इन ११७ प्रकृतियोंके अतिरिक्त शेष तीन आयओंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध यथास्थान सातावेदनीयके बन्ध योग्य तत्प्रायोग्य विशुद्धिरूप परिणामोंके कालमें होता है। ___यह सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धके स्वामित्वका विचार है। सब प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धके स्वामित्वका विचार करते समय तह विशेषरूपसे ज्ञातव्य है कि जिन प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध क्षपकश्रेणिके जीव करते हैं उनके लिए जिन विशेषणोंका प्रयोग किया गया है उनमें वे सर्व विशुद्ध होते हैं या तत्प्रयोग्य विशुद्ध होते हैं, इस प्रकारका कोई भी विशेषण नहीं दिया गया है । जब कि ऐसे जीवोंके उत्तरोत्तर प्रति समय अनन्तगुणी विशुद्धि होती जाती है। ऐसा क्यों किया गया है यह एक प्रश्न है ? समाधान यह है कि ये जीव शुद्धोपयोगी होते हैं, इसलिए इनके जितना कषायांश पाया जाता है वह सब अबुद्धिपूर्वक ही होता है। यही कारण है कि इन्हें उक्त प्रकारके कपायांशको अपेक्षा 'सर्व विशुद्ध या तत्प्रायोग्य विशुद्ध' विशेषणसे विशेषित नहीं किया गया है। इतना अवश्य है कि इनके प्रति समय उत्तरोत्तर अनन्तगुणी हानिको लिए हए वह कषायांश पाया अवश्य जाता है, इसलिए इस अपेक्षासे उनके उत्तरोत्तर प्रति समय अनन्तगुणी विशुद्धिका भी सद्भाव बतलाता गया है। शेष प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धके स्वामित्वके विषयमें ऐसा समझना चाहिए कि जिन प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध सातावेदनीयके बन्धकालमें होता है वहाँ उन प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धके योग्य जो परिणाम होते है वे सातावेदनीयके बन्धयोग्य विशुद्धिकी जातिके होते हैं और जिन प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध असाता वेदनीयके बन्धकालमें होता है वहाँ उन प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धके योग्य जो परिणाम होते हैं वे असातावेदनीयके बन्ध योग्य संक्लेश परिणामोंकी जातिके होते हैं। यह सब प्रकृतियोंके स्थितबन्धके स्वामित्वका विचार है । अन्य अनुयोग द्वारोंका ऊहापोह इस आधारसे कर लेना चाहिए, क्योंकि यह अनुयोगद्वार शेष अनुयोगद्वारों की योनि है । ३. अनुभाग बन्ध ___ फल-दान शक्तिको अनुभाग कहते हैं । ज्ञानावरणादि मूल और उनकी उत्तर प्रकृतियोंका बन्ध होने पर उनमें जो फलदान शक्ति प्राप्त होती है उसे अनुभाग बन्ध कहते है । वह मूल प्रकृति अनुभाग बन्ध और उत्तर Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थखण्ड : २६५ प्रकृति अनुभाग बन्धके भेदसे दो प्रकारका है । उन्हीं दोनों अनुभाग बन्धोंका इस अर्थाधिकार में निरूपण किया गया है। सर्वप्रथम मूलप्रकृति अनुभाग बन्धके प्रसंगसे ये दो अनुयोग द्वार निबद्ध किये गये हैंनिषेक प्ररूपणा और स्पर्धक प्ररूपणा । ज्ञानावरणादि कर्मोमेंसे जिसमें देशघाति या सर्वपाति जो स्पर्धक होते हैं वे आदि वर्गणासे लेकर आगेकी वर्गणाओंमें सर्वत्र पाये जाते हैं । इस विषयका प्रतिपादन निषेक प्ररूपणा में किया गया है। अनन्तानन्त अविभाग प्रतिच्छेदोंका एक वर्ग होता है, सिद्धों के अनन्तवे भाग और अभव्योंसे अनन्त गुणे वर्गोंकी एक वर्गणा होती है, तथा उतनी ही वर्गणाओंका एक स्पर्धक होता है इस विषयका विवेचन स्पर्धक प्ररूपणा में किया गया है । २४. अनुयोग द्वार आगे उक्त अर्थपदके अनुसार २४ अनुयोग द्वारोंका आलम्बन लेकर ओघ और आदेशसे अनुभाग बन्धको विस्तारसे निबद्ध किया गया है। अनुयोग द्वारोंके नाम वे ही हैं जिनका निर्देश प्रकृति बन्धके निरूपणके प्रसंगसे कर आये है । मात्र प्रकृति बन्धमें प्रथम अनुयोग द्वारका नाम प्रकृति समुत्कीर्तन है और इस अर्था विकार में प्रथम अनुयोग द्वारका नाम संज्ञा है । १ संज्ञा अनुयोगद्वार संज्ञाके दो भेद है - घाति संज्ञा और स्थान संज्ञा । ज्ञानावरणादि आठ कर्मों मेंसे कौन कर्म घाति है और कौन जाति हैं इस विषयका ऊहापोह करते हुए बतलाया है कि ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय ये चार जाति कर्म है तथा शेर चार अपाति कर्म हैं जो आत्मा के ज्ञान, दर्शन, सम्यक्त्व, चारित्र सुख, वीर्य, दान, लाभ, भोग, और उपभोग आदि गुणोंका घात करते हैं उन्हें घाति कर्म कहते हैं तथा जो इन गुणोंके घातनेमें समर्थ नहीं हैं उन्हें अपाति कर्म कहते हैं। अपाति कर्ममिसे वेदनीय कर्मके उदयसे पराश्रित सुख, दुःखकी उत्पत्ति होती है । आयु कर्मके उदयसे नारक आदि भावोंमें अवस्थिति होती है । नाना कर्मके उदयसे नारकादि गतिरूप जीव भावकी तथा विविध प्रकारके शरीरादिकी उत्पत्ति होती है तथा गोत्र कर्मके उदयसे जीवमें ऊँच और नीच आचारके अनुकूल जीवभावकी उत्पत्ति होती है। स्थान संज्ञाद्वारा घाति और अघाति कर्म विषयक अनुभागके तारतम्यको बतलानेवाले स्थानोंका निर्देश किया गया है। उनमेंसे घाति कर्म सम्बन्धी स्थान चार प्रकार के हैं- एकस्थानीय द्विस्थानीय त्रिस्थानीय और चतुःस्थानीय जिसमें लताके समान लचीला अति अल्प फलदान शक्तियुक्त अनुभाग पाया जाता है वह एक स्थानीय अनुभाग कहलाता है । जिसमें दारुके ( काष्ठके) समान कुछ सघन और कठिन फलदान शक्तियुक्त अनुभाग पाया जाता है वह द्विस्थानीय अनुभाग कहलाता है । जिसमें हड्डीके समान सघन होकर अति कठिन फलदान शक्तियुक्त अनुभाग पाया जाता है वह त्रिस्थानीय अनुभाग कहलाता है, तथा जिसमें पाषाणके समान अति कठिनतर सघन फलदान शक्तियुक्त अनुभाग पाया जाता है वह चतुःस्थानीय अनुभाग कहलाता है । इस प्रकार उक्त विधिसे पाति कमका अनुभाग चार प्रकारका है उसमेंसे एक स्थानीय अनुभाग और द्विस्थानीय अनुभाग प्रारम्भका अनन्तवां भाग यह देशघाति है, शेष सर्व अनुभाग सर्वघाति है । प्रशस्त और अप्रशस्तके भेदने अघाति कर्म दो प्रकारके हैं। उनमें से प्रत्येक कर्ममें चार-चार प्रकारका अनुभाग पाया जाता है। पहले हम सातावेदनीय और असातावेदनीय इन दो कर्मोंमें वह चार-चार प्रकारका अनुभाग कैसा होता है इसका स्पष्ट उल्लेख कर आये हैं उसी प्रकार वहाँ भी घटित यह निर्देश करना आवश्यक प्रतीत होता है कि अनुभागबन्धके प्रारम्भका एक ताडपत्र कारण प्ररूपणा तथा इससे आगेकी छह अनुयोग द्वार सम्बन्धी प्ररूपणा उपलब्ध नहीं है। साथ ही सादि कर लेना चाहिए । यहाँ पुटिन हो गया है। इस ३४ 1 Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ अनादि, ध्रुव और अध्रुव इन अनुयोग द्वारोंकी प्ररूपणाका बहुभाग भी उपलब्ध नहीं है । किन्तु इनके जो नाम हैं उनके अनुरूप ही उनमें विषय निबद्ध किया गया है। विशेष वक्तव्य न होनेसे यहाँ स्पष्टीकरण नहीं किया गया है। २. स्वामित्व अनुयोगद्वार इस अनुयोग द्वारके अन्तर्गत ज्ञानावरणादि कर्मोंके जघन्य और उत्कृष्ट अनुभाग बन्धके स्वामित्वका विचार करनेके पूर्व विशेष स्पष्टीकरणकी दृष्टिसे प्रत्ययानुगम, विपाकदेश और प्रशस्त-अप्रशस्त प्ररूपणा इन तीन अनुयोग द्वारोंको निबद्ध किया गया है। प्रत्ययानुगम-प्रत्ययका अर्थ निमित्त, हेतु, साधन और कारण है । जीवों के किन परिणामोंको निमित्त कर इन ज्ञानावरणादि मूल व उत्तर प्रकृतियोंका बन्ध होता है इस विषयको इस अनुयोग द्वारमें निबद्ध किया गया है। वे परिणाम चार प्रकार के है--मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग । परमार्थस्वरूप देव, गुरु, शास्त्र और पदार्थों में अययार्थ रुचिको मिथ्यात्व कहते हैं । निदानका अन्तर्भाव मिथ्यात्वमें ही होता है। प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, अब्रह्मसेवन, परिग्रहका स्वीकार , मधु-मांस-पांच उदम्बर फलका सेवन, अभक्ष्यभक्षण फूलोंका भक्षण, मद्यपान तथा भोजनवेलाके अतिरिक्त काल में भोजन करना अविरति है । असंयम इसका दूसरा नाम है। क्रोध, मान, माया और लोभ तथा राग और द्वेष ये सब कषाय है। तथा जीवोंके प्रदेश परिस्पंदका नाम योग है । इनमेंसे मिथ्यात्व अविरति और कषाय ये ज्ञानावरणादि छह कर्मोके बन्धके हेतु है तथा उक्त तीन और योग ये चारों वेदनीय कर्मके बन्धके हेतु है। यहाँ प्रारम्भके छह कर्मोके बन्ध--हेतुओंमें योगको परिगणित न करनेका यह कारण है कि ग्यारवें आदि गुणस्थानोंमें योगका सद्भाव रहने पर भी उक्त कर्मोका बन्ध नहीं होता। वैसे ऋजुसत्र नयकी अपेक्षा सामान्य नियम यह है कि आठों कर्मोका प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्ध योगसे होता है तथा स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध कषायसे होता है। पर उस नियमकी यहाँ विवक्षा नहीं है । यहाँ जिस कर्मके साथ जिसकी कालिक अन्वय-व्यतिरेक रूप बाह्य व्याप्ति है उसके साथ उसका कार्यकारणभाव स्वीकार किया गया है। योगके साथ ऐसी व्याप्ति नहीं बनती, क्योंकि ग्यारवें आदि तीन गुणस्थानोंमें योगके रहने पर भी ज्ञानावरणादि छह कर्मोका बन्ध नहीं होता, इसलिए इन छह कर्मोके बन्धके हेतु मिथ्यात्व, अविरति और कषायको कहा है। यहाँ आयु कर्मके बन्धके हेतु जीवके कौन परिणाम हैं इसका उल्लेख उपलब्ध नहीं होता । आगे उत्तर प्रकृतियों की प्ररूपणामें नरकायुको मिथ्यात्व प्रत्यय तथा तिर्यंचायु और मनुष्यायुको मिथ्यात्व प्रत्यय और असंयम प्रत्यय तथा देवायुको मिथ्यात्व प्रत्यय, असंयम प्रत्यय और कषाय प्रत्यय बतलाया है। इससे विदित होता है कि आयु कर्मका बन्ध मिथ्थात्व प्रत्यय, असंयम प्रत्यय और कषाय प्रत्यय होना चाहिए। अपनी-अपनी बन्ध व्यच्छितिको ध्यानमें रखकर उत्तर प्रकृतियोंके बन्ध प्रत्ययोंका विचार इसी विधिसे कर लेना चाहिए। विपाक देश-छह कर्म जीवविपाकी हैं. आयुकर्म भवविपाकी है तथा नामकर्म जीवविपाकी और पुद्गलविपाकी है। यहाँ जो कर्म जीवविपाकी हैं उनसे जीवकी नोआगम भावरूप विविध अवस्थाएँ उत्पन्न होती हैं ओर नाम कर्मकी जो प्रकृतियाँ पुद्गलविपाकी है उनसे जीवके प्रदेशोंमें एक क्षेत्रावगाही शरीरादिकी रचना होती है । पुद्गल-विपाकी कर्मोके उदयसे जीवके नोआगमभावरूप अवस्था नहीं उत्पन्न होती। लेश्या कर्मका कार्य है और धनादिका संयोग लेश्याका कार्य है, अर्थात् व्यक्त या अव्यक्त जैसा कषायांश और यो (मन, वचन और कायकी प्रवृत्ति) होता है उसके अनुसार धनादिका संयोग होता है। इस विवक्षाको ध्यानमें रख कर ही धनादिककी प्राप्तिको कर्मका कार्य कहा जाता है। प्रशस्त-अप्रशस्तप्ररूपणा-चारों धातिकर्म अप्रशस्त हैं तथा शेष चारों अघाति कम प्रशस्त और अप्रशस्त दोनों प्रकारके है। उत्तर भेदोंकी अपेक्षा प्रशस्त कर्म प्रकृतियाँ ४२ है और अप्रशस्त कर्म प्रकृतियाँ ८२ है। Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थखण्ड : २६७ वर्ण चतुष्क प्रशस्त औव अप्रशस्त दोनों प्रकारके होते हैं, इसलिए उन्हें दोनोंमें सम्मिलित किया गया है । सरल होनेसे यहाँ उनके नामोंका निर्देश नहीं किया गया है । इस व्यवस्था के अनुसार उक्त ४२ प्रशस्त प्रकृतियोंका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध यथास्थान अपने-अपने योग्य उत्कट विशुद्धि कालमें होता है और ८२ अप्रशस्त प्रकृतियोंका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध अपने-अपने योग्य उत्कट संक्लेश परिणामवाले मिथ्यादृष्टिके होता है । किन्तु जवन्य अनुभागबन्धके लिए इससे विपरीत समझना चाहिए । अर्थात् प्रशस्त प्रकृतियोंका जघन्य अनुभागबन्ध यथास्थान अपने-अपने योग्य संक्लेश के प्राप्त होने पर होता है और अप्रशस्त प्रकृतियोंका जघन्य अनुभागबन्ध यथास्थान अपने-अपने योग्य विशुद्धिके प्राप्त होनेपर होता है । यहाँ प्रथम इस बातका उल्लेख करना आवश्यक प्रतीत होता है कि सातावेदनीय, असातावेदनीय, स्थिर अस्थिर, शुभ-अशुभ और यशः कीर्ति अपयश : कीर्ति इन चार युगलोंके अघन्य अनुभागबन्धके स्वामी क्रमसे चारों गतिके परिवर्तमान मध्यम परिणामवाले मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टिको बतलाया गया है । जबकी गोम्मटसार कर्मकाण्ड में परिवर्तमान मध्यम परिणामवाले जीवोंके स्थान में अपरिवर्तमान मध्यम परिणामवाले जीव लिये गये हैं । वेदनाखण्ड में जो अनुभाग बन्धके अल्पबहुत्वको सूचित करनेवाला ६४ पदवाला अल्पबहुत्व आया है उसमें मध्यम परिणामवाला इन प्रकृतियों का जघन्य अनुभागबन्ध करता है ऐसा उल्लेख नहीं किया है । किन्तु वहाँ अयश कीर्ति सर्वविशुद्ध यश कीर्तिका अति तीव्र संक्लिष्ट और सातावेदनीयका सर्वविशुद्ध जीव जघन्य अनुभागबन्ध करता है ऐसा बतलाया । इतना ही नहीं, किन्तु आगे चलकर त्रसादि दश युगलके जघन्य अनुभागबन्धके स्वामीको सातासातावेदनीय के समान जाननेकी सूचना की है, जबकि महाबन्धमें इन प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागबन्धका स्वामी मध्यम परिणामवाला ही लिया गया है । गोम्मटसार कर्मकाण्ड में विषयमें अनियम देखा जाता है । प्रति समय उत्तरोत्तर वर्धमान या हीयमान जो संक्लेश या विशुद्धिरूप परिणाम होते हैं वे अपरिवर्तमान कहलाते हैं तथा जिन परिणामोंमें स्थित यह जीव परिणामान्तरको प्राप्त होकर एक, दो आदि समयों द्वारा पुनः उन्हीं परिणामोंको प्राप्त करता है उसके वे परिणाम परिवर्तमान परिणाम कहलाते हैं । इस दृष्टिसे उक्त पूरा प्रकरण विचारणीय है । यह संक्षेपमें मूल व उत्तर प्रकृतियोंको अपेक्षा उत्कृष्ट और जघन्य स्वामित्वकी मीमांसा है । विस्तार भयसे अन्य अनुयोगद्वारों व भुजगार आदि अर्थाधिकारोंका ऊहापोह यहाँ नहीं किया गया है । अनुभागबन्धाध्यवसानस्थान प्ररूपणा वे एक-एक स्थितिजिन परिणामोंसे अनुभा गबन्ध होता है उन्हें अनुभागबन्धाध्यवसानस्थान कहते हैं । बन्धाध्यवसानस्थानोंके प्रति असंख्यात लोक प्रमाण होते हैं । किन्तु यहाँ पर कारणमें कार्यका उपचार करके अनुभागबन्धाध्यवसानस्थानोंसे अनुभाग स्थान लिये गये हैं । प्रकृतमें १२ अनुयोगद्वार ज्ञातव्य हैं --अविभाग प्रतिच्छेदप्ररूपणा स्थानप्ररूपणा, काण्डकप्ररूपणा, ओजयुग्मप्ररूणा, षट्स्थानप्ररूणा, अधस्तन स्थानप्ररूपणा, समयप्ररूपणा, वृद्धिप्ररूपणा, यवमध्यप्ररूपणा, पर्यवसानप्ररूपणा और अल्पलबहुत्वप्ररूपणा । अविभागप्रतिच्छेदप्ररूपणा -- एक परमाणुमें जो जघन्यरूपसे अवस्थित अनुभाग है उसकी अविभागप्रतिच्छेदसंज्ञा है । इस दृष्टिसे विचार करने पर एक कर्मप्रदेश में सब जीवोंसे अनन्तगुणे अविभागप्रतिच्छेद पाये जाते हैं । उनकी वर्ग संज्ञा है । ऐसे सदृश अविभागप्रतिच्छेदवाले जितने कर्मप्रदेश उपलब्ध होते हैं उनकी वर्गणा संज्ञा है । इससे एक अधिक अविभागप्रतिच्छेदोंसे युक्त जितने कर्मप्रदेश पाये जाते हैं उनसे दूसरी वर्गणा बनती है । प्रत्येक वर्गण में अभत्रयोंसे अनन्तगुणे और सिद्धोंके अनन्तवे भागप्रमाण वर्ग पाये जाते हैं । इस प्रकार उत्तरोत्तर एक-एक अविभागप्रतिच्छेदकी वृद्धि हुए, अभव्योंसे अनन्तगुणी और सिद्धांके अनन्तवे भागप्रमाण वर्गणाएँ उत्पन्न होती हैं । उन सब वर्गणाओंके समूहको स्पर्धक कहते हैं । इसी विधि से दूसरा स्पर्धक Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ उत्पन्न होता है। इतनी विशेषता है कि प्रथम स्पर्धककी अन्तिम वर्गणाके एक वर्ग में जितने अविभागप्रतिच्छेद होते हैं उससे दूसरे स्पर्धककी प्रथम वर्गणाके एक वर्ग में सब जीवोंसे अनन्तगुणे अविभागप्रतिच्छेद होते हैं । इस प्रकार अभव्यों अनन्तगुणे और सिद्धों के अनन्तवे भागप्रमाण स्पर्धकों का एक स्थान होता है। स्थानप्ररूपणा एक समयमें एक जीवमें जो कर्मका अनुभाग दृष्टिगोचर होता है उसकी स्थानसंज्ञा है । नानाजीवोंकी अपेक्षा ये अनुभाग बन्धस्थान असंख्यात लोकप्रमाण होते हैं । अन्तरप्ररूपणा - पूर्व में जो अनुभागवन्ध स्थान बतलाये हैं उनमेंसे एक अनुभागबन्धस्थानसे दूसरे अनुभागबन्धस्थानमें अविभागप्रतिच्छेदोंकी अपेक्षा सब जीवोंसे अनन्तगुणा अन्तर पाया जाता है। उपरितन स्थानमेंसे अवस्तन स्थानको पटाकर जो लब्ध आवे उसमें एक कम करने पर उक्त अन्तर प्राप्त होता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है | काण्डकप्ररूणा -- अनन्तभाग वृद्धिकाण्डक, असंख्यात भाग वृद्धिकाण्डक, संख्या भाग वृद्धिकाण्डक, संख्यातगुणवृद्धिकाण्ड" असंख्यातगुणवृद्धिकाण्डक और अनन्तगुणवृद्धिकाण्डक इस प्रकार इन छहके आधारसे इसमें वृद्धिका विचार किया गया है । ओजयुग्मप्ररूपणा इस द्वारा वर्ग, स्थान और काण्डक वे कृतयुग्मरूप है या बादर युग्मरूप है, या कनि (?) ओजरूप है, तेजोजरूप है इसका ऊहापोह करते हुए अविभाग प्रतिच्छेद, स्थान और काण्डको कृतयुग्मरूप है यह बतलाया गया है। -- षट्स्थानप्ररूपणा - अनन्तभागवृद्धि, असंख्यात भागवृद्धि, संख्यात्भागवृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि, असंख्यात - गुणवृद्धि और अनन्तगुणवृद्धि यह छह वृद्धियाँ है इनका प्रमाण कितना है यह इस प्ररूपणा में बतलाया गया है। अधस्तन स्थानप्ररूपणा कितनी बार अनन्तभाग वृद्धि होनेपर एक बार असंख्यातभाग वृद्धि होती है इत्यादि विचार इस प्ररूपणा में किया गया है। समय प्ररूपणा - जितने भी अनुभाग बन्धस्थान हैं उनमेंसे कौन अनुभाग बन्धस्थान कितने काल तक बन्धको प्राप्त होता है इसका ऊहापोह इस प्ररूपणा में किया गया है । वृद्धिप्ररूपणा - पड़गुणी हानि-वृद्धि और तत्सम्बन्धी कालका विचार इस प्ररूपणा में किया गया है । यवमध्यप्ररूपणा --- यवमध्य दो प्रकारका है-जीव यवमध्य और काल यवमध्य । यहाँ काल यवमध्य विवक्षित है । यद्यपि समयप्ररूपणा के द्वारा ही यवमध्यकी सिद्धि हो जाती है फिर भी किस वृद्धि या हानि मध्यका प्रारम्भ और समाप्ति होती है इस तथ्यका निर्देश करनेके लिए यवमध्यप्ररूपणा पृथक्से की गई है। पर्यवसान प्ररूपणा - सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवके जघन्य अनुभागस्थान से लेकर समस्त स्थानोंमें अनन्त गुणके ऊपर अनन्तगुणा होना यह इस प्ररूपणा में बतलाया गया है । अल्पबहुत्वप्र रूपणा- इसमें अनन्तरोपनिषा और परम्परोपनिधा इन दो अनुयोग द्वारोंका आलम्बन लेकर अनन्तगुण वृद्धिस्थान और असंख्यात गुणवृद्धिस्थान आदि कौन कितने होते हैं इसका ऊहापोह किया गया है । इस प्रकार उक्त बारह अधिकारों द्वारा अनुभागबन्धाध्यवसान स्थानोंका ऊहापोह करनेके बाद जीव समुदाहार सम्बन्धी आठ अनुयोग द्वारोंका ऊहापोह किया गया है । वे आठ अनुयोगद्वार इस प्रकार हैं-- एकस्थान जीव प्रमाणानुगम, निरन्तरस्थान जीव प्रमाणानुगम, सान्तरस्थान जीव प्रमाणानुगम, नाना जीव कालप्रमाणानुगम, वृद्धिप्ररूपणा, यवमध्यप्ररूपणा, स्पर्शनप्ररूपणा, और अल्पबहुत्व प्ररूपणा । Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : २६९ एकस्थान जीवप्रमाणानगम--एक-एक अनुभाग बन्धाध्यवसान स्थानमें अनन्त जीव पाये जाते हैं यह बतलाया गया है। यहाँ यह विचार सब सकषाय जीवोंकी अपेक्षा किया जा रहा है, केवल त्रस जीवोंकी अपेक्षा नहीं, इतना विशेष समझना चाहिए । निरन्तरस्थान जीवप्रमाणानुगम-इसमें सब अनुभाग बन्धाध्वसान स्थान जीवोंसे विरहित नहीं हैं यह बतलाया गया है। सान्तरस्थान जीवप्रमाणानुगम-इसमें ऐसा कोई अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान नहीं है जो जीवोंसे विरहित हो यह बतलाया गया है । नानाजीवकालानुगम-एक-एक अनुभागबन्धाध्यवसान स्थानमें नाना जीव सर्वदा पाये जाते हैं यह बतलाया गया है। वृद्धिप्ररूपणा-इसमें अनन्तरोपनिधा और परम्परोपनिधा इन दो अनुयोगद्वारोंका आलम्बन लेकर किस अनुभागबन्धाध्यवसान स्थानमें कितने जीव होते हैं यह ऊहापोह किया गया है । यवमध्यप्ररूपणा-इसमें सब अनुभागबन्धाध्यवसान स्थानोंके असंख्यातवें भागमें यवमध्य होता है तथा यवमध्यके नीचे अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान थोड़े होते है और उसके ऊपर असंख्यातगुणे होते हैं यह बतलाया गया है। स्पर्शप्ररूपणा-इसमें किस अपेक्षासे कितना स्पर्शनकाल होता है इसका विचार किया गया है । अल्पबहुत्वप्ररूपणा-इसमें किसमें कितने जीव पाये जाते हैं इसका ऊहापोह किया गया है । उत्तर प्रकृति अनुभागबन्धके प्रसंगसे अध्यवसान समुदाहारका विचार करते हुए ये तीन अनुयोगद्वार निबद्ध किये गये हैं-प्रकृतिसमुदाहार, स्थितिसमुदाहार, और तीव्र मन्दता। इनमेंसे प्रकृतिसमुदाहारके एक अवान्तर भेद प्रमाणानुगके अनुसार सब प्रकृतियोंके अनुभागबन्धाध्यवसान असंख्यात लोक प्रमाण बतलाकर यह विशेष निर्देश किया गया है कि अपगतवेद मार्गणा और सूक्ष्म साम्पराय संयतमार्गणामें एक-एक ही परिणाम स्थान होता है । इसका कारण यह है कि नौंवा गुणस्थान अनिवृत्तिकरण है। उसके प्रत्येक समयमें अन्यअन्य एक ही परिणाम होता है । इसी प्रकार सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानमें भी प्रत्येक समयमें अन्य-अन्य एक ही परिणाम होता है, दोनों गुणस्थानोंमें जो प्रतिसमय अनन्तगुणी विशु द्धिको लिये हुए होता है। यही कारण है कि उक्त दोनों मार्गणाओंमें वहाँ बन्ध योग्य प्रकृतियोंका एक-एक परिणामस्थान स्वीकार किया गया है। आगे पूर्वोक्त तीनों अनुयोगद्वारोंको निबद्ध कर अनुभाग बन्ध अर्थाधिकार समाप्त किया गया है। ४. प्रदेशबन्ध कार्मण वर्गणाओंका योगके निमित्तसे कर्मभावको प्राप्त होकर जीव प्रदेशोंमें एकक्षेत्रावगाह होकर अवस्थित रहनेको प्रदेशबन्ध कहते हैं। इस विधिसे जो कर्भपुञ्ज जीव प्रदेशमें एक क्षेत्रावगाहरूपसे अवस्थित होता है वह सिद्धोंके अनन्तवें भाग प्रमाण और अभव्योंसे अनन्त गुणा होता है। इस प्रकार प्रत्येक समयमें बन्धको प्राप्त होने वाले कर्मपुञ्जकी समयबद्ध संज्ञा है। मल प्रकृति प्रदेशबन्ध और उत्तर प्रकृति प्रदेशबन्धके भेदसे वह दो प्रकारका है। अब किस कर्मको किस हिसाबसे कमपुंज मिलता है इसका सकारण निर्देश करते हैं । जब आठों कर्मोका बन्ध होता है तब आयु कर्मका स्थितिबन्ध सबसे स्तोक होनेके कारण उसके हिस्सेमें सबसे कम कर्मपुंज आता है । वेदनीयको छोड़कर शेष कर्मोको अपने-अपने स्थिति बन्धके अनुसार कर्मपञ्ज बटवारेमें आता है। | Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ दर्शनावरण और अन्तराय कर्ममेंसे प्रत्येकको उससे विशेष उससे विशेष कर्मपुंज प्राप्त होता है । तथा वेदनीय कर्मके करनेमें समर्थ होते हैं, इसलिए वेदनीय कर्मको सबसे अधिक कर्मपुंज प्राप्त होता है । इसलिए नाम कर्म और गोत्र कर्म मेंसे प्रत्येकको उससे विशेष अधिक कर्मपुञ्ज प्राप्त होता है। ज्ञानावरण, अधिक कर्मपुंज प्राप्त होता है । मोहनीय कर्मको निमित्तसे सभी कर्म जीवोंमें सुख-दुःखको उत्पन्न जब आयु कर्म को छोड़कर सात कर्मोंका बन्ध होता है तब सात कर्मोंमें और जब आयु तथा मोहनीय कर्मको छोड़कर यथास्थान छह कर्मोका बन्ध होता है तब छह कर्मोंमें उक्त विविसे प्रत्येक समयमें बन्धको प्राप्त हुए कर्मपुञ्जका बटवारा होता है । यह प्रत्येक समयमें बन्धको प्राप्त हुए समय प्रबद्ध मेंसे किस कर्मको कितना द्रव्य मिलता है इसका विचार है । उत्तर प्रकृतियोंमेंसे जहाँ जितनी प्रकृतियोंका बन्ध होता है उनमें अपनीअपनी मूल प्रकृतियों को मिले हुए द्रव्यके अनुसार बटवारा होता रहता है । वंदनीय, आयु और गोत्र कर्मकी यथासम्भव एक समयमें एक प्रकृतिका ही बन्ध होता है, इसलिए जब जिस प्रकृतिका बन्ध हो तब उक्त कर्मोंका पूरा द्रव्य उसी प्रकृतिको मिलता है। शेष कर्मोंका आगमानुसार विचार कर लेना चाहिए। तथा आयु कर्मके बन्धके विषयमें भी आगमानुसार विचार कर लेना चाहिए । इस अर्थाधिकारके वे सब अनुयोगद्वार हैं जो प्रकृतिबन्ध आदि अर्थाधिकारोंमें निबद्ध कर आये हैं । मात्र प्रथम अनुयोगद्वारका स्थानप्ररूपणा है, इसके दो उप अनुयोगद्वार हैं - योगस्थान प्ररूपणा और प्रदेशबन्ध प्ररूपणा । योगस्थानप्ररूपणा - मन, वचन और कायके निमित्तसे होनेवाले जीव प्रदेशोंके परिस्पन्दको योग कहते हैं | योग शरीर नामकर्मके उदयसे होता है । इसलिये यह औदयिक है । परमागममें इसे क्षायोपशमिक कहनेका कारण यह है कि उक्त कर्मोंके उदयसे शरीर नामकर्मके योग्य पुद्गल पुञ्जके सञ्चयको प्राप्त होनेपर वीर्यान्तराय कर्मके क्षयोपशमसे वृद्धिको और हानिको प्राप्त हुए वीर्यके निमित्त रे जीव प्रदेशोंका संकोच -विकोच, वृद्धि और हानिको प्राप्त होता है, इसलिए उसे परमागममें क्षायोपशमिक कहा गया है । परन्तु है वह औदायिक ही । यद्यपि वीर्यान्तराय कर्मका क्षय होनेसे अरहंतोंके क्षायोपशमिक वीर्य नहीं पाया जाता यह यथार्थ है । परन्तु जैसा कि हम पहले कह आये हैं कि योग औदयिक ही है, क्षायोपशमिक नहीं, क्षायोपशमिकपनेका तो उसमें उपचार किया गया है, इसलिए अरहन्तोंका वीर्य क्षायिक होनेपर भी उक्त लक्षणके स्वीकार करनेमें कोई दोष नहीं प्राप्त होता और इसीलिए अयोग केवलियों और सिद्धोंमें अतिप्रसंग भी नहीं प्राप्त होता । अब एक प्रश्न उत्पन्न होता है कि सब संसारी जीवोंके सब प्रदेश व्याधि और भय आदिके निमित्तसे सदा काल चलायमान ही होते रहते हैं ऐसा कोई एकान्त नियम नहीं है । ऐसे समय में कुछ प्रदेश चलायमान भी होते हैं और कुछ प्रदेश चलायमान नहीं भी होते । उनमें से जो प्रदेश चलायमान न होकर स्थित रहते हैं उनमें योगका अभाव होनेसे कर्मबन्ध नहीं होगा । उस समय जो प्रदेश स्थित रहते हैं होनेसे योग नहीं बन सकेगा यह स्पष्ट ही है । यदि परिस्पन्दके तो आयोग केवलियों और सिद्धों के भी योगका सद्भाव स्वीकार है कि मन, वचन और कायकी क्रियाकी उत्पत्ति के लिए जो जीवका उपयोग होता है उसे योग कहते हैं और वह कर्मबन्धका कारण है । यह उपयोग कुछ जीव प्रदेशों में हो और कुछमें न हो यह तो बनता नहीं, क्योंकि एक जीवमें उपयोग की अखण्डरूपसे प्रवृत्ति होती है । और इस प्रकार सब जीव प्रदेशोंमें योगका सद्भाव बन जानेसे कर्मबन्ध भी सब जीवप्रदेशों में बन जाता है । यदि कहा जाय कि योगके निमित्तसे सब जीव प्रदेशों में उनमें परिस्पन्द नहीं बिना उनमें भी योग स्वीकार किया जाता है करनेका प्रसङ्ग प्राप्त होता है । समाधान यह Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड २७१ परिस्पन्द होना ही चाहिए सो यह एकान्त नियम नहीं है किन्तु नियम यह है कि जो भो परिस्पन्द होता है वह योग के निमित्तसे ही होता है, अन्य प्रकारसे नहीं । इसी प्रकार यह बात भी ध्यानमें रखनी चाहिए कि जीवका एक क्षेत्रको छोड़कर क्षेत्रान्तरमें जाना इसका नाम योग नहीं है, क्योंकि ऐसा माननेपर सिद्ध जीवोंका सिद्ध होने के प्रथम समयमें जो ऊर्ध्वं लोकके अन्त तक गमन होता है उसे भी योग स्वीकार करना पड़ेगा । अत एव यही निश्चित होता है कि जहाँ तक शरीर नामकर्मका उदय है योग वहीं तक होता है | अतः योग केवल गुणस्थानके अन्तिम समय तक यथासम्भव उक्त कमका उदय नियमसे पाया जाता है, अतः योगका सद्भाव भी वहीं तक स्वीकार किया गया है। वह योग तीन प्रकारका है— मनोयोग, वचनयोग और काययोग | भावमनकी उत्पत्ति के लिए होनेवाले प्रयत्नको भावमन कहते हैं, वचनकी प्रवृत्तिके लिए होनेवाले प्रयत्नको वचनयोग कहते हैं, तथा शरीकी किवाकी उत्पत्तिके लिए होनेवाले प्रयत्नको काययोग कहते हैं। इन तीनों योगोंकी प्रवृत्ति क्रमसे होती है इन तीनों में से जब जिसकी प्रधानता होती है तब उस नामका योग कहलाता है। यद्यपि कहीं मन, वचन और कायकी युगपत् प्रवृत्ति दृष्टिगोचर होती है सो इस प्रकार युगपत् प्रवृत्ति होनेमें विरोध नहीं हैं । किन्तु उनके लिए युगपत् प्रयत्न नहीं होता, अतः जब जिसके लिए प्रथम परिस्पन्दरूप प्रयत्न विशेष होता है तब वहीं योग कहलाता है ऐसा समझना चाहिए । एक जीवके लोकप्रमाण प्रदेश होते हैं उनमें एक कालमें परिस्पन्दरूप जो योग होता है उसे योगस्थान कहते हैं । उसकी प्ररूपणामें ये दस अनुयोगद्वार ज्ञातव्य है — अविभागप्रतिच्छेदप्ररूपणा, वर्गणा प्ररूपणा, स्पर्धक अन्तरोपनिधा, परम्परोपनिधा, समयप्ररूपणा, वृद्धिप्ररूपणा, और प्ररूपणा, अन्तप्ररूपणा, स्थानप्ररूपणा, अल्पबहुत्व | एक-एक जीव प्रदेशमें जो जघन्य वृद्धि होती है वह योग अविभागप्रतिच्छेद कहलाता है। इस विधि एक जीव प्रदेशमें असंख्यात लोक प्रमाण योग — अविभागप्रतिच्छेद होते हैं। इस प्रकार यद्यपि जीवके सब प्रदेशमें उक्त प्रमाण ही योग — अविभागप्रतिच्छेद होते हैं। फिर भी एक जीव प्रदेशमें स्थित जघन्य योगसे एक जीव प्रदेशमें स्थित उत्कृष्ट योग असंख्यात गुणा होता है। सब जीव प्रदेशों में समान योग - अविभागप्रतिच्छेद नहीं पाये जाते, इसलिए असंख्यात लोकप्रमाण योग- अविभागप्रतिच्छेदों की एक वर्गणा होती है । सब वर्गणाओंका सामान्यसे यही प्रमाण जानना चाहिए। आशय यह है कि जितने जीव प्रदेशों में समान योग अविभागप्रतिच्छेद पाये जाते हैं उनकी एक वर्गणा होती है । तथा दूसरे एक अधिक समान योग अविभागप्रतिच्छेदवाले जीव प्रदेशोंकी दूसरी वगंगा होती है। यही विधि एक स्पर्धकके अन्तर्गत तृतीयादि वर्गणाओंके विषयमें भी जानना चाहिए ये सब वर्गणाएँ एक जीवके सब प्रदेशों में श्रेणीके असंख्यातवें भागप्रमाण होती हैं। इतना विशेष है कि प्रथम वर्गणासे द्वितीयादि वर्गणायें जीव प्रदेशोंकी अपेक्षा उत्तरोत्तर विशेष हीन होती हैं। एक वर्गणा में कितने जीव प्रदेश होते हैं इसका समाधान यह हैं कि प्रत्येक वर्गाणामे जीव प्रदेश असंख्यात प्रतरप्रमाण होते हैं | जहाँ क्रमवृद्धि और क्रमहानि पाई जाती है उसकी स्पर्धक संज्ञा है। इस नियमके अनुसार जगत् श्रेणी: संख्यातवें भाग प्रमाण वगंणाओंका एक स्पर्धक होता है । इस स्पर्धकके अन्तर्गत जितनी वर्गणायें होती हैं उनमें से प्रथम वर्गणाके एक वर्ग में जितने योग अविभाग प्रतिच्छेद होते हैं उससे दूसरी वर्गणा के एक वर्गमें एक अधिक योग-अविभागप्रतिच्छेद होते हैं यही क्रम प्रथम स्पर्धककी अन्तिम वर्गणा तक जानना चाहिए। इसके आगे उक्त क्रमवृद्धिका बिच्छेद हो जाता है। इस विधिसे एक जीवके सब प्रदेशों में जगत् श्रेणी के असंख्यातवें भाग प्रमाण स्पर्धक प्राप्त होते हैं । इतना विशेष है कि प्रथम स्पर्धकके ऊपर ही प्रथम स्पर्धककी ही वृद्धि होनेपर दूसरा स्पर्धक प्राप्त होता है, क्योंकि प्रथम स्पर्धककी प्रथम वर्गणाके एक वर्ग से । Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ दूसरे स्पर्धककी प्रथम वर्गणाका एक वर्ग दूना होता है। प्रथम स्पर्धक और दूसरे स्पर्धककी चौड़ाई (विस्तार) बराबर है। मात्र द्वितीय स्पर्धकका आयाम प्रथम स्पर्धकके आयामसे विशेष हीन है। यद्यपि ऐसी स्थिति है फिर भी यह कथन एकदेश विकृतिको ध्यानमें न लेकर द्रव्यार्थिक नयसे किया गया है। इस प्रकार दो स्पर्धकोंके मध्य कितना अन्तर होता है इसका यह विचार है। आगेके स्पर्धकोंमें इसी विधिसे अन्तर जान लेना चाहिए । इस प्रकार एक जीवके सब प्रदेशोंमें जगत श्रेणीके असंख्यातवें भाग प्रमाण स्पर्धक प्राप्त होते हैं। इन्हीं सबको मिलाकर एक योगस्थान कहलाता है । सब जीवोके नाना समयोंकी अपेक्षा ये योगस्थान भी जगत् श्रेणीके असंख्यातवें भाग प्रमाण होते हैं। अनन्तरोपनिधा और परम्परोपनिधाका विचार सुगम है। सब योगस्थान तीन प्रकारके हैं-उपपादयोगस्थान, एकान्तानुवृद्धि-योगस्थान और परिणाम योगस्थान । इनमेंसे प्रारम्भके दो योगस्थानोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय ही है। सब परिणाम योगस्थानोंका जघन्य काल एक समय है । उत्कृष्ट काल अलगअलग है। किन्हीका दो समय है, किन्होका तीन समय है और किन्हीका अलग-अलग चार, पाँच, छह, सात और आठ समय है। ये सब योगस्थान अलग-अलग जगत् श्रेणीके असंख्यातवें भाग प्रमाण होते हैं । तथा सब मिलाकर भी जगत् श्रेणी के असंख्यातवें भाग प्रमाण होते है। उनमेंसे आठ समय वाले योगस्थान अल्प होते हैं। यवयमध्यके दोनों ही पार्श्व भागमें होने वाले योगस्थान परस्पर समान होकर भी उनसे असंख्यात गुणे होते हैं। इसी प्रकार छह, पाँच और चार समय वाले योगस्थानों के विषयमें जान लेना चाहिए । तीन और दो समय वाले योगस्थान मात्र ऊपरके पार्श्व भागमें ही होते हैं। इन योगस्थानोंमें चार वृद्धि और चार हानियाँ होती हैं । अनन्तभाग वृद्धि और अनन्तगुण वृद्धि तथा ये ही दो हानियाँ नहीं होती। इनमेंसे तीन वृद्धियों और तीन हानियोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भाग प्रमाण होता है। तथा असंख्यात गुण वृद्धि और असंख्यात गुणहानिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल अन्तमुहर्त होता है। यहाँ प्रश्न है कि जिस प्रकार कर्म प्रदेशोंमें अपने जघन्यगुणके अनन्तवें भागकी अविभागप्रतिच्छेद संज्ञा होती है उसी प्रकार यहाँ भी एक जीव प्रदेशसम्बन्धी जघन्य योगके अनन्तवें भागकी अविभागप्रतिच्छेद संज्ञा क्यों नहीं होती ? समाधान यह है कि जिस प्रकार कर्म गुणमें अनन्तभाग वृद्धि पायी जाती है वैसा यहाँ सम्भव नहीं है, क्योंकि यहाँपर एक-एक जीव प्रदेशमें असंख्यात लोक प्रमाण ही योग-अविभाग प्रतिच्छेद पाये जाते हैं, अनन्त नहीं। जीव दो प्रकारके हैं पर्याप्त और लब्ध्यपर्याप्त । इनमेंसे उक्त दोनों प्रकारके जीवोंके नूतन भवग्रहणके प्रथम समयमें उपपाद योगस्थान होता है, भवग्रहणसे दूसरे समयसे लेकर लब्ध्यपर्याप्त जीवोंके आयुबन्धके प्रारम्भ होनेके पूर्व समय तक तथा पर्याप्त जीवोंके शरीर पर्याप्तिके पूर्ण होनेके अन्तिम समय तक एकान्तानुवृद्धि योगस्थान होता है तथा आगे दोनोंके भवके अन्तिम समय तक परिणाम योगस्थान होता है। अल्पबहुत्वका विचार करने पर सूक्ष्म एकेन्द्रिय लन्ध्यपर्याप्तका जघन्य सबसे स्तोक है। उससे बादर एकेन्द्रिय लब्यपर्याप्तका जघन्य योग असंख्यातगुणा है। उससे द्विन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पञ्चेन्द्रिय असंज्ञी और संज्ञी लब्ध्यपर्याप्तकका जवन्य योग उत्तरोत्तर असंख्यात गणा है। उससे सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त और बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तका और बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तका जघन्य योग क्रमसे असंख्यात गणा है। उससे सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त और बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तका उत्कृष्ट योग क्रमसे असंख्यातगणा है। उससे सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त और बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तका उत्कृष्ट योग क्रमसे असंख्यातगणा है। उससे द्विन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरि Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थखण्ड : २७३ न्द्रिय, पंचेन्द्रिय संज्ञी और असंज्ञी अपर्याप्तका उत्कृष्ट योग, पर्याप्त उन्हींका जघन्य योग तथा पर्याप्त उन्हींका उत्कृष्ट योग उत्तरोत्तर असंख्यात गुणा है। यहाँ प्रत्येकका उत्तरोत्तर योगगुणकार पत्थोपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। यहाँ जिस प्रकार योगका अल्पबहुत्व कहा है उसी प्रकार बन्धको प्राप्त होनेवाले प्रदेशपुञ्जका अल्पबहुत्व जानना चाहिए। गुणकार भी वही है । २. प्रदेशबन्ध स्थानप्ररूपणा पहले जितने योगस्थान बतला आये हैं उतने प्रदेशबन्धस्थान होते हैं । इतनी विशेषता है कि योगस्थानों से प्रदेशबन्धस्थान प्रकृति विशेषकी अपेक्षा विशेष अधिक होते हैं । खुलासा इस प्रकार है कि जघन्य योगसे आठ कर्मोंका बन्ध करने वाले जीवके ज्ञानावरणीय कर्मका एक प्रदेश बन्धस्थान होता है । पुनः प्रक्षेप अधिक योगस्य नसे बन्ध करने वाले जीवके ज्ञानावरणीय कर्मका दूसरा प्रदेशबन्धस्थान होता है। इसी प्रकार उत्कृष्ट योगस्थान तक जानना चाहिये। इससे जितने यीगस्थान है उतने ही ज्ञानावरणीयके प्रवेश बन्धस्थान प्राप्त होते हैं। इसी प्रकार आयुकर्मको छोड़कर शेष सात कमौके योगस्थान प्रमाण प्रदेश बन्धस्थान घटित कर लेना चाहिये । उपपाद योगस्थानों और एकान्तानुवृद्धि योगस्थानोंके कालमें आयु कर्मका बन्ध नहीं होता, इसीलिए आयुकर्मके उतने ही प्रदेश बन्धस्थान प्राप्त होते हैं जितने परिणाम योगस्थान होते हैं। यहां योगस्थानोंस प्रदेशअन्धस्थान प्रकृति विशेषकी अपेक्षा अधिक होते हैं इसका विचार आगमानुसार करना चाहिए। इतना अवश्य है कि यह नियम आयुकर्मको छोड़कर शेष सात कर्मोपर ही लागू होता है, आयु कर्म पर नहीं, क्योंकि उसके जितने परिणाम योगस्थान होते हैं उतने ही प्रवेशबन्धस्थान पाये जाते हैं । 'प्रकृति विशेषकी अपेक्षा अधिक होते हैं' इस वचनका दूसरा अर्थ यह है कि ऐसी प्रकृति अर्थात् स्वभाव है कि आठ कर्मोंका बन्ध होते समय आयुकर्मको सबसे अल्पद्रव्य प्राप्त होता है। उससे नाम और गोत्र प्रत्येक को विशेष अधिक द्रव्य प्राप्त होता है उससे ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय प्रत्येकको विशेष अधिक द्रव्य प्राप्त होता है। उससे मोहनीय कर्मको विशेष अधिक द्रव्य प्राप्त होता है। उससे वेदनीयको विशेष अधिक द्रव्य प्राप्त होता है। आयुकर्मके बिना सात कर्मोंमें तथा आयु और मोहनीय कर्म को छोड़कर छह कर्मोंमें उक्त विधिसे ही द्रव्य प्राप्त होता है। यहाँ जिस प्रकार मूल प्रकृतियोंको ध्यान में रखकर विचार किया उसी प्रकार आगमानुसार उत्तर प्रकृतियोंमें भी विचार कर लेना चाहिए । इस अर्वाधिकारमें मूल व उत्तर प्रकृतियोंका अन्य जितने अनुयोगद्वारोंका अवलम्बन लेकर विचार किया गया है उन सबका इस निबन्धमें ऊहापोह करना सम्भव नहीं है। मात्र मूल प्रकृतियोंकी अपेक्षा ओपसे वन्धस्वामित्वका स्पष्टीकरण यहाँ किया जाता है । ३. बन्धस्वामित्व प्ररूपणा स्वामित्व दो प्रकारका है— जघन्य और उत्कृष्ट । पहले उत्कृष्ट स्वामित्वका विचार करते हैं। वह इस प्रकार है—जो उपशामक और क्षपक उत्कृष्ट योगके द्वारा सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानमें छह कर्मोका बन्ध करता है उसके मोहनीय और आयुकर्मको छोड़कर शेष छह कर्मोंका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध होता है । जो सब पर्याप्तियोंसे पर्याप्त है तथा उत्कृष्ट योगसे सात कमका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध कर रहा है ऐसा चारों गतियोंमें स्थित संज्ञी पञ्चेन्द्रिय मिध्यादृष्टि जीव मोहनीय कर्म का उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। आयुकर्मके विषयमें भी ऐसा ही समझना चाहिए। मात्र वह आठ कर्मोका बन्ध करनेवाला होना चाहिए। जघन्य स्वामित्वका विचार इस प्रकार है—जो तद्भवस्थ होनेके प्रथम समयमें स्थित है और जघन्य योगसे जघन्य प्रदेशबन्ध कर रहा है ऐसा सूक्ष्म निगोदिया लयपर्याप्तक जीव आयुकर्मको छोड़कर सात कर्मोंका जघन्य प्रदेशबन्ध करता है । जो सूक्ष्म निगोदिया लब्ध्यपर्याप्तक जीव क्षुल्लक भवके तीसरे त्रिभागके प्रथम समयमें जपन्य योगसे आयुकर्मका जघन्य प्रदेशबन्ध कर रहा है वह आयु कर्मके जघन्य प्रदेशबन्धका स्वामी होता है। ३५ Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बन्धका प्रमुख कारण : मिथ्यात्व तत्त्वार्थसूत्र अ० ८ सू० १ तथा आत्मानुशासन आदि ग्रन्थोंमें बन्धका उल्लेख कर अनेक स्थलोंपर संसारके जिन कारणोंका उल्लेख दृष्टिगोचर होता है उनमें मिथ्यात्व मुख्य है । अदेव में देवबुद्धि, अगुरु में गुरुबुद्धि और अतत्त्व या उनके प्रतिपादक कुशास्त्र में तत्त्व या शास्त्रबुद्धिका होना मिथ्यात्व है । षट्खण्डागम धवला पुस्तक १२ में बन्ध प्रत्ययोंका निर्देश करनेवाला एक प्रत्यय नामका अनुयोगद्वार आया है । उसमें नयदृष्टिसे कर्मबन्धके कारणों का विचार किया गया है । नैगम, संग्रह और व्यवहार नयसे ज्ञानावरणादि कर्मोंके बन्धके कारणों का निर्देश करते हुए सूत्र ८ में मोहके साथ क्रोध, मान, माया और लोभको भी बन्धके कारणोंमें परिगणित किया गया है । तथा उन तीन नयोंसे सूत्र १० में मिथ्यादर्शन और मिथ्याज्ञानके साथ योगको भी बन्धके कारणों में परिगणित किया गया है। इससे स्पष्ट है कि जैसे क्रोधादि कषाय और योग नैगमादि तीन नयोंसे बन्धके कारण हैं वैसे ही मिथ्यादर्शन और मिथ्याज्ञान भी इन्हीं तीनों नयोंकी अपेक्षा बन्धके कारण हैं । इस अपेक्षासे इनमें समान रूपसे कारणता स्वीकार करनेमें किसी प्रकारका प्रत्यवाय नहीं है । आठ कर्मोंके बन्धके कारणोंका मात्र ऋजुसूत्र नयसे विचार करनेपर प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्ध योगसे तथा स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध कषायसे होते हैं, यह स्वीकार किया गया है । इसलिये नैगम, संग्रह और व्यवहार नयसे मिथ्यात्व आदि पाँचों बन्धके कारण हैं जो यह आगममें स्वीकार किया गया है उसकी संगति बैठ जाती है । तथा ऋजुसूत्र नयसे योग और कषाय ये दो बन्धके कारण हैं इस कथनमें भी कोई बाधा नहीं आती । दोनों ही कथन अपनी-अपनी जगह आगमानुसार ही हैं । इन मेंसे किसी एकका भी अपलाप नहीं किया जा सकता, क्योंकि किसी एक कथनके अपलाप करनेका अर्थ होता है उस नय दृष्टिको अस्वीकार करना । (२) आगे इसपर विस्तारसे विचार करनेके पहले कर्मबन्धके जो पाँच कारण कहे गये हैं उनमें से मिथ्यात्व में बन्धकी कारणता क्यों स्वीकार की गई है इस विषयपर संक्षेपमें प्रकाश डालेंगे । यह तो सुप्रसिद्ध सत्य है कि जो पहला गुणस्थान मिथ्यात्व है उसमें उत्पादानुच्छेदकी अपेक्षा जिन प्रकृतियोंकी बन्ध व्युच्छित्ति होती है वे प्रकृतियाँ १६ हैं । उनमेंसे एक मिथ्यात्व ध्रुवबन्धिनी प्रकृति है । मिथ्यात्व - रूप परिणामके साथ उसका बन्ध नियमसे होता ही रहता है । अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना करनेवाला जीव सम्यक्त्व आदिरूप परिणामोंसे च्युत होकर यदि मिथ्यात्व गुणस्थानमें आता है तो उसके प्रारम्भसे ही अनन्तानुबन्धी चतुष्कका बन्ध होकर भी एक आवलि काल तक अपकर्षणपूर्वक उसकी उदय उदीरणा नहीं होती ऐसा नियम है । अतः ऐसे जीवके एक आवलि काल तक अनन्तानुबन्धी क्रोधादिरूप परिणामके न होनेपर भी मिथ्यात्व परिणामनिमित्तक मिथ्यात्व प्रकृतिका बन्ध होता ही है । साथ ही शेष १५ प्रकृतियोंका भी यथासम्भव होता है । (३) यद्यपि वहाँ एक अनन्तानुबन्धी क्रोधादिरूप परिणामको छोड़कर बन्धके अन्य सब कारण उपस्थित अवश्य हैं पर मिथ्यात्व प्रकृतिके बन्धका अविनाभाव सम्बन्ध जिस प्रकार मिथ्यात्व परिणामके साथ पाया जाता १. ध० पु० १२ पु० २८३ । २. वही पृ० २८७ । ३. संजोजिदअ णंताणुबंधीणमावलियामेत्तकालमुदीरणाभावादौ । ६० पु० १५ पृ० ७५ । Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : २७५ है वैसा अन्य प्रत्ययोंके साथ नहीं पाया जाता, इसीलिये ही मिथ्यात्व कर्मके बन्धका प्रधान कारण मिथ्यात्व परिणाम होनेसे बन्धके कारणोंमें मिथ्यात्वको परिगणित किया गया है, अन्यको नहीं। (४) दूसरे अन्य जिन हुंडक संस्थान आदि १५ प्रकृतियोंकी बन्ध व्युच्छित्ति मिथ्यात्व गुणस्थानमें होती है वे सबकी सब सप्रतिपक्ष प्रकृतियाँ हैं। इसलिये यह तो माना जा सकता है कि जब मिथ्यात्व गुणस्थानमें उन प्रकृतियोके बन्धके कारणरूप परिणाम नहीं होते तब उनका बन्ध न होकर उनकी सप्रतिपक्ष प्रकृतियोंका बन्ध होने लगता है। फिर भी अन्य सप्रतिपक्ष प्रकृतियोंका बन्ध तो मिथ्यात्वरूप परिणामोके अभावमें भी होना सम्भव है। परन्तु उन १५ प्रकृतियोंका जब भी बन्ध होगा तब मिथ्यात्वरूप परिणामके होनेपर ही होगा, अन्यथा नहीं । तब उस जीवके अनन्तानुबन्धीका उदय रहे या न रहे, इससे उन १५ प्रकृतियोंके बन्ध होने और न होनेमें कोई फरक नहीं पड़ता । जब भी उनका बन्ध होगा, मिथ्यात्व परिणामके होनेपर ही होगा यह अकाट्य नियम है । इसलिये इन १५ प्रकृतियोंके बन्धका भी प्रधान कारण मिथ्यात्व होने से मिथ्यात्वको प्रमुखरूपसे बन्धके कारणोंमें परिगणित किया गया है। (५) सामान्यतया प्रकृतिबन्धकी अपेक्षा तो आगमका यह अभिप्राय है ही, स्थितिबन्ध और अनभागबन्धकी अपेक्षा भी विचार करनेपर जिन १६ प्रकृतियोंका मात्र मिथ्यात्व गुणस्थानमें बन्ध होता है उनका उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य किसी भी प्रकारका स्थितिबन्ध या अनुभागबन्ध क्यों न हो उसका अविनाभाव सम्बन्ध भी जैसा मिथ्यात्व परिणामके साथ पाया जाता है वैसा अविरति आदि अन्य परिणामांके साथ नहीं पाया जाता, क्योंकि महाबन्धमें जहाँ भी इन १६ प्रकृतियोंके उत्कृष्टादि स्थितिबन्ध और अनुभागबन्धके स्वामीका विचार किया गया है वहाँ उसका मिथ्यादृष्टि होना अवश्यंभावी कहा गया है । उसके संक्लेश आदिरूप परिणामोंमें भेद हो सकता है पर उसे मिथ्यादृष्टि होना ही चाहिये । (६) (प्रसंगसे) यहाँ यह बात विशेषरूपसे उल्लेखनीय है कि मिथ्यात्व आदि प्रत्ययों (बन्धकारणों) का विचार अनुभागबन्धकी अपेक्षा करते हुए महाबन्धमें लिखा है मिच्छ०-णवूस०-णिरयाय०- णिरयगइ-चदुजादि-हुंड० - असंप०-णिरयाणु०-आदाव-थावरादि० ४ मिच्छत्तपच्चय ।-महाबंध पु० ४ पृ० १८६। आशय यह है कि मिथ्यात्व आदि उक्त १६ प्रकृतियोंका बन्ध मिथ्यात्व निमित्तक ही होता है । उनके बन्धमें अनन्तानुबन्धी क्रोधादिरूप असंयम परिणामका होना अनिवार्य नहीं है। इसलिये जो बन्धके कारणोंमें मिथ्यात्वको अकिंचित्कर कहकर वहाँ अनन्तानुबन्धी क्रोध आदिकी प्रधानताको सूचित करते हैं उनका वह चिन्तन आगमानुसार नहीं है, इतना उक्त आगमके परिप्रेक्ष्यमें स्पष्टरूपसे स्वीकार करना अनिवार्य हो जाता है। (७) यह तो सब स्वाध्यायी बन्धु जानते हैं कि मिथ्यात्व परिणामके अभावस्वरूप जो सम्यग्दर्शनरूप स्वभाव परिणाम होता है वह तथा अनन्तानुबन्धी आदि १२ कषायोंके अभावस्वरूप जो वीतराग स्वरूप चारित्र परिणाम होता है वह मात्र निर्जराका ही कारण स्वीकार किया गया है, बन्धका कारण नहीं । फिर भी यह देखकर कि तीर्थकर प्रकृतिका बन्ध सम्यग्दृष्टिके होता है, मिथ्यादृष्टिके नहीं, इसलिये तो महाबन्धमें तीर्थकर प्रकृतिके बन्धको सम्थक्त्व-निमित्तक कहा गया है और यह देखकर कि आहारकद्विक्का बन्ध संयमीके ही होता है, असंयमीके नहीं, आहारकद्विकके बन्धको संयमनिमित्तक कहा गया है । यथा आहारदुर्ग संजमपच्चयं । तित्थयरं सम्मत्तपच्चयं ।-महाबन्ध पु० ४, पृ० १८६ । Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ यहाँ यह शंका नहीं की जा सकती कि यदि तीर्थंकर प्रकृतिका बन्ध सम्यक्त्व निमित्तक होता है तो सभी सम्यग्दृष्टियोंके उसका बन्ध होना चाहिये और यदि आहारकद्विकका बन्ध संयमनिमित्तक होता है तो सभी संयमियोंके आहारकद्विकका बन्त्र होना चाहिये, क्योंकि ऐसी व्याप्ति तो है कि जो भी तीर्थंकर प्रकृतिका बन्ध करेगा उसको कमसे कम सम्यग्दृष्टि तो होना ही चाहिये । तथा जो भी आहारकद्विकका बन्ध करेगा उसे कमसे कम अप्रमत्तसंयत तो होना ही चाहिये । इन दोनोंके इन प्रकृतियों का बन्ध नियमसे होता ही है ऐसा नहीं है । होगा तो ऐसी योग्यताके होनेपर ही उनके बन्धके कारणोंसे होगा, अन्यथा नहीं होगा । आगमके इस कथनका तात्पर्य यह है कि अन्यत्र न होकर जिस भूमिकामें जिस कर्मका बन्ध होता है उसमें नयदृष्टिसे कारणता स्वीकार करना अनिवार्य है । यदि ऐसा न माना जाय तो जिसके भी तीर्थंकर प्रकृतिका बन्ध होगा उसे कमसे कम सम्यग्दृष्टि तो होना ही चाहिये यह कथन युक्तिसंगत नहीं माना जा सकेगा । एक कार्यके होनेमें कारण अनेक होते हैं, कोई साधारण कारण होता है और कोई असाधारण कारण होता है । यहाँ मिथ्यात्व आदि १६ प्रकृतियोंके बन्धमें मिथ्यात्व असाधारण कारण है, क्योंकि जो भी उनका बन्ध करेगा उसका मिथ्यादृष्टि होना अनिवार्य है, उन प्रकृतियोंके बन्ध होनेमें अनन्तानुबन्धी क्रोधादिरूप परिणामका होना अनिवार्य नहीं है । (८) उक्त १६ प्रकृतियोंका प्रदेशबन्धकी अपेक्षा विचार करनेपर भी इनका उत्कृष्टादिके भेदसे किसी भी प्रकारका प्रदेशबन्ध क्यों न हो उसका भी मिथ्यादृष्टि होना अनिवार्य है । मिथ्यादृष्टि न हो और केवल योग के निमित्तसे इन प्रकृतियोंका किसी भी प्रकारका प्रदेशबन्ध हो जाय ऐसा नहीं है । (९) यहाँ यह कहा जा सकता है कि मिथ्यादृष्टि तो हो, परन्तु उसके योग और कषाय न हो तो प्रकृतियों का केवल मिथ्यात्वके निमित्तसे बन्ध नहीं होगा । परन्तु जिसका ऐसा कहना है सो उसका वैसा कहना इसलिए युक्तियुक्त नहीं है, क्योंकि आगमके अनुसार यह तो कहा जा सकता है कि योग और कषाय तो हो, परन्तु मिथ्यात्व न हो । पर यह नहीं कहा जा सकता कि मिथ्यात्व तो हो और योग और कषाय न हो । हाँ कोई कहे कि मिथ्यात्व तो हो और अनन्तानुबन्धी न हो तो यह कहना जैसे बन जाता है । वैसे ही अनन्तानुबन्धी तो हो और मिथ्यात्व न हो, गुणस्थान भेदसे यह कहना भी बन जायगा । अतः आगमके अनुसार यही मानना युक्ति संगत प्रतीत होता है कि आगममें जो बन्धके पाँच कारण कहे गये हैं उनमें मिथ्यात्व मुख्य है । (१०) अब प्रश्न यह है कि जब मिथ्यात्व भी बन्धका कारण है तब ऋजुसूत्रनयसे स्थितिबन्ध और अनुभागबन्धका कारण मात्र कषायको तथा प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्धका कारण मात्र योगको क्यों कहा । ऋजुसुत्रनयसे मिथ्यात्वका बन्धके कारणोंमें क्यों नहीं परिगणित किया गया ? समाधान यह है कि कषायकी वृद्धि और हानिके साथ तो स्थितिबन्ध और अनुभागबन्धकी वृद्धि और हानि देखी जाती है, इसलिये तो ऋजुसूत्रनयसे कषायको स्थितिबन्ध और अनुभागबन्धका कारण कहा ' तथा योगकी वृद्धि और हानिके साथ प्रदेशबन्धकी वृद्धि और हानि होती है, इसलिये ऋजुसूत्र नयसे योगको प्रदेशबन्धका कारण कहा । यहाँ जिस १. णाणावरणीयट्ठिदिवेयणा अणुभागवेयणा च कसायचच्चएण होदि, कसायवड्ढिहाणीहिता • ट्ठिदि-अणुभागाणं वड्ढि - हाणिदंसणादो । - ध० पू० १२ पृ० २८८ । २. ण च जोगवड्ढि -हाणीओ मोत्तूण अण्णेहितो णाणावरणीयपदेसंबंधस्स वढि हाणि वा पेच्छामो । - ध० पु० १२ पृ० २२८ । Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड २७७ प्रकार प्रदेशबन्धका कारण योग है उसी प्रकार प्रकृतिबन्धका कारण भी योग है, क्योंकि उसके बिना उसकी उत्पत्ति नहीं हो सकती, और ऐसा नियम है कि जिसके बिना जिसकी उत्पत्ति नहीं होती वह उसका कार्य व दूसरा कारण होता है । (११) फिर भी यह प्रश्न तो खड़ा ही रहता है कि जब ऋजुमूत्रनयसे प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्धका कारण योग तथा स्थितिबन्ध और अनुभाग बन्धका कारण कषाय है तो फिर शेष क्या बचता है जिसका कारण माननेके लिए मिध्यात्वको स्वीकार किया जाय ? समाधान यह है कि प्रत्येक कार्यकी उत्पत्ति में कारण दो प्रकारके होते हैं - एक सामान्य ( व्यापक) कारण और दूसरा विशेष (व्याप्य कारण प्रकृतमें नैगमादि तीन नयोंसे बन्धके जितने भी कारण कहे गये हैं वे सब सामान्य कारण हैं तथा ऋजुसूत्रनयसे जो कारण कहे गये हैं वे विशेष कारण हैं । जैसे हमारे आपके चलनेमें पृथ्वी सामान्य कारण हैं, वह न हो तो हम एक डग भी नहीं चल सकते । तथा विहायोगति नामकर्मका उदय आदि विशेष कारण हैं । पृथिवीपर हम भी चलते हैं, आप भी चलते हैं, ऊंट भी चलता है और सर्प आदि भी चलते हैं सो यहाँ प्रत्येककी चालमें जो अन्तर पड़ता है उसका कारण अलग-अलग होकर भी पृथ्वी सबके चलनेके लिए सब अवस्थाओं कारण है वैसे ही प्रकृतमें भी समझना चाहिए। मिध्यात्वमें बंधनेवाली सभी प्रकृतियोंके चारों प्रकारके बंधका सामान्य कारण मिथ्यात्व होकर भी बन्धमें जो तारतम्य दिखाई देता है उसका कारण विवक्षित योग और कषाय हैं ऐसा यहां समझना चाहिए। कहा गया है कि जो योगस्थान हैं वे ही प्रदेशबन्धस्थान प्रदेश बन्धस्थानविशेष अधिक है। सो इसका अर्थ है कि प्रदेशबन्ध में फरक पड़ता है, उसका कारण प्रकृति भेद ही (१२) प्रदेशबन्ध प्रसंगसे आगममें जो यह हैं। इतनी विशेषता है कि प्रकृतिविशेषकी अपेक्षा वे भले ही योग वही रहे पर प्रकृति भेदके कारण जो है। क्योंकि एक कालमें विवक्षित योगसे जितनी प्रकृतियों का बन्ध होता है, उन सब प्रकृतियोंमें मिलनेवाले प्रदेश सबको समान नहीं मिलते हैं। इसका कारण वह योग न होकर कथंचित् प्रकृतिभेद ही इसका कारण रहता है। फिर भी यदि कोई यह माने कि यहाँ प्रकृति भेदसे उन प्रकृतियोंके प्रदेशबन्ध में योग अकिंचित्कर है, प्रकृतिभेद ही उसका कारण है तो जैसे उसका यह मानना मिथ्या है वैसे ही बन्धमें मिथ्यात्वको अकिंचित्कर मानना भी मिथ्या ही है । (१३) इस प्रकार नयभेदसे मिथ्यात्व आदि पाँचों ही बन्धके कारण हैं ऐसा यहाँ वेदनाखण्ड प्रत्यय अनुयोगद्वारके अनुसार समझना चाहिए। आचार्य गृद्धपिच्छने भी इसी बातको ध्यान में रखकर ही तत्त्वार्थसूत्रके वें अध्यायमें प्रारम्भके दो सूत्रोंकी रचना की है। वहाँ प्रथम सूत्र नगमादि तीन नयोंको अपेक्षा रचा गया है और दूसरे सूत्रको रचना ऋजुसूत्रनयकी अपेक्षा की गई है। मात्र उत्तरकालीन आचार्योंने नयविवक्षाको गौणकर आगमकी संकलना की है इसलिये मादृशः जनोंको नयज्ञान न होनेसे ऐसो विडम्बनाकी स्थिति बन जाती है। युक्तियुक्त नहीं है । अतः आगमके सर्वांग कथनको स्वीकार करना ही मोक्षमार्ग में प्रयोजनीय माना गया है। ऐसा मानकर ही मुनि या धावकको अपने श्रद्धानको आगमानुकूल बना कर दृढ़ करना चाहिये । आत्मानुशासन में भवन्त गुणभवने सम्यग्दर्शनके जो दस भेद किये हैं सो उन भेदों के करनेमें मिथ्यात्व आदि कर्मोंके उपशमादिकी विवक्षा न होकर ज्ञानावरण कर्मके क्षय क्षयोपशम आदिकी विशेषता स्पष्टतः परिलक्षित होती है । मात्र जो औपशमिक आदि तीन भेद किये गये हैं उनके होनेमें अवश्य ही मिथ्यात्व आदि कर्मोंका उपशम, क्षय, क्षयोपशम मुख्य हैं । उनमें प्रथम औपशमिक सम्यर्शन है । अनादि मिध्यादृष्टि जीवके सबसे १. याणि चैव योगट्ठाणाणि ताणि चैव पदेसबंधट्ठाणाणि । णवरि पदेसंबंधट्ठाणाणि पगदिविसेसेण विसेसाथियाणि । म० वं भा० ६ पृ० १०१ । Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ पहले प्रथमोपशम सम्यग्दर्शनकी ही उत्पत्ति होती है। यदि एक बार सम्यग्दर्शन होनेके बाद वह मिथ्यादृष्टि हो भी जाय और वेदककालके भीतर वेदक सम्यग्दर्शनकी उत्पत्ति न होकर वह मिथ्यादृष्टि ही बना रहे तो पुनः वह प्रथमोपशम सम्यग्दर्शनको प्राप्त करके ही सम्यग्दृष्टि हो सकता है। अनादि मिथ्यादृष्टि जीवके एक मिथ्यात्व दर्शनमोहनीय कर्मके साथ २६ प्रकृतियोंकी सत्ता होती है, कन्त सादि मिथ्यादष्टि जीवके २८. ७ और २६ प्रकतियोंकी सत्ता बन जाती है। जिस सादि मिथ्यादष्टि जीवने सम्यग्यिथ्यात्व और सम्यकप्रकृतिकी उद्वेलना नहीं की है उसके २८ प्रकृतियोंकी सत्ता होती है । जिसने सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिकी उद्वेलना कर ली है उसके २७ प्रकृतियोंकी सत्ता होती है और जिसने सम्यग्मिध्यात्व और सम्यक्प्रकृति दोनोंको उद्वेलना कर ली है वह सादि मिथ्यादृष्टि होते हुए भी उसके . ६ प्रकृतियोंकी सत्ता होती है। ये तीनों ही प्रकारके जीव प्रथमोपशम सम्यग्दर्शको प्रा-त करनेके अधिकारी हैं। इस सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति दर्शनमोहनीय कर्मके अन्तरकरण उपशमपूर्वक होती है। अनन्तातुबन्धीकर्मका अन्तरकरण उपशम नहीं होता । मात्र जिस समय यह सातिशय मिथ्यादष्टि जीव अधःप्रवत्तकरण आदि तीन करण करके अन्तरकरण उपशमपूर्वक दर्शनमोहनीय कर्मकी प्रथम स्थितिको गलाकर प्रथमोपशम सम्यग्दृष्टि होता है उसी समय इस जीवके अनन्तानुबन्धीका अनुदय होनेसे इसकी भी अनुदयोपश-के रूपमें परिगणना की जाती है । अतः इसी तथ्यको व्यक्त करते हुए यह कहा जाता है कि दर्शनमोहनीयकी तीन और अनन्तानुबन्धीकी चार इन ७ प्रकृतियोंके उपशमसे उपशमसम्य ग्दर्शन होता है। परन्त दर्शनमोहनीयके समान इसके अनन्तानुबन्धीका अन्तरकरण उपशम नहीं होता इतना सुनिश्चित है । यह प्रथमोपशम सम्यग्दर्शनका स्वरूप है। इसके सिवाय उपशमसम्यग्दर्शनका एक भेद द्वितीयोपशम सम्यग्दर्शन भी है जो अप्रमत्तसंयत वेदकसम्यग्दृष्टि जीव उपशमश्रेणिपर चढ़ने के सन्मुख होता है उसके अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजनाके साथ दर्शनमोहनीयके अन्तःकरण उपशमपूर्वक होता है। यह सामान्यसे उपशम सम्यग्दर्शनके दोनों भेदोंका स्वरूप निर्देश है । सम्यग्दर्शनके दूसरे भेदका नाम क्षयोपशम सम्यग्दर्शन है। यह सम्यक्त्वमोहनीयके उदयपूर्वक होनेसे इसका दूसरा नाम वेदक सम्यक्त्व भी है। यह उपशम सभ्यग्दर्शन पूर्वक भी होता है और मिथ्यादर्शनपूर्वक भी होता है । इतनी विशेषता है कि जो सम्यग्दर्शनसे च्युत होकर मिथ्यात्व गुणस्थानको प्राप्त हुआ है उसके भीतर ही इस सम्यग्दर्शनको प्राप्ति होना सम्भव है। किन्तु वेदक कालके व्यतीत होनेपर वह मात्र प्रथमोपशमसम्यक्त्वको प्राप्त करके ही सम्यग्दृष्टि हो सकता है। इसके अनेक भेद हैं । प्रथम भेदमें अनन्तानबन्धी ४, मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्वका अनुदय रहता है और सम्यक प्रकृतिका उदय रहता है। दूसरे भेदमें अनन्तानुबन्धीकी विस योजना रहती है, तथा मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्या वका अनुदय और सम्यक प्रकतिका उदय रहता है। तीसरे भेदमें अनन्तानबन्धी ४ की विसंयोजना, मिथ्यात्वकी क्षपणा होकर सम्यग्मिथ्यात्वका अनुदय और सम्यकप्रकृतिका उदय रहता है तथा चौथे भेदमें अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजनापूर्वक मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी क्षपणा होकर सम्यक प्रकृतिका उदय रहता है । कृतकृत्यवेदक सम्यग्दर्शन इस चौथे भेदकी ही संज्ञा है। इन चार भेदोंमेंसे अन्तिम दो भेद, जो वेदक सम्यग्दृष्टि जीव दर्शनमोहनीयकी क्षपणा करता है उसीके होते हैं। इस प्रकार आगमानुसार वेदक सम्यक्त्वके चार भेद जानने चाहिये । जो प्रवृज्या देने में समर्थ योग्य गुरुकी शरणमें जाकर चरणानुयोगके अनुसार २८ मूलगुणोंको अंगीकार करते हैं ऐसे कोई द्रव्यलिंगी साधु प्रवज्या लेनेके अनन्तर या कालान्तरमें आगमानुसार जीवादि तत्त्वोंके अभ्यास Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : २७९ पूर्वक प्रथमोपशम सम्यग्दर्शनके साथ या वेदक सम्यग्दर्शन (प्रथमभेद ) के साथ अप्रमत्तसंयत गुणस्थानको प्राप्त करने के अधिकारी होते हैं, इसी प्रकार जिस व्यक्तिने गुरुको साक्षीपूर्वक चरणानुयोगोंके अनुसार श्रावकके निरतिचार १२ व्रत स्वीकार किये हैं वे भी जीवादि तत्त्वोंके सम्यक् अभ्यासपूर्वक उक्त दोनों सम्यग्दर्शनों में से किसी एक सम्यग्दर्शनके साथ विरताविरत गुणस्थान के अधिकारी होते हैं । तथा जिन्होंने विधिवत् महाव्रतों या अणुव्रतोंको नहीं स्वीकार किया है । मात्र जो चतुर्थ गुणस्थानके समान प्रवृत्ति करनेमें सावधान हैं वे उक्त दोनों सम्यग्दर्शनामें से किसी एक सम्यग्दर्शनके साथ चौथे गुणस्थानके अधिकारी होते हैं । यहाँ इतना विशेष जानना चाहिये कि उपशम सम्यग्दर्शनमें दर्शन मोहनीयको उपशामना अधःप्रवृत्तकरण आदि तीन करणपूर्वक ही होती है । परन्तु वेदकसम्यक्त्वकी प्राप्ति में जो सम्यग्दर्शन छूटने के दीर्घकाल बाद इस सम्यग्दर्शनको प्राप्त करते हैं वे प्रारम्भके दो करण करके ही इसके अधिकारी होते हैं । और जो अतिशीघ्र इसे प्राप्त करते हैं वे करणपरिणामोंके बिना भी इसे प्राप्त करने के अधिकारी होते हैं । उपशम सम्यग्दर्शनपूर्वक वेदक सभ्यग्दर्शनको प्राप्त किया जा सकता है इसमें किसी प्रकारका प्रयवाय नहीं है । इसीप्रकार सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थानसे या प्रथमोपक्षम सम्यक्त्वसे भी कई जीव वेदक सम्यग्दर्शनको प्राप्त करने के अधिकारी होते हैं। इसमें भी किसी प्रकारका प्रत्यवाय नहीं है । तथा सम्यग्दर्शन के तीसरे भेदका नाम क्षायिक सम्यग्दर्शन है । यह अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजनापूर्वक दर्शनमोहनी की तीनों प्रकृतियोंकी क्षपणा करके प्राप्त होता है, इसलिये इसका क्षायिक सम्यग्दर्शन यह नाम सार्थक है । इतना अवश्य है कि चारों गतियोंके जीव इसे प्रारम्भ करनेके अधिकारी नहीं होते, मात्र कर्मभूमिज मनुष्य ही केवली श्रुतकेवली के पादमूल में वेदकसम्यक्त्वपूर्वक इसका प्रारम्भ करते हैं, हाँ पूर्ति इसकी चारों गतियोंमेंसे किसी भी एक गतिमें हो सकती है । एक तो जिस मनुष्यने इसका प्रारम्भ जहाँ किया है वहीं इसकी पूर्ति हो जाती है । कदाचित् मरण हो जाय तो परभवसम्बन्धी जिस आयुका बन्ध किया हो वहाँ जाकर यह जीव उसकी पूर्ति करता है । फिर भी इसका प्रस्थापक जीव जब अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना करने के बाद मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी क्षपणा करके कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि हो जाता है तभी उसका मरण होकर अगले भवमें उसकी पूर्णता होती है ऐसा नियम है । Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण-परम्पराका दर्शन संस्कृत साहित्यमें जिसे श्रमण पदसे अभिहित किया गया है' मूलमें वह 'समण' संज्ञापद है ।। उसर्व संस्कृत छायारूप तीन होते है-श्रमण, शमन और समन । श्रमणों-जैन साधुओंकी चर्चा इन तीनों विशेषताओंको लिये हए होती है। जिन्होंने पंचेन्द्रियोंको संवृत कर लिया है, कषायोंपर विजय प्राप्त कर ली है जो शत्रु मित्र, दुःख-सुख, प्रशंसा-निन्दा, मिट्टी-सोना तथा जीवन-मरणमें समभाव सम्पन्न है और जो सम्यगदर्शनज्ञान चारित्रकी आराधनामें निरन्तर तत्पर हैं वे श्रमण हैं और उनका धर्म ही श्रमण धर्म है। वर्तमानमें जिसे हम जैन धर्म या आत्मधर्मके नामसे सम्बोधित करते हैं वह यही है । यह अखण्डभावसे समण संस्कृतिका प्रतिनिधित्व करता है ।। लोकमें जितने भी धर्म प्रचलित हैं उनका लिखित या अलिखित दर्शन अवश्य होता है। इसका भी अपना दर्शन है जिसके द्वारा श्रमण धर्मकी नींवके रूपमें व्यक्ति स्वातंत्र्यकी अक्षुण्ण भावसे प्रतिष्ठाकी गई है। इसे समझनेके लिये इसमें प्रतिपादित तत्त्व प्ररूपणाको हृदयंगम कर लेना आवश्यक प्रतीत होता है । जैसाकि समग्र आगमपर दृष्टिपात करनेसे विदित होता है इसमें तत्त्व प्ररूपणाके दो प्रकार परिलक्षित होते हैं-एक लोक की संरचनाके रूपमें तत्त्व प्ररूपणाका प्रकार और दूसरा मोक्ष मार्गकी दृष्टिसे तत्त्व प्ररूपणाका प्रकार । ये दोनों ही एक-दूसरेके इतने निकट है जिससे इन्हें सर्वथा जुदा नहीं किया जा सकता, केवल प्रयोजन भेदसे ही तत्त्व प्ररूपणाको दो भागोंमें विभक्त किया गया है। प्रथम प्ररूपणाके अनुसार जातिकी अपेक्षा द्रव्य छह हैं । वे अनादि अनन्त और अकृत्रिम हैं। उन्हींके समच्चयका नाम लोक है। इसलिए जैन दर्शनमें लोक भी स्वप्रतिष्ठ और अनादि अनन्त माना गया है। छह द्रव्योंके नाम हैं-जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, काल और आकाश । इनमेंसे काल द्रव्य सत्स्वरूप होकर भी शरीरके समान बहु प्रदेशी नहीं है, इसलिए उसे छोड़कर शेष पांच द्रव्य अस्तिकाय माने गये हैं। पुद्गल द्रव्य या योग्यताकी अपेक्षा बहु प्रदेशी माना गया है। संख्याकी अपेक्षासे जीव द्रव्य अनंत हैं, पुद्गल उनसे अनन्त गुणे हैं, धर्म, अधर्म और आकाश द्रव्य एक-एक हैं, और काल द्रव्य असंख्य है। ये सब द्रव्य स्वरूप सत्ताकी अपेक्षा भिन्न-भिन्न हैं। फिर भी इन सबमें घटित हो ऐसा इनका एक सामान्य लक्षण हैं, जिस कारण ये सब द्रव्य पद द्वारा अभिहित किये जाते हैं। वह हैं-उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत् । सद् द्रव्यलक्षणम् ।" जो सत्स्वरूप हो वह द्रव्य है या सत्स्वरूप होना द्रव्यका लक्षण है। यहाँ सत और द्रव्यमें लक्ष्य और लक्षणकी अपेक्षा भेद स्वीकार करनेपर भी वे सर्वथा दो नहीं हैं, एक है-चाहे १. येषां च विरोधः शाश्वतिकः (२।४।९) इत्यस्यावकाश. श्रमणब्राह्मणम् । पातञ्जलभाष्य । २. प्रवचनसार गाथा २२६ ३. पारवतमददमतृष्णओं खो समण शब्द पृ० १०८३ ४. प्रवचनसार गा० २४०-४१ ५. तत्वार्थसूत्र ५-२९-३० Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : २८१ सत् कहो या द्रव्य दोनोंका अर्थ एक है। इसी कारण जैनदर्शनमें अभावको सर्वथा अभावरूप न स्वीकार करके उसे भावान्तर स्वभाव स्वीकार किया गया है।' नियम यह है कि सत्का कभी नाश नहीं होता और असतका कभी उत्पाद नहीं होता। ऐसा होते भी वह (सत्) सर्वथा कूटस्थ नहीं है-क्रियाशील है। यही कारण है कि प्रकृतमें सत्को उत्पाद व्यय और ध्रौव्य रूपसे क्रियात्मक स्वीकार किया गया है। अपने अन्वय स्वभावके कारण जहाँ वह ध्रौव्य है वहीं व्यतिरेक (पर्यायरूप धर्मके कारण वही उत्पाद व्यय स्वरूप है। इन तीनोंमें काल भेद नहीं है जिसे हम नवोन पर्यायका उत्पाद कहते हैं यद्यपि वही पूर्व पर्यायका व्यय है, पर इनमें लक्षण भेद होनेसे ये दो स्वीकार किये गये हैं।" इस प्रकार प्रत्येक द्रव्य एक ही कालमें क्रियात्मक है यह सिद्ध होता है। इस क्रियात्मक द्रव्यमें उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य उसके ये तीनों ही अंश सत् हैं। इनमें कथंचित् अभेद है, क्योंकि तीनों की सत्ता एक है। जो तीनोंमेंसे किसी एककी सत्ता है वही अन्य दो की है। यह द्रव्यका सामान्य आत्मभत लक्षण है। इससे प्रत्येक द्रव्य परिणामी नित्य है यह सिद्ध होता है, क्योंकि समय-समय जो उत्पाद व्यय होता है वह उसका परिणामीपना है और ऐसा होते हए भी वह अपने ध्रुवरूप मूल स्वभावको नहीं छोड़ता, उसके द्वारा वह सदा हो उत्पाद व्यय रूप परिणामको व्यापता रहता है। यह उसको नित्यता है। आगममें प्रत्येक द्रव्यको जो अनेकान्त स्वरूप कहा गया है उसका भी यही कारण है । द्रव्यमें उत्पाद-व्यय ये कार्य हैं। वे होते कैसे हैं यह प्रश्न है-स्वयं या परसे। किसी एक पक्षके स्वीकार करनेपर एकान्तका दोष आता है. उभयतः स्वीकार करनेपर जीवका मोक्ष, स्वरूपसे कथंचित् स्वाश्रित है और कथंचित पराश्रित है ऐसा मानना पड़ता है। जो यक्तियक्त नहीं है। अतः वस्तुस्थिति क्या है यह विचारणीय है। समाधान यह है कि किसी भी द्रव्यको अन्य कोई बनाता नहीं वह स्वयं होता है। अतः उत्पाद व्यय रूप कार्यको प्रत्येक द्रव्य स्वयं करता है। वही स्वयं कर्ता है और वही स्वयं कर्म है। करण, सम्प्रदान, अपादान और अधिकरण भी वही स्वयं है । अविनाभाव सम्बन्धवश उसकी सिद्धि मात्रपरसे होती है, इसीलिये उसे कार्य (उपचार) का साधक कहा जाता है। परने किया यह व्यवहार है, परमार्थ नहीं, क्योंकि परने किया इसे परमार्थ माननेपर दो द्रव्योंमें एकत्वकी आपत्ति आती है जो युक्तियुक्त नहीं है। अतः प्रकृतमें अनेकान्त इस प्रकार घटित होता है। ___ उत्पाद-व्यय कथंचित् स्वयं होते हैं, क्योंकि वे द्रव्यके स्वरूप हैं । कथंचित् परसे होनेका व्यवहार है, क्योंकि अविनाभाव सम्बन्धवश पर उनकी सिद्धिमें निमित्त है। जैनधर्ममें प्रत्येक द्रव्यको स्वरूपसे जो स्वाश्रित (स्वाधीन) माना गया है उसका कारण भी यही है । जीवने परमें एकत्व बुद्धि करके अपने अपराधवश अपना भवभ्रमण रूप संसार स्वयं बनाया है। १. भवत्यम्भवो हि भावधर्मः युक्त्यनु । २. प्रवचनसार गा० १०४ सर्थिसिद्धि-३० प्रवचनसार गा० १०१ आप्तमीमांसा कारिका' ५८ ६. आप्तमीमांसा कारिका ७५ orm sur Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ कर्मरूप पुद्गल द्रव्यका परिणाम उसके अज्ञानादि रूप संसारका कर्ता नहीं होता । पर परको करे ऐसा वस्तु स्वभाव नहीं । वह स्वयं अज्ञानादि रूप परिणामको जन्म देता है, इसलिए स्वयं उसका कर्ता होता है। फिर भी इसके जो ज्ञानावरणादि रूप पुद्गल कर्मका बन्ध होता है उस सम्बन्धमें नियम यह है कि प्रति समय जैसे ही यह जीव स्वरूपसे भिन्न परमें एकत्वबुद्धि या इष्टानिष्ट बृद्धि करता है वैसे ही ज्ञानावरणादिरूप परिणमनकी योग्यता वाले पुद्गल स्कन्ध स्वयं उससे एक क्षेत्रावगाहरूप बन्धको प्राप्त होकर फल फालके प्राप्त होनेपर तदनुरूप फल देने में निमित्त होते हैं । जीव कर्मका यह बनाव अनादिकाल से निमित्त नैमित्तिक सम्बन्धवश स्वयं बना चला आ रहा है। इसके अनादिमें निमित्त नहीं। पहले जिन छह द्रव्योंका हम निर्देश कर आये हैं । उनमेंसे चार द्रव्य तो सदा ही अपने स्वभावके अनुकूल ही कार्यको जन्म देते हैं, शेष जो जीव और पुद्गल दो द्रव्य हैं उनमेसे पुद् गलका स्वभाव तो ऐसा है कि वह कदाचित् स्वभावमें रहते हुए भी बन्धके अनुकूल अवस्थाके होनेपर दूसरे पुद्गल के साथ बन्धको प्राप्त हो जाता है और जब तक वह इस अवस्थामें रहता है तब तक वह अपनी इकाईपनेसे विमुख होकर स्कन्ध संज्ञासे व्यवहृत होता रहता है। इसके अतिरिक्त जो जीव है उसका स्वभाव ऐसा नहीं है कि वह स्वयंको कर्मसे आवद्ध कर दुर्गति का पात्र बने। अनादिसे वह स्वयंको भूला हुआ है। उसकी इस भूलका ही परिणाम है कि वह दुर्गतिका पात्र बना चला आ रहा है । उसे स्वयंमें यही अनुभव करना है और उसके मूल कारणके रूपमें अपने अज्ञानभाव और राग-द्वेषको जानकर उनसे मुक्त होनेका उपाय करना है। यही एक मुख्य प्रयोजन है जिसे ध्यानमें रखकर जिनागममें तत्व प्रारूपणाका दूसरा प्रकार परिलक्षित होता है। आत्मानुभूति, आत्मज्ञान और आत्मचर्या इन तीनों रूप परिणत आत्मा मोक्षमार्ग है । उनमें सम्यग्दर्शन मूल है । ( दंसणमूलो धम्मो ' ) उसी प्रयोजनसे जीवादि नौ पदार्थ या सात तत्त्व कहे गये हैं । इनमें आत्मा मुख्य है। विश्लेषण द्वारा उसके मूल स्वरूपपर प्रकाश डालना इस कथनका मुख्य प्रयोजन है । उसीसे हम जानते हैं कि मैं चिन्मात्र ज्योतिस्वरूप अखण्ड एक आत्मा हूँ। अन्य जितनी उपाधि हैं, वह सब में नहीं हूँ। वह मुझसे सर्वथा भिन्न है। इतना ही नहीं, वह यह भी जानता है कि यद्यपि नर-नारकादि जीव विशेषतः अजीव पुण्य पाप आस्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्ष स्वरूप इन नौ पदार्थों में ही व्यापता हूँ।' जीवनके रंग मंचपर कभी मैं नारकी बनकर अवतरित होता हूँ तो कभी मनुष्य बनकर कभी पुण्यात्माकी भूमिका निभाता हूँ तो कभी पापीकी आदि। इतना सब होते हुए भी में चिन्मात्र ज्योतिस्वरूप अपने एकत्वको कभी नहीं छोड़ता हूँ। यही वह संकल्प है जो इस जीवको आत्म स्वतन्त्रताके प्रतीक स्वरूप मोक्ष मार्ग में अग्रसर कर आत्माका साक्षात्कार करानेमें साधक होता है। ज्ञान वैराग्य सम्पन्न मोक्षमार्ग के पथिककी यह प्रथम भूमिका है। यह जीवोंके आयतन जानकर पाँच उदुम्बर फलों तथा मद्य, मांस और मधुका पूर्ण त्यागी होता है । इन्हें आठ मूल गुण कहते हैं जो इसके नियमसे होते हैं । साथ ही वीतराग देव, निर्ग्रन्थ गुरु और वीतराग १. समयसार गा० १३ २. तत्त्वार्थसूत्र १-४ ३. समयसार कलश ७ ४. सागारधर्मामृत २-३ Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : २८३ वाणी स्वरूप जिनागम इसके आराध्य होते हैं। यह आजीविकाके ऐसे ही साधनोंको अपनाता है जिनमें संकल्पपूर्वक हिंसाकी सम्भावना न हो । दसरी भूमिकाका श्रमणोपासक व्रती होता है । व्रत बारह है-पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत । यह इनका निर्दोष विधिसे पालन करता है। कदाचित दोषका उद्भव होनेपर गुरुकी साक्षीपूर्वक लगे दोषोंका परिमार्जन करता है और इनमें उत्तरोत्तर वृद्धि करते हुए उस भूमिका तक वृद्धि करता है जहाँ जाकर लंगोटी मात्र परिग्रह शेष रह जाता है। तीसरी भूमिका श्रमण की है। यह महाव्रती होता है। यह बनमें जाकर गुरुकी साक्षीपूर्वक जिन व्रतोंको अंगीकार करता है उन्हे गुण कहते हैं। वे २८ होते है-५ महाव्रत, ५ समिति, ५ इन्द्रियजय, ६ आवश्यक और ७ शेष गुण, शेष गुण जैसे-खडे होकर दिनमें एक बार भोजन-पानी लेना, दोनों हाथोंको पात्र बनाकर लेना, केश लुंच करना, नग्न रहना आदि । इसका जितना भी कार्य हो वह स्वावलम्बन पूर्वक ही किया जाय, मात्र इसीलिये ही यह हाथोंको पात्र बनाकर आहार ग्रहण करता है, हाथोंसे ही केशलुच करता है । रात्रिमें एक करवटसे अल्प निद्रा लेता है। यह सब इसलिए नहीं किया जाता है कि शरीरको कष्ट दिया जाय । शरीर तो जड़ है, कुछ भी करे उसे तो कष्ट होता ही नहीं, यदि कष्ट हो भी तो करने वालेको ही हो सकता है। किन्तु श्रमणका राग-द्वेषके परवश न होकर शरीरसे भिन्न आत्माकी सम्हाल करना मुख्य प्रयोजन होता है, इसीलिए वे सब क्रियाएँ उसे, जिन्हें हम कष्टकर मानते हैं, कष्टकर भासित न होकर अवश्य करणीय भासित होती हैं। यह जैनधर्म-दर्शनका सामान्य अवलोकन है । इसे दृष्टिपथमें लेनेपर यह स्पष्ट हो जाता है कि इसका मुख्य प्रयोजन वेद, ईश्वर कर्तृत्व और यज्ञीय हिंसाका विरोध करना पूर्वमें कभी नहीं रहा है । इसके मूल साहित्य षट्खण्डागम, कषायप्रामृत, आ० कुन्दकुन्द द्वारा रचित साहित्य, मूलाचार, रत्नकरण्डश्रावकाचार, भगवती आराधना आदिपर दृष्टिपात करनेसे यह स्पष्ट हो जाता है । इसलिए जो मनीषी इसे सुधारवादी धर्म कह कर इसे अर्वाचीन सिद्ध करना चाहते हैं, जान पड़ता है वस्तुतः उन्होंने स्वयं अपने धर्म ग्रन्थोंका हो ठीक तरहसे अवलोकन किये बिना अपना यह मत बनाया है। उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि जो वर्तमानमें भारतीय संस्कृतिका स्वरूप दृष्टिगोचर होता है उसे न केवल ब्राह्मण या वैदिक संस्कृति कहा जा सकता है और न तो श्रमण संस्कृति कहना उपयुक्त होगा। यह एक ऐसा तथ्य है जिसे स्वीकार कर लेनेपर श्रमण संस्कृतिसे अनुप्राणित होकर भारतीय संस्कृतिमें जो निखार आया है उसे आसानीसे समझा जा सकता है। इससे जिन तथ्योंपर विशेष प्रकाश पड़ता है वे हैं १. इसमें सदासे प्रत्येक द्रव्यका जो स्वरूप स्वीकार किया गया है उसके अनुसार जड़, चेतन प्रत्येक द्रव्यमें अर्थक्रियाकारीपना सिद्ध होनेसे ही व्यतिरेक रूपमें ही परकर्तुत्वका निषेध होता है। १. रत्नकरण्डश्रावकाचार ४ २. सागारधर्मामृत १-१४ ३. वही अ० ४ ४. प्रवचनसार गा० २०४-२०९ Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ सिद्धान्ताचार्य पं० फुलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ २. व्यक्ति के जीवन में वीतरागता अर्जित करना मुख्य है अहिंसा आदि उसके बाह्य साधन हैं। मात्र इसीलिए जैनधर्म में अहिंसा आदिको मुख्यता दी गई है। यज्ञादि विहीन हिंसाका निषेध करना इसका मुख्य प्रयोजन नहीं है । जीवनमें अहिंसाके स्वीकार करनेपर उसका निषेध स्वयं हो जाता है । ये कतिपय तथ्य हैं जिनसे यह स्पष्ट हो जाता है कि सुधारवादकी दृष्टिसे जैनधर्मकी संरचना नहीं हुई हैं । किन्तु भारतीय जनजीवनपर जैन संस्कृतिकी अमिट छाप अवश्य है यह माना जा सकता है और यह स्वाभाविक भी है । जो पड़ोसी होते हैं उनमें आदान प्रदान न हो यह नहीं हो सकता । Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केवली जिन कवलाहार नहीं लेते नियमसारकी गाथा ६ और ७ में बतलाया है कि "जो क्षुधा, तृषा, भय, रोष, राग, मोह, चिन्ता, जरा, रोग, मृत्यु, स्वेद, खेद, मद, रति, विस्मय, निद्रा, जन्म और उद्वेग इन सब दोषोंसे रहित है तथा केवलज्ञान आदि परम वैभवसे यक्त है वह परमात्मा है।" आचार्य समन्तभद्रने भी रत्नकरण्डश्रावकाचारमें उच्छिन्नदोषके विश्लेषण द्वारा परमात्माका लक्षण करते हुए इसी बातको दुहराया है। (१) कुछ विद्वानोंका कहना है कि ९ वीं शताब्दीके पूर्व अन्य ग्रन्थोंमें रत्नकरण्डश्रावकाचारके उल्लेख नहीं पाये जाते । इसलिये यह ग्रन्थ समन्तभद्र स्वामीका न होकर किसी अन्य समन्तभद्रका है । (२) एक यह भी दलील दी जाती है कि जब समन्तभद्र स्वामीने 'आप्तेनोच्छिन्न' इत्यादि श्लोक द्वारा आप्तका स्वरूप कह दिया और वहाँ यह भी बतला दिया कि इन बातोंको छोड़ कर अन्य प्रकारसे आप्तपना नहीं प्राप्त होता तो फिर इस दूसरे लक्षणकी क्या आवश्यकता थी, इससे तो 'वदतो व्याघात' दोष आता है। (३) एक यह भी दलील दी जाती है कि समन्तभद्र स्वामीने अन्यत्र आप्तके विषयमें पर्याप्त विचार किया है वहाँ उसे इन क्षुधादि दोषोंसे रहित क्यों नहीं बतलाया ? इससे भी ज्ञात होता है कि आप्त क्षुधादि दोषोंसे रहित होता है यह मान्यता साम्प्रदायिक है और पीछे से गढ़ी गई है। ये तीन दलीलें हैं जिनपर प्रसंगवश संक्षेपमें विचार कर लेना आवश्यक है। प्रथम दलीलका उत्तर (१) सन्मतिके कर्ता सिद्धसेनके द्वात्रिंशतकामें रन्नकरण्डका "आप्तोपज्ञ--" यह श्लोक पाया जाता है, इससे ज्ञात होता है कि सिद्धसेनके सामने रत्नकरण्ड था। ये आचार्य सातवीं शताब्दीके विद्वान् है । (२) सर्वार्थसिद्धिके कर्त्ता पूज्यपादके सामने समन्तभद्र स्वामीके जो ग्रन्थ रहे उनमें रत्नकरण्डश्रावकाचार भी है। यहाँ दो चार ऐसे प्रमाण दिये जाते हैं जिससे इस विषय की पुष्टि हो (३) पूज्यपादने जो नयका सामान्य लक्षण किया है उस लक्षणको करते समय उनके सामने आप्तमीमांसा रही है। (४) तत्त्वार्थसूत्र अध्याय ९ सूत्र १ की सर्वार्थसिद्धि टीकामें जो 'तीर्थाभिषेकदीक्षाशीर्षोपहारदेवताराधनादयः, यह पंक्ति लिखी गई है सो यह पंक्ति लिखते समय स्वामी समन्तभद्रवत युक्तयनुशासनका यह श्लोक सामने अवश्य रहा है 'शीर्षोपहारादिभिरात्मदुःखैर्देवान् किलाराध्य सुखाभिगृद्धाः।' १. देखो कुन्दकुन्द कृत नियमसार । २. देखो रत्नकरण्डश्रावकाचार ६ वाँ श्लोक । ३. देखो सर्वार्थसिद्धि १, ३३ । ४. देखो १०६ श्लोक । Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ इन व ऐसे ही अन्य प्रमाणोंसे स्पष्ट है कि स्वामी समन्तभद्रके ग्रन्थ आ० पूज्यपादके सामने रहे है तब भी उन्होंने उन ग्रन्थोंमेंसे कोई श्लोक उद्धृत नहीं किया है। ठीक यही अवस्था रत्नकरण्डश्रावकाचारकी रही है । यह ग्रन्थ पूज्यपाद स्वामीके समक्ष अवश्य था जिसके कुछ प्रमाण इस प्रकार हैंपूज्यपादने तात्त्वार्थसूत्र अध्याय सात सूत्र १ की व्याख्या लिखते हुए यह वाक्य लिखा है 'व्रतमभिसन्धिकतो नियमः। यह वाक्य रत्नकरण्डश्रावकाचारके इस श्लोकके आधारसे लिखा गया है 'अभिसन्धिकृता विरतिविषयायोग्याव्रतं भवति ।' पूज्यपादने तत्त्वार्थसूत्र अध्याय ७ सूत्र २२ की व्याख्यामें जो अनर्थदण्डोंका स्वरूप लिखा है सो वह स्वरूप लिखते समय उनके सामने रत्नकरण्डश्रावकाचारके अध्याय ३ के ३० से लेकर ३४ तकके श्लोक रहे हैं। इन प्रमाणोंके रहते हुए यह कहना निः सार है कि ९ वीं शताब्दिके पहलेके ग्रन्थोंमें रत्नकरण्डश्रावकाचारके उल्लेख नहीं पाये जाते, अतः इसके कर्ता समन्तभद्र स्वामी नहीं हैं।' हमने जो प्रमाण दिये हैं उनसे स्पष्ट है कि इसके कर्ता समन्तभद्र स्वामी ही हैं। इतना ही नहीं किन्तु यह ग्रन्थ पूज्यपाद और उनके बाद हुए सिद्ध सेनके सामने रहा है । द्वितीय दलीलका उत्तर • आप्तका पहला लक्षण कहते समय उसमें 'उच्छिन्नदोष' यह भी विशेषण है अतः अगले श्लोक द्वारा वे दोष गिना दिये गये हैं और उनसे जो रहित है वह आप्त है यह बतला दिया है । इस प्रकार यह दूसरा लक्षण पहले लक्षणका पूरक ही है। इस दूसरे श्लोक द्वारा कुछ आप्तका अन्य प्रकारसे लक्षण नहीं किया गया है। तीसरी दलीलका उत्तर स्वामी समन्तभद्रने आप्तके स्वरूपका विचार करने के लिये 'आप्तमीमांसा' लिखी है। आप्तका मुख्य अर्थ है अरहन्त देव । इसलिये अरहन्तदेवकी स्तुतिमें अरहन्तके शरीर और आत्मा दोनोंकी स्तुति आ जाती है। रत्नकरण्डश्रावकाचारमें इन दोनों बातोंको ध्यानमें रखकर दोष गिनाये गये हैं और उन दोषोंसे रहित आप्तको बतलाया है। परन्तु आप्तमीमांसामें शरीरकी स्तुति को अरहंतकी स्तुति न मान कर शरीरातिशयों द्वारा यह कह कर कि ये शरीरातिशय' तो रागी देवोंमें भी देखे जाते हैं, आप्तताको अस्वीकार कर दिया है। पर इससे यह बात तो फलित हो ही जाती है कि समन्तभद्र स्वामी की यह दृष्टि रही है कि आप्तके शरीरमें विशिष्ट अतिशय होते हैं । 'भीतरी और बाहिरी ये शरीरादिकके अतिशय दिव्य हैं और सही हैं उनके इस कथनसे क्या इसकी पुष्टि नहीं हो जाती अर्थात् अवश्य हो जाती है। समन्तभद्र क्षुधादि दोषोंसे रहित आप्त को अवश्य मानते हैं यही इसका भाव है। इस कथनसे स्पष्ट हो जाता है कि अन्यत्र जहाँ भी समन्तभद्र स्वामीने आप्तकी मीमांसाकी है वहाँ आप्तको क्षुधादि दोषोंसे रहित सर्व प्रथम स्वीकार कर लिया है और उसके बाद ही उन्होंने आप्तके आत्मिक गुणोंका विश्लेषण किया है। आप्तमीमांसाके १ से लेकर ६ श्लोक देखने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि उन इलोकोंके व रत्नकरण्डश्रावकाचारमें वर्णित आप्तके स्वरूपके प्रतिपादक श्लोकोंके रचयिता एक ही व्यक्ति है । रत्नकरण्डश्रावकाचार आचार ग्रन्थ होनेसे उसमें वर्णनात्मक दृष्टि रही है और आप्तमीमांसा दर्शन ग्रन्थ होनेसे उसमें विश्लेषणात्मक दृष्टि रही है । १. देखो आप्तमीमांसा श्लोक २। Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : २८७ अब इस तीसरी दलोलके अन्तर्गत दो बातोंका और विचार करना है। पहली यह कि यह मान्यता साम्प्रदायिक है और दूसरी यह कि यह मान्यता पीछेसे गढ़ी गई है । सो जब आचार्य कुन्दकुन्द और समन्तभद्र जैसे प्राचीन आचार्योने आप्तको क्षुधादि दोषोंसे रहित माना है तब यह तो कहा नहीं जा सकता कि यह मान्यता पीछेसे गढ़ी गई है। अब रही साम्प्रदायिक दष्टिकी बात सो हम इसका आगे ही विचार करने वाले हैं, कि क्या इसके पीछे कोई आध्यात्मिक पृष्ठभूमि है या सम्प्रदाय विशेषने ही इसे खड़ा कर दिया है। इस प्रकार तीनों दलीलोंका संक्षेपमें उत्तर हुआ। अब प्रतिज्ञानुसार केवली क्षुधादि दोषोंसे रहित होते हैं इसकी आध्यात्मिक पृष्ठभूमि क्या है उसका विचार करते हैं। जीवकाण्डमें बतलाया है कि पृथ्वी', जल, अग्नि, वायु, केवली, आहारक, देव और नारकी इनके शरीरमें निगोदिया जीव नहीं रहते । इनका शरीर निगोदियोंसे अप्रतिष्ठित है। केवली जिनका शरीर निगोद जीवोंसे रहित है इसकी पुष्टि षट्खण्डागमके मूल सूत्रोंसे भी हं.ती है। वहाँ बतलाया है कि बारहवें गुणस्थानमें सब निगोद जीवोंका अभाव हो जाता है। अभाव होनेका क्रम यह है कि 'क्षीणमोह गुणस्थानके पहले समयमें भी निगोदिया जीव मरते हैं, दुसरे समयमें भी मरते हैं, तीसरे समयमें भी । इस प्रकार क्षोणमोहके अन्तिम समय तक निरन्तर मरते रहते हैं। पहले समयमें मरने वाले अनन्त जीव है, दुसरे समयमें भी मरनेवाले अनन्त जीव है। क्षीणमोहके अन्तिम समय तक यही क्रम जानना चाहिये' । यथा _ 'अत्थि खीणकसायपढमसमए मदजीवा। विदियसमए मदजीवा वि अत्थि। तदियसमए मरंतजीवा वि अत्थि एवं णेयव्वं जाव खीणकसायचरिमसमओ त्ति । खीणकसायपढमसमए मदजीवा केत्तिया ? अणंता । विदियसमए मदजीवा केत्तिया ? अणंता। एवं णेयव्वं जाव खीणकसायचरिमसमओ त्ति ।' यहाँ निगोद जीवोंका प्रकरण होनेसे केवल उनका ही निषेध किया है। फलितार्थ यह है कि केवली जिनका शरीर त्रस और स्थावर सब प्रकारके जीवोंसे रहित है। इसका यह अभिप्राय है कि केवली जिनके शरीर में केवल वे ही तत्त्व रहते हैं जिनमें जीव पैदा नहीं होते । वे सब तत्त्व नष्ट हो जाते हैं जिनमें त्रस और स्थावर जीव पैदा होते रहते हैं । आहार पानीका लेना और उनसे मल, मूत्र, कफ, पित्त आदिका बनना ये ऐसे तत्त्व है जिनमें निरन्तर बस और स्थावर जीव पैदा होते रहते हैं । इसलिये केवली जिनके शरीरमें निगोदिया जीव नहीं होते इस मान्यता द्वारा पर्यायान्तरसे केवलीके भूख, प्यास और मल-मत्र आदि दोषोंका ही निषेष किया है। हम संसारी जीवोंके शरीरमें त्रस और निगोदिया जीव भरे पड़े हैं। वे निरन्तर शरीरका शोषण कर रहे हैं, जिससे शरीर में उष्णता पैदा होकर आहार पानीकी आवश्यकता पड़ती है। पर केवलीके शरीरमें इस प्रकारकी उष्णताका कारण नहीं रहा । उना शरीरका शोषण अब अन्य त्रस व निगोदिया जीवोंके कारण नहीं होता, अतः शरीरमें आन्तर उष्णता पैदा होकर उनके शरीरका अपक्षय नहीं होता। और इसलिये प्रति समय उनके शरीरके जितने परमाणु निर्जीर्ण होते हैं उतना नवीन परमाणुओंका ग्रहण हो जानेसे कवलाहारके बिना भी उनके शरीरकी स्थिति बनी रहती है । जिस प्रकार कर्म वर्गणाओंके आने और जानेसे १. देखो जीवकाण्ड गाथा २०० । Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ कार्मण शरीरकी स्थिति होती है उसी प्रकार अब उनके नोकर्म वर्गणाओंके आने और जानेसे शरीरकी स्थिति होती है । इस प्रकार आध्यात्मिक पृष्ठभूमिसे विचार करने पर भी यही ज्ञात होता है कि केवली जिन क्षुधादि दोषोंसे रहित हैं इसलिये वे कवलाहार नहीं लेते । यहाँ एक शंका की जातो है कि जब केवलीके क्षुधादि दोष नहीं होते तो तत्त्वार्थसूत्रमें उनके क्षुधादि ग्यारह परीषह क्यों बतलाई गई हैं ? बात यह है कि केवलीके वेदनीयका उदय माना जाता है, इसलिये कारणमें कार्यका उपचार करके केवलीके ग्यारह परीषह बतलाई हैं। अब प्रश्न यह होता है कि क्या अन्यत्र भी तत्त्वार्थसूत्रकारने उपचारसे कथन किया है ? तत्त्वार्थसूत्रकारने एकाग्रचिन्ता निरोधको ध्यान कहा है । ध्यानका यह लक्षण शुक्ल ध्यानके पहले दो भेदोंमें घटता है, अन्तिम दो भेदों में नहीं, क्योंकि तेरहवें और चौदहवें गुणस्थानमें चिन्ता ही नहीं रहती फिर निरोध किसका । तब भी ध्यानका कार्य कर्मक्षय देख कर तत्त्वार्थसूत्रकारने जिस प्रकार तेरहवें और चौदहवें गुणस्थानमें ध्यानका उपचारसे कथन किया है उसी प्रकार केवलीके ग्यारह. परीषहोंका कथन भी उपचारसे जानना चाहिये। एक बात और है वह यह कि जो भाई सर्वथा यह समझते हैं कि असाताके उदयसे भूख प्यास लगती है उनका ऐसा समझना गलत है । भूख व प्यास अपने कारणोंसे उत्पन्न होती है। हाँ भूख व प्यासमें असाता वेदनीयकी उदीरणा निमित्त हो सकती है, पर उनके असाता-वेदनीयकी उदीरणा नहीं होती क्योंकि उसकी उदीरणाकी व्युच्छित्ति ६वें गुणस्थानके अन्तिम समयमें हो जाती है। इसलिये उनको भूख प्यासकी बाधा नहीं होती। हम संसारी जीवोंकी शरीर स्थिति भिन्न प्रकारकी है और केवली जिनके भिन्न प्रकारकी, अतः यही निष्कर्ष निकलता है कि उन्हें हम संसारी जनोंके समान कवलाहारकी आवश्यकता नहीं पड़ती। Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्कारक-व्यवस्था आचार्यकल्प पं० टोडरमल जी निश्चय षट्कारकके सम्बन्ध में स्पष्ट करते हुए लिखते हैं कि षट्कारकका परिणमना प्रत्येक वस्तुका अपना स्वभाव है। यथा स्वाश्रित स्वरूप षट्कारक विचारी ऐसे । निश्चयकरि आनको विधान न बखानिए ॥ 1 लोकमें जीवादि जितने भी द्रव्य हैं उनमेंसे प्रत्येक द्रव्य में कर्ता कर्म आदि छह कारक रूप शक्तियाँ होती ही हैं। उनसे जीवादि द्रव्योंका अभेद स्वीकार करके उन द्वारा कार्य द्रव्यको स्वीकार करना स्वाश्रित कथन है । प्रत्येक द्रव्य प्रति समय ऐसा ही है । इसलिए प्रकृतमें इसे स्वीकार करने वाला विकल्प और वचन निश्चयनय कहलाता है। निश्चयनय वस्तुके स्वरूपको स्वीकार करता है और उसमें पर रूपका निषेध करता है। इसलिए उस द्वारा परसापेक्ष कथनका निषेध होना स्वाभाविक है क्योंकि जिस प्रकार निश्चय कथनका विषय वस्तुस्वरूप होनेसे यथार्थ संज्ञाको धारण करता है, उस प्रकार परसापेक्ष कथनका विषय वस्तु स्वरूप न होनेसे; अतएव उपचरित होनेसे यथार्थ संज्ञाको नहीं धारण कर सकता। यही कारण है कि पंडितजी ने इस तथ्यको ध्यान में रखकर 'निश्चय करि आनकी विधान न बसानिए यह वचन कहा है। 'जैन दर्शन में कार्य कारण भाव और कारक व्यवस्था' में लेखकका कथन है— इसका यह तात्पर्य है। कि कार्योत्पत्ति में निमित्त कारण अकिंचित्कर होकर व्यवहारनयका विषय नहीं होता है, किन्तु स्वयं (आप) कार्य रूप परिणत न होकर उपादानका सहायक होनेके आधार पर व्यवहारनयका विषय होता है ।' यहाँ पर इसके पूर्व निश्चयनय और व्यवहारनयके कतिपय भेदोंका निर्देश करके व्यवहारनयका एक लक्षण यह भी लिखा है ( पृ० ११४ ) - ' और वस्तुकी परतः सिद्धि या पराश्रित स्थिति ग्रहण करनेवाला व्यवहारमय होता है।' निश्चय ही इस लक्षणको लिखते समय लेखककी दृष्टि असद्भूत व्यवहारनय पर रही होगी । इस लिए आगम प्रसिद्ध असद्भूत व्यवहारनयके लक्षणका निर्देश कर उक्त लक्षणकी समीक्षा करनी होगी । ' आलाप पद्धति में असद्भूत व्यवहारनयका यह लक्षण उपलब्ध होता है अन्यत्र प्रसिद्धस्य धर्मस्य अन्यत्र समारोपणम- सद्भूतव्यवहारः । असद्भूतव्यवहार एवं उपचारः । अन्य वस्तु प्रसिद्ध धर्मका अन्य वस्तुमें समारोप करना असद्भुत व्यवहार है और असद्द्भूत व्यव हारका नाम ही उपचार है । इसका यह अर्थ है कि जब विवक्षित किसी एक वस्तुके धर्मका अविनाभाव या बाह्य व्याप्तिवश अन्वयव्यतिरेकको सूचित करने वालो काल प्रत्यासत्तिको लक्ष्यमें रखकर दूसरी वस्तुमें समारोप कर उस द्वारा विवक्षित वस्तुकी प्रसिद्धि की जाती है, तब वह असद्भूत व्यवहारनयका विषय होता है । यया कुम्भकार घटकार्यका कर्त्ता निमित्त है यह कहना और ऐसा ही विकल्प असद्भुत व्यवहारनयका विषय है । ३७ Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९० : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ यहाँ कुम्भकार स्वतन्त्र वस्तु है और मिट्टी स्वतन्त्र वस्तु है। दोनों ही अपनी-अपनी षट्कारक रूप शक्तियोंसे युक्त हैं । इसलिए बाह्य व्याप्तिवश मिट्टीके कर्तृत्व धर्मका कुम्भकारके कर्तत्व धर्ममें समारोप कर यह वचन कहा गया है कि कुम्भकारने घटकार्यको किया। यहाँ कुम्भकारका वास्तविक कार्य योग और विकल्प है तथा मिट्टी का वास्तविक कार्य घटपरिणाम है। यह वस्तुस्थिति है। किन्तु इस वस्तुस्थितिको गौण कर व्यवहारी जन बाह्य व्याप्तिवश ऐसा विकल्प करते है कि 'कुम्भकारने घट बनाया' जो असद्भूत होनेसे उपचरित ही है । पराश्रित कथन इसीका दूसरा नाम है । कोई भी वस्तु स्वरूपसे पराश्रित नहीं हआ करती, अन्यथा किसी भी वस्तुको स्वरूपसे उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक नहीं सिद्ध किया जा सकता । जैसे वस्तुका ध्रुवपना स्वरूप है, वैसे ही उसका उत्पाद और व्यय भी स्वरूप है । इसलिए कौन वस्तु कब क्या है ? इसकी सिद्धिका बाह्य-व्याप्ति या कालप्रत्यासत्तिवश जब जो हेतु बनता है तब उसमें विवक्षित अन्य वस्तुके कर्तृत्व आदि धर्मोंका आरोप कर वैसा व्यवहार किया जाता है। यहाँ उक्त प्रकारके व्यवहार करनेका अन्य कोई प्रयोजन नहीं हैं। ___इस प्रकार इतने विवेचनसे यह स्पष्ट हो जाता है कि लेखकने व्यवहारनय सामान्य शब्द रख कर अपने विकल्पके अनुसार असद्भूतव्यवहारनयका जो पूर्वोक्त लक्षण कल्पित किया है, वह आगमबाधित हैं । युक्ति और अनुभवसे विचार करने पर भी उसमें बाधा आती है। खुलासा पहले कर ही आए हैं । यद्यपि व्यवहार नयसे वस्तुको पराश्रित कहा जाता है। किन्तु व्यवहारनयका लक्षण क्या है ? जिसे ध्यानमें रख कर वस्तुको पराश्रित कहा जाता है। इसको ध्यानमें न लेकर पहले उन्होंने प्रत्येक वस्तुकी पराश्रित स्थितिको यथार्थमें स्वीकार किया और फिर उसे ग्रहण करने वाले नयको व्यवहारनय कहा। यही उनकी विपरीत मान्यता है । असद्भूत व्यवहारनयका कहाँ आगम सम्मत लक्षण और कहाँ व्याकरणाचार्य द्वारा कल्पित लक्षण इन दोनोंमें कितना अन्तर है ? इस पर आगमाभ्यासियोंको ध्यान देना चाहिए । इस प्रकार आगम प्रसिद्ध व्यवहारनयके लक्षणको साक्षी रख कर विचार करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि पर वस्तु अन्य वस्तुके कार्यमें वास्तविक रूपसे सहायक नहीं हुआ करती, किन्तु बाह्य व्याप्तिवश उसमें अन्यके कार्यमें सहायक होने का व्यवहार किया जाता है । इस लिए वह अपनेसे भिन्न अन्य वस्तुका कार्य करनेमें स्वरूपसे असमर्थ होनेके कारण उस अन्य वस्तके कार्यके प्रति अकिंचित्कर ही होती है । क्योंकि जिस समय मिट्टी अपने क्षेत्रमें अपनी परिणाम शक्ति द्वारा घट परिणाम को करती है, उसी समय कुम्भकार उससे बाह्य अपने क्षेत्रमें योग और विकल्पको करता है। इस प्रकार इन दोनों में प्रतिविशिष्ट कालप्रत्यसत्ति होनेसे मिट्टीने घट कार्यको किया, इस निश्चयको प्रसिद्धिका हेतु हो, तभी कुम्भकारमें घटके कर्तापनेका व्यवहार करना बनता है। दूसरी वस्तुके कार्य में यथार्थ सहायक होनेसे नहीं । वास्तवमें कोई भी अन्य वस्तु अपने से भिन्न दूसरी वस्तुके कार्य में सहायता नहीं करती, यह परमार्थ सत्य हैं। इस परमार्थ सत्यका अपलाप न हो, इस दृष्टिको सामने रख कर ही व्यवहार नयके वक्तव्यकी स्थिति स्पष्टकी जानी चाहिए। इससे भिन्न अन्य प्रकारसे जितना भी लिखा जाता है, उसकी असत्यकी कोटिमें ही परिगणना होती है। यह निश्चय षट्कारकका संक्षिप्त विवरण है। व्यवहार षट्कारकका स्वरूप निर्देश करते हुए पंडितजीने व्यवहारसे जिनदेव, गणधरदेव, नेमिचन्द सिद्धान्तचक्रवर्ती आदिको गोम्मटसार ग्रन्थका कर्ता कहा है । जो ग्रन्थरूप कार्य हुआ उसे कर्म कहा है। इस कार्य के होने में जो सहायक हुए उन्हें करण कहा है। भव्योंके लिए इसकी रचना हुई, अतः उसे सम्प्रदान कहा है। अन्य कार्यसे निवृत हो इसकी रचनाकी, अतः इन दोनोंका आधार एक होनेसे उसे अपादान कहा है और जिस स्थान पर इसकी रचना हुई, उसे अधिकरण कहा है । यह व्यवहार षट्कारक व्यवस्था है। Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : २९१ यहाँ इसे व्यवहार षटकारक इसलिए कहा गया है कि वस्तुत. स्वयंसिद्ध श्रुत ही आप कर्ता होकर परिणाम शक्ति युक्त अपने द्वारा जिन शासन रूप प्रयोजनके लिए अपने अन्य कार्यसे निवृत होकर अपनेमें गोम्मटसार रूप कर्मको जब प्राप्त हुआ, तब प्रतिविशिष्ट कालप्रत्यासत्तिवश अन्य जिस-जिसमें जिस रूपसे व्यवहार हेतुता कल्पितकी गई, उस-उसमें कर्ता, कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादान और अधिकरण रूपसे स्वीकार की गई है। इस प्रकार एक कालमें निश्चय षटकारकके साथ व्यवहार षटकारककी व्यवस्था बन जानेसे स्वामी समन्तभद्रने यह वचन कहा है बाह्य तरोपाधिसमग्रतेयम् । कार्येषु ते द्रव्यगतः स्वभावः ।। 'अर्थात् लोकमें जितने भी कार्य होते हैं, उन सबमें बाह्य और अभ्यन्तर उपाधिकी समग्रता पाई जाती है । यह द्रव्यगत स्वभाव है। यहाँ उपादान कारण और बाह्य निमित्त दोनोंको उपाधि कहा गया है। साथ ही यह भी बतलाया है कि यह द्रव्यगत स्वभाव है कि प्रत्येक द्रव्यका जब जो कार्य होता है, उसमें बाह्य और अभ्यन्तर उपाधिकी समग्रता नियमसे पाई जाती है। इस प्रकार प्रत्येक कार्य और उसकी बाह्य-अभ्यन्तर सामग्री इन तीनोंकी युगपत् प्राप्ति प्रत्येक समयमें होती रहती है; ऐसी वस्तु व्यवस्था है। इसमेंसे किसी एककी प्राप्ति हो और दूसरेकी न हो, ऐसा नहीं है। क्योंकि इनमें परस्पर अविनाभाव स्वीकार किया गया है। उसमें भी उपादानउपादेयभावके विषयमें क्रमभावी अविनाभावका निर्देश करते हुए स्वामीकार्तिकेयानुप्रेक्षामें यह वचन दृष्टिगोचर होता है कारण-कज्जविसेसा तीसु वि कालेसु होंति वत्थूणं । एक्केक्कम्मि य समये पुव्वुत्तरभावमासिज्ज ॥२२३।। वस्तुके पूर्व और उत्तर परिणामको लेकर तीनों ही कालोंमेंसे प्रत्येक समयमें कारण-कार्य भाव होता है। यहाँ उपादान-उपादेय रूपसे कारण कार्यभावका निर्देश किया गया है। इसी तथ्यका निर्देश करते हुए 'प्रमेयरत्नमाला' में यह वचन आया है “अव्यवहितपूर्वोत्तरक्षणयोः हेतु-फलभावदर्शनात् ।" अव्यवहित पूर्व और उत्तर क्षणमें क्रमसे हेतुभाव और फलभाव देखा जाता है । अब प्रश्न यह है कि जब पूर्व क्षणका ध्वंस (व्यय) होकर ही उत्तर क्षणकी उत्पत्ति होती है, तो उन दोनोंमें कारण-कार्यपना क्यों स्वीकार किया गया है । क्योंकि जब पूर्व क्षणका सद्भाव है, तब उत्तर क्षण नहीं पाया जाता और जब उत्तर क्षण पाया जाता है तब पूर्व क्षणका अभाव रहता है। ऐसी अवस्थामें पूर्वक्षणने उत्तरक्षणको उत्पन्न किया, ऐसा कैसे कहा जा सकता है ? इसका समाधान यह है कि पूर्व क्षण और उत्तर क्षण इन दोनोंमें अविनाभाव सम्बन्ध वश परस्पर कारण-कार्यभाव स्वीकार किया गया है। और इसी आधारपर उपादान कारणको अपने उपादेय (कार्य) का नियामक स्वीकार किया गया है। इतना अवश्य है कि नैगमनयसे उपादान और उप देयमें कालकी अपेक्षा अभेद स्वीकार कर उपादानको उपादेयका जनक कहा गया है। ऋजुसूत्रनयसे विचार करनेपर प्रत्येक कार्य Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९२ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ अपने कालमें स्वयं होता है, ऐसी वस्तु व्यवस्था है । यही कारण है कि कारण और कार्यका लक्षण करते समय आचार्योंने यह वचन कहा है यदनन्तरं यद्भवति तत् तस्य कारणम्, इतरत् कार्यम् । जो जिसके बाद होता है वह कारण है और जो होता है वह कार्य है । कारण-कार्यका यह लक्षण जहाँ द्रव्य भावप्रत्यासत्ति वश उपादान- उपादेयमें घटित हो जाता है, वहाँ प्रतिविशिष्ट काल प्रत्यासत्तिवश बाह्य सामग्री और उसको निमित्त कर होने वाले कार्य में भी घटित हो जाता है । सर्वत्र प्रत्येक कार्यके प्रति जो व्यवहार हेतुको स्वीकार किया गया है, वह भी इसी आधारपर ही स्वीकार किया गया है । वह अन्य के कार्य में वास्तव में सहायक होता है या उसमें अतिशय उत्पन्न करता है, इस आधारपर नहीं । आगे इस विषयका विशेष रूपसे स्पष्टीकरण करेंगे । शंका--चारों अनुयोग द्वादशांग श्रुतके आधारपर निबद्ध हुए हैं । ऐसी अवस्था में आप द्रव्यानुयोग द्वारा प्ररूपित निश्चयनयके विषयको ही यथार्थ क्यों मानते हो ? चरणानुयोग और कारणानुयोग जो कि मुख्य रूप से कर्म और शुभाचारका कथन करते हैं, उनके इस कथनको यथार्थ क्यों नहीं मानते ? समाधान-ज्ञानावरणादि कर्म है और शुभाचार भी है, वे दोनों वास्तविक हैं, वे असद्भूत नहीं हैं । किन्तु ज्ञानावरणादिको जीवका कार्य कहना यह असद्भूत है । क्योंकि जीव शुभ अशुभ या शुद्ध जिस परिणामको करता है वह जीवका कर्म ( कार्य ) है और जीवके उन शुभ और अशुभ भावोंको निमित्त कर जो कार्मणवर्गणाएँ स्वयं ज्ञानावरणादि परिणामको प्राप्त होती हैं, वह पुद्गलका कर्म ( कार्य ) है । इसी तथ्यको समयसार कलशमें इन शब्दोंमें स्पष्ट किया है यदि पुद्गल कर्मको जीव नहीं करता, तो फिर उसे कौन करता है ? ऐसी आशंका होनेपर तीव्र वेग - वाले मोहका नाश करनेके लिए आचार्य कहते हैं कि सुनो ! पुद्गल ही अपने ज्ञानावरणादि कर्मका कर्ता है । यह वस्तुस्थिति है । कर्मशास्त्र भी ज्ञानावरणादिको पुद्गलमय ही प्ररूपित करता हैं । फिर भी उसे जीवका कार्य कहना यह असद्भूत होनेसे उपचरित है । इसी प्रकार शुभ या अशुभ जितने भी भाव होते हैं, वे जीवके ही भाव हैं । जीव ही परके लक्ष्यसे स्वयं ही उन्हें उत्पन्न करता है । यह कथन सद्भूत । फिर भी शुभाचारको मोक्षमार्ग कहना यह असद्भूत होनेसे उपचरित है, क्योंकि शुभाचा रसे सम्यग्दर्शनादिरूप स्वभाव पर्याय भिन्न है और उसकी उत्पत्ति भी स्वभावकी अराधना द्वारा तन्मय होनेपर ही होती है, शुभाचार और उनके बाह्य निमित्तोंको सतत लक्ष्य में रखनेसे नहीं । शंका- निश्चयनयके समान व्यवहार नयकी परिगणना श्रुतज्ञान में की जाती है । इसलिए उसका विषय असद्भूत कैसे हो सकता है ? समाधान - वह उपचरितको उपचरित रूपमें ही जानता है, इसलिए असद्भूत अर्थ उसका विषय बन जाता है । उदाहरणार्थ- 'ज्ञानावरणादि कर्मका कर्ता जीव है' यह उपचरित कथन है, व्यवहारनयसे ऐसा कहा जाता है । बाधा तो इसे यथार्थ माननेमें है । क्योंकि परमार्थसे वह जीवका कार्य न होकर पुद्गलका ही कार्य है और इसीलिए निश्चयनय इस कथनका अपरमार्थरूप होनेसे उसका निषेध ही करता है । शंका - जीवके राग, द्वेष, मोह और योगकी सहायतासे पुद्गलने ज्ञानावरणादिरूप कार्य किया, ऐसा मानना तो यथार्थ है ? Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : २९३ समाधान--सहायता और सहयोग ये पर्यायवाची नाम है । इसका इतना ही अर्थ है कि प्रत्येक कार्यमें बाह्य और आभ्यन्तर सामग्रीकी समग्रता नियमसे होती है। इससे अधिक इस शब्दका जो भी अर्थ किया जाता है वह केवल कल्पनाका विषय है, यथार्थ नहीं । समयसार गाथा ८४ की आत्मख्याति टीकामें कुम्भकारको कुम्भकी उत्पत्तिके अनुकूल व्यापार करने वाला तब कहा गया है जब मिट्टी और कुम्भकारमें बाहरसे व्याप्य-व्यापक भाव स्वीकार कर लिया गया है । अर्थात् नैगमनयसे इन दोनोंको एक मान लिया गया है । परमार्थसे विचार करनेपर मिट्टी और कुम्भकार इन दोनोंके स्वचतुष्टय भिन्न-भिन्न हैं। दोनों ही द्रव्य अपनीअपनी क्रिया करते हैं. एक दूसरेकी क्रिया करते नहीं। केवल उन दोनोंकी उक्त प्रकारकी क्रियाएँ एक कालमें होनेका नियम है और इसीलिए कुम्भकार के व्यापारको कुम्भकी उत्पत्तिके अनुकूल व्यवहारसे कहा जाता है । परमार्थसे न तो एक द्रव्य किसीके अनुकूल होता है और न प्रतिकूल ही। किसीको किसीके अनुकूल या प्रतिकूल मानना यह विकल्पका विषय है और इसीलिए अन्य अपेक्षा किये बिना प्रत्येक द्रव्य स्वभावसे ही अपना कार्य करता है, इसे परमार्थरूपमें स्वीकार किया गया है। ___ शंका-स्वयंभूस्तोत्र में, अध्यात्ममें रमण करने वाले जीवोंके जीवनमें जिस बाह्य वस्तुमें निमित्त व्यवहार होता है वह गौण है, यह भगवानका शासन है, ऐसा कथन करनेके बाद फिर यह कहा गया है कि सभी कार्यों में बाह्य और आभ्यन्तर उपाधिकी समग्रता होती है सो उक्त दोनों प्रकारके कथनोंका क्या आशय है ? समाधान-उक्त कथनोंका यह आशय है कि मोक्षमार्गी जीवको मोक्षमार्गकी प्राप्ति स्वभावके सन्मुख रहनेपर ही होती है । क्योंकि वस्तुतः परभावका ग्रहण-त्याग तो होता नहीं, फिर भी, लौकिक जनोंके इष्टानिष्ट या हिताहित बुद्धिसे जो परभावके ग्रहण त्यागका विकल्प होता है उससे विरत होनेपर ही मोक्षमार्ग पर चलनेके अभिप्राय वालेके स्वभाव सन्मुख होना बनता है, अन्यथा नहीं । इसलिए अध्यात्मदृष्टिमें, जिस वस्तुमें निमित्त व्यवहार होता है, वह गौण है, यह कथन किया गया है। परन्तु इसका यदि कोई यह अर्थ फलित करता है कि वहाँ बाह्य और आभ्यन्तर उपाधिकी समग्रता नहीं होती, सो उसकी वह मान्यता जिनागमके विरुद्ध है। यह वस्तु-स्थिति है । इसीको ध्यानमें रखकर 'स्वयंभूस्तोत्र' में उसके आगे दुसरा वचन कहा गया है, ऐसा यहाँ समझना चाहिए । आशय यह है कि लोकमें जितने भी कार्य होते है, उन सबमें बाह्य और आभ्यान्तर उपाधिकी समग्रता तो नियमसे होती है पर अध्यात्म वृत्त बाह्य उपाधिका आश्रय न करके मात्र अपने स्वभावका ही आश्रय करता है। उसके जो सम्यग्दर्शनादि स्वभाव पर्यायकी उत्पत्ति होती है वह मात्र इस सुनिश्चित मार्गपर चलनेसे ही होती है। स्वभाव पर्यायकी उत्पत्ति इससे भिन्न दूसरे मार्गपर चलनमे होती होगी, ऐसा त्रिकालमें सम्भव नहीं है । Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वभाव - परभाव- विचार जैनशासन में प्रत्येक द्रव्यको अर्थक्रियाकारी स्वीकार किया गया है । उन सब द्रव्योंमें पूर्वाकारका परि हार, उत्तराकारकी प्राप्ति तथा इन दोनों अवस्थाओं में स्थिति लक्षणवाले परिणामोंके द्वारा अर्थ-क्रिया सम्पन्न होती है। इसी तथ्यको ध्यान में रखकर सब द्रव्योंको गुण पर्याय स्वभाव वाला स्वीकार किया गया है। गुण सहभावी होते हैं और पर्याय क्रमभावी ऐसी वस्तु व्यवस्था है। अमृतचन्द्र देव ने समयसारकी आत्मस्याति टीकामें पर्यायोंको जो क्रम नियमित कहा है वह इसी आधारपर कहा है । पर्याय निरपेक्ष होती है । 7 यहाँ प्रकृतमें पर्यायोंके आधारसे विचार करना है । लोकमें समुच्चय रूपसे छह द्रव्य स्वीकार किये गये हैं । उनमें से धर्म अधर्म, आकाश और काल ये चार द्रव्य निष्क्रिय हैं अर्थात् क्षेत्रके क्षेत्रान्तरित न होते हुए भी प्रदेशपरिस्पन्दरूप क्रियासे रहित हैं। उनमें मात्र परिणाम लक्षण क्रिया होती है तथा जीवों और पुद्गलोंमें यथासम्भव दोनों प्रकारकी क्रिया पाई जाती है। अब देखना यह है कि इन द्रव्योंकी यह क्रिया स्वयं होती है या दूसरे द्रव्योंकी सहायतासे होती है । यह प्रश्न बहुत गम्भीर है इसका विचार नयदृष्टिसे करना होगा। यह प्रमाण ज्ञानका विषय नहीं है। नय दो प्रकारके हैं इव्यार्थिकनय और पर्यायायिकनय पर्यायार्थिकनय के भेदों में मुख्य ऋजुसूत्र नय है, शेष तीन शब्दनव इसीके विषयको शब्द प्रयोगकी मुख्यतासे विषय करते हैं। ऋजुसूत्रका विषय वर्तमान पर्याय मात्र है। वह किसी भी प्रकारके दो सम्बन्धको स्वीकार नहीं करता। इसलिए इस नवकी दृष्टिसे विचार करनेपर यह स्पष्ट हो जाता है कि प्रत्येक उत्पाद स्वयं होता है और विनाश भी स्वयं होता है। अन्य किसी कारणसे उत्पाद और व्यय नहीं होते । इसी तथ्यको स्पष्ट करते हुए जयधवला (पुस्तक १ पृष्ठ २०८) में कहा गया है उत्पाद रूप पर्याय भी निर्हेतुक होती है तथा जो उत्पन्न हो रहा है, वह तो उत्पन्न करता नहीं है । क्योंकि इसे स्वीकार करनेपर उत्तर क्षण में तीनों लोकोंके अभावका प्रसंग प्राप्त होता है जो उत्पन्न हो चुका है वह उत्पन्न करता है, यह भी नहीं है। क्योंकि इसे स्वीकार करनेपर क्षणिक पक्ष नहीं बन सकता । जो विनष्ट हो गया है, वह उत्पन्न करता है यह भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि अभावले भावकी उत्पत्ति माननेमें विरोध आता है । तथा पूर्वका विनाश और उत्तरका उत्पाद इन दोनोंमें कार्यकारण भावका समर्थन करने वाली समानकालता भी नहीं बनती। अतीत पदार्थके अभावसे उत्पाद होता है, यह कहना तो बनता नहीं, क्योंकि भाव और अभावमें कार्य कारण भावका विरोध है। अतीत पदार्थके सद्भावसे उत्पाद होता है, यह कहना भी नहीं बनता। क्योंकि इसे स्वीकार करने पर अतीत पदार्थके कालमें ही नवीन पदार्थकी उत्पत्तिका प्रसंग प्राप्त होता है। दूसरे चूँकि पूर्व क्षणकी सत्ता अपनी सन्तानमें होनेवाले उत्तर अर्थक्षणकी विरोधिनी है, इसलिए वह उसकी उत्पादक नहीं हो सकती क्योंकि विरुद्ध दो सत्ताओंमें उत्पाद्य उत्पादक भावके स्वीकार करनेमें विरोध आता है। अतएव ऋजुसूत्रनयकी अपेक्षा उत्पाद निर्हेतुक होता है, ऐसा स्वीकार करना चाहिए। शंका - अष्टसहस्री (पृष्ठ १०० ) में तो प्रागभावका निर्देश करते हुए पूर्व, अनन्तर क्षण स्वरूप जो कार्यका उपादान परिणाम है, वह ऋजुणनयकी अपेक्षा प्रागभाव है, ऐसा कहा है। सो उक्त कथनका विचार करते हुए यह कथन कैसे घटित होता है ? समाधान — ऋजुसूत्रनय वर्तमान क्षणको या तो कारणरूपसे स्वीकार करता है, पर पूर्व और उत्तर दो क्षणोंमें सम्बन्धको स्वीकार कथनसे उक्त कथनमें कोई विरोध नहीं आता । - स्वीकार करता है या कार्यरूपसे नहीं करता । इसलिए 'जयघवला' के Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : २९५ यहाँ जिस प्रकार उत्पादको निर्हेतूक सिद्ध किया गया है, उसी प्रकार व्ययको भी निर्हेतुक ही जानना चाहिए । इसका स्पष्टीकरण करते हए वहीं (प० २०:-२०७) पर यह बतलाया है कि ऋजसत्रनयकी अपेक्षा विनाश भी निर्हेतुक होता है। यथा-यहाँ विनाशसे प्रसज्यरूप (सर्वथा अभाव) अभाव लिया गया है या पयुदासरूप (एक वस्तुके अभावमें दूसरी वस्तुका सद्भाव) । प्रसज्य रूप अभाव तो परसे उत्पन्न होता नहीं, क्योंकि कारकके प्रतिषेधमें व्यापार करने वाले परसे घटका अभाव मानने में विरोध आता है। पर्युदास अभाव रूप भी विनाश नहीं बनता, क्योंकि वह घटसे भिन्न उत्पन्न होता है या अभिन्न भिन्न उत्पन्न होना तो बनता नहीं, क्योंकि पयुदासरूप अभावसे भिन्न घटकी उत्पत्ति मानने पर विवक्षित घटका विनाश मानने में विरोध आता है । घट कार्यसे अभिन्न उत्पन्न होता है, यह कहना भी नहीं बनता। क्योंकि उत्पन्नकी उत्पत्ति मानने में विरोध आता है । इसलिए ऋजुसूत्रनयकी अपेक्षा विनाश भी निर्हेतुक होता है यह सिद्ध हुआ। अन्य नयोंकी दृष्टिमें इस प्रकार जबकि ऋजसत्र दोके सम्बन्धको स्वीकार ही नहीं करता। उसकी अपेक्षा बन्ध्य-बन्धकभाव, बध्य-घातकभाव, दाह्य-दाहकभाव, विशेषण-विशेष्यभाव, ग्राह्य-ग्राहकभाव और वाच्य-वाचकभाव आदि कुछ नहीं बनते, तो कार्य-कारणभाव कैसे बन सकता है ? अर्थात् नहीं बन सकता। ___ अब रह गए नैगम, संग्रह और व्यवहारनय । सो इन नयोंमेंसे संग्रहनय तो किसी एक धर्मकी मुख्यतासे अशेष पदार्थोंका संग्रह करता है। सत् सामान्यकी अपेक्षा संग्रह करना इष्ट हुआ, तो वह सदूपसे स्वीकार करेगा। द्रवणगुणकी अपेक्षा संग्रह करना इष्ट हुआ, तो सबको द्रव्य रूपसे स्वीकार करेगा। इसी प्रकार कारणत्वको अपेक्षा संग्रह करना इष्ट हुआ, तो वह सबको कारण रूपसे स्वीकार करेगा और कार्यत्व सामान्यकी अपेक्षा संग्रह करना इष्ट हुआ, तो सबको कार्य रूपसे स्वीकार करेगा । कौन किसका कारण है और कौन किसका कार्य है, यह इस नयका विषय नहीं है। तथा व्यवहारनय संग्रहनयसे गृहीत विषयमें यथाविधि भेद करेगा । कौन किसका कारण है और कौन किसका कार्य है यह इस नयका भी विषय नहीं है । तात्पर्य यह है कि अनेक वस्तुओंमें किसी एक धर्मका सर्वत्र अन्वय देखकर अभेदकी मुख्यतासे संग्रह नयकी प्रवृत्ति होती है। इसी अभिप्रायसे संग्रहनयको शुद्ध द्रव्याथिक कहा गया है और उस धर्मकी अपेक्षा अनेक वस्तुओंमें भेद करके भेद द्वारा उन्हें ग्रहण करने वाला व्यवहार नय स्वीकार किया गया है । इसलिए इसे पर्याय कलंकसे अंकित अशुद्ध द्रव्याथिक कहा गया है। इन दो के अतिरिक्त द्रव्याथिक रूप एक नैगमनय है। इसका व्युत्पत्ति लभ्य अर्थ है 'जो है वह दोको उलंघन कर नहीं रहता' अर्थात जो 'नैकंगमः' केवल एकको प्राप्त न हो, उसे नैगम कहते हैं। यह संकल्प प्रधान नय है। यह अनिष्पन्न भावी पदार्थको निष्पन्नवत् कहता है। अतीतको वर्तमानवत् कहता है तथा जो निष्पन्न हो रहा है, उसे भी निष्पन्नवत् कहता है। पृथक् कालवर्ती दोमें या पृथक् सत्ताके दो सम्बन्ध कल्पित करना यह भी इसका विषय है (यह सब वस्तुके आलम्बनसे किया जाता है) तथा इससे व्यवहारकी प्रसिद्धि होती है । इसलिए इसकी समीचीन नयोंमें परिगणनाकी जाती है । इस दृष्टिसे कारण-कार्यभाव नैगमनयका विषय ठहरता है। जयधवला (पु० १ पृ. २०१) में कारण-कार्यभाव आदि नैगमनयका विषय है और वह उपचार रूप है, ऐसा स्वीकार भी किया है। व्यवहारनयका विषय श्री 'समयसार में अनेक स्थलोंपर व्यवहारनय और उपचारनय इन दोनोंको एकार्थक स्वीकार किया है। अमतचन्द्रदेव 'समयसार' (गाथा १०७) की आत्मख्याति टीकामें लिखते हैं-यह आत्मा व्याप्य-व्यापक भावके अभावमें भी प्राप्य, विकार्य और नित्य कर्मको करता है। इत्यादि रूप जो विकल्प होता है, वह नियमसे असद्भूत है । इसका कारण यह है कि परमागममें जो निक्षेपके चार भेद किए गए हैं, उनमेंसे कर्म Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९६ : सिद्धान्ताचार्य पं० फुलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ और नोकर्मका तद्व्ययतिरिक्त नोआगम द्रव्य निक्षेपमें ही अन्तर्भाव होता है और द्रव्य निक्षेप मुख्यतया द्रव्याथिकनयका विषय है। यह उस निक्षेपार्थपर दृष्टि डालनेसे ही स्पष्ट हो जाता है । अतएव बाह्य वस्तुकी अपेक्षा यह कहना कि कषाय कर्मके उदयसे आत्मामें कषायभाव होता है या कर्म आत्माको स्वर्ग ले जाता है, नर्क ले जाता है आदि, कर्म बड़ा बलवान है आदि, वह सब नैगमनयका विषय होनेसे विकल्प ही है और वह उपचरित अर्थको विषय करनेवाला होने मे उपचार ही है । 'आलापपद्धति' में छहों द्रव्योंके जिन स्वभावोंका निर्देश किया गया है, उनमें एक उपचरित स्वभाव भी है । उपचरित स्वभावका अर्थ ही यह है कि जो स्वयं द्रव्यका स्वरूप तो है नहीं, किन्तु प्रयोजन विशेषसे उस पर आरोपित कर उसका कहा जाय वह उपचरित स्वभाव कहलाता है। और इस स्वभावको स्वीकार करने वाले नयको उपचारनय या नैगमनय कहते हैं। आचार्य सिद्धसेनने अपने 'सन्मति तर्क' में नैगमनयको स्वीकार नहीं किया है, उसका कारण भी यही है । जयधवला (भाग १ पृ० २७०-२७१) में यह प्रश्न उठाया गया है कि सत्व, प्रमेयत्व, पुद्गलत्व, निश्चेतनत्व और मिट्टी स्वभावरूपसे मिट्टीके पिण्ड में घट भले ही स्वीकार किया जाय, परन्तु दण्डादिकमें घट नहीं पाया जाता। क्योंकि दण्डादिकमें तद्भावलक्षण सामान्यका अभाव है। तब इस प्रश्नका उत्तर देते हए वहाँ बतलाया है कि दण्डादिकमें भी प्रमेयत्व आदि रूपसे घटका अस्तित्व स्वीकार किया गया है । सो इस शंका-समाधानसे भी यही ज्ञात होता है कि दण्डादिकको जो घटका कारण कहा जाता है, वह कालप्रत्यासत्तिवश (एक कालमें दोनोंका संगम) बाह्य व्यप्तिको देखकर ही कहा जाता है, अतएव दण्डादिकसे घटकी उत्पत्ति हाती है, इस कथनको उपचरित हो जानना चाहिए । इस प्रकार इतने विवेचनसे यह स्पष्ट हो जाता है कि असद्भुत व्यवहारनयका जितना भी विषय है, उसका परिग्रह संकल्पप्रधान नैगमनय के विषयके अन्तर्गत ही होता है। इसके अतिरिक्त जो सद्भुत व्यवहारनय और उसका विषय है, सो उसके विषयमें भी इसी न्यायसे विचार कर लेना चाहिए । यद्यपि कार्यकारण-परम्पराके अन्तर्गत उपादान कारणको भी यथार्थ माना गया है और उपादेय कार्यको भी यथार्थ माना गया है। क्योंकि आगममें अव्यवहित पूर्वक्षणवर्ती पर्याययुक्त द्रव्यको कारण और अव्यवहित उत्तर क्षणवर्ती पर्याययुक्त द्रव्यको कार्य कहा गया है । इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि उपादान कारण भी वास्तविक है और उपादेयरूप कार्य भी वास्तविक है। ऐसा होते हुए भी इन दोनोंमें काल-भेद होनेके कारण जिस समय उपादान कारण है, उस समय उपादेयरूप कार्य नहीं और जिस समय उपादेयरूप कार्य है उस समय उसका उपादान कारण नहीं है। अतः उपादान कारणसे उपादेय कार्य उत्पन्न होता है यह कहना भी व्यवहार-उपचार है। वस्तुतः स्वरूपकी अपेक्षा विचार करने पर विदित होता है कि उपादान कारण स्वरूपसे स्वयं है और उपादेयरूप कार्यभी स्वरूपसे स्वयं है। क्योंकि धर्म या धर्मीका सिद्धि परसापेक्ष भले ही हो, वे स्वरूपकी अपेक्षा परसापेक्ष नहीं हुआ करते, ऐसी वस्तु-व्यवस्था है । उत्पाद-व्यय-क्रिया परनिपेक्ष ही है इस प्रकार पूर्वोक्त विवेचनसे यह भले प्रकार स्पष्ट हो जाता है कि प्रत्येक द्रव्यमें जो उत्पाद और व्ययरूप क्रिया होती है, वह स्वयं ही हुआ करती है। चाहे परिणाम लक्षण क्रिया हो और चाहे प्रदेश परिस्पन्दनरूप क्रिया हो या देशान्तरगति हो; होती है वह स्वयं ही। किसी अन्यकी सहायतासे यह क्रिया होती हो, ऐसी वस्तु-व्यवस्था नहीं है । इतना अवश्य है कि उसकी सिद्धि परसापेक्ष होने से उसमें परकी सहायताका व्यवहार किया जाता है । एकको साधन और दूसरेको साध्य या एकको उपकारक और दूसरेको उपकार्य कहा जाता है । यह सब असद्भूत व्यवहार ही है। "जैनतत्त्वमीमांसाकी मीमांसा" में "जैन तत्त्वमीमांसा'' के कतिपय वचनोंको उद्धृत कर (पृ० २२२ आदि) उक्त तथ्यके विषयमें बहुत कुछ लिखा गया है। उसमें विवक्षित अभिप्रायको व्यक्त करने वाली मूल बात Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : २९७ इतनी ही है कि व्यवहार रत्नत्रय मोक्ष का परम्परा निमित्त है और निमित्त कारणको जो उपचरित शब्द द्वारा पुकारा जाता है वह इसलिए पुकारा जाता है कि निमित्त कारण स्वयं (आप) कार्य परिणत न होते हए भी उपादानके कार्यरूप परिणत होनेमें सहायक होता है । वहाँ इस प्रसंगमें दो-तीन बातें और लिखी हैं । एक बात तो यह लिखी है कि उपचार पदार्थमें होता है और शब्द उस उपचरित अर्थका प्रतिपादन करता है । दूसरी बात यह लिखी है कि कुम्भकार व्यक्तिमें कुम्भ निर्माणका सहायक होने रूप व्यवहार कर्तृत्व अर्थात् निमित्तकर्तृत्व पाया जाता है । फलितार्थरूपमें तीसरी बात यह लिखी है कर्तृत्व दो प्रकारका है-एक उपादान कर्तृत्व और दूसरा निमित्त कर्तृत्व । व्यवहार कारण क्या वास्तविक कारण है ? उपचारके विषयमें समग्र वक्तव्य का यह सार है। इसमें वहीं जो यह कहा गया है कि 'उपचार पदार्थमें होता है'-सो इसका अर्थ तो यह हुआ कि वचन और बुद्धिके द्वारा किसी विवक्षित पदार्थ में किसी अन्य पदार्थका उपचार किया जाता है वह पदार्थ स्वयं स्वरूपसे उपचरित नहीं हुआ करता। और जब उसमें उपचार कर लिया जाता है, तो उसे व्यवहारसे मुख्यके समान कार्यकारी भी मान लिया जाता है। और इसीलिए कार्य कारण परम्परामें जितना कथन सद्भूतव्यवहारनयसे किया जाता है वह सब कथन असद्भुत व्यवहारनयसे भी किया जाता है। उदाहरण स्वरूप श्री समयसारकी गाथा १०७ पर दृष्टिपात कीजिए। इसमें व्यवहारनयसे (असद्भूत व्यवहारनयसे) जीवको पुद्गल कर्मका उत्पादक, उसे करने वाला, बाँधने वाला, परिणमानेवाला और ग्रहण करने वाला कहा गया है। परमार्थसे पुद्गल कार्मणवर्गणाएँ ही कर्मकी उत्पादक, उसे करनेवाली बाँधनेवाली, परिणमाने वाली और ग्रहण करने वाली होती है, जीव नहीं। फिर भी अमुक प्रकारके जीवके होनेपर अमुक प्रकारको कार्मणवर्गणाओंके परिणमनके नियमको देखकर उक्त प्रकारका वचन कहा गया है। यही यहाँ उपचार है। इससे स्पष्ट है कि कोई भी पदार्थ स्वरूपसे उपचरित नहीं हुआ करता, किन्तु जब जिस द्वारा निश्चयकी प्रसिद्धि हो उसे ख्यालमें रखकर उसमें निमित्तपनेका उपचार किया जाता है या प्रयोजन विशेष बतलाया जाता है। उस पुस्तकके अनुसार जिसे अविनाभाववश असद्भूत व्यवहारनयसे निमित्त कारण कहा गया है वह उपादान कारणके कार्यमें सहायक होता है। इसके स्थानमें असद्भुत व्यवहारनयसे वहाँ यह भी कहा गया है कि वह स्वयं अन्य द्रव्यके कार्यको करता है तो भी कोई आपत्ति नहीं थी। किन्तु वहाँ नय विवक्षाको ध्यानमें लिए बिना उक्त प्रकारकी प्ररूपणाकी गई है यही मुख्य आपत्ति है । उस पुस्तकके उस कथनसे ऐसा भासित होता है कि 'व्यवहार हेतु उपादानके कार्यमें वास्तवमें सहायक होता है' जो जिनागमके सर्वथा विरुद्ध है। जबकि वस्तुस्थिति यह है कि बाह्य हेतु अन्यके कार्यका वास्तवमें हेतु नहीं है। उसमें अविनाभाववश हेतुता आरोपित की गई है। वह उपादानके कार्यमें वास्तवमें सहायक नहीं है, उसे व्यवहारसे सहायक कहा गया है। विचार कर देखा जाय तो वह एकने दूसरेका कार्य किया इस व्यवहारका हेतु है, इसलिए वह अन्यके कार्यका व्यवहार हेतु कहलाता है। क्या बन्धका कारण ही मोक्षका कारण है ? इस दृष्टिसे व्यवहार मोक्षमार्गके विषयमें जब विचार करते हैं तो उससे भी यही फलित होता है कि मन, वचन और कायकी शुभ प्रवृत्तिरूप व्रत-संयमादिकमें वास्तव में मोक्षमार्गपना नहीं है। यह ठीक है कि जब तक ज्ञान (आत्मा) का कर्म (शुभाशुभ भाव) विरति भलीभांति पूर्णताको प्राप्त नहीं होती है तब तक ज्ञान और कर्मका समुच्चय भी रहता है, इसमें कोई हानि नहीं है। किन्तु यहाँ भी आत्मामें अवशपने जो कर्म प्रगट होता है वह बन्धका ही हेतु है और जो एक परमज्ञान है वही एक मोक्षका कारण है। यद्यपि आगममें शुभभाव रूप व्रत, संयम, दान, पूजा आदिको परम्परा मोक्षका कारण कहा गया है सो इसका आशय क्या है इसे भी यहाँ समझ लेना चाहिए । कर्मशास्त्र में यह वचन आया है कि अणुव्रत और ३८ Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९८ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ महाव्रतको वह जीव स्वीकार करता है जिसके बध्यमान आयुकी अपेक्षा नरकायु, तिर्यञ्चायु और मनुष्यायुकी सत्ता नहीं पाई जाती। यदि बध्यमान आयुकी अपेक्षा किसी आयुकी सत्ता उसके होवे भी तो वह एकमात्र देवायुकी ही सत्ता बनती है । इसका आशय यह है कि ऐसा जीव नियमसे देवयोनिका अधिकारी होता है । बाह्य में निरतिचार रूपसे व्रतोंको पालनेवाला ज्ञानी ही देवगतिका अधिकारी बनता है, वह यदि प्रशस्त रागवश परभव सम्बन्धी आयुका बन्ध करेगा तो नियमसे देवायुका ही बन्ध करेगा । कर्मशास्त्रकी व्यवस्था ही ऐसी है । इससे यह स्पष्ट हो गया कि ज्ञानी जीव प्रशस्त रागवश यदि आयुबन्ध करे या आयुबन्धके बाद अणुव्रतमहाव्रत धारण करे तो स्वर्ग जाता है, और ऐसा जीव स्वर्गसे च्युत होकर तथा मनुष्य पर्याय प्राप्त कर और अपनी आत्मभावना द्वारा पूर्णरूपसे रत्नत्रय स्वरूप होकर मोक्षका पात्र बनता है । पर्याय दो प्रकार की है- स्वभाव पर्याय और विभाव पर्याय । धर्म अधर्म, आकाश और काल द्रव्यकी केवल स्वभाव पर्यायें होती हैं । तथा जीव और पुद्गलकी दोनों प्रकारकी पर्यायें होती हैं । जिनपर विकल्प द्वारा परकृतपनेका व्यवहार लागू होता है वे विभाव पर्यायें हैं । अर्थात् जिन पर्यायोंके होनेमें उनके बाह्य निमित्तों में विकल्प द्वारा प्रयोजकता स्वीकार की जाती है वे सब विभाव पर्यायें कहलाती हैं । और जिन पर्यायोंपर विकल्प द्वारा परकृतपनेका व्यवहार लागू नहीं होता वे स्वभाव पर्यायें हैं । विभाव पर्यायोंमें विभावका अर्थ ऐसे बाह्य निमित्त हैं जिनमें विकल्प द्वारा परकर्तृत्व, प्रयोजकता या प्रेरकता स्वीकार की जाती है । अतः धर्म, अधर्म, आकाश और काल द्रव्योंकी जितनी भी पर्यायें अनादि कालसे होती आ रही हैं, हो रही हैं और होवेंगी उन सबपर विकल्प द्वारा परकृतपनेका व्यवहार लागू नहीं होता, उनके ऐसे बाह्य निमित्त नहीं हैं जिनसे विकल्प द्वारा प्रयोजकता स्वीकार की जावे, अतः उन चारों द्रव्योंकी सब पर्यायोंको स्वभाव पर्याय रूपसे स्वीकार किया गया है । मोक्षमार्ग में प्रवृत्त हुए या मुक्त जीवोंकी निश्चय सम्यग्दर्शन आदि रूप जितनी पर्यायें होती हैं उनपर भी विकल्प द्वारा परकृतपनेका व्यवहार लागू नहीं होता, इसलिए वे भी स्वभाव पर्यायें हैं ऐसा आगम में स्वीकार किया गया है। पुद्गल द्रव्यके प्रत्येक परमाणुकी परमाणु रूपसे रहते हुए जो पर्यायें होती हैं उनके विषय में भी उक्त व्यवस्था जान लेनी चाहिए । इसके अतिरिक्त जीवों और पुद्गलोंकी जितनी भी पर्यायें होती हैं उनपर विकल्प द्वारा परकृतपनेका व्यवहार लागू होनेसे वे सब विभाव पर्यायें कहलाती हैं । यह सब द्रव्योंकी पर्याय व्यवस्था है । इतना विशेष कि सब द्रव्योंकी जितनी भी पर्यायें होती हैं वे सब बाह्य और आभ्यन्तर सामग्री के सद्भावमें होती हैं। पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षा सब पर्यायें क्रम नियमितपनेसे स्वयं होकर भी नैगमनयकी अपेक्षा उनके प्रत्येक समयमें बाह्य और आभ्यन्तर साधन स्वीकार किये गये हैं । आगममें कार्यकारणभावको स्वीकार करनेका यह रहस्य है । मात्र इस व्यवस्थाके दो अपवाद हैं । एक तो आकाश के स्वयंके अवकाशदानके लिए बाह्य निमित्त नहीं स्वीकार किया गया गया है । दूसरे काल द्रव्यके प्रत्येक समय के परिणमनके लिए भी कोई बाह्य निमित्त नहीं स्वीकार किया गया हैं । इस कथनकी पुष्टि तत्वार्थश्लोकवार्तिक और अनगारधर्मामृत आदि ग्रन्थोंसे भले प्रकारसे होती है । यद्यपि आगममें इन सब तथ्योंका निर्देश स्पष्ट रूपसे दृष्टिगोचर होता है, फिर भी उनकी उपेक्षा कर जैनतत्त्वमीमांसा की मीमांसा पुस्तकमें ऐसे स्वकल्पित मन्तव्योंका निर्देश किया गया है जिन्हें पढ़कर यह विश्वास नहीं होता कि ये सब तथ्य वहीं आगमका मन्थन कर निर्दिष्ट किये गये हैं । उदाहरणार्थ उक्त पुस्तकके पृ० १४१ पर लिखा है 'अगुरुलघुगुणके शक्त्यंशों (अविभाग प्रतिच्छेदों) में षड्गुणहानिवृद्धिरूप स्वभाव या गुणपर्यायें ही स्वप्रत्यय अर्थपर्यायें हैं तथा इन्हें छोड़ कर जितनी स्वभाव या गुणपर्यायें हैं वे सब स्वपरप्रत्यय अर्थपर्यायें हैं । Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : २९९ जैसे आकाश उन सब पदार्थोंको अवगाहित कर रहा है जो विश्वमें विद्यमान है लेकिन आकाशका पदार्थोको अवगाहित करनेका स्वभाव असीमित है। अर्थात् विश्व में जितने पदार्थ विद्यमान हैं उनसे भी अनन्तगुणे पदार्थ यदि विद्यमान होते तो उन्हें भी आकाश अपने अन्दर अवगाहित कर सकता है। इससे जाना जाता है कि आकाशका पदार्थोको अवगाहित करने रूप परिण मन पदार्थाधीन होनेसे स्वपरप्रत्यय है। यही बात धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, कालद्रव्य और जीवद्रव्यके स्वभावके विषय में भी जान लेना चाहिए।' पुनः १० २९४ में यहाँ लिखा है 'मुक्ति भी जीवको स्वपरप्रत्यय पर्याय है, अतः उसकी प्राप्तिके लिए भी निमित्त-नैमित्तिक भावरूप कार्यकारण भावपर दृष्टि रखना अनिवार्य हो जाता है।' इन दो उद्धरणोंसे यह स्पष्ट हो जाता है कि इस पुस्तकके अनुसार सब द्रव्योंकी तीन प्रकारकी पर्यायें होती हैं-(१) स्वप्रत्यय पर्याय (२) स्व-परप्रत्यय स्वभाव पर्याय और (३) स्व-परप्रत्यय विभाव पर्याय । जयपुर (खानिया) तत्वचर्चाके समय भी दूसरे पक्षकी ओरसे यह स्वकल्पित पान्यता प्रस्तुत की गई थी। मालम नहीं कि उस पक्षके सब विद्वानोंका यह मत रहा है या किसी एक विद्वानका । यह सब अभी तक गर्भमें है कि दूसरे पक्षकी ओरसे जितना कुछ लिखा गया है उससे उस पक्षके कितने विद्वान सहमत हैं। तीसरे दौरकी जो प्रतिशंकाएं हमें प्राप्त हुई थीं उनमें न तो मध्यस्थके ही हस्ताक्षर थे और न पं० बन्शीधर जी व्या० आ० को छोड़ कर अन्य विद्वानोंके ही हस्ताक्षर थे इतना हम अवश्य जानते हैं । अस्तु, इन तीन प्रकारकी पर्यायोंकी कल्पना मुख्यतया तत्वार्थसूत्रके 'निष्क्रियाणि च' इस सुत्रपर लिखी गई सर्वार्थसिद्धि टीकाके वचनके आधारपर की गई है ऐसा जैनतत्त्वमीमांसाकी मीमांसाके १० ४८ से ज्ञात होता है। इसके समर्थनमें वहाँ नियमसार गाथा १४ की टोकाके अंशको भी उद्धत किया गया है । सर्वार्थसिद्धिका वह वचन इस प्रकार है द्विविध उत्पादः-स्वनिमित्तः परप्रत्ययश्च । स्वनिमित्तस्तावदनन्तानामगुरुलघुगुणानामागमप्रामाण्यादम्यगम्पमानानां षटस्थानपतितया वृद्धया हान्या च प्रवर्तमानानां स्वभावादेव तेषामत्पादो व्ययश्च । परप्रत्ययोऽपि अश्वादिगति-स्थित्यवगाहनहेतुत्वात् क्षणे क्षणे तेषां भेदात् तद्धेतुत्वमपि भिन्नमिति परप्रत्ययापेक्ष उत्पादो विनाशश्च व्यवह्रियते । उत्पाद दो प्रकारका है - स्वनिमित्त और परप्रत्यय । स्वनिमित्त-उत्पाद क्या है इसे बतलाते हुए आचार्य पूज्यपाद लिखते हैं-आगम प्रमाण द्वारा स्वीकृत तथा षट्स्थानपतित वृद्धि और हानिके द्वारा प्रवर्तमान अनन्त अगुरुलघु गुणोंका स्वभावसे उत्पाद और व्यय होता है । परप्रत्यय उत्पाद और व्ययका व्यवहार वि प्रकार किया जाता है इसका स्पष्टीकरण करते हुए आचार्य देव लिखते हैं कि अ-वादिकी गति स्थिति और अवगाहनके वे धर्म, अधर्म और आकाश द्रव्य क्रमसे हेतु होनेसे तथा क्षण क्षणमें उनमें भेद होनेसे उनके हेतु भी क्षण क्षणमें अन्य अन्य होते हैं इस प्रकार परप्रत्ययकी अपेक्षा भी उत्पाद और व्ययका व्यवहार किया जाता है। सर्वार्थसिद्धिका यह उल्लेख बहुत ही महत्त्वपूर्ण है । इससे कई तथ्योंपर प्रकाश पड़ता है । यथा (१) आगममें काल द्रव्यके साथ धर्म, अधर्म और आकाश द्रव्य निष्क्रिय माने गये है, इसी प्रसंगमें 'निष्क्रियाणि च' सूत्र आया है। यहाँ काल द्रव्य प्रकरण प्राप्त नहीं है, इसलिए उसका निर्देश तो आचार्य देवने नहीं किया है, परन्तु धर्मादि तीनों द्रव्योंके समान वह भी निष्क्रिय द्रव्य है, इसलिए उसकी परिगणना इन तीनों द्रव्योंके साथ हो जाती है। (२। जब ये चारों द्रव्य निष्क्रिय हैं तो इनमें उत्पाद और व्यय कैसे घटित होता है ? इसी प्रश्नके उत्तर स्वरूप 'द्विविधः उत्पादः' इत्यादि वचन आया है। इसमें बतलाया गया है कि इनमें स्वभावमें ही उत्पाद और व्यय होता है अर्थात् इनके उत्पाद और व्ययमें परकृ तपनेका व्यवहार लागू नहीं होता है। Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ (३) इनमें वह उत्पाद और व्यय कैसे बनता है इसीके समर्थनमें 'अनन्तानामगुरु लघुगुणानां' इत्यादि वचन आया है । इस वचनमें अगुरुलघुगुणोंको अनन्त कह कर उनका उत्पाद व्यय स्वीकार किया गया है। किन्तु यदि प्रकृतमें 'अगुरुलघुगुण' पदसे इस नाम वाले गुण लिए जायें तो प्रत्येक द्रव्यमें एक तो वे अनन्त नहीं बनते, दूसरे स्वयं उनकी हानि-वृद्धि नहीं बनती क्योंकि गण अन्वय स्वभाव वाले होनेसे नित्य होते हैं। इसलिए स्वयं उनका उत्पाद-व्यय मानना आगम विरुद्ध है। अतः प्रकृतमें अगुरुलघुगुण पदसे अविभाग प्रतिच्छेदोंको ग्रहण करना चाहिए । इन चार द्रव्योंमें व्यंजन पर्यायें तो होती नहीं, मात्र अर्थपर्यायें ही होती हैं । और उनमें अविभाग प्रतिच्छेदोंके आधारपर स्वभावसे ही उत्पाद व्यय स्वीकार किया गया है । षड्गुणी हानि-वृद्धि के अनुसार किस समय अनन्तभाग वृद्धि आदिमेंसे पूर्व पर्यायको अपेक्षा उत्तर पर्यायमें कब कौन सी हानि या वृद्धि होती है उसी आधारपर उस पर्यायको अनन्तभाग वृद्धि या अनन्तभाग हानि आदि रूप स्वीकार किया जाता है। उदाहरणार्थ क्षीणकषाय गुणस्थानके अन्तिम समयमें जो श्रुतज्ञान होता है उससे सयोग केवलीके प्रथम समयमें केवलज्ञानको अनन्तगणवद्धि रूप स्वीकार किया गया है। इसी प्रकार सर्वत्र छहों द्रव्योंकी चाहे स्वभाव पर्यायें हों या जीवों और पुदगलोंकी उक्तरूपमें विभाव पर्यायें हों उनमें उत्पाद व्ययकी यह व्यवस्था चटित कर लेनी चाहिए। (४) इस प्रकार यद्यपि इन द्रव्योंमें पर्यायोंका स्वभावसे ही उत्पाद और व्यय बन जाता है। किन्तु जबकि ये निष्क्रिय द्रव्य है तो इनमेंसे प्रारम्भके तीन द्रव्यों, जीवों और पुदगलोंकी गति आदिमें व्यवहार हेतु कैसे हो सकते हैं, क्योंकि लोकमें क्रियावान् जलादिमें ही मछली आदिके गमन आदिमें व्यवहार हेतुता देखी जाती है । इसी प्रश्न के उत्तरमें आचार्य देवने यह उत्तर दिया है कि ये तीनों द्रव्य, मछली आदिका जो गमन आदि होता है, उसमें बलाधानके व्यवहार हेतु होनेसे इनके निमित्तसे जोवों और पुद्गलोंकी गति आदि होती है ऐसा व्यवहार बन जाता है। (५) अब प्रश्न यह है कि इनमें यदि पर प्रत्यय व्यवहार घटित करें तो किस प्रकार घटित किया जा सकता है ? इस प्रश्नका समाधान करते हुए आचार्य देव लिखते हैं कि अश्वादिकी गति आदिमें व्यवहारसे ये आश्रय निमित्त है। यतः अश्वादिकी गति आदिमें समय-समयमें भेद दिखलाई देता है और ये तीनों द्रव्य उसमें आश्रय निर्मित है अतः इनकी पर्यायोंमें भी प्रति समय भेद होना चाहिए, इस प्रकार इनमें भी पर प्रत्ययपनका व्यवहार किया जा सकता है । यहाँ उक्त कथनसे जो सबसे मौलिक बातका स्पष्टीकरण मिलता है वह यह है कि आचार्य देव अश्वादि की गति आदिके भेदके आधारपर इन द्रव्योंकी पर्यायोंके भेदको स्वीकार करके भी वे अश्वादिकी गति आदि धर्मादि द्रव्योंकी पर्यायोंके होनेमें व्यवहार हेतु हैं इसे नहीं स्वीकार कर रहे है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि धर्मादि चारों द्रव्योंकी सब स्वभाव पर्यायोंमें यथा जीवों और पुद्गलोंकी जितनी भी स्वभाव पर्यायें होती हैं उनम य परकी प्रेरणासे हई याये परक्रत हैं ऐसा व्यवहार लाग नहीं होनेसे इनकी स्वप्रत्यय पर्यायोम हो पारगणना की जाती है । आगममें कहीं भी इन पर्यायोंको स्व-पर प्रत्यय नहीं बतलाया गया है। यह केवल जैनतत्त्वमीमांसाकी मीमांसामेंकी गयी अपनी कल्पना है। जैनतत्वमीमांसाकी समालोचनामें इतनी बड़ी पुस्तक लिखी गयी पर वहाँ यह भेद नहीं किया जा सका कि विभाव पर्यायोंको स्व-पर प्रत्यय कहनेमें गभित तथ्य क्या है और आगममें सर्वत्र स्वभाव पर्यायोंको मात्र स्वप्रत्यय कहने में क्या हेतु है। हम पहले उस पुस्तकसे दो अंश उद्धृत कर आए है, उनमें केवल अगुरुलघुगुणकी अर्थपर्यायोंको मात्र स्वप्रत्यय पर्याय स्वीकार किया गया है । पर इसकी पुष्टिमें कोई स्वतन्त्र आगम प्रमाण नहीं दिया गया हैं । इतना अवश्य है कि इसी पुस्तकके पृष्ठ ४८ में सर्वार्थसिद्धिके 'द्विविधः उत्पादः' इस वचनको उद्धृत कर 'अनन्तानामगुरुलघुगुणानां' का वहाँ वेकेटके भीतर 'अगुरुलघुगुणके अनन्त अविभाग प्रतिच्छेद रूप शक्त्यंशो' | Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : ३०१ अर्थ किया गया है और उस आधारपर इस मान्यताकी पुष्टि की गयी है कि केवल अगुरुलघुगुणकी अर्थपर्याय मात्र स्वप्रत्यय होती है। जबकि उक्त आगमका यह आशय नहीं है । नयचक्रके पृष्ठ १२में यह गाथा है अगुरुलहुगाणता समयं समयं समुभवा जे वि । दव्वाणं ते भणिया सहावगणपज्जया जाण ॥२१॥ अगुरुलघु अनन्त है और जो प्रति समय उत्पन्न होते हैं और व्ययको प्राप्त होते हैं। उन्हें द्रव्योंकी स्वभाव गुण पर्याय जानों। ___नयचक्रकी इस गाथामें गुण शब्द नहीं दिया है । प्रत्येक द्रव्यमें अनन्त अगुरुलघु गुण होते हैं, यह भी इसका आशय नहीं है । 'गुण' शब्द भाग या अंशके अर्थमें भी आता है, अतः सर्वार्थसिद्धि और तत्वार्थवातिकमें गण शब्दका 'पर्याय' अर्थ करना ही संगत प्रतीत होता है । संक्षेपमें स्पष्टीकरण पहले ही कर आये हैं। उत्पन्न ध्वंसी पर्यायें होती हैं, गुण नही । अगुरुलघुगुणकी मात्र स्वप्रत्यय पर्यायें होती हों अन्यकी नहीं, ऐसा भी नहीं है । आगममें तो जीव और पुदगलको छोड़ कर अन्य चारों द्रव्योंके सभी गुणोंकी मात्र स्वभाव पर्यायें ही स्वीकार की गई हैं और वे परनिरपेक्ष ही होती हैं । इसी ग्रन्थकी १८वीं गाथामें जीवों और पुद्गलोंकी स्वभाव और विभाव दो प्रकारकी पर्याय स्वीकार की हैं। जीवोंके विषयमें १९वीं गाथामें लिखा है कि जीवमें जो स्वभाव पर्यायें है कर्म-कृत होनेसे वे ही विभाव पर्यायें हैं । इससे यह साफ स्पष्ट हो जाता है कि जीवकी जिन पर्यायोंके होनेमें 'कर्म ने की' ऐसा व्यवहार होता है वे सब विभाव पर्यायें हैं । तथा जिनमें ऐसा व्यवहार नहीं होता वे सब स्वभाव पर्यायें है । इसी प्रकार पुद्गलमें भी बन्धरूप पर्यायोंको विभाव पर्यायें जानना चाहिए क्योंकि इनमें पर बन्धके नियमानुसार 'अधिक गणवाले हीन गुणवालोंको परिणमाते हैं।' यह व्यवहार लागू होता है। इनके अतिरिक्त परमाणु अवस्थामें रहते हुए परमाणुओंकी जितनी भी पर्याय होती है, वे सब स्वभाव पर्यायें हैं, क्योंकि उनपर उक्त प्रकारका व्यवहार लागू नहीं होता। उस पुस्तकमें स्वभाव पर्यायोंको दो प्रकारका बतलाते हुए यह तो लिख ही दिया गया है कि "अगुरुलघुगुणके शक्त्यंशों अविभाग प्रतिच्छेदों) में षड्गुणी हानि-वृद्धिरूप स्वभाव या गुण पर्यायें ही स्वप्रत्यय अर्थ पर्यायें है तथा इन्हें छोड़ कर जितनी स्वभाव या गण पर्यायें हैं वे सब स्व-परप्रत्यय अर्थ पर्याय हैं।" पर वहाँ ऐसा लिख जानेसे जो अनेक प्रश्न उत्पन्न होते हैं उनका उस पुस्तकमें आगमके अनुसार कोई समाधान नहीं है ? यथा (१) अपने-अपने गुण पर्यायों सहित अन्य पाँच द्रव्योंको अवगाहित करनेमें आकाश द्रव्य व्यवहार हेतु है तो क्या इसमें उनके अगुरुलघुगणोंका ग्रहण नहीं होता। आकाश द्रव्य अन्य पाँचों द्रव्योंको तो पूरी तरहसे अवगाहिन करे और अगुरुलधुगुण तथा उनकी पर्यायें अवगाहित न हों यह कैसे हो सकता है ? यदि इनका भी आकाशमें अवगाहित होना माना जाता है तो ऐसा होते हुए भी जिस प्रकार वहाँ अगुरुलघुगणोंकी गण पर्यायोंको मात्र स्वप्रत्यय रूपसे स्वीकार किया गया है उसी प्रकार सब स्वभाव पर्यायोंको भी स्वप्रत्यय स्वोकार कर लिया गया होता। (२) काल द्रव्य अन्य पाँच द्रव्यों की पर्यायोंके होने में व्यवहार हेतु है। तो क्या इसमें उनके अगुरुलघु गणकी पर्यायोंका ग्रहण नहीं होता ? क्या ऐसा कोई आगम वचन है जिससे यह समझा जा सके कि अगुरुलघुगणोंकी पर्यायों के होनेमें कालद्रव्यको व्यवहार हेतु माना गया है तो ऐसा होते हुए भी जिस प्रकार अगुरुलघुगुणोंकी पर्यायोंको मात्र स्वप्रत्यय स्वीकार किया गया है उसी प्रकार सब स्वभाव पर्यायोंको भी स्वप्रत्यय स्वीकार कर लिया गया होता। Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ गमन करते हुए जीवों और पुद्गलोंके गमन करनेमें धर्म द्रव्य व्यवहार हेतु है तो क्या इसमें उनके अगुरुलघुगुणों और उनकी पर्यायोंका ग्रहण नहीं होता ! क्या वे क्षेत्रसे क्षेत्रान्तरित नहीं होते ? यदि कहो कि वे भी अपने-अपने द्रव्योंके साथ क्षेत्र क्षेत्रान्तरित होते हैं, इसलिए उनमें धर्मद्रव्यकी व्यवहारहेतुता बन जाती है । यदि ऐसा है तो ऐसा होते हुए भी जिस प्रकार वहाँ अगुरुलघु गुणोंकी स्वभाव पर्यायोंको मात्र स्वप्रत्यय स्वीकार किया गया है इसी प्रकार वहाँ अन्य सब स्वभाव पर्यायोंको भी स्वप्रत्यय स्वीकार किया गया होता । गमन करके स्थित होने वाले जीवों और पुद्गलोंके ठहरनेमें अधर्म द्रव्य व्यवहार हेतु हैं तो क्या इसमें अगुरुलघु गुण और उनकी पर्यायोंका ग्रहण नहीं होता क्या वे अपने-अपने आश्रयभूत जीवों और पुद्गलों के साथ स्थित नहीं होते ? यदि कहां कि वे भी स्थित होते हैं, क्योंकि आश्रयके बिना वे पाए नहीं जाते, इसलिए उनके स्थित होने में अधर्मद्रव्यको व्यवहार हेतु माननेमें कोई बाधा नहीं आती। यदि ऐसा है तो ऐसा होते हुए भी जिस प्रकार वहाँ अगुरुलघु गुणोंकी स्वभाव पर्यायोंको मात्र स्वप्रत्यय स्वीकार कर लिया गया है उसी प्रकार अन्य सब स्वभाव पर्यायोंको भी स्वप्रत्यय स्वीकार कर लिया गया होता । यह तो सर्वसाधारण आश्रय हेतुओंके आधारपर विचार है। अब थोड़ा इस दृष्टिसे विचार कीजिए कि यह अगुरुलघु गुण (केवल जिसकी स्वभाव पर्यायोंको उस पुस्तकमें रवप्रत्यय स्वीकार किया गया है) सामान्य गुण है या विशेष गुण है ? विशेष गुण तो हो नहीं सकता, क्योंकि यह सब द्रव्योंमें पाया जाता है, अतः सामान्य गुण होना चाहिए । ऐसी अवस्था में मात्र इस गुणकी होने वाली सब स्वभाव पर्यायें तो केवल स्वप्रत्यय हों तथा अन्य समस्त अस्तित्व आदि सामान्य गुणोंकी स्वभाव पर्यायें स्व- परप्रत्यय हों यह कैसे हो सकता है ? अर्थात नहीं हो सकता है। हमें तो यह इस पुस्तक्के रचयिताकी मात्र कल्पना ही समझ में आती है। हमें यह खेद होता है कि उस पुस्तकमें व्यवहार पक्षके समर्थनका बीड़ा अवश्य उठाया गया, पर उस लिखानमें आगमका निर्वाह न कर कल्पनाका ही अधिक सहारा लिया गया। जैनतत्त्वमीमांसा के विरोधमें उस लिखान से कुछ मनीषी भले ही सन्तोषका अनुभव करते हों, पर जब वे तथ्योंपर दृष्टिपात करेंगे, तब वे असमंजस में पड़े बिना नहीं रहेंगे । उस पुस्तकके उक्त वक्तव्यमें आकाश द्रव्यके पदार्थोंको अवगाहित करने रूप परिणमनको पदार्थांधीन स्वीकार किया है | मालूम पड़ता है उस पुस्तकमें इस कथन द्वारा एक अगुरुलघु गुणको छोड़कर शेष सब पदार्थोंको पराधीन सिद्ध करनेका प्रयत्न है । जब कि आगमकी यह स्पष्ट घोषणा है कि धर्म या धर्मीकी सिद्धिके लिए परकी अपेक्षासे कथन किया जाता है, वे स्वरूपसे स्वयं हैं, क्योंकि किसीका स्वरूप पराश्रित नहीं हुआ करता । प्रत्येक द्रव्यकी प्रत्येक पर्याय जिस कालमें जैसी है स्वयं है। वह वंसी क्यों है उसकी वैसी होनेमें परकी सहायता नहीं हुआ करती। यहाँ आप्तमीमांसाकी धर्मधर्म्यविनाभावः' इत्यादि कारिका और उसकी अष्टसहस्री टीकाको हृदयंगम कर लेना चाहिए तभी सभी व्यवहारनय और निश्चयनयके विषय और वक्तव्यको भले प्रकार हृदयंगम कर सकेंगे । उसमें कारकांग और ज्ञापकांग दोनोंको उदाहरण रूपमें स्वीकार कर लिया गया है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि विकल्प और कथनमें परसापेक्षता बनती है, वस्तु या उसकी पर्याय परसापेक्ष नहीं हुआ करती । जब कि अगुरुलघु गुणकी स्वभाव पर्यायके समान सभी द्रव्योंकी स्वभाव पर्यायें स्वप्रत्यय ही होती हैं ऐसी अवस्थामें मुक्ति की प्राप्ति के लिए अपनी पराश्रित वृत्तिको दृष्टिमें गौण करके स्वभावका आलम्बन लेकर स्व-समय प्रवृत्त होना ही एक मात्र मुक्ति प्राप्त करनेका यथार्थ मार्ग है। अन्य सब कल्पनाएं आदि अनादि कालसे आई पराश्रित वृत्तिका परिणाम है। Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. श्रुतधर - परिचय २. सम्यक् श्रुत - परिचय ३. अंगश्रुतके परिप्रेक्ष्य में पूर्वगत श्रुत ४. ऐतिहासिक आनुपूर्वी में कर्म - साहित्य ५. पौरपाट ( परवार ) अन्वय ६. सिद्धक्षेत्र कुंडलगिरि ७. अहारक्षेत्र : एक अध्ययन ८. श्री जिन तारण तरण और उनकी कृतियाँ ९. अतिशय क्षेत्र निसईजी इतिहास तथा पुरातत्त्व .. Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतधर-परिचय प्रथमं करणं चरणं द्रव्यं नम: यह शान्तिभक्तिका वचन है । इस द्वारा प्रथमानुयोग आदि चार अनुयोगोंमें विभक्त श्रुतको नमस्कार किया गया है। प्रवाहको अपेक्षा श्रत अनादि है। इसकी महिमाका व्याख्यान करते हुए जीवकाण्डमें श्रतज्ञ की मुख्यतासे कहा है कि केवलज्ञान और श्रुतज्ञानमें प्रत्यक्ष और परोक्षका ही भेद है, अन्य कोई भेद नहीं । ऐसा नियम है कि केवल ज्ञानविभूतिसे सम्पन्न भगवान् तीर्थंकर परमदेव अपनी दिव्यध्वनि द्वारा अर्थरूपसे श्रुतकी प्ररूपणा करते हैं और मत्यादि चार ज्ञानके धारी गणधरदेव अपनी सातिशय प्रज्ञाके माहात्म्यवश अंगपूर्वरूपसे अन्तर्मुहूर्तमें उसका संकलन करते हैं । अनादि कालसे सम्यक् श्रुत और श्रुतधरोंकी परम्पराका यह क्रम है। ___इस नियमके अनुसार वर्तमान अवसर्पिणीके चतुर्थ कालके अन्तिम भागमें अन्तिम तीर्थंकर भगवान् महावीर और उनके ग्यारह गणधरोंमें प्रमुख गणधर गौतमस्वामी हुए । भावश्रुत पर्यायसे परिणत गौतम गणधरने ग्यारह अंग और चौदह पूर्वोकी रचना कर लोहाचार्यको दिया। लोहाचार्यने जम्बूस्वामीको दिया। इसके बाद विष्णु, नन्दिमित्र, अपराजित, गोवर्धन और भद्रबाहु ये पाँचों आचार्य परिपाटी क्रमसे चौदह पूर्वके धारी हुए । तदनन्तर विशाखाचार्य, प्रोष्ठिल, क्षत्रिय, जयाचार्य, नागाचार्य, सिद्धार्थदेव धृतिसेन, विजयाचार्य, बद्धिल, गंगदेव और धर्मसेन ये ग्यारह आचार्य परिपाटी क्रमसे ग्यारह अंग और उत्पादपूर्व आदि दस पूर्वोके धारक तथा शेष चार पूर्वोके एकदेश धारक हुए । इसके बाद नक्षत्राचार्य, जयपाल, पाण्डुस्वामी, ध्रुवसेन और कंसाचार्य ये पाँचों ही आचार्य परिपाटी क्रमसे सम्पूर्ण ग्यारह अंगोंके और चौदह पूर्वोके एकदेश धारक हुए । तदनन्तर सुभद्र, यशोभद्र, यशोबाहु और लोहार्य ये चारों आचार्य सम्पूर्ण आचारांगके धारक और शेष अंगों तथा पूर्वोके एकदेशके धारक हुए । आचार्य धरसेन-पुष्पदन्त-भूतबलि तदनन्तर सब अंग-पूर्वोका एकदेश आचार्य परम्परासे आता हुआ धरसेन आचार्यको प्राप्त हुआ । ये सौराष्ट्र देशके गिरिनगर पत्तनके समीप ऊर्जयन्त पर्वतको चन्द्रगुफामें निवास करते हुए ध्यान अध्ययनमें तल्लीन रहते थे । इनके गुणोंका ख्यापन करते हुए वीरसेन स्वामीने (धवला पु० १) लिखा है कि वे परवादीरूपी हाथियोंके समूहके मदका नाश करनेके लिए श्रेष्ठ सिंहके समान थे और उनका मन सिद्धान्तरूपी अमत-सागरकी तरंगोंके समहसे धल गया था। वे अष्टांग महानिमित्त शास्त्रमें भी पारगामी थे। वर्तमानमें उपलब्ध श्रुतकी रक्षाका सर्वाधिक श्रेय इन्हींको प्राप्त है। अपने जीवनके अन्तिम काल में यह भय होने पर कि मेरे बाद श्रुतका विच्छेद होना सम्भव है, इन्होंने प्रवचन वात्सल्यभावसे महिमा नगरीमें सम्मिलित हुए दक्षिणापथके आचार्योंके पास पत्र भेजा। उसे पढ़कर उन आचार्योंने ग्रहण और धारण करनेमें समर्थ नानाप्रकारकी उज्ज्वल और निर्मल विनयसे विभूषित अंगवाले, शीलरूपी मालाके धारक, देश-कुल-जातिसे शुद्ध, समस्त कलाओंमें पारंगत ऐसे दो साधुओंको आन्ध्रदेशमें बहनेवाली वेणानदीके तटसे भेजा। __ जब ये दोनों साधु मार्गमें थे, आचार्य धरसेनने अत्यन्त विनयवान् शुभ्र दो बैलोंको स्वप्न में अपने चरणोंमें विनतभावसे पड़ते हुए देखा । इससे सन्तुष्ट हो आचार्य धरसेनने 'श्रुतदेवता जयवन्त हो' यह शब्द Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ उच्चारण किया । साथ ही उन्होंने 'मुझे सम्यक् श्रुतको धारण और ग्रहण करनेमें समर्थ ऐसे दो शिष्योंका लाभ होनेवाला है' यह जान लिया। जिस दिन आचार्य धरसेनने यह स्वप्न देखा था उसी दिन वे दोनों साधु आचार्य धरसेनको प्राप्त हुए। पादवन्दना आदि कृतिकर्मसे निवृत्त हो और दो दिन विश्राम कर तीसरे दिन वे दोनों साधु पुनः आचार्य धरसेनके पादमूलमें उपस्थित हुए। इष्ट कार्यके विषयमें जिज्ञासा प्रगट करने पर आचार्य धरसेनने आशीर्वादपूर्वक दोनोंको सिद्ध करनेके लिए एकको अधिक अक्षरवाली और दूसरेको हीन अक्षरवाली दो विद्यायें दी और कहा कि इन्हें षष्ठभक्त उपवासको धारण कर सिद्ध करो। विद्यायें सिद्ध होने पर उन दोनों साधुओंने देखा कि एक विद्याकी अधिष्ठात्री देवीके दाँत बाहर निकले हुए हैं और दूसरी विद्याकी अधिष्ठात्री देवी कानी है । यह देखकर उन्होंने मन्त्रोंको शुद्ध कर पुन: दोनों विद्याओंको सिद्ध किया। इससे वे दोनों विद्यादेवतायें अपने स्वभाव और अपने सुन्दररूपमें दृष्टिगोचर हई। तदनन्तर उन दोनों साधुओंने विद्यासिद्धिका सब वृत्तान्त आचार्य धरसेनके समक्ष निवेदन किया। इससे उन दोनों साधुओं पर अत्यन्त प्रसन्न हो उन्होंने योग्य तिथि आदिका विचार कर उन्हें ग्रन्थ पढ़ाना प्रारम्भ किया । आषाढ़ शुक्ला ११के दिन पूर्वाह्नकालमें ग्रन्थ समाप्त हुआ। जब इन दोनों साधुओंने विनयपूर्वक ग्रन्थ समाप्त किया तब भूतजातिके व्यन्तर देवोंने उनकी पूजा की । यह देख आचार्य धरसेनने एकका नाम पुष्पदन्त और दूसरेका नाम भूतबलि रखा। बादमें वे दोनों साधु गुरुकी आज्ञासे वहाँसे रवाना होकर अंकलेश्वर आये । और वहाँ वर्षाकाल तक रहे । वर्षायोग समाप्त होने पर पुष्पदन्त आचार्य बनवास देशको चले गये और भूतबलि भट्टारक द्रमिल देशको गये। बादमें पृष्पदन्त आचार्य जिनपालितको दीक्षा देकर तथा वीसदि सूत्रोंकी रचना कर और जिनपालितको पढ़ाकर भूतबलि आचार्य के पास भेज दिया। भूतबलि आचार्यने जिनपालितके पास वीसदि सूत्रोंको देखकर और पुष्ददन्त आचार्य अल्पायु हैं ऐसा जिनपालितसे जानकर महाकर्मप्रकृतिप्राभूतका विच्छेद होनेके भयसे द्रव्यप्रमाणानुगमसे लेकर शेष ग्रन्थकी रचना की। यह आचार्य धरसेन प्रभृति तीन प्रमुख आचार्योका संक्षिप्त परिचय है। इस समय जैन परम्परामें पुस्तकारूढ़ जो भी श्रुत उपलब्ध है उसमें षट्खण्डागम और कषायप्राभतकी रचना प्रथम है। षट्खंडागमके मूल श्रोतके व्याख्याता हैं आचार्य धरसेन तथा रचयिता हैं आचार्य पुष्पदन्त और भूतबलि । आचार्य गुणधर-यतिवृषभ जैन परम्परामें षटखण्डागमका जो स्थान है वही स्थान कषायप्राभूतका भी है। इन आगमग्रन्थोंका मूल स्रोत क्या है यह तो श्रुत परिचयके समय बतलावेंगे । यहाँ तो मात्र कषायप्राभूतके रचयिता आचार्य गुणधर और उसपर वृत्तिसूत्रोंकी रचना करनेवाले आचार्य यतिवृषभके बारेमें लिखना है। कषायप्राभृतकी प्रथम गाथासे सुस्पष्ट विदित होता है कि आचार्य धरसेनके समान आचार्य गुणधर भी अंग-पूर्वोके एकदेशके ज्ञाता थे। उन्होंने कषायप्राभूतको रचना पाँचवें पूर्वकी दशवीं वस्तुके तीसरे प्राभूतके आधारसे की है। इससे विदित होता है कि जिस समय पाँचवें पूर्वकी अविछिन्न परम्परा चल रही थी तब आचार्य गुणधर इस पृथिवीतलको अपने वास्तव्यसे सुशोभित कर रहे थे। ये अपने कालके श्रुतधर आचार्यों में प्रमुख थे । आचार्य यतिवृषभ उनके बाद आचार्य नागहस्तीके कालमें हुए हैं, क्योंकि आचार्य वीरसेरने इन्हें आचार्य आर्यमंक्षुका शिष्य और आचार्य नागहस्तीका अन्तेवासी लिखा है। ये प्रतिभाशाली Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : ३०७ महान् आचार्य थे यह इनके कषायप्राभृत पर लिखे गये वृत्तिसूत्रों (चूर्णिसूत्रों से ही ज्ञात होता है । वर्तमान में उपलब्ध त्रिलोकप्रज्ञप्ति इनकी अविकल रचना है यह कहना तो कठिन है । इतना आवश्यक है कि इसके fear त्रिलोकप्रज्ञप्ति और होनी चाहिये । सम्भव है उसकी रचना इन्होंने की है । यह तो हम पहले ही लिख आये हैं कि सम्यक् श्रुतके अर्थकर्ता तीर्थंकर केवली होते हैं और ग्रन्थकर्ता गणधरदेव होते हैं । इस तथ्यको ध्यान में रख कर आनुपूर्वी क्रमसे विचार करने पर विदित होता है कि सिद्धान्तग्रन्थों और तदनुवर्ती श्रुतके सिवा अन्य जो भी श्रत वर्तमानकालमें उपलब्ध होता है उसके रचयिता आचार्योंने परिपाटी क्रमसे प्राप्त हुए श्रुतके आधारसे ही उसकी रचना की है। इसलिये यहाँ पर कुछ प्रमुख श्रुतधर आचार्यों का नाम निर्देश कर देना भी इष्ट है जिन्होंने अन्य अनुयोगोंकी रचना कर सर्वप्रथम श्रुतके भंडारको भरा है | द्रव्यानुयोगको सर्वप्रथम पुस्तकारूड़ करनेवाले प्रमुख आचार्यं भगवान् कुन्दकुन्द हैं । इनकी और इनके द्वारा रचित श्रुतकी महिमा इसीसे जानी जा सकती है कि भगवान् महावीर और गौतम गणवर के बाद इनको स्मरण किया जाता है । उत्तरकालमें आचार्य गृद्धपिच्छ, बट्टकेर, शिवकोटि समन्तभद्र, पूज्यपाद, भट्टाकलंकदेव, विद्यानन्द और योगीन्द्रदेव प्रभृति सभी आचार्योंने तथा राजमलजी, बनारसीदासजी आदि विद्वानोंने इनका अनुसरण किया है । आचार्य अमृतचन्द्रके विषय में तो इतना ही लिखना पर्याप्त है कि मानो इन्होंने भगवान् कुन्दकुन्दके पादमूलमें बैठकर ही समयसार आदि श्रुतकी टीकायें लिखी हैं । चरणानुयोगको पुस्तकारूढ़ करनेवाले प्रथम आचार्य वट्टकेरस्वामी हैं । इनके द्वारा निबद्ध मूलाचार इतना सांगोपांग है कि आचार्य वीरसेन इसका आचारांग नाम द्वारा उल्लेख करते हैं । उत्तरकालमें जिन आचार्यों और विद्वानोंने मुनि आचार पर जो भी श्रुत निबद्ध किया है उसका मूल श्रोत मूलाचार ही है । आचार्य वसुनन्दिने इस पर एक टीका लिखी है। भट्टारक सकलकीर्तिने भी मूलाचारप्रदीप नामक एक ग्रन्थकी रचना की है । उसका मूल स्रोत भी मूलाचार ही है । इसी प्रकार चार आराधनाओंको लक्ष्य कर आचार्य शिवकोटिने आराधनासार नामक श्रुतकी रचना की है। श्रुतके क्षेत्रमें मूल श्रुतके समान इसकी भी प्रतिष्ठा है । श्रावकाचारका प्रतिपादन करनेवाला प्रथम श्रुतग्रन्थ रत्नकरण्ड श्रावकाचार है । यह आचार्य समन्तभद्रकी कृति है, जिसका मूल आधार उपासकाध्ययनांग है । इसके बाद अनेक अन्य आचार्यों और विद्वानोंने गृहस्थधर्म के ऊपर अनेक ग्रन्थोंकी रचनायें की हैं । प्रथमानुयोगमें महापुराण, पद्म पुराण और हरिवंशपुराण प्रसिद्ध हैं। इनकी रचना भी यथासम्भव परिपाटी क्रमसे आये हुए अंग-पूर्व श्रुतके आधारसे की गई है । जिन आचार्यों ने इस श्रुतको सम्यक् प्रकारसे अवधारण कर निबद्ध किया है उनमें आचार्य जिनसेन ( महापुराणके कर्ता) आचार्य रविषेण और आचार्य जिनसेन ( हरिवंशपुराण के कर्ता) मुख्य हैं । इस तरह चारों अनुयोगोंमें विभक्त समग्र मूल श्रुतकी रचना आनुपूर्वीसे प्राप्त अंगपूर्वश्रुत के आधारसे ही इन श्रुतधर आचार्योंने की है ऐसा यहाँ समझना चाहिए। जैन परम्परामें पूर्व - पूर्व श्रुतकी अपेक्षा ही उत्तरउत्तर श्रुतको प्रमाण माना गया है सो सर्वत्र इस तथ्यको ध्यानमें रखकर श्रुतकी प्रमाणता स्वीकार करनी चाहिए । Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यकत-परिचय इस समय इस भरतक्षेत्रमें केवली, श्रुतकेवली और अभिन्न दशपूवियोंका तो सर्वथा अभाव है ही। उत्तर कालमें विशिष्ट श्रुतधर जो ज्ञानी आचार्य हो गये हैं उनका भी अभाव है। फिर भी उन आचार्यों द्वारा लिपिबद्ध किया गया जो भी आगम साहित्य हमें विरासतमें मिला है उसका पूरी तरहसे मूल्यांकन करना हम अल्पज्ञोंकी शक्ति के बाहर है।। .. पूर्व कालमें अरिहन्त परमेष्ठीकी वाणीके रूपमें जिस श्रुतका गणधरदेवने संकलन किया था वह अंगबाह्य और अंगप्रविष्ठके भेदसे दो भागोंमें विभक्त किया गया था। अंगबाह्य श्रुत मुख्यरूपसे चौदह प्रकारका है-सामायिक, चतुर्विशतिस्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण, वैनयिक, कृतिकर्म, दशवकालिक, उत्तराध्ययन, कल्पव्यवहार, कल्प्याकल्प्य, महाकल्प्य, पुण्डरीक, महापुण्डरीक और निषिद्धिका । तथा अंगप्रविष्ठ श्रुत बारह प्रकारका है-आचार, सूत्रकृत, स्थान, समवाय, व्याख्याप्रज्ञप्ति, ज्ञातृधर्मकथा, उपासकाध्ययन, अन्तःकृद्दशा, अनुत्तरोपपादिकदशा, प्रश्नव्याकरण, विपाकसूत्र और दृष्टिवाद । इनमेंसे दृष्टिवाद श्रुतके पाँच अर्थाधिकार है-परिकर्म, सत्र, प्रथमानयोग, पूर्वगत और चलिका । परिकर्म पाँच प्रकारका है-चन्द्रप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, द्वीपसागरप्रज्ञप्ति और व्याख्याप्रज्ञप्ति । पूर्वगतके चौदह अर्थाधिकार हैंउत्पादपूर्व, आग्रायणीय, वीर्यानुप्रवाद, अस्ति-नास्तिप्रवाद, ज्ञानप्रवाद, सत्यप्रवाद, आत्मप्रवाद, कर्मप्रवाद, प्रत्याख्यानप्रवाद, विद्यानुवाद, कल्याणनामधेय, प्राणावाय, क्रियाविशाल और लोकबिन्दुसार । तथा चूलिका पाँच प्रकारकी है-जलगता, स्थलगता, मायागता, रूपगता और आकाशगता। यह मूल श्रत है। किन्तु कालदोषवश उत्तरोत्तर उसका ह्रास होने पर आजसे लगभग साधिक दो हजार वर्ष पूर्व अन्तमें धरसेन आचार्य हुए। उन्हें अंग-पूर्बसम्बन्धी अवशिष्ट जो भी ज्ञान प्राप्त था, उसका उन्होंने पुष्पदन्त और भूतबलि आचार्यको अध्ययन कराया । परिणामस्वरूप इन दोनों आचार्योने मिलकर षट्खण्डागम श्रुतको निबद्ध कर पुस्तकारूढ़ किया । षट्खण्डागम इन दोनों आचार्योने षट्खण्डागम श्रुतकी रचना किस आधारसे की इसका विशेष ऊहापोह आचार्य वीरसेनने धवला टीकामें किया है। यहाँ संक्षेपमें इतना लिखना पर्याप्त है कि आग्रायणीय पूर्वको २० वस्तुओंमेंसे ५वीं वस्तु चयनलब्धिके २० प्राभूतोंमेंसे चौथा प्राभूत महाकर्मप्रकृति है। मुख्यतया उसीसे षट्खण्डागमकी उत्पत्ति हुई है। इतना अवश्य है कि इसके कति आदिक ३४ अधिकार हैं उनमेंसे प्रारम्भके ६ अधिकारोंसे ही इन खण्डोंकी उत्पत्ति हुई है । मात्र जीवस्थानकी सम्यक्त्वोत्पत्ति चूलिकाका मूल आधार दृष्टिवादका दूसरा भेद सूत्र है और गति-अगति चूलिकाका मूल आधार व्याख्याप्रज्ञप्ति अंग है। यह समस्त षट्खण्डागमकी रचनाका मूल स्रोत है। इससे विदित होता है कि षट्खण्डागमके रूपमें इस समय जो भी श्रुत उपलब्ध है वह मात्र आचार्य पुष्पदन्त और भूतबलिकी स्वनिर्मित कृति न होकर अंग-पूर्व श्रुतका ही अवशिष्ट भाग है । इसलिए आगममें इसकी मूल अंग-पूर्व साहित्यके समान ही प्रामाणिकता स्वीकार की गई है । वर्तमान कालमें यह हमारा महान् भाग्य है कि शेष बचे अंग-पूर्व श्रुतके विच्छेदके भय और प्रवचनवत्सलताके कारण आचार्यवर्य धरसेनके मनमें जो अवशिष्ट अंग-पूर्वश्रुतकी सुरक्षाका भाव उदित हुआ था उसीके परिणामस्वरूप इस समय अंग-पूर्वश्रुतके उस अवशिष्ट अंशके दर्शन, श्रवण और मनन करनेका सौभाग्य Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थखण्ड : ३०९ प्राप्त हो सका है। इस महान् प्रयासमें आचार्य घरसेन तो श्रेयोभागी हैं ही। साथ ही आचार्य पुष्पदन्त और भूतबलि भी कम श्रेयभागी नहीं हैं, जिनकी विलक्षण प्रतिभा और प्रयासके फलस्वरूप अंग-पूर्वश्रुत का यह अवशिष्ट भाग पुस्तकारूढ़ हुआ । भाव विभोर होकर मनःपूर्वक हमारा उन भावप्रवण परम सन्त आचार्योंको नो आगमभाव नमस्कार है । सम्यक् श्रुतके प्रकाशक वे तो धन्य हैं ही, उनकी षट्खण्डागमस्वरूप यह अनुपम कृति भी धन्य है । । षट्खण्डागमके जो छह खण्ड हैं उनमें प्रथम खण्डका नाम जीवस्थान है । उसके सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अल्पबहुत्व ये आठ अनुयोगद्वार तथा प्रकृति समुत्कीर्तना, स्थान समुत्कीर्तना, तीन महादण्डक, जघन्य स्थिति, उत्कृष्ट स्थिति, सम्यक्त्वोत्पत्ति और गति - आगति ये नौ चूलिकाएँ हैं । इन अधिकारोंके जो नाम हैं उनके अनुसार ही गुणस्थानों और मार्गणाओंका आश्रय लेकर इसमें जीवोंका वर्णन किया गया है । दूसरा खण्ड क्षुल्लकबन्ध है । इसके स्वामित्वादि ग्यारह अधिकार हैं। उनके द्वारा इस खण्डमें बन्धक और अबन्धक जीवोंका संक्षेपसे निरूपण किया गया है । इस खण्डकी एक चूलिका भी है । उक्त अर्थका और साथ ही अनुक्त अर्थका विशेष रूपसे कथन करनेवाले प्रकरणको चूलिका कहते हैं । इसमें महादण्डक सूत्रोंका समावेश कर सब जीवोंकी अपेक्षा अल्पबहुत्वका निरूपण किया गया है । तीसरा खण्ड बन्धस्वामित्वविचय है । इसमें चौदह गुणस्थानों और चौदह मार्गणाओंकी अपेक्षा ज्ञानावरणादि आठ कर्मोकी उत्तर प्रकृतियोंका कौन जीव बन्धक है और कौन जीव अबन्धक है इसका विस्तार से विचार किया गया है । चौथा खण्ड वेदना है । इसमें सर्वप्रथम वेदना खण्डकी उत्पत्तिके मूल स्रोतका निर्देश करते हुए मूलमें ही बतलाया है कि आग्रायणीय पूर्वकी पाँचवीं वस्तुके कर्मप्रकृति नामक चौथे प्राभृतके कृति और वेदना आदि २४ अनुयोगद्वार हैं । कृति और वेदनामें वेदनाकी प्रधानता होनेसे इस खण्डको वेदनाखण्ड कहते हैं । उनमें से कृतिका निरूपण करते हुए उसके १ नामकृति, २ स्थापनाकृति, ३ द्रव्यकृति, ४ गणनाकृति, ५ ग्रन्थकृति, ६ करणकृति और ७ भावकृतिका प्रथम अधिकार द्वारा निरूपण किया गया है। तथा वेदनाका निरूपण करते हुए उसका वेदनानिक्षेप आदि १६ अधिकारों द्वारा निरूपण किया गया है । इस प्रकार इन दो अधिकारों के आश्रयसे वेदनाखण्डमें कृति और वेदनाका निरूपण हुआ है । पाँचवां खण्ड वर्गणा है । इसमें स्पर्श, कर्म, प्रकृति तथा बन्धनके बन्धविधान भेदको छोड़कर बन्ध, बन्धक और बन्धनीयका कथन हुआ है । विशेष खुलासा इस प्रकार है १. स्पर्शअनुयोगद्वारके स्पर्शनिक्षेप, स्पर्शनयविभाषणता आदि १६ अनुयोगद्वार हैं । उनमेंसे स्पर्शनिक्षेपके नामस्पर्श, स्थापनास्पर्श, द्रव्यस्पर्श, एकक्षेत्रस्पर्श, अनन्तरक्षेत्र स्पर्श, देशस्पर्श, त्वक्स्पर्श, सर्वस्पर्श, स्पर्शस्पर्श, कर्मस्पर्श, बन्धस्पर्श, भव्यस्पर्श और भावस्पर्श इन तेरह प्रकारके स्पर्शोका, किस स्पर्शको कौन नय स्वीकार करता है यह स्पष्टीकरण करके कथन किया गया है । २. कर्मअनुयोगद्वारके कर्मनिक्षेप, कर्मनयविभाषणता आदि सोलह अधिकार हैं । उनमेंसे कर्मनिक्षेपके नामकर्म, स्थापनाकर्म, द्रव्यकर्म, प्रयोगकर्म, समवदानकर्म, अधः कर्म, ईर्यापथकर्म, तपःकर्म, क्रियाकर्म और भावकर्म ये दस भेद हैं । इनमेंसे किस कर्मको कौन नय स्वीकार करता है इसका निर्देश करनेके बाद इस अनुयोगद्वारमें उक्त दस कर्मोंका कथन किया गया Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० : सिद्धान्ताचार्य पं० फलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ ३. प्रकृति अनुयोगद्वारके भी प्रकृतिनिक्षेप, प्रकृतिनयविभाषणता आदि सोलह अधिकार हैं। उनमेसे प्रकृतिनिक्षेपके चार भेद हैं। कौन नय किस निक्षेपको स्वीकार करता है यह बतला कर इसमें प्रकृतिनिक्षेपके चार भेदोंका तथा प्रसंगसे मतिज्ञान आदि ज्ञानोंके अवान्तर भेदोंका सांगोपांग कथन किया गया है। ४. बन्धकके चार भेद हैं-बन्ध, बन्धक, बन्धनीय और बन्धविधान । इनमेंसे बन्धके नामबन्ध, स्थापनाबन्ध, द्रव्यबन्ध और भावबन्ध ये चार भेद हैं। नैगम, व्यवहार और संग्रहनय इन सब बन्धोंको स्वीकार करता है। ऋजसूत्रनय स्थापनाको स्वीकार नहीं करता, शेषको स्वीकार करता है। तथा शब्दनय नामबन्ध और भावबन्धको स्वीकार करता है। इस प्रकार ये चार प्रकारके बन्ध हैं। इनका विस्तत विवेचन तो बन्धन अनुयोगद्वारमें किया ही है। साथ ही बन्धकका एक उदाहरण देकर तदनुसार 'महादण्डक जानने चाहिए' यह संकेतकर बन्धनीयका विस्तारके साथ विचार करते हए वर्गणा, वर्गणासमुदाहार, अनन्तरोपनिधा, परम्परोपनिधा, अवहार, यवमध्य, पदमीमांसा और अल्पबहुत्व इन आठ अधिकारोंका आश्रय लेकर २३ प्रकारको वर्गणाओंका इस अनुयोगद्वारमें निरूपण किया गया है। इसके बाद इसकी चूलिका प्रारम्भ होती है। इसमें निगोदका, बारहवें गुणस्थानवर्ती वीतराग साधके शरीरमेंसे उनके अभाव होनेके क्रमका तथा अन्य अनेक उपयोगी विषयोंका विस्तारके साथ प्रतिपादन किया गया है। अन्त में बन्धनके चौथे भेद 'बन्धविधानके चार भेद हैंप्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्ध ।' इतना संकेत मात्र किया है। मात्र इस सूत्रकी टीका करते हुए वीरसेन स्वामी लिखते हैं-'इन चार बन्धोंका विधान भूतबलि भट्टारकने महाबन्धमें विस्तारके साथ लिखा है, इसलिए हमने यहाँपर नहीं लिखा है । अतः सकल महाबन्धको यहाँ कथन करनेपर बन्धविधान समाप्त होता है। छठा खण्ड महाबन्ध है। इसमें बन्धनके चौथे भेद बन्धविधानका प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्ध इन चार अधिकारों द्वारा विस्तारसे वर्णन किया गया है। खुलासा इस प्रकार है १ प्रकृतिबन्ध-इस नामके अनुयोगद्वारमें प्रकृतिबन्धका विवेचन ओघ ओर आदेशसे प्रकृतिसमुत्कीतना आदि २४ अनुयोगद्वारोंका आश्रय लेकर विस्तारके साथ किया गया है। यह दुर्भाग्यकी बात है कि इस अनयोगद्वारके मूल ताड़पत्रीय प्रतिका प्रारम्भिक भाग त्रुटित हो जानेके कारण प्रकृति समुत्कीर्तनाका प्रारम्भका कुछ भाग तथा ताड़पत्रका २८वां पत्र त्रुटित हो जानेके कारण बन्धस्वामित्वविचयका मध्यका भाग वर्तमानमें उपलब्ध नहीं है। इससे यह ज्ञान सहज हो जाता है कि किस प्रकृतिके बन्धका स्वामी कौन है, कितना काल और अन्तर है आदि । साथ ही इससे हमें यह ज्ञान भी हो जाता है कि किस प्रकृतिका बन्ध होते समय अन्य किन प्रकृतियोंका बन्ध होता है। इसके अल्पबहुन्व अनुयोगद्वारका विवेचन करते हुए उसके जीवअल्पबहुत्व और अद्धाअल्पबहुत्व ऐसे दो भेद कर दिये हैं, इससे किस प्रकृतिके बन्धक जीवोंसे तद्भिन्न प्रकृतियोंके बन्धक जीवोंके अल्पबहुत्वका क्या क्रम है इसका ज्ञान तो हो ही जाता है। साथ ही कालकी अपेक्षा भी परिवर्तमान प्रकृतियोंके बन्धकालका परस्पर अल्पबहुत्व किस प्रकारका है यह ज्ञान भी हो जाता है। २. स्थितिबन्ध-इस अनुयोगद्वारमें पहले मूलप्रकृतिस्थितिबन्धकी प्ररूपणा करके बादमें उत्तरप्रकृतिस्थितिबन्धकी प्ररूपणा की गई है । मूलप्रकृतिस्थितिबन्धकी प्ररूपणा करते समय पहले स्थितिबन्धस्थानप्ररूपणा, निषेकप्ररूपणा, आबाधाकाण्डकप्ररूपणा और अल्पबहुत्व इन चार अनुयोगद्वारोंके आश्रयसे उसकी प्ररूपणा की गई है। तथा इसके बाद २४ अनुयोगद्वारोंको आधार बनाकर ओघ और आदेशसे स्थितिबन्धकी प्ररूपणा की गई है। उत्तरप्रकृतिस्थितिबन्धके कथनमें भी यही पद्धति स्वीकार की गई है। अन्तर केवल इतना है कि Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थखण्ड : ३११ मूलप्रकृतिस्थितबन्धकी प्ररूपणा में ज्ञानावरणादि आठ मूलप्रकृतियोंका अवलम्बन लिया गया है और उत्तरप्रकृतिस्थितिबन्धकी प्ररूपणामें मूलप्रकृतियों के अवान्तर भेदोंको अवलम्बन बनाया गया है। स्थितिबन्धस्थानका कथन करते समय चौदह जीवसमासोंमें स्थितिबन्धस्थानोंका, संक्लेशविशुद्धिस्थानोंका और स्थितिबन्धका अल्पबहुत्व बतलाया गया है। निषेकप्ररूपणाका अनन्तरोपनिधा और परम्परोपनिधा इन दो अधिकारोंका आलम्बन लेकर विचार किया गया है। विवक्षित निषेकसे समनन्तर स्थिति में स्थित निषेकमें कितनी हानि होती है इसका विचार अनन्तरोपनिषा अधिकार द्वारा किया गया है तथा विवक्षित निषेकसे पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थान जानेपर कितनी हानि होती है इसका विचार परम्परोपनिधा अधिकार द्वारा किया गया है । आबाधाका विवेचन करते हुए बतलाया है कि मोहनीयका सत्तर कोटाकोड़ी सागर स्थितिबन्ध होने पर सात हजार वर्षप्रमाण आबाधा प्राप्त होती है। आबाधाका विचार इसी अनुपात से सर्वत्र करना चाहिए। मात्र अन्तः कोड़ाकोड़ी प्रमाण स्थितिबन्ध होनेपर अन्तर्मुहूर्त प्रमाण आबाधा प्राप्त होती है । आयुकर्मकी अबाधा परभवसम्बन्धी आयुका बन्ध होते समय जो भुज्यमान आयु शेष रहती है तत्प्रमाण होती है । आमाकाण्डका विवेचन करते हुए बतलाया है कि आयुके सिवा शेष सात कमौका अपने-अपने उत्कृष्ट स्थिति से लेकर पत्यके असंख्यातवें भाग कम स्थितिबन्धके प्राप्त होने तक प्राप्त स्थितियोंका एक बाधाकाण्डक होता है । अर्थात् इतनी स्थितियों में से किसी भी स्थितिका बन्ध होनेपर उन सब स्थितियों की एक समान आबाधा प्राप्त होती है। अर्थात् इतने स्थिति विकल्पोंकी अपने-अपने अनुपातसे उत्कृष्ट आबाधा प्राप्त होती है । इसके बाद इतने ही स्थितिविकल्पों की एक समय कम आबाधा होती है । इसी प्रकार यथायोग्य शेष स्थितिबन्धमें भी आवामा जाननी चाहिए। यहाँ जितने स्थितिविकल्पोंकी एक आवाधा होती है। उनकी एक आबाधाकाण्डक संज्ञा है। इसे लानेका क्रम यह है कि उत्कृष्ट आबाधाका भाग उत्कृष्ट आबाधान्यून उत्कृट स्थितिमें देनेपर एक आवाधाकाण्डका प्रमाण आता है। सब जीवसमासोंमें आवधाकाण्डकका प्रमाण इसी विधिसे प्राप्त कर लेना चाहिए। मात्र आयुकर्ममें यह नियम लागू नहीं होता, क्योंकि वहाँ स्थितिबन्धके अनुपातसे आबाधा नहीं प्राप्त होती । अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा करते हुए आबाधा, आबाधास्थान आदि के अल्पबहुत्वका निर्देश किया है। इस प्रकार स्थितिबन्धके सम्बन्धमें सामान्य प्ररूपणा करके आगे उसका अद्धाच्छेद आदि चौबीस अनुयोगद्वारों तथा भुजगार, पदनिक्षेप और वृद्धि अनुयोगद्वारोंके आश्रयसे कथन किया गया है । यह मूलप्रकृतिबन्धकी मीमांसा है। उत्तरप्रकृतिस्थितिबन्धका विचार भी इसी प्रक्रियासे किया गया है। अन्तर है तो केवल इतना ही कि मूलप्रकृतिस्थितिबन्धमें आठ मूल प्रकृतियोंके आध्यसे विचार किया गया है और उत्तरप्रकृतिस्थितिबन्ध १२० उत्तर प्रकृतियोंके आश्रयसे विचार किया गया है। यद्यपि प्रकृतियाँ १४८ है तथापि दर्शनमोहकी सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व ये दो अबन्ध प्रकृतियाँ हैं । पाँच बन्धनों और पाँच संपाठोंका पाँच शरीरोंमें अन्तर्भाव हो जाता है । तथा स्पर्शादिकके बीस भेदोंके स्थान में सामान्यसे स्पर्शादिक चारका ही ग्रहण किया है इसलिए २८ प्रकृतियाँ कम होकर बन्धमें १२० प्रकृतियाँ ही ली गई हैं । स्थितिबन्धके मुख्य भेद चार हैं यह हम पहले लिख आये हैं । स्थिति और अनुभाग बन्धका मुख्य कारण कयाय है। कहा भी है- द्विदि-अणुभागा कसावदी होंति । स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध कषायसे होता है । Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ : सिद्धान्ताचार्य पं० फलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ यहाँ स्थितिबन्धके कारणभूत कषायोंकी कषायाध्यवसानस्थान संज्ञा बतलाई है। इन्हें ही स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान भी कहते हैं । साता और असाता वेदनीयके स्थितिबन्धके साथ अन्य कर्मोके स्थितिबन्धका प्रकार क्या है इसका निर्देश करते हुए यहाँ बतलाया है वहाँ जो ज्ञानावरणीय कर्मके बन्धक जीव हैं वे दो प्रकारके हैं-सातबन्धक और असातबन्धक । जो वे सातबन्धक जीव हैं वे तीन प्रकारके हैं-चतुःस्थानबन्धक, त्रिस्थानबन्धक और द्विस्थानबन्धक । वहाँ जो वे असातबन्धक जीव हैं वे तीन प्रकारके हैं-द्विस्थानबन्धक, त्रिस्थानबन्धक और चतुःस्थानबन्धक । सर्वविशुद्ध साताके चतुःस्थानबन्धक जीव है । त्रिस्थानबन्धक जीव सक्लिष्टतर है । द्विस्थानबन्धक जीव उनसे भी संक्लिष्टतर हैं। सर्वविशुद्ध असाताके द्विस्थान बन्धक जीव हैं। त्रिस्थानबन्धक जीव संक्लिष्टतर है । चतुःस्थानबन्धक जीव उनसे भी संक्लिष्टतर है। साताके चतुःस्थानबन्धक जीव ज्ञानावरण कर्मकी जघन्य स्थितिका बन्ध करते हैं। विस्थान बन्धक जीव ज्ञानावरण कर्मकी अजघन्यानुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करते हैं। द्विस्थानबन्धक जीव सातावेदनीयकी ही उत्कष्ट स्थितिका बन्ध करते हैं । असाताके द्विस्थान बन्धक जीव स्वस्थानकी अपेक्षा ज्ञानावरण कर्मकी जघन्य स्थितिका बन्ध करते हैं । त्रिस्थानबन्धक जीव ज्ञानावरण कर्मकी अजघन्यानुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करते हैं । चतुःस्थानबन्धक जीव असातावेदनीयकी ही उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करते हैं। यह स्थितिबन्धका प्रकरण है, अनुभाग बन्धका नहीं। इसमें जिन परिणामोंसे सब कर्मोका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है उनकी संक्लेश संज्ञा रखी है और जिन परिणामोंसे जघन्य स्थितिबन्ध होता है उनकी विशुद्धि संज्ञा रखी है । मात्र तिर्यञ्चायु, मनुष्यायु और देवायु इस नियमके अपवाद है। उन तीन आयुओंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धके योग्य परिणामोंकी विशुद्धि संज्ञा और जघन्य स्थितिबन्धके योग्य परिणामोंकी संक्लेश संज्ञा रखी है । पूर्वमें जो हम महाबन्धका उद्धरण दे आये हैं उसमें साता और असातावेदनीयके किस प्रकारके अनुभागबन्धके साथ शेष कर्मोके स्थितिबन्धकी क्या प्रक्रिया है यह मिलान करके बतलाया गया है। इससे विदित होता है कि अनुभागबन्धमें जिन परिणामोंकी संक्लेश और विशुद्धि संज्ञा है, स्थितिबन्धके प्रकरणमें उनकी वे संज्ञाएँ दूसरे प्रकारसे रखी गई है। इसे विशेषरूपसे समझने के लिए जीवसमुदाहार अनुयोगद्वार द्रष्टव्य है। यहाँ इतना विशेष जानना चाहिए कि क्षपकौणिमें जिन प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध होता है वहाँ बन्धके योग्य परिणामोंके लिए संक्लेशरूप या विशुद्धिरूप किसी प्रकारकी संज्ञाका प्रयोग नहीं किया गया है। उदाहरणार्थ सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानमें पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, सातावेदनीय, यश कीर्ति, उच्चगोत्र और पांच अन्तराय इन १७ प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध होता है, सो इसके स्वामित्वका निर्देश करते हुए लिखा है कि 'जो अन्यतर क्षपक सूक्ष्मसाम्परायिक जीव अन्तिम जघन्य स्थितिबन्ध कर रहा है वह इन प्रकृतियोंके जघन्य स्थिति बन्धका स्वामी है।' इस पद्धतिसे यह कथन स्थितिबन्ध अधिकारमें ही किया गया हो यह बात नहीं है, अनुभागबन्ध अधिकारमें भी इस पद्धतिको स्वीकार किया गया है । यथा 'सातावेदनीय-यश:कीर्ति-उच्चगोत्रका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध किसके होता है ? अन्तिम समयमें उत्कृष्ट अनुभागबन्ध करनेवाले अन्यतर क्षपक सूक्ष्मसाम्परायिक जीवके होता है।' 'ओघसे पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, पाँच अन्तरायका जघन्य अनुभागबन्ध किसके होता है ? अन्तिम समयमें जघन्य अनुभागबन्ध करनेवाले अन्यतर क्षपक सूक्ष्मसाम्परायिक जीवके होता है। निद्रा-प्रचलाका जघन्य अनुभागबन्ध किसके होता है ? निद्रा-प्रचलाके बन्धके अन्तिम समयमें विद्यमान अपूर्वकरण क्षपकके Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : ३१३ होता है । क्रोध संज्वलनका जघन्य अनुभागबन्ध किसके होता है ? क्रोधसंज्वलनका अन्तमें अनुभागबन्ध करनेवाले अन्यतर क्षपक अनिवृत्तिकरण जीवके होता है । ये महाबन्धके स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध अधिकारके महत्त्वपूर्ण उल्लेख हैं। इनको दृष्टिपथमें लेनेसे विदित होता है कि श्रेणि आरोहणके समयसे लेकर कषायविकल्प विश्रान्त होकर उपयोग परिणति वीतरागस्वरूप हो जाती है । यही कारण है कि वहाँ द्रव्यानुयोगमें ध्यानकी एकतानताका निर्देश करते हुए बतलाया है कि जहाँ अन्तर्जल्प और बहिर्जल्पका अभाव होकर अनुभूतिमात्र आत्माकी अवस्था होती है वही परम उत्कृष्ट ध्यान है। ३ अनुभागबन्ध-इस अनुयोगद्वारके मूलप्रकृतिअनुभागबन्ध और उत्तरप्रकृतिअनुभागबन्ध ये दो विभाग हैं । मूलप्रकृतिअनुभागबन्धका विवेचन करते हुए सर्वप्रथम निषेकप्ररूपणा और स्पर्धकप्ररूपणाका विवेचन किया है। __ निषेकप्ररूपणा-प्रति समय जो मूल और तदनुरूप उत्तर प्रकृतियोंका बन्ध होता है उसका दो प्रकारसे होता है-एक तो स्थितिबन्धकी अपेक्षा और दूसरा अनुभागबन्धकी अपेक्षा । आबाधा कालको छोड़कर शेष स्थितियोंके प्रत्येक समयमें जो कर्मपुञ्ज प्राप्त होता है उसे स्थितिबन्धकी अपेक्षा निषेक कहते हैं । इस प्रकार प्रत्येक समय बंधनेवाला कर्म अपनी-अपनी स्थितिके अनुसार आबाधासे ऊपरके सब स्थितिविकल्पोंमें उत्तरोत्तर एक-एक चयकी हानिके क्रमसे विभाजित होता रहता है। मात्र आबाधाका जितना काल परिमाण होता है उसमें निषेक रचना नहीं होती। यह तो स्थितिबन्धके अनुसार बँधनेवाले कर्मके विभाजनका क्रम है । अनुभागकी अपेक्षा जघन्य अनुभागवाले कर्म परमाणुओंकी प्रथम वर्गणा होती है । तदनुसार प्रत्येक परमाणुको वर्ग कहते हैं। क्रमवृद्धिरूप अनुभागशक्तिको लिए हुए अन्तर रहित ये वर्गणायें जहाँ तक पाई जाती हैं उन सबकी मिलकर स्पर्धक संज्ञा है। ये स्पर्धक देशघाति और सर्वघाति दो प्रकारके होते हैं । ये दोनों प्रकारके स्पर्धक स्थितिबन्धके अनुसार जो निषेक रचना कही है उसके प्रथम निषेकसे लेकर अन्त तक पाये जाते हैं। स्पर्धकप्ररूपणा-पर्यायशक्तिके अविभागी अंशका नाम अविभागप्रतिच्छेद है। ऐसे अनन्त अविभागप्रतिच्छेद एक वर्गमें पाये जाते हैं। तथा वे वर्ग मिलकर एक वर्गणा बनती है और ऐसी अनन्तानन्त वर्गणाएँ मिलकर एक स्पर्धक होता है । इतना अवश्य है कि प्रथम वर्गणाके प्रत्येक वर्गमें समान अविभागप्रतिच्छेद होते है। दूसरी वर्गणाके प्रत्येक वर्ग में एक अधिक अविभागप्रतिच्छेद होते हैं। इसी प्रकार प्रत्येक स्पर्धककी अन्तिम वर्गणा तक जानना चाहिए। __ ये दो अनुयोगद्वार आगेकी प्ररूपणाके मूल आधार हैं। उनके अनुसार अनुभागबन्धका विचार संज्ञा आदि २४ अधिकारों द्वारा किया गया है। संज्ञाका विचार करते हुए बतलाया है-संज्ञा दो प्रकारकी है-घातिसंज्ञा और स्थानसंज्ञा । जो ज्ञानावरणादि आठ कर्म हैं वे धाति और अघाति इन दो भागोंमें विभाजित हैं । घातिकर्म भी दो प्रकारके हैंदेशघाति और सर्वधाति । घातिकर्मोका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध सर्वघाति ही होता है । अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध सर्वधाति और देशघाति दोनों प्रकारका होता है । जघन्य अनुभागबन्ध देशघाति ही होता है । अजघन्य अनुभागबन्ध देशघाति और सर्वघाति दोनों प्रकारका होता है । तथा अघातिकर्मोका अनुभागबन्ध देशघाति ही होता है। ४० Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ स्थानसंज्ञाका कथन करते हए बतलाया है-चारों घातिकर्मोका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध चतुःस्थानिक होता है। अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध चतुःस्थानिक, त्रिस्थानिक, द्विस्थानिक और एकस्थानिक होता है । जघन्य अनुभागबन्ध एकस्थानिक होता है। अजघन्य अनुभागबन्ध विस्थानिक, त्रिस्थानिक और चतुःस्थानिक होता है । चार अघाति कर्मोंका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध चतुःस्थानिक होता है। अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध चतुःस्थानिक, त्रिस्थानिक और द्विस्थानिक होता है। जघन्य अनुभागबन्ध विस्थानिक होता है। अजघन्य अनुभागबन्ध द्विस्थानिक, त्रिस्थानिक और चतुःस्थानिक होता है। ___ आगे सर्वबन्ध और नोसर्वबन्ध आदि १० अनुयोगद्वारोंका निर्देश करके स्वामित्वका विचार करते हुए बतलाया है कि इसको समझनेके लिए प्रत्ययानुगम, विपाकदेश तथा प्रशस्ताप्रशस्तप्ररूपणा ये तीन अधिकार ज्ञातव्य है । विवरण इस प्रकार है प्रत्ययानुगमका विचार करते हुए कर्मबन्धके मिथ्यात्व, असंयम, कषाय और योग ये चार प्रत्यय कहे है । उनमेंसे छह कर्म मिथ्यात्वप्रत्यय, असंयमप्रत्यय और कषायप्रत्यय होते हैं। वेदनीयकर्म मिथ्यात्वप्रत्यय, असंयमप्रत्यय, कषायप्रत्यय और योगप्रत्यय होता है। तात्पर्य यह है कि वेदनीयका केवल योगके निमित्तसे भी बन्ध होता है, इसलिए उसके बन्धके हेतु चार कहे हैं। किन्तु ज्ञानावरणादि छह कर्मोका केवल योगके निमित्तसे बन्ध नहीं होता, इसलिए उनके बन्धके हेतु तीन कहे हैं। यहाँ इतना विशेष जानना च हिए कि पूर्व पूर्व हेतुके सद्भावमें आगे आगेके हेतु होते ही हैं। किन्तु आगे आगेके हेतुके सद्भावमें पूर्व पूर्वके हेतु होते भी हैं और नहीं भी होते । यहाँ आयुकर्मका बन्ध किस प्रत्ययसे होता है इसका निर्देश नहीं किया। विपाकदेशका विचार करते हुए छह कर्मोंको जीवविपाकी, आयुकर्मको भवविपाकी तथा नामकर्मको जीवविपाकी, पुद्गलविपाकी और क्षेत्रविपाकी बतलाया है। प्रशस्ताप्रशस्तप्ररूपणाका विचार करते हुए चार घातिकर्मोको अप्रशस्त तथा अघाति कर्मोंको प्रशस्त और अप्रशस्त दोनों प्रकारका बतलाया है।। इस प्रकार स्वामित्वके लिए उपयोगी इन तीन अधिकारोंका प्ररूपण कर बादमें स्वामित्व आदि शेष अधिकारोंका तथा १३ अधिकारों द्वारा भुजगारका, ३ अधिकारों द्वारा पदनिक्षेपका और १३ अधिकारों द्वारा वृद्धिका विचार किया है । तथा सबके अन्तमें अध्यवसानसमुदाहार और जीवसमुदाहारका अपने अवान्तर अधिकारोंके आश्रयसे कथन कर मलप्रकृतिअनभागबन्ध प्ररूपणा समाप्त की है। उत्तरप्रकृति अन प्ररूपणाका विचार भी इसी विधिसे किया है। मात्र वहाँ मूल प्रकृतियोंके स्थानमें उत्तर प्रकृतियोंके आश्रयसे यह प्ररूपणा की है। ४प्रदेशबन्ध-महाबन्धका चौथा भाग प्रदेशबन्ध है। इसमें प्रदेशबन्धके क्रमका निर्देश करते हए बतलाया है कि सुख-दुःखके निमित्तसे वेदनीयकर्मकी अधिक निर्जरा होती है, इसलिए इसे सबसे अधिक प्रदेश मिलते हैं । उसके बाद स्थितिबन्धके प्रतिभागके अनुसार मोहनीय आदि कर्मोंको प्रदेश मिलते हैं । इस प्रकार इस अनुयोगद्वारमें प्रदेशबन्धका सांगोपांग विचार किया गया है। अनुपलब्ध चार टीकाएँ षट्खण्डागमका समस्त जैन वाङ्मयमें जो महत्त्वपूर्ण स्थान है और उनमें जीवसिद्धान्त तथा कर्मसिद्धान्तका जैसा विस्तारसे सांगोपांग विवेचन किया गया है उसे देखते हुए इतने महान् ग्रन्थ पर सबसे पूर्व आचार्य वीरसेनने ही टीका लिखी होगी यह बुद्धिग्राह्य प्रतीत नहीं होता । इस दृष्टिसे इन्द्रनन्दिके श्रुतावतारपर दृष्टिपात करनेसे विदित होता है कि सर्व प्रथम षट्खण्डागम और कषायप्राभृत इन दोनों सिद्धान्तोंका Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञान गुरुपरिपाटीले कुण्डकुन्दपुरमें पद्यनन्दि मुनिको प्राप्त हुआ और उन्होंने तीन खण्डों पर बारह हजार श्लोक प्रमाण परिकर्म नामकी एक टीका लिखी प्रकृतमें जिन पद्म नन्दि मुनिका उल्लेख किया है वे प्रातःस्मरणीय कुन्दकुन्द आचार्य ही होने चाहिए। इन्द्रनन्दिने दूसरी जिस टीकाका उल्लेख किया है वह शामकुण्ड आचार्यकृत थी वह छठे खण्डको छोड़कर पाँच खण्डों और कषायप्राभूत इस प्रकार दोनों सिद्धान्त ग्रन्थोंपर लिखी गई थी। इसका नाम पद्धति था । भाषा प्राकृत, संस्कृत तथा कानडी थी । प्रमाण बारह हजार श्लोक था । इन्द्रनन्दिने तीसरी जिस टीकाका उल्लेख किया है वह तुम्बुलूर ग्रामनिवासी तुम्बुलूर आचार्य कुठ थी। यह महाबन्ध नामक छठे खण्डको छोड़ कर दोनों सिद्धान्त ग्रन्थोंकी टीफाके रूपमें लिखी गई थी। नाम चूड़ामणि और प्रमाण चौरासी हजार श्लोक था । भाषा कानडी थी । तथा इन्द्रनन्दिने चौथी जिस टीकाका उल्लेख किया है वह तार्किकार्क समन्तभद्रद्वारा अत्यन्त सुन्दर मृदुल संस्कृत भाषामें महाबन्धको छोड़ कर शेष पाँच खण्डपर लिखी गई थी। उसका प्रमाण ४८ हजार श्लोक था । चतुर्थ खण्ड : ३१५ सबसे पहले पट्खण्डागम के प्रथम यह तो स्पष्ट है कि इन्द्रनन्दिने ये चार टीकाएँ हैं जिनका उल्लेख इन्द्रनन्दिने अपने श्रुतावतार में किया है किन्तु धवला टीका लिखते समय वीरसेन स्वामीके समक्ष आचार्य कुन्दकुन्द रचित परिकर्मको छोड़कर अन्य तीन टीकाएं उपस्थित थीं यह धवला टीकासे ज्ञात नहीं होता । उत्तर कालमें इनका क्या हुआ यह कहना बड़ा कठिन है। परिकर्म भी वही है जिसका इन्द्रनन्दिने परिकर्म टीकाके रूपमें उल्लेख किया है यह कहना भी कठिन है। धवला टीका वर्तमान समय में हमारे समक्ष षट्खण्डागमके प्रारम्भके पाँच खण्डों पर लिखी गई एकमात्र धवला टीका ही उपलब्ध है । इसकी रचना सिद्धान्तशास्त्र, छन्दशास्त्र, ज्योतिषशास्त्र, व्याकरणशास्त्र और प्रमाणशास्त्र के पारगामी तथा भट्टारक पदसे समलंकृत वीरसेन आचार्य ने की है। यह प्राकृत संस्कृत भाषामें लिखी गई है। यह तो धवला टीकासे ही जात होता है कि पट्खण्डागमसे प्रथम खण्ड जीवस्थानपर यह टीका १८ हजार श्लोक प्रमाण है और चौथे वेदनाखण्डपर १६ हजार श्लोक प्रमाण है किन्तु इसका पूरा प्रमाण ७२ हजार श्लोक बतलाया है। इससे विदित होता है कि दूसरे, तीसरे और पांचवें खण्डको मिला कर तीन खण्डों तथा निबन्धन आदि १८ अनुयोगद्वारोंपर सब मिला कर इसका परिमाण ३८ हजार श्लोक है। यहाँ यह निर्देश कर देना आवश्यक प्रतीत होता है कि निबन्धन आदि १८ अनुयोगद्वारोंपर आचार्य पुष्पदन्त भूतबलि कृत सूत्ररचना नहीं है । इसलिए वर्गणाखण्ड के अन्तिम सूत्रको देशामर्थक मानकर इन अठारह अनुयोगद्वारोंका विवेचन आचार्य वीरसेनने स्वतन्त्ररूपसे किया है। इसका 'धवला' यह नाम स्वयं आचार्य वीरसेनने निर्दिष्ट किया नहीं जान पड़ता । यह टीका वद्दिग उपनामधारी अमोघवर्ष ( प्रथम ) के राज्य के प्रारम्भकालमें समाप्त हुई थी और अमोमवर्षकी एक उपाधि 'अतिशय धवल' भी मिलती है । सम्भव है इसीको ध्यान में रखकर इसका नाम धवला रखा गया हो। यह धवल पक्षमें पूर्ण हुई थी, इस नामकरणका यह भी एक कारण हो सकता है । धवला टीकाका प्रमाण बहुत अधिक है । साथ ही उसमें षट्खण्डागमके पाँच खण्डोंमें प्रतिपादित विषयका और निबन्धनादि अठारह अनुयोगद्वारोंका विस्तारसे विवेचन किया गया है, इसलिए यहाँ उसमें प्रतिपादित सभी विषयों का सांगोपांग परिचय कराना सम्भव नहीं है । यहाँ तो मात्र उसको शैलीका उल्लेख करके संक्षेपमें उसका जो भी परिचय कराना इष्ट माना जा सकता है, यह पट्खण्डागमका परिचय कराते समय लिख ही आये हैं । Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ मंगल, निमित्त, हेतु, परिमाण, नाम और कर्ताका निर्देश करनेके बाद व्याख्यान करनेकी पद्धति पुरानी है । श्री वीरसेन आचार्यने धवला टीकाका प्रारम्भ करते समय इसी पद्धतिको स्वीकार कर षट्खण्डागमके प्रतिपाद्य विषयका विवेचन किया है । यहाँ यह प्रश्न होता है कि जीवस्थानके प्रारम्भमें जब इस पद्धतिका विवेचन कर दिया गया तब फिर वेदनाखण्डका प्रारम्भ करते समय इस पद्धतिका पुनः अनुसरण क्यों किया गया ? समाधान यह है कि जीवस्थान खण्डका संकलन अंग-पूर्वसम्बन्धी प्रारम्भके किसी एक अधिकारसे नहीं हुआ है। यही कारण है कि आचार्य पुष्पदन्त-भूतबलिने इस खण्डके मूलस्रोतका उल्लेख स्वयं अपनी कृतिमें नहीं किया। किन्तु षट्खण्डागमका प्रथम खण्ड जीवस्थान है यह जानकर आचार्य वीरसेनने अपनी टीकाके प्रारम्भ में उक्त पद्धतिका स्पष्टीकरण किया । परन्तु वेदनाखण्डका प्रारम्भ आग्रायणीय पूर्व की चयनलब्धि वस्तुके महाकर्मप्रकृति प्राभूतके कृति नामक प्रथम अधिकारसे हुआ है और इस तथ्यका स्पष्टीकरण स्वयं आचार्य पुष्पदन्त-भूतबलिने किया है, इसलिए आचार्य वीरसेनको उसका विवेचन करते समय भी पुनः उक्त पद्धतिका स्पष्टीकरण करना पड़ा। षट्खण्डागममें विविध विषयोंका विवेचन करते समय १४ गुणस्थान और १४ मार्गणाओंका आश्रय लिया गया है। कहीं कहीं चौदह जीवसमासोंके आश्रयसे भी प्रकृत विषयका विवेचन हुआ है । प्रश्न यह है कि यहाँ चौदह मार्गणाओमें काय, योग और वेद पदसे किसका ग्रहण हुआ है-भावमार्गणाका या द्रव्यमार्गणाका ? क्योंकि अर्वाचीन साहित्यमें कहीं-कहीं कायपदसे औदारिकादि शरीरोंका, योगपदसे द्रव्य मन, वचन और कायकी क्रियाका तथा वेदपदसे द्रव्यवेदका ग्रहण किया गया है, इसलिए यह प्रश्न होना स्वाभाविक है कि सिद्धान्त ग्रन्थोंमें और तदनुसारी गोम्मटसार प्रति ग्रन्थोंमें इन पदोंसे किनका ग्रहण हआ है ? इस प्रश्नके समाधान स्वरूप सत्प्ररूपगाके दूसरे सूत्रमें आये हुए ‘इमाणि' पदकी व्याख्या करते हुए आचार्य वीरसेन लिखते हैं 'इमानि' इस पदसे प्रत्यक्षीभूत मावमार्गणास्थानोंका ग्रहण करना चाहिए, द्रव्यमार्गणाओंका नहीं, क्योंकि द्रव्यमार्गणाएँ देश, काल और स्वभावकी अपेक्षा दूरवर्ती हैं। यहाँ षटखण्डागममें अन्य मार्गणाओं के समान काय, योग और वेद ये तीनों भी भावमार्गणाऐं ही ली गई हैं इसका निर्णय क्षुल्लकबन्धसे स्वामित्वानुयोगद्वारके सूत्र १५ से लेकर ३ः क्रमांक तकके सूत्रोंसे भले प्रकार हो जाता है। इसी प्रसंगसे गतिमार्गणामें 'मनुष्यनी' पद भी विचारणीय है। कुछ भाई ऐसा मानते हैं कि जीवस्थान सत्प्ररूपणाके ९३ संख्याक सूत्र में 'संयत' पद नहीं है, क्योंकि वह सूत्र द्रव्यस्त्रियोंको लक्ष्यमें रखकर रचा गया है । किन्तु उनकी इस मान्यताका निषेध इसी सूत्रकी धवला टीकासे हो जाता है। उस द्वारा जहाँ उक्त सूत्रके आधारसे सम्यग्दृष्टियोंकी स्त्रियोंमें उत्पत्तिका निषेध किया है वहाँ उसी सूत्रके आधारसे 'मनुष्यनी' पदका अर्थ द्रव्यस्त्री नहीं है यह भी स्पष्ट कर दिया गया है । गतिमार्गणामें जीवकी नोआगमभाव पर्याय ली गई है, शरीर नहीं यह क्षुल्लकबन्ध-स्वामित्व अनुयोगद्वारके गतिमार्गणाका विवेचन करनेवाले सूत्रोंसे तथा वर्गणाखण्डके १५वें सूत्रसे भी भली-भाँति सिद्ध है । अतएव गतिमार्गणामें मनुष्योंके सामान्य मनुष्य, मनुष्य पर्याप्त, मनुष्यनी और अपर्याप्त मनुष्य ये जो चार भेद किये हैं वे जीवविपाकी मनुष्यगति, वेदनोकषाय और पर्याप्त-अपर्याप्त नामकर्मके उदयमें होनेवाली नोआगमभावपर्यायको ध्यानमें रखकर ही किये गये हैं, ऐसा यहाँ जानना चाहिए। गोम्मटसार कर्मकाण्डके उदय प्रकरण (गाथा २९८ से ३०१) का सम्यक् अवलोकन करने पर भी यही ज्ञात होता है कि ये भेद उक्त प्रकृतियोंको ध्यानमें रखकर ही किये गये हैं। Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : ३१७ सत्प्ररूपणाके ९३वें सूत्रमें 'मनुष्यिनी' पदका द्रव्यस्त्री अर्थ करनेवाले महानुभावोंको भय यह है कि षटखण्डागम दिगम्बर परम्पराका अंग-पूर्वगत मूल आधार श्रुत होनेसे यदि उसमें कहीं भी 'मनुष्यिनी' पदका अर्थ द्रव्यस्त्री' किया गया नहीं माना जाय तो द्रव्यस्त्रियों की मुक्तिसिद्धिके साथ सवस्त्र मुक्तिकी सिद्धि हो जायगी । किन्तु उनके द्वारा इस भयके कारण मूल आगममें संशोधन किया जाना आगमके आशयको न समझनेका ही कुफल है । आचार्य वीरसेनने इस शंकाको स्वतन्त्र मानकर दो स्थलों पर इसका उत्तर दिया है। प्रथम तो उन्होंने इस प्रश्नका समाधान जीवस्थान-सत्प्ररूपणाके ९३वें सूत्रकी टीकामें ही कर दिया है। वहाँ वे स्पष्ट लिखते हैं कि द्रव्यस्त्रियाँ सवस्त्र होनेसे अप्रत्याख्यान गुणस्थानवाली होती है, इसलिए उनके संयमभावकी उत्पत्ति नहीं हो सकती । इस पर पुनः शंका की गई है कि वस्त्रके रहते हुए भी उनके भावसंयम बन जानेमें आपत्ति ही क्या है ? इसका समाधान करते हुए वे लिखते हैं कि जब वे भावअसंयमके अविनाभावो वस्त्रादिको स्वीकार किये रहती हैं, ऐसी अवस्थामें उनके भावसंयम नहीं बन सकता। दूसरा स्थल वेदनाकालविधानके १२वें सूत्रको टीका है। यहाँ पर सिद्धान्त ग्रन्थोंमें स्त्रीवेद शब्दका वाच्यार्थ भाववेद है, द्रव्यस्त्रीवेद नहीं है इस अभिप्रायको दो प्रमाण देकर स्पष्ट किया गया है। यहाँ वेदनाकालविधानके इस सूत्रमें अन्य वेदवालोंके साथ स्त्रीवेदी जीव भी नारकियों और देवोंसम्बन्धी तेंतीस सागर आयुका बन्ध करते हैं यह कहा गया है । इस पर यह शंका हुई कि इस सूत्रमें स्त्रीवेद शब्दका वाच्यार्थ क्या है-भावस्त्रीवेद या द्रव्यस्त्रीवेद । वीरसेन स्वामीने एक अन्य प्रमाण देकर इस शंकाका समाधान किया है। अन्य प्रमाणमें स्त्रियों (द्रव्यस्त्रियों) का छठी पृथ्वी तक मर कर जाना बतलाया है। विन्तु इस सूत्रमें स्त्रीवेदीके तेंतीस सागर आयुबन्धका विधान किया है । इस परसे वीरसेन स्वामीने यह निष्कर्ष फलित किया है कि सिद्धान्त ग्रन्थोंमें स्त्रीवेद शब्दका वाच्यार्थ भावस्त्रीवेद ही विवक्षित है। यदि ऐसा न होता तो यहाँ पर इस सूत्रमें आचार्य पुष्पदन्त-भूतबलि अधिकसे अधिक बाईस सागर आयुबन्धका ही विधान करते, क्योंकि द्रव्यस्त्री छठे नरकसे आगे नहीं जाती और छठे नरकमें उत्कृष्ट आयु बाईस सागर होती है। कदाचित् यह कहा जाय कि देवोंकी उत्कृष्ट आयुबन्धकी अपेक्षा इस सूत्रमें स्त्रीवेद शब्दका वाच्यार्थ द्रव्यस्त्रीवेद लिया जाय तो क्या हानि है ? परन्तु वीरसेन स्वामी यह कहना भी उचित नहीं मानते, क्योंकि देवों सम्बन्धी उत्कृष्ट आयुका बन्ध निर्ग्रन्थ भावनिग्रन्थ) के ही होता है और द्रव्यस्त्री निर्ग्रन्थ हो नहीं सकती, क्योंकि द्रव्यस्त्री और (द्रव्यनपंसक) वस्त्रादिका त्याग किये बिना भावनिर्ग्रन्थ नहीं हो सकते ऐसा छेदसत्रका वचन है। यह तो हम पहले ही बतला आये है कि आचार्य पुष्पदन्त-भूतबलिने महाकर्मप्रकृतिके कृति आदि २४ अनुयोग द्वारोंमेंसे प्रारम्भके छह अनुयोगद्वारों पर ही सूत्र रचना की है, निबन्धन आदि अन्तके अठारह अनुयोगद्वारों पर नहीं। वीरसेन स्वामीके समक्ष यह स्थिति थी ही, इसलिए उन्होंने स्वयं पिछली सूत्र रचनाको देशामर्षक मानकर निबन्धन आदि शेष अठारह अनुयोगद्वारोंकी रचना की है। इसका संक्षिप्त स्वरूप इस प्रकार है ७. निबन्धन-जो द्रव्य जिसमें निबद्ध है उसकी निबन्धन संज्ञा है। वह अनेक प्रकारका है। प्रकृतिमें अध्यात्मविद्याकी प्ररूपणा होनेसे कर्मनिबन्धका ग्रहण किया गया है । कर्मनिबन्धनके मूल और उत्तर प्रकृतियोंके भेदसे अनेक भेद हैं । उनमेंसे जिस प्रकृतिका निमित्त कथनकी अपेक्षा जिस कार्यके लिए व्यापार होता है उसमें वह निबद्ध है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । उदाहरणार्थ ज्ञानावरण कम सब द्रव्यों और असर्व पर्यायोंमें निबद्ध है । तात्पर्य यह है कि केवलज्ञान सब द्रव्योंको विषय करता है, इसलिए उसका विरोधी होनेसे केवलज्ञानावरणको सब द्रव्योंमें निबद्ध कहा है, तथा शेष ज्ञान कुछ पर्यायोंको विषय करते हैं, इसलिए शेष ज्ञानावरणोंको असर्वपर्यायोंमें निबद्ध कहा है। शेष कर्मोके विषयमें जान लेना चाहिए। Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ इस अनुयोगद्वारकी रचना सूत्र और उनकी टीका उभयरूपसे दृष्टिगोचर होती है। सूत्र किस महाभागकी रचना है यह धवला टीकासे ज्ञात नहीं होता। ८. प्रक्रम-प्रक्रम अनेक प्रकारका है। उनमेंसे कर्मप्रक्रम प्रकृत है। प्रक्रमका अर्थ प्रचय है। कर्मपुद्गलोंका प्रचय कर्मप्रक्रम है। कर्मपुद्गल कर्मरूपसे कैसे परिणत होते हैं इसका अनेक दर्शनोंका ऊहापोह करते हुए फलितार्थरूपमें कार्यकारणपरम्पराके विषयमें न्यायशैलीसे स्वमतका प्रस्थापन कर उत्तर भेद बतलाये गये हैं-प्रकृतिप्रक्रम, स्थितिप्रक्रम और अनुभागप्रक्रम । प्रकृतिप्रक्रम में मूल तथा उत्तर किस प्रकृतिको कितना द्रव्य मिलता है, स्थितिप्रक्रममें किस स्थितिमें कितने द्रव्यका निक्षेप होता है यह बतलाकर अनुभागप्रक्रमका संक्षेपमें निरूपण किया है । इसमें अनुभागकी अपेक्षा किस वर्गणामें कितने प्रदेश होते हैं यह बतलाया है । ९. उपक्रम-नामउपक्रम, स्थापनाउपक्रम इत्यादिरूपसे उपक्रम अनेक प्रकारका है। प्रकृतमें कर्मउपक्रमका प्रकरण है। वह चार प्रकारका है-बन्धन उपक्रम, उदीरणा उपक्रम, उपशामना उपक्रम और विपरिणाम उपक्रम । प्रक्रम अनुयोगद्वार प्रकृति, स्थिति और अनुभागको प्राप्त होनेवाले कर्मोकी प्ररूपणा करता है परन्तु उपक्रम अनुयोगद्वार बन्धके द्वितीय समयसे लेकर सत्त्वरूपसे स्थित कर्मपदगलोंके व्यापारकी प्ररूपणा करता है। १. बन्धन उपक्रम-प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशके भेदसे बन्धन उपक्रम चार प्रकारका है । दूधके साथ पानीके समान जीव प्रदेशोंके साथ परस्पर अनुगत प्रकृतियोंके बन्धके क्रमकी प्ररूपणा करना प्रकृति बन्धन उपक्रम है। उन्हीं सत्वरूप प्रकृतियोंके एक समयसे लेकर सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर काल तक कर्मरूपसे रहनेकी कालकी प्ररूपणाको स्थिति बन्धन उपक्रम कहते हैं। उन्हीं सत्त्वरूप प्रकृतियोंके जीवके साथ एकताको प्राप्त हुए अनुभाग सम्बन्धी, वर्ग, वर्गणा, स्थान और अविभागप्रतिच्छेद आदिकी प्ररूपणाको अनभाग बन्धन उपक्रम कहते हैं। तथा उन्हीं प्रकतियोंके क्षपित कर्माशिक, गणितकौशिक और उनके घोलमान जीवका आश्रय कर सञ्चयको प्राप्त हुए उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशोंकी प्ररूपणाको प्रदेशबन्धन उपक्रम कहते हैं। उपक्रम अनुयोगद्वारमें इन चार प्रकारके कर्मोकी प्ररूपणा सत्कर्म प्रकतिप्राभतके अनुसार करनी चाहिए, महाबन्धके अनुसार नहीं, क्योंकि महाबन्धकी प्ररूपणा प्रथम समयमें होनेवाले बन्धको लक्ष्यमें रखकर की गई है। २. उदीरणा उपक्रम-अपक्वपाचनको उदीरणा कहते हैं । तात्पर्य यह है कि नूतन बन्धमें बन्ध समयसे लेकर एक आवलिकाल तक तो उदीरणा होती ही नहीं। साथ ही उदयावलिमें स्थित प्रदेशोंकी भी उदीरणा नहीं होती। अतएव उदयावलिमें बाहिर स्थित प्रदेशोंका उदयावलिमे देना उदीरणा हैं। यह प्रकृति उदीरणा आदिके भेदसे चार प्रकारकी है। उस सबका इस अनुयोगद्वारमें विस्तारके साथ निरूपण हुआ है। अनुभाग उदीरणाका व्याख्यान करते हुए लिखा है कि यद्यपि तियंचोंमें नीचगोत्रकी ही उदीरणा होती है एंसा सर्वत्र बतलाया है और यहाँ उनमें उच्चगोत्रकी उदीरणाकी भी प्ररूपणा की गई है सो कैसे ? इसका समाधान यह किया है कि जो तिर्यञ्च संयमासंयमको स्वीकार करते हैं उनमें उच्चगोत्रकी प्राप्ति बन जाती है । इसी प्रकार आगे यह भी बतलाया है कि नीचगोत्रकी उदीरणा एकान्तसे भवप्रत्यय होती है। तथा उच्चगोत्रकी उदीरणा गुणप्रतिपन्न जीवोंमें गुणप्रत्यय होती है और अगुणप्रतिपन्न जीवोंमें भवप्रत्यय होती है । गुणसे यहाँ संयम और संयमासंयमका ग्रहण किया है। ३. उपशामना-उपक्रम उपशामनाका निक्षेप करते हए कर्मउपशामनाके दो भेद किये हैं-करण उपशामना और अनुदीर्णोपशामना। करगोपशामनाके दो भेद है-देशकरणउपशामना और सर्वकरण उपशा Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : ३१९ मना । उनमेंसे सर्वकरणोपशामनाके अन्य दो नाम हैं-गुणोपशामना और प्रशस्तोपशामना। तथा जो देशकरणोपशामना है उसके अन्य दो नाम हैं-अगणोपशामना और अप्रशस्तोपशामना। प्रकृत अनुयोगद्वारमें इसी अप्रशस्तोपशामनाका विवेचन किया गया है। उसके अर्थपदका निरूपण करते हुए बतलाया है कि अप्रशस्त उपशामनाके द्वारा उपशमको प्राप्त हआ जो प्रदेशाग्र अपकर्षणके लिए भी शक्य है, उत्कर्षणके लिए भी शक्य है तथा अन्य प्रकृतिमें संक्रमणके लिए भी शक्य है, किन्तु केवल उदयावलिमें प्रविष्ट करानेके लिए शक्य नहीं है, वह अप्रशस्तोपशामना है। .विपरिणाम उपक्रम-इसके प्रकृति, स्थिति आदिके भेदसे चार भेद हैं। उसमें भी इन चारोंको देशविपरिणामणा और सर्वविपरिणामणा इस प्रकार दो-दो प्रकारका बतलाया है। १०. उदय-प्रकृतमें कर्मउदयका प्रकरण है ऐसा लिखकर उसके प्रकृति उदय आदि चार भेद किये हैं और स्वामित्व आदिके द्वारा इसका विशेष व्याख्यान किया है। ११. मोक्ष-मोक्ष पदका निक्षेप करके कर्मद्रव्यमोक्षके प्रकृतिमोक्ष आदि चार भेदोंका इस अनुयोगद्वारमें विवेचन किया है। १२. संक्रम-संक्रम पदका निक्षेप करके प्रकृतमें कर्मसंक्रमका निरूपण करते हुए उसका प्रकृतिसंक्रम आदि चार प्रकारसे निरूपण किया है। एक प्रकृतिका अन्य प्रकृतिमें संक्रमित होना यह प्रकृतिसंक्रम है। यहाँ इतना विशेष है कि मूल प्रकृतिमें संक्रम नहीं होता है । साथ ही दर्शनमोहनीयका चारित्रमोहनीयमें और चारित्रमोहनीयका दर्शनमोहनीयमें तथा चार आयओंका परस्परमें संक्रम नहीं होता। शेष उत्तर सजातीय प्रकृतियों में संक्रम होता है। स्थिति उत्कर्षण, स्थितिअपकर्षण तथा अन्य प्रकृतिको प्राप्त स्थितिका नाम स्थितिसंक्रम है । अनुभाग संक्रम भी इसी तरह अनुभागकी अपेक्षा तीन प्रकारका है। प्रदेशसंक्रमके पाँच भेद हैं-उद्वेलना, विध्यात, अधःप्रवृत्त, गुण और सर्व। जहाँ जिन प्रकृतियोंका बन्ध सम्भव है वहाँ उन प्रकृतियोंका बन्ध होते हुए और नहीं होते हुए अधःप्रवृत्तसंक्रम होता है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व अबन्ध प्रकृतियोंके लिए यह नियम नहीं है। जिन प्रकृतियोंका जहाँ नियमसे बन्ध सम्भव नहीं है वहाँ उन प्रकृतियोंका विध्यातसंक्रम होता है। यह भी नियम मिथ्यादृष्टिसे लेकर अप्रमत्त गुणस्थानतक ही ध्रुव स्वरूपसे है । अप्रमत्त गुणस्थानसे आगे बन्धरहित प्रकृतियोंका गुणसंक्रम और सर्वसंक्रम होता है। यह कथन अप्रशस्त प्रकृतियोंकी अपेक्षासे किया है। प्रशस्त प्रकृतियोंकी अपेक्षा तो उपशम और क्षपकश्रेणिमें उनका भी अधःप्रवृत्त संक्रम होता है। उद्वेलना संक्रम मात्र १३ प्रकृतियोंका होता है। १३. लेश्या-इस अनुयोगद्वारमें लेश्याका निक्षेप करके द्रव्य और भावलेश्याका स्वरूप बतलाया है कि बंधे हए पदगल स्कन्धोंके चक्षद्वारा ग्रहण करने योग्य वर्णको द्रव्यलेश्या कहते हैं। तथा मिथ कषाय और योगसे उत्पन्न हुए जीवके संस्कारको भावलेश्या कहते हैं । १४. लेश्याकर्म-मारना, विदारना, दया करना आदि लेश्याकर्म है । इस प्रकार इस अनुयोगद्वारमें छहों लेश्याओंके अपने अपने कर्मका निर्देश किया है। १५. लेश्यापरिणाम-कौन लेश्याएँ किस स्वरूपसे किस वृद्धि या हानिद्वारा परिणमन करती हैं इस बातका विशेष ज्ञान इस अनुयोगद्वारमें कराया गया है। उदाहरणार्थ कृष्ण लेश्या में संक्लेशवृद्धि स्वस्थानमें ही होती है । संक्लेशहानि स्वस्थानमें तो होती ही है। इस द्वारा नील लेश्यामें भी गमन होता है इसलिए वह परस्थानमें जानेसे भी सम्भव है । इसी प्रकार सर्वत्र जान लेना चाहिए । Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्रो अभिनन्दन-ग्रन्थ १६. सातासात-इस अनुयोगद्वारमें साता और असाताका विशेष व्याख्यान करते हए प्रत्येकके दो दो भेद बतलाये हैं । यथा-एकान्त सात और अनेकान्त सात । एकान्त असात और अनेकान्त असात । जो साता या असाता कर्म जिस रूपमें बँधता है, बिना परिवर्तन के उसका उसी रूपमें भोगा जाना एकान्त सात और एकान्त असातकर्म है । तथा इससे विपरीत अनेकान्त सात और अनेकान्त असातकर्म है।। १७. दीर्घ-हस्व-कर्म प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशके भेदसे चार प्रकारका है । उसका बन्ध, उदय और सत्त्वका आश्रय कर दीर्घ-हस्वका विचार इस अनुयोगद्वारमें किया गया है। उदाहरणार्थ मूल प्रकृतियोंकी अपेक्षा आठ कर्मोका बन्ध होनेपर दीर्घबन्ध संज्ञा है और इससे कमका बन्ध होनेपर ह्रस्वबन्ध संज्ञा है। १८. भवधारणीय-भवका विचार करते हुए उसे तीन प्रकारका बतलाया है-ओघभव, आदेशभव और भवग्रहणभव । आठ कर्म या आठ कर्मोसे उत्पन्न हुए परिणामको ओघभव कहते हैं। चार गति नामकर्म और उनसे उत्पन्न हुए परिणामको आदेशभव कहते हैं। यह चार प्रकारका है-नरकभव, तिर्यञ्चभव, मनुष्यभव और देवभव । भुज्यमान आयुके निर्जीर्ण होनेके बाद अपूर्व आयुके उदयके प्रथम समयमें उत्पन्न हुए व्यञ्जनसंज्ञावाले जीव परिणामको अथवा पूर्व शरीरके परित्याग पूर्वक उत्तर शरीरके ग्रहण करनेको भवग्रहण कहते है। १९. पुद्गलात्त-इसका निक्षेप निरूपणके बाद स्वरूपका कथन करते हुए बतलाया है कि आत्मसात् किये गये पुदगलोंकी पुद्गलात्त संज्ञा है। वे छह प्रकारसे आत्मसात् किये जाते हैं। यथा-ग्रहणसे, परिणामसे, उपभोगसे, आहारसे, ममत्वसे और परिग्रहसे । हाथ या पैरसे जो दण्ड आदि पुद्गल ग्रहण किये जाते हैं वे ग्रहणसे आत्त पुद्गल कहलाते हैं । मिथ्यात्व आदि परिणामोंके द्वारा जो पुदगल अपने किये जाते हैं वे परिणामसे आत्त पुद्गल कहे जाते हैं। जो गन्ध और ताम्बूल आदि पुद्गल उपभोगरूपसे अपने किये जाते हैं वे उपभोगसे आत्त पुद्गल कहलाते हैं। भोजन-पान आदिके द्वारा जो पुदगल अपने किये जाते हैं वे आहारसे आत्त पुद्गल कहे जाते हैं । जो पुद्गल अनुरागसे गृहीत होते हैं वे ममत्वसे आत्त पुद्गल कहलाते हैं तथा जो आत्माधीन पुद्गल हैं वे परिग्रहसे आत्त पुद्गल कहलाते हैं ।। २०. निधत्त-अनिधत्त-इसका विवेचन करते हुए बतलाया है कि जो प्रदेशाग्र निधत्तीकृत हैं अर्थात् उदयमें देनेके लिए शक्य नहीं है, अन्य प्रकृतिमें संक्रान्त होनेके लिए शक्य नहीं है, किन्तु अपकर्षण व उत्कर्षणके लिए शक्य है उसकी निधत्त संज्ञा है। उपशामक और क्षपकके सब कर्म अनिवृत्ति गणस्थानमें प्रविष्ट होनेपर अनिधत्त है । अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी विसंयोजना करनेवालेके अनिवृत्तिकरणमें अनन्तानुबन्धीचतुष्क अनिघत्त है । शेष कर्म निधत्त व अनिधत्त है । दर्शनमोहनीयके उपशामक व क्षपकके अनिवृत्तिकरणमें दर्शनमोहनीय कर्म अनिधत्त है । शेष कर्म निधत व अनिधत्त है । २१. निकाचित-अनिकाचित-इसका विवेचन करते हए बतलाया है कि जो प्रदेशाग्र उत्कर्षणके लिए तथा अपकर्षणके लिए शक्य नहीं है, अन्य प्रकृतिमें संक्रमणके लिए शक्य नहीं है और उदय (उदयावलि)में देनेके लिए शक्य नहीं है उसकी निकाचित्त संज्ञा है । अनिवृत्तिकरणमें प्रविष्ट हुए जीवके सब कर्म अनिकाचित हैं । इसके पूर्व निकाचित और अनिकाचित दोनों प्रकारके हैं । शेष व्याख्यान निधत्त-अनिधत्तके समान है । २२. कर्मस्थिति-कर्मकी जघन्य और उत्कृष्ट स्थितिकी प्ररूपणा अथवा कर्म स्थितिसे सञ्चित हुए सत्कर्मकी प्ररूपणा कर्मस्थिति कहलाती है। इसका इस अनुयोगद्वारमें विवेचन है। २३. पश्चिमस्कन्ध-अन्तिम भवकी प्राप्ति होनेपर जीवके सब कर्मोंका बन्ध, उदय, उदीरणा, संक्रमण और सत्ता इन पाँचकी प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशोंके आश्रयसे मार्गणा करते हुए इस Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : ३२१ अनुयोगद्वारमें आयुके अन्तर्मुहर्त शेष रहनेपर सर्व प्रथम यह जीव आवजित करण करता है। उसके बाद दण्ड, कपाट, प्रतर और लोकपूरण समुद्घात करते हुए जिस समुद्धातमें तथा उसके बाद जो जो क्रिया करता है उसका विवेचन किया गया है । २४. अल्पबहुत्व-इसमें सत्कर्म के आश्रयसे किस प्रकृतिके सत्कर्मका कौन स्वामी है यह विवेचन कर तथा एक जीवकी अपेक्षा काल आदिको जाननेका संकेत कर अल्पबहुत्वका निर्देश किया गया है। इस प्रकार पूर्वोक्त परिचयसे ज्ञात होता है कि महाकर्मप्रकृतिप्राभृतके जो २४ अनुयोगद्वार हैं उनमेंसे कृति और वेदनाको वेदनाखण्डमें, स्पर्श, कर्म, प्रकृति तथा बन्धनके बन्ध, बन्धक और बन्धनीयको वर्गणाखण्डमें तथा बन्धनके बन्धविधानको महाबन्धमें आचार्य पुष्पदन्त-भूतबलिने सूत्र रूपसे निबद्ध किया है । तथा निबन्धन आदि शेष अठारह अनुयोगद्वारोंका आचार्य वीरसेनने धवला टीकाके अन्त में स्वयं विवेचन करते हुए उसे सत्कर्म संज्ञा दी है । जिसकी पुष्टि 'बोच्छामि संतकम्मे पंजियरूवेण विवरणं सुमहत्थं ।' इस वचनसे होती है। (देखो धवला पु० १५ संतकम्मपंजिया ।) सत्कर्मपञ्जिकाविवरण धवला पुस्तक १५के अन्तमें मुद्रित होकर एक 'सत्कर्मपञ्जिका' जुड़ी हुई है। यह निबन्धन, प्रक्रम और उपक्रम इन तीन अनुयोगद्वारोंपर लिखी गयी धवला टोकाके कुछ विशेष पदोंका स्पष्टीकरणमात्र है। जिसने इसे निबद्ध किया है उसने अपने नामका कहीं भी उल्लेख नहीं किया। इतना अवश्य है कि जिन विशेष पदोंपर इसमें विवरण प्रस्तुत किया गया है वह महत्त्वपूर्ण और उपयोगी है। कषायप्राभृत पहले हम यह बतला आये है कि इस पञ्चम कालमें अंग-पूर्व श्र तकी परम्परा अविच्छिन्न न रह सकी। धीरे-धीरे उसका विच्छेद होता गया । इसे समग्र जैन परम्पराका महान् भाग्य ही समझना चाहिए कि जिस प्रकार आग्रायणीय पूर्वकी चयनलब्धि नामक वस्तुका चतुर्थ प्राभृत कर्मप्रकृति किसी प्रकार सुरक्षित रह गया उसी प्रकार ज्ञानप्रवादपूर्वके दसवें वस्तु अधिकारके अन्तर्गत तीसरा पेञ्जदोसप्राभूत भी सुरक्षित रहा आया । आचार्य गुणधरने वर्तमानमें उपलब्ध जिस कषायप्राभृतकी रचना की है उसका मूल आधार यहीं पेज्जदोषप्राभृत है । दिगम्बर जैन परम्परामें इस समय अन्य जितना मूल श्रुत उपलब्ध होता है उसका भी मूल आधार अन्य-अन्य अंग-पूर्व श्रुत ही है यह इससे स्पष्ट विदित होता है । जैसा कि कषायप्रभृत इस नाम से ही सुस्पष्ट विदित होता है इस महान् ग्रन्थमें एकमात्र मोहनीयकर्मको माध्यम बनाकर ही विवेचन किया गया है । इसका दूसरा नाम पेञ्जदोषप्राभृत भी है सो इससे भी यही विदित होता है कि इसमें एकमात्र राग-द्वेष अर्थात् मोहनीयकर्मके आश्रयसे ही विवेचन किया गया है। ग्रन्थकी मूल गाथाएँ १८० हैं यह बात 'गाहासदे असीदे' (पु. १ पृ० १५१) इत्यादि दूसरी गाथासे विदित होती है । परन्तु इसमें मूल गाथाएँ २३३ उपलब्ध होती हैं । इसलिए यह प्रश्न होता है कि एक ओर कषायप्राभृतकी मूल गाथाएँ १८० बतलाई गई है और दूसरी ओर उसमें २३३ गाथाएं उपलब्ध होती है सो इसका क्या कारण है ? यह प्रश्न आचार्य वीरसेनके सामने भी था । उन्होंने इसका समाधान करते हुए (पु. १ पृ. १८२) जो कुछ लिखा है उसका आशय यह है कि पन्द्रह अर्थाधिकारोंमेंसे इस अर्थाधिकारमें इतनी गाथाएं निबद्ध है इस प्रकारका ज्ञान करानेके लिए गुणधर भट्टारकने 'गाहासदे असीदे' इस प्रकारकी प्रतिज्ञा की है। शेष ५३ गाथाओंका समावेश इन अर्थाधिकारोंमें नहीं होता, इसलिए उनका उल्लेख स्वयं आचार्य गुणधरने नहीं किया। Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ समग्र कषायप्राभृत जिन पन्द्रह अर्थाधिकारोंमें विभक्त है उनका नामनिर्देश आचार्य गुणधरने गाथा १३-१४में स्वयं किया है । वे अर्थाधिकार ये है-१. पेञ्जदोषविभक्ति, २. स्थितिविभक्ति, ३. अनुभागविभक्ति, ४. बन्ध (अकर्मबन्ध) अथवा प्रदेशविभक्ति, झीणाझीण और स्थित्यन्तिक, ५. संक्रमण (कर्मबन्ध अथवा बन्धक, ६. वेदक, ७. उपयोग, ८. चतुःस्थान, ९. व्यञ्जन , १०. दर्शनमोहोपशामना, ११. दर्शनमोहक्षपणा १२. संयमासंयमलब्धि, १३. चारित्रलब्धि, १४. चारित्रमोहोपशामना और १५. चारित्रमोहक्षपणा । इनके सिवा अद्धापरिमाणका निर्देश करनेवाली ६ गाथाएँ (१५ से २०) इसमें उपलब्ध होती है। पर यह स्वतन्त्र अधिकार न होनेसे इसका अलगसे निर्देश नहीं किया। ये कषायप्राभूतकी मूल गाथाओंमें वर्णित विषयसम्बन्धी अधिकारोंके नाम हैं। इससे जिस अधिकारमें जिस विषयका वर्णन है उसकी सूचना मिल जाती है। इसकी मल गाथाओंमें कहीं प्रश्नरूपमें अ रूपमें सूचनामात्र की गई है। सूत्रका लक्षण है-'जिसमें अल्प अक्षर हों, जो असंदिग्ध हो, जिसमें प्रतिपाद्य विषयका सार भर दिया गया हो; जिसका विषय गूढ़ हो, जो निर्दोष सयुक्तिक और तथ्यभूत हो उसे सूत्र कहते हैं। सूत्रके इस लक्षणके अनुसार कषायप्राभूतकी सब गाथाएँ सूत्ररूप है इसमें सन्देह नहीं। आचार्य यतिवृषभ और आचार्य वीरसेनने तो इन्हें सूत्राथारूपसे स्वीकार किया ही है । स्वयं आचार्य गुणधर 'वोच्छामि सुत्तगाहा (गाथा २) इस पदद्वारा उक्त तथ्यको स्वीकार करते हैं। चूर्णिसूत्र आचार्य वीरसेनने जयधवलाके प्रारम्भमें मंगलाचरण करते हए जो आठ गाथाएं निबद्ध की हैं उनमें तीन गाथाएँ कषायप्राभृतके कर्ता गुणधर आचार्यका, कषायप्राभृतका सम्यक् प्रकारसे अवधारण करनेवाले आचार्य आर्यमंक्षु और नागहस्तिका तथा आर्य आर्य मंक्षु के शिष्य और नागहस्तिके अन्तेवासी कषायप्राभृत वृत्तिसूत्रोंके रचयिता आचार्य यतिवृषभका स्मरण करती है। ___ यह जयधवलाका उल्लेख है। इससे ये चारों आचार्य थोड़े बहुत कालके अन्तरसे आगे पीछे हुए जान पड़ते है । मालूम पड़ता है कि जिसप्रकार आचार्य यतिवृषभको आचार्य आर्यमंक्षुका शिष्य और आर्य नागहस्तिका अन्तवासी होनेका सौभाग्य प्राप्त हुआ उसी प्रकार इन दोनों आचार्योंको भी आचार्य गुणधरके सांनिध्यका लाभ मिला । किन्तु सर्व प्रथम कषायप्राभृतपर वृत्तिसूत्र या चूर्णिसूत्रके रूपमें विस्तृत विवेचन आचार्य यतिवृषभने ही लिखा, आर्य आर्यमंक्ष और नागहस्तिने नहीं। उन्होंने तो मात्र कषायप्राभूतके अर्थको सम्यक् प्रकारसे अवधारण कर इसका पाठ आचार्य यतिवृषभको दिया और उन्होंने उसपर वृत्तिसूत्रोंकी रचना की। आचार्य वीरसेन जहाँ उन्हें वृत्तिसूत्र इस नामसे सम्बोधित करते हैं वहाँ वे उनका चणिसूत्र यह नामकरण भी करते है। मालूम पड़ता है कि पूर्वकालमें ये दोनों नाम एक ही अर्थमें प्रयुक्त होते रहे हैं। जैसा कि हम पूर्वमें संकेत कर आये है कषायप्राभूतकी मूल गाथायें प्रकृत विषयका संकेतमात्र करती हैं। उनमें वर्णित विषयका सर्वप्रथम संक्षिप्त होते हुए भी विशद और अर्थपूर्ण विवेचन करनेवाली यदि कोई रचना है तो ये चूणिसूत्र ही। चूर्णिसूत्रोंकी रचनाकी यह विशेषता है कि जिस विषयपर स्पष्ट और विशद विवेचन करना आवश्यक हुआ वहाँ पर पर्याप्त प्रकाश डाला गया है और गाथाओंमें वर्णित जिस विषय पर विशेष विवेचन कर ना आवश्यक प्रतीत नहीं हुआ उन्हें विवेचनके बिना वैसा ही रहने दिया है। उदाहरणार्थ कषायप्राभूतमें १५ से २० तककी गाथाओं द्वारा अना कार उपयोगसे लेकर उपशामक तकके कतिपय पदोंका अल्पबहुत्व बतलाया गया है । यतः यह विषय सुगम है, इसलिए इन गाथाओं पर आचार्य यतिवृषभने चूर्णिसूत्रोंकी रचना नहीं की। यह बात २ से १२ तककी गाथाओं पर भी लागू होती है, क्योंकि इन गाथाओं द्वारा मात्र Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : ३२३ इतना निर्देश किया गया है कि किस अधिकारके विषय-विवेचनमें कितनी गाथायें निबद्ध हैं। संक्रमण अनुयोगद्वारमें २७ से लेकर ५८ तककी गाथाओं पर भी चूणिसूत्र नहीं हैं । परन्तु इन गाथाओंके प्रारम्भमें 'तत्थ पुव्वं गमणिज्जा सुत्तसमुक्कित्तणा तं जहा' यह चूर्णिसूत्र आया है और इन गाथाओंके अन्तमें 'सुत्तसमुक्कित्तणाए समत्ताए इमे अणुयोगद्दारा' यह चूणिसूत्र आया है । इससे यह स्पष्ट विदित होता है कि आचार्य यतिवृषभके समक्ष ये गाथायें रही अवश्य है, परन्तु विशेष विवेचन करना इष्ट न होनेसे इन पर उन्होंने चूर्णिसूत्रोंकी रचना नहीं की। आचार्य गुणधरने पन्द्रह अर्थाधिकारोंमें विभक्त जिन १८० गाथाओंका उल्लेख किया है उनमें पूर्वोक्त ६ + ११ + ३२-४९ गाथायें सम्मिलित नहीं हैं। तथा इनके सिवा १७, २५, २६ तथा २७ क्रमांक की गाथाएँ भी सम्मिलित नहीं है, पर इन चारों गाथाओं पर चणिसत्र उपलब्ध होते हैं। इससे विदित होता है कि १८० गाथाओंके अतिरिक्त शेष ५३ गाथाओंकी रचना की तो थी आचार्य गुणधर ने ही, पर सरल समझ कर आचार्य यतिबृषभने उनसे कतिपय २ से १२ तथा १५-२० गाथाओं पर चूर्णिसूत्रोंकी रचना महीं की और संक्रमवृत्ति-सम्बन्धी गाथाओंकी चूणिसूत्रों द्वारा स्वीकृति मात्र दी। इनके सिवा शेष सब गाथाओं पर आचार्य यतिवृषभके चूर्णिसूत्र हैं। इन द्वारा उन्होंने मूल सूत्रगाथाओंमें निबद्ध दुरूह विषयोंका जो सुगम और सुस्पष्ट व्याख्यान किया है वह उनके रचनासौष्ठवके साथ विषयस्पर्शी अगाध पाण्डित्यको ही सूचित करता है। यह तो सुविदित सत्य है कि आचार्य यतिवृषभने अपने चूर्णिसूत्रोंमें उन्हीं विषयोंका सम्यक् विवेचन किया है जिनकी सूचना आचार्य गुणधरने कषायप्राभृतके स्वरचित पन्द्रह अधिकारोंमें दी है। किन्तु मूल गाथाओंको ध्यानमें रखकर आचार्य यतिवृषभने अपने चूर्णिसूत्रोंमें मूल कषायप्राभृतमें प्रतिपादित पन्द्रह अधिकारोंको तदनुरूप भिन्न प्रकारसे विभक्त कर स्थान दिया है । यथा-१. पेज्जदोषविभक्ति, २, प्रकृति-स्थितिअनुभाग-प्रदेशविभक्ति, झीणाझीण और स्थित्यन्तिक, ३. बन्ध (अकर्मबन्ध), ४, संक्रमण (कर्मबन्ध), ५. उदय, ६. उदीरणा, ७. उपयोग, ८. चतुःस्थान, ९. व्यञ्जन, १०. दर्शनमोहोपशामना, ११. दर्शनमोहक्षपणा, १२. देशविरति, १३. चारित्रमोहोपशामना, १४. चारित्रमोहक्षपणा और १५. अद्धापरिमाणनिर्देश । टीका ग्रन्थ जैन परम्परामें षट्खण्डागमका जितना महत्त्व है, कषायप्राभृतका उससे कम महत्त्व नहीं है। अति प्राचीन कालमें इसकी रचना होनेके बाद इस पर भी षट्खण्डागमके समान अनेक आचार्योने विस्तृत टीकायें रची हैं । उनमेंसे अनेकका उल्लेख हम पूर्वमें ही कर आये हैं । इस पर लिखी गई वर्तमानमें उपलब्लध टीका जयधवला है । उसका सम्यक् प्रकारसे अवलोकन करने पर ज्ञात होता है कि जयधवलाकी रचना करते समय जयधवलाकारके सामने उच्चारणवृत्ति, मूलोच्चारणा, वप्पदेवविरचित उच्चारणा, स्वयं आचार्य वीरसेन द्वारा लिखित उच्चारणा और लिखित उच्चारणा इस प्रकार पाँच उच्चारणायें रही है । साथ ही कुछ ऐसे व्याख्यानाचार्य भी हो गये हैं जिनके अभिप्रायोंसे भी वे परिचित थे। जयधवलाका कलेवर इन्हीं पांच उच्चारणाओं और व्याख्यानाचार्योंके अभिप्रायोंसे पुष्ट हुआ है । इनके सिवा कषायप्राभृतका अन्य कोई टीका साहित्य जयधवलाकारके सामने था यह लिखना बहुत कठिन है । जयधवला कषायप्राभूत और उस पर लिखे गये चूर्णिसूत्रोंका परिचय हम पूर्वमें करा आये हैं। उन दोनोंका विस्तृत व्याख्यान करनेवाली यह जयधवला टीका है । यह टीका आचार्य वीरसेन और जिनसेनकी कृति है। आचार्य वीरेसना आये हैं । जन दोनों का Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ यह भी संस्कृत मिश्र प्राकृतमें लिखी गई है। टीकाका परिमाण सब मिलाकर साठ हजार श्लोक प्रमाण है। साधारणतः धवला टीकामें जिस प्रकार षट्खण्डागमके प्रारम्भके पांच खण्डोंमें प्रतिपादित विषयका विशदरूपसे स्पष्टीकरण किया गया है उसी प्रकार जयधवला टीकामें भी कषायप्राभूत और चणिसूत्रों द्वारा प्रतिपादित विषयका विस्तारसे विवेचन किया गया है । इतना अवश्य है कि प्रारम्भके पेञ्जदोसविभक्ति, प्रकृतिविभक्ति और स्थिति विभक्ति इन तीन अधिकारोंमें जिस प्रकार विषयका विवेचन चौदह मार्गणाओके आश्रयसे किया गया है उस प्रकार अनुभागविभक्ति आदि अविकारोंमें चौदह मार्गणाओंका आथ्य लेकर विषयका विवेचन न करके मात्र गतिमार्गणाका आश्रय लेकर ही स्वामित्वादि प्ररूपणाओंका विवेचन किया गया है। यह टीका भी प्रमेयबहुल होने से इसमें अनेक महत्त्वपूर्ण विषयोंका विवेचन दृष्टिगोचर होता है। उदाहरणार्थ उत्कर्षण अपकर्षण और संक्रमणके लिए कषायप्राभूत चूणिसूत्र और जयधवला टीका विशेषरूपसे द्रष्टव्य है । आचार्य कुन्दकुन्द साहित्य जैन परम्परामें भगवान् कुन्दकुन्दका जो स्थान है उनके द्वारा रचित परमागमका वही स्थान है। भगवान् सर्वज्ञदेवकी दिव्यध्वनि श्रवण कर उसके साररूपमें उसकी रचना हई है। समग्र द्वादशांगमें स्वसमयकी ही मुख्यता है और आचार्य कुन्दकुन्द रचित परमागम मुख्यरूपसे स्वसमयकी ही प्ररूपणा करता है, इसलिए यह मंगलस्वरूप है । प्रत्येक व्यक्तिके जीवनमें स्वतन्त्रताका जो महत्त्वपूर्ण स्थान है उसका तात्त्विक भूमिकासे उद्घाटन करनेवाला जो परमागम विश्वमें उपलब्ध होता है उसमें यह मुख्य है । कुन्दकुन्दरचित इस एक परमागमके जान लेनेसे पूरा जिनागम ज्ञात हो जाता है । अनादि कालसे संसारी जीवको निमित्त और रागकी पकड़ बनी चली आ रही है । किन्तु इसके स्वाध्याय और मननसे राग और निमित्त की पकड़ छुट कर मोक्षका द्वार अनावृत्त हो जाता है। परके कर्ता रूपमें ईश्वरका निषेध करना अन्य बात है किन्तु ईश्वरवादको पकड़को तिलांजलि देना अन्य बात है। जो स्वाश्रयी वृत्तिको जीवनमें स्थान देने में असमर्थ है वह आचार्य कुन्दकुन्दके परमागमको समझनेका पात्र नहीं हो सकता । यह परमागम साक्षात् केवली जिनकी वाणीको अवधारण कर लोककल्याणकी भावनासे लिखा गया है, इसलिए तो प्रमाण है ही। साथ ही श्रुतकेवली द्वारा रचित द्वादशांग श्रुतको क्रम परम्परासे प्राप्त कर इसकी रचना हुई है, इसलिए भी प्रमाण है। क्षेत्रभेद या कालभेदके होने पर भी ज्ञानियोंके उपदेशमें अन्तर नहीं होता यह इससे सिद्ध होता है। यों तो भगवान् कुन्दकुन्दने विपुल साहित्यकी रचना की थी। प्रयासमा TOPoooo | Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंगश्रुतके परिप्रेक्ष्यमें पूर्वगत श्रुत ज्ञान आत्माका स्वभाव है और वह उसका आत्मभूत लक्षण भी है। उसके पाँच भेद हैं।' उनमें केवलज्ञान और श्र तज्ञान ये दो ज्ञान मुख्य है। सर्व तत्त्वोंके प्रकाशनमें केवलज्ञानको जो स्थान प्राप्त है, छद्मस्थके जीवनमें वही स्थान श्रुतज्ञानका है ।२ अन्तर्मुख हुआ यह आत्मप्राप्तिका प्रधान साधन है। यह श्रुतज्ञान ही है जिसके माध्यमसे संसारी प्राणी अबद्ध-स्पृष्ट, अनन्य, नियत, अविशेष और असंयुक्त आत्माको स्वस वेदन प्रत्यक्षसे जानकर स्वावलम्बन द्वारा जीवनमें व्यक्ति-स्वातंत्र्यकी प्रतिष्ठा करनेमें समर्थ होता है। जहाँ तक द्रव्यश्रुतका प्रश्न है, उसके अभ्याससे ही विशेष श्रुतज्ञानकी प्राप्ति होती है, इसलिए आगममें श्रुतज्ञानका प्रतिपादन द्रव्यश्रुतके रूपमें भी किया गया है। १. सादि-अनादि विचार जिम श्रुतकी सर्वज्ञ सर्वदर्शी तीर्थकर महावीरने अर्थरूपसे प्ररूपणा की है और उनके प्रथम दीक्षित शिष्य गौतम गणधरने उसे ग्रंथबद्ध किया है, अर्थरूपमें उसी श्रुतकी प्ररूपणा पर्यायक्रमसे होनेवाले तीर्थंकरोंके माध्यम से होती आ रही है, इसलिए वह सादि होकर भी अनादि है।" २. श्रुतके भेद उसके अक्षरश्रुत और अनक्षरश्रुत ये दो भेद है। उनमें अक्षर श्रुत मुख्य है । वह भी अंग बाह्य और अंगप्रविष्टके भेदसे दो प्रकारका है । अंगबाह्यके मुख्य भेद १४ हैं । वैसे आरातीय आचार्यों द्वारा जो तदनुरूप श्रुत निबद्ध किया गया है उसकी भी अंगबाह्य संज्ञा है। अंगप्रविष्ट श्रुतके १२ भेद हैं। अन्तिम भेद दृष्टिवाद है। यह अनेक प्रकारकी दृष्टियोंका कथन करता है, इसलिए इसका दृष्टिवाद यह गुणनाम है। इसमें पर समयकी स्थापना करके उसके निरसनपूर्वक मुख्यतासे स्वसम्यकी स्थापना की गई है, इसलिए इसकी वक्तव्यता उभयरूप है। इसके पाँच अर्थाधिकार है। चौथा अर्थाधिकार पूर्वगत है ।१० प्राकृतमें इसका विचारक्रम प्राप्त है, अतः आगे उसे माध्यम बनाकर विशेष ऊहापोह किया जाता है । ३. पूर्वगतश्रुत और उसकी महत्ता पूर्वगत श्रुत अंगश्रुतका प्रमुख भाग है। अंग शब्दकी निरुक्ति है जो त्रिकालगोचर समस्त द्रव्य और उनकी पर्यायोंको "अंगति" अर्थात प्राप्त होता है या व्याप्त करता है वह अंग है।' वस्तुतः अंग शब्दकी यह निरुक्ति पूर्वगत श्रुतपर समग्र रूपसे घटित होती है। पूर्वगत श्रुतके उत्तर भेदोंके जो नाम है और उनमें तत्त्वज्ञान विषयक जिस प्रकारके विषयका विवेचन किया गया है, यह इसीसे स्पष्ट है । शरीरमें रीढ़का या १. तत्त्वार्थसूत्र, अ० २, सू० ८ ३. समयसार, गा० १५ ५. सर्वार्थसिद्धि, अ० १, स० २०, विशेषावश्यक भाष्य; गाथा ५३६ आ ६. त० सू०, अ० १ सू० २० ८. वही, पृ० २०५ १०. वही, पृ० २०५ २. आप्तमीमांसा, का० १०५ ४. त० सू०, अ०, सू २० ७. धवला पु० ९, पृ० २०४ ९. धवला, पु० ९, पृ० २०५ ११. धवला, पृ० १९३ Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ : सिद्धान्ताचार्य पं० फलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ आँखोंका जो स्थान है, अंगश्रुतमें पूर्वगत श्रुतका वही स्थान है। इस कालमें तत्त्वज्ञान विषयक जितना श्रुत उपलब्ध होता है, मुख्यतया उसका योनि स्थान पूर्वगत श्रुत ही है। जातिकी अपेक्षासे द्रव्य छः है-जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल। ये स्वतःसिद्ध हैं, अतएव अनादि-अनन्त हैं और स्वसहाय हैं। समग्र लोक इनमें व्याप्त या रचित होनेके कारण उसे अनादि, अनिधन या अकृत्रिम कहा गया । अर्थरूपसे पूर्वगत श्रुतकी प्ररूपणाका मुख्य विषय यही है, इसलिए इसका पूर्वगत यह नाम सार्थक है । दृष्टिवादके जिन पाँच भेदोंका हम पहले उल्लेख कर आये हैं, उनके नाम है-परिकर्म, सूत्र, प्रथमानुयोग, पूर्वगत या पूर्वकृत और चूलिका । इनमें दूसरा भेद जो सूत्र है उसमें संकलनारूपसे ३६३ एकान्त दृष्टियोंका विवेचन होनेसे दृष्टिवादकी वक्तव्यता जहाँ स्वसमय-परसमयकी दृष्टिमें उभयरूप है वहाँ पूर्वगत श्रुतमें मात्र अनेकान्त स्वरूप स्वसमयकी ही प्ररूपणा हुई है, इसलिए आगमोंमें इसकी वक्तव्यता स्वसमयरूप ही स्वीकार की गई है। पूर्वानपर्वीसे १२ अंगोंके नाम है-आचार, सूत्रकृत, स्थान, समवाय, व्याख्याप्रज्ञप्ति, ज्ञाताधर्मकथा, उपासकाध्ययन, अन्तकृद्दशा, अनुत्तरोपपातिकदशा, प्रश्नव्याकरण, विपाकसूत्र, और दृष्टिवाद ।' इनकी वाचनाका क्रम भी यही है। सर्वप्रथम गुरु या आचार्य अपने उत्तराधिकारी शिष्यको आचारांगकी वाचना देता है। और इस प्रकार क्रमसे ११ अंगोंकी वाचना देनेके बाद ही गुरु शिष्यको दृष्टिवादकी वाचना देते हुए सबके अन्तमें पूर्वगतकी वाचना देता है। वस्तुतः चूलिकाका अन्तर्भाव पूर्वगतके अन्तर्गत होता है। क्योंकि इसमें विद्यानुवाद सम्बन्धी विद्याओंका ही प्रमुखतासे विवेचन हुआ है। इसका चूलिका यह नाम भी इसीलिए सार्थक है। पूर्वगत श्रुतके १४ भेद हैं-उत्पादपूर्व, अग्रायण, वीर्यप्रवाद, अस्ति-नास्ति प्रवाद, ज्ञानप्रवाद, सत्यप्रवाद, आत्मप्रवाद, कर्मप्रवाद, प्रत्याख्याननामधेय, विद्यानुप्रवाद, कल्याणनामधेय, प्राणावाय, क्रियाविशाल और लोकबिन्दुसार । पूर्वगत श्रुतके जिस क्रमसे ये नाम हैं गुरु अधिकारी शिष्यको उनकी वाचना भी उसी क्रमसे देता है, यह शाश्वत नियम है । इसकी पुष्टि वेदना खण्ड कृति अनुयोगद्वारमें निबद्ध दो मंगलसूत्रोंसे भी होती है। प्रथम मंगल सूत्र द्वारा अभिन्न दशपूर्वी जिनोंको नमस्कार किया गया है। उसके बाद चौदहपूर्वी जिनोंको नमस्कार किया गया है। इनमेंसे प्रथम मंगलसूत्रकी व्याख्या करते हुए आचार्य वीरसेनने यह शंका उठाई है कि पहले चौदहपूर्वी जिनोंको नमस्कार न कर दशपूर्वी जिनोंको क्यों नमस्कार किया गया है ? इसका समाधान स्वयं उन्होंने दो प्रकारसे किया है। अन्तिम समाधानमें उन्होंने पहले दशपूर्वियोंको नमस्कार करनेका मुख्य कारण श्रुत परिपाटीको ही बतलाया है। इन्द्रभूति गौतम गणधरने आचारांगादि सूत्र पठित क्रमसे द्वादशांगश्रुत निबद्ध किया, मात्र इतना ही यहाँ श्रुतपरिपाटीसे तात्पर्य नहीं है। किन्तु प्रकरणके अनुसार उक्त वचनसे विदित होता है कि गुरु-शिष्य १. पंचाध्यायी ११६ ३. धवला, पु० ९, पृ० १९७ ५. वही, पृ० २०९ ७. धवला, पु०, पृ० ६९ ९. वही, पृ०७० २. धवला, पु० ९, पृ० २१९ ४. वही, पृ० ७१ ६. वही, पृ० २१२ ८. वही, पृ० ७० Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : ३२७ परम्पराको दृष्टिपथमें रखकर उसकी वाचनाका क्रम भी यही है, इसकी पुष्टि दूसरे मंगलसूत्रकी व्याख्या में स्वीकार किए गए इस वचनसे भी होती है । सेस हेमिपुवीणं णमोक्कारो किण्ण कदो ? ण, तेसि पि कदो चेव, चेहि विणा चोद्दस वाणुववत्तदो । शंका - अधस्तन शेष पूर्वियोंको नमस्कार क्यों नहीं किया ? समाधान- नहीं, उनको भी नमस्कार किया ही है, क्योंकि जो अधस्तनपूर्वी जिन नहीं हुए हैं उनका चौदहपूर्वी जिन होना संभव नहीं है । इससे स्पष्ट है कि सर्वप्रथम आचारांगकी वाचना दी जाती है और इस प्रकार सूत्र पठित क्रमसे बारह अंगोंकी वाचना देते समय सबके अन्तमें सूत्र पठित क्रमसे ही उत्पाद आदि चौदह पूर्वोकी वाचना दी जाती है । इस प्रकार जो चौदहपूर्वी जिन होते हैं, उन्हींको श्रुतकेवली जिन कहा गया है । ये गिरकर मिथ्यात्वको प्राप्त तो होते ही नहीं, उस भव में असंयमको भी प्राप्त नहीं होते ।" इससे पूर्वगत श्रुतकी क्या महत्ता है यह स्पष्ट होनेके साथ उसकी वाचनाका क्रम क्या है ? यह भी स्पष्ट हो जाता है । ४. वाचनाका अधिकारी व्रती श्रावकको ग्यारह अंगोंकी वाचना दी जाय, इसमें कोई बाधा नहीं है । इतना अवश्य है कि व्रती श्रावकको सूत्रपठित क्रमसे ही वाचना देनी चाहिए, अन्यथा वाचना देने वाला आचार्य निग्रह स्थानका भागी होता है । किन्तु १४ पूर्वोकी वाचना व्रती श्रावकको तो दी नहीं जा सकती जिसने उपचरित महाव्रतोंको अंगीकार किया है, ऐसी आर्यिका को भी नहीं दी जा सकती । - धवला, पु०९, पृ० ७१ जो वाचना देने वाले आचार्यके द्वारा दीक्षित होकर महाव्रतधारी निर्ग्रन्थ दिगम्बर मुनि होते हैं वे ही १४ पूर्वोकी वाचना लेनेके अधिकारी हो सकते हैं, इन दोनों तथ्योंकी पुष्टि उस इतिहाससे भी होती है जो धवला पृष्ठ ७१ में निबद्ध है । वहाँ लिखा है कि जब आचार्य गुष्पदन्तने जीवस्थान सत्प्ररूपणाकी रचना कर और स्वयंको अल्पायु जाना, तब उन्होंने सर्वप्रथम जिनपालितको मुनि दीक्षा देकर अपना शिष्य बनाया और उसके बाद ही उन्होंने सत्प्ररूपणाके सूत्र पढ़ाकर उन्हें अपने समानधर्मा सहपाठी भूतबलि आचार्यके पास भेजा । तभी उनके द्वारा सत्प्ररूपणा प्रमुख समग्र षट्खण्डागमकी रचना होकर ज्येष्ठ शुक्ला पंचमीको वह पुस्तकारूढ़ हो सका । आगममें वाचनाके जो लक्षण उपलब्ध होते हैं, उनसे भी उक्त तथ्यका समर्थन होता है । 3 इससे मालूम पड़ता है कि वाचनाका अर्थ संकलना नहीं है, किन्तु तीर्थंकर महावीरसे लेकर गुरु-शिष्य परिपाटीका अनुसरण करते उत्तरोत्तर गुरुके द्वारा अपने-अपने शिष्यको आम्नायके अनुसार जो पाठ देकर पढ़ाया जाता है उसका नाम ही वाचना है। इससे न केवल उत्तरोत्तर मूल पाठकी सुरक्षा बनी रहती है; अपितु आम्नायके अनुसार निर्दोष अर्थ भी सुरक्षित रहा आता है । इस कालमें यद्यपि अग्रायणीय पूर्व" और ज्ञानप्रवाद पूर्व के आधारसे षट्खण्डागम और कषायप्राभृतका अध्ययन-अध्यापन भले ही प्रमुखता से चल रहा है, परन्तु उसके पीछे वाचनाका बल न होनेसे उनके कहीं १. धवला पु० ९, पृ० ७१ ३. सर्वार्थसिद्धि, अ० ९, सू० २५ ५. धवला पु० ९, पृ० १३४, मूल सूत्र ४५ २. पुरुषार्थ सिद्ध्युपाय, श्लोक १८ ४. धवला, पु० १, पृ० ६६ ६. कषाय प्राभृत सूत्र, गाथा १ Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ म्हीं मूल पाठमें आम्नायके अनुसार उनका अर्थ करने में जो विसंगतियाँ उत्पन्न होती हैं या वर्तमानकालमें उत्पन्न की गई है, उनको जानकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं। अस्तु, इतने विवेचनसे पूर्वश्रुतकी वाचना देनेका अधिकारी कौन है और किसको वाचना दी जानी चाहिए, यह स्पष्ट हो जाता है। ५. विषय परिचय साधारणतः धवला आदि अनेक ग्रन्थ हैं, जिनमें बारह अंग और उनके उत्तर भेदोंमें वर्णित विषयका विशद रूपसे परिचय लिपिबद्ध हुआ है। उसमें चौदह पूर्वोका भी विषय-परिचय गर्भित है। वहाँसे लेकर उसे लिपिबद्ध करना हमारा प्रयोजन नहीं है । बहुतकर जिस पूर्वका जो नाम है उसीसे पूर्वके विषयपर विशद प्रकाश पड़ जाता है । कुछ पूर्वोके नाम ऐसे अवश्य हैं, जिनसे उस-उस पूर्वमें वर्णित विषयपर विशद् प्रकाश नहीं पड़ता। मात्र इस बातको ध्यानमें रखकर प्रकृतमें कतिपय पूर्वोके विषयको २पष्ट किया जा रहा है। उदाहरणार्थ प्रथम पूर्वका नाम मात्र उत्पाद अवश्य है, परन्तु उसमें जीव, पुद्गल और काल आदि द्रव्योंमें उत्पाद, व्यय और ध्रुवपना किस प्रकार घटित होता है ? इस विषयपर सर्वांग रूपसे प्रकाश डाला गया है। दूसरा पूर्व अग्रायणीय है । यहाँ 'अन'का अर्थ मुख्य है और अयनका अर्थ मार्ग या ज्ञान है। इससे ज्ञात होता है कि इस पूर्वमें सभी अंगोंके मुख्य-मुख्य विषयका संकलन हुआ है । षट्खण्डागममें निबद्ध विषयका योनिस्थान यही पूर्व है । . पाँचवाँ ज्ञानप्रवाद पूर्व है। यद्यपि इसका मुख्य विषय पाँच ज्ञान और तीन अज्ञानका विशद विवेचन है, परन्तु प्रसंगसे इनमें पेज्ज दोस प्रमुख मोहनीय कर्मके बन्ध, उदय और सत्त्व आदिका भी सर्वांग रू पसे विवेचन किया गया है । कषायप्राभृतमें निबद्ध विषयका योनिस्थान यही पूर्व है ।" ग्यारहवाँ पूर्व कल्याणवाद है। नामके अनुसार इसमें तीर्थंकरोंके पाँच कल्याणक तथा चक्रवर्ती, बलदेव आदिके गर्भावतरण आदिका विवेचन तो हुआ ही है। साथ ही वह ग्रह, नक्षत्र आदिके चार क्षेत्र, गति आदिका भी विवेचन करता है। ___ बारहवां प्राणावाय पूर्व है। नामके अनसार इसमें प्राण-वाय और अपान वाय आदिका विवेचन तो हुआ ही है । साथ ही इसमें प्रसंगसे कायचिकित्सा, अष्टांग आयुर्वेद और विषविद्या आदिका भी विवेचन हुआ है। तेरहवाँ क्रियाविशाल पूर्व है । नामके अनुसार इसमें मोक्षकी कारणभूत शुभ आदि क्रियाका विवेचन न होकर प्रायः सभी प्रकारकी कलाओं का विवेचन हुआ है । इसमें पुरुषकी बहत्तर कला, स्त्रियोंके चौसठ गुण और छन्दनिर्माणकला आदि भी सम्मिलित हैं। लोकबिन्दुसार चौदहवाँ पूर्व है । तत्त्वार्थवार्तिक (मूल पृ० ५४) में इसका नाम त्रिलोक विन्दुसार दिया है। इसमें आठ व्यवहार, चार बीज, मोक्षगभनमें निमित्त भूत क्रिया और मोक्ष सुखका वर्णन उपलब्ध है। इसके अनुसार तीनों लोकोंके विन्दु अर्थात् अवयव या सारका भी विवेचन इसमें हुआ है । इस प्रकार कतिपय पूर्वोमें प्ररू पित विषय जानना चाहि।। १. धवला, पु० १, पृ० ११५ २. वही, पृ० ११६ ३. वही, पु० ९ पृ० १३५ ४. धवला, पु०, पृ० ११५ ५. कषायप्राभृत सूत्र, गा० १ ६. धवला, पु० १, पृ० १२२ ७. वही, पृ० १२३ ८. वही, पृ० १२३ ९. वही, पृ० १२३ १०. धवला, पु०१, पृ० १२३ टिप्पण Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : ३२९ ६, श्रुत प्ररूपणाके दो प्रकार __ आगममें श्रुतज्ञानकी प्ररूपणा दो प्रकारसे उपलब्ध होती है-एक निवृत्त्यक्षर या स्थापनाक्षरकी मुख्यतासे और दूसरी लब्ध्यक्षरकी मुख्यतासे । इन तीनोंमें परस्पर निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध है। इतना अवश्य है कि तीर्थकर महावीरकी धर्म देशनाका आप्यायन कर इंद्रभूति गौतम गणधरने जिस अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य श्रतको निबद्ध किया, वह सदा ही गुरु परम्परासे वाचना द्वारा प्राप्त होकर ज्ञानगम्य ही रहा है, पुस्तकारूढ़ कभी भी नहीं हो सका। ७. प्रथम प्ररूपणा प्रथम प्ररूपणाके अनुसार जितने मूल अक्षर और उनके संयोग हैं उतने श्रुतज्ञानके भेद हैं।' स्पष्टीकरण इस प्रकार है २७ स्वर, २३ व्यंजन और ४ अयोगवाह ये ६४ 0 तके मूल अक्षर हैं। इन्हें एक संयोगी भी कहते हैं । इनके साथ दो संयोगीसे लेकर ६४ संयोगी तक श्र तके कूल अक्षर १८४४६७४४०७३७०९५५१६५५ होते हैं । इन्हें प्राप्त करनेके लिए ६४ बार ११११ (एक-एक) इस प्रकार विरलन कर तत्पश्चात् प्रत्येक विरलन रूप १ को दूना कर परस्पर गुणित करने पर जो संख्या निष्पन्न हो, उसमेंसे एक अंकके कम करनेपर श्रुतज्ञानके उक्त संख्या प्रमाण अक्षर प्राप्त होते हैं । (१) प्रकृतमें संयोगका अर्थ दो या दोसे अधिक अक्षरोंका एक रूप परिणमन नहीं लिया गया है, क्योंकि संयोजनका यह अर्थ स्वीकार करनेपर उसमें दो अक्षरोंका संयोग, तीन अक्षरोंका संयोग इत्यादि व्यवहार करना सम्भव नहीं होगा और न दो या दोसे अधिक अक्षरोंका एक साथ उच्चारण करना हो संयोगका अर्थ लिया गया है, क्योंकि दो या दोसे अधिक अक्षरोंका एक साथ उच्चारण करना कभी भी सम्भव नहीं, अतः जितने अक्षर एक साथ मिलकर एक अर्थको कहते हैं उतने अक्षरोंका एक संयोग होता है, संयोग पदका यह अर्थ प्रकृतमें लिया गया है ऐसा यहाँ समझना चाहिए । २) प्रकृतमें दूसरी बात यह ज्ञातव्य है कि यहाँ श्रुतज्ञानके जितने अक्षर कहे गये हैं, उनकी प्ररूपणा अनुलोमविधिसे ही की गई है, क्योंकि प्रतिलोमविधिसे या अनुलोमप्रतिलोम विधिसे जो अक्षर बनते हैं, उनका अन्तर्भाव अनुलोम विधिसे परिगणित किये गये अक्षरोंमें ही हो जाता है। , (३) तीसरी बात यह ज्ञातव्य है कि प्रकृतमें संयोगका अर्थ मात्र व्यंजन अक्षरका संयोग ही इष्ट नहीं है । किन्तु जितने प्रकारके संयोगाक्षर होते है, उनमेंसे कोई संयोगाक्षर व्यंजन अक्षरोंके संयोगसे बनता है । कोई संयोगाक्षर दो या दोसे अधिक स्वरोंके संयोगसे बनता है आदि । (४) चौथी बात यह ज्ञातव्य है कि लोकमें यद्यपि अर्थपद और प्रमाणपद हो रुढ़ हैं, परन्तु इन्द्रभूति गौतम गणधरने जो अंगप्रविष्ट श्रत निबद्ध किया था, उसमें निबद्ध श्र तकी जिस पदसे परिगणना की गई है आगममें उसे मध्यम पद कहा गया है। यहाँ जिन तीन पदोंका उल्लेख किया गया है, उनमेंसे जो अर्थपद है वह अनियत अक्षरों वाला होता है, क्योंकि एक या एकसे अधिक अक्षरोंके संयोगसे निष्पन्न पद द्वारा एक अर्थ सूचित होता है, लोकमें उसकी अर्थपद संज्ञा है। प्रमाणपद आठ अक्षरोंका होता है, क्योंकि लोकमें १. वही, पु० १३, पृ० २४७ मूलसूत्र विशेषावश्यक भाष्य गाथा ४४३ ३. धवला, पु० १३, पृ० २५० २. वही पु० १३, पृ० २४८ मूलसूत्र ५, वही, पृ० २५८ ४. वही, पृ० २५१ ४२ Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३०. : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ ऐसे चार पदोंसे निष्पन्न श्लोकके द्वारा किसी भी ग्रन्थकी परिगणना की जाती है। किन्तु १२ अंगोंमें जिस पदके द्वारा उस-उस अंग या उसके उत्तर भेदोंके प्रमाणकी परिगणना की जाती है, उसकी आगममें एक मात्र मध्यम पद संज्ञा है। इस हिसाबसे एक मध्यम पदमें श्रु तज्ञानके कुल अक्षर १६३४८३०७८८८ होते हैं, और बारह अंगोंके कुल पद ११०८३५८००५ होते हैं ।२।। यह इतना विशेष जानना चाहिए कि प्रकृतमें एक-एक मध्यम पदमें अक्षरोंकी अपेक्षासे जो समानता कही गई है, सो वह संयोगाक्षरोंकी अपेक्षासे ही कही गई है। एक-एक संयोगाक्षरमें जो अवयव अक्षर कम अधिक होते हैं, उनकी अपेक्षासे नहीं, क्योंकि कोई संयोगाक्षर मात्र दो प्रत्येक अक्षरोंके सुमेलसे बनता है और कोई संयोगाक्षर अधिकसे अधिक ६४ अक्षरोंके सुमेलसे बनता है । इसलिए कोई भी संयोगाक्षर कितने ही प्रत्येक अक्षरोंके संयोगसे भले ही बने, पर वह एक अक्षर ही माना जायेगा। अतः संयोगाक्षरको एक मानकर उनकी अपेक्षा सब मध्यम पदोंके अक्षर समान ही होते हैं ऐसा यहाँ समझना चाहिए। यहाँ जिन तथ्योंका हमने निर्देश किया है उन्हें प्रकृतमें एक दो उदाहरणों द्वारा स्पष्ट किया जाता है"अ" का अर्थ विष्णु है या 'अ सि आ ऊ सा' मन्त्रमें उसका अर्थ 'अरहन्त' है। यह मध्यम पदमें जहाँ सार्थक एक संयोगी अक्षर है वहाँ उक्त तीन पदोंकी अपेक्षासे इसे अर्थ पदका भी उदाहरण माना जा सकता है। "या श्रीः सा गौः जहाँ यह मध्यपदकी अपेक्षासे अनुलोम विलोम उभयरूप सार्थक एक संयोगाक्षरका उदाहरण है वहाँ अर्थपदकी अपेक्षासे “या श्री सा गौ" ये चारों प्रत्येक अर्थ पद है । ८. द्वितीय प्ररूपणा यहां तक अक्षरोंके भेदसे श्रुतज्ञानकी प्ररूपणा की गई है उसकी अपेक्षासे मूल अक्षर ६४ होनेसे श्रुत ज्ञान भी ६४ प्रकारका है तथा मूल अक्षरोके साथ संयोगी अक्षरोके संख्यात होनसे श्रुतज्ञान भी उतने प्रकारका हो जाता है । इस प्रकार श्रतके अक्षरोंको अपेक्षासे श्रृतज्ञानके भेदोंकी प्ररूपणा करके आगे क्षयोपशमकी अपेक्षासे श्रुतज्ञानके भेदकी प्ररूपणा की गई है। इस अपेक्षासे श्रुतज्ञानके मूल भेद २० हैं । श्रुतज्ञानमे सबसे जघन्य ज्ञानका नाम लब्ध्यक्षर है । यह केवलज्ञानके अनन्तवें भाग प्रमाण है। यह नित्य उघाटित और निरावरण है। इसमें सब जीव राशिका भाग देने पर जो भाग लब्ध आवे, उसे उसी लब्ध्यक्षर ज्ञानमें मिलाने पर श्रुतज्ञानके प्रथम भेद पर्यायज्ञानकी उत्पत्ति होती है । लब्ध्यक्षर और पर्यायज्ञानके मध्य श्रुतज्ञानका अन्य कोई भेद नहीं है. यह इसका तात्पर्य है । श्रुतज्ञानका दूसरा भेद पर्यायसमास है । इसके असंख्यात लोक प्रमाण भेद हैं, जो अनन्तभागवृद्धि, असंख्यातनागवृद्धि, संख्यातभागवृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणवृद्धि और अनन्तगुणवृद्धिके क्रमसे उत्पन्न होते हैं। यहाँ अनन्तका भाग देनेके लिए या गुणा करनेके लिए सर्व जीव राशिका जितना प्रमाण हो, अनन्तका प्रमाण उतना लेना चाहिए । असंख्यात का भाग देनेके लिए या गुणा करनेके लिए उत्कृष्ट असंख्यात १. वही, पृ० २६६ ३. धवला, पृ० १३, पृ० २६७ ५. वही १० २५९। ७. धवला, पु० ५३ पृ० २६५ । २. वही, पृ० २६६ ४. वही, पृ० २६७ ६. वही, पृ० २६५। ८. वही, पृ० २६३ । Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : ३३१ का जितना प्रमाण हो, उतना लेना चाहिए । तथा संख्यातका भाग देनेके लिए या गुणा करनेके लिए उत्कृष्ट संख्यातका जितना प्रमाण हो उतना लेना चाहिए।' नियम यह है कि सूच्यंगुलके असंख्यातवें भागका जितना प्रमाण हो उतनी बात पर्यायज्ञानके ऊपर अनन्त भागवृद्धियोंके होने पर एक बार असंख्यात भागवृद्धि होती है । पुनः इस विधिसे प्राप्त हुए ज्ञान पर उतनी ही बार अनन्त भागवृद्धिके होने पर दूसरी बार असंख्यात भागवृद्धि होती है। इस क्रमसे जब असंख्यात भाग भी सूच्यंगुलके असंख्यातवें भाग बार हो लेती है, तब वहाँ प्राप्त हुए ज्ञान पर सूच्यंगुलके असंख्यातवें भाग बार अनन्त भागवृद्धिके होने पर वहाँ असंख्यात भागवृद्धिका स्थान संख्यातभागवृद्धि ले लेती है। इसके आगे पुन उक्त विधिसे दूसरी बार संख्यात भागवद्धि होती है और इस प्रकार जब सूच्यंगुलके असंख्यातव भाग बार संख्यातभागवृद्धियाँ हो लेती है तब उक्त विधिसे ही क्रमशः शेष वृद्धियाँ होती हैं। इनका नाम एक षट्गुणीवृद्धि है । यहाँ एक षट्गुणीवृद्धिमें जितनी बार ये छहों वद्धियाँ प्राप्त होती हैं, उतने ही पर्यायसमास जानके भेद होते हैं। इस प्रकार उत्तरोत्तर षड़गणीव द्धियोंके क्रमसे पर्यायसमास ज्ञानके असंख्यात लोक प्रमाण भेद उत्पन्न होते हैं। इस विधिसे यहाँ जो श्रुतज्ञानके भेद उत्पन्न किए गये हैं. इन सबकी पर्यायसमास-ज्ञान संज्ञा है । इन सबकी पर्यायज्ञान और अक्षरज्ञानके मध्यमें परिगणना की गई है. इसलिए इन सब श्रुतज्ञानके भेदोंको आगममें पर्यायसमास कहा गया है । यह श्रुतज्ञानका दूसरा भेद है। श्र तज्ञानका तीसरा भेद अक्षरज्ञान है । पर्यायसमास ज्ञानका जो अन्तिम भेद है। उसमें सब जीव-राशिका भाग देने पर जो लब्ध आवे, उसे पर्यायसमासज्ञानके अन्तिम भेदमें मिला देने पर प्रथम अक्षर ज्ञानकी उत्पत्ति होती है । वह आगेके श्रुतज्ञानके भेदोंकी अपेक्षा सबसे जघन्य अक्षर श्रतज्ञान हैं। इनके ऊपर दूसरे अक्षरज्ञानकी उत्पत्ति होने पर पर्यायसमास ज्ञानका प्रथम भेद उत्पन्न होता है। इस विधिसे एक-एक अक्षरज्ञानकी वृद्धि द्वारा संख्यात अक्षरज्ञानोंकी वृद्धि होने तक उन सबकी समासज्ञान संज्ञा है । यह श्रुतज्ञानका चौथा भेद है । इसके आगेके श्रुतज्ञानके भेदोंके नाम हैं-पद, पद-समास, संघात, संघातसमास, प्रतिपत्ति, प्रतिपत्तिसमास, अनुयोगद्वार, अनुयोगद्वा रसमास, प्राभृत-प्राभृत, प्राभृतप्राभृतसमास, प्राभृत, प्राभूतसमास, वस्तु, वस्तु वस्तु समास, पूर्व और पूर्व समास । इस प्रकार क्षयोपशमके भेदोंकी मुख्यतासे श्रुतज्ञानके समुच्चयरूप भेदोंकी संख्या २० है ।" ये सब ज्ञान एक-एक अक्षरज्ञानकी वृद्धिसे उत्पन्न होते हैं। स्पष्टीकरण जिस विधिसे अक्षरसमास ज्ञानका किया गया है, उसी विधिसे आगेके समास ज्ञानोंका कर लेना चाहिए। यहाँ इतना विशेष जानना चाहिए कि (१) अक्षरज्ञानके ऊपरकी छह प्रकारकी वृद्धि नहीं होती। कारण कि एक अक्षरज्ञान सकल श्रुतज्ञानके संख्यातवें भाग प्रमाण ही होता है, इसलिए अक्षरज्ञानसे आगेके सब ज्ञानोंमें छह वृद्धियाँ न होकर यथासंभव संख्यातभागवृद्धि और संख्यातगुणवृद्धि ही होती हैं । (२) यहाँ पर्यायज्ञानसे लेकर आगेके सब ज्ञानोंकी उत्पत्तिका जो क्रम स्वीकार किया गया है वह मात्र उत्तरोत्तर एक ज्ञानसे दूसरे ज्ञानमें तारतम्य दिखलानेके लिए ही स्वीकार किया गया है। किन जीवके कब १. गोम्मटसार (जीवकाण्ड), गाथा ३३४; ३. धवला, पृ० १३, पु० २६४ ५. वही, पृ० २६१, सूत्र ४८ २. वही गाथा ३२६ । ४. वही, पृ० २६४ Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-प्रन्थ कम अधिक कितना ज्ञान उत्पन्न होना सम्भव है इसकी यहाँ मीमांसा नहीं की गई है। (३) दूसरी प्ररूपणामें श्रुतज्ञानके जो बीस भेद किये गये हैं वे भेद मुख्यतया पूर्वगत श्रुतको ध्यानमें रखकर ही किये गये हैं । इसलिये यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि पूर्वगतके चौदह भेदोंमेंसे ग्यारह अंग, परिक्रम, सूत्र प्रथमानुयोग और चूलिकाका अन्तर्भाव हो नहीं सकता। ऐसी अवस्थामें उनका अन्तर्भाव श्रुतज्ञानके किस भेदमें होता है ? इस प्रश्नका समाधान करते हुए वीरसेन स्वामीने लिखा है कि उक्त श्रुतके भेदोंका अनुयोगद्वार-समासमें अन्तर्भाव हो जाता है। (४) हम पहले अक्षरके तीन भेद कर आये हैं-प्रथम भेद लब्ध्यक्षरको दृष्टिमें रखकर श्रुतज्ञानके उक्त २० भेदोंकी प्ररूपणा मुख्यतया श्रुतज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशमको निमित्त कर उत्पन्न हुए ज्ञानकी मुख्यतासे ही की गई है । फिर भी इनका निवृत्यक्षर और स्थापनाक्षरके साथ किस विधिसे निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध बनता है, इसे समझनेके लिए गोम्मटसार ज्ञान मार्गणाका उक्त प्रकरण द्रष्टव्य है । (५) श्रुतके सब अक्षरोंमें मध्यम पदका भाग देनेपर अन्तमें जो अक्षर शेष रहते हैं, उनके आलम्बनसे इन्द्रभूति गौतम गणधरने सामायिक आदि चौदह अंगबाह्य श्रुतकी रचना की है, इतना यहाँ विशेष जानना चाहिए । इस प्रकार अंगश्रुतके परिप्रेक्ष्यमें पूर्वगत श्रुतके कितने भेद है, उनका स्वरूप क्या है, और उनकी वाचना लेने-देनेका अधिकारी कौन है, आदि विषयोंको इस निबन्धमें संक्षेपमें निरूपण किया गया है। १. धवला पुस्तक १३, पृ० २७६ Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक आनुपूर्वी में कर्म-साहित्य कर्म साहित्यमें जिन' ८ या १०२ करणोंका उल्लेख दृष्टिगोचर होता है उनमें एक उपशमनाकरण भी है । उसके दो भेद है-करणोपशामना और अकरणोपशामना । करणोपशामनाके भी देशकरणोपशामना और सर्वकरणोपशामना ये दो भेद हैं । ये दोनों भेद श्वेताम्बर कर्मग्रन्थोंमें भी दृष्टिगोचर होते हैं। कषायपाहड और उसकी जयधवला टीकामें देशकरणोपशामनाका खुलासा करते हए लिखा है कि देशकरणोपशामनाके दो नाम हैं-देशकरणोपशामना और अप्रशस्तउपशामना । इसका स्पष्टीकरण करते हुए जयधवलामें बतलाया है कि यह संसारी जीवोंके अप्रशस्त परिणामोंके निमित्तसे होती है, इसलिये इसका पर्यायवाची नाम अप्रशस्त उपशामना भी है। और यह कथन असिद्ध भी नहीं है, क्योंकि अति तीव्र संक्लेश परिणामोंके कारण अप्रशस्त उपशामनाकरण, निधत्तीकरण, और निकाचनाकरणकी प्रवृत्ति होती है। क्षपक श्रेणि और उपशम श्रेणिके विशुद्धतर परिणामोंके कारण इसका विनाश भी देखा जाता है, इसलिये भी यह अप्रशस्त है यह सिद्ध हो जाता है। इसका विशेष विवेचन कषायप्राभूत चूणिके अनुसार दूसरे अग्राणीय नामक पूर्वकी ५वीं वस्तु अधिकारके चौथे महाकर्मप्रकृति नामक अनुयोगद्वारमें देखना चाहिये। यह कषायप्राभत चणि और उसकी जयधवला टीकाका वक्तव्य है। किन्तु श्वेताम्बर कर्म-प्रकृति और उसकी चणिमें इसके उक्त दो नामोंके अतिरिक्त अगुणोपशामना और अप्रशस्तोपशामना ये दो नाम और दृष्टिगोचर होते हैं। जब कि इनमेंसे अगुणोपशामना यह नाम कषायप्राभृतचूर्णिमें आगे पीछे कहीं भी नहीं होता । यहाँ देशोपशामनाका अप्रशस्तोपशामनाके समान अगुणोपशामना यह नाम लेना चाहिये या नहीं, विचारका यह मुख्य मुद्दा नहीं है। यहाँ विचार तो इस बातका करना है कि यदि कषायप्राभूतचणि लिखते समय यतिवृषभ आचार्यके सामने श्वेतांबर कर्म प्रकृति उपस्थित थी तो वे देशोपशामनाके पर्यायवाची नामोंका उल्लेख करते समय उसका एक नाम अगुणोपशामनाका उल्लेख क्यों भूल गये? इससे स्पष्ट है कि देशोपशामनाका विवेचन देखनेके लिये जो आचार्य यतिवृषभने अपनी चुणिमें "एसा कम्मपयडीसु" पदका उल्लेख किया है उससे उनका आशय दूसरे पूर्वकी ५वीं वस्तुके चौथे प्राभृतसे ही रहा है, श्वेतांबर कर्मप्रकृतिसे नहीं। इस विषयमें स्व. पं० श्री हीरालालजी सि. शास्त्रीने जो कल्पनाओंका जाल बिछाया है वह उन्हींको शोभा देता है । यहाँ उक्त पंडितजीको इस विषयपर एक पक्षमें अपनी मोहर लगाते समय कई दृष्टियोंसे विचार करना चाहिये था । पहिले तो भाषाकी दृष्टिसे विचार करना चाहिये था, दूसरे विषय विवेचनकी दष्टिसे विचार करना चाहिये था और तीसरे पारिभाषिक शब्दोंकी दृष्टिसे भी विचार करना चाहिये था। भाषाकी दृष्टिसे विचार करनेपर तो दोनोंकी प्ररूपणामें जो भेद दृष्टिगोचर होता है वह स्पष्ट ही . है । जब कि दिगंबर परम्परामें पूरा आगमसाहित्य सौरसेनी प्राकृतमें लिखा गया है, वहाँ श्वेतांबर आगम १. क० पा० भाग १४ पृ० ३२ ३. क. पा० भाग १४ पृ०८ ५. वही पृ०८ २. गो० क० गाथा ४३७ ४. क० पा० भाग १४ पृ० ८ Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ साहित्यमें सौरसेनी प्राकृतको स्पर्श तक नहीं किया गया है, उसे श्वेतांबर विद्वान् अर्धमागधी कहते अवश्य है पर उसमें वह रूप भी पूरी तरहसे दिखायी नहीं देता। विषय विवेचनकी दृष्टिसे विचार करनेपर दिगंबर परंपराके कर्म साहित्यमें जो गुणस्थान और मार्गणास्थानोंकी दृष्टिसे जिस क्रमको स्वीकार करके विवेचन किया गया है वह क्रम श्वेतांबर कर्म साहित्यमें दृष्टिगोचर नहीं होता। पारिभाषिक शब्दोंकी दृष्टिसे भी विचार करनेपर दोनों परंपराओंके कर्म विषयक शास्त्रोंमें कतिपय ऐसे शब्द प्रयोग पाये जाते हैं जो अपनी-अपनी परंपरामें ही स्वीकार किये गये हैं। जैसे--(१) श्वेतांबर कर्मप्रकृतिमें और उसकी चूर्णिमें प्रदेशपुञ्जके स्थानपर ' दलिय" दलक शब्दका प्रयोग हुआ है ।' किन्तु कषायप्राभृत मूल और उसकी चूर्णिमें इस शब्दके स्थानमें मात्र 'अग्ग' अग्र शब्दका प्रयोग दृष्टिगोचर होता है । किन्तु अग्र शब्दके स्थ नमें दलिय शब्दका प्रयोग भूलसे भी कषायप्राभृत और उसकी चूर्णिमें कहीं भी दृष्टिगोचर नहीं होता। (२) स्वेतांबर कर्मप्रकृति और उसकी चूणिमें नपुंसक वेदके अर्थमें नपुंसकवेद शब्दका प्रयोग तो हुआ ही है । साथ ही इस अर्थमें 'वरिसवर' शब्दका भी प्रयोग हुआ है। जबकि कषायप्राभृत मूल और उसकी चूणिमें एकमात्र नपुंसकवेद शब्दका ही प्रयोग हुआ है । ___श्वेतांबर कर्मप्रकृतिमें अविरतसम्यग्दृष्टिके लिये 'अजऊ' शब्दका प्रयोग हुआ है तथा इसकी चूर्णिमें इसके स्थानमें 'अजत' शब्द दृष्टिगोचर होता है। जबकि कषायप्राभृत और उसकी चूणिमें अविरतं सम्यग्दृष्टिके अर्थमें इस शब्दका प्रयोग नहीं ही हुआ है । शब्द प्रयोगके ये कतिपय उदाहरण हैं जिनको दष्टिमें लेनेसे भी यही निश्चित होता है कि इन दोनों चणियोंके कर्ता आचार्य यतिवृषभ नहीं हो सकते, यह स्पष्ट ही है। स्व. श्री पं० हीरालालजीने कषायपाहुड़ सुत्तकी प्रस्तावनामें एक मुद्दा यह भी उपस्थित किया है कि श्वेतांबर कर्मप्रकृतिमें गाथा ६६ से ७१वीं गाथा तककी इन ६ (छह) गाथाओं द्वारा देशोपशामनाका विस्तृत विवेचन किया गया है, इसलिये उसमें यह स्वीकार किया है कि आ० यतिवृषभके सामने श्वेतांबर कर्मप्रकृति रही है । उन्होंने देशोपशामनाके स्वरूप आदिके समझनेके लिये 'एसा कम्मपयडीसु' लिखकर जिस कर्मप्रकृतिकी ओर संकेत किया है वह श्वेतांबर कर्मप्रकृति ही है। किन्तु श्वेतांबर कर्मप्रकृतिकी जिन ६ गाथाओंमें सब कर्मोंके उत्तरभेदोंकी प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश भेदसे जिस देशोपशामनाका निर्देश किया गया है उसका आशय इतना ही है कि देशोपशामना अपूर्वकरणके अन्तिम समय तक ही होती है, अनिवृत्तिकरणके प्रथम समयमें देशोपशामनाकी व्युच्छित्ति ही रहती है, सो यह अभिप्राय तो कषायप्राभूत और उसकी चूणिमें प्रतिपादित दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीयकी उपशमना और क्षपणाके कथनसे ही फलित हो जाता है। यतिवृषभाचार्यने अनिवृत्तिकरणके प्रथम समयमें अप्रशस्त उपशामनाकरण, निधत्तीकरण और निकाचनाकरणका स्वयं निषेध किया ही है। अतः मात्र इतने अभि १. गाथा २२ और उसकी चूर्णि । ३. गाथा ६५ और उसकी चूणि । २. गाथा ६२ और उसकी चूणि । ४. गाथा २७ और उसकी चूणि । Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : ३३५ प्रायको स्पष्ट करनेके लिये आचार्य यतिवृषभने देशोपशामनाके स्वरूपपर प्रकाश डालनेके लिये 'एसा कम्मपयडीसु' लिखकर श्वेतांबर कर्मप्रकृतिकी ओर इशारा किया होगा इसे कोई भी परीक्षक स्वीकार नहीं करेगा। ___स्व. श्री पं० हीरालालजीने कषायपाहुड़सुत्तकी प्रस्तावनामें एक बात यह भी स्वीकार की है कि श्वेतांबर आम्नायमें प्रसिद्ध शतक, सप्ततिका और कर्मप्रकृति चूणिके कर्ता भी आचार्य यतिवृषभ ही हैं, सो उनका ऐसा लिखना भी युक्तियुक्त प्रतीत नहीं होता। यद्यपि इस समय शतक और सप्ततिकाकी चूर्णियाँ तो हमारे सामने नहीं है, कर्मप्रकृतिकी चूणि अवश्य हो हमारे सामने है। अतः उसके आधारसे ही यहाँ इस बातका विचार किया जाता है कि श्वेतांबर कर्मप्रकृति चूणिके लेखक यतिवृषभाचार्य है या नहीं । यथा (१) दिगम्बर परम्परामें संक्रमको बन्धका एक प्रकार मानकर उद्वेलना प्रकृतियाँ १३ स्वीकार की गयी है-आहारकद्विक, सम्यक्त्व, मिश्र, देवगतिद्विक, नरकगतिद्विक, वैक्रियिकद्विक, उच्चगोत्र और मनुष्यगतिद्विक । (गो० क० गाथा ४१५) । किन्तु श्वेताम्बर कर्मप्रकृति चूणिमें २७ उद्वेलना प्रकृतियाँ स्वीकार की गई है। यथा-अनन्तानुबन्धी चतुष्क, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, देवद्विक, नरकद्विक, वैक्रियिक सप्तक, आहारक सप्तक, मनुष्य द्विक और उच्चगोत्र । (कर्मप्रकृतिचूणि-प्रदेश संक्रम पत्र ९५ आदि)। (२) अपूर्वकरणमें स्थितिकाण्डकघात आदि कार्य प्रारम्भ हो जाते हैं। इसी तथ्यको ध्यानमें रखकर कषायप्राभूत चूर्णिमें स्थितिकाण्डकघातकी प्रक्रियापर प्रकाश डालते हुए दर्शनमोहनीयका जो स्थितिकाण्डकघात होता है उसमें उद्वेलना संक्रम नहीं स्वीकार करके मात्र यह उल्लेख दृष्टिगोचर होता है-- पढमट्ठिदिखंडयं बहुअं, विदियट्ठिदिखंडयं, तदियं ट्ठिदिखंडयं विसेसहीणं । एदेण कमेण ट्ठिदिखंडय सहस्सेहि बहुएहिं गदेहिं अपुव्वकरणद्धाए चरिमसमयं पत्तो। (भा० १३ पृ० ३६-३७) किन्तु इसके स्थानमें इसी स्थितिकाण्डकघातको श्वेतांबर कर्मप्रकृति चूर्णिमें उद्वेलना संक्रमपूर्वक लिखा है। यथा-- अन्नं च उव्वलणालक्खणेण पठमट्ठिदिखंडयं सव्वमहन्तं । वितिय विसेसहीणं, ततिय विसेसहीणं जाव अपुन्वकरणस्स अंतिमट्ठितिखंडगं विसेसहीणं । (उपशमनाकरण अधिकार पृ० २५) यह दोनों चूर्णियोंका एक-एक उल्लेख है। इनमें से जहाँ कर्मप्रकृति चूर्णिमें दर्शन मोहनीयके स्थितिकाण्डकघातको उद्वेलना संक्रम पूर्वक स्वीकार किया गया है यहाँ कषायप्राभृतचूणि इस तथ्यको स्वीकार ही नहीं करती । इस प्रकार दोनों चणियोंका यह अन्तर उपेक्षा करने योग्य नहीं है। प्रथम कारण तो यह है कि एक तो दोनों परम्पराओंके अनुसार मिथ्यात्वकर्म उद्वेलना प्रकृति नहीं है। दूसरे इस तथ्यको कर्मप्रकृति स्वीकार करती है कि सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व ये दो कर्म उद्वेलना प्रकृतियाँ होकर भी २७ प्रकृतियोंकी सत्तावाला ही मिथ्यात्वदशामें इन दोनों प्रकृतियोंकी उद्वेलना करता है। श्वेताम्बर कर्मप्रकृतिने इसे स्वीकार करते हुए लिखा है-- एवं मिच्छदिट्ठि अट्ठावीससंतकम्मितो पुव्वं सम्मत्तं एतेण विहिणा उव्वलेति । ततो सम्मामिच्छत्तं ते चेव विहिणा। इसी तथ्यको दिगम्बर परम्परा भी स्वीकारती है । यथा मिच्चे सम्मिस्साणं अधापवत्तो मुहत्तअंतो त्ति। उव्वेलणं तु तत्तो दुचरिमकंडो त्ति णियमेण ॥४१२।। गो० क. Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३६ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ (२) यह दोनों चूणियोंका एक-एक , उदाहरण है जो इस तथ्यकी पुष्टि करनेके लिये पर्याप्त है कि दोनों चूर्णियोंका कर्ता एक व्यक्ति नहीं हो सकता। आगे भी हम इन दोनों चूर्णियोंमें मतभेदके कतिपय उदाहरण उपस्थित कर रहे हैं जिनसे इस तथ्यकी पुष्टिमें और भी सहायता मिलेगी। श्वेताम्बर कर्मप्रकृति चूणिके इस उल्लेखपर दृष्टिपात कीजिये ___इदाणों सम्मदिट्टिस्स उव्वलमाणितो भण्णंति-'अहाणियट्ठिमि छत्तोसाए' अहसद्दी अण्णाहियारे । किपण्णं ? भण्णई-कालओ अन्तमुहुत्तेण उव्वलति त्ति । तं दरसेति-अणियट्ठिखव गो छत्तीसं कम्मपगतीतो एएणेव विहिणा उव्वलेति । –कर्मचूर्णि । __आशय यह है कि अनिवृत्तिकरण नौवें गुणस्थानमें जिन ३६ प्रकृतियोंकी क्षपणा होती है वह उद्वेलना संक्रमपूर्वक ही होती है। इसीप्रकार इस चर्णिमें अनन्तानबन्धी चतष्ककी विसंयोजना तथा मि सम्यग्मिथ्यात्वकी क्षपणा भी उद्वेलनापूर्वक स्वीकार की गई है। जबकि कषायप्राभूत चूणिमें इस बातका अणुमात्र भी उल्लेख दृष्टिगोचर नहीं होता। (३) कषायप्राभृत चूणिके अनुसार जो जीव कषायोंकी उपशामना करता है वह अनिवृत्तिकरण गणस्थानमें लोभ संज्वलनके मात्र पूर्वस्पर्धकोंसे ही सूक्ष्म कृष्टियोंकी रचना करता है। उल्लेख इस प्रकार है ___ से काले विदियतिभागस्त पढमसमए लोभसंज्वलणाणुभागसंतकम्मस्स जं जहण्णफद्दयं तस्स हेट्टदो अणुभागकिट्टीओ करेदि । किन्तु श्वेताम्बर कर्मप्रकृति चूर्णिमें पूर्वस्पर्धकोसे अपूर्व स्पर्धकोंकी रचनाका विधान कर पुनः उनसे कष्टियोंके करनेका विधान किया गया है । यथा अस्सकनकरणद्धाते वट्टमाणो लोभसंज्वलनस्स पुव्वफद्दयेहितो समते-समते अपुव्वाणि फड्डगाणि करेति । "जावएणठाणं न पावति ताव पुव्वफड्डगं अपुव्वफड्डगस्स रूपेणेव अणुभागसंतकम्मं आसि, तीर पढमसमते किट्टीओ पकरेइ।। (४) उक्त पंडितजीका यह ख्याल है कि आचार्य यतिवृषभने अपनी चूणि लिखते समय श्वेताम्बर कर्मप्रकृति और उसकी चूर्णिका पदानुसरण किया है सो यह बात नहीं है। कारण कि कषायप्राभूत और उसकी चर्णिमें झीनाझीन अधिकार और स्थितिक या स्थित्यंतिक आदि ऐसे अनेक अनुयोगद्वार है जो श्वे कर्मप्रकृति और उसकी चूर्णिमें नाममात्रको भी उपलब्ध नहीं होते। अतः यह स्पष्ट है कि उक्त विषयोंपर चुणि लिखते समय जिन गुरुओं और मूल पूर्व आगमको आधार बनाकर उन्होंने उन विषयोंपर चूणिसूत्र लिखे हैं, उन्हीं गुरुओं और पूर्व आगमको मूल आधार बनाकर ही उन्होंने शेष चणि सूत्रोंकी भी रचना की है। अत. कसायपाहडसुत्तकी उक्त प्रस्तावनामें स्व. श्री पं० हीरालालजी द्वारा यह स्वीकार करना भी हास्यास्पद प्रतीत होता है कि 'यतिवृषभके सम्मुख षट्खण्डागमके अतिरिक्त जो दूसरा आगम उपस्थित था वह है कर्म साहित्यका महान ग्रन्थ कम्मपयडी । इसके संग्रहकर्ता या रचयिता शिवशर्मा नामके आचार्य है और उस ग्रन्थ पर श्वेताम्बराचार्योंकी टीकाके उपलब्ध होनेसे अभी तक यह श्वेताम्बर सम्प्रदायका ग्रन्थ समझा जाता रहा है किन्तु हालमें ही उसकी चूणिके प्रकाश में आनेसे तथा प्रस्तुत कषायपाहुडकी चूर्णिका उसके साथ तुलनात्मक अध्ययन करनेसे इस बातमें कोई सन्देह नहीं रह जाता है कि कम्मपयडी एक दिगम्बर परम्पराका ग्रन्थ है और अज्ञात आचार्यके नामसे मुद्रित और प्रकाशित उसकी चूणि भी एक दिगम्बराचार्य इन्हीं यतिवृषभकी ही कृति है" । पृ० ३१ । Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : ३३७ (५) हाँ उपशमना प्रकरणकी इन दोनों चूर्णियोंके अध्ययनसे इतना अवश्य ही स्वीकार किया जा सकता है कि जिस श्वेताम्बर आचार्यने कर्मप्रकृति चूर्णिकी रचना की है उसके सामने कषायप्राभृत चूर्णि अवश्य रही है । प्रमाणस्वरूप कषायप्राभृत गाथा १२२ की नूणि और श्वे० कर्मप्रकृति गाथा ५७ की चूर्णि द्रष्टव्य है दिविहो परिवादो — भवक्खएण च उवसामणक्खएण च भवक्खएण पदिदस्स । सव्वाणि करणाणि एगसमएण उग्घाडिदाणि । पढमसमए चैव जाणि उदीरज्जति कम्माणि ताणि उदयावलियं पवेसदाणि, जाणिण उदीरज्जति ताणि वि ओकडिदूण आवलियबाहिरे गोवुच्छाए सेढीए णिक्खिताणि । - क० पा० सुत्त पृ० ७१४ । यह कषायप्राभृतचूर्णि का उल्लेख है । इसके प्रकाशमें श्वे० कर्मप्रकृति उपशमनाप्रकरणकी इस चूर्णिपर दृष्टिपात कीजिए - इयाणि पडिपातो सो दुविहो - भवक्खएण उवसमद्धक्खएण य। जो भवक्खएण पडिवज्जइ तस्स सव्वाणि एतसमएण उग्घाडिदाणि भवंति । पढमसमये जाणि उदीरंज्जति कम्माणि ताणि उदयावयं पवेसियाणि जाणिण उदीरिज्जति ताणि उकड्डिऊण उदयावलियबाहिरतो उवरिं गोपुच्छागितीते सेढीने तेति । जो उवसमद्धाक्खंएण परिपडति तस्स विहासा । — पत्र ६९ । दोनों चूर्णियोंके उन दो उल्लेखांमेंसे कषायप्राभृत चूर्णिको सामने रखकर कर्मप्रकृति चूर्णिके पाठपर दृष्टिपात करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि कर्मप्रकृति चूर्णिकारके सामने कषायप्राभृत चूर्णि नियमसे रही है । प्रथम तो उसका कारण कर्मप्रकृतिचूर्णिके उक्त उल्लेख में पाया जानेवाला पाठ 'तस्स विहाए' पाठ है, क्योंकि किसी मूलसूत्र गाथाका विवरण उपस्थित करनेके पहले 'एत्तो सुत्तविहासा' या ' वस्स विहासा' या मात्र 'विहासा' पाठ देनेकी परम्परा कषायप्राभृतचूर्णिमें ही पाई जाती है । किन्तु श्वे० कर्मप्रकृति चूर्णिमें किसी भी गाथा चूर्णि लिखते समय 'तस्स विहासा' यह लिखकर उसका विवरण उपस्थित करनेकी परिपाटी इस स्थलको छोड़कर अन्यत्र कहीं भी दृष्टिगोचर नहीं होती । एक तो यह कारण है कि जिससे यह स्पष्ट हो जाता है कि श्वे० कर्मप्रकृति चूर्णिकारके सामने कषायप्राभृतचूर्णि नियमसे उपस्थित रही है । दूसरे श्वे० कर्मप्रकृतिकी इस चूर्णिमें 'गोपुच्छागिती ते' पाठका पाया जाना भी इस तथ्यका समर्थन करनेके लिये पर्याप्त कारण है । हमने श्वे० कर्मप्र कृति मूल और उसकी चूर्णिका यथासम्भव अवलोकन किया है, पर हमें उक्त स्थलकी चूर्णिको छोड़कर अन्यत्र कहीं भी इस तरहका पाठ उपलब्ध नहीं हुआ जिसमें निषेक क्रमसे स्थापित प्रदेश रचनाके लिये गोपुच्छाकी उपमा दी गई हो । तीसरे उक्त दोनों चूर्णियों में रचनाके जिस क्रमको स्वीकार किया गया है उससे भी इसी तथ्यका समर्थन होता है कि श्वे० कर्मप्रकृतिचूर्णिके लेखकके सामने कषायपाहुडसुत्तकी चूर्णि नियमसे रही है । इस प्रकार दोनों चूर्णियोंके उपशामना अधिकारपर दृष्टिपात करनेसे यह स्पष्ट हो जाता है कि वृषभ आचार्य न तो कर्मप्रकृतिचूर्णिके कर्ता ही हैं और न ही कषायप्राभृतचूर्णिको निबद्ध करते समय उनके सामने श्वे० कर्मप्रकृतिमूल ही उपस्थित रहा है । उन्होंने अपनी चूर्णिमें 'एसा कम्मपयडीसु' लिखकर जिस कर्मप्रकृतिका उल्लेख किया है वह प्रस्तुत कर्मप्रकृति न होकर अग्रायणीय पूर्वकी पाँचवीं वस्तुका चौथा अनुयोगद्वार महाकम्मपयडिपाहुड ही है । उसके २४ अवान्तर अनुयोगद्वारोंको ध्यानमें रखकर आ० यतिवृषभने 'कम्मपयडीसु' इस प्रकार बहुवचनका निर्देश किया है ] | ४३ Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पौरपाट (परवार) अन्वय १. जैन जातियोंके प्रारम्भ का काल भारतवर्ष अगणित जातियोंका देश है। भगवान् महावीरके कालमें यह जाति परम्परा प्रचलित थी, पुराणों पर दृष्टिपात करनेसे इसका आभास नहीं मिलता। यद्यपि पुराणोंमें वंशों और कुलोंके नाम तो आते हैं, यहाँ तक की मुनियोंमें भी कुल परम्परा चालू रही है। पर पुराणोंमें प्रचलित जातियोंका उल्लेख कहीं भी दृष्टिगोचर नहीं होता । अभी तक आगमोंमें जितने भी उल्लेख मिलते हैं उनके अनुसार पूरे जैन संघको चार भागों में विभक्त किया गया था - मुनि, आर्यिका श्रावक और श्राविका । , जैन परम्परामें समवसरणकी व्यवस्था इतिहासातीत भगवान् आदिनाथके कालसे ही चली आ रही है। उसके अनुसार मनुष्य देव और तियंचोंके बैठने के लिये जिन बारह कोठोंकी रचना की जाती थी उनमेंसे आर्यिका और धाविकाओंके बैठनेके लिये एक ही कोटा निश्चित रहता था। इसलिये उक्त आधारोंको ध्यानमें रखकर यह तो निश्चित रूपसे कहा जा सकता है कि तीर्थंकर महावीरके कालके बाद ही जैन परम्परामें जाति व्यवस्थाको स्थान मिल सका है, इसके पूर्व वर्तमान जातियोंमेंसे कुछ जातियाँ रही भी हों तो धार्मिक दृष्टिसे उनको महत्व नहीं दिया गया। किन्तु इस परम्परामें यह जाति व्यवस्था कमसे चालू हुई इसे ठीक तरहसे समझने के लिये हमें पुराण साहित्य के अतिरिक्त अन्य जैन साहित्य के ऊपर भी दृष्टि डालनी होगी। इस अपेक्षासे सबसे पहले हमारी दृष्टि रत्नकरण्ड श्रावकाचार पर जाती है। उसके अनुसार सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति में बाधक जिन पच्चीस दोषोंका उल्लेख दृष्टिगोचर होता है, उनमें आठ मद मुख्य हैं। उनके नाम हैं-ज्ञान, पूजा, कुल, जाति, बल, बुद्धि, तप और शरीर ।" इसका अर्थ है कि जिस कालमें स्वामी समन्तभद्रने रत्नकरण्डभावकाचारकी रचना की है उस काल तक जैन समाज में भी जाति प्रथा चालू हो गई थी, तभी तो उक्त आठ मदों में जातिमद और कुल मदको अलगसे स्थान दिया गया है। जिसे आठ मदोंमें जाति जैसा कि पहले लिख आये है कि कुल परम्परा तो पुराण कालमें हो चालू थो मद कहा गया है, सम्भवतः उससे मतलब ब्राह्मणत्व आदि जातियोंसे हो सकता है, क्योंकि मनुस्मृति आदि ब्राह्मण साहित्यके ऊपर दृष्टिपात करनेसे यह स्पष्ट ज्ञात हो जाता है कि जैनधर्म में जिन ब्राह्मणादि वर्णोंको कर्मसे स्वीकार किया गया है उन्हें ही ब्राह्मण धर्ममें जातिरूपसे स्वीकार कर लिया गया था। फलस्वरूप में ब्राह्मण हूँ, उच्च जातिका है, यह क्षत्रिय है, हमसे हलकी जातिका है' इत्यादि व्यवहार लोकमें चालू हो गया था। जैनधर्म भी उससे अछूता नहीं बच सका। यही कारण है कि रत्नकरण्डथावकाचार में कुल मदके समान जातिमदका भी निषेध किया गया है । मूलाचार पिण्डशुद्धि अधिकार पर दृष्टिपात करनेसे भी उक्त अर्थकी पुष्टि होती है। उसमें लिखा है कि जाति, कुल, शिल्प, कर्म, तप-कर्म और ईश्वरपना इनकी आजीव संज्ञा है । इनके आधारसे आहार प्राप्त करना आजीव नामका दोष है ।" १. रत्नकरण्ड श्रावकाचार श्लोक पृ० २५ । २. मू० पि० अ० गाथा ३० । Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : ३३९ मलाचार और रत्नकरण्डश्रावकाचार, ये शास्त्र विक्रमको प्रथम शताब्दिके समयमें या उससे पूर्व लिखे गये हैं। इससे लगता है कि इस कालमें जातिव्यवस्था प्रचलित होकर तियंच योनिमें हाथी, घोड़ा और गौ आदि भेदोंके समान मनुष्य समाज भी अनेक भागों में विभक्त कर दिया गया था। एक-एक वर्णके भीतर जो अनेक जातियाँ और उपजातियाँ दिखायी देती हैं, यह उसी व्यवस्थाका परिणाम है । यद्यपि यहाँ यह कहा जा सकता है कि मुलाचार और रत्नकरण्डश्रावकाचारमें जिन जातियोंको उल्लिखित किया गया है वे वर्तमानमें एक-एक वर्ण के भीतर प्रचलित अनेक जातियाँ न होकर उन वर्णोंको ही उन ग्रन्थोंमें जाति शब्द द्वारा अभिहित किया गया है । इसलिये वर्तमान कालमें एक-एक वर्णके भीतर प्रचलित अनेक जातियोंको उतना पुराना नहीं मानना चाहिये । किन्तु वर्तमानमें जितनी भी जातियाँ प्रचलित हैं इनकी पूर्वावधि अधिकसे अधिक सातवीं-आठवीं शताब्दी हो सकती है। ऐसा अनेक ऐतिहासिकोंका मत है। आचार्य क्षितिमोहनसेन उनमें मुख्य हैं। प्राग्वाट इतिहास (प्रथम भाग) की भूमिकामें पृ० १३ पर श्री अगरचन्द नाहटा लिखते हैं-"राजपुत्रोंकी आधुनिक ज्ञातियों और वैश्योंकी अन्य ज्ञातियोंके नामकरणका समय भी विद्वानोंकी रायसे ८वीं शतीके लगभगका ही है। सुप्रसिद्ध ऐतिहासिक विद्वान् श्री चितामणि विनायक वैद्यने अपनी 'मध्ययुगीन भारत' में लिखा है-"विक्रमकी ८वीं शताब्दी तक ब्राह्मण और क्षत्रियोंके समान वैश्योंकी सारे भारतमें एक ही जाति थी।" श्री सत्यकेतु विद्यालंकार क्षत्रियोंकी ज्ञातियोंके सम्बन्धमें अपने ग्रन्थ 'अग्रवाल ज्ञातिके प्राचीन इतिहास' के पृ० २२८ पर लिखते हैं-भारतीय इतिहासमें ८वीं सदी एक महत्त्वपूर्ण परिवर्तनकी सदी है । इस कालमें भारतकी राजनैतिक शक्ति प्रधानतया उन ज्ञातियोंके हाथमें चली गई, जिन्हें आजकल राजपुत्र कहा जाता है । भारतकी पुराने व राजनैतिक शक्तियोंका इस समय प्रायः लोप हो गया। पुराने मौर्य, पांचाल, अंधकवृष्णि, क्षत्रिय, भोज आदि राजकुलोंका नाम अब सर्वथा लुप्त हो गया और उनके स्थान पर चौहान, राठौर, परमार आदि नये राजकुलोंकी शक्ति प्रकट हुई। स्वर्गीय पूर्णचन्द्रजी नाहरने भी ओसवाल वंशकी स्थापनाके सम्बन्धमें लिखा है कि "वीर-निर्वाणके ७० वर्षमें ओसवाल-समाजकी सृष्टिको किंवदन्ती असंभवसी प्रतीत होती है"। जेसलमेर-जैन-लेख-संग्रहकी भूमिकाके पृ० २५ में "संवत् पाँच सौके पश्चात् और एक हजारसे पूर्व किसी समय उपकेश (ओसवाल) जातिकी उत्पत्ति हुई होगी', ऐसा अपना मत प्रकट किया है। - किन्तु ७वीं-८वीं शताब्दीके पूर्व वर्ण ही जाति संज्ञासे अभिहित किये जाते रहे हों, ऐसा एकान्तसे तो नहीं कहा जा सकता । यह बात ठीक है कि ब्राह्मणोंने अपने वर्णकी उत्कृष्टता बनाये रखनेके लिये उसे पाणिनीय कालमें ही कर्मसे न मानकर जन्मसे मानना प्रारम्भ कर दिया और इस प्रकार ब्राह्मण आदि वर्गों के स्थानमें वे जातियां कहलाने लगीं, फिर भी प्रदेश-भेद और आचार-भेदसे उनमें ८वी-९वीं शताब्दीके पूर्व इन वर्णोके भीतर उत्तर-भेदोंकी सृष्टि न हई हो, यह नहीं कहा जा सकता, क्योंकि जितने हम पिछले (पूर्व) कालकी ओर जाते हैं उतना ही उनमें प्रदेशभेद और आचारभेदसे भेद होता हुआ अनुभवमें आता है। डॉ० वासुदेवशरण अग्रवाल अपने 'पाणिनिकालीन भारतवर्ष' ग्रन्थकी भूमिकामें लिखते हैं १. भिन्न-भिन्न देशोंमें बस जानेके कारण ब्राह्मणोंके अलग-अलग नामोंकी प्रथा चल पड़ी थी। १. प्राग्वाट-इतिहास, प्र० भाग भूमिका पृ० १३ । Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ २. इसी प्रकार क्षत्रियोंके विषयमें भी वे लिखते हैं "अनेक जनपदोंके नाम वही थे जो उनमें बसनेवाले क्षत्रियों के । (जनपदशब्दात् क्षत्रियादज (पा० सू० ४।१।१६७)। जैसा कि हम ऊपर दिखा चुके हैं पंचाल क्षत्रियजनके बसनेके कारण ही आरम्भमें जनपदका भी पंचाल नाम पड़ा था। पीछे जनपद नामकी प्रधानता हुई और जनपदके नामसे वहाँके प्रशासक क्षत्रियोंके नाम जिन्हें अष्टाध्यायीमें जनपरिषद् कहा गया है लोक प्रसिद्ध हए । पहली स्थितिके कुछ अवशेष आज तक बच गये हैं-जैसे यौधेयों (वर्तमान जोहिये) का प्रदेश जोहियावार (बहावलपुर रियासत), मालवोंका (वर्तमान मलवई लोगोंका), मालवा (फिरोजपुर लुधियाना जिलोंका भाग), दरद क्षत्रियोंका दरिदस्थान, यों तो तत्कालोन संघों और जनपदोंमें क्षत्रियोंके अतिरिक्त और वर्णो के लोग भी थे, उदाहरणार्थ-मालव जनपदके क्षत्रिय मालव तथा ब्राह्मण एवं क्षत्रियेतर मालव्य कहलाते थे....."राजन्यका हिंदी रूप राणा है।" ३. "पाणिनि-व्याकरणमें गृहस्थके लिये गृहपति शब्द है। मौर्यशुग युगमें गृहपति समृद्ध वैश्य व्यापारियोंके लिये प्रयुक्त होने लगा था ।"""उन्हीसे गहोई वैश्य प्रसिद्ध हुए" (पृ० ९२) । "पतंजलिके अनुसार मृतप, चाण्डाल आदि निम्न शूद्र जातियाँ प्रायः ग्राम, घोष. नगर आदि आर्यबस्तियोंमें घर बनाकर रहती थीं। पर जहाँ गाँव और शहर बहुत बड़े थे, वहाँ उनके भीतर भी वे अपने मुहल्लोंमें रहने लगे थे। ये समाजमें सबसे नीची कोटिके शूद्र थे। इनसे ऊपर बढ़ई, लोहार, बुनकर, धोबी, तक्षा, अयस्कार, तन्तुवाय, रजक आदि जातियोंकी गणना भी शूद्रोंमें थी। वे यज्ञ सम्बन्धी कुछ कार्यों सम्मिलित हो सकते थे, पर इनके साथ खानेके बर्तनोंकी छुआछूत बढ़ती जाती थी। इनसे भी ऊँची कोटिके शुद्र वे थे जो आर्योंके घरका नेवता होने पर उन्हीं बर्तनोंमें खा-पी सकते थे जिनमें कि घरके लोग खाते-पीते थे।" ये पाणिनि व्याकरण और कातन्त्रके कुछ उदाहरण हैं जो इस बातके साक्षीरूपमें प्रस्तुत किये गये हैं, जिनसे ज्ञात होता है कि तीर्थंकर महावीरके कालमें या उसके कुछ काल बाद आजीविका आदि कर्मोके आधारपर चारों वर्गों के अन्तर्गत प्रदेशभेद और आचारभेद आदिके कारण विविध जातियाँ बनने लगी थीं। आजीविका भेद भी इन जातियोंके बनने में एक मुख्य कारण है। ___ 'तत्त्वार्थसूत्र'में परिग्रह-परिमाणके प्रसंगसे कुछ ऐसे संकेत मिलते हैं जिनसे हम जानते हैं कि उस कालमें मानवसमाज नीच-ऊँचके भदोंमें बँट गई थी। परिग्रह-परिमाण व्रतके जिन पाँच अतिचारोंका नामोल्लेख उसमें दृष्टिगोचर होता है उनमें इक अतिचारका नाम दास-दासी-व्यतिक्रम भी है। जो व्रती गृहस्थ दास-दासियोंके रखनेकी मर्यादा करके उसका उल्लंघन करता है, वह व्रती गृहस्थ दास-दासी-व्यतिक्रम नामक अतिचार दोषका भागी होता है। इससे हम जानते है कि तत्त्वार्थसूत्रकी रचनाकालके बहुत पहिलेसे समाज नीच-ऊँचके भेदसे अनेक भागोंमें विभक्त हो गया था। कौटिल्यन भी अपने अर्थशास्त्रमें दास-प्रथाका उल्लेख कर इससे छूटने के उपायका भी निर्देश किया है। यद्यपि व्रतो जैन गृहस्थ स्वेच्छासे इस प्रथाको बन्द करनेमें सहायक होते रहे हैं, पर कौटिल्यके अनुसार छुटकारेके रूपमें रुपया देकर भी दास या दासी उससे मुक्त होकर समानताका स्थान पाते रहे हैं । यह लगभग दो हजार वर्ष पूर्व के भारतकी एक झांकी है, जिससे हम जानते हैं कि उस समय मानव समाज अनेक भागोंमें विभक्त हो गया था। अतः इसपरसे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि वर्तमानमें एक-एक वर्णके भीतर जो अनेक जातियाँ और उपजातियाँ दृष्टिगोचर होती है उनकी नींव बहत पहले पड़ गयी थी। Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जो जैनधर्म जाति प्रथाका अत्यन्त विरोधी कहने के लिये इस समय जैन समाजमें ८४ जातियाँ हजार वर्षसे पहले ही अस्तित्वमें आ गयी थीं । चतु खण्ड : ३४१ रहा है, वह भी इस दोषसे अपनेको नहीं बचा सका । प्रसिद्ध हैं । मेरी रायमें उनमें कुछ ऐसी भी हैं जो दो पौरपाट (परवार) जाति ( १ ) इसी प्रसंगसे मैं स्व० श्री पं० झम्मनलाल जी जैन तर्कतीर्थ द्वारालिखित 'श्री लंमेचू दिगम्बर जैन समाजका इतिहास' देख रहा था। उन्होंने उसके पृ० ३८ पर लिखा है - " प्रमार (परमार) वंशमें राजा विक्रम हुए, उनका संवत् चालू है । उनके नाती (पोता) गुप्तिगुप्त मुनि थे जिन्होंने सहस्र परवार थापे । " श्री गुप्तिगुप्त मुनिके विषयमें विशेष उल्लेख करते हुए उक्त पंडितजीने उसी ग्रन्थके पृ० ३३ पर यह भी लिखा है कि - " गुप्तिगुप्त मुनि भी परमार जाति क्षत्रियवंश जो चन्द्रगुप्त राजाका वंश होता है - यह भी यदुवंशमें ही है । उसी वंशमें विक्रम सम्वत् २६ में हुए हैं ।" श्री जैन समाज सीकर द्वारा वीर नि० सं० २५०१ में प्रकाशित चारित्रसारके अन्तमें नागौर - शास्त्रभण्डारसे प्राप्त एक पट्टावलि छपी है । उसमें इन आचार्योंके विषयमें लिखा है (क) मिति फाल्गुन शुक्ला १४ वि० सं० २६ में जाति राजपूत पंवारोत्पन्न श्रीगुप्तिगुप्त हुए । उनका गृहस्थावस्थाकाल २२ वर्ष रहा, दीक्षाकाल ३४ वर्ष और पट्टस्थकाल ९ वर्ष छह मास २५ दिन एवं विरहकाल दिन ५ रहा । इस प्रकारसे इनकी सम्पूर्ण आयु ६५ वर्ष सात माह को थी । ( पट्टावलिके अनुसार इनका क्रमांक २ है 1 ) (ख) मिति आषाढ़ शुक्ला १४ वि० सं० ४० में चौसखा पोरवाड़ जात्युत्पन्न श्री जिनचन्द्र हुए । इनका गृहस्थावस्थाका काल २४ वर्ष, ९ माह रहा । दीक्षाकाल ३२ वर्ष ३ माह, पट्टस्थ काल ८ वर्ष ९. माह, ६ दिन और विरहदिन ३ रहा । इस प्रकारसे इनकी सम्पूर्ण आयु ६५ वर्ष, ९ माह और ९ दिन की थी । इनका पट्टस्थ क्रम ४ है । (ग) मिति आश्विन शुक्ला १० वि० सं० ७६५ में पोरवाल द्विसखा जात्युत्पन्न श्री अनन्तवीर्य मुनि हुए । इनका गृहस्थावस्थाकाल ११ वर्ष, दीक्षाकाल १३ वर्ष, पट्टस्थकाल १९ वर्ष, ९ माह, २५ दिन और अन्तरालका दिन १० रहा । इनकी सम्पूर्ण आयु ४३ वर्ष, १० माह, ५ दिन की थी। इनका पट्टस्थ होनेका क्रम ३३ है । (घ) मिति आषाढ़ शुक्ला १४ वि० सं० १२५६ में अठसखा पोरवाल जात्युत्पन्न श्री अकलंकचन्द्र मुनि हुए । इनका गृहस्थावस्थाकाल १४ वर्ष, दीक्षाकाल ३३ वर्ष, पट्टस्थकाल ५ वर्ष, ३ माह, २४ दिन और अन्तराल काल ७ दिनका रहा। इनकी सम्पूर्ण आयु ४८ वर्ष, ४ माह १ दिन की थी। इनका पट्टस्थ रहनेका क्रम ७३ है । (ङ) मिति अश्विन ३ वि० सं० १२६४ में अठसखा पोरवाल जात्युत्पन्न श्री अभयकीर्ति मुनि हुए । इनका गृहस्थावस्था काल ११ वर्ष २ माह. दीक्षा काल ३० वर्ष ५ माह, पट्टस्थकाल ४ माह, १० दिन और अन्तराल काल ७ दिनका रहा। इनकी सम्पूर्ण आयु ४१ वर्ष ११ माह, १७ दिन की थी । क्रमांक ७८ है । इसी प्रकार 'प्राग्वाट - इतिहास के पृ० १२ पर श्री दौलत सिंहजी लोढ़ा लिखते हैं- "श्री मालपुर इन दिनों में बहुत ही बड़ा और अत्यन्त समृद्ध नगर था । यह अवन्ती और राजगृहीकी स्पर्धा करता था । आज दिल्ली और प्रभासपत्तन, सिन्धुनदी तथा सोननदी तक फैला हुआ जितना भूभाग है, उन दिनोंमें रहे हुए १. पट्टावली सूरीपुर वटेश्वर क्षेत्र । Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ भारतवर्षके इस भागमें श्रीमालपुर ही सबसे बड़ा नगर था । इस नगरमें अधिकांशतः ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य बसते थे और वे भी उच्चकोटिके। नगरकी रचना 'श्रीमाल माहात्म्य' में इस प्रकार वर्णित की गई है कि उत्कट धनपति अर्थात् कोटीश जिनको धनोत्कटा कहा गया है, श्रीमालपुरकी दक्षिण दिशामें बसते थे और इनसे कम धनी (श्रीमंत) उत्तर और पश्चिम दिशामें बसते थे और वे श्रीमाली कहे गये हैं । (मानो वह) स्वयं लक्ष्मीदेवीका क्रीड़ास्थल ही हो । श्रीमालपुरका ऐसा जो समृद्ध और वनराजिसे सुशोभित पूर्व भाग था, जो श्रीमालपुरका पूर्ववाट कहा गया है उसमें बसने वाले प्राग्वाट कहे गये हैं।" ये कतिपय लेख हैं जिनसे ऐसा लगता है कि आजसे लगभ- दो हजार वर्षसे पूर्व भी कतिपय जातियोंका निर्माण हो चुका था । पौरपाट (परवार) जाति उनमेंसे एक है। . हम पहले ही गुप्तिगुप्त आचार्यका उल्लेख कर आये हैं । उनका दूसरा नाम अर्हबलि भी रहा है । क ते हैं कि पंचवर्षीय युग प्रतिक्रमणके समय उन्होंने एक विशाल मुनि-सम्मेलनका आयोजन किया था जिसमें सौ योजन तककी दूरीके मुनि एकत्र हुए थे। उनकी भावनाओं परसे उन्होंने यह जान लिया था कि अब पक्षपातका युग आ गया है । फलस्वरूप उन्होंने पूरे संघको अनेक भागों में विभक्त कर दिया था। मेरी रायमें जैन समाजमें विविध जातियोंकी उत्पत्ति का यही काल होना चाहिये और इसलिये यह सम्भव है कि उन्होंने पौरपाट जातिको स्वीकार करने के बाद ही मुनि दीक्षा अंगीकारकी थी। बहुत सम्भव है कि उन्होंने उसके बाद परवारोंके एक हजार घरोंकी स्थापना भी की हो। (२) हमारे पास जो थोड़े बहुत प्रतिमा लेख हैं, उनमेंसे एक प्रतिमा-लेख ऐसा भी है जो विक्रम संवत् १८९ का होकर भी जिसमें अठसखा अन्वयके अन्तर्गत जिन बिम्बकी प्रतिष्ठा करानेवालेको डेरियामरी कहा गया है। पूरा लेख इस प्रकार हैं "संवत् १८९ माघ शुक्ला ८ आष्टासाखे प्रतिष्ठितम् डेरियामूरो श्रीकरठाकेन'' यह जिनबिम्ब मथुरासे वृन्दावनको जो मार्ग जाता है उसमें एक टीलेकी खुदाईमें स्वप्न देकर उपलब्ध हुआ था । यह जिनबिम्ब चौरासी (मथरा) के जिन मन्दिरमें मलवेदीके पीछेकी वेदीमें स्थापित है। (३) श्री पं० दयाचन्द शास्त्री उज्जैनसे प्राप्तकर श्री डॉ. हरीन्द्रभूषणजी ने हमारे पास द्वितीय भद्रबाहुके कालसे लेकर लगभग १८वीं शताब्दि तककी एक पट्टावलि भेजी है। उसमें आचार्य गुप्तिगुप्तके सम्बन्धमें लिखा है संवत् २६ फाल्गुण सुदि १४ गुप्तिगुप्तजी गृहस्थ वर्ष, २२, दीक्षा वर्ष ३४, पट्टस्थवर्ष ९, मास ६, दिन २५, विरहदिन ५, सर्वायु (वर्ष) ६५, मास ७, जाति परवार। इस पट्टावलीसे भी उसी अर्थकी पुष्टि होती है, जिसका उल्लेख हम श्री लमेंचू जातिके इतिहासमें कर आये हैं। (४) फरवरी १९४० परवारबन्धुके अंकमें सरस्वतीगच्छकी एक पट्टावलि मुद्रित हुई है। उसमें भी श्री गुप्तिगुप्त मुनि वि० सं० २६ में हुए ऐसा लिखकर उन्हें परवार सूचित किया गया है । Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थखण्ड : ३४३ इस प्रकार इन सब प्रमाणों पर दृष्टिपात करनेसे यह स्पष्ट हो जाता है कि जिसे श्री लोढ़ाजीने प्राग्वाट शब्द द्वारा अभिहित किया है वही अनेक भागों में विभक्त होकर उनमेंसे एक भेदका नाम ही पौरपाट ( परवार) प्रसिद्ध हुआ। उन सब भेदोंके नाम हैं (१) सोरठिया पौरवाल, (२) कपोला पौरवाल, (३) पद्मावती पौरवाल, (४) गुर्जर ( पौरवाल) (५) जांगड़ा पौरवाड़, (६) मेवाड़ी और मलकापुरी पौरवाल. (७) मारवाड़ी पौरवाल, (८) पुरवार और (९) परवार । किन्तु परवार इस भेदको दौलतसिंह लोढ़ाजी प्राग्वाट या पौरवाड़ अन्वयके अन्तर्गत नहीं मानते । उन्होंने 'प्राग्वाट इतिहास' (प्रथम भाग ) पृ० ५४ पर इस सम्बन्बमें अपने विचार व्यक्त करते हुए लिखा है " इस ज्ञातिके कुछ प्राचीन शिलालेखोंसे सिद्ध होता है कि 'परवार' शब्द 'पौरपाट' या 'पौरपट्ट' का अपभ्रंश रूप है । 'परवार', 'पौरवाल' और 'पुरवाल' शब्दोंमें वर्णोंकी समता देखकर विना ऐतिहासिक एवं प्रमाणित आधारोंके उनको एक ज्ञाति वाचक कह देना निरी भूल है । कुछ विद्वान् 'परवार' और 'पौरवाल' ज्ञातिको एक होना मानते हैं, परन्तु यह मान्यता भ्रमपूर्ण है । पूर्व लिखी गई शाखाओंके परस्परके वर्णनों में एक दूसरेकी उत्पत्ति, कुल, गोत्र, जन्मस्थान, जनश्रुतियों, दन्तकथाओं में अतिशय समता है, वैसी परवार ज्ञातिके इतिहासमें उपलब्ध नहीं है । यह ज्ञाति समूची दिगम्बर जैन है । यह निश्चित है कि परवार ज्ञातिके गोत्र ब्राह्मण ज्ञातीय हैं और इससे यह सिद्ध कि यह ज्ञाति ब्राह्मण ज्ञाति से जैन बनी । प्राग्वाट अथवा पौरवाल, पौरवाड़ कही जानेवाली ज्ञातिसे सर्वथा भिन्न और स्वतंत्र ज्ञाति है और इसका उत्पत्ति-स्थान राजस्थान भी नहीं है । अतः प्राग्वाट इतिहासमें इस ज्ञातिका इतिहास भी नहीं गूंथा गया है ।" ये श्री दौलतसिंहजी लोढ़ाके अपने विचार हैं। उन्होंने इसी पुस्तकके पृ० ५५ की टिप्पणीमें श्री अगरचंद नाहटाके विचारोंको व्यक्त करते हुए लिखा है " प्रसिद्ध इतिहासज्ञ श्री अगरचंदजी नाहटा भी पौरवाड़ और परवार जातिको एक नहीं मानते हैं । देखो उनका लेख ' क्या परवार और पौरवाढ़ ज्ञाति एक ही है ?" परवार बन्धु वर्ष ३ सं० ४ मई १९४१ पृ० ४, ५, ६, विद्वानोंके अपने अभिप्राय ये परवार जातिको प्राग्वाट या पौरवाल जातिसे भिन्न माननेमें उक्त दोनों हैं । किन्तु मालूम पड़ता है कि उन्होंने अपने विचार इतिहासका सम्यक् प्रकार से अनुशीलन किये बिना प्रकट किए हैं । जिसने जाति विषयक इतिहासका थोड़ा भी अवलोकन किया है, वह ऐसे अविचारित विचारोंको प्रश्रय देनेके लिए कभी भी तैयार नहीं हो सकता । हम यहाँ आगे पट्टावलीके एक ऐसे अंशको उद्धृत कर रहे हैं जिससे इस बात की भी भली प्रकार पुष्टि होती है कि अन्य पौरवाल आदि जातियोंके समान परवार जातिका भी निकास प्राग्वाट जातिसे ही हुआ है। पट्टावलीका यह अंश इस प्रकार है- तत्पट्टोदयसूर्य - आचार्य वर्य नवविथब्रह्मचर्य पवित्रचर्यामंदिर-राजाधिराजमहामंडलेश्वरवज्रांग-गंग-जयसिंह-व्याघ्रनरेंद्रादिपूजितपादपद्मानां अष्टशाखा - प्राग्वाटवंशावतंसानां षड्भाषावि चक्रवर्ति-भुवनतलव्याप्त विशदकीर्ति · विश्व विद्याप्रसादसूत्रधार- सब्रह्मचारिशिष्यवरसूरि श्री श्रुतसागरसेवितचरणसरोजानां श्रीजिनयात्राप्रासादोद्धरणोपदेशा नैकजीवप्रतिबोधकानां श्रीसम्मेदगिरिचंपापुरिपावापुरीऊ जंयतगिरि-अक्षयवड आदीश्वरदीक्षा सर्वसिद्धक्षेत्रकृतयात्राणां श्री सहस्रकूटजिनबिंबोपदेशक - हरिराज कुलोद्योतकराणां श्रीविद्यानंदी परमाराध्यस्वामिभट्टारकाणाम् ॥ (भट्टारक सम्प्रद्राय पृ० १७२, लेखांक ४३९) Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ पट्टावलीका यह अंश मूल संघ कुन्दकुन्दआम्नाय बलात्कारगण, सरस्वतीगच्छके अन्तर्गत सूरत पट्टके द्वितीय भट्टारक श्रीविद्यानंदजी महाराजका है। इस पट्टावलीमें उन्हें अष्टशाखा प्राग्वाटवंशका कहा गया है। यह एक ऐसा प्रमाण है जिससे इस तथ्यकी पुष्टि होती है कि जिसे वर्तमानमें परवार जाति कहा जाता है वह पौरवालों आदिके समान प्राग्वाट जातिका ही एक भेद है। अपने दुराग्रहवश कोई इस तथ्यको न स्वीकार करे, यह बात अन्य है। इस प्रकार इस विवेचनसे यह स्पष्ट हो जाता है कि जिसे हम वर्तमानमें परवार जातिके नामसे जानतेसमझते हैं उसका विकास भी पौरवालों आदिके समान उसी जातिसे हुआ है, जिसे कभी 'प्राग्वाट' इस नामसे अभिहित किया जाता रहा है । २. स्थान अब देखना यह है कि वह स्थान कौन-सा है जिस स्थानको केन्द्र बनाकर पौरवाट या परवार जाति ने मूर्तरूप लिया। इसके साथ दूसरा यह प्रश्न विचारणीय है कि इस जातिके इस नामकरणका मूल कारण क्या हो सकता है ? इन दो मुद्दोंमेंसे सर्व प्रथम हम स्थानका निर्णय करेंगे और उसके बाद ही नामकरणके सम्बन्धमें ऊहापोह करेंगे। ___यह तो हम 'भट्टारक सम्प्रदाय' ग्रन्थके आधारसे ही स्पष्ट कर आये हैं कि 'पौरपाट' जिसे वर्तमानमें 'परवार' अन्वय कहा जाता है उसका निकास 'प्राग्वाट' अन्वयसे ही हुआ है। इसलिये यह विचारणीय हो जाता है कि यह 'प्राग्वाट' किसकी संज्ञा है ? क्या इस नामका कोई प्रदेश रहा है या अन्य किसी कारणसे किसी अन्वय (जाति) विशेषको यह संज्ञा मिली है ? - गुजरात और गुजरातसे लगे हुए प्रदेशमें प्राग्वाट एक अन्वय रहा है जो क्रमसे अनेक भेदोंमें विभक्त होता गया । इसलिये विचारणीय यह है कि इस नामकरणका मूल कारण क्या हो सकता है ? प्रश्न मौलिक है। आगे इस पर क्रमसे विचार किया जाता है 'प्राग्वाट इतिहास' (प्र० भा०) पृ० १२ में श्रीमालपुर (भिन्नमाल या भीनमाल) में बसनेवाली जातियोंका उल्लेख करते हुए लिखा है कि इस नगरीमें बसनेवाले जो 'धनोत्कटा' थे वे धनोत्कटा श्रावक कहलाये । जो उनमें कम श्रीमन्त थे वे श्रीमाल श्रावक कहलाये और जो पूर्ववाटमें रहते थे वे प्राग्वाट श्रावक कहलाये । इनकी परम्परामें हुई इनकी सन्ताने भी श्रीमाली, धनोत्कटा और प्राग्वाट कहलाये।' वि० सं० १२३६ में श्री नेमिचन्द्र सूरिकृत "महावीर-चरित्र'की प्रशस्तिमें लिखा है प्राच्यां वाटो जलधिसुतया कारितः क्रीडनाय, तन्नाम्नैव प्रथमपुरुषो निर्मिताऽध्यक्षहेतोः। तत्सन्तानप्रभवपुरुषः श्रीभतो संयुतोऽयम्, प्राग्वाटरूपो. भुवनविदितस्तेन वंशः समस्ति । पूर्व दिशामें अध्यक्षके निमित्त जो प्रथम पुरुष हुआ उसी नामसे (प्राग्वाट नामसे) एक स्थल बनाया । उसकी उत्तरकालमें जो सन्तान हई, वे लक्ष्मी सम्पन्न थीं और वे प्राग्वाट वंशके नामसे प्रसिद्ध हयों। इससे ऐसा लगता है कि भिन्नमालके पूर्व दिशामें जो स्थान निर्मित हुआ था उसका नाम प्राग्वाट था। प्राग्वाट जाति या वंशका विकास उसी स्थानसे हुआ है। (२) श्री गौरीशंकर हीराचन्द ओझा लोढ़ाजीको उत्तर देते हुए अपने पत्रमें लिखते हैं 'प्राग्वाट' शब्दकी उत्पत्ति मेवाड़के 'पुर' शब्दसे है । पुर शब्दसे "पुरवाड़" और "पौरवाड़" शब्दोंकी उत्पत्ति हुई है। Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थखण्ड : ३४५ "पुर" शब्द मेवाड़के पुर जिलेका सूचक है और मेवाड़ के लिये 'प्राग्वाट' शब्द भी लिखा मिलता है । देखो, प्रा० इ० पृ० १६ । (३) श्री अगरचन्दजी नाहटाका मत है कि वर्तमान 'गौड़वाड़' सिरोही राजके भागका नाम कभी प्राग्वाट प्रदेश रहा है । वही पृ० १६ (४) मुनि श्री जिनविजयजी स्टे० चन्देरिया (मेवाड़) का मत है कि अबुदपर्वत से लेकर गौड़वाड़ तक लम्बे प्रान्तका नाम पहिले प्राग्वाट प्रदेश था । वही पृ० १६ इन विविध मतों से ऐसा लगता है कि पहिले कभी मेवाड़ प्रदेशके उस भागका नाम प्राग्वाट प्रदेश रहा है जिसके अन्तर्गत अर्बुदपर्वत स्थित है । हो सकता है कि इस प्रदेशमें मुख्यरूपसे बसने वाली जातिका नाम प्राग्वाट जाति रहा होगा । जैन हितैषी भाग ११ अंक ५-६ फाल्गुन चैत्र वि० सं० २४४१ पृ० ५८३ - में लिखा है कि पोड़वाड़वंश श्री हरिभद्र सूरिजीने मेवाड़ देशमें स्थापन करा और तिनका वि० सम्वत् स्वर्गवास होनेका ५७५ का ग्रन्थोंमें लिखा है । (६) 'प्राचीन जैन स्मारक' ( मूलचन्द किसन दास कापड़िया, सूरत ) – १९२६ के पृ० ३६ पर यह लेख अंकित है— यह बहुत सम्भव है कि नागपुर और भंडारामें जो वर्तमान परवार जाति है वह उन अधिकारियोंकी सन्तान हो, जिन्हें मालवाके राजाओंने यहाँ नियत किया हो (देखो भंडारा गजट १९०८) (७) ‘जातिभास्कर’”—-पुस्तक के पृ० २६३ पर लिखा है -- पुरावाल गुजरातके पोरवा-पोरबन्दरके पास होनेसे यह पुरावाल कहकर प्रसिद्ध है । इस समय ललितपुर झाँसी, कानपुर, आगरा, हमीरपुर, बाँदा जिलोंमें इस जातिके बहुतसे लोग रहते हैं । ये यज्ञोपवीत धारण नहीं करते हैं । श्रीमाली ब्राह्मण इनका पौरोहित्य करते हैं । अहमदाबादके विख्यात धनी महाजन भागुभाई पुरोवाल वंशोत्पन्न हैं । उसी पुस्तक के पृ० २७२ में लिखा है- पौरवाड़ ७३ पूरोजी पेंड परिहार माता भात्री ( भातर ) गोभनानांस, गुरु सास्वत, त्रिगुणायत्, माता भद्रकाली सती भात्री ? पौरवाड़, २ परवाड़, ३ दागड़ा भैरादामें मेड़ता परगने में ख्यात दागड़या लढ़ामें, परताणया में पौरवालमें ३ खाँप हैं ? ये कतिपय उल्लेख हैं जिनसे यह निश्चित होता है कि मेवाड़ के प्राग्वाट प्रदेश से लेकर गुजरातके पोरबन्दर तकका प्रदेश इस जातिका (प्राग्वाटका ) मूल निवास स्थान रहा है । वहींसे यह जाति विविध प्रदेशोंमें फैली है और यह जाति तीन भागों में विभक्त हो गई है - पौरवाड़, परवाड़ और पा (जा) गडा । ( १ ) यहाँ इतना विशेष जानना चाहिये कि 'जातिभास्कर' के उल्लेखानुसार अहमदाबाद आदि प्रदेशोंमें बसनेवाले पोरवाड़ बन्धु और बुन्देलखण्डमें बसनेवाले परवार बन्धु एकही वृक्षकी दो शाखायें हैं । इसलिये जिनका यह मत है कि पोरवाल जाति से परवार जाति सर्वथा भिन्न है, उनका वह मत समीचीन प्रतीत नहीं होता । इतना अवश्य है कि वर्तमानमें जिस जातिको परवार नामसे सम्बोधित किया जाता है, वह प्रारम्भसे ही दिगम्बर आम्नायको माननेवाली रही है । इसलिये उत्तरकालमें जिन बन्धुओंने दिगम्बर आम्नायको छोड़कर राज्यादि बाह्य प्रलोभनवश श्वेताम्बर आम्नायको स्वीकार किया उनमें दिगम्बर परवारोंसे इतना अन्तर अवश्य पड़ गया है जिससे यह समझना कठिन हो गया है कि मूलमें ये दोनों जातियाँ कभी एक रही हैं । १. वेंकटेश्वर प्रिंटींग प्रेस. बम्बई प्रकाशन ४४ Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४६ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्रो अभिनन्दन-प्रन्थ (२) पहिले हम जैनहितैषीके आधारसे यह लिख आये हैं कि श्री हरिभद्रसूरिने पौरवाड़ वंशकी मेवाड़ देशमें स्थापना की। साथ ही उसमें यह भी लिखा है कि सूरिजीका वि० सं० ५८५ में स्वर्गवास हुआ है। किन्तु विचार करनेपर विदित होता है कि श्री हरिभद्रसुरिका कार्यकाल श्री भट्टाकलंकदेवके बाद ही आता है और भट्टाकलंकदेवका कार्यकाल विक्रम सम्वत् ८वीं शताब्दी माना गया है । इसलिये ऐसा निश्चित मालूम पड़ता है कि हरिभद्रसूरिने पौरवाड़ोंको दिगम्बर आम्नायसे श्वेताम्बर आम्नायकी दीक्षा दी होगी और उसी तथ्यको श्वेताम्बर लेखकों ने पौरवाड़ोंको जैनधर्मकी दीक्षा दी यह लिखकर प्रकट कर दिया है। जैसा कि हम पहिले लिख आये है कि प्राग्वाट वंशकी उत्पत्ति लगभग २००० वर्ष पूर्व आचार्य गुप्तिगुप्तके कार्यकालके पूर्व हो गयी थी, अतः विक्रम सं० ५८५ में पौरवाड़ीकी उत्पत्ति हुई, ऐसा मानना इतिहासकी कोरी कल्पनामात्र है। (३) 'जातिभास्कर' पुस्तकमें उसके लेखकने पृ० २७२ पर पौरवाड़ोंके विषयमें जो कुछ लिखा है वह मात्र अजैन पौरवाड़ोंको ध्यानमें रखकर ही लिखा है। जैन पौरवाड़ोंको ध्यानमें रखकर नहीं लिखाइतना यहाँ विशेष जानना चाहिये । इस प्रकार विवेचनसे यह स्पष्ट हो जाता है कि जिन्हें वर्तमानमें पौरवाड़ और पौरपाट कहा गया है उन्हें ही पहले प्राग्वाट कहते थे और उनका निकास प्राग्वाट प्रदेशसे हआ है। नाम ३ . जैसा कि हम पहले लिख आये हैं, जिसे वर्तमानमें परवार अन्वय (जाति) कहा जाता है. प्रतिमालेखों आदिमें उसका पुराना नाम पौरपाट रहा है; जैसा कि साढोरा ग्रामसे वि० सं० ६१० की प्राप्त जिनप्रतिमाके लेखसे ज्ञात होता है । लेख यह PART संवत् ६१० वर्षे माघ सुदि ११ मूलसंधे पौरपाटान्वये पाट (ल) नपुर संधई। इसके साथ कुछ प्रतिमा लेख ऐसे भी मिलते हैं, जिनमें इस अन्वयका नाम पौरपद्रान्वय भी पाया जाता है; यथा संवत् १५३२ चंदेरी मंडलाचार्यान्वये भ० श्रीदेवेन्द्रकीर्तिदेवा त्रिभुवनकीर्तिदेवा पौरपट्टान्वये अष्टासखे यद्यपि विक्रम संवत् १८९के जिस प्रतिमालेखका हम पूर्वमें उल्लेख कर आये हैं, उसमें इस अन्वयको 'आष्टा साख' कहा गया है। परन्तु अष्टसखा यह पौरपाट अन्वयका एक भेद है । इस लये इस आधार पर उसे अष्ट सखा अन्वय स्वतंत्र जाति वाचक नहीं कहा जा सकता। यहाँ मुख्य रूपसे विचारणीय बात यह है कि इस अन्वयका नाम पौरपाट या पौरपट्ट क्यों प्रसिद्ध हुआ ? जब कि प्राग्वाट वंशके अन्तर्गत अन्य जितनी भी उपजातियाँ बनी है, उन सबमें पौर शब्दके साथ यातो 'वाल' Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : ३४७ शब्द जुड़ा हुआ है या 'वाड़' शब्द जुड़ा हुआ है । ऐसी अवस्थामें यह अवश्य ही विचारणीय हो जाता है कि इस अन्वयको प्राचीन लेखोंमें पौरपाट या पौरपट्ट क्यों कहा गया है ? इस नामकरणका कोई मुख्य कारण अवश्य होना चाहिये। . यह तो प्राग्वाट इतिहासके विद्वान लेखक लोढ़ाजीने भी स्वीकार किया है कि पौरपाट (परवार) अन्वयको माननेव ले मात्र दिगम्बर ही पाये जाते हैं । जैसा कि उन्होंने इस इतिहासके पृ० ५४ पर इस बातको स्वीकार करते हुए लिखा भी है-"यह ज्ञाति समूची दिगम्बर जैन है।" इस उल्लेखसे ऐसा लगता है कि इस अन्वय के नामकरणमें इस बातका अवश्य ध्यान रखा गया है कि उससे दिगम्बरत्वके साथ मूल परम्पराका भी बोध हो। पौरपाट' शब्द दो शब्दोंके योगसे बना है-पौर + पाट = पौरपाट । 'पौर' शब्द 'पुर' से भी बना हो सकता है और पुरा शब्दसे भी पौर शब्द बन सकता है। पुर' से स्थान विशेषका बोध होता है और 'पुरा' शब्द प्राचीनताको सूचित करता है। जिन संगठनकर्ताओंने पौरपाटमें पौर शब्दकी योजना की है उन्होंने इस नामकर के 'पौर' शब्दमें इन दोनों बातों को ध्यानमें रखा है ऐसा प्रतीत होता है। (१) मेवाड़ राज्य के अन्तर्गत प्राग्वाट प्रदेशमें पुर नामका एक नगर रहा है। साथ ही. पोरबन्दरके पास भी 'पुरवा' नामक एक कस्बा रहा है। इन दोनों स्थानोंसे इस (परवार) अन्वयका सम्बन्ध आता है, इसलिये लगता है कि इस अन्वयके नामके आदिमें 'पौर' शब्द रखा गया है। (२) दूसरे जैसा कि मैं पहिले लिख आया हूँ 'पुरा' शब्दसे भी 'पौर' शब्द निष्पन्न हुआ है। 'पुरा' अर्थात् पहिलेका अर्थात् 'मूल'। इससे ऐसा ध्वनित होता है कि 'मूल संघको सूचित करने के लिये भी इस नामकरणमें पहिले 'पौर शब्द रखा गया है। 'पट्ट' या 'पाट' शब्द परम्परागत अधिकार वशेषको सूचित करता है । इसलिये ऐसा प्रतीत होता है कि समूची पौरपाट (परवार) जाति सदासे मूल संघ कुन्दकुन्द आम्नायको माननेवालोंमें मुख्य रही है । इसलिये इस जातिकी मुख्यता सूचित करनेके लिये इसे पौरपाट' या 'पौरपट्ट' कहा गया है। आजसे लगभग ७-८ सौ वर्ष पूर्वके एक मुनि या भट्टारकने मूल संघका उपहास करते हुए लिखा भी है मूलगया पाताल मूल नयने न दीसे । मूलहि सव्रतभंग किम उत्तम होसे ।। मूल पिठा परवार तेने सब काढ़ी। श्रावक-यतिवर धर्म तेह किम आवी आढ़ी ।। सकल शास्त्र निरखतां यह संघ दीसे नहीं । चन्द्रकीर्ति एवं वदति मोर पीछ कोठे कही ।। कोई चंद्रकीर्ति नामके मुनि या भट्टारक हो गये हैं, जो नियमसे बीस पंथी (काष्टासंघी) थे। उनका यह मूलसंघी परवार जातके प्रति भयंकर उपहास है। उनकी समझसे उन्हें कहीं भी मूल संघ दिखायी नहीं देता, वह पातालमें चला गया है । वे यह मानते है कि समीचीन ब्रत-क्रिया मूल संघमें कहीं नहीं दिखायी देती, इसलिये वह उत्तम कैसे माना जा जकता है ? मूल संघकी पीठपर एक परवार जाति ही है । उसके द्वारा ही मूलसंघ कुन्दकुन्द आम्नायकी यह सब खुरापात चालू की गयी है । श्रावकधर्म और यतिधर्मके विरोधमें वह कैसे खड़ा हो सकता है ? पूरे शास्त्रोंको देखनेपर Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४८: सिद्धान्ताचार्य पं० फुलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ उनमें कहीं भी यह दिखायी नहीं देता। इसके साधुओंने जो मोरपीछी ले रखी है, उसका उल्लेख भी कहीं शास्त्रोंमें दिखायी नहीं देता। यह एक ऐसा उल्लेख है जिससे यह स्पष्ट हो जाता है कि परवार जातिके लिये जो 'पौरपाट' या 'पौरपट्ट' कहा गया है, वह सार्थक होनेके साथ ऐतिहासिक दृष्टिसे अर्थ विशेषको सूचित करनेवाला भी है। और यही कारण है कि प्राग्वाटवंशके अन्तर्गत अन्य जितने भी भेद-प्रभेद दिखायी देते हैं, उनसे इस (परवार) अन्वयकी अपनी विशेषता है और उसी विशेषताको सूचित करनेके लिये ही आजसे लगभग २ हजार वर्ष पूर्वसे ही इस अन्वयके एक मात्र मूल संघ कुन्दकुन्द आम्नायका उपासक होनेसे इस अन्वयको ऐतिहासिक लेखोंमें पौरपाट या पौरपट्ट कहा गया है। . यह बात सही है कि उत्तर कालमें इसके मूल नाममें परिवर्तन होकर किसी प्रतिमा लेखमें इसे 'परवार' लिखा गया है । यथा (१) सोनागिर पहाड़ से उतरते समय अन्तिम द्वारके पास एक काठमें जो भग्न प्रतिमायें विराजमान हैं, उनमेंसे एक प्रतिमापर यह लेख अंकित है-- ___ संवत् ११०१ वकागोत्रे परवार जातिय .. (२) विदिशा के बड़े मन्दिरसे प्राप्त एक जिनबिम्बपर यह लेख अंकित है-(पार्श्वनाथ-सफेद पाषाण-१६ अंगुल) . संवत् १५३४ वर्षे चैत्रमासे त्रयोदश्यां गुरुवासरे भट्टारकजी श्रीमहेन्द्रकीर्ति भद्दलपुरे श्रीराजारामराज्ये महाजन परवाल......""श्रीजिनचन्द्र (३) कुछ काल पहिले आगरामें एक शिक्षण-शिविर हुआ था। उसमें बाहरसे अनेक विद्वान् आये थे । उस समय जयपुरसे प्रदर्शनीके लिये हस्तलिखित शास्त्र आये थे। उनमें एक पुण्यास्रव हस्तलिखित शास्त्र था । उसके अंतमें यह प्रशस्ति अंकित थी, जो इस प्रकार है-- ___"संवत् १४७३ वर्षे कार्तिक सुदी ५ गुरुदिने श्रीमूलसचे सरस्वतीगच्छे नंदिसंघे कुन्दकुन्दाचार्यान्वये भट्टारकश्रीपद्मनंदिदेवास्तच्छिष्यमुनिश्रीदेवेन्दकोतिदेवाः । तेन निजज्ञानवर्णीकर्मक्षयार्थं लिखापितं शुभं । श्री मूलसंघे भट्टारक श्री भुवनकीर्ति तत्पट्टे भट्टारिक श्री ज्ञानभूषण पठनार्थं । नरहडो वास्तव्य परवाड़ज्ञातीय सा""काकाल भा० पुण्य श्री सुत सा-नेमिदास ठाकुर एतैः इदं पुस्तकं दत्तं । (४) साह बखतराम द्वारा लिखित बुद्धिविलास ग्रन्थके पृ० ८६ पर 'खांप वर्णन' शीर्षकके अन्तर्गत कवितामें ७४ जातियोंके नाम गिनाये हैं। उनमें पौरपाट (परवार) जातिका उल्लेख करते हुए लिखा है-- _ "सात खांप पुरवार कहाये, तिनके तुमको नाम सुनाये" ॥६७६॥ (५) परवार बन्धु मार्च १९४० के अंकमें बाबू ठाकुरदासजी (टीकमगढ़) ने कतिपय मूर्तिलेख प्रकाशित किये हैं। उनमें एक लेख ऐसा भी मुद्रित हुआ है, जिसमें इस अन्वयको 'परिपट' कहा गया है । यथा-- 'परपटान्वये शुके साधुनाम्रा महेश्वरः।' यह लगभग ११-१२वीं शताब्दीका लेख है। इस प्रकार सूक्ष्मतासे विचार करने पर प्रतिमालेखों आदिमें इस अन्वयके लिये यद्यपि अनेक नामोंका उल्लेख हुआ है। पर उन सबका आशय एकमात्र पौरपाट अन्वयसे ही रहा है। इस अन्वयके लिये ११वीं शताब्दीसे परवार नामका भी उल्लेख होने लगा था। Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : ३४९ प्रभेद ४ भारतवर्षमें जिनधर्मको अंगीकार करनेवाली जिन ८४ जातियोंके नाम विविध ग्रन्थों में लिखे मिलते हैं, उनके नामोंमें बड़ी गड़बड़ी पायी जाती है। 'प्राग्वाट इतिहास' के भूमिका लेखक श्री अगरचन्दजी नाहटाने अपनी भूमिकामें पृ० १४ पर १६१ जातियों के नाम गिनाते हए उसके प्रारंभमें लिखा है "वैश्योंकी जातियोंकी संख्या चौरासी बतलाई जाती है। पन्द्रहवीं शताब्दीसे पहलेके किसी ग्रन्थमें मुझको उनकी नामावलि देखनेको नहीं मिली। जो नामावलियाँ पन्द्रहवीसे अटारहवीं शताब्दीकी मिली हैं, उनके नामोंमें पारस्परिक बहुत अधिक गड़बड़ है। पाँच चौरासी जातियोंकी नामोंकी सूचीसे हमने जब एक अकारादि सूची बनाई तो उनमें आये हुए नामोंकी सूची १६० के लगभग पहुँच गई। इनमेंसे कई नाम तो अशुद्ध हैं और कई का उल्लेख कहीं भी देखने में नहीं आता और कई विचित्र-से हैं। अतः इनमेंसे छांटकर जो ठीक लगे उनको सूची दे रहा हूँ।" भूमिका-लेखककी इस टिप्पणीको पढ़कर हमें बड़ा आश्चर्य हुआ। लेखकको चौरासी जातियोंकी जो पाँच सूचियाँ मिली थीं उनको अविकल उसी रूपमें दे देते, तो संभव था कि उस आधारपर कुछ तथ्यात्मक प्रकाश पड़ता । किन्तु ऐसा न करके उन्होंने अपनी इच्छानुसार जो विस्तृत सूची बनाई है, उससे वस्तु स्थितिको समझने में अवश्य ही कठिनाई आती है; क्योंकि लेखकको जो पाँच सूचियाँ मिली थीं वे प्रदेश-भेदकी होनी चाहिये। अतः उन्हें यथावत् रूपमें छाप देते, तो उनके आधारपर प्रदेश-भेदसे किस प्रदेशमें कौन जातियाँ बसती थों, इसे समझने में बड़ी सहायता मिलती । तत्काल हमारे सामने लेखक द्वारा संकलित की गयी १६१ जातियों के नामोंकी विस्तृत सूची तो है ही, साथ ही श्री कवि बखतराम द्वारा संकलित ८४ जातियोंकी एक सूची, प्रो० श्री डॉ. विलास आदिनाथ संघवी-राजाराम कॉलेज कोल्हापुर द्वारा संकलित ८३ जातियोंकी एक सूची, तथा उन्हीं के द्वारा संकलित श्री जैन पी० डी० वाली एक सूची, प्रो० एच० एच०-विल्सन द्वारा संकलित एक सूची, गुजरात प्रोविन्सकी एक सूची तथा डेक्कन (दक्षिण)की एक सूची, ऐसी कुल ६-७ सूचियाँ हैं । उनमेंसे श्री साह बखतराम कवि द्वारा संकलित जो ८४ जातियोकी सूची है उसमें उन्होंने पौरपाट (परवार) जातिके जिन सात खांपों (भेदों) की चर्चा की है, उनके नाम उन्हीके शब्दोंमें इस प्रक सातं खापं पुरवार कहाये, तिनको तुमको नाम सुनावे ॥६७६।। अठसष्षा फनि है चौसष्षा, सेहसरड़ा फनि है दो सष्षा । सोरठिया अर गांगड़ जानौं, पद्मावत्या सप्तमां मानौ ॥६८७।। इस कवितामें कविने जिनने सात नामोंको गिनाया है वे इस प्रकार है-१. अठसखा, २. चौसखा, ३. छ:सखा, ४. दो सखा, ५. सोरठिया, ६. गांगड़ और ७. पद्मावती । १. श्री प्रो० डा० विलास आदिनाथ संघवी द्वारा संकलित प्रथम सूचीमें उन्होंने पौरपाट (परवार) जातिके सात उपभेदोंका उल्लेख न करके मात्र एक परवार नामका ही उसमें उल्लेख किया है और उसका निकास पारानगरसे लिखा है। (इस सूचीमें पौरवाड़ जातिका अलगसे नाम आया है और उसका निकास पारेवा नगरसे लिखा है।) इसमें अन्य जिन जातियोंसे नाम आये हैं उनके निकास स्थानका भी निर्देश किया गया है। २. श्री पी० डी० द्वारा जिन ८४ जातियोंका संकलन किया गया है उनमें परवार जातिके नामका ही एक उल्लेख है। Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५० : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ ३. इसी प्रकार प्रो० एच० एच-विल्सन द्वारा जिन ८४ जातियोंका संकलन किया गया है. उसमें भी एक परवार नामका ही उल्लेख है। . ४. गुजरात प्रदेशमें जिन ८४ जातियोंके नाम आये हैं उसमें परवार इस नामका कहीं भी उल्लेख दृष्टिगोचर नहीं हुआ। ५. रही दक्षिण प्रान्तकी चौथी सूची सो उसमें परवाल और पोरवाल ये दोनों नाम आये हैं। उनमेंसे परवाल यह नाम पौरपाट (परवार) जातिके अर्थमें ही आया है। हम पहले श्री अगरचंद नाहटा द्वारा जाति सम्बन्धी जिन १६१ नामोंका उल्लेख कर आये हैं, उनमें पौरपाट परवारोंके जिन ६ उपभेदोंका उल्लेख किया है उनके नाम इस प्रकार है-१. अठसखा. २. चऊसखा, ३. छ.सखा, ४. दो सखा, ५., पद्मावती पौरवाल और ६. सोरठिया । इन नामोंमें साह बखतराम द्वारा सूचित सात नामोंमेंसे गांगड़ यह नाम छूटा हुआ है । संभव है कि १६१ नामोंमें जो गुजराती और गुर्जर पौरवाड़ ये दो नाम आये हैं, इन्होंमेंसे कोई एक नाम गांगड यह हो सकता है यहाँ विशेष बात यह कहनी है कि जिस प्रकार अन्य जातियोंमें कोई उपभेद नहीं देखा जाता वैसी स्थिति पोरपाट जातिकी नहीं रही है। इसमें अनेक भेद-प्रभेद और उनमें परस्पर एक जातिपनेका व्यवहार नहीं था। इससे इस जातिकी जो हानि हई है उसकी कल्पना करनेमात्रसे रोंगटे खड़े हो जाते हैं। पहले हम ऐसी कल्पना भी नहीं करते थे कि इस जातिके भीतर अठसखाके सिवाय अन्य और भी भेद हैं, किन्तु इन भेदोंको देखनेसे अवश्य ही हम यह जान पाये हैं कि इस जातिके भीतर और भी भेद रहे हैं । बहुत संभव है कि इन उपभेदोंके भीतर बेटी व्यवहार और रोटी-व्यवहारका भी संबंध नहीं रहा होगा । हम बहत समय पहले सिरोंजके जिन-मन्दिरोंमें स्थित जिन-प्रतिमाओं आदिके लेख लेने के लिए गये थे । हमें स्मरण आता है कि वहाँके बड़े मन्दिरकी मूल वेदीमें एक प्रतिमा हमने ऐसी भी देखी थी जिसपर कि मूर्तिलेखमें छःसखा यह नाम अंकित था। उसके बाद अन्य स्थानों सम्बन्धी पच्चीसों जिन-मन्दिरोंके मूर्तिलेख और शास्त्रोंके लेख हमने लिखे हैं, परन्तु उनमें ऐसा एक भी मूर्तिलेख या शास्त्रोंमें प्रशस्ति लेख नहीं मिला जिसमें छःसखा यह नाम आया हो। दो सखाको सूचित करनेवाले मूर्तिलेख या शास्त्रोंके प्रशस्ति लेख तो हमारे देखने में कहीं आये ही नहीं। हाँ, श्री जिनतारण-तरणके अनुयायियोंमें दो सखा अवश्य रहे हैं। चौसखे समैयोंसे ये भिन्न हैं। चौसखा परवारोंके विषयमें अवश्य ही हमें कुछ कहना है । पन्द्रहवीं शताब्दीके पूर्व ये सब चौसखा भाई मूर्तिपूजक रहे हैं, किन्तु इन सब चौसखाओंमें श्री जिनतारणतरणके उत्पन्न होनेके बाद, ये सब पूरेके पूरे चौसखा तारण स्वामीके अनुयायी बन गये । इसका कोई न कोई सामाजिक कारण अवश्य होना चाहिये। कहते हैं कि आजसे लगभग ६०० वर्ष पूर्व सागरमें परवार सभाका अधिवेशन हुआ था। उसमें पूरे समैया समाज इस बातके लिए राजी था कि हम सबको मिलाकर परवार जातिका एक संगठन बना लिया जाय । किन्तु उस समय परवार समाजके जो प्रमुख महानुभाव थे वे बिना शर्त उन्हें मिलानेके लिए तैयार नहीं हुए । इसका जो फल निष्पन्न हुआ वह सबके सामने है । ऐसा ही एक प्रयत्न सन् १९२६-२७ में हमने भी किया था। मल्हारगढ़ निसईजीका मेला था । आगासौदके सेठ मन्नुलालजीके विशेष आग्रहपर हम उस मेलेमें सम्मिलित हए थे। उस समय स्थिति यह थी Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : ३५१ कि परवार भाई-बहन मेलेके समय निमन्त्रण मिलनेपर भी पक्के खान-पानमें सम्मिलित नहीं होते थे। किसी प्रकार पुनः निमन्त्रण दिलवाकर हम उन्हें पंक्ति-भोजनमें ले गये, क्योंकि हम यह अच्छी तरह जानते थे कि जब तक दोनों ओरके भाई-बहन एक साथ उठेंगे-बैठेंगे नहीं, एक साथ पंक्ति-भोजनमें सम्मिलित होंगे नहीं, तबतक इन सबको मिलाकर एक करना सम्भव नहीं है । यद्यपि उस समय हमने अपनी युक्तिसे पंक्तिभोजनमें सबको अवश्य मिला दिया था पर ऐसे प्रयत्नोंसे जो इष्ट फलकी प्राप्ति होनी चाहिये, उससे पूरा समाज अभी भी वंचित है । अब तो सबका मिलकर एक संगठन बन जाय इसकी किसीको चिन्ता भी नहीं है। चिन्ता हो क्यों, समाजका ह्रास कल होना था तो आज हो जाय, उससे हमारा क्या बनता-बिगड़ता है ? आजसे लगभग दो हजार वर्ष पूर्व स्वामी समन्तभद्रने पूरे जनसंघके सामने एक आदर्श रखा था-"न धर्मो धार्मिकैः विना", पर मालूम पड़ता है कि समाजने उसप चलना सीखा ही नहीं। अब देखना यह है कि इस भेदका मूल कारण क्या है ? ऐसी कौन-सी अड़चन है जो इस समाजको एक करनेमें आडे आती है। आगे उसीपर सांगोपांग विचार किया जाता है सोलहवीं शताब्दीके प्रारम्भमें श्री जिनतारण तरण प्रमुख सन्त हो गये हैं। इनके माता-पिता चौसखे परवार थे । वे विलहरी (पुष्पावती) नगरके रहनेवाले थे। पिताका नाम गढ़ा साह और माताका नाम वीरश्री था। श्री जिनतारण-तरणका शिक्षण चन्देरीमें भट्टारक देवेन्द्रकीति और उनके शिष्य भ० त्रिभुवनकीतिकी देख-रेखमें हुआ था । लगता है कि भट्टारक श्रुतकीर्ति इनके सहाध्यायी थे। यदि श्रुतकीर्ति आयुमें बड़े रहे हों, वो उनके पास भी उन्होंने प्रारम्भिक शिक्षा ली हो तो कोई आश्चर्य नहीं। ___इनका पूरा जीवन अध्यात्म रससे ओत-प्रोत रहा है। गुरुओंके सन्निकट उन्होंने उसीकी शिक्षा पाई थी और उसीके लिए वे जीवित रहे और उसीका गान करते हुए उन्होंने इहलीलाको समाप्त किया। उनकी समग धमल्हारगंज निसईजीमें जिस स्थानपर हुई थी वहाँ स्मारक स्वरूप एक छतरी बनी हई थी। वह अब उसी रूपमें तो नहीं है। कहते हैं कि उसके चारों ओर बारहदरी बना दी गई है । पर जिस रूपमें वह छतरी थी वह उसी रूपमें न रह सकी। इसका जी भी कारण रहा हो। छतरीमें कोई-न-कोई ऐसा चिह्न अवश्य होना चाहिये जो उस पुण्य मूर्ति सन्तका स्मरण करानेमें सहायक माना जाये। उनके द्वारा प्ररूपित १४-१५ ग्रन्थ माने जाते हैं। उनमें एक "तारणश्रावकाचार" भी है। यह श्रावकाचा की प्ररूपणा करनेवाला महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है। इसमें परमार्थ स्वरूप देव, गुरु और शास्त्रका सुन्दर विवेचन किया गया है। इसकी गाथा ७५ में जैसे कुगुरुको ही अगुरु कहा गया है वैसे ही ६० और ६१ क्रमांककी गाथाओंमें कुदेव और अदेव इनको एक माना गया है । ६१ क्रमांककी गाथामें इसी बातको स्पष्ट करते हुए अनेक अर्थात् कुदेवको संगतिका निषेध भी किया गया है। फिर भी कुछ भाई इसका विपरीत अर्थ करके जिनबिम्बकी पूजाका सर्वथा निषेध करते हैं। यदि उनकी इस बातको ठीक मान लिया जाय तो शास्त्रपूजा और चैत्यालयोंमें उनकी स्थापना नहीं बन सकती है। जैसे शास्त्र अक्षरात्मक और शब्दात्मक संकेत द्वारा आत्मा और परमात्माका बोध कराने में सहायक होते हैं, वैसे ही जिनबिम्ब भी उस परमात्माका ज्ञान कराने में समर्थ होते हैं जिनके माध्यमसे यह संसारी प्राणी ज्ञानानन्दस्वरूप अपने आत्माका अनुभव करने में समर्थ होता है। स्वामीजीने कहीं भी जिनपूजाका निषेध नहीं किया है। जो भव्यजीव समवसरणमें जाते हैं, उन्हें भी आँखोंसे सौम्यमूर्तिस्वरूप आत्माके दर्शन न होकर शरीरके ही दर्शन होते हैं। फिर भी भव्य जीव उसे माध्यम बनाकर कर्मकलंकसे भिन्न ज्ञानानन्दस्वरूप अपने आत्माके दर्शन कर लेते है । आलम्बन क्या है यह मुख्य नहीं । Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२ : सिद्धान्ताचार्य पं० फुलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ वह आलम्बन जड़ भी होता है और चेतन भी । इससे क्या ? लोकमें जिसने भी निमित्तनैमित्तिक सम्बन्धको जाना है वह यह अच्छी तरहसे जानता है कि कार्यकी सिद्धि जड़को निमित्तकर भी होती है और चेतनको निमित्तकर भी होती है । कार्यकी सिद्धि मुख्य है । इसी बात को ध्यान में रखकर आगममें आलम्बनको चार भागों में विभक्त किया गया है— द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव । कार्य सिद्धि में निमित्त - नैमित्तिक सम्बन्धवश कोई भी द्रव्य निमित्त बन जाता है । चैत्यालय क्या है ? जड़का परिणाम ही तो है । पर उसे निमित्तकर विवेकी पुरुष धर्मका साधन करते ही हैं । क्षेत्र कहने शिखरजी, गिरनारजी तथा निसईजी आदिका ग्रहण होता है । तो वे भी धर्मसाधनके निमित्त हैं । कालसे २४ तीर्थंकरोंके पाँचों कल्याणकों की तिथियों, स्वामीजीके जन्मदिन आदिका ग्रहण होता है । पंचांगसे इन तिथियोंको जानकर उस दिन सभी भाई-बहिन व्रत-उपवास आदि द्वारा धर्मकी आराधना करते ही हैं । भावोंकी बात स्पष्ट ही है । इस प्रकार हम देखते हैं कि प्रयोजनके अनुसार धर्म साधनमें व्यवहारसे जड़-चेतन सभीकी उपयोगिता है | स्वामीजीने इसी बातको ध्यानमें रखकर पण्डितपूजामें लिखा भी है एतत्सम्यक्त्वपूज्यस्य समाचरेत् । मुक्तिश्रियं पथं शुद्धं व्यवहार - निश्चयशाश्वतम् ||३२|| पूज्य-पूजा ऐसे यथार्थ पूज्य पंचपरमेष्ठीको पूजा करनी चाहिये । यह शाश्वत मुक्तिश्रीको प्राप्त करनेके लिये व्यवहार - निश्चयस्वरूप मोक्षमार्ग है || ३२ ॥ स्वामीजी ने अपने उपदेशों द्वारा इसी मार्गका उपदेश दिया है इसमें सन्देह नहीं है । उन्होंने व्यवहारको सर्वथा गौण नहीं किया है । फिर भी परवार समाज और समैया समाज एक होकर इन दो भागों में विभक्त क्यों हो गये ? इसका मूल कारण अध्यात्म नहीं है; किन्तु मात्र व्यवहार मार्गको अनभिज्ञता ही इसका मूल कारण है। जिन तारणतरण श्रावकाचार में दो गाथाएं आती हैं जो इस प्रकार हैं अशुद्धं प्रोक्तं चैव देवल देव पि जानते । क्षेत्र अनन्त हिंडते अदेवं देव उच्यते ॥ ३१०|| देहह देवल देवं च उवइट्टो जिनवरिं हि । परमेष्ठी संजुतं पूजं च सुद्धसम्यक्तं ॥ ३२५ ॥ लगभग इसी प्रकार की एक गाथा योगसारमें भी आई है । वह इस प्रकार हैतिहिं देवलि देउ णवि इम सुइकेवलि वुत्तु । णाणि णिमंतु ॥ देहदेवलु देउ जिणु एहउ यह तो स्पष्ट है कि जब योगसारकी गाथा स्वाश्रित ध्यानके सम्बन्धसे उसमें दी गई है । ऐसी अवस्थामें श्री नितारण तरण श्रावकाचारमें जो उक्त दो गाथाएँ आयीं हैं वे क्या स्वाश्रित ध्यानके सम्बन्धसे आई हैं या क्या बात है इसे स्पष्ट समझे बिना यह समस्या हल नहीं हो सकती । 'योगसार' तो ध्यान विशेषकी प्ररूपणा करनेवाला ग्रन्थ है । किन्तु वही स्थिति श्री जिनतारण तरण श्रावकाचार की नहीं हैं । वह मुख्यतया श्रावकोंकी अन्तरंग परिणामोंके अनुरूप बाह्य क्रियाकी प्ररूपणा करनेवाला ग्रन्थ है । ऐसी अवस्था में उसमें देवता (मन्दिर) में स्थित देवको अशुद्ध कहनेका क्या कारण हो सकता है ? क्या इसका यह अर्थ है कि श्री जिन मन्दिरमें जिनदेव के प्रतिबिम्बकी स्थापना न की जाय । यदि इसका Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : ३५३ यह अर्थ किया जाय कि श्री जिन तारण-तरणने इस द्वारा श्री जिनमन्दिरमें जिनबिम्बकी स्थापनाका सर्वथा निषेध किया है तो फिर उन्हें उसे अशुद्ध न कहकर अपनी उक्त गाथामें उसका सर्वथा निषेध करना चाहिये था । पर उन्होंने ऐसा न लिखकर उसे अशुद्ध कहा है। इसलिये यह सवाल खड़ा हो जाता है कि आगममें अशुद्ध और शुद्ध शब्दोंका प्रयोग किस अर्थमें किया गया है। सवाल मार्मिक है। इस प्रकार गहराईसे विचार करनेपर यह स्पष्ट हो जाता है कि आगममें जहाँ भी 'अशुद्ध' शब्दका प्रयोग हुआ है वह या तो परके आलम्बनसे विवक्षित वस्तुके समझनेके अर्थमें हआ है या फिरसे पदार्थों को मिलाकर एक कहनेके अर्थमें हुआ है। तथा 'शुद्ध' शब्दका प्रयोग अन्यको बुद्धिमें गौणकर जो वस्तु मूलमें जैसी है उसे उसी रूपमें देखनेके अर्थमें हुआ है या फिर केवल अकेली वस्तुके अर्थमें हुआ है। अब देखना यह है कि यहाँ जो श्री जिन तारण-तरणने उक्त गाथामें 'अशुद्ध' शब्दका प्रयोग किया है, सो किस अर्थमें किया है ? विचार कर देखा जाय तो इससे यह अर्थ स्पष्ट हो जाता है कि इस गाथामें उन्होंने पर अर्थात जिन-बिम्बके आलम्बनसे अपने स्वरूपके जाननेके अर्थ में ही 'अशुद्ध' शब्दका प्रयोग किया है। इससे यह सुतरां फलित हो जाता है कि गाथासे आया हुआ 'अशद्ध' शब्द असद्भुत व्यवहारको ही सूचित करता है। वे उस द्वारा ऐसे व्यवहारका निषेध नहीं कर रहे हैं, किन्तु उनका कहना है कि ऐसे व्यवहारके कालमें भी अपनी दृष्टि पर आलम्बनको गौण कर निश्चय पर रहनी चाहिये। तभी वह क्रिया यथार्थ कही जा सकेगी; अन्यथा निसई आदिको तीर्थ मानना निरर्थक हो जायगा । यह तो चरणानुयोगका ग्रन्थ है, फिर भी इसमें किसी भी क्रियाकी जो व्याख्या की गई है वह अध्यात्मपरक ही की गई है। इससे उस क्रियाका करना निरर्थक नहीं जाना जा सकता है। उदाहरणार्थअनस्तमित किसे कहना ? इसकी व्याख्या करते हुए वे लिखते हैं अनस्तमितं कृतं येन मनवचकाययोगभिः । भावं च भावं च अनस्तमितं प्रतिपालनम् ||२९८॥ जिसने मन, वचन और काय इन तीनों योगोंके द्वारा शुद्धभावकी भावनाकी उसने अनस्तमित किया। यह अनस्तमितका पालन है । यह श्री जिन तारण-तरणका कथन है। क्या इस परसे हम यह अर्थ फलित करें कि शुद्ध भावना करना ही अनस्तमित धर्म है। विचार कर देखा जाय तो वे इस द्वारा शुद्ध भावना करनेका उपदेश अवश्य दे रहे हैं, उस कालमें होनेवाली क्रियाका निषेध नहीं कर रहे हैं। यह एक उदाहरण है । इससे हम यह अच्छी तरह जानते हैं कि स्वामीजीके कथन करनेकी शैली ही अध्यात्मपरक रही है। किन्तु इससे कोई यह माने कि उन्होंने व्यवहारका सर्वथा निषेध किया है, तो यह उनके व्यक्तित्वपर सबसे बड़ा लांछन होगा । हम सब उनकी महत्ताको जानते-मानते हैं। अब समय आ गया है कि हम सब उनके व्यक्तित्वको उजागर करें, उसपर आवरण डालने की चेष्टा न करें। यह हमारी आचार-व्यवहार विषयक सबसे बड़ी भूल है कि जो हमारे परिवारके एक अंग हैं, उनको हमने दूर कर दिया। अब समय आ गया है कि हम सब एक हो जाय। इसके लिये जितने चैत्यालय हैं, उनको हम स्वाध्याय मन्दिर मानकर स्वीकार करें और जितने जिनमन्दिर हैं, उन्हें वे धर्मायतन मानकर अंगीकार करें। सोरठिया और गांगड़ परवारोंका क्या हुआ? यह अबतक इतिहास और अनुसन्धानकी वस्तु बनकर रह गई है। पद्मावती पोरवाल (परवार) अभी भी हमारे अंग बने हुए हैं । मात्र उन्हें अपने पास लाने भरकी आवश्यकता है। वे और हम यह नहीं जानते कि हम सबका एक ही वंश है और वह है-पौरपाटवंश । ४५ Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५४ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ गोत्र ५ गोत्र शब्द अनादि है । आठ कर्मों में भी गोत्र नामका एक कर्म है । इसे आगममें जीवविपाकी कहा गया है । और इस परसे यह अर्थं फलित किया गया है कि परम्परासे आये हुए आचारका नाम गोत्र है । उच्च आचारकी उच्चगोत्र संज्ञा है और नीच आचारकी नीचगोत्र संज्ञा है । साथ ही आगममें इसके सम्बन्धमें यह भी लिखा है कि नीचगोत्र एकान्तसे भवप्रत्यय है और उच्चगोत्र परिणामप्रत्यय होता है । इससे यह अर्थं फलित किया गया है कि यदि कोई नीचगोत्री मनुष्य हो और वह उच्च आचारवालोंकी संगति करके अपने जीवनको बदल ले तो वह मुनिधर्मको स्वीकार करते समय उच्चगोत्री हो जाता है । मात्र उच्चगोत्री आचारकी दृष्टिसे कितना भी गिर जाय, फिर भी वह उच्चगोत्री ही बना रहता है । गोत्रकर्मका यह सैद्धान्तिक अर्थ है, इसका एक सामाजिक रूप भी है। किसी भी समाजके निर्माण में इसका विशेष ध्यान रखा जाता है । कहते हैं कि जैन समाजके भीतर जितनी भी उपजातियाँ बनी हैं वे सब उन्हीं कुटुम्बों को लेकर बनी हैं जो आचारकी दृष्टिसे लोकप्रसिद्ध रहे हैं। इसका मूल कारण जैन आचार है, क्योंकि कोई भी कुटुम्ब जैनाचारकी दीक्षामें दीक्षित हो और वह हीन आचारवाला हो, यह नहीं हो सकता । इस दृष्टिसे हमने पौरपाट अन्वयके भीतर जो गोत्र प्रसिद्ध हैं, उनके विषयमें गहराईसे विचार किया है कि वे सब गोत्र वाले कुटुम्ब मुख्यतया क्षत्रिय अन्वयसे सम्बन्ध रखनेवाले रहे हैं । पौरपाट अन्वयमें जो १२ गोत्र प्रसिद्ध हैं, उनके नाम हैं (१) गोइल्ल, (२) वाछल, (३) वासल्ल, (४) वाझल्ल, (५) कासिल, (६) कोइल्ल, (७) खोइल्ल, (८) कोछल्ल, (९) भारिल्ल, (१०) माडिल्ल, (११) गोहिल्ल और (१२) फागुल्ल । अ देखना यह है कि इन गोत्रोंके पीछे कोई इतिहास है या ब्राह्मणोंमें प्रसिद्ध गोत्रोंको ध्यानमें रखकर ही इस अन्वयमें गोत्रोंके ये नाम कल्पित कर लिये गये हैं । प्रश्न मार्मिक है । आगे इसी पर विचार किया जाता है । यह तो सुप्रसिद्ध बात है कि ब्राह्मण सदासे जैनधर्मके विरुद्ध रहे हैं । क्योंकि ब्राह्मण धर्ममें जहाँ परावलम्बनके प्रतीक स्वरूप ईश्वरवादकी प्राणप्रतिष्ठाकी गई है वहाँ जैनधर्म स्वावलम्बनप्रधान धर्म होनेसे उस में सदा से ही व्यक्ति स्वातंत्र्यकी प्राणप्रतिष्ठा हुई है । ऐसी अवस्थामें जैनधर्म में दीक्षित होनेवाले कुटुम्ब ब्राह्मणोंके गोत्रोंका अनुसरण करेंगे, यह कभी भी सम्भव नहीं दिखाई देता । इसलिये यह तो निश्चित है कि इन गोत्रोंके नामकरणमें इस अन्वयने ब्राह्मणोंका भूलकर भी अनुकरण नहीं किया है । इस परसे यह सहज ही समझ में आ जाता है कि इस अन्वयके इन गोत्रोंके नामकरणमें क्षत्रियोंमें प्रचलित गोत्रोंको अपनाया गया है। इस परसे यदि यह निष्कर्ष फलित किया जाय कि जिन क्षत्रिय कुलांने जैनधर्मको अंगीकार किया उनके जो गोत्र रहे हैं, वे ही गोत्र इस अन्वयमें रूढ़ हो गये हैं, तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी । उदाहरणार्थ जिन गुहिलवंशीय क्षत्रिय कुलोंने जैनधर्म अंगीकार किया उन्हें ही गोहिल्ल गोत्रीय पौरपाट कहा गया है । यह एक उदाहरण है । इसी प्रकार इस अन्वयमें प्रसिद्ध अन्य गोत्रोंके विषय में भी जानना चाहिये । प्राग्वाट इतिहास के अध्ययनसे पता लगता है कि प्राग्वाट अन्वयमें राठोड़, परमार, चौहान आदि अनेक वंशके क्षत्रिय जिनधर्मको स्वीकार कर दीक्षित हुए थे I सोलंकी क्षत्रियोंसे तो इस अन्वयका निकटका सम्बन्ध रहा ही । इसलिये ऐसा लगता है उनमें जो गोत्र प्रसिद्ध रहे हैं, कुछ शब्द भेदसे वे ही गोत्र पौरपाट Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : ३५५ वंशमें भी प्रचलित हो गये हैं; जैसे-चौहानोंमें कासिंद्रा गोत्रकी एक शाखा रही है। मालूम पड़ता है कि उसीने पौरपाट अन्वयमें कासिल्ल गोत्र प्रसिद्ध हआ है। इसी प्रकार बहतसे राठोड़ कासव गोत्री थे। इसलिये इस गोत्रके जिन राठोड़ बन्धुओंने जैनधर्मके साथ पौरपाट अन्वयको स्वीकार किया उनमें वासल्ल गोत्र प्रसिद्ध हुआ। इसी प्रकार परमारोंमें भी गोयल गोत्र प्रसिद्ध रहा है। इसलिये इस गोत्रके जिन परमारोंने इस अन्वयको स्वीकार किया, वे गोइल्लगोत्री कहलाये । ये कतिपय उदाहरण हैं। अन्य गोत्रोके सम्बन्धमें भी इसी न्यायसे विचार कर लेना चाहिये। तात्पर्य यह है कि जैन धर्मसे क्षत्रियोंका निकटका सम्बन्ध रहा है। इसलिये उनका समय-समय पर जैनधर्म में दीक्षित होना स्वाभाविक था। यह स्थिति ऐसे कई अन्वयोंकी रही है। इसलिये उक्त गोत्रवाले जिन क्षत्रियोंने जैनधर्मको स्वीकार किया, प्रदेश भेद आदिसे वे अनेक अन्वयोंमें विभक्त होते गये। यहाँ प्रसंगवश हम एक ऐसी सूची दे रहे हैं जिनमें शब्द भेद किये बिना या थोड़े-बहुत फरकसे कई अन्वयोंमें उक्त गोत्र पाये जाते हैं परवार चरनागरे गहोई अग्रवाल १. गोहिल्ल गोहिल्ल गांगल, गंगल, गालव गोभिल २. गोइल्ल गोइल्ल गोल, गोयल, गोभिल गोयल ३. वाछल्ल वाछल्ल वाछल, वाछिल, वारिछल वत्सिल ४. वासल्ल वासल्ल काछल, काछिल, काच्छिल कासिल ५. वांझल्ल वांझल्ल बादल, बंदिल, वदल ६. कासिल्ल कासिल्ल काठल, काठिल, काच्छिल ७. कोइल्ल कोइल्ल काहिल, काहल, कौहिक ८. खोइल्ल खोइल्ल कासिल, कासिव, कासव ९. कोछल्ल कोछल्ल कोछल, कोशल, कोच्छल १०. भारिल्ल भारिल्ल भाल, भारिल, भूरल ११. भाडिल्ल भाडिल्ल जैतल माडल १२. फागुल्ल फागुल्ल बादरायण या सिंगल इसी सूचीपर दृष्टिपात करनेसे यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि किसी समय पौरपाट (परवार) और चरनागरे एक रहे हैं। गहोई अन्वयकी भी लगभग वही स्थिति है । यद्यपि इस अन्वयमें दो गोत्र ऐसे अवश्य हैं जो न तो पौरपाट अन्वयमें पाये जाते हैं और न ही चरनागरे अन्वयमें हो पाये जाते हैं। शेष सब गोत्र उक्त दोनों अन्वयोंसे मिलते-जुलते हैं । इससे ऐसा लगता है कि गहोई अन्वय यद्यपि जैन तो अवश्य रहा है। पर बादमें जब उस अन्वयने जैनधर्म छोड़ दिया तो धीरे-धीरे वह गोत्रोंके मूल नामोंको भूलने लगा और इस प्रकार इन गोत्रोंका मूल नाम क्या है, इसकी जानकारी न रहनेसे उसमें गोत्रोंके नामोंके स्थानमें तत्सम अनेक शब्द प्रयोगमें आने लगे । इतना ही नहीं, दो गोत्रोंके नामों में बदल भी हो गया। ____ मैं 'गहोई समाचार'का सितम्बर १९७० का १२वां अंक देख रहा था। उसके पृ० २१-२३ पर क्या गहोई और चरनागर जैन कभी एक थे ?' एक लेख पढ़ रहा था । लेखक श्री डॉ० गंगाप्रसाद वरसैयां रायपुर हैं, उन्होंने अपने उक्त लेखमें जनगणना विभागके उपसंचालक श्री भोलाप्रसाद जैन एवं उनके पण्डित श्री Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ जयकुमार राजेन्द्रप्रसादसे भेंट होने पर उनके कथनानुसार जो कुछ लिखा है उसका सार यह है कि 'गहोई समाजके जो बन्धु जैनधर्मकी विशिष्टताओंसे आकर्षित होकर उसे स्वीकार किया, वे अपने आचरण, चरित्र तथा साधनामें सबसे आगे थे, अतः उनका गहोई नाम बदल कर 'चरनागर' कर दिया गया। - उक्त दोनों महाशयोंके कथनानुसार यह घटना श्री जिनतारण-तरणके कालकी है। अब देखना यह है कि इसमें कितनी सचाई है। यह तो ऐतिहासिक सत्य है कि अहारक्षेत्रमें जो भगवान् शान्तिनाथका मन्दिर और खगासन जिनबिम्ब है, वह गृहपति (गहोई) वंशके द्वारा निर्मापित हुआ है। इसका वि. सं." है। इसी प्रकार बानपुरके बाह्य भागमें जो जिनमन्दिर निर्मापित होकर उसमें जिनबिम्ब विराजमान हैं, वे भी इस वंशके द्वारा निर्मापित हुए हैं। उनका सम्वत् लगभग वही है। इससे इस नामके साथ ही गहोईयोंका जैन होना १५-१६वीं शताब्दीसे पहले ही सिद्ध होता है । नाम बदले नहीं और जैन रहा आवे, इसमें हमें कोई बाधा दिखाई नहीं देती। दूसरे गहोईयोंके सब गोत्र चरनागरोंमें नहीं पाये जाते । जैतल और बादरायण ये दो गोत्र ऐसे हैं जो मात्र गहोईयोंमें ही रूढ़ हैं और इनके विपरीत माडिल्ल और फागुल्ल ये दो गोत्र ऐसे है जो पौरपाट (परवार) अन्वयमें भी पाये जाते हैं । तो इससे ऐसा लगता है कि चरनागर पौरपाटों (परवारों) के अति निकट हैं, गहोईयोंके उतने निकट नहीं हैं। फिर भी इन तीन जातियोंका उद्गम कभी ऐसे क्षत्रियोंमेंसे हुआ है, जिनमें ये गोत्र प्रसिद्ध रहे हैं। वर्तमानमें 'मूल' के अर्थमें 'मूर' या 'शाख' शब्द प्रचलित है। अब देखना यह है कि पौरपाट (परवार) अन्वयमें जो १४४ मूल प्रसिद्ध हैं, वे क्या है ? पिछली बार सोनगढ़ में जो पंचकल्यणक प्रतिष्ठा हुई थी, उसमें हमारे सिवाय श्री जगन्मोहनलालजी आदि विद्वान भी सम्मिलित हुए थे। इसी प्रसंगसे एक दिन काना स्वामीके कुटुम्बके भाई-बहन उमरालामें कहाँसे आकर बसे थे-इस बात का उल्लेख करते हुए उस गाँव का नाम लिया गया था जो उनका 'मूल' गाँव रहा है। इससे दो बातें निश्चित होती है। एक तो यह कि पौरपाट (परवार) अन्वयका निकास मूलमें गुजरातके उस भागसे हआ है जो 'प्राग्वाट' कहा जाता है । दूसरी इससे यह बात फलित होती है कि जिस ग्राम, कस्बा या नगरसे आकर जो कुटुम्ब इस अन्वयमें दीक्षित हुए हैं उनका 'मूल' वही स्वीकार कर लिया गया है। इसका यह अर्थ हुआ कि महाराष्ट्र में जिस अर्थमें 'कर' शब्दका प्रयोग किया जाता है, उसी अर्थमें पौरपाट अन्वयमें 'मल' शब्दका प्रयोग किया जाता है । इस अन्वयके समान बुंदेलखण्डमें एक गहोई और दूसरे चरनागर अन्वय भी निवास करते हैं । परन्तु 'उनमें 'मल' के स्थानमें 'आंकने' प्रचलित हैं। ये आंकने क्या हैं. इस पर जब ध्यान दिया जाता है, तो उनको देखने से मालूम पड़ता है कि उनमें कुछ नाम तो ऐसे हैं जिनसे गाँव विशेषकी सूचना मिलती है । कुछ नाम ऐसे हैं, जिनसे व्यापार विशेषकी सूचना मिलती है और उनमें कुछ नाम ऐसे भी हैं जो सम्मानसूचक मालूम पड़ते हैं। किन्तु यह स्थिति पौरपाट अन्वयकी नहीं है । इससे ऐसा लगता है कि पौरपाट अन्वय उस कालका अवशेष है जब इस देशमें गणतन्त्र प्रचलित था। कौटिल्यने ऐसे संगठनोंको 'वार्ताशस्त्रोपजीवी' लिखा है। मालूम पड़ता है कि पहले इस तरहसे बने विभिन्न संगठन कृषि, वाणिज्य और पशुपालन आदिसे अपनी आजीविका करते हए अपने अन्वयकी रक्षाके लिये शस्त्र भी धारण करते थे। किन्तु धीरे-धीरे राजनैतिक स्थितिमें परिवर्तन होने पर इनमें शस्त्र धारण करना न रहकर केवल आजीविकाके मात्र अन्य साधन रह गये। . यहाँ यह कहा जा सकता है कि ऐसे अन्वयोंने क्षात्रवृत्तिको छोड़कर मात्र वार्ताकर्मको ही क्यों स्वीकार कर लिया? समाधान यह है कि जब धीरे-धीरे अन्वयों (गणों)की स्वाधीनता छिन कर एकतन्त्र राज्योंका Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थं खण्ड : ३५७ उदय हो गया तब उन्होंने आजीविका के साधनके रूपमें कृषि, पशुपालन और वाणिज्यको स्वीकार करना ही उचित समझा । कुछ मनीषी कहते हैं कि जैनधर्म अहिंसा प्रधान धर्म है, इसलिये अहिंसा के साथ क्षात्रवृत्तिका मेल नहीं बैठता । पर यह उनकी कोरी कल्पनामात्र है । इतिहास इसका साक्षी है । मौर्य चन्द्रगुप्त भारतका प्रथम सम्राट् था यह सुविदित सत्य है । समय-समय पर और भी अनेक राजा-महाराजा हुए हैं जिन्होंने क्षात्रधर्मका सुन्दर निर्वाह करते हुए अपने राज्यमें सुव्यवस्था बनाये रखी है । धर्म इसमें बाधक नहीं है । संकल्प पूर्वक हिंसा आदिको त्याग देना गृहस्थ धर्मका लक्षण है । चोर, डाकू और समाजविरुद्ध आचरण करनेवालोंसे समाजकी रक्षा करना क्षात्रधर्मका प्रमुख लक्षण है । यही कारण है कि जो जैनधर्म का पालन करते हुए शस्त्र धारण कर समाजकी रक्षा करता है, वह समाजमें महनीय माना जाता है । यह हमारे पूर्वजोंके जीवनकी एक झांकी है । इससे पौरपाट अन्वयको अनेक गणोंमें विभक्त कर उसका संगठन किस प्रकार किया गया था, उसका पता लगता है। यह (पौरपाट) अन्वय १२ गोत्रोंमें विभक्त था, यह तो हम पहले ही बतला आये हैं । अब देखना यह है कि प्रत्येक गोत्रके अन्तर्गत जो १२, १२ मूल गिनाये गये हैं वे कौन-कौन हैं आगे इसकी सूची दी जाती है गोत्र गोहिल्ल गोइल्ल वाछल्ल वांझल्ल परवारबन्धु सुहला, उदया, गाहे, बार, छिनए, कठोरा, बड़े मारग, दुहाऐ, झमला महुडिम्म, ताखा, नगाडिम्म | वैसाख, सोला, करकच, खारल्ले, बरहद, गोसिल्ल, गांगरो, गोधू, खाठी, चाची, छोड़व, वारी । ड्याडम्म देदा, डेरिया, ड्याडिम्म, डुही, चन्दाडिम्म, रमाडिम्म, अहीडिम्म, रका, वाला, छिनकन, सकेसरा वासो, ईडरी, रकिया, लालू, शिह्नम्मडिला, देवसा, सेवती, दुगायत, बीबीकुट्टम, कनहा, उजए, पद्मावत । उजिया, धना, दीपाकर, लोटा, पठवल, सीग, उठा, घघर, कासिल्ल छम छल, पंचलौर, नाहछ, पाहू, छोटा, रकाडिम्म कदोहा, बड़ोसर, अहिया डिम्म कठोहा, जगेसर, नागच । जबलपुर सहारमडिम्म, माहो, अँधियारो वारू, किढमा, बड़ोमारग ममला रुहारो, अंडेला, छितरा नगाडिम्म, तका वारद, गोसिल, गोदू, किरकिच, चांदे, सिदुआ, छोड़ा, वैसाखिया, वार, सहोला, खराइच, गांगरे भाभरी, धमाछल, छोहर, भभारो, बहुहठी किठोदा, अओड़िम, पंचरतन, कदोहा, सांझी, बड़ेसुर, नारद, बड़ेसुर देदा, डुही, डेरिया, धतकत, चन्द्राडिम्म, दका, रामडिम्म, कठा सकेसर, सदावदा वाला वीवीकुढ्ढम, रकया, वंसी, लालु, ऐंडरी, वागु, दुगाइच, पद्मावती, द्योतीस्योती, कनहा, शिलाडिम । धना, दिवाकर, लोटा, उजया, उठा, डंगारी, सिगा, सिवारौ, अशोकनगर जबलपुर और अशोक नगरके मूल मिलतेजुलते हैं जबलपुरके और अशोक नगरके मूल एक ही हैं । मात्र कवितामें बहुहठी है और अर्थ में बहूटी है । एक ही हैं दोनोंके दोनोंके एक ही हैं कवितामें चोवर अर्थ में चीवर तथा पट Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५८ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ डड़िया, डोंगर, सिरवार पद्मा- कोवर, घूघर, डंडिया, पटवार वारके स्थानमें पटवा वत । छपा है। कोइल्ल पलावत, बुद्धवारी, चाची, चुचा, चांचरौ, पपिद, कठिया, दोनोंके मिलते गगाडिम्म, उदाडिम्म, कस- सिसयारी, कुशवाल, विमहा, जुलते हैं। वारो, भामार, पाहूडिम्म, उदहा, इंदारी, खेकवार, मिडला, इंगली चिंगुली सिंधवारो, गहोटी फठा, पपहद । लोइल्छ सेतगागर, कलगा, गढ़िया, सेतगागर, ठाड़िया, मनहारो, एक ही हैं छोड़ाडिम्म, रुहारौडिम्म नंगाइ- किरवार, इंगलीचिगली, कोइल्ल चडिम्म, वसुहाडिम्म, खटहा- रह्यरो, खरहन, सुराइच, डिम्म, बगहा डिम्म-घोघठ, लुहारच, खकोटा, नगावत .लुहाइच, वराहन भरिल्ल विग, खोना, अंग, कुवा, पगुवा, भगवंता, विगहा, विग, खौना, वही है मारू, कुनाडिम्म, भगवत, इंग, अगा, पुनहौरा, भारू, विगहा, गाहेडिम्म, हारूडिम्म । पहुना, कुवा कुहारी, हिडिम्म । माडिल्ल माडू, रूदा, उदहा, वाहिल- माड, हंसारी, सकती, रोदा, भटारो और डिम्म, सिकाडिम्म, गमलाडिम्म, खितवां, वेलाडिम, भटारो, भटारी दोनों वरायचडिम्म, झांझाडिम्म खोखर, सितावर, स्वितागांगर, हैं। शेष दोनों भटियाडिम्म, भटोहाडिम्म, इंगली, नगाइच । एक है। लालडिम्म, रूपाडिम्म । कोछल्ल बहुरिया, सर्वछोला, मसता, बहुरिया, मसो, रेंचा, गंगवा, स्त्रि कुछाछरो, उछिल्ल, गग- वसबल, कुछाछरे, सर्वछोला, वारो, सुपहाडिम्म, वसवाल, ध्याइच, सुवहा, ओछल, घिया, सिरपरो वगुयाडिम्म विसासर, बुधवारौ। फागुल्ल छीनर, मालेडिम्म, भगीली, झिझारो छोवर, फागुल, कुटहटी वराइच, वडोहाडिम्म, जाजा- रिहारौ, कठल, मंगला, वलासदा, डिम्म, कफाडिम्म, सिहर पटहारौ बुधारौ, जजेसुर, गांगरो, पुनहीरी, नाहडिम्म, वसाइच कष्हा, फागुल्ल। ये बारह गोत्रोंके १४४ मूर (मूल) या शाखा हैं । इनमें बड़ी गड़बड़ है। जैसा कि हम पहले सूचित कर आये हैं, इस अन्वयके १२ गोत्रोंमेंसे प्रत्येक गोत्रके अन्तर्गत जो १२, १२ मूल हैं वे ग्रामोंके नामोंके आधार पर ही हैं । अर्थात् जिस ग्रामके रहवासी जिस कुटुम्बने इस अन्वयको स्वीकार किया उस कुटुम्बका वही मूल हो गया। इसकी पुष्टिमें हम यहाँ पर एक तुलनात्मक सूची दे रहे हैं। वह इस प्रकार है१. ईडरीमूल ईडरशहरमें रहने वालोंका मूल ईडर है । २. रक (ख) या मूल रखयाल ग्राम (सौराष्ट्र) में रहनेवालों का मूल रखयाल है। ३. नारद मूल मारवाड़के मेड़ना जिलेके पार्श्वनाथ मन्दिरमें नारदपुरीका उल्लेख है। ४. कठिया मूल काठियाबाडके निवासियोंको इस अन्वयमें सम्मिलित होनेपर उनका मूल 'कठिया' प्रसिद्ध हुआ। Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : ३५९ ५. दुगायत मूल दो नदियोंका संगमस्थान (गुजरात) उसके आस-पास रहनेवालोंका मूल दुगायत हुआ । ६. पदमावतमूर गुजरातके इस शहरमें रहनेवाले । ७. बंसी मूल बंसी पहाड़पुर स्टेशनमें रहनेवालों। ८. बेला बेला स्टेशन (सौराष्ट्र) डिम या डिम्बका अर्थ छोटा होता है। बेलाडिम, बेला नामका छोटा ग्राम । ९. बहुरिया मूल बहेरिया रोड़ स्टेशन है । बहेरियामें रहनेवाले । १०. मांडू माडलगढका संक्षिप्त नाम मांडू है । यहाँ रहनेवाले । ११. कुआ गुजरातमें एक ग्रामका नाम कुआ या पाटना कुआ एक दूसरा गाँव रानकुआ भी है। १२. कठा कठासा स्टेशन (यहाँ रहनेवाले) १३. पटवा मूला पटवारा स्टेशन १४. लोटा मूल लोटासा स्टेशन १५. छना मूल छना खड़ा स्टेशन १६. बाला मूल बाला रोड स्टेशन, ग्रामका नाम बाला या गुजरात का बल्लापुर ग्राम। १७. डेरिया मूल डेरोन स्टेशन (तत्सम) १८. डंडिया मूल डंडिया एक खेलका नाम है उस परसे इस नामसे प्रसिद्ध । १९. देदा मूल दुद्दा स्टेशन २०. किड मूल किडिया नामका नगर है (तत्सम) २१. धना मूल धनाखड़ा स्टेशन का नाम इस ग्रामके रहवाली २२. सर्वछोला मूल छोला ग्राम । २३. उजया मूल उजेडिया ग्राम (तत्सम) , २४. किड मूल किडिमा नगरका नाम (तत्सम) २५. डेरिया मूल डेरोन स्टेशन २६. सर्व छोला मूल छोला स्टेशन २७. गोदू मूल गोदौ ग्राम (गोदौ ग्रामः) २८. तका मूल टाका टुक्का ग्राम (तत्सम) ,, २९. पद्मावती मूल पद्मावती शहर (गुजरातमें), ये कतिपय मूल है । जिनमेंसे कई ग्रामोंके नाम तो गजरातमें उसी रूपमें पाये जाते हैं। कई मूल ऐसे हैं जिनमें ग्रामका पूरा नाम प्रयुक्त हुआ है । कई मूल ऐसे भी हैं जिनमें ग्रामके प्रारम्भ या अन्तके भागको छोड़कर मूलके रूपमें उसे स्वीकार किया गया है। जैसे 'सत्यभामाम' सत्य पदको छोड़कर 'भामा' पदसे ही सत्यभामाका ग्रहण हो जाता है। कई मूल ऐसे भी हैं जिनमें तत्सम ग्रामके नामसे ही उसका मूल ग्रहण हो जाता है । यदि गुजरात और मेवाड़ प्रदेशके ग्रामोंके पूरे नामोंकी सूचीके आधारसे मूलोंके नामोंकी खोज की जाय तो बहुत ही कम ऐसे मूलोंके नाम शेष रह जायेंगे जिन मूलोंके नामपर ग्रामोंका नाम वर्तमानमें उपलब्ध नहीं हो सकेगा । उन ग्रामोंका या लोप हो गया होगा या नाम बदल गया होगा। निष्कासन ___मैं 'प्राग्वाट इतिहास को पूरी तरहसे देख रहा था। उससे ऐसा लगता है कि वहाँके राजाओंसे मिल कर श्वेताम्बरोंने गुजरातसे दिगम्बरोंका निष्कासन कराया था। प्राग्वाट इतिहासमें पृ० १२ और २२० में Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ लिखा है कि कर्णावती नगरमें दिगम्बराचार्य कुमुदचन्द्र और श्वेताम्बराचार्य देवसूरिके चातुर्मासके समय दोनों आचार्योंका सम्पर्क होनेपर दोनों आचार्योंने वाद करना निश्चित करके श्वेताम्बर आचार्यके आग्रह पर दिगम्बर आचार्यने अनहिल-पुरपत्तनमें गूर्जर सम्राट सिद्धराज जयसिंहकी विद्वत्परिषदमें आना स्वीकार कर लिया था। अन्तमें वि० सं० ११८१ वैसाख सुदी १५के दिन यह वाद प्रारम्भ हुआ। विषय स्त्री निर्वाण रखा गया। वादका निर्णय देनेमें सहायता करनेवाले सभासद् महर्षि, उत्साह सागर और राम निश्चित हुए । श्वेताम्बराचार्यको महाकवि श्रीपाल, महापण्डित भानु एवं उदीयमान प्रसिद्ध विद्वान् हेमचन्द्राचार्य सहायता कर रहे थे। दूसरी ओर तीन कैतव दिगम्बराचार्यकी सहायता कर रहे थे। वादका प्रारम्भ करते हुए देवसूरिने अनेक ज्ञानिनी और अनेक सती स्त्रियोंके उदाहरण प्रस्तुत कर ऐतिहासिक ढंगसे स्त्री मुक्तिके सम्बन्धम पूर्वपक्ष प्रस्तुत किया। किन्तु दिगम्बराचार्य श्वेताम्बराचार्यके इस वक्तव्यको सुनकर निस्तेज पड़ गये । ऐतिहासिक ढंगसे प्रस्तुत किये गये उनके वक्तव्यका निरसन नहीं कर सके और इस प्रकार इस वादमें 'प्राग्वाट इतिहासके अनुसार श्वेताम्बर मतकी विजय हुई । उक्त ग्रन्थमें लिखा है कि देवसूरिने कुमुदचन्द्रके साथ सद्व्यवहार किया (पू० २१३) । परन्तु पृ० २२० के अनुसार दिगम्बराचार्य कुमदचन्द्रको, एक चोरके समान उनका तिरस्कार करके, पत्तनपुरसे बाहर निकाल दिया। इस विषयपर श्वेताम्बर परम्परामें अनेक ग्रन्य और नाटक लिखे गये हैं। कुमारपाल प्रतिबोधमें भी इसके सम्बन्धमें विशेष लिखा गया है । श्वेताम्बर मुनि जिनविजयजी अपनी प्रस्तावनामें इस ग्रन्थके वाक्योंको अनूदित करके लिखते हैं कि इस वादके फलस्वरूप दिगम्बरोंका श्रीपरपत्तनमें प्रवेश निषिद्ध कर दिया गया । उस ग्रन्थमें लिखे गये वचन इस प्रकार है 'वादिदेवसूरिभिः श्रीमदनहिलपुरपत्तने जयसिंहदेवराजस्य राजसभायां दिगम्बरचक्रवर्तिनं कुमुदचन्द्राचार्यवादे निर्जित्य श्रीपत्तने दिगम्बरप्रवेशो निवारितः।' इस विषय में यह श्वेताम्बर ग्रन्थोंका कथन है । किन्तु इसमें कितनी ऐतिहासिकता है यह अवश्य ही विचारणीय है । दिगम्बर परम्परावादी कुमुदचन्द्र अवश्य हुए हैं । वे चतुर्विध पाण्डित्य चक्रवर्ती थे और श्री माघनन्दि सिद्धान्तचक्रवर्तीके पुत्र थे । उन्होंने अपना परिचय देते हुए प्रतिष्ठाकल्पके कनाडी भाषामें लिखे गये टिप्पणमें लिखा भी है । यथा श्रोमाघनन्दिसिद्धान्तचक्रवर्तितनूभवः ।। कुमुदेन्दुरहं वच्मि प्रतिष्ठाकल्पटिप्पणम् ॥ परन्तु उनका समय १४वीं शताब्दिका प्रथम या द्वितीय पाद है, क्योंकि इनके पिता माघनन्दि सिद्धान्तचक्रवर्तीका समय ई० सन् १२६५ वि० सं० १३२२ निश्चित है। और श्वेताम्बर लेखकोंके अनुसार यह वाद वि० सं० १९८० में हुआ था। इस प्रकार वादके और कुमुदचन्द्रके मध्य लगभग १५० वर्षका अन्तर पड़ता है । इसलिये यहाँ ऐसा समझना चाहिये कि या तो श्वेताम्बराचार्य वादिदेवके समयमें चतुर्विध पांडित्य चक्रवर्ती कुमुदचन्द्र हुए हैं । या फिर कुमुदचन्द्रके समयमें वादिदेव हुए हैं। या फिर इन दोनों का एक समय न होनेसे यह वाद हुआ ही नहीं । केवल अपने सम्प्रदाय, में दिगम्बरोंके प्रति अनास्था उत्पन्न करनेके लिये श्वेताम्बर लेखकों द्वारा दिगम्बर और श्वेताम्बरोंके मध्य वाद हुआ और उसमें वादिदेव सूरिने विजय प्राप्त की ऐसी मन गढन्त कल्पना कर ली गई। यहाँ दो बातें अवश्य ही विचारणीय है कि एक तो यह वाद यदि हुआ है तो सिद्धान्तके आधार पर न होकर बादमें ऐतिहासिक घटनाको आधार क्यों बनाया गया। दूसरे कर्णावतीमें वाद न होकर अनहिलपुरपत्तनमें वादको मूर्तरूप क्यों दिया गया। जब कि कुमुदचन्द्र जानते थे कि वर्तमानमें गुजरातका राजा श्वेता Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : ३६१ म्बरोंका पक्षधर है । उसके पास तक श्वेताम्बर आचार्योंकी पहुँच है साथ ही उसका महामात्य भी श्वेताम्बर आम्नाय को माननेवाला ही है । ऐसी अवस्थामें उस नगरमें जाकर बादमें विजय पाना कैसे सम्भव है । इसलिए एक तो निष्कर्ष निकलता है कि यह वाद हुआ ही नहीं । दूसरे हुआ भी है तो दिगम्बर आचार्यको छला गया है । वास्तवमें देखा जाय तो कार्य ही ऐसे थे जिनके कारण जैनधर्म न केवल कलंकित हुआ, देवसूरि अपितु उसका पतन भी हुआ। जिसे इसके कारनामोंको जानना हो उसे कनैयालाल मुनशी द्वारा लिखित 'गुजरातनो नाथ' पुस्तक पढ़नी चाहिये । इसी प्रकार इन्हींके द्वारा लिखी गई 'पाटतनी प्रभुना' पुस्तक भी पढ़नी चाहिये । इनके पढ़नेसे ही ज्ञान हो जायगा कि देवसूरिका जीवन कैसा था और उनके गुरु आनन्दसूरि अपनी मोक्ष मार्ग की भूमिकाको छोड़कर राजकारणमें पड़कर कैसे अमानुषिक कार्य करनेमें लगे हुए थे । एक स्थलपर दूसरेसे बातचीत करते हुए वे (आनन्दसूरि) कहते हैं - 'मारे हाथे जिन भगवानना शत्रुओं ठेकाने थवानाछे' दूसरी जगह वे कहते हैं - 'अमारा श्रावकोए पाठनथी कंटालो चन्द्रावती स्थाप्यु अनेअहींया पण तेमनु चाले तो राजाने उठाडी महाजनानुं राज्यस्याप्यु ।" आदि । ये है आनन्दसूरि के विचार | देवसूरि इनसे भी गये बीते थे । उसमें उदा - सेठका इन्हें बल मिला हुआ था । वह भी इस विचारका था । इससे यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि यह वाद एक नाटक है । जैसे वंसीमें अन्नके लोभसे मछली फसती रहती है वैसे ही बादमें न्यायके लोभसे कुमुदचन्द्रको देवसूरिने फँसाया । उद्देश्य इतना ही था कि किसी प्रकार पाटन और उसके आस-पासके प्रदेशसे दिगम्बरोंका निष्कासन किया जाय । जिनको परिस्थितिवश वहाँ रहना पड़े उनका श्वेताम्बरीकरण किया जाय । यह तो इतिहासकी साक्षीसे स्पष्ट ही है कि शाखाबन्ध परवार (पौरपाट) तो बहुत कुछ वहाँसे निकल आये थे और धीरे-धीरे वहाँसे निकल कर चन्देरी और उसके आस-पास के ग्रामोंमें बसते रहे हैं । उनके वहाँ से आका यह क्रम १६वीं शताब्दी तक चलता रहा है । इस प्रकार चन्देरीको केन्द्र बनाकर बुन्देलखण्ड में बस गये थे । उनमें जो गांगड़ परवार और सोरठिया परवार बच गए थे उन सभीका ऐसा लगता है कि धीरे-धीरे श्वेताम्बरीकरण हो गया होगा । इनमेंसे बहुतसे भाई अजैन बन गये हों तो कोई आश्चर्य नहीं, क्योंकि प्रतिमालेखों और ग्रन्थ प्रशस्तियोंके देखनेसे यही निश्चय होता है कि उक्त दोनों प्रकारके परवार श्वेतांबरोंके इस मायाजालसे कभी भी नहीं निकल सके और उनका श्वेतांबरीकरण होकर रह गये । चंदेरी - सिरोंज ( परवार) पट्ट ७ मूलसंघ नन्दि-आम्नायकी परम्परामें भट्टारक पद्मनन्दीका जितना महत्त्वपूर्ण स्थान है, उनके पट्टधर भट्टारक देवेन्द्रकीर्तिका उससे कम महत्वपूर्ण स्थान नहीं है । इनका अधिकतर समय गुजरातकी अपेक्षा बुन्देल - खण्डमें और उससे लगे हुए मध्यप्रदेशमें व्यतीत हुआ है। चंदेरी पट्टको स्थापनाका श्रेय इन्हींको प्राप्त है । श्री मूलचन्द किशनदासजी कापडिया द्वारा प्रकाशित 'सूरत और सूरत जिला दिगम्बर जैन मन्दिर लेख संग्रह ' संक्षिप्त नाम 'मूर्ति लेख संग्रह' के पृष्ठ ३५ के एक उल्लेखमें कहा गया है कि 'गंधारकी गद्दी टूट जानेसे सं० १४६१ में भट्टारक देवेन्द्रकीर्तिने इस गद्दीको रांदेरमें स्थापित किया । जिसे सं० १५९८ में भट्टारक विद्यानंदीजीने सूरनमें स्थापित किया । 'किन्तु अभी तक जितने मूर्तिलेख उपलब्ध हुए हैं उनसे इस तथ्य की पुष्टि नहीं होती कि देवेन्द्रकीर्ति १४६१ वि० में या इसके पूर्व भट्टारक बन चुके थे। साथ ही उक्त पुस्तकमें जितने भी मूर्ति लेख प्रकाशित हुए हैं उनमें केवल इनसे सम्बन्ध रखनेवाला कोई स्वतन्त्र मूर्ति लेख भी उपलब्ध १. पाटतनी प्रभुता प० १३, वही पृ० २६ ४६ Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ नहीं होता। इसके विपरीत उत्तर भारतमें ऐसे लेख अवश्य पाये जाते हैं जिनसे यह ज्ञात होता है कि इनका लगभग पूरा समय उत्तर भारतमें ही व्यतीत हुआ था। यहाँ हम ऐसी एक प्रशस्ति जयपुरके एक जैन मन्दिरमें स्थित पुण्यास्रव (संस्कृत) की हस्तलिखित ग्रन्थसे उद्धृत कर रहे है। इसमें इन्हें भ० पद्मनन्दिका शिष्य स्वीकार किया गया है । प्रशस्ति इसप्रकार है : __ सं० १४७३ वर्षे कार्तिक सुदी ५ गुरदिने श्री मूलसंघे सरस्वतीगच्छे नन्दिसंघे कुन्दकुन्दाचार्यान्वये भट्टारक श्री पद्मनन्दीदेवास्तच्छिष्य मुनिश्री देवेन्द्रकीतिदेवाः । तेन विजज्ञाया वर्गीकर्मक्षयार्थ लिषापितं शुभं । इस लेखमें इन्हें मुनि कहा गया है। इसके अनुसार यह माना जा सकता है कि इस समय तक ये पट्टधर नहीं हुए होंगे। किन्तु मुनि भी भट्टारकोके शिष्य होते रहे हैं। इतना ही नहीं, मुनि दीक्षा भी इन्हीके तत्वावधानमें दी जानेकी प्रथा चल पड़ी थी। मेरा ख्याल है कि वर्तमानमें जिस विधिसे मुनि दीक्षा देनेकी परिपाटी प्रचलित है वह भट्रारक बननेके पूर्वकी मुनि-दीक्षाका रूपान्तर है। इसीसे उसमें विशेष रूपसे सामाजिकताका समावेश दृष्टिगोचर होता है। जो कुछ भी हो, उक्त प्रशस्तिसे इतना निष्कर्ष तो निकाला ही जा सकता है कि सम्भवतः उस समय तक इन्होंने किसी भट्टारक गद्दीको नहीं सम्हाला होगा। किन्तु 'भट्टारक सम्प्रदाय' पृ० १६९ के देवगढ़ (ललितपुर) से प्राप्त एक प्रतिमा-लेखसे इतना अवश्य ज्ञात होता है कि ये वि० सं० १४९३ के पूर्व भट्टारक पदको अलंकृत कर चुके थे। देवगढ़ बंदेलखण्डमें है और चंदेरीके सन्निकट है। साथ ही इनके प्रमुख शिष्य विद्यानन्दी परवार थे । इससे ऐसा तो लगता है कि वि० सं० १४९३ के पूर्व ही चंदेरी पर स्थापित किया जा चुका होगा। फिर भी उनकी गुजरातमें भी पूरी प्रतिष्ठा बनी हुई थी और उनका गुजरातसे सम्बन्ध विच्छिन्न नहीं हुआ था, सूरतके पास रांदेर पट्टका प्रारम्भ होना और उसपर उनके शिष्य विद्यानन्दीका अधिष्ठित होना तभी सम्भव हो सका होगा । 'भट्टारक सम्प्रदाय' पुस्तकमें चंदेरी पट्टको जेरहट पट्ट कहा गया है, वह ठीक नहीं है। हो सकता है कि वह भट्टारकोंके ठहरनेका मुख्य नगर रहा हो । पर वहाँ कभी भट्टारक गद्दी स्थापित नहीं हुईं, इतना सुनिश्चित प्रतीत नहीं होता। विद्यानन्दी कब रांगेर पट्रपर अधिष्ठित हुए इसका कोई स्पष्ट उल्लेख उपलब्ध नहीं होना । 'भट्टारक सम्प्रदाय' पुस्तकमें वि० सं० १४९९ से लेकर अधिकतर लेखों से किसीमें इनको देवेन्द्रकीतिका शिष्य, किसीमें दीक्षिताचार्य, किसीमें आचार्य तथा किसीमें गुरु कहा गया है। परन्तु भावनगरके समीप स्थित घोघानगरके सं० १५११ के एक प्रतिमा लेखमें इन्हें भट्टारक अवश्य कहा गया है। यह प्रथम लेख है जिसमें सर्वप्रथम ये भट्टारक कहे गए है । इससे ऐसा लगता है कि रांदेर पट्टकी स्थापना इसके पूर्व ही हो गयी होगी। यदि हमारा यह अनुमान सही हो तो ऐसा स्वीकार करने में कोई आपत्ति नहीं कि चंदेरी पट्टकी स्थापनाके बाद ही रांदेरसे बदलकर सुरत पट्टकी स्थापना हई होगी। ऐसा होते हुए भी बुन्देलखण्ड और उसके आस-पासका बहुभाग चंदेरी मण्डल कहा जाता था, यह उल्लेख वि० संवत् १५३२ के पूर्वके किसी प्रतिमा लेखमें दृष्टिगोचर नहीं हआ। इसमें चंदेरी मण्डलाचार्य देवेन्द्रकीतिको स्वीकार किया गया है। यह प्रतिमा लेख हमें विदिशाके बड़े मन्दिरसे उपलब्ध हुआ है । पूरा लेख इसप्रकार है : संवत् १५३२ वर्षे वैशाख सुदी १४ गुरौ श्रीमूलसंघे बलात्कारगणे सरस्वतीगच्छे नंदिसंघे कुन्दकुन्दाचार्यान्वये भ० श्री प्रभाचन्द्रदेव त० श्री पद्मनंदिदेव त० शुभचंद्रदेव भ० श्री जिनचन्द्रदेव Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थखण्ड : ३६३ भ० श्री सिंहकीर्तिदेव चंदेरीमंडलाचार्य श्री देव्यंद्रकीर्तिदेव त० श्री त्रिभुवन - कीर्तिदेव पौरपट्टान्वे अष्टन्वये सारवन पु० समवेतस्य पुत्र रउत पाये त० पुत्र सा० अर्जुन त० पुत्र सा० नेता पुत्र सा० धीरजु भा० विरेजा पुत्र संघ सघे...सघे । तु० भा० " ठीक इसी प्रकारका एक लेख कारंजाके एक मन्दिरमें भी उपलब्ध हुआ है । इसके पूर्व जिनमें चंदेरी मण्डलका उल्लेख है ऐसे दो लेख वि० सं० १५३१ के गंजवासोदा और गुना मन्दिरोंके तथा दो लेख वि० सं० १५४२ के भी उपलब्ध हुए हैं । किन्तु वि० सं० १५३१ को चंदेरी मण्डलकी स्थापनाकी पूर्वावधि नहीं समझनी चाहिए । कारण कि ललितपुरके बड़े मन्दिरसे प्राप्त वि० सं० १५२५ के एक प्रतिमा लेखमें त्रिभुवनafrat मंडलाचार्य कहा गया है। इसमें भ० देवेन्द्रकीर्तिका नामोल्लेख नहीं है । इससे ऐसा प्रतीत होता है कि वि० सं० १५२५ के पूर्व ही त्रिभुवनकीर्ति चंदेरी पट्टपर अभिषिक्त हो गए थे। साथ ही यहाँ भ० जिनचन्द्र और भ० सिंहकी की भी आम्नाय चालू थी यह भी इससे पता लगता है । पूरा लेख इस प्रकार है : संवत् १५२५ वर्षे माघ सुदि १० सोमदिने श्री मूलसंघे भट्टारक श्री जिनचन्द्रदेवस्तत्पट्टे भट्टारक श्री सिंहकीर्तिदेव मंडलाचार्य त्रिभुवनकीर्तिदेवा गोला पूर्वान्वये सा० श्री तम तस्य भार्या संघ इति । इसके पूर्व बड़ा मन्दिर चंदेरीमें भ० त्रिभुवनकीर्ति द्वारा प्रतिष्ठित वि० सं० १५२२ की एक चौबीसी पट्ट और । इसके पूर्व के किसी प्रतिमा लेखमें इनके नामका उल्लेख नहीं हुआ है । इससे मालूम पड़ता है कि वि० सं० १५२२ के आसपासके कालमें ये पट्टासीन हुए होंगे । यतः भ० देवेन्द्रकीर्ति भी चंदेरी मंडलके मंडलाचार्य रहे हैं, अतः सर्वप्रथम वे ही चंदेरी पट्टपर आसीन हुए होंगे यह स्पष्ट हो जाता है । वि० सं० १५२२ का उक्त प्रतिमा लेख इसप्रकार है : सं० १५२२ वर्षे फाल्गुन सुदि ७ श्री मूलसघे बलात्कारगणे सरस्वतीगच्छे कुन्दकुन्दाचार्यन्वये भट्टारक श्री देवेन्द्रकीर्ति त्रिभुवन -- ति........ भानुपुराके बड़े मन्दिरके शास्त्र भण्डारमें शान्तिनाथ पुराणकी एक हस्तलिखित प्रति पाई जाती है । उसके अन्तमें जो प्रशस्ति अंकित है उसमें देवेन्द्रकीर्ति आदिकी भट्टारक परम्पराको मालवाधीश कहा गया है । इससे मालूम पड़ता है कि चंदेरी पट्टको मालवा पट्ट भी कहा जाता था । यह भी एक ऐसा प्रमाण है जिससे स्पष्टतः इस तथ्य का समर्थन होता है कि चंदेरी पट्टके प्रथम भट्टारक देवेन्द्रकीर्ति ही रहे होंगे । उक्त प्रशस्ति इस प्रकार है । अथ संवत्सरे स्मिन् नृपतिविक्रमादित्य राज्ये प्रवर्तमाने संवत् १६६३ वर्षे चैत्र द्वितीयपक्षे शुक्ले पक्षे द्वितीया दिने रविवासरे "सिरोंजनगरे चन्द्रप्रभचत्यालये श्रीमूलसंघे बलात्कारगणे सरस्वतीगच्छे श्री कुन्दकुन्दाचार्यान्वये तत्परंपरायेन मालवादेशाधीश भट्टारक श्री श्री श्री देवेन्द्रकीर्तिदेवाः तत्पट्टे भट्टारकी त्रिभुवनकीर्तिदेवाः तत्पट्टे भट्टारक श्री सहस्रकीर्तिदेवाः तत्पट्टे भट्टारकश्री पद्मनंदिदेवा तत्पट्टे भट्टारक श्री जलकीर्ति नामधेया तत्पट्टे भट्टारकश्री श्री ललितकीर्तिदेवाः तत्शिष्य ब्रह्म बालचन्द्रमिद्रं ग्रन्थ लिष्यतं स्वपठनार्थं । सिरोंजके टोरीका दि० जैन मन्दिरमें वि० सं० सहस्रकीर्ति स्थानमें रत्नकीर्ति और पद्मनंदिके स्थान में कीर्ति के शिष्य भ रत्नकीर्तिने इस प्रतिमाकी प्रतिष्ठा कराई थी । उक्त प्रतिमालेख इसप्रकार है : सं० १६८८ वर्षे फागुन सुदि ५ बुधे श्री मूलसंघे बलात्कारगणे सरस्वतीगछे कुन्दकुन्दाचार्यान्वये भट्टारक श्री देवेन्द्र कीर्तिदेवास्तत्पट्टे भ० श्री त्रिभुवनकीर्तिदेवा तत्पट्टे श्री रत्नकीर्ति तत्पट्टे भ० १६८८ का एक प्रतिमा लेख है । उसमें चंदेरी पट्टके पद्मकीर्ति यह नाम उपलब्ध होते हैं । भ० ललित Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ श्री पद्मकीर्तिदेवा तत्पट्टे भ० यशकीर्तिदेवा तत्पट्टे भ० श्री ललितकीर्ति रत्नकीर्ति देवा तस्योमालवदेशे सरोजनगरे गोलाराडचैत्यालये गोलापूर्वान्वये - तस्य प्रतिष्ठायां प्रतिष्ठितं । यहाँके दो प्रतिमालेखोंमें भ० रत्नकीर्तिको मंडलेश्वर और मंडलाचार्य भी कहा गया है । लेख इस प्रकार है : सं० १६७२ फा० सु० ३ मूलसंघे भ० श्री ललितकीर्ति तत्पट्टे मंडलाचार्य श्री रत्नकीत्यु पदेशात् गोलापूर्वान्वये सं० सनेजा " । ये कहाँके मंडलाचार्य थे यह नहीं ज्ञात होता है । ये भी भ० ललितकीर्तिके पट्टधर थे । यह भट्टारक सम्प्रदाय पुस्तकसे भी ज्ञात होता है । इनके पट्टधर चन्द्रकीर्ति थे इसके सूचक दो प्रतिमालेख यहाँ भी पाए जाते हैं । चन्देरी पट्टके भट्टारकों की सूची इस प्रकार है । १ देवेन्द्रकीर्ति, २ त्रिभुवनकीर्ति, ३ सहस्रकीर्ति ४ पद्मनन्दी, ५ यशः कीर्ति, ६ ललितकीर्ति, ७ धर्मकीर्ति, ८ पद्मकीर्ति, ९ सकलकीर्ति और सुरेन्द्रकीर्ति । जान पड़ता है कि सुरेन्द्रकीर्ति चंदेरी पट्टके अन्तिम भट्टारक थे । इसके बाद यह पट्ट समाप्त हो गया । भट्टारकपद्मकीर्तिका स्वर्गवास वि० सं० १७१७ मार्गशीर्ष सुदि १४ बुधवारको हुआ था ऐसा चंदेरी खंदारमें स्थित उनके स्मारकसे ज्ञात होता है । सम्भवतः इसके बाद ही इनके पट्टपर भ० सकलकीर्ति आसीन हुए होंगे । 'भट्टारक सम्प्रदाय' पुस्तक पृ० २०५ में वि० सं० १७१२ और वि० सं० १७१३ के लेखोंमें इनके नामके जो दो लेख संगृहीत किए गए हैं वे दूसरे सकलकीर्ति होने चाहिए। मैंने चंदेरी और सिरोंज दोनों नगरों के श्री दि० जैन मन्दिरोंके प्रतिमालेखों का अवलोकन किया है । पर भ० सुरेन्द्रकीर्ति द्वारा प्रतिष्ठापित कोई मूर्ति या यंत्र वहाँ मेरे देखने में नहीं आया । हो सकता है इनके कालमें कोई पंचकल्याणक प्रतिष्ठा न हुई हो । उक्त दोनों नगरोंके मूर्ति लेखोंके अवलोकनसे प्रतीत होता है कि भ० धर्मकीर्ति के दूसरे शिष्य भ० जगत्कीर्ति थे । सम्भवतः सिरोंज पट्टकी स्थापना इन्होंके निमित्त हुई होगी। इनका दूसरा नाम यशकीर्ति भी जान पड़ता है । इनके पट्टधर त्रिभुवनकीर्ति और उनके शिष्य भ० नरेन्द्रकीर्ति थे । नरेन्द्रकीर्तिके पट्टाभिषेकका विवरण सिरोंजके एक गुटिकामें पाया जाता है। उसका कुछ अंश इस प्रकार : मुनिराज की दिक्ष्याको परभाव । श्रावक सब मिलि आनिके जैसो कियो चाउ ||६|| घनि नरेन्द्रकीर्ति मुनिरा । भई जगमें बहुत बढ़ाई || जहाँ पौरपट्ट सुखदाई । परवारवंस सोई आई ॥ वहुरिया मूर तहाँ साई । धनि मथुरामल्ल पिताई ।। माता नाम रजौती कहाई । जाके है घनश्यामसे भाई ॥ तप तेज महा मुनिराई । महिमा वनी जाई ॥ कहा कहीं मुनिराजके गुणगण सकल समाज । जो महिमा भविजन करे भट्टारक पदराज ।। भट्टारक पदराजकी कीरति सकल भवि आई । अलप बुद्धि कवि कहा कहै बुधिजन थकित रहाई ॥ विधि अनेक सो सहर सिरोंजमें भयो पट्ट अपना चारु | सिंघई माधवदास भवन ते निकसे महा महोच्छव सारु ॥ यहाँसे वस्त्राभूषणसे सुसज्जित कर चांदा सिंघईके देवालयमें ले गये । वहाँ सब वस्त्राभूषण उतारकर केशलोंचकर मुनिदीक्षा ली । उस समय १०८ कलशसे अभिषेक किया । सर्वप्रथम भेलसा के पूरनमल्ल बडकुर आदि ने किया । जगत्कीर्ति पद उधरन त्रिभुवनकीर्ति मुनिराई । नरेन्द्रकीर्ति तिस पट्ट भये गुलाल ब्रह्म गुन गाई || शुभकीर्ति, जयकीर्ति, मुनि उदयसागर, ब्र० परसराम, ब्र० भयासागर, रूपसागर, रामश्री आर्यिका बाई भौनी, चन्द्रामती, पं० रामदास, पं० जगमनि, पं० घनश्याम, पं० बिरधी, पं० मानसिंह, पं० जयराम ... परगसेनि भाई दोनों, पं० मकरंद, पं० कपूरे, पं० कल्याणमणि । Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवत् सत्रह से चालिस अन इक तह भयो । उज्वल फागुन मास दसमि सो मह गयो । पुनरवसू नक्षत्र सुद्ध दिन सोदयो । पुनि नरेन्द्रकीरति मुनिराई सुभग संजम लह्यो || वि० सं० १७४६ माघ सुदि ६ सोमवारको चांदखेडीमें हाडा माधोसिंह के अमात्य श्री कृष्णदास वघेरवालने आमेर के भट्टारक श्री जगत्कीर्तिके तत्त्वावधान में बृहत्पंचकल्याणक प्रतिष्ठा कराई थी । उसमें चंदेरी पट्टके भट्टारक श्री सुरेन्द्रकीर्ति भी सम्मिलित हुए थे । इस सम्बन्धकी प्रशस्ति चाँदखेडीके श्री जिनालय में प्रदेश द्वारके बाहर बरामदे एक स्तम्भपर उत्कीर्ण है । उसमें चंदेरी, सिरोंज और विदिशा ( भेलसा) पट्टको परवारपट्ट कहा गया है । उसका मुख्य अंश इस प्रकार है : चतुर्थं खण्ड : ३६५ ॥१॥ संवत् १७४६ वर्ष माह सुदि ५ षष्ठयां चन्द्रवासरान्वितायां श्री मूलसंघे बलात्कारगणे सरस्वतीगच्छे कुन्दकुन्दाचार्यान्वये सकलभूमंडलबलयैकभूषण सरोजपुरे तथा चेदिपुर- भद्दिलपुरवनंस परिवारपट्टान्वये भट्टारक श्री धर्मकीर्तिस्तत्पट्टे भ० श्री पद्मकीर्तिस्तत्पट्टे भट्टारक श्रीसककीर्तिस्तत्पट्टे ततो भट्टारक श्री सुरेन्द्रकीर्ति तदुपदेशात्" || मालूम पड़ता है कि चंदेरी और सिरोंज भट्टारक पट्टोंकी स्थापना परवार समाजके द्वारा ही की जाती थी, इसलिए इन पट्टोंको परवारपट्ट कहा गया है। इस नामकरणसे ऐसा भी मालूम पड़ता है कि इन दोनों पट्टोंपर परवार समाज के व्यक्तिको ही भट्टारक बनाकर अधिष्ठित किया जाता था। सिरोंजके लिए पट्टाभि - षेकका विवरण हमने प्रस्तुत किया ही है। उससे भी इसी तथ्य की पुष्टि होती है । विदिशामें कोई स्वतन्त्र भट्टारक गद्दी नहीं थी किन्तु वहाँ जाकर भट्टारक महीनों निवास करते थे और वह मुख्य रूपसे परवार समाजका ही निवास स्थान रहा चला आ रहा है, इसलिए उक्त प्रशस्तिमें भद्दलपुर (विदिशा) का भी समावेश किया गया है । चंदेरी पट्टकी अपेक्षा उत्तरकालमें सिरोंजपट्ट काफी दिनों तक चलता रहा इसकी पुष्टि गुनाके दि० जैन मन्दिरसे प्राप्त इस यंत्र लेखसे भी होती है । यंत्र लेख इसप्रकार है : सं० २८७१ मासोत्तममासे माघमासे शुक्लपक्षे तिथौ ११ चन्द्रवासरे श्रीमूलसंघे बलात्कारगणे सरस्वतीगच्छे कुन्दकुन्दाचार्यान्वये सिरोंजपट्टे भट्टार्कश्री राजकीर्ति आचार्य देवेन्द्रकीर्ति उपदेशात् ग्याति परिवारि राउत ईडरोमूरी चौधरी घासीरामेन इदं यंत्र करापितं । सिरोंज पट्टके ये अन्तिम भट्टारक जान पड़ते हैं । पौरपाट (परवार) भट्टारक श्री भट्टारक पद्मनंदी के तीन शिष्य थे - शुभचंद्र सकलकीर्ति और देवेन्द्रकीति । इनमें से भ० देवेन्द्रकीर्ति ने सबसे पहले गांधार (गुजरात) में भट्टारक पट्टकी स्थापना की थी। उसके बाद वे उस पट्टको रांदेर ले आये थे । यहीं पर उन्होंने विद्यानंदीको पट्टपर स्थापित करके वे स्वयं चंदेरी चले आये थे और यहाँ उन्होंने भट्टारक पट्टको स्थापित किया था । इसका विशेष विवरण मूर्तिलेख संग्रह ( मूलचंद किसनदास कापड़ियाने वीर सं० २४९० ता० १४-८-६४ ) गुजराती प्रकाशन देखनेको मिलता है । उसके कि वि० संवत् १४६१ में भ० देवेन्द्रकीर्तिने गांधारसे भट्टारक पट्टको लाकर रांदेर में स्थापित किया और भ० विद्यानंदी उसी पट्टको वि० संवत् १५१८ में सूरत ले आये । चंदेरीके पृ० ३५ पर लिखा Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ प्रतिमा लेखोंको देखनेसे यह भी पता लगता है कि श्री भ० देवेन्द्रकीर्ति अठसखा परवार थे। वह लेख इस प्रकार है 'संवत १५३२ वर्षे वैशाख सदी १४ गरी श्रीमलसंधे बलात्कारगणे सरस्वतीगच्छे नंदिसंघे कुन्दकुन्दाचार्यान्वये भ० श्री प्रभाचन्द्रदेव तं० श्री पद्मनंदिदेव त० शुभचन्द्रदेव भ० श्री जिनचंद्रदेव भ० श्री सिंहकीर्तिदेव चंदेरीमंडलाचार्य श्री देव्यंद्रकीर्तिदेव त० श्री त्रिभुवनकीर्तिदेव पौरपट्टान्वये अष्टन्वयेसाखनपु-समवेतस्य पुत्र"।' वे परवार थे इसकी पुष्टि चंदेरीके भट्टारक पट्टको परवार भट्टारक पट्ट कहा गया है इस बातसे होती है । इसकी पुष्टि प्रमाण हम 'चंदेरी-सिरोंज (परवार) पट्ट' इस लेखमें दे आये हैं । (देखो पृ० ४२) । इससे मालूम पड़ता है कि इस पट्ट पर बैठनेवाले जितने भी भट्टारक हुये हैं वे सब परवार थे। उनके नाम इस प्रकार है-भ० देवेंद्रकीति, त्रिभुवनकीति, सहस्रकीति पद्मनंदि, यशःकोति, ललितकीर्ति, धर्मकीर्ति, सकलकीर्ति और सुरेन्द्रकीर्ति । यहाँ इतना विशेष जानना चाहिये कि भ० ललितकीर्तिके एक शिष्यका नाम रत्लकीति था और रत्नकीर्तिके बाद उनके शिष्यका नाम चंद्रकीति था। - ये दोनों किस पट्टके पट्टधर भट्टारक थे इसका अभी तक मूर्तिलेखोंसे कोई पता नहीं चलता। इतना अवश्य है कि सिरोंजके कई मन्दिरोंमें ऐसे मूतिलेख अवश्य पाये जाते हैं जिनमें इनके नामोंका उल्लेख हुआ है । इससे ऐसा भी माना जा सकता है कि बहुत सम्भव है कि सिरोंजमें जिस परिवार पट्टको स्थापना हई थी कि वह इनके द्वारा ही प्रारम्भ किया गया जान पड़ता है। वैसे भ० धर्मकीतिके सकलकीतिके सिवाय एक दूसरे शिष्यका नाम जगतकीति था। इसलिये यह भी सम्भावनाकी जाती है कि सिरोंज पट्टकी स्थापना इन्हींके द्वारा हुई है। इनके उत्तराधिकारीका नाम त्रिभवनकीति था। इनके पट्टाभिषेककी एक चर्चा छंदोंके संकलनमें विशेष रूपसे देखनेको मिलती है। इसके लिए चंदेरी-सिरोंज (परवार) पट्ट शीर्षकसे लिखे गये लेखमें हमने उदधत की है। इनके उत्तराधिकारी शिष्य उत्तरोत्तर कौन-कौन हुए इसका विशेष उल्लेख इस समय उपलब्ध नहीं है । किन्तु संवत् १८७१ में राजकीर्ति नामक एक भट्टारक हुए हैं जिन्हें एक प्रतिमा लेखमें सिरोंज पट्टका अधिकारी कहा गया है। बहत संभव है कि ये ही सिरोंज पट्टके अन्तिम भट्टारक हों। इस भद्रारक परम्परामें जो भट्टारक धर्मकीति नामके हुए हैं, उन्होंने हरिवंशपुराणकी रचना अपभ्रंश भाषामें की ही थी साथ ही उनका लिखा हुआ एक धर्मपरीक्षा नामका एक ग्रन्थ भी पाया जाता है। यहाँ हमें दो बातें और विशेष रूपसे कहनी है-एक तो भट्टारक देवेन्द्रकीति शिष्य भट्टारक विद्यानंदिके विषयमें । ये सूरतपट्टके दूसरे भट्टारक थे, ये परवार थे, इनकी उस प्रदेशमें बहुत ख्याति रही है । सूरतके पास कातार नामका एक स्थान है जहाँपर इनके चरणचिह्न पादुकायें पाई जाती हैं । साथ ही इन्होंने संस्कृतमें सुदर्शनचरित्र नामके एक ग्रन्थकी रचना भी की है। दूसरे भट्टारक त्रिभुवनकीर्ति शिष्य भ० श्रुतकीर्तिके विषयमें कहना है । यद्यपि इनका भट्टारक सम्प्रदायग्रंथमें उल्लेख तो नहीं है फिर भी ये अपभ्रंश भाषाके असाधारण विद्वान हो गये है। इस भाषामें उनका लिखा हुआ एक पद्मपुराण नामका ग्रन्थ अनेक ग्रन्थागारोंमें पाया जाता है । इस प्रकार देखनेसे मालूम पड़ता है कि इन भट्टारकोंने बुन्देलखण्ड क्षेत्रमें धर्मप्रभावनामें अच्छा योगदान किया है। इनके विषयमें विशेष ऊहापोह अगर समय मिल सका तो आगे कभी करेंगे। इस समय तो संक्षेपरूप ये परवार भट्टारक हैं इस रूपमें दिया गया है। Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : ३६७ पद्मावती पुरवाल वखतराम शाहका 'बुद्धिविलास' ग्रन्थ हमारे सामने है। इसमें ८४ खाँगों (जातियों) का नामोल्लेख करते हुए पुरवार (परवार) जातिके सात भेद किये गये हैं-(१) अठसखा परवार, (२) चौसखा परवार, (३) छैसखापरवार, (४) दोसखा परवार, (५) सोरठिया परवार, (६) गांगड़ परवार और (७) पद्मावती परवार । उल्लेख इस प्रकार है। अठसक्खा फुनि है चौसक्खा, सेहसरडा फुनि है दो सक्खा । सोरठिया अर गांगड़ जानो, पद्मावत्या सप्तम मानो' ॥६८७॥ यद्यपि पौरपाट (परवार) जाति मूलमें एक है और उसके ये सात भेद है, पर ८४ जातियोंकी गणना में इन्हें स्वतन्त्र मान लिया गया है । 'प्राग्वाट इतिहास प्रथम भाग'२ की भूमिका पृष्ठ १४-१५ में जिन १६१ जातियांका उल्लेख किया गया है उनमें परवार जातिके कुल ५ नामोंका ही उल्लेख दृष्टिगोचर होता है। उस सूचीमें गांगड़ और सोरठिया ये दो नाम नहीं है । ८४ जातियोंका नामोल्लेख करनेवाली ३-४ सूचियाँ और भी हमारे पास हैं । उनमें भी सात नाम पूरे नहीं उपलब्ध होते, किसीमें किन्हीं नामोंको छोड़ दिया गया है और किसीमें किन्हीं नामोंको । मात्र पद्मावती नाम यह सब सूचियोंमें है। जिस मूल जातिसे इस जातिका निकास माना जाता है उसे आजसे हजार आठ सौ वर्ष पूर्व 'प्राग्वाट' भी कहा जाता था। के० ए० मुंशीने 'गुजरात नो नाथ' ३ नामक एक उपन्यास लिखा है, उसमें उन्होंने इस जातिके लिये पोरवाल, पुरवाल या परवार (पौरपट्ट) नामका उल्लेख न कर इसे 'प्राग्वाट' ही कहा है। ऐसा लगता है कि पूर्व कालमें इसके लिए 'प्राग्वाट' शब्दका व्यवहार बहुलतासे होता रहा है। भट्टारक देवेन्द्रकीर्तिने सूरतके पास रांदेरमें मूलसंघ आ० कुन्दकुन्द आम्नायके जिस भट्टारक पट्टपर विद्यानंदीको प्रतिष्ठित किया था उन्हें एक प्रशस्तिमें (अष्टशाखाप्राग्वाटवंशावतंसानाम्) अष्टशाखा प्राग्वाटवंशका आभूषण' कहा गया है । स्पष्ट है कि जिस परवार जातिको पहले प्राग्वाट कहा जाता था उसके ही वे ज्ञातिभेद है जिनका हम प्रारम्भमें ही उल्लेख कर आये हैं। तत्काल अ० भा० दि० जैन विद्वत्परिषदने स्व० डॉ० नेमिचन्दजी शास्त्री, ज्योतिषाचार्य द्वारा लिखित 'भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङमयका अवदान' ग्रंथ प्रकाशित किया है। उसमें पृष्ठ ४५२ से लेकर एक पट्टावलि दी हुई है। यह पट्टावलि स्व० आचार्य महावीरकीतिके एक गुटिकेसे ली गयी है। उसमें विक्रमको चौथी पाँचवीं शताब्दीमें हए सर्वार्थसिद्धि आदि महान् ग्रन्थोंके कर्ता आ० पूज्यपाद और विक्रमको दशवीं शताब्दीमें हुए आ० माधचन्द्रको पद्मावती पोरवाल उल्लिखित किया गया है। यह भी इस तथ्यको सूचित करता है कि पद्मावती पुरवार यह भी उस वंशका एक भेद है जिसे पूर्वमें प्राग्वाट कहा गया है। यह तो हम पहले ही लिख आये है कि शाह वखतरामने पुरवार या परवार जातिकी जिन सात खांपोंका उल्लेख किया है उनमें एक खांप पद्मावतीपुरवार भी है। परवार जातिमें १४४ मूर और १२ गोत्र प्रसिद्ध हैं इनमें वासल्ल गोत्रके अन्तर्गत एक पद्मावती मृर भी है । 'मूरको' शाख भी कहते हैं । जैसे अठशखा, १. प्रकाशन-राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान जोधपुर । २. प्राग्वाट इतिहास प्रकाशक समिति स्टेशन राणी (मारवाड़ राजस्थान)। ३. प्रकाशन-गुर्जर ग्रन्थरत्न कार्यालय गांधी मार्ग, अहमदाबाद । ४. 'भट्टारक सम्प्रदाय पृ० १७३' जैन संस्कृति संरक्षक संघ, सोलापुर । Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ चौसखा आदि । 'मूर' शब्द 'मूल' शब्दका अपभ्रंश रूप है। गुजरात और उसके आस-पासके प्रदेशमें अपने पूर्व पुरुषोंके मूल निवासका ज्ञान करनेके लिये इस शब्दका प्रयोग अब भी किया जाता है । अर्थात् जैसे महाराष्ट्रमें अपने पूर्व पुरुषोंके मूल निवासस्थानका ज्ञान करनेके लिए 'कर' शब्दका प्रयोग किया जाता है । जैसे फलटनकर, पंढरपुरकर आदि। उसी प्रकार गुजरात और उसके आस-पासके प्रदेशमें इसी अर्थमें 'मूल' शब्दका प्रयोग किया जाता है। परवारोंके जो १४४ 'मर' प्रसिद्ध है वे इसी बातके साक्षी है। जैसे जिस परिवारके पूर्व पुरुष ईडरमें रहते थे वे ईडरी मर कहे जाते हैं और जिस परवारके पूर्व पुरुष नारदनगरमें । नारदमरी कहे जाते हैं । पद्मावती परवाल या पद्मावती परवार यह नाम भी इसी तथ्यका द्योतक है। इतना अवश्य है कि यह एक स्वतन्त्र जाति बन जानेसे 'पद्मावती' यह शब्द भी जातिवाची नामके साथ जुड़ गया है । यह परवार जातिकी एक स्वतन्त्र उपजाति है। ये कतिपय ऐसे प्रमाण हैं जिनके अनुसार प्राग्वाट जातिके जितने स्वतन्त्र भेद-प्रभेद दृष्टिगोचर होते हैं वे सब पूर्वकालमें एक जातिके होनेसे सबन्धु रहे है। प्राग्वाट इतिहास पृ० ४४ में इन सबको नौ भेदोम विभाजित किया गया है । यथा-- (१) सोरठिया पौरवाल, (२) कपोला पौरवाल, (३) पद्मावती पौरवाल, (४) गूर्जर पोरवाल, (५) जांगड़ा पौरवाल, (६) नेमाड़ी और मलकापुरी पौरवाल, (७) मारवाड़ी पोरवाल, (८) पुरवार और (९) परवार । प्राग्वाट इतिहास १० ४६ में इस जातिके इतिहास पर संक्षेपमें प्रकाश डालते हुए लिखा है कि भिन्नमाल और उसके समीपवर्ती प्राग्वाट प्रदेशपर वि० सं० ११११ में जब भयंकर आक्रमण हुआ था, उस समय अपने जन-धनकी रक्षाके हेतु इस शाखाके प्रायः अधिकांश कुल अपने स्थानोंका त्याग करके मालवा प्रदेशमें और राजस्थानके अन्य भागोंमें जाकर बसे थे । इस शाखाके कुल राजस्थानमें बूंदी और हाजती, सपाड़ और ढ ढाड़पट्टोंमें, इन्दौर और आस-पासके नगरोंमें अधिकांशत: बसते हैं। लगभग सौ वर्षासे कुछ कुल दक्षिणमें बीडशहर, परण्डा नामक कस्बोंमें भी जा बसे हैं और वहीं व्यापार-धन्धा करते हैं । इस शाखामें भी जैन और वैष्णव दोनों मतोंके माननेवाले कुल हैं। जो जैन हैं वे अधिकतर दिगम्बर आम्नायके माननेवाले हैं । श्वेताम्बर आम्नायके मानने वाले कुल इस शाखामें बहुत ही कम हैं। इस शाखाके कुलोक गोत्र पीछेसे बने हैं।' __इस शाखामें आरम्भसे ही ऐसे पुण्य पुरुष होते आ रहे हैं जिनसे इस शाखाका गौरव बढ़ा है। पूर्वमें हम दो महान आचार्योंका नामोल्लेख कर आये हैं। आगे ऐसे भी श्रावक हो गये हैं जिन्होंने जिन-धर्मकी प्रभावनाके अनेक कार्य वि ये हैं। किसीने जिनालयका निर्माण कराया, किसीने जिनबिम्बकी प्रतिष्ठा कराई और किसीने ग्रन्थ रचना की। हमारे सामने सेठका कचा बडा मन्दिरमें विराजमान चौबीसी मूर्तिपट्ट (धातु)में अंकित एक ऐसा लेख है जिसमें इस शाखाको पनावती पौरपाटान्वयका कहा गया है। पूरा लेख इस प्रकार है संवत् १४४४ वर्षे वैशाख सुदी १२ सोमे दिने श्रीचन्द्र वाठदुर्गे चाहवाणराज्ये श्री अभयचन्द्रदेव सुपुत्र श्री जयचन्द्रदव राज्ये श्री काष्ठासंघे माथुरान्वये आचार्य श्री अनन्तकोति देवास्तत्पट्टे क्षेमकीर्तिदेवा पद्मावतोपौरपाटान्वये साहु माहण पुत्र सा• देवराज भार्या प्रभा पुत्रा पंच करणसोह १. आभास संभागमें भी इस शाखाके कुल बहुतायतसे पाये जाते हैं । वे सब दिगम्बर हैं । Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : ३६९ नरसीह हरिसिंह वोरसिंह रामसिंह एतैः कर्म-कर्मक्षयार्थं चतुर्विंशतिकाप्रतिष्ठा कारिता पंडितभास शुभं भवतु। इसमें मूर्तिप्रतिष्ठाकारको काष्ठासंघी कहा गया है। परन्तु मूलमें यह शाखा मूखसंघ कुन्दकुन्दान्वयी ही रही है । इस शाखाके प्रारम्भमें पद्मावती विशेषण लगा है, इससे पाठक यह न समझें कि ये पद्मावती देवीके उपासक रहे हैं । वस्तुतः इस शाखाका मूल निकाय पद्मावती नगरसे हुआ है इसलिए इस शाखाके नाममें पद्मावती विशेषण लगा हुआ है। ललितपुरके बड़े मन्दिरके शास्त्रागारमें कविताबद्ध चारुदत्त चरितकी हस्तलिखित एक प्रति पाई जाती है । उसकी रचना कवि भारामल गोलालारे और कवि विश्वनाथ पद्मावती पुरवार इन दोनोंने मिलकर की थी। अपनी प्रशस्तिमें कवि भारामल लिखते है नगर जहानाबाद रहाई । पद्मावती पुरवार कहाई । विश्वनाथ संगति शुभ पाय । तब यह कीनौ चरित बनाई ।। यह इस शाखाका संक्षिप्त उपलब्ध पुराना इतिहास है। Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धक्षेत्र कुण्डलगिरि भारतवर्ष आर्यावर्तका वह भाग है जहाँसे अवसर्पिणीके चौथे कालमें और उत्सर्पिणीके तीसरे कालमें अनंतानंत मुनि मोक्ष गये हैं व जाते रहते हैं और जाते रहेंगे, इसलिये इस देशके प्रायः सभी प्रदेशोंमें जैन सिद्ध क्षेत्रोंका पाया जाना निश्चित है। इस कालमें भगवान् महावीर स्वामीके मोक्षगमनके अनन्तर गौतम स्वामी, सुधर्माचार्य और जम्बूस्वामी मोक्ष गये है। ये तीनों अनुबद्ध केवली थे। त्रिलोक प्रज्ञप्तिके उल्लेखसे मालूम पड़ता है कि श्रीधर नामके एक मुनिराज श्री कुण्डलगिरिसे मोक्ष गये हैं । ये अननुबद्ध केवली थे, इसलिये अनुबद्ध केवलियोंमें इनको गणना नहीं की गयी है। पूर्वोक्त तीन केवलियोंसे ये भिन्न है । त्रिलोक प्रज्ञप्तिका वह उल्लेख इस प्रकार है कुण्डलगिरिम्मि चरिमो केवलणाणीसु सिरिधरो सिद्धो । चारणरिसीसु चरिमो सुपासचंदाभिधाणो य ॥४-१४७९॥ "केवलज्ञानियोंमें अन्तिम केवली, श्रीधर मनि कृण्डलगिरिसे सिद्ध हए तथा चारण ऋद्धिधारी ऋषियाम अन्तिम सुपार्श्वचन्द्र नामक ऋषि हुए" ___ यह त्रिलोक प्रज्ञप्तिका पाठ है। इसकी पुष्टि प्राकृतनिर्वाण भक्तिके "णिवणकुंडली वंदे'' (॥२६॥) पाठसे भी होती है। इसमें कहा गया है कि निर्वाणक्षेत्र कुण्डलगिरिसे जो मनि सिद्ध हए हैं उनकी मैं वन्दना करता हूँ। इसीके अनुरूप संस्कृत निर्वाण भक्तिमें भी कुण्डलगिरिको सिद्धक्षेत्र स्वीकार करते हए वह गिरि कहाँ पर है, इसका भी भले प्रकार निर्देश कर दिया गया है। संस्कृत निर्वाण भक्तिका वह पाठ इस प्रकार है द्रोणीमति प्रबलकुडलमेंढ़के च वैभारपर्वततले वरसिद्धकूटे । ऋष्याद्रिके च विपुलाद्रिबलाहके च विन्ध्ये च पौदनपुरे वृषदीपके च ॥२९॥ द्रोणीगिरि, कुण्डलगिरि, मुक्तागिरि कुण्डलगिरिका तल भाग सिद्धवरकूट ऋषिगिरि, विपुलगिरि, वागहकगिरि विन्ध्य, पोदनपुर और वृषदीपसे जो सिद्ध हुए उनकी मैं वन्दना करता हूँ। यह संस्कृत निर्वाण भक्तिका पाठ है। इसमें द्रोणगिरि और मुक्तागिरिके मध्यमें कुण्डलिगिरिका नाम आया है । आचार्य पूज्यपादका यह कथन सोद्देश्य होना चाहिये । उससे निश्चित होता है कि इन दोनों गिरियों के मध्यमें कहीं कुण्डलगिरि अवस्थित है। इस प्रकार उक्त तीन आगमिक उल्लेखोंसे हम जानते हैं कि इन आगमोंमें जिस कुण्डलगिरिको सिद्धक्षेत्र स्वीकार किया गया है, वह यही कुण्डलगिरि है और श्रीधर मुनिराज यहींसे मोक्ष गये हैं। प्रदेशका निर्णय इस प्रकार निर्वाण भक्तिके उक्त उल्लेखसे यह तो निर्णय हो जाता है कि दमोहके पासका कुण्डलगिरि ही श्रीधर स्वामीका निर्वाण स्थान है। फिर भी अन्य प्रमाणोंसे भी हम यह निर्णय करेंगे कि वह कुंडलगिरि दमोह जिलेमें ही अवस्थित है या उसका अन्य प्रदेशमें होना संभव है। आगे इसका सागोपांग विचार करते हैं। Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चैतुर्थ खण्ड : ३७१ पहले मध्यप्रदेशमें दमोहके पासके सिद्धक्षेत्रको कुण्डलपुर कहा जाता था, इसलिये भी कुण्डलगिरि कहाँ पर है यह विवादका विषय बना हुआ था। क्योंकि अभीतक कुंडलपुर नामके चार स्थान स्वीकार किये जाते रहे हैं। उनमेंसे प्रकृत कुण्डलपुर कहाँ पर है यह विचारणीय हो जानेसे यहाँ पर विचार किया जाता है। १. जहाँ भगवान् महावीर स्वामीका जन्म हुआ था, उसका नाम तो वास्तवमें कुण्डलग्राम है किन्तु लोकभाषामें उसे कुण्डलपुर कहा जाता है। कुछ आचार्योंने भी इसे कुण्डलपुर नामसे स्वीकार किया है। २. नालन्दाके निकट बड़ागाँवको कुण्डलपुर मानकर, उसे वर्तमानमें भगवान् महावीरका जन्म स्थान मानती है । इसलिए वहाँ एक जिन मन्दिर भी बना हुआ है। साधारण जनता वन्दनाकी दृष्टिसे वहाँ पहुँचती रहती है। ___३. एक कुंडलपुर सातारा जिलेमें स्थित है । पूनासे सातारावाले रेलमार्गपर किर्लोस्कर वाड़ीसे ५ मील पर यह स्थान स्थित है । यहाँ स्थित पहाड़ पर दो जिन मन्दिर भी बने हुए हैं, इसलिये यह तीर्थक्षेत्रके रूपमें माना जाता है। ४. मध्यप्रदेश दमोह जिलेके अन्तर्गत ३५ कि. मी० दूर ईशान दिशामें जो क्षेत्र अवस्थित है उसके पास कुंडलपुर नामका गाँव होनेसे, क्षेत्रको भी कुंडलपुर कहा जाता रहा है। पर वहाँ स्थित क्षेत्रका नाम वास्तवमें कुण्डलगिरि ही है। इस प्रकार कुंडलपुर नामके ये चार स्थान प्रसिद्ध हैं । इनमेंसे दो ही ऐसे स्थान हैं जो विचार कोटिमें लिये जा सकते हैं । एक महाराष्ट्रमें सातारा जिलेके अन्तर्गत कुण्डलपुर स्थान और म० प्र०में दमोह जिलेके अन्तर्गत कुण्डलपुर स्थान । इन दोनों स्थानोंपर जो पर्वत हैं उन पर जिन मन्दिर बने हुए हैं। इसलिये दोनों ही स्थान क्षेत्रके रूपमें प्रसिद्ध हैं । अब देखना यह है कि इन दोनों स्थानोंमेंसे सिद्धक्षेत्र कौन हो सकता है ? १. जैसाकि हम त्रिलोक प्रज्ञप्तिका प्रमाण उपस्थित कर आये हैं, उससे तो यही मालूम पड़ता है कि जो कुंडलाकार गिरि है वही सिद्धक्षेत्र हो सकता है, दूसरा नहीं। और इस बातको ध्यानमें रखकर जब हम विचार करते हैं तो इससे यही सिद्ध होता है कि दमोह जिलेमें कुंडलपुरके अतिनिकटका पहाड़ ही कुंडलगिरि सिद्धक्षेत्र होना चाहिए । यह गिरि स्वयं तो कुंडलाकार है ही, किन्तु इस गिरिसे लगकर कुण्डलाकार गिरियों की एक शृखला चालू हो जाती है। दमोहसे कटनीके लिये जो सड़क जाती है, उसपर अवस्थित जो प्रथम कुण्डलाकार गिरि है वही प्राचीन कालसे सिद्धक्षेत्र माना जा रहा है। इसलिये उस गिरिपर स्थित पूरे सिद्धक्षेत्रके दर्शन हो जाते हैं । किन्तु उससे लगकर जुड़ा हुआ जो कुण्डलाकार दूसरा गिरि मिलता है उसकी रचना भी ऐसी बनी हुई कि जिसके उससे मध्यमें सड़कसे चार-पाँच जिन मन्दिरोंके दर्शन हो जाते हैं। यही स्थिति तीसरे, चौथे और पाँचवें कुण्डलाकार गिरियोंकी है। मात्र उन गिरियोंपर स्थित जिन मन्दिरोंका दर्शन सड़क से उत्तरोत्तर संख्यामें कम होता जाता है। इसलिये इन गिरियोंकी ऐसी प्राकृतिक रचनाको देखकर यह निश्चय होता है कि त्रिलोक प्रज्ञप्तिमें जिस कुण्डलगिरि सिद्धक्षेत्रका उल्लेख है वह यही होना चाहिये। २. इंडियन एन्टीक्वेयरीमें नन्दिसंघकी एक पट्टावलि अंकित है, जिसे जैन सिद्धान्त भास्कर भाग १ ग्रंथ ४ पृ० ७९ स० १९१३ में मुद्रितकी गयी है। यह पट्टावलि द्वितीय भद्रबाहसे चाल होती है। इसमें बतलाया गया है कि विक्रम सं० ११४०में महा चन्द्र या माधवचन्द्र नामके जो पट्टधर आचार्य हुए हैं उनका मुख्य स्थान कुण्डलपुर (दमोह जिले) था । इनका पट्ट पर बैठनेका क्रमांक ५२ है। Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७२ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ यह भी एक प्रमाण है, इसलिए इससे भी यही सिद्ध होता है कि दमोह जिलेमें कुण्डलपुरके पासका कुण्डलगिरि १२वीं शताब्दीमें भी इसी रूपमें माना जाता रहा है। यहाँ जिस पटावलिका हमने उल्लेख किया है उसका सम्बन्ध सीधा गौतम गणधर तक पहुँचता है। यह पट्टावलि गौतमगणधरसे प्रारम्भ होती है फिर भी इस पट्टावलिको जो द्वितीय भद्रबाहूसे प्रारम्भ किया गया है उसका कारण यह प्रतीत होता है कि द्वितीय भद्रबाहुके कालमें ही बलात्कारगणकी स्थापना हो गयी थी। इसीलिये इस पटावलिको बलात्कारगणकी पटटावली भी कहा जाता है। पहिले तो पट्टधर जितने भी आचार्य होते थे वे सब मुनि ही होते थे। और यह परम्परा १३वीं शताब्दी तक अक्षुण्ण चालू रही आई। किन्तु वसंतकीर्ति मुनिके कालमें पट्टपर बैठने वाले मुनियों द्वारा वस्त्र रम्भ हो जानेसे'. वे भटटारक शब्द द्वारा अभिहित किये जाने लगे। इस पटटावलिको केवल भट्टारक पट्टावलि कहना उपयुक्त नहीं है । अतः १२ वीं शताब्दीमें कुण्डलगिरिके जो पट्टधर आचार्य महाचन्द्र हुए हैं वे भट्टारक न होकर मुनि ही थे, भट्टारक नहीं, यह स्पष्ट है । इतने विवेचनसे भी निश्चित हो जाता है कि दमोह जिलेका कुण्डलपुरके पासका कुण्डलगिरि ही सिद्धक्षेत्र है । त्रिलोकप्रज्ञप्तिमें जिस सिद्ध कुण्डलगिरिका उल्लेख है वह यही है, अन्य नहीं, अन्तिम केवली श्रीधर मुनिराज यहींसे मोक्ष गये हैं। ३. कुण्डलगिरि सिद्धक्षेत्र लगभग २५०० वर्ष पुराना है। यहाँ पहाड़ पर एक प्राचीन जिनमन्दिर है। इसे बड़े बाबाका मन्दिर कहते हैं। यहाँ एक कुण्डलपुर ग्राम के परिसर में और दूसरा कुण्डलगिरि पहाड़के तलभागमें दो मठाकार प्राचीन जिनमन्दिर भी बने हुए हैं। सरकारी पुरातत्त्व विभाग द्वारा इन मन्दिरोंको ब्रह्ममन्दिर कहा गया है । ये तीनों ६वीं शताब्दी या उसके पहलेके हैं इन्हें सूचित करनेवाला एक शिलापट्ट दमोह रेलवे स्टेशनपर लगा हुआ है। शिलापट्टमें जो इबारत लिखी गई है उसका हिन्दी रूप इस प्रकार है-दि० जैन तीर्थस्थान कुण्डलपुर । - जैनियोंका तीर्थस्थान कुण्डलपुर दमोहसे लगभग २० मील ईशानकी तरफ है । यहाँपर छठवीं सदीके दो प्राचीन ब्रह्ममन्दिर हैं। इनके सिवाय ५८ जैन मन्दिर हैं। मुख्य मन्दिरमें १२ फीट ऊँची पद्मासन महावीरकी प्रतिमा है । यहाँपर हर साल माघ महीनेके अन्तमें जैनियोंका बड़ा भारी मेला भरता है। KUNDALPUR "About 20 miles to the north east of Damoh is Kundalpur, A Scred Place of the Jains Besides two early Brahmanical temples of the 6th centrury A. D. There are 58 modern Jaina temples at this place. The principal temple contains 12 feet high Image of Mahavira in meditation." A very large fair is held here in the month of Magh (February-March) Every Year, Note : For site plan see drg No. R-36275. यह दमोह स्टेशनपर लगे हए शिलापट्टकी अविकल प्रतिलिपि है। उसमें ५८ जिनमन्दिरोंके साथ दो ब्रह्ममन्दिरोंका उल्लेख कर उन्हें पुरातत्त्व विभाग द्वारा छठवीं सदीका स्वीकार किया गया है। इतना अवश्य है कि ५८ जिनमन्दिरोंमें बडे बाबाका मख्य मन्दिर और दो ब्रह्ममन्दिर छठवीं सदीके है। शेष जिन मन्दिर १. भट्टारक सम्प्रदाय पृ० ९३ । Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : ३७३ अर्वाचीन हैं । इसलिये यहाँ 'बड़े बाबा' के मुख्य मन्दिर सहित दो ब्रह्म मन्दिरोंका परिचय दे देना इष्ट प्रतीत होता है। (क) 'बड़े बाबा' का जो मुख्य मन्दिर है उसका क्रमांक ११ है । जैसा उसका नाम है, उतना ही वह विशाल है । उसका गर्भालय पाषाण निर्मित है। पहले गर्भालयका प्रवेश द्वार पुराने ढंगका बहुत छोटा था । और तलभाग बहुत गहरा था । उसमें सिंहासनपर विराजमान जो 'बड़े बाबा की मूर्ति है, उसे कई शताब्दियों तक तीर्थकर महावीरकी मूर्ति कहा जाता रहा। गर्भालयके बाहर दीवालमें जो शिलापट्ट लगाया गया है, उसमें भी उसे भगवान् महावीरकी मूर्ति कहा गया है। किन्तु वस्तुतः यह भगवान् महावीरकी मूर्ति न होकर भगवान् ऋषभदेवको मूर्ति है। क्योंकि बड़े बाबाकी मूतिमें दोनों कंधोंसे कुछ नीचे तक बालोंको दो-दो लटें लटक रही है और आसनके नीचे सिंहासनमें भगवान् ऋषभदेवके यक्ष-यक्षि अंकित किये गये है । मूर्ति पद्मासन मुद्रामें १२ फुट ६ इंच ऊँची है और उसकी चौड़ाई ११ फुट ४ इंच है। इसके दोनों पार्श्व भागोंमें ११ फुट १० इंच ऊँचे खड्गासन मुद्रामें ७ फणी भगवान पार्श्वनाथके दो जिनबिम्ब अवस्थित हैं। साथ ही प्रवेश द्वारको छोडकर तीनों ओर दीवालके सहारे प्राचीन जिनबिम्ब स्थापित किये गये है। मूल नायक बड़े बाबा 'अर्थात् भगवान ऋषभदेवको छोड़ कर ये सब जिनबिम्ब दोनों ब्रह्ममन्दिरोंसे और बर्रट गाँवसे लाकर यहाँ विराजमान किये गये हैं। (क्षेत्रके अन्य जिनमन्दिरों में भी प्राचीन प्रतिमायें अवस्थित हैं । वे भी इन्हीं स्थानोंसे लायी गयी जान पड़ती है)। इस कारण गर्भालयकी शोभा अपूर्व और मनोज्ञ बन गयी है। क्षेत्रकी शोभा बड़े बाबासे तो है ही, अन्य भी ऐसी अनेक विशेषतायें हैं जिनके कारण यह क्षेत्र अपूर्व महिमासे युक्त प्रतीत होता है। इस कारण प्रत्येक वर्ष वहाँ माघ माहमें मेला लगता है। श्री बलभद्रजी 'मध्यप्रदेशके जैनतीर्थ' पृ० १८९ में लिखते हैं कि 'ध्यानसे देखनेपर प्रतीत होता है कि बड़े बाबा और पार्ववर्ती दोनों पार्श्वनाथ प्रतिमाओंके सिंहासन मूलतः इन प्रतिमाओंके नहीं है । बड़े बाबाका सिंहासन दो पाषाण खण्डोंको जोड़कर बनाया गया प्रतीत होता है। इसी प्रकार पार्श्वनाथ प्रतिमाओंके आसन किन्हीं खड्गासन प्रतिमाओं के अवशेष जैसे प्रतीत होते हैं।' किन्तु यह वस्तुस्थिति नहीं है। बड़े बाबाका पृष्ठभाग जिस शिलाको काटकर यह मूर्ति बनायी गयी है, उससे जुड़ा हआ प्रतीत होता है और यह हो सकता है कि सिंहासन दो पाषाण खण्डोंसे बनाया गया है। पर मेरी नम्र रायमें उसे उसी स्थानपर निर्मित किया गया है। बारीकीसे देखनेपर जिस आसनपर बड़े बाबा विराजमान है, वह अन्यत्रसे नहीं लाया गया है। वहाँ आनेवाले दर्शनार्थियोंका कहना है कि सिंहासनमें गोलकके लिये एक सुराक बना हुआ था। उस सुराकमें रुपया पैसा डालनेपर तलभागमें वह कहाँ चला जाता था, इसका आजतक पता नहीं चला; इस कारण अब वह सुराक बन्द कर दिया गया है। वह स्थान कुछ भाइयोंने हमें भी दिखाया था। इससे तो ऐसा ही प्रतीत होता है कि बड़े बाबाका जिनबिम्ब और सिंहासन आदि जो कुछ भी निर्मित हआ है वह वहीं हआ है। फिर भी हमारी राय है कि पुरातत्वविदों व इंजीनियरोंको बुलाकर इन सब बातोंकी समीक्षा एक बार अवश्य करा लेना चाहिये ताकि इस सम्बन्धमें होनेवाले भ्रमको दूर किया जा सके । (ख) प्रथम ब्रह्म मन्दिर कुण्डलगिरिकी तलहटीमें स्थित है । मैं अनेक भाइयोंके साथ उसके अभ्यन्तर भागका अवलोकन करनेके लिये वहाँ गया था। उनमें समाजके प्रसिद्ध विद्वान् श्री पं० जगन्मोहनलालजी शास्त्री भी थे। किन्तु मन्दिरके द्वारपर कुछ भाइयोंने ताला लगा रखा है। इसलिये उसके भीतर प्रवेश Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ करके उसके भीतर क्या है यह हम नहीं देख सके । फिर भी उन भाइयोंका कहना था कि मन्दिरके भीतर जो देवीकी मूर्ति है वह पद्मावती देवीकी ही है। (ग) दूसरा ब्रह्ममंदिर जिसे रुक्मिणी मठ भी कहा जाता है, वह भी छठी सदीका है । यह कुण्डलपुर ग्रामके परिसर में अवस्थित है। इसे रुक्मिणी मठ क्यों कहा जाता है, इसके पीछे एक इतिहास है । उसकी यहाँ विशेष चर्चा न करके मात्र इस मन्दिरका परिचय देना ही यहाँ मख्य है । यह ब्रह्मा मन्ति यहाँ मुख्य है । यह ब्रह्म मन्दिर जीर्णशीर्ण अवस्थामें है। वहाँ पहले जो जिनबिम्ब विराजमान थे, उन्हें यहाँसे ले जाकर बड़े बाबाके मन्दिरमें स्थापित कर दिया गया है । इस मंदिरके मध्य भागमें ३ हाथ ४ अंगुल चौड़ा शिलापट्ट है। उसमें अंकित आम्रवृक्षके मलमें भगवान नेमिनाथ सहित यक्ष-यक्षिणीकी एक मति प्रतिष्ठित है। यक्षिणीकी गोदीमें बालक है और दूसरा बालक आम्रवृक्षपर चढ़ता हुआ दिखाया गया है। इस ब्रह्ममन्दिर सिरदल रखा हुआ है। उसमें भी जैन मूर्तिर्या अंकित हैं। बड़े बाबाका मन्दिर तो समाजके अधिकारमें होनेसे उसकी भले प्रकार देख-रेख होती रहती है । परन्तु इन दोनों ब्रह्म मन्दिरोंकी नहीं होती । यद्यपि कुण्डलगिरिकी तलहटीमें जो ब्रह्ममंदिर है, उस पर अन्य भाइयोंने कब्जा अवश्य कर रखा है, परन्तु दूसरे ब्रह्म मन्दिरके समान इसकी भी समुचित देखरेख नहीं हो पाती । न तो समाजका इस ओर ध्यान है और न पुरातत्त्व विभागका ही। (घ) बड़े बाबाके मन्दिरका जो गर्भालय है उससे लग कर जो मण्डप है उसके मध्यमें एक चबूतरा बना हआ है । उस पर मध्यमें पुराने चरण चिह्न विराजमान हैं। वे कितने प्राचीन है, यह कहना कठिन है। पर जिस पाषाण खण्डको काटकर उन्हें बनाया गया है उसे देखते हुए ये चरण चिन्ह हजार आठ सौ वर्ष पुराने नियमसे होने चाहिये, ऐसा प्रतीत होता है। सम्भव है कि यहाँ पर सन् ११४० में महाचन्द्र नामके जो पट्टधर आचार्य हो गये हैं उनके अनुरोध पर हो, यह निश्चय होनेसे कि यही वह कुण्डलगिरि है जहाँसे श्रीधर स्वामी मोक्ष गये हैं, इन चरणचिह्नोंकी स्थापनाकी गयी है । उन पर 'कुण्डलगिरौ श्रीधर स्वामी' यह लिखा होनेसे भी यही प्रतीत होता है कि उन्होंने ही श्रीधर स्वामीके इन चरण चिह्नोंकी स्थापना कराई होगी। श्री पं. बलभद्रजीने 'मध्यप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ' के पृ० १९३ पर जो इन चरण चिह्नोंको १२-१३वीं शताब्दीका सूचित किया है, उससे भी इस बातकी सत्यता प्रमाणित होता है। (च) जैसा कि हम पहले सूचित कर आये हैं कि दोनों ब्रह्ममन्दिरोंमें जो प्रतिमाएँ लाई गई थीं उनमेंसे बहुत-सी प्रतिमायें तो गर्भालयमें ही स्थापित कर दी गई हैं। उनके आकार और निर्माण शैलीको देखते हुए उक्त कथनको स्वीकार कर लेने में हमें कोई आपत्ति नहीं दिखाई देती ।ये सब मतियाँ पद्मासन संख्यामें १४ है और प्रत्येक पुष्पवर्णी देव और चरमवाहक हैं । ये सब मूर्तियाँ कमसे कम उतनी प्राचीन प्रतीत होती हैं जितने प्राचीन ब्रह्ममन्दिर हैं। (छ) इनके सिवाय बरंट आदि स्थानोंसे लाई गई मूर्तियाँ अन्य मन्दिरोमें स्थापित की गई हैं। उनमें खड्गासन और पद्मासन दोनों प्रकारकी प्रतिमायें हैं। उदाहरणार्थ ८, ९, ११, १३, १४, १६, १९, २०, २९, ४० और ५० संख्याक जिनमन्दिरोंमें देशी पाषाण निर्मित प्रतिमायें विराजमान है। इसप्रकार ३, ५ और ६ संख्यक मंन्दिरोंमें देशी पाषाण निर्मित चरणचिह्न पधराये गये हैं। (ज) इन सब प्रमाणोंपर दृष्टिपात करनेसे यह स्पष्ट हो जाता है कि इस क्षेत्रका निर्माण ६वी सदीसे पहले ही हो गया था। यह ठीक है कि यहाँके मन्दिरोंमें बरंटसे देशी पाषाण निर्मित बहत-सी मूर्तियाँ लाकर प्रतिष्ठित की गयी हैं, परन्तु इससे क्षेत्रकी प्राचीनतामें कोई बाधा नहीं पड़ती। इनमें बहुत-सी मूर्तियाँ अंग Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थखण्ड : ३७५ भंग भी हैं । साथ ही बड़े मन्दिरकी परिक्रमाके पृष्ठ खुले भागमें चबूतरे पर दीवालसे लग कर बहुत-सी मूर्तियाँ यहाँ वहाँसे लाकर रखी हुई हैं । इससे भी उक्त तथ्यकी पुष्टि होती है । श्री डॉ० दरबारीलालजी कोठिया न्यायाचार्य ने 'अनेकान्त' वर्ष ८ माह मार्च ९९४६ किरण ३ में "कौन-सा कुण्डलगिरि सिद्धक्षेत्र है' शीर्षकसे एक लेख लिखा था । उसे पढ़कर पत्र द्वारा मैंने उन्हें ऐसे लेख न लिखनेका आग्रह किया था। उस समय जहाँ तक मुझे याद है, उन्होंने मेरी यह बात स्वीकार भी कर ली थी । किन्तु पुनः कुछ परिवर्तन के साथ उसी लेखको जब मैंने उनके अभिनन्दन ग्रन्थ में देखा तो मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ । यही कारण है कि मुझे इस लेख पर सांगोपांग विचार करनेके लिए विवश होना पड़ रहा है । डॉ० स० का प्रथम लेख सन् १९४६ के मार्च माह के अनेकान्त अंकमें प्रकाशित हुआ था । उसमें वे लिखते हैं कि सन् १९४६ के पूर्व विद्वत्परिषद् के कटनी अधिवेशनमें क्या दमोह जिलेका कुण्डलगिरि सिद्धक्षेत्र है इसका निर्णय करनेके लिये ३ विद्वानोंकी एक उपसमिति बनाई गई थी । उसी आधार पर अपने अनुसन्धान विचार और उसके निष्कर्षको विद्वानोंके सामने रखनेके लिये डॉ० साहबने उस समय वह लेख लिखा था । उनके अभिनन्दन ग्रन्थमें लिखे गये उनके एतद्विषयक इस दूसरे लेखमें भी उन्होंने इस विषयको 'अनुसन्धेय' भाव यह लेख लिखा है । अतः इस विषय पर सांगोपांग विचार करना क्रम प्राप्त है । यह तो त्रिलोक प्रज्ञप्ति ही स्वीकार करती है कि अन्तिम अननुबद्ध केवली श्रीधर स्वामी कुण्डलगिरिसे मोक्ष गये हैं । आचार्य पादपूज्य ( पूज्यपाद) ने भी स्वलिखित निर्वाण भक्तिमें कुण्डलगिरिको निर्वाणक्षेत्र स्वीकार किया है । परन्तु यह कुण्डलगिरि किस केवलीकी निर्वाणभूमि है यह कुछ भी नहीं लिखा है । यही स्थिति 'क्रियाकलाप' में संगृहीत प्राकृत निर्वाण भक्तिको भी है । इस प्रकार इन तीन उल्लेखोंसे यह तो स्पष्ट हो जाता है कि कुण्डलगिरि सिद्धक्षेत्र है और त्रिलोक प्रज्ञप्तिके उल्लेखसे भी यह सिद्ध हो जाता है कि कुण्डलगिरिसे अन्तिम अननुबद्ध केवली श्रीधरस्वामी मोक्ष गये हैं । अब विचार यह करना है कि वह कुण्डलगिरि सिद्धक्षेत्र किस प्रदेशमें अवस्थित है । आचार्य पूज्यपादने अपने स्वलिखित संस्कृत निर्वाण भक्तिके २९ या ९ संख्यक श्लोकमें द्रोणीगिरिके अनन्तर कुण्डलगिरिका उल्लेख करके बादमें मुक्तागिरिका उल्लेख किया है । साथ ही इसमें राजगृहीके पाँच पहाड़ोंमेंसे वैभारगिरि, ऋषिगिरि, विपुलगिरि और बागहकगिरिका भी उल्लेख किया है और इन सब पहाड़ोंको उस श्लोकमें निर्वाण भूमि स्वीकार किया है । इसी श्लोकमें यद्यपि अन्य सिद्ध क्षेत्रोंका उल्लेख भी दृष्टिगोचर होता है, प्रयोजन न होनेसे उन्हें यहाँ हमने अविवक्षित कर दिया है । इस उल्लेखसे यह स्पष्ट हो जाता है कि आचार्य पूज्यपादकी दृष्टिमें राजगृही के पाँच पहाड़ोंमेंसे चार पहाड़ ही सिद्धक्षेत्र हैं, पाण्डुगिरि सिद्धक्षेत्र नहीं है। उन्होंने अपने दूसरे लेखमें जो यह लिखा है कि 'पूज्यपादके उल्लेखसे ज्ञात होता कि उनके समय में पाण्डुगिरि जो वृत्त (गोल) है कुण्डलगिरि भी कहलाता था ' सो इस सम्बन्ध में हमारा इतना कहना पर्याप्त है कि इसकी पुष्टिमें उन्हें कोई प्रमाण देना चाहिये था । सभी आचार्योंने पाण्डुगिरि ही लिखा है । उन्होंने भी वही किया है । इससे यह कहा सिद्ध होता है कि उनके समय पाण्डुगिरि कुण्डलगिरि भी कहलाता था । प्रत्युत् उससे यही सिद्ध होता है कि उनकी दृष्टि स्वतन्त्र ये दो पहाड़ थे । ये चार पहाड़ सिद्धक्षेत्र हैं । इसका उल्लेख आ० पूज्यपाद रचित संस्कृत निर्वाण भक्तिमें ही है । यह उल्लेख न तो त्रिलोक-प्रज्ञप्ति में ही दृष्टिगोचर होता है और न प्राकृत निर्वाण भक्ति में ही । Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७६ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ किन्तु कोठियाजीका विचार है कि जब आ० पूज्यपादने राजगृहके पाँच पहाड़ोंमेंसे चारको सिद्धक्षेत्र माना है तो पाण्डुगिरि भी सिद्धक्षेत्र होना चाहिये और इसे सिद्धक्षेत्र सिद्ध करनेके लिए उन्होंने जो तर्क प्रणाली अपनायी है वह अवश्य ही विचारणीय हो जाती है। आगे इसी बातको ध्यानमें रखकर विचार किया जाता है वे अपने प्रथम लेखमें लिखते हैं कि 'जिस कुण्डलगिरिका नामोल्लेख पूज्यपाद स्वामी कर रहे है वह कौन-सा है और कहाँ है ? क्या उसके दूसरे भी नाम है ?" इतना लिखनेके बाद उन्होंने त्रिलोकप्रज्ञप्ति हरिवंश पुराण और धवला-जयधवलाके प्रमाण देकर पाँच पहाड़ोंका विशेष वर्णन प्रस्तुत किया है । त्रिलोक प्रज्ञप्तिके अनुसार ऋषिगिरि, वैभारगिरि, विपुलगिरि, छिन्नगिरि और पाण्डुगिरि ये पाँच पहाड़ोंके नाम हैं । धवला व जयधवलाके अनुसार पाँच पहाड़ोंके ये ही नाम है जो त्रिलोक प्रज्ञप्तिमें दिये गये हैं। मात्र हरिवंशपुराणके अनुसार छिन्नगिरिके स्थानमें बलाहकगिरि कहा गया है। शेष चार पहाड़ों के नाम वही है जो त्रिलोकप्रज्ञप्तिमें स्वीकार किये गये है। यहाँ इतना विशेष जानना कि त्रिलोकप्रज्ञप्तिमें पाण्डुगिरिका कोई आकार नहीं दिया गया है, किन्तु शेष उल्लेखोंमें उसे गोल लिखा है। एक बात यहाँ ध्यान देने योग्य है कि इन सभी ग्रन्थोंमें जो ये पाँच पहाड़ोंके नाम आये है वे उनका परिचय करानेके अभिप्रायसे ही आये हैं । वे सिद्ध क्षेत्र है, इस अभिप्रायसे उनका उल्लेख उन ग्रन्थोंमें नहीं किया गया है। इसलिए उन ग्रन्थोंका आधार देकर पाण्डुगिरिको सिद्धक्षेत्र ठहराना उपयुक्त प्रतीत नहीं होता। और त्रिलोकप्रज्ञप्तिमें जहाँ कुण्डलगिरिको श्रीधरस्वामीका निर्वाण क्षेत्र कहा गया है वह प्रकरण ही दूसरा है । वहाँ यह बतलाया गया है कि भगवान् महावीर स्वामीके मोक्ष जानेके बाद कितने केवली मोक्ष गये हैं। यहाँ इस भारतभूमिमें कितने सिद्धक्षेत्र हैं और वे कहाँ-कहाँ हैं यह नहीं बतलाया गया है । मात्र प्रसङ्गवश कुण्डलगिरि नामका उल्लेख आया है । इसलिए इसपरसे कुण्डलगिरिको पाण्डुगिरि सिद्ध करके उसे सिद्धक्षेत्र ठहराना उचित प्रतीत नहीं होता । यह वस्तुस्थिति है। . इसे दृष्टिओझल करके कोठियाजी प्रथम लेखमें लिखते हैं कि–'यहाँ यह ध्यान देने योग्य है कि बलाहकको छिन्न भी कहा जाता है। अतः एक पर्वतके ये दो नाम है और उल्लेख ग्रन्थकारोंने छिन्न अथवा बलाहक दोनों नामोंसे किया है। जिन्होंने बलाहक नाम दिया है। उन्होंने छिन्न नाम नहीं दिया और जिन्होंने छिन्न नाम दिया है उन्होंने बलाहक नाम नहीं दिया और अवस्थान सभीने एक-सा बतलाया तथा पंच पहाड़ोंके साथ उसकी गिनती की है । अतः बलाहक और छिन्न दोनों पर्यायवाची नाम हैं इसी तरह ऋष्यद्रिक और ऋषिगिरि ये भी पर्याय नाम हैं ।' आगे वे पुनः लिखते हैं अब इधर ध्यान दें कि जिन वीरसेन और जिनसेन स्वामीने पाण्डुकगिरिका नामोल्लेख किया है उन्होंने फिर कुण्डल गरिका उल्लेख नहीं किया इसी प्रकार पूज्यपादने जहाँ सभी निर्वाणक्षेत्रोंको गिनाते हए कुण्डलगिरिका नाम दिया है फिर उन्होंने पाण्डुकगिरिका उल्लेख नहीं किया । हाँ, यतिवृषभने अवश्य पाण्डुकगिरि और कुण्डलगिरि दोनों नामोंका उल्लेख किया है। लेकिन दो विभिन्न स्थानोंमें किया है । पाण्डुगिरिका तो पाँच पहाड़ोंके साथ प्रथम अधिकारमें और कुण्डलगिरिका चौथे अधिकारमें किया है। अतएव पाण्डुगिरि भिन्न कुण्डलगिरि अभीष्ट हो ऐसा नहीं कहा जा सकता । किन्तु ऐसा जान पड़ता है कि यतिवृषभने पूज्यपादकी निर्वाणभक्ति देखी होगी और उसमें पूज्यपादके द्वारा पाण्डुगिरिके लिए नामांतर रूपमें प्रयुक्त कुण्डलगिरिको पाकर इन्होंने कुण्डलगिरिका भी नामोल्लेख किया है। प्रतीत होता है कि पूज्यपादके समयमें पाण्डुगिरिको कुण्डलगिरि भी कहा जाता जाता था । अतएव उन्होंने पाण्डुगिरिके स्थानमें कुण्डलगिरि नाम दिया है।' Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : ३७७ ऐसा मानकर ही कोठियाजी । अपने इस कथनकी पुष्टिमें इस उल्लेखसे ऐसा लगता है कि पंच पहाड़ोंमें सभी पहाड़ सिद्धक्षेत्र हैं कुण्डलffरको पाण्डुगिरि समझकर उसे ( पाण्डुगिरिको ) सिद्धक्षेत्र सिद्ध कर रहे हैं जैसे छिन्नगिरिका दूसरा नाम बलाहकगिरि है वैसे ही पाण्डुगिरिका दूसरा नाम कुण्डलगिरि भी है यह सिद्ध करनेका प्रयत्न किया है। साथ ही कुण्डलगिरि कुण्डलाकार है और पाण्डु गिरि गोल है यह बता करके भी दोनों को एक लिखा है । किन्तु उनके ये तर्क तभी संगत माने जा सकते हैं जब अन्य किसी ग्रन्थमें वे पाण्डुपाण्डुगिरिका पर्यायनाम कुण्डलगिरि बता सकें। रही कुण्डलाकार और गोल आकारकी बात सो पाण्डुगिरि गोल होकर ठोस है और कुण्डलगिरि ऐसा ठोस नहीं है । बलाहक (छिन्न) पहाड़को अवश्य ही धनुषाकार बतलाया गया है । यदि पाण्डुगिरि भी धनुषाकार होता तो उसे गोल नहीं लिखा जाता। इसलिए जहाँ पाण्डुगिरिको कुण्डलगिरि ठहराना तर्कसंगत नहीं प्रतीत होता वहाँ पाण्डुगिरिको धनुषाकार ठहराना भी तर्कसंगत प्रतीत नहीं होता । इसलिए प्रकृतमें यही समझना चाहिये कि कुण्डलगिरि ही सिद्धक्षेत्र हैं पाण्डुगिरि नहीं । भले ही उसकी गणना राजगृहोंके पंच पहाड़ों में की गई हो । यहाँ इतना विशेष कहना है कि आ० वीरसेन और जिनसेनने प्रसंगवश पाँच पहाड़ोंके नाम गिनाये, सिद्ध क्षेत्रोंके नहीं । इसलिये उन्होंने उन नामोंमें कुण्डलगिरि न होनेसे उसका उल्लेख नहीं । तथा आ यतिवृषभ वीरसेनसे बहुत पहले हुए हैं । आगे परिशिष्ट लिखकर कोठियाजी लिखते हैं कि 'जब हम दमोहके पार्श्ववर्ती कुण्डलगिरि या कुण्डल " पुरकी ऐतिहासिकता पर विचार करते हैं तो उसके कोई पुष्ट प्रमाण उपलब्ध नहीं होते । केवल विक्रम की १७वीं शताब्दीका उत्कीर्ण हुआ एक शिलालेख प्राप्त होता है जिसे महाराज छत्रशालने वहाँ चैत्यालयका जीर्णोद्धार कराते समय खुदवाया था। कहा जाता है कि कुण्डलपुरमें भट्टाकरकी गद्दी थी । उस गद्दीपर छत्रशालके समकालमें एक प्रभावशाली मन्त्रविद्या के ज्ञाता भट्टारक कब प्रतिष्ठित थे तब उनके प्रभाव एवं आशीर्वादसे छत्रशालने एक बड़ी भारी यवन सेनापर काबू करके उसपर विजय पाई थी । इससे प्रभावित होकर छत्रशालने कुण्डलपुरका जीर्णोद्धार कराया था, आदि । उनके इस मतको पढ़कर ऐसा लगता है कि वे एक तो कभी कुण्डलपुर गये ही नहीं और गये भी हैं। तो उन्होंने वहाँका बारीकी से अध्ययन नहीं किया है । वे यह तो स्वीकार करते हैं कि छत्रशालके कालमें वहाँ एक चैत्यालय था और वह जीर्ण हो गया था । फिर भी वे कुण्डलगिरिको ऐतिहासिकताको स्वीकार नहीं करते । जबकि पुरातत्त्व विभाग कुण्डलगिरिकी ऐतिहासिकताको ८वीं शताब्दी तकका स्वीकार करता गया है । उसके प्रमाण रूपमें कतिपय चिह्न आज भी वहाँ पाये जाते हैं । और सबसे बड़ा प्रमाण तो भगवान् ऋषभदेव ( बड़े बाबा ) की मूर्ति ही है । उसे १८वीं सदीसे १०० वर्ष पुरानी बताना किसी स्थानके इतिहासके साथ न्याय करना नहीं कहा जायगा । जिन लोगोंका क्षेत्र से कोई सम्बन्ध नहीं, जो जैनधर्मके उपासक भी नहीं, वे पुरातत्वका भले प्रकार अनुसन्धान करके क्षे त्रको छठीं शताब्दीका लिखें और उसके प्रमाणस्वरूप दमोह स्टेशनपर एक शिलापट्ट द्वारा उसकी प्रसिद्धि भी करें और हम हैं कि उसका सम्यक् प्रकार से अवलोकन तो करें नहीं । वहाँ पाये जानेवाले प्राचीन अवशेषों को बुद्धिगम्य करें नहीं फिर भी उसकी प्राचीनताको लेखों द्वारा संदेहका विषय बनावें यह प्रवृत्ति अच्छी नहीं कही जा सकती । कोठियाजीने अपने दोनों लेखोंमें प्रसंगतः दो विषयोंका उल्लेख किया है । एक तो निर्वाणकाण्डके विषयमें चर्चा करते हुए उन्होंने लिखा है कि 'प्रभाचन्द्र ( ११वीं शती) और श्रुतसागर (१५वीं - १६वीं शती) के ४५ Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७८ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ मध्य में बने प्राकृत निर्वाणकाण्डके आधारसे बने भैया भगवतीदास (सं० १७४१ ) के भाषा निर्वाणकाण्डमें जिन सिद्ध व अतिशय क्षेत्रोंकी परिगणना की गई है उसमें भी कुण्डलपुरकी सिद्ध क्षेत्र या अतिशय क्ष ेत्रके रूपमें परिगणित नहीं किया गया। इससे यही प्रतीत होता है कि यह सिद्धक्षेत्र तो नहीं है अतिशय क्षेत्र भी १५ वीं-१६वीं शताब्दीके बाद प्रसिद्ध होना चाहिये ।' यह कोठियाजीका वक्तव्य है । इससे मालूम पड़ता है कि उन्होंने निर्वाणकाण्डके दोनों पाठोंका सम्यक् अवलोकन नहीं किया है | निर्वाणकाण्डका एक पाठ ज्ञानपीठ पूजांजलिमें छपा है । उसमें कुल २१ गाथाएँ हैं । दूसरा पाठ क्रियाकलापमें छपा है । उसमें पूर्वोक्त २१ गाथाएँ तो हैं ही उनके सिवाय ८ गाथाएँ और हैं । इसलिये कोठियाजीका यह लिखना कि निर्वाणकाण्डमें कुंडलगिरिका किसी भी रूपमें उल्लेख नहीं है, ठीक प्रतीत नहीं होता । निर्वाणकाण्डका जो दूसरा पाठ मिलता है उसकी २१ + ५ = २६वीं गाथामें 'णिवणकुंडली वंदे' इस गाथा. चौथे पाद (चरण) द्वारा निर्वाण क्षेत्र कुण्डलगिरिकी ही वन्दना की गई है । यहाँ 'णिवण' पद निर्वाण अर्थको सूचित करता है और 'कुण्डली' पद कुण्डलगिरि अर्थको सूचित करता है । 'विवण' पदमें 'आइमज्झतवण्णसरलोवो' इस नियमके अनुसार 'व्' व्यंजन और 'आ' का लोप होकर 'णिवण' पद बना है जो प्राकृत के नियमानुसार ठीक है । रही भैया भगवतीदासके भाषा निर्वाणकाण्डकी बात सो उन्हें २१ माथावाला निर्वाणकाण्ड मिला। इसलिये यदि उन्होंने भाषा निर्वाणकाण्डमें किसी भी रूपमें कुण्डलगिरिका उल्लेख नहीं किया तो इससे यह कहाँ सिद्ध होता है कि वह निर्वाणक्षेत्र नहीं है । आप प्राकृत या भाषा निर्वाणकाण्ड पढ़िये, उनमें यदि राजगृहीके पाँच पहाड़ों मेंसे वैभार आदि चार पहाड़ों को सिद्धक्षत्र रूपमें स्वीकार नहीं किया गया है तो क्या यह माना जा सकता हैं कि उक्त चार पहाड़ सिद्धक्षेत्र नहीं ही हैं । वस्तुतः सिद्धक्ष ेत्रों या अतिशय क्षेत्रोंके निर्णय करनेका यह मार्ग नहीं है । किन्तु इस सम्बन्ध में यह मान कर चला जाता है कि जिन आचार्यको जितने सिद्धक्षेत्रों या अतिशय क्षेत्रोंके नाम ज्ञात हुए उन्होंने उतने सिद्धक्षेत्रों और अतिशय क्षेत्रोंका संकलन कर दिया । दूसरे सोनागिरिके विषयमें चर्चा करते हुए उन्होंने अपने प्रथम लेखके अन्त में लिखा है कि 'अत: मेरे विचार और खोज से कुण्डलगिरिको सिद्धक्षेत्र घोषित करने या कराने की चेष्टा की जायगी तो एक अनिवार्य भ्रान्त परम्परा इसी प्रकारकी चल उठेगी जैसी कि वर्तमान केरीसिदीगिर और सोनागिरकी चल पड़ी है ।' उसीमें हेर-फेर करके जो उनका दूसरा लेख उनके अभिनन्दन ग्रन्थमें छपा है उसके अन्तमें वे लिखते हैं कि 'अतः मेरे विचार और खोजसे दमोह के कुण्डलपुर या कुण्डलगिरिको सिद्धक्ष ेत्र घोषित करना जल्दबाजी होगी और एक भ्रान्त परम्परा चल उठेगी । ' इसप्रकार कोठियाजीके ये दो उल्लेख हैं । पहले उल्लेख में तो उन्होंने वर्तमान केरीसिदीगिरि और सोनागिरको भी ले लिया है और दूसरे उल्लेखमें इन दोनोंको छोड़ दिया है । इन दो उल्लेखोंसे ऐसा लगता है कि पहले तो वे केरीसिदीगिर, सोनागिर और कुण्डलगिरि इन तीनोंको सिद्धक्षेत्र नहीं मानते रहे । और बादमें उन्होंने केरी सिदीगिर और सोनागिर को तो सिद्धक्षेत्र मान लिया है । मात्र कुण्डलfrost सिद्धक्ष ेत्र माननेमें उन्हें विवाद है । पर किस कारण से उन्होंने केरीसिदी गिर और सोनागिरको सिद्धक्षेत्र मान लिया है इस सम्बन्धमें वे मौन हैं। मात्र कुण्डलगिरिको सिद्धक्षेत्र न माननेमें उन्होंने जो तर्क दिये हैं वे कितने प्रमाणहीन हैं यह हम इसी लेखमें पहले ही स्पष्ट कर आये हैं । अतः हमारे लेखमें दिये गये तथ्योंके आधारपर यही मानना शेष रह जाता है कि सब ओरसे विचार करनेपर कुण्डलगिरि भी सिद्धक्षेत्र सिद्ध होता है । Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : ३७९ अब केवल बड़े बाबाके गर्भालयके बाहर दीवालपर एक शिलापट्ट में जो प्रशस्ति उत्कीर्ण है उसे अविकल देकर उससे जो तथ्य सामने आते हैं उनपर प्रकाश डाल देना क्रमप्राप्त है। प्रशस्तिका वह रूप इस प्रकार है सम्वत १७५७ वर्षे माघसूदी १५ सोमवासरे । संवत्सरे पर्वत-वाणयुक्ते सप्तशते चैव सहस्रमेके । श्रीमाघमासे सितपूर्णिमायां श्रीचन्द्रवारे च मघानक्षत्रे ॥१॥ याते यदा विक्रमराज्यकाले तदान्वये श्री जिनमन्दिरे वै। , कृत समाप्तं बहुपुण्यहेतुः श्रीवर्धमानस्य जगद्गुरोः हि ॥२॥ मूलसंघे बलात्कारगणे गच्छे सरस्वत्याः । यो बभूव मुनिः श्रीमान् कुन्दकुन्दौ मुनिश्वरः ॥३॥ तस्यान्वये च संजातो ज्ञानवान गुणसागरः । मनस्वी संघसंपूज्यो यश कीर्तिमहामुनिः ॥४॥ पट्टे तदीये ललितादिकीतिः ज्ञानी सुधीः श्रीजिनतत्ववेदी । संसारभीतो जिनमार्गदेशी सराधिपैजितपादपदमः ।।५।। तत्पट्टधारी जिनधर्मनिष्ठः श्रीधर्मकीतिः शुभज्ञानमूर्तिः । श्रीरामदेवस्य पुराणकर्ता ज्ञानी विवेकी च हितोपदेशी ॥६॥ तत्पट्टपंकेरूहे भानुमूर्तिः पद्मालयः श्रीमुनिपद्मकीत्तिः । दमी व्रती सत्त्वहितोपदेशी संसारपाथो निधितारसेतुः ।।७।। तत्पुण्यभोक्ता गुणवान सुधीरः श्रीशब्दशब्दार्णवपारप्राप्तः । सुधीः तपस्वी सुसुरेन्द्रकीर्तिः दयावगाही च क्षमी मनस्वी ।।८।। तच्छिष्ययातो सूचन्द्रकीतिः दमी क्षमी श्री"..""गणोयः । सुरेन्द्रकीर्तिः स्वगुरोपदेशात् आदाय भिक्षाटनद्रव्यभारम् ।।९।। कारापितं तेन जिनेश्वरस्य श्रीसन्मतेः मंगलकारणस्य । जीर्ण समालोक्य महामनोज्ञम् श्रीनूतनं पूण्यविवर्धनाय ।।१०।। धर्मसागरो यदा टीलाग्रामे स्वायुःक्षयं कृत्वा किंचित् वेदिकादिकं न्यूनं चैत्यालयं विहाय स्वर्ग गतः तदा त्वागत्य नभिसागरेण ब्रह्मचारिणां विदुषां स्वधर्मस्य गुरुवेऽधुना वेदादिकं सर्वं पूर्ण कारापयित्वा इदम् संवत्सरम् लिखित्वा स्थापितम् ।। श्रीमहाराजाधिराज्ञः काशीश्वरगहिरवारान्वयस्य प्रचण्डशासनस्य अखिलावनीभूतशतखंडकरणस्य सकलप्रवलावनीपालसमूहमस्तकातिमालाचुंबितचरणारविंदस्य जिनधर्ममहिमानिरतचेतसः प्रबलतरकठोरभुजदण्ड-विशिष्टनिजविग्रहस्य षट्दर्शनविशिष्टाभ्यासागमसंभाषणकरणसद्धर्मसंभाषणसमर्थस्य याजिनः शूरवीरस्य देवशास्त्रगुरुः (पूजन) तत्परस्य श्रीसमशासनस्य सकलसंयतसंयुक्तप्रजा (जनस्य) चैत्यालयस्य निर्मापितं । शुभम् भवतु मंगलम् । जिसे भद्रारक सम्प्रदाय ग्रन्थमें जेहरटशाला कहा गया है वह वास्तवमें जेहरटशाखा न होकर चंदेरी शाखा है। यह शाखा भट्टारक देवेन्द्रकीतिसे प्रारम्भ होती है। इसके छठे पट्टधर भट्टारक ललितकीर्ति थे। उसी पट्टपर बैठनेवाले ७वें भट्टारक धर्मकीर्ति और ८वें भट्टारक पद्मकीर्ति हुए हैं । धर्मकीर्तिने ही श्रीरामदेव Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८० : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ पुराणकी रचना की है। यह पट्ट मूलसंघ कुंदकुंदाम्नायके अन्तर्गत सरस्वतीगच्छ बलात्कारगणके आम्नायको माननेवाला था। चांदखेड़ीके एक शिलालेखमें इसे परवार भट्टारक पट्ट भी कहा गया है। श्री भट्टारक पदमकीतिके समकक्ष दूसरे भट्टारकका नाम भी चन्द्रकीर्ति था। सम्भवतः ये ( के पट्टधर भट्टारक थे । चंदेरी पट्टके १०वें भट्टारक श्री सुरेन्द्रकीर्ति थे। उन्होंने ही अपने गुरु श्री सुरेन्द्रकीर्तिके उपदेशसे भिक्षाटन द्वारा बड़े बाबाके मन्दिरका जीर्णोद्धार करानेका विचार किया था। बादमें उनकी आयु पूर्ण हो जानेपर जो वेदी आदिका कार्य थोड़ा न्यून रह गया था उसे नमिसागर ब्रह्मचारीने पूरा कराया। जिस समय यह कार्य सम्पन्न हो रहा था बुन्देलखण्डके प्रसिद्ध राजा छत्रसाल वहीं रह रहे थे। कारण कि मुसलमानोंके आक्रमणसे त्रस्त होकर वहाँ उन्हें बहुत काल तक रहना पड़ा। इससे प्रभावित होकर उन्होंने कुण्डलगिरिके तलभागमें एक विशाल सरोवरका निर्माण कराया और श्री मंदिरके लिये अनेक उपकरण भेंट किये। उनमें दो मनका पीतलका घण्टा भी था। बड़े बाबाके मंदिरके बाहर दीवालमें लगे हये विशालपट्टका यह सामान्य परिचय है। इससे इतना ही ज्ञात होता है कि वहाँ कुंडलगिरिके ऊपर एक प्राचीन जिनमंदिर था, उसमें जो बड़े बाबाकी मूर्ति विराजमान थी उसे ब्रह्मचारी नमीसागरने भगवान् महावीरकी मूर्ति समझकर इस शिलालेखमें बड़े बाबाको भगवान् महावीरकी मूर्ति कहा है। यह जिनमंदिर और दोनों ब्रह्ममंदिर इस लेखसे मालूम पड़ता है कि उसी कालमें प्रसिद्धिमें आये हैं और उसके फलस्वरूप वहाँ जनताका आना-जाना प्रारम्भ हुआ है। इस लेखका सार यह है कि बड़े बाबाका मंदिर और दोनों ब्रह्ममन्दिर ६वीं शताब्दी या उसके पूर्व के हैं। फिर भी क्षेत्ररूपमें उनकी प्रसिद्धि यद्यपि १२वीं शताब्दीमें हो गयी होगी तो भी घोर जंगल होनेसे वहाँ जनताका आना-जाना रुका हुआ था। बादमें जब बुन्देलखण्डके प्रसिद्ध महाराजा छत्रसालको मसलिम साम्राज्यपर विजय पानेके लिये कुछ कालतक यहाँ रहना पड़ा तबसे यह क्षेत्र प्रसिद्धिमें आया और वन्दनाकी दृष्टिसे जनताका आना-जाना प्रारम्भ हुआ। क्षेत्रपर जो मन्दिर निर्मित हए हैं उनके बादमें बननेका यही कारण है। Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहार क्षेत्र : एक अध्ययन मैं काफी समय पूर्व मवई ग्रामसे बैलगाड़ी द्वारा श्री अतिशयक्षेत्र अहारजीकी वन्दनाके लिए गया था। श्रीयुत पं० श्रीजगन्मोहनलालजी शास्त्री और मेरे बहनोई सा० के लघु भ्राता श्री लाला परमानन्दजी सर्राफ मेरे साथ थे । क्षेत्रकी सुषमा अवर्णनीय है। इससे थोड़ी दूर पर मदनेशसागर नामसे प्रसिद्ध एक बृहत् सरोवर है। क्षेत्रके चारों ओर वनराजि फैली हुई है। इससे इस क्षेत्रकी शोभा द्विगुणित हो गई है। इस बीच इतना अधिक काल बीत जाने पर भी क्षेत्रका मनोहारी वह भव्य स्वरूप इस समय भी प्रत्यक्ष-सा भासित हो रहा है। १. अन्वय या जाति परम्परा इस क्षेत्रपर वर्तमानमें जितने भी मूर्तिलेख उपलब्ध हैं उनमें जातिके अर्थमें तीन नाम आये हैं-१. अन्वय, २, वंश और ३. जाति । इनमेंसे प्रायः अधिकतर लेखोंमें अन्वय शब्द बहुतायतसे पाया जाता है। वि० सं० १५२४ के एक लेख में वंश शब्द आया है तथा वि० सं० २०वीं शताब्दीके कई लेखोंमें जाति शब्द आया है । लगता है कि प्राचीन कालमें जातीय अहंकारके विषसे धार्मिक क्षेत्रको अछूता रखनेके अभिप्रायसे जातिशब्दका व्यवहार नहीं के बराबर होता रहा है। यहाँके लेखोंमें अन्वय या जातिवादी जिन नामोंका उल्लेख हुआ है वे हैं-१. गृहपति (गहोई), २. मेडवाल-मइकतवाल, मड़वाल, या मेडलवाल, ३. पौरपाट (परवार), ४. पुरवार, ५. खंडेलवाल, ६. माधुव, ७. लंबकंचुक, ८. गोलापूर्व, ९. गोलाराड्, १०, जैसवाल या जायसवाल, ११. गर्गराट्, १२. कुटक, १३. अवधपुरा, १४. वैश्य, १५. माथुर, १६. देउवाल और १७. सोहितवाल । इनमें कई नाम तो ऐसे हैं जिनके अस्तित्वका अब पता ही नहीं चलता। जैसे माध, कुटक, वैश्य, माथुर, देउवाल और सोहितवाल । हम देवगढ़के विषयमें तो कुछ भी लिखनेकी स्थितिमें नहीं है । मुख्यतया ललितपुरका समाज उसकी देख-रेख करता है । वहाँका ऐतिहासिक सर्वेक्षण कराकर वहाँ शिलापट्रोंपर और मूर्तियोंपर पाई जानेवाली लेख आदि सामग्रीको संकलित कराकर वह प्रकाशित कर दे इस दिशामें थोडा भी सक्रिय नहीं जान पड़ता । एक जर्मनी विद्वानने वहाँका गहरा अध्ययनकर जर्मनी भाषामें एक अनुसंधान ग्रन्थ अवश्य लिखा है। हमने प्रयत्न भी किया था कि वह हमें मिल जाय तो उसका अनुवाद कराकर प्रकाशित करा दें, पर उसमें हम सफल नहीं हो सके । गृहपति-पहले जिन अन्वयोंका हम नाम निर्देश कर आये हैं उनमें एक जाति गृहपति है । इस जातिके गृहस्थों द्वारा प्रतिष्ठित कराये गये कई जिनबिम्ब यहाँ विराजमान हैं। उनकी लेखांक संख्या २, ९, ३७, ४६, ५१, ५३, ५५, ६३, ६४ और ६६ है । यहाँ भ० शान्तिनाथकी खङ्गासन जो विशालकाय प्रतिमा विराजमान है उसकी प्रतिष्ठा भी इसी अन्वयके परिवार द्वारा कराई गई है। यहाँसे नातिदर बानपुर नगरके बाह्य परसिरमें जो भव्य रचना निर्मित हुई है उसे मूर्तरूप देनेवाला भी यही परिवार है । इस अन्वयमें जो गोत्र प्रचलित हैं उनमेंसे अधिकांश वही हैं जो पौरपाट (परवार) अन्वयमें पाये जाते हैं। गृहपति यह शब्द अर्थ गर्भ प्रतीत होता है। पाणिनिने अपने व्याकरण शास्त्रमें इस शब्दका प्रयोग गृहस्थके अर्थमें किया है। किन्तु उत्तर कालमें इसका प्रयोग जातिके अर्थमें होने लगा है। Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८२ सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थं (२) दूसरी जैसवाल जाति है। १२८ लेखोंमेंसे इस अन्वयके क्रमांक १२, १५, २०, (२) २१, २४, २६, २९, ४३, ४४, ५२ (२) ६२ और ११२ कुल १५ मूर्तिलेख है। क्रमांक १५ संख्यांक मूर्तिलेखमें इस अन्वयका दूसरा नाम जायसवाल भी अंकित है । वर्तमान में इस अन्वयका एक भी घर बुंदेलखण्ड में नहीं पाया जाता। हो सकता है कि ११वी, १२वीं शताब्दिमें इस अन्वयका मुख्य निवास आगरा सम्भागके समान बुन्देलखण्ड भी रहा होगा। (३) तीसरी जाति गोलापूर्व हैं । इस अन्वयके अहारजीमें क्रमांक ११, २२, २५, ३२, ३४, ३८, ४०, ४१, ५८, ६०, ६४, ८०, ९०, १०१, १०८, १११, आदि २५ मूर्तिलेख है। इन मूर्तिलेखोंमें ३२ संख्यांक लेख वि० सं० १२०२ का और १९ संख्यांक लेख वि० सं० १२०३ का है। बहोरीबन्द गाँवमें भ० शान्तिनाथके पादपीठपर जो लेख अंकित है वह भी लगभग इसी समयका है । इससे इतना तो स्पष्ट ज्ञात हो जाता है कि लगभग १२वीं - १३वीं शताब्दिसे यह सम्भाग इस अन्वयका मुख्य निवास स्थान बना चला आ रहा है। दक्षिणका एक प्रदेश पुराने कालमें गोल्लदेश के नामसे प्रसिद्ध रहा है। यदि इस अन्वयका निकास राजनैतिक या धार्मिक क्रान्तिवश उसी प्रदेशसे हुआ निश्चित हो जाता है तो १०वीं ११वीं शताब्दिक आस-पास इस अन्वयके परिवार वहाँसे आकर महोवा सम्भागमें आकर बसे होंगे यह माना जा सकता है । अभी यह अनुसन्धानका विषय है । ऐतिहासिकोंको इस ओर ध्यान देना चाहिये । (४) चौथी जाति खण्डेलवाल है। इस क्षेत्रपर इस संख्याक छह प्रतिमा लेख पाये जाते हैं । १६ संख्यांक एक अभिहित किया गया है। इससे इस अन्वयका विकास खण्डेला यह निश्चित करने में सहायता मिलती है। जिस समयके में लेख हैं, उस समय अन्वयके परिवार इस सम्भाग में आकर बस गये होंगे ऐसा प्रतीत होता है । अन्वयके ६ १६, ४८, ६५, ७० और ९७ प्रतिमालेख में तो इसे खण्डेलान्वय नामसे भी नगर और उसके आस-पास के प्रदेशसे हुआ है। व्यापाराविके निमित्तसे इस (५) पांचवीं जाति पौरपाट (परवार) है। इस क्षेत्रपर ०५, ४२५० और १०२ लेख ऐसे हैं जिनमें इस अन्वयका पुराना नाम पौरपाट ही अंकित है। इनके सिवाय ११५ संख्याक एक प्रतिमालेख ऐसा अवश्य है जिसमें इस अन्वयका वर्तमान में प्रचलित नाम परवार लिखा गया है। इन प्रतिमा लेखोंमें १०० और १०२ संख्याक दो लेख ऐसे अवश्य हैं जिनमें क्रमशः पुरवार और पौरवाल नाम उल्लिखित हैं । इन दोनों शब्दोंका अर्थ परवार अन्वयके अर्थमें भी हो सकता है। वैसे पुरवार और पौरवाल नामसे प्रख्यात दो अलग जातियाँ बन गई हैं । कहींके किन्हीं परिवारोंने यहाँ आकर जिनबिम्ब प्रतिष्ठा कराकर यहीं विराजमान कर दी हों यह भी सम्भव है। वैसे परवार, पोरवाल पद्यमावतीपुरवाल, पुरवार और जांगड़ा पोरवाल मूलमें एक अन्वयके ही नाम हैं। इस अन्वयका मूल निवास स्थान गुजरात और मेवाड़का कुछ भाग प्रागवाट देश था, इस कारण इसका पुराना नाम प्राग्वाट भी रहा है। यह बाहरसे आकर मुख्यतया चंदेरी सम्भाग में आकर बसी है । इसी कारण इस अन्वयके बहुत ही कम लेख अहारक्षेत्रमें पाये जाते हैं, क्योंकि टीकमगढ़ और उसके आसपास के प्रदेशमें इस अन्वयका फैलाव बादमें हुआ है। (६) एक जातिका नाम मेडवाल है । इसके लिए लेखक ४ में मेडवालान्वय, लेखांक २७ से मइडतवालान्वय, लेख ३३ में मेडतवंश और ले० ४९ में मडवालान्वय अंकित है । सम्भवतः ये चारों नाम एक ही अन्वयके लिए आये जान पड़ते हैं। खंडवा के जिनमन्दिरकी छपर वि० सं० १२४२ का एक खण्डित जिनबिम्ब रखा हुआ है। उसकी आसनपर 'मइडतबालगुर्जरावे' 'कित है। इससे इस अन्वयका मूल नाम मेहत या मइड नामके साथ इसका सम्बन्ध गुजरातसे भी जान पड़ता है। Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : ३८३ मारवाड़ में एक नगरका नाम मेड़ता है। इसलिए जान पड़ता है कि इस नगरके नामपर ही इस अन्वयका नाम मेड़तवाल पड़ा होगा और इस अन्वयके जो परिवार गुजरातमें बसते होंगे उनकी गुजरात अन्वयके अन्तर्गत परिगणना होने लगी होगी। परवार अन्वयके जो गोत्र प्रचलित हैं। उनमें एक गोत्रका नाम माडिल्ल गोत्र है । वर्तमानमें कोई मेडतवाल नामकी जाति तो दृष्टिगोचर होती नहीं । यदि ये माडिल्लगोत्री परवार ही मेडनवाल हों तो कोई आश्चर्य नहीं है । यह अनुमानमात्र है । माडिल्लगोत्रका सम्बन्ध माडूसे भी हो सकता है। (७) इस पुस्तिकामें ले० १७ गर्गरटान्वय और ले० ७१में गर्गराटान्वय ये दो नाम आये हैं । 'गर्ग' यह अग्रोतक (अग्रवाल) अन्वयका एक गोत्र है । 'गर्ग' इस नामका पाणिनि व्याकरणमें भी उल्लेख हुआ है। 'गर्ग' नामके साथ 'राट शब्द जुड़नेका यह कारण प्रतीत होता है कि जिस प्रदेशमें मख्यतया इस मोत्रके परिवार निवास करते होंगे उसे ही इन लेखोंमें गर्गराट कहा गया है। (८) इस पुस्तिकामें ले० २३, ७६ और ७८ ऐसे ३ प्रतिमालेख उपलब्ध होते हैं जिनमें अवधपुरान्वय यह नाम अंकित है । अवधपुरान्वयके नामसे एक जाति अवश्य रही है । सम्भवतः वर्तमानमें जो श्री जिनतारणतरणके अनुयायी अयोध्यावासी अन्वयके परिवार बुन्देलखण्डमें बसते है वे पहले कभी अवधापुरा नामसे पुकारे जाते रहे हों तो कोई आश्चर्य नहीं। (९) इस पुस्तिकामें गोलाराड् अन्वय (गोलात्वारे) का ले० १२ संख्याक एक ही प्रतिमालेख उपलब्ध होता है । इस अन्वयका मुख्य निवास स्थान भिण्ड-भदावर सम्भाग है। इस कारण इस अन्वयके अधिक प्रतिमालेख इस क्षेत्रपर नहीं पाये जाना स्वाभाविक है, क्योंकि इस अन्वयके बहुत ही कम परिवार धीरे-धीरे इस प्रदेशमें आकर बसते गये हैं। इस पुस्तिकामें ले० ७ और ५० में माधुवान्वयका, ले० ३५ में कुटकान्वयका, ले० २९ और ५१ में क्रमशः वैश्यान्वय और वैश्यवालान्वयका ले० ५६ में माथुरान्वयका और लेख १२९ में सोहितवालान्वयका भी उल्लेख दृष्टिगोचर होता है । इन अन्वयोंके ये ऐसे नाम हैं जो इस समय अनुसन्धानके विषय बने हुए हैं। पुराने कालमें जितने अन्वय (जातियाँ) प्रचलित रहे हैं उनमेंसे वर्तमानमें कितने अन्वयोंका अस्तित्व है और कितने नामशेष हो गये इस और व्यक्तिका तो छोड़िये किसी संस्थाका ध्यान भी नहीं गया है । सम्भवतः भ वष्यमें इस कमीको अनुभव करके समाजका ध्यान इस ओर चला जाय । यदि ऐसा हो सके तो यह समाजको बहुत बड़ी सेवा होगी ऐसा मैं मानता हूँ। २. भट्टारक परम्परा (१०) बुन्देलखण्डमें भट्टारक परम्पराका बहुत बादमें उदय हुआ है, अतः जिन प्रतिमा-लेखोंमेंसे जिनमें इस परम्पराका उल्लेख दृष्टिगोचर होता है उनमेंसे ऐसे ४६ ही लेख उपलब्ध होते हैं। उदाहरणार्थ लेखांक ७३में भट्टारक माणिक्यदेव और गुण्यदेवके नाम आये हैं। इन्होंने वि० सं० १२१३ से इस क्षेत्रपर एक जिनविम्बकी प्रतिष्ठा कराई थी। ये दोनों किस स्थानके पट्टपर अवस्थित थे यह कहना कठिन है । ले० ९७ और १०९ में भ० जिनचन्दका नाम आया है। ये मूलसंघ कुन्दकुन्द आम्नायकी दिल्ली-जयपुर शाखाके पट्टाधीश थे । बिम्बप्रतिष्ठा आदि कार्यों द्वारा धर्मप्रभावनामें इनका बड़ा योगदान रहा है। इन्होंने सिद्धान्तसार ग्रन्थकी रचना भी की है । लेखांक १०७ में भ० धवलकीर्तिका नाम आया है। उक्त प्रतिमालेख वि० सं० १७१३ का है । इस पुस्तिकाके अनुवादकने इस नामके साथ सकलकीतिका नाम और जोड़ दिया है। ऐसा उन्होंने किस आधार पर किया है यह कह सकना कठिन है । सकलकीति चंदेरी पटके भट्टारक थे। हो सकता है कि प्रतिमा लेखमें असावधानीसे यह नाम छूट गया हो। लेखांक १२५ में Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८४ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ धर्मकीति तथा उनके शिष्य, प्रशिष्य शीलसूत्र और ज्ञानसूत्रके नाम आये हैं। भ० धर्मकीतिके प्रशिष्य ज्ञानसूत्रने वि० सं० १६४२ में पैराजाबादमें मूलसंघ कुन्दकुन्द आम्नायके अन्तर्गत चौकोर यन्त्रकी प्रतिष्ठा कराई थी। ले००५ में भ० जगन्द्रषेणका नाम आया है। ये वि० सं० १६८८ में अवस्थित थे। लेख ऋटित हो जानेसे विशेष जानकारी नहीं मिल सकी। ले० १२७ में भ० धर्मकीर्तिका नाम आया है। जिस बिम्ब पर यह लेख है उसकी प्रतिष्ठा वि० सं० १६८३ में हुई थी। स्पष्ट है कि ये उस समय चंदेरी परवार भट्टारकपट्टके पट्टाधीश थे । अपभ्रंशमें लिखित एक हरिवंशपुराण इनकी अमर कृति है। ले० १२५ में भ० सकलकीर्तिका नाम आया है ये भी चंदेरी परवार भट्टारक पट्ट के पट्टाधीश रहे हैं। इन्होंने ही वि० सं० १७२० में इस बिम्बकी प्रतिष्ठा कराई थी। ले० १२८ में विशालकीर्ति और उनके शिष्य भ. पद्मकीतिका नाम आया है ये दोनों भट्टारक मूलसंघ कुन्दकुन्द आम्नायके अन्तर्गत लालूरशाखाके पट्टाधीश थे । ३. मुनि, आर्यिका, पण्डित परम्परा (११) इस पुस्तिकाके लेख २६ में सिद्धान्तश्री सागरसेन आयिका जयश्री. रिषि रतनऋषि ये तीन नाम आये है । यह लेख वि० सं० १२१६ का है। लेख ३१ में पण्डितश्री विशालकोति आर्यिका त्रिभुवनश्री शिष्यणी पूर्णश्री और धर्मश्रीके नाम आये हैं। इनमें विशालकीर्ति किसी भट्रारकके पंडित मालूम देते हैं । ले० ३५ में पण्डित लक्ष्मणदेव शिष्य आर्यदेव आर्यिका लक्ष्मश्री ऐलिका चारित्रश्रीके नाम आये हैं। इनमें लक्ष्मणदेव और आर्यदेव कहींके भट्टारक पंडित मालम देते हैं। ले० ३६ में पण्डित श्रीजसकीति तथा शीलदिवाकरनी पद्मश्री और रत्नश्रीके नाम आये है। इनमें भी जसकोति कहींके भट्रारक पंडित जान पड़ते हैं। ले० ४४ में सिद्धान्तश्री सागरसेन आर्यिका जयाश्री और दयाश्रीके नाम आये हैं। इनमें सागरसेन मनि होने चाहिये। ले० ७७ में पण्डित महवर्म और आर्यिका श्रीमती शिवणीके नाम आये हैं। तथा ले० ८८ में सिद्धान्ती देवश्रीका नाम आया है। ये मुनि होने चाहिये। ये सब लेख वि० सं० १२१५ के आसपास के हैं। इससे पता लगता है कि उस कालमें भट्टारकोंके आश्रयसे मुनि और आर्यिका और पंडित रहते रहे हैं और वे जिनबिम्ब प्रतिष्ठा आदि कार्यों में सहयोग करते रहे हैं। ४. आम्नाय (१२) इस पुस्तिकामें सब मिलाकर १२८ लेख संकलित हैं। कुछ लेख ऐसे भी हैं जिनपर क्रमांक अंकित नहीं है। इन सब लेखोंमें सबसे प्राचीन लेख वि० सं० ११५८ का है। इसमें ऐसे बहुत कम लेख हैं जिनमें आम्नायका उल्लेख किया गया है। फिर भी इस प्रदेशमें चिरकालसे मूलसंघ कुन्दकुन्द आम्नाय ही प्रचलन रहनेसे यहाँ अन्य आम्नायका कभी भी प्रचार नहीं हो सका। अब काल बदला हुआ है। समाजमें अपने मूलसंघ आम्नायका गौरव घटता हुआ प्रतीत होता है। कई ऐसे विद्वान भी देखे जाते हैं जो तत्कालीन प्रतिष्ठा और लाभको सामने रखकर मूलसंघ आम्नायको भूलसे गये हैं । कलिकाल है, आगे क्या होगा, कहा नहीं जा सकता। यह 'प्राचीन शिलालेख' पुस्तिकाके आधारपर लिपिबद्ध किया गया अहारक्षेत्रका यह संक्षिप्त इतिहास है । इसका पुराना नाम मदनेशसागरपुर (ले० १) मालूम पड़ता है। इस लेख में वानपुर आनन्दपुर और वसुहाटिका ये तीन नाम और आये है। इस क्षेत्रका नाम अहारजी कैसे प्रचलित हुआ यह कहना कठिन है। इस पस्तिकामें इस नामका उल्लेख करनेवाला सबसे पहला प्रतिमा लेख वि० सं० १८८१ का है। इसका लेखांक ९१ है । इस लेख में 'अहारमें ये' मुद्रित हुआ है । मूल पाठ 'अहारमध्ये' होना चाहिये । अस्तु अब इस क्षेत्रके सर्वांगीण विकासकी ओर पूरे समाजका ध्यान आकर्षित हुआ है यह प्रशंसा योग्य है। यह हमारा पुराना सांस्कृतिक वैभव है । इसकी भले प्रकार सम्हाल करनी चाहिये । Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जिन-तारण-तरण और उनकी कृतियाँ श्री जिन तारण-तरण बुन्देलखण्ड और मध्यप्रदेशकी विभूति थे। जब चन्देरी नगरमें भट्टारक परम्पराका उदय हुआ, इनके उदय और धर्म प्रचारका वही समय है । वे प्रतिभाशाली, भगवान् कुन्दकुन्द द्वारा प्ररूपित वीतराग मार्गका अनुसरण करनेवाले थे। अपनी दिव्य वाणी द्वारा व्यवहार-निश्चयस्वरूप वीत राग मोक्षमार्गका वे अपने जीवनके अन्तिम क्षण तक प्रचार करते रहे। इसी तथ्यको सूचित करते हए वे पण्डित पूजाके अन्तमें कहते हैं एतत सम्यक्त्वपूज्यस्य, पूजा पूज्य समाचरेत । मुक्तिश्रियं पथं शुद्धं व्यवहार-निश्चय शाश्वतं ॥३२।। इस गाथामें वे मुक्तिश्रीकी प्राप्तिके व्यवहार-निश्चयस्वरूप शाश्वत शुद्ध मोक्षमार्ग पर चलनेका उपदेश देते हुए कहते हैं कि सब प्रकारके मल-दोषोंसे रहित पूज्य सम्यग्दृष्टिके योग्य पूजा करनी चाहिए । जो वर्तमानमें मुद्रित उक्त गाथा मिलती है उसे हमने थोड़ा परिवर्तन करके लिखा है, क्योंकि तीनों ठिकानेसार ग्रन्थोंके अवलोकनसे यह आभास मिलता है कि उत्तर कालमें भाषा और मल विष लेखकोंकी कृपासे मूल ग्रन्थोंमें भाषाकी दृष्टिसे भारी परिवर्तन हुआ है। इसमें सन्देह नहीं कि वे ग्रन्थ अभी तक सुरक्षित बने रहे । भारी छानबीनके बाद भी इनकी रचनाओंकी प्राचीन प्रतियाँ हम उपलब्ध सके । अस्तु, इसमें सन्देह नहीं कि स्व० ब्रह्मचारी श्री शीतलप्रसादजीने प्रत्येक ग्रन्थका ही नहीं, प्रत्येक गाथाका शब्दानुवाद करके जैन समाजका असाधारण उपकार किया है। शिक्षा, धर्म, साहित्य, वर्तमानपत्र और समाज ऐसा कोई अंग नहीं जिसे उन्होंने अपने लेखन और प्रचारका अंग न बनाया हो । वे कर्मठ कार्यकर्ता थे। सोते-जागते उनके जीवनका प्रत्येक क्षण प्रत्येक अंगको पूर्तिके लिये निश्चित था। श्री जिन तरण-तारणस्वामीको प्रकाशमें लानेका अधिकतर श्रेय भी उन्हींको है। वर्तमान कालीन साधारण मत-भेदको गौण करके देखा जाय तो उनका ही सर्वप्रथम ध्यान श्री तरण-तारणस्वामीजी रचित इस अमूल्य सम्पत्तिकी ओर गया और उनके माने गये १४ ग्रन्थोंमेंसे ९ ग्रन्थोंका शब्दानुवाद करके उन्हें प्रकाशमें लाये। वे वर्तमानकालमें हमारे बीच में नहीं हैं । पर उनकी पुनीत स्मृति चिरकाल तक बनी रहेगी इसमें सन्देह नहीं है । २. तीन ठिकानेसार ग्रन्थ स्वामीजीकी रचनाओंसे उनके जीवन पर कुछ प्रकाश पड़े इसके लिये तो उनकी कृतियोंका सूक्ष्म अध्ययन आवश्यक है। छद्मस्थवाणीमें जो कुछ गूढ़ भाषामें कहा गया है उसका ऊहापोह हम श्री ज्ञान समुच्चयसारकी प्रस्तावनामें कर आये हैं। किन्तु उनकी रचनाओंका इस दृष्टिसे अभी भी सम्यग् अध्ययन आवश्यक है। जो तीन ठिकानेसार ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं उनमें जो-जो सूचनाएं की गई हैं उनपर विस्तृत प्रकाश तो योग्य समय आनेपर ही कर सकेंगे। तत्काल तीन बत्तीसीयोंके सम्बन्धमें जो सूचनाएं की गई हैं उनकी सांगोपांग चर्चा यहाँ हम कर देना चाहते हैं। १. हमें इस ग्रन्थकी एक प्रतिकी उपलब्धि श्रीयत् ब्र० गुलाबचन्दजीके पाससे मल्हारगढ़ निसईजीसे हुई। यह गुटका ग्रन्थ है। इसकी लम्बाई लगभग १९ अंगुल और चौड़ाई १० अंगुल है। पत्र संख्या १३८ है। Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८६ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ ठिकानेसार ७९ पत्रसे भी आगे है। ८०वें पत्रसे १०८ तक सूची तथा विशेष विवरण है। १०९ पत्रसे १३८ पत्र तक ठिकानेसार सम्बन्धी तथा दूसरे विषयोंका संकलन है। इसकी लिपि द्वि० भादों सुदी १४ शनिवार सन् १८९०को कुन्डावासी टीकारामने की है । २. दूसरा ठिकानेसार गंजबासौदामें प्राप्त हुआ। इसकी लम्बाई १९ अंगुल तथा चौड़ाई ९ अंगुल है । कुल पत्र संख्या ४२ है। इसकी लिपि जेठ सुदी ८ सम्वत् १९६९ में की गई है। ३. तीसरा ठिकाने सारकी प्राप्ति खुरई (सागर) चैत्यालयसे हई। इसकी लम्बाई लगभग १३ अंगुल, चौड़ाई ९ अंगुल और पत्र संख्या ९८ है। पत्र संख्या ८ में विवरण व सूची है। शेष पत्रोंमें विशेष विषयोंका संकलन है । इनपर पत्र संख्या अंकित नहीं है। इसके लिपिबद्ध होनेकी वही तिथि सम्वत् है जो मल्हारगढ़ निसईके गुटिकाकी है । लेखकका नाम भी वही है। इन तीनों ठिकानेसार ग्रन्थोंमें विषयका संकलन एक क्रमसे नहीं है। किन्तु खुरई चैत्यालय और मल्हारगढ़ निसईजीसे प्राप्त दोनों ठिकानेसार ग्रन्थों की लिपिकी तिथि और लिपिकार ये एक ही हैं। इससे इस बातका तो पता चलता है कि सम्भव है खुरई चैत्यालयकी प्रतिको देखकर मल्हारगढ़ निसईजीके गुटिकाकी प्रतिलिपि की गई है क्योंकि खुरई चैत्यालयका गु टिका कुछ प्राचीन लगता है । इतना अवश्य है कि विषयके संकलनमें लिखानेवालेकी रुचिको ध्यानमें रखा गया है। जिस ठिकानेसारके आधारसे ये तीनों प्रतियाँ तैयार की गई हैं वह कहीं हैं या नहीं इसका अभी तक कहीं पता नहीं चल सका । ये तीनों प्रतियाँ किन्हीं प्राचीन प्रतियोंकी लिपि है, इसका लिपिकारने एक दोहा लिखकर उल्लेख भी किया है । दोहा इस प्रकार है जैसी प्रत देखी हमन, तैसी लई उतार । हमको दोष न दीजिये, बुधजन लीजो सुधार । ३. तीनों बत्तीसियोंके विषयमें तीनों ठिकानेसार ग्रन्थोंमें तीनों बत्तीसियोंके विषयमें जो उल्लेख मिलते हैं उनकी चर्चा करना यहाँ इष्ट हैं । मुद्रित बड़े गुटिकामें प्रथम बत्तीसी मालारोहण छपी है। इसके बाद पण्डित पूजा और इसके बाद कमलबत्तीसी छपी है। मालारोहणका श्री जिनतारण-तरण स्वामीके अनुयायियोंमें विशेष स्थान है। विवाहकी सम्पन्नता इसीके पाठसे की जाती है । इसकी सूचना गंजबासौदाकी प्रतिसे होती है । इसमें कहा गया है माला करेसं रजपुत्र व्याहण चले नृत्यरंज तिनिके समय मालारोहिणी उत्पन्न भई । पत्र सं. ३५ । इससे पता चलता है कि किसी राजपुत्रके विवाहके समय मालारोहिणी बत्तीसी लिखी गई थी। किन्तु मल्हारगढ़ निसईजीकी प्रति पत्र सं० १२ में यह उल्लेख मिलता हैखिमलासे पद्मकमलकी बेटी मनसिरिमाला उत्पन्न भई । परवर मैडीसी चौधरी नाऊनपुरको । ३६ । साथ ही इसी गुटिकाके पत्र संख्या ११५ में यह उल्लेख मिलता है अस्थान खिमलासौ पद्म कमनजू को प्रसाद भयौ । सुहगंसि रमन फूलना पहली गाथा प्रसाद पद्मकमलको । आचरी की गाथामें सूहगावती रुइया जिनको प्रसाद ।।११।। किन्तु यह फूलनाओंके समयके निर्णयका प्रसंग है, इसलिये गंजबासौदाका उल्लेख विशेष प्रामाणिक लगता है, क्योंकि इसके विरुद्ध खुरई चैत्यालयकी प्रतिमें यह उल्लेख है ____ अस्थान खिमलासौ पद्मकमलकौ प्रसाद भयौ सुहगंमि रमन फूलना पहिली गाथा प्रसाद पद्मकमलजूको आचरीकी गाथा मैं सुहगावति रुइया जिनको प्रसाद ॥१२॥ Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लगभग इसी प्रकारका उल्लेख गंजबासौदाकी प्रतिमें भी देखनेको मिलता हैस्थान खिमलासा पद्मकमल जू के निवति सुहिगम्य रमण फुलना उत्पन्न भयौ । खुरईके ठिकानेसार पाँच मतियोंका निरूपण हुआ है । वे हैं— विचारमति, आचारमति, सारमति, ममलमति और केवलमति । यथा - आचारमतिमें श्रावकाचार उत्पन्न भयौ । विचारमतसौं तिनईबत्तीसी छांनवे माषंड जिने ॥९६॥ सारमतमें तीन सार कहिये १ - न्यायसमुच्चयसार । २ - भंगीसार । ३ - उवसिधसार (उपदेशसार) उत्पन्न भए । ममलमतमै खिपनक १ - ममलपाहुड ग्रन्थ । २ - चौबीसजानौ । केवलमतिमें ग्रन्थ ५छद्मस्तवानी १, नाममाला २, खातिकाविशेष ३, सिधसुभाव ४, सुनसुभाव ५ । इस उल्लेखसे पता चलता है कि तीनों बत्तीसियोंका विचारमतमें समावेश होता है । स्वयं जीवन में कैसा चितवन और अनुभव करनेसे यह जीव ज्ञानमार्गका अनुसरण कर अन्त में मोक्षका पात्र बनता है तथा निराकुल लक्षण स्वाश्रयी अनन्त सुखका पात्र बनता है । इन बत्तीसियोंमें खासकर ऐसे निरूपणपर ही विशेष बल दिया गया है । यहाँ इन पाँच मतोंमें मति और मत इन दोनों शब्दों का प्रयोग किया गया है । हमने जहाँ जैसा पाठ है वही रखा है। आम तौरसे ये पाँचों मत कहे जाते हैं, मति नहीं। फिर भी हमने उक्त ठिकानेसारके पाठकी सुरक्षाकी दृष्टिसे उक्त पाठमें परिवर्तन नहीं किया है। मूल पाठ उद्धृत कर दिया है । प्रसंगसे यहाँ यह उल्लेख कर देना आवश्यक प्रतीत होता है कि तीनों ठिकानेसार ग्रन्थोंमें मूल ग्रन्थोंके परिचय में तो थोड़ा बहुत भेद है ही । शेष विषयोंके संकलनमें काफी फरक है। इससे ऐसा भी लगता है ये तीनों प्रतियोंके मूल आधारभूत मूल ठिकानेसार ग्रन्थ भी अनेक रहे हैं तथा अन्य कई विषयोंका समावेश भी बाद में कर दिया गया होना चाहिये । इस समय सब अंधकारमें हैं । स्वयं उनके अनुयायियों द्वारा इस विषयमें हमें उपेक्षा होती हुई जान पड़ती है । आदरणीय श्रीमन्त सेठ श्री भगवानदास शोभालालजी तथा उनके बड़े पुत्र भी श्रीमन्त सेठ श्री डालचन्दजी ऐसे महानुभाव हैं, जो कुछ हो रहा है वह उनके प्रयत्नविशेषसे ही हो रहा है । अस्तु, आगे तीनों बत्तीसियोंमें क्या विषय है इसपर ऊहापोह करेंगे । उनमें प्रथम मालारोहणपर विचार करते हैं चतुर्थखण्ड : ३८७ मालारोहण जैसा कि हम पहले लिख आये हैं, स्वामीजीने इसकी रचना एक विवाह के अवसरपर की थी । यह बात तो समझ में इसलिये आती है कि उस प्रसंग पर समाजके अनेक प्रतिष्ठित और अप्रतिष्ठित स्त्री-पुरुष सम्मिलित होते हैं अतएव स्वामीजीने अपने अध्यात्म प्रचारका सबसे अधिक उपयुक्त समय यही समझा होगा । यह शुद्ध अध्यात्मकी प्ररूपणा करनेवाला ग्रन्थ है । प्रारम्भमें मंगलाचरणके बाद आत्माके विशुद्ध गुणोंके रूपमें मालाके इस ग्रन्थकी रचना हुई । भले ही इसमें ३२ गाथाएँ हों पर सभी गाथाएँ अध्यात्मके रससे भरपूर हैं । भाषा की दृष्टिसे जिसरूपमें यह उपलब्ध होता है, ठीक उसी रूपमें स्वामीजीने इसकी रचनाकी हो या नहीं इसमें संदेह है । इसकी प्रथम गाथाको ही लीजिये -- उवकार वेदति सुद्धात्म तत्त्वं प्रनमामि नित्यं तत्त्वार्थसार्थं । न्यानंमयो सम्यक्दर्श नित्यं संमिक्त चरण चैतन्यरूपं ॥ १॥ थोड़ा बदलकर इसका परिमार्जित रूप यह हो सकता है। ॐकार वेदंति शुद्धात्मतत्त्वं, ज्ञानमयं सम्यक्दर्श नित्यं प्रणमामि नित्यं तत्त्वार्थसार्थं । सम्यक्त्वचरणं चैतन्यरूपं ॥ Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८८ : सिद्धान्ताचार्यं पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ अस्तु, यह अनुपम ग्रन्थ है । इस प्रथम गाथामें ओंकार स्वरूप पंचपरमेष्ठीको द्रव्य-भाव नमस्कार किया गया है, जो पंचपरमेष्ठी शुद्ध आत्मस्वरूपको प्राप्त हुए या उसकी स्वानुभूतिसे सम्पन्न हैं, सभी पदार्थों में वे सारभूत हैं, निरन्तर ज्ञानमय हैं, सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्रके साथ जो आत्मस्वरूपको प्राप्त हुए हैं ||१|| दूसरी गाथामें अन्तिम तीर्थंकर भगवान महावीरको द्रव्य-भाव से नमस्कार किया गया है, जिनके अनन्त चतुष्टय पूर्णरूपसे व्यक्त हो गये हैं । साथ ही मैं ( स्वामीजी) सभी केवलियों और अनन्त सिद्धों को नमस्कार कर तुम्हारे प्रबोधके लिए गुणमालाका कथन करूँगा || २ || आगे शुद्ध सम्यग्दृष्टि कैसा होता है इसका निरूपण करते हुए लिखा है - जिसका आत्मा शरीरप्रमाण है, जो भावसे निरंजन है, जिसका लक्ष्य निरंतर चेतन आत्मा पर बना रहता है, भावसे जो निरन्तर ज्ञानस्वरूप हैं, यथार्थ वीर्यके धारी वे शुद्ध सम्यग्दृष्टि हैं || ३ || जो मनुष्य संसारको दुःखरूप समझकर उससे विरक्त हैं वे शुद्ध समयसार हैं ऐसा जिनदेवने कहा है । जो मिथ्यात्व, आठ मद और रागादिभावोंसे आत्मभावको दूर कर चुके हैं. सभी तत्त्वार्थोंमें सारभूत वे शुद्ध सम्यग्दृष्टि हैं ||४|| आत्माके शुद्ध स्वरूपको बतलाते हुए स्वामीजी कहते हैं कि - जो तीन शल्योंसे रहित है, जिसने अपने चित्तका निरोध किया है, जो निरन्तर अपने हृदयमें जिनेन्द्रदेव द्वारा कथित वाणीकी भावना करता रहता है और जो झूठे देव, गुरु और धर्मसे अत्यन्त दूर है ऐसा सभी तत्त्वार्थों में सारभूत आत्माका शुद्ध स्वरूप है ॥ ॥ जो कोई मनुष्य मुक्ति सुखके साथ शुद्ध सम्यग्दर्शनका धारी है, जो पुण्य-पाप और रागादिभावोंसे विरक्त है, जो निरन्तर इस भावनासे सम्पन्न है कि मेरा आत्मा स्वभावसे ध्रुव शुद्ध और ज्ञान दर्शन स्वभाववाला है ||६|| केवलज्ञान सदा काल समस्त पदार्थोंको जाननेवाला है और शुद्ध प्रकाश स्वरूप है । अभेददृष्टिसे शुद्ध आत्मतत्त्व है । वह आत्मतत्त्व सम्यक्दर्शन - ज्ञान - चारित्र और अनन्त सुखका भोक्ता है ऐसा सभी तत्त्वार्थों में सारभूत शुद्ध आत्माकी तुम निरन्तर भावना करो ||७| शुद्ध सम्यग्दर्शन मेरे हृदयमें अर्थात् आत्मामें सदा प्रकाशित रहो । उसकी गुणमाला गूंथनेमें वीर्य समर्थ देवाधिक अरहन्तदेव, निर्ग्रन्थ गुरु, वीतरागवाणी, सिद्ध परमेष्ठी, अहिंसा धर्म और उत्तम क्षमा यह गुण उसके मोती या मणि हैं ||८|| यथार्थ तत्त्वोंका तुम निरन्तर मनन करो, जिससे २५ मलदोषोंसे रहित शुद्ध सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति होवे । शुद्ध ज्ञान, शुद्ध चारित्र और वीर्यगुण युक्त शुद्ध आत्मतत्त्वको में द्रव्य-भाव नमस्कार करता हूँ || ९ || देवों का देव श्रुतज्ञान स्वरूप आत्मतत्त्व है जो सात तत्त्व, छह द्रव्य, नव पदार्थ, पाँच अस्तिकाय, सामान्य विशेषगुण, चेतन आत्माके वर्णनसे युक्त है तथा विश्वको प्रकाशित करनेवाला और तत्त्वों में सारभूत तत्त्व आत्माको अनुभवने वाला है ॥१०॥ देव, गुरु, शास्त्र, सिद्ध, सोलहकारण, धर्म, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्रके गुणोंसे यह माला गूँथी गयी है जो सदा प्रशस्त है ॥११॥ ग्यारह प्रतिमा, सात तत्त्व, चार निक्षेप, बारह व्रत, सात शील, बारह तप, चार दान, शुद्ध सम्यक्त्व - ज्ञान चारित्र, मलरहित शुद्ध सम्यग्दर्शन, आठ मूलगुण इनका यथासम्भव विशुद्ध रीतिसे पालन करते हैं और जो अत्यन्त शुद्ध ज्ञानके धारी हैं वे शुद्ध आत्मस्वरूपके अनुभवने वाले शुद्ध सम्यग्दृष्टि हैं ॥१२- १३ ॥ सम्यग्ज्ञानी जीव शंकादि आठ दोष और आठ भेदोंके अहंकारसे मुक्त होता है । उसके तीन मूढ़ता, मिथ्यात्व और मायाशल्य नहीं देखी जातीं इससे वह निदानसे रहित होता है ऐसा भी समझ लेना चाहिये । अज्ञान, छह अनायतन, पच्चीस मलका वह त्यागी होता है । वह सदोष कर्मका भी त्यागी होता है || १४ || रत्नत्रयधारी मुनि शुद्ध आत्मतत्त्वरूप शुद्ध प्रकाशका घारी होता है, आकाशके समान निरावरण विश्व - स्वरूपका धारी होता है, यथार्थ तत्त्वार्थकी बहुत भक्ति से युक्त होता है ||१५|| जो धर्ममें लीन हैं, आत्मगुणों का चिन्तन करते हैं; वे समस्त दुःखोंसे मुक्त शुद्ध सम्यग्दृष्टि हैं । उसीसे आत्मतत्त्वका पोषण होता है वे ज्ञानस्वरूप हुए हैं तथा क्षणमात्रमें मोक्षको प्राप्त करेंगे ॥ १६ ॥ जो शुद्ध Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : ३८९ सम्यग्दर्शनके धारी शुद्ध सम्यग्दृष्टि हैं तथा जिनके गलेमें अर्थात् कण्ठमें आत्मगुणोंकी माला झूल रही है और जो सत्यार्थस्वरूप आत्मवत्त्वकी भावना करते हैं वे संसारसे मुक्त होकर निराकुल सुख और अनन्त वोर्य के धारी सिद्ध होते हैं ||१७|| ज्ञानगुणकी जिस मालामें हे आत्मन् तेरे अनन्त गुण गूँथे गये हैं वह प्रशस्त रत्नत्रयसे अलंकृत है । इस प्रकार श्री जिनेन्द्रदेवने यथार्थ तत्त्वका निरूपण किया || १८ || श्री वीरनाथको देखकर श्रेणिक राजा, धरणेन्द्र, इन्द्र, गन्धर्व, यक्ष, राजाओंका समूह तथा विद्याधर ज्ञानमय सुशोभित मालाकी प्रार्थना करते हैं ||१९|| अनेकविध अनन्त रत्नोंसे क्या प्रयोजन, अनेक प्रकारके धनसे भी क्या प्रयोजन, राज्यका त्याग कर यदि वनवास लिया तो भी क्या लाभ हुआ, अनेक प्रकारके तप तपे तो उससे भी क्या कार्य साधा || २० || श्री वीर भगवान् श्रेणिक राजासे शुद्ध मन-वचन-कायसे मालाके गुणोंको प्राप्त करनेके लिये हमारे कथनको सुनो ! यदि तुमने गुणमाला नहीं देखी तो इन रत्नोंसे क्या प्रयोजन, इस धनसे भी क्या लाभ, यदि राजा हुए तो क्या हुए, यदि तुमने तप तपा तो भी वह किस कामका ।। २१ ।। अर्थसे क्या प्रयोजन ? उससे आत्माका क्या कार्य सधा ? बड़े भारी राज्यसे क्या प्रयोजन ? कामदेव के समान रूप मिला तो वह किस कामका ? सम्यग्दर्शनके बिना तप तपनेसे क्या सधा ? ||२२|| जिनेन्द्रदेवने कहा कि यदि गुणमालाका अनुभव नहीं किये तो नाना प्रकारके इन्द्र, धरणेन्द्र, गन्धर्व, यक्ष आदि पदोंसे क्या लाभ ||२३|| समस्त तत्त्वार्थो में सार्थक जो निश्चय सम्यग्दर्शन सहित शुद्ध सम्यग्दृष्टि है और जो आशा, भय, लोभ और स्नेहसे रहित हैं; उनके हृदयमें और कण्ठमें ही गुणमाला सुशोभित होती है। ऐसा जिनेन्द्रदेवने कहा है || २४|| नाना प्रकारकी समृद्धि से युक्त तथा निश्चय सम्यग्दृष्टि शुद्ध दृष्टि हैं उन्होंने ही हृदय और कण्ठमें सुशोभित गुणमालाको जाना है - ऐसा जिनेन्द्रदेवने कहा है || २५ || जो मिथ्यात्व, लज्जा, भय और तीन गारवोंसे विरक्त होकर शुद्ध सम्यग्दृष्टि हैं उनके हृदय और कण्ठमें गुणमाला सुशोभित होती है । वास्तवमें वे ही मुक्तिगामी हैं ऐसा जिनेन्द्रदेवने कहा है ||२६|| जो शुद्ध मिथ्यात्व, रागादि दोष और असत्यका त्याग कर चुके हैं उन्होंके हृदयमें - गले में वास्तवमें वे सम्यग्दृष्टि मिथ्यात्व आदि कर्मोंसे रहित हैं ॥२७॥ जो पदस्थ, ध्यानसे युक्त हैं तथा जिन्होंने रौद्र और आर्त्तध्यानसे रहित होकर आठ हृदय और कण्ठ गुणमाला सुशोभित होती है ||२८|| दर्शन ज्ञान चारित्र से सम्पन्न है गुणमाला सुशोभित होती है । पिण्डस्थ, रूपस्थ और रूपातीत मद-मानका त्याग किया है उन्हींके उसपर चलनेवाले तथा तीनों प्रकारके उपशमभाव और क्षायिकभावसे शुद्ध जिनदेवने जो मार्ग कहा मिथ्यात्व, मलदोष और रागसे मुक्त हैं उन्हींके हृदय और कण्ठमें सुशोभित माला देखी जाती है ||२९|| जो चेतना तत्त्वको चेतते हैं, अचेतन विनाशिक है और असत्य है, उन्होंने उसका त्याग किया है, जिन्हें जिनेन्द्रदेव कथित सार्थक तत्त्वोंका प्रकाश मिला है उन्हींके हृदय और कण्ठसे माला स्वयं अनुभूत होती है ॥ ३० ॥ जिन्हें प्रशस्त रूप शुद्ध-बुद्ध गुण उपलब्ध हुए हैं तथा जिन्हें धर्मका प्रकाश हुआ है वे ही मोक्षमें प्रवेश करते हैं तथा उनके हृदय और कण्डमें माला निरन्तर डोलती रहती हैं ||३१|| जिन्होंने सिद्ध होकर अनन्त मुक्तिमें प्रवेश किया है, स्वरूपभूत शुद्ध अनन्त गुणोंसे गूँथी हुई माला उन्हें प्राप्त होती है जो कोई भव्यात्मा शुद्ध सम्यग्दर्शनके धारी हैं वे मोक्षको प्राप्त होते हैं ऐसा जिनेन्द्रदेवने कहा है || ३२॥ उपसंहार यह गुणमालाका भावानुवाद है । इसमें उन सभी अवस्थाओं और गुणोंका निरूपण हुआ है जिन गुणरूपी फूलोंसे यह माला पिरोई गई है । इसमें बहुलता से माला शब्दका प्रयोग हुआ है। तीन गाथाएँ ऐसी हैं जिनमें गुणमाला शब्द आया है । स्वामीजीकी दृष्टिसे यह इसका पूरा नाम है । इसमें सर्वत्र 'हृदय केन्द्र Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९० : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ सलितं' शब्द आया है । कण्ठ और गलेमें अन्तर है। कण्ठ गलेका भीतरी अवयव है और गला बाहिरी । इससे स्वामीजीके समग्र जीवनपर प्रकाश पड़ता है। मालूम पड़ता है कि वे हृदय द्वारा स्वभावभूत अनन्त गुणोसे सुशोभित आत्माका निरन्तर चिंतन करते रहते थे और कण्ठ द्वारा उनका गुणगान करते रहते थे। उनके द्वारा रचित शास्त्र उन्हीं दोनोंके कण्ठ और हृदयके उच्छवासमात्र हैं। यह उनका २४ घण्टोंका प्राकृतिक जीवन बन गया था। उन्हें इसकी चिन्ता नहीं कि कौन उनका समर्थन करता है और कौन उनका विरोध करता है। उन्होंने बाह्यमें विधि-निषेधसे अपनेको परे बना लिया था। इतना अवश्य है कि जो उनसे अनुप्राणित होते थे उन्हें उनकी बाह्य परिणतिके उपदेशके साथ ही अध्यात्मका घुट पिलाते थे। जो जिसका अनुषंगी है उसका उपदेश वे अवश्य देते थे। वे किसी वेशके पुजारी नहीं थे, आत्मधर्मके पुजारी थे। घर-वार छोड़ना और बात है, अध्यात्मका पुजारी होना और बात है । गुणमाला बत्तीसीके अन्तमें ग्रन्थ समाप्ति वचन आया है । यथाइति श्री मालारोहण जी नाम ग्रन्थ जिन तारण तरण विरचित समुत्पन्नता ।। लोकमें इसे मालारोहण भी कहते हैं । स्वामीजीने इसे गुणमाला" कहा है। मेरे ख्यालसे यह ग्रन्थका उपयुक्त नाम है। स्वामीजीने इसमें इसी नामका उल्लेख किया है । अस्तु । श्री पण्डित पूजा उपोद्घात यह स्वामीजी द्वारा रचित दूसरी बत्तीसी है। खुरई चैत्यालयके ठिकानेसारमें ग्रन्थका परिचय मात्र दिया है । लिखा है पंडित पूजाकी विधि-पंडित पजाकी पहचत्तरि पुजनिरूपणं। ओंमकारमें पंच परमेष्ठी देवकी पूजा पंच अषिर (अक्षर) संयुक्ता गाथा चारलौ ४, श्रुतपूजा पंचई गाथा ५, छठी गाथा गुरुपूजा वारा पुंज पूरे । सातइ गाथा संभिक्त विर्ज सिद्धको जंत्र त्रिलोकं लोकीनं धुवं अरिहंतकौ जंत्र रत्नं त्रयं मयं सुधं ये तीन जंत्र साधुके गाथा ७, आठई गाथामें धर्म सुधं च वेदंते आचार्ज उपायदेवको जंत्रु । मल्हारगढ़ निसईजीकी प्रतिमें पण्डित पूजा बत्तीसीके विषयमें लिखा है-ॐकारमें पंच परमेष्ठीदेवकी पूजा पंच अषिर संजुक्त ।। गाथा चार लौ ॥४॥ श्रुतपूजा ॥ पंचैइ गाथा ॥५॥ छटि गाथा गुरुपूजा ॥ बारह पुंज पूरे । सातइ गाथा ॥ संभिक्त वीजें ॥ सिद्धको जंत्रु ।। सातइ गाथा ॥ त्रिलोक लोकीतं ध्रुवं ।। अरहंतको जंत्र ॥ सातई गाथा मैं रत्नत्रयं मये सुधं ॥ ये तीन जंत्र साधुके गाथा सातई ॥७॥ आठई गाथामैं धर्म सुखं च वेदंते । आचार्य उपायदेवको जंत्रु ।। पूजा जंत्रु की विधि । पंडित पूजाके ठिकाने गंज बासौदा-चार गाथा देवकी पूजा पूजा पंच परमेष्ठी संयुक्तं ।४। पांचई गाथामै श्रतपूजा चारनियोग संयुक्तं ।५। छठई गाथामैं गुरुकी पूजा तीन रत्नसंयुक्तं ।६। बारह पुंज संयुक्तं । सातई गाथामें सम्यक्त्व वीर्य सिद्धि को जंत्र अष्टगुण संयुक्त सिद्धके ।१। त्रिलोकं लोकन्त ध्रुवं । अर्हन्तको जंत्र येक ।१। सोलहि कारण संयुक्तं ।१६। रत्नत्रियमयं सुधं साधुके तीनि जंत्र दर्शणके अंग । न्याणके अंग ।८। तेरहि विधि चारित्र । साधु जंत्र संयुक्तं । सातई गाथामै धर्म शुद्ध ः व्यंवन्दतेः उपादेव आचार्यको जंत्र दसविधो धर्म संयुक्तं । गाथा अठाईमैं ॥८॥ नमई गाथामें स्नांपतिकी जुक्ति कही चार विधको जल नौमैं प्रवाहुजल कहौ, ध्यानसेमैं त्रीवरजल कहौ । गाथा दसईमैं न्याणंभयंजलं शुद्धं । व्यापकि जल कहौ । गाथा ग्यारहिमैं सम्यक्तं-जलं-शुद्ध कूप जल कही। वारहि गाथामैं ॥१२॥ आत्मसौधन दृष्टिसोधन तेरहीं गाथामें प्रक्षालकी जक्ति कहीं पन्द्रवी गाथामैं वस्तरिकी जुक्ति कहीं । पाग पिछौरी धोती अंदोगी वस्त्रभेद ॥४॥ सोरही गाथामै Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : ३९१ आभरणकी जक्ति कही। चारित्र संयक्त मद्रको जुक्ति कही। सीलि सम्यक सप्राणि मद्रका मकटं । पंश्च न्यांण सिरिमुकटि सोहै सतरही अठारही गाथामै दृष्टि युद्धनः दृष्टि निपजै तो मिथ्यादृष्टी चः त्यक्तयं । उनीसवीं गाथामै वीसवीं गाथामै पच्चीस मलको भरतिय कही ॥२५॥ इकईस गाथाम वेदिकाकी जुक्ति कही । बाइसवों गाथामै उचारणको जुक्ति कही। ऊर्ध्वगुणके शुद्धिगुण तेईसवीं गाथामै अविकास । चौबीसइ गाथामै आकार पूजाका स्थूल पूजा कुगुरुके लक्षण कहियौ पच्चीसई गाथामै अविकास कहियो छब्बीसई गाथामै । इन्द्रपति इन्द्रकी जुक्ति कही सताईसवीं गाथामै दाताकी जुक्ति कही। अट्ठाईस गाथामै अवकास उनतीसई गाथामै चार संगकी विधि कही। तीसई गाथामै सताई तत्त्वकी विधि कही । तत्त्व आराधन भेदचारा सत्वई तत्त्व दर्पणके निर्णय । नव पदार्थ न्याणके निर्णय षद्रव्य चारित्रके निर्णय । पंचास्तिकाय तपके निर्णय । दर्शणदष्टि न्यांणाकर्ष । तप हृदया चारित्र कमल गाथा ॥३०॥ इकतीसई गाथामें मिथ्यात्वक्त कुन्याण त्यक्त । बत्तीसई गाथाम औकास ॥३२।। इति श्री पण्डित पूजा सम्पूर्ण ॥६॥ ये तीनों ठिकानेसार ग्रन्थोंमें पंडित पूजाके विषयमें जो कुछ लिखा उसे अविकल यहाँ दिया गया है। इसकी उत्पत्तिके विषयमें गंजबासौदाकी प्रतिमें लिखा है-पंडित पूजाको समय उत्पन्न भयो । अनुवत समार्थ षिपकि विशेष्य ॥ न्यांण प्रयोजनि ॥ अहार हो कित जऔ । माहि किति उपज्ज हो कब बुलायो हो किनि जायौ । मोहि किनि उपजै हो किनि बुलायौ । अवरिकी जाई। अवरिकी जाई उपजै अबरकी बलाय । इति अनुवृत्तिकी परीक्षा तारण तरण कही !! यह तीनों ठिकानेसार ग्रन्थोंमें पंडित पूजा बत्तीसीके विषयमें जो कुछ लिखा गया है उसका अविकल उल्लेख है। इसपर तत्काल कुछ टीका-टिप्पणी नहीं करेंगे। आगे पण्डित पूजा भावानुवाद दे रहे हैं जिससे उसके अध्यात्मस्वरूपको समझनेमें पाठकोंको सुगमता होगी। संपादकीय नोट-पंडित पूजा सम्बन्धी जो विशेष विवरण गंजबासौदाकी ठिकानेसारमें मिलता है, उसको देखनेसे स्पष्ट ज्ञात होता है कि प्राचीन कालमें जिन तारणतरण समाजमें द्रव्य-भावरूप पूजाका प्रचलन रहा है। पण्डित पूजाका भावानुवाद ओंकार मंत्र ऊर्वलोकके सबसे ऊपर ओंकारके बिन्दु समान शाश्वत सिद्ध परमेष्ठी विराजमान हैं जो तर ज्ञानभावके साथ ध्रुव हैं ॥१॥ निश्चयसे वे युद्ध आत्मतत्त्वको जानते हुए वर्तते हैं। मेरा आत्मा है ध्रुव है ऐसा अनुभवना निश्चय नमस्कार है ॥२॥ ओंकार स्वरूप आत्माको योगीजन अनुभवते है। जो विवेकशालिनी बद्धि वाले पण्डित हैं वे ही उसे अनुभवते हैं। उसके द्वारा ही देव-पूजा परमार्थ पूजा है ॥३।। ज्ञानके अस्तित्व रूप ह्रींकार है और ओंकार भी ज्ञानस्वरूप है। वह अनुभवका विषय है । ऐसा अरहन्त सर्वज्ञदेवने कहा है। यह अचक्षुदर्शन पूर्वक मतिज्ञान-श्रुतज्ञानका विषय है ॥४॥ जिसके सम्पूर्णरूपसे मतिज्ञान-श्रुतज्ञान होता है वह नियमसे पाँचवें ज्ञान केवलज्ञानमें स्थित होता है। इसे पण्डितजन भले प्रकार जानते हैं वे ज्ञानस्वरूप शास्त्रको नियमसे पूजते हैं ॥५॥ ओंकार और श्रीकारका अनुभवन ही ध्र व ज्ञानस्वरूप है। देव-शास्त्र और गुरु, सम्यक्चारित्र और शाश्वत सिद्ध परमेष्ठी हैं ॥६॥ शुद्ध वीर्य ध्रव तीन लोकके ज्ञाता सिद्ध परमेष्ठीकी उत्पत्तिका मूल है। जो सिद्ध परमेष्ठी शुद्ध रत्नत्रयस्वरूप हैं । पण्डितजन ऐसे गणवाले सिद्धोंकी सच्ची पूजा करते हैं ॥७॥ जो सच्चे देव, गुरु और शास्त्रकी वन्दना करते हैं वे ही शुद्ध धर्मको अनुभवते हैं । वे ही रत्नत्रयके धारी हैं। यही उनका शुद्ध जलसे स्नान है ॥८॥ चेतना लक्षण धर्म है, बुधजन सदा अनुभवते हैं। ध्यान ही शुद्ध जल है । ऐसे जलसे ज्ञानरूप स्नान करते हैं ॥९॥ पंडितजन Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९२ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ शुद्ध आत्मतत्त्वको अनुभवते हैं, तीनलोक तालाब स्वरूप है, ज्ञानसे वह भरा हुआ है, ऐसा ज्ञानमय शुद्ध जल है | ज्ञानभावसे परिणत पण्डितोंका यही स्नान है ॥ १०॥ सम्यग्दर्शन शुद्ध जल है, आत्मारूपी तालाब उससे पूरी तरह भरा हुआ है। ऐसे जलमें स्नान करके गणधर देव उसीका पान करते हैं । ज्ञानरूपी तालाब अनन्त और ध्रुव है ||११|| आत्मा शुद्ध चेतनास्वरूप है, वह शुद्ध सम्यग्दर्शनके समान ध्रुव है । ऐसे शुद्ध भाव में स्थिर होकर पण्डितजन उस ज्ञानभावरूप स्नान करते हैं ||१२|| तीन प्रकारका मिथ्यात्व, तीन शल्य, कुज्ञान और राग-द्वेषरूप होना यह सब अशुद्ध भावना हैं ||१३|| ऐसी भावनावालेने अनन्तानुबन्धी चार कषायों का पालन किया, पुण्य-पाप भावका पालन किया तथा दुष्ट आठ कर्मोंका पालन किया । किन्तु इसके विपरीत पंडितजन ज्ञानभावरूप स्नान करते हैं ॥ १४ ॥ अशुद्ध भावनावालेने चपल मनको पोषा, द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्मको पोषा । किन्तु पण्डितजन कैसे वस्त्रोंका परिधान करते हैं । उनके आभरण और अलंकार कैसे होते हैं ।। १५ ।। धर्मका होना ही उनके वस्त्र हैं रत्नत्रय ही आभरण हैं, समभावसे मुद्रित होना मुद्रिका है और ध्रुव ज्ञानमय मुकुट है ॥ १६ ॥ शुद्ध दृष्टिका अनुभव कार्यकारी है, मिथ्यादृष्टि और असत्यसे दूर रहना चाहिए । अचेतन पदार्थोंमें इष्टानिष्ट बुद्धि न करें ||१७|| शुद्ध स्वरूपका अनुभव करना चाहिए, वही ध्रुव और शुद्ध सम्यग्दर्शन है, वह पूर्ण ज्ञानमय है इस प्रकार बुद्धिमान जनोंकी सदा निर्मल बुद्धि होती है || १८ || लोक मूढ़ता, देव मूढ़ता और पाखण्ड मूढ़ता से सदा दूर रहे। अज्ञान, शरीर आदि आठ मद और शंकादि आठ दोषोंका सेवन न करें ॥१९॥ शुद्ध और प्रयोजनीय आत्मपद ही अनुभवने योग्य है; शंकादि मलोंसे रहित सम्यग्दर्शन ही अनुभवने योग्य है । ज्ञानमय आत्मा शुद्ध सम्यग्दर्शन है । बुद्धिमान जनों की दृष्टिमें ऐसा व्यक्ति ही पण्डित है ॥२०॥ जो आत्माको सदा रागादि परिग्रहसे रहित और तीनलोकमें एक शुद्ध आत्माको अनुभवते हैं ऐसा अनुभव करनेवाले जो पण्डित हैं वे अनुभवियोंमें अग्रस्थानीय हैं ||२१|| केवल पंच परमेष्ठीयों की ही स्तुति करनी चाहिए तथा शुद्ध आत्मतत्त्वकी भावना करनी चाहिए। जो लोकपूज्य पंच परमेष्ठी हैं, पण्डित जन उन्हींको आराध्य मानते हैं । ऐसे पण्डितोंने ही जिन समयकी पूजाकी ॥ २२॥ जिनेन्द्रदेव द्वारा कथित आगमकी जिसने पूजाकी वह पण्डित सदा पूजित होता है । उसीने शुद्ध आत्माकी पूजाकी - अनुभव किया, क्योंकि वही मोक्ष प्राप्तिका अपूर्व साधन है ||२२|| अपूज्य, अदेव, अज्ञान, तीन मूढ़ता और अगुरुको पूजना मिथ्यात्व है यह सकल जन जानते हैं, ऐसी पूजा अनन्त संसारका कारण है ||२४|| शुद्ध तत्त्वका प्रकाशन ही शुद्ध पूजा है ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है । पण्डितकी वन्दना पूजा है ऐसा पण्डित नियमसे मोक्ष जाता इसमें संशय नहीं है ||२५|| जिसके शुद्धात्माकी शुद्ध भावना है वही परिपूर्ण शुद्ध है । उसीने शुद्ध आत्मा - अनुभवा ||२६|| जो समीचीन दाता है, शुद्ध भावना सहित पूजा है तथा जिसके हृदय में शुद्ध सम्यग्दर्शन है उसीको शुद्ध आत्माकी भावना होती है ||२७|| जो कार्यकारी ज्ञानमय और ध्रुव सम्यग्दर्शनको अनुभवता है, आराध्य शुद्ध आत्मतत्त्वकी आराधना करता है, क्योंकि ऐसी वन्दना करने योग्य है ||२८|| चारसंघ, शुद्ध आत्मा और शुद्ध समयकी भावना करता है उसे जिनेन्द्रदेवने प्रयोजनीय कहा है ॥ २९ ॥ प्रयोजनीय सात तत्त्व, छह द्रव्य, पाँच अस्तिकाय तथा ध्रुव निश्चयस्वरूप चेतन आत्मा इनकी प्ररूपणा केवलीजिननेकी है ||३०|| तीन प्रकारके मिथ्यात्वका त्याग और तीन प्रकारके कुज्ञानका त्याग होना चाहिये तथा शुद्ध आत्माकी शुद्ध भावना होनी चाहिये । जो भव्यजन ऐसा करते हैं उनका जीवन सफर है ||३१|| ऐसे यथार्थ पूज्य पंच परमेष्ठी की शुद्ध पूजा करनी चाहिये | यह शाश्वत मोक्षश्रीको प्राप्त करनेके लिये व्यवहारनिश्चय स्वरूप मोक्षमार्ग है ॥३२॥ आत्मा है, वही शुद्ध अर्थरूप शुद्ध समय जिसका शुद्ध हृदयसे दिया गया दान है, Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : ३९३ उपसंहार पण्डित पूजा भावना रूपसे जीवनमें चरितार्थ करनेके लिये यह अत्युपयोगी बत्तीसी है। इसके अन्तमें व्यवहार और निश्चय दोनों मोक्षमार्गोंका स्पष्ट उल्लेख किया गया है । निश्चय मोक्षमार्ग वस्तुका स्वरूप है और व्यवहार मोक्षमार्ग सकषाय जीवको सालम्बन मन-वचन-कायकी बाह्य प्रवृत्ति-रूप है। अतः निश्चय मोक्षमार्गका अनुगामी होनेसे या सहचर होनेसे वह आत्माके स्वाभाविक स्वरूपकी अपेक्षा मोक्षमार्ग नहीं है । परमार्थसे उसे मोक्षमार्ग मानना परमार्थकी अवहेलना करना मात्र है । इतना अवश्य है कि स्वानुभूति या शुद्धोपयोगके कालमें बाह्य मन-वचन-कायकी प्रवृत्ति न होने पर अप्रत्याख्यान आदि कषायोंका सद्भाव बना रहता है, इसलिये ज्ञानो मोक्षमार्गी जीवके सविकल्प अवस्थाके समान निर्विकल्प अवस्थामें अबुद्धिपूर्वक शुभभाव स्वीकार करके इस अपेक्षासे सकषाय अवस्थामें सालम्बन व्यवहार मोक्षमार्गको स्वीकार किया जाता है। इस बत्तीसीमें पण्डित पूजाको स्पष्ट किया है । सर्वप्रथम पंचपरमेष्ठी और देव, गुरु तथा शास्त्रका संक्षिप्त स्वरूप बतलाकर स्वानुभूतिसे सनाथ जो व्यक्ति इन तीनोंकी उपासना करता है वह पण्डित है यह स्पष्ट किया गया है क्योंकि भावके बिना द्रव्यका कोई स्थान नहीं है। फिर भी पूजकके अन्तरंग और बहिरंग वेशका इसमें बडी ही अध्यात्म शैली में समर्थन किया गया है। इसके द्वारा अन्तरंगमें आत्माके रत्नत्रय धर्मको स्नानका शुद्ध जल बनाया गया है, साथ ही ध्यानको शुद्ध जल और ज्ञानभावको स्नान बताया गया है । तीनलोकको जाननेवाले ज्ञानको तालाब भी बताया गया है । ज्ञानरूपी शुभ जलमें अवगाहन करना ही स्नान है। यही सच्चा अंतरंग स्नान है। ऐसे पण्डितके तीनों प्रकारके मिथ्यात्व, कूज्ञान, राग-द्वेष, अप्रत्याख्यानादि कषाय, अशुद्ध भावना आदि सब दोष दूर हो जाते हैं, यही उत्तम वस्त्रका धारण करना है, यही आभरण, आभूषण और मुकुटका पहनना है ऐसे पण्डित ही देव, गुरु और शास्त्रका सच्चा पूजक है । ऐसे पण्डितके तीन लोक मृढ़ता, कुदेव और कुगुरुकी पूजा, आठ मठ आदि दृष्टिगोचर नहीं होते । ऐसे जिनेन्द्र कथित जिनमार्ग पर चलनेवाला ही पण्डित है वह स्वयं लोकमें सदा पूजित होता है । इस प्रकार इस ग्रन्थमें भाव पूजाका सुन्दर विवेचन किया गया है । उससे अनुगत द्रव्य-पूजा कैसी होती है इसका भी इसमें संकेत किया गया है । स्वामीजीने इसमें अदेव और अगुरुकी पूजाको मिथ्यात्व बतलाया है। मालूम पड़ता है कि उनके कालमें शासन देवताके नाम पर व्यन्तरादि देवोंकी पूजा प्रचलित होने लगी थी और सुगुरुके नाम पर अगुरु स्वरूप भट्टारक पूजे जाने लगे थे। उन्हींकी पूजाका निषेध करनेके लिये स्वामीजीने यहाँ अगुरु और अदेव प्रयोग किया गया निश्चित जान पडता है। मेरा तो यह भी अनमान है कि इन गुरु कहलानेवाले भट्टारकोंने समाजको भड़काकर समाजसे उनका बहिष्कार तक करनेका निर्देश किया होगा। किन्तु वे अध्यात्मके रसिया महापरुष थे। उन्होंने बहिष्कृत होना तो स्वीकार किया किन्तु अपनी दृढ़ श्रद्धासे अणुमान भी विचलित नहीं हुए। इससे वे जगत पूज्य बन गये इसमें सन्देह नहीं । कमलबत्तीसीका भावानुवाद । परम भावको दिखानेवाला परमात्मा ही सब तत्त्वोंमें श्रेष्ठ परम तत्त्व है। वे ही जिन हैं, वे हो परमेष्ठी हैं ऐसे परम देवके देव जिनदेवकी मैं भाव-द्रव्य वन्दना करता हूँ ॥१॥ जो जिनवचनका श्रद्धान है उसीसे कमलकी शोभावाला रागादि मलसे रहित आत्मभाव प्राप्त होता है, उसीको आजव भाव कहत है। इस आर्जवभावसे समभावरूप मक्तिकी प्राप्ति होती है ॥२॥ ज्ञानस्वभाव आत्मा ही अनुमोदनीय-उपासना करने योग्य, रागादिमल रहित ज्ञानस्वभाव सब रत्नोंमें श्रेष्ठरत्न है. ऐसे रागादि मल रहित अपने निमल ज्ञानस्वभाव अर्थात् ज्ञानस्वभाववाले आत्माको उपासनाके फलस्वरूप सिद्ध पदकी प्राप्ति होती है ॥३॥ तीन ५० Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९४ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ प्रकारके योग द्वारा तीन प्रकार के मिथ्यात्वको जीतना चाहिये, अव्रतभाव और असत्यरूप पर्यायकी गलाना चाहिये, कुशानको गलाना चाहिये तथा सब प्रकारके कर्मोंको भी गलाना चाहिये ||४|| चेतन आत्मानन्दस्वरूप है आनन्दस्वरूप है और सहजानन्दस्वरूप है। इसके आलम्बनसे संसार पर्यायका अन्त कर देना चाहिये । अपने सहज ज्ञान द्वारा ज्ञान ही उपासना करने योग्य है। समस्त कमका क्षय ज्ञानसे ही होता है ॥५॥ कर्मोंका स्वभाव ही क्षय करने योग्य है || ६ || जिसकी दष्टि उत्पाद - व्यय में समभावरूप है और चेतनभावसे युक्त है उसके उसी दृष्टिसे तीनों प्रकारके कर्मोका बन्ध गल कर विलीन हो जाता है ।। ७ । मन स्वभावसे क्षय करने योग्य है, संसारकी परिपाटी भी स्वभावसे क्षय करने योग्य है, जानवलसे विशुद्ध हुई निर्मल उपासना कर्मो का क्षय करनेमें समर्थ है ||८|| लोकका अनुरंजन करनेवाले रागभावसे रहित शरीरको अनुरंजन करनेवाले द्वेषभावसे मुक्त और मनको रंजायमान करनेवाले तीन प्रकारके गारबसे रहित होने पर तीन प्रकारका वैराग्य उत्पन्न होता है || ९ || दर्शनमोहरूपी अंधकारसे रहित और राग-द्वेष तथा पंचेन्द्रियोंके विषयोंसे रहित आत्माका निर्मल स्वभाव उत्पन्न हुआ वह अनन्त चतुष्टयको प्राप्त करने में समर्थ है ॥ १०॥ रत्नत्रय से ही शुद्ध आत्माका दर्शन है, पाँचों ज्ञानोंमें पंचम ज्ञान ही परम इष्ट है तथा पंचाचाररूप सम्यकुचारित्र है। यही सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यचारित्र है ।।११।। यही सम्यग्दर्शन- ज्ञान चारित्रस्वरूप है वही देवों में परमदेव है, वही गुरुओंमें परमं गुरु है और वही समभावसे युक्त धर्मों में परम धर्म है ॥ १२ ॥ पांचवें ज्ञानस्वरूप आत्मा के अस्थिर योगको जीतने पर तथा ज्ञानभावसे पूर्ण ज्ञान होने पर स्वभावसे निर्मलस्वभावरूप सिद्धिकी प्राप्ति होती है ||१३|| आनन्दस्वभाव और आनन्दमय चिदानन्दका चितवन करना, यही स्वभावसे मलस्वरूप कर्मोंका क्षय करना है वह स्वभावसे अनुमोदन करनेरूप तथा निर्मल है ||१४|| जो परसे भिन्न स्वात्माको अनुभवता है, स्वात्मासे भिन्न पररूप पर्यायोंसे तथा तीन प्रकारकी शल्योंसे मुक्त है वह शुद्ध ज्ञानस्वभाव और पर निरपेक्ष शुद्ध चारित्ररूप आत्माको प्राप्त करता है ।। १५ ।। अब्रह्मका सेवन नहीं करना चाहिये, चारों प्रकारकी विकथा और सातों प्रकारके व्यसनोंका त्याग कर देना चाहिये, क्योंकि ज्ञायकस्वभाव आत्मा ज्ञानस्वभाव है ऐसा निर्मल समयका सहकार ही उपासने योग्य है ।। १६ ।। जिनवधन स्वभावरूप है अर्थात् वस्तुस्वभावका दर्शन करने में समर्थ है। उसीके अनुगमनसे मिथ्यात्व कषाय और कमोंको जीतो । इसीसे यह आपा शुद्ध आत्मा और परमात्माका निर्मल दर्शन होता है ||१७|| इष्ट अर्थात् जो मोक्षमार्गमें उपादेयभूत जो शुद्ध आत्मा है उसी पर जिनदेवकी दृष्टि है, अथवा जिसका जिनदेवने उपदेश दिया है वही हमारा इष्ट शुद्ध आत्मा है। उस इष्टमें उपयोगको युक्त करना चाहिये और अनिष्ट जो संसारके प्रयोजन हैं उनका बुद्धिपूर्वक त्याग कर देना चाहिये जो इष्ट है वह सदा इष्ट स्वरूप है। वह निर्मल स्वभाव है अतः उसमें उपयुक्त होनेसे कमका स्वयं क्षय होता है ||१८|| अज्ञानसे जो अत्यन्त दूर हैं, क्योंकि ज्ञानस्वभावसे अनुपम और निर्मल स्वभाववाला है। ज्ञानपर्याय दृष्टिका विषय नहीं है, क्योंकि वह पर्यायदृष्टि है, अतः अति शीघ्र अन्तर दृष्टि होना चाहिये ||१९|| आत्मा आत्मस्वरूप है, आत्मा शुद्धात्मा होने पर वही विमल परमात्मा हो जाता है क्योंकि आत्मा स्वभावसे परमस्वरूप है वह बाह्य रूपसे रहित है और निर्मल ज्ञानस्वरूप है ||२०|| वह निर्मल है, निर्मलस्वभाव है, ज्ञान-विज्ञानरूप है । सम्यग्ज्ञानको उत्पत्तिका हेतु है । यह जिनदेवने कहा है, यही जिनदेवका वचन है । क्योंकि जिनदेवको निमित्त कर मोक्षकी प्राप्ति होती है || २१ || पट्काय जीवों पर विमलभाव को निमित्त कर कृपा करनी चाहिये. क्योंकि प्राणीमात्रके जीव समान ज्ञान दर्शन स्वभाववाले हैं। लिष्ट जीवों पर वह कृपा भी विमल भावरूप होनी चाहिये ||२२|| अत्यन्त अनिष्ट वस्तुका संयोग होने पर विमल शुद्ध स्वभाव के बलसे मध्यस्थ हो जाना चाहिये । जीव स्वभावसे शुद्ध कहा गया है ऐसी शुद्ध दृष्टि होनेसे कमका स्वयं क्षय होता है ||२३|| सब Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : ३९५ संसारी जीव क्लिष्ट-दःखी हो रहे हैं। उसकी अनुमोदनाकं निमित्तसे दुर्गतिमें गमन होता है। जो विरोध स्वभाववाले जीव है वे दुःखरूप मार्गपर चलते हुए संसार परम्परामें पड़ रहे हैं ॥२५।। सुखमय अर्थात् आत्मा ज्ञानस्वभाव है, ज्ञानस्वभावकी उपासना करने पर उसके योगसे निर्मल अवस्थाको प्राप्त हो जाते हैं । ज्ञान सदाकाल ज्ञानस्वरूप है। उससे निर्मल सिद्धिकी प्राप्ति होती है ॥२६॥ जो परम इष्ट है वही इष्ट है, इष्टकी उपासना वह अनिष्ट अर्थात् संसारके प्रयोजनसे रहित है। वह पर द्रव्योंकी पर्यायमे रहित है, क्योंकि ज्ञानस्वभावसे कर्मोपर विजय प्राप्त होती है ॥२७॥ जिनवचन शुद्धसे भी शुद्ध है, उसकी उपासनासे विविधकर्म रहित शुद्ध आत्माकी प्राप्ति होती है। आत्मा स्वभावसे निर्मल है, निर्मलस्वरूप है, क्योंकि जो रत्न होता है वह रत्नस्वरूप ही होता है ॥२८॥ सुगुणोंकी उ पत्ति श्रेष्ठ है, उनके निमित्तसे कर्मोका क्षय होता है यह श्रेष्ठ कार्य है। कमल अर्थात् आत्मा श्रेष्ठ और इष्ट दोनों हैं। यह आत्मा कमलकी शोभावाला है और कमलके समान कोमल तथा निर्मल होता है ॥२९॥ जिनवचनके निमित्तसे मिथ्यात्व, अज्ञान और तीनों शल्योंका अभाव होता है। विषय और कषायोंका अभाव होता है तथा उसीसे सम्यग्ज्ञानको उत्पत्ति होती है और कर्मोका क्षय होता है ॥३०॥ आत्मा आत्मस्वरूप है, वह षट्कमल, रत्नत्रय और निर्मल आनन्द स्वरूप है। दर्शनज्ञानस्वरूप है । वही निर्मल चारित्र है तथा कर्मों का क्षय करनेवाला है ॥३२॥ जिसने अपने ज्ञानस्वभावसे संसारपरिपाटीकी ओर दष्टि नहीं की तथा संसारी मलिन पर्यायकी ओर दृष्टि नहीं दी है ऐसा कमलके समान निर्मल जो ज्ञान है वही निर्मल ज्ञान-विज्ञान उपासने योग्य है ॥३२॥ जिनदेवके कहे वचनका श्रद्धान करनेसे यथा निर्मल शुद्ध आत्मा और परमात्माकी श्रद्धा करने से परमभावकी उपलब्धि होती है, इस प्रकार धर्मस्वभावकी प्राप्ति होनेपर नियमसे कर्मोंका क्षय होता है ॥३३॥ जिनदेवने कहा है कि शुद्ध दृष्टिकी प्राप्ति होने पर तीन प्रकारके योगसे तीनों प्रकारके कर्मोंका क्षय होता है । अनुपम ज्ञान ही विज्ञान है । वह निर्मलस्वरूप है और उससे मुक्तिकी प्राप्ति होती है ।॥३०॥ उपसंहार यह कमलबत्तीसीका भावानुवाद है। इसकी मात्र दो-चार गाथाओंमें कमल शब्द आया है। कमल और आत्मा दोनोंके अर्थमें इसका उपयोग हुआ है । एक गाथामें षट्कमल शब्द आया है। गंजबासौदाके ठिकानेसार ग्रन्थ पत्र सं० १४ में कमलोंका उल्लेख है-१. मसुठौ लवनु (मसूडे), २. इष्ट उष्ट (ओठ), ३. इष्ट कठु उत्पन्न कंछु, २. इष्ट तालु उत्पन्न तालु, २ इष्ट दर्श उत्पन्न दर्श। गंजबासौदा श्री निसईजीके ठिकानेसार पत्र सं० २६ में चतुर्मुख भगवान्के चारमुखोंके लिये उत्पन्न कमल, देवकमल, दत्तकमल और तारकमल ये चार नाम आये हैं। मल्हारगंज श्री निसईजीके ठिकानेसार पत्र सं० ३२ में इष्ट कण्ठ, उत्पन्न कण्ठ, इष्ट तालु, उत्पन्न तालु, इष्ट लखि (नेत्र), उत्पन्न लखि (नेत्र), इष्ट गमि (चरण), उत्पन्न गंमि चरण ये नाम आये हैं। इन सबको कमलके भेद कहा गया है। अभी तक तीनों ठिकानेसार ग्रन्थों में षट्कमलका उल्लेख मेरे देखनेमें नहीं आया । किन्तु बत्तीसीमें यह शब्द आत्माके विशेषण रूपमें आया है। मालूम पड़ता है इससे स्वामीजीने ज्ञायकस्वभाव आत्मा और पाँचों परमेष्ठी इन छहको ग्रहण किया है । इनमसे ज्ञायक आत्मा स्वभावसे निर्मल और पाँच परमेष्ठी कमलके समान निर्मल परिणामवाले होते हैं, सम्भव है इसीलिये इनका षट् कमल शब्द द्वारा स्वामीजीने उल्लेख किया है। जो हो, उनके जीवन अध्यात्ममें ऐसे रम गया था जैसे कमलमें सुगंध । उन्होंने अपने ग्रन्थोंमें आत्माको नन्द, आनन्द, चिदानन्द, सहजानन्द और परमानन्द स्वरूप बतलाया है। इस बत्तीसीमें भी आत्माके अर्थमें एकादि शब्दको छोड़कर इन शब्दों द्वारा त स्वरूप बतलाया है । वे इष्ट क्या है और अनिष्ट क्या है, इस संसारी जीवको देव, शास्त्र और गरुका या मुख्यतः से अपने आत्माका विशदूपसे विवेचन करते हैं और अनिष्टरूप संसारके प्रयोजनोंसे दूर रहनेका उपदेश देते Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९६ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ हैं। उनकी वाणीमें जादू है। उन्होंने अध्यात्मको जीवन में उतारकर तथा अपने उपदेशों और ग्रन्थरचना द्वारा ऐसे वातावरणका निर्माण किया जिससे इस प्रदेशमें पुराने कालसे चली आयी शुद्ध व्यवहार निश्चय स्वरूप तेरापंथ रूप अध्यात्मप्रवृत्ति की पुष्टि हुई। मुझे तो ये तीनों बत्तीसियाँ तीन रत्न प्रतीत हए। जैसे रत्नोंका हार गले और छातीकी शोभा बढ़ाता है वैसे ही ये तीनों बत्तीसियाँ कण्ठ और हृदयमें धारण करने लायक हैं। जिनागमसे इनमें व्यवहार निश्चय स्वरूप किसी प्रकारका विरुद्ध कथन किया हो ऐसी कल्पना करना अपने अज्ञानको ऊजागर करना मात्र है। इनका सभी स्वाध्यायप्रेमी मनन और अनुगमन करें ऐसी भावना है। ज्ञानसमुच्चयसार (अ) जिन उवएसं सारं, किंचित् उवएस कहिय सद्भावं । ___ तं जिन तारन रहयं, कम्मक्षय मुक्तिकारनं सुद्धं ।।९०६।। श्री जिनेन्द्रदेवका जो साररूप उपदेश है उसके कुछ अंशको लेकर 'जिन तारन' नामसे प्रसिद्ध इस ग्रन्थकी मैंने रचना की है। भगवानका यह उपदेश कर्मक्षयके साथ मोक्षप्राप्तिका निमित्त है और पूर्वापर समस्त दोषोंसे रहित है ॥९०६॥ (आ) आगे इसी ग्रन्थकी पुष्पिकामें उनका पूरा नाम जिन तारनतरन दिया है । यथाइति ज्ञानसमच्चय सार ग्रन्थ जिन तारण तरण विरचित ता। (इ) प्रत्येक ग्रन्थकी अंतिम पुष्पिकाके समान छद्मस्थवाणीके अंतिम अध्यायमें भी स्वामीजीके पूरे नामका इसप्रकार उल्लेख दृष्टिगोचर होता है । 'जिन तारण-तरण शरीर छूटो' इन सबको देखनेसे विदित होता है कि प्रकृत ग्रन्थके रचयिताका पूरा नाम 'जिन तारण' न होकर 'जिन तारण-तरण' ही प्रचलित था। उनका 'जिन तारण' यह संक्षिप्त नाम है । ठिकानेसार ग्रन्थके देखनेसे विदित होता है कि आम जनता इनको 'स्वामीजी' इस नामसे विशेष रूपसे सम्बोधित करती रही है। (१) मालूम पड़ता है कि उनका 'जिन तारण तरण' नाम जन्मनाम न होकर ग्रन्थ-रचनाकालमें या ग्रन्थरचनाके पूर्व ही ध्यान-अध्ययनसे ओतप्रोत उनकी अध्यात्मवृत्त अवस्थाको देखकर साधारण जनताके द्वारा रखा गया होना चाहिये । (२) यह भी सम्भव है कि अपनी रचनाओंमें स्वामीजीने जिनदेव और जिन गुरुके लिये 'तारणतरण' पदका बहुलतासे प्रयोग किया है, इसलिये अपना गुरु मानकर उन्हें भी जनता द्वारा 'जिन तारण-तरण' नामसे सम्बोधित किया जाने लगा हो। - जो कुछ भी हो, इतना स्पष्ट है कि अपनी विपुल रचनाके पूर्व ही वे 'जिन तारण तरण' इस नामसे जाने माने लगे होंगे। यही कारण है कि अपनी कई रचनाओंके अन्तमें उन्होंने 'जिन तारण विरइयं' तथा मुक्ति श्री फूलनामें 'मन हरषिय हो जिन तारण' इस रूपमें अपने नामका स्वयं उल्लेख किया है। जन्मतिथि निर्णय हमारे सामने तीन ठिकानेसार उपलब्ध हैं। उन सबमें भगवान् महावीरके कालसे लेकर इसप्रकार विवरण मिलता है : 'वीरनाथकी आयु वर्ष बहत्तर, काय हाथ सात एवं काल चौथी। पंचमौ कालकी आर्वलि इकीस हजार वर्ष । कालि को नाम दुषमा। मनुष्यकी काया हाथ साढ़े तीन । मनुष्यको आवलि वर्षकी वीसा सौ, तामे घटि बड़ । उन्नीस सौ पचहत्तरि वर्ष गये ते 'तार काल' हु है । Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थखण्ड : ३९७ जहाँ तक मेरा अनुमान है कि ठिकानेसारके उक्त उल्लेखमें 'तार काल' पदसे उसके रचयिताको 'जिन तारण तरण काल' ही इष्ट है। वह मानते हैं कि दीर निर्वाणसे १९७५ वर्ष गत होने पर स्वामीजीका जन्म हुआ। जैसा कि पट्टावलियोंसे ज्ञात होता है कि वीर जिनके निर्वाणलाभके बाद ४७० वर्ष गत होने पर विक्रम सम्वत् प्रारम्भ हुआ । अतः १९७५ वर्षमेसे ४७० वर्ष कम कर देने पर वि० सं० १५०५ में स्वामीजीका जन्म हुआ यह निश्चित होता है । १९७५-४७० = १५०५ वि० सं० को जन्म | अब इस सम्वत् के किस माहकी किस तिथिको स्वामीजीका जन्म हुआ, यह देखना है । छद्मस्थवाणीमें स्वामीजी के शरीरत्यागके विषयमें यह उल्लेख आता है "संवत पन्द्रह सौ बहत्तर वर्ष जेठ वदी छठकी रात्रि सातऍ शनिवार दिन जिन तारण तरण शरीर छूटो ।" इससे इतना तो स्पष्ट हो जाता है कि स्वामीजीने जेठ वदी ७ शनिवार वि० सं० १५७२ को इहलीला समाप्त की । अब यह देखना कि इस तिथि तक स्वामीजीका कितना काल वर्तमान पर्याय में व्यतीत हुआ । इसके लिये इसी उपस्थवाणी के प्रथम अध्याय पर दृष्टिपात करनेसे विदित होता है कि स्वामीजी कुल ६६ वर्ष पांच माह पन्द्रह दिन तक वर्तमान पर्यायमें रहे । इसलिये इस कालको शरीर त्यागके कालमेंसे घटा देने पर जन्मकाल अगहन सुदी ७ गुरुवार वि० सं० १५०५ आ जाता है। क्योंकि अगहन सुदी ७ से जेठ बदी ७ तक गणना करने पर कुल ५ माह १५ दिन होते हैं तथा उक्त जन्मतिथिसे शरीरत्यागकी तिथि तक वर्षोंकी गणना करने पर ६६ वर्ष होते हैं । यद्यपि अगहन सुदी ७ से जेठ वदी ७ तक कुल ५ माह १६ दिन होते हैं। परन्तु स्वामीजीने जेठ वदी ६ की रात्रिमें ही शरीर त्याग कर दिया था, इसलिये छद्मस्थवाणीमें जो ५ माह १५ दिनका उल्लेख है वह ठीक है । छद्मस्थवाणीमें एक वह उल्लेख दृष्टिगोचर होता है सिद्ध ध्रुव उन्नीस सौ तैंतीस वर्ष दिन रयनसे तीन उत्पन्न । इसमें प्रथम अंश 'सिद्ध ध्व' है, द्वितीय अंश 'उन्नीस सौ तैंतीस वर्ष दिन रयनसे' है और तीसरा अंश 'तीन उत्पन्न' है। स्वामीजीका जन्म वीर नि० सम्बत्से १९७५ वर्ष गत होने पर हुआ था, यह हम पहले ही बतला आये हैं तथा प्रकृत वचन उन्नीस सौ तेंतीस वर्षका उल्लेख करना है । इसलिये प्रश्न होता है कि किस सम्वत्से १९३३ वर्ष बाद ? विक्रम संवत्से तो हो नहीं सकता, क्योंकि विक्रम सम्वत्से १९३३ के कई शताब्दी पूर्व ही स्वामीजी का जन्म हो चुका था । अतः परिशेष न्यायसे इस कालकी गणना वीर निर्वाण सम्वत्से ही की जानी चाहिये । उक्त उल्लेखमें प्रथम अंश 'सिद्ध धुव' है। मालूम पड़ता है कि छद्मस्थवाणीमें 'सिद्ध धुव' पद द्वारा वीर जिनका निर्वाण ही अपेक्षित है । अतः पूरे उल्लेखका यह अर्थ हुआ कि वीर निर्वाण सम्वत्से १९३३ वर्ष गत होने पर स्वामीजी उत्पन्न हुए। १९७५ मेसे १९३३ कम करनेपर ४२ लव्य जाते हैं. अतः इस उल्लेखमें जिन तीनके उत्पन्न होने का निर्देश किया गया है वे तीन स्वामीजीके जन्म से ४२ वर्ष पूर्व उत्पन्न हुए, यह निश्चित होता है । पर वे तीन कौन ? यह प्रश्न फिर भी शेष रहता है । यदि स्वामीजी के जन्म के समय माता-पिताकी आयु लगभग ४२ वर्षकी थी, यह अर्थ लिया जाता है तो यह प्रश्न होता है कि वह तीसरा कौन व्यक्ति होगा जिसका स्वामीजीने जन्मसे ४२ वर्ष पूर्व जन्म हुआ होगा । १. श्री ता० त०] अध्यात्मवाणी पृ० ४०९ । Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९८ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ तीसरे व्यक्तिके रूपमें स्वयं स्वामीजीको तो गिना नहीं जा सकता, क्योंकि स्वामीजीका जन्म वीर नि०संवत् १९३३ से ४२ वर्ष बाद हुआ था । अत: मालम नड़ता है कि छदमस्थवाणीके उक्त उल्लेखमें किन्हीं महत्वपूर्ण अन्य तीनका उल्लेख किया गया होना चाहिये । इस विषयमें अनुसन्धान होना चाहिये । इससे अनेक ऐतिहासिक मुथ्योंपर प्रकाश पड़ना सम्भव है। मेरी रायमें तो वे तीन महान विभति ईडरके प्रथम भट्टारक दिल्ली जयपुरके प्रथम भट्टारक और गुजरात और बुन्देलखण्डके प्रथम भट्रारक देवेन्द्रकीर्ति ही होने चाहिये । ये तीनों भट्टारक मूलसंघ कुंदकुंद आम्नायके अनुसार सरस्वतीगच्छ बलात्कारगणके अन्तर्गत क्रमसे ईडर, गुजरात-बुन्देल खण्ड और दिल्ली-जयपुर पट्ट की स्थापना करने वाले थे । स्वामीजीका जन्म अगहन सुदी ७ गुरुवार वि० संवत् १५०५ को हुआ था। इसका निर्णय छद्मस्थ । उससे उनके माता-पिताका नाम क्या था ? जाति, कुल, गाँव क्या था ? किस नगरी में उन्होंने जन्म लिया था ? इत्यादि बातोंपर कोई विशेष प्रकाश नहीं पड़ता। एक आध्यात्मिक पुरुष अपन वर्तमान जीवनकी लौकिक घटनाओं आदि पर लिखता बैठे यह सम्भव भी नहीं है। अतः इन बातोंके निर्णयके लिए 'निर्वाण हुण्डी' रचना ही एकमात्र सहारा है । इसकी भाषा मिली-जुली है। उसमें स्वामीजीकी माताका नाम 'वीरश्री' और पिताका नाम 'गढ़ा साह बतलाया है। उसमें यह भी बतलाया है कि वे जातिसे गाहामूरी वासल्ल गोत्र परवार (पौरपट) थे । जन्म नगरीका उल्लेख करते हुए लिखा है कि वे पुष्पावती नगरीम जन्मे थे । इस विषयमें स्व० ब्रह्मचारी शीतलाप्रसादजीको छोड़कर अन्य सभोका मत है कि कटनीके पास 'बिलहरी' ग्राम ही पुष्पावती है। पूर्व कालमें पुरातत्त्वकी दृष्टिसे यह ऐतिहासिक स्थान रहा है, इसलिए पुष्पावतीका नाम बदलकर उत्तरकालमें बिलहरी हो गया है, यह बहुत कुछ सम्भव है। निर्वाण हुण्डीसे इन बातोंके सिवाय उनके शेष जीवनपर उल्लेखनीय प्रकाश नहीं पड़ता। हाँ, छद्मस्थवाणी (प्रथम अध्याय) में कुछ वचन ऐसे अवश्य ही लिपिबद्ध हए हैं जिनसे उनके जीवनकी खास-खास घटनाओंपर प्रकाश पड़ना सम्भव है । इन वचनोंका सम्बन्ध स्वामीजीके जीवनसे होना चाहिए। यह इसलिए भी ठीक लगता है, क्योंकि इन वचनोंके बाद उनके सं० १९७२ में शरीर त्यागका उल्लेख किया गया है। वे समन वचन इस प्रकार हैं सहजादि मुक्त भेष उत्पन्न ॥१६|| मिथ्याविलि वर्ष ग्यारह ॥१७।। समय मिथ्या विलि वर्ष दस ॥१८॥ प्रकृति मिथ्या विलि वर्ष नौ ।।१९।। माया विलि वर्ष सात ।।२०॥ मिथ्या विलि वर्ष सात ।।२१।। निदान विलि वर्ष सात ॥२२॥ आज्ञा उत्पन्न वर्ष दो ॥२३।। वेदक उत्पन्न वर्ष दो ॥२४|| उपशम उत्पन्न वर्ष तीन ॥२५।। क्ष्यायिक उत्पन्न वर्ष दो ॥२६।। एवं उत्पन्न वर्ष नौ ॥२७॥ उत्पन्न मेष उवसग्ग सहन वर्ष छह मास, पाँच दिन, पंच दस, पन्द्रह सौ बहत्तर गत तिलक । ___ सहज ही नग्न (बाल) रूपमें स्वामीजीका जन्म हुआ ॥१६॥ ११ वर्षकी उम्रमें मिथ्यात्व (गृहीत मिथ्यात्वका) विलय हुआ ॥१७। उसके बाद १० वर्ष में समय (जीवादि पदार्थ या आत्मा विषयक) मिथ्यात्वका विलय हुआ ॥१८॥ उसके बाद नौ वर्ष में प्रकृति (आन्तरिक रुचि विषयक) मिथ्यात्वका विलय हुआ ॥१९॥ उसके बाद २१ वर्ष में क्रमसे माया, मिथ्यात्व और निदान इन तीन शल्योंका विलय हुआ ॥२०-२२॥ उसके बाद गृहीत व्रतोंको उत्तरोत्तर जिनाज्ञाके अनुसार पालन करते हुए अपने परिणामोंमें मुनिपदके योग्य विशुद्धि उत्पन्न की ।।२३-२६॥ उसके बाद उपसर्गोको सहन करनेके साथ छह वर्ष, पाँच माह और पन्द्रह दिन तक 'उत्पन्न भेष' अर्थात् मुनिपदका पालन करते हए वि० सं० १५७२में इहलीला समाप्त की। Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह छद्मस्थवाणीके उक्त वचनोंका आशय है भागों में विभक्त किया जा सकता है। -- (१) बाल जीवन ( २ ) शास्त्राभ्यास जीवन (३) स्वात्मचिन्तन-मनन जीवन (४) ब्रह्मचर्य सहित निरति चार व्रती जीवन (५) मुनि जीवन । १. बालकाल चतुर्थं खण्ड : ३९९ इस आधार पर स्वामीजीके समग्र जीवनको पाँच बाल जीवन में स्वामीजीके ११ वर्ष व्यतीत हुए । इस कालमें स्वामीजीने लौकिक और प्रारम्भिक धार्मिक शिक्षा द्वारा एतद्विषयक मिथ्यात्व ( अज्ञान ) को दूर किया । हो सकता है कि वे ५ वर्षकी अवस्थामें अपने पिताजीके साथ अपने मामाजीके यहाँ गये हों और गढ़ौला ग्राममें उनकी चन्देरी पट्टके अधीश भ० देवेन्द्रकीर्ति से भेंट हुई हो । यह भी सम्भव है कि उस भेंटके समय भ० देवेन्द्रकीर्तिने यह अभिमत प्रकट किया हो कि आपका यह बालक होनहार है । इसके शारीरिक चिह्न और हस्तरेखायें ऐसी हैं ओ स्पष्ट करती है कि यह बालक महान तपस्वी होकर लाखोंका कल्याण करेगा ? | ३ प्रसंग यहाँ मैं यह स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि भ० श्रुतकोति भ० देवेन्द्रकीर्तिके प्रशिष्य और भ० त्रिभुवनकीर्तिके शिष्य थे । उन्होंने स्वयं इस तथ्यका उल्लेख वि० सं० १५५२ में स्वरचित हरिवंश पुराणकी प्रशस्तिमें किया है । और भ० त्रिभुवनकीर्ति स्वामीजीके जन्म समयके पूर्व या बाद वि० सं० १५०१ से लेकर वि० सं० १५२२ के मध्य कभी चन्देरी पट्टके मंडलाचार्य बने, क्योंकि ललितपुरके वि० सं० १५२२के एक प्रतिमालेख में उनका मंडलाचार्य रूपमें उल्लेख है। इससे पूर्वका हमें ऐसा कोई प्रतिमालेख या प्रशस्ति नहीं मिली है जिसमें भ० त्रिभुवनकीर्तिका इस रूपमें उल्लेख किया गया हो। अतएव स्वामीजीके बाल - जीवन के समय या शास्त्राभ्यासके समय श्रुतकीर्तिका मुनि या भट्टारक होकर विचरना सम्भव ही नहीं दिखाई देता । वि० सं० १५२२ के पूर्व जब भ० त्रिभुवनकीर्ति चन्देरी पट्टपर बैठे होंगे, उसके बाद ही कभी श्रुतिकीर्तिने उनसे दीक्षा ली होगी । श्रुतकीर्ति स्वामीजी के शास्त्राभ्यास के कालमें सहाध्यायी रहे हों और परस्पर मिलकर तत्त्वचर्चा करते रहे हों यह सम्भव है । यहाँ इस बातका संकेत कर देना चाहता हूँ कि भट्टारक सम्प्रदायमें जिस भट्टारक परम्पराका जेरहटशाख के रूपमें उल्लेख है वह वास्तवमें चन्देरो शाखा थी । चन्देरी में इस शाखा के अनेक भट्टारकों की छतरी बनी हुई हैं तथा चन्देरी ललितपुर आदिके कई प्रतिमालेखों और चाँदखेड़ी के स्तम्भ लेखमें भ० देवेन्द्रकीर्ति से लेकर इस शाखाको चन्देरी शाखा या पट्ट कहा गया है। यह अवश्य है कि "जेरहट" होकर भट्टारकों का कुण्डलगिरि ( कुण्डलपुर ) आना-जाना होता रहा है, इसलिए भ० श्रुतकीर्ति किसी कारणवश वहाँ चले गये और अपनी साहित्यरचना जेरहट में की । यह दमोह जिले के अन्तर्गत एक ग्राम है । इन्हीं सब बातोंका विचार कर हमने स्वामीजीकी बालकालमें भ० देवेन्द्रकीर्ति से भेंट हुई, यह अभिमत प्रगट किया है । २. शास्त्राभ्यास काल स्वामीजीकी भेंट भ० देवेन्द्रकीर्तिसे या त्रिभुवनकोर्तिसे तो पहले ही हो गई होगी और उन्होंने अपने कानोंसे अपने विषय में उनका अभिमत भी जान लिया होगा, इससे सहज ही स्वामीजीका मन उनके ( भ० १. भट्टारक सम्प्रदाय ग्रन्थ में इन्हें सूरत पट्टका लिखा है । किन्तु उस समय तक वे चंदेरी आ गये थे । चंदेरी पट्टकी स्थापना उन्होंने ही की थी और वे उस पट्टके प्रथम भट्टारक हुए थे । २. विमलवाणी पृष्ठ १७ । ३. भट्टारक सम्प्रदाय लेखांक ५१३ Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४००: सिद्धान्ताचार्य पं० फलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ देवेन्द्रकीर्तिके) सम्पर्कमें रह कर शास्त्राभ्यास करनेका हुआ हो तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं । अतएव लगता है कि ११ वर्षके होनेपर वे अपने परिवारसे विदा होकर उनके पास शास्त्राभ्यासके लिए चले गये होंगे । समय शब्द, छह द्रव्य नौपदार्थ और द्रव्य श्रुत दोनोंके अर्थमें आता है । अतः 'समय मिथ्या विली वर्ष दससे प्रकृतमें यही अर्थ फलित होता है कि ११ वर्षके होनेपर २२ वर्षकी उम्रके होंगे तब स्वामीजीने अपने शिक्षागरुकी शरणमें रहकर शास्त्रीय अभ्यास द्वारा अपने शास्त्र विषयक मिथ्यात्व (अज्ञान) को दूर किया। ४. स्वात्मचिन्तन मनन जीवन स्वामीजीका जीवन तो दूसरे सांचे में ढलना था, उन्हें कोई भट्टारक तो बनना नहीं था, इसलिये लगता है कि वे २१ वर्षकी उम्र होनेपर अपने शिक्षा रुका सानिध्य छोड़कर सेमरखेड़ी अपने मामाके घर चले आये होंगे और वहाँके शान्त निर्जन प्रदेशको पाकर एकान्तमें स्वात्मचिन्तन मननमें लग गये होंगे। यहाँ सेमरखेड़ीसे कुछ दूर पहाड़ी प्रदेश है, उसके परिसर और ऊपरी भागमें चार गुफाओंके सन्निकट एक पहाड़ी नदी है । प्रदेश बड़ा मनोहर और चित्ताकर्षक है। सम्भव है छद्मस्थवाणीका प्रकृति मिथ्या विली वर्ष नौ' यह वचन इसी अर्थको सूचित करता है कि स्वामीजीने ऐसा एकान्त निर्जन प्रदेश पाकर ध्यान, चिन्तन, मनन द्वारा अपनी उत्तर-कालीन जीवन-रेखा यहींपर स्पष्ट और पुष्ट की। उनके स्वभावमें मार्गके निर्णय विषयक जो अस्पष्टता थी उसे भी इन नौ वर्षोंके चिन्तन-मनन द्वारा दूर किया। अब उनके सामने एक स्पष्ट ध्येय था, जिसपर चलनेके लिये वे बलपरिपक्व हो गये। वैसे तो ठिकानेसारकी तीनों प्रतियोंमें स्वामीजीके अनेक स्थानोंपर विचरनेका उल्लेख मिलता है, उनमें एक सेमरखेड़ी भी है. पर उन सब उल्लेखोंसे सेमरखेड़ी विषयक उल्ले बमें अन्तर है। यह उनके माम निवासस्थान भी था। इससे लगता है कि स्वामीजीके निवासका सेमरखेड़ी खास स्थान रहा होगा ? और वहींसे वे धर्मको प्रभावना निमित्त अन्य ग्रामों या नगरों में जाते रहे होंगे । मात्र इसलिये हमने उनके सेमरखेडीके निर्जन प्रदेशमें गिरि गुफाओंमें स्वस्थचित्त हो ध्यान-अध्ययन करनेका विशेष रूपसे उल्लेख किया है। ४. ब्रह्मचर्य सहित निरतिचार व्रतो जीवन जैसा कि हम पहले बतला आये हैं अपने जन्म-समयसे लेकर पिछले ३० वर्ष स्वामीजीको शिक्षा और दूसरे प्रकार अपनी आवश्यक तयारीमें लगे । इस बीच उन्होंने यह भी अच्छी तरह जान लिया कि मूल संघ कुन्दकुन्द आम्नायके भट्टारक भी किस गलत मार्गसे समाजपर अपना वर्चस्व स्थापित करते हैं। उसमें उन्हें मार्गविरुद्ध क्रियाकाण्डको भी प्रतीति हुई। अतः उन्होंने ऐसे मार्गपर चलनेका निर्णय लिया जिसपर चलकर भट्टारकोंके पूजा आदि सम्बन्धी क्रियाकाण्डकी अयथार्थको समाज हृदयंगम कर सके । किन्तु इसके लिये उनकी अब तक जितनी तैयारी हुई थी उसे उन्होंने पर्याप्त नहीं समझा। इन्होंने अनुभव किया कि जब तक मैं अपने वर्तमान जीवनको संयमसे पष्ट नहीं करता तब तक समाजको दिशादान करना सम्भव नहीं है। यही कारण है कि ३० वर्षकी जवानीकी उम्रमें सर्वप्रथम वे स्वयंको व्रती बनानेके लिये अग्रसर हुए। छद्मस्थवाणीके 'मिथ्याविली वर्ष सात' इत्यादि वचनोंसे ज्ञात होता है कि उन्होंने मिथ्यात्व, माया और निदान इन तीन शल्योंके त्यागपूर्वक इस उम्रमें व्रत स्वीकार किये । जिनमें उत्तरोत्तर विशुद्धि उत्पन्न करते हुए वे इस पदपर सात वर्ष तक रहे। उन्होंने अपनी रचनाओंमें जनरंजन राग, कलरंजन दोष और मनरंजन दोष और मनरंजन गारवको त्यागनेका पद-पदपर उपदेश किया है। यहाँ जनरंजन रागसे चारों प्रकारकी विकथायें ली गई हैं। कलरंजन दोषसे दस प्रकारके अब्रह्मको ग्रहण किया गया है और मनरंजन गारवसे सम्यक्त्वके २५ मल' लिये गये हैं १. ठिकानेसार (ब्र० जी) Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : ४०१ इससे मालूम पड़ता हैं कि अपने व्रती जीवनमें उन्होंने इन सब दोषोंके परिहारपूर्वक पूर्ण ब्रह्मचर्यका भी सम्यक् प्रकारसे पालन किया। ५. मुनि-जीवन स्वयंको अध्यात्ममय सांचेमें ढालनेके लिए और अपने संकल्पके अनुसार समाजको मार्गदर्शन करनेके लिए उन्हें जो भी करणीय था उसे वे ६० वर्षकी उम्र होने तक सम्पन्न कर चके थे। संयमके अभ्यास द्वारा उन्होंने अपने चित्तको पूर्ण विरक्त तो बना ही लिया था, अतः वे अन्य सब प्रयोजनोंसे मुक्त होकर पूरी तरहसे आत्मकार्य सम्पन्न करनेमें जुट गये (१) ठिकानेसार (खुरई) पत्र २२१ (३) ठिकानेसार (ब० जी०) पत्र ८५ । अर्थात् उन्होंने श्रावक पदकी निवृत्ति पूर्वक मुनि पद अंगीकार कर लिया। छद्मस्थवाणीके उत्पन्न भेष उवसग्ग सहन इत्यादि वचनसे भी यही ध्वनित होता है कि साठ वर्षकी उम्र होनेपर उन्होंने नियमसे श्रावक पदसे निवृत्ति ले ली होगी और मुनिपद अंगीकार कर वे पूर्ण रूपसे संयमी बन गये होंगे । इस पदपर वे अनेक प्रकारके मानवीय तथा दूसरे प्रकारके उपसर्गोको सहन करते हुए ६ वर्ष, ५ माह १५ दिन रहे और जेठ वदी सप्तमी सं० १५७२ को इहलीला समाप्त कर स्वर्गवासी हए । यह स्वामीजीका संक्षिप्त जीवन-परिचय है। इसे हमने छद्मस्थवाणीके मिथ्याविलि वर्ष ग्यारह इत्यादिके आधार पर लिपिबद्ध किया है । यद्यपि छद्मस्थवाणीके उक्त वचन गूढ़ है । पर उनमें स्वामीजीकी जीवन-कहानी ही लिपिबद्ध हुई है, यह पूरे प्रकरण पर दृष्टिपात करनेसे स्पष्ट हो जाता है। उनकी जीवनीको लिपिबद्ध करते समय हमने छद्मस्थवाणीके उक्त वचनोंको और तात्कालिक परिस्थितिको विशेष रूपसे ध्यानमें रखा है। इसमें हमने अपनी ओरसे कुछ भी मिलाया नहीं है और न उनके विषयमें फैली अनेक उलट पुलट मान्यताओंकी ही चर्चा की है। स्वामीजीका जीवन गौरवपूर्ण था। वे छल प्रपंचसे बहुत दूर थे। भय उनके जीवनमें कहीं भी नहीं था। उन्हें अनादिनिधन अपने ज्ञायकस्वभाव आत्माका पर्ण बल प्राप्त था । वे उसके लिये ही जिये और उसकी भावनाके साथ ही स्वर्गवासी हुए। ऐसे दृढ़ निश्चयी महान् आत्माके अनुरूप हमारा जीवन बने, यह भावना है। स्वामीजीने अपने जीवनमें अनेक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थोंकी रचना की। उनमें आचारकी दृष्टिसे श्रावकाचार मुख्य हैं और अध्यात्मकी दृष्टिसे भयखिपनिक, ममल पाहुड, उपदेश शुद्धसार तथा ज्ञानसमुच्चयसार मुख्य हैं । तीन बत्तीसीकी रचना भी प्रायः इसी दृष्टिकोणसे हुई है। सिद्धि स्वभाव ग्रन्थका अपना अलग स्थान है। मुख अध्यात्मकी ओर ही है। अन्य सब ग्रन्थोंकी भिन्न-भिन्न प्रयोजनोंको लक्ष्यमें रखकर रचना हुई है। स्वामीजीका समग्र जीवन अध्यात्मस्वरूप होनेसे उन सब रचनाओंके द्वारा पुष्टि अध्यात्मकी ही होती है। उक्त सब रचनाओंमेंसे ९ रचनाएँ गद्य मय हैं। भाषाकी स्वतन्त्रता है। स्वामीजीने किसी एक भाषा और व्याकरणके नियमोंमें अपनेको जकड़ कर रचनाएँ नहीं की हैं। जहाँ जिस भाषामें अपने हृदयके भावोंको व्यक्त करना स्वामीजीको उचित प्रतीत हआ वहाँ उस भाषाका अवलम्बन लिया गया है । रचनाओंमें प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश और बोलचालकी हिन्दी इन चारों भाषाओंके शब्दोंका समावेश किया गया है। अनेक स्थलों पर मुहावरेके वाक्यों को भी स्थान दिया गया है। कई स्थलों पर रचनाका प्रवाह गढ़ हो जानेसे स्वामीजीके हृदयकी थाह लेनेके लिये अथक परिश्रम अपेक्षित है। स्वामीजी मर्मज्ञ तत्त्ववेत्ता होनेके साथ संगीतज्ञ भी रहे हैं। लगता है कि वे अपने स्वात्मचिन्तन-मनन और जनसम्पर्कके समय अपनी इस सहज प्राप्त सर्वजनप्रिय कोमल कलाका बहलतासे उपयोग करते रहे होंगे। Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०२ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ ठिकानेसारकी तीनों प्रतियोंमें ममलपाहुडका कौन फूलना किस निमित्त किस ग्राममें रचा गया, इसका कुछ विवरण लिपिबद्ध किया गया है। उससे उक्त तथ्यकी पुष्टिको परा बल मिलता है। इस परसे मुझे लगता है कि स्वामीजीने अपनी ग्रन्थ-रचनाका प्रारम्भ ममलपाहइसे ही किया होगा। मुनिपद अंगीकार करनेके बाद अवश्य ही उन्होंने अपने यातायातके क्षेत्रको सीमित कर दिया होगा। श्रावकके सात शीलोंको स्वामीजीने पाँच महाव्रतों के साथ मुनि-पदमें रहते हुए अपने अधिकतर समयको ध्यान अध्ययनमें ही लगाया होगा। स्पष्ट है कि उन्होंने अधिकतर मौलिक रचनाओंका सृजन श्रावक अवस्थामें ही कर लिया होगा। श्री जिन तारण तरणने जिन १५ ग्रन्थोंकी रचनाकी थी उनमें से १४ ग्रन्थ मुद्रित भी हो चुके हैं । उनके नाम हैं १. तारण श्रावकाचार २. पण्डित पूजा ३. मालारोहण ४. कमलबत्तीसी ५. ज्ञान समुच्चयसार ६. ममलपाहुण ७. उपदेश शुद्धसार ८. त्रिभंगीसार ९. चौबीसठाणा १०. सिद्धिस्वभाव ११. शून्य स्वभाव १२. रकतिका विशेष १३. नाममाला और १४. धर्मस्थवाणी। इनमेंसे प्रारंभके ९ ग्रन्थोंकी स्व० ० शीतल प्रसाद जी लिखित अन्वयार्थ सहित टीका भी प्रकाशित हो चुकी है। वे ग्रन्थ किस क्रमसे अनूदित होकर मुद्रित हुए उनका आनुपर्णा क्रम इस प्रकार है। क्र० ग्रन्थ नाम मुद्रण संवत् गाथा संख्या १. श्री तारण तरण श्रावकाचार वीर नि० सं० २४५९ ४६२ २. ज्ञान समुच्चय सार , २४६१ ९०७ ३. उपदेश शुद्धसार २४६२ ५८९ ४. ममलपाहुड भाग १ २४६३ ४९ फूलना तक ५. ममलपाहुड भाग २ २४६४ १०६ फूलना तक ६. त्रिभंगीसार २४६५ ७१ गाथा ७. कमल बत्तीसी " २४६५ ३२ ८. ममलपाहुड भाग ३ , , २४ १६४ फूलना तक अभी ३-४ वर्ष पूर्व हमें श्रीमन्त सेठ भगवानदासजीके बड़े सुपुत्र श्री भाई डालचन्द्रजीने एक गटकेका फोटो प्रिंट भेजा था। पत्र संख्या १४७ है। उसके बाद दुसरी कलमसे लिखे हुए १-२ पत्र और हैं। उनमेंसे दूसरे पत्रका प्रथम पृष्ठ त्रुटित है । प्रत्येक पत्र लगभग १३-१४ अंगुल लम्बा और ७ अंगुल चौड़ा है । हाँसिया छोड़ दिया गया है। प्रत्येक पृष्ठोंमें कमसे कम १४ और अधिकसे अधिक १८ पक्तियां है तथा एक पंक्तिमें अक्षर किसीमें कमसे कम १८ और किसीमें अधिकसे अधिक ३० है। इस कारण किसी पृष्ठमें अक्षर मोटे हैं और किसीमें सूक्ष्म है। इससे यह अन्तर पड़ा है। यह गुटका कब लिपिबद्ध किया गया इसका उल्लेख करते हुए श्रावकाचारके (पत्र ३११) के अन्तमें यह लेख लिपिबद्ध हुआ है इति सवगयारू जिन तरन नाम विरचित सम उत्पनिता ११ संवत् सोरहसौ वृषे वैसा भाग ६ सुदि लिखत । लगता है कि वैसाख सुदी ६ संवत् १६०० को श्रावकाचारकी प्रतिलिपि पूर्ण हुई होगी। कारण कि जिस तिथिको यह गुटका लिपिबद्ध होकर पूरा हुआ उसका प्रतिलिपिकारने स्वतन्त्र रूपसे उल्लेख करते हुए अन्तमें लिखा है Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : ४०३ कुवरू सुदि ग्यारास वर्षे सोरहसै दिवनरास्य........... ....अलासान पंडे....... ........ मतलब यह है कि किसी अलासान पांडेने कुवार सुदी ६ रविवार वि० सं० १६०० को इस गुटकाकी प्रतिलिपि समाप्त की थी। इससे यह साफ मालूम पड़ जाता है कि आजसे लगभग ४३७ वर्ष पूर्व यह गुटका लिपिबद्ध किया गया था। उक्त उल्लेखसे प्रतिलिपिकार विशेष शिक्षित नहीं जान पड़ता इसलिए संभव है कि जिस प्रतिके आधारसे प्रतिलिपिकारने इस गुटकाको लिपिबद्ध किया होगा वह अपेक्षाकृत परिष्कृत भाषामें रहा होगा। यह भी सम्भव है कि स्वामीने अपनी समस्त रचनाओंके लिये उक्त गुटकामें निबद्ध भाषाको ही अपनाया होगा । जो कुछ भी हो इतना अवश्य है कि आगे स्वामीजीकी किसी भी रचनाको मुद्रित करते समय उसका मिलान गुटकामें निबद्ध रचनासे अवश्य करा लेना चाहिये। क्योंकि ऐसा करनेसे उक्त ग्रन्थकी भाषाके सुधारमें थोड़ा बहुत लाभ मिल सकता है । जिसमें लिपिबद्ध हुए ग्रन्थोंका क्रम इस प्रकार हैग्रन्थ का नाम पत्र संख्या गाथा संख्या १. श्रावकाचार ६ से ३१ ९५ से ४६२ २. उपदेश शुद्धसार ३१ से ७५ ५८८ ३. ज्ञानसमुच्चयसार ७५ से १३३ ९०७ ४. त्रिभंगीसार १३३ से १३८ ५. पंडितपूजा १० प्रारंभके ७. कमलबत्तीसी १४३ से १४५ ૩૨ ७. ज्ञानपिंड १४५ से १४७ ___ इस प्रकार उक्त गुटका पर दृष्टिपात करनेसे यह स्पष्ट हो जाता है कि इस गुटकेके प्रारम्भके पाँच पत्र त्रुटित हो जानेसे इसमें श्रावकाचारके ९४ पद्य उपलब्ध नहीं होते। इसी प्रकार पत्र १३८ का उत्तरार्ध और पत्र १२९ का पूर्वार्ध तथा पत्र १४०, १४१, १४२ और १४३ का पर्वार्ध त्रटित हो जानेसे इसमें पंडित पूजाके प्रारंभिक १० से लेकर ३२ तकके पद्य और मालारोहण नहीं उपलब्ध होते । पद्य शेष जो ग्रन्थ इसमें संकलित किये गये हैं वे सब अर्थसे लेकर इति पर्यन्त पूर्ण रूपसे उपलब्ध होते हैं। यह इस गुटकेका परिचय है। इसमें सबके अन्तमें ज्ञानपिंड नामक एक स्वतंत्र प्रकरण लिपिबद्ध है । उसके प्रारंभमें यह पद्य उपलब्ध होता है। इय जिनवर भासओ विहपयसिओ सुनिसेनिय समयित्तथिरू संस्तर निवारन्तु सवगै कारनु धर्मधरा.................. तथा इसके अन्तमें यह पद्य उपलब्ध होता है इय न्यानपिंड................न्यान विन्यान संजुल । इय न्यानपिंड................लहै सुख्यते मुक्तिवरं ।। गजबासौदाके बीचके चैत्यालयमें भी एक ज्ञानपिंड माल्हडी नामक स्वतन्त्र ग्रन्थ पाया जाता है। मेरे ख्यालसे ये दोनों एक होने चाहिये । फिर भी मेरी जिज्ञासा समाप्त नहीं हुई। अतः मेरे द्वारा भी डा० कस्तूर चन्दजी द्वारा सम्पादित कतिपय शास्त्र भंडारोंकी हस्तलिखित ग्रन्थ शास्त्रियोंका अवलोकन करने पर मालूम हुआ कि इस ज्ञानपिंडके अतिरिक्त इसी नामका एक ग्रन्थ और है। किन्तु उसका विषय इससे भिन्न चार आराधना है, उसका प्रारंभिक अंश इस प्रकार है। Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०४ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ कणपिंड गुणसायर भुवण दिवायर पणविवि सिद्ध जिणेसर । वोछा में आराहण सिव सुहसाहण यह अखिय जिणवर वर ।। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि स्वामी ने एक स्वतन्त्र ज्ञानपिंड या ज्ञानपिण्ड पद्धाडिका नामक लघुकाय ग्रन्थ लिखा था । अतः इस सहित स्वामीजी द्वारा रचे गये ग्रन्थ १५ हो जाते हैं। यहाँ ऐसा समझना । श्री ब्रह्मचारीजीने अनुवादके लिए जो क्रम स्वीकार किया था वह गुटके में लिपिबद्ध हुए ग्रन्थों के क्रमसे थोड़ा भिन्न है । इस आधारपर यह कह सकना थोड़ा कठिन है कि स्वामीजीने इन ग्रन्थोंको मूर्त रूप देने में क्या क्रम स्वीकार किया होगा। फिर भी तीनों ठिकानेसारोंके आधार पर इतना तो निश्चय पूर्वक कहा ही जा सकता है कि ममलपाहड और तीन बत्तीसियोको कालके आधार पर रचनाके किसी क्रममें बांधना संभव नहीं है। विशेष स्पष्टीकरण उस-उस ग्रन्थका परिचय लिखते समय करोवेंगे ही। २. चार अनुयोग इस समय जितना भी जैन साहित्य उपलब्ध होता है उसे मख्यतया चार भागोंमें विभक्त किया गया है । प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग कहा भी है प्रथमं करणं चरणं द्रव्यं नमः । प्रथमो व्युत्पन्नो मिथ्यादृष्टिः, तस्मै योऽनुयोगः स प्रथमानुयोग । अर्थात् किसे तत्वज्ञानकी खबर नहीं है, किन्तु उसे जाननेके लिए उत्सूक है उसको तत्त्वज्ञानमें प्रवेश कराने में प्रधान साधनभत अनुयोगको प्रथमानुयोग कहते हैं । अर्थात् जो व्यक्ति जैन धर्मकी प्रारम्भिक शिक्षा लेना चाहते है उन प्राथमिक थावकों के लिए कथापुराण सर्वोत्तम उपाय है। उसके माध्यमसे पुण्य पापका ज्ञान होनेपर भी परिणामोंकी जातिके परिज्ञान पूर्वक किस प्रक्रियासे मोक्षमार्गमें प्रवेश होकर मोक्षकी प्राप्ति होती है इसका सम्यक परिज्ञान करानेके लिये प्रथमानुयोगके बाद करणानुयोग रखा गया है। किन्तु चरणानुयोग और द्रव्यानुयोगका निकटका सम्बन्ध है क्योंकि जिसने मोक्षमार्गमें प्रयोजनीय समझकर उत्तरोत्तर रागभावकी हानि पूर्वक तदनुरूप आचारमें आनुपूर्वीसे ता प्राप्त करता जाता है वही स्वावलम्बन पूर्वक आत्मस्थ होनेका अधिकारी होता है, इसलिए तीसरे स्थानपर चरणानुयोग और चौथे स्थानपर द्रव्यानुयोगको रखा गया है। ग्रंथ रचना क्रम विचार स्वामीजी द्वारा रचित समग्र साहित्यपर दृष्टिपात करनेसे यह नहीं मालूम पड़ता कि उन्होंने सर्वप्रथम किस ग्रन्थ की रचनाकी थी और उसके बाद आगे अन्य ग्रन्थोंकी रचनामें क्या क्रम स्वीकार किया था । इसलिए कालके आधारपर ग्रन्थ रचनाके क्रमको स्वीकार करना तो सम्भव नहीं है फिर भी भगवान् महावीरके प्रधान-शिष्य गौतम गणधरने ११ अंग और १४ पूर्वोको मूर्त रूप देते हुए सर्वप्रथम आचारांगकी रचना की थी। उसके बाद सूत्रकृतांग आदि ११ अंगोंकी रचना करके सबके अन्तमे १४ पूर्व गर्भ दृष्टि अंगकी रचना की थी। पूर्वकालमें गुरु अपने शिष्यको वाचना भी इसी क्रमसे देते थे। गुरुके द्वारा शिष्यको निर्दोष रूपसे शब्द और अर्थ दोनोंका प्रदान करना इसका नाम वाचना था। धवला पुस्तक निबद्ध ४४ मंगल सूत्र और उनकी घवला टीका द्रष्टव्य है। उसमें वे लिखते हैं कि इस अनुयोगद्वारमें जो ४४ मंगलसूत्र निबद्ध हैं उनकी रचना महाकम्मपयडि पाहुडके प्रारम्भमें स्वयं गौतम गणधरने की थी। उनमेंसे १२-१३ संख्यांक मंगलसूत्र है। उनमेंसे प्रथम मंगल १. धवला पुराण ९, पृ० १०४ । | Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : ४०५ सूत्र द्वारा अभिन्न १० पूर्वियोंको नमस्कार किया गया है तथा इनको नमस्कार करते हुए १३वें सूत्रमें १४ पूर्वियोंको नमस्कार किया है। वहाँ (प्रथम सूत्रकी व्याख्या करते हुए) यह शंका उठाई गई है कि सर्वप्रथम चौदह पूर्वियोंको नमस्कार न कर दशपूर्वी जिनोंको नमस्कार क्यों किया गया है। इसका समाधान स्वयं वीरसेन स्वामीने दो प्रकारसे किया है । प्रथम समाधानके प्रसंगसे व लिखते है तत्थ एक्कारसंगाणि पढिदूण पुणो परियम्म-सुत्त-पढमाणि योगपुव्वगय-चूलिया त्ति पंचाहियाणिवद्धदिवादे पढिज्जमाणे उप्पादपुव्वमादि कादूण पढंताणं दसपुव्वीए विज्जाणुवादे समत्ते रोहिणी आरिपंचसम महाविज्जायो सत्तसयदहरविज्जायाहि अणुगयाओ किं भयवं आणावेदि त्ति दुक्कंति । एवं दुक्काणं सव्वविज्जाणं जो लोभं गच्छदि सो भिण्णदसपुवी। जो पुण तासुंण लोभं करेदि कमक्खय त्थी हों तो सो अभिण्णदस्सपुचीणाम । तत्थ अभिण्णदसपुव्वी जिणाणं णमोक्कारं करेमि त्ति उत्तं होदि । किं भयव आणावेदि विठुक्कंति एवं ठक्काणं सव्वविज्जाणं जो लोभं गच्छादि सो भिण्णदसपुवी । जो पुण तासु ण लोभं करेदि कम्मक्खयत्पी होतों सो अभिण्णदस्सपुवीणाम । तत्थ अभिण्णदसपुव्वीजिणाणं णमोक्कार कामित्ति उत्तं होदि । - इसका अर्थ है-वहाँ ग्यारह अंगोंको पढ़कर पुनः परिकर्म, सूत्र, प्रथमानुयोग, पूर्ववात और चूलिका इन पाँच अधिकारोंमें निबद्ध दष्टिवादको पढते हए उत्पाद पूर्वसे लेकर पढ़ने वालेके दशम पूर्व विद्यानुवादके समाप्त होनेपर ७०० क्षुल्लक विद्याओंसे अनुगत रोहिणी आदि ५०० महाविद्याऐं भगवन् ! क्या आज्ञा देते हैं ऐसा कहकर उपस्थित होती हैं । इस प्रकार उपस्थित हुई सब विद्याओंके अनुसार जो लोभको प्राप्त होता है वह भिन्न दशपूर्वी है और जो कर्मक्षयका अर्थी होता हुआ उनमें लोभ नहीं करता वह अभिन्नदशपूर्वी है । उनमेंसे यहाँ अभिन्न दशपूर्वी जिनोंको मैं नमस्कार करता हूँ यह उक्त कथनका तात्पर्य है । इस उल्लेखसे यह स्पष्ट है कि गौतमगणधरने सर्वप्रथम आचारांगकी रचना की थी। तदनन्तर सूत्रकृतांग आदि १२ अंगोंकी रचना की थी। गुरु शिष्यको वाचना भी इसी क्रमसे देता है यह भी इससे स्पष्ट हो जाता है। यदि दूसरे मंगलसूत्रपर दृष्टि डालते हैं तो उसकी टीकासे भी इसी अर्थकी पुष्टि होती है। लिखा है सेसहेट्ठित पुवीर्ण णमोक्कारो कि ण कदोरणु, तेसि चि कदो चेव, तेहि विणा चौदसपुव्वाणुववत्तीर्यो। शंका-अस्वस्तन शेष पूवियोंको नमस्कार क्यों नहीं किया ? समाधान नहीं उनको नमस्कार किया ही है, क्योंकि जो अधस्तन पूर्वी जिन नहीं हुए हैं उनका चौदस पूर्वी जिन होना सम्भव नहीं है । यह अध्ययन-अध्यापन और ग्रंथ रचनाका क्रम है। इसे ध्यानमें रखकर विचार करनेपर ऐसा लगता है कि इसी परिपाटीका अनुसरण करते हए स्वामीजीने भी सर्व प्रथम श्रावकाचारकी रचना की होगी। यह कहना कि आचारांग तो भुवि-आचारका ग्रन्थ है और स्वामीजी द्वारा रचित ग्रन्थ मुख्यतया श्रावकाचार सम्बन्धी है, इसलिए पूर्वोक्त तर्कके अनुसार स्वामीजीने मुल परम्पराका अनुसरण करके सर्वप्रथम श्रावकाचारकी रचना क्यों की उन्होंने, भ्रति आचार सम्बन्धी ग्रन्थकी रचना क्यों नहीं की। इसके दो समाधान हो सकते है-प्रथम तो यह कि यह भले ही मुख्यतया श्रावकाचार सम्बन्धी ग्रन्थ हो, पर है तो यह आचार विषयक ही साथ ही । देश-कालको देखते हुए इतिहासपर दृष्टिपात करनेसे मालूम पड़ता है कि उनके कालमें आचार विषयक शिथिलता बहुत कुछ बढ़ गई थी इसलिए भूलमें सुधार करनेके अभिप्रायसे उन्होंने सर्वप्रथम श्रावकाचारकी रचना करना ही इष्ट माना होगा। दूसरे ऐसा लगता है कि उन्होंने जो कुछ भी लिखा है Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०६ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ वह प्रायः ब्रह्मचर्य पूर्वक व्रती अवस्थामें ही लिखा है इसलिए भी उन्होंने मुख्यतया श्रावकाचारकी रचना करना इष्ट रखा होगा। यह कहना कि उनके काल तक इस आगमिक परम्पराका लोप हो गया होगा जैसा कि बहुलतासे इस कालमें देखा जाता है, ठीक नहीं है. क्योंकि पण्डित प्रवर आशाधरजी १३वीं शताब्दीमें मनीषी विद्वान हो गये हैं। वे भी स्वरचित सागारधर्मामृतमें आडंगफैर्वमथार्थ संग्रहमधीज्ये इन शब्दों द्वारा उसी परम्पराका स्मरण कराते हैं । अतः यह मानने में आपत्ति नहीं है कि स्वामीजीने वे धर्मभीरु समाजको मार्गी बनाये रखनेके लिए सर्वप्रथम श्रावकाचारकी रचना की होगी। अब देखना यह है कि स्वयं अपने द्वारा रचित अन्य ग्रन्थोंकी रचनाका उन्होंने क्या क्रम स्वीकार किया होगा। स्वामीजीने ज्ञानपिण्ड पद्ध डिकाको मिलाकर जिन पन्द्रह ग्रन्थोंकी रचना की है उनमेंसे एक ग्रंथके अन्तमें तो पाहड शब्द लगा हुआ है और तीन ग्रन्थोंके अन्तमें सार शब्द लगा हआ है। जिन ग्रन्थों के अन्तमें सार शब्द लगा हुआ है वे हैं-ज्ञान समुच्चयसार, उपदेश शुद्धसार और त्रिभंगीसार । यह सार शब्द समयसार, प्रवचनसार और नियमसारके अन्तमें भी लगा हआ है। हैं ये तीनों ग्रन्थ पाहुड ही। इस आधार पर यह माना जा सकता है कि स्वामीजीने भी स्वरचित तीन ग्रन्थोंके अन्तमें पाहुडके अर्थमें ही सार शब्दका प्रयोग किया होगा। और ऐसा मानने में कुछ अपवादको छोडकर कोई आपत्ति भी नहीं दिखाई देती, क्योंकि चौदह पूर्वीके अन्तर्गत जिस साहित्यकी परिगणना की जा सकती है उसके अधिकतर लक्षण स्वामीजी द्वारा रचित उक्त तीन ग्रन्थोंमें बहलतासे उपलब्ध होते हैं। पाहुड शब्दका जब "पदोंसे स्फुट" अर्थ लिया जाता है तब जिस अर्थका हमने पूर्व में स्पष्टीकरण किया है वह अर्थ इन ग्रन्थोंमें बहुलतासे घटित हो जाता है इसमें सन्देह नहीं। किन्तु जब पाहुडशब्दका उपहार अर्थ लिया जाता है तब आनन्दको उत्पन्न करने वाले होनेसे इन तीन ग्रंथोंको इस अर्थमें भी प्रभूत मानने में आपत्ति नहीं, क्योंकि जो भव्य जीव अन्तिम तीर्थकर भगवान महावीरकी दिव्यध्वनिको केन्द्रमें रखकर इन ग्रन्थोंका स्वाध्याय करता है वह अवश्य ही अक्षयानन्त आनन्दका भागी होता है। मात्र दृष्टि किसी सीमामें बंधी हुई न होकर सम्यक् पूर्व परम्पराको अनुसरण करने वाली होनी चाहिए। यह तो तीनों ठिकानेसारोंके उल्लेखसे ही स्पष्ट हो जाता है कि ममलपाहुड़के सभी फूलनोंकी रचना एक कालमें नहीं हुई थी। साथ ही "मुखसे फूल झड़े” इस अर्थमें ही सम्भवतः सभी फूलनोंको फूलना कहा जाने लगा जान पड़ता है, इसलिए ममलपाइड एक कालकी रचना न होनेके कारण श्रावकाचारके बाद ज्ञानसमुच्चयसार स्वीकार कर लेना उपयुक्त प्रतीत होता है। लगता है कि स्वामीजीने ज्ञान समुच्चय यह नामकरण मुख्यतया समयसारके ही अन्तिम अधिकार सर्वविशद्धिज्ञानाधिकारके अर्थमें ही किया जान पड़ता है इसलिए उसे तीसरे स्थानपर रखा गया है । इसके बाद त्रिभंगीसार क्रम प्राप्त है, इसलिए उसे चौथे स्थानपर रखा है। अब रहे शेष ग्रन्थ सो उनमेंसे चौवीसठाणा यह करणानुयोग सम्बन्धी ग्रन्थ होनेसे इसका भी अन्तर्भाव पूर्वश्र तमें होता है, इसलिए उसकी परिगणना पाँचवें स्थानपर करना न्यायसंगत है । इसके बाद पण्डितपूजा, मालारोहण और कमल बत्तीसीको क्रमसे रखा जा सकता है । यद्यपि इस क्रममें कुछ विचार है जिसका निर्देश हम उन ग्रन्थोंका विस्तृत परिचय लिखते समय करावेंगे। स्वामीजी द्वारा रचित सब ग्रन्थोंमें उक्त नौ ग्रन्थ मुख्य हैं, इसलिए हमने इन नौ ग्रन्थोंके रचनाक्रमपर ही मुख्यरूपसे प्रकाश डाला है। आगे रचना क्रम विचारके लिए जो ग्रन्थ रह जाते हैं उनमेंसे छद्मस्थ१. सारसर धर्मामृतअ. २, श्लो. २१ । Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थखण्ड ४०७ वाणीको सबके अन्त में रखना उचित प्रतीत होता है, कारण कि उसमें कुछ ऐसे वचन भी संग्रहीत किये गये हैं जिन्हें स्वामीजी के अन्तिम उद्गारके रूपमें स्वीकार किया जा सकता है । इससे उसका छद्मस्थवाणी यह नामकरण भी सार्थक सिद्ध हो जाता है, क्योंकि उसके द्वारा स्वामीजीसे सम्बन्धित लगभग पूरे इतिहासपर प्रकाश पड़ता है । उसमें प्रायः उन सभी नामों और ग्रामोंके नामोंका संकलन हुआ है जो उनसे लाभान्वित हुए हैं । फिर भी जो कुछ नाम छूट गये या उनके धार्मिक प्रचार में सहायक रहे उन्हें छद्मस्थवाणीमें संकलित कर दिया गया है । अब शेष रहे ज्ञानपिण्डपटिका के साथ चार ग्रन्थ सो उन्हें १० खातिका विशेष, ११ सिद्धिस्वभाव, १२ शून्यस्वभाव और १३ ज्ञानपिण्डपडिका इस क्रमसे रखना उपयुक्त होगा। यह क्रम हमने इसलिए स्वीकार किया है, क्योंकि उत्तरोत्तर स्वामी जी धर्म प्रचार आदि सम्बन्धी विकल्पोंको गौण कर आत्मभावनाकी ओर विशेष रूपसे झुकते गये होंगे और इसलिए यह माना जा सकता है कि सिद्धिस्वभाव और शून्यस्वभाव यह उनके अन्तिम उच्छ्वासके रूपमें लिपिबद्ध हुए होंगे। - ठिकानेसार : जैसा कि हम पहले लिख आये हैं जो तीन ठिकानेसार हमारे सामने हैं उनमें उक्त चौदह ग्रन्थों को पाँच मनो (मनियों) में विभाजित किया गया है- आचारमत विचारमत, ममलमत और केवलमत (१) आचारमत-श्रावकाचार (२) विचारमत मालारोहण, पण्डितपूजा और कमलबसीसी (३) सारमत-ज्ञानसमुच्चयसार उपदेशशुद्धसार और त्रिभंगीसार ( ४ ) ममलमत-ममलपाहुड और चौबीसठाणा तथा (५) केवलमन छद्यस्यवाणी, नाममाला, खतिका विशेष सिद्धिस्वभाव और शून्यस्वभाव । ठिकानेसार में मसके स्थानमें मतिशब्दका भी प्रयोग हुआ है। यद्यपि पहले हमने इसपर विचार नहीं किया था कि मन शब्दका प्रयोग किया या मति शब्द का । लगता तो यही है कि उसने मन शब्द न रख कर मति शब्द रख कर ही यह विभाग किया होगा, क्योंकि स्वरचित ग्रन्थोंमें जिन विषयोंका संकलन हुआ है वे अलग-अलग मतों में विभक्त हों ऐसा नहीं है हाँ नय विशेषको ध्यान में रखकर अवश्य ही कहा जा सकता है । उदाहरणार्थ श्रावकाचार यणः चरणानुयोगका ग्रन्थ है, इसलिए यह अध्यात्मगर्भं व्यवहार नयकी मुख्यतासे लिखा गया है । पण्डितपूजा यह ज्ञानीव्यवहार - निश्चय उभयरूप पूजा ठिकावसारेक लेख ने किस विधि से करे इसका प्रतिपादक है, इसलिए वह व्यवहारगर्भ निश्चयनयी मुख्यतासे लिपिबद्ध हुआ है। ये उदाहरण मात्र है, अतः अन्य ग्रन्थोंका भी इसी न्यायसे विचार कर लेना चाहिये। इसलिए ऐसा लगता है कि मूल ठिकानेसारके लेखकने स्वामी जी द्वारा रचित ग्रन्थोंको नय विशेषकी दृष्टिसे विभक्त करते समय मति शब्द ही रखा होगा । मन शब्दकी अपेक्षा मति शब्द नया शब्दके अधिक सन्निकट है । तदनुसार यहाँ ऐसा अर्थ लेना चाहिये कि धर्माचरणमें तत्पर श्रावक या भाविकाका बाह्य आचार कैसा हो इसका निर्देश स्वामीजीने धावकाचारमें किया है, इसलिए ठिकानेसारके लेखकने उसकी परिगणना आचारगति अर्थात् व्यवहार नयके विषय रूपमें दी है। इसी प्रकार सारमति, विचारमति, ममलमति और केवलमतिके विषय में भी विचार कर लेना चाहिए अथवा नयके अर्थमें मत शब्दको स्वीकार कर लेनेपर उनके अर्थ फलित हों जाता है । प्रकृतमें सार पदका अर्थ है हितकारी या उपादेय । हितकारी या उपादेय एक आत्मा है क्योंकि अन्य जितनी प्रकृतियाँ हैं या विकल्प परम्परा है परमार्थसे वह संसारकी ही प्रयोजक है यह जानकर जो आत्माकी शरण लेता है वही कल्याणका भागी होता है इस प्रकार इस दृष्टिको सामने रखकर स्वामीजीने व्यावहारिक Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०८: सिद्धान्ताचार्य पं० फलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ गर्भ निश्चयनय प्रधान ज्ञानसमुच्चयसार, उपदेशसुद्धसार और त्रिभंगीसारकी रचना की है। इसीलिए ठिकाने सारके लेखकने इन तीन ग्रन्थोंकी परिगणना सारमति अर्थात् व्यवहारगर्भ निश्चयनयके विषय रूपमें की है। विचारका अर्थ है प्रकृति विषयमें मनोयोगपूर्वक उपयुक्त होना । पण्डितपूजा आदि तीन बत्तीसियोंमें जिन विषयोंकी संकलता है वह अर्थ गर्भ है । लगता है इसे ठिकानेसारके लेखकने अवश्य ही हृदयंगत किया होगा । इसीलिए उसने इन तीन ग्रन्थोंको भी विचारमति अर्थात् व्यवहार गर्भ निश्चयनयके विषय रूपमें परिगणित किया है। ___ ममल यह स्वामीजीका निर्मल या अमलके अर्थमें आया हुआ पारिभाषिक शब्द है। ठिकानेसार और चौबीसठाणा ये आत्ममग्नताकी ओर ले जाने वाले शुभोपयोग बहुल ग्रन्थ हैं, इस अभिप्रायको साधकर ही ठिकानेसारके लेखकने इनकी परिगणना ममलमति अर्थात् अध्यात्मगर्भ व्यवहारनयके विषय पमें की है। केवलमतिमें केवल पदसे स्वामीजीको जो इष्ट रहा है यह ठिकानेसारके लेखककी दृष्टिसे रहस्यपूर्ण है। मेरी नम्र रायमें वह रहस्य यह हो सकता है यथा जब हम सिद्धिस्वभाव और शून्यस्वभावके विषयकी दष्टिसे विचार करते हैं तब तो केवल पदका अर्थ होता है, अकेला आत्मा। संयोग और संयोगी भावोंसे भिन्न अकेले आत्माको देखने पर यह आत्मा सिद्धोंके समान स्वतःसिद्ध, अनादि अनन्त विज्ञानधन चिन्मात्र प्रतीत होता है । और जब खातिका विशेषके विषयकी दृष्टिसे विचार करते हैं तब केवल पदका अर्थ होता है कि अकेला आत्मा ही अपने अपराधके कारण नरकादि योनियोंका पात्र होता है और जब नाममाला तथा छद्मस्थवाणीके विषयकी दुष्टिसे विचार करते हैं तब केवल पदका अर्थ होता है अपने इतिवृत्तको इतिहास सजोया जाना क्योंकि इन दोनों ग्रन्थोंमें स्वामीजीके कालके उन सम्बन्धी मौलिक इतिहासको ही यथा सम्भव संजोया है। इस प्रकार ठिकानेसारके लेखकने स्वामीजीकी सब रचनाओंको जो पाँच भागोंमें वि है उसका यह आशय प्रतीत होता है। भाषा दो-तीन ग्रन्थोंको छोड़कर स्वामीजी द्वारा रचित ग्रन्थों की भाषा अपनी है। यह ऐसा सिक्का है जो अलगसे टकसालमें ढाला गया है किन्तु है वह सरस और मूल विषयको स्पर्श करने वाली ही । साधारणतः प्रत्येक ग्रन्थकार प्राकृत, पाली, संस्कृत, अपभ्रंश या देशीय किसी एक भाषामें अपने ग्रन्थकी रचना करता है। यदि दो भाषाओंका भो आलम्बन लेना है तो उनकी अपनी स्वतन्त्रता बनाये रखना है। किन्तु स्वामीजीने भाषा विषयक इन परतन्त्रताको भी स्वीकार नहीं किया है। यह तो है कि वे मलतः मध्यप्रदेश में जन्मे थे, वहीं बडे हए साथ ही वहीं रहते हुए उन्होंने धर्मग्रन्थोंका अध्ययन किया था इसलिए उनकी रचनाओंमें जहाँ बन्देलखण्डमें बोली जानेवाली भाषाका समावेश दृष्टिगोचर होता है वहाँ प्राकृत, संस्कृत और अपभ्रंश भाषाका भी योगदान दिखाई देता है । इस प्रकार यह स्वामीजी द्वारा स्वीकृत अपनी भाषा होते हुए भी ऐसी अटपटी भी नहीं है कि कोई भी तत्वज्ञानरो सुपरिचित स्वाध्याय प्रेमी या अध्ययनशील व्यक्तिको अध्ययन करते समय विवक्षित ग्रन्थ, वाक्य या पदका अर्थ हृदयंगम करने में किसी प्रकार कठिनाईका अनुभव करना पड़े। किसी एक सिक्केके समान किसी भी वाक्य या पदको एकबार समझ लीजिए, उसके बाद निर्बाधरूपसे परे ग्रन्थका स्वाध्याय कीजिए, उतना ही आनन्द आयेगा जितना उनसे पूर्ववर्ती मनीषियोंके ग्रन्थोंका स्वाध्याय करते समय आता है। Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतिशयक्षेत्र निसईजी १. प्रस्तावना __ श्री जिन तारणतरणको पुण्य स्मृतिमें जिन धर्म-स्थानोंको चिरकालसे मूर्तिरूप मिला हुआ चला आ रहा है उन्हें निसई कहा जाता है। वे तीन है-निसई मल्हारगढ़, निसई ।सेमरखेड़ी और सूखा निसई । प्राप्त तथ्योंसे मालूम पड़ता है कि इन तीनोंकी स्थापना भी तीन कारणोंसे हुई थी। निसई मल्हारगढ़ वह पुनीत स्थान है जहाँ स्वामीजीने आहार और ईहितसे विरत हो समाधिपूर्वक इस भवसे चिरविश्रान्ति ले परलोककी यात्राको सुगम बनाया था। निसई सेमरखेड़ी उनके दीक्षा, ध्यान, अध्ययनके साक्षीके रूपमें निर्मित हुआ है तथा सूखा निसई कहते हैं कि वह क्षेत्र प्रचारके केन्द्र रूपमें निर्मित हुआ है। __ इस प्रकार श्री जिन तारण-तरणकी पुण्यस्मृतिमें निर्मित ये तीन धर्मस्थान हैं । उनमें निसई मल्हारगढ़ यह अर्थगर्भ नाम है । ऐसा नियम है कि जिस स्थानपर कोई साधु आदि महापुरुष समाधिपूर्वक देह त्याग करते है उनकी पुण्यस्मृतिको चिरस्थायी बनाये रखनेके लिए उसके चिह्नस्वरूप जिस धरती आदिका निर्माण किया जाता है उसे निषद्या कहते हैं। इसी तथ्यको स्पष्ट करते हुए अनगारधर्मामृतमें लिखा भी है कि सिद्धान्तके जानकार साधुके इहलीला समाप्त करनेपर उनके शरीरके समक्ष और निषद्यामें सिद्धभक्ति, श्रुतभक्ति, योगिभक्ति और शान्तिभक्तीः कुर्यात् । अनगारधर्मामृत अध्ययन ९-श्लोक ७२-७३ । इसी तथ्यको स्पष्ट करते हुए षट्खण्डागम वेदनाखण्डमें स्वयं गौतम गणधर द्वारा रचित ४४ मंगलसूत्रोंको निबद्ध करते हुए आचार्य पुष्पदंत-भुतबलिने एक वह मंगलसूत्र निबद्ध किया है णमो लोए सव्वसिद्धायदाणं ॥४३॥ लोकमें सब सिद्धायननोंको नमस्कार हो ॥४३॥ इस सूत्रकी टीका करते हुए आचार्य वीरसेन लिखते हैं सव्वसिद्धियरेण पुव्वं परूबिदासे सजिणाणं गहणं कायव्यं, जिणेहितों पुछभूद देस-सव्वसिद्धाणामणुवलंभादो । सव्वसिद्धारणमायदणाणि सव्व सिद्धायदणाणि | एदेण कट्टिभाकट्टिम जिणहष्णं जिणपडिमाण भी सिपब्भारूजंत-चंपा-पावाणयरादि विसयणिसीहियाणं च गहणं ।। "सब सिद्ध" इस वचनसे पूर्वमें कहे हुए समस्त जिनोंका ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि जिनोंसे पृथग्भूत देश जिन और सर्वजिन नहीं पाये जाते । जो सब सिद्धोंके आयतन हैं वे सब सिद्ध आयतन कहलाते है। इससे कृत्रिम और अकृत्रिम जिनधर, जिनप्रतिमाएँ, ईषत्प्राग्भार भूमि, ऊर्जयन्त, चम्पापुरी और पावानगर आदि निषीधिकाओंका ग्रहण हो जाता है । धवका० पुस्तक ९ सूत्र ४३ टीकाका श्री भगवती आराधना समाधिका प्रमुख आगम ग्रन्थ है। इसमें स्पष्ट बतलाया है कि जहाँ क्षपकके शरीरको स्थापित किया जाना है उसे निषाधिका कहते हैं । वह कैसी होनी चाहिए इसका विवेचन करते हुए लिखा है कि वह एकान्त स्थानमें होनी चाहिए । जनशून्य स्थानपर होनी चाहिए, नगर आदि से न अतिदूर हो न अति सन्निकट हो, विस्तीर्ण होनी चाहिए, प्रासुक और अतिदृढ़ होनी चाहिए, सूक्ष्म त्रसजीवोंके संचारसे रहित होनी चाहिए, प्रकाशवाली होनी चाहिए, समभूमि होनी चाहिये, गीली नहीं होनी चाहिए, छिद्र रहित होनी चाहिए तथा बाधा रहित होनी चाहिए । यथा ५२ Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१० : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ एगमा सालोगा णादिविकिट्ठाण चावि आसण्णा । वित्थिण्णा विद्धता णिसीहिया दूरभागाढ़ा ॥१९६२।। अविसुय असुचिर अधसा सा उश्रीवा बहुसमो असिणिद्धा । णिज्जतुगा अरहिदा अविला या तहा अणाबाधा ॥१९६३।। आगे जिस स्थानपर क्षपक समाधि स्वीकार करता है वह स्थान तीर्थ हो जाता है इसका उल्लेख इन शब्दोंमें करते हुए लिखा है गिरिणदीयादियदेसा तित्थाणि तवोधणिहिं जदि उसिदा । तित्थं कर्षण हुज्जो तवगुणरासी सयं खवड ॥२००१|| यदि तपस्वियोंके द्वारा सेवित पहाड़, नदी आदि प्रदेश तीर्थ हो जाते हैं तो तपस्या आदि गुणोंकी राशिस्वरूप वह क्षपक तीर्थ क्यों नहीं होगा-असत् अवश्य होगा। इस द्वारा यह स्पष्ट किया गया है कि क्षपकका समाधिभरण होनेपर आपका शरीर भी सायकशरीर नोआगमद्रव्य निक्षेपा पूज्य होता है। अब इसमेंसे क्षपकका आत्मा निर्गमन कर गया है, इसलिये उसकी उपेक्षा नहींकी जा सकती है। इस उल्लेखसे इन दो बातोंपर स्पष्ट प्रकाश पड़ता है। प्रथम तो यह कि जो सिद्धतियाँ या तदितर भतियां हैं जहाँ तीर्थंकरादि महापुरुषोंने निर्वाण लाभ लिया है और जहाँ श्रमण-मुनियोंने जो संन्यास पूर्वक देहत्याग किया है उन्हें तो निषीधिका कहते ही हैं साथ ही जो उक्त महापुरुषोंकी पुण्यस्मृति स्वरूप अन्य धर्मस्थानोंका निर्माण किया जाता है उन्हें भी निषीधिका कहते हैं । इस दृष्टिसे जिस स्थानको हम निसई कहते है वह निषी धिका या निषद्यका ही बोलचालको भाषामें चालू नाम है जो उपयुक्त है। उसमें भी जो स्वामीजीका समाधिस्थान है वह तो मुख्य निसई है ही किन्तु इसके अतिरिक्त जो निसई सेमरखेड़ी और सखा निसई ये दो धर्मस्थान हैं उन्हें भी निसई कहने में बुराई नहीं है। यह वस्तुस्थिति है। ऐसा होते हुए भी कुछ कालसे उक्त अर्थमें निसई शब्दोंको उपयुक्त न मानकर उसके स्थानमें निश्रेयी या निःश्रेणि शब्दका प्रयोग होने लगा है। पता नहीं कि उक्त अर्थमें निसई शब्दको ठीक न मानकर उसके स्थानमें निःश्रेणि शब्दका प्रयोग क्यों किया जाने लगा है। हम तो इसे कौन शब्द प्राचीन कालसे किस अर्थमें प्रयुक्त होता आ रहा है इसका ठीक ज्ञान न होनेका ही नतीजा समझते हैं। किसी महापुरुष या धर्मस्थानके प्रति आदर विशेष होना और बात है पर इससे मात्रसे उसके मूल स्वरूपको बदल कर अपने मनसे अन्य कल्पना करना और बात है। समझदार पुरुष भूलसे भी ऐसी गलती नहीं करते है । इसके विपरीत समझदारोंका यही कर्तव्य होता है कि प्राचीन कालसे जो शब्द जिस अर्थमें प्रयुक्त होता आ रहा है उसके पीछे एक छिपा हुआ इतिहास होनेके कारण उसमें परिवर्तन नहीं करते वस्तुतः निषद्यका निसई ही एक ऐसा परिवर्तित रूप है जिससे हम जानते हैं कि स्वामीजीने निर्ग्रन्थ अवस्थामें समाधिपर्वक इह लीला समाप्त कर इसी स्थानसे परलोक गमन किया था और इसी स्थानपर उनके शरीरका अन्तिम संस्कार होकर उनकी स्मृतिस्वरूप पुरानी परिपाटीके अनुसार निषद्याके रूपमें एक छतरीका निर्माण किया गया था जिसे उत्तर कालमें निसई कहा जाने लगा। मारवाड़में जो निसईके स्थानमें नसिया कहनेकी परिपाटी चल पड़ी है सो यह भी उसीका देशी रूप है। Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : ४११ अब हम देखें कि ये तीनों जिस रूपमें उपलब्ध होती है उनका प्रारम्भिक रूप क्या रहा होगा। इसके लिए हमने तीनों निसईका स्वयं जानकर अवलोकन किया है। यह तो सभी कहते हैं कि प्रारम्भमें तीनों स्थानों पर मात्र एक-एक छतरी थी। उसे केन्द्र में रखकर जो कुछ भी निर्माण हुआ है वह बादकी रचना है । पर उनके इस कथनकी पुष्टि कैसे हो इसके लिए हमने तीनों निसई धर्म स्थानोंका बारीकीसे अवलोकन किया । खुरई, बासौदा, मल्हारगढ़ निसई और सिरोंजके चैत्यालयोंमें स्थित शास्त्र भण्डारोंकी छानबीन भी की। फलस्वरूप हमें उनमें जो प्रमाण मिले है उनमेंसे मुख्य है : (१) धूसरपुरा वासोधा दि० जैन चैत्यालयसे प्राप्त एक गुटकामें लिपिबद्ध हुए भयखिपनिक ममल पाहड ग्रन्थके अन्तमें पाई जानेवाली प्रशस्ति । (२) प्राचीन सम्मति रजिस्टर : प्रथम प्रमाण इस प्रकार है नं० ३१९८ इति भयखिपनिक ममलपाइड ग्रन्थ स्वामी तारण-तरन-विरचितं एम उत्थनिता । संवतु सोलहस १६८० वर्षे फागुनमासे सुकलपखै फागुन सुदी दसमी बुधवासरे शास्त्र लिखितं भटगंगाधर सीरोंजस्थाने साह ममला तस्य पुत्र रैनचन्द चिरंजीव कल चिरंजीव जिनदास जिरंजीव सुभं भवतु मगलं ददाति पुस्तकं लिखितं परोपकार नारथं पांडे सुमति चेताले प्रतिष्ठिनं जादिसं पुस्तकं द्रष्टवा ताऊसं लिखितं मम ॥ जदि सुध असुधंवा लेखक दोष न दीपते मनता रये तैल रखते ॥ रखे सिलिबन्धनं ॥ मूर्ख हस्ते न दातव्यं एवं वदति पुस्तिकः ॥ सुभमस्तु । यह विक्रम संवत् १९८० में लिखित भयखिपनिक ममलपाहड ग्रन्थके अन्तमें पाई जानेवाली प्रशस्ति है। इससे इस बातका पता तो अवश्य लगता है कि फाल्गन शक्ल १०वि० सं० १६८० के पूर्व हो सिरोंजम चैत्यालयकी स्थापना हो गई थी। पर इससे किसी भी रिसईके स्वरूप पर प्रकाश नहीं पड़ता। अधिकसे अधिक इस आधार पर यह अनुमान अवश्य ही किया जा सकता है कि सिरोंजमें जब भी चैत्यालयकी स्थापना हुई होगी इसके पूर्व ही सेमरखेडीमें किसी न किसी रूपमें निसईजीकी स्थापना हो गई होगी। साथ ही इससे यह भी अनुमान किया जा सकता है कि सेमरखेड़ीमें जो निसई निर्मित हुई होगी वह मल्हारगढ़के नानिदूर नानिसन्निकट समाधि स्थानके रूपमके निर्मित पाई जानेवाली निसईके अनुरूप ही बनी होगी। इसलिए मुख्य रूपमें यह विचारणीय हो जाता है कि मल्हारगढ़के पास समाधि स्थानपर जिस निसईका निर्माण हुआ था उसका निर्णय होनेपर शेष दो निसईयोंके विकासको प्रक्रियाको सुनिश्चित करने में आसानी हो जायगी। इसके लिए हमने बहुत छानबीन की। मल्हारगढ़की वर्तमान निसईका हमने बारीकीसे अवलोकन भी किया। पर उसमें इतना रूपान्तर हो गया है कि उसे देखकर मल निसईके स्वरूपके विषयमें कुछ निर्णय करना सम्भव न हो सका । मूल रूप क्या रहा होगा यह कैसे समझा जाय इस उलझनमें थे ही कि इतने में शास्त्रागारका अवलोकन करते समय हमारी नजर एक पुराने रजिस्टर पर पड़ गई। यह सम्मति रजिस्टर है। इसका उल्लेख हम क्रमांक दो में कर ही आये हैं। यह बहुत ही जीर्ण-शीर्ण अवस्थामें है, इस कारण इसके प्रारम्भिक कुछ पन्नोंके नष्ट हो जानेसे नहीं मालूम कि कितने इतिहास पर पानी फिर गया होगा फिर भी रजिस्टरका जो भाग शेष बच गया है उससे निसईजीके पुराने इतिहासको समझनेमें बहुत कुछ आसानी हो गई। आगे उसके अनुसार निसईके इतिहास पर प्रकाश डाला जाता है : "समाधि स्थानस्वरूप अतिशय क्षेत्र निसई जी" (१) स्वामीजीके समाधिस्थान पर स्मारक स्वरूप एक छतरी प्रारम्भमें ही बनाई गई थी। उस पर सिरपुर (खानदेश) के निवासी श्री डा० लीलाचन्द व मदनलाल मेहन्त (मनीम) के पूर्वजोंने लगभग Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१२ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्रो अभिनन्दन-ग्रन्थ ३५ वर्ष पूर्व एक छतरी, जिसमें चार कोणोंमें चार खम्भे थे, जो अभी भी चैत्यालयकी वेदीके चारों कोणोंमें लगे हुए हैं । बनवा दी । छतरी वही पुरानी है । (२) वि० सं० १८७४ जो मल्जशादी नागपुरवालोंकी ओरसे मेला भराया गया था उसमें पूरे समाजके साथ श्री केसरी दाऊ नौने गोरेलाल, बाबूलाल और गरीबदास भी आये थे। जिनका मेलाके समय ही धर्मध्यान पूर्वक स्वर्गवास हो गया था । उनमेंसे श्री केसरी दाऊका स्वर्गवास विशेष उल्लेखनीय है । सम्मति रजिस्टरमें लिखा है कि जब श्री दाऊ श्री चैत्यालयमें वन्दना पूर्वक लीन प्रदक्षिणा देकर साष्टांग नमस्कार कर रहे थे तब समस्तके भूमि स्पर्श करते समय मंगल पाठ पढ़ते हुए उनका स्वर्गवास हुआ था । आज भी इस घटनाको इन शब्दोंमें स्मरण किया जाता है दीनी परिक्रमा अर तिलक को विचार वाँध महाबुधवान ऐसे बहुगुणभगे हैं, दर्शनको नाये शीश धीध्र देव-गुरु वन्दन कीन्हें लेकर जिननाम परमहितकारे हैं। आगे सवल निसान बाजे पीछे गजराज साजे उसंध मिलका क्रिया उचारे हैं, केसरी दाउकी करनोंकी वरजी कहाँ तोक कहो स्वामीसे विदा माग परमधामको सिधारे हैं । यह एक ऐसी घटना थी इससे पूरा समाज तो प्रभावित हुआ ही, श्री केसरी दाड कुटुम्बीजन भी प्रभावित हुए बिना न रह सके । फलस्वरूप उनके छोटे भाईने श्री केसरी दाडको हिस्सेकी परी सम्पतिसे लग्डा कर समाजकी मार्फत छतरीके चारों और बारह दरीका मण्डप बनवा दिया ।। यह निर्माण कार्य होनेसे छतरी सहित छतरीका मूल्य रूप दृष्टि ओझल हो गया, पर उसे बदला महीं गया। (३) आज वेदीके ऊपर जो शिखर बनी अदृष्टिगोचर होता है वह बारह दरी बननेके बाद नागपुर वाले सेठ मल्लू सावने बनवाया है। साथ ही पूर्व दिशाका मुख्य द्वार भी उन्हींकी ओरसे बनवाया गया है । ४) इसके बाद पर्व दिशाके दरवाजेके पीछे पश्चिमकी ओर दरवाजेसे लगी हई पीले पत्थरोंकी त्तिहयारी वि० सं० १९५६ में आगासोद निवासी सेठ हरचन्दने बनवाई है। (५) निसईजीके चारों ओर पक्का परकोटा, दहलान चारों दिशाओंमें बने हुए आटा और दक्षिणकी ओर बड़ा हाथी दरवाजा बना हुआ है वह सब निर्माण कार्य वि० सं० १९३० से लेकर १९६० के भीतर खुरई निवासी चौधरी दयाचन्दजीकी देखरेखमें समाजकी ओरसे अठा बना हुआ है वह मिर्जापुर निवासी सेठ जमुनादास पन्नालालकी ओरसे बनवाया गया है तथा हाथी दरवाजेके ऊपरका शिखर टिमरनी निवासी भाई ठाकुरसी लालने बनवाया है । (६) इसके बाद सं० २०१० में सागर निवासी समाज भूषण श्रीमन् सेठ भगवानदासजीकी ओरसे (१) स्वाध्याय भवन, (२) छात्रावासके कमरे, (३) वेदीजीकी उत्तर दिशाम ब्रह्मचारी निवास और वेदीका विस्तार करनेके अभिप्रायसे उसके चारों ओर १२ कमरे यह सब निर्माण कार्य कराया गया। (७) श्रीनिसईजीसे पश्चिम दिशामें लगभग २५० गज दूर श्रीमन्त सेठ कुन्दन लाल हजारीबालजी मानोरावालोंने ब्रह्मचारी कुटीका निर्माण करा उसकी सेल्लास बड़े समारोहसे उद्घाटन विधि सम्पन्न कराई। (८) श्री ब्र० गुलाब चन्दजीने वि० स० में ब्रह्मचर्य दीक्षा ली थी। अतः उसको पुण्यस्मृतिमें वारी टोडा निवासी श्री लक्ष्मीचन्दजीने क्षेत्रकी दक्षिण दिशामें एक सुन्दर निवास स्थानका निर्माण कराया । तथा इसकी पश्चिम दिशामें गंज बासौदा निवासी सेठ चुन्नीलाल जवाहरलालने ३०,००० रु० व्यय करके अतिथि भवनका निर्माण कराया। Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : ४१३ इन सब निर्माण कार्योंके अतिरिक्त स्वामीजीके अनन्य भक्त श्री लुकमानशाहके निवासस्थानके रूपमें चव-तरासह एक कुटी बनी हुई चिरकालसे आ रही है। भेंट व अभिप्राय श्री महाराज माधोराव सिंधियाने ता० २२ फरवरी सन १९०३ की शुभ वेलामें श्री निसईजी क्षेत्र पर आकर क्षेत्रके दर्शन किये थे। उस समय खरई निवासी चौधरी दयानन्दजी उपस्थित थे । दर्शन करनेके बाद महान जनताने इच्छा व्यक्तकी कि क्षेत्रके लिए जो अपेक्षित हो उसकी हमें जानकारी दे। चौधरी साने आप क्षेत्र पर दर्शनार्थ पधारें आपकी इतनी कृपा बनी रहे इसमें हमें सन्तोष है । इसके सिवाय और कोई इच्छा प्रकट नहीं की फिर भी श्री महाराज साहबने क्षेत्रके चारों ओरकी पाठर भूमि स्वेच्छासे क्षेत्रको प्रदान कर दी। क्षेत्रका निर्माण और विस्तार उसी पर हुआ है। अन्तमें महाराज साहबने सम्मति रजिस्टर पृ० १५१ में अपनी सम्मति देते हुए लिखा हैप्रशस्ति-लेख श्री निसईजीकी पूर्व दिशाके दरवाजेकी तिवारीके भीतर दीवालमें जड़ा हुआ शिलापट्ट प्रशस्ति लेख श्री सन्त महाराजजी श्री मल्हारगढ़में स्थान श्री निसईजी है ताहाँ तीरथके परवान तीरथके परवान ताहाँ देहलान सुहाई धरमशाला नाम रानगढ़ सेवनबाई श्री सेंठे हरीदास केस्नचन्द नाम है तिनको सेठानीको नाम कहत हैं जमुनाजीको श्री वेदीजीके सामने पुरव दक्षन कौन रामचन्द कारंदा हते मागौर ब्रामन तीन स्वपंचोंकी तरफसे सबकि खुरई गांओ दयाचन्द तिनिते कहै चौधरीआटको काम चैत्र मास महीना हतौ इकतालीसकी साल ती दिनको पूरी भई तिथ पांचे गुरुवार दसकत कांलुगो लीषे मुनीलाल है नाम हात जोर सबसे कहै जै जै जै सियाराम कारीगिर दस पाँचने बनाओ पूरो काम षुभानामालीकी तरफ लिषे कौनको नाम मी० चैत वदी ५ सन् १८८५ गुले कारीगर गुरुवार सं० १९४१ । सामायिक बारादरी नदी तट श्री निसईजी क्षेत्रकी दिशामें लगभग एक मीलके फासले पर बंतवा नदी है पूरबके तट पर एक पक्का घाट और सामायिक मंदिर बना हुआ है। कहते हैं कि स्वामी इसी स्थान पर आकर सामायिक स्वाध्याय आदि किया करते थे। इसीके स्मृतिस्वरूप सामायिक मंदिरका निर्माण पूरे समाजकी ओरसे घाटका निर्माण वि० सं० २००२ में बांदा निवासी उजयामूरी श्री सेठ बल्देवप्रसाद गुलाबचन्दने कराया है इसके अतिरिक्त अनेक दानी महानुभावोंकी ओरसे वहाँ सम्भवतः ये कोठे बाहरसे आने-जाने वाले अतिथि लोगोंकी सुविधाकी दृष्टिसे बनाये गये है। जनश्रुति यहाँ घाटके सामने नदीमें स्वाभाविक तीन टापू निकले हुए हैं। उनके विषयमें यह जनश्रुति प्रसिद्ध है कि भट्रारक पन्थका विरोध करनेके कारण अनेक भाई-बहिन स्वामीजीके विरोधी हो गये थे फलस्वरूप विरोधियोंने तीन बार नदीमें डुबोया पर प्रत्येक बार डुबाये जाने पर वहाँ एक टापू बनता गया। यह भी कहा जाता है स्वामीजी नदीमें डुबाये जाते समय यह गाथा पढ़ते रहे परमानंद विलासी मोहि लेचल अगम अथासी । मेला श्री निसईजीमें एक तो फाग फूलनाका मेला होता है जिसके प्रतिवर्ष भराये जानेके नियम है दूसरा नैमित्तिक मेला भी भराया जाता है इसके प्रतिवर्ष भराये जानेका नियम नहीं है किन्तु जिस वर्ष किसी व्यक्ति विशेषने इच्छा व्यक्त की उस वर्ष उसकी ओरसे यह मेला भराया जाता है। Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१४ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ श्री निसईजी क्षेत्र पर एक बीजक लगा हआ है। उसकी अविकल प्रतिलिपि विज्ञप्ति १००८ श्री निश्रेयीजी तीर्थ क्षेत्र तपोभूमि एवं अंतिम समाधि स्मारक भूमि पर निर्वाण मेला भराने वालोंकी नामावलि श्री क्षेत्र वि० सं० १५७२ में स्थापित । मेला भराने वालोंकी नामावलि१. श्री सेठ ताराचन्दजी मल्लूसावजी दो सके नागपुर वि० सं० १८७४ । २. श्री सेठ............समजी मल्लजी वैशाखिया बांदा वि० सं० १९०० । ३. श्री सेठ घासीरामजी परमानंद खूबचंदजी बांदा वि० सं० १९१६ । इस मेलामें जयपुरसे एक धर्मात्मा भाई आये थे। किन्तु इन्होंने अपना नाम उजागर नहीं किया । सम्मति रजिस्टरसे श्री सिंघई निशानचंद माणिकचन्दकी धर्म सेवा आदि कार्यक. मेला भराने वालोंको आर्थिक व दूसरे प्रकारका सहयोग देना । ख. होशंगाबादके चैत्यालयके निर्माणमें मुख्य रूपसे भाग लेना । ग. प्रतिदिन कमसे कम ५ साधर्मी बन्धुओंके साथ भोजन करना । घ. समाजके आजीविकाहीन बन्धुओंको आर्थिक सहायता देकर रोजगारमें लगाना । ङ. प्रतिवर्ष साधर्मी भाइयोंको प्रीतिभोज देना ।। च. साधर्मी भाइयोंको आर्थिक व दूसरे प्रकारकी सहायता देकर १०१ घरोंको स्थिर स्थावर करना । छ. स्वयं अपनी ओरसे पाठशाला खोली जानेमें सर्वाधिक सहयोग करना । ज. प्रतिवर्ष मेलामें पैदल नंगे पैर आते रहना (सम्मति रजिस्टरसे)। ५. श्री सेठ घासीरामजी परमानन्द खूबचन्दजी बांदा वि० सं० १९२८ । ६. श्री सेठ मदनलाल बालचन्द बिहारी लालजी सागर वि० सं० १९२९ । ७. श्री सेठ बरनजू बालचन्दजी सागर वि० सं० १९३० । ८. श्री सेठ चन्द्रभान नाथूरामजी खानीमूरी होशंगाबाद वि० सं० १९३६ । ९. ................"................".........वि० सं० १९४७ । १०. श्री सेठ मोदी बालचन्द रामप्रसाद गुलाबचन्दजी आगासौद वि० सं० १९६२ । ११. श्री सेठ बसंतलालजी मुरलीधर वंशीधरजी बांदा वि० सं० १९७३ । १२. श्री सेठ छुन्नीलाल मानिकचंदजी टिमरनी वि० सं० १९९० । विशेष—इस मेले पर इसी क्षेत्र पर श्री जिन तारण-तरण पाठशालाकी स्थापना हुई थी। Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान तथा शोधपरक १. कषायप्राभृत दिगम्बर आचार्योंकी ही कृति है २. तत्त्वार्थसूत्र और उसकी टीकाएँ ३. समयसार कलशकी टीकाएँ ४. पुरुषार्थसिद्धयुपाय : एक अनुशीलन ५. जैन सिद्धान्तदर्पण : एक अनुचिन्तन ६. तेरानवें सूत्रमें 'संजद' पद ७. सप्ततिका प्रकरण : एक विवेचनात्मक अध्ययन Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषायप्राभृत दिगम्बर आचार्योंकी ही कृति है श्वेताम्बर-मुनि श्री गुणरत्न विजयजीने कर्मसाहित्य तथा अन्य कतिपय विषयोंके अनेक ग्रंथोंकी रचना की है। उनमेंसे एक खवगसेढी ग्रन्थ है। इसकी रचनामें अन्य ग्रंथोंके समान कषायप्राभूत और उसकी चूणिका भरपूर उपयोग हुआ है । वस्तुतः श्वेताम्बर परम्परामें ऐसा कोई एक अन्य ग्रन्थ नहीं है जिसमें क्षपकश्रेणीका सांगोपांग विवेचन उपलब्ध होता हो। श्री मुनि गणरत्नविजयजीने अपने सम्पादकीयमें इस तथ्यको स्वयं इन शब्दोंमें स्वीकार किया है समाप्त थयावाद क्षपकश्रेणीने विषय संस्कृतमा गद्यरूपे लखवो शरूकों । ४थी ५ हजार श्लोक प्रमाण लखाण थयाबाद मने विचार आव्यो के जुदा ग्रंथोंमां छुटी छपाई वर्णवायेली क्षपक श्रेणी व्यवस्थित कोई एक ग्रंथमा जोवामा आवती नथी। जैनशासनमा महत्वनी गणती 'क्षपक श्रेणी' ना जुदा ग्रन्थोंमा संग्रहीत विषयनो प्राकृतभाषामा स्वतन्त्र ग्रन्थ तैयार थाय, तो ते मोक्षाभिलाषी भव्यात्माओंने घणो लाभदायी बने। उनके इस वक्तव्यसे स्पष्ट ज्ञान होता है कि इस ग्रंथके प्रणयनमें जहाँ उन्हें कषायप्राभृत और उसकी चूणिका भरपूर सहारा लेना पड़ा, वहाँ उनके सहयोगी तथा प्रस्तावना लेखक श्री श्वे० मुनि हेमचन्द्रविजयजी कषायप्राभृत और उसकी चूर्णिको अपने मनगढन्त तर्कों द्वारा श्वेताम्बर परम्पराका सिद्ध करनेका लोभ संवरण न कर सके । आगे हम उनके उन कल्पित तर्कों पर संक्षेपमें क्रमसे विचार करेंगे, जिनके आधारसे उन्होंने इन दोनोंको श्वेताम्बर परम्पराका सिद्ध करनेका असफल प्रयत्न किया है। ___उनमें भी सर्वप्रथम हम मूल कषायप्राभृतके ग्रंथ परिमाण पर विचार करेंगे, क्योंकि श्वे. मुनि हेमचन्द्रविजयजीने अपनो प्रस्तावना ८ पृष्ठ. २९में कषायप्राभृतके पन्द्रह अधिकारों में विभक्त १८० गाथाओंके अतिरिक्त शेष ५३ गाथाओंके प्रक्षिप्त होनेकी सम्भावना व्यक्तकी है। किन्त उसके चणि सूत्र करनेसे विदित होता है कि आचार्य श्री यतिवृषभके समक्ष पन्द्रह अर्थाधिकारोंमें विभक्त १८० स के समान कषायप्राभूतके अंगरूपसे उक्त ५३ सूत्र गाथायें भी रही है। इन पर कहीं उन्होंने चूर्णिसूत्रोंकी रचनाकी है और कहीं उन्हें प्रकरणके अनुसार सूत्ररूपमें स्वीकार किया है। जिनके विषयमें श्वे० मुनि हेमचन्द्र जीने प्रक्षिप्त होनेकी सम्भावना व्यक्तकी है उनमेंसे 'पुन्वम्मि पंचमम्मि दु' यह प्रथम सूत्र गाथा है जो ग्रन्थके नाम निर्देशके साथ उसकी प्रामाणिकताको सूचित करती है। इस पर चूणिसूत्र है णाणप्पवादस्स पुव्वस्स दसमस्स वत्थुस्स तदियस्स पाहुडस्स' इत्यादि । अब यदि इसे कषायप्राभूतकी मूलगाथा नहीं स्वीकार किया जाता है तो (१) एक तो ग्रंथका नामनिर्देश आदि किये बिना ग्रन्थके १५ अर्थाधिकारोंसे कुछका निर्देश करनेवाली नं० १३ को 'पेज्ज-दोस विहत्ती' इत्यादि सूत्र गाथासे हमें ग्रन्थका प्रारम्भ मानने के लिए बाध्य होना पड़ता है जो संगत प्रतीत नहीं होता। (२) दूसरे उक्त प्रथम गाथाके अभावमें नं० १३की उक्त सूत्रगाथाके पूर्व चूणि सूत्रों द्वारा पाँच प्रकारके उपक्रमके साथ ‘अत्थाहियारो पण्णारसविहो' इस प्रकारका निर्देश भी संगत प्रतीत नहीं होता, क्योंकि Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१८ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ उक्त प्रकार से चूर्णिसूत्रोंकी रचना तभी संगत होती है जब उनके रचे जाने वाले ग्रन्थका मूल या चूर्णिमें नामोल्लेख किया गया हो । इस प्रकार सूक्ष्मतासे विचार करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि 'पुव्वम्मि पंचमम्मि दु' इत्यादि गाथा प्रक्षिप्त न होकर अन्य १८० गाथाओंके समान ग्रन्थकी मूल गाथा ही है । दूसरी सूत्रगाथा है— 'गाहासदे असीदे' इत्यादि । इसके पूर्व पाँच प्रकारके उपक्रम के भेदोंका निर्देश करते हुए अन्तिम चूर्णिसूत्र है 'अत्थाहियारो पण्णा रसविहो ।' यह वही गाथा है जिसके आधारसे यह कहा जाता है कि कषाय प्राभृतकी कुल १८० सूत्र गाथायें हैं । अब यदि इसे प्रक्षिप्त माना जाता है तो ऐसे कई प्रश्न उपस्थित होते हैं जिनका सम्यक समाधान इसे मूल गाथा मानने पर ही होता है । यथा १ - प्रथम तो गुणधर आचार्यको कषायप्राभृतके १५ ही अर्थाधिकार इष्ट रहे हैं इसे जाननेका एक मात्र उक्त सूत्र गाथा ही साधन है, अन्य नहीं । क्रमांक १३ और १४ सूत्र गाथाएँ मात्र अर्थाधिकारोंका नामनिर्देश करती हैं । वे १५ ही हैं इसका ज्ञान मात्र इसी सूत्र गाथासे होता है और तभी क्रमांक १३ और १४ सूत्र गाथाओंके बाद 'अत्याहियारो पण्णारसविहो अण्णेण पयारेण' इस प्रकार चूर्णि सुत्रकी रचना उचित प्रतीत होती है । २ - दूसरे उक्त गाथासे ही हम यह जान पाते हैं कि कषायप्राभृतकी सब गाथाएँ उसके १५ अर्थाधिकारोंके विवेचन में विभक्त नहीं हैं । किन्तु उनमें से कुल १८० गाथाएँ ही ऐसी हैं जो उनके विवेचनमें विभक्त हैं । उक्त गाथा प्रकृतका विधान तो करती है, अन्यका निषेध नहीं करती । यहाँ प्रकृत १५ अर्थाधिकार हैं । उनमें १८० सूत्रगाथाएँ विभक्त हैं । इतना मात्र निर्देश करनेके लिए आचार्य गुणधरने इस सूत्र गाथाकी रचनाकी है । १५ अर्थाधिकारोंसे सम्बद्ध गाथाओंका निषेध करनेके लिए नहीं । इस प्रकार इस दूसरी सूत्रगाथाके भी ग्रन्थका मूल अंग सिद्ध हो जाने पर इससे आगेकी क्रमांक ३ से लेकर १२ तककी १० सूत्रगाथाएँ भी कषायप्राभृतका मूल अंग सिद्ध हो जाती हैं, क्योंकि उनमें १५ अर्थाधिकारों सम्बन्धी १८० गाथाओं में से किस अर्थाधिकारमें कितनी सूत्रगाथाएँ आई हैं एक मात्र इसीका विवेचन किया गया है जो उक्त दूसरी सूत्रगाथाके उत्तरार्ध के अनुसार ही है । उसमें उन्हें सूत्रगाथा कहा भी गया है। यथा 'वोच्छामि सुत्तगाहा जयि गाहा जम्मि अत्थम्मि | इसी प्रकार संक्रम अर्थाधिकारकी जो 'अट्ठावीस' इत्यादि ३५ सूत्रगाथाएं आई हैं वे भी मूल कषायप्राभृत ही हैं और इसीलिए आचार्य यतिवृषभने उनके प्रारम्भ में 'एतो पयडिट्ठाण संकमो तस्स पुव्वं गमणिज्जा सुत्तसमुक्तित्तणा' इस चूर्णिसूत्र की रचनाकर और उनसे अन्तमें 'सुत्तसमुक्कित्तणा एससत्ताए' इस वर्णिस्त्रकी रचना कर उन्हें सुत्ररूपमें स्वीकार किया है । Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : ४१९ ईस प्रकार सब मिलाकर उक्त ४७ सूत्रगाथाओंके मूल कषायप्राभूत सिद्ध हो जाने पर क्रमांकसे लेकर 'आवलिय अणायारे' इत्यादि ६ सूत्र गाथाएँ भी मूल कषायप्राभृत ही सिद्ध होती हैं, क्योंकि यद्यपि आचार्य यतिवृषभने इनके प्रारम्भमें या अन्तमें इनकी स्वीकृति सूचक किसी चूणिसूत्रकी रचना नहीं की है। फिर भी वषायप्राभृत पर दृष्टि डालनेसे और खासकर उपशमना-क्षपणा प्रकरण पर दृष्टि डालनेसे यही प्रतीत होता कि समग्र भावसे अल्पबहत्वकी सूचक इन सूत्र गाथाओंकी रचना स्वयं गुणधर आचार्यने ही की है। इसके लिए प्रथमोपशम सम्यक्त अर्थाधिकारकी क्रमांक १८ गाथा पर दृष्टिपात कीजिये । इतने विवेचनसे स्पष्ट है कि आचार्य यतिवृषभको ये मूल कषायप्राभृत रूपसे ही इष्ट रही हैं । अतः सूत्रगाथाओंके संख्याविषयक उत्तरकालीन मतभेदोंको प्रामाणिक मानना और इस विषय पर टीका-टिप्पणी करना उचित प्रतीत नहीं होता। आचार्य वीरसेनने गाथाओंके संख्याविषयक मतभेदको दूर करनेके लिए जो उत्तर दिया है उसे इसी संदर्भमें देखना चाहिए। इस प्रकार श्वे. मुनि हेमचंद विजयने कषायप्राभृतका परिमाण कितना है इस पर खवसेढ़ि ग्रन्थकी अपनी प्रस्तावनामें जो आशंका व्यक्त की है उसका निरसन कर अब आगे हम उनके उन कल्पित तर्कों पर सांगोपांग विचार करेंगे जिनके आधारसे उन्होंने कषायप्राभूत को श्वेताम्बर आम्नायका सिद्ध करनेका असफल प्रयत्न किया है। (१) इस विषयमें उनका प्रथम तर्क है कि दिगंबर ज्ञान भण्डार मूडबिद्रीमें कषायप्राभृत मूल और उसकी णि उपलब्ध हुई है, इसलिए वह दिगम्बर आचार्यकी कृति है यह निश्चय नहीं किया जा सकता । (प्रथम पृष्ठ ३०). किन्तु कषायप्राभूत मल और उसकी चणि ये मडविद्रीसे दिगम्बर ज्ञान भण्डारमें उपलब्ध हुए है मात्र इसीलिए तो किसीने उन दोनोंको दिगम्बर आचार्योंकी कृति है ऐसा नहीं कहा है। किन्तु उक्त दोनोंके दिगंबर आचार्यों द्वारा प्रणीत होनेके अनेक कारण हैं। उनमेंसे एक कारण एतद्विषयक ग्रन्थोंमें श्वेताम्बर आचार्योकी शब्द योजना परिपाटीसे भिन्न उसमें निबद्ध शब्दयोजना परिपाटी है । यथा (अ) श्वेताम्बर आचार्यों द्वारा लिखे गए सप्ततिकाणि कर्मप्रकृति और पंचसंग्रह आदिमें सर्वत्र जिस अर्थमें 'दलिय' शब्दका प्रयोग हआ है उसी अर्थमें दिगम्बर आचार्यों द्वारा लिखे गये कषायप्राभूत आदिमें 'पदेसग्ग' शब्दका प्रयोग हुआ है । यथा 'तं वेयंतो बितियकिट्टीओ ततियकिट्टीओ य दलिय घेत्तूणं सुहुमसांपराइयकिट्टीओ करेइ ।' सप्ततिका चूणि पृ० ६६ अ० । (देखो उक्त प्रस्तावना पृ० ३२ ।) 'इच्छियठितिठाणाओ आवलियं लंघऊण तद्दलियं सन्वेसु वि निक्खिवइ ठितिठाणेसु उवरिमेसु ॥२॥' । -पंचसंग्रह उद्वर्तनापवर्तनाकरण 'उवसंतद्धा अंते विहिणा ओकड्डियस्स दलियस्स । अज्झवसाणणुरुवस्सुदओ तिसु एक्कयरयस्स ॥२२॥' -कर्मप्रति उपशमनाकरण पत्र १७ Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२० : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ अब दिगम्बर परम्पराके ग्रन्थों पर दृष्टि डालिए "विदियादी पुण पढमा संखेज्जगुणा भवे पदसग्गे । विदियादो पुण तदिया कमेण सेसा विसेसाहिया ।।१७०।।' क० प्रा० मुल 'ताधे चेव लोभस्स विदियकिट्टीदो च तदियकिट्टीदो च पदेसग्गमोकड्डियूण सुहुमसांपराइयकिट्टीओणाम करेदि । -कषाय प्राभूत चूणि मूल पृ० ८६२ । लोभस्स जहणियाए किट्टीए पदेसगं बहुअं दिज्जदि। -षटखण्डागम धवला पु० ६ पृ० ३७९ (आ) श्वेताम्बर आचार्यों द्वारा लिखे गये कर्म-प्रकृति और पंच संग्रहमें 'अवरित'के लिए 'अजय' या 'अजत' शब्दका प्रयोग हुआ है, किन्तु दिगम्बर आचार्यों द्वारा लिखे गये कषायप्राभत और षट्खण्डागममें यह शब्द इस अर्थमें दृष्टिगोचर नहीं होता। इनके लिए कर्मप्रकृति (श्वे०) पर दृष्टिपात कीजिए वेयगसम्मद्दिट्ठी चरित्तमोहुवसमाइ चिटुंतो । अजउ देशजई वा विरतो व विसोहिअद्धाए । उपश० करण ।।२७॥ इसीप्रकार पञ्चसंग्रहमें भी इस शब्दका इसी अर्थमें प्रयोग हआ है। इनके अतिरिक्त 'वरिसवर' 'उव्वलण' आदि शब्द हैं जो श्वेताम्बर परंपराके कार्मिक ग्रंथोंमें ही दृष्टिगोचर होते है, दिगम्बर परम्पराके ग्रंथोंमें नहीं। ये कतिपय उदाहरण हैं। इनसे स्पष्ट ज्ञात होता है कि कषायप्राभूत और उसकी चूणि ये दोनों श्वेताम्बर आचार्योंकी कृति न होकर दिगम्बर आचार्योंकी ही अमर कृति है। (२) कषायप्राभूत और उसकी चूणिको श्वेताम्बर आचार्योंकी कृति सिद्ध करनेके लिए उनका दूसरा तर्क है कि दिगम्बर आचार्यकृत ग्रन्थों पर श्वेताम्बर आचार्योंकी टीकाएँ और श्वेताम्बर आचार्यकृत ग्रन्थों पर दिगम्बर आचार्योकी टीकायें हैं आदि । उसी प्रकार कषायप्राभृत मुल तथा उसकी चूणि पर दि० आचार्यों की टीका होने मात्रसे उन्हें दिगम्बर आचार्योंकी कृति रूपसे निश्चित नहीं किया जा सकता। (प्रस्तावना ५० ३०) .... यह उनका तर्क है । किन्तु श्वेताम्बर आचार्यों द्वारा रचित कर्मग्रन्थोंसे कषायप्राभृत और उसकी चर्णिमें वर्णित पदार्थ भेदको स्पष्ट रूपसे जानते हुए भी वे ऐसा असत् विधान कैसे करते हैं इसका किसीको भी आश्चर्य हुए बिना नहीं रहेगा। 'मुद्रित कषायप्राभूत चुणिनी प्रस्तावनामां रजु थयेलो मान्यतानी समीक्षा' इस उपशीर्षकके अन्तर्गत उन्होंने पदार्थ भेदके कतिपय उदाहरण स्वयं उपस्थित किये हैं। इन उदाहरणोंको उपस्थित करते हुए उन्होंने कषायप्राभूतके साथ कषाप्राभूतणि कर्मप्रकृतिणि इन ग्रन्थोंके उद्धरण दिये हैं। किन्तु श्वेताम्बर पंचसंग्रहको दृष्टि पथमें लेने पर विदित होता है कि उक्त ग्रन्थ भी कषायप्राभूत चूर्णिका अनुसरण न कर कर्मप्रकृति चूणि का ही अनुसरण करता है । यथा (१) मिश्रगुणस्थानमें सम्यक्त्व प्रकृति भजनीय है इस मतका प्रतिपादन करने वाली पञ्चसंग्रहके सत्कर्मस्वामित्वकी गाथा इस प्रकार है-सासयणमि नियमा सम्मं भज्जं दससु संतं ॥१३५॥ कर्मप्रकृति चुणिसे भी इसी अभिप्रायकी पुष्टि होती है। (चणि सत्ताधिकार पृ० ३५) [प्रदेशसंक्रम प० ९४] Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : ४२१ (२) संज्वलन क्रोधादिका जघन्य प्रदेशसक्रम अन्तिम समयप्रबद्धका अन्यत्र संक्रम करते हुए क्षपकके अन्तिम समयमें सर्वसंक्रमसे होता है । यह कर्मप्रकृति चूर्णिकारका मत है और यही मत श्वेताम्बर पंचसंग्रहका भो है । यथा पंसंजलणतिगाणं जहण्णजोगिस्स खवगसेढीए। सगचरिमसमयबद्धं जं छुभइ सगंतिमे समए ॥११९।। (२) प्रथमोपशम सम्यग्दृष्टिके, सम्यक्त्वकी प्राप्तिके समय मिथ्यात्वके तीन पुंज होने पर एक आवलि काल तक सम्यग्मिथ्यात्वका सम्यक्त्वमें संक्रम नहीं होता यह कर्मप्रकृति चूर्णिकारका मत है। पञ्चसंग्रह प्रकृति संक्रम गाथा ११ की मलयगिरि टीकासे भी इसी मतको पुष्टि होती है । यथा तस्यैव चौपशमिकसम्यग्दृष्टी विंशतिसत्कर्मणः आवलिकाया अभ्यन्तरे वर्तमानस्य सम्यग्मिथ्यात्वं सम्यक्त्वे न संक्रामति । प्रकृति सं० पत्र १० (४) पुरुषवेदकी पतद्ग्रहता कब नष्ट हो जाती है इस विषयमें कर्मप्रकृति चुर्णिकारका जो मत है उसी मतका निर्देश पंचसंग्रहणकी मलयगिरि टीकामें दृष्टिगोचर होता है । यथा पुरुषवेदस्य प्रथमस्थितौ द्वद्यवालिकाशेषायां प्रागुक्तस्वरूपं आगालो व्यवच्छिद्यते, उदोरणा तु भवति, तस्मादेव समयादरभ्य षण्णां नोकषायाणां सत्कं दलिकं पुरुषवेदे न संक्रमयति । -पंच० चा० मो० ड० पत्र १९१ श्वे० पंचसंग्रहके ये उद्धरण हैं जो मात्र कर्मप्रकृतिचूर्णिका पूरी तरह अनुसरण करते हैं, किन्तु कषायप्राभूत और उसकी चूणिका अनुसरण नहीं करते। इससे स्पष्ट है कि कषायप्राभृत और उसकी चूर्णिकाको श्वेताम्बर आचार्योंने कभी भी अपनी परम्पराकी रचना रूपमें स्वीकार नहीं किया। यहाँ हमारे इस बातके निर्देश करनेका एक खास कारण यह भी है कि मलयगिरिके मतानुसार जिन पाँच ग्रन्थोंका पंचसंग्रहमें समावेश किया गया है उनमें एक कषायप्राभूत भी है । यदि चन्द्रषिमहत्तरको पंचसंग्रह श्वेताम्बर आचार्यकी कृति रूपमें स्वीकार होता तो उन्होंने जैसे कर्मप्रकृति और चूणिको अपनी रचनामें प्रमाण रूपसे स्वीकार किया है वैसे ही वे कषायप्राभूत और चूर्णिको भी प्रमाण रूपमें स्वीकार करते । और ऐसी अवस्थामें जिन-जिन स्थलोंपर उन्हें कषायप्राभूत और कर्मप्रकृतिमें पदार्थ भेद दृष्टिगोचर होता उसका उल्लेख वे अवश्य करते। किन्तु उन्होंने ऐसा न कर मात्र कर्मप्रकृति और उसकी चूर्णिका अनुसरण किया है। इससे स्पष्ट विदित होता है कि चन्द्रषिमहत्तर कषायप्राभूत और उसकी चूर्णिको श्वेताम्बर परम्पराका नहीं स्वीकार करते रहे। यहाँ हमने मात्र उन्हीं पाठोंको ध्यानमें रखकर चर्चाकी है जिनका निर्देश उक्त प्रस्तावनाकारने किया है । इनके सिवाय और भी ऐसे पाठ है जो कर्मप्रकृति और पंचसंग्रहमें एक ही प्रकारकी प्ररूपणा करते हैं । परन्तु कषायप्राभूत चूर्णिमें उनसे भिन्न प्रकारकी प्ररूपणा दृष्टिगोचर होती है । उसके लिए हम एक उदाहरण उद्वेलना प्रकृतियोंका देना इष्ट मानेंगे । यथा: कषायप्राभुतचणिमें मोहनीयकी मात्र दो प्रकृतियाँ उद्वेलना प्रकृतियाँ स्वीकारकी गई हैं-सम्यकप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति । किन्तु पंचसंग्रह और कर्मप्रकृतिमें मोहनीयकी उद्वेलना प्रकृतियोंकी संख्या २७ है । यथा दर्शनमोहनीयकी ३, लोभसंज्वलनको छोड़कर १५ कषाय और ९ नोकषाय । कषायप्राभूतचणिका पाठः ५८ सम्मामिच्छत्तस्य जहण्णढ़िदिविहत्ति कस्स ? चरिमसमयउव्वेल्लमाणस्स । ( पृ० १०१ ) ३६ एवं चेव सम्मत्तस्स वि। (पृ० १९०) Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२२ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ पंचसंग्रह-प्रदेशसंक्रमका पाठ एवं उव्वलणासंकमेण नासेइ अविरओहारं । सम्मोऽमिच्छमीसे सछत्तीसऽनियठ्ठि जा माया ।।७४।। इसके सिवाय पञ्चसंग्रहके प्रदेशसंक्रमप्रकरणमें एक यह गाथा भी आई है जिससे भी उक्त विषयकी पुष्टि होती है। सम्म-मीसई मिच्छो सुरदुगवेउव्विछक्कमेगिंदी। सुहुमतसुच्चमणुदुगं अंतमुहुत्तेण अणियट्टी ।।७५।। इसमें बतलाया है कि सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी मिथ्यादृष्टि जीव उद्वेलना करता है, पंचानवे प्रकृतियोंकी सत्तावाला एकेन्द्रिय जीव देवद्विकको उद्वेलना करता है, उसके बाद वही जीव वैक्रियकषट्की उद्वेलना करता है, सूक्ष्म त्रस अग्निकायिक और वायुकायिक जीव क्रमसे उच्चगोत्र और मनुष्यद्विककी उद्वेलना करता है तथा अनिवृत्तिबादर जीव एक अन्तर्मुहूर्तमें पूर्वोक्त ३६ प्रकृितियोंकी उद्वेलना करता है। यहाँ पंचसंग्रह निरूपित पाठका उल्लेख किया है कर्मप्रकृतिकी प्ररूपणा इससे भिन्न नहीं है। उदाहरणार्थ जिस प्रकार पञ्चसंग्रहमें अनन्तानबन्धीचतष्ककी परिगणना उद्वेलना प्रकृतियों में की गई है उसी प्रकार कर्मप्रकृतिमें भी उन्हें उद्वेलना प्रकृतियाँ स्वीकार किया है। कर्मप्रकृति चूणिमें प्रदेशसत्कर्मकी सादि-अनादि प्ररूपणा करते हुए लिखा है अणंताणुबंधीणं खवियकम्मंसिगस्स उव्वलंतस्स एगठितिसेसजहन्नगं पदेससं तं एगसमयं होति । यह एक उदाहरण है । अन्य प्रकृतियोंके विषयमें मूल और चूणिका आशय इसी प्रकार समझ लेना चाहिए। किन्तु जैसा कि पूर्व में निर्देश कर आये हैं कषायप्राभूत और उसकी चूर्णिमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व इन दो प्रकृतियोंको छोड़कर मोहनीयकी अन्य किसी प्रकृतिकी उद्वलना प्रकृतिरूपसे परिगणना नहीं की गई है। मतभेद सम्बन्धी दूसरा उदाहरण मिथ्यात्वके तीन भाग कौन जीव करता है इससे सम्बन्ध रखता है । श्वेताम्बर आचार्यों द्वारा लिखे गये कर्मप्रकृति और पंचसंग्रहमें यह स्पष्ट रूपसे स्वीकार किया है कि दर्शनमोहकी उपशमना करनेवाला मिथ्यादृष्टि जीव मिथ्यात्व गुणस्थानके अन्तिम समयमें मिथ्यात्व कर्मको तीन भागोंमें विभक्त करता है । पंचसंग्रह उपशमना प्रकरणमें कहा भी है उरिमठिइअणुभागं तं च तिहा कुणइ चरिममिच्छुदए देसघाईणं सम्म इयरणं मिच्छमीसाइं॥२३॥ कर्मप्रकृति और उसकी चूर्णिमें लिखा है तं कालं बीयठिई तिहाणुभागेण देसघाइ स्थ । सम्मत्त सम्मिस्सं मिच्छत्त सव्वघाईओ ॥१९॥ चूर्णि-चरिमसमयमिच्छद्दि छिसे काले उवसम्मदिठ्ठि होहि त्ति ताहे बितीयकृितीते तिहा अणुभागं करेति । अब इन दोनोंके प्रकाशमें कषायप्राभूत चूर्णिपर दृष्टिपात कीजिए। इसमें प्रथम समयवर्ती प्रथमोपशम सम्यग्दृष्टि जीवको मिथ्यात्वको तीन भागोंमें विभाजित करनेवाला कहा गया है । यथा: १०२. चरिमसमयमिच्छाइट्ठी से काले उवसमसम्मत्तमोहणीओ १०३. ताधे चेव तिण्णि कम्मंसा उप्पादिदा । १०४. पढमसमय उवसंतदंसणमोहणीओ मिच्छतादो सम्मामिच्छत्ते बहुगं पदेसग्गं देदि । (पृ० ६२८) Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थखण्ड : ४२३ यहाँ कर्मप्रकृति और उसकी चूर्णिके विषय में संकेत कर देना आवश्यक प्रतीत होता है कि गाथामें 'तं कालं बीयठि इं' पाठ है उसका चूर्णिकारने जो अनुवाद किया है वह मूलानुगामी नहीं है । मालूम पड़ता है चूर्णिका अनुकरणमात्र है । इतना अवश्य है कि कषायप्राभृत चूर्णिका वाक्यरचना पीछेके विषयविवेचनके अनुसन्धानपूर्वककी गई है और कर्मप्रकृति चूर्णिकी उक्त वाक्यरचना इससे पूर्वकी गाथा और उसकी चूर्णिके विषय विवेचनको ध्यानमें न रखकर की गई है । जहाँ तक कर्म प्रकृतिकी उक्त मूल गाथाओंपर दृष्टिपात करनेसे विदित होता है कि उन दोनों गाथाओं द्वारा दिगम्बर आचार्यों द्वारा प्रतिपादित मतका ही अनुसरण किया है, किन्तु उक्त चूर्णि और उसको टीका मूलका अनुसरण न करती हुई श्वेताम्बर आचार्यों द्वारा प्रतिपादित मतका ही अनुसरण करती । फिर भी यहाँ विसंगतिकी सूचक उल्लेखनीय बात इतनी है कि श्वेताम्बर आचार्यांने उक्त टीकाओं में व अन्यत्र मिथ्यात्व के तीन हिस्से मिथ्यात्व गुणस्थानके अन्तिम समय में स्वीकार करके भी उनमें मिथ्यात्वके द्रव्यका विभाग उसी समय न बतलाकर प्रथमोपशम सम्यक्त्वके प्रथम समयमें स्वीकार किया हैं । यहाँ विसंगति यह है कि मिथ्यात्व गुणस्थान अन्तिम समय में तो तीन भाग होनेकी व्यवस्था स्वीकार की गई और उन तीनों भागों में कर्मपुंजका बँटवारा प्रथमोपशम सम्यक्त्वके प्रथम समयसे स्वीकार किया गया । इस प्रकार इन दोनों परम्पराओंके प्रमाणोंसे स्पष्ट है कि कषायप्राभृत और उसकी चूर्णि पर दिगम्बर आचार्योंने टीका लिखी, केवल इसलिए हम उन्हें दिगम्बर आचार्योंकी कृति नहीं कहते । किन्तु उनकी शब्दयोजना, रचना शैली और विषय विवेचन दिगम्बर परम्परा के अन्य कार्मिक साहित्यके अनुरूप है, श्वेताम्बर परम्पराके कार्मिक साहित्य के अनुरूप नहीं, इसलिए उन्हें हम दिगम्बर आचार्योंको अमर कृति स्वीकार करते हैं । अब आगे जिन चार उपशीर्षकोंके आचार्योंकी कृति सिद्ध करनेका प्रयत्न किया है उन्होंने सर्वप्रथम 'दिगम्बर परम्पराने अमान्य तेवा कषायप्रभात चूर्णि अन्तगंर पदार्थो', इस उपशीर्षक के अन्तर्गत क० प्रा० चूर्णिका ऐसे दो उल्लेख उपस्थित किये हैं जिन्हें वे स्वमतिसे दिगम्बर परम्पराके विरुद्ध समझते हैं । अन्तर्गत उन्होंने कषायप्राभृत और उसकी चूर्णिको श्वेताम्बर उनपर क्रमसे विचार करते हैं प्रथम उल्लेख है -- " सव्वलिंगेस भज्जाणि ।" इस सूत्रका अर्थ है कि अतीत में सर्व लिंगों में बँधा हुआ कर्म क्षपकके सत्तामें विकल्पसे होता है । इस पर उक्त प्रस्तावना लेखकका कहना है कि 'क्षपक चारित्रवेषमां होय पण खरो अने न पण होय चारित्रवान वेष वगर अर्थात् अन्य तापसादिना वेशमां रहेल जीव पण क्षपक थई शके एटले प्रस्तुत सूत्र दिगम्बर मान्यता थी विरुद्ध छे ।' आदि अब सवाल यह है कि उक्त प्र० लेखकने उक्त सूत्र परसे यह निष्कर्ष कैसे फलित कर लिया कि 'क्षपक चारित्रवे-षमां होय पण खरो अने न पण होय चारित्रना वेष वगर अर्थात् अन्य तपासादिना वेशमां रहले जीव पण क्षपक थई शके छे ।' कारण वर्तमानमें जो क्षपक है उसके अतीत कालमें कर्मबन्धके समय कौनसा लिंगमें बाँधा गया कर्म क्षपकके वर्तमान में सत्ता में नियमसे होता है या विकल्पसे होता है ? इसी अन्तर्गत शंकाको ध्यान में रखकर यह समाधान किया गया है कि विकल्प होता है।' इस परसे कहाँ फलित होता है कि वर्तमान में वह क्षपक किसी भी वेशमें हो सकता है। मालूम पड़ता है कि अपने सम्प्रदाय के व्यामोह और अपने कल्पित वेशके कारण ही उन्होंने उक्त सूत्र परसे ऐसा गलत अभिप्राय फलित करनेकी चेष्टा की है । Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२४ : सिद्धान्ताचार्य पं० फलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ थोड़ी देरके लिये उक्त (श्वे.) मनिजीने जो अभिप्राय फलित किया है यदि उसीको विचारके लिए ठीक मान लिया जाता है तो जिस गति आदिमें पूर्वमें जिन भावोंके द्वारा बाँधे गये कर्म वर्तमानमें क्षपकके विकल्पसे बतलाये हैं, वे भाव भी वर्तमानमें क्षपकके विकल्पसे मानने पड़ेंगे। उदाहरणार्थ पहले सम्यग्मिथ्यात्वमें बाँधे गये कर्म वर्तमानमें जिस क्षपकके विकल्पसे बतलाये हैं तो क्या उस क्षपकके वर्तमानमें विकल्पसे सम्यग्मिथ्यात्व भी मानना पड़ेगा। यदि कहो कि नहीं, तो सम्यग्मिथ्यात्वमें बंधे हए जो कर्म सत्तारूपसे वर्तमानमें क्षपकके विकल्पसे होते हुए भी अतीत कालमें उन कोंके बन्धके समय सम्यग्मिथ्यात्व भाव था इतना ही आशय जैसे सम्यग्मिथ्यात्व भावके विषयमें लिखा जाता है उसी प्रकार सर्वलिंगोंके विषयमें भी यह आशय यहाँ लेना चाहिए। हम यह स्वीकार करते हैं कि जैसे अतीत कालमें अन्य लिंगोंमें बाँधे गये कर्म वर्तमानमें क्षपकके विकल्पसे बन जाते हैं वैसे ही अतीत कालमें जिन लिंगमें बाँधे गये कर्मोके वर्तमानमें क्षपकके विकल्पसे स्वीकार करने में कोई प्रत्यवाय नहीं दिखाई देता । कारण संयमभावका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम अर्धपुद्गल परिवर्तनप्रमाण और जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्तप्रमाण बतलाया है । यथाः संजमाणुवादेण संजद-सामाइय-च्छेदीवट्ठावणसुद्धिसंजद-परिहारसुद्धि संजद-संजदासंजद दाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ॥१०८।। जहण्ण अंतोमुहुत्तं ।।१०९।। उक्कस्सेण अद्ध पोग्गल-परियदं देसूणं ॥११०॥-खुद्दाबंध पृ० ३२१-३२२। यहाँ जयधवला टीकाकारने उक्त सूत्रकी व्याख्या करते हुए 'णिग्गंथवदिरित्तसेसाणं' यह लिखकर 'सर्वलिंग' पदसे निर्ग्रन्थ लिंगके अतिरिक्त जो शेष सविकार सर्व लिंगोंका ग्रहण किया है वह उन्होंने क्षपकश्रेणिपर आरोहण करनेवाला जीव अन्य लिंगवाला न होकर वर्तमानमें निर्ग्रन्थ ही होता है और इस अपेक्षासे उसके निग्रन्थ अवस्थामें बाँधे गये कर्म भजनीय न होकर नियमसे पाये जाते है। यह दिखलानेके लिए ही किया है, क्योंकि जो जीव अन्तरंगमें निर्ग्रन्थ होता है। किन्तु इन दोनों के परस्पर अविनाभावको न स्वीकार कर जो श्वेताम्बर सम्प्रदायवाले इच्छानुसार वस्त्र-पात्रादि सहित अन्य वेशमें रहते हुए भी वर्तमानमें क्षपकश्रेणि आदि पर आरोहण करता या रत्नत्रयस्वरूप मुनि लिंगकी प्राप्ति मानते हैं, उनके उस मतका निषेध करनेके लिए जयधवला टीकाकारने 'णिग्गंथवदिरित्तसेसाणं' पदकी योजना की है। विचार कर देखा जाय तो उनके इस निर्देशमें किसी भी प्रकारकी साम्प्रदायिकताको गन्ध न होकर वस्तुस्वरूपका उद्घाटन मात्र है, क्योंकि भीतरसे जीवन में निर्ग्रन्थ वही हो सकता है जो वस्त्र-पात्रादिका बुद्धिपूर्वक त्यागकर बाह्यमें जिनमुद्राको पहले ही धारण कर लेता है। कोई बुद्धिपूर्वक वस्त्र-पात्र आदिको स्वीकार करे, उन्हें रखे, उनकी सम्हाल भी करे फिर भी स्वयंको वस्त्र-पात्र आदि सर्व परिग्रहका त्यागी बतलावे, इसे मात्र जीवनकी विडम्बना करनेवाला ही कहना चाहिए। अतः वर्तमानमें जिसने वस्त्र-पात्रादि सर्व परिग्रहका त्याग कर निर्ग्रन्थ लिंग स्वीकार किया है वही क्षपक हो सकता है और ऐसे क्षपकके निर्ग्रन्थ लिंग ग्रहण करनेके समयसे लेकर बाँधे गये कर्म सत्तामें अवश्य पाये जाते हैं यह दिखलानेके लिये ही श्री जयधवला टीकाकारने अपनी टीकामें 'सर्व लिंग' पदका अर्थ 'निर्ग्रन्थ लिंग व्यतिरिक्त अन्य सब लिंग' किया है जो 'व्याख्यानतो विशेषप्रतिपत्तिः ।' इस नीतिवचनको अनुसरण करनेवाला होनेसे उपयुक्त ही है । दूसरा उल्लेख है-२४. 'णेगम-संगह-ववहार सव्वे इच्छंति । २५. उजुसुदो ठवणवज्जे । (क. प्रा. पृ. १७) इसका व्याख्यान करते हुए यह स्पष्ट किया गया है कि नैगम, संग्रह और व्यवहार ये तीन द्रव्यार्थिक Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : ४२५ नय हैं और ऋजुसूत्र आदि चार पर्यायार्थिक नय हैं । इस विषयमें दिगम्बर परम्परामें कहीं किसी प्रकार मतभेद दिखलाई नहीं देता । कषायप्राभृतचूर्णिसूत्रोंमें सर्वत्र ऋजुसूत्रनयका पर्यायार्थिकनयमें ही समावेश करते हैं । फिर भी उक्त (श्वे ) मुनिजीने अपनी प्रस्तावना में यह उल्लेख किस आधारसे किया है कि 'कषायप्राभूतचूर्णिकार ऋजुसू नयको द्रव्यार्थिकनय स्वीकार करते हैं । यह समझके बाहर है। उक्त कथनकी पुष्टि करनेवाला उनका वह वचन इस प्रकार है- 'अहीं कषायप्राभृत चूर्णिकार ऋजुसूत्रनयनो द्रव्यार्थिकनयमां समावेश करवा द्वारा श्वेताम्बराचार्योनो सैद्धान्तिक परम्पराने अनुसरे छे कारणके श्वेताम्बरोंमें सैद्धान्तिक परम्परा ऋजुसूत्रनयनो द्रव्यार्थिक नयमां समावेश करे छे. ' ५४ S We Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थसूत्र और उसकी टीकाएँ इस अवसर्पिणी कालमें अन्तिम तीर्थंकर भगवान् महावीरके मोक्षलाभ करनेके बाद अनुबद्ध केवली तीन और श्रुतकेवली पाँच हुए हैं । अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु थे । इनके काल तक अंग-अनंग श्रुत अपने मूल रूपमें आया है । इसके बाद उत्तरोत्तर बुद्धिबल और धारणाशक्तिके क्षीण होते जानेसे तथा मूल श्रुतके प्रायः पुस्तकारूढ़ किए जाने की परिपाटी न होनेसे क्रमशः वह विच्छिन्न होता गया है । इस प्रकार एक ओर जहाँ मूल श्रुतका अभाव होता जा रहा था वहाँ दूसरी ओर श्रुत परम्पराको अक्षुण्ण बनाये रखनेके लिए और उसका सीधा सम्बन्ध भगवान् महावीरकी दिव्यध्वनिसे बनाये रखनेके लिए जो अनेक प्रयत्न हुए हैं उनमेंसे अन्यतम प्रयत्न तत्वार्थसूत्रकी रचना है । यह एक ऐसी प्रथम उच्च कोटिकी रचना है जब जैन परम्परामें जैन साहित्यकी मूल भाषा प्राकृतका स्थान धीरे-धीरे संस्कृत भाषा लेने लगी थी, इसके संस्कृत भाषामें लिपिबद्ध होनेका यही कारण है। १. नाम इसमें सम्यग्दर्शनके विषयरूपसे जीवादि सात तत्त्वोंका विवेचन मुख्य रूपसे किया गया है, इसलिए इसकी मूल संज्ञा 'तत्त्वार्थ' है । पूर्व कालमें इसपर जितने भी वृत्ति, भाष्य और टीका ग्रन्थ लिखे गये हैं उन सबमें प्रायः इसी नामको स्वीकार किया गया है । इसकी रचना सूत्र शैलीमें हुई है, इसलिए अनेक आचार्यों ने 'तत्त्वार्थसूत्र' इस नामसे भी इसका उल्लेख किया है। श्वेताम्बर परम्परामें इसके मूल सूत्रोंमें कुछ परिवर्तन करके इसपर वाचक उमास्वातिने लगभग सातवीं शताब्दिके उत्तरार्धमें या ८वीं शताब्दिके पूर्वार्धमें तत्त्वार्थाधिगम नामके एक लघु ग्रन्थकी रचनाकी', जो उत्तर कालमें तत्त्वार्थाधिगम भाष्य इस नामसे प्रसिद्ध हुआ । श्वेताम्बर परम्परामें इसे तत्त्वार्थाधिगम सूत्र इस नामसे प्रसिद्धि मिलनेका यही कारण है । किन्तु वह परम्परा भी इसके 'तत्त्वार्थ' और 'तत्त्वार्थसूत्र' इन पुराने नामोंका सर्वशः विस्मृत न कर सकी । उत्तर कालमें तो प्रायः अनेक श्वेताम्बर टीका-टिपणीकाएँ द्वारा एकमात्र 'तत्त्वार्थसूत्र' इस नामको ही एक स्वरसे स्वीकार कर लिया गया है। श्रद्धालु जनतामें इसका एक नाम मोक्षशास्त्र भी प्रचलित है । इस नामका उल्लेख इसके प्राचीन टीकाकारोंने तो नहीं किया है । किन्तु इसका प्रारम्भ मोक्षमार्गकी प्ररूपणासे होकर इसका अन्त मोक्षकी प्ररूपणाके साथ होता है । जान पड़ता है कि एकमात्र इसी कारणसे यह नाम प्रसिद्धि में आया है। १. ग्रन्थका परिमाण वर्तमानमें तत्त्वार्थसूत्रके दो पाठ (दिगम्बर और श्वेताम्बर परम्परा मान्य) उपलब्ध होनेसे इसके परिमाणके विषयमें ऊहापोह होता आया है। किन्तु जैसा कि आगे चलकर बतलानेवाले हैं, सर्वार्थसिद्धिमान्य पाठ ही मूल १. सर्वार्थसिद्धि, तत्त्वार्थवातिक, तत्वार्थश्लोकवार्तिक आदिके प्रत्येक अध्यायकी समाप्ति सूचक पुष्पिका आदि । २. जीवस्थान कालानुयोग द्वार, पृ० ३१६ । ३. प्रस्तावना, सर्वार्थसिद्धि, पृ० ७२ से ।। ४. तत्त्वार्थाधिगम भाष्य, उत्थानिका, श्लोक २ । ५. सिद्धसेनगणि टीका, अध्याय १ और ६ की अन्तिम पुष्पिका । ६. प्रज्ञाचक्षु पं० सुखलालजी द्वारा अनुदित तत्त्वार्थसूत्र । Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : ४२७ तत्त्वार्थसूत्र है । तदनुसार इसके दसों अध्यायोंके सूत्रोंको संख्या ३५७ है। यथा-अ० १ में सूत्र ३३, अ० २ में सूत्र ५३, अ० ३ में सूत्र ३९, अ० ४ में सूत्र ४२, अ० ५ में सूत्र ४२, अ० ६ में सूत्र २७, अ० ७ में सूत्र ३९, अ० ८ में सूत्र २८, अ० ९ में सूत्र ४७ और अ० १० में सूत्र ९, कुल ३५७ सूत्र । श्वेताम्बर परम्परामें तत्त्वार्थाधिगम भाष्यकी रचना होने पर मलसूत्र पाठमें संशोधन कर दसों अध्यायों में जो सूत्र संख्या निश्चित हुई उसका विवरण इस प्रकार है-अ० १ में सूत्र ३५, अ० २ में सूत्र ५२, अ० ३ में सूत्र १८, अ० ४ में सूत्र ५३, अ० ५ में सूत्र ४४, अ० ६ में सूत्र २६, अ० ७ में सूत्र ३४, अ० ८ में सूत्र २६, अ० ९ में सूत्र ४९, अ० १० में सूत्र ७, कुल ३४४ सूत्र' । ३. मंगलाचरण तत्त्वार्थसूत्रकी प्राचीन अनेक सूत्र पोथियोंमें तथा सर्वार्थसिद्धि वत्तिमें इसके प्रारम्भमें यह प्रसिद्ध मंगल श्लोक उपलब्ध होता है मोक्षमार्गस्य नेतारं भेत्तारं कर्मभूभृताम् । ज्ञातारं विश्वतत्त्वानां वन्दे तद्गुणलब्धये ॥ किन्तु तत्त्वार्थसूत्रकी प्रथम वृत्ति सर्वार्थसिद्धि है, उसमें तथा उत्तरकालीन अन्य भाष्य और टीका ग्रन्थोंमें उक्त मंगल श्लोककी व्याख्या उपलब्ध न होनेसे कतिपय विद्वानोंका मत है कि उक्त मंगल श्लोक मूल ग्रन्थका अंग नहीं है । सर्वार्थसिद्धिकी प्रस्तावनामें हमने भी इसी मतका अनुसरण किया है । किन्तु दो कारणोंसे हमें स्वयं वह मत सदोष प्रतीत हुआ । स्पष्टीकरण इस प्रकार है: १ आचार्य विद्यानन्द उक्त मंगल श्लोकको सूत्रकारका स्वीकार करते हुए आप्तपरीक्षाके प्रारम्भमें लिखते हैं _ 'किं पुनस्तत्परमेष्टिनो गुणस्तोत्रं शास्त्रादौ सूत्रकाराः प्राहुरिति निगद्यते ।' आप्तपरीक्षाका उपसंहार करते हुए वे पुनः उसी तथ्यको दुहराते हैं श्रीमत्तत्त्वार्थशास्त्राद्भुतसलिलनिधेरिद्धरत्नोद्भवस्य, प्रोत्थानारम्भकाले सकलमलभिदे शास्त्रकारैः कृतं यत् । स्तोत्र तीर्थोपमानं प्रथितपथुपथं स्वामिमीमांसितं तत् । विद्यानन्दैः स्वशक्त्या कथमपि कथितं सत्यवाक्यार्थसिद्धयै ।।१२३।। प्रकृष्ट सम्यग्दर्शनादिरूपी श्लोकोंकी उत्पत्तिके स्थान भूत श्रीमत्तत्वार्थशास्त्ररूपी अद्भुत समुद्रकी रचनाके आरम्भ कालमें महान मोक्ष पथको प्रसिद्ध करनेवाले और तीर्थोपमस्वरूप जिस स्तोत्रको शास्त्रकारोंने समस्त कर्ममलका भेदन करनेके अभिप्रायसे रचा है और जिसकी स्वामी (समन्तभद्र आचार्य) ने मीमांसा की है उस स्तोत्रके सत्य वाक्यार्थकी सिद्धिके लिए विद्यानन्दने अपनी शक्तिके अनुसार किसी प्रकार निरूपण किया है ॥१२३॥ इसी तथ्यको उन्होंने पुनः इन शब्दों में स्वीकार किया है इति तत्त्वार्थशास्त्रादौ मुनोन्द्रस्तोत्रगोचरा । प्रणीताप्तपरीक्षेयं विवादविनिवृत्तये ॥१२४॥ इस प्रकार तत्त्वार्थशास्त्रके प्रारम्भमें मुनीन्द्रके स्तोत्रको विषय करनेवाली यह आप्तपरीक्षा विवादको दूर करनेके लिए रची गई है ॥१२४॥ १. विशेषके लिए देखो, सर्वार्थसिद्धि प्र०, पृ० १७ से । Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२८ : सिद्धान्ताचार्य पं० फुलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ __आप्त परीक्षाके ये उल्लेख असंदिग्ध हैं। इनसे विदित होता है कि आचार्य विद्यानन्दके समय तक उक्त मंगल श्लोक सूत्रकारकी कृतिके रूपमें ही स्वीकार किया जाता रहा है । २. एक और आचार्य विद्यानन्दने तत्त्वार्थसूत्रपर तत्त्वार्थ श्लोकवार्तिक नामक विस्तृत भाष्य लिखकर भी उसके प्रारम्भमें इस मंगल श्लोककी व्याख्या नहीं की और दूसरी ओर वे आप्तपरीक्षामें उसे सूत्रकारका स्वीकार करते हैं। इससे इस तर्कका स्वयं निरसन हो जाता है कि तत्वार्थ सूत्रके वृत्ति, भाष्य और टीकाकारोंने उक्त मंगल श्लोककी व्याख्या नहीं की, इसलिए वह सूत्रकारका नहीं है। स्थिति यह है कि स्वामी समन्तभद्र द्वारा तत्त्वार्थसूत्रके उक्त मंगल श्लोक की स्वतन्त्र व्याख्याके रूपमें आप्त मीमांसा लिखे जानेपर उत्तरकालीन पूज्यपाद आचार्यने तत्त्वार्थसत्रपर वृत्ति लिखते हुए उसके प्रारम्भम उक्त मंगल श्लोककी पुनः व्याख्या लिखनेका उपक्रम नहीं किया। भट्ट अकलंकदेवने आप्तमीमांसापर अष्टशती लिखी ही है, इसलिए तत्त्वार्थसत्रपर अपना तत्त्वार्थ भाष्य लिखते समय उन्होंने भी उक्त मंगल श्लोकको स्वतन्त्र व्याख्या नहीं लिखी। यद्यपि आचार्य विद्यानन्दने उक्त मंगल श्लोककी व्याख्याके रूपमें स्वतन्त्र रूपसे आप्त परीक्षा लिखी है । परन्तु उसका कारण अन्य है । बात यह है कि आप्तमीमांसापर भट्ट अकलंकदेव द्वारा निर्मित अष्टशतीके समान स्वयं द्वारा निर्मित अष्टसहस्रीको अति कष्टसाध्य जानकर ही उन्होंने उक्त मंगल श्लोककी स्वतन्त्र व्याख्याकी रूपमें आप्तपरीक्षाकी रचना की। स्पष्ट है कि उक्त मंगल श्लोकको सूत्रकारकी ही अनुपम कृतिके रूपमें स्वीकार करना चाहिए। ४. सूत्रकार और रचनाकालनिर्देश आचारशास्त्रका नियम है कि अर्हत धर्मका अनुयायी साध अन्तः और बाहर परम दिगम्बर और सब प्रकारकी लौकिकताओंसे अतीत होता है। यही कारण है प्राचीन कालमें सभी शास्त्रकार शास्त्रके प्रारम्भम या अन्तमें अपने नाम, कुल, जाति और वास्तव्य स्थान आदिका उल्लेख नहीं करते थे। वे परमार्थसे स्वयका उस शास्त्रका रचयिता नहीं मानते थे। उनका मुख्य प्रयोजन परम्परासे प्राप्त वीतरागताकी प्रतिपादक द्व दशांग वाणीको संक्षिप्त, विस्तृत या भाषान्तर कर संकलन कर देना मात्र होता था। उसमें भी उस कालमें उस विषयका जो अधिकारी विद्वान होता था उसे ही संघ आदिके ओरसे यह कार्य सौंपा जाता था। अन्यथा प्ररूपणा न हो जाय इस बातका पूरा ध्यान रखा जाता था। वे यह अच्छी तरहसे जानते थे कि किसी शास्त्रके साथ अपना नाम आदि देनेसे उसकी सर्व ग्राह्यता और प्रामाणिकता नहीं बढ़ती । अधिकतर शास्त्रोम स्थल-स्थलपर 'जिनेन्द्रदेवने ऐसा कहा है", 'यह जिन देवका उपदेश है', 'सर्वज्ञ देवने जिस प्रकार कहा है उस प्रकार हम कहते हैं।', इत्यादि वचनोंके उल्लेखोंके साथ ही प्रतिपाद्य विषयोंके लिपिबद्ध करनेकी परिपाटी थी । प्राचीन कालमें यह परिपाटी जितनी अधिक व्यापक थी. श्रतधर आचार्योंका उसके प्रति उतना ही अधिक आदर था । तत्त्वार्थसूत्रकी रचना उसी परिपाटीका एक अंग है. इसलिए उसमें उसका संकलयिता कोन है इसका उल्लेख न होना स्वाभाविक है। अतः अन्य प्रमाणोंके प्रकाशमें ही हमें इस तथ्यका निर्णय करना होगा कि आगमिक दृष्टिसे सर्वांगसुन्दर इस महत्त्वपूर्ण ग्रन्थका संकलयिता कौन है ? इस दृष्टिसे सर्वप्रथम हमारा ध्यान आचार्य वीरसेन और आचार्य विद्यानन्दकी ओर जाता है। आचार्य वीरसेन जीवस्थान कालानुयोग द्वारा १० ३१६ में लिखते हैं १. समयसार, गाथा ७० । २. समयसार, गाथा १५० । ३. बोधपाहुड, गाथा ६१ । Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : ४२९ 'तह गिद्धपिच्छाइरियप्पयासिदतच्चत्थसुत्ते वि' वर्तना-परिणामक्रियापरत्वापरत्वेच कालस्य' इदि दव्वकालो परूविदो'। इस उल्लेखमें तत्त्वार्थसूत्र को गृद्धपिच्छाचार्य द्वारा प्रकाशित कहा गया है । __ आचार्य विद्यानन्दने भी अपने तत्त्वार्थ श्लोकवार्तिकमे इन शब्दों द्वारा तत्त्वार्थसूत्रको आचार्य गृद्धपिच्छकी रचनाके रूपमें स्वीकार किया है-'गणाधिप-प्रत्येकबुद्ध-श्रुतिकेवल्यभिन्न दर्शपूर्वधर सूत्रेण स्वयंसम्मतन व्यभिचार इति चेत् ? न, तस्याप्यर्थतः सर्वज्ञवीतराग प्रणेतकत्वसिद्धेरहद्भाषितार्थं गणधरदेवैतिथमिति वचनात् एतेन गद्धपिच्छाचार्यपर्यन्तमुनिसत्रेण व्यभिचारता निरस्ता।' ये दोनों समर्थ आचार्य विक्रम ९वीं शताब्दीके पूर्वार्धमें हुए हैं। इससे विदित होता है कि इनके कालतक आचार्य कुन्दकुन्दके पट्टधर एकमात्र आचार्य गृद्धपिच्छ ही तत्त्वार्थसूत्रके रचयिता स्वीकार किए जाते थे। उत्तर कालमें भी इस तथ्यको स्वीकार करनेमें हमें कहीं कोई मतभेद नहीं दिखलाई देता, जिसकी पुष्टि वादिराजसूरिके पार्श्वनाथचरितसे भी होती है। वहाँ वे शास्त्रकारके रूपमें आचार्य गृद्धपिच्छके प्रति बहुमान प्रकट करते हुए लिखते हैं 'अतुच्छगुणसम्पातं गृद्धपिच्छं नतोऽस्मितम् । पक्षी कुर्वन्ति यं भव्या निर्वाणायोत्पतिष्णवः ।।' वादिराजसूरि शास्त्रकारोंका नामस्मरण कर रहे है । उसी प्रसंगमें यह श्लोक आया है। इससे विदित होता है कि वे भी तत्त्वार्थसूत्रके रचयिताके रूपमें आचार्य गृद्धपिच्छको स्वीकार करते रहे । यद्यपि श्रवणबेलगोलाके चन्द्रगिरी पर्वत पर कुछ ऐसे शिलालेख पाये जाते हैं जिनमें आचार्य गद्ध पिच्छ और उमास्वातिको अभिन्न व्यक्ति मानकर शिलालेख १०५ में उमास्वातिको तत्त्वार्थसूत्रका कर्ता स्वीकार किया गया है। किन्तु इनमेंसे शिलालेख ४३ अवश्य ही विक्रमकी १२वीं शताब्दिके अन्तिम चरणका है। शेष सब शिलालेख १३वीं शताब्दि और उसके बादके हैं। जिस शिलालेखमें उमास्वातिको तत्त्वार्थसूत्रका रचयिता कहा गया है वह तो १५वीं शताब्दिका है। किन्तु मालूम पड़ता है कि ८वीं ९वीं शताब्दि या उसके बाद श्वेताम्बर परम्परामें तत्त्वार्थसूत्रके रचयिताके रूपमें उमास्वातिकी प्रसिद्धि होनेपर कालान्तरमें दिगम्बर परम्परामें उक्त प्रकारके भ्रमकी सृष्टि हुई है। अतः उक्त शिलालेखोंसे भी यही सिद्ध होता है कि तत्त्वार्थसूत्र अन्य किसीकी रचना न होकर मूलमें एकमात्र गृद्धपिच्छाचार्यकी ही अमर कृति है । शिलालेख १०५ में जिन उमास्वातिको तत्त्वार्थसूत्रका रचयिता कहा गया है वे अन्य कोई न होकर आचार्य कुन्दकुन्दके पट्टधर आचार्य गद्धपिच्छ ही हैं। श्वेताम्बर परम्पराके वाचक उमास्वाति इनसे सर्वथा भिन्न व्यक्ति हैं । आचार्य गृद्धपिच्छ और वाचक उमास्वातिके वास्तव्य काल में भी बड़ा अन्तर है। आचार्य गद्धपिच्छ का वास्तव्य काल जबकि पहली शताब्दिका उत्तरार्ध और दूसरी शताब्दिका पूर्वार्ध निश्चित हुआ है। इसलिए श्वेताम्बर परम्परामें जो तत्त्वार्थाधिगम भाष्यमान्य सूत्रपाठ पाया जाता है वह मूल सूत्रपाठ न होकर सर्वार्थसिद्धिमान्य १. शिलालेख ४०, ४२, ४३, ४७ व ५० । २. धर्मघोष सूरीकृत दुःषमकाल श्रमण संघस्तव, धर्मसागर गणिकृत तपागच्छ पद्रावलि और जिनविजय सूरीकृत लोक प्रकाश ग्रन्थ । Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३० : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ सूत्रोंको ही मूल सूत्रपाठ समझना चाहिए'। जोकि आचार्य कुन्दकुन्द विक्रमकी प्रथम शताब्दिके मध्यमें हुए अन्वयमें हुए उन्हींके अन्यतम शिष्य आचार्य गृद्धपिच्छ की अनुपम रचना है । ५. विषय परिचय मूल तत्त्वार्थसूत्रमें १० अध्याय और ३५७ सूत्र हैं यह पहले बतला आये हैं । उसका प्रथम सूत्र है- 'सम्यग्दर्शन- ज्ञान- चारित्राणि मोक्षमार्गः इसका समुच्चय अर्थ है - सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्ररूपसे परिणत आत्मा मोक्षमार्ग है । मोक्षमार्गका ही दूसरा नाम आत्मधर्म है । इसका आशय यह है कि रत्नत्रय परिणत आत्मा ही मोक्षका अधिकारी होता है, अन्य नहीं । वहाँ इन तीनोंमें सम्यग्दर्शन मुख्य है, इसीलिए भगवान् कुन्दकुन्दने दर्शन प्राभृतमें इसे धर्मका मूल कहा है । अतः सर्वप्रथम इसके स्वरूपका निर्देश करते हुए वहाँ बतलाया है- 'तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् ।' जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये सात तत्त्वार्थ हैं । पुण्य और पाप आस्रव और बन्धके विशेष होनेसे यहाँ उनकी पृथक्से परिगणना नहीं की गई है । इनका यथावस्थित स्वरूप जानकर आत्मानुभूति स्वरूप आत्म रुचिका होना सम्यग्दर्शन है यह उक्त सूत्रका तात्पर्य है । परमागम में सम्यग्दर्शनकी उत्पत्तिके जिन बाह्य साधनोंका निर्देश किया गया है उनमें देशनालब्धि मुख्य है। छह द्रव्य और नौ पदार्थोंके उपदेशका नाम देशना है । उस देशनारूपसे परिणत आचार्यादिका लाभ होना और उपदिष्ट अर्थके ग्रहण, धारण तथा विचार करनेरूप शक्तिका समागम होना देशनालब्धि है । प्रथमादि तीन नरकों में प्रथमोपशम सम्यग्दर्शनकी उत्पत्तिके जिन तीन बाह्य कारणोंका निर्देश किया गया है उनमें एक धर्मश्रवण भी है। इस पर किसी शिष्यका प्रश्न है कि प्रथमादि तीन नरकोंमें ऋषियोंका गमन न होनेसे धर्मश्रवणरूप बाह्य साधन कैसे बन सकता है ? इसका समाधान करते हुए बतलाया है कि वहाँ पूर्व भवके सम्बन्धी सम्यग्दृष्टि देवोंके निमित्तसे धर्मोपदेशका लाभ हो जाता है। इस उल्लेख में 'सम्यग्दृष्टि' पद ध्यान देने योग्य है। इससे विदित होता है कि मोक्षमार्ग के प्रथम सोपानस्वरूप सम्यग्दर्शनकी उत्पत्तिमें सम्यग्ज्ञानीका उपदेश ही प्रयोजनीय होता है । इतना अवश्य है कि जिन्हें पूर्व भवमें या कालान्तर में धर्मोपदेशकी उपलब्धि हुई है उनके जीवन में उसका संस्कार बना रहनेसे वर्तमान में साक्षात् धर्मोपदेशका लाभ न मिलने पर भी आत्म जागृति होनेसे सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति हो जाती है । इन्हीं दोनों तथ्योंको ध्यानमें रखकर तत्त्वार्थ सूत्र में - ' तन्निसर्गादधिगमाद्वा' इस तीसरे सूत्रकी रचना हुई है । तत्वार्थ कौन-कौन हैं जिनके श्रद्धानसे सम्यग्दर्शनकी उत्पत्ति होती है इस बातका ज्ञान करानेके लिये 'जीवाजीवास्रव' - इत्यादि सूत्रकी रचना हुई है । मोक्ष मार्गमें निराकुलता लक्षण सुखकी प्राप्ति जीवका मुख्य प्रयोजन है, इसलिये सात तत्त्वार्थों में प्रथम स्थान चैतन्य लक्षण जीवका है । अजीव ( स्व से भिन्न अन्य) के प्रति अपनत्व होनेसे जीव की संसार परिपाटी चली आ रही है, इसलिये सात तत्त्वार्थोंमें दूसरा स्थान अजीवका है । ये दो मूलतत्त्वार्थ हैं । इनके निमित्तसे उत्पन्न होनेवाले शेष पाँच तत्त्वार्थ है । जिनमें संसार और उनके कारणों तथा मोक्ष और उनके कारणोंका निर्देश किया गया है । १. इस विषय के विशेष ऊहापोहके लिए सर्वार्थसिद्धिकी प्रस्तावना पर दृष्टिपात कीजिए । २. जीवस्थान चूलिका पृ० २०४१४, जीवस्थान चूलिका, नौवीं चूलिका सूत्र ७ व ८ । ३. जीवस्थान चूलिका, पृ० ४२२ । ४. पंचास्तिकाय, गाथा १०८, समय व्याख्या टीका । Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड ४३१ एक-एक शब्दमें अनेक अर्थोंको द्योतित करनेकी शक्ति होती है । उसमें विशेषणकी सामर्थ्य से प्रतिनियत अर्थके प्रतिपादनकी शक्तिको व्यस्त करना प्रयोजन है। पहले सम्यग्दर्शनादि और जीवादि पदार्थोंका उल्लेख कर आये हैं। उनमेंसे प्रकृतमें किस पदका कोन अर्थ इष्ट है इस तथ्यका विवेक करनेके लिये 'नामस्थापना' इत्यादि पाँचवें सूत्रकी रचना हुई है। किन्तु इस निर्णय में सम्यग्ज्ञानका स्थान सर्वोपरि है। इस तथ्यको ध्यान में रख कर निक्षेप योजनाके प्ररूपक सूत्र के बाद 'प्रमाण- नयैरधिगमः ' रचा गया है। प्रमाण -- नवस्वरूप सम्यग्ज्ञान द्वारा सुनिर्णीत निक्षिप्त किस पदार्थकी व्याख्या कितने अधिकारोंमें करनेसे वह सर्वांगपूर्ण कही जायगी इस तथ्य को स्पष्ट करनेके लिये 'निर्देश- स्वामित्व' इत्यादि और 'सत्संख्या ' इत्यादि दो सूत्रोंकी रचना हुई है। इस प्रकार तत्त्वार्थसूत्रमें ये आठ सूत्र मुख्य हैं। अन्य सब सूत्रों द्वारा पोष सब कथन इन सूत्रोंमें प्रतिपादित अर्थ का विस्तार मात्र है । उसमें प्रथम अध्यायमें अन्य जितने सूत्र हैं उन द्वारा सम्यग्ज्ञान तत्त्व की विस्तारसे मीमांसाकी गई है । उसमें जो ज्ञान विधि निषध उभयस्वरूप वस्तुको युगवत् विषय करता है उसे प्रमाण कहते हैं और जो ज्ञान गौण मनुष्यस्वभावसे अवयवको विषय करता है। उसे नय कहते हैं । नयज्ञानमें इतनी विशेषता है कि वह एक अंश द्वारा वस्तुको विषय करता है, अन्यका निषेध नहीं करता । इसीलिये उसे सम्यग्ज्ञानकी कोटिमें परिगृहीत किया गया है। दूसरे, तीसरे और चौथे अध्यायमें प्रमुखताने जीवपदार्थका विवेचन किया गया है। प्रसंगसे इन तीनों अध्यायोंमें पांच भाव, जीवका लक्षण, मनका विषय पाँच इन्द्रियां, उनके उत्तरभेद और विषय पाँच शरीर, तीन वेद, नौयोनि, नरकलोक, मध्यलोक और उर्ध्वलोक, चारों गतियोंके जीवोंकी आयु आदिका विस्तारसे विवेचन किया गया है। दूसरे अध्यायके अन्तमें एक सूत्र है जिसमें जिन जीवोंकी अनपवर्त्य आयु होती है। उनका निर्देश किया गया है । विषमक्षण, शस्त्रप्रहार, श्वासोच्छ्वास निरोध आदि बाह्य निमित्तोंके सन्निधान में भुज्यमान आयुमें ह्रास होनेको अपवर्त कहते हैं। किन्तु इस प्रकार जिनकी आयुका ह्रास नहीं होता उन्हें अनपवर्त्य आयुवाला कहा गया है। प्रत्येक तीर्थकरके कालमें ऐसे दस उपसर्ग केवली और दस अन्यः कृत केवली होते हैं जिन्हें बाह्य में भयंकर उपसर्गादिके संयोग बनते हैं, परन्तु उनके आयुका ह्रास नहीं होता । इससे यह सिद्धान्त निश्चित होता है कि अन्तरंग जिस आयुमें अपने कालमें ह्रास होनेकी पात्रता होती है, बाह्यमें उस काल में काल प्रत्यासत्तिवश व्यवहारसे ह्रासके अनुकूल अन्य विषभक्षण आदि बाह्य सामग्रीका सन्निधान होनेपर उस आयुका ह्रास होता है । अन्तरंग में आयु में ह्रास होनेकी पात्रता न हो और उसके ह्रासके अनुकूल बाह्य सामग्री मिलने पर उसका ह्रास हो जाय ऐसा नहीं है । चौथे अध्यायमें देवोंके अवान्तर भेदोंके निरूपणके साथ उनके निर्देश किया गया है। उससे यह सिद्धान्त फलित होता है कि भोगोपभोगकी बहुलता और परिग्रहको बहुलता साता आदि पुण्यातिशयका फल न होकर सात परिणामकी बहुलता उसका फल है, इसलिये कर्मशास्त्रमें बाह्य सामग्रीको सुख-दुःख आदि परिणामोंके निमित्तरूपमें स्वीकार किया गया है। देवोंकी लेश्या और आयु आदिका विवेचन भी इसी अध्यायमें किया गया है । पांचवें अध्यायमें छह द्रव्यों और उनके गुण-पर्यायोंका सांगोपांग विवेचन करते हुए उनके परस्पर उपकारका और गुणपर्यायके साथ द्रव्यके सामान्य लक्षणका भी निर्देश किया गया है । यहाँ उपकार शब्दका अर्थ बाह्य साधनसे है । प्रत्येक द्रव्य जब अपने परिणाम स्वभावके कारण विवक्षित एक पर्यायसे अपने तत्कालीन उनके अनुसार अन्य पर्याय रूपसे परिणमता है तब उसमें अन्य द्रव्यकी निमित्तता कहाँ किस रूपमें स्वी Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३२ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ कारकी गई है यह इस अध्यायके उपकार प्रकरण द्वारा सूचित किया गया है। यहाँ द्रव्यके सामान्य लक्षणमें उत्पाद व्यय और धौव्य इन तीनोंको द्रव्यके अंशरूपमें स्वीकार किया गया है। इसका अर्थ यह कि जैसे ध्रौव्यांश अन्वय पसे स्वयं सत् है उसी प्रकार अपने-अपने कालमें प्रत्येक उत्पाद और व्यय भी स्वयं सत् है । इन तीनोंमें लक्षण भेद होने पर भी वस्तुपनेसे भेद नहीं है । इसलिये अन्यके कार्यको परमें व्यवहारसे निमित्तता स्वीकार करके भी उसमें अन्यके कार्यकी यथार्थ कर्तृता आदि नहीं स्वीकारकी गई है और न की जा सकती है । छठे और सातवें अध्यायमें आस्रव तत्त्व के विवेचन के प्रसंगसे पुण्य और पाप तत्त्वका भी विवेचन किया गया है । संसारी जीवोंके पराश्रित भाव दो प्रकारके हैं शुभ और अशुभ । देव-गुरु-शास्त्रकी भक्ति तथा व्रतों का पालन करना आदि शुभ भाव हैं और पंचेन्द्रियों के विषयोंमें प्रवृत्ति तथा हिंसादि रूप कार्य अशुभ भाव हैं । इन परिणामोंके निमित्तसे योग प्रवृत्ति भी दो भागों में विभक्त हो जाती है, शुभ योग और अशुभ योग | योग को स्वयं आस्रव कहनेका यही कारण है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि जिस समय जीवके शुभ या अशुभ जैसे भाव होते हैं, योग द्वारा तदनुरूप कर्मोंका ही आस्रव होता है । छठे अध्यायमें आस्रवके भेद-प्रभेदोंका निरूपण करनेके बाद जीवके किन भावोंसे मुख्य रूपसे किस कर्मका आस्रव होता है इसका निर्देश किया गया है । आयुकर्मके आस्रवके हेतुके निर्देशके प्रसंगसे सम्यक्त्व, संयमासंयम और सराग संयमको आस्रवका हेतु बतलाया गया है । सो इस परसे यह अर्थ फलित नहीं करना चाहिए कि इससे देवायुका आस्रव होता है । किन्तु इस कथनका इतना ही प्रयोजन समझना चाहिए कि यदि उक्त विशेषताओंसे युक्त यथा सम्भव मनुष्य और तिर्यञ्च आयुबन्ध करते हैं तो सौधर्मादि सम्बन्धी आयुका ही बन्ध करते हैं । सम्यग्दर्शन आदि कुछ आयुबन्धके हेतु नहीं हैं। उनके साथ जो प्रशस्त राग है वही बन्धका हेतु है । सातवें अध्यायमें शुभ भावोंका विशेष रूपसे स्पष्टीकरण किया गया है उनमें व्रतोंकी परिगणना करते हुए हिंसादि पाँच पाप-भावोंकी आध्यात्मिक व्याख्या प्रस्तुतको गई है । आशय यह है कि प्रमाद बहुत या इच्छापूर्वक असद्विचारसे जो भी क्रियाकी जाती है उसका तो यथा योग्य हिंसादि पाँच पापोंमें अन्तर्भाव होता ही है । साथ ही बाह्य क्रियाके न करने पर भी जो अन्तरंग में मलिन परिणाम होता है उसे भी अपने-अपने प्रयोजनके अनुसार हिंसादि पाँच पाप रूप स्वीकार किया गया है इस कथन से ऐसा आशय भी फलित होता है कि अन्तरंग में मलिन परिणाम न हो, किन्तु बाह्यमें कदाचित् विपरीत क्रिया हो जाय तो मात्र वह क्रिया हिंसादि रूपसे परिगणित नहींकी जाती । आठवें अध्यायके प्रकृति बन्ध आदि चारों प्रकारके कर्मबन्ध और उनके हेतुओंका निर्देश किया गया है । बन्धके हेतु पांच हैं. मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग । इनमें कषाय और योग ये दो मुख्यतासे पर्यायार्थिक नयके विषय क्योंकि योगको निमित्तकर प्रकृतिबन्ध और प्रदेश बन्धमें विशेषता आती है तथा कषायको निमित्तकर स्थितिबन्ध और अनुभाग बन्धमें विशेषता आती है। फिर भी यहाँपर मिथ्यादर्शन, अविरति और प्रमाद आदि पाँचको जो बन्धका हेतु कहा है उसका कारण यह है कि ये पांचों द्रव्याथिकनयसे बंध सामान्य कारण हैं तथा मिथ्यादर्शनके सद्भावमें जो बन्ध होता है वह सर्वाधिक स्थिति आदिको लिये हुए होता है । अविरतिके सद्भावमें जो बन्ध होता है वह मिथ्यादर्शन के कालमें होनेवाले बन्धसे यद्यपि अल्प स्थितिवाला होता है, पर वह व्रती जीवके प्रमादके सद्भावमें होनेवाले बन्धसे अधिक स्थितिको लिये हुए होता है । कारण यह है पूर्व-पूर्वके गुणस्थानोंसे आगे-आगेके गुणस्थानोंमें संक्लेश परिणामोंकी हानि होती जाती है। और विशुद्धि बढ़ती जाती है । अशुभ प्रकृतियोंके अनुभाग बन्धकी स्थिति इससे भिन्न प्रकार की है, क्योंकि Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : ४३३ उत्तरोत्तर अशुभ भावोंमें हानि होनेके साथ जीवोंके परिणामोंमें विशुद्धि बढ़ती जाती है, तदनुसार शुभ प्रकृतियोंके अनुभागमें वृद्धि होती जाती है। प्रयोजनकी बात इतनी है कि यहाँ सर्वत्र स्थितिबन्ध और अनुभाग बन्धका मुख्य कारण कषाय है। जीव रूप-रस-गन्ध और स्पर्शसे रहित है, किन्तु पुदगल रूप-रस-गन्ध और स्पर्शवाला है। इसलिए पुद्गल पुद्गलमें जो स्पर्श निमित्तक संक्लेष बन्ध होता है वह जीव और पुद्गलमें नहीं बन सकता, क्योंकि जीवमें स्पर्श गुणका सर्वथा अभाव है। यही कारण है कि जीव और द्रव्य कर्मका अन्योन्य प्रदेशानुप्रदेशरूप बन्ध बतलाया गया है। जीवका कर्मोके साथ संक्लेष बन्ध नहीं होता क्योंकि संक्लेष बन्ध पुद्गलों पुद्गलों में होता है इत्यादि अनेक विशेषताओंकी इस अधिकार द्वारा सूचना मिलती है। नौवें अध्यायमें संवर और निर्जरा तत्त्वका तथा उनके कारणोंका सांगोपांग विवेचन किया गया है। शुभाशभ भावका नाम आस्रव है, अतः उन भावोका निरोध होना संवर है। यों तो गुणस्थान परिपाटीके अनुसार विचार करने पर विदित होता है कि मिथ्यात्वके निमित्तसे बन्धको प्राप्त हानेवाले कर्मोका सासादन गुणस्थानमें द्रव्य संवर है, किन्तु संवरमें भाव संवरकी मुख्यता होनेसे उसका प्रारम्भ चतुर्थ गुणस्थानसे ही समझना चाहिए, क्योंकि एक तो सम्यग्दृष्टिके अनुभूतिके कालमें शुभाशुभ भावोंका वेदन न होकर रत्नत्रय परिणत ज्ञायक स्वभाव आत्माका अनुभव होता है, दूसरे शुभाशुभ भावोंमें हेय बुद्धि हो जाती है, और तीसरे उसके दर्शन मोहनीय तथा अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभरूप कषाय परिणामका सर्वथा अभाव हो जाता है । यद्यपि इसके वेदकसम्यक्त्वके कालमें सम्यक्त्व प्रकृतिका उदय बना रहता है, पर उस अवस्थामें भी सम्य दर्शनस्वरूप स्वभाव पर्यायका अभाव नहीं होता । फिर भी यहाँ पर नौवें अध्यायमें संवरको जो गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परिषहजय और चारित्र स्वरूप कहा है सो वह संवर विशेषको ध्यानमें रखकर ही कहा है। यहाँ संवरके प्रकारोंमें गुप्ति मुख्य है। इससे यह तथ्य सूतरां फलित हो जाता है कि समिति आदिमें जितना निवृत्यंश है व संवर स्वरूप है, आत्मातिरिक्त अन्यके व्यापारस्वरूप प्रवृत्यंश नहीं। यद्यपि तपका धर्ममें ही अन्तर्भाव हो जाता है, परन्तु वह जैसे संवरका हेतु है वैसे ही निर्जराका भी हेतु है यह दिलानेके लिये उसका पृथक्से निर्देश किया है । आचार्य गच्छपिच्छने कहाँ कितने परीषह होते है इस विषयका निर्देश करते हुए उनका कारण परीषह और कार्य परीषह ये दो विभाग स्वीकार कर विचार किया है। इस अध्यायमें परीषह सम्बन्धी प्ररूपणा ८ वें सूत्रसे प्रारम्भ होकर वह १७वें सूत्र पर समाप्त होती है। ८वें सूत्र में परीषहका लक्षण कहा गया है । ९ वें सूत्रमें परीषहोंका नाम निर्देश करते हुए ६ वीं परीषहके लिये स्पष्टतः नाग्न्य शब्दका ही उल्लेख किया गया है। इससे सूत्रकार एक मात्र दिगम्बर सम्प्रदायके पट्टधर आचार्य थे इसका स्पष्ट बोध हो जाता है। इसके बाद १०, ११ और १२ संख्याक सूत्रोंमें कारणोंकी अपेक्षा किसके किसने परीषह सम्भव है इस बातका निर्देश किया गया है । १३, १४, १५ और १६ संख्याक सूत्रोंमें उनके कारणोंका निर्देश किया गया है। इस प्रकार १०, ११ और १२ संख्याक सूत्रोंमें कारणकी अपेक्षा कारण परीषह होकर तथा १३, १४, १५ और १६ संख्याक सत्रोंमें उनके कारणोंका निर्देश कर आगे मात्र १७ वें सूत्र में कार्य परीषहोंका उल्लेख करते हुए बतलाया गया है कि एकजीवके कमसे कम एक और अधिकसे अधिक १९ परीषह होते हैं। उदाहरणस्वरूप हम बादरसाम्पराय जीवको लेते हैं। एक कालमें कारणोंकी अपेक्षा इसक सब परीषह बतलाकर भी कार्यकी अपेक्षा कमसे कम एक और अधिकसे अधिक १९ परीषह बतलाये हैं । स्पष्ट है कि 'एकादश जिने' इस सूत्रमें जिनके जो ग्यारह परीषह ५५ Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३४ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ बतलाये हैं वे तेरहवें चौदहवें गुणस्थानमें असाता वेदनीयके पाये जानेवाले उदयको देखकर ही बतलाये गये हैं । वहाँ क्षुधादि ११ परीषह होते हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य नहीं है। 'एकादश जिने' यह कारणकी अपेक्षा परीषहोंका निर्देश करनेवाला सूत्र है, कार्यकी अपेक्षा परीषहोंका निर्देश करनेवाला सूत्र नहीं। इस अध्यायमें प्रसंगसे संयतोंके भेदोंका निर्देश करते हुए बतलाया है कि ये पुलाकादि नैगमादि न योंकी अपेक्षा संयत कहे गये हैं । इसका आशय यह है कि पुलाक, बकुश, कुशील, निन्थ और स्नातक इन पाँच भेदोंमेंसे निर्ग्रन्थ और स्नातक ये दोनों भाव निग्रन्थ होनेसे एकमात्र एवं भूतनयकी अपेक्षासे ही निग्रन्थ हैं । शेष तीन निर्ग्रन्थ काल भेदसे नैगमादि अनेक नयसाध्य हैं। निर्ग्रन्थ सामान्यकी अपेक्षा विवक्षा भेदसे पाँचों ही सम्यगदर्शनके साथ नग्नतारूप जिन लिंगके धारी होनेसे निग्रन्थ है यह इस कथनका अभिप्राय है। ___ एक बात यहाँ निर्जराके विषयमें भी स्पष्ट करनी है। उत्तरोत्तर असंख्यात गुणी निजराके इन दस होंमेंसे श्रावक और प्रमत्त विरतके प्रकृतमें पूर्वकी अपेक्षा जिस असंख्यात गुणी द्रव्य-कर्म निर्जराका निर्देश किया गया है वह इन दोनोंके विशद्धिकी अपेक्षा एकान्तानुवृद्धिके कालकी जाननी चाहिए क्योंकि इसके सिवाय अन्य कालमें संक्लेश और विशुद्धिके अनुसार उक्त निर्जरामें तारतम्य देखा जाता है। विशुद्धिके कालमें विशुद्धिके तारतम्यके अनुसार कभी असंख्यात गुणी, कभी संख्यात गुणी, कभी असंख्यातवाँ भाग अधिक और कभी संख्यातवाँ भाग अधिक निर्जरा होती है यहाँ पूर्व समयकी अपेक्षा अगले समयमें कितनी निर्जरा होती है इस दृष्टिसे निर्जराका यरक्रम बतलाया गया है। इस अध्यायमें ध्यानका विस्तारसे विचार करते हुए ध्याता, ध्यान, ध्येय, ध्यानका फल और ध्यानके काल इन पाँचों विषयों पर सम्यक् प्रकाश डाला गया है । ध्यानके दो भेद हैं-प्रशस्त और अप्रशस्त । यहाँ अप्रशस्त ध्यानका विचार न कर प्रशस्त ध्यानका विचार करना है। प्रशस्त ध्यानके भी दो भेद है-धर्मध्यान और शुक्लध्यान । श्रेणि आरोहणके पूर्व जो ध्यान होता है उसे धर्मध्यान कहते हैं श्रेणि और आरोहणके बाद जो ध्यान होता है उसको शुक्लध्यान संज्ञा है । इसका यह तात्पर्य है कि धर्मध्यान चौथे गुणस्थानसे प्रारम्भ होकर सातवें गुणस्थान तक होता है । साधारणतः तत्वार्थसूत्रमें धर्मध्यानके आलम्बनके प्रकार चार बतलाये है-आज्ञा, अपाय, विपाक और संस्थान । इन सभी पर दृष्टिपात कर सामान्य रूपसे यदि आलम्बनको विभक्त किया जाय तो वह दो भागोंमें विभाजित हो जाता है-एक स्वात्मा और दूसरे स्वात्मासे भिन्न अन्य प्रदार्थ । ध्यानका लक्षण करते हुए यह तो बतलाया ही गया है कि अन्य ध्यानमें अशेष विषयोंसे चित्तको परावृत्त कर किसी एक विषय पर चित्त अर्थात् उपयोगको स्थिर किया जाता है अतः आत्मज्ञानस्वरूप है, इसलिये यदि उपयोगको आत्मस्वरूपमें युक्त किया जाता है तो उपयोग स्वरूपका वेदन करनेवाला होनेसे निश्चय ध्यान कहलाता है और यदि उपयोगको विकल्पदशा पर-पदार्थमें युक्त किया जाता है तो वह स्वरूपसे भिन्न अन्य पदार्थरूप विशेषणसहित होनेके कारण व्यवहार ध्यान कहलाता है। इसमेंसे निश्चय ध्यान कर्म निर्जरा स्वरूप है, अतः कर्म निर्जराका हेतु भी है और व्यवहार ध्यान इससे विपरीत स्वभाववाला होनेसे न तो स्वयं निर्जरा स्वरूप है और न तो साक्षात् कर्म निर्जराका हेतु ही है । अन्यत्र धर्म ध्यानके जो सविकल्प और निर्विकल्प ये दो भेद दृष्टिगोचर होते हैं वे इसी अभिप्रायसे किये गये जानने चाहिये । यहाँ यह बात विशेष जाननी चाहिये की ५वें और ६४ गुणस्थानमें विकल्पके कालमें भी जो स्वभाव पर्याय होती है, उसके निमित्तसे होनेवाली कर्म निर्जरा यथावत् चालू रहती है। सामान्य नियम यह है कि जब आत्मा मोक्षमार्गके सन्मख होता है तब उसके अपने उपयोगमें मुख्य रूपसे एकमात्र आत्माका ही अवलम्बन रहता है, अन्य अशेष अवलम्बन गौण होते जाते हैं, क्योंकि मोक्षका Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : ४३५ अर्थ ही आत्माका अकेला होना है, अतः मोक्षमार्ग वह कहलाया जिस मार्गसे आत्मा अकेला बनता है । देवशास्त्र-गुरुकी भक्ति या व्रतादिरूप परिणामको आगममें व्यवहार धर्मरूपसे इसीलिए स्वीकार किया गया है कि वह जीवका परलक्षी संयोगी परिणाम है, स्वरूपानुभूतिरूप आत्माश्रयी अकेला परिणाम नहीं। शका-स्व-परका प्रकाशन करना यह ज्ञानका स्वरूप है। ऐसी अवस्थामें प्रत्येक उपयोग परिणाममें परलक्षीपना बना रहेगा, उसका वारण कैसे किया जा सकता है ? समाधान-ज्ञानके स्व-पर प्रकाशक होनेसे प्रत्येक निश्चय नयात्मक उपयोग परलक्षी या पराश्रित ही होता है ऐसी बात नहीं है। एकत्वपनसे या इष्टानिष्टपनसे बद्धिपूर्वक परलक्षी या पराश्रित ज्ञान परिणाम है और स्वरूपके वंदन कालमें अपने उपयोग परिणामरूपसे पर भी जानने में आना ज्ञानका स्व-पर प्रकाशकपना है । शंका-ज्ञानके उपयोग परिणामकी ऐसी स्थिति कहाँ बनती है ? समाधान-केवल ज्ञानमें । शंका-छद्मस्थके स्वरूपका वेदन करते समय जो परिणाम होता है उसमें ऐसी स्थिति बनती है कि नहीं? समाधान--छद्मस्थके स्वसन्मुख होकर स्वरूपका वेदन करते समय प्रमाण ज्ञानकी प्रवृत्ति न होकर नयज्ञानकी प्रवृत्ति होती है, इसलिये उस कालम उपयोगमें पर गौण होनेसे लक्षित नहीं होता। पण्डितप्रवर आशाधरजी (अनगारधर्मामृत, अध्याय, श्लोक १०८-१०९ की स्वोपज्ञ टीकामें) लिखते है तदतन्तरमप्रमत्तादिक्षीणकषायपर्यन्तं जघन्य-मध्यमोत्कृष्टभेदेन विवक्षितैकदेशेन शुद्धनयरूपः शुद्धोपयोगो वर्तते । अर्थ-तदनन्तर अप्रमत्त गुणस्थानसे लेकर क्षीण कषाय गुणस्थान पर्यन्त जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट भेदरूप विवक्षित एक देशरूपसे शुद्धनयरूप शुद्धोपयोग प्रवर्तता है । इसी तथ्यको सुस्पष्ट करते हुए वे इसी स्थल पर आगे लिखते हैं अत्र च शुद्धनये शुद्धबुद्धकस्वभावो निजात्मा ध्येयत्तिष्ठतीति । शुद्धध्येयत्वाच्छद्भावलम्बनत्वाच्छुद्धात्मस्वरूपसाधकत्वाच्च शुद्धोपयोगो घटते । स च भाव संवर इत्युच्यते । एष च संसारकारणभूतमिथ्यात्वरागाद्यशुद्धपर्यावदशुद्धो न स्यात्, नापि फलभूतकेवलज्ञानलक्षणशुद्धपर्यायवच्छुद्धः स्यात् । किन्तु ताभ्यामशुद्ध-शुद्धपर्यायाभ्यां विलक्षणं शुद्धात्मानुभूतिरूपनिश्चयरत्नन्नयात्मकं मोक्षकारणमेकदेशव्यक्तिरूपमेकदेशनिवारणं च तृतीयमवस्थान्तरं भण्यते । __ और यहाँ पर शुद्धनयमें शुद्ध , बुद्ध , एकस्वभाव निज आत्मा ध्येय है इसलिए शुद्ध ध्येय होनेसे, शुद्धका अवलम्बन होनेसे तथा शुद्ध आ-मस्वरूपका साधक होनेसे शुद्धोपयोग बन जाता है। इसीका नाम भाव-संवर है । यह संसारके कारणभूत मिथ्यात्व और रागादि अशुद्ध पर्यायोंके समान अशुद्ध नहीं है और फलभूत केवलज्ञान लक्षण शुद्ध पर्यायके समान शुद्ध भी नहीं है। किन्तु उन दोनों अशुद्ध और शुद्ध पर्यायोंसे विलक्षण शुद्ध आत्मानुभुतिरूप निश्चय रत्नत्रयात्मक मोक्षकारण एक देश व्यक्तिरूप और एकदेश निवारण तीसरी अवस्थारूप कहा जाता है। यहाँ अप्रमत्त संयम नामक सातवें गुणस्थानसे शुद्धोपयोगकी प्रवृत्तिका ज्ञापन किया गया है और सातवें गुणस्थानमें धर्म ध्यान होता है, क्योंकि आरोहणके पूर्व धर्मध्यान होता है और दोनों श्रेणियों में Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३६ : सिद्धान्ताचार्य पं० फुलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ शक्लध्यान होता है ऐसा आगमवचन है। अतः इस कथनसे यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि धर्मध्यान सविकल्प और निर्विकल्पके भेदोंसे दो प्रकारका होता है। जहाँ शुद्धात्मा ध्येय, शुद्धात्मा आलम्बन और तत्स्वरूप उपयोग एकरस होकर प्रवृत्त होते हैं उसे निर्विकल्प ध्यान कहते हैं और जहाँ ध्येय और आलम्बनके आश्रयसे विचाररूप उपयोगकी प्रवृत्ति होती है उसे सविकल्प ध्यान कहते हैं। स्वानुभूति और निर्विकल्प धर्मध्यान इनमें शब्दभेद है, अर्थभेद नहीं । इतना अवश्य है कि जो मिथ्यादष्टि जीव स्वभाव सन्मुख होकर सम्यग्दर्शनको उत्पन्न करता है उसके सम्यग्दर्शनकी प्राप्तिके समय होनेवाले निर्विकल्प ध्यानको स्वानुभूति कहते हैं । आगे सातवें आदि गणस्थानोंसे उसीका नाम शद्धोपयोग है इन दोनोंमें भी शब्दभेद है अर्थभेद नहीं है। यद्यपि प्रत्येक संसारी जीवके कषायका सद्भाव दसवें गुणस्थान तक पाया जाता है, परन्तु निर्विकल्प धर्मध्यान और पृथक्त्व वितर्क वीचार शुक्ल ध्यानमें उसे आगम अबुद्धिपूर्वक स्वीकार करता है । शंका-शुक्ल ध्यानका प्रथम भेद सवीचार है। उसमें अर्थ, व्यञ्जन और योगकी संक्रान्ति नियमसे होती है । ऐसी अवस्थामें उक्त शुक्लध्यानमें तथा उससे पूर्ववर्ती निविकल्प धर्म ध्यानमें शुद्धात्मा ध्येय और शुद्धात्मा आलम्बन कैसे बन सकता है और वह न बननेरो निरन्तर शुद्धनयकी प्रवृत्ति कैसे बन सकती है ? समाधान-यद्यपि शुक्ल ध्यानके प्रथम भेदमें अर्थ, व्यञ्जन और योगकी संक्रान्ति होती है, परन्तु निरन्तर आत्माश्रित स्वभाव सन्मुख रहने के कारण अन्य ज्ञेय पदार्थमें इष्टानिष्ट बुद्धि नहीं होती, इसलिये उसके इस अपेक्षासे शुक्ल ध्यानके प्रथम भेदमें भी शुद्धात्मा भ्येय और शुद्धात्मा आलम्बन बनकर शुद्धात्माके साधक शुद्धात्मानुभव स्वरूप शुद्धनयकी प्रवृत्ति बन जाती है। श्री समयसार आस्रव अधिकारमें छद्मस्थ ज्ञानीके जघन्य ज्ञान होनेसे उसका पुनः पुनः परिणाम होता है और इसलिये उसे जहाँ ज्ञानावरणादि रूप कर्मबन्धका भी हेतु कहा गया है, वहाँ इसके मुख्य कारणका निर्देश करते हुए आचार्य अमतचन्द्र देवने बतलाया है कि जो ज्ञानी है वह बुद्धिपूर्वक राग, द्वेष मोहरूप आस्रव भावका अभाव होनेसे निरास्रव ही है। किन्तु वह भी जबतक ज्ञानको सर्वोत्कृष्ट रूपसे देखने जानने और आचरण करने में अशक्त वर्तता हुआ जघन्यरूपसे ही ज्ञान को देखता जानता और आचरण करता है तब तक उसके भी, जघन्य भावकी अन्यथा उत्पत्ति नहीं हो सकती। इस अन्यथा उत्पत्ति नहीं हो सकती इसके द्वारा अनुमीयमान, अबुद्धि पूर्वक कलङ्गविपाकका सदभाव होनेसे पुद्गल कर्मबन्ध होता है। (समयसार गाथा १७२ आत्मख्याति टीका) यह तो स्पष्ट है कि ज्ञानी सदाकाल आस्रव भावकी भावनाके अभिप्रायसे रहित होता है, इसलिए उसके सविकल्प अवस्थामें भी राग-द्वेषरूप प्रवृत्ति अबुद्धिपूर्वक ही स्वीकार की गई है, निर्विकल्प अवस्थामें तो वह अबुद्धिपूर्वक होती ही है। फिर भी रागभाव चाहे बुद्धिपूर्वक हो और चाहे अबुद्धि पूर्वक, उसके सद्भावमें बन्ध होता ही है । इसका यहाँ विशेष विचार नहीं करना है । यहाँ तो केवल इतना ही निर्देश करना है कि ज्ञानीके ज्ञेयमें अभिप्रायपूर्वक कभी भी इष्टानिष्टबुद्धि न होनेसे वह ध्यान कालमें निर्विकल्प स्वानुभूतिसे च्युत नहीं होता। इसलिए उसके शुद्ध नयस्वरूप शुद्धोपयोगकी प्रवृत्ति बनी रहती है। दसवें अध्यायमें मोक्षतत्त्वके निरूपणके प्रसंगसे प्रथम सूत्रमें केवलज्ञानकी उत्पत्तिका निरूपण कर दूसरे सूत्र द्वारा सकारण मोक्ष तत्त्वका निरूपण किया गया है। यहाँ प्रथम सूत्रमें घातिकर्मोके नाशके क्रमको भी ध्यानमें रखा गया है और दूसरे सत्रमें संवर और निर्जरा-द्वारा समस्त कर्मोका वियुक्त होना मोक्ष है ऐसा न कहकर संवरके स्थानमें जो 'बंधहेत्वभाव' पदका प्रयोग किया है सो उस द्वारा आचार्य गद्धपिच्छने यह Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : ४३७ तथ्य उद्घाटित किया है कि 'संवर' को ही यहाँपर व्यतिरेक मुखसे 'बन्धहेत्वभाव' कहा गया है, क्योंकि जितने अंशमें बन्धके हेतुओंका अभाव होता है उतने ही अंशमें संवरकी प्राप्ति होती है। उसे ही दूसरे शब्दोंमें हम यों भी कह सकते हैं कि जितने अंशमें संवर अर्थात् स्वरूपस्थिति होती है उतने ही अंशमें बन्धके हेतुओंका अभाव होता है। पहले दूसरे अध्यायमें जीवके पाँच भावोंका निर्देश कर आये हैं। क्या वे पाँचों प्रकारके भाव मुक्त जीवोंके भी पाये जाते हैं या उनमें कुछ विशेषता है ऐसी आशंकाको ध्यानमें रखकर सूत्रकारने उसका निरसन करनेके अभिप्रायसे ३ रे और ४ थे सूत्रों की रचना की है। तीसरे सूत्र में तो यह बतलाया गया है कि मक्त जीवोंके कर्मोके उपशम, क्षयोपशम और उदयके निमित्तसे जितने भाव होते हैं उनका अभाव तो हो ही जाता है। साथ ही भव्यत्व भावका भी अभाव हो जाता है। जैसे किसी उड़दमें कारणरूपसे पाकशक्ति होती है और किसी विशेष उड़दमें ऐसी पाक शक्ति नहीं होती उसी प्रकार अधिकतर जीवोंमें रत्नत्रयको प्रकट करनेकी सहज योग्यता होती है और कुछ जीवोंमें ऐसी योग्यता नहीं होती। जिनमें रत्नत्रयको प्रकट करनेकी सहज कारण योग्यता होती है उन्हें भव्य कहते हैं और जिनमें ऐसी कारण योग्यता नहीं होती उन्हें अभव्य कहते हैं। स्पष्ट है कि जिन जीवोंने मुक्ति लाभ कर लिया है उनके रत्नत्रयरूप कार्य परिणामके प्रकट हो जानेसे भव्यत्व भावरूप सहज कारण योग्यताके कार्यरूप परिणम जानेसे वहाँ इसका अभाव स्वीकार किया गया है। उदाहरणार्थ जो मिट्टी घट परिणामका कारण है उसका घट परिणामस्वरूप कार्य हो जानेपर उसमें जैसे वर्तमानमें वह कारणता नहीं रहती उसी प्रकार प्रकृतमें समझना चाहिये। चौथे सूत्रमें मुक्त जीवके जो भाव शेष रहते हैं उन्हें स्वीकार किया है यद्यपि उक्त सूत्रमें ऐसे कुछ ही भावों का नामनिर्देश किया गया है जो मुक्त जीवोंमें पाये जाते हैं। पर वहाँ उनका उपलक्षण रूपसे ही नामनिर्देश किया गया जानना चाहिए। अतः इससे उन भावोंका भी ग्रहण हो जाता है जिनका उल्लेख उक्त सूत्रमें नहीं किया गया है, पर मुक्त जीवोंमें पाये अवश्य जाते हैं। यहाँ यह बात विशेषरूपसे ध्यान देने योग्य है कि यद्यपि ये भाव कर्मक्षयको निमित्तकर होते हैं, इसलिए इन्हें क्षायिक भाव भी कहते हैं । उनमें क्षायिक चारित्र भी गर्भित है। परन्तु सूत्रमें इनका क्षायिक भावरूपसे उल्लेख नहीं किया गया है । इसका कारण यह है कि ये सब भाव स्वभावके आश्रयसे उ-पन्न होते हैं, इसलिए इस अपेक्षासे ये वास्तवमें स्वभाव भाव ही हैं। उन्हें क्षायिक भाव कहना यह उपचार है। सूत्रकारने अपने इस निर्देश द्वारा यह स्पष्ट कर दिया है कि मुमुक्षु जीवको मोक्ष प्राप्तिके लिये बाह्य सामग्रीका विकल्प छोड़कर अपने उपयोग द्वारा स्वभाव सन्मुख होना ही कार्यकारी है। मक्तिलाभ होनेपर यह जीव जिस क्षेत्र में मुक्तिलाभ करता है वहीं अवस्थित रहता है या क्षेत्रान्तरमें गमन कर जाता है ? यदि क्षेत्रान्तरमें गमन करके जाता है तो वह क्षेत्र कौनसा है जहाँ जाकर यह अवस्थित रहता है ? साथ ही वहीं इसका गमन क्यों होता है ? 'मुक्त होनेके बाद भी यदि गमन होता है तो नियत क्षेत्र तक ही गमन होनेका कारण क्या है ? इत्यादि अनेक प्रश्न हैं जिनका समाधान ५ से लेकर ८वें तकके सूत्रोंमें किया गया है। प्रयोजनीय बात यहाँ यह कहनी है कि सातवें सूत्रमें 'तथागतिपरिणामात्' पद द्वारा तो मुक्त जीवकी स्वभाव ऊर्ध्व गतिका निर्देश किया गया है और ८वें सूत्र द्वारा उसके बाह्य साधनका उल्लेख किया गया है। यहाँ पर कुछ विद्वान यह शंका किया करते हैं कि मुक्त जीवका उपादान तो लोकान्तरके ऊपर जानेका भी है, पर आगे धर्मास्तिकायका अभाव होनेसे लोकान्तसे ऊपर उसका गमन नहीं होता : किन्तु Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३८ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ उनका इस विषयमें यह वक्तव्य तथ्यकी अनभिज्ञताको ही सूचित करता है। उक्त शंकाका समाधान यह है (१) बाह्य और आभ्यन्तर उपाधिकी समग्रतामें कार्य होता है यह नियम है। इसके अनुसार जिस समय जो कार्य होता है उसके अनुरूप ही द्रव्यपर्याय योग्यता ( उपादान कारणता होती है। न न्यून और न अधिक तथा बाह्य निमित्त भी उसके अनुकूल ही होते हैं। उनका उस समय होना अवश्यंभावी है। वह न हो तो उपादानके रहते हुए भी कार्य नहीं होता ऐसा नहीं है, क्योंकि जिस प्रकार विवक्षित कार्यकी अपने उपादान के साथ उस समय आभ्यन्तर व्याप्ति नियमसे होती है उसी प्रकार उस समय उसकी बाह्य साधनोंके साथ बाह्य व्याप्तिका होना भी अवश्यंभावी है । तभी इनकी विवक्षित कार्यके साथ काल प्रत्यासत्ति बन सकती है । इससे सिद्ध है कि मुक्त जीवका लोकान्तके ऊपर गमनाभाव वास्तवमें तो वैसा उपादान न होनेसे नहीं होता । धर्मास्तिकायका अभाव होनेसे नहीं होता यह मात्र व्यवहार वचन है जो मुक्त जीव अपने उपादानके अनुसार कहाँ तक जाता है इस तथ्यको सूचित करता है। सर्वत्र व्यवहार और निश्चयका ऐसा ही योग होता है । (२) मुक्त जीव ऊर्ध्वगति स्वभाव है इस कथनका यह आशय नहीं कि वह निरन्तर ऊपर ही ऊपर गमन करता रहे। किन्तु इस कथनका यह आशय है कि वह तिर्यक् रूपसे अन्य दिशाओंकी ओर गमन न कर [लोकान्त तक ऊर्ध्व ही गमन करता है। तत्वार्थवार्तिक में 'धर्मास्तिकायाभावात्' इस सूत्र की उत्थानिकामें बतलाया है कि - 'मुक्तस्योर्ध्वमेव गमनं न दिगन्तरगमनमित्ययं स्वभावः नोर्ध्वगमनमेवेति ।' 'मुक्त जीवका ऊपरकी ओर ही गमन होता है, अन्य दिशाओंको लक्ष्य कर गमन नहीं होता यह स्वभाव है, उत्तरोत्तर ऊपर-ऊपर गमन होता रहे यह स्वभाव नहीं है।' सो इस वचनसे भी उक्त तथ्यकी ही पुष्टि होती है। (३) मुक्त जीवकी एक ऊर्ध्वगति होती है जो स्वाभाविकी होनेसे स्वप्रत्यय होती है। साथ ही लोकान्तमें उसकी अवस्थिति भी स्वाभाविकी होनेसे स्वप्रत्यय होती है इसलिए उसपर यह व्यवहार कथमपि लागू नहीं पड़ता कि लोकान्तसे और आगे धर्मास्तिकायका अभाव होनेसे उसे वहाँ बलात् रुकना पड़ता है। किन्तु अपने उपादानके अनुसार मुक्तजीव लोकान्त तक ऊपरकी ओर ऋजुगतिसे स्वयं गमन करता है और लोकान्तमें स्वयं अवस्थित हो जाता है। पवहारनयसे लोकालोकके विभागका कारण धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकायको बतलाया गया है उसीको ध्यान में रखकर सूत्रकारने यह वचन कहा है कि आगे धर्मास्तिकाय न होनेसे मुक्तजीव लोकान्तसे और ऊपर नहीं जाता। परमार्थसे देखा जाय तो पट् द्रव्यमयी यह लोक स्वभावसे रचित है, अतएव अनादि-निधन है, इसलिए जिस प्रकार मानुषोत्तर पर्वतके परभागमें मनुष्यका स्वभावसे गमन नहीं होता उसी प्रकार एक मुक्त जीव ही क्या किसी भी द्रव्यका लोककी मर्यादा के बाहर स्वभावसे गमन नहीं होता । (४) जैसे कोई परमाणु एक प्रदेश तक गमन कर स्वयं रुक जाता है । कोई परमाणु दो या दो से अधिक प्रदेशों तक गमन कर स्वयं रुक जाता है। आगे धर्मास्तिकाय होने पर भी एक या एकसे अधिक प्रदेशोंतक गमन करनेवाले परमाणुको वह बलात् गमन नहीं कराता । वैसे ही मुक्त जीव अपने ऊर्ध्वगति स्वभावका उत्कृष्ट विपाक लोकान्त तक जानेका होनेके कारण वहाँ तक जाकर वह यहाँ परमार्थसे समझना चाहिए। 'धर्मास्तिकायाभावात्' यह व्यवहार वचन है जो इस है कि इससे और ऊपर गमन करनेकी जीवमें उपादान शक्ति ही नहीं है । स्वयं रुक जाता है ऐसा तथ्य को सूचित करता Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : ४३९ यहाँ सूत्रकारने ७वें और ८वें सूत्रमें जितने हेतु और उदाहरण दिए हैं उन द्वारा मुक्त जीवका एकमात्र ऊर्ध्वगति स्वभाव ही सिद्ध किया गया है ऐसा यहाँ समझना चाहिए । ९ वें सूत्रमें ऐसे १२ अनुयोगों का निर्देश किया गया है जिनके माध्यमसे मुक्त होनेवाले जीवों के विषय में अनेक उपयोगी सूचनाओंका परिज्ञान हो जाता है । उनमें एक चारित्र विषयक अनुयोग है । प्रश्न है कि किस चारित्र से सिद्धि होती है ? उसका समाधान करते हुए एक उत्तर यह दिया गया है कि नाम रहित चारित्रसे सिद्धि होती है । इस पर कितने ही मनीषी ऐसा विचार रखते हैं कि सिद्धों में कोई चारित्र नहीं होता । किन्तु इसी तत्त्वार्थसूत्रमें जीवके जो नौ क्षायिक भाव परिगणित किए गये हैं उनमें एक क्षायिक चारित्र भी है। और ऐसा नियम है कि जितने भी क्षायिक भाव उत्पन्न होते हैं वे सब परनिरपेक्ष भाव होनेसे प्रतिपक्षी द्रव्यभाव कर्मोंका क्षय होनेपर एकमात्र स्वभावके आलम्बनसे ही उत्पन्न होते हैं, अतः वे सिद्ध पर्यायके समान अविनाशी होते हैं । अतः सिद्धों में केवल ज्ञान आदिके समान स्वरूप स्थिति अर्थात् स्वसमय प्रवृत्तिरूप अनिधन सहज चारित्र जानना चाहिए। उसकी कोई संज्ञा नहीं है, इसलिए उनमें उसका अभाव स्थापित करना उचित नहीं है। लोकमें एक यह बात भी प्रचारित की जाती है कि कालमें इस क्षेत्रसे कोई मुक्त नहीं होता सो यह बात भी ठीक नहीं है क्योंकि मुक्ति प्राप्तिके लिए न तो कोई काल ही बाधक है और न मनुष्य लोक सम्बन्धी कोई अवश्य है कि चौथे काल और उत्सर्पिणीके तीसरे काल सम्बन्धी इन भरत क्षेत्रमें हैं जो चरम शरीरी होते हैं यह सहज नियम है। इस क्षेत्र सम्बन्धी प्रायः अवसर्पिणीके चौथे कालमें और उत्सर्पिणीके तीसरे कालमें ही ऐसे मनुष्य जन्म लेते हैं जो चरम शरीरी होते हैं यह प्राकृतिक नियम 1 अतः इस क्षेत्र और इस कालको दोषी बतलाकर मोक्षमार्गके अनुरूप उद्यम न करना योग्य नहीं है ऐसा यहाँ समझना चाहिए | क्षेत्र ही बाधक है । इतना ऐसे मनुष्य भी जन्म लेते इस प्रकार तत्वार्थ सूत्र में किन विषयोंका निर्देश किया गया है इसका संक्षेपमें विचार किया । वृत्ति, भाष्य और टीका ग्रन्थ १. सर्वार्थसिद्धि दिगम्बर परम्परामें सूत्र शैली में लिपिबद्ध हुई तत्त्वार्थसूत्र और परीक्षामुख ये दो ऐसी मौलिक रचनाएँ हैं जिनपर अनेक वृत्ति, भाष्य और टीका ग्रन्थ लिखे गये हैं । वर्तमान कालमें उपलब्ध 'सर्वार्थसिद्धि' यह तत्त्वार्थ सूत्र पर लिखा गया सबसे पहला वृत्ति ग्रन्थ है । यह स्वनामधन्य आचार्य पूज्यपाद की अमर कृति है । यह पाणिनि व्याकरण पर लिखे गये पातञ्जल भाष्यकी शैलीमें लिखा गया है। यदि किसीको शान्त रस गर्भित साहित्य के पढ़नेका आनन्द लेना हो तो उसे इस ग्रन्थका अवश्य ही स्वाध्याय करना चाहिए । आचार्य पूज्यपादके सामने इस वृत्ति ग्रन्थकी रचना करते समय षट्खण्डागम प्रभृति बहुविध प्राचीन साहित्य उपस्थित था । उन्होंने इस समग्र साहित्यका यथास्थान बहुविध उपयोग किया है'। साथ ही उनके इस वृत्ति ग्रन्थके अवलोकनसे यह भी मालूम पड़ता है कि इसकी रचनाके पूर्व तत्त्वार्थसूत्र पर ( टीकाटिप्पणी रूप) और भी अनेक रचनाएँ लिपिबद्ध हो चुकी थीं। वैसे वर्तमान में उपलब्ध यह सर्वप्रथम रचना है। श्वेताम्बर परम्परामान्य तत्त्वार्थाधिगमभाष्य इसके बादकी रचना है । सर्वार्थसिद्धिके अवलोकनसे इस बातका तो पता लगता है कि इसके पूर्व श्वेताम्बर आगम साहित्य रचा जा चुका था, परन्तु तत्त्वार्थाधिगमभाष्य लिखा जा चुका था २. देखो, प्रस्तावना, सर्वार्थसिद्धि, पृ० ४२ । १. देखो, प्रस्तावना, सर्वार्थसिद्धि, पृ० ४६ आदि । ३. देखो, अ० ७ सु० १३ । Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४० : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ इसका यत्किचित् भी पता नहीं लगता। इतना अवश्य है कि भट्टाकलंकदेवके तत्त्वार्थवातिकमें ऐसे उल्लेख अवश्य ही उपलब्ध होते हैं जो इस तथ्यके साक्षी है कि तत्त्वार्थाधिगमभाष्य उनके पूर्वकी रचना है। इसलिए सुनिश्चित रूपसे यह माना जा सकता है कि वाचक उमास्वातिका तत्त्वार्थाधिगम भाष्य इन दोनों आचार्योंके मध्य कालमें किसी समय लिपिबद्ध हुआ है।' सर्वार्थसिद्धि वृत्तिकी यह विशेषता है कि उसमें प्रत्येक सूत्रके सब पदोंकी व्याख्या नपे-तुले शब्दोंमें सांगोपांग की गई है । यदि किसी सूत्रके विविध पदोंमें लिंगभेद और वचनभेद हैं तो उसका भी स्पष्टीकरण किया गया है। यदि किसी सूत्रमें आगमका वैमत्य होनेका सन्देह प्रतीत हुआ तो उसकी सन्धि बिठलाई गई है और यदि किसी सूत्रमें एकसे अधिक बार 'च' शब्दकी' तथा कहीं 'तु' आदि शब्दका प्रयोग किया गया है तो उनकी उपयोगिता पर भी प्रकाश डाला गया है । तात्पर्य यह है कि यह रचना इतनी सुन्दर और सर्वांगपूर्ण बन पड़ी है कि समग्र जैन वाङ्मयमें उस शैलीमें लिखे गये दूसरे वृत्ति, भाष्य या टीका ग्रन्थका उपलब्ध होना दुर्लभ है । यह वि० सं० की पांचवी शताब्दिके उत्तरार्धसे लेकर छठी शताब्दिके पूर्वार्धमें इस बीच किसी समय लिपिबद्ध हई है । अनेक निर्विवाद प्रमाणोंसे आचार्य पूज्यपादका यही वास्तव्यकाल सुनिश्चित होता है। इतना अवश्य है यह उनके द्वारा रचित जैनेन्द्र व्याकरणके बाद की रचना होनी चाहिए। २. तत्त्वार्थवार्तिकभाष्य तत्त्वार्थसूत्रके विस्तृत विवेचनके रूपमें लिखा गया तत्त्वार्थवातिकभाष्य यह दूसरी अमर कृति है। सर्वार्थसिद्धिके प्रायः सभी मौलिक वचनोंको भाष्यरूपमें स्वीकार कर इसकी रचना की गई है। इस आधारसे इसे तत्त्वार्थसूत्रके साथ सर्वार्थसिद्धिका भी विस्तत विवेचन स्वीकार करने में अत्युक्ति प्रतीत नहीं होती। समग्र जैन परम्परामें भट्ट अकलंक देवकी जैसी ख्याति है उसीके अनुरूप इसका निर्माण हुआ है इसमें सन्देह नहीं । इसमें कई ऐसे नवीन विषयोंपर प्रकाश डाला गया है जिनका विशेष विवेचन सर्वार्थसिद्धिमें उपलब्ध नहीं होता। उदाहरणस्वरूप प्रथम अध्यायके ८वें सत्रको लीजिए। इसमें अनेकान्त विषयको जिस सुन्दर अर्थगर्भ और सरल शैलीमें स्पष्ट किया गया है वह अनुपम है। इसी प्रकार दूसरे अध्यायमें ५ भावोंके प्रसंगसे सान्निपातिक भावोंका विवेचन तथा चौथे अध्यायके अन्तमें एनः अनेकान्तका गम्भीर विवेचन इस रचनाकी अपनी विशेषता है। अनेक प्रमाणोंसे भद्र अकलंक देवका वास्तव्य काल वि० सं० ८वीं शताब्दिका पूर्वार्ध स्वीकार किया गया है, इसलिये यह रचना उसी समयकी माननी चाहिए । ३. तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकभाष्य तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकभाष्य यह तत्त्वार्थसूत्रकी विस्तृत व्याख्याके रूपमें लिखी गई तीसरी अमर कृति है । इसके रचियता आचार्य विद्यानन्द हैं। इनकी अपनी एक शंत्री है जो उन्हें आचार्य समन्तभद्र और भट्ट अकलंक देवकी विरासतके रूपमें प्राप्त हुई है। यही कारण है कि तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकभाष्यकी समग्र रचना दार्शनिक शैलीमें हई है। इस रचनाका आधेसे अधिक भाग प्रथम अध्यायको दिया गया है और शेष भागमें नौ अध्याय समाप्त किये गये हैं। उसमें भी प्रथम अध्यायके प्रथम सूत्रकी रचनाकी अपनी खास विशेषता है । सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्र तीनों मिलकर मोक्षमार्ग है यह सामान्य वचन है। इसके विस्तृत और यथावत् स्वरूपका १. देखो तत्त्वार्थ भाष्य अ० ३ सू० १ आदि । ३. देखो, अ० ४, सू० २२ । ५. देखो, अ० ४, सू० ३१ । २. अ० देखो, १, स० १ आदि । ४. अ० २, सू० १ । ६. देखो, सर्वार्थसिद्धि प्रस्तावना, पृ० ८८। Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : ४४१ परिज्ञान इसमें बहुत ही विशद रूपसे कराया गया है। वर्तमान समयमें निश्चय-व्यवहारकी यथावत मर्यादाके विषयमें बड़ी खींचातानी होती रहती है। उसे दूर करनेके लिए इससे बड़ी सहायता मिलती है। विवक्षित कार्यके प्रति अन्यको निमित्त किस रूपमें स्वीकार करना चाहिए इसका स्पष्ट खुलासा करने में भी यह रचना बेजोड़ है। ऐसे अनेक सैद्धान्तिक और दार्शनिक प्रश्न है जिनका सम्यक् समाधान भी इससे किया जा सकता है। ऐतिहासिक तथ्योंके आधारपर आचार्य विद्यानन्दका वास्तव्य काल वि० सं० ८ वीं शताब्दिका उत्तरार्ध और ९ वीं शताब्दिका पूर्वार्ध निश्चित होनेसे यह रचना उसी समयकी समझनी चाहिए । ४. अन्य टीकासाहित्य दिगम्बर परम्परामें तत्त्वार्थसूत्रका विस्तृत और सांगोपांग विवेचन करनेवाली ये तीन रचनाएं मुख्य हैं। इनके अतिरिक्त तत्त्वार्थवृत्ति आदि और भी अनेक प्रकाशित और अप्रकाशित रचनाएँ हैं । हिन्दी, मराठी और गुजराती आदि अन्य अनेक भाषाओंमें भी तत्त्वार्थसूत्रपर छोटे-बड़े अनेक विवेचन लिखे जा चुके हैं। यदि तत्त्वार्थसूत्रपर विविध भाषाओंमें लिखे गये सब विवेचनोंकी सूची तैयारकी जाय तो उसकी संख्या सौ से अधिक हो जायगी। इसलिए उन सबपर यहाँ न तो पृथक् रूपसे प्रकाश ही डाला गया है और न वैसी सूची ही दी गई है। श्वेताम्बर परम्परा दिगम्बर परम्परामें तत्त्वार्थसूत्रका क्या स्थान है यहाँ तक इसका विचार किया। आगे संक्षेपमें श्वेताम्बर परम्पराने तत्त्वार्थसूत्रको · किस रूपमें स्वीकार किया है इसका ऊहापोह कर लेना इष्ट प्रतीत होता है। आचार्य गृद्धपिच्छ आचार्य कुन्दकुन्दके पट्टधर शिष्य थे। उन्होंने किसी भव्य जीवके अनुरोधपर तत्त्वार्थसूत्रकी रचना की है। वर्तमानमें उपलब्ध सर्वार्थसिद्धि यह उसकी प्रथय वृत्ति है । सर्वार्थसिद्धिके रचियता आचार्य पूज्यपादका लगभग वही समय है जब श्वेताम्बर परम्परामें देवर्धिगणिकी अध्यक्षतामें श्वेताम्बर आगमोंका संकलन हुआ था। किन्तु उससे साहित्यिक क्षुधाकी निवृत्ति होती हुई न देखकर श्वेताम्बर परम्पराका ध्यान दिगम्बर परम्पराके साहित्य की ओर गया। उसीके फलस्वरूप ७वीं ८वीं शताब्दिके मध्य किसी समय उमास्वाति वाचकने तत्त्वार्थसत्रमें परिवर्तन कर भाष्यसहित तत्त्वार्थाधिगमकी रचना की । उनका यह संग्रह ग्रन्थ है इसका उल्लेख उन्होंने स्वयं स्वरचित एक कारिकामें किया है। वे लिखते हैं तत्त्वार्थाधिगमाख्यं बह्वथं संग्रहं लघुग्रन्थम् । वक्ष्यामि शिष्यहितमिममर्हद्वचनैकदेशस्य ।।२२।। इससे यह बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है कि वाचक उमास्वातिकी यह स्वतन्त्र रचना नहीं है । किन्तु अन्य द्वारा रचित रचनाओंके आधारसे इसका संकलन किया गया है । इनके स्वनिर्मित भाष्यमें कुछ ऐसे तथ्य भी उपलब्ध होते हैं जिनसे विदित होता है कि तत्त्वार्थाधिगम और उसके भाष्यको लिपिबद्ध करते समय इनके सामने तत्त्वार्थसूत्र और उसकी सर्वार्थसिद्धिवृत्ति उनके सामने रही है। उत्तर कालीन स्तुतिस्तोत्रोंमें स्तुतिकारों द्वारा गुणानुवाद आदिमें अपनी असमर्थता व्यक्त करनेके लिए जैसी कविता लिपिबद्धकी गई उसका २. देखो. सर्वार्थसिद्धि प्रस्तावना ४४-४५ आदि । Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४२ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ पदानुसरण इन्होंने स्वरचित कारिकाओं में बहुलतासे किया है। रचना ७वीं ८वीं शताब्दिसे बहुत पहलेकी नहीं होनी चाहिए। उदाहरण देखिए । इससे भी ऐसा प्रतीत होता है कि इनकी यह व्योम्नीन्दुं चिक्रमिषेन्मेरुगिरिं पाणिना चिकम्पयेत् । गत्यानिलं जिगीषेच्चरमसमुद्रं पिपासेच्च ॥ इन्होंने अपनी रचनामें यह भी बतलाया है कि जिस जिनवचन महोदधिपर अनेक भाष्य लिखे गये उसको पार करनेमें कौन समर्थ है । यह तो सुनिश्चित है कि श्वेताम्बर आगम साहित्यपर जो भाष्य लिखे गये वे सब सातवीं शताब्दिके पूर्व के नहीं है । अतः यह स्वयं उन्हीं के शब्दोंसे स्पष्ट हो जाता है कि तत्त्वार्थाधिगम मान्य सूत्रपाठ और भाष्य ये दोनों श्वेताम्बर आगमोंपर लिखे गये भाष्योंके पूर्वकी रचनाएँ नहीं ह । यह श्वेताम्बर परम्परामान्य तत्त्वार्थाधिगमसूत्र और उसके भाष्यकी स्थिति है । इनके ऊपर हरिभद्र और सिद्धसेनगणिक विस्तृत टीकाएँ उपलब्ध होती हैं । ये दोनों टीकाकार भट्ट अकलंक देवके कुछ काल बाद हुए प्रतीत होते हैं, क्योंकि इनकी टीकाओं में ऐसे अनेक उल्लेख पाये जाते हैं जो तत्त्वार्थवार्तिकभाष्य के आभारी हैं । इनके बाद ऐसी छोटी बड़ी और भी अनेक टीकाएँ समय- समयपर लिखी गई हैं जिनपर विशेष ऊहापोह प्रज्ञाचक्षु पं० सुखलालजीने तत्त्वार्थसूत्रके विवेचनमें किया है । Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसारकलशकी टीकाएँ राजस्थानके जिन प्रमुख विद्वानोंने आत्म-साधनाके अनुरूप साहित्य आराधनाको अपना जीवन अर्पित किया है उनमें कविवर राजमल्लजीका नाम विशेष रूपसे उल्लेखनीय है। इनका प्रमुख निवासस्थान ढूंढाहड़ प्रदेश और मातृभाषा हुँढारी रही है । संस्कृत और प्राकृत भाषाके भी ये उच्चकोटिके विद्वान थे। सरल बोधगम्य भाषामें कविता करना इनका सहज गुण था। इन द्वारा रचित साहित्यके अवलोकन करनेसे विदित होता है कि ये स्वयंको इस गुणके कारण 'कवि' पद द्वारा संबोधित करना अधिक पसन्द करते थे । कविवर बनारसीदासजीने इन्हें 'पाँडे' पद द्वारा भी सम्बोधित किया है। जान पड़ता है कि भट्टारकोंके कृपापात्र होनेके कारण ये या तो गृहस्थाचार्य विद्वान थे, क्योंकि आगराके आसपास क्रियाकाण्ड करनेवाले व्यक्तिको आज भी 'पाँडे' कहा जाता है। या फिर अध्ययन अध्यापन और उपदेश देना ही इनका मुख्य कार्य था। जो कुछ भी हो, थे ये अपने समयके मेधावी विद्वान कवि । जान पड़ता है कि इनका स्थायी कार्य क्षेत्र वैराट नगरका पार्श्वनाथ जिनालय रहा है। साथ ही कुछ ऐसे भी तथ्य उपलब्ध हए हैं जो इस बातके साक्षी हैं कि ये बीच-बीच में आगरा, मथुरा और नागौर आदि नगरोंसे भी न केवल अपना सम्पर्क बनाये हुये थे बल्कि उन नगरोंमें भी आते-जाते रहते थे। इसमें संदेह नहीं कि ये अति ही उदाराशय परोपकारी विद्वान कवि थे। आत्म-कल्याणके साथ इनके चित्तमें जनकल्याणकी भावना सतस जागृत रहती थी। एक ओर विशुद्धतर परिणाम और दूसरी ओर समीचीन सर्वोपकारिणी बुद्धि इन दो गुणोंका सुमेल इनके बौद्धिक जीवनकी सर्वोपरि विशेषता थी। साहित्यिक जगतमें यही इनकी सफलताका बीज है। ये व्याकरण, छन्दशास्त्र, स्यावाद विद्या आदि सभी विद्याओं में पारंगत थे । स्याद्वाद और अध्यात्मका तो इन्होंने तलस्पर्शो गहन परिशीलन किया था। भगवान् कुन्दकुन्द-रचित समयसार और प्रवचनसार प्रभृति प्रमुख ग्रन्थ इन्हें कण्ठस्थ थे। इन ग्रन्थों में प्रतिपादित अध्यात्मतत्त्वके आधारसे जनमानसका निर्माण हो इस सदभिप्रायसे प्रेरित होकर इन्होंने मारवाड़ और मेवाड़ प्रदेशको अपना प्रमुख कार्य क्षेत्र बनाया था। जहाँ भी ये जाते, सर्वत्र इनका सोत्साह स्वागत होता था। उत्तरकालमें अध्यात्मके चतुर्मुखी प्रचारमें इनकी साहित्यिक व अन्य प्रकारकी सेवाएँ विशेष कारगर सिद्ध हुईं। कविवर बनारसीदासजी वि० १७ वीं शताब्दीके प्रमुख विद्धान् हैं। जान पड़ता है कि कविवर राजमल्लजीने उनसे कुछ ही काल पूर्व इस बसुधाको अलंकृत किया होगा। अध्यात्मगंगाको प्रवाहित करनेवाले इन दोनों मनीषियोंका साक्षात्कार हुआ है ऐसा तो नहीं जान पड़ता, किन्तु इन द्वारा रचित जम्बूस्वामीचरित और कविवर बनारसीदासजीकी प्रमुख कृति अर्द्ध कथानकके अवलोकनसे यह अवश्य ही ज्ञात होता है कि इनके इह लीला समाप्त करनेके पूर्व ही कविवर बनारसीदासजीका जन्म हो चुका था। रचनाएँ ___ इनकी प्रतिभा बहुमुखी थी इसका संकेत हम पूर्वमें ही कर आये हैं। परिणामस्वरूप इन्होंने जिन ग्रन्थोंका प्रणयन किया या टोकाएँ लिखीं व महत्त्वपूर्ण है। उनका पूरा विवरण तो हमें प्राप्त नहीं, फिर भी Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४४ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ इन द्वारा रचित साहित्यमें जो संकेत मिलते हैं उनके अनुसार इन्होंने इन ग्रन्थों की रचना की होगी ऐसा ज्ञात होता है । विवरण इस प्रकार है : १. जम्बूस्वामीचरित, २. पिंगल ग्रन्थ-छंदोविद्या, ३. लाटीसंहिता, ४. अध्यात्मकमल-मार्तण्ड, ५. तत्त्वार्थसूत्र टीका, ६. समयसार कलश बालबोध टीका और ७. पंचाध्यायी । ये उनकी प्रमुख रचनाएँ या टीका ग्रन्थ हैं। यहाँ जो क्रम दिया गया है, संभवतः इसी क्रमसे इन्होंने जनकल्याणहेतु ये रचनाएँ लि पबद्ध की होंगी । संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है : १. कविवर अपने जीवनकालमें अनेक बार मथुरा गये थे। जब ये प्रथमबार मथुरा गये तब तक इनकी विद्वत्ताके साथ कवित्वशक्ति पर्याप्त प्रकाशमें आ गई थी। अतएव वहाँ की एक सभामें इनसे जम्बूस्वामीचरितको लिपिबद्ध करनेकी प्रार्थना की गई। इस ग्रन्थके रचे जानेका यह संक्षिप्त इतिहास है । यह ग्रन्थ वि० सं० १६३३ के प्रारम्भके प्रथम पक्षमें लिखकर पूर्ण हुआ है। इस ग्रन्थकी रचना करानेमें भटानियाँकोल (अलीगढ) निवासी गर्गगोत्री अग्रवाल टोडर साह प्रमख निमित्त हैं। ये वही टोडर साह हैं जिन्होंने अपने जीवन कालमें मथराके जैनस्तुपोंका जीर्णोद्धार कराया था। इनका राजपुरुषोंके साथ अतिनिकटका संबंध (परिचय) था । उनमें कृष्णामंगल चौधरी और गढ़मल्ल साहू मुख्य थे। इसके बाद पर्यटन करते हुए कविवर कुछ कालके लिये नागौर भी गये थे वहाँ इनका संपर्क श्रीमालज्ञातीय राजा भारमल्लसे हुआ। ये अपने कालके वैभवशाली प्रमुख राजपुरुष थे। इन्हींकी सत्प्रेरणा पाकर कविवरने पिंगल ग्रन्थ-छंदोविद्या ग्रन्थका निर्माण किया था। यह ग्रन्थ प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश और तत्कालीन हिन्दीका सम्मिलित नमूना है। ३. तीसरा ग्रन्थ लाटीसंहिता है। मुख्य रूपसे इसका प्रतिपाद्य विषय श्रावकाचार है । जैसा कि मैं पूर्वमें निर्देश कर आया हूँ कि ये भट्टारक परम्पराके प्रमुख विद्वान् थे। यही कारण है कि इसमें भट्टारकों द्वारा प्रचारित परम्पराके अनुरूप श्रावकाचारका विवेचन प्रमुख रूपसे हुआ है । २८ मूलगुणोंमें जो षडावश्यक कर्म हैं, पर्वकालमें व्रती श्रावकोंके लिये वे ही षडावश्यक कर्म देशवतके रूपमें स्वीकृत थे। उनमें दूसरे कर्मका नाम चतुर्विशतिस्तव और तीसरा कर्म वन्दना है। वर्तमान कालमें जो दर्शन-पजनविधि प्रचलित है, यह उन्हीं दो आवश्यक कर्मोका रूपान्तर है। मूलाचारमें वन्दनाके लौकिक और लोकोत्तर ये दो भेद दृष्टिगोचर होते है । उनमेंसे लोकोत्तर वन्दनाको कर्मक्षपणका हेतु बतलाया गया है। स्पष्ट है कि लौकिक वन्दना मात्र पुण्य बन्धका हेतु है। इन तथ्यों पर दृष्टिपात करनेसे विदित होता है कि पूर्वकालमें ऐसी ही लौकिक विधि प्रचलित थी जिसका लोकोत्तर विधिके साथ सुमेल था। इस समय उसमें जो विशेष फेरफार दृष्टिगोचर होता है वह भट्टारकीय युगकी देन है । लाटीसंहिताकी रचना वैराटनगरके श्री दि० जैन पार्श्वनाथ मंदिरमें बैठकर की गई थी। रचनाकाल वि० सं० १६४१ है । इसकी रचना करानेमें साह फामन और उनके वंशका प्रमुख हाथ रहा है। ४. चौथा ग्रन्थ अध्यात्मकमलमार्तण्ड है। यह भी कविवरकी रचना मानी जाती है। इसकी रचना अन्य किसी व्यक्तिके निमित्तसे न होकर स्वसंवित्तिको प्रकाशित करनेके अभिप्रायसे की गई है। यही कारण है कि इसमें कविवरने न तो किसी व्यक्ति विशेषका उल्लेख किया है और न अपने सम्बन्धमें ही कुल लिखा है। इसके स्वाध्यायसे विदित होता है कि इसकी रचनाके काल तक कविवरने अध्यात्ममें पर्याप्त निपुणता प्राप्त कर ली थी। यह इसीसे स्पष्ट है कि वे इसके दूसरे अध्यायका प्रारम्भ करते हुए यह स्पष्ट संकेत करते हैं कि पुण्य और पापका आस्रव और बन्ध तत्त्वमें अन्तर्भाव होनेके कारण इन दो तत्त्वोंका अलगसे विवेचन नहीं Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : ४४५ किया है । विषय प्रतिपादनकी दृष्टिसे जो प्रौढ़ता पंचाध्यायीमें दृष्टिगोचर होती है उसकी इसमें एक प्रकारसे न्यूनता ही कही जायेगी । आश्चर्य नहीं कि यह ग्रन्थ अध्यात्मप्रवेशकी पूर्वपीठिकाके रूपमें लिखा गया हो । अस्तु, ५ से ७ जान पड़ता है कि कविवरने पूर्वोक्त चार ग्रन्थोंके सिवाय तत्त्वार्थसूत्र और समयसारकलशकी टीकाएँ लिखने के बाद पंचाध्यायीकी रचनाकी होगी। समयसार-कलशकी टीकाका परिचय तो हम आगे कराने वाले हैं, किन्तु तत्त्वार्थसूत्र टीका हमारे देखनेमें नहीं आई, इसलिये वह कितनी अर्थगर्भ है यह लिखना कठिन है। रहा पंचाध्यायी ग्रन्थराज सो इसमें संदेह नहीं कि अपने कालकी संस्कृत रचनाओंमें विषय प्रतिपादन और शैली इन दोनों दृष्टियोंसे यह ग्रन्थ सर्वोत्कृष्ट रचना है । इसे तो समाजका दुर्भाग्य ही कहना चाहिये कि कविवरके द्वारा ग्रन्थके प्रारम्भमेंकी गई प्रतिज्ञाके अनुसार पाँच अध्यायोंमें पूरा किया जानेवाला यह ग्रन्थराज केवल डेढ़ अध्याय मात्र लिखा जा सका। इसे भगवान कुन्दकुन्द और आचार्य अमृतचन्द्रकी रचनाओंका अविकल दोहन कहना अधिक उपयुक्त है। कविवरने इसमें जिस विषयको स्पर्श किया है उसकी आत्माको स्वच्छ दर्पणके समान खोलकर रख दिया है। इसमें प्रतिपादित अध्यात्मनयों और सम्यत्वकी प्ररूपणामें जो अद्भुत विशेषता दृष्टिगोचर होती है उसने ग्रन्थराजकी महिमाको अत्यधिक बढ़ा दिया है इसमें संदेह नहीं । श्री समयसार परमागम कविवर और उनकी रचनाओंके सम्बन्धमें इतना लिखनेके बाद समयसारकलश बालबोध टीकाका प्रकृतमें विशेष विचार करना है । यह कविवरकी अध्यात्मरससे ओतप्रोत तत्सम्बन्धी समस्त विषयोंपर सांगोपांग तथा विशद प्रकाश डालनेवाली अपने कालकी कितनी सरल, सरस और अनुपम रचना है यह आगे दिये जानेवाले उसके परिचयसे भलीभाँति सुस्पष्ट हो जायगा। इसमें अणुमात्र भी संदेह नहीं कि श्रीसमयसार परमागम एक ऐसे आत्मज्ञानी महात्माकी वाणीका सुखद प्रसाद है जिनका आत्मा आत्मानुभूति स्वरूप निश्चय सम्यग्दर्शनसे सुवासित था, जो अपने जीवनकालमें ही निरन्तर पुनः पुनः अप्रमत्त भावको प्राप्त कर ध्यान ध्याता और ध्येयके विकल्पसे रहित परम समाधिरूप आत्मीक सुखका रसास्वादन करते रहते थे. जिन्हें अरिहन्त भट्टारक भगवान् महावीरकी वाणीका सारभूत रहस्य गुरु परम्परासे भले प्रकार अवगत था, जिन्होंने अपने वर्तमान जीवनकालमें ही पूर्वमहाविदेहस्थित भगवान सीमंधर स्वामीके साक्षात् दर्शनके साथ उनकी दिव्यध्वनिको आत्मसात् किया था तथा अप्रमत्त भावसे प्रमत्तभावमें आनेपर जिनका शीतल और विवेकी चित्त करुणाभावसे ओतप्रोत होनेके कारण संसारी प्राणियोंके परमार्थ स्वरूप हितसाधनमें निरन्तर सन्नद्ध रहता था। आचार्यवर्टाने श्रीसमयसार परमागममें अनादि मिथ्यात्वसे प्लावित चित्तवाले मिथ्यादृष्टियोंके गृहीत और अगृहीत मिथ्यात्वको छुड़ानेके सदभिप्रायवश द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोककर्मसे भिन्न एकत्वस्वरूप जिस आत्माके दर्शन कराये हैं और उसकी प्राप्तिका मार्ग सुस्पष्ट किया है वह पूरे जैनशासनका सार है। जिसके प्राप्त होने पर सिद्धस्वरूप आत्माकी साक्षात् प्राप्ति है । आत्मख्याति वृत्ति इस प्रकार हम देखते हैं कि जिस प्रकार साररूप अपूर्व प्रमेयको सुस्पष्ट करनेवाला यह ग्रन्थराज है उसी प्रकार इसके हार्दको सरल, भावमयी और सुमधुर किन्तु सुस्पष्ट रचना द्वारा प्रकाशित करनेवाली तथा बुधजनों द्वारा स्मरणीय आचार्यवयं अमृतचन्द्रकी आत्म ख्याति वृत्ति है। यदि इसे वृत्ति न कहकर नय Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४६ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ नय विशेषसे श्रीसमयसार परमागमके स्वरूपको प्रकाशित करनेवाला उसका आत्मभूत लक्षण कहा जाये तो कोई अत्युक्ति न होगी। श्रीसमयसार परमागमकी यह वृत्ति किस प्रयोजनसे निबद्धकी गई है इस स्पष्ट करते हुए आचार्य अमतचन्द्र तीसरे कलशमें स्वयं लिखते हैं कि इस द्वारा शुद्धचिन्मात्र मूर्तिस्वरूप मेरे अनुभवरूप परिणतिकी परमविशुद्धि अर्थात् रागादि विभाव परिणति रहित उत्कृष्ट निर्मलता होओ । स्पष्ट है कि उन द्वारा स्वयं आत्मख्याति वृत्तिके विषयमें ऐसा भाव व्यक्त करना उसी तथ्यको सूचित करता है जिसका हम पर्वमें निर्देश कर आये हैं । वस्तुतः आत्मख्यातिवृत्तिका प्रतिपाद्य विषय श्रीसमयसार परमागममें प्रतिपादित रहस्यको सुस्पष्ट करना है। इसलिये श्रीसमयसार परमागम और आत्मख्यातिवृत्तिमें प्रतिपाद्य-प्रतिपादक सम्बन्ध होनेके कारण आत्मख्यातिवृत्ति द्वारा श्रीसमयसार परमागमका आत्मा ही सुस्पष्ट किया गया है। इस लिये नय विशेषसे इसे श्रीसमयसार परमागमका आत्मभूत लक्षण कहना उचित ही है। इसकी रचनाकी अपनी मौलिक विशेषता है । जहाँ यह श्रीसमयसार परमागमकी प्रत्येक गाथाके गूढ़तम अध्यात्म विषयको एकलोलीभावसे आत्मसात् करनेमें दक्ष है वहाँ यह बीच-बीच में प्रतिपादित श्री जिनमन्दिरके कलशस्वरूप कलशों द्वारा विषयको साररूपमें प्रस्तुत करनेकी क्षमता रखती है। कलशकाव्योंकी रचना आसन्न भव्य जीवोंके हृदयरूपी कुमुदको विकसित करनेवाली चन्द्रिकाके समान इसी मनोहारिणी शैलीका सुपरिणाम है। यह अमृतका निर्झर है और इसे निर्धारित करनेवाले चन्द्रोपम आचार्य अमृतचन्द्र हैं । लोकमें जो अमरता प्रदान करनेवाले अमृतकी प्रसिद्धि है, जान पड़ता है कि अमृतके निर्झर स्वरूप इस आत्मख्यातिवृत्ति से प्राप्त होनेवाली अमरताको दृष्टिमें रखकर ही उक्त ख्यातिने लोकमें प्रसिद्धि पाई है । धन्य हैं वे भगवान् कुन्दकुन्द, जिन्होंने समग्र परमागमका दोहन कर श्रीसमयसार परमागम द्वारा पूरे जिनशासनका दर्शन कराया । और धन्य हैं वे आचार्य अमृतचन्द्र, जिन्होंने आत्मख्यातिवृत्तिकी रचना कर पूरे जिनशासनके दर्शन करानेमें अपर्व योगदान प्रदान किया। समयसारकलश बालबोध टीका ऐसे हैं ये दोनों श्री समयसार परमागम और उसके हार्दको सुस्पष्ट करनेवाली आत्मख्यातिवृत्ति । यह अपूर्व योग है कि कविवर राजमल्लजीने परोपदेशपूर्वक या तदनुरूप पूर्व संस्कारवश निसर्गतः उनके हार्दको हृदयंगम करके अपने जीवनकालमें प्राप्त विद्वत्ताका सदुपयोग साररूपसे निबद्ध कलशोंकी बालबोध टीकाको लिपिबद्ध करनेमें किया। यह टीका मोक्षमार्गके अनुरूप अपने स्वरूपको स्वयं प्रकाशित करती है, इसलिए तो प्रमाण है ही। साथ ही वह जिनागम, गुरु-उपदेश, युक्ति और स्वानुभव प्रत्यक्षको प्रमाण कर लिखी गई है, इसलिए भी प्रमाण है; क्योंकि जो स्वरूपसे प्रमाण न हो उसमें परतः प्रमाणता नहीं आती ऐसा न्याय है। यद्यपि यह ढूंढारी भाषामें लिखी गई है, फिर भी गद्य काव्य सम्बन्धी शैली और पदलालित्य आदि सब विशेषताओंसे ओत-प्रोत होनेके कारण वह भव्यजनोंके चित्तको आह्लाद उत्पन्न करनेमें समर्थ है। वस्तुतः इसकी रचनाशैली और पदलालित्य अपनी विशेषता है। इसकी रचनामें कविवर सर्व प्रथम कलशगत अनेक पदोंके समुदायरूप वाक्यको स्वीकारकर आगे उसके प्रत्येक पदका या पदगत शब्दका अर्थ स्पष्ट करते हुए उसका मथितार्थ क्या है यह लिपिबद्ध करनेके अभिप्रायसे 'भावार्थ इस्यो' यह लिखकर उस वाक्यमें निहित रहस्यको स्पष्ट करते हैं। टीकामें यह पद्धति प्रायः सर्वत्र अपनाई गई है। यथा तत् नः अयं एकः आत्मा अस्तु-तत् कहतां तिहि कारण तहि, नः कहतां हम कहुँ अयं कहतां विद्यमान छै, एकः कहतां शुद्ध, आत्मा कहता चेतन पदार्थ, अस्तु कहतां होउ। भावार्थ इस्यो-जो जोव अस्तु कहता हात कहतव हम यो जहाव Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : ४४७ वस्तु चेतना लक्षण तौ सहज ही छै । परि मिथ्यात्व परिणाम करि भभ्यो होता अपना स्वरूप कह नहीं जाने छै । तिहि सहि अज्ञानी ही कहिजे । तहि तहि इसौ कह्यौ जो मिथ्या परिणामके गया थी यौ ही जीव अपना स्वरूपको अनुभवनशीली होहु । कलश ६ । स्वभावतः खण्डान्वयरूपसे अर्थ लिखनेकी पद्धतिमें विशेषणों और तत्सम्बन्धी सन्दर्भका स्पष्टीकरण बादमें किया जाता है। ज्ञात होता है कि इसी कारण उत्तर कालमें प्रत्येक कलशके प्रकृत अर्थको 'खण्डान्वय सहित अर्थ' पद द्वारा उल्लिखित किया जाने लगा है। किन्तु इसे स्वयं कविवरने स्वीकार किया होगा ऐसा नहीं जान पड़ता, क्योंकि इस पद्धतिसे अर्थ लिखते समय जो शैली स्वीकारकी जाती है वह इस टीकामें अविकलरूपसे दृष्टिगोचर नहीं होती। ___टीकामें दूसरी विशेषता अर्थ करनेकी पद्धतिसे सम्बन्ध रखती है, क्योंकि कविवरने प्रत्येक शब्दका अर्थ प्रायः शब्दानुगामिनी पद्धतिसे न करके भावानुगामिनी पद्धतिसे किया है। इससे प्रत्येक कलशमें कौन शब्द किस भावको लक्ष्यमें रखकर प्रयुक्त किया गया है इसे समझने में बड़ी सहायता मिलती है । इस प्रकार यह टीका प्रत्येक कलशके मात्र शब्दानुगामी अर्थको स्पष्ट करनेवाली टीका न होकर उसके रहस्यको प्रकाशित करनेवाली भावप्रवण टीका है। में जो तीसरी विशेषता पाई जाती है वह आध्यात्मिक रहस्यको न समझनेवाले महानुभावोंको उतनी रुचिकर प्रतीत भले ही न हो पर इतने मात्र उसकी महत्ता कम नहीं की जा सकती । उदाहरणार्थ तीसरे कलशको लीजिये। इसमें षष्ठयन्त 'अनुभूतेः' पद और उसके विशेषणरूपसे प्रयुक्त हुआ पद स्त्रीलिंग होनेपर भी उसे 'मम' का विशेषण बनाया गया है। कविवरने ऐसा करते हुए 'जो जिस समय जिस भावसे परिणत होता है, तन्मय होता है' इस सिद्धान्तको ध्यानमें रखा है। प्रकृतमें सार बात यह है कि कवि अपने द्वारा किये गये अर्थद्वारा यह सूचित करते हैं कि यद्यपि द्रव्याथिक दष्टिसे आत्मा चिन्मात्रमति है, तथापि आनुभतिमें जो कल्मषता शेष है तत्स्वरूप मेरी परम विशुद्धि होओ अर्थात् रागका विकल्प दूर होकर स्वभावमें एकत्व बुद्धिरूप में परिणम । सम्यग्दृष्टि द्रव्यदृष्टि होता है, इसलिए वह स्वभावके लक्ष्यसे उत्पन्न हुई पर्यायको तन्मयरूपसे ही अनुभवता है। आचार्य अमृतचन्द्र द्वारा भेद विवक्षासे किये गये कथनमें यह अर्थ गर्भित है यह कविवरके उक्त प्रकारसे किये गये अर्थका तात्पर्य है। यह गूढ़ रहस्य है जो तत्त्वदृष्टिके अनुभवमें ही आ सकता है। इस प्रकार यह टीका जहाँ अर्थगत अनेक विशेषताओंको लिये हुए हैं वहाँ इस द्वारा अनेक रहस्योंपर भी सुन्दर प्रकाश डाला गया है । यथा नमः समयसाराय (क० १)-समयसारको नमस्कार हो । अन्य पुद्गलादि द्रव्यों और संसारी जीवोंको नमस्कार न कर अमुक विशेषणोंसे युक्त समयसारको ही क्यों नमस्कार किया है ? वह रहस्य क्या है ? प्रयोजनको जाने बिना मन्द पुरुष भी प्रवृत्ति नहीं करता ऐसा न्याय है । कविवरके सामने यह समस्या थी। उसी समस्याके समाधान स्वरूप वे 'समयसार' पदमें आये हुए 'सार' पदसे व्यक्त होनेवाले रहस्यको स्पष्ट करते हुए लिखते हैं 'शुद्ध जीवके सारपना घटता है। सार अर्थात् हितकारी, असार अर्थात् अहितकारी। सो हितकारी सुख जानना, अहितकारी दुख जानना । कारण कि अजीव पदार्थ पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, कालके और संसारी जीवके सुख नहीं, ज्ञान भी नहीं, और उनका स्वरूप जानने पर जाननहारे जीवको भी सुख नहीं, Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४८ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ ज्ञान भी नहीं, इसलिए इनके सारपना घटता नहीं । शुद्ध जीवके सुख है, ज्ञान भी है, उनको जानने परअनुभवने पर जाननहारेको सुख है, ज्ञान भी है, इसलिए शुद्ध जीवके सारपना घटता है ।' ये कविवर सप्रयोजन भावभरे शब्द हैं । इन्हें पढ़ते ही कविवर दौलतरामजी के छहढालाके ये वचन चित्तको आकर्षित कर लेते हैं तीन भुवनसे सार वीतराग विज्ञानता । शिवस्वरूप शिवकार नमहुँ त्रियोग सम्हारके ||१|| आतमको हित है सुख, सो सुख आकुलता बिन कहिये । आकुलता शिवमांहि न, तातें: शिवमग लाग्यो चहिये || मालूम पड़ता है कि कविवर दौलतरामजीके समक्ष यह टीका वचन था । उसे लक्ष्यमें रखकर ही उन्होंने इन साररूप छन्दोंकी रचनाकी है । प्रत्यगात्मनः (क० २ ) – दूसरे कलश द्वारा अनेकान्त स्वरूप भाववचनके साथ स्याद्वादमयी दिव्यsafai स्तुति की गई है । अतएव प्रश्न हुआ कि वाणी तो पुद्गलरूप अचेतन है, उसे नमस्कार कैसा ? इस समस्त प्रसंगको ध्यान में रखकर कविवर कहते हैं 'कोई वितर्क करेगा कि दिव्यध्वनि तो पुद्गलात्मक है, अचेतन है, अचेतनको नमस्कार निषिद्ध है । उसके प्रति समाधान करनेके निमित्त यह अर्थ कहा कि वाणी सर्वज्ञस्वरूप अनुसारिणी है । ऐसा माने बिना भी बने नहीं । उसका विवरण - वाणी तो अचेतन है । उसको सुनने पर जीवादि पदार्थका स्वरूप ज्ञान जिस प्रकार उपजता है उसी प्रकार जानना - वाणीका पूज्यपना भी है ।' कविवरके इस वचनसे दो बातें ज्ञात होती हैं - प्रथम तो यह कि दिव्यध्वनि उसीका नाम है जो सर्वज्ञके स्वरूपके अनुरूप वस्तुस्वरूपका प्रतिपादन करती है । इसी तथ्यको स्पष्ट करनेके अभिप्राय से कविवर 'प्रत्यगात्मन् ' शब्द का अर्थ सर्वज्ञ वीतराग किया है जो युक्त है । दूसरी बात यह ज्ञात होती है कि सर्वज्ञ वीतराग और दिव्यध्वनि इन दोनोंके मध्य निमित नैमित्तिक सम्बन्ध है । दिव्यध्वनिकी प्रामाणिकता भी इसी कारण व्यवहार पदवीको प्राप्त होती है । स्वतः सिद्ध इसी भावको व्यक्त करनेवाला कविवर दौलतरामजीका यह वचन ज्ञातव्य है वसाय | भविभागनि तुम धुनि वचिजोगे सुनि विभ्रम नसाय || जिनवचसि रमन्ते (क० ४ ) -- इस पदका भाव स्पष्ट करते हुए कविवरने जो कुछ अपूर्व अर्थका उद्घाटन किया है वह हृदयंगम करने योग्य है । वे लिखते हैं 'वचन पुद्गल है उसकी रुचि करने पर स्वरूपकी प्राप्ति नहीं । इसलिये वचनके द्वारा कही जाती है। जो कोई उपादेय वस्तु उसका अनुभव करने पर फल प्राप्ति है ।' कविवरने 'जिनवचसि रमन्ते' पदका यह अर्थ उसी कलशके उत्तरार्द्धको दृष्टिमें रखकर किया है । इससे स्पष्ट ज्ञात होता है कि दोनों नयोंके विषयको जानना एक बात है और जानकर निश्चयनयके विषयभूत शुद्ध वस्तुका आश्रय लेकर उसमें रममाण होना दूसरी बात है । कविवर ने उक्त शब्दों द्वारा इसी आशयको अभिव्यक्त किया है । Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : ४४९ प्राक्पदव्यां (क० ५)-अर्वाचीनपदव्यां'-व्यवहारपदव्यां। ज्ञानी जीवको दो अवस्थाएँ होती हैं-सविकल्प दशा और निर्विकल्प दशा । प्रकृतमें 'प्राक्पदवी' पदका अर्थ 'सविकल्प दशा' है। इस द्वारा यह अर्थ स्पष्ट किया गया है कि यद्यपि सविकल्प दशामें व्यवहारनय हस्तावलम्ब है, परन्तु अनुभूति अवस्थामें (निर्विकल्प दशामें) उसका कोई प्रयोजन नहीं। इसी भावको कविवर इन शब्दोंमें स्पष्ट करते हुए लिखते हैं 'जो कोई सहजरूपसे, अज्ञानी (मन्दज्ञानी) हैं, जीवादि पदार्थोंका द्रव्य-गुण पर्यायस्वरूप जाननेके अभिलाषी हैं, उनके लिये गुण-गुणी भेदरूप कथन योग्य है।' नवतत्त्वगतत्वेऽपि यदेकत्वं न मुञ्चति (क० ७)-जीववस्तु नौ तत्त्वरूप होकर भी अपने एकत्त्वका त्याग नहीं करती इस तथ्यको समझानेका कविवरका दृष्टिकोण अनूठा है। उन्हीं के शब्दोंमें पढ़िये 'जैसे अग्नि दाहक लक्षणवाली है, वह काष्ठ, तृण, कण्डा आदि समस्त दाह्यको दहती है, दहती हई अग्नि दाह्याकार होती है, पर उसका विचार है कि जो उसे काष्ठ, तृण और कण्डेकी आकृतिमें देखा जाये तो काष्ठकी अग्नि, तृष्णाकी अग्नि और कण्डेकी अग्नि ऐसा कहना साँचा ही है । और अग्निकी उष्णतामात्र विचारा जाये तो उष्णमात्र है । काष्ठको अग्नि, तणकी अग्नि और कण्डेकी अग्नि ऐसे समस्त विकल्प झूठे हैं। उसी प्रकार नौ तत्त्वरूप जीवके परिणाम हैं। वे परिणाम कितने ही शुद्धरूप हैं, कितने ही अशुद्ध रूप है । जो नौ परिणाममें ही देखा जाये तो नौ ही तत्त्व साँचे हैं और जो चेतनामात्र अनुभव किया जाये तो नौ ही विकल्प झूठे हैं।' इसी तथ्यको कलश ८ में स्वर्ण और वानभेदको दृष्टान्तरूपमें प्रस्तुत कर कविवरने और भी आलंकारिक भाषा द्वारा समझाया है । यथा 'स्वर्णमात्र न देखा जाये, बानभेदमात्र देखा जाय तो बानभेद है; स्वर्णकी शक्ति ऐसी भी है। जो बानभेद न देखा जाय, केवल स्वर्णमात्र देखा जाय तो बानभेद झूठा है। इसी प्रकार जो शुद्ध जीव वस्तुमात्र न देखी जाय, गुण-पर्यायमात्र या उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यमात्र देखा जाय तो गुण-पर्याय है तथा उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य है: जीव वस्तु ऐसी भी है। जो गुण-पर्याय भेद या उत्पाद व्यय-ध्रौव्य भेद न देखा जाय, वस्तुमात्र देखी जाय तो समस्त भेद झुठा है । ऐसा अनुभव सम्यक्त्व है।' उदयति न नयश्रीः (क० ९)-अनुभव क्या है और अनुभवके कालमें जीवकी कैसी अवस्था होती है उसे स्पष्ट करते हुए कविने जो वचन प्रयोग किया है वह अद्भुत है । रसास्वाद कीजिये 'अनुभव प्रत्यक्ष ज्ञान है । प्रत्यक्ष ज्ञान है अर्थात् वेद्य-वेदकभावसे आस्वादरूप है और वह अनुभव परसहायसे निरपेक्ष है। ऐसा अनुभव यद्यपि ज्ञानविशेष है तथापि सम्यक्त्वके साथ अविनाभूत है, क्योंकि यह सम्यग्दष्टिके होता है, मिथ्यादृष्टिके नहीं होता है ऐसा निश्चय है । ऐसा अनुभव होने पर जीववस्तु अपने शुद्धस्वरूपको प्रत्यक्षरूपसे आस्वादती है, इसलिये जितने कालतक अनुभव होता है उतने कालतक वचन व्यवहार सहज ही बन्द रहता है ।' इसी तथ्यको स्पष्ट करते हुए वे आगे पुनः लिखते हैं 'जो अनुभवके आने पर प्रमाण-नय-निक्षेप ही झूठा है । वहाँ रागादि विकल्पोंकी क्या कथा । भावार्थ इस प्रकार है-जो रागादि तो झूठा ही है, जीवस्वरूपसे बाह्य है। प्रमाण-नय-निक्षेपरूप बुद्धि के द्वारा एक ही जीवद्रव्यका द्रव्य-गुण-पर्यायरूप अथवा उत्पाद्-व्यय-ध्रौव्यरूप भेद किया जाता है, वे समस्त झूठे हैं । इन सबके झूठे होने पर जो कुछ वस्तुका स्वाद है सो अनुभव है।' १. पद्मनन्दीपंचविंशतिका एकत्त्वसप्तति अधिकार श्लोक १६ । २. उसको टीका । ५७ Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५० : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ इसी तथ्यको कलश १० की टीकामें इन शब्दोंमें व्यक्त किया है'समस्त संकल्प-विकल्पसे रहित वस्तुस्वरूपका अनुभव सम्यक्त्व है ।' रागादि परिणाम अथवा सुख-दुःख परिणाम स्वभाव परिणतिसे बाह्य कैसे है इसका ज्ञान कराते हुए कलश ११ की टीकामें कविवर कहते हैं 'यहाँ पर कोई प्रश्न करता है कि जीवको तो शुद्धस्वरूप कहा और वह ऐसा ही है, परन्तु राग-द्वेषमोहरूप परिणामोंको अथवा सुख-दुःख आदि रूप परिमाणोंको कौन करता है, कौन भोगता है ? उत्तर इस प्रकार है कि इन परिणामोंको करे तो जीव करता है और जीव भोगता है। परन्तु यह परिणति विभावरूप है, उपाधिरूप है। इस कारण निजस्वरूप विचारने पर यह जीवका स्वरूप नहीं है ऐसा कहा जाता है।' शुद्धात्मानुभव किसे कहते हैं इसका स्पष्टीकरण कलश १३ की टीका पढ़िये'निरूपाधिरूपसे जीव द्रव्य जैसा है वैसा ही प्रत्यक्षरूपसे आस्वाद आवे इसका नाम शुद्धात्मानुभव है।' द्वादशाङ्गज्ञान और शुद्धात्मानुभवमें क्या अन्तर है इसका जिन सुन्दर शब्दोंमें कविवरने कलश १४ की टीकामें स्पष्टीकरण किया है वह ज्ञातव्य है _ 'इस प्रसङ्गमें और भी संशय होता है कि द्वादशाङ्गज्ञान कुछ अपूर्व लब्धि है। उसके प्रति समाधान इस प्रकार है कि द्वादशाङ्गज्ञान भी विकल्प है। उसमें भी ऐसा कहा है कि शुद्धात्मानुभूति मोक्षमार्ग है, इसलिए शुद्धात्मानुभूतिके होनेपर शास्त्र पढ़नेकी कुछ अटक नहीं है।' मोक्ष जानेमें द्रव्यान्तरका सहारा क्यों नहीं है इसका स्पष्टीकरण कविवरने कलश १५ की टीकामें इन शब्दोंमें किया है 'एक ही जीव द्रव्य कारणरूप भी अपने में ही परिणमता है और कार्यरूप भी अपने में परिणमता है । इस कारण मोक्ष जानेमें किसी द्रव्यान्तरका सहारा नहीं है, इसलिए शुद्ध आत्माका अनुभव करना चाहिए।' शरीर भिन्न है और आत्मा भिन्न है मात्र ऐसा जानना कार्यकारी नहीं। तो क्या है इसका स्पष्टीकरण कलश २३ की टोकामें पढ़िये 'शरीर तो अचेतन है, विनश्वर है। शरीरसे भिन्न कोई तो पुरुष है ऐसा जानपना ऐसी प्रतीति मिथ्यादृष्टि जीवके भी होती है पर साध्यसिद्धि तो कुछ नहीं। जब जीव द्रव्यका द्रव्य-गुण-पर्यायस्वरूप प्रत्यक्ष आस्वाद आता है तब सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र है, सकल कर्मक्षय मोक्ष लक्षण भी है।' जो शरीर सुख-दुःख राग-द्वेष-मोहकी त्यागबुद्धिको कारण और चिद्रप आत्मानुभवको कार्य मानते है उनको समझाते हुए कविवर क० २९ में क्या कहते हैं यह उन्हीके समर्पक शब्दोंगे पढ़िये 'कोई जानेगा कि जितना भी शरीर, सुख, दुख, राग, द्वेष, मोह है उसकी त्यागबुद्धि कुछ अन्य हैकारणरूप है । तथा शुद्ध चिद्रूपमात्रका अनुभव कुछ अन्य है-कार्यरूप है। उसके प्रति उत्तर इस प्रकार है कि राग, द्वेष, मोह, शरीर, सुख, दुःख आदि विभाव पर्यायरूप परिणति हुए जीवका जिस कालमें ऐसा अशुद्ध परिणामरूप संस्कार छूट जाता है उसी कालमें इसके अनुभव है। उसका विवरण-जो शुद्धचेतनामात्रका आस्वाद आये बिना अशुद्ध भावरूप परिणाम छूटता नहीं और अशुद्ध संस्कार छूटे बिना शुद्ध स्वरूपका अनुभव होता नहीं । इसलिए जो कुछ है सो एक ही काल, एक ही वस्तु, एक ही ज्ञान, एक ही स्वाद है।' जो समझते हैं कि जैनसिद्धान्तका बारबार अभ्यास करनेसे जो दृढ़ प्रतीति होती है उसका नाम अनुभव है । कविवर उनकी इस धारणाको कलश ३० में ठीक न बतलाते हुए लिखते हैं Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : ४५१ 'कोई जानेगा कि जैनसिद्धान्तका बारबार अभ्यास करनेसे दृढ़ प्रतीति होती है उसका नाम अनुभव है सो ऐसा नहीं है । मिथ्यात्वकर्मका रसपाक मिटनेपर मिथ्यात्व भावरूप परिणमन मिटता है तो वस्तुस्वरूपका प्रत्यक्षरूपसे आस्वाद आता है, उसका नाम अनुभव है।' विधि प्रतिषेधरूपसे जीवका स्वरूप क्या है इसे स्पष्ट करते हुए कलश ३३ की टीकामें बतलाया है__'शुद्ध जीव है, टंकोत्कीर्ण है, चिद्रूप है ऐसा कहना विधि कही जाती है । जीवका स्वरूप गुणस्थान नहीं, कर्म-नोकर्म जीवके नहीं, भावकर्म जीवका नहीं ऐसा कहना प्रतिषेध कहलाता है।' हेय-उपादेयका ज्ञान कराते हए कलश ३६ की टीकामें कहा है'जितनी कुछ कर्मजाति है वह समस्त हेय है । उसमें कोई कर्म उपादेय नहीं है । इसलिए क्या कर्तव्य है इस बातको स्पष्ट करते हुए उसीमें बतलाया है 'जितने भी विभाव परिणाम हैं वे सब जीवके नहीं हैं। शुद्ध चैतन्यमात्र जीव है ऐसा अनुभव कर्तव्य है।' कलश ३७ की टीकामें इसी तथ्यको पुनः स्पष्ट करते हुए लिखा है 'वर्णादिक और रागादि विद्यमान दिखलाई पड़ते हैं। तथापि स्वरूप अनुभवने पर स्वरूपमात्र है, विभाव-परिणतिरूप वस्तु तो कुछ नहीं।' कर्मबन्ध पर्यायसे जीव कैसे भिन्न है इसे दृष्टान्त द्वारा समझाते हुए कलश ४४ की टीकामें कहा है 'जिस प्रकार पानी कीचड़के मिलनेपर मैला है । सो वह मैलापन रंग है, सो रंगको अंगीकार न कर बाकी जो कुछ है सो पानी है। उसी प्रकार जीवकी कर्मबन्ध पर्यायरूप अवस्था में रागादिभाव रंग है, सो रंगको अंगीकार न कर बाकी जो कुछ है सो चेतन धातुमात्र वस्तु है। इसी का नाम शुद्धस्वरूप अनुभव जानना जो सम्यग्दृष्टिके होता है ।' इसी तथ्यको स्पष्ट करते हुए कलश ४५ की टीकामें लिखा है "जिस प्रकार स्वर्ण और पाषाण मिले हए चले आ रहे हैं और भिन्न-भिन्नरूप हैं। तथापि अग्निका संयोग जब ही पाते हैं तभी तत्काल भिन्न-भिन्न होते हैं। उसी प्रकार जीव और कर्मका संयोग अनादिसे चला आ रहा है और जीव कर्म भिन्न-भिन्न हैं । तथापि शुद्धस्वरूप अनुभव बिना प्रगटरूपसे भिन्न-भिन्न होते नहीं, जिस काल शुद्धस्वरूप अनुभव होता है उस काल भिन्न-भिन्न होते हैं।' विपरीत बुद्धि और कर्मबन्ध मिटनेके उपायका निर्देश करते हुए कलश ४७ की टीकामें लिखा है 'जैसे सूर्यका प्रकाश होनेपर अंधकारको अवसर नहीं, वैसे शुद्धस्वरूप अनुभव होनेपर विपरीतरूप मिथ्यात्व बद्धिका प्रवेश नहीं । यहाँपर कोई प्रश्न करता है कि शुद्ध ज्ञानका अनुभव होनेपर विपरीत बुद्धिमात्र मिटती है कि कर्मबन्ध मिटता है ? उत्तर इस प्रकार है कि विपरीत बुद्धि मिटती है, कर्मबन्ध भी मिटता है।' कर्ता-कर्मका विचार करते हुए कलश ४९ की टीकामें लिखा है 'जैसे उपचारमात्रसे द्रव्य अपने परिणाममात्रका कर्ता है, वही परिणाम द्रव्यका किया हुआ है वैसे अन्य द्रव्यका कर्ता अन्य द्रव्य उपचारमात्रसे भी नहीं है क्योंकि एकसत्त्व नहीं, भिन्न सत्त्व हैं।' जीव और कर्मका परस्पर क्या सम्बन्ध है इस तथ्यको स्पष्ट करते हुए कलश ५० की टीकामें लिखा है ‘जीव द्रव्य ज्ञाता है, पुद्गल कर्म ज्ञेय है ऐसा जीवको कर्मको ज्ञेय-ज्ञायक सम्बन्ध है, तथापि व्याप्यव्यापक सम्बन्ध नहीं है, द्रव्योंका अत्यन्त भिन्नपना है, एकपना नहीं है।' Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५२ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ कर्ता-कर्म-क्रियाका ज्ञान कराते हुए कलश ५१ की टीकामें पुनः लिखा है 'कर्ता-कर्म-क्रियाका स्वरूप तो इस प्रकार है, इसलिये ज्ञानावरणादि द्रव्य पिण्डरूप कर्मका कर्ता जीवद्रव्य है ऐसा जानना झूठा है, क्योंकि जीवद्रव्यका और पुद्गलद्र व्यका एक सत्त्व नहीं; कर्ता-कर्म-क्रियाकी कौन घटना ?' इसी तथ्यको कलश ५२-५३ में पुनः स्पष्ट किया है 'ज्ञानावरणादि द्रव्यरूप पुदगलपिण्ड कर्मका कर्ता जीववस्तु है ऐसा जानपना मिथ्याज्ञान है, क्योंकि एक सत्त्वमें कर्ता-कर्म-क्रिया उपचारसे कहा जाता है । भिन्न सत्त्वरूप है जो जीवद्रव्य-पुद्गलद्रव्य उनको कर्ता-कर्मक्रिया कहाँसे घटेगा ?' 'जीवद्रव्य-पुद्गलद्रव्य भिन्न सत्तारूप हैं सो जो पहले भिन्न सत्तापन छोड़कर एक सत्तारूप होवें तो पीछे कर्ता-कर्म-क्रियापना घटित हो। सो तो एकरूप होते नहीं, इसलिये जीव-पुद्गलका आपसमें कर्ता-कर्मक्रियापना घटित नहीं होता।' जीव अज्ञानसे विभावका कर्ता है इसे स्पष्ट करते हुए कलश ५८ की टीकामें लिखा है "जैसे समुद्रका स्वरूप निश्चल है, वायुसे प्रेरित होकर उछलता है और उछलनेका कर्ता भी होता है, वैसे ही जीव द्रव्यस्वरूपसे अकर्ता है। कर्म संयोगसे विभावरूप परिणमता है, इसलिये विभावपनेका कर्ता भी होता है । परन्तु अज्ञानसे, स्वभाव तो नहीं ।' जीव अपने परिणामका कर्ता क्यों है और पुदगल कर्मका कर्ता क्यों नहीं इसका स्पष्टीकरण कलश ६१ की टोकामें इसप्रकार किया है 'जीवद्रव्य अशुद्ध चेतनारूप परिणमता है, शुद्ध चेतनारूप परिणमता है, इसलिये जिस कालमें जिस चेतनारूप परिणमता है उस कालमें उसी चेतनाके साथ व्याप्यव्यापकरूप है, इसलिये उस कालमें उसी चेतनाका कर्ता है । तो भी पुद्गल पिण्डरूप जो ज्ञानावरणादि कर्म है उसके साथ तो व्याप्य-व्यापकरूप तो नहीं है। इसलिये उसका कर्ता नहीं है।' जीवके रागादिभाव और कर्म परिणाममें निमित्त-नैमित्तिकभाव क्यों है, कर्ता-कर्मपना क्यों नहीं इसका स्पष्टीकरण कलश ६८की टीकामें इसप्रकार किया है 'जैसे कलशरूप मृत्तिका परिणमती है, जैसे कुम्भकारका परिणाम उसका बाह्य निमित्त कारण है, व्याप्य-व्यापकरूप नहीं है उसीप्रकार ज्ञानावरणादि कर्म पिण्डरूप पुद्गलद्रव्य स्वयं व्याप्य-व्यापकरूप है । तथापि जीवका अशुद्धचेतनारूप मोह, राग, द्वेषादि परिणाम बाह्य निमित्त कारण है, व्याप्य-व्यापकरूप तो नहीं है।' वस्तुमात्रका अनुभवशीली जीव परम सुखी कैसे है इसे स्पष्ट करते हुए कलश ६९ की टीकामें कहा है___ 'जो एक सत्त्वरूप वस्तु है, उसका द्रव्य-गुण-पर्यायरूप, उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यरूप विचार करनेपर विकल्प होता है, उस विकल्पके होनेपर मन आकुल होती है, आकुलता दुःख है, इसलिये वस्तुमात्रके अनुभवने पर विकल्प मिटता है, विकल्पके मिटनेपर आकुलता मिटती है, आकुलताके मिटनेपर दुःख मिटता है, इससे अनुभवशीली जीव परम सुखी है।' स्वभाव और कर्मोपाधिमें अन्तरको दिखलाते हुए कलश ९१ की टीकामें लिखा है 'जैसे सूर्यका प्रकाश होनेपर अंधकार फट जाता है उसीप्रकार शुद्ध चैतन्यमात्रका अनुभव होनेपर यावत समस्त विकल्प मिटते हैं । ऐसी शुद्ध चैतन्यवस्तु है सो मेरा स्वभाव, अन्य समस्त कर्मकी उपाधि है।' Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : ४५३ नय विकल्पके मिटनेके उपायका निर्देश करते हुए कलश ९२-९३ की टीकामें लिखा है 'शुद्ध स्वरूपका अनुभव होनेपर जिसप्रकार नयविकल्प मिटते हैं उसीप्रकार समस्त कर्मके उदयसे होनेवाले जितने भाव है वे भी अवश्य मिटते हैं ऐसा स्वभाव है।' _ 'जितना नय है उतना श्रुतज्ञानरूप है, श्रुतज्ञान परोक्ष है, अनुभव प्रत्यक्ष है, इसलिये श्रुतज्ञान बिना जो ज्ञान है वह प्रत्यक्ष अनुभवता है।' ___जीव अज्ञान भावका कब कर्ता है और कब अकर्ता है इसका स्पष्टीकरण करते हुए कलश ९५ की टीकामें लिखा है 'कोई ऐसा मानेगा कि जीव द्रव्य सदा ही अकर्ता है उसके प्रति ऐसा समाधान कि जितने काल तक जीवका सम्यक्त्व गुण प्रगट नहीं होता उतने काल तक जीव मिथ्यादृष्टि है। मिथ्यादृष्टि हो तो अशुद्ध परिणामका कर्ता होता है । सो जब सम्यक्त्व गुण प्रगट होता है तब अशुद्ध परिणाम मिटता है, तब अशुद्ध परिणामका कर्ता नहीं होता।' __ अशुभ कर्म बुरा और शुभ कर्म भला ऐसी मान्यता अज्ञानका फल है इसका स्पष्टीकरण करते हुए कलश १०० की टीकामें लिखा है 'जैसे अशुभकर्म जीवको दुःख करता है उसी प्रकार शभकर्म भी जीवको दुःख करता है। कर्ममें तो भला कोई नहीं है । अपने मोहको लिये हुए मिथ्यादृष्टि जीव कर्मको भला करके मानता है । ऐसी भेद प्रतीति शुद्ध स्वरूपका अनुभव हुआ तबसे पाई जाती है।' शुभोपयोग भला, उससे क्रमसे कर्मनिर्जरा होकर मोक्ष प्राप्ति होती है यह मान्यता कैसे झूठी है इसका स्पष्टीकरण करते हए कलश १०१ की टीकामें लिखा है ___'कोई जीव शुभोपयोगी होता हुआ यतिक्रियामें मग्न होता हुआ शुद्धोपयोगको नहीं जानता, केवल यतिक्रियामात्र मग्न है । वह जीव ऐसा मानता है कि मैं तो मुनीश्वर, हमको विषय-कषाय सामग्री निसिद्ध है । ऐसा जानकर विषय कषाय सामग्रीको छोड़ता है, आपको धन्यपना मानता है, मोक्षमार्ग मानता है । सो विचार करनेपर ऐसा जीव मिथ्यादृष्टि है । कर्मबन्धको करता है, काँई भलापन तो नहीं है।' क्रिया संस्कार छटनेपर ही शुद्धस्वरूपका अनुभव संभव है इसका स्पष्टीकरण कलश १०४ की टीकामें इसप्रकार किया है 'शुभ-अशुभ क्रियामें मग्न होता हुआ जीव विकल्पी है, इससे दुःखी है। क्रिया संस्कार छूटकर शुद्धस्वरूपका अनुभव होते हो जीव निर्विकल्प है, इससे सुखी है।' कैसा अनुभव होनेपर मोक्ष होता है इसका स्पष्टीकरण कलश १०५ की टीकामें इस प्रकार किया है ‘जीवका स्वरूप सदा कर्मसे मुक्त है । उसको अनुभवने पर मोक्ष होता है ऐसा घटता है, विरुद्ध तो नहीं ।' स्वरूपाचरण चारित्र क्या है इसका स्पष्टीकरण कलश १०६ की टीकामें इस प्रकार किया है 'कोई जानेगा कि स्वरूपाचरण चारित्र ऐसा कहा जाता है जो आत्माके शुद्ध स्वरूपको विचारे अथवा चिन्तवे अथवा एकाग्ररूपसे मग्न होकर अनुभवे । सो ऐसा तो नहीं, उसके करने पर बन्ध होता है, क्योंकि ऐसा तो स्वरूपाचरण चारित्र नहीं है। तो स्वरूपाचरण चारित्र कैसा है ? जिस प्रकार पन्ना (सुवर्ण पत्र) पकानेसे सुवर्णमें की कालिमा जाती है, सुवर्ण शुद्ध होता है उसी प्रकार जीव द्रव्यके अनादिसे अशुद्ध चेतनारूप Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५४ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ रागादि परिणम था, वह जाता है, “शुद्ध स्वरूपमात्र शुद्ध चेतनारूप जीव द्रव्य परिणमता है, उसका नाम स्वरूपाचरण चारित्र कहा जाता है, ऐसा मोक्षमार्ग है।' शुभ-अशुभ क्रिया आदि बन्धका कारण है इसका निर्देश करते हुए कलश १०७ की टीका लिखा है 'जो शुभ-अशुभ क्रिया, सूक्ष्म-स्थूल अन्तर्जल्प बहिःजल्परूप जितना विकल्परूप आचरण है वह सब कर्मका उदयरूप परिणमन है, जीवका शुद्ध परिणमन नहीं है, इसलिए समस्त ही आचरण मोक्षका कारण नहीं है, बन्धका कारण है।' विषय-कषायके समान व्यवहार चारित्र दुष्ट है इसका स्पष्टीकरण करते हुए कलश १०८ में लिखा है 'यहाँ कोई जानेगा कि शुभ-अशुभ क्रियारूप जो आचरणरूप चारित्र है सो करने योग्य नहीं है उसी प्रकार वर्जन करने योग्य भी नहीं है ? उत्तर इस प्रकार है-वर्जन करने योग्य है। कारण कि व्यवहार चारित्र होता हुआ दुष्ट है, अनिष्ट है, घातक है, इसलिए विषय-कषायके समान क्रियारूप चारित्र निषिद्ध है।' (कलश १०९) ज्ञानमात्र मोक्षमार्ग कहनेका कारण 'कोई आशंका करेगा कि मोक्षमार्ग सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र इन तीनका मिला हुआ है, यहाँ ज्ञानमात्र मोक्षमार्ग कहा सो क्यों कहा ? -उसका समाधान ऐसा है-शुद्धस्वरूप ज्ञानमें सम्यग्दर्शन सम्यक्त्रारित्र सहज ही गर्भित है, इसलिए दोष तो कुछ नहीं, गुण है । (कलश ११०) मिथ्यादृष्टिके समान सम्यग्दृष्टिका शुभ क्रियारूप यतिपना भी मोक्षका कारण नहीं है इसका खुलासा 'यहाँ कोई भ्रान्ति करेगा जो मिथ्यादृष्टिका यतिपना क्रियारूप है सो बन्धका कारण है, सम्यग्दृष्टि है जो यतिपना शुद्ध क्रियारूप सो मोक्षका कारण है। कारण कि अनुभव ज्ञान तथा दया व्रत तप संयमरूप क्रिया दोनों मिलकर ज्ञानावरणादि कर्मका क्षय करते है। ऐसी प्रतीति कितने ही अज्ञानी जीव करते है। वहाँ समाधान ऐसा-जितनी शुभ-अशुभ क्रिया, बहिर्जल्परूप विकल्प अथवा अन्तर्जल्परूप अथवा द्रव्योंका विचाररूप अथवा शुद्ध स्वरूपका विचार इत्यादि समस्त कर्म बन्धका कारण है । ऐसी क्रियाका ऐसा ही स्वभाव है । सम्यग्दृष्टि मिथ्यादृष्टिका ऐसा भेद तो कुछ नहीं। ऐसी करतूतिसे ऐसा बन्ध है। शुद्धस्वरूप परिणमनमात्रसे मोक्ष है । यद्यपि एक ही कालमें सम्यग्दृष्टि जीवके शुद्ध ज्ञान भी है, क्रियारूप परिणाम भी है। तथापि क्रियारूप है जो परिणाम उससे अकेला बन्ध होता है, कर्मका क्षय एक अंशमात्र भी नहीं होता है। ऐसा वस्तुका स्वरूप, सहारा किसका । उसी समय शुद्ध स्वरूप अनुभव ज्ञान भी है। उसी समय ज्ञानसे कर्मक्षय होता है, एक अंशमात्र भो बन्ध नहीं होता है । वस्तुका ऐसा ही स्वरूप है।' (कलश ११२) समस्त क्रियामें ममत्वके त्यागके उपायका कथन 'जितनी क्रिया है वह सब मोक्षमार्ग नहीं है ऐसा जान समस्त क्रियामें ममत्वका त्यागकर शुद्धज्ञान मोक्षमार्ग है ऐसा सिद्धान्त सिद्ध हुआ।' (कलश ११४) स्वभावप्राप्ति और विभावत्यागका एक ही काल है 'जिस काल शुद्ध चैतन्य वस्तुको प्राप्ति होती है उसी काल मिथ्यात्व-राग-द्वेषरूप जीवका परिणाम मिटता है, इसलिए एक ही काल है. समयका अन्तर नहीं है।' __ (कलश ११५) सम्यग्दृष्टि जीवके द्रव्यास्रव और भावास्रवसे रहित होनेके कारणका निर्देश Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : ४५५ . 'आस्रव दो प्रकारका है । विवरण-एक द्रव्यास्रव है, एक भावास्रव है। द्रव्यास्रव कहनेपर कर्मरूप बैठे हैं आत्माके प्रदेशोंमें पुद्गलपिण्ड, ऐसे द्रव्यास्रवसे जीव स्वभाव ही से रहित है। यद्यपि जीवके प्रदेश, कर्मपुद्गलपिण्डके प्रदेश एक ही क्षेत्र में रहते हैं तथापि परस्पर एक द्रव्यरूप नहीं होते हैं, अपने अपने द्रव्य-गुणपर्यायरूप रहते हैं। इसलिए पुद्गलपिण्डसे जीव भिन्न है ! भावास्रव कहनेपर मोह, राग, द्वेषरूप विभाव अशुद्ध चेतन परिणाम सो ऐसा परिणाम यद्यपि जीवके मिथ्यादृष्टि अवस्थामें विद्यमान ही था तथापि सम्यक्त्वरूप परिणमने पर अशुद्ध परिणाम मिटा । इस कारण सम्यग्दृष्टि जीव भावात्रवसे रहित है । इससे ऐसा अर्थ निपजा कि सम्यग्दष्टि जीव निरास्रव है।' (कलश ११९) सम्यग्दृष्टि कर्मबन्धका कर्ता क्यों नहीं इसका निर्देश 'कोई अज्ञानी जीव ऐसा मानेगा कि सम्यग्दृष्टि जीवके चारित्रमोहका उदय तो है, वह उदयमात्र होने पर आगामी ज्ञानावरणादि कर्मका बन्ध होता होगा ? समाधान इस प्रकार है-चारित्रमोहका उदयमात्र होने पर बन्ध नहीं है । उदयके होने पर जो जीव के राग, द्वेष, मोह, परिणाम हो तो कर्मबन्ध होता है, अन्यथा सहस्र कारण हो तो भी कर्मबन्ध नहीं होता। राग, द्वेष, मोह परिणाम भी मिथ्यात्व कर्मके उदयके सहारा है, मिथ्यात्वके जाने पर अकेले चारित्रमोहके उदयके सहाराका राग, द्वेष, मोह परिणाम नहीं है। इस कारण सम्यग्दुष्टिके राग, द्वेष, मोह परिणाम होता नहीं, इसलिए कर्मबन्धका कर्ता सम्यग्दृष्टि जीव नहीं होता।' (कलश १२१) सम्यग्दृष्टिके बन्ध नहीं है इसका तात्पर्य 'जब जीव सम्यक्त्वको प्राप्त करता है तब चारित्रमोहके उदयमें बन्ध होता है, परन्तु बन्धशक्ति हीन होती है, इसलिए बन्ध नहीं कहलाता।' (कलश १२४) निर्विकल्प अर्थ काष्ठके समान जड़ नहीं इस तथ्यका खुलासा 'शुद्धस्वरूपके अनुभवके काल जीव काष्ठके समान जड़ है ऐसा भी नहीं है, सामान्यतया सविकल्पी जीवके समान विकल्पी भी नहीं है, भावभुतज्ञानके द्वारा कुछ निर्विकल्प वस्तुमात्रको अवलम्बता है, अवश्य अवलम्बता है।' (कलश १२५) शुद्ध ज्ञानमें जीतपना कैसे घटता है 'आस्रव तथा संवर परस्पर अति ही वैरी हैं, इसलिए अनन्त कालसे लेकर सर्व जीवराशि विभाव मिथ्यात्वरूप परिणमता है, इस कारण शुद्ध ज्ञानका प्रकाश नहीं है । इसलिए आस्रवके सहारे सर्व जीव हैं । काललब्धि पाकर कोई आसन्न भव्य जीव सम्यक्त्वरूप स्वभाव परिणति परिणमता है, इससे शुद्ध प्रकाश प्रगट होता है, इससे कर्मका आस्रव मिटता है, इससे शुद्ध ज्ञानका जीतपना घटित होता है ।' (कलश १३०) भेदज्ञान भी विकल्प है इसका सकारण निर्देश-- 'निरन्तर शुद्ध स्वरूपका अनुभव कर्तव्य है। जिस काल सकल कर्मक्षय लक्षण मोक्ष होगा उस काल समस्त विकल्प सहज ही छूट जायेंगे। वहाँ भेदविज्ञान भी एक विकल्परूप है, केवलज्ञानके समान जीवका शुद्ध स्वरूप नहीं है, इसलिए सहज ही विनाशीक है।' (कलश १३३) निर्जराका स्वरूप___'संवरपूर्वक जो निर्जरा सो निर्जरा, क्योंकि जो संवरके बिना होती है सब जीवोंको उदय देकर कर्मकी निर्जरा सो निर्जरा नहीं है।' Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५६ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ ( कलश १३९) हेयोपादेय विचार शुद्ध चिद्रूप उपादेय, अन्य समस्त हेय । ( कलश १४१ ) विकल्पका कारण 'कोई ऐसा मानेगा कि जितनी ज्ञानकी पर्याय है वे समस्त अशुद्धरूप हैं सो ऐसा तो नहीं, कारण कि जिस प्रकार ज्ञान शुद्ध है उसी प्रकार ज्ञानकी पर्याय वस्तुका स्वरूप है, इसलिए शुद्धस्वरूप है । परन्तु एक विशेष - - पर्यायमात्रका अवधारण करनेपर विकल्प उत्पन्न होता है, अनुभव निर्विकल्प है, इसलिए वस्तुमात्र अनुभवने पर समस्त पर्याय भी ज्ञानमात्र है. इसलिए ज्ञानमात्र अनुभव योग्य है ।" ( कलश १४४ ) अनुभव हो चिन्तामणि रत्न है 'जिस प्रकार किसी पुण्यवान् जीवके हाथमें चिंतामणि रत्न होता है, उससे सब मनोरथ पूरा होता है, वह जीव लोहा, ताँबा, रूपा ऐसी धातुका संग्रह करता नहीं उसी प्रकार सम्यग्दृष्टि जीवके पास शुद्ध स्वरूप अनुभव ऐसा चिन्तामणि रत्न है, उसके द्वारा सकल कर्मक्षय होता है । परमात्मपदकी प्राप्ति होती है । अतीन्द्रिय सुखकी प्राप्ति होती है । वह सम्यग्दृष्टि जीव शुभ अशुभरूप अनेक क्रियाविकल्पका संग्रह करता नहीं, कारण कि इनसे कार्यसिद्धि होती नहीं ।' ( कलश १५३) सम्यग्दृष्टिके दृष्टान्त द्वारा वांछापूर्वक क्रियाका निषेध - 'जिस प्रकार किसीको रोग, शोक, दारिद्र बिना ही वांछाके होता है उसी प्रकार सम्यग्दृष्टि जीवके जो कोई क्रिया होती हैं सो बिना ही वांछाके होती है ।" ( कलश १६३) कर्मबन्धके मेटनेका उपाय -- 'जिस प्रकार किसी जीवको मदिरा पिलाकर विकल किया जाता है, सर्वस्व छीन लिया जाता है, पदसे भ्रष्ट कर दिया जाता है उसी प्रकार अनादि कालसे लेकर सर्व जीवराशि राग-द्वेष-मोहरूप अशुद्ध परिणामसे मतवाली हुई है । इससे ज्ञानावरणादि कर्मका बन्ध होता है । ऐसे बन्धको शुद्ध ज्ञानका अनुभव मेंटनशील है, इसलिए शुद्ध ज्ञान उपादेय है ।' ( कलश १७५) द्रव्यके परिणाम के कारणोंका निर्देश -- 'द्रव्यके परिणामका कारण दो प्रकारका है - एक उपादान कारण है, एक निमित्त कारण है । उपादान कारण द्रव्यके अन्तर्गभित है अपने परिणाम पर्यायरूप परिणमनशक्ति वह तो जिस द्रव्यकी उसी द्रव्यमें होती है, ऐसा निश्चय है । निमित्त कारण - जिस द्रव्यका संयोग प्राप्त होनेसे अन्य द्रव्य अपनी पर्यायरूप परिणमता है, वह तो जिस द्रव्यकी उस द्रव्यमें होती है, अन्य द्रव्यगोचर नहीं होती ऐसा निश्चय है । जैसे मिट्टी घट पर्यायरूप परिणमती है । उसका उपादान कारण है मिट्टीमें घटरूप परिणमनशक्ति । निमित्त कारण है बाह्यरूप कुम्हार, चक्र दण्ड इत्यादि । वैसे ही जीवद्रव्य अशुद्ध परिणाम मोह राग द्वेषरूप परिणमता है। उसका उपादान कारण है जीवद्रव्य में अन्तर्गर्भित विभावरूप अशुद्ध परिणामशक्ति है ।" ( कलश १७६ - १७७) अकर्ता - कर्ता विचार 'सम्यग्दृष्टि जीवके रागादि अशुद्ध परिणामोंका स्वामित्वपना नहीं है, इसलिए सम्यग्दृष्टि जीव कर्ता नहीं है ।' 'मिथ्यादृष्टि जीवके रागादि अशुद्ध परिणामोंका स्वामित्वपना है, इसलिए मिथ्यादृष्टि जीव कर्ता है ।' ( कलश १८०) मात्र भेदज्ञान उपादेय है— Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : ४५७ "जिस प्रकार करोंतके बार बार चालू करनेसे पुद्गल वस्तु काष्ठ आदि दो खण्ड हो जाता है उसी प्रकार भेदज्ञानके द्वारा जीव पुद्गलको बार-बार भिन्न-भिन्न अनुभव करने पर भिन्न-भिन्न हो जाते है, इसलिए भेदज्ञान उपादेय है।' (कलश १८१, जीव कर्मको भिन्न करनेका उपाय 'जिस प्रकार यद्यपि लोहसारकी छैनी अति पैनी होती है तो भी सन्धिका विचारकर देने पर छेद कर दो कर देती है उसी प्रकार यद्यपि सम्यग्दष्टि जीवका ज्ञान अत्यन्त तीक्ष्ण है तथापि जीव-कर्मकी है जो भीतर सन्धि उसमें प्रवेश करने पर प्रथम तो बुद्धिगोचर छेदकर दो कर देता है। पश्चात् सकल कर्मका क्षय होनेसे साक्षात् छेदकर भिन्न-भिन्न करता है।' (कलश १९१) भोक्षमार्गका स्वरूप निरूपण सर्व अशुद्धपना के मिटनेसे शुद्धपना होता है । उसके सहाराका है शुद्ध चिद्रूपका अनुभव, ऐसा मोक्षमार्ग है। (कलश १९३) स्वरूप विचारकी अपेक्षा जीव न बद्ध है न मुक्त है 'एकेन्द्रियसे लेकर पञ्चेन्द्रियतक जीवद्रव्य जहाँ तहाँ द्रव्य स्वरूप विचारकी अपेक्षा बन्ध ऐसे मुक्त ऐसे विकल्पसे रहित है । द्रव्यका स्वरूप जैसा है वैसा ही है।' (कलश १९३) कर्मका (भावकर्मका) कर्तापन-भोक्तापन जीवका स्वभाव नहीं 'जिस प्रकार जीवद्रव्यका अनन्तचतुष्टय स्वरूप है उस प्रकार कर्मका कर्तापन भोक्तापन स्वरूप नहीं है। कर्मकी उपाधिसे विभावरूप अशद्ध परिणतिरूप विकार है। इसलिए विनाशीक है। उस विभाव परिणतिके विनाश होने पर जीव अकर्ता है, अभोक्ता है।' (कलश २०३) भोक्ता और कर्ताका अन्योन्य सम्बन्ध है 'जो द्रव्य जिस भावका कर्ता होता है वह उसका भोक्ता भी होता है। ऐसा होने पर रागादि अशुद्ध चेतन परिणाम जो जीव कर्म दोनोंने मिलकर किया होवे तो दोनों भोक्ता होंगे सो दोनों भोक्ता तो नहीं हैं। कारण कि जीव द्रव्य चेतन है तिस कारण सुख दुःखका भोक्ता होवे ऐसा घटित होता है, पुद्गल द्रव्य अचेतन होनेसे सुख दुःखका भोक्ता घटित नहीं होता । इसलिए रागादि अशुद्ध चेतन परिणमनका अकेला संसारी जीव कर्ता है, भोक्ता भी है।' (कलश २०९) विकल्प अनुभव करने योग्य नहीं 'जिस प्रकार कोई पुरुष मोतीकी मालाको पोना जानता है, माला गूंथता हुआ अनेक विकल्प करता है सो वे समस्त विकल्प झूठे हैं, विकल्पोंमें शोभा करनेकी शक्ति नहीं है। शोभा तो मोतीमात्र वस्तु है, उसमें है । इसलिए पहिननेवाला पुरुष मोतीकी माला जानकर पहिनता है, गूंथने के बहुत विकल्प जानकर नहीं पहिनता है, देखनेवाला भी मोतीकी माला जानकर शोभा देखता है,गूंथनेके विकल्पोंको नहीं देखता है उसी प्रकार शुद्ध चेतनामात्र सत्ता अनुभव करने योग्य है । उसमें घटते हैं जो अनेक विकल्प उन सबकी सत्ता अनुभव करने योग्य नहीं है।' (कलश २१२) जानते समय ज्ञान ज्ञेयरूप नहीं परिणमता 'जीवद्रव्य समस्त ज्ञेय वस् को जानता है ऐसा तो स्वभाव है, परन्तु ज्ञान ज्ञेयरूप नहीं होता है, ज्ञेय भी ज्ञानद्रव्यरूप नहीं परिणमता है ऐसी वस्तुकी मर्यादा है।' Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५८ : सिद्धान्ताचार्यं पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ ( कलश २१४) एक द्रव्य दूसरे द्रव्यको करता है यह झूठा व्यवहार है 'जीव ज्ञानावरणादि पुद्गल कर्मको करता है, भोगता है। उसका समाधान इस प्रकार है कि झूठे व्यवहारसे कहने को है । द्रव्यके इस रूपका विचार करनेपर परद्रव्यका कर्ता जीव नहीं है ।' ( कलश २२२) ज्ञेयको जानना विकारका कारण नहीं 'कोई मिथ्यादृष्टि जीव ऐसी आशंका करेगा कि जीव द्रव्य ज्ञायक है, समस्त ज्ञेयको जानता है, इसलिए परद्रव्यको जानते हुए कुछ थोड़ा बहुत रागादि अशुद्ध परिणतिका विकार होता होगा ? उत्तर इस प्रकार है कि परद्रव्यको जानते हुए तो एक निरंशभात्र भी नहीं है, अपनी विभाव परिणति करनेसे विकार है । अपनी शुद्ध परिणति होने पर निर्विकार है ।' इत्यादि रूपसे अनेक तथ्योंका अनुभवपूर्ण वाणी द्वारा स्पष्टीकरण इस टीका में किया गया 1 टीकाका स्वाध्याय करनेसे ज्ञात होता है कि आत्मानुभूति पूर्वक निराकुलत्व लक्षण सुखका रसास्वादन करते हुए कविवर यह टीका लिखी है । यह जितनी सुगम और सरल भाषामें लिखी गई है उतनी ही भव्य जनोंके चित्तको आह्लाद उत्पन्न करनेवाली है । कविवर बनारसीदास जी ने इसे बालबोध टीका इस नामसे सम्बोधित किया है । इसमें संदेह नहीं कि यह अज्ञानियों या अल्पज्ञोंको आत्मसाक्षात्कारके सम्मुख करने के अभिप्राय से ही लिखी गई है। इसलिए इसका बालबोध यह नाम सार्थक है । कविवर राजमल्लजी और इस टीकाके सम्बन्ध में कविवर बनारसीदासजी लिखते हैं 'पांडे राजमल्ल जिनधर्मी । समयसार नाटकके मर्मी । तिन्हें ग्रन्थकी टोका कोन्ही । बालबोध सुगम करि दीन्ही ॥ इस विधि बोध वचनिका फैली । समै पाइ अध्यातम सैली ॥ प्रगटी जगत मांही जिनवाणी, घर घर नाटक कथा बखानी ॥ कविवर बनारसीदास जीने कविवर राजमल्लजी और उनकी इस टीकाके सम्बन्धमें थोड़े शब्दों में जो कुछ कहना था, सब कुछ कह दिया है । कविवर बनारसीदासजीने छन्दोंमें नाटक समयसारकी रचना इसी टीका आधारसे की है । अपने इस भावको व्यक्त करते हुए कविवर स्वयं लिखते हैं नाटक समैसार हितजीका, सुगमरूप राजमल टीका ॥ कवितबद्ध रचना जो होई, भाषा ग्रंथ पढ़े सब कोई || तब बनारसी मनमें आनी कीजे तो प्रगटे जिनवानी ॥ पंच पुरुसकी आज्ञा लीनी । कवितबन्धकी रचना कीनो || जिन पाँच पुरुषों को साक्षी करके कविवर बनारसीदासजीने छन्दोंमें नाटक समयसार की रचना की है । वे हैं - १. पं० रूपचंद जी, २ चतुर्भुजी जी, ३. कविवर भैया भगवतीदास जी, ४. कोरपालजी और ५. धर्मदास जी । इनमें पं० रूपचंद जी और भैया भगवतीदास जी का नाम विशेषरूप से उल्लेखनीय है । स्पष्ट है कि इन पांचों विद्वानोंने कविवर बनारसीदास जीके साथ मिलकर कविवर राजमल्ल जी की समयसार कलश बालबोध टीकाका अनेक बार स्वाध्याय किया होगा । यह टीका अध्यात्मके प्रचारमें काफी सहायक हुई यह इसीसे स्पष्ट है । पं० श्री रूपचन्द जी जैसे सिद्धान्ती विद्वान्‌को यह टीका अक्षरशः मान्य थी यह भी इससे सिद्ध होता है । Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरुषार्थसिद्धय पाय: एक अनुशीलन ऐसा शिष्ट सम्प्रदाय है कि सर्वप्रथम इष्टदेवकी द्रव्य भाव वन्दनापूर्वक प्रयोजनीय कार्यको प्रारम्भ करना चाहिए । प्रकृतमें उल्लेखनीय कार्य ग्रन्थ रचना है, क्योंकि क्रमसे मूल श्रुतके विच्छिन्न होनेपर इस कालमें मोक्षमार्गकी प्रवृत्ति अक्षुण्ण बनी रहे इस इष्ट प्रयोजनको सामने रखकर आरातीय आचार्योंने भव्य जीवों के हितार्थ आगमानुसारी विविध शास्त्रोंकी रचनाकर मोक्षमार्गकी प्रवृत्तिको अक्षुण्ण बनाये रखा है । उनमें चरणानुयोग के अनुसार प्रवृत्ति बनाये रखनेके लिये चारित्रपाहुड, मूलाचार और रत्नकरण्डश्रावकाचार आदि जितने मूल और तदनुसारी शास्त्र लिखे गये हैं, उनमें अन्यतम ग्रन्थ पुरुषार्थसिद्धघुपाय एक है । यह आचार्य अमृतचन्द्र की मौलिक कृति है । मंगलाचरण इसका 'तज्जयतिपरं ज्योतिः' इत्यादि प्रथम मंगल श्लोक है । इस द्वारा सर्वोत्कृष्ट ज्योतिस्वरूप केवलज्ञान जय-जयकार करते हुए इस द्वारा समग्र जिनागमके सारको सूचित कर दिया गया है । इस मंगलसूत्र में ज्ञानको दर्पणकी उपमा दी गई है । जो पदार्थ दर्पण में प्रतिबिम्बित होते हैं वे न तो दर्पणके पास आते हैं, और न ही दर्पण ही उनके पास जाता है । किन्तु उन पदार्थों में प्रतिबिम्बित होनेकी सहज योग्यता है और अपने स्वच्छरूप गुणके कारण दर्पण में 'योग्य' क्षेत्रमें स्थित उन पदार्थोंको प्रतिबिम्बित करनेकी योग्यता है । उनके दर्पण में प्रतिबिम्बित होनेका यही कारण है । ठीक यही स्थिति ज्ञानकी है । तीनों कालों और तीनों जगत् में स्थित जितने भी पदार्थ थे, हैं और रहेंगे । उनका ज्ञानके साथ सहज ही ज्ञेय-ज्ञायक सम्बन्ध है | ज्ञानमें सहज ही ऐसी सामर्थ्य है कि वह स्वभाव विप्रकृष्ट, कालविप्रकृष्ट और क्षेत्र विप्रकृष्ट किसी प्रकार के पदार्थ क्यों न हों उन सबको वर्तमानवत् जानता है। ज्ञानकी एक उपमा दीपककी भी दी जाती है । जैसे दीपक परको प्रकाशित करते हुए स्वयंको भी प्रकाशित करता है । ज्ञानका भी वही स्वभाव है । वह अन्य समस्त ज्ञेयोंको अपने ज्ञान पर्याय रूपसे जाननेके साथ स्वयंको भी जानता है । ऐसे मंगलस्वरूप सम्यग्ज्ञानको हमें प्राप्ति हो और ऐसी कामना करना ही उसका जय-जयकार है । एकान्तनयों के विलास अनन्त हैं । एक मात्र अनेकान्त ही उनके विरोधको दूर करनेमें समर्थ है । यह एक सिद्धान्त भी है और स्वयं वस्तुका स्वरूप भी । जैनदर्शनका यह प्राण है । जैन सिद्धान्तको हृदयंगम करने के लिए अनेकान्त के स्वरूपका सम्यग्ज्ञान होना जरूरी है । इसी तथ्यको हृदयंगम कर आचार्यदेवने ज्ञानस्वरूप आत्माका या केवलज्ञानका जय-जयकार करनेके अनन्तर अनेकान्त सिद्धान्तको द्रव्य-भाव नमस्कार किया है । आगे तीनों लोकोंके नेत्रस्वरूप परमागमको बुद्धिपूर्वक जाननेका निर्देश करके आचार्यदेवने पुरुषार्थ सिद्धयुपाय नामक शास्त्र ( आगम ) का उद्धार करनेकी मंगल सूचना की है । इस शास्त्रको कहनेकी प्रतिज्ञा सूचक श्लोक में उपाधियते' क्रियाका प्रयोग हुआ है । इस द्वारा शास्त्रकार यह सूचित कर रहे है कि इस द्वारा हम अपने अभिप्रायको नहीं व्यक्त कर रहे हैं । किन्तु भगवान् महावीर और गौतम गणधरसे लेकर आचार्य परम्परासे पुरुष अर्थात् चेतनस्वरूप आत्माके प्रयोजनको सिद्ध करनेका जो उपाय निरूपित होता आ रहा है, उसका ही मैं (अमृतचन्द्र आचार्य) उद्धार करने वाला हूँ, इस द्वारा कोई नई बात नहीं कही जा रही है । Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६० : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थं आगे श्लोक ४ में धर्मतीर्थकी प्रवृत्तिका निर्देश करते हुए यह स्पष्ट किया गया है कि व्यवहार और निश्चयके जानकार पुरुष (आचार्य) ही उसकी प्रवृत्ति करने में समर्थ होते हैं, क्योंकि आगममें निश्चयनयको भूतार्थ और व्यवहारनयको अभूतार्थ कहा गया है । परन्तु भूतार्थके ज्ञानसे विमुख प्रायः सभी संसारी जीव हैं । फिर भी अज्ञानीके अज्ञानको दूर करानेके अभिप्रायसे व्यवहार द्वारा परमार्थका ज्ञान कराया जाता है । किन्तु जो मात्र व्यवहारको ही मोक्षमार्ग मानते हैं उनके लिए जिनागमकी प्ररूपणा नहीं है। इसी तथ्यको दृष्टान्त द्वारा स्पष्ट करके आगे देशनाके फलको कौन प्राप्त होता है इसे समझाते हए इस ग्रन्थकी उत्पत्तिका ८ मंगलसूत्रों द्वारा समाप्त की गई है। सम्यक् पुरुषार्थ और उसका फल ग्रन्थके नामके अनुसार ग्रन्थको प्रारम्भ करते हुए सर्वप्रथम पुरुष शब्दके अर्थको स्पष्ट किया गया है, क्योंकि जहाँ अध्यात्ममें निश्चयनयकी मुख्यतासे पुरुष (आत्मा) का अर्थ स्वतःसिद्ध है अतएव अनादि, अनन्त, विशद ज्योति और नित्य उद्योतरूप एक ज्ञायक आत्मा लिया गया है, वहाँ चरणानुयोगमें उभयनयसाध्य ऐसे आत्माको विवक्षित किया गया है, जो चेतन गुण-पर्यायवाला तथा उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यस्वरूप होकर भी स्पर्शादि गुणवाले पुद्गल द्रव्य आदि समस्त परद्रव्योंसे अत्यन्त भिन्न है, क्योंकि जहाँ अध्यात्ममें ध्येय अर्थात् आलम्बनकी मुख्यतासे आत्माको लक्षित किया गया है वहाँ चरणानुयोगमें प्रवृत्ति-निवृत्तिकी मुख्यतासे कैसा आत्मा अपने इष्ट प्रयोजनकी सिद्धि करने में सफल होता है इस तथ्यकी मुख्यता है। यही कारण है कि इस शास्त्रमें उभय नयकी मुख्यतासे पुरुष शब्दका अर्थ करके तथा उसे (जीवको) परिणामस्वरूप सिद्ध करके भवका बीज क्या है, जिससे यह जीव चतुर्गतिरूप परिभ्रमणका पात्र बना हुआ है, यह स्पष्ट किया गया है । जैसा कि पूर्व में कह आये हैं कि जैसे जीव ध्रुवस्वभाव है वैसे ही वह स्वभावसे उत्पाद-व्ययरूप भी है । एक जीव ही क्या प्रत्येक द्रव्य अपने अन्वय स्वभावके कारण जहाँ नित्य है वहीं वह अपने व्यतिरेकस्वभावके कारण उत्पादव्ययरूपसे परिण मनशील भी है। नित्य होकर परिणमन करते रहना जड़ चेतन प्रत्येक द्रव्यका स्वभाव है । इसलिये जहाँ यह जीव व्याप्य-व्यापकभावसे प्रतिसमय अपने विवक्षित परिणामका कर्ता है वहीं वह भाव्य भावक भावसे स्वयं अपने परिणामका भोक्ता भी है। उसके रहते हुए भी जब यह आत्मा परलक्षी रागादि भावोंसे भिन्न अपने ज्ञान स्वरूप आत्माके अनुभवके द्वारा निश्चल अपने चैतन्य स्वरूपको प्राप्त कर लेता है, तब इसने अपना करणीय कार्य कर लिया यह निश्चित होता है। इसीका नाम सम्यक् पुरुषार्थकी सिद्धि है और इसीका नाम अपने अपराधके कारण प्राप्त हुए संयोगी जीवनसे मुक्ति है । स्वभावकी प्राप्ति इसीका दूसरा नाम है । संसार और उसका कारण - किन्तु इस जीवका और कर्मका अनादि सम्बन्ध होनेसे, संसार अवस्थामें यह जीव स्वयं अपने ज्ञान स्वभावको भूलकर अज्ञान और रागादिरूपसे परिणमन करता रहता है। अतः इन भावोंको निमित्तकर कार्मणवर्गणायें स्वयं ज्ञानावरणादि कर्मरूपसे परिणमन करती रहती हैं और उन ज्ञानावरणादि कर्मोको निमित्तकर जीवभी स्वयं अज्ञान रागादिरूपसे परिणमन करता रहता है । यह संसारकी अनादि परंपरा है । इसका मल कारण अपना अज्ञान है। उस कारण यह जीव अपने ज्ञानदर्शन स्वभावके कारण परसे भिन्न होनेपर भी उससे तन्मय जैसा अपनेको अनुभव करता रहता है । यही संसारका मूल कारण है । Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : ४६१ पुरुषार्थसिद्धिका उपाय लोकमें जड़ और चेतन दोनों प्रकारके पदार्थ पाये जाते हैं। उनका स्वरूप भी भिन्न-भिन्न है । अपने अज्ञानके कारण अनादिसे यह जीव विपरीताभिनिवेशके वशीभूत होकर निजतत्वको भूला हुआ है । किन्तु जब यह जीव पर और परके निमित्तसे होनेवाले परभावोंसे भिन्न, अपने ज्ञातादृष्टा स्वरूपको जानकर उसमें अविचल स्थितिको प्राप्त होता है तब ही इस जीवने पुरुषार्थकी सिद्धिका उपाय अपनेमें हृदयंगम किया, यह कहा जा सकता है । जो पूर्वरूपसे रत्नत्रय स्वरूप होनेसे, पाप क्रियासे भिन्न आत्मकार्यको साधनेमें समर्थ मुनियोंमें पूर्णरूपसे लक्षित होता है । सम्यक् प्रकारसे पुरुषार्थकी सिद्धिका, इससे भिन्न, अन्य कोई दूसरा मार्ग नहीं है । उपदेश देनेका क्रम जिनागममें जिन चार अनुयोगोंकी प्ररूपणाकी गयी है, उनमेंसे प्रथमानुयोगमें तो पुण्य पुरुषों की कथा की मुख्यतासे प्ररूपणा है। इसका प्रयोजन इतना ही है कि संसारी जीव पुण्य-पापके फलको जानकर, उनसे विरक्त हो परमार्थके मार्गमें लगे। करणानुयोगमें लोकालोककी प्ररूपणाके साथ गुणस्थान और मार्गणा स्थान आदिको माध्यम बनाकर परिणामोंकी जाति की प्ररूपणा मुख्यतासेकी गयी है। चरणानुयोगमें कैसे उठे कैसे बैठे, कैसे बोले, दूसरेसे कैसा व्यवहार करे आदिकी मुख्यतारो वह सब प्रवृत्ति प्ररूपित की गयी है जो निमित्तरूपसे स्वरूप प्राप्तिमें व्यवहारसे साधक मानी गयी है। द्रव्यानुयोगका क्षेत्र बड़ा है। उसमें छ द्रव्य पाँच अस्तिकाय आदिकी विवेचनाके साथ अध्यात्मके रूपमें साक्षात् मोक्षमार्गको प्ररूपणा भी उसका विषय है। इन चारों अनुयोगोंमें पठन पाठनकी दृष्टिसे भी चरणानुयोगको प्रथम स्थान प्राप्त है । तथा मोक्षमार्ग में प्रवेश करनेकी दृष्टिसे भी जीवनका निर्माण हो इसमें चरणानुयोगके अनुसार प्रवृत्ति करना प्रथम कर्तव्य माना गया है। क्योंकि आगममें उपयोगको तीन प्रकारका निरूपित किया गया है-अशुभोपयोग, शुभोपयोग और शुद्धोपयोग। विषयकषायरूप प्रवृत्ति कार्यो में उपयोगका लगना ही अशुभोपयोग है। शुभोपयोगमें शुभाचारकी मुख्यता है । अशुभोपयोगी तो मोक्षमार्गका अधिकारी होता ही नहीं। यद्यपि शुभाचाररूप प्रवृत्ति स्वयं धर्म अथवा परमार्थ मोक्षमार्ग नहीं है और न शुद्धोपयोगका साक्षात् साधक ही है, फिर भी शुभोपयोग शुद्धोपयोगका व्यवहारसे साधक होनेसे मोक्षमागमें उसकी उपयोगिता प्रमुखतासे स्वीकारकी गयी है। पद्धतिको ध्यानमें रखकर प्रारंभसे ही गरुजन अपने शिष्योंको सर्वप्रथम पूर्ण आचारकी शिक्षा तो देते ही थे। उसमें प्रवत्त होनेके लिये प्रेरणा भी करते थे। इसी तथ्यको ध्यानमें रखकर आ० अमवचन्द्र देवने पाप क्रियासे विरुद्ध व्रतरूप चारित्रको अंगीकार करनेका और उसकी शिक्षा देनेका निर्देश प्रस्तुत ग्रंथमें किया है। यह मनियोंकी आलौकिक वृत्ति है। जो शिष्य कदाचित् इसे धारण करने में अपनी असमर्थता व्यक्त करता है उसे ही श्रावकाचारका उपदेश देनेकी परंपरा है। कदाचित् कोई आचार्य इसके विरुद्ध उपदेश देता है तो वह ग्रन्थकारके अभिप्रायानुसार जिनमार्गमें गणतीय अपराध माना गया है। इस कथनसे यह स्पष्ट हो जाता है कि आचारकी शिक्षाको गौण करके मात्र करणानुयोग या द्रव्यानुयोगगर्भ अध्यात्मका पठन-पाठन करना कराना मोक्षमार्गमें हितावह नहीं है। उससे कदाचित शिष्यके उन्मार्गी बननेकी संभावना अधिक लगी रहती है। प्ररूपणामें क्रमभंगका कारण आगे समग्र ग्रंथ दो अध्यायों में विभक्त है। प्रथम अध्यायमें श्रावकधर्मकी प्ररूपणाकी गयी है और दूसरे में मुनिधर्मकी । सवाल यह है कि स्वयं ग्रन्थकार जब यह लिखते हैं कि सर्वप्रथम मुनिधर्मका उपदेश देना चाहिये । ऐसी अवस्थामें वे ही स्वयं मुनिधर्मकी प्राथमिकताको गौणकर सर्वप्रथम गृहस्थधर्मके उपदेशका निर्देश Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६२ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्रौ अभिनन्दन ग्रन्थ क्यों कर रहे हैं ? प्रश्न मार्मिक हैं । समाधान यह है कि जिनागममें जो जीवादि सात तत्त्वों और पुण्य-पाप सहित नौ पदार्थोंकी प्ररूपणाकी गयी है, उनमें आस्रव तत्त्वके बाद ही संवर तत्त्वकी प्ररूपणा आती है । संवर तत्त्वके स्वरूप पर जहाँ तक दृष्टिपात करते हैं, उससे भी ऐसा ही फलित होता है कि आस्रव तत्त्वको प्ररूपणा करनेके बाद ही, उसके विरोधी, संवर तत्त्वकी प्ररूपणा करना संगत माना जा सकता है । इसी आधार पर संवर तत्त्वका लक्षण भी इस प्रकार किया गया है-आश्रव निरोधः संवरः । यही कारण है कि आचार्यदेवने पूर्वोक्त क्रमको स्वीकार करते हुए भी तत्त्वार्थसूत्र के अनुसार आसव तत्त्वगर्भ श्रावकचारको प्रथम स्थान दिया है। और तदनंतर इस ग्रंथ में संवर तत्त्वगर्भ मुनिधर्मकी प्ररूपणा की गयी है । सम्यग्दर्शनकी मुख्यता जैसा कि पहले निर्देश कर आये हैं, उसमें सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान मुख्य हैं यथार्थ माना गया है । । कोई चाहे मुनिधर्मं अंगीकार करे या श्रावकधर्म अंगीकार करे । क्योंकि इनके होनेपर ही मुनिधर्म या गृहस्थधर्म स्वीकार करना विपरिताभिनिवेश रहित जीवादि पदार्थोंका श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है । वह पर और परभावोंसे भिन्न आत्माका निजरूप है । आगममें इसके कर्म संयोग के अभावकी विवक्षामें तीन भेद किये गये हैं-उपशम सम्यग्दर्शन, क्षयोपशम सम्यग्दर्शन और क्षायिक सम्यग्दर्शन । ये तीनों ही उपाधिके अभाव में ही होते हैं, इसलिये हैं तो वे आत्मा के निजरूप ही, फिर भी उनमें क्षायिक सम्यग्दर्शन उपाधिके सर्वथा अभावमें होता है, इसलिये उसका सद्भाव सिद्धोंमें भी पाया जाता है । उपशम सम्यग्दर्शनमें उपाधिका अभाव तो पूरी तरहसे रहता है परंतु इसमें उपाधि सत्ताके रूपमें आत्माके एकक्षेत्रावगाह में बनी रहती है । इसलिये जबतक ( अन्तमुहूर्त तक) उपाधिकी उदय उदीरणा नहीं होती है, तभीतक आत्मामें सम्यग्दर्शनका अस्तित्व स्वीकार किया गया है । क्षयोपशम सम्यग्दर्शनकी उत्पत्ति होती तो उपाधिके अभावमें ही है, फिर भी इसके कालमें देशघाती सम्यक् प्रकृतिका उदय बना रहनेसे, सम्यग्दर्शनके साथ आत्मामें चल मलिन और अगाढ दोष पैदा होते रहते हैं । इस प्रकार विचार करनेपर यह स्पष्ट हो जाता है कि तीनों ही सम्यग्दर्शन आत्मस्वरूप ही हैं । नि.शंकितादि आठ अंगोंकी प्राप्ति इन्हींके सद्भावमें सम्यक् प्रकार से होती है । इसके होनेपर जो सम्यग्ज्ञान अनेकान्तगर्भ जीवादि पदार्थ विषयक ज्ञान होता है, वह सम्यक्ज्ञान है । सम्यग्दर्शन कारण है और यह कार्य है । यद्यपि इन दोनोंकी उत्पत्ति एक साथ होती है फिर भी दीप और प्रकाश के समान इन दोनोंमें कार्यकारणभाव बन जाता है । जैसे सम्यग्दर्शनके आगम में निःशंकितादि आठ अंग कहे गये हैं, उसी प्रकार सम्यक्ज्ञानके भी आठ अंग हैं— उनके नाम हैं--व्यंजनाचार, अर्थाचार, उभयाचार, कालाचार, विनयाचार, उपयानाचार, बहुमानाचार, अनिह्नवाचार | इस प्रकार जिसने दर्शन मोहनीयका अभाव करनेके साथ जीवादि पदार्थ विषयक सम्यक्ज्ञान प्राप्त किया है, वही भले प्रकार सम्यक्चारित्रके आराधन करनेका अधिकारी माना गया है । चारित्र सर्व सावद्ययोगके परिहारपूर्वक होता है और उसमें कषायोंका अस्तित्व अनुभवमें नहीं आता, ऐसा जो जीवका पर पदार्थोंसे विरक्ततारूप आत्म परिणाम होता है वही सम्यक्चारित्र है । उसीके सकलचारित्र और विकलचारित्र ये दो भेद हैं । यह क्रमसे मुनियोंको और गृहस्थों को होता है । Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : ४६३ विकलचारित्र गृहिधर्मकी प्ररूपणा आगममें दो प्रकारसे परिलक्षित होती है-एक बारहव्रतोंके रूपमें और दूसरी ग्यारह प्रतिमाके रूपमें प्रस्तुत ग्रन्थमें बारहव तरूप प्ररूपणा मुख्यरूपसेकी गयी है । उसके तीन भेद है-पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत । इनकी प्ररूपणा करनेके बाद अन्तमें सल्लेखनाकी स्वतंत्ररूपसे प्ररूपणा दृष्टिगोचर होती है। जबकि आचार्य कुन्दकुन्दने स्वरचित चारित्रपाहुड़में सल्लेखनाको चार शिक्षाव्रतोंमें ही सम्मिलित कर लिया है। इन बारह व्रतोंके मूलमें अहिंसा मुख्य है। जैसे खेतमें धानकी रक्षाके लिए बाड़ी (बागड़) होती है वही स्थान अहिंसाके परिकरके रूपमें शेष व्रतोंका है। अहिंसाका अर्थ अपने निमित्तसे केवल दूसरे जीवोंका प्राणोंसे वियुक्त कर देना नहीं है । उसमें प्रमादरूप परिणतिका न होना मुख्य है । इसी बातको ध्यानमें रखकर जिनागमके सारको संक्षेपमें बतलाते हुए आचार्यदेवने अहिंसाका लक्षण करते हुए लिखा है कि रागादि भावोंका नहीं उत्पन्न होना ही अहिंसा है और उनकी उत्पत्ति होना ही हिंसा है। और इसी आधारपर हिंस्य, हिंसक, हिंसा और हिंसा-फल-इन चारोंको सम्यक प्रकारसे जानकर जिसमें आत्माकी हानि न हो इसरूपसे प्रवृत्ति करनेका आचार्यदेवने निर्देश किया है । शेष व्रतोंके स्वरूपको इसी पद्धतिसे समझ लेना चाहिए। यहाँ ५०वें मंगलसूत्र में प्रांजल रूपसे यह सूचना की गई है कि जो निश्चयको तो जानता नहीं फिर भी उसीको निश्चयसे अंगीकार करता है वह बाह्यकरण चरणमें आलसी हुआ उसका नाश करता है। सो इसकी व्याख्या पण्डित प्रवर टोडरमलजीने दो प्रकारसे की है। प्रथम व्याख्या करते हुए वे कहते हैं कि 'जो कोई केवल निश्चयका श्रद्धानी होकर यह कहता है कि यदि मैं परिग्रहादि रखू अथवा भ्रष्टाचाररूप प्रवर्तन करूं तो इससे क्या हुआ ? मेरे परिणाम ठीक होना चाहिये। ऐसा कहकर जो स्वच्छन्द प्रवर्तन करता है उस जीवने दयाके आचरणका नाश किया। वह बाह्यमें तो निर्दय हुआ ही तथा अंतरंग निमित्त पाकर परिणाम अशुद्ध होते ही होते हैं, इसलिए अन्तरंगकी अपेक्षा भी निर्दय हुआ। कैसा है वह जीव ? बाह्य द्रव्यरूप अन्य जीवकी दयामें आलसी है, प्रमादी है।' यह एक अर्थ है। इसी श्लोकका दूसरा अर्थ करते हुए वे लिखते हैं-'जो जीव निश्चयके स्वरूपको न जानकर व्यवहाररूप बाह्य परिग्रहादिके त्यागको ही निश्चयसे मोक्षमार्ग जानकर अंगीकार करता है वह जीव शुद्धोपयोगरूप दयाका नाश करता है।' ये दो अर्थ हैं जो यहाँ उक्त मंगल श्लोकके किये गये हैं । सो ऐसा करते हुए यहाँ अन्तिम चरणमें जो 'करणालसो' पाठ आया है सो वहाँ उक्त अर्थ 'करुणालसो' पाठ मानकर किया गया है । जिनदेशनाका पात्र कौन __ श्रावकको जैनधर्ममें दीक्षित होनेके साथ ही सर्वप्रथम आठ मूलगुण अंगीकार करने चाहिये। इनका उल्लेख आचार्य समन्तभद्रने भी रत्नकरण्डश्रावकाचारमें किया है। मात्र वहाँ पाँच उदुम्बर फलोंके त्यागके स्थानपर अहिंसा आदि पाँच अणुव्रत लिये गये हैं। लगता है कि उत्तरकालमें अहिंसा आदि पाँच अणुव्रतोंका व्रत प्रतिमामें अंगीकार हो जानेसे यहाँ उनके स्थानपर पाँच उदुम्बर फलोंके त्यागको मुख्यता दी गई है, क्योंकि इन पाँच उदुम्बर फलोंके भक्षणमें स्पष्टतः त्रसहिंसा होती हुई दिखाई देती है। इसी प्रकार जो दोष इन आठ पदार्थोके भक्षणमें लगता है वही दोष नवनीत (मक्खन) के खाने में भी लगता है। यही कारण है कि इस ग्रन्थमें मद्य, मांस और मधुके साथ नवनीतको भी सम्मिलित कर लिया गया है (७३)। आगे इन आठोंको अनिष्ट, दुस्तर और पापके आयतन स्वीकार करके यह स्पष्ट सूचना की गई है कि जो विवेकी इन आठका त्याग कर देता है वही जिनधर्मकी देशनाको ग्रहण करनेका पात्र होता है (७४) । Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६४ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ यहाँ आठ मूलगुण उपलक्षणके रूपमें कहे गये हैं । विचार करके देखा जावे तो इस प्रकार जिन पदार्थोंको निमित्तकर त्रस जीवोंकी हिंसा सम्भव है या स्थावर कायिकों सम्बन्धी बहुत जीवोंकी हिंसा होना संभव है, ऐसे सब पदार्थोंके भोगोपभोगका नियमरूप में या अभ्यासरूपमें त्याग कर देना चाहिये । इसी तत्त्वको ध्यानमें रखकर जिनपदार्थों का सेवन करनेसे बहुत जीवोंका घात होता है उनके सेवनमें लाभ कुछ भी नहीं होता। ऐसे मूली, गाजर, आलू, सकरकंद, मीठा, अदरक, लहसुन, नीम व केतकी के फूल आदिका नियमसे त्याग कर देना चाहिये, श्लोक ३९ । इसके साथ ही उसमें जो प्रकृति विरुद्ध आहार है तथा जो मूल शंख भस्म आदि अनिष्ट व अनुसेव्य पदार्थ हैं उन्हें भी उपभोगमें नहीं लाना चाहिये । तथा मर्यादाके बाहर अचार, पापड़, बड़ी आदिका ग्रहण इन्हीं सब पदार्थोंमें हो जाता है । यहाँ यह प्रश्न हो सकता है कि भोगोपभोग परिमाणव्रतका निर्देश करते समय आ० समन्तभद्रते इन सब पदार्थोंके त्यागका विधान किया है, फिर यहाँ अविरत सम्यग्दृष्टि के इन सबके त्यागका निर्देश क्यों किया जा रहा है ? समाधान यह है कि जैनधर्मके अनुसार श्रावककी भूमिका तब ही बनती है जब वह श्रावकोचित आहार-विहार में सावधान होता है। दूसरी बात यह है कि भोगोपभोग परिमाण व्रतका निरतिचार पालन किया जाता है । जबकि अभ्यास दशामें विवेककी मुख्यता रहती है । प्रायः एलोपैथिक पद्धति आदिसे जो दवाईयाँ तैयार होती हैं उनमें प्राणियोंके सत्व आदिके मिश्रणकी अधिक संभावना रहती है । इनमें अलकोहलका उपयोग तो होता ही है । और अलकोहल शराबका छोटा भाई है । आसव, अरिष्ट आदि भी इसी श्रेणी में आते हैं । इसलिए आहार-विहार में इन सबका विचार करके ही श्रावकको अपना जीवनयापन करना चाहिये । तब ही जाकर उसके द्वारा अहिंसा व्रतका पालन हो सकता । भले ही अभ्यासरूपमें हो, आहार-विहार में इन सब बातों का ध्यान रखना आवश्यक है धर्म-दया- सुखके नाम पर हिंसाका निषेध अहिंसाधर्म, अमृतत्वकी प्राप्ति में परम रसायनके समान है । इसलिये हमारे द्वारा किसी भी प्रयोजनसे हिंसा न हो जाये, इस बातको ध्यान में रखकर देवताके निमित्त बकरे आदिकी हिंसा नहीं करनी चाहिये । दूसरे जीवोंकी दया पालने के अभिप्रायसे हिंस्र सिंस्रादि जीवोंकी हिंसा नहीं करनी चाहिये । तथा परलोकमें यह अधिक सुखका भोक्ता बनेगा, इस खोटे अभिप्रायसे गुरु आदिकी हिंसा नहीं करनी चाहिये । तात्पर्य यह है कि किसी भी प्रयोजनसे की गई हिंसा दुर्गतिका ही कारण बनती है । सकलचारित्र पहले हम विकल चारित्रका संक्षेपमें निर्देश कर आये हैं । वह अपवाद मार्ग है । उत्सर्ग मार्ग इससे भिन्न है | सकल चारित्र उसका दूसरा नाम है। इसे यदि पूर्ण स्वावलम्बनकी दीक्षा कहा जाय तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी । । श्रावककी ग्यारह प्रतिमाएँ हैं । अन्तिम प्रतिमाका नाम उद्दिष्ट त्याग है | श्रावकने अन्य किसीको निमित्त कर आहार न बनाकर उसने स्वयंके लिए जो आहार बनाया है, इस प्रतिमा वाला ऐसे आहारको ही स्वीकार करता है, मात्र इसीलिए इस प्रतिमाका नाम उद्दिष्ट त्याग है इस प्रतिमाके दो भेद हैं- क्षुल्लक और ऐलक । क्षुल्लकके उत्तरीय वस्त्र के साथ लंगोटी मात्र परिग्रह शेष रहता है । जब कि ऐलकके उत्तरीय वस्त्रका भी त्याग हो जाता है । फिर भी अभी उसके घरसे मुनिकी शरण में जानेपर भी लंगोटीका विकल्प बना हुआ रहता है । जब कि जिसने पूर्ण स्वावलम्बनकी दीक्षाके साथ मुनि उसके लंगोटी भी छूट जाती है । वह किसी जीर्ण-शीर्ण मकानमें रहे या धर्मको अपना जीवन बनाया है। गिरि गुफामें किन्तु वह दोनोंको Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : ४६५ पुद्गलका परिणाम जान कर उनमें ममत्व नहीं करता। वह व्रती जीवनका बाह्य साधन जान कर प्राशुक आहार लेता अवश्य है, पर उसमें खट्टे-मीठेका विकल्प नहीं करता । वह खड़े-खड़े भले ही आहार ले लेता है, पर इसके लिए आसनको स्वीकार नहीं करता । वह सम्मूर्च्छन जीवोंका आश्रय स्थान जानकर दो से लेकर चार माहके भीतर स्वयं हाथोंसे उखाड़कर भले ही बालोंको अलग कर देता है, पर इसके लिए कैंची या उस्तरेका सहारा नहीं लेता। यह है मुनियोंकी स्वावलम्बन प्रधान अलौकिकी वृत्ति । जिसके भीतर परका आश्रय तो रहता ही नहीं, प्रवृत्तिमें भी बाहर भी पीछी कमण्डलु और पुस्तकको छोड़कर अन्यका आश्रय नहीं रह जाता है। प्रस्तुत ग्रन्थमें मुनिधर्मके २८ मूलगुणोंका विधिवत् विवेचन तो दृष्टिगत नहीं होता फिर भी उसमें सकल चारित्रके विवेचनके प्रसंगसे १२ तप, ६ आवश्यक, ३ गुप्ति, ५ समिति, १० धर्म, १२ भावना और २२ परिषहजयका संक्षेपमें निर्वचन किया गया है । साथ ही इसी प्रसंगसे अन्य बातोंका निर्देश करते हुए यह स्पष्ट रूपसे खुलासा किया गया है कि रत्नत्रय बंधका कारण नहीं है। जो पुरुष अपूर्ण रत्नत्रयकी उपासना करते हैं, उनको जो कर्म बन्ध होता है । कारण राग है । रत्नत्रय तो मोक्षका ही उपाय है बन्धका उपाय नहीं। इस प्रकार सम्यक् पुरुषार्थकी सिद्धिका उपाय पूर्ण रत्नत्रय ही है। अंशरूपमें रत्नत्रयका उदय चौथे गुणस्थानसे प्रारम्भ होकर चौदहवें गुणस्थानमें पूर्णता होती है, क्योंकि ऐसा नियम है कि जहाँ इन तीनोंमेंसे कोई एक होता है वहाँ तीनों नियमसे होते हैं । यह कहना कि चौथे गुणस्थानमें सम्यग्दर्शनके साथ सम्यग्ज्ञान तो होता है परन्तु अवत होनेसे उसके चारित्रको एक कण भी नहीं पाया जाता है, उपयुक्त नहीं जान पड़ता, क्योंकि चौथे गुणस्थानमें संयमाचरण चारित्रका निषेध अवश्य किया है, परन्तु इससे सम्यक्चारित्रका निषेध हो गया ऐसा नहीं समझना चाहिए, अन्यथा उसकी देवपूजा, गुरुपूजा, स्वाध्याय आठ मूल गुणोंका धारण करना दान देना आदि सब आचार मिथ्या है आ० कुन्दकुन्दने अपने चारित्र पाहुड़में चारित्रके जो सम्यक्त्वाचरण चारित्र और संयमाचरण चारित्र ये दो भेद किये हैं, वे इसी अभिप्रायसे किये गये हैं कि चौथे गुणस्थानमें भी अंशतः चारित्रका उदय हो जाता है। ग्रन्थकर्ता ___ आचार्य अमृतचन्द्र जैनाकाशमें ध्रुवताराकी तरह निरंतर प्रकाशमान होते रहेंगे। यों तो सर्वांग सूत्रको ग्रन्थारूढ़ करनेमें आ कुन्दकुन्द नाम गौतम गणधरके बाद लिया जाता है परन्तु उनके पूरे साहित्यका आलोडन कर उनपर भावपूर्ण सरस टीका लिखनेका पूरा श्रेय सर्वप्रथम आ० अमृतचन्द्रको ही प्राप्त है ।। यद्यपि आ० गृद्धपिच्छने अपने तत्त्वार्थसूत्रमें द्रव्यके दोनों लक्षणोंका निर्देश करते हुए आ० कुन्दकुन्दके प्रवचनसार आदि ग्रन्थोंका ही अनुसरण किया है, इसी प्रकार आ० समन्तभद्रने 'धर्म-धर्म्यविनाभावः' इत्यादि कारिका लिखकर पूरे समयसारके भावको एक कारिकामें ही अभिव्यक्त कर दिया है। आ० पूज्यपादकी सर्वार्थसिद्धि-टीका व समाधितंत्र आदि ग्रन्थोंपर दृष्टिपात करनेसे भी इसी तथ्यकी पुष्टि होती है । यही स्थिति आ० अकलंकदेव और विद्यानन्दकी भी है। इस प्रकार हम देखते हैं कि समग्र जैन साहित्यपर आ० कुन्दकुन्दका ही पदानुसरण किया गया है । इसलिए यह लिखना तो उपयुक्त प्रतीत नहीं होता कि आ० कुंदकुंदके बाद एक हजार वर्ष तक किसीकी भी दृष्टि समयसार जैसे महानतम अध्यात्म ग्रंथपर नहीं गयी होगी । इन आचार्यों द्वारा जितने भी भावग्राही साहित्यकी रचना हुई है वह सब समयसारसे अनुप्राणित होकर ही हुई है। यह दूसरी बात है कि आ० अमृतचन्द्र देवने एक हजार वर्ष बाद इन ग्रन्थोंकी टीका की है। Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६६ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ साधारणतः इनका समय ११वीं शताब्दिका प्रथम चरण माना जाता है । इन्हें पं० प्र० आशाधरजीने 'ठक्कर' शब्दसे सम्बोधित किया है। गुजरातमें ऐसी अनेक जातियाँ पायी जाती थीं और वर्तमानमें भी पायी जाती हैं जिनमेंसे कई घराने अपनेको ठक्कुर शब्दसे सम्बोधित करते रहे हैं। इसलिए यह बहुत सम्भव है कि ये मूलतः गुजरातके रहनेवाले हों। साधारणतः गुजरातकी पुरानी तीन जातियां मुख्य हैंप्राग्वाट, ओसवाल और श्रीमाल-इनमेंसे ओसवाल और श्रीमाल दो जातियाँ तो १०वीं शताब्दिके लगभगसे ही या उनके पर्वसे श्वेताम्बर सम्प्रदायको मानने वाली रही हैं। जो तीसरी जाति प्राग्वाट है, वह अवश्य ही श्वेताम्बर और दिगम्बर-दोनों परम्पराओंको मानने वाली चली आ रही है। पौरपाट (परवार) सोरठिया पद्मावती पुरवाल और पोरवाल आदि-ये सब प्राग्वाट जातिके उपभेद है । इनमें से एक पौरपाट जाति अवश्य ही ऐसी है जो प्रारम्भसे ही दिगम्बर परम्परामें भी केवल कुंदकुंद आम्नायकी ही उपासक रही है । इसलिए बहुत सम्भव है कि आ० अमृतचन्द्रका जन्म इस जातिमें हुआ हो तो कोई आश्चर्य नहीं । यह हम अतिशयोक्किमें नहीं लिख रहे हैं, किन्तु गुजरातकी पूर्ण स्थितिका अध्ययन करके ही लिख रहे हैं । इसलिए आ० अमृतचन्द्रदेव काष्ठासंघी न होकर मूलसंघी ही होने चाहिए । इन्होंने सम्यग्दर्शनके आठ अंगोंका विवेचन करते हुए अमूल दृष्टि अंगका जो स्वरूपनिर्देश किया है वह हमारे इस तथ्यकी पुष्टि करनेके लिए पर्याप्त है । इस अंगका विवेचन करते हुए वे लिखते हैं लोके शास्त्राभासे समयाभासे च देवताभासे । नित्यमपि तत्त्वरुचिना कतव्यममढष्टित्वम् ॥२६॥ तत्त्वमें रुचि रखनेवाले जीवको लोकमें शास्त्राभासमें, समयाभासमें और देवताभासमें सदा ही मूढ़ता रहित होकर श्रद्धान करना चाहिए । स्पष्ट है कि आचार्य अमृतचन्द्रदेव ने अमूढ़ दृष्टिके इस लक्षण द्वारा लोक मूढ़ता, देव मूढ़ताका और गुरु मूढ़ताका स्पष्ट शब्दोंमें निषेध कर दिया है। ____ सम्यक्त्वके आठ अंग हैं इस परम्पराको विशेष प्रश्रय मूलसंघने ही दिया है। मेरी दृष्टिमें काष्ठासंघके ग्रन्थोंमें इस परम्पराके विशेष दर्शन नहीं होते। वैसे सम्यक्त्वके २. दोष हैं, उत्तर कालमें इस विषयका विशेष उल्लेख पोण्डत प्रवर आशाधरजीने स्वरचित अनगार धर्मामृतके अ० २ श्लोक १०३ की टीकामें अवश्य किया है। और वहीं सम्यक्त्वकी विशुद्धिके कारण रूपमें उपगृहन, स्थितीकरण, वात्सल्य और प्रभावनाका भी स्वरूपनिर्देश किया है तथा सम्यक्त्वके पाँच अतीचारोंका कथन करनेके प्रसंगसे शंका, कांक्षा और विचिकित्सा दोषका निषेध भी किया है । इससे ऐसा निष्कर्ष अवश्य निकलता है कि सम्यक्त्वके आठ अंगोंकी परम्परा सर्वत्र निविवाद रूपसे स्वीकार की गई है। फिर भी जिस स्पष्टतासे मूलसंघने इस परम्पराको प्रथय दिया है वह स्थिति काष्ठासंघकी नहीं प्रतीत होती है। एक बात विशेषरूपसे उल्लेखनीय है। वह यह कि शासनदेवताके नामपर काष्ठासंघमें राग-द्वेषसे मेरे व्यंतरादिक देव-देवियोंकी जो पूजा दृष्टिगोचर होती है वह स्थिति पुरुषार्थसिद्धयुपाय ग्रन्थकी नहीं है। इस लिये पुरुषार्थसिद्धि उपायके रचयिता आ० अमृतचंद्रदेवको काष्ठासंघी स्वीकार करना उनका अवर्णवाद करना ही कहलायेगा। इनकी रचनायें अनेक हैं, जैसे-समयप्राभृत, प्रवचनसार और पंचास्तिकायकी टीकायें और तत्त्वार्थसूत्र और लघुतत्वस्फोट । पुरुषार्थसिद्धयुपाय भी उन्हींकी सारगर्भित रचनायें हैं । Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविध टीकायें (१) पुरुषार्थसिद्ध युपायकी संस्कृतमें एक टीका मिलती है । यह श्री दि० जैन उदासीन आश्रम, तुकोगंज इंदौर के शास्त्र भण्डारकी अनुपम निधि है । इसकी कुल पत्र संख्या ५५ है, साइज २०x१२ अंगुल है । प्रत्येक पृष्ठ में १४ पंक्तियाँ हैं । प्रत्येक पंक्ति में लगभग ४४-४५ अक्षर हैं । बीच-बीच में मूल श्लोक बड़े-बड़े अक्षरोंमें लिखे गये हैं । उसका प्रथम मंगलाचरण है चंद्रप्रभं जिनं वाणीं नत्वा गुरुपदांबुजम् । पुरुषार्थसिद्धयुपाये कुर्वे टीकां मनोहराम् ॥ - इसके बाद पुरुषार्थसिद्धयुपायके मंगल श्लोककी उत्थानिकाका निर्देश करके टीकाकार लिखता है“अथ श्रीमन्निर्ग्रथाचार्यवर्यः श्रीमदमृतचंद्रभट्टारकः कलिकाल गणधरदेवः भव्यपुंडरिकेभ्यः पुरुषार्थसिद्धयुपायं प्रकाशयन्निष्ठदेवताविशेषं आशिर्वादात्मकमंगलं कथयन्नमस्करोति ।" चतुर्थखण्ड : ४६७ टीका अन्तमें लिखा है "अयं पुरुषार्थसिद्धयुपायः ग्रन्थः इति । अमृतचन्द्रसूरीणां अमृतचन्द्रभट्टारकाणां इयं कृतिः यं कर्तव्यता । अस्य पुरुषार्थसिद्धयुपायस्यापरनाम जिनरहस्यकोशः वर्तते इति कथनेन समाप्तम् ॥ २२ ॥ इति व्याख्या समाप्ता । इत्यमृतचन्द्रसूरीणां कृति पुरुषार्थसिद्धयुपायोऽयम् । नाम जिनप्रवचन रहस्यकोशः । मिति ॥ २२७॥ | " समाप्त मंगलश्लोकी इस उत्थानिका और समाप्ति सूचक अंतिम प्रशस्तिसे पता लगता है कि मूलग्रन्थके लेखक निर्ग्रन्थाचार्य थे और उस समय इनकी ख्याति कलिकाल गणधरदेव के रूपमें की जाती थी । इस उत्थानिकासे ऐसा भी मालूम होता है कि इनका मूल निवास गुजरात प्रदेश होना चाहिये, क्योंकि 'आचार्य' के स्थानपर 'सूरि' पदका उपयोग गुजरात में विशेष रूपसे होता रहा है । हमारे सामने मूलसंघ और काष्ठासंघ दोनों की आचार्य तथा भट्टारक पट्टावलियाँ उपस्थित हैं । उनके देखनेसे यह स्पष्ट हो जाता है कि इन्हें भट्टारक विशेषण पूज्यके अर्थमें प्रयुक्त हुआ है । ये किसी पट्टके भट्टारक नहीं थे । ग्रन्थका नाम पुरुषार्थसिद्धयुपाय तो है ही । ग्रन्थकारने स्वयं ही इस नामका तीसरे श्लोक में उल्लेख किया है । संस्कृत टीकाकी अन्तिम प्रशस्तिपर दृष्टिपात करनेसे ऐसा भी प्रतीत होता है कि इसका दूसरा नाम 'जिन प्रवचन रहस्यकोश' भी रहा है ऐसा इसपर लिखी गई संस्कृत टीकाकी अन्तिम प्रशस्तिसे ज्ञात होता है । प्रकृतमें ऐसा लगता है कि आचार्य अमृतचन्द्रदेवने जितनी भी अपनी स्वतन्त्र रचनाओंको मूर्त रूप दिया है उनकी मौलिकताको ध्यान में रखकर उनको दूसरा नाम देनेकी पुरानी परम्परा रही है । किन्तु यहाँ यह कहना कठिन है कि इसका निर्वाह वे स्वयं करते रहे या अन्यके द्वारा उनकी स्वतन्त्र रचनाओं का दूसरा नाम सूचित किया गया है । उदाहरणार्थ लघुतत्त्वस्फोट ग्रन्थका दूसरा नाम 'शक्तिमणितकोश' उसके प्रत्येक अध्यायकी समाप्ति सूचक अञ्चलिकामें दिया गया है तथा प्रस्तुत ग्रन्थ ( पुरुषार्थसिद्धयुपाय) का दूसरा नाम इसपर लिखी गई संस्कृत टीकाकी समाप्तिसूचक प्रशस्तिसे ज्ञात होता है । है यह महत्त्वकी बात कि इनकी जो यह दो रचनाएं हैं उनको दूसरा नाम देनेकी परम्परा पुरानी जान पड़ती है । वैसे इन्होंने जो समयप्राभृतकी आत्मख्याति टीका लिखी है उसके प्रथम मंगलसूत्रकी टीकामें उसे ( समयप्राभृतको) ये 'अर्हत्प्रवचनका अवयव' जैसे गरिमागम शब्दों द्वारा स्वयं सम्बोधित कर रहे हैं । लगता है कि तत्त्वार्थवार्तिक में 'गुण-पर्ययवद्द्रव्यम्' (सू० ३७) सूत्रकी व्याख्या करते हुए जो शंका समाधान आयी है, Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६८ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ उसमें 'उक्तं हि' कह करके जो 'अर्हत्प्रवचनने द्रव्याश्रया निगुर्णागुणाः' कहा गया है, वह अन्य किसी शास्त्रके विषयमें न कहकर पूर्वोक्त न्यायसे लगता है कि स्वयं भट्टाकलंकदेवने तत्त्वार्थसूत्र अ० ५के ४१वें शंकाके इसी सूत्रके लिये कहा है। इस ग्रन्थकी जो संस्कृत टीका हमारे सामने है, वह साधारण संस्कृतमें लिखी गयी है। फिर भी इससे कुछ महत्त्वपूर्ण श्लोर्कोके अर्थ पर जो प्रकाश पड़ता है , उसे संक्षेपमें यहाँ दे रहे हैं उदाहरणार्थ ५वें श्लोककी टीका करते हुए लिखा है "इहास्मिन् ग्रन्थे जिनमते वा भूतार्थं सत्यं निश्चयं प्रदेशभेद रहितं वर्णयंति । अपरं अभतार्थ असत्यं व्यवहारं प्रदेशभेदसहितं वर्णयंति ।"निश्चयनया द्रव्यस्थिताः व्यवहारनया पर्यायस्थिताः । द्रव्यस्थितं सत्यं पर्यायस्थितमसत्यम् ।। ६४ श्लोककी टीका करते हुए लिखा है-“अबुधस्य मूर्खस्यबोधनार्थं ज्ञानार्थं अभूतार्थ व्यवहारमार्ग देशयंति । यः केवलं एकंव्यवहारमेव अवैति जानाति तस्यव्यवहारज्ञस्य देशनानास्ति उपदेशोनास्ति ।" ८वें श्लोककी टीका करते हुए लिखा है-“यः शिष्यः बुद्धिमान व्यवहारं च निश्चयं च व्यवहारनिश्चयो नयौ प्रबुद्धयज्ञात्वातत्त्वेन निश्चयेन मध्यस्थः भवतिकर्मभिः अनाश्रितो भवति स एव शिष्यः देशनायाः उपदेशस्य अविकलं पूर्णफलं अविनश्वरं प्राप्नोति लभते । भावार्थोऽयं बुद्धिमान् शिष्यः यथार्थ रहस्येन मध्यस्थोभत्वा कमानव रहितो भवति । सबद्धिमान पण्यपापरूपपरिणतित्यागात मध्यस्थ: सन मोक्षादिरूपं फलं प्राप्नोति इत्यर्थः । २१८वें श्लोककी टीका करते हुए लिखा है-"सम्यक्त्वेचारित्रे सति तीर्थकरस्य आहारकशरीरस्यबंधकौबंधौभवतः सम्यक्त्व चारित्राभ्यांविनांतीर्थकराहारकौनस्यातां इत्यर्थः । यत्र तौ द्वौ योगकषायौ नास्ति न तिष्ठेत् । पुनरस्मिन् दर्शनज्ञानचारित्रे सति तत् पूर्वोक्तं तीर्थकराहारककर्मबंधरूपंउदासीनं योगकषायाभ्यां दर्शनादौसत्यपि तीर्थंकराहारक कर्मबंधो न भवतीत्यर्थः ।। यह कतिपय श्लोकोंकी संस्कृत टीकाका आशय है। इसपर दृष्टिपात करनेसे यह स्पष्ट हो जाता है कि संस्कृत टीकाकार मूल श्लोकोंके भावको स्पष्ट करने में सफल रहा है। मात्र २१८वें श्लोकका अर्थ प्रांजल शब्दोंमें स्पष्ट नहीं हो सका । लिपिकारकी असावधानीसे ऐसा हआ हो तो कोई आश्चर्य नहीं। अन्य टीकाएँ (१) अन्य टीकाओंमें सबसे प्रमुख आचार्यकल्प पण्डित टोडरमल जी सा० की टीका है। यह ढूँढारी भाषामें लिखी गई है। वह हमारे सामने नहीं है। मात्र उसका हिन्दी अनुवाद हमारे सामने अवश्य है । गुजरातीसे हिन्दीमें इसका अनुवाद श्री वैद्य गम्भीरचन्द जैन, अलीगंज एटा वालोंने किया है । ढूँढारीसे गुजराती भाषामें इसका अनवाद ब्र० भाई श्री ब्रजलाल गिरधरलालजी शाहने किया था । हिन्दी अनुवाद हमारे सामने है। इसमें पं० जी ही के शब्दोंमें मंगलाचरण दिया गया है। उसके बाद एक कवित्त द्वारा 'निश्चर्यकान्त और व्यवहारैकान्तका निषेध करके जो निश्चय मोक्षमार्ग और व्यवहारमोक्षमार्गको भिन्न-भिन्न दो जानते हैं उसका निषेध करके दान, पूजा, व्रत आदिको मोक्षमार्ग मानना व्यवहार है ऐसा जानकर साक्षात् मोक्षमार्गके निमित्तरूपमें उन्हें स्वीकार करते हैं वे ही परमार्थके भागी होते हैं" यह तथ्य स्पष्ट किया गया है। आगे ग्रन्थके प्रत्येक श्लोकका अन्वयार्थ, टीका और भावार्थ देकर ग्रन्थका हार्द स्पष्ट किया गया है । पहिले हम संस्कृत टीकाके कतिपय श्लोकों का आशय स्पष्ट कर आये हैं। यहाँ अध्ययनकी दृष्टिसे क्रमसे उन्हीं श्लोकोंका हार्द पंडितजी ही के शब्दोंमें दे रहे हैं । Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : ४६९ ५वें श्लोकके आशयको स्पष्ट करते हुए लिखा है-भूतार्थ नाम सत्यार्थका है। भूत अर्थात् जो पदार्थमें पाया जावे, और अर्थ अर्थात् 'भाव ।" उनको जो प्रकाशित करे तथा अन्य किसी प्रकारको कल्पना न करे उसे भूतार्थ कहते हैं !"अभूतार्थ नाम असत्यार्थका है। अभूत अर्थात् जो पदार्थमें न पाया जावे और अर्थात् “भाव" उनको जो अनेक प्रकारकी कल्पना करके प्रकाशित करे उसे अभूतार्थ कहते हैं । वें श्लोककी टीकामें पंडितजी लिखते हैं-मनीश्वर अर्थात आचार्य अज्ञानी जीवोंको ज्ञान उत्पन्न करनेके लिये अभूतार्थ ऐसा जो व्यवहार उसका उपदेश करते हैं । जो जीव केवल व्यवहार ही का श्रद्धान करता है उसके लिये उपदेश नहीं है। ८वें श्लोककी टीकामें वक्ता कैसा होना चाहिये और श्रोता कैसा होना चाहिये, इस प्रयोजनको ध्यानमें पंडितजी लिखते हैं-जो जीव व्यवहारनय और निश्चयनयके स्वरूपको यथार्थ रूपसे जानकर पक्षपात रहित होता है वही शिष्य उपदेशका सम्पूर्ण फल प्राप्त करता है। यहाँ यह बात ध्यान देने योग्य है कि संस्कृत टीकाकारने "तत्वेन भवति मध्यस्थः" का जो यह अर्थ फलित किया है कि "जो जीव निश्चयसे मध्यस्थ होता है अर्थात् कर्मोसे अनाश्रित होता है (निर्विकल्प होता है) वही देशनाके पूर्णफल अविनश्वर फलको प्राप्त करता है।' वह यथार्थ है । २१७वें श्लोककी टीका करते हुए पंडितजी लिखते हैं-सम्यक्त्व और चारित्रके प्रगट होनेपर ही मन, वचन, कायके योग तथा अनन्तानुबन्धीको छोड़कर शेष तीन कषायोंकी उपस्थितिमें तीर्थकर और आहारकद्विकका बन्ध होता है । अतः रत्नत्रय है वह तो बन्धक नहीं है, बन्धमें उदासीन है। इसकी संस्कृत टीकाका भी यही आशय है। जो हस्तलिखित प्रति हमारे सामने है, उसमें जो वाक्य रचना लिपिबद्ध हुई है उससे यह भाव स्पष्ट नहीं होता, इतना अवश्य है। (२) इस ग्रंथकी पं० श्री मक्खनलालजी शास्त्री तथा ब्र० पं० श्री मुन्नालालजी काव्यतीर्थ रांधलीयकी टीकायें और हैं, जो हमारे सामने नहीं होनेसे, हम उनके आधारपर तुलनात्मक रूपसे लिखने में असमर्थ हैं। Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसिद्धान्तदर्पण : एक अनुचिन्तन गुरु श्री पं० गोपालदासजी वरैया श्रुतधरोंकी उस शृंखलाकी कड़ी हैं, जिसमें कुन्दकुन्द, समन्तभद्र, अकलंक और प्रभाचन्द्र जैसे आगमानुसारी आचार्योंकी गणना की जाती है और जिन आचार्योंकी अमर लेखनीका स्पर्श पाकर श्रुतदेवताका कार्य संवर्द्धन हुआ है । गुरुजी विचारक होनेके साथ शास्त्रीय विद्वान भी थे; उन्होंने जहाँ सुशीला उपन्यास जैसा रसमय कथा ग्रन्थ लिखा है, वहाँ जैनसिद्धान्तदर्पण जैसी गहन शास्त्रीय, पाण्डित्यपूर्ण रचना भी लिखी। सार्वधर्म, जैन जागरफी प्रभृति अनेक निबन्धों के साथ (१) जैनसिद्धान्तदर्पण (२) जैनसिद्धान्तप्रवेशिका और (३) सुशीला उपन्यास इन तीन ग्रन्थोंकी रचना भी उन्होंने की है। इनमें प्रथम दो रचनाएँ सैद्धान्तिक हैं और तीसरी कथा कृति । प्रस्तुत निबन्धमें प्रथम ग्रन्थका अनुचिन्तन उपस्थित किया जा रहा है । प्रास्ताविक जैनसिद्धान्तदर्पणमें सिद्धान्त और न्यायके महत्त्वपूर्ण विषयोंका प्रतिपादन किया गया है । यह गुरुजीकी सर्वप्रथम कृति है, पर भाषा और प्रतिपादन शैलीमें इतनी प्रौढता समाविष्ट है, जिससे इसे प्रथम रचना स्वीकार करने में विप्रतिपत्ति प्रतीत होती है। इस ग्रन्थको गुरुजीने 'जैनमित्र' में क्रमश. प्रकाशित करना आरम्भ किया था। पश्चात् जैनमित्र कार्यालयमें अपने पाठकोंको उपहार स्वरूप वितरित करनेके लिये 'जैनसिद्धान्तदर्पण-पूर्वाध' के नामसे इसे प्रकाशित किया । कुछ वर्षोंके पश्चात मनि श्री अनन्तकीति दि० जैन ग्रन्थमाला बम्बईको ओरसे वीर निर्वाण संवत् २४५४, जनवरी सन् १९२८ ई० में इसका संशोधित और परिवर्धित संस्करण प्रकाशित हआ, जो अनुचिन्तनके हेतु हमारे समक्ष है। इस संस्करणमें गरुजीकी लिखी हई प्रस्तावना भी है। उसमें बताया है ___'यद्यपि जैनसिद्धान्तका रहस्य प्रकट करनेवाले बड़े-बड़े श्री कुन्दकुन्दाचार्य समान महानाचायोंके बनाये हुए अब भी अनेक ग्रन्थ मौजूद है, पर उनका असली ज्ञान प्राप्त करना असम्भव नहीं, तो दुस्साध्य अवश्य है । इसलिए जिस तरह सुचतुर लोग जहाँ पर कि सूर्यका प्रकाश नहीं पहुँच सकता, वहाँपर भी बड़े-बड़े चमकीले द पदार्थोके द्वारा रोशनी पहुँचा कर अपना काम चलाते हैं, उसी तरह जटिल जैन सिद्धान्तोंके पूर्ण प्रकाशको किसी तरह इन जीवोंके हृदय-मंदिरमें पहुँचानेके लिए जैनसिद्धान्तदर्पणकी आवश्यकता है। शायद आपने ऐसे पहलदार दर्पण (शैरवानि) भी देखे होंगे, जिनके द्वारा उलट फेरकर देखनेसे भिन्न-भिन्न पदार्थोंका प्रतिभास होता है । उसी तरह इस 'जैनसिद्धान्तदर्पण'के भिन्न-भिन्न अधिकारों द्वारा सिद्धान्त विषयक भिन्न-भिन्न पदार्थोंका ज्ञान प्राप्त किया जा सकेगा।' गुरुजीके पूर्वोक्त कथनसे तत्त्वज्ञानकी जानकारीके लिए उक्त ग्रन्थकी उपयोगिता स्पष्ट है । जिसे संस्कृत प्राकृत, अपभ्रंश आदि प्राचीन भारतीय भाषाओंका सम्यक् ज्ञान नहीं है, ऐसा हिन्दी भाषाका ज्ञाता पाठक भी बड़े-बड़े सैद्धान्तिक विषयोंका ज्ञान इस ग्रन्थके अध्ययनसे प्राप्त कर सकता है। जैनसिद्धान्तोंकी जानकारी इस ग्रन्थसे सहज में प्राप्त की जा सकती है । प्रस्तुत संस्करणमें विषय-सूचीके पूर्व गुरुजीका निवेदन मुद्रित है, जिसमें इस कृतिके प्रणयनका संक्षिप्त इतिहास अंकित किया गया है। गुरुजीने अपने उक्त वक्तव्यमें बताया है कि जैनमित्रकार्यालयसे ग्रन्थ संशोधनपरिवर्धनके हेतु पत्र मिला, जिसमें लिखा था Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : ४७१ 'जैन सिद्धान्तदर्पण द्वितीय संस्करणको ( दूसरे बार छपनेकी) अत्यन्त आवश्यकता है, इसलिए आप इसमें हीनाधिक करके और जिन बातोंकी इसमें त्रुटि रह गई, उनको पूर्ण करके इसको शीघ्र ही भेज दीजिएगा।' इसलिए अब इसमें आकाशद्रव्यके निरूपणमें सृष्टिकर्तुत्वमीमांसा और भूगोलमीमांसा की गई है और कालद्रव्यका विशेषरूपसे वर्णन किया गया है। तथा और भी जहाँ कहीं हीनाधिकता करनी थी, कर दी गई हैं । अब भी जो कुछ इसमें त्रुटि रह गई हो, उसके लिए क्षमाप्रार्थी हूँ । इस संस्करण में मुझको मेरे शिष्य महरौनी (झाँसी) निवासी पण्डित बंशीधरने बहुत सहायता दी है जिसका मुझे अत्यन्त हर्ष है ।' गुरुजीके उक्त वक्तव्यसे स्पष्ट है कि यह ग्रन्थ गुरुजीकी आद्य रचना है और इसे सर्वाङ्गपूर्ण बनाने के लिए उन्होंने पर्याप्त श्रम किया है । प्रतिपाद्य विषयका समीक्षात्मक परिचय प्रस्तुत ग्रन्थ आठ अधिकारोंमें विभक्त है । प्रत्येक अधिकारका नामकरण निरूपित विषयके आधारपर किया गया है । लेखकने जिस अधिकार में जिस विषयका प्रतिपादन किया है, उस विषयके अध्ययनसे तद्विषयक जिज्ञासा शान्त हो जाती है । अधिकारोंके नाम निम्नलिखित हैं : (१) लक्षण प्रमाण-नय-निक्षेपनिरूपण, (२) द्रव्यसामान्यनिरूपण, ( : ) अजीवद्रव्यनिरूपण, (४) पुद्गलद्रव्यनिरूपण, (५) धर्म और अधर्मद्रव्यनिरूपण, (६) आकाशद्रव्यनिरूपण, (७) कालद्रव्यनिरूपण और (८) सृष्टिकर्तृत्वमीमांसा । प्रथम अधिकार में लक्षण, प्रमाण, नय और निक्षेपकी विस्तारपूर्वक ( पृ० १ - ३८ तक) मीमांसाकी गयी है । पदार्थो के विशेष स्वरूपका विचार उक्त चारों विषयोंको ठीक तरहसे जाने बिना सम्भव नहीं है । अतः गुरुजीने सर्वप्रथम आधारभूत सिद्धान्तों का विवेचन किया है। धवलाटीका के निम्न पद्यसे भी उक्त कथनको सिद्धि होती है— प्रमाण -नय- निक्षेपर्योऽर्थो नाभिसमीक्ष्यते । युक्तं चायुक्तवद्भाति तस्यायुक्तं च युक्तवत् ॥ - धवला० पु० १ पृ० १६ जिस पदार्थका प्रमाण, नय और निक्षेपके द्वारा ठीक तरहसे विचार नहीं किया जाता, वह कभी युक्त - तर्कसंगत होते हुए भी अयुक्त-सा प्रतीत होता है और कभी अयुक्त होते हुए भी युक्त-सा प्रतीत होता है । स्पष्ट है कि किसी भी पदार्थकी समीक्षा ( मीमांसा) करते समय वह किस निक्षेपका विषय यह जानकर ही प्रमाण और नयदृष्टिसे उसका निर्णय करना चाहिए । पदार्थका विवेचन करते समय उसके लक्षणकी अनुवृत्ति तो हो ही जाती है, अतएव किसी भी पदार्थ के निर्णय में उक्त चारों उपयोगी हैं । इसी तथ्यको ध्यान में रखकर गुरुजीने अपने इस प्रथम अधिकारमें लक्षणादि चारों विषयोंका निरूपण किया है । प्रतिपादन की यह शास्त्रीय शैली पाठक और विचारक दोनोंके लिए ही हृदयको आह्लादित करनेवाली है । यहाँ प्रकरण संगत होनेसे यह निर्देश कर देना उपयुक्त प्रतीत होता है कि मूल आगम परम्परामें किसी भी विषयकी प्ररूपणा के पूर्व आरम्भमें उस विषयका वाचक शब्द कितने अर्थोंमें पाया जाता है, निक्षेपविधिसें प्ररूपण करनेपर कौन निक्षेपार्थ किस नयका विषय है, यह दिखलाकर प्रकृत निक्षेपार्थकी प्ररूपणाकी जाती रही है ।" इससे अध्येता उस ग्रन्थ या प्रकरणके अध्ययनके पूर्व निम्न तथ्योंको स्पष्ट रूपसे जान लेता है । १. धवलाटीका पु० १३ पृ० ३-४, पृ० ३८ तथा पृ० १९८ । Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७२ सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ १. प्रकृत प्ररूपणा किस निक्षेपार्थका अवलम्बन लेकर की जा रही है। २. वह निक्षेपार्थं किस नयका विषय है । अध्येता नय-निक्षेपकी उक्त प्रक्रियाका अवलम्बन ग्रहण कर अप्रकृत अर्थका निराकरण और प्रकृत अर्थका ग्रहण कर सके, यही उक्त कथनका उद्देश्य है । प्राचीन ग्रन्थोंमें इस परम्पराका निर्वाह अक्षुण्ण रूपसे पाया जाता है, किन्तु उत्तरकालीन ग्रन्थोंमें इसका निर्वाह क्वचित् कदाचित् ही हुआ है। पर गुरुजीने अपने इस ग्रन्थमें लक्षण, प्रमाण, नय और निक्षेपार्थका ज्ञान कराना आवश्यक समझकर सर्वप्रथम इन विषयोंका स्वरूप विवेचन किया है। अतएव प्रत्येक विचारक समीक्षकको अधिकार नियोजनके क्रममें औचित्य स्वीकार करना पड़ेगा। गुरुजी सिद्धान्त विषयके मर्मज्ञ विद्वान् थे, अतः विषयनियोजनमें उन्होंने शास्त्रीय क्रमका पालन किया है। सिद्धान्तोंकी प्रतिष्ठापना सरल और सहजरूपमें की गयी है। सामान्यस्तरके पाठक भी गूढ विषयोंको हृदयंगम कर सकते हैं। किसी भी वस्तुका ज्ञान दो प्रकारसे किया जाता है-एक तो उसके ज्ञान करानेमें प्रयोजक स्वरूपकी जानकारी द्वारा और दूसरे उसके अविनाभावी परिकर द्वारा इनमेंसे प्रथमकी आत्मभूत लक्षणसंज्ञा है और दूसरेकी अनामभूत । विवक्षित वस्तुका वर्तमानमें ज्ञान करते समय ये दोनों ही लक्षण अव्याप्ति, अतिव्याप्ति और असम्भव इन तीनों दोषोंसे रहित होने चाहिए; तभी उन द्वारा विवक्षित वस्तुका ठीक तरहसे ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। प्रस्तुत ग्रन्थके प्रारम्भमें (१-४ पृ० तक) गुरुजीने उक्त तथ्यका स्पष्ट निरूपण किया है । २ ज्ञानके दो भेद हैं- सम्यग्ज्ञान और मिथ्याज्ञान ये दोनों ही ज्ञान प्रमाण और नयके भेदसे दोदो प्रकारके हैं। आचार्य पूज्यपादने सम्यग्ज्ञान और मिथ्याज्ञानमें क्या अन्तर है इसका ठीक तरहसे ज्ञान करानेके अभिप्रायसे तीन प्रकारके विपर्यासोंका निर्देश किया है— कारणविपर्यास, भेदाभेदविपर्यास और स्वरूपविपयस " जो ज्ञान इन तीन प्रकारके विपर्यासोंको लिये हुए है उसकी मिथ्याज्ञानसंज्ञा है और इससे भिन्न दूसरे प्रकारके ज्ञानकी सम्यग्ज्ञान संज्ञा है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । इस दृष्टिसे सम्यग्ज्ञानके पाँच भेद है - मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान तथा मिथ्याज्ञानके तीन भेद हैं- कुमतिज्ञान कुश्रुतज्ञान और विभंगज्ञान इन्हीं दोनों प्रकारके ज्ञानोंको क्रमसे प्रमाणज्ञान और प्रमाणाभास कहते हैं। 'श्रुतविकल्पो नयः' इस वचन के अनुसार नयज्ञानका अन्तर्भाव श्रुतज्ञानमें ही होता है । तदनुसार श्रुतज्ञान सम्यक् और मिथ्या ये दो भेद होनेसे नयज्ञान भी दो भागों में विभक्त हो जाता है । उनमेंसे प्रथमकी नय संज्ञा है और दूसरेको नयाभास कहते हैं । 7 प्रमाणज्ञान और नयज्ञानको थोड़ेमें इन शब्दों द्वारा समझा जा सकता है-अंश, अंशीका भेद किये बिमा समग्र रूप से वस्तुका ज्ञान करानेवाले सम्यग्ज्ञानको प्रमाणज्ञान कहते हैं और अंश द्वारा वस्तुका ज्ञान करानेवाला सम्यग्ज्ञान नयज्ञान कहलाता है । आगम परम्परामें इन ज्ञानोंका इसी रूपमें निरूपण हुआ है । प्रत्येक वस्तु अनेकान्तस्वरूप है, इसलिए तत्स्वरूप वस्तुको समग्र भावसे ग्रहण करनेवाला ज्ञान प्रमाणज्ञान है और विवक्षित एक धर्मको मुख्यतासे वस्तुको ग्रहण करनेवाला सम्यग्ज्ञान नयज्ञान है यह समग्र कथनका निचोड़ है । गुरुजीने प्रस्तुत ग्रन्थ (४ से २९० तक ) में प्रमाणकी मीमांसा करते हुए अर्थ, आलोक, सन्निकर्ष और इन्द्रियवृत्ति मे प्रमाण न होकर सम्यग्ज्ञान ही प्रमाण है इसका प्रमाणमे प्रमाणता अभ्यस्त दशामें स्वतः ओर अनभ्यस्त दशामें परत आगे प्रमाणज्ञान कितने प्रकारका है इस तथ्यका स्पष्टीकरण करते १. धवलाटीका पु० १३ पृ० ३-४, पृ० ३८ तथा पृ० १९८ । सम्यक् प्रकारसे मीमांसा करनेके बाद आती है इस तथ्यको स्थापना की है। हुए उसके प्रत्यक्ष और परोक्ष ये दो भेद २. सर्वार्थसिद्धि अ० १ सू० ३२ । Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : ४७३ करके प्रत्यक्षके दो भेद किये हैं-सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष और पारमार्थिक प्रत्यक्ष । इनमेंसे सांव्यवहारिक प्रत्यक्षमें मतिज्ञान और उसके अवान्तर भेदोंको लिया है । तथा पारमार्थिक प्रत्यक्षके विकल और सकल ये दो भेद करके विकल प्रत्यक्षमें अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञानको तथा सकलप्रत्यक्षमें केवलज्ञानको लिया है । परोक्षज्ञानका निरूपण करते हुए उसके स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और आगम ये पाँच भेद किये हैं । प्रमेयकमलमार्तण्ड, प्रमेयरत्नमाल आदि न्याय-दर्शनशास्त्रके ग्रन्थोंमें इन ज्ञानोंकी जिस ढंगसे प्ररूपणा की गई है उसी सरणिको अपनाकर गुरुजीने इन ज्ञानोंका निरूपण किया है । यही कारण है कि उनके इस निरूपणमें मतिज्ञान और श्रुतज्ञान इन दो ज्ञानोंका इस प्रसंगसे कहीं पर नामोल्लेख भी दृष्टिगोचर नहीं होता। स्पष्ट है कि उन्होंने मतिज्ञानको सांव्यवहारिक प्रत्यक्षरूपसे और श्रुतज्ञानको परोक्षज्ञानरूपसे स्वीकारकर इन ज्ञानोंकी प्रमाणज्ञानरूपसे प्ररूपणा की है। गुरुजी किसी भी प्रमयका अव्यभिचारी लक्षण निर्दिष्ट करने में बड़े पटु रहे है यह इस प्रकरणपर दृष्टि डालनेसे स्पष्ट ज्ञात हो जाता है । ३. नयज्ञानका निरूपण (२२ से ३५ पृ० तक) करते हुए सर्वप्रथम गुरुजीने अनेकान्तस्वरूप वस्तुकी स्थापना करके और साथ ही ज्ञानकी स्वार्थ और परार्थ इन दो भेदोंमें स्थापना करके वाक्योंको सकलादेश और विकलादेश इन दो भागोंमें विभक्त किया है और अन्तमें बतलाया है कि विकलादेश वाक्यकी ही नववाक्य संज्ञा है तथा इससे जो ज्ञान होता है उसे ही भावनय कहते हैं । नयके निरूपणमें गुरुजीने श्रीदेवसेनके नयचक्रको मुख्य आलम्बन बनाया है । आगम प्रमाणोंको उद्धृत करते हुए आचार्य पूज्यपादकी सर्वार्थसिद्धि और स्वामी कार्तिकेयकी द्वादशानुप्रेक्षाके उद्धरण भी यत्र-तत्र दृष्टिगोचर होते हैं । नयज्ञान क्या है इसकी सामान्य मीमांसा करनेके बाद उसके उत्तर भेदोंका निरूपण करते हुए गुरुजीने जो वाक्य अंकित किये है वे हृदयंगम करने योग्य हैं । वे लिखते हैं 'नयके मूल भेद दो हैं-एक निश्चयनय और दूसरा व्यवहारनय । इस ही व्यवहारनयका दूसरा नाम उपनय है। 'निश्चयमिह भूतार्थव्यवहारं वर्णयन्त्यभूतार्थम्' इस वचनसे निश्चयका लक्षण भूतार्थ और व्यवहारका लक्षण अभूतार्थ है । अर्थात् जो पदार्थ जैसा है उसको वैसा ही कहना यह निश्चयनयका विषय है । और एक पदार्थको परके निमित्तसे व्यवहारसाधनार्थ अन्यरूप कहना व्यवहारनयका विषय है।' यहाँपर गुरुजीने व्यवहारकी जो परिभाषा दी है वह मुख्यतया असद्भूत व्यवहार या उपचरित व्यवहार पर ही घटित होती है. सदभत व्यवहारकी परिभाषा इससे भिन्न प्रकार की है। यहाँ व्यवहारका प्रयोग उपचार के अर्थमें हआ है । सद्भुत व्यवहारमें अखण्ड द्रव्यमें गुण-गणी आदिके भेदसे भेदविवक्षा मुख्य है । इतना अवश्य है कि भेदव्यवहारका भी यदि अन्यके साथ सम्बन्धको दिखलाते हए कथन किया जाता है तो ऐसी अवस्थामें वह सदभतव्यवहार भी उपचरितसद्भतव्यवहार कहलाने लगता है। नयचक्रमें असद्भूतव्यवहारनयसे उपचरितनयको पृथक् मानकर उसके तीन भेद किये हैं। गुरुजीने भी इसी पद्धतिको स्वीकार कर इन नयोंका विवेचन किया है। किन्तु आलापपद्धतिमें 'उपचारः पृथग् नयो नास्तीति न पृथक् कृतः ।' यह लिखकर उसका निषेध किया है। असद्भूत व्यवहारका नाम ही उपचार है,' इस तथ्यपर दृष्टि देनेसे विदित होता है कि वस्तुतः उपचार असद्भूत व्यवहारका ही दूसरा नाम है । इनकी परिभाषाओं और उदाहरणोंको देखनेसे भी यही ज्ञात होता है। १. आलापपद्धति पृ० १६६ (बनारससे मुद्रित गुटिका)। | Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७४ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ नयोंके विबेचनके प्रसंगसे आगे (पृ० ३४-३५ में) गुरुजीने अन्य आचार्यके उपदेशानुसार संक्षेपमें इन नयोंका पुनः स्वरूपनिर्देश किया है। किन्तु इस विवेचनमें कोई नई बात नहीं कही गई । इसपर अपना अभिप्राय व्यक्त करते हुए गुरु जीने (पृ० ३५ में) स्वयं लिखा है ___'यद्यपि ये छह भेद किसी आचार्यने अध्यात्मसम्बन्धसे संक्षेपमें कहे हैं, परन्तु ये छह भेद प्रथम कहे हुए ३६ भेदोंमेंसे किसी न किसी भेदमें गर्भित हो जाते हैं ।' आदि, (पृ० ३५) ४. निक्षेपका निरूपण करते हुए गुरुजीने सर्वप्रथम 'जुत्तोसु जुत्तमग्गे' यह प्राचीन गाथा उद्धृत कर निक्षेप किसे कहते हैं इसका स्पष्टीकरण किया है। निक्षेपके अनेक भेद है। उनमें नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव ये चार भेद मुख्य हैं । इनका सर्वार्थसिद्धि और गोम्मटसार कर्मकाण्डमें विस्तृत विवेचन किया है । गुरुजीने उन्हीं ग्रन्थोंके आधारसे यह प्रकरण लिखा है। एक-एक शब्द अनेक अर्थों में पाया जाता है उनमेंसे अप्रकृत अर्थका निराकरण कर प्रकृत अर्थका ज्ञान करानेके लिए निक्षेपविधि की जाती है। जैन परम्परामें एक मात्र इसी अभिप्रायसे इसे मुख्यता मिली हुई है यह इस प्रकरणसे स्पष्ट ज्ञात हो जाता है। दूसरे अधिकारका नाम है-द्रव्यसामान्यनिरूपण (प० ३९ से ११८)। यह अधिकार पञ्चाध्यायी, पञ्चास्तिकाय, तत्त्वार्थवार्तिक और अष्टसहस्री आदि अनेक आगम ग्रन्थोंके परिशीलनका सुपरिणाम है । सर्वप्रथम इस अधिकारमें आगमकी प्राचीन दो गाथाएँ उद्धृत कर द्रव्यके तीन लक्षण निर्दिष्ट किये गये हैं। यथा १. जो स्वभाव अथवा विभाव पर्यायरूप परिणमे है. परिणमेगा और परिणम्या सो आकाश, जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और काल भेदरूप द्रव्य है । २. जो तीन कालमें उत्पाद, व्यय, ध्रौव्यस्वरूप सत्करि सहित होवे उसे द्रव्य कहते हैं । ३. तथा जो गुण-पर्यायसहित अनादिसिद्ध होवे उसे द्रव्य कहते हैं। ये द्रव्यके तीन लक्षण हैं। इस अधिकारका मुख्य विवेच्य विषय इन्हींका स्पष्टीकरणमात्र है। या प्रथम लक्षणके अनुसार द्रव्यकी प्रसिद्धि करते हए गरुजीने पर्यायको लक्ष्यमें रखकर लिखा है-- (क) 'द्रव्यमें अंशकल्पनाको पर्याय कहते हैं। उस अंशकल्पनाके दो भेद कहे है-एक देशांश कल्पना, दूसरी गुणांशकल्पना (पृ० ३९)।' आगे देशांशकल्पनाको द्रव्यपर्याय ओर गुणांशकल्पनाको गुणपर्याय बतलाकर गुणपर्यायके दो भेद किये है-अर्थगुणपर्याय और व्यञ्जनगुणपर्याय । साथ ही इन दोनोंका स्पष्टीकरण करते हुए लिखा है १. 'ज्ञानादिक भाववती शक्तिके विकारको अर्थगुणपर्याय कहते हैं । २. प्रदेशवत्त्व गुणरूप क्रियावतीशक्तिके विकारको व्यञ्जनगुणपर्याय कहते हैं। इस ही व्यञ्जन गुणपर्यायको द्रव्यपर्याय भी कहते हैं, क्योंकि व्यञ्जनगु णपर्याय द्रव्यके आकारको कहते हैं । सो यद्यपि यह आकार प्रदेशवत्त्व शक्तिका विकार है, इसलिए इसका मुख्यतासे प्रदेशवत्त्वगणसे सबन्ध होनेके कारण इसे व्यञ्जनगण पर्याय ही कहना उचित है, तथापि गौणतासे इसका देशके साथ भी सम्बन्ध है, इसलिए देशांशको द्रव्यपर्यायकी उक्तिकी तरह इसको भी द्रव्यपर्याय कह सकते हैं (पृ० ४०)।' आगे इन दोनों प्रकारकी पर्यायोंमेंसे प्रत्येकके स्वभाव और विभाव ये दो भेद करके लिखा है Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थं खण्ड : ४७५ 'जो निमित्तान्तरके बिना होवे उसे स्वभाव कहते हैं और जो दूसरेके निमित्तसे होय उसे विभाव कहते हैं ( पृ० ४० ) । ' (ख) आगे दूसरे लक्षण के अनुसार द्रव्यकी प्रसिद्धि करते हुए सत्, सत्ता और अस्तित्व इन तीनोंको एकार्थ बतलाकर पञ्चाध्यायीकी 'तत्त्वं सल्लाक्षणिक' इत्यादि कारिका तथा पञ्चास्तिकायकी 'सत्ता सव्वपयत्था' इत्यादि गाथाका अवलम्बन लेकर सत्ताका विस्तारसे विचार किया है (४१ से ४६ ) | इसी प्रसंगसे उत्पाद, व्यय और धौव्य किसके होते हैं इसका स्पष्टीकरण करते हुए बतलाया है कि'उत्पाद व्यय धौव्य ये तीनों द्रव्यके नहीं होते किन्तु पर्यायोंके होते हैं। परन्तु पर्याय द्रव्यका ही स्वरूप है, इस कारण द्रव्यको भी उत्पाद व्यय - ध्रौव्यस्वरूप कहा है (४६) ।' आगे (पृ० ५६) पर्यायके विशेष स्पष्टीकरणके प्रसंगसे गुणांशका नाम ही अविभागप्रतिच्छेद है यह बतलाकर उसका विशेष स्पष्टीकरण करते हुए एक महत्वपूर्ण सूचना की है 'किसी गुणकी जपन्य अवस्था और उसका जधन्य अन्तर समान होते हैं, उस गुणकी जघन्य अवस्था तथा जघन्य अन्तर इन दोनोंको अविभागप्रतिच्छेद कहते हैं। परन्तु किसी गुणमें उस गुणका जघन्य अन्तर उरा गुणकी जघन्य अवस्थाके अनन्तवें भाग होता है । उस गुणमें उस जघन्य अन्तरको ही अविभागप्रतिच्छेद कहते है। ऐसी अवस्थामें उस गुणकी जपन्य अवस्थामें अनन्त अविभागप्रतिच्छेद कहे जाते हैं (पु० ५७ ) " (ग) द्रव्यके तीसरे लक्षणमें उसे गुण- पर्यायवाला प्रसिद्ध कर गुणोंको सामान्य और विशेषके भेद से दो प्रकारका बतलाया गया है । सामान्य गुणोंमें छह गुण मुख्य हैं— अस्तित्व, द्रव्यत्व, वस्तुत्व, अगुरुलघुत्व, प्रमेयत्व और प्रदेशवत्व (५७) । आलापपद्धतिमें इन छह सामान्य गुणोंके सिवाय चेतनत्व, अचेतनत्व, मूर्तत्व और अमूर्तस्व मे चार सामान्य गुण और परिगृहीत किये हैं । इनमें से प्रत्येक द्रव्यमें आठ-आठ सामान्य गुण होते हैं । स्पष्टीकरण सुगम है। वहाँ विशेष गुणोंकी कुल संख्या १६ दी है उनमें चेतनत्व आदि उक्त चार गुण विशेष गुणोंमें भी परिगणित किये गये हैं । यहाँ यद्यपि द्रव्यके उक्त प्रकारसे तीन लक्षण कहे गये हैं, परन्तु उनमें एकवाक्यता किस प्रकार है इसे स्पष्ट करते हुए गुरुजी लिखते हैं 'यद्यपि इन तीनों लक्षणों में परस्पर विरोध नहीं है और परस्पर एक-दूसरेके अभिव्यञ्जक हैं, तथापि ये तीनों लक्षण द्रव्यको भिन्न-भिन्न शक्तियों की अपेक्षासे कहे हैं । अर्थात् पहले द्रव्यके छह सामान्य गुण कह आये हैं । उनमें एक द्रव्यत्व, दूसरा सत्त्व ओर तीसरा अगुरुलघुत्व है । सो पहला लक्षण द्रव्यत्व गुणकी मुख्यतासे, दूसरा लक्षण सत्व गुणकी मुख्यतासे और तीसरा लक्षण अगुरुलघुत्वगुणकी मुख्यतासे कहा है (६२) ।' आगे गुणकी विशेष मीमांसा करते हुए लक्षणभेदसे प्रत्येक गुण द्रव्यके जितने क्षेत्रको व्याप कर रहता है। उतने ही क्षेत्र में समस्त गुण रहते हैं यह स्पष्ट किया गया है । गुण नित्य हैं या अनित्य इसकी मीमांसा करते हुए बतलाया है कि -- ' जब गुणों । भिन्न द्रव्य अथवा पर्याय कोई पदार्थ नहीं हैं, किन्तु गुणोंके समूहको ही द्रव्य कहते हैं तो जैसे द्रव्य नित्यानित्यात्मक है उसी प्रकार गुण भी नित्यानित्यात्मक स्वयं सिद्ध है । वे 'गुण यद्यपि नित्य हैं तथापि बिना यत्नके प्रतिसमय परिणमते हैं और वह परिणाम उन गुणोंकी ही अवस्था है, उन परिणामों (पर्यायों) की गुणोंसे भिन्न सत्ता नहीं है (६३) ।' गुणों के समुदायको द्रव्य कहते हैं, द्रव्यके इस लक्षणके अनुसार जितनी भी पर्यायें होती हैं उन्हें गुणपर्याय कहना ही उचित है। उनके द्रव्यपर्याय और गुणपर्याय ऐसे भेद करना उचित नहीं है ? यह एक शंका है। इसका Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७६ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-प्रेन्थ परिहार करते हुए वहाँ बतलाया है कि 'उन अनन्त शक्तियों (गुणोंमें) दूसरे दो भेद हैं अर्थात् १. क्रियावती शक्ति, २. भाववती शक्ति । प्रदेश अथवा देश परिस्पन्द ( चंचलता ) को क्रिया कहते हैं और शक्तिविशेषको भाव कहते हैं । भावार्थ - अनन्त गुणोंमेंसे प्रदेशवत्त्व गुणको क्रियावती शक्ति कहते हैं और बाकीके गुणोंको भाववती शक्ति कहते हैं । इस प्रदेशवत्त्व गुणके परिणमन ( पर्याय) को द्रव्यपर्याय कहते हैं । इसीका दूसरा नाम व्यञ्जनपर्याय है । शेष गुणों के परिणमन (पर्याय) को गुणपर्याय कहते हैं । इसहीका दूसरा नाम अर्थपर्याय है (५५) ।' आगे गुणोंको सहभावी या अन्वयी क्यों कहा गया है तथा पर्यायोंको क्रमभावी या व्यतिरेकी क्यों कहा गया है इसका ऊहापोह किया गया है । साथ ही व्यतिरेकको द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावके भेदसे चार प्रकार बतलाकर यह सिद्ध किया है कि जैसे पर्यायोंमें परस्पर व्यतिरेकीपना घटित होता है उस प्रकार गुणों में वह व्यतिरेकीपना घटित नहीं होता ( ६६ से ६८ पृ० ) । आगे पर्यायके स्वरूपपर और भी स्पष्ट प्रकाश डालते हुए व्यतिरेकीपन और क्रमवर्तित्व ये दोनों हो पर्यायके लक्षण होते हुए भी इनमें क्या अन्तर है यह स्पष्ट करते हुए बतलाया है - 'स्थूल पर्याय में जो आकार प्रथम समयमें है उस ही के सदृश आकार दूसरे समयमें है । इन दोनों आकारोंमें पहला है सो दूसरा नहीं है और दूसरा है सो पहला नहीं है । इस हीको व्यतिरेकीपन कहते हैं । और एकके पीछे दूसरा होना इसको क्रम कहते हैं । यह वह है अथवा अन्य है इसकी यहाँ विवक्षा नहीं है । 'एकके पीछे दूसरा होना' इस लक्षणरूप क्रम 'यह वह नहीं है।' इस लक्षणरूप व्यतिरेकका कारण है । इसलिए क्रम और व्यतिरेकमें कार्य - कारण भेद है (६९) ।' आगे सामान्यरूपसे द्रव्य, गुण, पर्यायका विवेचन करनेके बाद प्रसंगसे जैन सिद्धान्तके आधारभूत अनेकान्तका विवेचन किया गया है । प्रत्येक वस्तु अनेक धर्मस्वरूप है, इसलिए अनेकान्त यह प्रत्येक वस्तुका पर्याय नाम ही है । इसका विग्रह करनेपर भी यही तात्पर्य निष्पन्न होता है । यथा— अनेके अन्ता धर्मा यस्मिन् भावे सोऽयमनेकान्तः - अर्थात् जिस पदार्थमें अनेक धर्म होते हैं उसे अनेकान्त कहते हैं । यह अनेकान्त पदका सामान्य निरूपण हैं । इसे विशेषरूपसे और स्पष्ट समझने के लिए इसका तात्पर्य है कि प्रत्येक वस्तु सत्-असत्, नित्य-अनित्य, एक-अनेक तथा तत्-अतत् इत्यादि रूपसे परस्पर विरुद्ध सरीखे 'दिखनेवाले' अनेक अर्थात् दो-दो धर्मयुगलोंका अधिकरण है, इसलिए वह अनेकान्त स्वरूप है । जैसे एक ही व्यक्ति पिता भी होता हैं और पुत्र भी, उसी प्रकार प्रकृतमें जानना चाहिये । ये धर्म प्रत्येक वस्तुका स्वरूप हैं, इसलिए परनिरपेक्ष ही हैं । इनके प्रत्येक वस्तुमें युगपत् रहने में कोई विरोध भी नहीं है, क्योंकि अपेक्षाभेदसे प्रत्येक वस्तुमें इनका अस्तित्व सिद्ध होता है । यहाँ गुरुजीने प्रत्येक वस्तुको अनेकान्तात्मक बतलानेके बाद लिखा है- 'क्योंकि वे धर्म अपेक्षा रहित नहीं हैं, किन्तु अपेक्षा सहित हैं और वे अपेक्षा भी भिन्न-भिन्न हैं ।' सो उनके ऐसा लिखनेका यही ताप्पर्य है कि बुद्धि द्वारा विचार करनेपर अपेक्षा भेदसे प्रत्येक वस्तुमें उन सत्-असत् आदि धर्मयुगलोंकी सम्यक प्रकार सिद्धि होती है, इसलिए प्रत्येक वस्तुको तत्स्वरूप मानयेमें कोई बाधा नहीं आती । गुरुजी यहाँ ( पृ० ७२ से ११८ तक ) अनेकान्तका तत्त्वार्थवार्तिक और अष्टसहस्री आदि ग्रन्थोंके आधारसे बड़ा ही मार्मिक स्पष्टीकरण किया है। उनका कहना है कि एक शब्द एक समय में वस्तु के अनेक धर्मोका प्रतिपादन नहीं कर सकता और शब्दकी प्रवृत्ति वक्ताकी इच्छापूर्वक होती है, इसलिए वक्ता एक समयमें वस्तुके अनेक धर्मोमेंसे किसी एक धर्मकी मुख्य तासे वचनका प्रयोग करता है । ऐसे समय में कथनमें विवक्षित धर्मकी मुख्यता रहती हैं और शेष धर्मोकी गौणता, अतः इन गौण धर्मोका द्योतक स्यात् (कथंचित् ) शब्द समस्त वाक्योंके साथ गुप्तरूपसे रहता ही है । आगे शास्त्रप्रसिद्ध छह जन्मान्धोंका दृष्टान्त देकर वस्तुके Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थखण्ड : ४७७ अनेकान्त स्वरूपको स्पष्ट करनेके बाद तत्त्वार्थवार्तिक अ० ४ सू० ४२ में दिये गये ग्यारह हेतुओं द्वारा प्रत्येक वस्तुको अनेकान्तात्मक सिद्ध किया गया है ( पृ० ७५ से ८० तक ) । तदनन्तर ( पृ० ८० ) प्रतिपादन के १ 'क्रमसे और २ युगपत्' ये दो प्रकार बतला कर लिखा है कि जिस समय कालादिसे अस्तित्वादिक धर्मोकी भेद विवक्षा हैं उस समय एक शब्द अनेक धर्मोका प्रतिपादन करने में असमर्थ होनेते वस्तुका निरूपण क्रमसे किया जाता है और जिस समय उन ही धर्मोका कालादिसे अभेदवृत्तिसे निजस्वरूप कहा जाता है उस समय एक ही शब्द द्वारा एक धर्म प्रतिपादन मुखसे समस्त अनेक धर्मोकी प्रतिपादकता सम्भव है, इसलिए वस्तुका निरूपण युगपत् रूपसे कहा जाता है । यहाँ युगपत् निरूपणका नाम ही मकलादेश है, उस हीको प्रमाण वचन कहते हैं और क्रमसे निरूपणका नाम ही विकलादेश है, उस हीको नय वचन कहते हैं——‘सकलादेशी प्रमाणाधीनः विकलादेशो नयाधीनः' ऐसा आगमका वचन भी है । यहाँ इतना विशेषरूपसे जानना चाहिए कि सकलादेशरूप प्रमाण वचनकी प्रवृत्ति अभेदवृत्ति और अभेदोपचार इस तरह दो प्रकारसे होती है । द्रव्यार्थिकनय से समस्त धर्म अभिन्न है, इसलिए अभेदवृत्तिको स्वीकार कर प्रमाण वचनका प्रयोग होता है और पर्यायाधिकनयसे समस्त धर्म परस्पर भिन्न भी हैं, इसलिए विवक्षित धर्ममें दोष धर्मो अध्यारोप करके प्रमाण वचनका प्रयोग किया जाता है ( पृ० ८१ ) । इतना स्पष्ट करनेके बाद इन दोनों प्रकारके वचनोंमेंसे प्रत्येकको सात-सात प्रकारका बतलाकर उनकी क्रमशः प्रमाणसप्तभंगी और नवसप्तभंगी ये संज्ञाएँ सूचितकर प्रमाणसप्तभंगी के प्रत्येक भंगको विस्तारके साथ स्पष्ट किया गया है ( पृ० ८२ से १०८ तक ) । विकलादेशकी अपेक्षा कथन करते समय निरंश वस्तुमें गुणभेदसे अंशकल्पनाकी मुख्यता रहती है । सकलादेश और बिकलादेश में अन्तर यह है कि सकलादेशमें शब्द द्वारा उच्चरित धर्म द्वारा शेष समस्त धर्मोका संग्रह है और विकलादेशमें शब्द द्वारा उच्चरित धर्मका ही ग्रहण है। शेष धर्मोका न विधि है और न निषेध है। इतना अवश्य है कि एकान्तका परिहार करनेके लिए प्रत्येक वाक्यमें 'स्वात्' पद द्वारा उनका द्योतन अवश्य कर दिया जाता है। साथ ही प्रत्येक वाक्यमें अवधारणके लिए 'एवकार'का प्रयोग भी अवश्य किया जाता है । प्रमाण वचन और नय वचन सात-सात ही क्यों होते हैं इसका स्पष्टीकरण करते हुए वहाँ बतलाया है कि ' वस्तु किसी धर्मकी अपेक्षा कथंचित् अस्तिस्वरूप है, उसके प्रतियोगी धर्मकी अपेक्षासे नास्तिस्वरूप है और दोनोंकी युगपत् विवक्षासे अवस्तव्यस्वरूप है। इस प्रकार वस्तुमें किसी एक धर्म और उसके प्रतियोगीकी अपेक्षासे अस्ति, नास्ति और अवक्तव्य ये तीन धर्म होते हैं । इन तीन धर्मोके संयुक्त और असंयुक्त सात ही भंग होते हैं, न हीन होते हैं और न अधिक होते हैं (११०) ।' आगे अनेकान्त में विरोधको शंकाका परिहार करके भावकान्त अभावकान्त, अद्वर्तकान्त और पृथक्त्वकान्तका निरसन कर इस अध्यायको समाप्त किया गया है । :३: तीसरा अधिकार है-— अजीव द्रव्य निरूपण ( पृ० ११८ से १३५ तक) । यद्यपि इस अधिकारमें अजीव द्रव्य निरूपणकी प्रतिज्ञा की गई है, परन्तु अलौकिक गणितको ठीक तरहसे बतलाये बिना द्रव्योंके छोटापन, बड़ापन तथा गुणोंकी मन्दता और तीव्रता आदिका निरूपण नहीं बन सकता, इसलिए इस अधिकार में सर्व प्रथम अलौकिक गणितका कथनकर अजीव द्रव्यका निरूपण किया गया है। Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७८ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ इस अधिकारमें लौकिक गणितसे अलौकिक गणितके अन्तरका ज्ञान कराते हुए गुरुजी लिखते हैं कि 'लौकिक गणितसे स्थूल और स्वल्प पदार्थोंका परिमाण किया जाता है, किन्तु अलौकिक गणितसे सूक्ष्म और अनन्त पदार्थोंकी हीनाधिकताका बोध कराया जाता है ।' गुरुजीने मानको दो भागों में विभक्त किया है - एक संख्यामान और दूसरा उपमान । संख्यामान के मूल भेद तीन है - संख्यात, असंख्यात और अनन्त । इनके उत्तर भेद इक्कीस हैं । एककी परिगणना संख्यातमें नहीं होती, क्योंकि एकमें करने पर लब्ध एक ही आता है, उसमें वृद्धि हानि नहीं होती, है । इतना अवश्य है कि गणना एकसे ही प्रारम्भ होती है । त्रिलोकसारका वचन भी है- एकका भाग देने पर या एकको एकसे गुणा इसलिए संख्यातका प्रारम्भ दोसे माना गया एयादीया गणना वीयादीया हवंति संखेज्जा | तीयादीणं णियभा कदि त्ति सण्णा मुणेयव्वा ॥ संख्यात मानके उक्त २१ भेदोंका त्रिलोकसारादि ग्रन्थोंके आधारसे विस्तार पूर्वक निरूपण करनेके बाद उपमामानका निरूपण किया है। इसका स्पष्टीकरण करते हुए उन्होंने लिखा है- 'जो प्रमाण किसी पदार्थ की उपमा देकर कहा जाता है उसे उपमामान कहते हैं । उपमामानके आठ भेद हैं-- १. पल्योपम ( यहाँ पर पल्य अर्थात् खासको उपमा है), २. सागरोपम ( यहाँ पर लवण समुद्रकी उपमा है), ३. सूच्यंगुल, ४. प्रतरांगुल, ५. घनांगुल, ६. जगच्छ्रेणी, ७ जगत्प्रतर और ८. लोक । इन सबका विस्तृत विवेचन भी गुरुजीने उक्त ग्रन्थोंके आधारसे किया है । इस प्रकार अलौकिक गणितका निरूपण करनेके बाद अजीव द्रव्यके पाँचों उत्तर भेदोंका निरूपण किया गया है । साथ ही जीवद्रव्यका भी निर्देश कर दिया है। इसमें किस द्रव्यका क्या लक्षण है, कौन मूर्त है और कौन अमूर्त है, आकाशके कितने भेद हैं, लोकाकाश किसे कहते हैं और वह कहाँ हैं, संख्यामान से देखनेपर कौन द्रव्य कितने हैं, पुद्गलके उत्तर भेद कितने और किस प्रकार हैं, परमाणुका प्रमाण कितना है, अस्तिका और अस्तिकायका क्या तात्पर्य है आदि बातोंका संक्षेपमें स्पष्टीकरण करके यह अधिकार समाप्त किया गया है । : ४ : चौथे अधिकारका नाम है - पुद्गलद्रव्यनिरूपण ( पृ० १३५ से १५० तक ) । इसमें बतलाया है कि यद्यपि पुद्गलमें अनन्तगुण हैं, पर उनमें रूप, रस, गन्ध और स्पर्श ये चार गुण मुख्य हैं। ये चारों पुद्गलके आत्मभूत लक्षण हैं । आगे इन इन गुणोंके उत्तर भेदोंकी चरचा करके पुद्गलकी शब्द, बन्ध आदि दस व्यंजन पर्यायोंका निरूपण किया गया । उनमेंसे बन्ध पर्यायका निरूपण करते हुए बतलाया है कि 'बन्धके भी दो भेद हैं- एक स्वाभाविक और दूसरा प्रायोगिक । स्वाभाविक ( पुरुष प्रयोग अनपेक्षित) बन्ध दो प्रकार हैएक सादि और दूसरा अनादि । स्निग्ध- रूक्षगुणके निमित्त से बिजली, मेष, इंद्रधनुष आदिक स्वाभाविक सादिबन्ध है । अनादि स्वाभाविक बन्ध धर्म, अधर्म और आकाशद्रव्यों में एक एकके तीन-तीन भेद होनेसे नौ प्रकारका है ।' यहाँ गुरुजीने, जिसे आगममें विस्रसा बन्ध कहा गया है, उसे ही स्वाभाविक बन्ध कहा है । रागपूर्वक जो मन, वचन, कायकी प्रवृत्ति होती है उसीका नाम पुरुषप्रयोग है । Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : ४७९ इस प्रसंगमें इस बातका संकेत करना आवश्यक प्रतीत होता है कि यद्यपि गुरुजीने (पृ० ३३७) भाषाके भेदोंमें दिव्यध्वनिको सम्मिलित कर अन्तमें लिखा है कि 'इस भाषात्मक शब्दके समस्त ही भेद परके प्रयोगसे उत्पन्न होते हैं, इसलिये प्रायोगिक है । पर इसे सामान्य निर्देश ही समझना चाहिए। विशेषरूपसे विचार करनेपर केवलीके रागका अभाव होनेमें दिव्यध्वनिको प्रायोगिक न कह कर स्वाभाविक कहना और मानना ही उचित है।' आगमका भी यही अभिप्राय है। . यह अधिकार तत्त्वार्थसूत्र और उसकी टीकाओंका आलोडनकर लिखा गया है। पुद्गल और उसके उत्तर भेदके सम्बन्धमें उक्त ग्रन्थोंमें जितना विवंचन पाया जाता है उस सबका इसमें ऊहापोह किया गया है। पाँचवाँ अधिकार है-धर्म और अधर्म द्रव्यनिरूपण (पृ० १५० से १५९ तक)। इस अधिकारमें प्रकृतमें धर्म और अधर्म पदसे पुण्य-पाप नहीं लिये गये हैं इसका निर्देश करने के बाद इन दोनों द्रव्योंके स्वरूपका निर्देश किया गया है। प्रश्न यह है कि ये दोनों द्रव्य हैं इसे कैसे स्वीकार किया जाय ? इसीके उत्तर स्वर आगम और अनुमानप्रमाणसे इनकी सिद्धि की है। आगमप्रमाणसे सिद्धि करते हुए उन्होंने तत्त्वार्थसूत्र अ० ५, सूत्र १ को उपस्थित किया है। अनुमानप्रमाणसे सिद्धि करते समय बतलाया है कि लोकमें जितने भी कार्य होते हैं वे सब कारणपूर्वक होते हुए ही देखे जाते हैं। ऐसा एक भी कार्य दृष्टिगोचर नहीं होता जो बाह्य और आभ्यन्तर कारणोंके अभावमें हआ हो। इतना सब स्पष्टीकरण करनेके बाद उन्होंने लिखा है-'गति और गतिपूर्वक स्थिति ये दो कार्य जीव और पुद्गल इन दो ही द्रव्योंमें होते हैं, अन्यमें नहीं होते । जीव और पुद्गलके गति और गतिपूर्वक स्थितिरूप कार्य अनेक कारणजन्य है । उनमें जीव और पुद्गल तो उपादान कारण हैं और धर्म और अधर्म द्रव्य निमित्तकारण हैं । बस, जीव और पुद्गलके गति और गतिपूर्वक स्थितिरूप कार्यसे धर्म और अधर्मद्रव्यरूप निमित्तकारणका अनुमान होता है । यद्यपि मछली आदिककी गतिमें जलादिक और अश्वादिककी गतिपूर्वक स्थितिमें पथ्वी आदिक निमित्तकारण हैं तथापि पक्षियोंके गमनागनादिक कार्यों में निमित्तकारणका अभाव होनेसे धर्म और अधर्म द्रव्यका सद्भाव सिद्ध होता है। अथवा जलादि पदार्थ मछली आदिकके गमनमें निमित्तकारण हैं किन्तु धर्म और अधर्म द्रव्य युगपत् समस्त पदार्थोंकी गति-स्थितिमें साधारण कारण हैं । ये धर्म और अधर्मद्रव्य लोकव्यापी है, इसलिये ये साधारण कारण हो सकते हैं । अन्य पदार्थ लोकव्यापी न होनेसे साधारण कारण नहीं हो सकते ।' आगे आकाशद्रव्यको जीव और पुद्गलोंकी गति-स्थितिका हेतु माननेमें क्या आपत्ति है इस प्रश्नका समाधान कर लोक और अलोकके विभागके हेतुरूपसे भी धर्म और अधर्म द्रव्यकी सिद्धि की गई । लोक और अलोकका विभाग असिद्ध है ऐसा प्रश्न होनेपर लोककी सान्तता सिद्ध कर लोक और अलोककी स्थापना की गई है। इस अधिकारका अन्त करते हए गुरुजीने षट्स्थानपतित वृद्धि हानिका स्वरूप बतलाकर अन्तमें लिखा है कि किन्तु वृद्धि और हानिके उपयुक्त छह-छह स्थानोंमेंसे किसी एक स्थान रूप वृद्धि या हानि होती है ।' छठे अधिकारका नाम है-आकाशद्रव्यनिरूपण (पृ० १५९ से १९३ तक)। इस अधिकारका निरूपण करते हुए गुरुजीने बतलाया है--आकाश भी एक द्रव्य है, क्योंकि इसमें 'उत्पाद-व्यय-ध्रौव्ययुक्तं सत्' और १. प्रवचनसार गाथा ४४ और उसकी अमतचन्द्र आचार्य कृत टीका। Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८०: सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ 'सत् द्रव्यलक्षम्' द्रव्यका यह लक्षण अविकल पाया जाता है। आकाश द्रव्यका मुख्य गुण अवगाहहेतुत्व है। यह पूरे आकाशमें अखण्डभावसे पाया जाता है। यद्यपि अलोकाकाशमें अन्य द्रव्य नहीं हैं, मात्र इसलिए उसकी वहाँ इस शक्तिका अभाव नहीं हो जाता। यह आकाशका स्वभाव है और स्वभावका कभी नाश नहीं होता। 'आकाश' यह शब्द ही आकाशके अस्तित्वका सूचक है । जैसे अन्य द्रव्योंमें स्वनिमित्तक और परप्रत्यय उत्पाद बन जाता है उसी प्रकार आकाशमें भी उत्पादका सद्भाव सिद्ध होता है। वास्तवमें आकाश अखण्ड एक द्रव्य है। फिर भी जितने आकाशमें जीवादि अन्य पाँच द्रव्य पाये जाते हैं उसे लोकाकाश कहते हैं और शेष आकाशकी अलोकाकाश संज्ञा है। आकाशका यह विभाग मात्र परसापेक्ष कथन होनेसे व्यवहारनयसे ही कहा गया है । यहाँ 'लोक' यह शब्द जीवादि द्रव्योंसे युक्त आकाशके लिए आया है । इसका व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है - लोक्यन्ते यत्र जीवादयः असौ लोकः-जहाँ जीवादि पाँच द्रव्य देखे जाते हैं उसे लोक कहते हैं । ये छहों द्रव्य द्रव्याथिकनयसे कथंचित् नित्य हैं, इसलिए लोक भी कचित् नित्य है और पर्यायाथिकनयसे कथंचित् अनित्य है, इसलिए लोक भी कथंचित् अनित्य है। आगे लोककी लम्बाई, चौड़ाई और ऊँचाई बतलाकर तथा उसके अधोलोक, मध्यलोक और ऊर्ध्वलोक ये तीन भाग करके कहाँ कैसी रचना है और किस गतिके जीव रहते हैं इसका विस्तारसे विवेचन किया गया है। साथ ही प्रसंग पाकर चारों गतियोंमेंसे किस गतिके जीव मर कर किस-किस गतिमें उत्पन्न होते हैं यह भी बतलाया गया है । मध्यलोकके वर्णनके प्रसंगसे ३० भोगभूमि और १५ कर्मभूमि बतलाकर उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी कालका भी वर्णन किया गया है । इस प्रकार इस समग्र विवेचनके साथ यह अधिकार पूर्ण होता है। सातवें अधिकारका नाम है-कालद्रव्य निरूपण (पृ० १९४ से लेकर पृ० २०८ तक)। 'कालो त्ति य ववएसो सब्भावपरूवओ हवदि णिच्चो ।' इस आगमवचनको उद्धृत कर गुरुजीका कहना है कि 'काल' यह स्वतन्त्र शब्द है, अतः इसका वाच्य अवश्य होना चाहिए । इससे कालद्रव्यके अस्तित्वकी सिद्धि होती है । यह वर्तमानलक्षण है, द्रव्यदृष्टिसे नित्य होकर भी स्वयं पर्यायक्रमसे उत्पाद-व्ययशील है और अन्य पदार्थोके परिवर्तनमें हेतु है । लोकाकाशके जितने प्रदेश हैं उतने ही कालद्रव्य हैं। यह अलोकाकाशमें नहीं पाया जाता, फिर भी आकाशके अखण्ड होनेसे उसके पर्यायरूपसे परिवर्तनका हेतु है। - यहाँ यह प्रश्न होने पर कि-धर्म, अधर्म और आकाश द्रव्यके समान कालको अखण्ड एक द्रव्य क्यों स्वीकार नहीं किया-समाधान करते हए लिखा है कि १. मुख्य काल अनेक हैं । कारण कि प्रत्येक आकाशके प्रदेशोंमें व्यवहार काल भिन्न-भिन्न रीतिसे होता है, क्योंकि कुरुक्षेत्र लंकाके आकाशप्रदेशोंमें दिन आदिका भेद व्यवहारकालके भिन्न-भिन्न हुए बिना बन नहीं सकता।' २. 'यदि कालको सर्वथा निरवयव अखण्ड एक ही मान लिया जाय तो कालमें अतीतादि व्यवहार नहीं बन सकेगा।' इससे कालद्रव्य अनेक सिद्ध होते हैं । जो समयरूप ही निश्चयकाल है उससे भिन्न कोई अणुरूप काल द्रव्य नहीं, ऐसा मानते हैं उनका समाधान करते हुए गुरुजी कहते हैं कि 'जो समय है वह उत्पन्न-प्रध्वंसी होनेसे पर्याय है और जो पर्याय होती हैं वह द्रव्यके बिना नहीं होती', अतएव अणुरूप कालद्रव्यकी सिद्धि होती है । Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : ४८१ समय आदिको पुद्गल द्रव्यका परिणाम मानना चाहिए, ऐसा प्रश्न होनेपर गुरुजीका कहना है कि यदि समय, सेकंड आदि पुद्गल द्रव्यके परिणाम माने जाते हैं तो उन्हें, जैसे मिट्टीसे बना हुआ घट मिट्टीरूप अनुभव में आता है उसी प्रकार पुद्गलरूप अनुभवमें आना चाहिए। यतः ये पुद्गलरूप अनुभवमें नहीं आते, अतः इन्हें पुद्गलरूप मानना उचित नहीं। किन्तु इन्हें स्वतन्त्र द्रव्यका ही परिणाम मानना चाहिए और वह स्वतन्त्र द्रव्य कालाणु ही है। दूसरे जैसे बिल्ली आदिमें मुख्य सिंहके बिना सिंह व्यवहार नहीं किया जा सकता वैसे ही मुख्य काल द्रव्यको स्वीकार किये बिना काल यह व्यवहार नहीं बनता। इस हेतुसे भी काल द्रव्यके अस्तित्वकी सिद्धि होती है। इस प्रकार अनेक तर्कों और आगमप्रमाणोंसे मुख्य कालद्रव्यकी सिद्धि करके गुरुजीने परिणाम, परत्व, अपरत्व और क्रिया इनके द्वारा व्यवहारकालका ज्ञान कराया है। तदनन्तर उत्सर्पिणी-आदि कालोंके भेद और उनका प्रमाण बतलाते हुए कहाँ कौन काल प्रवर्तता है इत्यादि विशेष विचार कर यह अधिकार समाप्त किया है। आठवाँ अधिकार है-सृष्टिकर्तृत्वमीमांसा (पृ० २०९ से २३८ तक)। इस अधिकारको प्रारम्भ करनेके पूर्व गुरुजीने 'परमागमस्य बीजं' इत्यादि श्लोक उद्धृतकर 'अनेकान्त' को नमस्कार किया है। अनन्तर प्रश्नोत्तररूपसे लोक क्या है, द्रव्यका सामान्य विशेष लक्षण क्या है इत्यादि प्रश्नोंका समाधान करते हुए ईश्वरका अर्थ क्या है इस प्रश्नका मुक्तात्मा ही ईश्वर है यह उत्तर देकर सृष्टि कर्ताके रूपमें अनेक तर्कों द्वारा ईश्वरका निषेध किया है। सर्व प्रथम ईश्वर सृष्टिका उपादान तो हो नहीं सकता इस तथ्यका समर्थन किया है। उसके बाद उसे लोक निर्माणका निमित्तकर्ता स्वीकार करनेपर जो-जो आपत्तियाँ आती हैं उनका निर्देश किया है। प्रथम आपत्ति उपस्थित करते हुए बतलाया है कि जिस प्रकार लोकमें घटादि कार्योंके कुम्भकारादि निमित्त कर्ता देखे जाते हैं उस प्रकार मेघवृष्टि और घासादिकी उत्पत्ति आदि कार्योंके कुम्भकारादिके समान कोई निमित्तकर्ता नहीं देखे जाते, अतः सृष्टिकर्ताके रूपमें ईश्वरकी सत्ता स्वीकार करने में कोई स्वारस्य नहीं है। यहाँ ईश्वरवादियोंका कहना है कि जितने भी कार्य है वे सब सुव्यवस्थित देखे जाते हैं, अतः उनका कोई बुद्धिमान कर्ता अवश्य होना चाहिए और वह बुद्धिमान् ईश्वरके सिवाय अन्य दूसरा नहीं हो सकता। इसका समाधान करते हुए गुरुजीका कहना है कि लोकरूप कार्यको सुव्यवस्थित मानना यह कोरी कल्पना है, क्योंकि लोकमें अच्छे-बुरे सब प्रकारके कार्य देखे जाते हैं । यदि सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान् और बुद्धिमान् कोई इस लोकका कर्ता होता तो उसमें यह विचित्रता नहीं दिखाई देती । इस विचित्रताका कारण भले बुरे कर्मोको मानना भी उचित नहीं है, क्योंकि वे भी कार्य हैं जो उक्त विशेषणोंसे विशिष्ट कर्ताक स्वीकार करनेपर दो प्रकारके बन ही नहीं सकते । दुसरे कार्य-कारणभाव और अन्वय-व्यतिरेक इन दोनोंमें गम्य-गमक अर्थात् व्याप्य-व्यापक सम्बन्ध है। इसके अनुसार ईश्वरको यदि लोक (स ष्टि) का कर्ता स्वीकार किया जाता है तो उनमें अन्वय-व्यतिरेक बनना चाहिए । परन्तु ईश्वरका लोकके साथ क्षेत्र और कालरूप दोनों प्रकारका व्यतिरेक नहीं बनता, इसलिए भी ईश्वरको लोकका कर्ता मानना उचित नहीं है । तीसरे 'पृथिवी आदिक बुद्धिमत्कर्तृक हैं, कार्य हो नेसे, घटादिकके समान । इस अनुमितिमें जो कार्यत्व हेतु है उसके चार अर्थ हो सकते है-१. सावयवत्व, २-प्राक् असत् पदार्थके स्वकारणसत्ता समवाय, Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८२ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ ३ – 'कृत' ऐसी बुद्धिका विषय और ४ - विकारीपना । किन्तु इनका सांगोपांग विचार करनेपर कार्यत्वहेतुसे बुद्धिमान् कर्ताकी सिद्धि नहीं हो सकती । विशेष ऊहापोहके लिए पृ० २२१ से २२५ तक देखिए । इस प्रकार गुरुजी ने 'ईश्वर सृष्टिका कर्त्ता है' इस मतका बड़ी सशक्त युक्तियों द्वारा खण्डन करके इस अधिकारको समाप्त करते हुए अन्त में सृष्टिकर्तृत्व धर्मसे शून्य देव ही आदर करने योग्य बतलाया है । मूल्याङ्कन जैन-सिद्धान्त दर्पण उक्त विषय विवेचनसे स्पष्ट है कि गुरुजीने तत्त्वार्थराजवार्तिक, सर्वार्थसिद्धि, प्रमेयकमलमार्त्तण्ड, अष्टसहस्री, गोम्मटसार लब्धिसार, समयसार और प्रवचनसार प्रभृति आर्ष ग्रन्थोंके आधारपर उक्त ग्रन्थका प्रणयन किया है। बड़े-बड़े गम्भीर सैद्धान्तिक विषयों को हिन्दी भाषा द्वारा सरलरूपमें प्रस्तुत कर अपनी मौलिकताका परिचय दिया है । प्राचीन भाषाओंसे अनभिज्ञ व्यक्ति भी इस ग्रन्थके अध्ययनसे सैद्धान्तिक विषयोंका पाण्डित्य प्राप्त कर सकता । मौलिकता सम्बन्धी मूल्यांकनको दृष्टिसे इस ग्रन्थकी तुलना आचार्यकल्प पण्डित टोडरमलजी के 'मोक्षमार्गप्रकाश' से की जा सकती है । अतः जितना मौलिक मूल्य 'मोक्षमार्ग प्रकाश' का है, उतना ही मौलिक 'जैन सिद्धान्तदर्पण' का भी । टोडरमलजीने अनेक आर्ष ग्रन्थोंका अध्ययनकर विषय सामग्रीको स्वायत्त किया और मोक्षमार्ग सम्बन्धी निश्चित एवं व्यवहारनयोंकी यथार्थ रूपमें विवेचनकर विषय-सामग्रीको नये रूपमें प्रस्तुत किया। उनका यह कार्य श्रुतपरम्परा के इतिहास में एक नयी कड़ीके रूपमें माना जा सकता है। इसी प्रकार गुरुजीने भी जैनागमके अनेक ग्रन्थोंसे आधारभूत सामग्री ग्रहणकर 'जैन सिद्धान्तदर्पण' की रचनाकर अपनी मौलिकताका मानदण्ड स्थापित किया है । प्रतिपादन और ग्रथनशैली गुरुजीकी अपनी है । 'नद्या नव घटे जलम्' के समान उनका यह ग्रन्थ मौलिक है तथा श्रुताध्ययनके लिए इसका मूल्य किसी भी प्राचीन या अर्वाचीन ग्रन्थसे कम नहीं है । एक लम्बे समयतक अनेक ग्रन्थोंके अध्ययनसे जिन विषयोंका ज्ञान प्राप्त किया जायगा, उन विषयोंका पाण्डित्य गुरुजीके अकेले 'जैन सिद्धान्त दर्पण' के अध्ययनसे प्राप्त किया जा सकता है । अतः पाण्डित्य प्राप्तिकी दृष्टिसे भी इस ग्रन्थका मूल्य कम नहीं है । यहाँ इस बातका स्पष्टीकरण कर देना भी आवश्यक है कि यह ग्रन्थ किसी अन्य रचनाका अनुवाद नहीं है और न अनेक ग्रन्थोंके महत्त्वपूर्ण अंशोंका अनुवाद कर ही इसका कलेवर घटित किया गया है। बल्कि यह तो उन श्रुतधरोंकी परम्परामें आता है, जो आचार्य परम्परासे प्राप्त विषयभूत सामग्रीको लेकर सर्वजनोपयोगी रचनाएँ निबद्ध करते हैं । जिनकी कृतियोंकी आभा सच्चे मार्ग - माणिक्योंके समान कभी भी कम नहीं होती । जिनका मूल्य शाश्वतिक होता है । प्राचीन कृतियोंमें उत्साहका जो आदर्श और उदात्त रूप वर्तमान है, वही इस रचना में भी निहित हैं । गुरुजीकी यह रचनात्मक प्रक्रिया श्रुतपरम्परामें अभिन्नार्थता प्रस्तुत करनेपर भी नवीन मूल्यों और प्रतिमानोंको स्थापित करती है । उनके चिन्तनके परिवेशमें शास्त्रार्थोंकी गन्ध भी समाविष्ट है और उनके युग के ज्वलन्त प्रश्न 'सृष्टिकर्तृत्व' की मीमांसा भी निहित है। अतः इस कृतिका मूल्यांकन निम्न दृष्टि सूत्रों में उपस्थित किया जा सकता है। १. मौलिकता 'नद्या नवघटे जलम्' के समान । २. विषयभूत सामग्रीकी क्रमबद्धता और गम्भीर विषयोंकी सरलरूपमें प्रतिपादन क्षमता | ३. शास्त्रीय दुरूह विषयोंकी स्पष्टता । ४, तात्त्विक अभिव्यञ्जनाकी बोधगम्यता । Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत् प्ररूपणा (धवला के ९३वें सूत्रमें 'संजद' पद श्री षट्खंडागमके ९३वें सूत्रमें धवलाका संपादनपूर्वक मुद्रण होकर प्रकाशनकी व्यवस्था श्री डा० हीरालालजीकी देखरेख में हो ऐसा निर्णय होनेपर श्री पं० हीरालालजी सि० शास्त्री डाक्टर साहबके आमंत्रण पर अमरावती पहुँच कर इस काममें लग गये। सत्प्ररूपणा प्रथम पुस्तक उन्होंने मय टिप्पणके तैयार कर ली। किन्तु समितिकी ओरसे मुद्रणकी स्वीकृति न मिलने के कारण मुझे इस काम में सहयोग करनेके लिये आमन्त्रित किया गया। मेरे वहाँ पहुँचनेपर मुझसे कहा गया कि आप इसको देखें और इसमें जो कमी हो उसको पूरा करें और चाहें तो अलगसे लिखकर अनुवादकी प्रेस कापी भी तैयार कर लें। डाक्टर साहबकी ओरसे यह सूचना मिलनेपर मैंने पहले लिखे गये अनुवादको सामने रखकर दूसरी बार अनुवादकी प्रेस कापी तैयार की। किन्तु उसमें ९३वें सूत्रका अनुवाद लिखते समय 'संजद' शब्दको न देखकर मैंने दोनों विद्वानोंके सामने इस सूत्रमें 'संजद पद और होना चाहिये यह प्रस्ताव रखा । यद्यपि डा० हीरालालजी प्रकृत विषयसे अनभिज्ञ थे। परन्तु मैं समझता था कि पंडित श्री हीरालालजी सि० शास्त्री मेरे इस प्रस्तावसे सहमत हो जावेंगे। परन्तु मैं अपने प्रस्तावमें उनकी सहमति प्राप्त न कर सका। परिणाम स्वरूप टिप्पणमें 'अत्र संयत इति पाठशेषः प्रतिभाति' यह टिप्पणी देनी पड़ी। फिर भी मैंने अपने अनुवादमें उस पदकी आवश्यकता समझ कर 'संयत' पद जोड़ दिया और इसकी चर्चा दूसरे सहयोगी विद्वानोंसे नहीं की। जैसाकि मैंने पूर्वमें संकेत किया है, दसरी बार प्रेसकापी तैयार हो जानेपर भी प्रबन्ध समितिसे मुद्रणकी स्वीकृति कैसे ली जाय इसके लिये मैंने डाक्टर साहबके सामने दूसरा यह प्रस्ताव रखा कि यदि आप स्वीकार करें तो हम दोनों द्वारा तैयार किये गये इस अनुवादको १०-१५ दिनमें कारंजा जाकर आ० पं० देवकीनंदनजी सि० शास्त्रीको दिखलाया करेंगे । डाक्टर साहबने मेरे इस प्रस्तावको सहज ही स्वीकार कर लिया। इसलिये मैं १०-१५ दिनमें कारंजा जाकर पण्डितजीको पूरा अनुवाद पढ़कर सुनाता रहा । चर्चा द्वारा जो संशोधन प्राप्त होते थे उनके अनुसार अनुवादमें संशोधन भी करता जाता था और इसप्रकार संशोधित प्रेस कापीको प्रेसमें मुद्रणके लिये दे दिया गया ऐसा करनेसे मुद्रणके लिये प्रबन्ध समितिकी भी स्वीकृति आसानीसे मिल गयी। यतः प्रूफ देखनेका कार्य स्वेच्छासे मैं ही करता रहा, इसलिये मैंने ९३वें सूत्रके मूल पाठको तो वैसा रहने दिया, किन्तु अनुवादमें 'संजद' पद जोड़ दिया। यही कारण है कि प्रथम संस्करणके ९३३ सूत्रमें 'संजद' पद नहीं है, किन्तु उसके अनुवादमें 'संजद' पद जोड़ा हुआ है । पहले बारके प्रकाशनमें देखेंगे कि सूत्रमें 'संजद' पद नहीं रखा गया है। किन्तु उसके अनुवादमें 'संजद' पद रख दिया गया है । पहले बारके मुद्रित ग्रन्थमें मूल सूत्र और उसका अनुवाद इस प्रकार मुद्रित हुआ है___सम्मामिच्छाइट्ठि असंजदसम्माइट्ठि-संजदासंजदठ्ठाणे णियमा पज्जत्तियाओ ॥१३॥ __ अनुवाद-मनुष्यस्त्रियां सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत और संयत गुणस्थानोंमें नियमसे पर्याप्तक होती हैं ।।९३॥ Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८४ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-प्रन्थ इस प्रकार हम देखते हैं कि मूल सूत्रमें 'संयत' पदके न होनेसे यही सूत्र मुख्यरूपसे विवादका विषय बन गया। एक पक्षका, जिसमें स्व. पं० मक्खनलालजी न्यायालंकार मुख्य थे, कहना था कि यह सूत्र द्रव्यमार्गणाकी अपेक्षा लिखा गया है, इसलिये इसमें 'संयत' पद नहीं होना चाहिये, क्योंकि आगममें द्रव्य मनुष्य स्त्रियोंके पाँच ही गुणस्थान बतलाये गये हैं। किन्तु यह वस्तुस्थिति नहीं है क्योंकि सभी गुणस्थानोंमें और सभी मार्गणाओंमें जीवोंके भेदोंकी ही प्ररूपणा आगममें दृष्टिगोचर होती है इसलिये इस सत्रमें भाववेदकी अपेक्षा मनुष्यिनियोंकी अपेक्षा ही गुणस्थानोंकी प्ररूपणा की गयी है इसलिये इस सूत्रमें 'संयत' पद अवश्य होना चाहिये। किन्तु स्व० श्री पं० मक्खनलालजी साहब और उनके सहयोगी विद्वान् इसके लिये तैयार नहीं हुए। इसके लिये बंबई समाजकी ओरसे दोनों पक्षों के विद्वानोंको बुलाकर चर्चा करनेका प्रस्ताव रखा गया । फलतः बंबई समाजके आमंत्रणपर दोनों पक्षोंके विद्वान् चर्चाके लिये सहमत हो गये। ९३ वें सूत्र में 'संयत' पद होना चाहिये इस पक्षके विद्वानोंमें स्व. श्री पं० बंशीधरजी न्यायालंकार, श्री पं० कैलाशचंदजी सि० शास्त्री और मुझे आमंत्रित किया गया था तथा ९३ वें सूत्रमें 'संयत' पद नहीं होना चाहिये इस पक्षके विद्वानोंमें स्व. श्री पं० मक्खनलालजी न्यायालंकार, स्व० श्री पं० बलराम प्रसादजी शास्त्री और स्व० श्री क्षु० सूरसिंघजीको आमंत्रित किया गया था । नियत समयपर दोनों पक्षके विद्वान् आये, चर्चा प्रारंभ होकर तीन दिन तक चली। स्व० श्री पं० मक्खनलालजी अपने पक्षकी ओरसे अपने पक्षको एक कापीमें लिखकर प्रस्तुत करते रहे और मैं अपने पक्षकी ओरसे लिखित उत्तर देता रहा। इस प्रकार तीन दिन तक लिखित चर्चा चलती रही। किन्तु अन्तमें उस पक्षके विद्वानोंने लिखित चर्चाकी कापीको अपने पास रख लिया और समाजसे यह घोषणा करा दी कि समाजने यह सम्मेलन तीन दिनके लिये बुलाया था। तीन दिन पूरे हो गये हैं आगे यह चर्चा बन्द की जाती है । फिर भी अखबारी दुनियामें यह चर्चा चलती रही इसलिये स्व० श्री पं० मक्खनलालजी प्रभृति विद्वानोंने श्री १०८ आचार्य शांतिसागरजीसे मिलकर यह घोषणा करा दी कि ९३ वें सूत्र में द्रव्यदका प्रकरण है इसलिये इसमें 'संजद' पद नहीं होना चाहिये । किन्तु जहाँ तक आगमका सम्बन्ध है उसमें गतिनामकर्मको जीव विपाकी कहा गया है । और गतिनामकर्मके उदयसे ही मनुष्यादि गतियोंकी उत्पत्ति होती है। जैसाकि मनुष्यगतिकी अपेक्षा निर्देश करते हए वर्गणा खण्डमें लिखा भी है मणुसगदीए मणुसो णाम कधं भवदि ॥८॥ मणुसगदिणामाए उदएण ॥९॥ मनुष्यगतिकी अपेक्षा मनुष्य किस कारणसे होता है ॥८॥ मनुष्यगति नामकर्मके उदयसे जीव मनुष्य होता है ॥९॥ यह वर्गणाखण्डके दो सूत्रोंका अभिप्राय है । ये गुणस्थान और मार्गणास्थान जीवोंके भेद प्रभेद है । इसलिये इनमें द्रव्यमार्गणाका ग्रहण न होकर भावमार्गणाओंका ही ग्रहण किया गया है ऐसा यहाँ समझना चाहिये । ___ इतना सब स्पष्ट होते हुए भी स्व० श्री पं० मक्खनलालजी अपने आग्रहपर जमे रहे। उनके सहयोगी विद्वान् स्व० पं० श्री पन्नालालजी सोनीने अपने निबन्धों द्वारा ९३ वें सूत्रमें संयत' पद अवश्य चाहिये अन्यथा पूरा जिनागम खंडित हो जापगा । फिर भी पं० मक्खनलालजीने अपना आग्रह नहीं छोड़ा । वे इतना Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : ४८५ करके ही चुप नहीं रह गये किन्तु ताडपत्रीय प्रतियोंके आधारसे जो ताम्रपत्र प्रति तैयार की गयी, उसके ९३ वें सत्रमें भी श्री आ० शान्तिसागरजी महाराजको प्रेरणाकर ९३ वें सूत्रका 'संयत' पदसे रहित ही अंकन कराया। इसी बीच सागरमें विद्वत्परिषद्की कार्यकारिणीकी बैठक हो रही थी उसमें पू० श्री बड़े वर्णीजी-बाबा और आ० स्व. श्री पं० देवकीनंदनजी साहब भी पधारे हए थे। समस्या कठिन थी। 'संजद' पदके विषयमें निर्णयकी पद्धति क्या हो इस विषयमें ऊहापोह चल ही रहा था। विविध विद्वानोंके विविध मत आ रहे थे। इसी बीच श्रद्धेय स्व० पं० देवकीनंदजी साहबको आवश्यक कार्यवश कारंजा जाना था इसलिये मैं उन्हें स्टेशन तक पहुँचानेके लिये चला गया। अन्तमें मैंने पंडितजीसे पूछा कि 'इस विषयका निर्णय किस प्रकार लिया जाय । अनुभवी पंडितजीने बतलाया कि विद्वत्परिषद्का स्थल शंका समाधानके रूपमें निर्णय करनेका नहीं है किन्तु 'संजद' पद चाहिये अथवा नहीं चाहिये इस विषयमें ऊहापोह पूर्वक एक प्रस्ताव द्वारा अपना मन्तव्य प्रगट करनेका है। पंडितजी तो कारंजा चले गये, किन्तु वहाँसे आकर हमने इसी अभिप्रायको ध्यानमें रखकर 'संजद' पदके पक्षमें विविध प्रमाणोंके प्रकाशमें एक भाषण द्वारा अपना अभिमत व्यक्त किया। साथ ही विविध विद्वानोंकी ओरसे जो शंकायें आयीं उनका समाधान भी किया। इसलिये इस आधारपर विद्वत्परिषदने सतप्ररूपणाके ९३ वें सूत्रमें 'संजद' पद नियमसे होना चाहिए इस आशयका सर्वानुमतिसे एक प्रस्ताव पास किया । उस समय मेरा वह भाषण इतना प्रभावोत्पादक बन गया जिसकी इन शब्दोंमें पू० श्री बड़े वर्णीजीने अपनी 'मेरी जीवन गाथा' प्रथम भाग पृ० ५४६ पर उल्लेख किया है "इन्हीं चार दिनोंमें विद्वत्परिषदकी कार्यकारिणीकी बैठक हुई। 'संजद' पदकी चर्चा हुई, जिसमें श्री पं० फूलचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्रीका तेरानवें सूत्रमें 'संजद' पदकी आवश्यकतापर मार्मिक भाषण हुआ और उन्होंने सबकी शंकाओंका समाधान भी किया। इसमें श्री पं० वर्द्धमानजी सोलापुरने अच्छा भाग लिया था। अन्तमें सब विद्वानोंने मिलकर निर्णय दिया कि धवल सिद्धान्तके तेरानवें सत्रमें 'संजद' पदका होना आवश्यक है।" विद्वतपरिषदका प्रस्ताव “फाल्गुन शुक्ल ३ वीर निर्वाण संवत २४७६ को गजपन्थामें आचार्य श्री १०८ शांतिसागरजी महाराज द्वारा की गई जीवस्थान प्ररूपणाके ९३ वें सूत्रसे ताडपत्रीय मूल प्रतिमें उपलब्ध 'संजद' निष्कासनकी घोषणापर विचार करनेके बाद भारतवर्षीय दि० विद्वत्परिषद्की यह कार्यकारिणी जून सन् ४० में सागर आयोजित विद्वत् सम्मेलनके अपने निर्णयको दुहराती है तथा इस प्रकारसे ताम्रपत्रीय एवं मुद्रित प्रतियोंमें 'संजद' पद निष्कासनकी पद्धतिसे अपनी असहमति प्रकट करती है ।" इस प्रकार यद्यपि तेरानवें सूत्रमें 'संजद' पदकी आवश्यकतापर विद्वत्परिषदने अपनी मोहर लगा दी फिर भी स्व० श्री पं० मक्खनलालजीके परिकर द्वारा इस विवादको जीवित बनाये रखा गया। इसलिये इटावामें विद्वत्परिषदके अधिवेशनके समय उसने तेरानवें सूत्रमें 'संजद' पद होना चाहिये इस आशयका एक प्रस्ताव पुनः पास किया। इसप्रकार पुनः पुनः विधिनिषेध रूपसे इस चर्चाके चालू रहनेपर अन्तमें आ० श्री १०८ शांतिसागरजी महाराजने दोनों पक्षोंके विचारोंका और प्रमाणोंका अध्ययन करके अन्तमें अपने पूर्व वक्तव्यको वापिस लेते हए पूरे विद्वत् समाजकी जानकारीके लिये मराठीमें जो अभिमत व्यक्त किया वह इस प्रकार है Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८६ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ "पण 'संजद' शब्द सूत्रांत नाहीं वहें मूल द्रव्यस्त्रीचे वर्शन करणोर आहे ही खात्री महाराजांची झासी होती". यानंतर महाराज कुंथलगिरि क्षेत्रावर गेले व तेथे त्यानी सल्लेखना धारणकेली. त्यावेळी त्यांची सेवा शुश्रुषा करण्याच्या हेतुमें परम आचार्यभक्त ब्र० धर्मनिष्ठ श्री बालचन्द्र सखाराम गांधी हेतेथें सकूटम्ब गेले होते. आचार्य महाराजांचे अन्तिम दर्शनघेण्यासाठी मीही ब्र० श्री जीवराज गौतमचंददोषी यांच्या बरोबर गेलो होतो. मूलाआचार्य महाराजांचे अन्तिमदर्शन घेण्याची तीव्र उत्कण्ठा होती पणमळी त्यांच्या जवळ जाव्यास लोक प्रतिबन्ध करीत होते. श्रीब्र गुलाबचंदजींना महाराजांचे दर्शन घेण्याची माझी तीव्र उत्कण्ठा सांगितली तेव्हां त्यांनी मला एके दिवशी आचार्य महाराजांचे दर्शन घेण्या साठी नेले. महाराजांना दिसत नसत्या मलें आवाज ऐकून कोण आह असा प्रश्न केल. मी विनयाने वंदन करून माझें नांव सांगितले. त्यावेळी आचार्य महाराज 'अरे जिनदास धवलांतील २३ वें सूत्र भावस्त्रीचे वर्णन करणार आहे व तेथे 'संजद' शब्द अवश्य पाहिजे असे वाटते. हे परमपूज्य महाराजांचे वचन ऐकुन महाराजांच्या सत्यान्वेषी व निराग्रह वत्तीबद्दल मला व श्री ब्र० गुलाबचंदजीना फार आनन्द वाहला. श्रीमान ब्र० गुलाबचंदयांनी अशी सूचना केली आहे. ताम्रपत्रांतील ४०० बात्या सूत्रांत संजद शब्द अवश्य जोडावी. जिनदास पार्श्वनाथ फडकुले गुलाबचंद सखाराम गांधी' ता० २२-७-७९ 000000 000000 DMRAAMADOI Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका प्रकरण : एक विवेचनात्मक अध्ययन परिभाषा - जैनदर्शन में पुद्गल द्रव्यकी अनेक प्रकारको वर्गणाएँ बतलाई हैं । इनमेंसे औदारिक शरीर वर्गणा, वैक्रिय शरीर वर्गणा, आहारक शरीर वर्गणा, तैजस वर्गणा, भाषा वर्गणा, श्वासोच्छ्वास वर्गणा, मनोवर्गणा और कार्मण वर्गणा इन वर्गणाओं को संसारी जीवद्वारा ग्राह्य माना गया है । संसारी जीव इन वर्गणाओंको ग्रहण करके विभिन्न शरीर वचन और मन आदिकी रचना करता है । इनमें से प्रारम्भकी तीन वर्गणाओंसे औदारिक, वैक्रिय और आहारक इन तीन शरीरोंकी रचना होती है । तैजस वर्गणाओंसे तैजस शरीर बनता है । भाषा वर्गणाएँ विविध प्रकारके शब्दोंका आकार धारणा करती हैं । श्वासोच्छ्वास वर्गणा श्वासोच्छ्वासके काम आती है । हिताहित के विचार में साहाय्य करनेवाले द्रव्यमनकी रचना मनोवर्गणाओंसे होती है । और ज्ञानावरणादि आठ प्रकार के कर्म कार्मण वर्गणाओंसे बनते हैं । इन सबमें कर्म संसारका मूल कारण माना गया है । वैदिक साहित्यमें जिसका लिंग शरीररूपसे उल्लेख किया गया है वह ही जैनदर्शनमें कर्मशब्द द्वारा पुकारा जाता है । वैसे तो संसारी जीवकी प्रतिक्षण जो राग, द्वेष आदि रूप परिणति हो रही है उसकी कर्म संज्ञा है । कर्मका अर्थ किया है, यह अर्थ जीवकी राग-द्वेषरूप परिणतिमें अच्छी तरह घटित होता है । इसलिए इसे ही कर्म कहा गया है, क्योंकि अपनी इस परिणतिके कारण ही जीवकी दीन दशा हो रही है । पर आत्माकी इस परिणतिके कारण कार्मण नामवाले पुद्गलरज आकर आत्मासे सम्बद्ध हो जाते हैं और कालान्तर में वे वैसी परिणति के होने में निमित्ति होते हैं, इसलिए इन्हें भी कर्म कहा जाता है । इन ज्ञानावरणादि कर्मो के साथ संसारीजीवका एक क्षेत्रावगाही सम्बन्ध है जिससे जीव और कर्मका विवेक करना कठिन हो गया है । लक्षणभेदसे ही ये जाने जा सकते हैं । जीवका लक्षण चेतना अर्थात् ज्ञान दर्शन है और कर्मका लक्षण जड़ अचेतन है । इस प्रकारके कर्मका जिस साहित्य में सांगोपांग विचार किया गया उसे कर्मसाहित्य कहते हैं । अन्य आस्तिक दर्शनोंने भी कर्मके अस्तित्वको स्वीकार किया है । किन्तु उनकी अपेक्षा जैन दर्शनमें इस विषयका विस्तृत और स्वतन्त्र वर्णन पाया जाता है । इस विषयके वर्णनने जैन साहित्य के बहुत बड़े भागको रोक रखा है । मूल कर्म साहित्य - भगवान महावीरके उपदेशोंका संकलन करते समय कर्मसाहित्यकी स्वतंत्र संकलन की गई थी । गणधरोंने ( पट्टशिष्योंने) समस्त उपदेशोंको बारह अङ्गों में विभाजित किया था । इनमें से दृष्टिवाद नामक बारहवाँ अङ्ग बहुत विशाल था । इसके परिकर्म, सूत्र प्रथमानुयोग, पूर्वंगत और चूलिका ये पाँच भेद थे। इनमेंसे पूर्वगत के चौदह भेद थे, जिनमें से आठवें भेदका नाम कर्मप्रवाद था । कर्मविषयक साहित्यका इसी में संकलन किया गया था । इसके सिवा अग्रायणीय और ज्ञानप्रवाद इन दो पूर्वोमें भी प्रसंगसे कर्मका वर्णन किया गया था । पूर्वगत कर्म साहित्य ह्रासका इतिहास - किन्तु धीरे-धीरे कालदोषसे पूर्व साहित्य नष्ट होने लगा । भगवान् महावीरके मोक्ष जानेके बाद जो अनुबद्ध केवली और श्रुतकेवली हुए उन तक अंग-पूर्वसम्बन्धी १. गोम्मटसार जीवकाण्डमें २३ प्रकारको वर्गणाएँ बतलाई हैं । उनमेंसे आहार वर्गणा, मनोवर्गणा और कार्मण वर्गणा ये संसारी जीवद्वारा प्राह्य मानी गई हैं । Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८८ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ । ज्ञान व्यवस्थित चला आया, किन्तु इसके बाद इसकी यथावत् परम्परा न चल सकी । धीरे-धीरे लोग इसे भूलने लगे और इस प्रकार मूल साहित्यका बहुत बड़ा भाग नष्ट हो गया ऊपर हम मूलभूत जिस कर्म साहित्यका उल्लेख कर आये हैं उसमेंसे कर्मप्रवादका तो लोप हो ही गया । केवल अग्रायणीय पूर्व और ज्ञानप्रवाद पूर्वका कुछ अंश बच रहा । तब श्रुतधारक ऋषियोंको यह चिन्ता हुई कि पूर्व साहित्यका जो भी हिस्सा शेष है उसका संकलन हो जाना चाहिये । इस चिन्ताका पता उस कथा से लगता है जो घवला प्रथम पुस्तकमें निबद्ध है । श्वेताम्बर परम्परा में प्रचलित अंग साहित्यके संकलन के लिये जिन तीन वाचनाओंका उल्लेख मिलता है वे भी इसी बातकी द्योतक हैं । वर्तमान मूल कर्मसाहित्य और उसकी संकलनका आधार - अबतक जो भी प्रमाण मिले हैं उनके आधारसे यह कहा जा सकता है कि कर्मसाहित्य व जीवसाहित्यके संकलनमें श्रुतधर ऋषियोंकी उक्त चिन्ता ही विशेष सहायक हुई थी । वर्तमानमें दोनों परम्पराओंमें जो भी कर्मविषयक मूल साहित्य उपलब्ध होता है। वह इसीका फल है । आग्रयणीय पूर्वकी पांचवीं वस्तुके चौथे प्राभृतके आधारसे षट्खण्डागम, कर्मप्रकृति, शतक और सप्ततिका इन ग्रन्थोंका संकलन हुआ था और ज्ञानप्रवाद पूर्वकी दसवीं वस्तुके तीसरे प्राभृतके आधारसे कषायप्राभृतका संकलन हुआ था । इनमेंसे कर्मप्रकृति यह ग्रन्थ श्वेताम्बर परम्परामें माना जाता है। कषायप्राभृत और षट्खण्डागम ये दो दिगम्बर परम्परा में माने जाते हैं । तथा कुछ पाठ भेदके साथ शतक और सप्ततिका ये दो ग्रन्थ दोनों परम्पराओंमें माने जाते हैं । जैसे इस साहित्यको पूर्व साहित्यका उत्तराधिकार प्राप्त है वैसे ही यह शेष कर्मसाहित्यका आदि स्रोत भी है । आगे टीका, टिप्पणी व संकलन रूप जितना भी कर्मसाहित्य लिखा गया है उसका जनक उपर्युक्त साहित्य ही है । मूल साहित्य में सप्ततिकाका स्थान जैसा कि हम पहले बतला आये हैं कि वर्तमान में ऐसे पाँच ग्रन्थ माने गये हैं जिन्हें कर्मविषयक मूल साहित्य कहा जा सकता है। उनमें एक ग्रन्थ सप्ततिका भी है । सप्ततिका अनेक स्थलोंपर मतभेदोंका निर्देश किया है । एक मतभेद' उदयविकल्प और पदवृन्दोंकी संख्या बतलाते समय आया है और दूसरा मतभेद अयोगिकेवली गुणस्थान में नामकर्मकी कितनी प्रकृतियोंका सत्त्व होता है इस सिलसिले में आया है । इससे ज्ञात होता है कि जब कर्मविषयक अनेक मतान्तर प्रचलित हो गये थे तब इसकी रचना हुई होगी । - तथापि इसकी प्रथम गाथामें इसे दृष्टिवाद करते हुए सभी टीकाकार अग्रायणीय पूर्वकी पाँचवीं इसकी मूल साहित्य में परिगणना की गई है । सप्ततिकाकी थोड़ी सी गाथाओं में कर्मसाहित्यका समग्र निचोड़ भर दिया है। इस हिसाब से जब हम विचार करते हैं तो इसे मूल साहित्य कहनेके लिए ही जी चाहता है । २. सप्ततिका व उसकी टीकाएँ अंगकी एक बूँदके समान बतलाया है और इसकी टीका वस्तुके चौथे प्राभृतसे इसकी उत्पत्ति मानते हैं, इसलिए नाम -- प्रस्तुत ग्रन्थका नाम सप्ततिका है । गाथाओं या श्लोकोंकी संख्या के आधारसे ग्रन्थका नाम रखने की परिपाटी प्राचीन कालसे चली आ रही | सप्ततिका यह नाम इसी आधारसे रखा गया जान पड़ता है । इसे षष्ठ कर्मग्रन्थ भी कहते हैं। इसका कारण यह है कि वर्तमानमें कर्म ग्रन्थोंको जिस क्रमसे गणना की जाती है उसके अनुसार इसका छठा नम्बर लगता है । १. देखो गाथा १९-२० व उनकी टीका । २, देखो गाथा ६६-६७ पृ० ६८ । Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : ४८९ गाथासंख्या --- प्रस्तुत ग्रन्थका सप्ततिका यह नाम यद्यपि गाथाओंकी संख्याके आधारसे रखा गया है तथापि इसकी गाथाओंकी संख्याके विषय में मतभेद है । अबतक हमारे देखने में जितने संस्करण आये हैं उन सबमें इसकी गाथाओंकी अलग-अलग संख्या दी गई है । श्री जैन श्रेयस्कर मण्डलकी ओरसे इसका एक संस्करण म्हेसाणासे प्रकाशित हुआ है, उसमें इसकी गाथाओंकी संख्या ९१ दी गई है । प्रकरण रत्नाकर चौथा भाग बम्बई से प्रकाशित हुआ है, उसमें इसकी गाथाओंकी संख्या ९४ दी गई | आचार्य मलयगिरिकी टीकाके साथ इसका एक संस्करण श्री आत्मानन्द जैन ग्रन्थमालासे प्रकाशित हुआ है, उसमें इसकी गाथाओंकी संग ७२ दी गई है । और चूर्णिके साथ इसका एक संस्करण श्री ज्ञानमन्दिर डभोईसे प्रकाशित हुआ है, उसमें इसकी गाथाओंकी संख्या' ७१ दी गई है । इसके अतिरिक्त ज्ञानमन्दिर डभोईसे प्रकाशित होने वाले संस्करण में जिन तीन मूल गाथा प्रतियोंका परिचय दिया गया है उनके आधारसे इसकी गाथाओंकी संख्या ९१, ९२ और ९३ प्राप्त होती है । अब देखना यह है कि इसकी गाथाओंकी संख्यांके विषय में इतना मतभेद क्यों है । छानबीन करने के बाद मुझे इसके निम्नलिखित तीन कारण ज्ञात हुए हैं । १. लेखकों या गुजराती टीकाकारों द्वारा अन्तर्भान गाथाओंका मूल गाथा रूपसे स्वीकार किया जाना । २. दिगम्बर परम्परामें प्रचलित सप्ततिकाकी कतिपय गाथाओं का मूल गाथारूपसे स्वीकार किया जाना । ३. प्रकरणोपयोगी अन्य गाथाओं का मूल गाथारूपसे स्वीकार किया जाना । जिन प्रतियों में गाथाओं की संख्या ९१, ९२, ९३ या ९४ दी है उनमें दस अन्तर्भाष्य गाथाएँ, दिगम्बर परम्परामें प्रचलित सप्ततिकाकी पाँच गाथाएँ और शेष प्रकरणसम्बन्धी अन्य गाथाएँ सम्मिलित हो गई हैं । इससे गाथाओंकी संख्या अधिक बढ़ गई है । यदि इन गाथाओंको अलग कर दिया जाता है तो इसकी कुल ७२ मूल गाथाएँ रह जाती हैं । इन पर चूर्णि और मलयगिरि आचार्यकी संस्कृत टीका ये दोनों पाई जाती हैं । अतः इस आघारसे मूल गाथाओंकी संख्या ७२ निर्विवाद रूपसे निश्चित होती है। मुनि कल्याणविजयजीने आत्मानन्द जैन ग्रन्थमालासे प्रकाशित होनेवाले ८६ वें रत्न 'शतक और सप्ततिकाकी' प्रस्तावना में इसी आधारको प्रमाण माना है । किन्तु मुक्ताबाई ज्ञानमन्दिर डभोईसे चूर्णिसहित जो सप्ततिका प्रकाशित हुई है उसमें उसके सम्पादक पं. अमृतलालजीने 'चउ पणवीसा सोलस' इत्यादि २५ नम्बरवाली गाथाको मूल गाथा न मानकर सप्ततिकाकी कुल ७१ गाथाएँ मानी हैं उनका इस सम्बन्धमें यह वक्तव्य है 'परन्तु अमोए आ प्रकाशनमां सित्तरीनी ७१ गाथाओज मूल तरीके मानी छे । तेनुं कारण ए छे के उपर्युक्त कर्मग्रन्थ द्वितीय विभागमां 'चउ पणुवीसा सोलस' (गा - २५) ए गाथाने तेना सम्पादक श्री ए मूल गाथा तरीके मानी लीधी छे परन्तु ये गाथाने चूर्णिकारे 'पाढंतर' लखीने पाठान्तर गाथा तरीके निर्देशी छे; एटले 'चउ पणुवीसा सोलस' गाथा मूलनी नथी ए माटे चूर्णिकारनो सचोट पुरावो होवाथी सित्तरी प्रकरणनी १. यह चूर्णि ७१ गाथाओं पर न होकर ८९ गाथाओं पर है । इससे चूर्णिकार के मतसे सप्ततिकाकी गाथाओंकी संख्या ८९ सिद्ध होती है । इसमें अन्तर्भाष्य गाथाएँ भी सम्मिलित हैं । २. देखो प्रस्तावना पष्ठ १२ व १३ । ६२ Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९० : सिद्धान्ताचार्य पं० फलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ ७१ गाथाओं घटित थाय छे । आद्य गाथाने मंगल गाथा तरीके समजवाथी सित्तरीनी सित्तेर गाथाओ थई जाय छ ।' किन्तु इस गाथाके अन्तमें केवल 'पाढंतरं' ऐसा लिखा होनेसे इसे मूल गाथा न मानना युक्त प्रतीत नहीं होता। जब इसपर चणि और आचार्य मलयगिरिकी टीका दोनों है तब इसे मूल गाथा मानना ही उचित प्रतीत होता है । हमने इसी कारण प्रस्तुत संस्करणमें ७२ गाथाएँ स्वीकारकी हैं। इनमेंसे अन्तकी दो गाथाएँ विषयकी समाप्तिके बाद आई है, अतः उनकी गणना नहीं करने पर ग्रन्थका सित्तरी यह नाम सार्थक ठहरता है। ग्रन्थकर्ता-सप्ततिकाके रचयिता कौन थे, अपने पावन जीवनसे किस भूमिको उन्होंने पवित्र किया था, उनके माता-पिता कौन थे, दीक्षागुरु और विद्यागुरु कौन थे, इन सब प्रश्नोंके उत्तर पानेके वर्तमानमें कोई साधन उपलब्ध नहीं है। इस समय सप्ततिका और उसकी दो टीकाएँ हमारे सामने हैं । कर्ताक नाम ठामके निर्णय करने में इनसे किसी प्रकारकी सहायता नहीं मिलती। यद्यपि स्थिति ऐसी है तथापि जब हम शतककी अन्तिम १०४ व १०५ नम्बरवाली गाथाओंसे सप्ततिकाकी मंगल गाथा और अन्तिम गाथाका क्रमशः मिलान करते हैं तो यह स्वीकार करनेको जी चाहता है कि बहुत सम्भव है कि इन दोनों ग्रन्थोंके संकलयिता एक ही आचार्य हों।। जैसे सप्ततिकाकी मंगल गाथामें इस प्रकरणको दृष्टिवाद अंगकी एक बंदके समान बतलाया है वैसे ही शतककी १०४ नम्बरवाली गाथामें भी उसे कर्मप्रवाद श्रुतरूपी सागरकी एक बूंदके समान बतलाया गया है । जैसे सप्ततिकाकी अन्तिम गाथामें ग्रन्थकर्ता अपने लाघवको प्रकट करते हुए लिखते हैं कि 'अल्पज्ञ मैंने त्रुटित रूपसे जो कुछ भी निबद्ध किया है उसे बहुश्रुतके जानकार पूरा करके कथन करें ।' वैसे ही शतककी १०५वीं गाथामें भी उसके कर्ता निर्देश करते हैं कि 'अल्पश्रुतवाले अल्पज्ञ मैंने जो बन्धविधानका सार कहा है उसे बन्ध-मोक्षकी विधिमें निपुण जन पूरा करके कथन करें।' दूसरी गाथाके अनुरूप एक गाथा कर्म प्रकृतिमें भी पाई जाती है। गाथाएँ ये हैं वोच्छं सुण संखेवं नीसंदं दिट्ठिवायस्स ॥१।। सप्ततिका। कम्मप्पवायसुयसागरस्स णिस्संदमेत्ताओ ।।१०४॥ शतक । जो जत्थ अपडिपून्नो अत्थो अप्पागमेण बद्धो त्ति । तं खमिऊण बहुसुया पूरेऊणं परिकहंतु ॥७२॥ सप्ततिका । बंधविहाणसमासो रइओ अप्पसूयमंदमइणा उ । तं बंधमोक्खणिउणा पूरेऊणं परिकहेंति ॥१०५।। शतक । इनमें णिस्संद, अप्पागन, अप्पसुयमंदमइ, पूरेऊणं परिकहंतू ये पद ध्यान देने योग्य है । इन दोनों ग्रन्थोंका यह साम्य अनायास नहीं है। ऐसा साम्य उन्हीं ग्रंथों में देखनेको मिलता है जो या तो एक कर्तृक हों या एक दूसरेके आधारसे लिखे गये हों। बहत सम्भव है कि शतक और सप्ततिका इनके कर्ता एक आचार्य हों। शतककी चुणिमें ' शिवशर्म आचार्यको उसका कर्ता बतलाया है। ये वे ही शिवशर्म प्रतीत होते हैं जो १. केण कयं ति, शब्दतर्कन्यायप्रकरणकर्मप्रकृतिसिद्धान्तविजाणएण अणेगवायसमालद्धविजएण सिवसम्मायरिय णामधेज्जेण कयं, पृ०१। Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : ४९१ कर्मप्रकृतिके कर्ता माने गये हैं। इस हिसाबसे विचार करनेपर कर्मप्रकृति, शतक और सप्ततिका ये तीनों ग्रंथ एक कर्तृत्व सिद्ध होते हैं। किन्तु कर्मप्रकृति और सप्ततिकाका मिलान करने पर ये दोनों एक आचार्यकी कृति हैं यह प्रमाणित नहीं होता, क्योंकि इन दोनों ग्रन्थों में विरुद्ध दो मतोंका प्रतिपादन किया गया है। उदाहरणार्थ-सप्ततिकामें अनन्तानुबन्धी चतुष्कको उपशम प्रकृति बतलाया गया है । किन्तु कर्मप्रकृतिके उपशमना प्रकरणमें 'नंतरकरणं उवसमो वा' यह कहकर अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी उपशमविधि और अन्तरकरण विधिका निषेध किया गया है। इस परसे निम्न तीन प्रश्न उत्पन्न होते हैं १. क्या शिवशर्म नाम के दो आचार्य हुए हैं-एक वे जिन्होंने शतक और सप्ततिकाकी रचनाकी है और दूसरे वे जिन्होंने कर्मक तिकी रचनाकी है ? २. शिवशर्म आचार्यने कर्मप्रकृतिकी रचना की, क्या यह किंवदन्तीमात्र है ? ३. शतक और सप्ततिकाकी कुछ गाथाओंमें समानता देखकर एककर्तृक मानना कहाँ तक उचित है ? यह की सम्भव है कि इनके संकलयिता एक ही आचार्य हो । किन्तु इनका संकलन विभिन्न दो आधारोंसे किया गया हो । जो कुछ भी हो । तत्काल उक्त आधारसे सप्ततिकाके कर्ता शिवशर्म ही हैं ऐसा निश्चित कहना विचारणीय है। एक मान्यता यह मी प्रचलित है कि सप्ततिकाके कर्ता चन्द्रर्षि महत्तर हैं। किन्तु इस मतकी पुष्टिमें कोई सबल प्रमाण नहीं पाया जाता । सप्ततिकाकी मूल ताडपत्रीय प्रतियोंमें निम्नलिखित गाथा पाई जाती है 'गाहग्गं सयरीए चंदमहत्तरमयाणुसारीए । टीगाइ निअमिआणं एगणा होइ नउई ओ॥' इसका आशय है कि चन्द्रर्षि महत्तरके मतका अनुसरण करनेवाली टीकाके आधारसे सप्ततिकाकी गाथाएँ ८९ हैं। किन्तु टवेकारने इसका अर्थ करते समय सप्ततिकाके कर्ताको ही चन्द्रमहत्तर बतलाया है। मालूम पड़ता है कि इसी भ्रमपूर्ण अर्थके कारण सप्ततिकाके कर्ता चन्द्रषिमहत्तर हैं इस भ्रान्तिको जन्म मिला है। प्रस्तुत सप्ततिकाके ऊपर जिस चूणिका उल्लेख हम अनेक बार कर आये है उसमें १० अन्तर्भाष्य गाथाओंको व ७ अन्य गाथाओंको मल गाथाओंमें मिलाकर कुल ८९ गाथाओं पर टीका लिखी गई है। मालूम होता है कि 'गाहग्गं सयरीए' यह गाथा इसी चूर्णिके आधारसे लिखी गई है। इससे दो बातोंका पता लगता है-एक तो यह कि चन्द्रषिमहत्तर उक्त चणि टीकाके ही कर्ता हैं सप्ततिकाके, नहीं और दूसरी यह कि चन्द्र षिमहत्तर इन ८९ गाथाओंको किसी न किसी रूपसे सप्ततिकाकी गाथाएँ मानते थे। ___इस प्रकार यद्यपि चन्द्रर्षिमहत्तर सप्ततिकाके कर्ता हैं इस मतका निरसन हो जाता है तथापि किस महानुभावने इस अपूर्व कृतिको जन्म दिया था इस बातका निश्चयपूर्वक कथन करना कठिन है । बहुत सम्भव है कि शिवशर्म सूरिने ही इसकी रचना की हो। यह भी सम्भव है कि अन्य आचार्य द्वारा इसकी रचनाकी गई हो । रचनाकाल-ग्रन्थकर्ता और रचनाकाल इनका सम्बन्ध है । एकका निर्णय हो जाने पर दूसरेका निर्णय करने में बड़ी सहायता मिलती है। ऊपर हम ग्रन्थकर्ताके विषयमें निर्देश करते समय यह सम्भावना प्रकट कर आये हैं कि या तो शिवशर्मसुरिने इसकी रचना की है या इसके पहले ही यह लिखा गया था। साधारणतः शिवशर्म सूरिका वास्तव्यकाल विक्रमको पाँचवीं शताब्दी माना गया है। इस हिसाबसे विचार करनेपर इसका १. देखो प्रकरण रत्नाकर ४ था भाग, पृ०८६९ । Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्ता , ३७८० ४९२ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ रचनाकाल, विक्रमकी पांचवीं शताब्दी या इससे पूर्ववर्तीकाल ठहरता है । श्री जिनभद्रगणि क्षमाश्रमणने अपनी विशेषणवतीमें अनेक बार मित्तरीका उल्लेख किया है। श्री जिनभद्रगणि क्षमाश्रमणका काल विक्रमकी सातवीं शाताब्दि निश्चित है, अतः पूर्वोक्त कालको यदि आनुमानिक ही मान लिया जाय तब भी इतना तो निश्चित ही है कि विक्रमकी सातवीं शताब्दिके पहले इसकी रचना हो गई थी। इसकी पुष्टि दिगम्बर परम्परामें प्रचलित प्राकृत पंचसंग्रहसे भी होती है। प्राकृत पंचसंग्रहका संकलन विक्रमकी सातवीं शताब्दीके आस-पास हो चुका था । इसमें सप्ततिका संकलित है. अतः इसकी रचना प्राकृत पंचसंग्रहके रचनाकालसे पहले हो गई थी यह निश्चित होता है। टीकाएँ-यहाँ अब सप्ततिकाकी टीकाओंका संक्षेपमें परिचय करा देना आवश्यक प्रतीत होता है। प्रथम कर्मग्रन्थके पृष्ठ १७५ पर श्वेताम्बरीय कर्म विषयक ग्रन्थोंकी एक सूची छपी है। उसमें सप्ततिकाकी अनेक टीका टिप्पनियोंका उल्लेख है । पाठकोंकी जानकारीके लिये आवश्यक संशोधनके साथ हम उसे यहाँ दे रहे हैं । टीका नाम परिमाण रचनाकाल अन्तर्भाष्य गा. गा० १० अज्ञात अज्ञात भाष्य गाथा १९१ अभयदेव सूरि वि. ११-१२वीं श. चूर्णि पत्र १३२ अज्ञात अज्ञात श्लो० २३०० चन्द्रर्षि महत्तर अनु० ७वीं श० वृत्ति मलयगिरि सूरि वि. १२-१३वीं श. भाष्यवृत्ति " ४१५० मेरुतुंग सूरि _ वि.सं. १४४९ टिप्पन , ५७४ रामदेव वि. १२ वी. श. अवचूरि देखो नव्य कर्म गुणरत्न सूरि वि. १५वीं श. ग्रन्थकी अव० इनमें १ अन्तर्भाष्य गाथा, २ चन्द्रर्षि महत्तरकी चूणि और ३ मलयगिरि सूरिकी वृत्ति इन तीनका परिचय कराया जाता है। __ अन्तर्भाष्य गाथाएँ-सप्ततिकामें अन्तर्भाष्य गाथाएँ कुल दस हैं। ये विविध विषयोंका खुलासा करनेके लिये रची गई हैं। इनकी रचना किसनेकी इसका निश्चय करना कठिन है । सम्भव है प्रस्तुत सप्ततिका के संकलयिताने ही इनकी रचनाकी हो। खास खास प्रकरण पर कषायप्राभृतमें भी भाष्यगाथाएँ पाई जाती हैं और उनके रचयिता स्वयं कषायप्राभतकार हैं। बहुत संभव है इसी पद्धतिका यहाँ भी अनुसरण किया गया हो। ये चन्द्रषिमहत्तरकी चणि और मलयगिरिकी टीका इन दोनों में संगहीत हैं। मलयगिरिव इन्हें स्पष्टतः अन्तर्भाष्य गाथा कह कर संकलित किया गया है। चणिमें प्रारम्भकी सात गाथाओंको तो अन्तर्भाष्य गाथा बतलाया है किन्तु अन्तकी तीन गाथाओंका निर्देश अन्तर्भाष्य गाथारूपसे नहीं किया है । चूर्णिमें इन पर टीका भी लिखी गई है। १. सयरीय मोहबंधट्ठाणा पंचादओ कया पंच । अनिअट्टिणो छलत्ता णवादओदीरणा पगए ।।९०॥ आदि । विशेषणवती। २. इसका उल्लेख जैन ग्रन्थावलिमें मुद्रित बृहट्टिप्पनिकाके आधारसे दिया है। ३. इसका परिमाण २३०० श्लोक अधिक ज्ञात होता है। यह मुक्ताबाई ज्ञानमन्दिर डभोईसे प्रकाशित हो चुकी है। Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थं खण्ड : ४९३ चूर्णि-यह मुक्ताबाई ज्ञानमन्दिर डभोईसे प्रकाशित हुई है। जैसा कि हम पहले निर्देश कर आये हैं इसके कर्ता चन्द्रषिमहत्तर प्रतीत होते हैं । आचार्य मलयगिरिने इसका खूब उपयोग किया है । वे चूर्णिकार की स्तुति करते हुए सप्ततिकाके ऊपर लिखी गई अपनी वृत्तिकी प्रशस्तिमें लिखते हैं ___ 'यरेषा विषमार्था सप्ततिका सुस्फुटीकृता सम्यक् । अनुपकृतपरोपकृतश्चूर्णिकृतस्तान् नमस्कुर्वे ॥' जिन्होंने इस विषम अर्थवाली सप्ततिकाको भले प्रकार स्फुट कर दिया है, निःस्वार्थ भावसे दूसरोंका उपकार करनेवाले उन चूर्णिकारको मैं (मलयगिरि) नमस्कार करता हूँ। सचमुच में यह चूणि ऐसी ही लिखी गई है। इसमें सप्ततिकाके प्रत्येक पदका बड़ी ही सुन्दरतासे खुलासा किया गया है। खुलासा करते समय अनेक ग्रन्थोंके उद्धरण भी दिये गये हैं। उद्धरण देते समय शतक, सत्कर्म, कषायप्राभृत' और 'कर्मप्रकृतिसंग्रहणीका इसमें भरपूर उपयोग किया गया है । जैसा कि पहले बतला आये हैं, इसमें ८९ गाथाओं पर टीका लिखी गई है । ७२ गाथाएँ वे ही हैं जिन पर मलयगिरि आचार्यने टीका लिखी है । १० अन्तर्भाष्य गाथाएँ हैं और सात अन्य गाथाएँ हैं । ये सात गाथाएँ हम पहले ग्रन्थकर्ताका निर्णय करते समय उद्धृत कर आये हैं । यद्यपि ग्रन्थके बाहरकी प्रकरणोपयोगी गाथाओंकी टीका करनेकी परिपाटी पुरानी है। धवला आदि टीकाओंमें ऐसी कई उपयोगी गाथाओंकी टीका दी गई है। पर वहाँ प्रकरण या अन्य प्रकारसे इसका ज्ञान करा दिया जाता है कि यह मूल गाथा नहीं है। किन्तु इस चूर्णिमें ऐसा समझनेका कोई आधार नहीं है । चूर्णिकार मूल गाथाका व्याख्यान करते समय गाथाके प्रारम्भका कुछ अंश उद्धृत करते हैं । यथा उवरयबंधे चउ पण नवंस० ति गाहा । ____ मलयगिरि आचार्यने जिन गाथाओंको मूलका नहीं माना है उनकी टीका करते समय भी चूणिकारने उसी पद्धतिका अनुसरण किया है। यथा सत्तट्ठ नव० गाहा। सत्तावीसं सुहुमे० गाहा । अणियट्टिवायरे थोण० गाहा । एत्तो हणइ. गांहा । इत्यादि। इससे यह निर्णय करने में बड़ी कठिनाई हो जाती है कि सप्ततिकाकी मूल गाथाएँ कौन कौन हैं। मालूम होता है कि 'गाहग्गं सयरीए' यह गाथा इसी कारण रची गई है। इसमें सप्ततिकाका इतिहास सन्निहित है। वर्तमानमें आचार्य मलयगिरिकी टीका ही ऐसी है जिससे सप्ततिकाकी गाथाओंका परिमाण निश्चित करनेमें सहायता मिलती है। इसीसे हमने गाथा संख्याका निर्णय करते समय आचार्य मलयगिरिकी टीकाका प्रमुखतासे ध्यान रखा है। वृत्ति-सप्ततिकाके ऊपर एक वृत्ति आचार्य मलयगिरिने भी लिखी है । वैदिक परम्परामें टीकाकारों में जो स्थान वाचसातिमिश्रका है। जैन परम्परामें वही स्थान मलयगिरि सुरिका है। इन्होंने जिन ग्रन्थोंपर १. 'एएसि विवरणं जहा सयगे।' १०४ । 'एएसि भेओ सरूवनिरूपणा जहा सयगे प० ५ । इत्यादि । २. संतकम्मे भणियं ।' ५० ७ । अण्णे भणति-सुस्सरं विगलिदियाण णत्खि, तण्ण, संतकम्मे उक्तत्वात ।' प० २२ । इत्यादि । ३. जहा कसायापहडे कम्मपगडि संगहणीए वा तहा वत्तव्वं ।' प० ६२ । ४. उव्वटणाविही जहा कम्मपगडीसगहणीए उब्वलणसंकमे तहा भाणियव्वं प० ६१ । 'विसेसपवंचो जहा कम्मपगडिसंगहणीए।' प० ६३ । इत्यादि । Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४००० ५००० ४९४ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ टीकाएँ लिखीं हैं उनकी तालिका बहत बड़ी है। ऐसी एक तालिका आत्मानन्द जैन ग्रन्थमालासे प्रकाशित होनेवाले ८६वें रत्नकी प्रस्तावनामें छपी है । पाठकोंकी जानकारीके लिये उसे हम यहाँ दे रहे हैं । नाम श्लोकप्रमाण १. भगवती सूत्र द्वितीय शतकवृत्ति ३७५० २. राजप्रश्नीयोपाङ्गटीका ३७०० मुद्रित ३. जीवाभिगमोपाङ्गटीका १६००० ॥ ४. प्रज्ञापनोपाङ्गटीका १६००० , ५. चन्द्रप्रज्ञप्त्युपाङ्गटीका ९५०० ६. नन्दीसूत्रटीका ७७३२ ॥ ७. सूर्यप्रज्ञप्त्युपांगटीका ९५०० , ८. व्यवहारसूत्रवृत्ति ९. बृहत्कल्पपीठिकावृत्ति अपूर्ण ४६०० १०. आवश्यकवृत्ति , १८००० ११ पिण्डनियुक्त टीका ६७०० १२. ज्योतिष्करण्ड टीका १३. धर्मसंग्रहणी वृत्ति १०००० १४. कर्मप्रकृति वृत्ति १५. पंचसंग्रहवृत्ति १८८५० , १६. षडशीतिवृत्ति २००० १७. सप्ततिकावृत्ति ३७८० १८. बृहत्संग्रहणीवृत्ति ५००० १९. बृहत्क्षेत्रसमासवृत्ति ९५०० " २०. मलयगिरिशब्दानुशासन ५००० (?) अलभ्यग्रन्थ १. जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति टीका ४. तत्त्वार्थाधिगम सूत्र टीका २. ओघनियुक्ति टीका ५. धर्मसारप्रकरण टीका ३. विशेषावश्यक टीका ६. देवेन्द्रनरकेन्द्रकप्रकरण टीका मलयगिरि सूरिकी टीकाओंको देखनेसे मन पर यह छाप लगती है कि वे प्रत्येक विषयका बड़ी ही सरलताके साथ प्रतिपादन करते हैं। जहाँ भी वे नये विषयका संकेत करते हैं वहाँ उसकी पुष्टिमें प्रमाण अवश्य देते हैं। उदाहरणार्थ मूल सप्ततिकासे यह सिद्ध नहीं होता कि स्त्रीवेदी जीव मरकर सम्यग्दृष्टियोंमें उत्पन्न होता है। दिगम्बर परम्पराकी यह निरपवाद मान्यता है। श्वेताम्बर मूल ग्रन्थोंमें भी यह मान्यता इसी प्रकार पाई जाती है। किन्तु श्वेताम्बर टीकाकारोंने इस मतको निरपवाद नहीं माना है । उनका कहना है कि इस कथनका सप्ततिकामें बहुलताकी अपेक्षा निर्देश किया गया है। आचार्य मलयगिरिने भी अपनी वृत्तिमें इसी पद्धतिका अनुसरण किया है। किन्तु इसकी पुष्टिमें तत्काल उन्होंने चूणिका सहारा ले लिया है। इसमें सप्ततिका चूणिका उपयोग तो किया ही गया है, किन्तु इसके अलावा सिद्धहेम, तत्त्वार्थाधिगमकी सिद्ध ८००० Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : ४९५ सेनीय टीका, शतकबृहच्चूर्णि, सत्कर्मग्रन्थ, पंचसंग्रहमूलटीका, कर्मप्रकृति, आवश्यकचूणि, विशेषावश्यकभाष्य, पंचसंग्रह और कर्मप्रकृतिचूणि इन ग्रन्थोंका भी भरपूर उपयोग किया गया है । इसके अलावा बहुतसे ग्रन्थोंके उल्लेख 'उक्तं च' कहकर दिये गये हैं। तात्पर्य यह है कि मूल विषयको स्पष्ट करनेके लिए यह वृत्ति खूब सजाई गई है। आचार्य मलयगिरि, आचार्य हेमचन्द्र और महाराज कुमारपालदेवके समकालीन माने जाते है। इनकी टीकाओंके कारण श्वेताम्बर जैनवाङ्मयके प्रसार करनेमें बड़ी सहायता मिली है। हमें यह प्रकाशित करते हुए प्रसन्नता होती है कि सप्ततिकाका प्रस्तुत अनुवाद आचार्य मलयगिरिका इसी वृत्तिके आधारसे लिखा गया है। ३. अन्य सप्ततिकाएँ पंचसंग्रहको सप्ततिका-प्रस्तुत सप्ततिकाके सिवा एक सप्ततिका आचार्य चन्द्रषिमहत्तर कृत पंचसंग्रहमें ग्रथित है। पंचसंग्रह एक संग्रह ग्रंथ है । यह पाँर प्रकरणोंमें विभक्त है। इसके अन्तिम प्रकरणका नाम सप्ततिका है। ___एक तो पंचसंग्रहके सप्ततिकाकी अधिकतर मूल गाथाएँ प्रस्तुत सप्ततिकासे मिलती-जुलती हैं, दूसरे पंचसंग्रहकी रचना प्रस्तुत सप्ततिकाके बहुत काल बाद हुई है और तीसरे इसका नाम सप्ततिका होते हुए भी इसमें १५६ गाथाएँ हैं । इससे ज्ञात होता है कि पंचसंग्रहकी सप्ततिका आधार प्रकृत सप्ततिका ही रहा है। दिगम्बर परम्परामें प्रचलित सप्ततिका-एक अन्य सप्ततिका दिगम्बर परम्परामें प्रचलित है। यद्यपि अब तक इसकी स्वतन्त्र प्रति देखने में नहीं आई है तथापि प्राकृत पंचसंग्रहमें उसके अंगरूपसे यह पाई जाती है। प्राकृत पंचसंग्रह' एक संग्रह ग्रन्थ है। इसमें जीवसमास, प्रकृति-समुत्कीर्तन, बन्धोदयसत्त्वयुक्त पद, शतक और सप्ततिका इन पांच ग्रन्थोंका संग्रह किया गया है। इनमेंसे अन्तके दो प्रकरणों पर भाष्य भी है। आचार्य अमितिगतिका पंचसंग्रह इसीके आधारसे लिखा गया है। अमितिगतिका पंचसंग्रह संस्कृतमें होनेके कारण इसे प्राकृत पंचसंग्रह कहते हैं । यह गद्य-पद्य उभयरूप है। इसमें गाथाएँ १३०० से अधिक है। इसके अन्तके दो प्रकरण शतक और सप्तिकाका कुछ पाठभेदके साथ श्वेताम्बर परम्परामें प्रचलित शतक और सप्ततिकासे मिलते-जुलते हैं। तत्त्वार्थसूत्रके बाद ये ही दो ग्रन्थ ऐसे मिले हैं जिन्हें दोनों परम्पराओंने स्वीकार किया है। दिगम्बर परम्परामें प्रचलित इन दोनों ग्रन्थोंका स्वयं पंचसंग्रहकारने संग्रह किया है या पंचसंग्रहकारने इन पर केवल भाष्य लिखा है इसका निर्णय करना कठिन है। इसके लिए अधिक अनुसंधानकी आवश्यकता है। दोनों सप्तिकाओंमें पाठभेद और उसका कारण प्रस्तुत सप्ततिकामें ७२ और दिगम्बर परम्पराकी सप्ततिकामें ७१ गाथायें हैं, जिनमेंसे ४० से अधिक गाथाएँ एकसी हैं । १४-१५ गाथाओंमें कुछ पाठभेद है । शेष गाथाएँ जुदी-जुदी है । इसके कारण दो हैं, मान्यता भेद और वर्णन करनेकी शैलीमें भेद । मान्यता भेदके हमें चार उदाहरण मिले है । यथा १. प्रस्तुत सप्ततिकामें निद्राद्विकका उदय क्षपकश्रेणिमें नहीं होता, इस मतको प्रधानता देकर भंग १. पंचसंग्रहकी एक प्रति हमें हमारे मित्र पं० हीरालाल शास्त्रीने भेजी थी जिसके आधारसे यह परिचय लिखा गया है । पंडितजीके इस कार्यके लिए हम उनका सम्पादकीय वक्तव्यमें आभार मानना भूल गये है, इसलिए यहाँ उनका विशेष रूपसे स्मरण कर लेना हम अपना कर्तव्य समझते हैं । शतक और सप्ततिकाकी चूणि भी उन्हींसे प्राप्त हुई थीं। उनका प्रस्तावनामें बड़ा उपयोग हुआ है । Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९६ :सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ बतलाये गये हैं, किन्तु दिगम्बर परम्पराकी सप्ततिकामें क्षपकश्रेणिमें निद्राद्विकका उदय होता है, इस मतको प्रधानता देकर भंग बतलाये गये हैं। ___२. प्रस्तुत सप्ततिकामें मोहनीयके उदयविकल्प और पदबृन्द दो प्रकारसे बतलाये गये हैं किन्तु दिगम्बर परम्पराकी सप्ततिकामें वे एक प्रकारके ही बतलाये गये हैं। ३. प्रस्तुत सप्ततिकामें नामकर्मके १२ उदयस्थान बतलाये गये हैं। कर्मकाण्डमें भी ये ही १२ उदयस्थान निबद्ध किये गये है। किन्तु दिगम्बर परम्पराकी सप्ततिकामें २० प्रकृतिक उदयस्थान छोड़ दिया गया है। ४. प्रस्तुत सप्ततिकामें आहारक शरीर व आहारक अंगोपांग और वैक्रिय शरीर व वैक्रिय अंगोपांग इन दो युगलोंको उद्वेलना होते समय इनके बन्धन और संघातकी उद्वेलना नियमसे होती है इस सिद्धान्तको स्वीकार करके नामकर्मके सत्वस्थान बतलाये गये हैं। गोम्मटसार कर्मकाण्डके सत्वस्थान प्रकरणमें इसी सिद्धान्तको स्वीकार किया गया है, किन्तु दिगम्बर परम्पराको सप्ततिकामें उद्वेलना प्रकृतियोंमें आहारक व वैक्रिय शरीरके बन्धन और संघात सम्मिलित नहीं करके नामकर्मके सत्वस्थान बतलाये गये है। गोम्मटसार कर्मकाण्डके त्रिभंगी प्रकरण में इसी सिद्धिन्तको स्वीकार किया गया है। मान्यता भेदके ये चार ऐसे उदाहरण हैं जिनके कारण दोनों सप्ततिकाओंकी अनेक गाथाएँ जुदीजदी हो गई हैं और अनेक गाथाओंमें पाठभेद भी हो गया है। फिर भी ये मान्यताभेद सम्प्रदायभेद पर आधारित नहीं हैं। इसी प्रकार कहीं-कहीं वर्णन करनेकी शैलीमें भेद होनेसे गाथाओंमें फरक पड़ गया है। यह अन्तर उपशमना प्रकरण और क्षपणाप्रकरणमें देखनेको मिलता है। प्रस्तुत सप्ततिकामें उपशमना और क्षपणाकी खासखास प्रकृतियोंका ही निर्देश किया गया है । दिगम्बर परम्पराकी सप्ततिकामें क्रमानुसार उपशमना और क्षपणा सम्बन्धी सब प्रकृतियोंकी संख्याका निर्देश करनेकी व्यवस्था की गई है। . इस प्रकार यद्यपि इन दोनों सप्ततिकाओंमें भेद पड़ जाता है तो भी ये दोनों एक उद्गमस्थानसे निकलकर और बीच-बीचमें दो धाराओंमें विभक्त होती हुई अन्तमें एकरूप हो जाती है। दिगम्बर परम्पराकी सप्ततिकाकी प्राचीनता-पहले हम अनेक बार प्राकृत पंचसंग्रहका उल्लेख कर आये हैं । इसका सामान्य परिचय भी दे आये हैं। कुछ ही समय हुआ जब यह ग्रन्थ प्रकाशमें आया है । अमितिगतिका पंचसंग्रह इसीके आधारसे लिखा गया है। अमितिगतिने इसे विक्रम संवत् १०७३ में पूरा किया था। इसमें वही क्रम स्वीकार किया गया है जो प्राकृत पंचसंग्रहमें पाया जाता है। केवल नामकर्मके उदयस्थानोंका विवेचन करते समय प्राकृत पंचसंग्रहके क्रमको छोड़ दिया गया है। प्राकृत पंचसंग्रहमें नाम कर्मका २० प्रकृतिक उदयस्थान नहीं बतलाया है। प्रतिज्ञा करते समय इसमें भी २० प्रकृतिक उदयस्थानका निर्देश नहीं किया है । किन्तु उदयस्थानोंका व्याख्यान करते समय इसे स्वीकार कर लिया है। गोम्मटसार जीवकाण्ड और कर्मकाण्ड में भी पंचसंग्रहका पर्याप्त उपयोग किया गया है। कर्मकाण्डमें ऐसे दो मतोंका उल्लेख मिलता है जो स्पष्टतः प्राकृत पंचसंग्रहकी सप्ततिकासे लिये गये जान पड़ते हैं । एक मत अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी उपशमनावाला है और दूसरे मतका सम्बन्ध कर्मकाण्डमें बतलाये गये नामकर्मके सत्त्वस्थानोंसे है। दिगम्बर परम्परामें ये दोनों मत प्राकृत पंचसंग्रहकी सप्ततिकाके सिवा अन्यत्र देखने में नहीं आये। १. 'त्रिसप्तत्यधिकेऽब्दानां सहस्र शकविद्विषः। मसूतिकापूरे जातमिदं शास्त्र मनोरमम् ॥' अ० पंचसं प्र० । २. देखो अ० पंचसं, पृ० १६८। ३. देखो अ० पंचसं०, पृ० १७९ । Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : ४९७ यद्यपि कर्मकाण्डमें अनन्तानुबन्धी चतुष्कका उपशम होता है इस बातका विधान नहीं किया है तथापि वहाँ उपशमश्रेणिमें मोहनीयकी २८ प्रकृतियोंकी भी सत्ता' बतलाई है। इससे सिद्ध होता है कि नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती अनन्तानुबन्धीके उपशमवाले मतसे भलीभांति परिचित थे। दूसरे मतका विधान करते हुए गोम्मटसारके त्रिभंगो प्रकरणमें निम्नलिखित गाथा आई है गउदी णउदी अडचउदोअहियसीदि सीदी य । ऊणासीदद्वत्तरि सत्तत्तरि दस य णव संता ॥६०९।। यह गाथा प्राकृत पंचसंग्रहकी सप्ततिकासे ली गई है । वहाँ इसका रूप इस प्रकार है तिदुइगिणउदि णउदि अडचउद्गहियमसीदिमसीदिं च । उणसीदिं अट्ठत्तरि सत्तत्तरि दस य णव संता ॥२३॥ इन गाथाओंमें नामकर्मके सत्त्वस्थान बतलाये गये हैं। इन सत्त्वस्थानोंका निर्देश करते समय चाल कार्मिक परम्पराके विरुद्ध एक विशेष सिद्धांत स्वीकार किया गया है। चालू कार्मिक परम्परा यह है कि बन्ध और संक्रम प्रकृतियोंमें पांच बन्धन और पांच संघात पाँच शरीरोंसे जुदे न गिनाये जाकर भी सत्त्वमें जुदे गिनाये जाते हैं । किन्तु यहाँ इस क्रमको छोड़कर ये सत्त्वस्थान बतलाये गये हैं। प्राचीन ग्रन्थोंमें यह मत प्राकृत पंचसंग्रहकी सप्ततिकाके सिवा अन्यत्र देखने में नहीं आया । मालूम होता है कि नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तीने प्राकृत पंचसंग्रहके आधारसे ही कर्मकाण्डमें इस मतका संग्रह किया है । ये प्रमाण ऐसे हैं जिनसे हम यह जान लेते हैं कि प्राकृत पंचसंग्रहकी रचना गोम्मटसार और अमितिगतिके पंचसंग्रहके पहले हो चुकी थी। किन्तु इनके अतिरिक्त कुछ ऐसे भी प्रमाण मिलते हैं जिनसे यह भी ज्ञात होता है कि इसकी रचना धवला टीका और श्वेताम्बर परम्परामें प्रचलित शतककी चणिकी रचना होनेके भी पहले हो चुकी थी। धवला चौथी पुस्तकके पृष्ठ ३१५ में वीरसेन स्वामीने 'जीवसमासए वि उत्तं' कहकर 'छप्पंचणव उदधतकी गई है। यह गाथा प्राकृत पंचसंग्रहके जीवसमास प्रकरणमें १५९ नम्बर पर दर्ज है । इससे ज्ञात होता है कि प्राकृत पंचसंग्रहका वर्तमानरूप धवलाके निर्माणकालके पहले निश्चित हो गया था। ऐसा ही एक प्रमाण शतककी चणिमें भी मिलता है जिससे जान पड़ता है कि शतक की चणि लिखे जानेके पहले प्राकृत पंचसंग्रह लिखा जा चुका था ।। शतककी ९३ वें गाथाकी चूणिनें दो बार पाठान्तरका उल्लेख किया है। पाठान्तर प्राकृत पंचसंग्रहमें निबद्ध दिगम्बर परम्पराके शतकसे लेकर उधत किये गये जान पड़ते हैं । शतककी ९३वीं गाथा इस प्रकार है _ 'आउक्कस्स पएसस्स पंच मोहस्स सत्त ठाणाणि । सेसाणि तणुकसाओ बंधइ उक्कोसगे जोगे ॥९३॥' प्राकृत पंचसंग्रहके शतकमें यह गाथा इस प्रकार पाई जाती है 'आउसस्स पदेसस्स छच्च मोहस्स णव दु ठाणाणि । सेसाणि तणुकसाओ बंधइ उक्कस्सजोगेण ॥' इन गाथाओंको देखनेसे दोनोंका मतभेद स्पष्ट ज्ञात हो जाता है । शतककी चूर्णिमें इसी मतभेदकी चर्चा की गई है। वहाँ इस मतभेदका इस प्रकार निर्देश किया है१. देखो गो कर्म० गा० ५११ । Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९८ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ "अन्ने पढंति आउक्कोसस्स छ ति ।...."अन्ने पढंति मोहस्स णव उठाणाणि ।" शतककी चूणि कब लिखी गई इसके निर्णयका अब तक कोई निश्चित आधार नहीं मिला है । मुक्ताबाई ज्ञानमन्दिर डभोई से प्रकाशित होने वाली चूर्णिसहित सित्तरीकी प्रस्तावनामें पं० अमृतलालजीने एक प्रमाण' अवश्य उपस्थित किया है । यह प्रमाण खंभातमें स्थित श्री शान्तिनाथजीकी ताडपत्रीय भंडारकी एक प्रतिसे लिया गया है । इसमें शतककी चूणिका कर्ता श्रीचन्द्रमहत्तर श्वेताम्बराचार्यको बतलाया है। ये चन्द्रमहत्तर कौन है, इसका निर्णय करना तो कठिन है। कदाचित् ये पंचसंग्रहके कर्ता चन्द्रषिमहत्तर हो सकते हैं। यदि पंचसंग्रह और शतककी चूणिके कर्ता एक ही व्यक्ति हैं तो यह अनुमान किया जा सकता है कि दिगम्बर परम्पराके पंचसंग्रहका संकलन चन्द्रषिमहत्तरके पंचसंग्रहके पहले हो गया था। इस प्रकार प्राकृत पंचसंग्रहकी प्राचीनताके अवगत हो जानेपर उसमें निबद्ध सप्ततिकाकी प्राचीनता तो सुतरां सिद्ध हो जाती है। प्रेमी अभिनन्दन ग्रन्थमें प० हीरालाल जी सिद्धान्तशास्त्रीका 'प्राकृत और संस्कृत पंचसंग्रह तथा उनका आधार' शीर्षक एक लेख छपा है। उसमें उन्होंने प्राकृत पंचसंग्रहको सप्ततिकाका आधार प्रस्तुत सप्ततिकाको बतलाया है। किन्तु जबतक इसकी पुष्टिमें कोई निश्चित प्रमाण नहीं मिलता तब तक ऐसा निष्कर्ष निकालना कठिन है। अभी तो केवल इतना ही कहा जा सकता है कि किसी एकको देखकर दूसरी सप्ततिका लिखी गई है। ४. विषय परिचय सप्ततिकाका विषय संक्षेपमें उसकी प्रथम गाथामें दिया है । इसमें आठों मूल कर्मों व अवान्तर भेदोंके बन्धस्थान, उदयस्थान और सत्त्वस्थानोंका स्वतन्त्र रूपसे व जीवसमास और गुणस्थानोंके आश्रयसे विवेचन करके अन्तमें उपशम विधि और क्षपणा विधि बतलाई गई है । कर्मोंकी यथासम्भव दस अवस्थाएँ होती हैं । उनमेंसे तीन मख्य है-बन्ध, उदय और सत्त्व । शेष अवस्थाओंका इन तीनमें अन्तर्भाव हो जाता है । इसलिए यदि यह कहा जाय कि कर्मोकी विविध अवस्थाओं और उनके भेदोंका इसमें सांगोपांग विवेचन किया गया है तो कोई अत्यक्ति न होगी। सचमुच में ग्रन्थका जितना परिमाण है उसे देखते हए वर्णन करनेकी शैलीकी प्रशंसा करनी ही पड़ती है। सागरका जल गागरमें भर दिया गया है। इतने लघुकाय ग्रन्थमें इतने विशाल और गहन विषयका विवेचन कर देना हर किसीका काम नहीं है। इससे ग्रन्थकर्ता और ग्रन्थ दोनोंकी ही महानता सिद्ध होती है । इसकी प्रथम और दूसरी गाथामें विषयकी सूचना की गई है। तीसरी गाथामें आठ मूल कर्मोके संवैध भंग बतलाकर चौथी और पांचवीं गाथामें क्रमसे उनका जीवसमास और गुणस्थानोंमें विवेचन किया गया है । छठी गाथामें ज्ञानावरण और अन्तराय कर्मके अवान्तर भेदोंके संवैध भंग बतलाये हैं । सातवींसे लेकर नौंवीके पूर्वार्ध तक ढाई गाथामें दर्शनावरण के उत्तर भेदोंके संवध भंग बतलाये हैं । नौवीं गाथाके उत्तरार्धमें वेदनीय, आयु और गोत्र कर्मके संवेध भंगोंके कहने की सूचना मात्र करके मोहनीयके कहनेकी प्रतिज्ञा की गई है। दसवीसे लेकर तेईसवीं गाथा तक १४ गाथाओं द्वारा मोहनीयके और २४वीं गाथासे लेकर ३२वीं गाथा तक ९ गाथाओं द्वारा नामक के बन्धादि स्थानों व संवध भंगोंका विचार किया गया है। आगे ३३वीं गाथासे लेकर ५२वी गाथा तक २० गाथाओं द्वारा अवान्तर प्रकृतियोके उक्त संवेध भंगोंको जीवसमासों और गुणस्थानोंमें घटित करके बतलाया गया है । ५३वीं गाथामें गति आदि मार्गणाओंके साथ सत् आदि आठ अनुयोग द्वारोंमें उन्हें घटित करनेकी सूचना की है। इसके आगे प्रकरण बदल जाता १. कृतिराचार्य श्रीचंद्रमहत्तरशितांवरस्य शतकस्य । प्रशस्तचू"..."दि ६ शनी लिखितेति ।।६।। Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : ४९९ हैं । ५४वी गाथामें उदयसे उदीरणाके स्वामीमें कितनी विशेषता है इसका निर्देश करके ५५वीं गाथामें वे ४१ प्रकृतियाँ बतलाई है जिनमें विशेषता है। ५६वीं से लेकर ५९वीं तक ४ गाथाओं द्वारा किस गणस्थानमें कितनी प्रकृतियोंका बन्ध होता है यह बतलाया गया है। ६०वीं प्रतिज्ञा गाथा है। इसमें गति आदि मार्गणाओंमें बन्धस्वामित्वके जान लेनेकी प्रतिज्ञा की गई है। ६१वीं गाथामें यह बतलाया है कि तीर्थङ्कर प्रकृति, देवाय और नरकायु इनका सत्त्व तीन तीन गतियोंमें ही होता है। किन्तु इनके सिवा शेष प्रकृतियोंका सत्त्व सब गतियों में पाया जाता है । ६२वीं और ६३वीं गाथा द्वारा चार अनन्तानुबन्धी और तीन दर्शन मोहनीय इनके उपशमना और क्षपणाके स्वामीका निर्देश करके ६४वीं गाथा द्वारा क्रोधादि चारकी क्षपणाके विशेष नियमकी सूचना की गई है। अयोगीके द्विचरम समयमें किन प्रकृतियोंका क्षय होता है यह ६५वीं गाथामें बतलाया गया है । अयोगी जिन कितनी प्रकृतियोंका वेदन करते हैं यह ६६वीं गाथामें बतलाया गया है । ६७वीं गाथामें नामकर्मकी वे ९ प्रकतियाँ गिनाई हैं जिनका उदय अयोगीके होता है । अयोगीके अन्तिम समयमें कितनी प्रकृतियोंका उदय होता है यह ६८वीं गाथा बतलाती है। ६९वीं गाथामें अयोगीके अन्तिम समयमें जिन प्रकृतियोंका क्षय होता है उनका निर्देश किया है। आगे ७०वीं गाथामें सिद्धोंके सिद्ध सुखका निर्देश करके उपसंहार स्वरूप ७१वीं गाथा आई है और ७२वीं गाथामें लघुता प्रकट करके ग्रन्थ समाप्त किया गया है। यह ग्रन्थका संक्षिप्त परिचय है। अब आगे प्रकृतोपयोगी समझ कर कर्म तत्त्वका संक्षेपमें विचार करते हैं। ५. कर्म-मीमांसा कर्मके विषयमें तुलनात्मक ढगसे या स्वतंत्र भावसे अनेक लेखकोंने बहत कुछ लिखा है । तथापि जैन दर्शनने कर्मको जिस रूपमें स्वीकार किया है वह दृष्टिकोण सर्वथा लुप्त होता जा रहा है । जैन कर्मवादमें ईश्वरवादकी छाया आती जा रही है। यह भल वर्तमान लेखक ही कर रहे हैं ऐसी बात नहीं है पिछले लेखकोंसे भी ऐसी भूल हई है । इसी दोषका परिमार्जन करनेके लिये स्वतंत्र भावसे इस विषय पर लिखना जरूरी समझकर यहाँ संक्षेपमें इस विषयकी मीमांसा की जा रही है। छह द्रव्योंका स्वरूप निर्देश-भारतीय सब आस्तिक दर्शनोंने जीवके अस्तित्वको स्वीकार किया है। जैनदर्शनमें इसकी चर्चा विशेष रूपसे की गई है । समय प्राभूतमें जीवके स्वरूपका निर्देश करते हुए इसे' रस रहित, गन्धरहित, रूपरहित, स्पर्शरहित, अव्यक्त और चेतना गुणवाला बतलाया है । यद्यपि तत्त्वार्थसूत्र में जीवको उपयोग लक्षणवाला लिखा है पर इससे उक्त कथनका ही समर्थन होता है। ज्ञान और दर्शन ये चेतनाके भेद है । उपयोग शब्दसे इन्हींका बोध होता है। ज्ञान और दर्शन यह जीवका निज स्वरूप है जो सदा काल अवस्थित रहता है । जीवमात्रमें यह सदा पाया जाता है। इसका कभी भी अभाव नहीं होता। जो तिर्यंच योनिमें भी निकृष्टतम योनिमें विद्यमान है उसके भी यह पाया जाता है और परम उपास्य देवत्वको प्राप्त है उसके भी यह पाया जाता है। यह सबके पाया जाता है। ऐसा कोई भी जीव नहीं है जिसके यह नहीं पाया जाता है। जीवके सिवा ऐसे बहुतसे पदार्थ हैं जिनमें ज्ञान-दर्शन नहीं पाया जाता । वैज्ञानिकोंने ऐसे जड़ पदार्थोंकी संख्या कितनी ही क्यों न बतलाई हो पर जैनदर्शनमें वर्गीकरण करके ऐसे पदार्थ पाँच बतलाये गये हैं जो ज्ञानदर्शनसे रहित है । वैज्ञानिकों द्वारा बतलाये गये सब जड़ तत्त्वोंका समावेश इन पाँच तत्त्वोंमें हो जाता है। १. 'अरसमरूवमगंधं अव्वत्तं चेदणागुणमसदं । जाण अलिंगग्गहणं जीवमणिद्दिट्ठसंठाणं ।'-समयप्राभृत गाथा ४९। २. 'उपयोगो लक्षणम् ।' त० सू० २-८ Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०० : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ वे पाँच तत्त्व ये हैं-पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल । इनमें जीव तत्त्वके मिला देने पर कुल छह तत्त्व होते हैं । जैन दर्शन इन्हें द्रव्य शब्दसे पुकारता है । जीव द्रव्यका स्वरूप पहले बतलाया ही है । शेष द्रव्योंका स्वरूप निम्न प्रकार है जिसमें स्पर्श, रस, गन्ध और रूप पाया जाता है उसे पुदगल' कहते हैं। जैन दर्शनमें स्पर्शादिककी मूर्त संज्ञा है, इसलिये वह मूर्त माना गया है। किन्तु शेष द्रव्योंमें ये स्पर्शादिक नहीं पाये जाते, इसलिये वे अमूर्त हैं । जो गमन करते हुए जीव और पुदगलोंके गमन करनेमें सहायता प्रदान करता है उसे धर्म द्रव्य कहते हैं । अधर्म द्रव्यका स्वरूप इससे उलटा है । यह ठहरे हए जीव और पुद्गलोंके ठहरनेमें सहायता प्रदान करता है । इन दोनों द्रव्योंके स्वरूपका स्पष्टीकरण करनेके लिये जल और छायाका दृष्टान्त दिया जाता है। जैसे मछलीके गमन करने में जल और पथिकके ठहरनेमें छाया सहायता प्रदान करते हैं ठीक यही स्वभाव क्रमसे धर्म और अधर्म द्रव्यका है। जो वस्तुकी पुरानी अवस्थाके व्यय और नूतन अवस्थाके उत्पादमें सहायता प्रदान करता है उसे काल द्रव्य' कहते हैं। और प्रत्येक पदार्थके ठहरनेके लिये जो अवकाश प्रदान करता है उसे आकाश द्रव्य कहते हैं। इनमेंसे धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये चार द्रव्य सदा अविकारी माने गये हैं। निमित्तवश इनके स्वभावमें कभी भी विपरिणाम नहीं होता। किन्तु जीव और पदगल ये ऐसे द्रव्य है जो अविकारी और विकारी दोनों प्रकारके होते हैं। जब ये अन्य द्रव्यसे संश्लिष्ट रहते हैं तब विकारी होते हैं और इसके अभावमें अविकारी होते हैं । इस हिसाबसे जीव और पुद्गलके दो-दो भेद हो जाते हैं। संसारी और मुक्त ये जीवके दो भेद हैं । तथा अणु और स्कन्ध ये पुद्गलके दो भेद हैं । जीव मुक्त अवस्थामें अविकारी है और संसारी अवस्थामें विकारी। पुद्गल अणु अवस्थामें अविकारी है और स्कन्ध अवस्थामें विकारी । तात्पर्य यह है कि जीव और पुद्गल जब तक अन्य द्रव्यसे संश्लिष्ट रहते हैं तब तक उस संश्लेषके कारण उनके स्वभावमें विपरिणति हुआ करती है, इसलिये वे उस समय विकारी रहते हैं और संश्लेषके हटते ही वे अविकारी हो जाते हैं। बन्धकी योग्यता-इन दोनोंका अन्य द्रव्यसे संश्लिष्ट होना इनकी योग्यता पर निर्भर है। यह योग्यता जीव और पुद्गलमें ही पाई जाती है, अन्य में नहीं। ऐसी योग्यताका निर्देश करते हुए जीवमें उसे मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योगरूप तथा पुद्गलमें उसे स्निग्ध और रूक्ष गुणरूप बतलाया है। जीव मिथ्यात्व आदिके निमित्तसे अन्य द्रव्यसे बन्धको प्राप्त होता है। और पुदगल स्निग्ध और रूक्ष गुणके निमित्तसे अन्य द्रव्यसे बन्धको प्राप्त होता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। जीवमें मिथ्यात्वादिरूप योग्यता संश्लेषपूर्वक ही होती है, इसलिये उसे अनादि माना है। किन्तु पुद्गलमें स्निग्ध या रूक्षगुणरूप योग्यता संश्लेषके बिना भी पाई जाती है, इसलिये वह अनादि और सादि दोनों प्रकार की मानी गई है। इससे जीव और पुद्गल केवल इन दोनोंका बन्ध सिद्ध होता है। क्योंकि संश्लेष बन्धका पर्यायवाची है। किन्तु प्रकृतमे जीवका बन्ध विवक्षित है, इसलिये आगे उसी चर्चा करते हैं१. 'स्पर्शरसगन्धवर्णवन्तः पुद्गलाः।-त० सू० ५-२३ ।। २. द्रव्य० गा० १८ । ३. द्रव्य० गा० १९। ४. द्रव्य गा० २० । ५. द्रव्य गा० २२ । ६. त० सू० ८-१। ७. स्निग्धरूक्षत्वाद्बन्धः ।-त० सू० ५-३३ । जोत Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : ५०१ जीवबन्धविचार-यों तो जीवकी बद्ध और मुक्त अवस्था सभी आस्तिक दर्शनोंने स्वीकारकी है । बहुतसे दर्शनोंका प्रयोजन ही निश्रेयस प्राप्ति है। किन्तु जैन दर्शनने बन्ध-मोक्षकी जितनी अधिक चर्चाकी है उतनी अन्यत्र देखनेको नहीं मिलती। जैन आगमका बहुभाग इसकी चर्चासे भरा पड़ा है। वहाँ जीव क्यों और कबसे बँधा है, बद्ध जीवकी कैसी अवस्था होती है, बँधनेवाला दूसरा पदार्थ क्या है जिसके साथ जीवका बन्ध होता है, बन्धसे इस जीवका छुटकारा कैसे होता है, बन्धके कितने भेद हैं, बँधनेके बाद उस दूसरे पदार्थ का जीवके साथ कब तक सम्बन्ध बना रहता है, बंधनेवाले दूसरे पदार्थके सम्पर्कसे जीवकी विविध अवस्थाएँ कैसे होती हैं, बँधनेवाला दूसरा पदार्थ क्या जिस रूपमें बँधता है उसी रूप में बना रहता है या परिस्थितिवश उसमें न्यूनाधिक परिवर्तन भी होता है, आदि सभी प्रश्नोंका विस्तृत समाधान किया गया है। आगे हम उक्त प्रश्नोंके आधारसे इस विषयकी चर्चा कर लेना इष्ट समझते हैं। संसारकी अनादिता-जैसा कि हम पहले बतला आये हैं कि जीवके संसारी और मुक्त ये दो भेद है । जो चतुर्गति-योनियोंमें परिभ्रमण करता है उसे संसारी कहते हैं, इसका दूसरा नाम बद्ध भी है। और जो संसारसे मुक्त हो गया है उसे मुक्त कहते हैं । ये दोनों भेद अवस्थाकृत होते हैं। पहले जीव संसारी होता है और जब वह प्रयत्नपूर्वक संसारका अन्त कर देता है तब वही मुक्त हो जाता है। मुक्त होनेके बाद जीव पुनः संसारमें नहीं आता। उस समय उसमें ऐसी योग्यता ही नहीं रहती जिससे वह पुनः कर्मबन्धको प्राप्त कर सके । कर्मबन्धके मुख्य कारण मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग हैं । जब तक इनका सद्भाव पाया जाता है तभी तक कर्मबन्ध होता है। इनका अभाव होने पर जीव मुक्त हो जाता है । इससे कर्मबन्धके मुख्य कारण मिथ्यात्व आदि हैं यह ज्ञात होता है। ये मिथ्यात्व आदि जीवके वे परिणाम हैं जो बद्धदशामें होते हैं । अबद्ध जीवके इनका सद्भाव नहीं पाया जाता। इससे कर्मबन्ध और मिथ्यात्व आदिका कार्यकारणभाव सिद्ध होता है । बद्ध जीवके कर्मोंका निमित्त पाकर मिथ्यात्व आदि होते हैं और मिथ्यात्व आदिके निमित्तसे कर्मबन्ध होता है यह कार्यकारण भावकी परम्परा है। इसी भावको स्पष्ट करते हुए समयप्राभूतमें लिखा है 'जीवपरिणामहेहूँ कम्मत्तं पूग्गला परिणमंति । पुग्गलकम्मणिमित्तौं तहेव जीवो वि परिणमइ ॥८॥ 'जीवके मिथ्यात्व आदि परिणामोंका निमित्त पाकर पुद्गलोंका कर्मरूप परिणमन होता है और पुद्गल कर्मके निमित्तसे जीव भी मिथ्यात्व आदि रूप परिणमता है।' कर्मबन्ध और मिथ्यात्व आदिकी यह परम्परा अनादि कालसे चली आ रही है। आगममें इसके लिये बीज और वृक्षका दृष्टान्त दिया गया है । इस परम्पराका अन्त किया जा सकता है पर प्रारम्भ नहीं। इसीसे व्यक्तिकी अपेक्षा मुक्तिको सादि और संसारको अनादि माना है। संसारका मुख्य कारण कर्म है-संसार और मुक्त ये जीवकी दो दशाएँ है यह हम पहले ही बतला आये हैं । यों तो इन दोनों अवस्थाओंका कर्ता स्वयं जीव है। जीव ही स्वयं संसारी होता है और जीव ही मुक्त । राग-द्वेष आदिरूप अशुद्ध और केवलज्ञान आदिरूप शुद्ध जितनी भी अवस्थाएँ होती हैं वे सब जीवकी ही होती हैं, क्योंकि जीवके सिवा ये अन्य द्रव्यमें नहीं पाई जाती। तथापि इनमें जो शुद्धता और अशुद्धताका भेद किया जाता है वह निमित्तकी अपेक्षासे ही किया जाता है। निमित्त दो प्रकारके माने गये हैं। एक वे जो साधारण कारणरूपसे स्वीकार किये गये है। धर्म, अधर्म, आकाश और काल इन चार द्रव्योंका सद्भाव इसी १. 'संसारिणो मक्तश्च ।'-त० सू० २-१० । Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०२ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ रूपसे स्वीकार किया गया है। और दूसरे वे जो प्रत्येक कार्यके अलग-अलग होते हैं। जैसे घट पर्यायकी उत्पत्ति में कुम्हार निमित्त है और जीवकी अशद्धताका निमित्त कर्म है आदि। जब तक जीवके साथ कर्मका सम्बन्ध है तभी तक ये राग, द्वेष और मोह आदि भाव होते हैं, कर्मके अभावमें नहीं। इसीसे संसारका मुख्य कारण कर्म कहा गया है । घर, पुत्र, स्त्री, धन आदिका नाम संसार नहीं है। वह तो जीवको अशुद्धता है जो कर्मक सद्भावमें ही पाई जाती है । इसलिये संसार और कर्मका अन्वय व्यतिरेक सम्बन्ध है ऐसा यहाँ जानना चाहिये । जबतक यह सम्बन्ध बना रहता है तबतक यह चक्र यों ही घूमा करता है। इसी बातको विस्तारसे स्पष्ट करते हुए पंचास्तिकायमें लिखा है 'जो खलु संसारत्थो जीवो तत्तो दु होदि परिणामो। परिणामादो कम्म कम्मादो होदि गदीसु गदी ॥१२८।। गदिमधिगदस्स देहो देहादो इंदियाणि जायते । तेहिं दु विसयगहणं तत्तो रागो व दोसो वा ।।१२९।। जायदि जीवस्सेवं भावो संसारचक्कवालम्मि । 'जो जीव संसारमें स्थित है उसके राग-द्वेषरूप परिणाम होते हैं। परिणामोंसे कर्म बँधते है। कर्मोसे गतियोंमें जन्म लेना पड़ता है। इससे शरीर होता है। शरीरके प्राप्त होनेसे इन्द्रियाँ होती हैं। इन्द्रियोंसे विषयोंका ग्रहण होता है। विषय ग्रहणसे राग और द्वेषरूप परिणाम होते हैं। जो जीव संसार-चक्रमें पड़ा है उसकी ऐसी अवस्था होती है।' इस प्रकार संसारका मुख्य कारण कर्म है यह ज्ञात होता है । कर्मका स्वरूप-कर्मका मुख्य अर्थ क्रिया है। क्रिया अनेक प्रकारकी होती है। हँसना, खेलना, कृदना, उठना, बैठना, रोना, गाना, जाना, आना आदि ये सब क्रियाएँ हैं। क्रिया जड़ और चेतन दोनोंमें पाई जाती है । कर्मका सम्बन्ध आत्मासे है, अतः केवल जड़की क्रिया यहाँ विवक्षित नहीं है । और शुद्ध जीव निष्क्रिय है। वह सदा ही आकाशके समान निर्लेप और भित्तीमें उकीरे गये चित्रके समान निष्कम्प रहता है । यद्यपि जैन दर्शनमें जड़ चेतन सभी पदार्थोंको उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य स्वभाववाला माना गया है। यह स्वभाव क्या शुद्ध और क्या अशुद्ध सब पदार्थोंका पाया जाता है। किन्तु यहाँ क्रियाका अर्थ परिस्पंद लिया है। परिस्पन्दात्मक क्रिया सब पदार्थों की नहीं होती। वह पुद्गल और संसारी जीवके ही पाई जाती है। इसलिये प्रकृतमें कर्मका अर्थ संसारी जीवकी क्रिया लिया गया है। आशय यह है कि संसारी जीवके प्रति समय परिस्पन्दात्मक जो भी क्रिया होती है वह कर्म कहलाता है। यद्यपि कर्मका मुख्य अर्थ यही है तथापि इसके निमित्तसे जो पुद्गल परमाणु ज्ञानावरणादि भावको प्राप्त होते है वे भी कर्म कहलाते हैं। अमृतचन्द्रसूरिने प्रवचन सारकी टीकामें इसी भावको दिखलाते हुए लिखा है 'क्रिया खल्वात्मना प्राप्यत्वात्कर्म तन्निमित्तप्राप्तपरिणामः पुद्गलोऽपि कर्म ।' पृ० १६५ । जैनदर्शनमें कर्मके मुख्यतया दो भेद किये गये हैं द्रव्यकर्म और भावकर्म। ये भेद जातिकी अपेक्षासे नहीं किये जाकर कार्यकारणभावकी अपेक्षासे किये गये है । सदाकालसे जीव बद्ध और अशुद्ध इन्हीं के कारण हो रहा है। जो पुद्गल परमाणु आत्मासे सम्बद्ध होकर ज्ञानादि भावोंका घात करते हैं और आत्मामें ऐसी योग्यता लानेमें निमित्त होते हैं जिससे वह विविध शरीर आदिको धारण कर सके उन्हें द्रव्यकर्म कहते हैं। Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : ५०३ तथा आत्माके जिन भावोंसे इन द्रव्य कर्मोंका उससे सम्बन्ध होता है वे भावकर्म कहलाते हैं । द्रव्यकर्मकी चर्चा करते हुए अकलंक देवने राजवातिकमें लिखा है 'यथा भाजनविशेषे प्रक्षिप्तानां विविधरसबीजपुष्पफलानां मदिराभावेन परिणामः तथा पुद्गलनामपि आत्मनि स्थितानां योगकषायवशात् कर्मभावेन परिणामो वेदितव्यः' । 'जैसे पात्र विशेषमें डाले गये अनेक रसवाले बीज, पुष्प और फलोंका मदिरारूपसे परिणमन होता है उसी प्रकार आत्मामें स्थित पुद्गलोंका भी योग-कषायके कारण कर्मरूपसे परिणमन होता है ।' योग और कषायके बिना पुद्गल परमाणु कर्मभावको नहीं प्राप्त होते, इसलिये योग और कषाय तथा कर्मभावको प्राप्त हुए पुद्गल परमाणु ये दोनों कर्म कहलाते हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है। कर्मबन्धके हेतु-यह हम पहले ही बतला आये हैं कि आत्मा मिथ्यात्व' (अतत्त्वश्रद्धा या तत्त्वरुचिका अभाव) अविरति (त्यागरूप परिणतिका अभाव) प्रमाद (अनवधानता) कषाय (क्रोधादिभाव) और योग (मन, वचन और कायका व्यापार) के कारण अन्य द्रव्यसे बन्धको प्राप्त होता है। पर इनमें बन्धमात्रके प्रति योग और कषायकी प्रधानता है। आगे बन्धके चार भेद बतलानेवाले हैं-उनमेंसे प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्ध योगसे होता है तथा स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध कषायसे होता है । आगममें योगको गरम लोहेकी और कषायको गोंदकी उपमा दी गई है। जिस प्रकार गरम लोहेको पानीमें डालने पर वह चारों ओरसे पानीको खींचता है ठीक यही स्वभाव योगका है और जिस प्रकार गोंदके कारण एक कागज दुहरे कागजसे चिपक जाता है ठीक यही स्वभाव कषायका है। योगके कारण कर्म परमाणुओंका आस्रव होता है और कषायके कारण वे बँध जाते हैं । इसलिए कर्मबन्धके मुख्य कारण पाँच होते हुए भी उनमें योग और कषायकी प्रधानता है। प्रकृति आदि चारों प्रकारके बन्धके लिये इन दो का सद्भाव अनिवार्य है। जब कर्मके अवान्तर भेदोंमें कितने कर्म किस हेतुसे बंधते हैं इत्यादि रूपसे कर्मबन्धके सामान्य हेतुओंका वर्गीकरण किया जाता है तब वे पाँच प्राप्त होते हैं और जब प्रकृति आदि · चार प्रकारके बन्धोंमें कौन बन्ध किस हेतुसे होता है इसका विचार किया जाता है तब वे दो प्राप्त होते है । ये कर्मबन्धके सामान्य कारण हैं, विशेष कारण जुदे-जुदे हैं । तत्त्वार्थसूत्रमें विशेष कारणोंका निर्देश आस्रवके स्थानमें किया गया है । कर्मके भेद-जैनदर्शन प्रत्येक द्रव्यमें अनन्त शक्तियाँ मानता है। जीव भी एक द्रव्य है अतः उसमें भी अनन्त शक्तियाँ हैं । जब यह संसार दशामें रहता है तब उसकी वे शक्तियाँ कर्मसे आवृत रहती हैं। फलतः कर्मके अनन्त भेद हो जाते हैं। किन्तु जीवकी मख्य शक्तियोंकी अपेक्षा कर्मके आठ भेद किये गये हैं। यथा-ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय । ज्ञानावरण-जीवकी ज्ञानशक्तिको आवरण करनेवाले कर्मकी ज्ञानावरण संज्ञा है। इसके पाँच भेद है। दर्शनावरण-जीवकी दर्शन शक्तिको आवरण करनेवाले कर्मकी दर्शनावरण संज्ञा है। इसके नो भेद है। वेदनीय-सुख और दुःखका वेदन कराने वाले कर्मकी वेदनीय संज्ञा है । इसके दो भेद हैं । १. 'मित्वात्वाविरतिप्रमादकषाययोगाः बन्धहेतवः'-त० सू०८-१ । २. 'जोगा पयडिपदेसा टिदिअणुभागो कसायदो होदि ।'-द्रव्य० गा० ३१ । Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०४ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ मोहनीय-राग, द्वेष और मोहको पैदा करनेवाले कर्मकी मोहनीय संज्ञा है। इसके दर्शन मोहनीय और चारित्र मोहनीय ये दो भेद हैं । दर्शन मोहनीयके तीन और चारित्र मोहनीय के पच्चीस भेद हैं। आयु-नरकादि गतियोंमें अवस्थानके कारणभूत कर्मकी आयु संज्ञा है। इसके चार भेद हैं। नाम-नाना प्रकारके शरीर, वचन और मन तथा जीवकी विविध अवस्थाओंके कारणभूत कर्मकी नाम संज्ञा है। इसके तिरानवे भेद हैं। गोत्र-नीच, उच्च सन्तान (परम्परा) के कारणभत कर्मकी गोत्र संज्ञा है। इसके दो भेद है । जैनधर्म जाति या आजीवकाकृत नीच उच्च भेद न मानकर इसे गुणकृत मानता है। अच्छे आचारवालोंकी परम्परामें जो जन्म लेते हैं या जो ऐसे लोगोंकी सत्संगति करते हैं या जो मानवोचित आचारको जीवनमें उतारते हैं वे उच्चगोत्री माने गये हैं और जिनकी स्थिति इनके विरुद्ध है वे नीचगोत्री माने गये हैं। नीचगोत्री बुरे आचारका त्याग करके उसी पर्यायमें उच्चगोत्री हो सकता है। जैनधर्म के अनुसार ऐसे जीवको श्रावक और मुनि होनेका पूरा अधिकार है । अन्तराय-जीवके दानादि भाव प्रकट न होनेके निमित्तभूत कर्मकी अन्तराय संज्ञा है । इसके पाँच भेद है। ये सब कर्म मुख्यत. चार भागोंमें बँटे हए हैं जीवविपाकी, पदगलविपाकी, क्षेत्रविपाकी और भवोविपाकी । जिनका विपाक जीवमें होता है वे जीवविपाकी है । जिनका विपाक जीवसे एकक्षेत्रावगाह सम्बन्धकप्राप्त हुए पुद्गलोंमें होता है वे पुद्गलविपाकी हैं। जिनका विपाक भवमें होता है वे भवविपाकी हैं और जिनका विपाक क्षेत्र विशेषमें होता है वे क्षेत्र विपाकी है। ये सब कर्म पुण्य और पापके भेदसे दो प्रकारके हैं। ये भेद अनुभाग बन्धकी अपेक्षासे किये गये हैं। दान पूजा, मन्दकषाय, साधुसेवा आदि शुभ परिणामोंसे जिन कर्मोका उत्कृट अनुभाग प्राप्त होता है वे पुण्यकर्म हैं। और मदिरापान, मांससेवन, परस्त्रीगमन, शिकार करना, जुआ खेलना, रात्रि भोजन करना, बुरे भाव रखना, ठगी दगाबाजी करना आदि अशभ परिणामोंसे जिन कर्मोका उत्कृट अनुभाग प्राप्त होता है वे पापकर्म है। अनुभाग-फलदानशक्ति घाति और अघातिके भेदसे दो प्रकारकी है। धातिरूप अनुभागशक्तिके तारतम्य की अपेक्षासे चार भेद हो जाते हैं। लता, दारु (लकड़ी) अस्थि और शैल । यह पापरूप ही होती है । किन्तु अघातिरूप अनुभागशक्ति पुण्य और पाप दोनों प्रकारकी होती है । इसमेंसे प्रत्येकके चार-चार भेद हैं । गुड़, खाँड़, शर्करा और अमृत ये पुण्यरूप अनुभाग शक्तिके चार भेद हैं और निम्ब, कंजीर, विष और हलाहल ये पापरूप अनुभागशक्तिके चार भेद हैं । जिसका जैसा नाम है वैसा उसका फल है । ___ जीवके गुण (शक्ति) दो भागोंमें बंटे हुए हैं-अनुजीवीगुण और प्रतिजीवी गुण । जिन गुणोंका सद्भाव केवल जीवमें पाया जाता है वे अनुजीवी गुण हैं और जिनका सद्भाव जीवमें पाया जाकर भी जीवके सिवा अन्य द्रव्योंमें भी यथायोग्य पाया जाता है वे प्रतिजीवी गुण हैं। इन गुणोंके कारण ही कर्मोके घाति और अघाति ये भेद किये गये हैं। ज्ञान, दर्शन, सम्यक्त्व, चरित्र, वीर्य, लाभ, दान, भोग, उपभोग और सुख ये अनुजीवी गुण है । ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय ये कर्म उक्त गणोंका घात करनेवाले होनेसे घातिकर्म है और शेष अघाति कर्म है।। कर्मकी विविध अवस्थाएँ-जीवकी प्रति समय जो अवस्था होती है उसका निमित्त कर्म है। यद्यपि जीवकी वह अवस्था उसी समय नष्ट हो जाती है अन्य समयमें अन्य होती है पर संस्काररूपसे वह कर्ममें Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : ५०५ अंकित रहती है । प्रति समयके कर्म जुदे-जदे हैं। और जबतक वे फल नहीं दे लेते नष्ट नहीं होते । बिना भोगे कर्मका क्षय नहीं। 'नाभुक्तं क्षीयते कर्म ।' कर्मका भोग विविध प्रकारसे होता है। कभी जैसा कर्मका संचय किया है उसी रूपमें उसे भोगना पड़ता है। कभी न्यन, अधिक या विपरीत रूपसे उसे भोगना पड़ता है। कभी दो कर्म मिलकर एक काम करते हैं । साता और असाता इनके काम जुदे-जुदे हैं, पर कभी ये दोनों मिलकर सुख या दुःख किसी एकको जन्म देते हैं। कभी एक कर्म विभक्त होकर विभागानुसार काम करता है। उदाहरणार्थ मिथ्यात्वका मिथ्यात्व. सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यकप्रकृतिरूपसे विभाग हो जानेपर इनके कार्य भी जुदे-जुदे हो जाते हैं। कभी नियत कालके पहले कर्म अपना कार्य करता है तो कभी नियत कालसे बहुत समय बाद उसका फल देखा जाता है । जिस कर्मका जैसा नाम, स्थिति और फलदानशक्ति है उसीके अनुसार उसका फल मिलता है यह साधारण नियम है । अपवाद इसके अनेक हैं। कुछ कर्म ऐसे अवश्य हैं जिनकी प्रकृति नहीं बदलती । उदाहरणार्थ चार आयुकर्म । आयु कर्मोमें जिस आयुका बन्ध होता है उसी रूपमें उसे भोगना पड़ता है। उसके स्थिति-अनुभागमें उलट फेर भले ही हो जाय, पर भोग उनका अपनी-अपनी प्रकृतिके अनुसार ही होता है। यह कभी सम्भव नहीं कि नरकायुको तिर्यंचायुरूपसे भोगा जा सके या तियंचायुको नरकायुरूपसे भोगा जा सके। शेष कर्मोके विषयमें ऐसा कोई नियम नहीं है। मोटा नियम इतना अवश्य है कि मूल कर्ममें बदल नहीं होता। इस नियमके अनुसार दर्शनमोहनीय और चरित्रमोहनीय ये मूल कर्म मान लिये गये हैं। कर्मकी ये विविध अवस्थाएँ हैं जो बन्ध समयसे लेकर उनकी निर्जरा होने तक यथासम्भव होती हैं । इनके नाम ये हैं बन्ध, सत्त्व, उत्कर्षण, अपकर्षण, संक्रमण, उदय, उदीरणा, उपशान्त, निधत्ति और निकाचना । बन्ध-कर्म वर्गणाओंका आत्मप्रदेशोंसे सम्बद्ध होना तन्ध है। इसके प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश ये चार भेद हैं। जिस कर्मका जो स्वभाव है वह उसकी प्रकृति है । यथा ज्ञानावरणका स्वभाव ज्ञानको आवृत्त करना है। स्थिति कालमर्यादाको कहते हैं। किस कर्मकी जघन्य और उत्कृष्ट कितनी स्थिति पड़ती है इस सम्बन्धमें अलग-अलग नियम हैं। अनुभाग फलदान शक्तिको कहते हैं। प्रत्येक कर्ममें न्यूनाधिक फल देनेकी योग्यता होती है। प्रति समय बँधनेवाले कर्मके परमाणुओंकी परिगणना प्रदेशबन्धमें क जाती है। सत्त्व-बंधनेके बाद कर्म आत्मासे सम्बद्ध रहता है । तत्काल तो वह अपना काम करता ही नहीं । किन्तु जब तक वह अपना काम नहीं करता है तबतक उसकी वह अवस्था सत्ता नामसे अभिहित होती है । उत्कर्षण आदिके निमित्तसे होनेवाले अपवादको छोड़कर साधारणतः प्रत्येक कर्मका नियम है कि वह बँ धनेके बाद कबसे काम करने लगता है। बीचमें जितने काल तक काम नहीं करता है उसकी आबाधाकाल संज्ञा है। - आबाधाकालके बाद प्रति समय एक-एक निषेक काम करता है। यह क्रम विवक्षित कर्मके पूरे होने तक चालू रहता है । आगममें प्रथम निषेककी आबाधा दी गई है। शेष निषेकोंकी आबाधा क्रमसे एक-एक समय बढ़ती जाती है । इस हिसाबसे अन्तिम निषेककी आबाधा एक समय कम कर्मस्थिति प्रमाण होती है । आयुकर्मके प्रथम निषेककी आबाधाका क्रम जुदा है । शेष क्रम समान है । उत्कर्षण-स्थिति और अनुभागके बढ़ानेकी उत्कर्षण संज्ञा है । यह क्रिया बन्धके समय ही सम्भव है । अर्थात् जिस कर्मका स्थिति और अनुभाग बढ़ाया जाता है उसका पुनः बन्ध होने पर पिछले बँधे Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०६ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्रो अभिनन्दन-ग्रन्थ हुए कर्मका नवीन बन्धके समय स्थिति-अनुभाग बढ़ सकता है। यह साधारण नियम है। अपवाद भी इसके अनेक हैं। अपकर्षण-स्थिति और अनुभागके घटानेकी अपकर्षण संज्ञा है। कुछ अपवादोंको छोड़कर किसी भी कर्मको स्थिति और अनुभाग कम किया जा सकता है। इतनी विशेषता है कि शुभ परिणामोंसे अशुभ कर्मोंका स्थिति और अनुभाग कम होता है । तथा अशुभ परिणामोंसे शुभ कर्मोंका स्थिति और अनुभाग कम होता है । संक्रमण--एक कर्म प्रकृतिके परमाणुओंका सजातीय दूसरी प्रकृतिरूप हो जाना संक्रमण है यथा असाताके परमाणुओंका सातारूप हो जाना । मूल कर्मोका परस्पर संक्रमण नहीं होता। यथा ज्ञानावरण दर्शनावरण नहीं हो सकता। आयुकर्मके अवान्तर भेदोंका परस्पर संक्रमण नहीं होता और न दर्शनमोहनीयका चारित्रमोहनीयरूपसे या चारित्रमोहनीयका दर्शनमोहनीयरूपसे ही संक्रमण होता है। उदय-प्रत्येक कर्मका फल काल निश्चित रहता है। इसके प्राप्त होनेपर कर्मके फल देनेरूप अवस्थाकी उदय संज्ञा है। फल देनेके बाद उस कर्मकी निर्जरा हो जाती है। आत्मासे जितने जातिके कर्म सम्बद्ध रहते हैं वे सब एक साथ अपना काम नहीं करते । उदाहरणार्थ साताके समय असाता अपना काम नहीं करता। ऐसी हालतमें असाता प्रति समय सातारूप परिणमन करता रहता है और फल भी उसका सातारूप ही होता है। प्रति समय यह क्रिया उदय कालके एक समय पहले हो लेती है। इतना सुनिश्चित है कि बिना फल दिये कोई भी कर्म जीर्ण नहीं होता। उदीरणा-फल कालके पहले कर्मके फल देनेरूप अवस्थाकी उदीरणा संज्ञा है। कुछ अपवादोंको छोड़कर साधारणतः कर्मोका उदय और उदीरणा सर्वदा होती रहती है । त्यागवश विशेष होती है । उदीरणा उन्हीं कर्मोंकी होती है जिनका उदय होता है । अनुदय प्राप्त कर्मोकी उदीरणा नहीं होती । उदाहरणार्थ जिस मुनिके साताका उदय है उसके अपकर्षण साता और असाता दोनोंका होता है किन्तु उदीरणा साताकी ही होती है। यदि उदय बदल जाता है तो उदीरणा भी बदल जाती है, इतना विशेष है। उपशान्त--कर्मकी वह अवस्था जो उदीरणाके अयोग्य होती है उपशान्त कहलाती है। उपशान्त 'अवस्थाको प्राप्त कर्मका उत्कर्षण, अपकर्षण और संक्रमण हो सकता है किन्तु इसकी उदीरणा नहीं होतो। निधत्ति-कर्मकी वह अवस्था जो उदीरणा और संक्रमण इन दो के अयोग्य होती है निधत्ति कहलाती है। निधत्ति अवस्थाको प्राप्त कर्मका उत्कर्षण और अपकर्षण हो सकता है किन्तु इसका उदीरणा और संक्रमण नहीं होता। निकाचना-कर्मकी वह अवस्था जो उत्कर्षण, अपकर्षण, उदीरणा और संक्रमण इन चारके अयोग्य होती है निकाचना कहलाती है। इसका स्वमुखेन या परमुखेन उदय होता है । यदि अनुदय प्राप्त होता है तो परमुखेन उदय होता है, नहीं तो स्वमुखेन ही उदय होता है । उपशान्त और निधत्ति अवस्थाको प्राप्त कर्मका उदयके विषयमें यही नियम जानना चाहिये। यहाँ इतना विशेष जानना चाहिये कि सातिशय परिणामोंसे कर्मकी उपशान्त, निधत्ति और निकाचनारूप अवस्थाएँ बदली भी जा सकती है। ये कर्मकी विविध अवस्थाएँ हैं जो यथायोग्य पाई जाती हैं। कर्मकी कार्य मर्यादा-कर्मका मोटा काम जीवको संसारमें रोक रखना है। परावर्तन संसारका दूसरा नाम है। द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भावके भेदसे वह पाँच प्रकारका है। कर्मके कारण ही जीव इन पाँच प्रकारके परावर्तनोंमें घूमता फिरता है। चौरासी लाख योनियाँ और उनमें रहते हए जीवकी जो विविध Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : ५०७ अवस्थाएँ होती है उनका मुख्य कारण कर्म है । स्वामी समन्तभद्र आप्तमीमांसामें कर्मके कार्यका निर्देश करते हुए लिखते हैं 'कामादिप्रभवश्चित्रः कर्मबन्धानुरूपतः ।' 'जीवकी काम, क्रोध आदि रूप विविध अवस्थाएँ अपने अपने कर्मके अनुरूप होती हैं।' बात यह है कि मुक्त दशामें जीव की प्रति समय जो स्वाभाविक परिणति होती है उसका अलग-अलग निमित्त कारण नहीं है, नहीं तो उसमें एकरूपता नहीं बन सकती । किन्तु संसारदशामें वह परिणति प्रति समय जुदी-जुदी होती रहती है, इसलिये उसके जुदे-जुदे निमित्त कारण माने गये हैं । ये निमित्त संस्कार रूप में आत्मासे सम्बद्ध होते रहते हैं और तदनुकूल परिणतिके पैदा करनेमें सहायता प्रदान करते हैं । जीवकी अशुद्धता और शुद्धता इन निमित्तोंके सद्भाव और असद्भावपर आधारित है । जब तक इन निमित्तोंका एकक्षेत्रावगाह संश्लेषरूप सम्बन्ध रहता है तब तक अशुद्धता बनी रहती है और इनका सम्बन्ध छूटते हो जीव शुद्ध दशाको प्राप्त हो जाता है । जैन दर्शनमें इन्हीं निमितोंको कर्म शब्दसे पुकारा गया है। ऐसा भी होता है कि जिस समय जैसी बाह्य सामग्री मिलती है उस समय उसके अनुकूल अशुद्ध आत्माकी परिणति होती है। सुन्दर सुस्वरूप स्त्रीके मिलनेपर राग होता है । जुगुप्साकी सामग्री मिलनेपर ग्लानि होती है । धन सम्पत्तिको देखकर लोभ होता है और लोभवश उसके अर्जन करने, छीन लेने या चुरा लेनेकी भावना होती है। ठोकर लगनेपर दुःख होता है और मालाका संयोग होने पर सुख । इसलिये यह कहा जा सकता है कि केवल कर्म ही आत्माकी विविध परिणतिके होने में निमित नहीं है किन्तु अन्य सामग्री भी उसका निमित्त है, अतः कर्मका स्थान बाह्य सामग्रीको मिलना चाहिये । परन्तु विचार करनेपर यह युक्त प्रतीत नहीं होता, क्योंकि अन्तरंगमें वैसी योग्यताके अभावमें बाह्य सामग्री कुछ भी नहीं कर सकती हैं। जिस योगीके रागभाव नष्ट हो गया है उसके सामने प्रबल रागकी सामग्री उपस्थित होनेपर भी राग पैदा नहीं होता। इससे मालूम पड़ता है कि अन्तरंगमें योग्यताके बिना बाह्य सामग्रीका कोई मूल्य नहीं है। यद्यपि कर्मके विषयमें भी ऐसा ही कहा जा सकता है पर कर्म और बाह्य सामग्री इनमें मौलिक अन्तर है। कर्म वैसी योग्यताका सूचक है पर बाह्य सामग्रीका वैसी योग्यतासे कोई सम्बन्ध नहीं। कभीसी योग्यताके सद्भावमें भी बाह्य सामग्री नहीं मिलती और कभी उसके अभावमें भी बाह्य सामग्रीका संयोग देखा जाता है। किन्तु कर्मके विषयमें ऐसी बात नहीं है । उसका सम्बन्ध तभी तक आत्मासे रहता है जब तक उसमें तदनुकूल योग्यता पाई जाती है । अतः कर्मका स्थान बाह्य सामग्री नहीं ले सकती। फिर भी अन्तरंगमें योग्यताके रहते हुए बाह्य सामग्रीके मिलनेपर न्यूनाधिक परिमाणमें कार्य तो होता ही है। इसलिये निमित्तोंकी परिगणनामें बाह्य सामग्रीकी भी गिनती हो जाती है । पर यह परम्परानिमित्त है इसलिये इसकी परिगणना नोकर्मके स्थानमें की गई है। इतने विवेचनसे कर्मको कार्य मर्यादाका पता लग जाता है। कर्मके निमित्तसे जीवकी विविध प्रकारकी अवस्था होती है और जीवमें ऐसी योग्यता आती है जिससे वह योग द्वारा यथायोग्य शरीर, वचन और मनके योग्य पुद्गलोंको ग्रहण कर उन्हें अपनी योग्यतानुसार परिणमाता है। कर्मकी कार्यमर्यादा यद्यपि उक्त प्रकारकी है तथापि अधिकतर विद्वानोंका विचार है कि बाह्य सामग्रीकी प्राप्ति भी कमसे होती है। इन विचारोंकी पुष्टिमें वे मोक्षमार्ग प्रकाशके निम्न उल्लेखोंको उपस्थित करते हैं-'तहाँ वेदनीय करि तौ शरीर विष वा शरीर तै बाह्य नाना प्रकार सुख दुःखनिको कारण परद्रव्यका संयोग जुरै है ।' पृ० ३५। Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०८ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ उसीसे 'दूसरा प्रमाण वे यों देते हैं 'बहु र कर्मनि विष वेदनीयके उदयकरि शरीर विषै बाह्य सुख दुःखका कारण निपज हैं। शरीर विषै आरोग्यपनौ रोगीपनौ शक्तिवानपनौ दुर्बलपनौ अर क्षुधा तृषा रोग खेद पीड़ा इत्यादि सुख दुःखनिके कारण हो हैं । बहुरि बाह्य विषै सुहावना ऋतु पवनादिक वा इष्ट स्त्री पुत्रादिक वा मित्र धनादिक" सुख दुःखके कारक हो हैं ।' पृ० ५९ । इन विचारोंकी परम्परा यहीं तक नहीं जाती है किन्तु इससे पूर्ववर्ती बहुतसे लेखकोंने भी ऐसे ही विचार प्रकट किये हैं। पुराणोंमें पुण्य और पापकी महिमा इसी आधारसे गाई गई है । अमितिगतिके सुभाषित रत्नसन्दोह में देवनिरूपण नामका एक अधिकार है । उसमें भी ऐसा ही बतलाया है । वहाँ लिखा है कि पापी जीव समुद्रमें प्रवेश करनेपर भी रत्न नहीं पाता किन्तु पुण्यात्मा जीव तटपर बैठे ही उन्हें प्राप्त कर लेता है । यथा जलधिगतोऽपि न कश्चित्कश्चित्तटगोऽपि रत्नमुपयाति । किन्तु विचार करनेपर उक्त कथन युक्त प्रतीत नहीं होता । खुलासा इस प्रकार है कर्म के दो भेद हैं- जीवविपाकी और पुद्गलविपाकी । जो जीवकी विविध अवस्था और परिमाणोंके । होनेमें निमित्त होते हैं वे जीवविपाकी कर्म कहलाते हैं और जिनसे विविध प्रकारके शरीर, वचन, मन और श्वासोच्छ्वासकी प्राप्ति होती है वे पुद्गलविपाकी कर्म कहलाते हैं । इन दोनों प्रकारके कर्मोंमें ऐसा एक भी कर्म नहीं बतलाया है जिसका काम बाह्य सामग्रीका प्राप्त कराना हो । सातावेदनीय और असातावेदनीय ये स्वयं जीवविपाकी हैं । राजवार्तिकमें इनके कार्यका निर्देश करते हुए लिखा है 'यस्योदयाद्दे वादिगतिषु शारीरमानससुखप्राप्तिस्तत्सद्वेद्यम् । यत्फलं दुःखमनेकविधं तदसद्वेद्यम् ।' पृष्ठ ३०४ । इन वार्तिकोंकी व्याख्या करते हुए वहाँ लिखा है-. 'अनेक प्रकारकी देवादि गतियोंमें जिस कर्मके उदयसे जीवोंके प्राप्त हुए द्रव्य के सम्बन्धकी अपेक्षा शारीरिक और मानसिक नाना प्रकारका सुखरूप परिणाम होता है वह साता वेदनीय है । तथा नाना प्रकारकी नरकादि गतियोंमें जिस कर्मके फलस्वरूप जन्म, जरा, मरण, इष्टवियोग, अनिष्टसंयोग, व्याधि, वध और बन्धनादिसे उत्पन्न हुआ विविध प्रकारका मानसिक और कायिक दुःसह दुख होता है वह असाता वेदनीय है ।' सर्वार्थसिद्धिमें जो साता वेदनीय और असाता वेदनीयके स्वरूपका निर्देश किया है। उससे भी उक्त कथन की पुष्टि होती है । श्वेताम्बर कार्मिक ग्रन्थोंमें भी इन कर्मोंका यही अर्थ किया है। ऐसी हालतमें इन कर्मोंको अनुकूल व प्रतिकूल बाह्य-सामग्री के संयोग-वियोग में निमित्त मानना उचित नहीं है । वास्तवमें बाह्य सामग्रीकी प्राप्ति अपने-अपने कारणोंसे होती है । इसकी प्राप्तिका कारण कोई कर्म नहीं है । ऊपर मोक्षमार्ग प्रकाशकके जिस मतकी चर्चाकी उसके सिवा दो मत और मिलते हैं जिनमें बाह्य सामग्रीकी प्राप्ति के कारणोंका निर्देश किया गया है। इनमेंसे पहला मत तो पूर्वोक्त मतसे ही मिलता-जुलता है । दूसरा मत कुछ भिन्न है । आगे इन दोनोंके आधारसे चर्चा कर लेना इष्ट है ( १ ) षट्खण्डागम चूलिका अनुयोगद्वारमें प्रकृतियोंका नाम निर्देश करते हुए सूत्र १८ की टीकामें वीरपेन स्वामीने इन कर्मोकी विस्तृत चर्चा की है । वहाँ सर्वप्रथम उन्होंने साता और असाता वेदनीयका वही स्वरूप Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : ५०९ दिया है जो सर्वसिद्धि आदिमें बतलाया गया है। किन्तु शंका समाधानके प्रसंगसे उन्होंने सातावेदनीयको जीवविपाकी और पुद्गलविपाकी उभयरूप सिद्ध करनेका प्रयत्न किया है। इस प्रकरणके वाचनेसे ज्ञात होता है कि वीरसेन स्वामीका यह मत था कि सातावेदनीय और असाता वेदनीयका काम सुख दुखको उत्पन्न करना तथा इनकी सामग्रीको जुटाना दोनों हैं । (२) तत्त्वार्थसूत्र अध्याय २ सूत्र ४ की सर्वार्थसिद्धि टीकामें बाह्य सामग्रीकी प्राप्तिके कारणोंका निर्देश करते हुए लाभादिको उसका कारण बतलाया है। किन्तु सिद्धोंमें अतिप्रसंग देने पर लाभादिके साथ शरीर नामकर्म आदिकी अपेक्षा और लगा दी है। ये दो ऐसे मत है जिनमें बाह्य सामग्रीकी प्राप्तिका क्या कारण है इसका स्पष्ट निर्देश किया है । आधुनिक विद्वान भी इनके आधारसे दोनों प्रकारके उत्तर देते हुए पाये जाते हैं। कोई तो वेदनीयको बाह्य सामग्रीकी प्राप्तिका निमित्त बतलाते है और कोई लाभान्तराय आदिके क्षय व क्षयोपशमको । इन विद्वानोंके ये मत उक्त प्रमाणोंके बलसे भले ही बने हों किन्तु इतने मात्रसे इनकी पुष्टि नहीं की जा सकती, क्योंकि उक्त कथन मूल कर्मव्यवस्थाके प्रतिकूल पड़ता है। यदि थोड़ा बहुत इन मतोंको प्रश्रय दिया जा सकता है तो उपचारसे ही दिया जा सकता है । वीरसेन स्वामीने तो स्वर्ग, भोगभूमि और नरकमें सुख दुखकी निमित्तभूत सामग्रीके साथ वहाँ उत्पन्न होनेवाले जीवोंके साता और असाताके उदयका सम्बन्ध देखकर उपचारसे इस नियमका निर्देश किया है कि बाह्य सामग्री साता और असाताका फल है । तथा पूज्यपादस्वामीने संसारी जीवमें बाह्य सामग्रीमें लाभादिरूप परिणाम लाभान्तराय आदिके क्षयोपशमका फल जानकर उपचारसे इस नियमका निर्देश किया है कि लाभान्तराय आदिके क्षय व क्षयोपशमसे बाह्य सामग्रीकी प्राप्ति होती है। तत्त्वतः बाह्य सामग्रीकी प्राप्ति न तो साता असाताका ही फल है और न लाभान्तराय आदि कर्मके क्षय व क्षयोपशमका ही फल है । बाह्य सामग्री इन कारणोंसे न प्राप्त होकर अपने-अपने कारणोंसे ही प्राप्त होती है । उद्योग करना, व्यवसाय करना, मजदूरी करना, व्यापारके साधन जुटाना, राजा महाराजा या सेठ साहुकारकी चाटुकारी करना, उनसे दोस्ती जोड़ना, अजित धनकी रक्षा करना, उसे व्याजपर लगाना, प्राप्त धनको विविध व्यवसायोंमें लगाना, खेती बाड़ी करना, झांसा देकर ठगी करना, जेब काटना, चोरी करना, जुआ खेलना, भीख मांगना, धर्मादायको संचित कर पचा जाना आदि बाह्य सामग्रीकी प्राप्तिके साधन है । इन व अन्य कारणोंसे बाह्य सामग्रीकी प्राप्ति होती है उक्त कारणोंसे नहीं । शंका--इन सब बातोंके या इनमेंसे किसी एकके करनेपर भी हानि देखी जाती है सो इसका क्या कारण है ? समाधान-प्रयत्नकी कमी या बाह्य परिस्थिति या दोनों । शंका-कदाचित व्यवसाय आदिके नहीं करनेपर भी धनप्राप्ति देखी जाती है सो इसका क्या कारण है? समाधान-यहाँ यह देखना है कि वह प्राप्ति कैसे हुई है ? क्या किसीके देनेसे हुई या कहीं पड़ा हुआ धन मिलनेसे हई है ? यदि किसीके देनेसे हुई है तो इसमें जिसे मिला है उसके विद्या आदि गण कारण हैं या देनेवालेकी स्वार्थसिद्धि, प्रेम आदि कारण हैं । यदि कहीं पड़ा हुआ धन मिलनेसे हुई है तो ऐसी धनप्राप्ति पुण्योदयका फल कैसे कहा जा सकता है । यह तो चोरी है। अतः चोरीके भाव इस धन प्राप्तिमें कारण हए न कि साताका उदय । शंका--दो आदमी एक साथ एकसा व्यवसाय करते हैं फिर क्या कारण है कि एक.को लाभ होता है और दूसरेको हानि ? Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१० : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ समाधान--व्यापार करने में अपनी-अपनी योग्यता और उस समयकी परिस्थिति आदि इसका कारण है, पाप ण्य नहीं । संयुक्त व्यापार मे । कको हानि और दूसरेको लाभ हो तो कदाचित् हानि लाभ पाप पुण्यका फल माना भी जाय । पर ऐसा होता नहीं, अतः हानि लाभको पाप पुण्यका फल मानना किसी भी हालतमें उचित नहीं है। शंका-यदि बाह्य सामग्रीका लाभालाभ पुण्य पापका फल नहीं है तो फिर एक गरीब और दूसरा श्रीमान् क्यों होता है ? समाधान-एकका गरीब और दूसरेका श्रीमान् होना यह व्यवस्थाका फल है, पुण्य पापका नहीं । जिन देशोंमें पुँजीवादी व्यवस्था है और व्यक्तिगत संपत्तिके जोडनेकी कोई मर्यादा नहीं वहाँ अपनी-अपनी साधनोंके अनसार लोग उसका संचय करते हैं और इसी व्यवस्थाके अनसार गरीब-अमीर इन वर्गों की सुष्टि हआ करती है। गरीब और अमीर इनको पाप पुण्यका फल मानना किसी भी हालतमें उचित नहीं है। रूसने बहुत कुछ अंशोंमें इस व्यवस्थाको तोड़ दिया है, इसलिये वहाँ इस प्रकारका भेद नहीं दिखाई देता है, फिर भी वहाँ पुण्य और पाप तो है ही । सचमुच में पुण्य और पाप तो वह है जो इन बाह्य व्यवस्थाओंके परे हैं और वह है आध्यात्मिक । जैन कर्मशास्त्र ऐसे ही पुण्य पापका निर्देश करता है। शंका-यदि बाह्य सामग्रीका लाभालाभ पुण्य पापका फल नहीं है तो सिद्ध जीवोंको इसकी प्राप्ति क्यों नहीं होती? समाधान-बाह्य सामग्रीका सद्भाव जहाँ है वहीं उसकी प्राप्ति सम्भव है। यों तो इसकी प्राप्ति जड़ चेतन दोनोंको होती है । क्योंकि तिजोड़ीमें भी धन रखा रहता है, इसलिये उसे भी धनकी प्राप्ति कही जा सकती है। किन्तु जड़के रागादि भाव नहीं होता और चेतनके होता है। इसलिये वही उसमें ममकार और अहंकार भाव करता है। शंका-यदि बाह्य सामग्रीका लाभालाभ पुण्य पापका फल नहीं है तो न सही पर सरोगता और नीरोगता यह तो पाप पुण्यका फल मानना ही पड़ता है ? समाधान-सरोगता और नीरोगता यह पाप पुण्यके उदयका निमित्त भले ही हो जाय पर स्वयं यह पाप पुण्यका फल नहीं है। जिस प्रकार बाह्य सामग्री अपने-अपने कारणोंसे प्राप्त होती है उसी प्रकार सरोगता और नीरोगता भी अपने-अपने कारणोंसे प्राप्त होती है। इसे पाप पुण्यका फल मानना किसी भी हालतमें उचित नहीं है। शंका-सरोगता और नीरोगताके क्या कारण है ? समाधान-अस्वास्थ्यकर आहार, विहार व संगति करना आदि सरोगताके कारण हैं और स्वास्थ्यवर्धक आहार, विहार व संगति करना आदि नीरोगताके कारण है। इस प्रकार कर्मकी कार्यमर्यादाका विचार करनेपर यह स्पष्ट हो जाता है कि कर्म बाह्य सम्पत्तिके संयोग वियोगका कारण नहीं है। उसकी तो मर्यादा उतनी ही है जिसका निर्देश हम पहले कर आये हैं। हाँ जीवके विविध भाव कर्मके निमित्तसे होते हैं और वे कहीं कहीं बाह्य सम्पत्तिके अर्जन आदिमें कारण पड़ते है इतनी बात अवश्य है। नैयायिक दर्शन-यद्यपि स्थिति ऐसी है तो भी नैयायिक कार्यमात्रके प्रति कर्मको कारण मानते हैं । वे कर्मको जीवनिष्ठ मानते हैं । उनका मत है कि चेतनगत जितनी विषमताएं है उनका कारण कर्म तो है हो । साथ ही वह अचेतनगत सब प्रकारकी विषमताओंका और उनके न्यूनाधिक संयोगोंका भी जनक है। उनके Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थं खण्ड : ५११ मतसे जगतमें द्वयणुक आदि जितने भी कार्य होते हैं वे किसी न किसीके उपभोगके योग्य होनेसे उनका कर्ता कर्म ही है। नैयायिकोंने तीन प्रकारके कारण माने है-समवायीकारण, असमवायीकारण और निमित्तकारण। जिस द्रव्यमें कार्य पैदा होता है वह द्रव्य उस कार्यके प्रति समवायीकारण है। संयोग असमवायीकारण है । तथा अन्य सहकारी सामग्री निमित्तकारण है। इसमें भी काल, दिशा, ईश्वर और कर्म ये कार्यमात्रके प्रति निमित्तकारण हैं । इनकी सहायताके बिना किसी भी कार्यकी उत्पत्ति नहीं होती। ईश्वर और कर्म कार्यमात्रके प्रति साधारण कारण क्यों है इसका खुलासा उन्होंने इस प्रकार किया है कि जितने कार्य होते हैं वे सब चेतनाधिष्ठित ही होते हैं, इसलिये ईश्वर सबका साधारण कारण है । इसपर यह प्रश्न होता है कि जब सबका कर्ता ईश्वर है तब फिर उसने सबको एक-सा क्यों नहीं बनाया। वह सबको एकसे सुख, एकसे भोग और एक-सी बुद्धि दे सकता था। स्वर्ग मोक्षका अधिकारी भी सबको एकसा बना सकता था । दुखी, दरिद्र और निकृष्ट योनिवाले प्राणियोंकी उसे रचना ही नहीं करनी थी। उसने ऐसा क्यों नहीं किया? जगतमें तो विषमता ही विषमता दिखलाई देती है । इसका अनुभव सभीको होता है। क्या जीवधारी और क्या जड़ जितने भी पदार्थ हैं उन सबकी आकृति, स्वभाव और जाति जुदीजुदी हैं । एकका मेल दूसरेसे नहीं खाता । मनुष्यको ही लीजिए । एक मनुष्यसे दूसरे मनुष्यमें बड़ा अन्तर है। एक सुखी है तो दूसरा दुखी। एकके पास सम्पत्तिका विपुल भण्डार है तो दूसरा दाने-दानेको भटकता-फिरता है । एक सातिशय बुद्धिवाला है तो दूसरा निरा मूर्ख । मात्स्यन्यायका तो सर्वत्र ही बोलबाला है। बड़ी मछली छोटी मछलीको निगल जाना चाहती है । यह भेद यहीं तक सीमित नहीं है, धर्म और धर्मायतनोंमें भी इस भेदने अड्डा जमा लिया है। यदि ईश्वरने मनुष्यको बनाया है और वह मन्दिरोंमें बैठा है तो उस तक सबको क्यों नहीं जाने दिया जाता है। क्या उन दलालोंका, जो दुसरेको मन्दिर में जानेसे रोकते हैं, उसीने निर्माण किया है ? ऐसा क्यों है ? जब ईश्वरने ही इस जगतको बनाया है और वह करुणामय तथा सर्वशक्तिमान है तब फिर उसने जगतकी ऐसी विषम रचना क्यों की? यह एक ऐसा प्रश्न है जिसका उत्तर नैयायिकोंने कर्मको स्वीकार करके दिया है। वे जगतकी इस विषमताका कारण कर्म मानते हैं। उनका कहना है कि ईश्वर जगतका कर्ता है तो सही, पर उसने इसकी रचना प्राणियोंके कर्मानुसार की है। इसमें उसका रत्ती भर भी दोष नहीं है। जीव जैसा कर्म करता है उसीके अनुसार उसे योनि और भोग मिलते हैं । यदि अच्छे कर्म करता है तो अच्छी योनि और अच्छे भोग मिलते हैं और बुरे कर्म करता है तो बुरी योनि और बुरे भोग मिलते हैं । इसीसे कविवर तुलसीदासजीने अपने रामचरितमानसमें कहा है करम प्रधान विश्व करि राखा । जो जस करहि सो तस फल चाखा ॥ ईश्वरवादको मानकर जो प्रश्न उठ खड़ा होता है, तुलसीदासजीने उस प्रश्नका इस छन्दके उत्तरार्ध द्वारा समर्थन करनेका प्रयत्न किया है। नैयायिक जन्यमात्रके प्रति कर्मको साधारण कारण मानते हैं। उनके मतमें जीवात्मा व्यापक है इसलिये जहाँ भी उसके उपभोगके योग्य कार्यकी सृष्टि होती है वहाँ उसके कर्मका संयोग होकर ही वैसा होता है । अमेरिकामें बननेवाली जिन मोटरों तथा अन्य पदार्थोंका भारतीयों द्वारा उपभोग होता है वे उनके उपभोक्ताओंके कर्मानुसार ही निर्मित होते हैं। इसीसे वे अपने उपभोक्ताओंके पास खिंचे चले आते हैं । उपभोग योग्य वस्तुओंका इसी हिसाबसे विभागीकरण होता है। जिसके पास विपुल सम्पत्ति है वह उसके कर्मानुसार है Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१२ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ और जो निर्धन है वह भी अपने कर्मानुसार है । कर्म बटवारे में कभी भी पक्षपात नहीं होने देता । गरीब और अमीरका भेद तथा स्वामी और सेवकका भेद मानवकृत नहीं है । अपने-अपने कर्मानुसार ही ये भेद होते हैं । जो जन्म ब्राह्मण है वह ब्राह्मण ही बना रहता है और जो शूद्र है वह शूद्र ही बना रहता है । उनके कर्म ही ऐसे हैं जिससे जो जाति प्राप्त होती है जीवन भर वही बनी रहती है । कर्मवादके स्वीकार करनेमें यह नैयायिकोंकी युक्ति है । वैशेषिकों की युक्ति भी इससे मिलती जुलती है । वे भी नैयायिकोंके समान चेतन और अचेतन गत सब प्रकारकी विषमताका साधारण कारण कर्म मानते हैं । यद्यपि इन्होंने प्रारम्भमें ईश्वरवादपर जोर नहीं दिया। पर परवर्ती कालमें इन्होंने भी उसका अस्तित्व स्वीकार कर लिया है । जैन दर्शनका मन्तव्य --- किन्तु जैनदर्शन में बतलाये गये कर्मवादसे इस मतका समर्थन नहीं होता । वहाँ कर्मवादकी प्राणप्रतिष्ठा मुख्यतया आध्यात्मिक आधारोंपर की गई है । ईश्वरको तो जैनदर्शन मानता ही नहीं। वह निमित्तको स्वीकार करके भी कार्यके आध्यात्मिक विश्लेपर अधिक जोर देता है । नैयायिक- वैशेषिकोंने कार्य कारण भावकी जो रेखा खींची है वह उसे मान्य नहीं । उसका मत है कि पर्यायक्रमसे उत्पन्न होना, नष्ट होना और ध्रुव रहना यह प्रत्येक वस्तुका स्वभाव' है । जितने प्रकारके पदार्थ हैं उन सबमें वह क्रम चालू है । किसी वस्तु में भी इसका व्यतिक्रम नहीं देखा जाता । अनादि कालसे यह क्रम चालू है और अनन्त कालतक चालू रहेगा । इसके मत से जिस काल में वस्तुकी जैसी योग्यता होती है उसीके अनुसार कार्य होता है । जो द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव जिस कार्यके अनुकूल होता है वह उसका निमित्त कहा जाता है । कार्य अपने उपादानसे होता है किन्तु कार्यनिष्पत्ति के समय अन्य वस्तुकी अनुकूलता ही निमित्तताकी प्रयोजक है । निमित्त उपकारी कहा जा सकता है, कर्ता नहीं । इसलिये ईश्वरको स्वीकार करके कार्यमात्र के प्रति उसको निमित्त मानना उचित नहीं है । इसीसे जैन दर्शनने जगत्को अकृत्रिम और अनादि बतलाया है । उक्त कारणसे वह यावत कार्योंमें बुद्धिमानकी आवश्यकता स्वीकार नहीं करता । घटादि कार्य में यदि बुद्धिमान् देखा भी जाता है तो इससे सर्वत्र बुद्धिमानको निमित्त मानना उचित नहीं है ऐसा इसका मत है । यद्यपि जैन दर्शन कर्मको मानता है तो भी वह यावत् कार्योंके प्रति उसे निमित्त नहीं मानता । वह जीवकी विविध अवस्थाएँ शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छ्वास वचन और मन इन्हींके प्रति कर्मको निमित्त कारण मानता है । उसके मतसे अन्य कार्य अपने-अपने कारणोंसे होते हैं । कर्म उनका कारण नहीं | उदाहरणार्थ पुत्रका प्राप्त होना, उसका मर जाना, रोजगारमें नफा नुकसानका होना, दूसरेके द्वारा अपमान या सम्मानका किया जाना, अकस्मात् मकानका गिर पड़ना, फसलका नष्ट हो जाना, ऋतुका अनुकूल प्रतिकूल होना, अकाल या सुकालका पड़ना, रास्ता चलते चलते अपघातका हो जाना, किसीके ऊपर बिजलीका गिरना, अनुकूल व प्रतिकूल विविध प्रकारके संयोगोंका मिलना आदि ऐसे कार्य हैं जिनका कारण कर्म नहीं है । भ्रमसे इन्हें कर्मोंका कार्य समझा जाता है । पुत्रकी प्राप्ति होने पर मनुष्य भ्रमवश उसे अपने शुभ कर्मका कार्य समझता है। और उसके मर जाने पर भ्रमवश उसे अपने अशुभ कर्मका कार्य समझता है। पर क्या पिताके अशुभोदयसे पुत्रकी मृत्यु या पिताके शुभोदयसे पुत्रकी उत्पत्ति सम्भव है ? कभी नहीं । सच तो यह है कि ये इष्टसंयोग या १. उत्पादव्ययभौव्ययुक्तं सत् । तत्त्वार्थसूत्र अध्याय ५ सूत्र ३० । Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थखण्ड : ५१३ इष्टवियोग आदि जितने भी कार्य हैं वे अच्छे बुरे कर्मकि कार्य नहीं । निमित्त और बात है तथा कार्य और बात । निमित्तको कार्य कहना उचित नहीं है । गोम्मटसार कर्मकाण्ड में एक नोकर्म प्रकरण आया है। उससे भी उक्त कथनकी ही पुष्टि होती है । वहाँ मूल और उत्तर कर्मो के नोकर्म बतलाते हुए 'इष्ट अन्न पान आदिको असाता वेदनीयका, विदूषक या बहुरूपियाको हास्य कर्मका, सुपुत्रको रतिकर्मका, इष्टवियोग और अनिष्ट संयोगको अरति कर्मका, पुत्रमरणको शोक कर्मका, सिंह आदिको भय कर्मका और ग्लानिकर पदार्थोंको जुगुप्सा कर्मका नोकर्म द्रव्यकर्म बतलाया है । गोम्मटसार कर्मकाण्डका यह कथन तभी बनता है जब धन सम्पत्ति और दरिद्रता आदिको शुभ और अशुभ कर्मोंके उदयमें निमित्त माना जाता है । कर्मो के अवान्तर भेद करके उनके जो नाम गिनाये गये हैं उनको देखनेसे भी ज्ञात होता है कि बाह्य सामग्रियोंकी अनुकूलता और प्रतिकूलता में कर्म कारण नहीं हैं । बाह्य सामग्रियोंकी अनुकूलता और प्रतिकूलता या तो प्रयत्नपूर्वक होती है या सहज ही हो जाती है । पहले साता वेदनीयका उदय होता है और तब जाकर इष्ट सामग्रीकी प्राप्ति होती है ऐसा नहीं है । किन्तु इष्ट सामग्रीका निमित्त पाकर साता वेदनीयका उदय होता है ऐसा है । रेलगाड़ीसे सफर करने पर हमें कितने ही प्रकारके मनुष्योंका समागम होता है । कोई हँसता हुआ मिलता है तो कोई रोता हुआ । इनसे हमें सुख भी होता है और दुख भी । तो क्या ये हमारे शुभाशुभ कर्मोंके कारण रेलगाड़ी में सफर करने आये हैं ? कभी नहीं । जैसे हम अपने कामसे सफर कर रहे हैं वैसे वे भी अपनेअपने कामसे सफर कर रहे हैं । हमारे और उनके संयोग और वियोग में न हमारा कर्म कारण है और न उनका ही कर्म कारण है । यह संयोग या वियोग या तो प्रयत्नपूर्वक होता है या काकतालीय न्यायसे सहज होता है । इसमें किसीका कर्म कारण नहीं है । फिर भी यह अच्छे बुरे कर्मके उदयमें सहायक होता रहता है । नैयायिक दर्शनकी आलोचना - इस व्यवस्थाको ध्यान में रखकर नैयायिकों के कर्मवादकी आलोचना करने पर उसमें अनेक दोष दिखाई देते हैं । वास्तवमें देखा जाय तो आजकी सामाजिक व्यवस्था, आर्थिक व्यवस्था और एकतन्त्र के प्रति नैयायिकोंका ईश्वरवाद और कर्मवाद ही उत्तरदायी है । इसीने भारतवर्षको चालू व्यवस्थाका गुलाम बनाना सिखाया । जातीयताका पहाड़ लाद दिया । परिग्रहवादियोंको परिग्रहके अधिकाधिक संग्रह करने में मदद दी । गरीबीको कर्मका दुर्विपाक बताकर सिर न उठाने दिया । स्वामी सेवक भाव पैदा किया। ईश्वर और कर्मके नाम पर यह हमसे कराया गया । धर्मने भी इसमें मदद की। विचारा कर्म तो बदनाम हुआ ही, धर्मको भी बदनाम होना पड़ा। यह रोग भारतवर्ष में न रहा । भारतवर्ष के बाहर भी फैल गया । यद्यपि जैन कर्मवादकी शिक्षाओं द्वारा जनताको यह बतलाया गया कि जन्मसे न कोई छूत होता है और न अछूत । यह भेद मनुष्यकृत है । एकके पास अधिक पूँजीका होना और दूसरेके पास एक दमड़ीका न होना, एकका मोटरोंमें घूमना और दूसरेका भीख माँगते हुए डोलना यह भी कर्मका फल नहीं है, क्योंकि यदि अधिक पूँजीको पुण्यका फल और पूँजीके न होनेको पापका फल माना जाता है तो अल्पसंतोषी और साधु दोनों ही पापी ठहरेंगे । किन्तु इन शिक्षाओंका जनता और साहित्य पर स्थायी असर नहीं हुआ । अजैन लेखकोंने तो नैयायिकोंके कर्मवादका समर्थन किया ही, किन्तु उत्तरकालवर्ती जैन लेखकोंने जो कथा-साहित्य लिखा है उससे भी प्रायः नैयायिक कर्मवादका ही समर्थन होता है। वे जैन कर्मवादके अध्या१. गाथा ७३ । २. गाथा ७६ । ३. गाथा ७७ । ६५ Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१४ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ त्मिक रहस्यको एक प्रकारसे भूलते ही गये और उनके ऊपर नैयायिक कर्मवादका गहरा रंग चढ़ता गया । अजैन लेखकों द्वारा लिखे गये कथा साहित्यको पढ़ जाइये और जैन लेखकों द्वारा लिखे गये कथा साहित्यको पढ़ जाइये पुण्य पापके वर्णन करनेमें दोनोंने कमाल किया है। दोनों ही एक दृष्टिकोणसे विचार करते हैं । अजैन लेखकोंके समान जैन लेखक भी बाह्य आधारोंको लेकर चलते हैं । वे जैन मानन्यता के अनुसार कर्मो वर्गीकरण और उनके अवान्तर भेदोंको सर्वथा भूलते गये । जैन दर्शन में यद्यपि कर्मोंके पुण्य कर्म और पापकर्म ऐसे भेद मिलते हैं, पर इससे गरीबी पापकर्मका फल है और सम्पत्ति पुण्य कर्मका फल है यह नहीं सिद्ध होता । गरीब होकर भी मनुष्य सुखी देखा जाता है और सम्पत्तिवाला होकरके भी वह दुखी देखा जाता है । पुण्य और पापकी व्याप्ति सुख और दुखसे की जा सकती है, गरीबी अमीरीसे नहीं । इसीसे जैनदर्शनमें सातावेदनीय और असातावेदनीयका फल सुख-दुख बतलाया है, अमीरी गरीबी नहीं । जैन साहित्य में यह दोष बराबर चालू है । इसी दोषके कारण जैन जनताको कर्मकी अप्राकृतिक और अवास्तविक उलझनमें फँसना पड़ा है। जब वे कथा ग्रन्थोंमें और सुभाषितोंमें यह पढ़ते हैं कि 'पुरुषका' भाग जागने पर घर बैठे ही रत्न मिल जाते हैं और भाग्यके अभाव में समुद्र में पैठने पर भी उनकी प्राप्ति होती नहीं ।' 'सर्वत्र 'भाग्य ही फलता है, विद्या और पौरुष कुछ काम नहीं आता । तब वे कर्मके सामने अपना मस्तक टेक देते हैं । वे जैन कर्मवादके आध्यात्मिक रहस्यको सदाके लिये भूल जाते हैं । १. सुभाषितरत्नसन्दोह, पृ० ४७ श्लोक २५७ ॥ २. भाग्यं फलति सर्वत्र न च विद्या न च पौरुषम् । Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. जैन समाजकी वर्तमान सांस्कृतिक परम्परा २. जिनागम के परिप्रेक्ष्य में जिनमंदिर प्रवेश ३. सोनगढ़ और जैन तत्त्वमीमांसा ४. धर्म और देवद्रव्य ५. मूलसंघ शुद्धाम्नायका दूसरा नाम तेरा पन्थ है ६. वर्ण व्यवस्थाका आन्तर रहस्य ७. महिलाओं द्वारा प्रक्षाल करना योग्य नहीं ८. शिक्षा और धर्मका मेल ९. अध्यात्म-समाजवाद १०. बुन्देलखण्डका सांस्कृतिक वैभव ११. महिला मुक्ति-गमन की पात्र नहीं समाज एवं संस्कृति .. Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन समाजको वर्तमान सांस्कृतिक परम्परा' सांस्कृतिक और सामाजिक कार्योंकी दृष्टिसे विद्वानोंका इतिहास गौरवमय है । इस समय विविध भाषाओंमें उत्तरकालवर्ती जो भी जैनसाहित्य उपलब्ध होता है, उसकी रचनामें इनका बहुत बड़ा हाथ | अपने पूर्ववर्ती विद्वानोंका स्मरण करते समय सबसे पहले हमारा ध्यान पण्डितप्रवर आशाघरजीकी ओर जाता है । गृहस्थ होते हुए भी उनके पास मुनि तक शिक्षा लेने के लिए आते थे । उन्होंने धर्मशास्त्र, न्याय और साहित्य आदि अनेक विषयोंपर उच्चकोटिकी मौलिक रचनाएँ कीं । कविवर मेधावी और अपभ्रंश भाषामें विविध विषयोंके रचयिता कविवर रइधू भी गृहस्थ ही थे । आगे चलकर भाषा-साहित्य की दृष्टि से कविवर बनारसीदासजी, भगवतीदासजी, टोडरमल्लजी, दौलतरामजी और जयचन्दजी आदि विद्वानोंने जो कार्य किये हैं, वे स्वर्णाक्षरोंमें अङ्कित करने लायक हैं । वस्तुतः इस समय जैनधर्मका जो भी प्रवाह दिखाई देता है, वह उनकी पुनीत ग्रन्थ रचनाओं और सामाजिक सेवाओंका ही फल है । यदि हम वर्तमान युगका ही विचार करें, तो भी हमें निराश होनेका कोई कारण नहीं दिखाई देता । वर्तमान युगके विद्वानोंकी यह परम्परा पूज्यपाद गुरुवर्य्य पं० गोपालदासजी और पूज्यपाद श्री १०५ गुरुवर्य पं० गणेशप्रसादजी वर्णीसे प्रारम्भ होती है । ये दोनों इस युगके ऐसे प्रकाशमान् नक्षत्र हैं जिनके पुनीत प्रकाशसे धर्म और समाजकी चहुँमुखी उन्नति हुई और हो रही है । हमारी सांस्कृतिक और सामाजिक परम्पराके प्रतीक पूज्य गुरु पं० देवकीनन्दनजी सा० तो आज हमारे बीचमें नहीं हैं, पर ज्ञानवृद्ध पूज्य गुरु पं० वंशीधरजी सा० आदि जो दूसरे विद्वान् प्रत्येक क्षेत्रमें कार्य कर रहे हैं, उनकी सेवाएँ क्या कम हैं ? वस्तुतः इन सब विद्वानोंकी तपश्चर्याका ही यह फल है कि समाज आज प्रत्येक अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितिमें अपनेको खड़ा हुआ पाता है । संगठनको दृढ़ करने के मूलभूत आधार इतना सब होते हुए भी हमें यहाँ एक ऐसे विषयपर गहराईसे विचार करना है जो हमारे सांस्कृतिक और सामाजिक जीवनसे सम्बन्ध रखता है । वह विषय है हमारा संगठन । इसके पहले भी विद्वानोंका एक संगठन था, किन्तु उसके ढीला पड़नेपर विद्वत्परिषद् के रूपमें पुनः सब विद्वानोंने मिलकर यह संगठन बनाया है । इस संगठनको स्थापित हुए भी लगभग ११ वर्ष हो गये हैं । इस बीच इसके द्वारा दो बार शिक्षणशिविर संचालित किये गये हैं-- एक मथुरामें और दूसरा सागरमें । इनसे कुछ विद्वानोंको अपनी योग्यता बढ़ाने में सहायता तो मिली ही । साथ ही एक दूसरेके सम्पर्क में आनेसे हमें एक-दूसरे को समझने और अपनी गुणोन्नति करने में भी सहायता मिली है । शिक्षणशिविर के अतिरिक्त विद्वत्परिषद् ने कुछ और भी उपयोगी कार्य किये हैं जो इसके शुभारम्भको सूचित करनेके लिए पर्याप्त हैं । तथापि हमें इतने मात्र से संतुष्ट नहीं होना चाहिए । किन्तु हमें उन बातों पर भी विचार करना चाहिए जो संगठनको दृढ़ करनेके लिए आवश्यक होती हैं । संगठनको दृढ़ करनेके मुख्य आधार ये हैं - एक दूसरेके हितके लिए कार्य करना, परिचित या अपरिचित अपने किसी साथीपर किसी प्रकारकी आपत्ति आनेपर यथासम्भव योग्य सहायता द्वारा उसके परिहारके लिए प्रयत्नशील होना, योग्यता और निष्ठाके आधारपर सामाजिक कार्यकर्ताके रूपमें प्रत्येक विद्वान्‌को आगे १. श्री भारतवर्षीय दि० जैन विद्वत्परिषद्‌के तत्त्वावधान में द्रोणगिरि ( म०प्र०) में सन् १९५५ में हुए सप्तम अधिवेशन में पं० फुलचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्री, वाराणसी के अध्यक्षीय भाषणका सार प्रस्तुत है । Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१८ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ बढ़ानेमें सहायता करना और जिन कार्योके करनेसे एक विद्वानको दूसरे विद्वानके विषयमें शंका उत्पन्न होना सम्भव है उन कार्योसे अपनेको दर रखना आदि । ये संगठनके कुछ आधारभूत सिद्धान्त है जो व्यक्तिके जीवनमें तो उपयोगी हैं ही, सार्वजनिक क्षेत्रमें भी उपयोगी हैं। इनको जीवनमें स्वीकार कर लेने पर भी अधिकतर मनीषियों द्वारा कार्यक्षेत्रमें कुछ ऐसी भूलें होती हैं जो परस्परके मनोमालिन्यका कारण बन जाती हैं। मेरी समझसे यहाँ उनकी स्पष्ट चर्चा कर लेना अनुचित न होगा। १. प्रायः कुछ व्यक्तियोंमें यह मनोवृत्ति देखी जाती है कि जिस संस्थासे उनका निकट सम्बन्ध होता है, मात्र उसीके लिए वे प्रयत्न करते हैं। वे उस संस्थाकी उन्नतिमें लगे रहें, यहाँ तक तो ठीक है, क्योंकि उसकी उन्नति और सञ्चालनका भार उनपर अवलम्बित है । परन्तु इसके साथ वे दूसरा कार्य यह उनकी उपस्थितिमें अन्य संस्थाके लिए कोई प्रयत्न होता है, तो वे प्रत्यक्ष या परोक्षमें किसी-न किसी प्रकारसे उसको धक्का पहुँचानेमें जरा भी संकोच नहीं करते। मेरी समझमें इस प्रकारकी मनोवृत्ति सांस्कृतिक क्षेत्र में हितावह नहीं मानी जा सकती। वस्तुतः जितनी भी सार्वजनिक संस्थाएँ कार्य कर रही हैं वे सब एक ही सांस्कृतिक उद्देश्यकी पूर्तिके लिए स्थापित की गई है, इसलिए वे एक है। यदि हम किसी अन्य संस्था या उसके कार्यकर्ताकी निन्दा करते हैं, तो वह केवल उस संस्थाकी निन्दा न होकर हमारे सांस्कृतिक उददेश्यकी ही निन्दा होती है। ऐसा कौन विद्वान् होगा जो पूज्य श्री १०८ मुनि समन्तभद्रजी महाराज और पूज्य श्री १०५ क्षुल्लक गणेशप्रसादजी वर्णीको नहीं जानता होगा । इन दोनों महानुभावोंमें जो हमें सबसे बड़ी विशेषता दिखाई देती है वह यह कि इन दोनोंने अपने जीवन में कभी भी एक संस्थासे दूसरी संस्थामें भेद नहीं होने दिया । यदि जैनत्वके प्राणस्वरूप एक मन्दिरसे दूसरे मन्दिरमें भेद नहीं किया जा सकता, तो फिर संस्कृति का संरक्षण और संवर्द्धन करनेवाली एक संस्थासे दूसरी संस्थामें भेद कैसे हो सकता है ? यदि समाजके कुछ व्यक्ति इस प्रकारका भेद करते हैं तो करें, पर जिन विद्वानोंपर संस्कृति और समाजके संचालनका उत्तरदायित्व है वे ऐसे हलके विचारसे अपनेको बचाकर चलें, यही संस्कृति और समाजके हितमें उचित प्रतीत होता है। २. प्रायः विद्वानोंमें कई विषयोमें मतभेद दिखाई देता है। किसी मतभेदका सम्बन्ध केवल आगमसे होता है और किसीका सम्बन्ध आगम और समाज दोनोंसे । जिसका सम्बन्ध मात्र आगमसे होता है, उसे तो हम सह लेते हैं। अथवा वह विशेष बुराईका कारण नहीं बनता । वस्तुतः मतभेद वहीं पर उग्र रूप धारण करता है जिसकी प्रतिक्रिया स्पष्टतः समाजमें दिखाई देती है। ऐसे समयमें अधिकतर विद्वान् अपने संतु खो बैठते हैं और अपने साथियोंपर आग बरसाना प्रारम्भ कर देते हैं। हम यह तो मानते हैं कि नया प्रतीत होता है, उसकी आलोचना होनी चाहिए। इतना ही नहीं, वह विचार सहसा कार्यान्वित न हो सके, इसके लिए प्रयत्न भी होना चाहिए । हमें इस विषयमें पूज्य पं० देवकीनन्दनजी सा० का स्मरण होता है। उनके जीवनमें हमें बड़ी विलक्षणता देखनेमें आ.। वे विचारक थे और सामाजिक कार्यकर्ता भी। जहाँ तक विचारका सम्बन्ध था, वे नाक-मुँह सिकोड़ना और इस आधारसे समाजको भड़काना जानते ही नहीं थे । विचारकके लिए उनके हृदयमें जो उच्च स्थान था, उससे कहीं अधिक वे सामाजिक कर्तव्यका अनुवर्तन करते थे । तत्काल समाजका ढाँचा क्या हो? इस विषयके ऊहापोहमें न पड़ कर हम इतना तो स्वीकार करते हैं कि द्रव्य, क्षेत्र और कालके अनुसार उसमें जो भी परिवर्तन हो वह सोच-समझकर ही होना चाहिए । इसलिए हमारी समझमें समाजके लिये दोनों प्रकारके मनुष्योंकी आवश्यकता है। एक वे जो मार्गदर्शन कराकर समाजको Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : ५१९ आगे बढ़ाने में सहायक होते हैं और दूसरे वे जो समाजको उच्छृखल होनेसे बचाकर उसकी सीमाओंकी रक्षा करते हैं। ३. लौकिक ख्याति एक बला है। इसके प्रलोभनमें पड़ कर कभी-कभी एक विद्वान् अपने दूसरे साथी को पीछे धकेलता हुआ देखा जाता है। यह हम अच्छी तरहसे जानते है कि ऐसी वृत्तिसे स्थायी लाभ नहीं होता, प्रत्युत कालान्तरमें यह विस्फोटका बहुत बड़ा कारण बन जाता है। यह तो हम मानते हैं कि जो व्यक्ति कर्तव्यशील है, व्याख्याता है और नेतृत्व करनेकी क्षमता रखता है, उसे आगे बढ़नेसे कोई भी शक्ति नहीं रोक सकती। पर व्यक्तित्वकी एक मर्यादा होती है। यदि कोई व्यक्ति उस मर्यादाका उल्लंघन करता है, तो ये समस्त गुण दोषमें परिणत हो जाते हैं। वर्तमान कालमें प्रायः सब विद्वानोंने पूज्य १०५ गुरुवर्य पं० गणेशप्रसादजी वर्णीका नेतृत्व स्वीकार किया है। इसलिए हमें आँख खोलकर देखना चाहिए कि उनमें वह कौन-सा गुणविशेष है जिसके कारण हम उन्हें अपना केन्द्र बनाते हैं। जहाँ तक हमने उनके दैनिक व्यवहारको देखा है वे किसी भी सामाजिक कार्यकर्ता या विद्वानके उनके समक्ष पहुँचने पर उसे हर प्रकारसे समाजके सम्पर्कमें लानेका प्रयत्न करते हैं। इतना ही नहीं, उसमें यदि कोई अच्छाई उन्हें दिखाई देती है, तो वे उसे जनताके समक्ष रखनेमें भी नहीं हिचकिचाते । वह किस मतको माननेवाला है, इस बातको वे अपने जीवनमें स्थान नहीं देते हैं। ४. हममें कुछ ऐसे भी मनीषी है जो विवेकको छोड़कर मात्र समाजके अनुवर्तनमें अपना लाभ देखते हैं । नेतृत्व किसके हाथमें रहे, इसके लिए सदासे प्रयत्न होता आया है। आज भी यह समस्या सबके सामने है । इस समय साधन और श्रमके मध्य नेतृत्वकी जो होड़ चल रही है, उसका अन्तिम परिणाम क्या होगा, हम नहीं कह सकते। पर जहाँ तक हमारे सांस्कृतिक दृष्टिकोणका प्रश्न है, सब मामलोंमें त्याग और विवेकसे काम लिए जानेकी आवश्यकता है। इसलिए हमें साधन और श्रमका उचित आदर करते हुए विवेकको ही प्राधान्य देना है और यह तभी हो सकता है जब ऐसे विद्वान् अपमा दृष्टिकोण बदलें। विद्वान् समाजके मुख और हाथ-पाँव सब कुछ हैं। इस बदली हई परिस्थितिमें तो उन्हें इस मामलेमें और भी गम्भीरतापूर्वक विचार करना है। ऐसा न हो कि हममेंसे कतिपय विद्वानोंके समाजका अन्धानुकरण करनेके कारण विवेकका बल उत्तरोत्तर घटता जाय और त्याग तथा विवेकमय इस परम्पराके अन्त होनेका दुर्दिन हमें देखना पड़े। ५. हममें एक दोष गुटबन्दीका भी दिखाई देता है। समाज और संस्कृतिके हितमें किसी कार्यक्रमको पूरा करनेके लिए संगठनकी आवश्यकताको हम अनुभव करते है। किन्तु जब कार्यक्रमके विषयमें किसी प्रकार का मतभेद न होने पर भी हम गुटबन्दी करते हैं और अपने गुटके व्यक्तिको छोड़ कर अन्यका अनादर करने पर उतारू हो जाते हैं, तब उसे शुद्ध स्वार्थपूर्तिके सिवाय और क्या कहा जा सकता है । इस दोषके कारण हमारी सांस्कृतिक और सामाजिक प्रवृत्तिको जो हानि पहुँच रही है, वह किसीसे छिपी हुई नहीं है । इस कारण विद्वानोंका बल घटता है, यह बात स्पष्ट है। ये चन्द ऐसे दोष हैं जो हमारे संगठनको पूरा नहीं होने देते हैं। प्रत्येक विद्वान्का ध्यान इस ओर जाय और वह इन दोषोंको दूर करने में सक्रिय सहयोग करके विद्वत्परिषद्के संगठनको दृढ़ करने में सहायक बने, इस पुनीत अभिप्रायको ध्यानमें रखकर ही हमने यहाँ इनकी विस्तृत चर्चाकी है। क्योंकि हम यह बहुत ही अच्छी तरह जानते हैं कि वर्तमान कालमें विश्वकी बात छोड़िए, भारतवर्षमें जो सामाजिक और सांस्कृतिक क्रान्तिके होनेके लक्षण दिखाई दे रहे हैं, उनमें हमें समुचित स्थान ग्रहण करनेके लिए प्रयत्नशील होना है । Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२० : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ यह कितनी बड़ी विडम्बनाकी बात है कि भारतवर्षको स्वराज्य दिलाने में हमारा सांस्कृतिक कार्यक्रम सफल रहा और विश्वके आर्थिक, सामाजिक व राजनैतिक प्रश्नोंको सुलझाने में भारतवर्ष उसी सह-अस्तित्वमूलक अहिंसक व अनेकान्तात्मक दृष्टिकोणसे काम ले रहा है, फिर भी उसका श्रेय हमें यत्किचित् भी नहीं मिल रहा है । यद्यपि हम श्रेयके भखे नहीं है, पर पूरे तथ्य जनताके समक्ष न आ सकनेके कारण कदाचित् सारी परिस्थिति के उलटनेका भय है। हमारे यहाँ अकम्पन आदि ७२० मुनियोंकी कथा आती है। बलि राजाहारा उनकी धार्मिक स्वतन्त्रताके छीननेका प्रयत्न करने पर उन्होंने अहिंसक सत्याग्रह द्वारा हो तो उसका प्रतीकार किया था। क्या हमें इस घटना या इसी प्रकारकी अन्य घटनाओंके आधार पर सत्यको उद्घाटित करनेका प्रयत्न नहीं करना चाहिए, जो आज भारतवर्षकी राष्ट्रीय थाती मानी जाने लगी है। हमारा विश्वास है कि हमारे सब साथी व समाज इन तथ्योंको ध्यानमें रखकर अपने दृष्टिकोणमें न केवल विशालता लावेंगे, अपितु वे और अधिक संगठित होकर उसका समचित उपयोग करनेकी दिशामें योग्य कदम उठानेका भी प्रयत्न करेंगे। समाजके प्रति अपने भाषणको समाप्त करनेके पहले यदि हम समाजसे दो शब्द कहें, तो अनुचित न होगा। बात यह है कि विद्वान् समाजके एक अङ्ग है । वे जो भी कार्य अपने हाथमें लेते हैं, उसे पूरा करनेके लिए उन्हें समाजका वांछित सहयोग अपेक्षित है। अतः समाजका भी कर्तव्य है कि वह वर्तमान गतिविधिको देखते हुए अपने दष्टिकोणमें मौलिक परिवर्तन करे । प्रथम तो उसे दिखाऊ कार्योकी अपेक्षा स्थायी कार्योंके सञ्चालनकी ओर विशेष ध्यान देना चाहिए। दूसरे, उसे विद्वानोंके प्रति अपने रुखमें समुचित परिवर्तन करना चाहिये, क्योंकि ये समाजके सक्रिय कार्यकर्ता हैं; वेतनभोगी नहीं। यह तो अपनी सांस्कृतिक परम्पराके अनुरूप विद्वानों का पुरोहित-वृत्ति को न स्वीकार करनेका फल है, जिससे उन्हें इस स्थितिको स्वीकार कर निर्वाह करना पड़ रहा है । वस्तुतः यह उनके बड़प्पनका सूचक है; हीनवृत्तिका सूचक नहीं। यदि समाज कार्यकर्ताके रूपमें उनके प्रति समुचित आदर व्यक्त करती है, तो इससे समाजका ही हित है। यह इतिहाससिद्ध बात है कि जो समाज अपने कार्यकर्ताका आदर करना भूल जाता है, उसकी भगवान ही रक्षा करते हैं। तीसरे, वह ऐसे लोगोंके (चाहे वे त्यागी हों या अन्य कोई भी) बहकावे में न आवे जो मतभेदकी या दूसरे प्रकारकी बातें आगे रखकर संस्थाओंको प्रगति में बाधक बनते हैं । वर्तमान कालमें समाजको यह अनुभव करना है कि हमारी परम्परा की यह गाड़ी विद्वानोंको सारथी बनाये बिना आगे नहीं बढ़ाई जा सकती। यदि यह भाव उसके चित्तमें अङ्कित हो जाता है, तो सब समस्या सुलझ जाती है और विद्वान व समाज दोनों मिलकर इस महान परम्पराको आगे ले चलने में समर्थ होते है जो कि दोनोंका ध्येय है। Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनागमके परिप्रेक्ष्य में जिनमन्दिर प्रवेश शूद्र जिनमन्दिरमें जाएं इसका कहीं निषेध नहीं आगम और युक्तिसे यह सिद्ध है कि अन्य वर्णवाले मनुष्योंके समान शूद्रवर्ण के मनुष्य भी जिनमन्दिरमें जाकर दर्शन और पूजन करनेके अधिकारी हैं। जिस धर्ममें मन्दिरमें जाकर दर्शन और पूजन करनेकी योग्यता तिर्यञ्चोंमें मानी गई हो, उसके अनुसार शूद्रोंमें इस प्रकारकी योग्यता न मानी जाये, यह नहीं हो सकता । कुछ समय पूर्वतक दस्साओंको मन्दिरमें जानेका निषेध था। किन्तु सत्य बात जनताकी समझमें आ जानेसे यह निषेधाज्ञा उठा ली गई है। जब निषेधाज्ञा थी, तब दस्साभाई मन्दिर में जाकर पूजा करनेकी पात्रता नहीं रखते थे, यह बात नहीं है। यह वास्तवमें धार्मिक विधि न होकर एक सामाजिक बन्धन था जो दूसरोंकी देखादेखी जैनाचारमें भी सम्मिलित कर लिया गया था। किन्तु यह ज्ञात होने पर कि इससे न केवल दूसरोंके नैसर्गिक अधिकारका अपहरण होता है, अपितु धर्मका भी घात होता है, यह बन्धन उठा लिया गया है। इसी प्रकार शूद्र मन्दिरमें नहीं जा सकते यह भी सामाजिक बन्धन है, योग्यतामूलक धार्मिक विधि नहीं। इसका तात्पर्य यह है कि आगमके अनुसार तो सबके लिए समवसरणके प्रतीकरूप जिनमन्दिरका द्वार खुला हुआ है। वह न कभी बन्द होता है और न कभी बन्द किया जा सकता है, क्योंकि जिनमन्दिरमें जाकर और जिनदेवके दर्शन कर अन्य मनुष्यों और तिर्यञ्चोंके समान वे भी जिनदेवके दर्शन द्वारा आत्मानुभूति कर सकते हैं। यही कारण है कि आगममें कहीं भी शूद्रोंके मन्दिर प्रवेश निषेधरूप वचन नहीं मिलता। वैदिक परम्परामें शूद्रोंको धर्माधिकारसे वञ्चित क्यों किया गया है, इसका एक कारण है। बात यह है कि आर्योंके भारतवर्ष में आनेपर यहाँके मनुष्योंको जीत कर जिनको उन्होंने दास बनाया था उनको ही उन्होंने शूद्र शब्द द्वारा सम्बोधित किया था। वे आर्योकी बराबरीसे सामाजिक अधिकार प्राप्त न कर सकें, इसलिए उन्हें धर्माधिकार (सामाजिक धर्माधिकार) से वञ्चित किया गया था। किन्तु जैनधर्म न तो सामाजिक धर्म है और न ही इसका दृष्टिकोण किसीको दासभावसे स्वीकार करनेका ही है। यद्यपि तत्त्वार्थसूत्रमें परिग्रहपरिमाणवतका निर्देश करनेके प्रसङ्गसे दास और दासी ये शब्द आये हैं और इस व्रतमें उनका परिमाण करनेकी भी बात कही गई है। किन्तु उसका तात्पर्य किसीको दास-दासी बनानेका नहीं है। जो मनुष्य पहले दास-दासी रखे हुए थे, वे जैन उपासककी दीक्षा लेते समय परिग्रहके समान उनका भी परिमाण कर लें और शेषको दास-दासीके कार्यसे मुक्त कर नागरिकताके पूरे अधिकार दे दें। साथ ही वे ही गहस्थ जब समस्त परिग्रहका त्याग करें या परिग्रहत्याग-प्रतिमा पर आरोहण करने लगें, तब चाहे दासी-दास हों या अन्य कोई सबको समान भावसे नागरिक समझें और धर्ममें उच्चसे उच्च नागरिकका जो अधिकार है, वही अधिकार सबका माने यह भी उसका तात्पर्य है। प्राचीन कालमें जो नागरिक सामाजिक अपराध करते थे उनमेंसे अधिकतर दण्डके भयसे घर छोड़कर धर्मकी शरणमें चले जाते थे, यह प्रथा प्रचलित थी। ऐसे व्यक्तियोंको या तो बौद्धधर्म में शरण मिलती थी या जैनधर्ममें । बुद्धदेवके सामने इस प्रकारका प्रश्न उपस्थित होने पर उत्तरकालमें उन्होंने तो यह व्यवस्था दी कि यदि कोई सैनिक सेनामेंसे भाग आवे या कोई सामाजिक अपराध १. देखो मनुस्मति अ०४ श्लोक ८० आदि । Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२२ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ करनेके बाद धर्मकी शरण में आया हो तो उसे बुद्धधर्म में दीक्षित न किया जाय, परन्तु जैनधर्मने व्यक्ति के इस नागरिक अधिकारपर भूलकर भी प्रतिबन्ध नहीं लगाया है। इसका कारण यह नहीं है कि वह दोषको प्रश्रय देना चाहता है । यदि कोई इस पर से ऐसा निष्कर्ष निकाले भी तो यह उसकी सबसे बड़ी भूल होगी । वृक्षको काटनेवाला व्यक्ति यदि आतपसे अपनी रक्षा करनेके लिए उसी वृक्षकी छायाकी शरण लेता है, तो यह वृक्षका दोष नहीं माना जा सकता । ठीक यही स्थिति धर्मकी है । काम, क्रोध, मद, मात्सर्य और मिथ्यात्वके कारण पराधीन हुए जितने भी संसारी प्राणी हैं, वे सब धर्मकी जड़ काटनेमें लगे हुए हैं । जो तथाकथित शूद्र हैं वे तो इस दोषसे बरी माने हो नहीं जाते, लौकिक दृष्टिसे जो उच्चवर्णी मनुष्य हैं वे भी इस दोषसे बरी नहीं हैं । तीर्थङ्करोंने व्यक्ति के जीवनमें वास करनेवाले इस अन्तरङ्ग मलको देखा था । फलस्वरूप उन्होंने उसीको दूर करनेका उपाय बतलाया था । शरीर और वस्त्रादिमें लगे हुए बाह्यमलका शोधन तो पानी, धूप, हवा और साबुन आदिसे भी हो जाता है । परन्तु आत्मामें लगे हुए उस अन्तरङ्ग मलको धोनेका यदि कोई उपाय है तो वह एकमात्र धर्म ही है । ऐसी अवस्थामें कोई तीर्थङ्कर यह कहे कि हम इस व्यक्ति के अन्तरङ्ग मलको धोनेके लिए इस व्यक्तिको तो अपनी शरणमें आने देंगे और इस व्यक्तिको नहीं आने देंगे, यह नहीं हो सकता । स्पष्ट है कि जिस प्रकार ब्राह्मण आदि उच्च वर्णवाले मनुष्यों को जिनमन्दिरमें जाकर पञ्चपरमेष्ठीकी आराधना करने का अधिकार है, उसी प्रकार शूद्रवर्णके मनुष्योंको भी किसी भी धर्मायतनमें जाकर सामायिक, प्रमुख भगवद्भक्ति, स्तवन, पूजन और स्वाध्याय आदि करनेका अधिकार है । यही कारण है कि बहुत प्रयत्न करनेके बाद भी हमें किसी भी शास्त्रमें 'शूद्र जिनमन्दिरमें जानेके अधिकारी नहीं हैं' इसका समर्थन करनेवाला वचन उपलब्ध नहीं हो सका । हरिवंशपुराणका उल्लेख यह जैनधर्मका हार्द हैं | अब हम हरिवंशपुराणका एक ऐसा उल्लेख उपस्थित करते हैं, जिससे इसकी पुष्टि होनेमें पूरी सहायता मिलती है । बलभद्र विविध देशोंमें परिभ्रमण करते हुए विद्याधर लोकमें जाते हैं और वहाँ पर बलि विद्याधर के वंशमें उत्पन्न हुए विद्युद्वेगकी पुत्री मदनवेगा के साथ विवाह कर सुखपूर्वक जीवनयापन करने लगते हैं । इसी बीच सब विद्याधरोंका विचार सिद्धकूट जिनालयकी वन्दनाका होता है । यह देखकर बलदेव भी मदनवेगाको लेकर सबके साथ उसकी वन्दना के लिए जाते हैं । जब सब विद्याधर जिनपूजा और प्रतिमागृहकी वन्दना कर अपने-अपने स्थान पर बैठ जाते हैं, तब बलदेवके अनुरोध करने पर मदनवेगा सब विद्याधर निकायोंका परिचय कराती है। वह कहती है- ' जहाँ हम और आप बैठे हैं इस स्तम्भके आश्रय से बैठे हुए तथा हाथ में कमल लिए हुए और कमलोंकी माला पहिने हुए ये गौरक नामके विद्याधर हैं । लाल मालाको धारण किये हुए और लाल वस्त्र पहिने हुए ये गान्धार विद्याधर गान्धार नामक स्तम्भके आश्रयसे बैठे हैं । नाना प्रकारके रंगवाले सोनेके रंगके और पीत रंगके रेशमी वस्त्र पहिने हुए ये मानवपुत्रक निकायके विद्याधर मानव नामक स्तम्भके आश्रयसे बैठे हैं । कुछ आरक्त रंगके वस्त्र पहिने हुए और मणियों के आभूषणोंसे सुसज्जित ये मनुपुत्रक निकाय के विद्यावर मान नामक स्तम्भके आश्रयसे बैठे हैं । नाना प्रकारकी औषधियोंको हाथ में लिए हुए तथा नाना प्रकार आभरण और मालाओंको पहिने हुए ये मूलवीर्य निकायके विद्याधर औषधि नामक स्तम्भके आश्रयसे बैठे हैं । सब ऋतुओंके फूलोंसे सुवासित स्वर्णमय आभरण और मालाओंको पहिने हुए ये अन्तर्भूमिचर निकायके विद्याधर भूमिमण्डक नामक स्तम्भके आश्रयसे बैठे हैं । नाना प्रकारके कुण्डलों और नागाङ्गदों तथा आभूषणोंसे सुशोभित ये शंकुक निकायके विद्याधर शंकु नामक स्तम्भके आश्रयसे बैठे हैं । मुकुटों को स्पर्श करनेवाले मणिकुण्डलोंसे सुशोभित ये कौशिक निकायके विद्याधर कौशिक नामक स्तम्भके Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : ५२३ आश्रयसे बैठे हैं। ये सब आर्य विद्याधर हैं। इनका मैंने संक्षेपमें कथन किया । हे स्वामिन् ! अब मैं मातङ्ग (चाण्डाल) निकायके विद्याधरोंका कथन करती हूँ । सुनो ! नीले मेघोंके समान नील वर्ण तथा नीले वस्त्र और माला पहिने हुए ये मातङ्ग निकायके विद्याधर मातङ्ग नामक स्तम्भके आश्रयसे बैठे हैं। श्मशानसे प्राप्त हुई हड्डी और चमड़ेके आभूषण पहिने हुए तथा शरीरमें भस्म पोते हुए ये श्मशाननिलय निकायके विद्याधर श्मशान नामक स्तम्भके आश्रयसे बैठे हैं। नील वैडूर्य रंगके वस्त्र पहिने हुए ये पाण्डुरनिकायके विद्याधर पाण्डुरनामक स्तम्भके आश्रयसे बैठे हैं। कालहिरणके चर्मके वस्त्र और माला पहिने हुए ये कालस्वपाकी निकायके विद्याधर कालनामक स्तम्भके आश्रयसे बैठे हैं। पिङ्गल केशवाले और तप्त सोनेके रंगके आभषण पहिने हुए ये श्वपाकी निकायके विद्याधर श्वपाकीनामक स्तम्भके आश्रयसे बैठे हैं। पर्णपत्रोंसे आच्छादित मुकुटमें लगी हुई नानाप्रकारकी मालाओंको धारण करनेवाले ये पार्वतेय निकायके विद्याधर पार्वत नामक स्तम्भके आश्रयसे बैठे हैं। बाँसके पत्तोंके आभूषण और सब ऋतुओंमें उत्पन्न होनेवाले फूलोंकी मालाएँ पहिने हुए ये वंशालय निकायके विद्याधर वंशनामक स्तम्भके आश्रयसे बैठे हैं। महाभुजंगोंसे शोभायमान उत्तम आभूषणोंको पहिने हुए ये ऋअमूक निकायके विद्याधर ऋक्षमूलकनामक स्तम्भके आश्रयसे बैठे हैं।" । यह हरिवंशपुराणका उल्लेख है। इसमें ऐसे विद्याधर निकायोंकी भी चर्चा की गई है जो आर्य होनेके साथ-साथ सभ्य मनुष्योचित उचित वेशभूषाको धारण किये हुए थे और ऐसे विद्याधर निकायोंकी भी चर्चा की गई है जो अनार्य हो नेके साथ-साथ चाण्डाल कर्म से भी अपनी आजीविका करते थे तथा हड्डियों और चमड़ों तकके वस्त्राभूषण पहिने हुए थे। यह तो स्पष्ट है कि विद्याधर-लोक में सदा कर्मभूमि रहती है, इसलिए वहाँके निवासी असि आदि षट्कर्मसे अपनी आजीविका तो करते ही है। साथ ही उनमे कुछ ऐसे विद्याधर भी होते हैं जो श्मशान आदिमें शवदाह आदि करके, मरे हुए पशुओंकी खाल उतारकर और हड्डियोंका व्यापार करके तथा इसी प्रकारके और भी निकृष्ट कार्य करके अपनी आजीविका करते हैं । इतना सब होते हुए भी वे दूसरे विद्याधरोंके साथ जिनमन्दिरमें जाते हैं, सब मिलकर पूजा करते हैं और अपने-अपने मुखियोंके साथ बैठकर परस्परमें धर्मचर्चा करते हैं । यह सब क्या है ? क्या इससे नहीं होता कि किसी भी प्रकारकी आजीविका करनेवाला तथा निकृष्टसे निकृष्ट वस्त्राभूषण पहिननेवाला व्यक्ति भी मोक्षमार्गके अनुरूप धार्मिक प्राथमिक कृत्य करने में आजाद है। उसकी जाति और वेशभूषा उसमें बाधक नहीं होती। जिन आचार्योंने सम्यग्दर्शनको धर्मका मूल कहा है और यह कहा है कि जो त्रस और स्थावर वधसे विरत न होकर भी जिनोक्त आज्ञाका श्रद्धान करता है, वह सम्यग्दृष्टि है। उनके उस कथनका एकमात्र यही अभिप्राय है कि केवल किसी व्यक्तिकी आजीविका, वेश-भूषा और जातिके आधारपर उसे धर्मका आचरण करनेसे नहीं रोका जा सकता। यह दूसरी बात है कि वह आगे-आगे जिस प्रकार व्रत, नियम और यमको स्वीकार करता जाता है, उसी प्रकार उत्तरोत्तर उसका हिंसाकर्म छूटकर विशुद्ध आजीविका होती जाती है, तथा अन्तमें वह स्वयं पाणिपात्रभोजी बनकर पूरी तरहसे आत्मकल्याण करने लगता है और अन्य प्राणियोंको आत्मकल्याण करने का मार्ग प्रशस्त करता है। वे पुरुष जिन्होंने जीवन भर हिंसादि कर्म करके अपनी आजीविका नहीं की है, सब के लिए आदर्श और वन्दनोय तो हैं ही। किन्तु जो पुरुष प्रारम्भमें हिंसादि कर्म करके अपनी आजीविका करते हैं और अन्तमें उससे विरक्त हो मोक्षमार्गके पथिक बनते हैं, वे भी सबके लिए आदर्श और वन्दनीय है। अन्य प्रमाण इस प्रकार हरिवंशपुराण के आधारसे यह ज्ञात हो जानेपर भी कि चाण्डालसे लेकर ब्राह्मण तक Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२४ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ प्रत्येक मनुष्य जिन मन्दिरमें प्रवेश कर जिनपूजा आदि धार्मिक कृत्य करनेके अधिकारी हैं, यह जान लेना आवश्वक है कि क्या मात्र 'हरिवंशपुराण'के उक्त उल्लेखसे इसकी पुष्टि होती है या कुछ अन्य प्रमाण भी उपलब्ध होते हैं जो इसकी पुष्टिमें सहायक माने जा सकते है। यह तो स्पष्ट है कि 'महापुराणकी' रचनाके पूर्व किसीके सामने इस प्रकारका प्रश्न हो उपस्थित नहीं हुआ था, इसलिए महापुराणके पूर्ववर्ती किसी आचार्यने इस दृष्टिसे विचार भी नहीं किया है। शद्र सम्यग्दर्शनपूर्वक श्रावक-धर्मको तो स्वीकार करे, किन्तु वह जिनमन्दिर में प्रवेश कर जिनेन्द्रदेवकी पूजन-स्तुति न कर सके, यह बात बुद्धिग्राह्य तो नहीं है । फिर भी, जब महापुराणके कर्ता आचार्य जिनसेनने जैनधर्मको वर्णाश्रमधर्मके साँचेमें ढालकर यह विधान किया कि इज्यादि षट्कर्म करनेका अधिकार एकमात्र तीन वर्णके मनुष्यको है, शूद्रको नहीं; तब उत्तरकालीन कतिपय लेखकोंको इस विषयपर विशेष ध्यान देकर कुछ-न-कुछ अपना मत बनाना ही पड़ा है। उत्तरकालीन साहित्यकारोंमें इस विषयको लेकर जो दो मत दिखलाई देते हैं, उसका कारण यही है । सन्तोषकी बात इतनी ही है कि उनमें से अधिकतर साहित्यकारोंने देवपूजा आदि धार्मिक कार्योको तीन वर्णके कर्तव्योंमें परिगणित न करके श्रावक धर्मके कार्यों में ही परिगणित किया है और इस तरह उन्होंने आचार्य जिनसेनके कथनके प्रति अपनी असहमति ही व्यक्त की है। सोमदेवसूरि नीतिवाक्यामृतमें कहते हैं आचारानवद्यत्वं शुचिरुपस्करः शारीरी च विशुद्धिः करोति शूद्रमपि देवद्विजतपस्विपरिकर्मसु योग्यम् । तात्पर्य यह है कि जिस शूद्रका आचार निर्दोष है तथा घर, पात्र और शरीर शुद्ध है, वह देव, द्विज और तपस्वियोंकी भक्ति पूजा आदि कर सकता है । नीतिवाक्यामृतके टीकाकार एक अजैन विद्वान् है । उन्होंने भी उक्त वचनकी टीका करते हुए एक श्लोक उद्धृत किया है । श्लोक इस प्रकार है गृहपात्राणि शुद्धानि व्यवहारः सुनिर्मलः । कायशुद्धिः करोत्येव योग्यं देवादिपूजने ॥ श्लोकका अर्थ वही है जो नीतिवाक्यामृतके वचनका कर आये हैं। इस प्रकार सोमदेवसूरिके सामने बार उपस्थित होनेपर कि शद्र जिनमन्दिरमें जाकर देवपूजा आदि कार्य कर सकता है या नहीं? उन्होंने अपना निश्चित मत बनाकर यह सम्मति दी थी कि यदि उसका व्यवहार सरल है और उसका घर, वस्त्र तथा शरीर आदि शुद्ध है, तो वह मन्दिरमें जाकर देवपूजा आदि कार्य कर सकता है। यहाँपर इतना स्पष्ट जान लेना चाहिए कि सोमदेवसूरिने इस प्रश्नको धार्मिक दृष्टिकोणसे स्पर्श न करके ही यह समाधान किया है, क्योंकि धार्मिक दृष्टिसे देवपूजा आदि कार्य कौन करे, यह प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता । कारण कि कोई मनुष्य ऊपरसे चाहे पवित्र हो और चाहे अपवित्र हो, वह पञ्चपरमेष्ठीकी भक्ति, विनय और पूजा करनेका अधिकारी है। यदि किसीने पञ्चपरमेष्ठीको भक्ति, वि पूजा की है, तो वह भीतर और बाहर सब तरफसे शुद्ध है और नहीं की है, तो वह न तो भीतरसे शुद्ध है और न बाहरसे ही शुद्ध है। हम भगवद्भक्ति या पूजाके प्रारम्भमें 'अपवित्रः पवित्रो वा' इस आशयके दो श्लोक पढ़ते हैं, वे केवल पाठमात्रके लिए नहीं पढ़े जाते हैं । स्पष्ट है कि धार्मिक दृष्टिकोण इससे भिन्न है। वह न तो व्यक्तिके कर्मको देखता है और न उसकी बाहरी पवित्रता और अपवित्रताको ही देखता है । यदि वह देखता है तो एकमात्र व्यक्तिकी श्रद्धाको, जिसमेंसे भक्ति, विनय, पूजा और दान आदि सब धार्मिक Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : ५२५ कर्म उद्भूत होते हैं । आचार्य अमितिगतिने इस सत्यको हृदयंगम किया था। तभी तो उन्होंने आचार्य जिनसेन द्वारा प्ररूपित छह कर्मों से वार्ताके स्थानमें गुरूपास्ति रखकर यह सूचित किया कि ये तीन वर्णके कार्य न होकर गृहस्थोंके कर्तव्य है । उन्होंने गुहस्थके जिन छह कर्मोंकी सूचना दी है वे हैं देवपूजा गुरूपास्तिः स्वाध्यायः संयमस्तपः । दानं चेति गृहस्थानां षट्कर्माणि दिने-दिने । पण्डितप्रवर आशाधरजीने अपने सागारधर्मामृत, (अध्याय १ श्लो० १८) में इस प्रकारका संशोधन तो नहीं किया है । उन्होंने वार्ताके स्थानमें उसे ही रहने दिया है। परन्तु उसे रखकर भी वे उससे केवल असि, मषि, कृषि और वाणिज्य इन चार कर्मोसे अपनी आजीविका करनेवालोंको ग्रहण न कर सेवाके सा अपनी आजीविका करनेवालोंको स्वीकार कर लेते हैं । और इस प्रकार इस संशोधन द्वारा वे भी यह सूचित करते हैं कि देवपजा आदि कार्य तीन वर्णके कर्तव्य न होकर गृहस्थधर्मके कर्तव्य हैं। फिर चाहे वह गृहस्थ किसी भी कर्मसे अपनी आजीविका क्यों न करता हो। इस प्रकार हम देखते हैं कि उत्तरकालवर्ती जितने भी साहित्यकार हुए हैं, प्राय उन्होंने भी यही स्वीकार किया है कि जिनमन्दिरमें जाकर देवपूजा आदि कार्य जिस प्रकार ब्राह्मण आदि तीन वर्णका गृहस्थ कर सकता है, उसी प्रकार चाण्डाल आदि शूद्र गृहस्थ भी कर सकता है। आगममें इससे किसी प्रकारको बाधा नहीं आती। और यदि किसीने कुछ प्रतिबन्ध लगाया भी है, तो उसे सामयिक परिस्थितिको ध्यानमें रखकर सामाजिक ही समझना चाहिए। आगमकी मनसा इस प्रकारकी नहीं है, यह सुनिश्चित है । इस प्रकार शास्त्रीय प्रमाणोंके प्रकाशमें विचार करनेपर यह स्पष्ट हो जाता है कि शूद्रोंको श्री जिनमन्दिरमें जाने और पूजन-पाठ करनेका कहीं कोई निषेध नहीं है । महापुराणमें इज्या आदि षट्कर्म करनेका अधिकार जो तीन वर्णके मनुष्योंको दिया गया है, उसका रूप सामाजिक है धार्मिक नहीं और उद्देश्य व अभिप्रायकी दृष्टिसे सामाजिक विधिविधान तथा धार्मिक विधिविधानमें बड़ा अन्तर है, क्योंकि क्रिया एक प्रकारकी होनेपर भी दोनोंका फल अलग-अलग है। ऐसी अवस्थामें आचार्य जिनसेन द्वारा महापुराणमें कौलिक दृष्टिसे किये गये सामाजिक विधिविधानको आत्मशुद्धिमें सहायक मानना तत्त्वका अपलाप करना है। यद्यपि इस दृष्टिसे भगवद्भक्ति करते समय भी पूजक यह भावना करता हुआ देखा जाता है कि मेरे दुःखोंका क्षय हो, कर्मोंका क्षय हो, समाधिमरण हो, रत्नत्रयकी प्राप्ति हो और मैं उत्तम गति जो मोक्ष उसे प्राप्त करूँ । जलादि द्रव्यसे अर्चा करते समय वह यह भी कहता है कि जन्म, जरा और मृत्यु का नाश करनेके लिए मैं जलको अर्पण करता हैं, आदि। किन्तु ऐसी भावना व्यक्त करने मात्रसे वह क्रिया मोक्षमार्गका अङ्ग नहीं बन सकती, क्योंकि जो मनुष्य उक्त विधिसे पूजा कर रहा है, उसकी आध्यात्मिक भूमिका क्या है, प्रकृतमें यह बात मुख्यरूपसे विचारणीय हो जाती है। यदि भगवद्भक्ति करनेवाला कोई व्यक्ति इस अभिप्रायके साथ जिनेन्द्रदेवकी उपासना करता है कि 'यह मेरा कौलिक धर्म है, मेरे पूर्वज इस धर्मका आचरण करते आये हैं, इसलिए मुझे भी इसका अनुसरण करना चाहिए । मेरा ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य कुलमें जन्म हुआ है, अतः मैं ही इस धर्मको पूर्णरूपसे पालन करने धिकारी हैं। जो शूद्र हैं वे इस धर्मका उस रूपसे पालन नहीं कर सकते, क्योंकि वे नीच है । यह मन्दिर भी मैंने या मेरे पूर्वजोंने बनवाया है, इसलिए मैं इसमें मेरे समान आजीविका करनेवाले तीन वर्णके मनष्योंको ही प्रवेश करने दूंगा, अन्यको नहीं । अन्य व्यक्ति यदि भगवद्भक्ति करना ही चाहते हैं, तो वे मन्दिरके बाहर Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२६ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ रहकर मन्दिरकी शिखरोंमें या दरवाजोंके चौखटोंमें स्थापित की गई जिनप्रतिमाओंके दर्शन कर उसकी पूर्ति कर सकते हैं । मन्दिरोंके सामने जो मानस्तम्भ निर्मापित किये गये हैं, उनमें स्थापित जिनप्रतिमाओंके दर्शन करके भी वे अपनी धार्मिक भावनाकी पूर्ति कर सकते हैं। परन्तु मन्दिरों के भीतर प्रवेश करके उन्हें भगवद्भक्ति करनेका अधिकार कभी भी नहीं दिया जा सकता ।' तो उसका यह अभिप्राय मोक्षमार्गकी पुष्टिमें और उसके जीवनके सुधारमें सहायक नहीं हो सकता। भले ही वह लौकिक दृष्टिसे धर्मात्मा प्रतीत हो, परन्तु अन्तरङ्ग धर्मकी प्राप्ति इन विकल्पोंके त्यागमें ही होती है, यह निश्चित है। क्योंकि प्रथम तो यहाँ यह विचारणीय है कि कौलिक दृष्टिसे की गई यह क्रिया क्या संसारबन्धनका उच्छेद करनेमें सहायक हो सकती है ? एक तो ऐसी क्रियामें वैसे ही रागभावको मुख्यता रहती है, क्योंकि उसके बिना अन्य पदार्थके आलम्बनसे प्रवृत्ति नहीं हो सकती, इसलिए आगममें इसका मुख्य फल पुण्यबन्ध ही बतलाया है, संसारका उच्छेद नहीं । यदि कहीं पर इसका फल संसारका उच्छेद कहा भी है, तो उसे उपचार कथन ही जानना चाहिए। और यह स्पष्ट है कि उपचार कथन मुख्यका स्थान नहीं ले सकता । उपचारका स्पष्टीकरण करते हुए अन्यत्र कहा भी है मुख्याभावे सति प्रयोजने च उपचारः प्रवर्तते । आशय यह है कि मुख्यके अभावमें प्रयोजन विशेषकी सिद्धिके लिए उपचार कथनकी प्रवृत्ति होती है । इसलिए इतना स्पष्ट है कि अन्य पदार्थके आलम्बनसे प्रवृत्तिरूप जो भी क्रिया की जाती है, वह उपचारधर्म होनेसे मुख्य धर्मका स्थान नहीं ले सकता । यद्यपि यह हम मानते हैं कि गृहस्थ अवस्था में ऐसे धर्मकी ही प्रधानता रहती है। किन्तु इसका यह तात्पर्य नहीं कि गृहस्थ मुख्य धर्मसे अपनी चित्तवृत्तिको हटाकर इसे ही साक्षात् मोक्षका साधन मानने लगता है। स्पष्ट है कि जब मोक्षके अभिप्रायसे किया गया, व्यवहारधर्म भी साक्षात् मोक्षका साधन नहीं हो सकता । ऐसी अवस्थामें जो आचार कौलिक दृष्टिसे किया जाता है, वह धर्मका स्थान कैसे ले सकता है ? उसे तो व्यवहारधर्म कहना भी धर्मका परिहास करना है। अतएव निष्कर्षरूपमें यही समझना चाहिए कि धर्ममें वर्णादिकके भेदसे विचारके लिए रञ्चमात्र भी स्थान नहीं है और यही कारण है कि जैनधर्मने व्यक्तिकी योग्यताके आश्रयसे उसका विचार किया है, वर्ण और जातिके आश्रयसे नहीं। जब यह वस्तुस्थिति है तो ऐसी अवस्थामें अन्य वर्णवालोंके समान शूद्र भी जिन मन्दिरमें जाकर जिनदेवकी अर्चा वन्दना करें, यह मानना आगम सम्मत होनेसे उचित ही है। Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोनगढ़ और जैनतत्वमीसांसा सोनगढ़ को लक्ष्य कर सोनगढ़के विरोधी कतिपय पत्रोंमें टीका-टिप्पणी होती रहती है । इसके अन्य कई कारण हैं, पर मैं उन सबकी इस लेखमें चर्चा नहीं करूँगा । जहाँ तक शस्त्रीय दृष्टिसे विचार करने की बात है उसके ये तीन मुख्य कारण प्रतीत होते हैं- १. सोनगढ़ कार्य-कारण भावको स्वीकार नहीं करता । २. सोनगढ़ व्यवहार धर्मको रागरूप बतलाता है । ३ सोनगढ़ व्यवहार धर्मका निषेध करता है । यहाँ सोनगढ़ को दृष्टिमें रखकर इन्हीं तीनों बातों पर विचार करना है १. परमागममें कार्य-कारण भावका ऊहापोह दो प्रकारसे किया गया है— उपादान- उपादेय दृष्टिसे और निमित्त नैमित्तिक दृष्टिसे । विरोधी पत्रोंमें अभी तक जितने भी लेख मेरे देखने में आये हैं, उनमें उपादानउपादेय भावको तो प्रायः स्पर्श ही नहीं किया जाता है यदि कार्य-कारण भावका ऊहापोह करते समय बाह्य और आभ्यन्तर दोनों प्रकारकी सामग्री के आधारसे कार्यका विचार किया जाय तो रुपयामें पन्द्रह आना समस्या सुलझ जाय । तब केवल एक मात्र इतना ही विचार करना शेष रह जाय कि बाह्य सामग्री के रहते हुए भी जीवन में ऐसी क्या कमी रह जाती है जिससे स्वयं जीव उपादान बनकर मिथ्यात्वादिके अभावपूर्वक सम्यग्दर्शनादि परिणामको नहीं उत्पन्न कर पाता । मोक्षमार्गका प्रारम्भ अबुद्धिपूर्वक होता है इसे मेरे ख्यालमें न तो परमागम ही स्वीकार करता है और न विरोधी विद्वान् ही मानते होंगे । चाहे देव, गुरु और शास्त्र आदिकी भक्ति आदि रूप कार्य हों, चाहे निश्चय रत्नत्रयकी प्राप्तिरूप कार्य हो, होता है इन दानोंका प्रारम्भ बुद्धि पूर्वक ही । अब विचार कीजिए कि कुदेवादिकी भक्ति-पूजा आदिरूप गृहीत मिथ्यात्वका बुद्धिपूर्वक त्यागकर मात्र सच्चे देवादिककी ही शरण स्वीकार करता है, या उसके साथ गृहस्थ और मुनिके आचारको सम्यक् प्रकारसे पालता है उसे निश्चय सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानकी या श्रावक और मुनिके अनुरूप निश्चय रत्नत्रय की प्राप्ति उस बाह्य कारणोंके होनेपर भी नियमसे क्यों नहीं होती ? यह अनियम होनेका कारण क्या है ? यदि विरोधी विद्वान् इस लक्ष्यपर गम्भीरता से विचार करने लगें और इस मुख्य कारणको दृष्टि ओझल न कर उक्त कारणके अनुसन्धानमें लग जायँ तो उन्हें सोनगढ़ की प्ररूपणाकी यथार्थता भी समझ में आने लगे । निश्चय रत्नत्रय जीवका स्वाश्रित भाव है और व्यवहार रत्नत्रय जीव का पराश्रित भाव है । आशय यह है कि जब यह जीव बुद्धिपूर्वक होनेवाले पराश्रित शुभाशुभ अन्य सब विकल्पोंसे निवृत्त होकर भी श्री समयसार आदि द्रव्यानुयोग में बतलाए गए निज स्वरूपकी ओर अपने उपयोगको मोड़कर उसमें उपयुक्त होता है, तब उसे यथायोग्य निश्चय रत्नत्रयकी प्राप्ति होती है । यदि उक्त जीव गृहीत मिथ्यात्वका बुद्धिपूर्वक त्यागकर तथा सच्चे देव, शास्त्र, गुरु की श्रद्धा सम्पन्न होकर अव्रती श्रावकके अनुरूप जैनाचारका पालन करने वाला है तो स्वात्मोन्मुख होनेपर वह स्वानुभूति स्वरूप निश्चय सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानको प्राप्त करता है, इसके अनंतानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभका अभाव हो जानेसे अंशतः वीतरागता भी प्रगट हो जाती है । यदि उक्त जीव चरणानुयोगके अनुसार अणुव्रतोंका पालन करने वाला है तो स्वात्मोन्मुख होनेपर Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२८: सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-प्रन्थ वह निश्चय सम्यग्दर्शन और निश्चय सम्यग्ज्ञानके साथ विरताविरत गुणस्थानको प्राप्त कर लेता है और यदि उक्त जीव चरणानुयोग परमागम में प्रतिपादित विधिसे अट्ठाईस मूलगुणोंका धारी है तो स्वात्मोन्मुख होने पर वह निश्चय सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानके साथ सातवें गुणस्थानको प्राप्त हो जाता है । मोक्षमार्गमें आरूढ़ होनेका एक मात्र यही मार्ग है, इसके सिवा अन्य मार्ग नहीं है। जो इस विधिसे मोक्षमार्गपर आरूढ़ होता है उसके यथायोग्य निश्चय रत्नत्रयकी प्राप्ति होते समय करणानुयोगके अनुसार तदनुरूप कर्मोंकी उपशमादि क्रिया भी अवश्य होती है। इसी में तीनों अनुयोगोंकी प्ररूपणा की सार्थकता है। कार्य-कारण भावको स्वीकार करनेकी आवश्यकता भी इसीमें है। परमागम ही इसे स्वीकार करता है कि व्यवहार रत्नत्रय पराश्रित भाव है। क्योंकि उसकी प्राप्ति बुद्धिमें परका आलम्बन लेने पर ही होती है। इसमें गृहीत मिथ्यादर्शन-ज्ञान-चारित्रके त्यागपूर्वक परमार्थ स्वरूप-देव-गुरु-शास्त्र और व्रतोंका अवलम्बन लेकर मन, वचन और कर्मकी प्रवृति करना मुख्य है । उक्त सच्चे देवादिकका अपने उपयोगमें अवलम्बन लिए बिना व्यवहार रत्नत्रयकी प्राप्ति हो जाय, यह त्रिकालमें सम्भव नहीं है। इसीलिए परमागममें व्यवहार रत्नत्रयको प्रशस्त रागरूप स्वीकार किया है। बुद्धिपूर्वक ऐसा प्रशस्त राग प्रमत्त संयत गुणस्थान तक पाया जाता है, इसलिए वहीं तक व्यवहार रत्नत्रयकी प्राप्ति, पालन और सम्हालका विकल्प होता है। अपने उक्त प्रकारके विकल्पका अभाव होकर दसवें गणस्थान तक तद्विषयक राग तो पाया जाता है। मन, वचन और कायकी उस रूप प्रवृत्ति नहीं होती। मूलाचार आदि परमागममें प्रारम्भके तीन गुणस्थानोंमें अशुभोपयोग बतलाया है। यद्यपि मिथ्यात्व गुणस्थानोंमें ही किन्हींको अव्रती श्रावकके अनुरूप व्यवहार रत्नत्रयकी प्राप्ति हो जाती है, किन्हीं को व्रती श्रावकके अनुरूप व्यवहार रत्नत्रयकी प्राप्ति हो जाती है और किन्हींको मुनिपदके अनुरूप व्यवहार रत्नत्रयकी प्राप्ति हो जाती है। परन्तु उन्हें निश्चय सम्यग्दर्शनादिकी प्राप्ति न होने के कारण उनके इस व्यवहार धर्मको यथार्थ संज्ञा नहीं प्राप्त होती । कारण कि यह सब करते हए भी उसके जीवन में एक तो किसी न किसी जातिकी लौकिक अभिलाषा बनी रहती है और दूसरे वह उस बाह्य प्रवृत्तिको ही अपना हितकारी मानता रहता है। सोनगढ़ इस बाह्य व्यवहार धर्मको आगम बाह्य मानता हो ऐसा भी नहीं है या निश्चय धर्मकी प्राप्तिके पूर्व व्यवहार धर्मको प्राप्ति होती है, ऐसा न मानता हो ऐसा भी नहीं है या वहाँ इसका उपदेश न होता हो ऐसा भी नहीं है । वस्तुस्थिति यह है कि प्रत्येक अनुयोगके व्याख्यानकी अपनी मर्यादा है। सोनगढ़में उस मर्यादाको ख्यालमें रखकर ही व्याख्यान किया जाता है इतना अवश्य है । उदाहरणार्थ जब चरणानुयोगके अनुसार वहाँ व्याख्यान होता है तब यह स्पष्ट कहा जाता है कि जो कुदेवादिककी भक्ति-पूजन करता है या सात वन करता है और आठ मूलगुणों का पालन नहीं करता है आदि, वह नामका भी जैन नहीं है। वह परम अर्हत वाणीको सुननेका भी पात्र नहीं । सभामें आकर बैठे और सुने यह दूसरी बात है । इस प्रकार वहाँ चरणानुयोगके व्याख्यानकी मर्यादाको ध्यान में रखकर उसका व्याख्यान किया जाता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि जैसे चरणानुयोगके व्याख्यानकी अपनी मर्यादा है वैसे ही द्रव्यानुयोगके व्याख्यानकी भी अपनी मर्यादा है । पराश्रितको छुड़ाकर अपने निजस्वरूप उपयुक्त कराना द्रव्यानुयोगके व्याख्यानका मुख्य प्रयोजन है इसलिए इसके व्याख्यानके समय शुभ और अशुभ सभी प्रकारके रागभावका निषेध किया है। उसमें जिस Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : ५२९ प्रकार अशुभ रागस्वरूप पञ्चेन्द्रियोंके विषय ग्रहणका निषेध हो जाता है उसी प्रकार व्यवहार रत्नत्रय का भी निषेध हो जाता है । द्रव्यानुयोगके व्याख्यानके समय यदि व्यवहार रत्नत्रयका निषेध होता है तो सुनने वालेको अटपटा नहीं लगना चाहिए । उन्हें यह समझना चाहिए कि निर्विकल्प अवस्थाके प्राप्त करनेके अभिप्रायसे ही यहाँ उपदेशमें सब प्रकारके विकल्पोंको छोड़नेका उपदेश दिया जाता है। यदि इस उपदेशको सुनकर कोई अपने व्यवहार रत्नत्रयको ही प्रवृत्तिमें त्याग बैठता है तो इससे वह अपना ही अहित करता है। इसमें उपदेष्टाको दोष नहीं दिया जा सकता और न उस प्ररूपणाको ऐकान्तिक ही कहा जा सकता है। निश्चय धर्म और व्यवहार धर्मका व्याख्यान नयाश्रित होनेसे एक कालमें एक धर्मका ही व्याख्यान हो सकता है । जिनवाणीका संकलन भी इसी दृष्टिसे भिन्न-भिन्न अनुयोगोंमें मुख्यतासे किया गया है हमें यह नहीं भूलना चाहिए । स्वाश्रित कथन निश्चयनयका विषय है और पराश्रित कथन व्यवहारनयका विषय है, लए जीवनमें स्वाश्रितपनेकी प्रसिद्धिके लिए पराश्रित व्यवहारका निषेध किया जाता है। दूसरे व्यवहारनय और उसका विषय निषेध्य इसलिए भी है, क्योंकि वह यथावस्थित वस्तुस्वरूप नहीं है । परमागममें इसीलिए निश्चयनयको प्रतिषेधक और व्यवहारनयको प्रतिषेध्य कहा गया है । एक बात यह भी है कि जीवनमें व्यवहार धर्म रूप प्रवृत्तिको साकार रूप देनेके लिए जैसे अशुभ प्रवृत्ति और अशुभ विकल्पका निषेध किया जाता है, उसे उपादेय नहीं माना जाता वैसे ही अपने जीवनको निश्चय धर्मस्वरूप बनानेके लिए उसके व्याख्यानमें शुभ अशुभ दोनों प्रकारकी प्रवृत्तियों और उनके विकल्पोंका भी निषेध किया जाता है । उन्हें उपादेय नहीं बतलाया जाता। शुभ और अशुभ भावकी निवृत्तिका नाम संवर है। द्रव्यानुयोग और चरणानुयोग दोनों परमागम स्वीकार करते हैं । मूलाचारकी टीकामें अहिंसा आदिको व्रत कहनेके कारणका निर्देश करते हुए बतलाया है कि सावद्यको निवृत्ति पूर्वक मोक्षमार्गके निमित्त रूप आचरणमें व्रत व्यवहार किया जाता है। इससे भी यही ज्ञात होता है कि जो स्वयं मोक्षमार्ग तो नहीं है, किन्तु जो आचरण उसका बाह्य निमित्त है उसे व्यवहार धर्म कहते हैं। इस प्रकार इतने ऊहापोहके आधारसे कार्य कारण भावका विचार करनेपर यह सूतरां फलित हो जाता है कि स्वभाव सम्मुख हुआ आत्मा मोक्षमार्गका उपादान निमित्त है। दर्शन मोहनीय आदि कर्मोंका उपशमादि उसका अन्तरंग निमित्त है और सच्चे देव-गुरु शास्त्रकी श्रद्धा व व्रतादि परिणाम उसका बाह्य निमित्त है। यहाँ कर्मके उपशमादिको अन्तरंग निमित्त और नोकर्मको बाह्य निमित्त कहा गया है । हैं वे दोनों जीवसे भिन्न ही और इस अपेक्षासे वे दोनों ही बाह्य निमित्त हैं। बाह्य और आभ्यन्तर उपाधिकी समग्रतामें कार्य होता है, स्वामी समन्तभद्रके इस वचनसे भी उक्त लक्ष्यकी पुष्टि होती है। यहाँ उपादान निमित्तको आभ्यन्तर उपाधि कहा गया है और बाह्य सभी प्रकारकी सामग्रीको बाह्य उपाधि कहा गया है, इसमें कर्म और नोकर्म दोनोंका ग्रहण हो जाता है। __ अन्यत्र (श्लोक वार्तिकमें) उपादाननिमित्तको निश्चय कारण भी कहा गया है। समर्थ उपादान कारण यह इसका दूसरा नाम है। इससे यह सुतरां फलित हो जाता है कि निश्चय कारणके अतिरिक्त कार्यके प्रति निमित्तभूत अन्य जितनी भी बाह्य सामग्री होती है वह सब जिनागममें व्यवहारसे ही हेतु मानी गई है। इसका कारण यह है कि जैसे उपादान द्रव्यसे अभिन्न होनेके कारण स्वयं कार्यरूप परिणमता है वैसे बाह्य सामग्री, जो प्रत्येक कार्यमें निमित्त व्यवहारको प्राप्त होती है, स्वयं उस कार्यरूप न परिणम कर उससे भिन्न रहकर ही अपना अन्य कार्य करती है। फिर भी उसमें निमित्त व्यवहार करनेका प्रथम कारण कालप्रत्यासत्ति है। अर्थात उक्त दोनोंके एक कालमें होनेके कारण इनमें परस्पर निमित्त-नैमित्तिक व्यवहार किया जाता Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ '५३० : सिद्धान्ताचार्य पं० फलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ है। दूसरा कारण यह है कि उक्त दोनोंमें बाह्य व्याप्ति घटित हो जाती है। और इसी आधारपर इन देनोंमें अन्वय-व्यतिरेक घटित होता है। जहाँ बाह्य सामग्री या अन्तरंग सामग्री हो और कार्य न हो, वहाँ उन दोनोंको उस कार्यका निमित्त कहना स्थूल दृष्टि है। वस्तुतः जब कोई द्रव्य निश्चय उपादान पदवीको प्राप्त होता है तब उसके अनन्तर समयमें जिसका वह उपादान निमित्त होता है वह कार्य अवश्य होता है और उसका जिसकी उस प्रकारके कार्यके साथ कालिक व्याप्ति होती है ऐसा कोई न कोई बाह्य निमित्त भी होता है। तीसरा कारण यह है कि उपादानके अनुसार जो कार्य होता है, बाह्य सामग्री का व्यापार । वहारनयसे उसके अनुकूल ही होता है। ये तीन कारण हैं जिन्हें लक्ष्यमें रखकर कार्य और उसके अनुकूल बाह्य सामग्रीमें निमित्त-नैमित्तिक व्यवहार किया जाता है । नय सात है-नैगमनय, संग्रहनय, व्यवहारनय, ऋजुसूत्रनय, शब्दनय, समिभरूढिनय और एवं भूतनय । पर और अपर सत् संग्रहनयका विषय है। संग्रहनयसे गृहीत सत्में भेद करना व्यवहारनयका विषय है । वर्तमान पर्यायको ग्रहण करना ऋजुसूत्रनयका विषय है तथा शब्दादिके भेदसे वतमान पर्यायको ग्रहण करना शब्दादि तीन नयोंका विषय है। इससे ज्ञात होता है कि कार्यकारण भाव इन छहों नयोंका विषय तो हो नहीं सकता, क्योंकि इनमें से प्रारम्भके दो नय तो सत् और सतमें किये गये परमाण तक अवान्तर भेदको विषय करते है तथा अन्तके चार नय वर्तमान पर्यायको विषय करते हैं। कार्य-कारणभाव दोमें बनता है इसलिए यह कारण है और यह इसका कार्य है इस प्रकार दोमें सम्बन्ध स्थापित करना इन नयोंका विषय नहीं हो सकता । अब केवल नैगमनय रह जाता है। सो उक्त सब नयोंका जितना विषय है वह सब नैगमनयका विषय है, क्योंकि इसमें संकल्पकी मुख्यता रहती है । नैगमनयको व्यत्पत्ति है-'नैकगमो नैगमः' इसके अनुसार शब्द, शील, कर्म, कार्य, कारण, आधार, आधेय, सहचार, मान, मेय, उन्मेय, भूत, भविष्यत् और वर्तमानके आलम्बन द्वारा किया गया उपचार इस नयका विषय है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि यह इसका कार्य है और यह इसका कारण है इस प्रकार दोके आलम्बनसे जितना भी व्यवहार किया जाता है 'वह सब नैगमनयकी अपेक्षा ही बनता है, अतः इस सब व्यवहारको उपचरित ही समझना चाहि कारण है कि श्री समयसारमें विविध स्थलोंपर आचार्य अमृतचन्द्रदेवने ऐसे सब व्यवहारको विकल्परूप कहकर उसे उपचरित ही बतलाया है। इस प्रकार परमागम प्रसिद्ध नयोंके आधारसे विचार करनेपर भी यही सिद्ध होता है कि प्रयोजन विशेषसे एकको निमित्त और दूसरेको उसका नैमित्तिक कहना व्यवहार (उपचरित) कथन ही है, परमार्थ कथन नहीं। यहाँ यह प्रश्न होता है कि ऐसे उपचरित कथनको परमागममें स्थान क्यों दिया गया है और उस आधारसे कार्य कारणभावकी व्यवस्था क्यों की गई है ? समाधान यह है कि इस द्वारा परमार्थकी प्रसिद्धि होती है इस प्रयोजनको ध्यानमें रखकर परमागममें इस उपचरित कथन को स्थान दिया गया है। इसकी पुष्टि स्थापना निक्षेप द्वारा सम्यक प्रकारसे होती है। ध्यान मद्रामें स्थापित मति स्वयं पंचपरमेष्ठी नह है, किन्तु उपचारसे हम उसमें यथा प्रयोजन पंचपरमेष्ठीकी कल्पनाकर उनकी आराधना करते रहते हैं । यहाँ जिस प्रकार जिनबिम्ब और पुण्यभावमें परस्पर निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध बतलाया गया है उसी प्रकार सर्वत्र समझना चाहिए क्योंकि अन्वय-व्यतिरेकके आ-रपर कार्य-कारण सम्बन्धकी प्रक्रिया सर्वत्र एक प्रकारसे ही "स्वीकार की गई है। फिर चाहे जिसमें निमित्त व्यवहार किया जाता है वह अपनी हलन-चलन रूप क्रिया व्यापारके द्वारा निमित्त हो रहा हो या बुद्धिपूर्वक क्रिया व्यापारके द्वारा निमित्त हो रहा हो या अन्य प्रकारसे निमित्त हो रहा हो । इतना सुनिश्चित है कि किसी भी कार्य के होनेमें उससे भिन्न जिसमें विभिन्न व्यवहार Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : ५३१ किया जाता है वह काल प्रत्यासत्ति वश बाह्य व्याप्तिको लक्ष्यमें रखकर अन्वय-व्यतिरेकके आधार पर ही किया जाता है ऐसा यहाँ समझना चाहिए। उसमें तद्व्यतिरिक्त वस्तुके कार्यका परमार्थ रूप कर्ता, कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादान और अधिकरण रूप एक भी कारक धर्म पाया जाता हो ऐसा नहीं है। यही कारण है कि उसमें तद्व्यतिरिक्त वस्तुके कार्यके कर्ता आदि कारण धर्मका आरोप करके उसे व्यवहार हेतु कहा जाता है। इस विवेचनसे यह सुतरां फलित हो जाता है कि किसी एक वस्तुको किसी दूसरे वस्तुके कार्यका प्रेरक निमित्त कहना या उदासीन निमित्त कहना यह सब उपचरित कथन ही है परमार्थ कथन नहीं, यह व्यवहारनयका कर्तव्य है । निश्चय नयका कर्तव्य इस प्रकार है उत्पाद, व्यय और ध्रुव स्वभाव वस्तुको द्रव्य कहते हैं । यह द्रव्यका अव्याप्ति, अतिव्याप्ति और असंभव दोषोंसे रहित आत्मभुत सामान्य लक्षण है। इसके अनुसार प्रत्येक द्रव्य पर्यायों में अपने अन्वय स्वभाव के कारण द्रव्य दृष्टिसे स्वयं अवस्थित और नित्य है तथा व्यतिरक स्वभावके कारण पर्याय दृष्टिसे स्वयं उत्पाद और व्ययको प्राप्त होनेसे अनित्य है। प्रत्येक द्रव्योंको नित्यानित्यात्मक स्वीकार करनेका यही कारण है । यह त्रैकालिक वस्तु व्यवस्था है। इस प्रकार जब इस तथ्यको स्वीकार किया जाता है तब प्रत्येक द्रव्य में प्रति समय उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यकी व्यवस्था स्वयं बनती है यह निश्चित होता है । इसीलिये श्री समयसारमें परिणामी, परिणाम और परिणमन क्रिया इन तीनोंको तात्त्विक रूपसे अभिन्न-एक कह कर बतलाया है कि पर पदार्थ से भिन्न रह कर सदा काल एक ही वस्तु परिणमन करती है, एक ही परिणाम होता है और एककी ही परिणमन क्रिया होती है, क्योंकि ये अनेक होकर भी एक ही वस्तु है-भेद नहीं है । दो द्रब्य एक होकर परिणमन नहीं करते, दो द्रव्योंका एक परिणाम नहीं होता और दो द्रव्योंकी एक परिणमन क्रिया नहीं होती, क्योंकि जो अनेक है वे सदा अनेक ही रहते हैं, वे बदल कर एक नहीं हो जाते । एक परिणामके दो कर्म नहीं होते, एक द्रव्यके दो परिणाम नहीं होते तथा एक द्रव्यकी दो परिणाम क्रिया नहीं होती क्योंकि एक कर्मी भी अनेकरूप नहीं होता । यह वस्तुव्यवस्था है। इसीसे परिणाम स्वभाव वाला होने पर भी प्रत्येक द्रव्यको द्रव्य दृष्टिसे नित्य और अवस्थित स्वीकार किया गया है। प्रत्येक द्रव्य परमार्थसे अपने गुण-पर्यायोंमें ही व्याप्त कर रहता है। वह इस अलंध्य मर्यादाका उल्लंघन त्रिकालमें नहीं कर सकता। प्रत्येक द्रव्यकी अपने परिणामोंके साथ अन्तःव्याप्ति स्वीकार करनेका भी यही कारण है । यह निश्चयनयका वक्तव्य है। इस प्रकार असद्भूत व्यवहारनय और निश्चयनयके वक्तव्यका विचार करनेके बाद अब सद्भूत व्यवहारनयके वक्तव्यका निर्देश करनेके साथ सद्भुत व्यवहारनय और असद्भुत व्यवहारनयके वक्तव्य में परस्पर सामंजस्य किस प्रकार है इसकी मीमांसा करेंगे। यह तो हम पहले ही बतला आये हैं कि प्रत्येक द्रव्य कथंचित् परिणाम स्वभाव है, इसलिए उसमें प्रति समय उत्पाद-व्यय होता रहता है। यहाँ उत्पादका नाम हो कार्यकी उत्पत्ति है और उसके व्ययका नाम ही कार्यका ध्वंस है। यह उत्पाद-व्यय क्रिया प्रत्येक द्रव्यमें प्रतिसमय होती रहती है। उदाहरणार्थ अपने शरीरको ही लीजिए। वह प्रथम समयमें जिस रूपमें उत्पन्न हुआ है दूसरे समयमें उसमें कुछ परिवर्तन होता या नहीं ? यह तो है नहीं कि प्रथम समयमें जिस रूपमें है, दूसरे समयमें भी उसी रूपमें बना रहता है, क्योंकि इसे स्वीकार करने पर शरीरमें बाल, युवा और वृद्ध आदि रूप अवस्थाएँ नहीं बन सकती हैं। इससे विदित होता है कि जिस प्रकार प्रति समय शरीरमें स्थूल-सूक्ष्म परिवर्तन होता है उसी प्रकार सब द्रव्यों उत्पाद-व्यय समझ लेना चाहिए। अब प्रश्न यह है कि प्रत्येक द्रव्यमें जो उत्पाद व्यय रूप कार्य होता है वह केवल बाह्य सामग्रीके मिलनेपर ही होता है या कोई उसका अन्तरंग कारण भी है। इसका कारण केवल बाह्य सामग्री तो हो नहीं सकती Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३२ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-प्रन्थ क्योंकि बाह्य सामग्रीके बलसे कार्यकी उत्पत्ति स्वीकार करनेपर गेहूँसे चनेकी भी उत्पत्ति माननी पड़ती है किन्तु ऐसा देखा नहीं जाता, अतः इसका द्रव्यगत कोई अन्तरंग कारण होना चाहिए। यहाँ केवल भाव प्रत्यासत्तिको तो कार्यका कारण माना नहीं जा सकता, क्योंकि केवल भावप्रत्यासत्ति को कार्यका कारण माननेपर समान आकार वाले समस्त पदार्थों में कार्य-कारणभाव (उपादानोपादेयभाव) प्राप्त होता है । कालप्रत्यासत्ति भी कार्यका कारण नहीं हो सकता, क्योंकि इसे स्वीकार करनेपर पूर्वोत्तर समनन्तर क्षणवर्ती समस्त पदार्थोंमें कार्य-कारणभाव प्राप्त होता है। देशप्रत्यासत्ति भी कार्यका कारण नहीं हो सकता, क्योंकि इसे स्वीकार करने पर समान देशवर्ती समस्त पदार्थोंमें कार्य कारणभाव प्राप्त होता है। द्रव्यप्रत्यासत्ति भी कार्यका कारण नहीं हो सकता, क्योंकि ऐसा स्वीकार करनेपर सत् द्रव्यत्व आदि साधारण द्रव्यप्रत्यासत्तिसे भी कार्यकी उत्पत्ति स्वीकार करनी पड़ती है । अतः असाधारण द्रव्य प्रत्यासत्ति और अव्यवहित पूर्व समयवर्ती भाव विशेष प्रत्यासत्ति रूप उपादानको ही अपने उपादेय (कार्य)के प्रति कारण रूपसे स्वीकार करना चाहिए । और इसीलिए परमागममें अव्यवहित पूर्व समयवर्ती द्रव्यको उपादान रूपसे और अव्यवहित उत्तर समयवर्ती द्रव्यको उपादान रूपसे और अव्यवहित उत्तर समयवर्ती द्रव्यको उपादेय रूपसे स्वीकार किया गया है। अतः प्रत्येक समयमें प्रत्येक द्रव्यमें पर्यायरूपसे उत्पाद-व्यय रूप कार्य की प्राप्ति होती है, अतः विवक्षाभेदसे प्रति समय वह स्वयं उपादान भी है और स्वयं उपादेय भी है। अव्यवहित पूर्वक्षणवर्ती पर्यायकी अपेक्षा उपादान भी है और अव्यवहित उत्तर क्षणवर्ती पर्यायकी अपेक्षा उपादेय भी है। यह उपादान-उपादेय स्वरूप कार्यकारण सम्बन्धकी अव्याहत व्यवस्था है। प्रत्येक समयमें जो द्रव्यमें एक परिणामका व्यय होकर दूसरे परिणाम का उत्पाद होता है वह इसी आधार पर होता है। यह सद्भुत व्यवहार नयका वक्तव्य है। जो भी कार्य होता है वह द्रव्यमें अवस्थित अपनी द्रव्य-पर्यायरूप सहज योग्यताके कारण होता है, इसलिए तो इस नयके विषयको सद्भुत कहा है और कारण तथा कार्यमें समय भेद होनेसे उसे व्यवहार कहा है। इस प्रकार उपादान उपादेय भाव सद्भूत व्यवहार नयका विषय है यह निश्चित होता है । इस प्रकार सद्भुत व्यवहारनयके वक्तव्यका विचार करनेके बाद अब इसके वक्तव्यके साथ असद्भूत व्यवहारनयके अनुसार कार्य-कारणभावकी युगपत् प्राप्ति कैसे बनती है इसका कतिपय आगम प्रसिद्ध उदाहरणों के आधारसे विचार करेंगे। [१] परमागममें सर्वत्र किस कर्मके उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशमके साथ जीवका औदयिक, औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक कौन सा भाव होता है इसकी जिस प्रकार बाह्य व्याप्ति बतलाई है उसी प्रकार उपादानके साथ आभ्यन्तर व्याप्तिका निर्देश भी दृष्टिगोचर होता है। यथा-१४वें गुणस्थान के अन्तिम समयमें रत्नत्रय परिणामकी पूर्णताको प्राप्त हआ यह जीव सिद्ध पर्याय युक्त जीव द्रव्यका निश्चय उपादान कारण है और अगले समयमें सिद्ध होते समय चार अघाति कर्मोंका क्षय उसका बाह्य निमित्त है । इस प्रकार सिद्ध पर्याय रूप कार्य में बाह्य और आभ्यन्तर उपाधिकी समग्रता एक साथ बन जाती है यह सिद्ध होता है । Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म और देवद्रव्य किसी भी धर्मको चिरस्थायी रूप देनेके लिये धार्मिक संस्थाओंकी सबसे पहिले आवश्यकता होती है । संसारमें ऐसे भी धर्म है जिन्होंने प्रतिमाके अस्तित्वका निषेध किया है। इतना ही नहीं वे प्रतिमाको धर्मका अंग माननेके लिये भी तैयार नहीं है। जो कुछ भी हो, आज हम प्रतिमाकी उपयोगिताके ऊपर यहाँपर कुछ भी नहीं लिख रहे हैं, वह स्वतंत्र विषय है इसलिये उसके ऊपर स्वतंत्र ही लिखा जावेगा। हमें तो यहाँपर प्रतिमाको देवरूपसे स्वीकार करके आगेका विचार करना है। धर्मक साधनभूत दो अंग हैं एक बाह्य और दूसरा आभ्यंतर । आभ्यंतर साधन स्वयं आत्माकी विकासरूप अवस्था है और बाह्य साधन जिन अंगोंसे आत्मधर्मके लिये प्रोत्साहन है, वे हैं। उनमें मंदिर यह सबसे बड़ा साधन माना गया है। मंदिर एक ऐसा स्थान है जहाँपर धर्मके इच्छुक एकत्रित होकर अपने कल्याणके मार्गका सामुदायिक रीतिसे विचार और आचार कर सकते हैं । इसलिये उसे स्थायीरूप देनेकी समाजको आवश्यकता प्रतीत हुई। स्थायीरूप द्रव्यके बिना किसी भी संस्थाको देना कठिन ही नहीं असंभव है। कोई भी संस्था केवल सद्भावनाके ऊपर अधिक दिन तक नहीं टिक सकती है। कारण मानव जातिका ऐसा स्वभाव ही है कि परिस्थितिके अनुसार उसके स्वभावमें बदल पड़ता ही है । अतएव विचारोंकी क्रांतिके होनेपर भी संस्थाको अव्याहत रूपसे स्थिर रखनेके लिये द्रव्य सबसे बड़ी पोषक सामग्री है। प्रायः यह देखा जाता है कि जिस निमित्तसे द्रव्यसंग्रह किया जाता है उसको वही नाम प्राप्त हो जाता है । देवद्रव्य को उपपत्ति इससे और दूसरी क्या हो सकती है। बहजनसमाजके लिये संस्थाका नाम निकाला कि उसकी रक्षाके लिये संचित होनेवाला द्रव्य भी सार्बजनिक ही होगा । तिस पर देव द्रव्य तो ऐसी वस्तु है कि उसमें सभीका थोड़ा बहुत अंश रहता है। इसलिये देवद्रव्यकी रक्षाके लिये धर्मग्रन्थोंमें स्वतंत्र नियम किये गये है। देवद्रव्यके अपहरणमें सबसे अधिक पाप बतलाया है । एक नहीं अनेक ग्रंथोंमें इसके ग्रहण करने का निषेध किया है। परंतु इस द्रव्यके ग्रहण करनेका इतना निषेध क्यों किया है, उस द्रव्यमें और द्रव्यसे क्या विशेषता उत्पन्न हो जाती है । इसका इतना ही उत्तर दिया जा सकता है कि द्रव्यका नाम लिया कि, प्रत्येक मनुष्यके मुखमें पानी आये बिना नहीं रहता है। फिर भी मनुष्य पापसे डरता है इसलिये ही इसका ग्रहण पापका कारण बतलाया गया है। इतना सब कुछ होते हुए भी लोग किसी न किसी रूप में उसको ग्रहण करते ही हैं कोई व्याज देकर तो कोई गहना रख कर उस द्रव्य को अपने कामके चलानेके लिए लेते ही हैं । यद्यपि इससे बहुत जगह अनेक झगड़े उत्पन्न होते हैं । इसलिए बहुतसे भाईयोंका यह भी मत दिखता है कि देवद्रव्य किसी भी शर्त पर नहीं देना चाहिये । परन्तु उन भाईयोंकी यह सूचना अव्यवहार्य ही समझना चाहिये द्रव्यका उपयोग संचय करना न होकर उसके द्वारा लोक कल्याण साधना ही है। दूसरे जो तत्त्व समाजमें मान्य हो चुका है उसको नष्ट नहीं किया जा सकता है। तीसरे धार्मिक ग्रन्थोंमें देव द्रव्यके ग्रहण करनेका जो निषेध किया है वह मूल द्रव्यके ग्रहण करनेका निषेध किया है। इसलिये मूलद्रव्यके रहते हुए यदि उस द्रव्यसे अपनी समाजका उपकार हो सकता है तो इस लाभके उठाने में किसीको भी निषेध नहीं करना चाहिये। धर्ममर्यादाके अन्दर Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३४ सिद्धान्ताचार्य पं० फुलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ : रह कर जो कुछ करनेको आता है उसका नहीं करना भी पाप है। ऊपर इस कथनसे इतना तो पता चल जाता है कि देव द्रव्यको ग्रहण करनेका जो निषेध किया है वह स्वार्थकी दृष्टिसे ही किया है अथवा मूलको सुरक्षित रखने की अपेक्षासे भी निषेध किया है। यदि समाजकी इच्छा हुई तो वह उस द्रव्यको सुरक्षित रखकर भी उससे समाजकल्याणके बहुत कुछ काम कर सकती है। जैन समाज धीरे धीरे पिछड़ती जा रही है उसका व्यापार दूसरे लोगों में बँटता जा रहा है, बेकारोंकी संख्या बढ़ रही है। फिर भी किसीका उस ओर ध्यान नहीं, यह चिंताकी बात नहीं तो और क्या है । 'न धर्मो धार्मिकविना' धर्मात्मा पुरुषोंके अस्तित्व के बिना धर्म टिक नहीं सकता है । जैसे दूसरे धर्मायतन हैं उसी प्रकार धर्मात्मा पुरुष भी धर्मायतन समझना चाहिये । यदि हम एक मंदिरकी रक्षाके लिये लाखों रुपया खर्च कर सकते हैं तो धर्मात्मा पुरुषकी रक्षाके लिये भी उतना ही खर्च करने की अपनी शक्ति होनी चाहिये। इसका तात्पर्य यही है कि देवद्रव्य धार्मिकता के रक्षणके लिए ही संचित किया जाता है इसलिए यदि जैन समाज विचार करके जिससे अपनी समाजमें कला, विद्या, विज्ञान और रोजगारकी वृद्धि होकर समाज सम्पन्न बने इस ओर भी देवद्रव्यका उपयोग करने लगे तो वह सबसे अधिक धर्मात्मा सिद्ध होगी । जिसदिन समाज पैसेकी अपेक्षा श्रावककी अधिक चिंता करेगी वह सुदिन होगा। जिन भाईयोंको श्रावकोंकी दुर्दशा बेकारी और अज्ञानका पता लगाना हो तो उन्हें थोड़ा शहर छोड़कर खेड़ों में जाकर देखना चाहिए तब पता लगेगा कि हमारी संस्कृति कितनी अधिक निकृष्ट होती जा रही है। क्या हमारे नेताओंको इस परिस्थितिके देखने में आनन्द आता होगा ? क्या वे समाजकी संस्कृतिके नष्ट करने में ही समाजका कल्याण समझते होंगे ? हमारी समझसे यह वो सम्भव नहीं है फिर वे समाजकी संस्कृतिके सुधारनेका प्रयत्न क्यों नहीं करते है ? इन प्रश्नोंका यही उत्तर दिया जा सकता है कि समाजको अभी अपने भाईयोंकी रक्षा, उन्नति और संस्कृति सुधारका महत्त्व समझमें ही नहीं आया है अथवा वह उस भूल गई है। तभी तो वह इस ओर ध्यान नहीं देती है । आशा है - समाज देव द्रव्यको भी समाजके उत्थान के लिए खर्च करनेमें अधर्म न समझकर इस ओर विचार करेगी । Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलसंघशुद्धाम्नायका दूसरा नाम ही तेरापन्थ है दिगम्बर परम्परामें दो आम्नाय मख्य हैं-एक मलसंघ और दूसरा काष्ठासंघ । इस परम्परामें शेष जितने भी भेद-प्रभेद प्रचलित हैं वे सब इन दो भेदोंमें ही गर्भित हो जाते हैं। उन सबमें मूलसंघ यह अपने नामके अनुसार सबसे प्राचीन है। इससे जिन शासनकी अनादि परम्पराका बोध होता है। काष्ठासंघ मध्यकालमें जब लौकिक आचारसे प्रभावित हो दिगम्बर साधुओंने जैन समाजमें अपना स्थान बना लिया था, उस समयसे प्रचलनमें आया है। शिथिलाचार इसकी अपनी विशेषता है। फिर भी इस काल में मूलसंघ यह नाम कबसे प्रचलित हुआ तो मालूम पड़ता है कि श्रुतकेवली भद्रबाहके कालमें श्रीसंघके दो भागोंमें विभक्त हो जानेके बाद ही यह नाम प्रचलनमें आया है। इससे सिद्ध है कि पूरे श्री संघमें इसके पहले जो आम्नाय प्रचलित थी उसे ही उत्तर कालमें 'मूलसंघ' इस नामसे अभिहित किया जाने लगा। शिलापट्ट और मूर्तिलेख आदिमें इस नामका कबसे उल्लेख किया जाने लगा यह कहना तो थोडा कठिन है। परन्तु हमारे पास जो मतिलेख आदिका संकलन शेष बचा है उसमें एक ऐसा भी लेख है जिससे यह निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है कि ७वीं शताब्दीके पूर्व ही मूर्तिलेखों आदिमें 'मूलसंघ' का उल्लेख किया जाने लगा था । वह लेख इस प्रकार है वि० संवत् ६१० वर्षे माघ सुदी ११ मूलसंघे पौरपाटान्वये पाटन (ल) पुठसंघही। साढोरा (गुना) म०प्र०। जैसा कि हम पहले लिख आये हैं, इस संघके प्रशस्ति आदिमें उल्लेख करनेकी पद्धति भद्रबाहुके कालमें ही चालू हो गयी थी । उत्तर कालमें इस नामके पीछे तीन विशेषण और लगे हुए दृष्टिगोचर होते हैं। किसी लेखमें 'बलात्कारगणे, सरस्वतीगच्छे, कुन्दकुन्दाचार्यान्वये ये तीनों विशेषण लगे हए हैं। __ हमारे पास जो लेख संग्रह शेष बचा है उसमें सर्वप्रथम मूलसंघके विशेषणरूपसे 'सरस्वतीगच्छ बलात्कारगण' ये दो विशेषण लगे हुए दृष्टिगोचर होते हैं । पूरा लेख इस प्रकार है _ वि. संवत् १००७ मासोत्तममासे फाल्गुनमासे शुक्लपक्षे तिथौ चतुर्थ्यां बुधवासरे श्रीमूलसंघ सरस्वतीगच्छ बलात्कारगण ठाकुरसी दास प्रतिष्ठितं ।' बूढी चन्देरी (गुना) स्थित १२वीं शताब्दीका एक लेख भी हमारे संग्रहमें है। उसमें मात्र कुन्दकुन्दान्वय नन्दिसंघका उल्लेख है । लेखका वह अंश इस प्रकार है 'श्री कुन्दकुन्दान्वय नन्दिसंघे जातो मुनिः श्रीशुभकोतिसूरिः ।' ये दो उल्लेख हैं। उनके आधारसे यह स्पष्ट हो जाता है कि प्रारम्भमें और बादमें भी मूलसंघके विशेषणके रूपमें उक्त विशेषणोंका लगाया जाना ऐच्छिक रहा है। जैसे जैसे नई परिस्थितियाँ उत्पन्न होती गई वैसे-वैसे इन विशेषणोंका प्रयोग विशेषरूपसे होने लगा। १. भट्टारक सम्प्रदाय पृ० ४४ में प्रो० वी० पी० जोहरापुरकरने यह संकेत किया है कि “१४वीं सदीसे मलसंघके साथ सरस्वतीगच्छ और उसके पर्यायवाची भारती, वागेश्वरी, शारदा आदि नाम जुड़े हैं।' यह उक्त प्रतिमालेखको देखनेसे ठीक प्रतीत नहीं होता। Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३६ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ नीतिसारके उल्लेखसे भी ज्ञात होता है कि सब संघोंका मूल स्रोत मूलसंघ ही है ।' बादमें एक अंगधारी जिनका दूसरा नाम गुप्तिगप्त है। अर्हद्बलिने देश, काल और परिस्थितिका विचारकर मूलसंघके अन्तर्गत सिंह, नन्दि, सेन और देवसंघकी स्थापना की। वर्तमानमें जो शुद्धाम्नायके नामसे प्रसिद्ध है यह उसीका दूसरा नाम है। इस समय इसे तेरा-भगवन् आपका पन्थ भी कहा जाता है। यद्यपि मूर्तिलेख आदिमें इसका कहीं उल्लेख तो दृष्टिगोचर नहीं होता है। पर आजकल शुद्धाम्नायको इसी नामसे जाना जाता है। शुद्धाम्नायके जो मूर्तिलेख हमारे देखनमें आये हैं उनमें से एक मूर्तिलेख पालीतानाके दिगम्बर जैन मन्दिरमें स्थित जिनमूर्तिपर अंकित है। वह पूरा लेख इस प्रकार है वि० सं० १७३४ वर्षे मूलसंघे सरस्वतीगच्छे बलात्कारगणे श्री कुन्दकुन्दाचार्याम्नाये भट्टारक सकलकीति तत्पट्टे श्री पद्मनन्दी तत्पट्टे भ० श्री देवेन्द्रकीर्ति तत्पट्टे भ० श्री क्षेमकोर्तिशुद्धाम्नाये वागऽदेश शीतपाड़ानगरे हूँमड़ज्ञातीय लघुशाखायां कमलेश्वरगोत्रे दोषी श्री सूरदास तत् सूरमद तयोः पूत्रदोशी सांगीता सरजाण एतयोः पुत्री। शुद्धाम्नायके पोषक इस लेखसे यह स्पष्ट हो जाता है कि भगवान् कुन्दकुन्द आम्नाय, शुद्धाम्नाय और तेरापन्थ ये तीनों एक ही है। यद्यपि कई शताब्दी पूर्वसे लेकर इस आम्नायके जितने भी भट्टारक पट्ट रहे हैं उन सबने अपने व्यवहारमें शुद्धाम्नाय परम्पराका पूरी तरहसे त्याग कर पूजा-पाठमें काष्ठासंघ परम्पराको भले ही अपना लिया था, पर अपनी शुद्धाम्नाय परम्परासे अनभिज्ञ और यशके भखे श्रावकों और पण्डितोंका भी इस स्थितिको उत्पन्न करने में बहुत बड़ा हाथ रहा है । यह हमारी कोरी कल्पना नहीं है। वर्तमान कालमें इस आम्नायके श्रावकों द्वारा मुनि आचारमें शिथिलाचारको जिस प्रकार बढ़ावा दिया जा रहा है उससे ही इस तथ्यकी पुष्टि होती है। यदि विचार कर देखा जाय तो पता लगेगा कि १०-११वीं शताब्दीसे ही इस बुराईने मूलसंघ शुद्धाम्नायको राहुकी तरह ग्रसना प्रारम्भ कर दिया था। यही कारण है कि समयसमयपर ऐसे सद्गृहस्थ और अपनी श्रमणोचित चर्याके प्रति निष्ठावान् मुनि होते आये हैं जिन्होंने शिथिलाचारी मुनि और उनके अनुवर्ती श्रावकोंकी चिन्ता न कर अपनी पूरी शक्ति इस बुराईको दूर करने में लगाई है। यहाँ हम ऐसे दो उदाहरण उपस्थित करते हैं जिनसे हमारे इस कथनकी पुष्टि होती है । पहला उदाहरण पचराई (खनियाधाना) क्षेत्रका है, जिसे उपयोगी जानकर यहाँ दिया जा रहा है . श्री कुन्दकुन्दसन्ताने देसिके संज्ञिके शुभनन्दिगुरोः शिष्यः सूरिः श्री लीलचन्द्रकः । हरीव भूत्या हरिराजदेवो भीमेव हि तस्य भीमः । सुतस्तदीयो रणपाल नाम एतद्धिरान्वये कृतिराजतस्य । परपाटान्वये शुद्धे साधुः नाम्ना महेश्वरः। महेश्वर परेव विख्यातस्तत्सुतो बोधसंज्ञकः । सत्पुत्रो राजनो ज्ञेयः कीर्तिस्तस्यैवमद्भुता। जिनेन्द्रवत्शुभात्यन्तं राजते भुवनत्रये । तस्मिन्नेवान्वयै दिव्ये गोष्ठि कावपरौ शुभौ । पंचमासे स्थितो ह्येको द्वितीयादशभासके || आद्योऽसिहडो ज्ञेयः समसाजससां निधिः । भक्तोजिनवरस्याद्यो विख्यातो जिनशासने। मंगलं महाश्रीः । भद्रमस्तु जिनशासनस्य । संवत् ११२२ । यह वि० सं० ११२२ का लेख है। इस लेखमें आचार्य कुन्दकुन्द आम्नायमें हुए परपट (परवार) अन्वयको शुद्ध कहा गया है। इससे इस तथ्यको पुष्टि होती है कि शुद्धाम्नायकी परम्पराको लोकमें बनाये रखना परवार (पौरपाट) अन्वयकी अपनी विशेषता तो है ही, दूसरे आम्नायको बुन्देलखण्डमें प्रवेश न करने १. तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा भाग ४, पृष्ठ ३५८ । Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : ५३७ देना यह भी इस अन्वयकी अपनी विशेषता है । साथ ही इससे यह भी सिद्ध होना है कि शुद्धाम्नायका प्रचलन न तो श्री पं० बनारसीदासजीने ही किया है और न पण्डितप्रवर टोडरमलजीने ही इसको मर्तरूप दिया है। किन्तु इससे ऐसा लगता है कि इन दोनों विद्वानोंके कालमें भी आगरा और जयपुर में शुद्धाम्नायके जिनमन्दिर और उसका प्रचार अवश्य रहा है । अतः जैनधर्मका मूलरूप समझकर इन्होंने भी इसे न केवल स्वीकार किया अपितु इस आम्नायके प्रचारमें अपने जीवनका बहुभाग व्यतीत किया। वस्तुतः इस कालमें यह हजारों वर्षसे चली आ रही सर्वाधिक प्राचीन परम्परा है । यद्यपि मध्यकालमें जन्मी काष्ठासंघ परम्पराको, अपने प्रभाव जमानेमें उपयोगी जानकर, भट्टारकोंने अवश्य ही उसे स्वीकार कर लिया था और इस कारण इस (शुद्ध) आम्नायमें भी शिथिलाचारने किसी हदतक अपना स्थान बना लिया था। पर शुद्धाम्नायका पूरी तरहसे लोप न किया जा सका । _ इसकी पुष्टिमें एक लेख तो हम पहले ही उद्धृत कर आये हैं । ऐसा ही एक लेख बूढ़ी चन्देरीमें भी उपलब्ध हुआ है । इसमें कुन्दकुन्दान्वय नन्दिसंघके एक उपासकको शुद्धाम्नायके अनुसार ही यम नियमके पालन करनेमें दक्ष कहा गया है । लेखका वह अंश इस प्रकार है श्री कुन्दकुन्दान्वयनन्दिसंघे जातो मुनिः श्री शुभकीतिसूरिः । चरणांबुजापोन्दुमरीचिगौरे विभ्राजितानां तिणोयशोभिः ।। समभवत् शुभनन्दी तस्य शिष्यः रामाबुधजननयालोकैकभानुः । यमनियम... " शुद्ध सिद्धान्तवली परिगतभवकीतिः वीतसंसारचित्तः । बभूव भद्रो वनिजां सनेता कषायदोषप्रसरस्य हन्ता | हम पहले पचराईमें प्राप्त एक शिलालेखका उल्लेख कर आये हैं उस लेखसे भी उस लेखमें वर्णित विषयकी पुष्टि होती है। सम्भवतः इन दोनों लेखोंमें अंकित प्रशस्तियाँ लगभग एक ही कालमें आगे-पीछे लिखी गई हैं । पचराईके शिलालेखमें अधिकतर लेख संस्कृत छन्दमें लिखा गया है। यह लेख उसीका अनुसरण करता है । दोनोंमें ही श्री शुभनन्दि गुरुका उल्लेख हुआ है। जान पड़ता है कि ये एक ही व्यक्ति हैं । जैसे पचराईके लेखमें शुद्ध शब्दके द्वारा शुद्धाम्नायको सूचित किया गया है वैसे ही इस लेखमें भी यम-नियमको शुद्ध कहकर शुद्धाम्नायको ही सूचित किया गया है । तथा इस प्रशस्तिमें भद्रनामके व्यापारियोंके जिस नेताका उल्लेख हुआ है, जान पड़ता है कि ये भी पौरपाटान्वयी (परवार) होने चाहिये, क्योंकि इनके गुरु भी वही सूरि हैं जो पचराईके शिलालेखके लेखके गुरु है । दोनोंके लिये विशेषण भी एक समान है । ये दोनों उन महानुभावोंमेंसे हो सकते हैं जिनके नेतृत्वमें इस अन्वयके कतिपय कुटुम्ब मेवाड़ और गुजरातको छोड़कर इस प्रदेशमें आकर बसे हैं। यह तो हम पहले ही लिख आये हैं कि कुन्दकुन्दान्वय, शुद्धाम्नाय और तेरापन्थ ये एक ही है । केवल इनमें नामभेद अवश्य है। परम्परावली है जो इस कालमें तीर्थकर भगवान महावीरके कालसे चली आ रही है । फिर भी मूलसंघको पहले कुन्दकुन्दाचार्यान्वय कहा गया। बादमें काष्ठासंघके लोकमें प्रचलित हो जानेसे इसे शुद्धाम्नाय कहा गया। फिर भी मूलसंघ कुन्दकुन्दाचार्यान्वयको माननेवाले भट्रारकों द्वारा काष्ठासंघकी परिपाटीके अनुसार देवी-देवताकी उपासना करना, बैठकर पूजा करना, निर्ग्रन्थ मुद्राको गन्ध-पुष्प आदि लगाकर परिग्रही बनाना आदिको स्वीकार कर लिया गया तब जाकर निर्दोष आचारवाले मुनियों और गृहस्थोंने शुद्धाम्नायको अंगीकार कर यह कहना प्रारम्भ किया कि हे भगवन् ! देवी-देवता आदिकी पूजा करना यह तेरा अर्थात् आपका मार्ग नहीं है। इससे वही मूलसंघ जो पहले कुन्दकुन्दाचार्यान्वयके अन्तर्गत शुद्धाम्नाय कहा ६८ Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३८: सिद्धान्ताचार्य पं० फुलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ जाता था वही इस कालमें तेरापन्थ कहा जाने लगा। जैन निबन्ध रत्नावलीमें तेरापन्थको ध्यानमें रखकर लिखा है तेरापन्थ भयो हरषे बढ़ो चितचाव । विषमपन्थ अब सुगम कराव ।। यह संख्यावाची नहीं। वहां बीसपन्थको ध्यानमें रखकर भी लिखा है बीसपन्थ अर्थात् विषमपन्थ-टेढ़ापन्थ जिनमतमें मान्य नहीं। यह भी संख्यावाची नहीं । विषमका बीस कहा जाने लगा है। ज्ञानानन्द श्रावकाचार में भी तेरापन्थके विषयमें लिखा है तेरापन्थी हों । ते सिवाय और कुदेवादिककौं हम नहीं सेवे हैं। तुम हीने सेवों तो तेरापन्थी । सो म्हां तुम्हारौ आज्ञाकारी हौं। जोधराम गोदीवाने प्रवचनसारके अन्तमें लिखा है __ कहे जोध अहो जिन ! तेरापन्थ तेरा है। यह सब होते हुए भी १२-१३वीं शताब्दी में एक मुनि या भट्टारक हो गये हैं जिन्होंने अपना नाम चन्द्रकीति लिखा है। वे मूलसंघको ध्यानमें रखकर लिखते है मूल गया पाताल मूल नयने न दीसे । मूलहिं सव्रत भंग किम उत्तम होसे ।। मुल पिठां परवार तेने सब काढी। श्रावक यतिवर धर्म तेह किय आवे आढी ।। सकल शास्त्र निरखतां यह पन्थ दीसे नहीं। चन्द्रकीर्ति एवं वदति मोरपीछ कोठे कही ॥ इससे स्पष्ट है कि बीसपन्थ (काष्ठासंध) मूलसंघका सदासे विरोधी रहा है। इतना ही नहीं, किन्तु इस कालमें मूल संघके स्थानमें जो तेरापन्थ प्रचलित है उसमें भी 'तेरा' पदका अर्थ विपर्यास द्वारा तेरह अर्थ करके उसका खण्डन करते हुए श्री पं० पन्नालालजी जयपरी गद्यमें 'तेरा पन्थ खण्डन' में लिखते है दस दिक्पाल उत्थापि गुरु चरणां नहिं लागै । केसर चरणां नहिं धरै पुष्पपूजा फुनि त्यागै ॥ दीपक अर्चा छांडि आसिका भाल न करहिं । जिन न्हवन न करे रात्रिपूजा परिहरहिं । जिनशासन देव्या तजि रांध्यो अन्न चहोडे नहिं । फल न चढ़ावै हरित फुनि बैठि पूजा कर नहिं ।। ये तेरह उर धरि पन्थ तेरे उर थाप्ये । जिनशासन सूत्र सिद्धांत मांहिला वचन उथापै ।। हम पहले तेराका अर्थ लिख आये हैं । जबसे मूलसंघ कुन्दकुन्दाचार्य और शुद्धाम्नायके अर्थमें तेरापन्थ शब्द प्रयुक्त होने लगा तबसे ही 'तेरा' पदका अर्थ हे भगवन् ! आपका यही अर्थ होता आ रहा है । इसके पोषक कई प्रमाण हम पहले दे ही आये हैं। फिर भी बोसपन्थी इसका क्या अर्थ करते हैं इसका पण्डित Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थखण्ड : ५३९ पन्नालालजी द्वारा लिखित उक्त कविता एक नमूना है। इसमें तेराका किस प्रकार तेरह अर्थ करके तेरापन्थका खण्डन किया गया है यह तेरापन्थियोंको समझने लायक बात है । पण्डित पन्नालालजीका कहना है कि तेरापन्थी लोग ( 2 ) दस दिक्पालोंको अर्ध नहीं चढ़ाते, (२) बोसपन्थी मुनियोंकी चरण वन्दना नहीं करते, (३) जिनमूर्ति के चरणोंपर केशर नहीं लगाते, (४) फूलोंसे पूजा नहीं करते, (५) दो पकसे पूजा और आरती नहीं करते ( ६ ) आसिकाको मस्तकसे नहीं लगाते, (७) अभिषेक नहीं करते, (८) रात्रिमें जिनदेवकी पूजा नहीं करते, ( ९ ) शासनदेवताको नहीं मानते, (१०) दाल, भात और रोटी नहीं चढ़ाते, (११) हरे फल नहीं चढ़ाते, (१२) बैठकर पूजा नहीं करते, तथा (१३) स्त्रियां सूत्र सिद्धान्त ग्रन्थों का पठन-पाठन और प्रवचन नहीं कर सकतीं । ये तेरह बातें तेरापन्थी नहीं मानते, इसलिये ही इन्हें तेरापन्थी कहा गया है । किन्तु विचार कर देखा जाय तो ये सब क्रियाएँ मिथ्यात्वकी पोषक होनेसे जिनधर्ममें मान्य नहीं है । कारण कि हमारे समान दस दिक्पाल और शासनदेवता संसारी ही हैं, मोक्षमार्गी नहीं। फिर भी हम सब उनकी पूजा करें यह हमारा अज्ञान है । स्वामी समन्तभद्रने रत्नकरण्ड श्रावकाचार में इसीलिये इनकी उपासना करनेका निषेध किया है । जिनधर्मके शासनदेवता वास्तवमें जिनदेव ही हैं संसारमें रुलानेवाले देवी-देवता नहीं । निर्ग्रन्थ पाँच प्रकार के होते हैं - पुलाक, वकुश, कुशील, निर्ग्रन्थ और स्नातक । इनको जैसे सचित्त वस्तुका स्पर्श नहीं कराया जा सकता वैसे ही स्नातकोंके और स्त्रियोंके प्रतिकृतिरूप जिनबिम्बको भी सचित्त वस्तुका स्पर्श कराना योग्य नहीं है, इसी कारण तेरापन्थी भाई सचित्त पुष्प और फलोंसे पूजा नहीं करते और नही पुष्पोंको भगवान्के चरणोंपर चढ़ाते ही हैं । केशर परिग्रहका प्रतीक है, इसलिये तेरापन्थी भाई भगवान्‌ के चरणों में केशर नहीं लगाते । वीतराग साधुका कोई पन्थ नहीं होता । वह सदा वीतराग मार्ग साधुका ही उपासक होता है । फिर भी जो बीसपथकी पुष्टि करता है वह सच्चे अर्थ में वीतरागी साधु नहीं है, इसलिये जो गृहस्थ ऐसे साधुकी वन्दना नहीं करते वे ठीक ही करते हैं, क्योंकि बीसपन्थमें जिन १३ बातोंको स्वीकार किया है ये सब अज्ञानकी प्रतीक हैं । दीपकसे सूक्ष्म जीवोंका वध होता है, कभी-कभी बादर (स्थूल) जीव भी उसकी चपेटमें आ जाते हैं, इसलिये यदि तेरापन्थी, पूजा-आरतीमें दीपकका प्रयोग नहीं करते तो वे ठीक ही करते हैं । ऐसे आचरणके लिये उनकी हमें प्रशंसा ही करनी चाहिये । वीतराग जिन तो सदा ही वीतराग हैं । उनकी चाहे कोई निन्दा करे या प्रशंसा, उन्हें उससे कोई प्रयोजन नहीं । दोनोंके प्रति वे समान हैं । इतना अवश्य है कि जिस विधि से वे अरहन्त और सिद्धपदको प्राप्त हुए हैं वह शिक्षा उनसे सहज ही मिल जाती है । इसे यदि आसिका माना जाय सो ऐसा कौन व्यक्ति है जो इसे लेना नहीं चाहता । उसके लिये सदा हो मस्तक झुका हुआ है । इसके सिवा दूसरी कोई आसिका नहीं है, जिसके लिये यह अपना मस्तक झुकाता फिरे । सिजा हुआ अन्न एक मर्यादा तक ही ठीक रहता है । उसके बाद उसमें त्रस जीवोंकी उत्पत्ति होने लगती है । यही कारण है कि तेरापन्थी भाई-बहन प्रासुक द्रव्यसे ही पूजा करते हैं । हम तो कहेंगे कि पुण्य किसमें है इसका विचारकर बीसपन्थी भाइयों को भी ऐसा ही करना चाहिए । जिन प्रतिमा अरहन्त और सिद्ध पदका प्रतीक है। और इन दो पदोंका अभिषेक होता नहीं, अत: शुद्धिके ख्याल से उनका प्रक्षाल ही किया जाता है, अभिषेक नहीं। यह वस्तुस्थिति है । बीसपन्थी भाइयोंको इस विधिका अनुसरण करना चाहिये । Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४० : सिद्धान्ताचायं पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ रात्रिमें जब श्रावक ही सब प्रकारके आरम्भसे विरत हो जाता है, ऐसी अवस्थामें वह पूजाका आरम्भ कैसे करेगा, अर्थात नहीं करेगा, क्योंकि इस कालमें स्थूल-सूक्ष्म जीवोंका अधिक संचार होने लगता है। इसे बीसपन्थी भाई भी समझते हैं। हठ और विवेकमें बड़ा अन्तर है । हम तो यही चाहते हैं कि वे हठका मार्ग छोड़कर विवेकका मार्ग अंगीकार करें। ऐसा नियम है कि पूर्वोका अध्ययन श्राविकाकी बातको छोड़िये आयिकाको भी नहीं करना चाहिये ऐसी आगमकी आज्ञा है । प्रवचन उसे बहिनोंमें ही करना चाहिये, क्योंकि जिस गादी पर बैठकर पुरुष प्रवचन करते हैं वह परम्परासे प्राप्त आचार्योंकी गही है। वर्तमान कालमें इस नियमका पालन तो श्वेताम्बर भाई. बहिन भी करते हैं। फिर बीसपन्थका नाम लेकर दिगम्बर उसका उल्लंघन करें यह जिनमार्ग नहीं है। आज कल बीसपन्थी बहिनोंने ये सब मर्यादा त्याग दी है। इसका विचार उन्हींको करना है कि किस बातमें हमारे धर्मकी रक्षा होती है। विदुषी होना और बात है और आगमकी आज्ञाका उल्लंघन कर चलना और बात है। इस प्रकार विचारकर देखा जाय तो मूलसंघ कुन्दकुन्दाचार्यके आम्नायके अन्तर्गत शुद्धाम्नाय तेरापन्थ ही जिनधर्मकी उपासनाका सच्चा मार्ग है, अन्य नहीं यह सिद्ध हुआ । Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ण व्यवस्थाका आन्तर रहस्य अन्य देशोंसे भारतवर्षकी स्थिति सर्वथा भिन्न है । वैदिक धर्मकी कृपासे यहाँका मानव समाज मुख्यतः चार वर्णों और अनेक जातियों व उपजातियोंमें विभक्त हो गया है जब कि अन्य देशोंमें ऐसा कोई विभाग नहीं दिखाई देता है। हजारों वर्षोंसे भारतवर्षकी कमजोरी और परतन्त्रताका एक कारण यह भी है। इस जातीय चढाओढ़ने देशके नैतिक बलका तो नाश किया ही है साथ ही वह भौगोलिक दृष्टिसे एक होकर भी भीतरसे अनेक भागोंमें बँट गया है। इधर कांग्रेसकी बागडोर सम्हालनेके बाद महात्मा गाँधीने जीवनमें श्रम, शम और समकी प्रतिष्ठा करनेके लिये कुछ समान भूमिका तैयार करनेका प्रयत्न किया था और अंशतः वे उसमें सफल भी हुए थे, किन्त कांग्रेसकी वर्तमान नीति इतनी कमजोर और लचर है जिससे तत्काल इस समस्याका हल होना कठिन ही दिखाई देता है। कांग्रेस हरिजनोंका जीवनस्तर तो सुधारना चाहती है पर वह शेष तीन वर्षों में आये हुए अन्तरको दूर करनेके लिये कुछ भी प्रयत्न नहीं कर रही है । इससे देशके सामाजिक जीवनमें थोड़ा बहत सुधार होकर भी उसमें क्रान्तिकारी परिवर्तन नहीं हो सकेगा। भारतीय साहित्यका आलोडन करनेसे ज्ञात होता है कि देशकी वर्तमान सामाजिक व्यवस्थाका मुख्य आधार मनुस्मृति है । उसमें चार वर्णों की उत्पत्ति ब्रह्मासे बतला कर उनके अलग-अलग कर्तव्य निश्चित इसके अनुसार अध्ययन, अध्यापन, दान और प्रतिग्रह ये ब्राह्मणोंके कर्तव्य है, प्रजाकी रक्षा, दान, पूजा, अध्ययन और इन्द्रियोंके विषयोंमें अनासक्ति से क्षत्रियोंके कर्तव्य हैं, पशुओंकी रक्षा, दान, पूजा अध्ययन, वाणिज्य, धनकी वृद्धि करना और कृषि ये वैश्योंके कर्तव्य है तथा असूया रहित होकर ब्राह्मण आदि तीन वर्षों की सेवा करना यह शूद्रोंका कर्तव्य है। मनुस्मृतिमें दूसरे वर्गों की अपेक्षा ब्राह्मणको अनिर्बन्ध अधिकार दिये गये हैं। चरित्रबलमें हीन होनेपर भी वे सबसे श्रेष्ठ मान लिये गये हैं। साधारणतः जैन पुराणोंमें भी चार वर्णोंकी चर्चा देखनेको मिलती है। आदि पुराणमें बतलाया है कि युगके आदिमें भगवान् ऋषभदेवने गुण कर्मके अनुसार क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन तीन वर्गों की स्थापना की थी । इस अवस्थाके अनुसार जो शस्त्र धारण कर आजीविका करते थे वे क्षत्रिय इस नामसे अभिहित किये गये थे, जो खेती, व्यापार और पशुओंका पालन कर आजीविका करते थे वे वैश्य इस नामसे अभिहित किये गये थे और जो क्षत्रियों व वैश्योंकी शुश्रूषा कर आजीविका करते थे वे शूद्र इस नामसे अभिहित किये गये थे। आदिपुराणके अनुसार ब्राह्मण वर्णकी स्थापना ऋषभदेवने नहीं की थी किन्तु कुछ काल बाद उनके प्रथम पुत्र भरतने व्रती श्रावकोंको ब्राह्मण संज्ञा दी थी और उन्हें ब्राह्मण वर्णका कहा था। इसी प्रकार बौद्ध परम्परामें भी चार वर्णोंका उल्लेख देखनेको मिलता है। धम्मपदमें एक गाथा आई है। उसका आशय यह है कि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ये नाम अलग अलग कर्मके अनुसार रखे गये थे । यह गाथा जैन आगम उत्तराध्ययन सूत्र में भी पाई जाती है। यद्यपि वर्ण व्यवस्थाके सम्बन्धमें जैन और बौद्ध परम्पराका आशय एक है पर वैदिक परम्परासे उसमें मौलिक अन्तर है। Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४२ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ वैदिक परम्पराके अनुसार प्रत्येक वर्णकी प्राप्ति जन्मसे होती है। जो जिस वर्णमें उत्पन्न होता है उसे जीवन भर उस वर्णके कर्तव्योंका पालन करना पड़ता है। उसका यही स्वधर्म है। चार पुरुषार्थों में उल्लिखित धर्म पुरुषार्थ भी यही है । मोक्ष पुरुषार्थ इससे भिन्न है । इस व्यवस्थाके अनुसार दानका स्वीकार और अध्यापन ये कार्य ब्राह्मण ही कर सकता है। अन्य तीन वर्णके लोग न तो दान ले सकते हैं और न अध्यापन कार्य ही कर सकते हैं। शूद्र तो शुश्रूषा करने के सिवा और किसी बातका अधिकारी माना ही नहीं गया है । अध्ययन, दान और पूजा ये कार्य ऐसे हैं जो बाह्मणोंके सिवा क्षत्रिय और वैश्य भी कर सकते हैं पर शूद्रको इन कार्योंके करनेका भी अधिकार नहीं दिया गया है । वे सदा मूर्ख और पंगु बने रहें इसकी पूरी व्यवस्था की गई है। यों तो अब वैदिक परम्पराके अनुसारकी गई व्यवस्थाका अन्त हो रहा है। शूद्रोंको वे सब अधिकार मिल रहे हैं जो उनसे छीन लिये गये थे । वे अब मन्दिर जा सकते हैं, अध्ययन अध्यापनका कार्य कर सकते हैं, आदर सत्कारमें हिस्सा बटा सकते हैं, सबके साथ बराबरीसे बैठ कर भोजन, पान कर सकते हैं, सदाचारका स्वयं पालन कर सकते है और दूसरोंसे इसका पालन करा सकते हैं। उनके प्रति ब्राह्मण धर्मने जो घृणा पैदा की थी वह अब दूर होने लगी है। अब अधिकतर लोग यह समझने लगे हैं कि जैसे हम मनुष्य हैं वैसे वे भी मनुष्य हैं। हमसे उनमें कोई अन्तर नहीं है। फिर भी अभी ऐसे कितने ही मनुष्य शेष हैं जो इन परिवर्तनोंका विरोध कर रहे हैं और अपनी पुराणी प्रभुताको जीवित रखना चाहते हैं। किन्तु अब स्थिति इतनी अधिक बदल गई है जिससे देशका पीछे लौटना असम्भव है । वे राजा, जो इस व्यवस्थाको दृढमूल करने में सहायक थे अब धूलिधूसरित हो कोने में पड़े सिसक रहे हैं । सामन्तों और परिग्रहवादियोंकी भी यही दशा होनेवाली है और आशा है कि निकट भविष्यमें ईश्वरको भी अपराधियोंके कठघरेमें ला कर खड़ा किया जायगा । अब उसके नामपर निकलनेवाली विज्ञप्तियोंको सुननेवाला कोई नहीं रहेगा । सब उसे उपेक्षा और तिरस्कारकी दृष्टिसे देखने लगेंगे । अब तो ऐसे समाजका उदय होकर ही रहेगा जिसमें सबको समान रूपसे विकास करनेका अवसर मिलेगा। इतने विवेचनसे यद्यपि यह स्पष्ट हो जाता है कि वैदिक परम्पराके अनुसार जो वर्णव्यवस्था चालू है वह सर्वथा अनुपयुक्त है । उससे मानव समाजका न तो कभी कल्याण हुआ है और न हो सकता है । फिर भी विश्वमें किसी प्रकारकी सामाजिक व्यवस्था ही न हो यह हमारा मत नहीं है। पश्चिमीय देशोंमें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन शब्दोंका व्यवहार न भी किया जाता हो तो भी वहाँ कोई न कोई व्यवस्था तो है ही। हम ऐसी ही व्यवस्थाके पक्षपाती हैं जिससे मानव समाजका प्रत्येक व्यक्ति अपनी वैयक्तिक स्वतंत्रताका अनुभव करने में पूर्ण समर्थ हो । इसमें सन्देह नहीं कि पहिले हम आदिपुराणके अनुसार जिस व्यवस्थाका निर्देश कर आये हैं उसमें बहुत कुछ अंशमें यह गुण मौजूद है । आदि पुराणमें वर्ण व्यवस्थाका निर्देश करते हुए प्रारम्भमें जो छह कर्म बतला आये हैं, वे हैं-असि, मषि, कृषि, विद्या, वाणिज्य और शिल्प । इन छहोंमें पूजा, दान, अध्ययन, अध्यापन और प्रतिग्रह इनका अन्तर्भाव नहीं होता । असिकर्म आदि आजीविकाके साधन हैं और पूजा आदि धर्मके साधन हैं मुख्यता आजीविकाको है धर्मकी नहीं । वर्णका अर्थ है बाहिरी रूप रंग। जिससे बाहरी रंग ढंगकी पहिचान होती है वह वर्ण है और जिससे आत्माकी आन्तर परिणति जानी जाती है वह धर्म है। वर्ण और धर्ममें यही अन्तर है। आदिपुराणके अनुसार की गई वर्ण व्यवस्थाको समझनेके लिये इस अन्तरको जानना जरूरी है। उसमें किसीके वैयक्तिक अधिकार पर कुठाराघात न हो इस बात पर पूरा ध्यान रखा गया है। इसके अनुसार Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थखण्ड ५४३ जो जब जिस कर्मको करता है उस समय वह उस वर्णका माना जाता है । आजीविका के साधन बदल जाने पर वर्ण भी बदल जाता है । वर्ण कोई भी हो पर दानका लेना देना, अध्ययन अध्यापन करना और पूजा करना ये कार्य किसीके लिये वर्जित नहीं हैं । केवल इतनी विशेषता है कि ब्राह्मण इस संज्ञाकी प्राप्ति में चारित्र भी निमित्त है। इसीसे उसका कोई भी कर्म निश्चित नहीं किया गया है। वह अपने चारित्रका अविरोधी कोई भी कर्म कर सकता है । क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र जो भी श्रावक व्रतको स्वीकार करता है वह ब्राह्मण वर्णका कहलाने लगता है । माना कि उत्तरकालवर्ती कुछ आवार ग्रन्थोंमें अनेक दूषित परम्पराओंने प्रवेश पा लिया है और अधिकतर विद्वान् उनके अनुसार वर्तन करना ही धर्म समझने लगे हैं। आज जैन संघमें जो विविध मत दिखाई देते हैं वे इसीके परिणाम हैं। पर यदि वे किंचित् विवेकसे काम लें तो उन्हें अपने मतके बदलनेमें जरा भी देर न लगे । उन्हें केवल इतना ही विवेक करना है कि ब्राह्मण कहे जाने वाले मनुष्यसे शूद्र कहे जानेवाले मनुष्यमें तत्त्वतः कोई अन्तर नहीं है । जिस प्रकार एक मनुष्यका पगड़ी बाँधना और दूसरे मनुष्यका टोपी पहिनना यह रुचिका प्रश्न है, इससे उन दोनों मनुष्योंको आन्तर योग्यतामें कोई अन्तर नहीं आता। उसी प्रकार बाह्य परिस्थितिवश कर्मभेदसे भी मनुष्योंकी आन्तर योग्यतामें कोई अन्तर नहीं आता। दोनों ही मोक्षके अधिकारी हैं और दोनों ही स्वर्ग नरक आदिके भी अधिकारी हैं । अतः यही निश्चित होता है कि मनुष्यका वर्ण अर्थात् व्यवसाय कुछ भी क्यों न हो इससे वह अन्य इससे वह अन्य मनुष्योंसे किसी भी बातमें न तो हीन ही समझा जा सकता है और न ऊंच ही । जैन परम्पराके अनुसार वर्ण व्यवस्थाका यह आन्तर रहस्य है। हम समझते हैं कि आजका मानव समुदाय इस प्रकारकी व्यवस्था करनेमें पूरी तरह हाथ बँटायेगा । Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महिलाओं द्वारा प्रक्षाल करना योग्य नहीं । इस कालमें कोल्हापुर निवासी डा० ए० एन० उपाध्ये एक मनीषी विद्वान् हो गये हैं । वे साहित्यिक गोष्ठियोंमें सम्मिलित होनेके लिए प्रायः उत्तरप्रदेश में भी आया करते थे। कई मन्दिरोंके गर्भालयोंमें घुसकर महिलाओंको भगवान्का अभिषेक-प्रक्षाल करते हुए देखकर वे आपसमें कहा करते थे कि उत्तरप्रदेशमें यह प्रथा कबसे चल पड़ी है। हमारे प्रदेश में तो महिलाएँ गर्भालयमें कभी भी प्रवेश नहीं करतीं। जब उन्हें बतलाया जाता कि बीसपन्थका प्रचार करनेवाले साधुओंने ही यह प्रथा चलाई है। तब उन्हें बड़ा आश्चर्य होता और वे यह बात सुनकर अवाक् रह जाते । इस कालमें ऐसे भी कई मुनिसंघ है जिनका संचालन महिलाएँ ही करती हैं। इतना ही नहीं, उन्हें स्पर्श करनेमें भी वे नहीं हिचकिचाती। साधु भी ऐसा करनेसे उन्हें नहीं रोकते । आगम क्या है इस ओर वे थोड़ा भी ध्यान नहीं देते । शायद उन्हें परलोकका जरा भी भय नहीं है तभी तो वे ऐसा करते-कराते रहते हैं। यहाँ यह कहा जा सकता है कि महिलाएँ जिनदेवका पूजन-वन्दन करें, मुनियोंको आहार दें, वे भोजन बनानेका सब काम भी करें, फिर उनमें ऐसी कौनसी कमी है कि वे श्री जिन मन्दिरमें जाकर जिनबिम्बका न तो प्रक्षाल-अभिषेक ही कर सकें और न उसे स्पर्श ही कर सकें। पुरुष साधुओंकी वैयावृत्य तो करे और महिला न करे यह कैसी बात है । भगवान्का प्रक्षाल करना साधुओंकी वैया वृत्य करना ये पूजन-वन्दनके समान ही जब धर्मसाधनके अंग हैं तब फिर उन्हें ऐसा करनेका निषेध क्यों किया जाता है । यह एक समस्या है जिसपर आगमके प्रकाशमें विचार करना आवश्यक प्रतीत होता है । मूलाचारका एक समाचार नामका अधिकार है। उसमें लिखा है एवंगुणवदिरित्तो जदि गणधारित्तं करेदि अज्जाणं । चत्तारिकालगा से गच्छादिविराहणा होज्ज । जो आचार्य क्षमादि गुणोंसे विभूषित नहीं है, धर्ममें स्थिर नहीं है, वैराग्यप्रवण नहीं है, संग्रह और अनुग्रह करने में कुशल तथा अपने संघकी संम्हाल करनेमें भी समर्थ नहीं है, वह यदि आयिकाओंका आचार्य बनता है तो वह गणपोषण, आत्मसंस्कार, सल्लेखना आदिकी विराधना करनेवाला होता है। इससे मालूम पड़ता है कि जिस प्रकार पिता कन्याकी भले प्रकार रक्षा करता है उसी प्रकार पिता स्थानीय आचार्य भी आर्यिकाओंकी रक्षा करने वाला होना चाहिये । इसीलिये आचार्यको चिरकालका दीक्षित होना चाहिये आगममें यह कहा गया है । यह सब जानते हैं कि जिस समय कन्या यौवन सम्पन्न हो जाती हैं उसी समय वही पिता कन्याके शरीरको स्पर्श तक नहीं करता । जहाँ गृहस्थावस्थामें यह स्थिति है वहाँ साधुको कैसे रहना चाहिये इसका भी विचार करके वहाँ लिखा है कण्णं विधवं अंतेउरियं तह सइरिणी सलिंगं वा । अचिरेणाल्लियमाणो अपवादं तन्थ पप्पोदि ।।१८२॥ | Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : ५४५ जो साधु कन्या, विधवा, गृहणी, स्वैरिणी और व्रतधारिणीके साथ सम्भाषण करता है, उनके साथ बैठता उठता है वह लोकमें निन्दाका पात्र होता है । जहाँ पुरुष साधुओंके लिये यह मर्यादा स्थापितकी गई है वहीं आर्यिकाएँ चौर गृहस्थ स्थियां भी साधुओंके साथ किस प्रकार वर्तन करें इसका विचार भी आगममें किया गया है वहाँ लिखा है पंच छ सत्त हत्थे सूरी अज्झावगो य साधू य । परिहरिऊणज्जाओ मवासणेणेव वंदंति ॥१९५।। आचार्यसे पाँच हाथ दूर, उपाध्यायसे छह हाथ दूर और साधुसे सात हाथ दूर बैठकर आयिकाने उनके समक्ष क्रमसे अपनी आलोचना, अध्ययन और उनकी वन्दना करनी चाहिये ।।१९५।। इससे स्पष्ट है कि आयिकाओंके लिये आगममें जब इतनी कड़ी व्यवस्था है तब अन्य गहस्थ स्त्रियोंतो इस मर्यादाका और भी कड़ाईसे पालन करना चाहिये। ऐसी अवस्थामें वे जिनबिम्बको स्पर्श करें यह फैसे बन सकता है। पूजन करना, वन्दना करना और बात है और प्रक्षाल-अभिषेक करना और बात है। इन दोनों क्रियाओंमें बड़ा अन्तर है। वन्दना पूजन क्रिया दर रह ही की जाती है और प्रक्षाल अति निकट रहकर की जाती है। प्रक्षाल-अभिषेक क्रियामें केवल कलश ढारना ही पर्याप्त नहीं है, किन्तु स्वच्छ अंगोछीसे पोंछकर जिनबिम्बको सुखा कर देना भी उसका अंग है। अतः किसी भी महिलाको पुरुषका विग्रह (शरीर) समझकर जिनबिम्बका न तो प्रक्षाल ही करना चाहिये और न स्पर्श ही करना चाहिये । जिनबिम्ब वीतरागताका प्रतीक हो सकता है, महिला वीतराग नहीं होती। वह पुरुष शरीर है, पता नहीं कब कैसे परिणाम हो जायें। यदि कहा जाय कि दर्शन करते समय भी ऐसा होना सम्भव है । यह सच है, परन्तु शक्य का ही परिहार किया जाता है, अशक्यका नहीं ऐसा समझ कर महिलाको दर्शन-पूजन करनेका निषेध नहीं किया गया है, प्रक्षाल-अभिषेक करनेका निषेध किया गया है। यहाँ यह कहा जा सकता है कि कोई भी महिला भगवानका प्रक्षाल अभिषेक न करे इसका कथन किस आगममें किया गया है । सो इसका समाधान यह है कि जैसे पुरुषको स्वस्त्रीको छोड़कर सचित्त और अचित्त किसी भी प्रकारकी स्त्रीको स्पर्श करने और रागपूर्वक देखने और स्पर्श आदि करनेका आगममें निषेध है उसी प्रकार स्त्रीको भी स्वपुरुषको छोड़कर सचित्त और अचित्त किसी भी पुरुषको स्पर्श करने और रागपूर्वक देखनेका आगममें निषेध है। इस प्रकार जब यह व्यवस्था है तो ऐसी अवस्था में महिलाओं द्वारा भगवान्की प्रतिकृतिस्वरूप जिनबिम्बके अभिषेकका आगमसे स्वयं निषेध हो जाता है। यह आगम ही तो है जिसका सम्प्रदाय भेदके बिना सबको पालन करना चाहिये । यह किसी खास सम्प्रदायकी बात नहीं है । जीवनको धर्ममर्यादाके अनुकूल बनाये रखनेकी बात है।। यहाँ कोई कहे कि पुरुषके समान स्त्री भी परपुरुषको न तो रागपूर्वक देखे ही, और न स्पर्श ही करे यह तो समझमें आता है, परपुरुषकी अचित्त मूर्तिको स्त्री न तो स्पर्श करे और न रागपूर्वक देखे ही यह बात समझमें नहीं आती, क्योंकि उस अचित्त मूर्ति के साथ जब संसारको बढ़ानेवाला कार्य किया ही नहीं जा सकता ऐसी अवस्थामें उसे स्पर्श आदि करनेका निषेध क्यों किया जाता है ? सो इसका समाधान यह है कि स्पर्श करनेसे मनोविकारका होना अधिक सम्भव है इसलिए उसका सर्वप्रथम त्याग कराया जाता है। जो सबकी उत्पत्तिका निमित्त विशेष है उसका त्याग करनेसे ही वह धर्म उत्तम प्रकारसे पलता है। स्त्री स्वपुरुषमें सन्तोष रखे और पुरुष स्वस्त्रीमें सन्तोष रखे यह गृहस्थ धर्मकी मर्यादा है। इसका निर्वाह करने के लिए स्त्रीको परुषके समान काष्ठ, पाषाण और लेप आदिसे निर्मित अचित्त पुरुष मूर्तिका सब Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४६ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ प्रकारसे अवश्य ही त्याग कर देना चाहिये। यह विधि है। इस बातको ध्यानमें रखकर दोनोंके लिए बहतसे नियम बनाये गये हैं। शीलके जो अठारह हजार भेद आगममें बतलाये गये हैं उनके पीछे यह हेतु मुख्य है। वे अच्छी तरहसे तभी पल सकते हैं जब पुरुष और स्त्री दोनों ही अपनी-अपनी मर्यादामें रहते हुए इनमेंसे जिनका पालन करना गृहस्थके लिए शक्य है उनका पालन करने में समुचित ध्यान रखें । यहाँ कोई कहे कि वे तो मुनियोंके लिए आगममें बतलाये हैं गृहस्थोंके लिए नहीं। सो ऐसी बात नहीं है, क्योंकि जो धर्म मुनियों के लिए कहा गया है, अंशतः गृहस्थ भी उसका पालन करे यह विधि है । यदि मुनि समग्र भावसे उसका पालन करते हैं तो भले करें, गृहस्थोंको उनके पालन करनेमें सावधान तो रहना ही चाहिये। जो स्त्री-पुरुष पाँच अणुव्रत लेते हैं वे तो उनका उत्तम प्रकारसे पालन करते ही हैं । कदाचित् उनके पालन करने में दोष लगता है तो उसका परिमार्जन भी करते हैं। पर जो पाँच अणुव्रत भी नहीं लेते हैं तो क्या उनके लिए यह छूट है कि वे हिंसा आदिमें यद्वा-तद्वा प्रवृत्ति करें, यदि नहीं, तो सामाजिक दृष्टिसे उन्हें भी हिंसा आदिका ऐसा काम न करना होगा जिसे समाजमें निन्द्य समझा जाय और स्वयंको लोकापवादका पात्र बनना पड़े। इसी दृष्टिको ध्यानमें रखकर लौकिक और पारलौकिकके भेदसे धर्मको दो भागोंमें विभक्त किया गया है। इसी बातको ध्यानमें रखकर सोमदेव सूरि यशस्तिलकमें लिखते भी है द्वौ हि धर्मो गृहस्थानां लौकिकः पारलौकिकः । लोकाश्रयी भवेदाद्यः परः स्यादागमाश्रयः॥ लौकिक और पारलौकिकके भेदसे धर्म दो प्रकारका है । लौकिक धर्मका आधार लोक (समाज) है और पारलौकिक धर्मका आधार आगम है । इसका अर्थ है कि गृहस्थ चाहे वे स्त्री हो या पुरुष जो पारलौकिक धर्म (गुरुको साक्षीपूर्वक व्रतादि) स्वीकार नहीं करते, उन्हें सामाजिक मर्यादा बनाये रखनेके लिए उस मर्यादाके अनुरूप आचारका पालन अवश्य ही करना चाहिये। इसके लिए पहले गाँवके स्तरपर या मुहल्ले आदिके स्तरपर सामाजिक संगठन अवश्य रहता था। उसके मुखिया सामाजिक मर्यादाका स्वयं तो पालन करते ही थे, उन मर्यादाओंका दूसरोंसे भी पालन कराते थे। इसके लिए पुराने कालमें दण्ड व्यवस्था भी थी। और जो सदस्य उस व्यवस्थाका उल्लंघन करता था वह पंचायत द्वारा दंडका भागी होता था। श्री सोमदेव सूरिने लौकिक धर्मको लौकाश्रित कह कर इसीकी ओर संकेत किया है । इसके लौकिक धर्मका तो पालन होता ही था, पारलौकिक धर्मकी ओर भी आम स्त्री-पुरुषका झुकाव बना रहता था। जैन मात्रको प्रतिदिन श्री जिनमन्दिर में जाकर भगवान्के दर्शन करने चाहिये, छान कर पानी पीना चाहिये और रात्रिमें भोजन नहीं करना चाहिये यह इसी सामाजिक व्यवस्थाका सुखद फल होता था। मुनि तो मात्र पारलौकिक धर्मका ही आचरण करते हैं । इस कारण वे मात्र आहार-पानीके निमित्त गाँवमें आते हैं। कौन सम्पन्न है और कौन निर्धन, उन्हें इससे कोई मतलब नहीं रहता था। जो धर्मका जिज्ञासु है वह उनके पास जाय और धर्मकी शिक्षा ले । वे वचन न बोलते हुए भी अपने शरीरसे मोक्षमार्गका दर्शन करा देते थे। किन्तु जो गृहस्थ स्त्री-पुरुष हैं उन्हें सामाजिक मर्यादाओं का अवश्य ही पालन करना चाहिये । इसी आधारपर वे पारलौकिक धर्म स्वीकार करनेके अधिकारी होते हैं । और इसी आधारपर यह परम्परासे स्वीकार Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किया जाता रहा है कि जो सामाजिक मर्यादाओंका भले प्रकार पालन करता है, उनमें नहीं लगने देना वही पारलौकिक धर्म स्वीकार करनेका अधिकारी होता है, अन्य नहीं । मुनिके तो मात्र पारलौकिक धर्म ही होता है । पर गृहस्थके लौकिक धर्मके साथ पारलौकिक धर्म भी होता है और नहीं भी होता । जो गुरु साक्षीपूर्वक व्रत स्वीकार करते हैं उनके पारलौकिक धर्म अवश्य होता है । लौकिक धर्म उनके गौण रहता है । इसका अर्थ यह कि धर्म सम्बन्धी जो क्रियाएँ वे पहले लौकिक दृष्टिसे पालते थे वे पारलौकिक धर्मका अंग बन जाती हैं । तथा लौकिक क्रियाओं को वे उदासीन भावसे पालन करते हैं, उनका उल्लंघन नहीं करते । पर जो अपनी अशक्तिवश पारलौकिक धर्मको नहीं स्वीकार कर पाते उन्हें for धर्म में दृढ़ता बनाये रखनी होती है, इसके बिना सामाजिक व्यवस्था एक क्षण भी नहीं चल सकती । इसको ध्यान में रखकर यही समझना चाहिये कि जो मुनि होते हैं उनके तो शीलके अठारह हजार भेद व्रत रूपमें होते हैं, पर गृहस्थ उनका लौकिक दृष्टिसे पालन करते हैं । कि जैसे पुरुष सचित्त या अचित्त स्त्रीमूर्तिको न तो रागभावसे देखते ही हैं और न स्पर्श ही करते हैं । उसी प्रकार स्त्रियाँ भी चित्त और अचित्त पुरुषमूर्तिको न तो रागभावसे देखती ही हैं और न उन्हें स्पर्श ही करती हैं । श्री मन्दिरजीमें विराजमान तीर्थङ्करकी धातु-पाषाण आदिसे निर्मित जिनमूर्ति पुरुषमूर्ति ही है, इसलिये महिलाओं को चाहिये कि वे उनका अभिषेक करनेके लिए लालायित न हों। जो स्त्री धर्म है वे मन, वचन और कायसे उसे भली प्रकार पालन करें । इसका अर्थ यह है 1 इसके बाद एक सवाल यह अवश्य उठता है कि यदि ऐसा है तो फिर स्त्रियाँ मुनियोंको आहार कैसे देती हैं । सो इसका उत्तर यह है कि जिस प्रकार स्त्रियाँ अतिथि आदिको आहार कराती हैं उसी प्रकार मुनिको भी आहार करानेको अधिकारिणी हैं । फिर भी वे एकाकिनी रहकर आहार नहीं देतीं, किन्तु सबके साथ रहकर आहार देती हैं । उसमें मुनि के शरीरको स्पर्श करने का कोई अवसर ही नहीं आता । मुनि आहारके शोधनमें और उसको लेने में व्यस्त रहता है इसलिए उसे पता ही नहीं चलता कि आहार देनेवाला कौन है । और महिला साधुको अन्तराय न हो जाय, इसलिए उसकी आँखें आहारसे शोधनमें लगी रहती हैं इसलिए उसका चित्त भी अन्यत्र नहीं जाता और इस प्रकार आहार विधि सम्पन्न हो जाती है । इसलिए महिला मुनिको । नहीं उठता । आहार देती हैं अतः वह अभिषेक प्रक्षाल भी कर सकती हैं यह सवाल ही पर भी कि विषय पर इस प्रकार इतने विवेचनसे यह निश्चित हो जाने करनेकी अधिकारिणी नहीं है थोड़ा अन्य प्रकारसे भी इस होता है । `चतुर्थं खण्ड : ५४७ किसी प्रकारका दोष भावपाहुडमें एक गाथा आती है जिसमें दस प्रकारके अब्रह्मका त्याग कर नौ प्रकारके ब्रह्मचर्य के पालनेका विधान किया गया है । वह गाथा इस प्रकार है- णवविहबंभं पयडहि अब्बंभं मेहुणसण्णासन्तो भमिओसि महिला भगवान्‌ के अभिषेक - प्रक्षाल विचार कर लेना आवश्यक प्रतीत दसविहं पमोत्तूण | भवण्णवे भीमे ||१८|| हे जीव हूँ ! दस प्रकारके अब्रह्मको छोड़कर नौ प्रकारके ब्रह्मचर्यको प्रगट कर, क्योंकि तँ मैथुन संज्ञामें आसक्त होकर भयंकर भवार्णवमें भ्रमण करता रहा ॥९८॥ यहाँ इस गाथामें दस प्रकारके अब्रह्म के त्यागके साथ नौ प्रकारके ब्रह्मचर्यके पालन करनेका उपदेश दिया गया है। दस प्रकारका अब्रह्म क्या है जिसका पुरुष और महिलाको त्याग करना चाहिये इसका निर्देश Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४८ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्रो अभिनन्दन ग्रन्थ करते हुए लिखा है कि ( १ ) पहले एक- दूसरेका चिन्तन होना, (२) पीछे एक-दूसरेको देखनेकी इच्छा होना, (३) पीछे एक-दूसरे के प्रति निश्वास छोड़ना, (४) पीछे ज्वर होना, (५) पीछे दाह होना, (६) पीछे कामकी रुचि होना, (७) पीछे मूर्च्छा होना. (८) पीछे उन्माद होना, (९) पीछे एक-दूसरेके बिना जीनेमें सन्देह होना और (१०) पीछे एक-दूसरेके बिना मरण हो जाना । यह दस प्रकारका अब्रह्म है । जो पुरुष या महिला अपनेको भूलकर कामके पीछे लगते हैं उनकी यह दशा होती है । इसीलिए एक कविने लिखा भी है कि बलवान् इन्द्रियग्रामो विद्वांसमपकर्षति । चाहे पण्डित हो या मुनि जो पञ्चेन्द्रियोंके विषयोंमें उलझता है उसकी यह दशा होती है । इसलिये एक-दूसरको स्पर्श करनेकी बात तो छोड़िये, एक-दूसरेको रागभावसे देखना भी जीवनको मटियामेट करनेवाला है । अतः ब्रह्मचर्यकी जो नौ वाड़े आगममें लिखी हैं उनको जीवनका अपना अंग बनाते हैं उनका जीवन ही सफल होता है । ब्रह्मचर्यकी वे नौ वाड़े इस प्रकार हैं ---- (१) पुरुष और महिला में एक-दूसरेको सेवन करनेकी अभिलाषा न करना, (२) किसी भी प्रयोजनसे एक-दूसरेके अंगोंको स्पर्श नहीं करना, (३) पुष्ट और गरिष्ठ रसका सेवन नहीं करना, (४) एक-दूसरे के द्वारा काममें लाये गये शय्या आदिका सेवन नहीं करना, (५) एक-दूसरेके मुख व शरीरके कामको बढ़ानेवाले अंगोंको देखनेकी इच्छा नहीं करना, (६) एक-दूसरेका सत्कार - पुरस्कार करना, (:) पहले हम कैसे भोग भोगते थे इसको याद नहीं करना, (८) आगे वे भोग कैसे प्राप्त होंगे इनकी अभिलाषा नहीं करना और ( ९ ) अभीष्ट विषयोंका सेवन नहीं करना । ये ब्रह्मचर्यकी नौ बाड़ें हैं। जैसे खेतकी बाड़ खेतमें बोये हुए धान्य की रक्षा करनेमें निमित्त है वैसे ही जो गृहस्थ पुरुष या महिला सदाचारपूर्वक अपना जीवन व्यतीत करना चाहते हैं उन्हें ब्रह्मचर्यकी इन नौ वाड़ोंको अवश्य पालना चाहिये । मात्र इसी प्रयोजनको ध्यान में रखकर महिलाओं को जिनबिम्बका प्रक्षाल अभिषेक नहीं करना चाहिये यह आगमकी आज्ञा है । पूजन, स्वाध्याय और सामायिक आदि करते समय जब अपने भाव ठीक नहीं रहते, उनमें विकृति आ जाती है तब प्रक्षाल - अभिषेक करते समय किसी भी महिलाके परिणाम ठीक रहे आयेंगे यह वह स्वयं नहीं जान सकती, अतः महिलाको जिनमूर्तिका प्रक्षाल आदि ऐसे काम नहीं करना चाहिये, यही राजमार्ग है । Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिक्षा और धर्मका मेल जैन समाजमें धार्मिक शिक्षण संस्थाओंका सब जगह प्रसार है। धार्मिक शिक्षणके नाम पर समाजका भी बहुत कुछ पैसा खर्च होता है। परन्तु इन संस्थाओंसे निकलनेवाले शिक्षितोंकी मनोभूमिका कैसी रहती है इस ओर बहुत ही कम लक्ष्य दिया जाता है। इसका सबसे प्रधान कारण तो यह है कि इन संस्थाओंका खर्च चलानेवाली समाज ही आज उन संस्थाओंकी मालिक है। इसलिये मालिक और नौकरमें जो व्यवहार होना चाहिये या मालिकका नौकरके साथ आज कल जो व्यवहार चालू है प्रायः इसी भूमिकाको लेकर हमारे शिक्षित तैयार होते हैं। इसलिये जगह-जगह पर शिक्षितोंमें मानसिक दुर्बलता नजर आती है। ऐसे एक नहीं अनेक उदाहरण दिये जा सकते हैं जिनसे इस बातकी पुष्टि बहुत ही अच्छी तरह होती है। जो शिक्षित इस मनोभूमिकाको छोड़कर काम करते हैं उन्हें सब जगह धक्के खाने पड़ते हैं या उन्हें समाज रचनाकी सबसे निकृष्ट स्थितिमें रहकर अपना जीवन व्यतीत करना पड़ता है। सच पूछा जावे तो धर्मज्ञ विद्वान् इतने आदर्श होना चाहिये जिससे उनका समाजके ऊपर सबसे अधिक प्रभाव रहे। परन्तु यह बात लिखने में जितनी सरल है प्रत्यक्ष व्यवहारमें उसका उपयोग होना उतना ही कठिन है। एक तो समाज ही अपने इस अधिकारको छोड़नेके लिये तैयार नहीं हो सकती है। दूसरे विद्वानोंमें संघ शक्ति निर्माण होकर अपने कर्तव्यका ज्ञान नहीं हुआ है । समाजकी इच्छा इस विषयमें समाज या समाजके नेताओंकी यह भावना रहित है कि आजकल जो कुछ भी थोड़ी बहुत जागृति दिखाई देती है उसका कारण हमारा पैसा है इसलिए हमारी इच्छाके अनुसार काम करना विद्वानोंका कर्तव्य ही है। समाज यह नहीं चाहती है कि विद्वान् स्वतंत्र होकर धर्म और समाजका काम करें और हम निस्पहतासे उनके सहायक हों। कोई भी तटस्थ व्यक्ति, जहाँपर स्थानीय या प्रादेशिक पाठशालायें चालू है-जाकर इस बातका अनुभव कर सकते हैं कि उन पाठशालाओं के अध्यापकोंको समाजके प्रसन्न रखनेके लिये सबसे अधिक प्रयत्न करना पड़ता है । इससे हमारे शिक्षितोंका सबसे अधिक समय या तो चापलूसीमें व्यतीत होता है या अपनी आजीविकाको स्थिर रखनेके लिये उत्तरदायित्वपूर्ण कार्यसे विमुख रहनेमें ही निकल जाता है । समाजको इच्छा भी इससे अधिक नहीं रहती है । उसको ऐसा विद्वान् सबसे अधिक प्रिय मालूम पड़ता है जो स्वतन्त्रता पूर्वक अपने जीवनको व्यतीत करता है। विद्वानोंकी मनोवृत्ति अपनी इस जघन्य स्थितिमें समय व्यतीत करने में शिक्षित कुछ कम दोषी नहीं हैं। उनका शिक्षण भी विशाल और उदात्त मनोभूमिकाको सामने रखकर नहीं होता है। कोई व्यक्ति किसी शिक्षणसंस्थामें जाकर रहे तो उसे आजके शिक्षितोंकी मनोभुमिकाका उसी समय पता लग सकता है । वहाँ न तो धार्मिकताके ही पाठ पढ़ाये जाते हैं और न समाजोत्थानके । वहाँ पुस्तकी ज्ञानके रूक्ष वातावरणके अतिरिक्त किसीको और कुछ भी दिखाई नहीं देगा। केवल धार्मिक पुस्तकोंके पढ़ लेनेसे ही धार्मिकता और समाजोत्थानकी भावना जागृत नहीं हुआ करती है इसके लिये एक दूसरे प्रकारके वातावरणकी ही आवश्यकता लगती है जिसका हमारी शिक्षण संस्थाओंमें बिल्कुल ही अभाव है। Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५० : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ हमारी शिक्षण संस्थाओंमें जो अधिकारी होते हैं वे प्रायःकर शिक्षणके ज्ञाता न होकर अशिक्षित ही हआ करते हैं। इसलिये उनका शिक्षणसंस्थाओंकी अन्तरंग व्यवस्थापर बिल्कुल ही ध्यान नहीं जाता है । उनकी सबसे बड़ी चिंता बजटकी पूर्ति ही रहती है। वे इसका थोड़ा भी विचार नहीं कर पाते कि इस संस्थासे बालकोंके ऊपर क्या परिणाम होता है। इसमें और क्या सुधार करना चाहिये जिससे इस संस्थासे निकले हुये बालक प्रखर विद्वत्ताके साथ समाजके नेता बनें । इस व्यवहारका बालकोंके ऊपर जो परिणाम होना चाहिये वही होता है और वे भी अपने समयको ‘इसको वजीफा अधिक मिलता है मुझे कम मिलता है,' इत्यादि क्षुद्र बातोंमें व्यतीत कर देते हैं । उन्हें अपनी बौद्धिक और मानसिक शक्तिके बढ़ानेके लिये थोडा भी अवसर नहीं मिलता । सभा सोसाइटियोंमें कभी यदि विद्यार्थी भाग भी लेते है तो वहाँ पर वे रूक्ष विषय रक्खे जाते है जिनका उनके जीवनसे विशेष कुछ सम्बन्ध ही नहीं होता है । अध्यापकोंका काम किताबी शिक्षणके दे देनेमें और सुपरिन्टेन्डेन्टका काम रजिस्टर हाजिरीके भरनेमेही पूरा हो जाता है । यह दोष केवल कर्मचारियोंका ही हो यह बात नहीं है। संस्थाओंकी रचना ही इस ढंगसे की गई है कि वहाँपर दूसरे विषयोंके विचारके लिये गुंजाईश ही नहीं है। सरकारी संस्थाओं और इन धार्मिक संस्थाओंमें यदि थोड़ा बहत भेद कहा जा सकता है तो केवल इतना ही कि सरकारी संस्थाएँ सरकारके नियंत्रणमें चालू हैं और ये संस्थाएँ समाजके नियंत्रणमें चलाई जाती हैं। उनकी कार्यपद्धतिमें कोई भी अन्तर नहीं दिखाई देता है। जिस प्रकार सरकारी संस्थाओंसे गुलामवृत्तिके और स्वाभिमानको खोये हये शिक्षित तैयार होते हैं वही स्थिति तो आज हमारी धार्मिक संस्थाओंकी है। इससे न तो समाजकी ही भूख भग सकती है और न धर्मके सम्बन्धमें कोई ठोस काम ही हो सकता है, ऐसी संस्थाओंसे निकलनेवाले विद्वानोंकी मनोवृत्ति यदि दुबली हो तो इसमें आश्चर्य ही क्या ? शिक्षणकी कमजोरी संस्थाओंमें छात्रोंको जिन ग्रन्थोंके आधारसे शिक्षण दिया जाता है वे ग्रंथ प्रौढ़ और तात्विक विवेचन करनेवाले हुये तो भी केवल इतनेसे ही विद्यार्थियोंकी बुद्धिमें प्रौढ़ता थोड़े ही आ सकती है । जहाँ तक अनुभवमें तो यही आता है कि दर्शनशास्त्रके उच्च और आदर्श ग्रंथ अष्टसहस्रो जैसे ग्रन्थों का अध्ययन किया हआ भी विद्यार्थी दर्शन शब्दकी समग्र व्याख्या करने में असमर्थ ही ठहरता है। इसका कारण क्या है, इधर हमारी शिक्षण संस्थाओंका बिल्कुल ही ध्यान नहीं जाता है। मनुष्य एक प्रयोगमें असफल हो जानेपर भी उसमें वह सुधारणा करता है परन्तु हमारी संस्थाओंमें इस ओर बिल्कुल ही ध्यान नहीं दिया जाता है। यही कारण है कि शिक्षणकी कमजोरी विद्यार्थियों के शिक्षण संस्थाको छोड़ कर कार्यक्षेत्रमें आ जानेपर भी अंत तक खटकती रहती है। हमें अपने धर्मग्रन्थोंका और उसकी विवेचन पद्धतिका अभिमान होना ही चाहिये परन्तु विद्यार्थी प्रतिपाद्य विषयको अधिकसे अधिक किन तरीकोंसे हृदयंगम कर सकेगा इस ओर ध्यान देना और तदनुकूल साधन सामग्रीका एकत्रित करना भी तो अत्यंत जरूरी है नहीं तो शिक्षणका निकम्मापन शिक्षितोंके हृदयोंको खोखला किये बिना नहीं रहेगा। आजकी भूख आज कल विद्वानोंका सम्बन्ध केवल अपने धर्म और समाजसे ही न होकर उसका क्षेत्र बढ़ रहा है। एक समय था जबकि मनुष्यकी भावनाएँ प्रादेशिक या अपनी संस्कृतिके अन्दर रहते हए भी उनका काम चल जाता था। परन्तु आज केवल उतनी भावनाओंसे कोई भी समाज या धर्म आगे आनेका प्रयत्न करे तो यह उसका अट्टहास होगा। आज हमें परस्परकी कलहके कारणोंकी मीमांसाको छोड़कर रचना Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थखण्ड : ५५१ त्मक कार्योंकी ओर अधिक लक्ष्य देना होगा। आज प्रत्येक जाति रचनात्मक कार्योंमें ही अपनी शक्तिका व्यय करके अपनी अपनी संस्कृतिको सुदृढ़ करनेमें लगी हुई है । विरोध या मतभेद केवल जैनसमाजमें ही है ऐसा थोड़े ही है । इसका कटुफल तो प्रत्येक समाजको भोगना पड़ रहा है । परन्तु दूसरी समाजके विचारशील शिक्षितोंने अपने दृष्टिकोणको बिल्कुल ही बदल दिया है । वे देख रहे हैं कि आजके जमाने से हमारी संस्कृतिका मेल कैसे बैठेगा | उन्हें और बातोंकी चिंताकी अपेक्षा आजके जमाने में अपनी संस्कृतिको सर्वोत्कृष्ट सिद्ध करने की सबसे अधिक चिंता है । परन्तु यह बात केवल संस्कृति के गुणानुवादसे कभी भी पूरी नहीं हो सकती है । इसके लिए हमें अपनी संस्कृतिमेंसे वे उच्च आदर्शरूप साधारण तत्त्व ढूंढ़ निकालने होंगे जिसका बहुजन समाज के ऊपर प्रयोग करनेपर अनुकूल परिणाम सिद्ध होगा । यदि जैन विद्वान् इस कार्यको कर सकें तो संभव है कि उनकी संस्कृतिका बहुत कुछ अंश सारी समाजें आत्मसात् कर सकती हैं। यही तो आजकी भूख है । परन्तु यह कब हो, जबकि हमारी शिक्षण संस्थाओंमें सुधार किया जावे । शिक्षणसंस्थाओंके संचालक योग्य विद्वान् नियुक्त किये जावें । पूंजीपतियोंका काम केवल द्रव्य खर्च करनेका हो और शिक्षितोंका काम उनमें योग्य सुधारका । । जब हम इतना कर सकेंगे तभी यह कहा जा सकता है कि हमने धर्मकल्पवृक्षकी मूलको पानी सींचनेका काम किया । इसके बिना हम धर्मकी सच्ची उपासनासे कितने दूर हैं यह बारीकीसे विचार करनेवाले व्यक्ति को उसी समय मालूम पड़ सकता है मन्दिरोंमें हमें धर्मका शिक्षण मिलता है परन्तु उसका केवल परलोकसे ही सम्बन्ध है । हमें अपने जीवन में विशेषता उत्पन्न करनेके लिये इन शिक्षालयोंके शिक्षणकी ही आवश्यकता है । समाज सुधार और संस्कृतिका पोषण यह काम केवल शिक्षितोंके द्वारा ही हो सकता है । इसलिये समाज का कर्तव्य है कि उसने योग्य शिक्षित निर्माण करने के लिये ये इन धर्मदिनों में प्रतिज्ञा करनी चाहिये । धर्मायतन समझकर मंदिरोंकी व्यवस्थाकी ओर जितना ध्यान दिया जाता है उतना ही ध्यान इन शिक्षालयोंकी ओर देनेकी आवश्यकता है । धर्म, शिक्षित और समाजका सुधार इसी प्रकार हो सकता है। बाकी सब स्वांग ही समझना चाहिये । Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म-समाजवाद भारतको राजनैतिक स्वतन्त्रता मिलनेके बाद जिन परिस्थितियोंका निर्माण हो रहा है उन्हें देखते हुए यह आवश्यक प्रतीत होता है कि हम जैन संस्कृतिके मूल तत्त्वों पर विचार करें और देखें कि वे तत्त्व वर्तमान परिस्थितिको सम्हालनेमें कहाँ तक उपयोगी हो सकते हैं । यों तो जैनसाहित्यमें ग्रन्थोंकी कमी नहीं है पर सांस्कृतिक दृष्टिसे जिस पर अधिक दृष्टि जानी चाहिये वह है भगवान कुन्दकुन्दका समयप्राभृत | इस समय वर्गवादमूलक अध्यात्मवाद और भौतिक समाजवादको विफल करनेका हमारे पास एक ही मार्ग है और वह है अध्यात्म समाजवाद । भगवान कुन्दकुन्दने अपने इस ग्रन्थराजमें इसी तत्त्वका सुन्दरतासे निरूपण किया है। सच पूछा जाय तो जैन संस्कृतिकी यह आत्मा है । तत्काल वर्तमान समस्याओं का हल समाजवाद माना जाने लगा है। अधिकतर लोगोंका यह ख्याल होता जा रहा है कि इसे स्वीकार किये बिना सब प्रकारकी बुराइयोंका दूर किया जाना असम्भव है । इसमें सन्देह नहीं कि उनका यह ख्याल बहुत कुछ अंशोंमें सही है, क्योंकि इस समय ईश्वरवाद, वर्गवाद और आर्थिक विषमताने मानवसमाजको इतनी बुरी तरह जकड़ रखा है कि जिससे उसे साँस लेने तकका अवसर नहीं मिलता । इस तन्त्रजालसे किस प्रकार निकला जा सकता है इसका उसे ज्ञान ही नहीं है । ये बुराइयाँ मानव समाजका कोढ़ हैं, इसमें जरा भी सन्देह नहीं । मार्क्सने धर्मको अफीम कहा है इसका कारण यही है । उसने देखा कि ये बुराइयाँ धर्मके नाम पर प्रचारितकी जाती हैं और जनताको पथभ्रष्ट किया जाता है । ईश्वर तो है ही नहीं । यदि वह होता तो विश्वकी इतनी दुरवस्था क्यों होती ? क्यों हिन्दुस्तान और पाकिस्तान बनते ? क्यों मानव मानवमें इतना अन्तर होता ? क्यों गरीबी और अमरीका भेद होता ? सच पूछा जाय तो मार्क्सने मनुष्यकी बुद्धिपर लगे हुए तालेको खोल दिया है और प्रत्येक मनुष्यको स्वतन्त्र भावसे सोचने का अवसर प्रदान किया है । किन्तु उसकी व्यवस्थामें एक दोष है । मार्क्सवाद जहाँ आर्थिक विषमता दूर करनेका प्रयत्न करता है तथा इस व्यवस्था के आधारभूत ईश्वरवाद और वर्गवादको जड़मूलसे उखाड़ फेंकता है वहाँ वह जीबन संशोधनकी बातको सर्वथा भुला देता है । यह तो कट्टरसे कट्टर मार्क्सवादीको भी स्वीकार करना पड़ेगा कि जो भी व्यवस्थाकी जाती है वह मानव जीवनको सुखी बनानेके लिये ही की जाती है । इसके बिना उसका कोई मूल्य नहीं । पर क्या इतने मात्रसे जीवनमें आई हुई भीतरी और बाहिरी सब प्रकारकी बुराइयोंका अन्त हो जाता है यह एक गम्भीर और मार्मिक प्रश्न है जिसका समाधान मार्क्सवादके आधारसे होना कठिन है । इसलिये इसका समाधान पानेके लिये जब हम मार्क्सवादके सिवा अन्यत्र दृष्टिपात करते हैं तो हमारी दृष्टि अध्यात्म-समाजवादके ऊपर जाती हैं । हम देखते हैं कि इसमें मार्क्स के वे सब सिद्धान्त तो निहित हैं ही जिनका उसने केपिटल (Capital) नामक पुस्तकमें विचार किया है। साथ ही उसमें जीवन संशोधनके मूल आधारों और उसकी तात्त्विक प्रक्रियापर भी गहराई से विचार किया गया है । अध्यात्म-समाजवादको दूसरे शब्दों में 'अध्यात्म समतावाद' भी कह सकते । इसका व्यापकसे व्यापक अर्थ है जड़ चेतन सबकी स्वतन्त्र सत्ता स्वीकार करना और कार्यकारण भावको सहयोग प्रणालीके आधार पर स्वीकार करके व्यक्तिकी स्वतन्त्रताको आँच न आने देना । Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : ५५३ यह वर्तमान कालीन अव्यवस्थाका समुचित उत्तर है । इसमें एक ओर जहां आत्माको स्वतंत्रता स्वी. कारकी गई है वहाँ दूसरी ओर जड़ तत्त्वोंकी स्वतन्त्र सत्ताको भी नहीं भुलाया गया है। यह मुकम्मिल स्वतन्त्रताकी पूरी गारंटो हो जाती है । अन्तरंग समस्या है व्यक्तिगत उन्नति और बहिरंग समस्या है परस्पर के सम्बन्ध की । यह दोनोंका सुन्दरतम हल उपस्थित करता है। जैसा कि हम देखते हैं विश्व अनेक तत्त्वोंका समुदाय है । इसमें जड़ चेतन सभी तत्त्व मौजूद हैं । उनके सहयोग और सम्मिश्रणसे ही इसकी निर्बाध गति चल रही है। इसमें क्या जड़ और क्या चेतन एक भी तत्त्व हीं है। सभी अपनी अपनी स्वतन्त्रताका उपभोग कर रहे हैं। ऐसी हालत में यह मानना 'मैं बड़ा हूँ वह छोटा है, यह मेरा भोग्य है मैं उसका भोक्ता हूँ, यह अछूत है मैं छूत हूँ, मैं स्वामी हूँ वह सेवक है, में राजा हूँ वह प्रजा है, मैं राव हूँ वह रंक है' निरा अज्ञान है, अधिकतर ये विकल्प जीवनमें आई हुई कमजोरी के कारण होते हैं। जिन्होंने कमजोरी पर विजय पाई है वे इनसे सदा मुक्त रहते हैं। कमजोरीसे हमारा तात्पर्य राग द्वेष और मोहसे है। विश्वमें जितनी भी समस्याएँ उग्ररूप धारण किये हुए है या जो नई नई समस्याएँ सामने आ रही हैं उनका एकमात्र कारण यह राग, द्वेष और मोह ही तो है । इसीके कारण विश्वको ये दिन देखने पड़ रहे हैं। अध्यात्म-समाजवादका आन्तररूप जितना निर्मल और वस्तुस्पर्शी है उसका बाह्यरूप भी उतना ही मोहक और सब प्रकारकी कल्पित विषमताको दूर करनेवाला है। यह समत्वकी भावनाओंमेंसे प्रसूत होकर जीवनके प्रत्येक क्षेत्रमें अपनी छाप छोड़ता जाता है। यह ऐसी विषमताको जीवनकी चीज नहीं मानता जिसे हम ऊपरसे स्वीकार करते है । उदाहरणार्थ छत-अछूत समस्याको लिया जा सकता है। वैदिक धर्मके प्रभावसे कुछ ऐसा प्रघात पड़ गया है जिससे कुछ भाई छूत और कुछ भाई अछूत माने जाने लगे हैं । जो छूत माने जाते हैं उनके साथ मानवताका व्यवहार किया जाता है, उन्हें बैठनेके लिये उचित स्थान दिया जाता है और मन्दिर आदिमें प्रवेश करनेपर रोका नहीं जाता । किन्तु जो अछूत माने जाते हैं उन्हें न तो अपने पास बैठने दिया जाता है, न मन्दिर में जाने दिया जाता है और न स्पर्श ही किया जाता है। लघुशंकाके बाद हाथ धोनेसे काम चल जाता है पर उनका स्पर्श हो जानेपर सचेल स्नानकी आवश्यकता पड़ती है। कुत्ते बिल्लीके छू जानेपर किसी प्रकारकी बुराई नहीं मानी जाती पर उनके छु जानेपर सारा धर्म कर्म बिगड़ जाता है। वे तियंचोंसे भी बदतर मान लिये गये हैं। यह समस्या देशके सामने हजारों वर्षसे उपस्थित है। इस कारण देशको जो हानि उठानी पड़ी है वह अवर्णनीय है। इस सामाजिक विषमताके परिणामस्वरूप ही देशको अनेक भागोंमें बटना पड़ा है। पंजाब और बंगालका हत्याकाण्ड इसीका परिणाम है फिर भी भारतीयोंकी आँखें नहीं खुल रही है । मानाकि वे जब अशुचि अवस्थामें हों तब उनसे दूर रहना चाहिये पर स्नान करनेके बाद जब वे स्वच्छ कपडे पहिन लेते हैं तब ऐसी कौन सी बाधा रह जाती है जिससे उन्हें स्पर्श नहीं किया जाता? जहाँ तक वैदिक धर्मावलम्बियोंका सवाल है यह बात कुछ-कुछ समझमें भी आती है कि वे अपने ही समाजके एक अंगको अपनेसे जुदा रखें, क्योंकि इस धर्मका मुख्य आधार है सामाजिक विषमता । वे जन्मना वर्णव्यवस्थापर जोर भी इसी कारणसे देते हैं और उच्चत्व तथा नीचत्वका आधार कर्मको मानते हैं । वेद और वेदानुमोदित स्मृति उनका मुख्य धर्मशास्त्र है। इसके अनुसार मनुष्यको अपने-अपने वर्णकी प्राप्ति जन्मसे होती है । वे ब्राह्मणत्व आदि जातिको नित्य मानते हैं इसलिए जिस व्यक्तिसे जिस जातिका समवाय सम्बन्ध हो जाता है वह जीवन भर उसी जातिका बना रहता है। अनेक प्रयत्न करनेपर भी उसकी जाति नहीं बदलती। Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५४ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ ब्राह्मण चाहे जितने भ्रूणहत्या, चोरी हिंसा आदि निम्नतम पाप करे इससे वह कभी भी ब्राह्मणसे-अब्राह्मण नहीं हो सकता और शूद्र चाहे जितने सदाचार पालन आदि उच्चतम कर्म करे इससे वह कभी भी शूद्रसे अशूद्र नहीं हो सकता। पर जैन धर्मानुयायियोंने तीर्थंकरोंके उपदेशोंको भुलाकर परधर्मको कैसे स्वीकार कर लिया है यह बात जरा भी समझमें नहीं आती। जैन तत्त्वज्ञान उन्हें क्या आज्ञा देता है यह बात उन्हें आँख खोल कर दे चाहिये। वे चालू व्यवस्थाके व्यामोहमें पड़कर खींझें नहीं किन्तु इसके वास्तविक कारणोंपर जाय । वे देखें कि क्यों हम अपने ही समान एक भाईको छूत और दूसरे भाईको अछुत मानते हैं। एक भाईमें ऐसी कौनसी विशेषता है जिससे वह छूत माना जाता है और दूसरे भाईमें उसकी क्या कमी है जिससे वह अछूत माना जाता है यदि सचमुच में वे अन्तर्दृष्टि होकर देखेंगे तो उन्हें मालूम पड़ेगा कि यह केवल हमारे राग, द्वेष और मोहका पाक है जो हमसे ऐसा मनवा रहा है। उन भाइयोंमें ऐसी छत और अछतपनेको कोई निसानी नहीं है, दोनों ही समान हैं । यह मालूम पड़नेपर कि यह अछूत है हम ग्लानि करने लगते हैं, परन्तु इसके पहले ऐसा कुछ भी भाव नहीं होता । इसलिये आवश्यकता अपने इन विकारोंको त्यागने की है। इन विकारोंके दूर हो जानेपर यह समस्या सुतरां सुलझ जाती है । हममें वह समानताका भाव आने लगता है जिसकी आज विश्वको आवश्यकता है और जिसका निर्देश हजारों क्या लाखों वर्ष पहले जैन तीर्थंकरोंने कर दिया था। उन्होंने स्पष्ट घोषणा की थी कि धर्म तो पशुओं तकके लिये है वह मनुष्य-मनुष्यमें अन्तर कैसे कर सकता है ? यही सबक है कि उनकी सभाओं में सबको समानभावसे आने दिया जाता था और सब उनके उपदेशोंसे लाभ उठानेके लिये स्वतन्त्र थे। कहा यह जाता है कि वे संस्कारहीन है अतः उनके सम्पर्कसे सदाचारके लोप होनेका भय है । पर इस युक्तिवादमें कोई तथ्य नहीं । यह भाव केवल अपने जीवनकी कमजोरीको व्यक्त करनेवाला है। वैसे देखा जाय तो सम्पर्क तो उनके साथ बना हुआ है ही और उसके बिना काम भी नहीं चलता । केवल छूनेका परहेज करके बैठे हैं और ऐसा मान लिया है कि यह न छू ना ही धर्म है। धर्मकी यह कितनी उथली परिभाषा है । जिस धर्मका उपदेश जीवनमें आये हुए विकारको दूर करके अपने स्वभावकी ओर ले जानेके लिये दिया गया था वह धर्म स्वयं विकारीभावमें चरितार्थ हो रहा है । हमने अपने मिथ्या अभिनिवेशके वशीभूत होकर धर्मके स्वरूपकी दिशा ही बदल दी है । इस व्यवहार द्वारा या तो हम रेतमेंसे तेल निकालना चाहते है या रात्रिको दिन बनाना चाहते हैं । और मजा यह कि गालियां देते है मार्क्सवादको। मार्क्सवाद हमारी इन भूलोंका ही तो फल है । यदि हम चाहते हैं कि अध्यात्म-समाजवाद जीवित रहे तो हमें उसके अनुसार अपना जीवन भी बनाना होगा। हमें इस संकुचित मनोवृत्तिको छोड़ कर विस्तृत आधारसे विचार करना होगा। यदि थोड़ी देरको यह मान भी लिया जाय कि वे संस्कारहीन है तो भी हमारा कर्तव्य उनसे पृथक् रहने का नहीं होना चाहिये। हमें विश्वास और दृढ़ताके साथ उनके जीवनको सुधारनेका प्रयत्न करना चाहिये, उन्हें मन्दिरमें आने देना चाहिये और तीर्थंकरोंके उपदेशों द्वारा उनके चालू जीवनको बदलनेका प्रयत्न करना चाहिये। इसके लिये हम ईसाई मिसनरियोंसे काफी शिक्षा ले सकते हैं। जिन भारतवर्षीय ईसाईयोंका हम लोग आदर करते हैं उन्हें बैठने के लिये कुर्सी देते हैं वे कल भंगी और चमार ही तो थे । फिर वे आज ऐसे कैसे बन गये ? एक सहवास और सदुपदेश ही तो इसका कारण है। यदि भारतवर्षने जैन तत्त्वज्ञानके आधारसे इस समस्याको सुलझानेका प्रयत्न किया होता तो इसमें सन्देह नहीं कि इस समस्याके हल होनेमें जरा भी देर नहीं लगती। जैनधर्मने कर्मके आधारसे उच्चता और Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : ५५५ नीचता माननेकी कभी भी शिक्षा नहीं दी है। वह तो गर्भज मनुष्यमात्रमें समान योग्यता मानता है। कमसे न कोई ऊँच होता है और न कोई नीच । उच्चता और नीचताका यदि कोई आधार है भी तो वह आन्तरिक परिणति ही है जो किसी भी मनुष्यके हो सकती है। इसके लिये जाति पांतिका बन्धन आवश्यक नहीं है। सच तो यह है कि स्वयं जैनियोंने इस महान् तत्त्वज्ञानको तिलांजलि दे दी है और जिस जाति पांति या सामाजिक उच्चत्व और नीचत्वका विरोध करने के लिये उनके पूर्वजोंने अनेक संकटोंका सामना किया था आज वे ही उन बुराइयोंके पुजारी बन रहे हैं। क्या हम आशा करें कि आजके जैन बन्धु अपने इस उदार और वस्तुस्पर्शी तत्त्वज्ञानकी ओर समचित ध्यान देंगे। मेरा तो विश्वास है कि यदि उन्होंने इस ओर ध्यान दिया और इसके अनुसार आचरण किया तो एक छत-अछूत समस्या ही क्या विश्वकी अन्य समस्याएँ भी हल हो सकती हैं। साधारणत. विश्वके सामने छत-अछूत समस्याके सिवा दूसरी मुख्य समस्या आर्थिक विषमता की है। इस समय विश्वमें जो संघर्ष दिखलाई दे रहा है उसका मूल कारण यही है। इस कारण विश्व स्पष्टतः दो गुटोंमें बटता जा रहा है। यदि हम अध्यात्म समाजवादके आधारसे इस समस्याको भी सुलझानेका प्रयत्न करते हैं तो इसमें सन्देह नहीं कि यह समस्या आसानीसे सुलझ जाती है। अध्यात्म समाजवादके सिद्धान्तानुसार कोई भी मनुष्य आवश्यकतासे अधिकका संचय नहीं कर सकता क्योंकि संचय करना और संचित द्रव्यका अपनेको स्वामी मानना कषायका परिणाम है किन्तु वह इसकी शिक्षा नहीं देता। उसके अनुसार तो प्रत्येक मनुष्यको परिग्रहका त्याग या परिमाण कर लेना चाहिये क्योंकि परिग्रह पर है और वह मोक्षमार्गमें बाधक है। जैसी कि तीर्थकरोंकी शिक्षा है तदनुसार स्वावलम्बन ही जीवनका सार है। विना स्वालम्बनके कोई भी मनुष्य आत्मधर्मका अभ्यासी नहीं हो सकता । यह दूसरी बात है कि कोई मनुष्य इसे पूरी तरहसे जीवनमें उतारनेका अभ्यास करता है और कोई अशंतः । पर धर्मात्मापनकी यह कसौटी है कि वह स्वावलम्बनके साथ जीवन बितानेका प्रयत्न करे। अब देखना यह है कि जो उत्तरोत्तर अधिकाधिक परिग्रहके संचयमें लगा रहता है वह क्या स्वावलम्बनका अभ्यासी कहा जा सकता है। सच पूछा जाय तो ऐसा मनुष्य धर्मका द्रोही होना चाहिये। इसे स्वावलम्बी अर्थात धर्मात्मा मानना तो त्रिकालमें भी सम्भव नहीं है। धर्मका वस्तुमें ममकार और अहंकार करनेके साथ तीव्र विरोध है । जहाँपर वस्तुमें ममकार और अहंकार है वहाँ धर्म नहीं और जहाँ धर्म है वहाँपर वस्तुमें ममकार और अहंकार नहीं । इसलिये परिग्रहकी प्राप्ति धर्मका फल न मानकर कषायका ही परिणाम मा ना चाहिये । यही सबब है कि तीर्थंकरोंने इसके त्यागका उपदेश दिया है। और यह बतलाया है कि जो व्यक्ति जीवनमें आये हुए विकारके कारण परिग्रहका पूर्ण त्याग नहीं कर सकता वह उसका परिमाण अवश्य कर ले । उसका कर्तव्य है कि वह आवश्यकतासे अधिकका संचय न करे । हम देखते हैं कि विश्व यदि इन शिक्षाओंके अनुसार काम करने लगे तो इस समस्याके हल करने में थोड़ी भी देर न लगे और तब राज्यको इस समस्याके सुलझानेमें अपनी शक्ति न लगानो पड़े । तीसरी समस्या स्त्रियों की है। स्त्रियोंका भी समाजमें वही स्थान होना चाहिये जो पुरुषोंका है । वे किसी भी बातमें पुरुषोंसे हीन नहीं है । यह नहीं हो सकता कि पुरुष उत्तरोत्तर विकारको प्रश्रय देते जाँय और वे जीवन भर अविकारी बनी रहें। कौन मनुष्य विकारपर विजय पाता है और कौन नहीं यह व्यक्तिका प्रश्न है। समाजका निर्माण तो व्यक्तियोंके जीवनमें आई हुई कमजोरीके फलस्वरूप समझौतेके रूपमें ही किया जाता है । यह तो कमजोरियोंको स्वीकार करता है। कमजोरियोंका उच्छेद करना इसका काम नहीं । समाज Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५६ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-प्रन्थं और धर्ममें यही अन्तर है। इसलिये जहांतक समाजका प्रश्न है हमें वही अधिकार स्त्रियोंके भी मानने चाहिये जो पुरुषोंको प्राप्त है। ये हैं अध्यात्म-समाजवादकी शिक्षाएँ। अध्यात्म-समाजवाद अध्यात्ममूलक समाजवादका संक्षिप्त रूप है । इसमें अध्यात्म शब्द व्यक्तिको स्वतंत्रताका सूचक है और समाजवाद सहयोग प्रणालीके आधारपर स्वीकृत कार्यकारण भावको सूचित करता है। कहीं-कहीं इसे अध्यात्मवाद भी कहा गया है। इसके द्वारा जहाँ हम एक ओर विकारोंको दूर करनेमें समर्थ होते हैं वहीं दूसरी ओर परस्परके समझौते द्वारा विकारोंपर नियंत्रण स्थापित करते हैं। इसके स्वीकार करनेसे व्यक्ति तो प्रतिष्ठित होता ही है पर समाजको भी अपने व्यवहारकी दिशा निश्चित करनेमें सहायता मिलती है। ऐसा सर्वोपयोगी है यह अध्यात्म-समाजवाद । मेरी समझसे यदि विश्व अतीतमें की गई भूलोंपर विजय पाना चाहता है तो उसे इसके स्वीकार करनेमें जरा भी हिचकिचाहट नहीं होनी चाहिये। हम उस दिनकी प्रतीक्षामें है जिस दिन इस भावनाको चरितार्थ होते हुए देखेंगे। Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुन्देलखण्डका सांस्कृतिक वैभव भारतीय परम्परामें बुन्देलखण्डका महत्वपूर्ण स्थान है । यहाँके सुरम्य उपवन, कलकल करती हुई अस्खलित धारासे बहने वाली नदियाँ, सघन वृक्षों और मनोहारी उपत्यकाओंसे विभूषित पर्वत श्रेणियाँ तथा उपजाऊ मैदान इनकी शोभामें चार चाँद लगा देते हैं । भौगोलिक दृष्टिसे तो इसका महत्व है ही, राजनैतिक और सामाजिक दृष्टिसे भी इसका महत्व है। दिल्ली और आगराका समीपवर्ती प्रदेश होने पर भी इस प्रदेशमें मुस्लिम संस्कृतिका विशेष प्रभाव दृष्टिगोचर नहीं होता इसका कारण इसकी अपनी सभ्यता और स्वाधीन वत्तिके प्रति विशेष आस्था ही है। बन्देलखण्ड तो हमारा निवास स्थान ही है । अन्य प्रदेशोंको भी हमने निकटसे देखा है, किन्तु यहाँके जैनोंमें हमने जो आचार शुद्धि और विचार शुद्धि देखी है उसके अन्यत्र सर्वांगीण दर्शन नहीं होते । भगवान महावीर और श्रुतकेवली भद्रबाहके बाद जैन परम्परामें आचार्य श्री कुन्दकुन्दका विशेष स्थान है। उनके द्वारा प्रतिपादित मोक्षमार्गके अनुरूप बाह्य क्रियाकाण्डको अपने जीवनका अंग बनानेकी यदि किसीकी इच्छा हो तो बुन्देलखण्डसे ही इसकी शिक्षा लेनी होगी। इस दृष्टिसे इसका स्थान सर्वोपरि है। ___ यद्यपि बुन्देलखण्डमें आजीविकाके साधन स्वल्प हैं। इस कारण यहाँके जैन समाजकी आर्थिक स्थिति बहुत समुन्नत नहीं कही जा सकती। फिर भी यहाँका जैन समाज कष्टसहिष्णु जीवन बिताकर बचे हुए अर्थका उपयोग संस्कृति निर्माणके कार्यों में सदासे करता आ रहा है । श्रीपपौराजीके उत्तुंग जिनालय तथा अन्य तीर्थक्षेत्र इसके प्रांजल उदाहरण हैं । यहाँके तीर्थक्षेत्रोंकी मूर्ति निर्माणकला और वास्तुनिर्माणकला बेजोड़ है । वह भव्यजनोंको अपनी विशेषताके कारण सहज ही अपनी ओर आकर्षित कर मोक्षमार्गका पथ प्रशस्त करती रहती है । आप बुन्देलखण्डके श्री पपौराजी, आहारजी, क्षेत्रपाल ललितपुर, देवगढ़, चंदेरी, बूढ़ी चंदेरी, थूबोनजी, खजुराहो, द्रोणगिरि, नैनागिरि, कुण्डलगिरि, स्वर्णगिरि आदि किसी भी तीर्थक्षेत्र पर चले जाइये वहाँके दर्शन करने मात्रसे आपको अपूर्व शांतिका अनुभव होगा । धन्य हैं वे तीर्थक्षेत्र और धन्य हैं वे पुण्य-पुरुष जिन्होंने अपनी धर्मभावनावश इन तीर्थक्षेत्रोंको वर्तमान रूप प्रदान किया है। उसके सामने वे महाशय अति तुच्छ हैं जो लौकिक कामनावश या यशकी लिप्सावश अपने आपको चिरस्थायी बनानेके अभिप्रायसे धार्मिक मनोवृत्तिको दूषित करते रहते हैं । तेरापंथ कोई पंथ नहीं है । किन्तु यह मोक्षमार्गकी दृष्टिसे अनादिकालसे प्रचलित गृहस्थोंकी उपासनाका साधन मात्र है। वर्तमान कालमें यद्यपि इसे आचार्य कुन्दकुन्दका शुद्धाम्नाय कहा जाता है। किन्तु इस कालमें इसे आचार्य कुन्दकुन्दने चलाया है ऐसी जिसकी समझ है वह भूल है । मूलाचार आदि आगम ग्रन्थोंका अध्ययन करनेसे यह स्पष्ट हो जाता है कि यह गृहस्थोंकी मोक्षमार्गके अनुरूप वह पूजापद्धति है जो जैनाचार और विचारके अनुरूप होनेके कारण अनादिकालसे जैन परम्परामें प्रचलित रही है। बुन्देलखण्डने अपने नित्यनैमित्तिक जीवनमें निरपवादरूपसे इसे अपनाया है । अतएव विश्वास है कि वह प्रत्येक अवस्थामें इसकी रक्षा करेगी । इसमें गुण अधिक है और दोष कम, यह इसकी विशेषता है । Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५८ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ बुन्देलखण्डको जैन समाजने जैसे जैन-संस्कृतिके अन्य साधनोंके संरक्षणकी ओर विशेष ध्यान दिया है वैसे ही उसने शिक्षा प्रचारकी ओर भी विशेष ध्यान दिया है। वर्तमान समयमें संस्कृत, प्राकृत और धार्मिक शिक्षाके प्रचारका बन्देलखण्ड गढ़ है। यहाँके बहतसे गाँवों में आपको धार्मिक और संस्कृत पाठशालाएँ दष्टिगोचर होंगी । इस विषयमें पूज्य श्री गणेशकीर्ति मनिराज (पज्य श्री गणेशप्रसादजी वर्णी) चिरस्मरणीय है हो। पज्य ब्र० मोतीलालजी वर्णी, श्रेष्ठिवर्य लक्ष्मीचन्दजी बमराना, श्रेष्ठिवर्य मथरादासजी ललितपुर और सिंघई नायूरामजी बीना-इटावा आदिके नाम भी विशेष रूपसे उल्लेखनीय हैं। इन महानुभावोंने इस क्षेत्रमें जो महान् सेवा की है वह सदा काल अविस्मरणीय रहेगी। बुन्देलखण्डका प्रत्येक गृहस्थ अपनी उस आचार-विचार और पूजा विधिको अक्षुण्ण बनाये रखेगा जिसने अभी तक उसे अनुप्राणित ही नहीं किया, किन्तु सद्गृहस्थ भी बनाये रखा है । बुन्दे खण्ड धन्य है और उसकी मोक्षमार्गके अनुरूप आचार-विचार और उपासना विधि भी धन्य है। बुन्देलखण्डका जैन-संस्कृतिके लिए जो यह योगदान है वह पूरे जैन समाजको अनुप्राणित करता है इसमें सन्देह नहीं । OUR Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महिला मुक्ति गमनकी पात्र नहीं दिगम्बरोंसे श्वेताम्बरोंमें मतभेदके मुख्य विषय तीन हैं । (१) सवस्त्र सिद्धि । श्वेताम्बर मानते हैं कि बुद्धिपूर्वक वस्त्रके स्वीकार करनेपर भी मुक्तिलाभ करनेमें उससे कोई बाधा नहीं आती । जब कि वस्तु स्थिति यह है कि स्वावलम्बनके बिना जीवका परसे मुक्ति प्राप्त करना असम्भव है, इसलिए बुद्धिपूर्वक स्वीकार किये गये वस्त्रका बुद्धिपूर्वक त्याग होना ही चाहिये । इसलिए जैसे घर, जमीन, स्त्री, पुत्र आदिका बुद्धिपूर्वक त्याग किया जाता है वैसे ही वस्त्रका भी बुद्धिपूर्वक त्याग होना चाहिए । यह मुक्तिका मार्ग है जिसे दिगम्बर परम्पराने सदासे स्वीकार किया है। (२) केवली कवलाहार । श्वेता बर मानते हैं कि भूख-प्यासकी बाधा केवलीको भी होती है, इसलिए केवली भगवान् हम-आपके समान भोजन करते हैं और पानी पीते हैं। किन्तु दिगम्बर परम्परा उनकी इस मान्यताको स्वीकार नहीं करती। इसके कारण कई है । (क) असातावेदनीयकी उदीरणा छठे गुणस्थान तक ही होती है । और असाता वेदनीयकी उदीरणाके बिना भूख-प्यासकी बाधा हो नहीं सकती, इसलिए केवली भगवान् कवलाहार ग्रहण नहीं करते । (ख) असातावेदनीय अशुभ प्रकृति है, इसका बन्ध छठे गुणस्थान तक ही होता है. आगे इसका बन्ध नहीं होता। यद्यपि असातावेदनीयका उदय १४वें गुणस्थान तक होता है । पर सम्यक्त्वके सन्मुख हुए जीवके क्षयोपशम लब्धिके प्रथम समयसे ही इसका अनुभाग घटते-घटते १३वें गुणस्थानके प्रथम समयमें जरी हुई रस्सीके समान अनुभाग इतना कम शेष बचता है कि वह अपना कार्य करने में असमर्थ रहता है। इसलिए भी केवली भगवान्के कवलाहारको कल्पना करना असम्भव है । (ग) क्षपकश्रेणिपर आरूढ़ हुए जीवके १०वें गुणस्थानके अन्तिम समयमें मोहनीय कर्मका समूल नाश हो जाता है । तथा ज्ञानावरणीय आदि कर्मोंका बन्ध भी इसी गुणस्थान तक होता है। अकेला सातावेदनीय कर्म शेष रहता है जिसका बन्ध १३वें गुणस्थान तक होता है। परन्तु कषायके बिना उसका बन्ध एक समयकी स्थिति वाला होता है । अतः इसका नाम सातावेदनीय है, अतः उसे जो अनुभाग मिलता है वह यद्यपि उतना तो नहीं मिलता जितना कषायके सद्भावमें कमसे कम मिलना सम्भव है। फिर भी वह सत्तामें शेष रहे असातावेदनीयके अनुभागसे अनन्तगुणा अवश्य होता है। और वह प्रति समय उदयवाला होता है, इसलिए असातावेदनीयके उदयकालमें भी इसका उदय रहनेसे असातावेदनीयका उदय सातावेदनीय रूपसे परिणम जानेके कारण भी केवली जिनको भूख-प्यासकी बाधा नहीं होती, इसलिए भी केवली जिन कवलाहार ग्रहण नहीं करते । यहाँ हमने केवली जिन कवलाहार नहीं लेते इसकी पुष्ठिमें जो तीन हेतु उपस्थित किये हैं उन्हें दोनों परम्पराएँ स्वीकार करती हैं, क्योंकि इस विषयमें दोनों परम्पराओंमें कर्मशास्त्रकी प्ररूपणा एक समान है। (३) स्त्रीमुक्ति । श्वेताम्बर मानते हैं कि योनि-कुच आदि शरीररूप स्त्री-पर्यायके मिलनेपर भी उस पर्यायसे मुक्ति लाभ हो सकता है। परन्तु दिगम्बर परम्परा इसे स्वीकार नहीं करती क्योंकि उक्त प्रकारकी स्त्री कभी भी बुद्धिपूर्वक वस्त्रका त्याग कर पूर्ण स्वावलम्बनकी दीक्षा ग्रहण करने में असमर्थ रहती है, इसलिए उसे मुक्तिका लाभ मिलना उसी प्रकार असम्भव है जैसे सूर्य की किरणोंका शीतल होना असम्भव है।। Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६० : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ फिर भी श्वेताम्बर परम्परामें अपने ही आगमको दुर्लक्ष्य करके द्रव्य स्त्रीका मोक्षलाभ करना किस प्रकार स्वीकार किया है और वह उनके ही आगमके अनुसार कैसे नहीं बनता, आगे इस विषयपर विस्तारसे विचार किया जाता है। इस अवसर्पिणी कालमें जो २४ तीर्थकर हुए हैं उनमें १९वें तीर्थंकरका नाम मल्लिनाथ है । किन्तु मल्लिनाथ तीर्थकर मल्लिबाई (स्त्री) कैसे मान लिए गये इस विषयमें उनके यहाँ लिखा है कि जब ये महाबलके भवमें थे तब इन्होंने इस कारणसे स्त्री नाम गोत्र कर्मकी रचना की थी अर्थात् स्त्री नाम गोत्र कर्मका बन्ध किया था । वह उद्धरण इस प्रकार है तते णं से महब्बले अणगारे इमेणं कारणेणं इत्थिणाम गोयं कम्मं निव्वत्तेसु । अभिधानराजेन्द्रकोष भाग० ६ महब्बल शब्द। अब सवाल यह है कि जब महाबल अनगार थे अर्थात् ६३ ७वं गुणस्थानको प्राप्त थे ऐसी अवस्था में उनके स्त्री नाम गोत्र कर्मका बन्ध कैसे हो सकता है, क्योंकि यहाँ जिसे स्त्री नाम गोत्र कर्म कहा गया है वह औदारिक शरीर आंगोपांग नामकर्मका एक भेद है और मनुष्यगतिमें औदारिक शरीर आंगोपांग नाम कर्मका बन्ध दूसरे गुणस्थान तक ही होता है। ऐसा अवस्थामें श्वेताम्बरोंके कर्मशास्त्रके अनुसार भी ६३ ७वें गुणस्थानवर्ती महाबलके औदारिक शरीर स्त्री आंगोपांग नाम कर्मका बन्ध कैसे हो सकता है, अर्थात् नहीं हो सकता है। यदि कहा जाय कि उस समय वे मिथ्यादृष्टि अनगार थे तो यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि जो तीर्थकर प्रकृतिका बन्ध करने वाला होता है वह नियमसे कमसे कम सम्यग्दष्टि तो होता ही है ऐसा कर्म शास्त्रका नियम है, जिसे दोनों परम्पराएँ स्वीकार करती हैं। यदि कहा जाय कि जो मनुष्य नरकायुका बन्ध करनेके बाद सम्यग्दृष्टि होकर तीर्थंकर प्रकृतिका बन्ध करता है वह मरण कर यथायोग्य नरकमें जानेके पूर्व अन्तम हर्तके लिये अन्तमें मिथ्यादष्टि हो जाता है तो यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि महाबलके जीवने नरकायुका बन्ध न करके देवायुका ही बन्ध किया था। इसलिये वे स्त्री नाम गोत्र कर्मका बन्ध करते समय मिथ्यादृष्टि हो गये थे यह कहना आगमके विरुद्ध है। - इसी प्रकार चर्णिकार और मलयगिरिका यह कहना नहीं बनता कि सम्यक् दष्टि जीव स्त्रियों और नपुंसकोंमें उत्पन्न नहीं होते यथा मणुस्सेसु सम्मद्दिट्टी इत्थीनपुंसकेसु न । उव्वज्जइ त्ति-गाचुर्यवचनम् कादाचित्काद् भवति ॥ __ सि० चू० पृ० ४३ । तिर्यग-मनुष्येषु स्त्रीवेद-नपुंसकवेदिषु, मध्येऽविरतसम्यग्दृष्टेरुत्पादाभावात् । एतच्च प्राचुर्यमाश्रित्योक्तम्, तेनमल्लिस्वामिन्यादिभिर्न व्यभिचारः ?–सपृ० टी० पृ. २१७ । इस प्रकार इतने विचारसे यह तो निश्चित हो जाता है कि अनगार सम्यग्दृष्टि अवस्थामें महाबलके स्त्री नामगोत्र कर्मका बन्ध होना तो सम्भव नहीं है । फिर भी यदि ऐसा मान भी लिया जाय कि महाबलके अनगार हो जानेपर भी जब तक उनके सम्यग्दृष्टि होकर तीर्थकर प्रकृतिका बन्ध नहीं हुआ था तब उसके पहले वे मिथ्यादृष्टि थे, इसलिये उनके दोनों बातें बन जाती है मिथ्यादष्टि अवस्थामें स्त्री नाम गोत्र कर्मका बन्ध भी बन जाता है और बादमें सम्यग्दृष्टि होनेपर तीर्थकर प्रकृतिका बन्ध भी बन जाता है। और ऐसा मानने में किसी भी आगमसे बाधा भी नहीं आती। Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : ५६१ सो ऐसा मानना भी ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा माननेपर यद्यपि महाबलके जीवनमें दोनों बातें बन तो जाती हैं, पर उनका देवपर्यायसे आकर योनि-कुच सहित स्त्री (महिला) लिंगमें उत्पन्न होना नहीं बन सकता, क्योंकि जो सम्यग्दृष्टिजीव स्त्रीवेद सहित भाव स्त्री पर्यायमें उत्पन्न होनेकी योग्यता नहीं रखता वह योनिकुचवाली महिला पर्यायमें उत्पन्न हो जाय यह कैसे बन सकता है । अर्थात् नहीं बन सकता है। यदि कहा जाय कि वेद नोकषायकी अपेक्षा उस देवचर महाबलके जीवके वेद नोकषायकी अपेक्षा भले ही पुरुषवेद रहा आवे, पर उसके योनि-कुचवाली महिला पर्यायको लेकर उत्पन्न होनेमें कोई बाधा नहीं आती, क्योंकि कर्मभूमिके जीवामें वेदवैषम्यके मानने में आगमसे उसका समर्थन होता है। जैसा कि उनके यहाँ ही कर्म शास्त्रका वचन है पुरुषः पुरुषवेदं वेदयति, पुरुषः स्त्रीवेदं वेदयति, पुरुषः नपुंसकवेदं वेदयति । एवं स्त्री नपुंसकयोरपि वेदत्रयो मन्तव्यः। -अभिधान राजेन्द्रकोष महाबल शब्द । जो भावसे पुरुषवेदी है वह द्रव्यसे पुरुष वेदका तो वेदन करता ही है, द्रव्यसे स्त्रीवेद और नपुंसकवेदका भी वेदन करता है। इसी प्रकार भावसे स्त्रीवेद और नपुंसकवेद वाले जीवोंके भी जान लेना चाहिये। ____ अतः देवचर महाबलका जीव यदि कर्मशास्त्रके नियमानुसार पुरुषवेद नोकषाय सहित पुरुष पर्यायमें उत्पन्न होता है तो भले ही हो जाओ, पर इससे उसका योनि-कुच सहित महिला पर्यायमें उत्पन्न होनेमें कर्मशास्त्रके अनुसार कोई बाधा नहीं आती। सो ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि इसे एक तो आपका (श्वेताम्बर परम्पराका) आगम ही स्वीकार नहीं करता । दूसरे कदाचित् ऐसा मान भी लिया जाय तो चर्णिकारका 'कयाइ होज्ज इथिवेयगेसु वि' यह कहना निरर्थक हो जाता है । । अतः इन दोनों प्रकारको आपत्तियोंको टालनेके लिये यही मानना उचित है कि देवचर महाबलका जीव जब तीर्थकर नाम कर्म सहित मनुष्य पर्यायमें आये तब वे भाव और द्रव्य दोनों प्रकारसे पुरुषवेदको अनुभवनेवाले पुरुष ही थे । न वे स्त्री ही थे और न नपुंसक ही। - यदि कहो कि परभवसे आनेवाला सम्यग्दृष्टि देव पुरुषवेद सहित मनुष्य पर्यायमें ही उत्पन्न होता है, कर्मशास्त्रकी यह मान्यता निरपवाद नहीं है, अन्यथा देवचर महाबलके जीवको द्रव्यसे स्त्रीपर्यायमें नहीं उत्पन्न कराया गया होता । सो इस मान्यताका दोनों सम्प्रदायोंके मूल कर्मशास्त्रसे तो समर्थन होता नहीं। मूल कर्मशास्त्रमें तो मनुष्य पर्यायकी अपेक्षा यही कहा गया है कि अविरत सम्यग्दष्टिके औदारिक मिश्र काययोगमें स्त्रीवेद और नपुंसकवेद नहीं होता। चूर्णिकार और टीकाकारोंने अवश्य ही इसके विरुद्ध मार्ग निकालनेकी चेष्टा की है पर सवस्त्र मुक्तिके समर्थनमें स्त्रीमुक्तिकी सिद्धिके लिये ही की गई है। जबकि दोनों सम्प्रदायके ग्रन्थोंसे यह सिद्ध है कि कर्मभूमिकी महिलाओंके अन्तके तीन संहनन ही होते हैं, आदिके तीन संहनन होते ही नहीं। ऐसी अवस्थामें देवचर महाबलके जीवका सम्यग्दर्शन और तीर्थकर नामकर्म सहित महिलापर्यायमें उत्पन्न होना कैसे बन सकता है, अर्थात् नहीं बन सकता। दोनों सम्प्रदायोंकी अपेक्षा कर्मभूमिकी महिलाके अन्तके तीन संहनन ही होते हैं इसका पोषक वह बचन इस प्रकार है अंतिमतियसंहऽणस्सुदओ पुण कम्मभूमिमहिलाणं । आदिणतियसं हणणं णस्थित्ति जिणेहि णिढेिं ॥ Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६२ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ प्रवचनसारोद्धारमें कहा है अरहंत चक्कि केसव बल संभिन्नेय पुव्वा । गणधर पुलाय आहारंग च न दु भविय महिलाण ॥ -प्रवचनसारोद्धार ३ पत्र सं० ५।७।७-५ । अर्थात् महिलाओंको अरहंत पद, चक्री, नारायण, बलभद्र, सभिन्न श्रोता, चारणऋद्धि, पूर्वश्रुत, गणधर, पुलाक, आहारकके पद नहीं होते हैं। इस प्रमाणके आधारपर कहा जा सकता है कि जब महिलाओंके उपर्युक्त पद प्राप्त नहीं कर सकतीं तब तीर्थकर पद प्राप्तिकी कल्पना कैसे की जा सकती है। यह कल्पना तो काफी बादकी प्रतीत होती है। यद्यपि श्वेताम्बर परम्परामें उपसर्ग, गर्भहरण, स्त्रीका तीर्थकर होना आदि दस अच्छेरग (आश्चय) माने हैं, यथादस अच्छेरगा पण्णत्ता-उवसग्ग गब्भहरणं, इत्थीतित्थं "। -(स्थानांगसूत्र १०।१६०) पर इस आधारसे भी यह सिद्ध होता है कि उपर्युक्त कल्पना बाद की है, क्योंकि अंगोंकी रचना श्वेताम्बरोंने बादमें की है । इसका विशेष खुलासा लेखमें किया हो है । अब आगे समर्थ समाधान भाग २ में स्त्रीमुक्तिके समर्थनमें जो तर्क और प्रमाण उपस्थित किये गये हैं उनके आधारसे विचार करते हैं । उस पुस्तकके पृष्ठ ३२में लिखा है 'भरत और ऐरावत क्षेत्र सम्बन्धी अवसपिणी और उत्सपिणी कालके सुषम-सुषम, सुषम और सुषमदुषम आरेके दो भागोंके और अकर्मभमि क्षेत्रके सभी मनुष्य, मनुष्यनियोंके एक वज्र वृषभ नाराच संहनन ही जम्बूद्वीप प्रज्ञप्तिमें बतलाया है । इसी प्रकार जीवाभिगममें अन्तरद्वीपोंके विषय में भी बतलाया है।' सो जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति और जीवाभिगम सूत्रके उक्त कथनसे यदि उक्त पुस्तकका लेखक स्त्रीमुक्तिकी सिद्धि करना चाहे सो बनता नहीं, क्योंकि भरत और ऐरावत क्षेत्रके सषम-सुषम, सुषम और सुषम-द्र क्रमसे उत्तम भोगभूमि, मध्यप भोगभूमि और जघन्य भोगभूमि ही रहती है, इसलिये इससे यह कहाँ सिद्ध होता है कि उस कालके मनुष्य और मनुष्यिनियों के समान दुषम- सुषम, दुषम और दुषम-दुषम कालके मनुष्य और मनुष्यिनियोंमें भी केवल एक वज्रवृषभनाराच संहनन ही होता है। जब कि दुषम-सुषम कालमें नियमसे छहों संहनन होते हैं और मक्तिगमन भी इसी कालमें सम्भव है। यहाँ मनष्यिनियोंके जो छहों संहनन कहे हैं सो वे ऐसे द्रव्य पुरुषों के ही कहे हैं जिनके स्त्रीवेद नोकषायका उदय पाया जाता है। जो द्रव्यसे मनुष्यनियाँ होती है उनके मात्र अन्तके तीन संहनन ही होते हैं। इस विषयका पोषक प्रमाण हम पहले ही दे आये हैं । अत. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति और जीवाभिगम सूत्रसे तो ऐसी मष्यिनियोंके मुक्तिगमन सिद्ध होता नहीं। आगे उक्त पुस्तकके लेखकने जो यह लिखा है कि 'बिना सुने व सुनकर यावत् केवलज्ञान तक पैदा करनेवालोंका वर्णन भगवती श. ९ उ० ३१ में आया है। उसमेंसे सुनकर केवली होनेवालोंमें स्त्रीवेद भी आया है। उन सभीमें संहनन तो एक प्रथम ही बताया है। अर्थात् तीनों वदवाले चरमशरीरी वज्रऋषभनाराच संहननवाले ही होते हैं । अतः तीनों ही वेदोंमें यह संहनन कायम होता है।' यहाँ उक्त पुस्तकके लेखकने चरमशरीरी तोनों वेद बालोंका जो वज्रऋषभनाराचसंहनन लिखा है सो इसका निषेध कौन करता है। दिगम्बर परम्परा भी इसे स्वीकार करती है। प्रश्न यह नहीं है कि तीनों वेदोंवाले मोक्ष जाते हैं या नहीं। प्रश्न यह है कि तीनों वेदवाले जो मोक्ष जाते हैं सो यह कथन किस अपेक्षासे बनता है ? वेदनोकषायकी अपेक्षा या आंगोपांग नामकर्मकी अपेक्षा । वेदनोकषायकी अपेक्षा मानने में तो कोई आपत्ति है नहीं । आपत्ति आंगोपांग नाम कर्मकी उदयकी अपेक्षा मानने में है। जिस महिलाके योग्य आंगोपांग Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्य खण्ड : ५६३ नामकर्म या नपुंसक (हिजड़ा) के योग्य आंगोपांग नामकर्मका उदय है उस महिलाके योग्य और नपुंसक (हिजड़े) के उसके योग्य यदि आंगोपांग है सो वे तो मुक्तिगमनके योग्य होते नहीं, क्योंकि उन दोनोंके प्रथम संहनन न होकर अन्त में तीन संहननोंमेंसे कोई एक संहनन ही होता है ऐसा श्वेताम्बर आगम भी कहता है । अब रहा पुरुषके योग्य मेहन आदि आंगोपांग नामकर्मके उदयकी बात सो ऐसे मनुष्यके पुरुषवेद नोकषायके उदयसे पुरुषवेद भी बन जाता है और मेहन आदि आंगोपांग नामकर्मके उदयसे मेहन आदि पुरुष चिह्नोंके साथ प्रथम संहनन भी बन जाता है, अतः यदि ऐसा मनुष्य चरमशरीरी है तो वह उसी भवसे मुक्तिका अधिकारी होता है। यहाँ हम यह बात अवश्य लिखना चाहेंगे कि यदि श्वेताम्बर परम्परा नपुंसकवेदसे मुक्तिगमन मानता है और उसका वह परम्परा हिजड़ा अर्थ करती है तो वह उसे दीक्षाके योग्य क्यों नहीं स्वीकार करती ? जैसे वह परम्परा महिलाको मुक्ति गमनके योग्य मानकर भी उसे दीक्षाके योग्य भी मानती है वैसे नपुंसक अर्थात् हिजड़ेको उसे योग्य क्यों नहीं मानती। इससे तो यही सिद्ध होता है कि आगममें जो स्त्रीवेद और नपुंसकवेदसे मुक्तिगमनका उल्लेख मिलता है तो वह वेदनोकषायके उदयसे हुए स्त्रीवेद और नपुंसकवेदकी अपेक्षासे ही मिलता है, आंगोपांग नामकर्मके उदयसे हुए द्रव्य स्त्रीवेद और द्रव्य नपुंसकवेदकी अपेक्षासे नहीं। आगे आगममें जो यह लिखा है कि स्त्रीवेदमें आहारक काययोग और आहारकमिश्रकाययोग नहीं होते, क्योंकि आहारक समुद्घात चौदह पूर्वधारी जीवके ही होता है । परन्तु स्त्रीके चौदह पूर्वोका ज्ञान नहीं पाया जाता । क्यों नहीं पाया जाता इसके उत्तरमें उनका कहना है कि 'वे तुच्छ, गारवबहुल, चंचल इंद्रिय और बुद्धि से दुर्बल होती हैं, वे बहुत अध्ययन नहीं कर सकतीं । अतः उनके दृष्टिवाद अंगका ज्ञान नहीं पाया जाता।' सप्ततिका प्रकरण, पृ० २४२ । सो इसका समाधान यह है कि जब महिला दृष्टिवाद अंग नहीं पढ़ सकती तो वह मुक्ति लाभ करने के लिये पात्र कैसे हो जाती हैं, क्योंकि उसको पात्र होनेके लिये पूर्वविद् होना आवश्यक है। अतः यही मानना चाहिये कि भगवती सूत्रका उक्त कथन वेदनोकषायके उदयसे हुए भाववेदकी अपेक्षासे ही वहाँ किया गया है, द्रव्यवेदको अपेक्षा नहीं। आगे उक्त पुस्तकका लेखक लिखता है कि 'स्त्रीमुक्ति गमन तो सूत्रोंमें अनेक स्थानोंपर आया है। जैसे स्थानांग (मरुदेवी आदि) समवायांग, भगवती, ज्ञाता धर्मकथा और अन्नगड़ आदि सूत्रोंमें सभी तीर्थकरोंके शासनमें स्त्रियाँ मोक्ष जाती है। किसीके शासनमें ज्यादा और किसीके शासनमें कम। मल्लिनाथ और मरुदेवी भरत और ऐरावत क्षेत्रके १९वें तीर्थकर भी स्वयं स्त्री ही थे। अनुत्तर विमानमें जानेवाले जीवोंमें केवल वज्र ऋषभनाराच संहनन ही भगवती श० २४ उ०२४ में बताया है और पण्णवणा पद २३ उ० २ में स्त्री उत्कृष्ट (३३ सागरका) आयुबन्ध कर सकती है ऐसा बताया है। अतः स्त्रीमें वज्रऋषभनाराचसंहनन होना सिद्ध है। दूसरे कर्म ग्रन्थकी १८वीं गाथाकी टीका व अर्थमें प्रथम संहनन वाला ही क्षपकश्रेणी कर सकता है और प्रथमके तीन संहनन वाले उपशमश्रेणी कर सकते हैं ऐसा बताया है।' यह उक्त पुस्तकके लेखकने द्रव्य स्त्रीके मुक्तिसिद्धिको लक्ष्यमें रखकर लिखा है। किन्तु इस पूरे कथनपर दृष्टिपात करनेसे द्रव्य स्त्रीका मुक्ति जाना सिद्ध नहीं होता । यथा (१) यहाँ जिन स्थानांग, समवामांग, भगवती आदिका उल्लेख कर द्रव्य स्त्रीका मुक्तिगमन लेखकने लिखा है । यहाँ ऐसा समझना चाहिए कि पूर्वोको रचना अनादिसे सदा काल एकसी चली आ रही है, जब Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६४ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ कि ग्यारह अंगोंकी रचनामें प्रत्येक तीर्थकरके कालमें किसी हद तक परिवर्तन होता आया है । और कर्म शास्त्रका अन्तर्भाव ज्ञानप्रवाद पूर्व और कर्मप्रवाद पूर्वमें होता है, इसलिए कर्मशास्त्र में इस सम्बन्धमें जितना भी कथन किया गया है उससे अंगोंका कथन बाधित हो जाता है। अतः पुरानी वस्तुस्थिति यही समझनी चाहिये कि कर्मशास्त्र में स्त्रीमुक्ति और नपुंसक मुक्तिका जो विधान किया गया है वह भाव वेदकी अपेक्षासे ही किया गया है, द्रव्यवेदकी अपेक्षासे नहीं, क्योंकि चौदह गुणस्थान और चौदह मार्गणाओंकी प्ररूपणा जीवोंके भेद-प्रभेदों को दृष्टिमें रखकर ही की गई है, शरीरके आंगोपांगोंको ध्यान में रखकर नहीं । इसलिए वेद नोकषायोंके उदयसे हुए भाववेदोंको अर्थ आंगोपांग नामकर्मके उदयसे हुए द्रव्यवेद परक करना ठीक नहीं है ऐसा यहाँ समझना चाहिए । इस प्रकार अंगोंके आधारसे द्रव्यस्त्री और द्रव्य नपुंसकका मुक्ति गमन सिद्ध करना तो बनता नहीं । रही कर्मशास्त्र की बात सो कर्मशास्त्र के टीकाकारोंने आंगोपांग नामकर्मके उदयसे हुए द्रव्यस्त्री और द्रव्य नपुंसकके मुक्तिगमनका विधान भले ही किया हो, पर मूल कर्मशास्त्र से इसकी सिद्धि नहीं होती ऐसा यहाँ समझना चाहिये । श्वेताम्बरोंकी ओरसे द्रव्यस्त्रीके मुक्तिगमनके समर्थनमें सवस्त्र मुक्तिको सिद्ध करते हुए एक बात यह कही जाती है कि जैसे दिगम्बर परम्पराके मुनि (श्रमण) के पीछी, कमण्डलु और शास्त्र रखना स्वीकार किया गया है वैसे ही श्वेताम्बर परम्परा यदि इन तीनोंके अतिरिक्त श्रमणके आगमके अनुसार वस्त्र पात्र रखनेका और समर्थन करती हैं तो इससे श्रमणको स्वावलम्बी होना चाहिये ऐसा माननेमें कहाँ बाधा आती है ? यह श्वेताम्बर परम्पराका कथन है पर यहाँ देखना यह है कि जिस प्रकार दिगम्बर परम्पराके आगमने प्रयोजन विशेषको ध्यान में रखकर श्रमणको पीछी, कमण्डलु और शास्त्र रखनेकी अनुमति दी है वैसे श्वेताम्बर परम्परा किस प्रयोजनको ध्यान में रखकर वस्त्र पात्र रखनेकी स्वीकृति दी यह उसे बतलाना चाहिये । वह कहे कि लज्जा के निवारणके लिये श्रमण वस्त्र रखता है और आहार ग्रहण करनेके लिये वह पात्र रखता है । सो उसका यह कहना तो बनता नहीं, क्योंकि श्रमणको यदि स्त्री-पुरुषोंके मध्य नग्न रहनेमें लज्जा का अनुभव होता है तो वह श्रमण कहाँ रहा, वह तो गृहस्थ हो गया । इसी प्रकार यदि श्रमण अपने हाथोंको ही पात्र बनाकर आहार ग्रहण नहीं कर सकता, उसे इसके लिए पात्र रखना आवश्यक हो जाता है तो भी वह गृहस्थ हो जाता है । अतः ये दोनों पीछी, कमण्डलु और शास्त्र के समान संयम और ज्ञानाराधनाके अनिवार्य अंग नहीं है, अतः श्रमणके प्रयोजन विशेषको ध्यानमें रखकर इनका होना आवश्यक नहीं है ऐसा यहाँ समझना चाहिये । इस प्रकार इस पूरे विवेचनसे यही सिद्ध होता है कि महिलाका उसी पर्यायसे मुक्ति लाभ करना उनके आगमसे सिद्ध नहीं होता । यद्यपि यहाँ हमने इस विषयको संक्षिप्त करके लिखा है, पर यदि समय मिला और पूरा साहित्य सामने रहा तो कभी विषयको विस्तारसे लिखेंगे यह हमारा विचार है । Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. आज का प्रश्न २. श्री वीरस्वामीका जन्म और उनके कार्य ३. धवलादि ग्रंथोंके उद्धारका सत्प्रयत्न और उसमें बाधाएँ ४. भ० महावीर स्वामीकी जयंती मनाइये ५. फलटण बीसाबंड पंचोंके नाम पत्र ६. समाजका दुर्भाग्य ७. हरिजन मंदिर प्रवेश चर्चा ८. महावीर जन्मदिन ९. सम्प्रदाय जाति और प्रान्तवाद १०. सेवा व्रत ११. अहिंसाका प्रतीक रक्षाबन्धन १२. महावीर निर्वाण दिन : दीपावली १३. भावना और विवेक १४. दशधर्म १५. चरमशरीरी भ० बाहुबली १६. मेरे जन्मदाता वर्णीजी १७. मंगल स्वरूप गुरुजी पत्रकारिता एवं विविध Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आजका प्रश्न इस बीसवीं शताब्दीमें किसी भी देशमें जितनी अधिक उत्क्रांति दिखाई देती है संभव है इस उत्क्रांतिका इतना अधिक व्यापकरूप पहिले कभी भी नहीं हुआ होगा। यह ठीक है कि पहिले भी उत्क्रांतियाँ और संघर्ष होते थे परन्तु उन सबका उद्देश्य कुछ और ही था। एक काल ऐसा था जब एक जाति दूसरी जातिपर अपनी धार्मिक भावनाओं के प्रचार करनेके लिए अतिक्रमण करती थी । कहीं कहींपर इन अतिक्रमणोंका कारण साम्राज्यपिपासा भी रहा करती थी। यह सब होते हुए उनका परिणाम व्यापक और सुदूर प्रदेश तक नहीं होता था । परन्तु आजकी परिस्थिति कुछ निराली है। आजकी सभ्यताने हमें रेल, तार, हवाई जहाज आदि सब कुछ दिये, पहिलेकी दास्यपद्धतिमें कुछ परिवर्तन भी दिखाई देता है । प्रत्येक जाति और देश स्वतन्त्र होना चाहिए यह भावना भी जागृत हो उठी है। प्रयत्न भी उसी दिशामें चालू हैं । फिर भी जो देश जितना अधिक स्वतन्त्रताकी धडपड करता है वह उतना ही अधिक दास्यताके बन्धनोंमें बँधता जा रहा है । जो देश आज हमें स्वतन्त्र दिखाई देते हैं वे और कितने दिन अपनी स्वतंत्रताको स्थिर रख सकेंगे इसमें आज सन्देह उत्पन्न होने लगा है । वे बलाढ्य राष्ट्र जिनकी शक्तियाँ दूसरे देशोंके भवितव्यका भी निश्चय करती हैं यही खेल उनको और कबतक खेलनेके लिए मिल सकेगा इसमें आज सन्देह उत्पन्न होने लगा है । जहाँ देखो वहीं संशयका वातावरण फैला हुआ है। राज्यकारभारकी अन्तिम दुहेरी नीतिका सर्वत्र उपयोग होने लगा है । किसी भी राष्ट्रका दूसरे देशपर विश्वास नहीं रहा। एक दूसरे देशोंके परस्पर तह भी होते हैं परन्तु वे शान्तिके तह न होकर अपने चारों ओर फैले हुए दूषित वातावरणके विस्फोट मात्र हैं। परिणाम भी उनका जैसा होना चाहिये वह न होकर उलटा ही होता है। परस्पर विश्वास और प्रेमको उत्पन्न करनेके लिए यूरोपखंडमें राष्ट्रसंघ इस संस्थाका निर्माण हुआ। अमेरिकाको छोड़कर प्रायः सभी बलाढ्य देशोंने उसमें भाग लिया परंतु उससे रक्षाका प्रश्न हल न हो सका। एक दो जगह राष्ट्रसंघको सफलता नहीं मिली होगी यह बात नहीं परन्तु उसका कारण राष्ट्रसंघकी संघठित शक्ति नहीं कही जा सकती है । यदि सफलता राष्ट्रसंघकी संघठित शक्तिका परिणाम कहा जाये तो जापानके मंचूरिया और इटलीने अवसीनियाको अपने पोलादी पंजोंमें जकड़ते समय राष्ट्रसंघ कहाँ गया था। मजा तो यह है कि इटली अवसीनियोंके ऊपर ताण करते समय भी वह राष्ट्रसंघका सदस्य ही बना रहा। राष्ट्र संघ में इटलीकी सदस्यता नष्ट करनेकी भी सामर्थ्य उत्पन्न न हो सकी । आज स्पेनमें अंतःकलह होते हुए भी जर्मनी और इटली स्पष्ट रूपसे स्पेन सहकारके विरुद्ध सहायता पहुँचा रहा है फिर भी उन्हें तटस्थ कमेटीमें स्थान प्राप्त है। इसीसे पता चल जाता है कि आजकी राजनीति क्या है । आज प्रत्येक देश जो इतनी अधिक उलझनोंमें पड़ता जा रहा है इसका क्या कारण है । क्या सभी देशोंको केवल एक साम्राज्यकी ही इच्छा है या इस साम्राज्यकी वृद्धिमें उनका अंतस्थ कोई दूसरा हेतु है । जिन्होंने आजकी परिस्थितिका सूक्ष्मतासे अध्ययन किया होगा उन्हें यह समझने में कुछ भी देरी नहीं लगेगी कि इस समय तो कमसे कम कोई भी राष्ट्र साम्राज्य लिप्साकी अपेक्षा अपने देशके आर्थिक प्रश्नको हल करनेके लिए अधिक चिंतातुर है। साम्राज्य वृद्धि केवल वैभवके लिए न होकर अपने गरजोंके दूर करनेका वह एक साधन होकर बैठा है। अमुक देश कमजोर है, उसके ऊपर परचक्रका भय है, वह अपने पैरों खड़े होनेकी सामर्थ्य नहीं रखता है यह सब भूलभुलया है । सच पूछा जावे तो आजका झगड़ा पूँजीवाद Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६८ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ और लोकसत्ताका है अनेक देशोंकी सरकारोंने परिस्थिति ही ऐसी निर्माण कर रक्खी है जिससे उनका दूसरे अशक्त देशोंपर हमला किये बिना और उनको अपने काबूमें लाये बिना काम ही नहीं चलता है। यह स्थिति केवल प्रत्येक सरकारकी ही है यह बात नहीं किन्तु जितने भी पूंजीपति हैं वे भी उसी मार्गका अनुसरण कर रहे हैं। उत्पादनशक्ति मजदूरोंके हाथमें होते हुए भी सम्पत्तिके भोक्ता मात्र ये पूंजीपति है । कभी-कभी ये अपने इस दोषके छिपानेके लिए दानकी बड़ी-बड़ी रकमें भी निकालते हैं, फिर भी उनसे बहुजन समाजका जितना अधिक फायदा होना चाहिए वह कभी भी सम्भव नहीं है। परन्तु इस पद्धतिसे भी गरीबोंके कैवारी आपको कितने पूंजीपति मिलेंगे इसका यदि सरासर विचार किया जावे तो सौमेंसे एक इस श्रेणीमें आ सकेगा या नहीं इसमें भी संदेह है । एकको रहने के लिए सुन्दर मकान, आराम और सूख भोगनेके लिए दूसरी सामग्रियाँ, पहिननेके लिए रेशमी कपड़े और पर्यटनके लिए मोटर आदि साधन उपस्थित है तो दूसरेको अपना शरीर ढांकनेके लिए वस्त्रका एक टुकड़ा और पेट भर अन्न भी नहीं मिलता है । परन्तु इन सब साधनोंके उत्पादक कौन यदि यह प्रश्न किया जावे तो यह कोई भी कह सकता है कि इनके कर्ता वे जिन्हें अपना जीवन रोते हुए बिता देना पड़ता है। पूर्वऋषियोंने आमदनीका विभाग करते हुए उसका एक चतुर्थांश धर्ममें खर्च करनेके लिए कहा है । वह भी दिखाऊ न होकर जिससे अनन्त अनाथ प्राणियोंका उपकार हो ऐसे कामोंमें खर्च होना चाहिए । किसी भी रूपमें आज जो कुछ भी पूंजीपति धर्ममें खर्च कर रहे हैं वह अनेक मार्गोंसे संग्रह की हुई संपत्तिका शतांश । भी नहीं होगा यह उनकी आमदनी और खर्चके अनुपातसे सहज ही समझमें आ सकता है। बहुतसे तो ऐसे उदाहरण मिलेंगे कि धर्मादायके नामसे ये पूँजीपति गरीबोंसे एक एक पैसा इकट्ठा करते है । परन्तु वह उनके वैभव बढ़ानेमें सहायक होता है। या उस संग्रहकी हुई द्रव्यका वे अपने नामसे विनियोग करते हैं। बहुतसे भाई भी इस द्रव्यके द्वारा ही तीर्थाटन आदि करके पुण्य संचय करना चाहते हैं । यह दोष सबके लिये लागू है यह बात नहीं परन्तु अधिकांश आपको ऐसे उदाहरण मिलेंगे। इधर पसेकी कीमत बढ़ जानेके कारण गरीबोंको अपनी गरीबीका अधिक अनुभव होने लगा है। उन्हें अपनी प्रतिदिनकी साधारणसे साधारण आवश्यकताओंकी पूर्ति करना कठिन होता जाता है । जो माल गरीब तैयार करते थे। वह सब यंत्रोंसे तैयार होकर इन पूँजीपतियों के द्वारा विदेशोंसे लाकर बाजार भरे जाने लगे हैं। इसलिए आज गरीबोंको पूंजीपतियोंसे टक्कर लेनेकी आवश्यकता प्रतीत होने लगी है। एक दिन वह था कि मजूर स्वयं सब तरहकी आवश्यकताओंके अनुसार कच्चे और पक्के मालके उत्पादक थे और पूंजीपति उसका विनियोग करनेवाले थे अतएव मजूर और श्रीमंतोंमें एक दूसरेको गजरके अनुसार कार्यभाग होता था। प्रत्येकको दूसरेके अस्तित्वको आवश्यकता प्रतीत होती थी। परन्तु आजकी परिस्थितिमें श्रीमंत मजूरोंका वही काम यंत्रोंसे करने लगे । थोडं मजूरोंसे अधिक काम होने लगा। अतएव स्वभावतः विरुद्ध दो शक्तियाँ निर्माण होने लगी एक दूसरेको एक दूसरेसे टक्कर देनेकी आवश्यकता प्रतीत होने लगी। श्रीमतीका अर्थ शोषणका काम बराबर चालू है । इधर गरीब उसके लिये दिन दिन मुहताज होते जाते हैं। आज श्रीमंत मजरोंका महत्व भल गये । उन्हें मजूरों के स्थानमें पैसेका महत्व अधिक दिखने लगा। वे मनुष्यकी अपेक्षा पैसेकी अधिक कीमत करने लगे। प्रत्येक सरकार भो इन श्रीमंतके हाथकी कठपुतली होने के कारण उसे भी उन्हीं की चिंता है। इस तरह यदि Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : ५६९ विचार किया जावे तो यह बिल्कुल स्पष्ट है कि आजका प्रश्न दूसरा कुछ न होकर पेटका प्रश्न है। बहुतसे भाई धर्म कारण और समाज सुधारको आगे करते हैं परन्तु जिन्होंने सूक्ष्मतासे विचार किया होगा उन्हें यह बात स्वीकार करने में थोड़ा भी संकोच न होगा कि ये दोनों प्रश्न भी उन विचारे दीन दुबलोंसे कुछ भी सम्बन्ध नहीं रखते हैं। इन विषयोंका आजका वाद श्रीमंतोंसे या उनसे सम्बन्ध रखनेवाले कुछ शिक्षितोंसे ही सम्बन्ध रखता है । हमने धर्मकारण और समाजसुधारका कितना ही गहरा विचार क्यों न किया हो परन्तु इन प्रश्नोंका हल होना तब तक असंभव है जबतक कि बहुजन समाजका आर्थिक प्रश्न हल नहीं हो जाता है। कुछ भाई समाज सुधारका प्रयत्न करते हैं परन्तु उन्हें इस बातका थोड़ा भी पता नहीं है कि जबतक उनका कार्यक्रम बहुजन समाजके आर्थिक प्रश्नको हल करनेवाला नहीं होगा तब तक हमें किसी भी कार्यक्रममें सफलता नहीं मिल सकती है। माना कि आपने एक श्रीमंतको विवाहमें फिजूल खर्चीसे बचा दिया। अब आप देखेंगे कि उस श्रीमंतकी खर्चकी गरज कम हो गई। इससे उसके पास जो अधिक पूँजी शिल्लक रहेगी उससे उसे अर्थशोषणके लिये सहायता ही मिलेगी इससे बहुजन समाजका कौनसा फायदा हो सकेगा। इसके उत्तरमें एक मुद्दा उपस्थित किया जा सकता है कि श्रीमंतोंने इन सामाजिक कामोंमें फिजूल खर्जी बन्द कर दी तो गरीबोंको भी किसी हदतक उन सामाजिक कामोंमें कम खर्च करना पड़ेगा गरीबोंका यही सबसे बड़ा फायदा है परन्तु इस समय प्रश्न तो पेटका है, जिन्हें भरपूर पेटके लिये ही नहीं मिलता है । उनको तुम्हारे इन सामाजिक सुधारोंसे क्या फायदा। इन सुधारोंसे थोड़ा बहत यदि फायदा होगा तो केवल मध्यमवर्गका ही होगा । परन्तु आजकी परिस्थितिको लक्ष्यमें रखकर हमें सबसे पहिले उन गरीबोंका प्रश्न हल करना है जो आज दरदरके भिखारी बनते जा रहे हैं। दूसरे वर्तमानके कार्यक्रमसे श्रीमंतोंका वर्चस्व कमी नहीं होता है । आज जरूरत तो इस बातकी है कि सामाजिक रचना ही इस प्रकारकी हो जिसमें दूसरे प्रश्नोंको गौण करते हुए आथिक प्रश्नके हल करनेकी प्रधानता रक्खी जावे। हम यह जानते हैं कि बहुतसे भाई हमारे इस प्रश्नके उपस्थित करनेपर चिढ़ेंगे। वे कुछका कुछ अर्थ भी करने लगेंगे परन्तु उन्हें यह ध्यानमें रखना चाहिए कि इस पेटके प्रश्नको आज हम यदि सुलझाने का प्रयत्न नहीं करेंगे तो वह दिन बहुत दूर नहीं है जब कि हमें उसके हल करनेके लिये मजबूर होना पड़ेगा। हमारे शिक्षालयोंमें भी इस प्रकारकी शिक्षा नहीं दी जाती है कि जो आर्थिक प्रश्नके हल करनेमें समर्थ हो। इसीलिये शिक्षालयोंसे शिक्षित निकल कर भी वे सुख पूर्वक अपना जीवन व्यतीत करनेके लिये और अपनी शिक्षाका स्वतःके लिये तथा बहजन समाजके लिये उपयोग करनेके लिये असफल सिद्ध होते हैं। अशिक्षित गरीबोंका तो पूछना ही क्या है। इस तरह ऊपरके विवेचनसे यह भली भाँति सिद्ध हो जाता है कि आजका प्रश्न और सब प्रश्नोंकी अपेक्षा पेटका है। आज संपूर्ण समाजको एकचित्त होकर इसीके हल करनेके लिये ही प्रयत्न करना चाहिये । ७ Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीर स्वामीका जन्म और उनके कार्य एक समय वह था जब ब्राह्मण धर्मका बोलवाला था और राजे लोग उनके हाथकी कठपुतली थे । यह बात कुछ निरी गप्प नहीं है किन्तु इस बातकी पुष्टि उनके शास्त्रों और पुराणोंरो ही होती है । देखिये शूद्रोंके लिये मनुस्मृतिके आठवें अध्यायमें क्या लिखा है । एकजातिद्विजातोस्तु वाचा दारुणया क्षिपन् । जिव्हायाः प्राप्नुयाच्छेदं जगन्यप्रभवो हि सः ॥२७०।। नामजातिग्रहं त्वेषामभिद्रोहेण कुर्वतः । निक्षेप्योऽयोमयः शंकुवलन्नास्ये दशांगुलः ॥२७१॥ धर्मोपदेशं दर्पण विप्राणामस्य कुर्वतः । तप्तमासचेयेत्तैलं वक्त्रे श्रोत्रे च पार्थिवः ।।२७२।। अर्थ-यदि शूद्र ब्राह्मणोंका कठोर वचनोंके द्वारा तिरस्कार करे तो उसकी जिह्वा काट लेनी चाहिये क्योंकि वह शूद्र है । उसी प्रकार यदि वह ईर्षासे ब्राह्मणोंके नामादिका अनुकरण करे तो तपाई हुई दश अंगुल लम्बी सलाई उसके मुख में घुसेड़ देना चाहिए इतना ही क्यों यदि वह अभिमानसे ब्राह्मणोंको धर्मका उपदेश करे तो उसके मुख और कानोंमें तपाया हुआ तेल डालना चाहिये। पितरोंके सम्बन्धमें मनुस्मृतिके तीसरे अध्यायमें लिखा है। तिलैीहियैवर्मापरेद्धिर्मलफलेन वा दत्तेन मासं तृप्यंति विधिवत्परो नृणाम् ॥२६७।। भावार्थ-तिल आदिके देनेसे पितर लोक एक महीना संतुष्ट रहते हैं और मछलीके मांसका भोजन करानेसे दो महीना, हरिणके मांससे तीन महीना, भेड़के मांससे चार महीना, पक्षीके मांससे पांच महीना, बकराके मांससे छह महीना, कबूतरके मांससे सात महीना, विशेष हरिणके मांससे आठ महीना, रौरवके मांससे नव महीना, भैंसा और शुअरके मांससे दश महीना, खरगोश और कछवाके मांससे ग्यारह महीना, दुध आदि पक्वान्नसे बारह महीना तप्त रहते हैं यदि उन्हें सर्वदाके लिये तृप्त करना है तो लालरंगके मेढेका भोजन कराना चाहिये उसी प्रकार मधु आदि भी देना चाहिये । व्यभिचारके सम्बन्धमें दण्डविधान करते हये मनुस्मृतिकार आठवें अध्यायमें लिखते हैं । मौण्ड्यं प्राणांतिको दंडो ब्राह्मणस्य विधीयते । इतरेषां तु वर्णानां दंडःप्राणांतिको भवेत् ।।३७९।। शूद्रो गुप्तमगुप्तं वा द्वैजातं वर्णमावसन् । अगुप्तमंगसर्वस्वैगुप्तं सर्वेण हीयते ॥३७४।। अगुप्ते क्षत्रियावैश्ये शूद्रां वा ब्राह्मणो ब्रजन् । शताति पश्चादण्डयःस्यात्सहस्रं त्वन्त्यजस्त्रियम् ।। __ भावर्थ-यदि ब्राह्मणने व्यभिचार किया हो तो उसके शिरका मुंडन ही उसका प्रायश्चित है और यदि क्षत्रिय या वैश्य तथा शूद्रने व्यभिचार किया हो तो इसका प्रायश्चित इन्हें प्राणांत देना चाहिये । शूद्रने Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'चतुर्थ खण्ड : ५७१ यदि द्विजकी स्त्रीकेसाथ बुरा कर्म किया हो तो लिंगच्छेद, संपत्तिका हरण अथवा प्राणांत शासन करना चाहिये परन्तु यही काम ब्राह्मणने क्षत्रिय अथवा वैश्यस्त्री के साथ किया हो तो सो और शूद्रस्त्रीके साथ किया हो तो एक हजार रुपया दंड करके उसे छोड़ देना चाहिये । भोजनके सम्बन्ध में देखिये | अमृतं ब्राह्मणस्यान्नं क्षत्रियान्नं पयः स्मृतम् । वैश्यस्य चान्नमेवान्नं शूद्रान्न ं रुधिरं स्मृतम् । लघु अत्रिस्मृति ५ अ. अर्थ — ब्राह्मणों का भोजन अमृत, क्षत्रियोंका भोजन दूध, वैश्योंका भोजन सामान्य अन्न और शूद्रोंका भोजन रुधिर है । महंतताके सम्बन्धमें देखिये । देवाधीनं जगत्सर्वं मन्त्राधीनं हि देवतम् । ते मन्त्रा ब्राह्मणाधीना ब्राह्मणो मम दैवतम् । भाग० अर्थ - सम्पूर्ण संसार दैवके आधीन है, दैव मंत्रोंके आधीन है और मंत्र ब्राह्मणों के आधीन है अतएव ब्राह्मण ही मेरा देवता है । इत्यादि कहाँ तक लिखा जावे | सिंधुके पाठकोंको स्वतंत्र ही विषय पर रसास्वाद करनेको मिलेगा । यहाँ पर भगवान् महावीर स्वामी के समय की परिस्थितिका दिग्दर्शन करानेके लिये नमक मिर्च न मिलाकर सरल और सीधे शब्दोंमें उन्हीं के ग्रन्थोंका आधार लेकर लिख दिया गया है । इससे बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है कि भगवान् महावीर स्वामीके समय धर्मके नामपर क्या हो रहा था । भगवान् महावीर स्वामीको किन किन परिस्थितियोंसे झगड़ना पड़ा। यद्यपि ब्राह्मण धर्मसे टक्कर लेनेके लिये भगवान् महावीरको बौद्धोंकी थोड़ी बहुत सहायता अवश्य मिली होगी। परन्तु बौद्धोंके तात्त्विक विचार शिथिल और एकांकी होनेके कारण भगवान् महावीरको उनके विरोधमें भी खड़ा होना पड़ा। इस तरह भगवान् महावीरके सामने सामाजिक सुधार और सत्य तथा वैज्ञानिक ढंगसे धार्मिक मीमांसायें ये दो कार्य थे । उन्हें ब्राह्मण धर्मके विरुद्ध यह घोषणा करनी पड़ी कि समाज व्यवस्थाके लिए चार वर्ण होते हुये भी उनका सम्बन्ध गुणसे है कर्म से नहीं । समाज व्यवस्थाका भंग करनेवाले समान दण्डके भागी हैं । इसमें वर्ण भेदका कुछ भी सम्बन्ध नहीं । धर्म पालन करनेका सबको अधिकार है। तर्पण करनेसे पितर संतुष्ट नहीं होते हैं । यह ब्राह्मणोंका केवल अपनी उपजीविकाका साधन है । यज्ञमें पशुओंके होम करनेसे न तो वे पशु ही स्वर्ग जाते हैं और न करने करानेवाले । यह केवल ब्राह्मणी लीला है । अश्वमेध यज्ञमें यज्ञ करानेवालेकी स्त्रीको घोड़ाके साथ अनुचित सम्बन्ध कराना तो इस धर्मकी कालिमाको और ही स्पष्ट प्रगट कर देता है। गोरखपुर के राजाने यज्ञमें अपनी रानीको यह नीच कर्म करानेके लिए लगाया था जिससे वह विचारी उस वेदनाको सहन न कर सकने के कारण वहींपर तड़प-तड़प कर के मर गई थी । यज्ञमें घोड़ेके साथ अनुचित सम्बन्धका यजुर्वेद महीधर भाष्य के तेईसवें अध्यायमें स्पष्ट रूपसे वर्णन आया है । 'अश्वस्यातं हि शिश्नंतु पत्नीग्राह्यं प्रकीर्तितम्' सत्यार्थप्रकाश, मराठी भाषांत पृ० ४७३ । इसी प्रकार और बहुतसी रूढ़ियाँ धर्मके नामसे ब्राह्मणोंने प्रचलित कर रक्खी थीं उनके करने कराने में ही वे अपनी समस्त शक्तिका उपयोग करते थे । भगवान् महावीरसे यह सामाजिक अत्याचार सहन नहीं हुआ उन्हें स्पष्ट रूपसे इस अन्याय के विरुद्ध अपनी आत्मीक शक्तिका उपयोग करना पड़ा। लोग तो पहिलेसे ही त्रस्त थे । उन्हें योग्य ऐसे एक नेताकी आवश्यकता थी ही अतएव भगवान् महावीरके इस काममें प्रवृत्त होनेपर जनताने अति शीघ्र उनके उपदेशका अनुकरण किया। जहाँ तहाँ यज्ञ संस्थाएँ विध्वंसकी जाने लगीं । धर्मके Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७२ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ । विषय में सबको समान अधिकार दिये गये शूद्रोंको भी धर्म श्रवण करके आत्मकल्याण करनेका अधिकार दिया गया । स्त्रियाँ भी पुरुषोंके समान अपनी योग्यता के अनुसार धर्मके पालन करनेकी अधिकारिणी बनाई गयीं । दण्डविधान की अतिरेकताका स्पष्ट रूपसे निषेध किया गया तथा सबके साथ समान व्यवहार करनेकी आयोजना की गई । ब्राह्मणोंके द्वारा स्वर्ग और मोक्ष प्राप्तिके कृत्रिम मार्गका निषेध करके उसके स्थान में सच्चे मोक्षमार्गमें जनताको प्रोत्साहित किया गया । बुद्धदेव अपने जीवनकालमें कट्टर सुधारणाप्रिय होते हुए भी स्वर्ग और मोक्ष के विषय में वे मुग्ध थे । या तो वे स्वयं ही इस विषयका निर्णय नहीं कर सके होंगे अथवा इधर उनका ध्यान ही नहीं गया होगा । परन्तु भगवान् महावीरकी यह स्थिति नहीं थी । वे बाह्य सुधारणाके साथ आभ्यंतर सुधारणाके कट्टर पुरस्कर्ता थे इतना ही क्यों अपने कार्यकालके पहिले उन्होंने स्वयं खंडतर तपश्चर्या और मनोनिग्रहके द्वारा आत्मशुद्धि करली थी । वे पूर्णत्वावस्थाको प्राप्त होकर विकारीभावोंके परे थे । अब उनके सामने एकही कार्य था और वह यह कि इन गरीब प्राणियों का उद्धार केवल बाह्य परिस्थितिके बदलने से न होकर उनके भावों में भी परिवर्तन करनेसे होगा । उनके जीवनचरित्रके बाँच लेनेसे इन बातोंका बिल्कुल स्पष्ट खुलासा हो जाता है । उनके अनुयायी हम और आपने उनकी जयंतीका उत्सव किया ही है । यह आनन्दकी बात है । इससे यह पता लग जाता है कि उनके कार्य मान्य हैं, उनमें हमारी श्रद्धा है । परन्तु आजकी परिस्थिति हमें बाध्य करती है कि हम इससे कुछ आगे बढ़कर कार्य करें इसके लिये हमें परस्पर के विद्रोहको तो भूलना ही होगा साथ ही हममें जो अनुचित प्रवृत्तियाँ प्रवृत्त हो गई हैं उनको भी निकालकर दूर करना होगा । हमारे मन्दिर जैनमात्रोंके लिये खुले नहीं हैं ! हम उसमें दसा - वीसाका प्रश्न उपस्थित करते हैं । दण्डविधानका यह दुरुपयोग और कब तक चालू रहेगा किसे मालूम । खुशीकी बात है कि दक्षिण प्रांत में यह दोष देखने को नहीं मिलता है । यहाँपर सभी जैनीदेव दर्शन आनन्दसे कर सकते हैं । अष्ट द्रव्यसे पूजा करनेका अधिकार भी सबको है । इतना ही क्यों बहुतसे अजैन भाई भी आकर देव दर्शन करते हैं । परन्तु उन्हें किसी प्रकारकी रुकावट नहीं की जाती । बहुत से स्थानों पर कुछ भाइयोंको देवदर्शन करनेकी आज्ञा दे दी जाती है इससे यह तो स्पष्ट सिद्ध होता है कि आज्ञाका न देना शास्त्र विरुद्ध है । तभी तो आज्ञा देनेवाले भाइयोंको शास्त्रीय मार्गका अनुकरण करनेके लिये बाध्य होना पड़ता है । जो पाप होता है वह विहित कोटिमें कमी भी नहीं आ सकता है, परन्तु यहाँ यह बात नहीं है अतएव इसीसे इस बातका निश्चय हो जाता है कि उत्तर प्रान्तके जैनियोंने इस अनुचित मार्गका स्वीकार कुछ ही समयसे किया है । आशा है इस दोषको उत्तर प्रांतीय भाई निकालनेका प्रयत्न करेंगे । और भी बहुतसी बातें लिखी जा सकती हैं जो धर्म न होकर धर्मके नामपर जिनका प्रचार चालू है । हम अपने भाइयोंसे प्रार्थना करते हैं कि आगे वर्ष वीर जयंती आनेतक वे उनको निकालकर विरोचित कार्योंसे वीर जयन्तीका उत्सव मनावेंगे । Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धवलादि ग्रन्थोंके उद्धारका सत्प्रयत्न और उसमें बाधायें जबकि इस बीसवीं शताब्दीमें प्रत्येक समाज और जातिका लक्ष्य अपने धर्म और समाजके प्राचीन वैभवकी समग्र कथाको बहुजन समाजके समक्ष रखकर उसको प्रकाशमें लानेका है ऐसी हालत में हमारी जैन समाजका इधर संगठित प्रयत्नका न होना यह दुर्भाग्यकी बात नहीं तो और क्या है ? फिर भी कुछ धर्मात्मा इस ओर यदि प्रयत्न भी करते हैं तो उनको समाज और पंचायतोंकी जितनी सहायता मिलनी चाहिये वह न मिलकर बाधायें ही उत्पन्न की जाती हैं । अभी हाल श्रीमान् धर्मवीर, दानवीर, जिनवाणी भूषण सेठ रावजी सखाराम दोशी सोलापुर वालोंके साथ मूलविद्रीकी पंचायत और भट्टारकने इस सम्बन्धमें जो अयोग्य व्यवहार किया वह निन्दाके योग्य ही है । समाजको यह विदित हैं कि मूलविद्रीके भंडार में धवलादि ग्रन्थ विद्यमान हैं । मूलविद्रीकी पंचायत उनकी मालिक न होकर रक्षक है परन्तु आज वही पंचायत उनकी रक्षक न होकर भक्षक बन रही है । वहाँ पंच और भट्टारकने समस्त जैन समाज के प्रतिनिधि स्वरूप श्रीमान् उक्त सेठजी सा० के साथ जो व्यवहार किया है इससे यह बात बिल्कुल स्पष्ट हो जाती है । धर्मस्थलके श्रीमान् सेठ मजय्या हेगड़ेका व्यवहार तो और भी चमत्कारपूर्ण दिखाई दिया । आप जैसे शिक्षित प्रतिष्ठित पुरुषने तो इस कामका मुखियापन ग्रहण करके धवलादि ग्रन्थोंके प्रकाशमें लानेका श्रेय संपादन करना चाहिये था । परन्तु दूसरे लोगोंका बहाना लेकर आप जैसे प्रसिद्ध पुरुष श्रीमान् सेठजी सा०के साथ धर्मका सौदा करने लगे इसे क्या कहा जावे । भट्टारकका व्यवहार तो और भी निन्दा योग्य है । जिसका एक बार भी श्री सेठ रावजी सखाराम दोशीके साथ परिचय हुआ होगा वह भी उनकी नम्रता निगर्वता और सहानुभूति आदि गुणोंको देखकर उनका – श्रद्धालु बने बिना नहीं रहेगा । परन्तु मूल विद्रीके भट्टारकको अपने भोजन के आगे सेठजी सा०से महत्वपूर्ण विषयमें बातचीत करनेका भी अवसर प्राप्त न हो सका यह सेठजी सा० का अपमान न होकर सारी जैन समाजका अपमान समझना चाहिये । यह निश्चित है कि मूलविद्रीकी पंचायत और भट्टारकने आज कितनी ही अरेरावीका व्यवहार किया तो भी उसका आज कोई भी समर्थक न होकर निन्दा ही करेगा । हम तो आशा करते हैं कि अब भी समय है कि मूलविद्रीकी पंचायत, श्रीमान् सेठ भज्जय्या हेगड़े और भट्टारकको सारासारका विचार करके धवलादि ग्रन्थोंके प्रकाशमें लानेका श्रेय संपादन करना चाहिये । धर्मात्मा पुरुष यदि धर्मका सौदा करने लगे तो फिर धर्मको आश्रय मिलना ही कठिन हो जावेगा । Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीर स्वामोकी जयंती मनाइये भगवान् महावीरके कार्य अपूर्व थे यह उनके लोकोत्तर चारित्रके बांच लेनेसे ही मालूम पड़ जाता है । वे संसारके लिये एक अपूर्व और सर्वश्रेष्ठ देनगी थे यह उस समयके महापुरुषोंने भी कबूल किया है। उनका जीवन सामाजिक और धार्मिक उत्क्रांतिसे भरा हुआ था, उन्होंने धर्म और समाजका पाया तर्कशुद्ध और बहुजन समाजके लिये कल्याणकारी नियमोंके आधारसे किया था। इस अवसर्पिणीकालमें भगवान् महावीर स्वामीके समान २३ और महापुरुष हो गये है। उनके और इनके धार्मिक और सामाजिक नियमोंमें यद्यपि अन्तर नहीं है फिर भी वे एक दूसरेके अनुकर्ता न होकर उन नियमों और सिद्धान्तोंके पुरस्कर्ता थे। उनके जीवनमें एक विशेषता थी जो दूसरेके जीवनमें मिलना संभव नहीं। उनका बताया हुआ मार्ग इस पर्यायमें तो सुखदाई है ही किन्तु उससे पारलौकिक और अविनाशिक सुखकी भी प्राप्ति होती है। ऐसे लोकोत्तर महापुरुषका किसी निमित्तसे स्मरण करना हमारे जीवनमें स्फूर्ति और पवित्रता उत्पन्न करनेवाला है । आजसे २५३५ वर्ष पहिले मिती चैत्र शुक्ला १३ के दिन भगवान् महावीरने जनकल्याण और आत्मकल्याणकी भावना लेकर इस भूमंडलको सुशोभित किया था। ऐसे पुनीत अवसर पर उस दिव्यमूर्तिका स्मरण करना संसारके प्रत्येक व्यक्तिका काम है। परन्तु दुःख है कि उनकी इस पुण्यतिथिका महत्व उनके उपदेशके अनुयायी जैन लोग भी नहीं समझते हैं । यद्यपि यह ठीक है कि भगवान् महावीर स्वामीका उपदेश किसी संप्रदाय विशेषकी पुष्टिके लिये नहीं हुआ और आज भी उनके उपदेशका वह पवित्र उद्देश्य अनविच्छिन्नरूपसे विद्यमान है। फिर भी वह संसार अनेक धर्मोकी बजबजपुरी बन गया है इसलिये साम्प्रदायिकता उत्पन्न होना स्वाभाविक बात है। लोग धर्मके महत्वको भलकर सम्प्रदायके पीछे दौड़ने लगे हैं। उन कट्टर धर्मात्माओंमें भी साम्प्रदायिकताका विकारी विष आपको देखनेके लिये मिलेगा । जिससे धर्मका जनकल्याण यह वाणी प्रायः लुप्त होता जाता है। भगवान् महावीर जैन लोकोपकारी महापुरुषके नाम लेनेमें भी दूसरे लोग अपना अहित समझते है । यदि जैनी भाई अपने स्वार्थत्याग और धर्म की सच्ची भावनासे प्रेरित होकर साम्प्रदायिकतासे परे भगवान् महावीरका उपदेश संसारके कोने-कोने तक पहुँचा सके तो यह सच्चे धर्मको विजय होगी। इसके लिये जैनी भाइयोंको क्या करना चाहिये इसके लिये नीचे कुछ मार्ग सुझाये जाते है। १. महावीर जयंतीके दिन व्यापार सम्बन्धी काम बन्द करके सार्वजनिक सभायें करनी चाहिये । २. जहाँ तक सम्भव हो ऐसी सभाओंके सभापति अजैन विद्वानोंको बनाना चाहिये । ३. जो अजैन विद्वान् सभापतिका पद स्वीकार करनेके लिये स्वीकारता दे दे उनके पास जैन धर्मके मल तत्वोंको परिचय करनेवाली पुस्तकें पहिले ही भेज देनी चाहिये जहाँपर ऐसी पुस्तकें उपलब्ध न हों वहाँ पर अहिंसा कर्म सिद्धांत और स्याद्वाद इत्यादि विषयोंका संक्षिप्तसार किसी योग्य विद्वानसे लिखवा कर उनके पास भेज देना चाहिये जिससे उक्त विद्वानोंको जैन सिद्धान्तके सम्बन्धमें मनन करनेके लिये मदद मिलेगी। ४. महावीर जयंती निमित्तमें सार्वजनिक छुट्टीका प्रयत्न भी ऐसी सभाओंके द्वारा करना चाहिये तथा सुसंगठित मध्यवर्ती सभाओंके द्वारा इसकी सूचना सरकारको देनेकी व्यवस्था करनी चाहिये। ऐसे समाचार धार्मिक और सार्वजनिक पत्रोंमें अवश्य प्रकाशित करना चाहिये । Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थखण्ड : ५७५ ५. आजकल जैन समाज में वर्तमान पत्र बाचनेकी बहुत ही कम रुचि देखी जाती है । परन्तु समाजको यह बात ध्यान में रखनी चाहिये कि आजके जमानेकी सम्पूर्ण हालचाल इन वर्तमान पत्रोंके द्वारा ही विदित होती है । जैनसमाज उनका ग्राहक होकर वर्तमान पत्रोंके प्रचारमें जितनी अधिक मदद करेगी, कलाकी दृष्टि से वे उतने ही आगे आ सकेंगे । अतएव समाजका काम है कि उसे ऐसी सभाओंके द्वारा जैनपत्रोंके प्रचारका काम अपने हाथमें अवश्य लेना चाहिये । जैनसमाजमें उत्तम लेखक, कवि और पत्रोंके अभावका दोष पत्रसंचालकोंकी अपेक्षा समाजके ऊपर अधिक है । समाजका पैसा जितना अधिक दूसरे कामोंमें खर्च होता है उतना अधिक विधेय कामों में खर्च नहीं होता है । क्या समाज इन वीरजयंती के अवसरपर वीर भगवान्‌के संपदेशको संसारमें प्रसृत करनेवाले इन पत्रों के प्रसारकी कोई ठोस योजनाका विचार करेगी । ६. वीर भगवान्‌का उपदेश संगठन और सहिष्णुताका पाठ पढ़ाता है । समाजने वीर भगवान् के दिव्य उपदेशका स्मरण करके आपसी वैमनस्य भुलानेका ऐसी सभाओं द्वारा अवश्य ही प्रयत्न करना चाहिये । यही वे मार्ग हैं जिनके द्वारा हम वीर भगवान्‌ के सच्चे अनुयायी होनेका हक अपने में प्रत्थापित करके उनकी जयंती के सच्चे माननेवाले हो सकते हैं । কক ক Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फलटणके बीसा हुंबड पंचोंके नाम पत्र श्री धर्मपरायण, वात्सल्यगुणधारक सर्वोपमालायक सकल सुखदायक बीसा हुंबड पंच फलटण सेठ हीरालाल मोतीलाल गांधीकी सेवामें पं० फूलचंद दरयावलाल शास्त्रीका सविनय जयजिनेंद्र | सत्य और अहिंसा ये दोनों जैन धर्मके प्राण हैं, इस तत्व को सामने रखकर जब विचार किया जाता है। तो यह लिखने में थोड़ा भी संकोच नहीं होता है कि जैन समाज अपने इन प्राणोंको खो बैठा है । किसी भी गाँवको लीजिये वहाँपर आपका विद्वेष और परस्परके कलहकी भावना ही जागृत दिखाई देगी । ऐसा क्यों होता है इसके कारणोंका योग्य विचार किया जावे तो कितनी ही ऐसी बातें बताई जा सकती हैं । जिनका स्वरूप अत्यंत विकृत है । यहाँपर मेरा उन सब कारणोंके दिग्दर्शन करानेका प्रयोजन नहीं है । आपकी सेवामें जिसलिये यह पत्र लिख रहा हूँ विश्वास है आप अब भी इसका सदुपयोग करेंगे । मैं कोई उपदेष्टा अथवा धर्माधिकारी नहीं हूँ किन्तु आपका एक तुच्छ सेवक हूँ बस इसी भावनाको लेकर मैं आपके हृदयका परिवर्तन करना चाहता हूँ । अपनी समाजने अनन्त दोष किये जिनके परिणामस्वरूप जैन समाज सतत नीच नीचे जा रही है । क्या इस लोकशाही के जमाने में भी वह अपनी इस भूलकी ओर दुर्लक्ष्य करके अपने निद्य पूर्व पदपर ही खड़ी रहेगी । समाज कल्याण के लिये नियम या बन्धन होते हैं, उनके लिये समाज नहीं होती है, यह बात अब भी यदि समाजके नेता समझ लें तो अब भी शांतिका साम्राज्य दूर नहीं है, ऐसी मेरी धारणा है । जिनको अधर्मी समझा जाता है उन समाजोंके कुछ उदाहरण यदि अपने सामने रक्खे जावें तो अब भी आँखें खुल सकती हैं । ऐसे उदाहरणोंमें पारसी बोहरा आदि जातियों के संगठनों के नियम समझने के लिये पर्याप्त हैं । इन सब बातों से मैं आपके सामने यही निवेदन करना चाहता हूँ कि आप स्वयं अन्तरदृष्टि होकर विचार करें तो आपको अपनी अक्षम्य भुल उसी समय समझमें आ जावेगी। हो सकता है कि आप मेरे इस निवेदनको तुच्छताकी नजर से देखेंगे परन्तु विश्वास रखिये कि इससे आपको ही और अधिक अड़चन में पड़ना होगा । संगठन रखिये परन्तु संगठनका दुरुपयोग आपकी शक्तिको नष्ट भ्रष्ट कर रहा है इस ओर तो आपकी दृष्टि नहीं जाती है । मेरी समझसे तो आपकी समाजमें इतना साहस होना चाहिये कि जिन नियमोंके आग्रहसे समाजमें फूटका विष बोया जाता हो उन नियमोंको ही आप उदार अंतःकरणसे तिलांजलि देकर सबके सब संगठित होकर एक भूमिका पर खड़े हो जावें । और कितने दिन आप इस तरह अपनी समाजमें यह विरोधाग्नि देखते रहेंगे । एकबार आप अपने शासनके दुरुपयोगको भूलनेका प्रयत्न कीजिये कि आपको आपकी समाजके संगठनके अनन्त मार्ग दिखाई देंगे । Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थखण्ड : ५७७ फलटन यह बीसा हुंबड समाजका केन्द्र समझा जाता है ऐसा होते हुये भी यदि आप अपने इस महत्वके स्थानको नहीं समझते हैं तो यह आपकी समाजका दुर्दैव ही कहना चाहिये । आपकी समाजमें फूट के कारण हो सकते हैं परन्तु वे इतने महत्वके नहीं कि जिनके पीछे आपको सर्वदाके लिये चिकट कर रहना ही चाहिये । यदि आप संख्या और बलमें अधिक हैं तो केवल इसको ही अपनी विजयका कारण बनाना बड़ी भारी भूल है ऐसा मेरा विश्वास । अपने विरोधीको उचित मार्गका विचार करके शांतिके मार्गका अन्वेषण करना आपका ही काम है। इसका उत्तरदायित्व विरोधी पक्षपर न होकर आपकी समाज पर ही है । मैं उत्सुकतापूर्वक उत्तरकी प्रतीक्षामें हूँ कि आप मेरे इस पत्रका किस दृष्टिसे स्वागत करते हैं । यदि आप पिछली सब बातोंको भूलकर एक सूत्रीपनाके मार्गपर चलते हुए दिखाई देंगे तो मेरा मस्तक विनयसे आपकी समाजके चरणोंमें नम्र हुये बिना नहीं रहेगा । ( २ ) श्री वात्सल्य गुणधारक धर्मपरायण सर्वोपमालायक श्रेष्ठिगुणविभूषित श्रेष्ठिवर्यं वीसाहुमड पंच शेठ गांधी रामचंद लक्ष्मीचंद तर्फे वहिवाटदार हीराचंद गांधी यांसी नातेपुतेहून पं० फूलचंद दरयावल शास्त्री यांचा सविनय जुहार. आपका पत्र मिला उसको बांचकर चातकको जैसे वर्षात के पानीसे और मयूरको मेघगर्जनासे आनंद होता है इतना आनंद हुआ। आपने मेरे लिये अनेक विशेषण लगा गौरवान्वित किया है इस सम्बन्धमें मुझे केवल इतना ही निवेदन करना है कि मैं आपका और आपकी समाजका एक तुच्छ सेवक हूँ । सेवाभाव के सिवाय और मेरे पास कुछ भी गुण नहीं है । आपने पिछली सब बातोंके बिसरनेके वावत लिखा यह जानकर मुझे और भी अधिक आनन्द हुआ । इससे आपकी समाज अपने पूर्वपदपर आरही है ऐसा मुझे विश्वास होने लगा है । फिर भी एक नम्र प्रार्थना और है । वह यह कि इतना सब कुछ होते हुए भी एकी क्यों नहीं होती हैं इसके कारणका भी आप और आपकी समाज पता लगा लेगी । समाजरूपी शरीरके किसी एक अंगमें दोष उत्पन्न हो जानेपर विचारपूर्वक उसका परिहार करना विवेकियोंका कर्तव्य है । हो सके तो इस विषयमें आप पत्र द्वारा खुलासा करेंगे । मेरे आने वावत आपने लिखा सो ठीक है दहिगांवका रथोत्सव हो जानेपर मैं अपने आनेकी सूचना दूँगा । परन्तु इसके साथ थोड़ी बहुत मेरी विनयसहित प्रार्थनाके सुननेकी जबाबदारी आपके और आपकी समाजके ऊपर पहुँच जाती है । मुझे विश्वास है कि आपकी धार्मिक समाज मेरी इस नम्र प्रार्थनाको ध्यान में रक्खेगी । मेरी ओरसे कृपया अपनी समाजके सभी बाल वृद्ध और तरुण मंडलीको नमस्कार कहिये और उनका चित्त 'धर्मीसौं गौवच्छ प्रीत समकर निजधर्म दिपावे' इस ओर आकर्षित करिये। मुझे भरोसा है कि वे इस तत्व के लिये सब कुछ सहन करनेके लिये तैयार होंगे । जिस प्रकार एक पत्र सेठ उसी प्रकार एक पत्र सेठ वीरचन्द ७२ ( ३ ) हीरालाल मोतीचन्द गांधी तर्फे बीसा हुंबड पंच को दरजी गांधी तर्फे वीसा हुँबड पंच फलटण के पंडित फूलचन्द्र शास्त्री फलटणके नामसे दिया था नामसे भी दिया था । इन Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७८ : सिद्धान्ताचार्य पं० फलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ दोनों पत्रोंमें विशेष कुछ अन्तर नहीं था। थी-डेसे अन्तरको छोड़ कर दोनों पत्र समान थे । इसलिये यहाँ पर इस पत्रको छापनेकी विशेष आवश्यकता प्रतीत नहीं होती है। इस पत्रके उत्तरमें सेठ वीरचन्द कोदरजी गांधीका जो पत्र आया था वह खाली दिया जाता है। श्रीमान् धर्मप्रेमी पं० फूलचन्द दरयावलाल शास्त्री नातेपुते यांसी फलटनहन वीसा हुँबड पंच सेठ पानाचन्द जयचन्द तर्फे गांधी वीरचन्द कोदरजी यांचा सविनय जयजिनेन्द्र वि०वि० आपले ता० १५-११-३७ चे पत्र मिळाले वाचून आनन्द झाला । आपण हाती घेतलेले काम महत्त्वाचे आहे । आपले काभांत यश येवो अशी धी जिनेन्द्र भगवंताचरणी आमची प्रार्थना आहे। येऊन प्रयत्न करावें । न्याय आणि उचित कोणतीही गोष्ट आम्ही ऐकण्यास केव्हाही तयार आहोत । यावें । कळावे । मिती कार्तिक वद्य १३ सं० १९९४ । आपला सेठ पानाचन्द जयचन्द तर्फे वीरचंद कोदरजी गांधी इस तरह दोनों बाजूके पंचोंके साथ पत्र व्यवहार हो जानेपर मैं फलटण गया था । पहिली बार इस एकीके सम्बन्धमें मुझे आठ दिन रहना पड़ा था। बीचमें श्रीमान् सेठ हीरालाल मोतीचन्दजी गांधीका काम सोलापुर होने के कारण अधिक दिन रहना पड़ा। सेठ जीके सोलापुरसे आनेपर श्रीमान् सेठ रामचन्द धनजी दावडा नातेपुते इनके यहाँ चि. सौ० जयावतीका लग्नसमारम्भ होने के कारण यह विषय बीच में ही स्थगित करना पड़ा। लग्नसमारम्भ हो जानेपर दोनों बाजूके पंचोंके आमन्त्रण होनेसे पुन मैं फलटन गया । अबकी बार सफलता मिली जिसका खुलासा मैं पिछले अंकमें दे चुका है। आशा है फलटनकी धार्मिक समाज अपने कर्तव्यको समझकर आगे प्रेमभावसे रहनेका प्रयत्न करेगी। यदि समाजमें प्रेम न हआ तो नियमों में क्या रक्खा है। संगठनके लिये नियम होते हैं। उसी प्रकार प्राचीन नियमोंमें समयके अनुसार बदल भी करनी पड़ती है इन सब बातोंको लक्ष्यमें रखकर फलटणके पंच परस्पर एक दूसरे हितकी बात सुननेमें संकोच नहीं करेंगे और प्रेमसे दूसरोंके लिये संगठनका पाठ देनेके योग्य बननेका प्रयत्न करेंगे। मेरा तो यह निश्चय है ही कि जब तक यह एकीका पौधा दृढ़ नहीं हुआ है तब उसकी मैं सेवा करूंगा। पं० फूलचंद दरयावलाल शास्त्री 1000000 COMMARADIO OCRABADDITO Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाजका दुर्भाग्य समाजकी सामयिक परिस्थितियोंको देखकर सोचा गया था कि जातीय या उपजातीय सभायें समाजको अवनति दशासे ऊपर उठा देंगी । इसी आधारपर इन सभाओं का निर्माण हुआ था । कौन जानता था, कि अभी समाजके फूटे भाग्यमें उन्नतिमय जीवन बिताना बदा ही नहीं है अभी भी समाज अवनति गर्तकी अन्तिम तहतक नहीं पहुँची है, समाजकी वर्तमान रोमांचकारी दशा ही अवनतिका अन्तिम स्थान नहीं है इससे भी भयानक दुरवस्था जो हमारी कल्पना के परेकी वस्तु हो सकती है— को समाजके लिये जाना भी शेष है । यही बात है, कि ये सभायें कलहके दलदल में फँसकर समाजके लिये केवल भार स्वरूप बन रही हैं जिससे समाजोन्नतिको उत्कृष्ट चाह रखने वालोंको समाजकी चिन्ता तो दूर रही, केवल सभाओके उत्थानकी चिन्ताने ही घेर लिया है । शान्तिप्रिय लोगोंके हृदय में तो आज यही भावना पैदा होने लगी है कि इन सभाओंका जीवन ही जल्दीसे जल्दी निःशेष हो जाय तो समाजको चैन मिल सकती है । अभी-अभी लूणियाबासमें खंडेलवाल महासभाका जो अधिवेशन होने जा रहा था उसके जो समाचार सुनने में आये हैं इसी प्रकारके और भी समाचार जो आये दिन सुनने व देखने में आते रहते हैं उनसे यदि उल्लिखित विचार सर्व साधारणमें पैदा होने लग जाँय तो इसमें आश्चर्य की बात ही क्या है । खंडेलवाल जाति दि० जैनोंमें प्रमुख जाति है दि० जैन समाज उसके धनबल और जनबलपर जितना गर्व करे उतना थोड़ा होगा, ऐसी जाति में यदि कलहके अंकुर पैदा हो जायँ, इतना ही नहीं, कलहाग्नि अपना उग्र रूप धारण करके अपनी लपटोंसे समस्त जातिको भस्मसात् करनेके लिये तैयार हो और जिसका दुष्परिणाम समस्त समाजको अत्यन्त शोचनीय स्थितिको पहुँचाने वाला हो, तो समाजका कौन विवेकशील व्यक्ति इसकी कल्पनासे भयभीत न होगा, तथा कौन सहृदय दि० जैन समाजकी इस दयनीय स्थिति पर दो आँसू नहीं गिरायेगा । 'इस अधिवेशनमें लोहडसाजन आदिके प्रश्नको लेकर मार पीट हुई और यहाँ तक गड़बड़ी पैदा हुई, कि राज्यके अधिकारी वर्गको इस परिस्थितिका सामना करना पड़ा और उससे भी जब परिस्थिति नहीं सम्हली तो अधिवेशनको ही स्थगित कर देना पड़ा । इन समाचारोंमें रंचमात्र भी सन्देह नहीं मालम पड़ता है । यद्यपि संवाददाता लोग विरले ही ऐसे होंगे जो अपने अधिकार पूर्ण महत्त्वको समझते हुए समाचारोंका अतिशयोक्तिपूर्ण एकपक्षीय चित्रण न करके संवादोंमें केवल घटित घटनाओंका ही उल्लेख करें, इसलिये "अमुक पक्षने अमुक प्रकारकी त्रुटिकी आदि, इन समाचारोंके विवादमें न पड़ करके समाजके प्रमुख व्यक्तियोंके सामने हम केवल इस बातको रख देना चाहते हैं कि (१) ऐसा होता क्यों है ? (२) क्या हमको ऐसा करना शोभा देता है ? (३) यदि नहीं तो फिर हमारा कर्तव्य क्या है ? इन प्रश्नोंपर वे गम्भीरतासे मंथन करें । Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८० : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थं यद्यपि ये प्रश्न जटिल नहीं थे, परन्तु हम लोगोंने अपने स्वार्थ वासनापूर्ण कार्योंसे इनको जटिल बना दिया है और केवल अपने सामने ही नहीं सारे समाजके सामने जीवन मरनकी समस्या उपस्थित कर दी है। इन प्रश्नोंके विषयमें प्रकाश डालना इन थोड़ी सी पंक्तियों में हम अशक्य समझते हैं इसलिये इन प्रश्नोंपर हम क्रमशः प्रकाश डालनेका प्रयत्न करेंगे फिर भी यहाँ पर उन लोगोंको जिनके हाथमें आज समाजको ऊपर उठाने की या उसको कुचलनेकी सामर्थ्य है- - सावधान कर देना चाहते हैं कि ऐ ! समाजके प्रमुख नेताओं ? जरा आँखें खोलो हृदय पर हाथ रखकर विचार करो, कि तुम समाजको किस ओर ले जा रहे हो, तुम्हारी पक्षपातपूर्ण एकांगी विचारधाराका ही क्या यह फल नहीं है कि समाजमें चारों ओर विद्वेषाग्नि धधक रही है । जो कार्य समाजके हितके लिये किया जा रहा हो, उससे ही समाज में कलह पैदा होने लग जाय तो इसमें इसके अतिरिक्त कि तुम्हारी स्वार्थपूर्ण दुर्भावनायें काम कर रही हैं - और क्या कारण हो सकता है ? इसलिये अपनी पक्षपात पूर्ण नीतिको जल्दी से जल्दी जलाञ्जलि दो और हृदयकी पवित्र भावनाओंका समाजके ऊपर प्रभाव डालने का प्रयत्न करो । विरोधीपक्षका पक्षपात पूर्ण विरोध करके उसके लिये प्रेम पूर्वक मार्ग प्रदर्शक बनो, इसीमें आपकी शान और समाजका सुखपूर्ण जीवन निहित है | क्या समाजका प्रमुख समुदाय हमारी इस प्रार्थनापर ध्यान देगा । Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरिजन मन्दिर प्रवेश चर्चा जबसे हरिजन मन्दिर प्रवेश बिल पास हुआ है तभीसे जैन समाजमें 'जैन हिन्दू नहीं हैं' इस बिलगाववादी विचारधाराने जोर पकड़ा है । इसका एक मात्र उद्देश्य है - इस कानूनसे जैन मन्दिरोंको मुक्त कराना । स्थितिपालक भाई तो यहाँ तक लिखनेका साहस करते हैं कि 'भगवान् महावीरकी वर्णव्यवस्थाको घरपतुआ बच्चोंका खेल बना लिया है ।' ये बन्धु जैन संस्कृतिके इस मूल आधारको ही भुला देते हैं कि वैदिक संस्कृति जहाँ जन्मजात वर्णव्यवस्थाको स्वीकार करती है वहाँ जैन संस्कृति केवल इसे व्यवहार मात्र मानती हैं । एक ही पर्यायमें गोत्र बदल जाता है और वर्ण भी । भरतने त्रिवर्णोमेंसे ही जिन्होंने व्रत धारण किये थे, उन्हें ब्राह्मण बनाया था और इसीलिए गोत्र परिवर्तनका कारण सकलसंयम और संयम-संयम आगम ग्रन्थोंमें बताया गया है । नीचगोत्री सकलसंयमी हो सकता है, म्लेच्छ क्षपक श्रेणी चढ़ कर मोक्ष जा सकता है फिर भी ये भाई जन्मजात वर्ण व्यवस्थासे चिपटे हुए हैं । ये भाई शूद्रोंको अस्पृश्य बता कर उन्हें मन्दिरमें भी नहीं आने देना चाहते । हमारे कुछ सुधारक भाई व्यवहार बर्ताव में अस्पृश्यता हटानेका समर्थन करके भी मन्दिर कानूनसे मुक्ति पाने के लिए 'जैन हिन्दू नहीं है' यह नारा लगा रहे हैं । दक्षिण महाराष्ट्र सभाका प्रस्ताव हमारे सामने है | उसने अस्पृश्यता निवारणके बम्बई सरकारके प्रयत्नकी सराहना करके भी हरिजन मन्दिर प्रवेश कानूनसे जैनियों को बरी करनेकी माँग की है । और उसका आधार यह बताया है कि यद्यपि जैन अभी तक प्रायः हिन्दू लासे शासित होते आये हैं पर जिन बातोंमें जैनियोंका विशेष विधि विधान होता है उन बातोंमें जैनोंपर वर्तमान हिन्दू ला भी लागू नहीं होता, वे हिन्दुओंसे पृथक् हैं । जहाँ तक बम्बई सरकारके कानूनका सम्बन्ध है वह हरिजनोंकी अयोग्यता निवारण करने वाला है । कोई भी व्यक्ति मात्र हरिजन होनेके कारण मन्दिर में जानेसे रोका नहीं जा सकता । बम्बई के प्रधान मन्त्रीने स्पष्ट शब्दोंमें कहा है कि यदि आप मुझे मन्दिरमें ले जा सकते हैं तो डॉ० अम्बेडकर को नहीं रोक सकते' इसमें पूजा पाठके सब अधिकार सबको देनेकी बात कहाँ है ? प्रश्न इतना ही है। कि हरिजनोंमें अस्पृश्य होनेके कारण जो अयोग्यता आरोपित कर रखी थी उसे हटा कर उन्हें मानवाधिकार दिये गये हैं । यदि हम कानूनमें हिन्दू शब्दसे जैनको भी लिया है तो भी हमें क्यों आपत्ति है ? जब आज तक हम अनेक बातों में हिन्दूलासे शासित होते आये हैं तब इसमें हिन्दूलासे शासित होनेमें क्या खतरा है जब कि हमारी संस्कृति हमें जन्मना वर्णव्यवस्था और अस्पृश्यताके मूलोच्छेद की शिक्षा देती है । हमारे शास्त्र शूद्रोंको मोक्ष तकका विधान करते हैं । शूद्रोंका क्षुल्लक पदका धारण करना तो कट्टर रूढ़िचुस्त भी स्वीकार करते ही हैं । ऐसी दशामें शूद्रों द्वारा मन्दिरमें देवदर्शन कर लेनेका कानूनी हक भी प्राप्त कर लेनेमें हमें क्यों बाधा है ? यह तो हमारी संस्कृतिका ही प्रचार हुआ । उससे बचनेका द्राविडी प्राणायाम करनेसे क्या लाभ ? नये शासन विधानकी ११वीं धारामें नागरिकता के सामान्य अधिकारोंमें ही अस्पृश्यता निवारणका मौलिक अधिकार दिया गया है । २६ जनवरी सन् १९५० से इस कानून के लागू होनेपर सवर्ण और असवर्ण हिन्दूमें कोई भेद नहीं रह जायगा । हम किसीको हरिजन होनेके कारण अस्पृश्य या नीच नहीं समझ सकेंगे । इस मानवाधिकारको समुज्ज्वल घोषणासे हमें तो मंदिरोंमें घीके दिये जलाने चाहिए कि आज महावीर के शासनकी सच्ची प्रभावना हुई हैं, उनके और समवशरणके प्रतीक ये जिनालय आज जनालय हुए । इसपर छाया हुआ वैदिक धर्मका तमस्तोम आज नष्ट हुआ । पर आज जैन समाजके ये सुधारक बन्धु भी किसी बहानेसे इस सुधारसे छुटक जाना चाहते हैं । Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८२ : सिद्धान्ताचार्यं पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थं जैन धर्मके व्यापक प्रभुत्वको देख कर हो पहिले वैदिक धर्मको खतरा मालूम हुआ था और उसने यह घोषणा की थी कि "हस्तिना ताड्यणानो पि न गच्छेज्जैन मन्दिरम्' अर्थात् हाथीके पैर के नीचे दब जाना अच्छा पर जैन मन्दिर में जाना उचित नहीं । आज भी हमलोग इस घोषणाका विरोध करते हैं और ऐसी घोषणा करने वालोंको भला बुरा कहते हैं पर स्वयं इस मानव समानाधिकार के अहिंसक युगमें "नेतृभिः प्रेर्यमाणो पि नागच्छेज्जैन मन्दिरम्” अर्थात् जन नेताओंसे प्रेरणा हो नेपर भी जैन मन्दिरमें मत आओ यह धर्मविरोधी, अहिंसा विरोधी और मानवता विरोधी नारा लगानेको तैयार हैं । हमारा सांस्कृतिक तत्त्व यदि कानूससे फलित होता है तो उसे हम धर्म में हस्तक्षेप क्यों मानते हैं । भगवान् महावीरने वर्ण-व्यवस्थाका विरोध सामाजिक क्षेत्रमें उतनी तीव्रतासे न भी किया हो क्योंकि सामाजिक व्यवस्थाएँ व्यवहाराधीन थीं पर धार्मिक क्षेत्रमें तो उन्होंने इस वर्ण व्यवस्थाकी धज्जियाँ ही उड़ा दी थीं । उनके संघमें चांडालका भी वही स्थान था जो किसी ब्राह्मणका । व्रत धारण करनेपर यह सब भेद ही नष्ट हो जाता है । पर आज हमारे सुधारक बन्धु सामाजिक व्यवहारमें अस्पृश्यताका उच्छेद करनेको तत्पर होकर भी धार्मिक क्षेत्रमें उसे कायम रखना चाहते हैं, किमाश्चर्यमतः परम् । मन्दिरप्रवेश शुद्ध धार्मिक प्रश्न है, इसमें वर्णभेदके आधारसे कोई समझौता नहीं हो सकता । वहाँ तो मानव मात्रको सम् भूमिकापर बैठना ही होगा । हाँ, वहाँ जो नियम होंगे वे सभीको पालने होंगे, वहाँ जन्मगत जाति के कारण किसीको विशेष संरक्षण नहीं दिया जा सकता । अतः कमसे कम हरिजन मन्दिर प्रवेश वाले सांस्कृतिक प्रश्नपर जैन हिन्दूके भेदका नारा लगा कर उससे निकल भागनेका प्रयत्न करना न शास्त्रीय है, न सांस्कृतिक है और न सामयिक ही । हमें आश्चर्य होता है जब राष्ट्रीय नेता हमारी समाजको यह कहते हैं कि "भाई, जैन धर्म तो जांति-पांति मानता नहीं है, फिर क्यों आप लोग इस हरिजनोद्वारमें बाधक होते हो" जिस बात को हमें कहना चाहिए था और राष्ट्रीय नेताओंके इस मानवोत्थान के प्रयत्नकी सराहना करके उन्हें सहयोग देना चाहिए था वहाँ हम जैन जैनधर्मको विकृत रूपमें देशके सामने उपस्थित करके मानते हैं कि हमने जैन संस्कृति की सेवा की है । हमारे कुछ दक्षिणी भाइयोंने यह भय उत्पन्न किया है कि इस बिलसे जैन हिन्दू बन जायेंगे और उन्हें वैदिक बन जाना होगा। बैरि० सावरकरके द्वारा की गयी जैन-बौद्ध-सिख संग्राहक 'हिन्दू' की परिभाषा स्वीकार करने में भी उन्हें यही डर है कि जैन लोग वैदिक हो जायेंगे । हमने ज्ञानोदयके चौथे अंकमें ही यह स्पष्ट कर दिया है कि " सावरकर कृत व्याख्या के मान लेनेपर भौगोलिक दृष्टिसे और परम्परागत आर्यत्वकी दृष्टिसे हम हिन्दू होकर भी जैसी कि पं० सुखलाल जी की सूचना है - हिन्दू महासभा के सदस्य हरगिज नहीं बनना चाहते, क्योंकि वर्तमानमें उसका संघटन वर्णव्यवस्था और ब्राह्मण प्रभुत्वके वर्गोच्चत्वको भावनापर है, भगवाध्वज उसी श्रुतिस्मृत्यनुमोदित परम्पराका प्रतीक है । अतः हमारा हिन्दू महासभा के कर्णधारोंसे अनुरोध है कि यदि वे 'हिंदू' शब्दकी उक्त व्याख्या जैनोंसे स्वीकार कराना चाहते हैं तो वैदिक संस्कृतिके प्रतीक भगवाध्वजके स्थानपर सर्वानुमोदित ध्वज स्वीकार करें। उसमें रही वर्गोच्चत्वकी भावनाको दूर कर समान आधारोंसे सर्व संग्राहक संगठन करें ।" जब हम देखते हैं कि हमारे ये बन्धु स्वयं आनखशिख वैदिक वर्ण-व्यवस्थामें डूबे हुए हैं और उसी वर्ण-व्यवस्थाके घृणित अभिशाप रूप अस्पृश्यताको कायम रखनेके असांस्कृतिक उद्देश्योंसे जैनोंको वैदिक बन जानेका भय दिखा रहे हैं । इतना ही नहीं 'ज्ञानोदयकारों' को नीति और धर्मका अन्तर समझने की सलाह दे रहे हैं तो हमारे आश्चर्यका कोई ठिकाना नहीं रहता । 'ज्ञानोदय' ने प्रारम्भमें ही इस प्रश्नको धार्मिक माना है और इसीलिए शास्त्राधारसे इसकी विवेचना की है। और भारतके नव निर्माणके समय जैन धर्मका समुज्ज्वल पतितपावन स्वरूप सामने रखनेका सांस्कृतिक प्रयत्न किया है। यदि हिन्दू शब्दकी मुसलमान, ईसाई, पारसी आदि Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : ५८३ का संग्रह करनेवाली परिभाषा बनानेका प्रश्न उठता है तो ज्ञानोदय उसका स्वागत करेगा। हमने धर्म गुरुओंसे भी इसीलिए निवेदन किया था और अब भी कर रहे हैं कि वे इस वैदिक वर्ण व्यवस्थाका आग्रह छोड़ कर विशुद्ध मूल जैन संस्कृतिके पुनीत रूपका प्रचार करें । ज्ञानोदयने इस प्रश्नका शास्त्रीय आधार उपस्थित किया ही है । वैदिक धर्मके प्रभावसे अपनी रक्षाके लिए हमें आवश्यक है कि जो बुराइयाँ वैदिकोंके संसर्गवश हममें हैं उन्हें अविलम्ब दूर करके अपनी संस्कृतिके मूल तत्त्वोंको जीवनमें लाएँ और मानव मात्रके समानाधिकारको स्वीकार कर प्राणिमात्रके प्रति अहिंसाकी उच्च भावनाकी उपासना करें। सावकरकी परिभाषासे विशाल आर्यसंघ या हिन्दू संघमें शामिल हो जानेसे हम वैदिक नहीं बनेंगे किन्तु हरिजनोद्धार अस्पृश्यता निवारण जैसे जैन तत्त्वोंका विरोध कर अवश्य ही हम सक्रिय वैदिक हो रहे हैं। इस काननके विरोधमें कोई सत्याग्रह (?) करना चाहते हैं तो कोई अन्न त्याग कर रहे हैं, कोई फेडरल कोर्टमें न्याय पानेकी सलाह दे रहे हैं । इन धर्मके ठेकेदारोंकी इस करनीसे जैन धर्म, जैन संस्कृति और जैन समाजका जो अहित होगा उसे भावी पीढ़ी क्षमा नहीं कर सकेगी। सी० पी०में इसके लक्षण दिखने लगे हैं। वहाँ हिन्दू टस्टोंका उपयोग जैन नहीं कर पायेंगे । हिन्द मन्दिर, उनसे लगे हए तालाबों या अन्य जलाशयोंपर जैन नहीं जा सकेंगे । अर्थात् आजका हरिजन तो वहाँ जा सकेगा, पर ये जैन नहीं जा पायेंगे। और धीरे-धीरे यह विष आर्थिक और अन्य सामाजिक क्षेत्रोंमें व्याप्त होकर हमें योग्यताके बलपर जो राजनैतिक स्वत्व प्राप्त हो जाते हैं वे इस बिलगाववादी प्रवृत्तिकी प्रतिक्रियामें समाप्त हो जाएँगे । अतः हमारा स्थितिपालकों और जैन समाजके प्रमखोंसे निवेदन है कि वे शास्त्र संस्कृति और समयको पहिचाननेका प्रयत्न करें और इस नव निर्माणके समय ऐसे बीज न बो दें जिससे भावी समाजका जीवन दूभर हो जाए । Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर जन्म-दिन २५४८ वर्ष पूर्व आजके ही दिन भगवान् महावीरने वैशालीके कुण्डग्राममें जन्म लिया था। श्रमण परम्परामें यद्यपि सीधा जन्मका कोई विशेष महत्त्व नहीं है क्योंकि यहाँ कोई सर्वशक्तिमान् अनादि सिद्ध प्रभु अवतार नहीं लेता, किन्तु साधारण आत्मा ही अपनी साधनाके द्वारा अन्तरात्मा बन कर अन्तमें स्वरूपस्थित सिद्धात्मा या परमात्मा बन जाता है। इस परम्परामें उसकी वीतरागता, समभावपरिणति, प्राणिमात्रमैत्री अपरिग्रह. तत्त्वज्ञान और अनेकान्तदष्टिका महत्त्व है। इन्हींके कारण वह तीर्थ शास्ता बनता है । कुल, जाति, वर्ण, सम्प्रदाय आदिके संकुचित बाडोंसे तीर्थकरत्वकी कोई विशेषता नहीं । उसका अर्थ तो श्रेयोमार्गानभिज्ञानिह भवगहने जाज्वलदुःखदाव स्कन्धे चक्रम्यमाणान् अतिचकितमिमान् उद्धरेयं वराकान् ॥ अर्थात् त्रिविध दुःखकी दावाग्निसे चारों ओर जलने वाले इस संसाररूपी महाभयानक वनमें श्रेयोमार्ग-आत्मस्वरूपको न समझनेके कारण अत्यन्त चकित होकर इतस्ततः भटकने वाले विचारे इन प्राणियोंका आत्मस्वरूप समझा कर उद्धार करूँगा' इस विश्वहितैषिताकी सर्वोदयी भावनामें समाया हुआ है । यही कारण है कि महाश्रमण वर्धमानने बाल्यकाल या जवानी में क्या किया इसका विस्तत विवरण शास्त्रोंमें नहीं मिलता । हाँ जबसे उन्होंने समता-अहिंसाकी साधनारूप सामायिकता व्रत स्वीकार किया तबसे उनके इहलोकीय जीवनका एफ-एक क्षण हमारे लिए आदर्श है। अँगूठेसे मेरुकम्पन हुआ, चण्डकौशिक सर्पको वशमें किया, तथा इन्द्र आकर उनकी सेवा करता था आदि अतिशयोंसे उनके परमात्मत्वकी पहचान नहीं होती। परमात्मत्वकी पहचान तो जो उन्होंने धार्मिक साम्राज्य के उस भीषण युगमें धर्मका प्रत्येक द्वार प्राणिमात्रको जाति, वर्ण, कुल, सम्प्रदाय आदिका कोई बन्धन नहीं मानकर खोला था, उन तिरस्कृत, निर्दलित, शोषित, पीडित, बिलबिलाते मानवोंको गले लगाया था, यज्ञबलिका विरोध करके अहिंसाकी भावना जगाई थी और बुद्धिके पंखों पर आसन जमाने वाली पुस्तककी गुलामी को उखाड़ कर उसे स्वतः विचरनेका उन्मुक्त मार्ग प्रशस्त किया था, उससे होती है। उन्होंने धर्मके पुनीत क्षेत्रकी ठेकेदारीको समाप्त कर प्रत्येक प्राणीको अपना हित अहित समझनेकी स्वावलम्बी प्रवृत्ति उत्पन्न की थी और वर्ण विशेषको संस्कृत भाषाके कृत्रिम बन्धनोंसे धर्म को मुक्त कर लोक भाषाके द्वारा वे जन-जन तक स्वयं पहुँचे थे। विहार, वर्धमान, वीरभूमि, नाथनगर जैसे उनके नामांकित क्षेत्र आज भी उनकी गुणगरिमाको पुकार-पुकार कर कह रहे हैं। इस तरह पुराने बन्धनोंको तोड़ कर अपने श्रम और अपनी साधनासे जीवनमें पूर्ण शम और समत्व को प्राप्त कर वे केवली (केवल अकेला, परम स्वावलम्बी) बने । तीस वर्ष तक उन्होंने अहिंसा समता स्वतन्त्रता और शान्तिका उद्बोधन किया। उनकी इस परमात्मदशाकी प्राप्तिके बाद उनके जन्म दिन उपदेश दिन और निर्वाण दिनकी भी महत्ता प्रस्थापित हुई। स्वतन्त्र भारतमें आज उस महा-श्रमणकी पुण्य जयन्ती मनाई जा रही है जिसके अहिंसा विश्वमैत्री और मानवसमत्वके आधार पर भारतका वह नवविधान बना, जिसमें जाति, धर्म, लिंग, कुल आदिके आधारसे Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : ५८५ हथियाये गये संरक्षण समाप्त हो गये और मानव केवल मानव रहा। जनभाषा हिन्दीको राष्ट्रभाषाका पद मिला। वर्णव्यवस्थाका निकष्टतम घृणित रूप अस्पृश्यता दफना दी गयी और विश्वके प्रत्येक मानवकी स्वतन्त्रताका पुण्यनाद किया गया । हमारी भावना है कि उनका सर्वोदय तीर्थ अपने वास्तविक रूपमें हमारे जीवनमें आवे और उनके धर्मबीजको हम अपने मानसमें अंकुरित, पल्लवित, पुष्पित और फलित करें। हमारा इस अवसर पर भारत सरकार से अनुरोध है कि वह अहिंसाके इस चरम साधकके जन्मदिनकी सार्वजनिक छुट्टी घोषित करके अहिंसक तत्त्वोंको प्रोत्साहित करे । 'संजद' पदका बहिष्कार : सूत्रोच्छेदका दुष्प्रयत्न गजपन्थासे घोषणा हुई है कि ताम्रपत्रोंमें लिपिबद्ध किये गये जीवस्थान सत्प्ररूपणाके ९३वें सूत्रमेंसे 'संजद पद अलग किया जाता है । हेतु यह बतलाया गया है कि इस सूत्र में 'संजद' पदके रहनेसे द्रव्यस्त्रीको मुक्तिका प्रसंग आता है जो कि दिगम्बर परम्पराके विरुद्ध है । पत्रों में प्रकाशित हुई विज्ञप्तिसे ज्ञात होता है कि यह घोषणा पीछी कमण्डलुको आगे रखकर की गयी है और इसमें माया शल्य खुल कर खेली है । जैन परम्परामें इन चिह्नोंका क्या महत्व है यह किसीसे छिपी हुई बात नहीं है । व्यवहारतः जो व्यक्ति इन चिह्नोंको धारण करता है वही आदर्श मान लिया जाता है । उसके प्रति अपनी श्रद्धा व्यक्त करना प्रत्येक जैनका कर्तव्य हो जाता है और इस कर्तव्यका तब तक निर्वाह करना पड़ता है जब तक कि उक्त व्यक्तिमें चारित्र और सम्यक्त्वको कलंकित करनेवाला व्यवहारतः कोई दोष नहीं दिखाई देता है । यह तो प्रसन्नताकी बात है कि इस कालमें ऐसे व्यक्तियोंका सदभाव है और यह भी चाहते हैं कि उनका सद्भाव सदा काल बना रहे, क्योंकि व्यक्तिकी मुक्तिका अन्तिम मार्ग वही है। किन्तु जब हम देखते हैं कि ये व्यक्ति जिस महान उद्देश्यको लेकर इस मार्गके पथिक बनते हैं उस उद्देश्यकी पूर्ति न कर अपने पदके सर्वथा अयोग्य अनधिकार चेष्टा करने लगते हैं तब हमारा मस्तक लज्जावश झुक जाता है। वास्तवमें देखा जाय तो इस विवादमें कोई सार नहीं है। इसके दो कारण हैं। प्रथम तो यह कि ताडपत्रीय प्रतिमें यह पाठ मौजूद है और दूसरा यह कि ९३वें सूत्रमेंसे इस पदके निकाल देने पर षटखण्डागमके मूल सूत्रोंमें विसंगति आ जाती है । संशोधनकी यह विशेषता मानी गयी है कि प्राचीन पाठकी रक्षा की जाय । जब डॉ० हीरालाल जी सोलापुर गये थे तब उन्होंने यही सलाह दी थी। फिर भी इस तथ्यपूर्ण स्थितिकी ओर ध्यान न देकर कुछ भाइयोंने यह सूत्रोच्छेदक अविवेकपूर्ण घोषणा कराई है। साधुके आदेश और उपदेशकी चर्चा जैन ग्रन्थोंमें की गयी है। हर कोई हर किसीको आदेश नहीं दे सकता। आदेश चारित्रके विषयमें व्यक्तिगत कारणोंके उपस्थित होने पर ही दिया जाता है । सो भो व्रती पुरुषोंके लिए ही। किन्तु हम देखते हैं कि यहाँ इस व्यवस्थाको पूरी तरहसे अवहेलनाकी गयी है। यह सोचा जाता है कि आगममें द्रव्यस्त्रीकी योग्यताका विधायक सूत्र वचन होना चाहिये । इसी वृत्तिके परिणामस्वरूप यह अंग-भंगका कार्य किया गया है। जैसा कि षट्खण्डागम और उसको धवला टीकाके सम्यक् अवलोकनसे ज्ञात होता है कि आगममें मात्र भाव मार्गणाओंका हो विचार किया गया है । क्षुल्लक बन्धके मूल सूत्रोंमें १४ मार्गणाओंका विवेचन किया है। यदि इस आगममें आचार्यको द्रव्य मार्गणाओंका विवेचन करना इष्ट होता तो वे वहाँ मात्र भाव मार्गणाओंका ही विवेचन नहीं करते और न ही आचार्य वीरसेन स्वामी मार्गणाओंके स्वरूप निर्देशके प्रसंगसे यह भी कहते कि आगममें भावमार्गणाओंका ही ग्रहण किया गया है, द्रव्य मार्गणाओंका नहीं । एक बात यह भी कही जाती है कि जहाँ भी पर्याप्त शब्दके साथ मनुष्यणी शब्द आया है ७४ Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८६ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ वहाँ द्रव्य स्त्रियोंका ही ग्रहण होता है किन्तु सत्प्ररूपणा के आलाप अधिकारमें पर्याप्त मनुष्यिनियोंके आलापों का निर्देश करते समय उनके १४ 'गुणस्थान बतलाये हैं । यह बात तभी बन सकती है जब कि पर्याप्त शब्दके साथ मनुष्यनी पदसे भावस्त्रीका ही ग्रहण किया जाता है । इन सब प्रमाणोंसे आगमकी स्थिति स्पष्ट होते हुए भी कुछ भाइयोंने यह अविवेकपूर्ण कार्य किया और कराया है । यह ऐसा कार्य है जो किसी भी तरह क्षमा करने योग्य नहीं कहा जा सकता। इससे केवली, श्रुत, संघ और धर्मका अवर्णवाद तो हुआ ही, साथ ही जैन परम्परा और भारतीय परम्पराकी श्रुत प्रतिष्ठाको भीषण धक्का लगा है । और दुराग्रह तथा हठवादके काले इतिहासमें 'दिगम्बर परम्परा' को नाम लिखानेका कुप्रसंग उपस्थित हुआ है । ताडपत्र या ताम्रपत्रका पुद्गल किसी व्यक्ति या व्यक्तियों के अधिकारकी वस्तु हो सकते हैं पर उसमें लिखा गया श्रुत और धर्म तो उन लोकोत्तर महापुरुषोंकी साधनाका श्रेयमार्ग प्रदर्शक फल है जिससे मार्गदर्शन पानेका प्राणी मात्रको अधिकार है । हम यह जानते हैं कि जिन भाइयोंने यह दुःसाहसका काम किया है वे अपनी भूलको कभी भी स्वीकार करनेवाले नहीं हैं । अतः इस सूत्रोच्छेदसे अपराधके परिमार्जन करनेका एक मार्ग यह हो सकता है कि १०-१५ ऐसे ताम्रपत्र तैयार किये जायें जिनमें ताड़पत्रके आधारसे ९३वाँ सूत्र अंकित रहे और इन भाइयोंकी काली करतूतको प्रकट करनेवाला इतिहास भी लिपिबद्ध रहे । इससे भविष्य में जब भी इस विषयकी गवेषणा होगी तब यह कार्य कुछ व्यक्तियोंकी करनी तक हो सीमित रह जायेगा । आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्तीने गोम्मटसार में यह गाथा तो उन व्यक्तियोंको लिखी है जो समझाने पर भी दुराग्रहवश सम्यक् - अर्थको नहीं मानना चाहते सुत्तादो तं सम्मं दरसिज्जंतं जदा ण सदृहदि । सो चेव हवइ पिच्छाइट्ठी जीवो तो पहुदी || अर्थात् सूत्रसे सम्यक् अर्थ दिखाने पर भी जो श्रद्धान नहीं करता वह व्यक्ति तभी से मिथ्यादृष्टि है । पर जिन्होंने इससे भी आगे बढ़कर सूत्रोच्छेदका दुष्कृत्य किया है उन्हें मिथ्यादृष्टि और निहनवी कहना भी कम है । सन्तोषकी बात इतनी ही रही कि, इस सूत्रोच्छेदक जमातमें श्री पं० खूबचन्द्रजी शास्त्रीने दृढ़ता से इस जघन्य कृत्यका विरोध किया और त्यागपत्र देकर अपने सम्यक्त्व की रक्षा तो की ही साथ ही समाजकी प्रतिष्ठाको भी बचाया । Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्प्रदाय जाति और प्रान्तवाद भारतवर्षके पतनके कारणोंमें सम्प्रदायवाद, जातिवाद और प्रान्तवाद मुख्य हैं । पुराने इतिहासको देख जाइये कहीं सम्प्रदाय कहीं जाति और कहीं प्रान्तवादने अपना काला रूप दिखा कर भारतको भौगोलिक अखण्डता भी प्राप्त नहीं होने दी। सामन्तवादने अपन पनपनेके लिए यही स्तम्भ खड़े किये और सच पछा जाय तो मानवताको खण्डखण्ड करके वर्गविशेषके अहंकार और उसे विशेष संरक्षण देनेके लिए ये ही सस्ते आधार रहे हैं । अंगरेजोंने इन्हीं अस्त्रोंके सहारे भेदनीतिसे भारतवर्षको न केवल राजनैतिक गुलामीमें ही जकड़ कर अपना उल्लू सीधा किया किन्तु इसे सदाके लिए सांस्कृतिकहीनता और विनाशके गहरे गर्तमें गिरानेका रास्ता खोल दिया । पाकिस्तानकी सृष्टि करके उन्होंने सम्प्रदाय प्रान्त और जाति इन तीनों विषबेलोंकी जड़ें गहरी पहुँचा दी हैं । ___इन सबके बावजूद पूज्य बापुके नेतृत्वमें भारतवर्षने खंडित स्वतन्त्रता प्राप्त की। भारतवर्षके नक्शेसे पीला कोढ़ समाप्त होकर आज वह भौगोलिक इकाई पा गया है। पर, सम्प्रदाय जाति और प्रान्तवादकी सहस्रमुखी ज्वालाओंसे स्वातन्त्र्यका नव विकसित कुसुम झुलसा जा रहा है। कांग्रेस कमेटियोंके चुनाव, जनपद निर्वाचन, विधान सभाओंके चनाव, नौकरी कन्ट्रोलके लायसेंस आदि जहाँ भी देखिये वहाँ इन्हींके नामपर अपना स्वार्थ साधा जा रहा है। शिक्षाका पुनीत क्षेत्र भी इस गन्दगीसे अछूता नहीं रहा है । आखिर जो विष भारतके हृदय और मस्तिष्कमें पीढ़ियोंसे व्याप्त हो रहा है वह अवसर आनेपर अपना दुष्प्रभाव दिखाये बिना रह ही नहीं सकता। इतनी ही आशाकी नवकिरण है, कि कांग्रेस तथा भारतकी विधान सभाने सिद्धान्ततः भारतको असाम्प्रदायिक राज्य घोषित किया है और धर्म-जाति वंश और परम्परागत संरक्षणोंको समाप्त कर सबको समान अधिकार दिये हैं। जैन धर्मने संसारके प्रत्येक पदार्थको अनेक धर्मवाला विविध विशेषताओं और विचित्रताओंका अविरोधी आधार माना है। उसने एकमें अनेकता और अनेक तामें एकताका सुन्दर समन्वय किया है । अहिंसाकी उच्च भूमिकाका निर्वाह बिना इस समन्वयके हो ही नहीं सकता था। उसकी दृष्टिमें भारतवर्ष अनेक जाति सम्प्रदाय और प्रान्त आदिका अविरोधी अखण्ड आधार है। यह अपने में एक और अखण्ड है। प्रत्येक सम्प्रदाय जाति और प्रान्तका उसपर समान अधिकार है। हमें इनमें नये दृष्टिसे अविरोध स्थापित करके सबमें अनुस्यूत अखण्ड भारतीयत्वका दर्शन करना है । जाति, सम्प्रदाय और प्रान्तका भेद बुरा नहीं है, बुरा है इनका अहंकार और उसके कारण पनपने वाला मातवाद । एक सम्प्रदाय जब अपनी बात कहता है आर दूसर सम्प्रदायोकी बुराई न कर उनके प्रति तटस्थ भाव रखता है तब तक वह सत्सम्प्रदाय है। पर जब वह दूसरे सम्प्रदायोंका तिरस्कार और द्वेष करता है तब वह 'सत्' की सीमासे 'असत्' में जा पहुँचता है । असलमें सम्प्रदायकी जड़ मस्तिष्कमें न हो कर हृदयमें होती है और हृदय परिवर्तनके बिना दूसरे सम्प्रदायोंकी बुराई या उनके प्रति घृणाका भाव फैलानेसे हमारी अखण्डताका विनाश ही होता है। जातिकी जड़ रक्तमें ही पहुँची है । सबको अपनी जाति अर्थात् रक्तश्रेष्ठताका अभिमान है। वैसे देखा जाय तो पौद्गलिक जड़ रक्तसे श्रेष्ठताका कोई खास सम्बन्ध नहीं है। एक ही रक्तसे उत्पन्न दो बालक Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८८ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ विभिन्न वातावरण और परिस्थितियोंके अनुसार भिन्न-भिन्न संस्कारवाले हो जाते हैं । जो छोटा-मोटा अन्तर भी होता है वह इतना बद्धमूल नहीं होता कि उसमें शिक्षा संगति और वातावरणसे बदल न हो सके । जैन परम्पराने उस अन्तरको इतना बड़ा तो माना ही नहीं है कि वह मानव समानाधिकारमें बाधक बन सकता हो । फिर, अनादि कालसे आज तक किसी एक परम्पराकी शुद्धता में विश्वास किया जा सकता है ? ऐसी दशामें जातिकी श्रेष्ठताका ढिंढोरा पीट कर भारतकी अखण्ड राष्ट्रीयताको छिन्न भिन्न करना अपनी संस्कृतिका ही घात करना है । पहिले गाँव पेशा आदिके नामसे अनेक जाति-उपजातियोंकी सृष्टि हुई थी । उस समय यातायात के साधन कम थे और सबकी अपनी छोटी-सी दुनिया थी । उसी में खानपान शादी-विवाह लेनदेन आदि होता रहता था । पर आजकी दुनिया सबकी एक है । यहाँ सूई पटकिये तो उसकी आवाज उसी समय अमेरिका क्या विश्व के कोने-कोने तक पहुँचती है । अतः हमें अब न केवल भारतीयता किन्तु विश्वमानवताको दृष्टि से विचार करना है । अपनी शक्ति साधन सामग्रीको सीमितता आदिके कारण मुख्यरूपसे अपनी जातिके लोगोंकी उन्नतिमें विशेष लक्ष्य देना उतनी बुरी बात नहीं है, पर जब दूसरी जातिको हीन तुच्छ और नीच समझ कर उसके प्रति घृणाका भाव फैलाया जाता है तब वह 'दुर्जाति' का रूप लेकर 'सत्' की सीमाको लांघ जाती है । जातिका आवरण लेकर शासनकी एकताको ध्वंस करना तो राष्ट्रीय महापाप है । शासनकी सुविधा के लिए प्रान्तोंकी रचना होती है । इसकी सीमाएँ बनती - बिगड़ती रहती हैं ! जब देशकी ही सीमा स्थिर नहीं तब प्रान्तकी तो कथा ही क्या ? यह ठीक है कि विभिन्न प्रान्तोंकी संस्कृतियाँ जुदा-जुदा हैं | पर इसका तात्पर्य यह कदापि नहीं है कि दूसरे प्रान्तकी संस्कृति भाषा आदिके प्रति हीनताका भाव दर्शाया जाए और भारतीयताके क्षेत्रमें अपने प्रान्तके लोगों को भरनेकी चेष्टा करके प्रच्छन्न रूपसे भारतीयता को नष्ट करनेकी कुचेष्टा की जाए। जब एक प्रान्त दूसरे प्रान्तके प्रति घृणा द्वेष और नीचत्वके 'असत्' को प्रश्रय देता है । फैलता है तब वह 'सत्' की परिधिसे बाहर हो जाता है और वह सारांश यह है कि जैन दर्शनके नयवादमें जिस तरह प्रत्येक नयका अपने विषयभूत अंशको मुख्यता देना तो क्षम्य है पर दूसरेका निराकरण या तिरस्कार किसी तरह क्षम्य नहीं है, उसे दूसरे नयके प्रति बन्धुभाव और तटस्थता हो रहनी होती है अन्यथा वह सुनय नहीं, दुर्नय कहलाता है उसी तरह सम्प्रदाय जाति और प्रान्तको भी अन्यके प्रति बन्धुत्व और अपनी मुख्यताके समय दूसरोंके प्रति तटस्थताका भाव ही अपनाने में 'सत्' - पना है अन्यथा ये विषरूप होकर अखण्ड भारतीयताका विनाश ही करते रहेंगे और इस तरह मानव जाति विकासके महान् रोड़े बनेंगे । श्रमणधाराके महापुरुषोंने सदासे इनके विष नाश करनेका उपदेश दिया और जीवनमें अहिंसाकी उच्च साधना द्वारा समन्वय सहिष्णुता, उदारता और विशालता का प्रकाश देकर मानव को मानव बनाये रखनेका सतत प्रयत्न किया है । Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेवाव्रत 'सेवा' करना सरल है पर 'सेवाव्रत' साधनाकी वस्तु है । पेटके लिए नौकरी-चाकरी करनेवाले असंख्य लोग हैं। ये उचित अनुचितका विवेक किये बिना मात्र अपने तुच्छ स्वार्थकी सिद्धिके लिए 'जी-हजूरी' करते रहते हैं। इन पेटपालू लोगोंको सेवाव्रती नहीं कहा जा सकता क्योंकि सेवाका जो आनन्द और अहिंसाकी भूमिका है वह इन आत्मविस्मृत जीवोंको प्राप्त नहीं है। सेवाधर्म और सेवाव्रतकी भावना उस उच्च मानवतामें पनपती है जहाँ अपने आत्मत्वका दायरा विस्तृत विस्तृततर और विस्तृततम होता जाता है । हम अपने बच्चोंको प्यार इसलिए नहीं करते कि वे बच्चे हैं, किन्तु 'अपने' है । दूसरेके बच्चेको तांगेसे कुचल जाने पर भी हम लापरवाहीसे बिना किसी अनुकम्पनके चले जाते हैं, यदि उसकी जगह 'अपना' बच्चा होता तो हमारे होश ही गायब हो जाते और ऐसी बेचैनी पैदा होती जिसे दूर करनेके लिए यदि अपनेको मिटाने तकका अवसर आता तो भी पीछे नहीं हटते। यह अनुकम्पा (कॅपते हुए को देखकर हृदयमें कँपकँपी उत्पन्न होना) सच पूछा जाय तो स्वयं कँपकँपी बेचैनी मिटाने के लिए ही की गयी है। पर होती तभी है जब सामनेवालेमें 'आत्मसमत्व'की बुद्धि हो। तो, अपने बच्चेको उठानेकी भावना इसलिए हुई कि 'अपना' है । यह जरूरी नहीं है कि प्रत्येक मनुष्यमें यह स्वाभाविक ही हो। ऐसे भी निकृष्ट स्वार्थियोंकी कमी नहीं है जो अपने बच्चों की आँख बचाकर रसगुल्ला गप्प कर जाते हैं, और ऐसे ही नरपशुओंके मुँहसे यह श्लोक नीति (!) का रूप लेकर निकला है "आपदर्थे धनं रक्षेत् दारान् रक्षेत धनैरपि । आत्मानं सततं रक्षेत् दारैरपि धनैरपि ॥" अर्थात् आपत्ति के लिए धन बचावे। धन देकर स्त्रीकी रक्षा करे। पर अपनी रक्षा धन और स्त्री दोनोंसे करे। नारी जाति और धनका ठीकरा दोनों इन नरराक्षसोंके बराबर है। ऐसे ही नरराक्षस पुरुषोत्तम रामको भी यह सलाह देने पहुंचे थे कि-'जाने दीजिए एक सीताको, हजार सीता मिल जायेगी। एक स्त्रीके लिए इतनी परेशानी और युद्ध क्यों ?' पर, अहिंसा और कर्तव्यको जीवन्तमूर्ति रामने उस समय यही कहा था, मुखों, यह सीताका प्रश्न नहीं है, यह आत्माका प्रश्न है। मानवता और कर्तव्यका प्रश्न है। यदि सीताकी रक्षाके लिए त्रैलोक्य और अन्ततः अपना भी बलिदान करना पड़े तो भी राम करेगा। जीवित रहकर आत्महत्या, आत्मपराभव और मानवताका निर्दलन राम नहीं देख सकता। जिन्हें इसके प्रति जीवन्त श्रद्धा हो वे हमारे साथ रहें, दूसरे खुशीसे चले जायें। आज 'राम'का नाम उसी कर्मनिष्ठा और अहिंसाका प्रतीक बन गया । तात्पर्य यह कि सेवाव्रतके लिए हमें अपने 'आत्मत्व' के दायरे की पुत्र, स्त्री, परिवार, नगर, प्रान्त और देशके छोटे-बड़े दायरोंको पार कर क्रमशः निरुपाधि मानवता तक बढ़ाना होगा। इतना ही नहीं पशुजगत और प्राणिमात्र तकको हमें अपने आत्मौपम्यके पुण्यसागरमें समाना होगा। भीतरके संकुचित स्वार्थका Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९० : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्ग दमन किये बिना यह भूमिका नहीं आ सकती । अतः सेवाव्रती और सेवाधर्मीको प्रेम, दया, सहानुभूति, संवेदन, सहिष्णता, स्नेह, क्षण, वत्सलता परदुःख-कातरता आदि अहिंसा परिवारको जीवनम विकस कहा है "सेवाधर्मः परमगहनो योगिनामप्यगम्यः" सेवाधर्म परमगहन है, वह योगियोंके लिए भी अगम्य है। अपने लिए कौआ भी जीता है, पर मानव तो वह है जिसके 'स्व' का क्षेत्र अपनेसे आगे भी विस्तृत हआ हो। आज देशके लिए कुछ ऐसे ही सेवकोंकी आवश्यकता है जो सेवा सेवाके लिए करनेवाले हों। स्व० विश्वकवि रवीन्द्रनाथसे किसीने पूछा कि "धर्म किसलिए किया जाय?" उन्होंने कहा कि "यदि धर्ममें भी 'किसलिये' को समाप्त कर धर्म धर्मके लिये, अर्थात् बिना किसी कामनाके किया जाने वाला है। धर्म आत्मानन्द है, वह स्वयं साध्य और साधन है । जिसका सेवाके पीछे कोई अन्य हेतु है वह सेवावृत्ति कही जा सकती है सेवानत या सेवाधर्म नहीं। आशा है हमारा समाज सेवी और देशसेवी वर्ग सेवाधर्मी और सेवाव्रती बननेका प्रयत्न करेगा। Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसाका प्रतीक रक्षाबन्धन रक्षा बन्धन पर्व जिन महामुनि विष्णुकुमारको स्मृतिमें प्रचलित हुआ है वे अकिंचन निष्परिग्रही दिगम्बर साधु थे। उन्हें अपने तपोबलसे जो ऋद्धियाँ प्राप्त हुई थीं उनका भी पता नहीं था, ऐसे थे वे निस्पृह । पर राजा बलिके अत्याचारसे पीड़ित साधुसंघकी रक्षाके लिये जब उनसे प्रार्थनाकी गयी तो वे अपनी सारी साधनाओंका बल लेकर बलिके पास पहुँचे । वामन रूप लेकर उस नरमेघके पुरोधा बलिसे तीन पैर पृथिवीका दान माँगा और अपने व्यापक रूपसे उसे अपने बलित्व-पशुत्वके त्याग करनेको बाध्य किया। सात सौ मनियोंकी जो उस समय नरमेधके कुण्डमें पड़े थे रक्षा हुई। और उन्हें सिमईका मृदु आहार गृहस्थोंने 'रक्षा' का सूत हाथमें बाँध दिया। विष्णुकुमारका हृदय 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' की महामैत्री रूपसे व्यापक हो चुका था। वे सत्वमैत्रीके महान् अहिंसक प्रतीक थे। और बलि, स्वार्थका पुतला अहंकारकी मूर्ति हिंसाका क्ररतम पिशाच । जिसने अपने दुर्दान्त अहंकारकी बलिवेदी पर निरीह साधुओंकी बलि देनेका दुःसंकल्प किया था। यह द्वन्द्व अहिंसा और हिंसा, 'उत्कृष्ट स्व' और 'अधम स्व' का था। अन्तमें 'अहिंसा' की विजय हई और उसी अहिंसा रक्षाकी प्रतिज्ञामें बँधनेके लिये रक्षाबन्धन सूत्र बांधा गया जिसकी पुण्य परम्परा आज तक प्रचलित है। यह घटना हस्तिनापुरकी है। आज भी श्रावणीके दिन जैन श्रावक मुनियोंके चित्र अपने रसोई घरमें बनाते हैं और उन्हें सिमई जिमा कर पीछे भोजन करते हैं । एक दिन सिमई जैसे मृदु भोजनकी परम्परा भी उत्तर प्रान्तके जैनोंमें प्रचलित है। हमें इस पर्वकी इस महान् सांस्कृतिक पृष्ठभूमिको समझना चाहिये और अहिंसा पर्वके रूपमें इसे मानना चाहिये । इस रक्षा सूत्रने भाईको बहिनके प्रति कर्त्तव्य और स्नेहका पाठ पढ़ाया। भारतीय इतिहासके आलोकमय पृष्ठोंसे ऐसी अनेकों घटनाएँ अंकित है जिनमें जाति सम्प्रदाय आदि की संकुचित दीवारोंको लाँधकर भी इस रक्षा सूत्रने अहिंसाकी पुण्य धारा प्रवाहितकी है। हममें हरिजनोंके प्रति जो एक प्रकारकी घृणा और पशुसे भी बदतर नीच भावना व्याप्त है उसके सामूहिक प्रायश्चित्तका यह दिन है । हमें इस दिन मिथ्या अहंकारका परित्याग कर मानवताकी उपासना की ओर बढ़नेका शुभ प्रयल करना चाहिये। Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर निर्वाण दिन-दीपावली कार्तिक कृष्णा अमावस्याके दिन श्रमण महाप्रभु निग्गंठ नाम पुत्र वर्धमान महावीरको निर्वाण गये २४७७ वर्ष पूर्ण हो जाएँगे। इस दिन उनका निर्वाण पावामें हुआ था। उन्होंने अन्तिम समय अपने प्रमुख शिष्य (गणधर) गौतम आदिको यही कहा था-"समयं गोयम मा पमायए"-हे गौतम, क्षण मात्र भी प्रमाद न कर। उनकी इस एक अप्रमादकी चेतावनीने गौतमकी आत्मवीणाके एक एक सूक्ष्म तारको झंकार दिया और वे उसी दिन केवलज्ञानी हो गये, उन्हें 'अहंत' पद प्राप्त हुआ। उन्होंने महावीरके धर्मचक्रको सम्हाला और उसी अहिंसा समता और वीतरागताकी उच्च भूमिसे शम, सम और श्रमका जीवन सन्देश दिया। इसी दिन लिच्छवि वज्जी आदि गणतन्त्रोंने इकट्ठे होकर श्रमण महाप्रभुकी निर्वाण क्रियाकी और गणधर (गणेश) की ज्ञानलक्ष्मीकी पूजा की । दीप जलाकर मनमें सन्तोष किया कि संसारसे आज 'भावदीपक' बुझ गया पर हम उसी ज्योतिको इन द्रव्यद्वीपों द्वारा देखते रहेंगे। उस अमावस्याकी कालरात्रिमें महावीरके बमें सम्मिलित होनेवाले गणतन्त्राधिप सुर असुर आदिने दीपक जलाये थे और गणेशकी ज्ञान लक्ष्मीकी पजाकी थी जिसकी परम्परा आजतक गणेशपूजा और लक्ष्मी पूजनके रूपमें भारतीय सांस्कृतिक पवोंके इतिहासका समज्ज्वल आलोक पृष्ठ है। इस दिन अर्थीके आकारकी दीवाली बनानेका रिवाज भी इसी और संकेत करता है । लाजा और मिठाई बाँटना इस क्रियाका आवश्यक अंग है। आज जो विभिन्न प्रकारके पशु पक्षियों के खिलौने, आतिशबाजी आदिका रिवाज है वह क्रमशः भगवान्की धर्म सभामें पश पक्षियों तकके रहनेका तथा निर्वाणाग्निकी याद दिलाता है। कार्तिक कृष्णा त्रयोदशीको धन्वन्तरि पूजा उस घटनाकी याद दिलानेवाली है जब भगवान महावीरकी जीवरक्षाके लिए इस दिन बिहारके सभी धन्वन्तरि वैद्य जुड़े होंगे और उन्होंने प्रयत्न किया होगा कि महावीरकी जीवन रक्षा हो, पर आयुकी समाप्तिको रोकना स्वयं तीर्थङ्करके लिये भी सम्भव नहीं था । और चतुर्दशी जिस दिन महावीर निर्वाण हुआ लोग शोकसे विकल हो उठे उन्हें महावीरके बिना यह संसार 'नरक' के समान लगने लगा इसीलिये इसे 'नरक चतुर्दशी' संज्ञा दी गयी । अथवा यह संज्ञा साम्प्रदायिक वर्गने विद्वेष वश दी हो। अमावस्याकी शाम तक निर्वाण क्रिया सम्पन्न हुई और उस समय दीपक जलाये गये । सबने अपने घरोंकी शद्धि की, कूड़ा कर्कट निकालकर फेंका, पुराने बर्तन बदले और इस तरह शुद्धि क्रिया की जिसका प्रतीक प्रतिपदाके प्रातः लोग 'दरिद्र भगाने की क्रिया करते हैं । इसी समय लोगोंने अपने तराजू बाँट कलम शस्त्र आदि बदले और साफ किये। और अन्नकूट लगाकर मिठाइयाँ बाँटी, दान दिया। द्वितीयके दिन हर तरह शद्ध होकर बहिन-बेटियाँ अपने भाइयोंको नव-वर्षका टीका करती हैं । यम का कार्य-निर्वाण हो जानेके बाद चूँकि यह पहिली द्वितीया आती है अतः इसे 'यम द्वितीया' नाम दिया गया। इस तरह कार्तिक-कृष्णा त्रयोदशीसे कार्तिक शुक्ला दोज तकके सारे उत्सव महावीरकी निर्वाण-क्रिया शद्धि, नव वर्षारम्भ आदिकी पुण्य स्मृतियाँ हैं । यह समूचा पर्व महावीर निर्वाणक्रियाका प्रतीक है । ___ इस पर्वपर हमारा उत्तरदायित्व इसलिये विशेष रूपसे बढ़ जाता है कि इस दिन तीर्थङ्कर महावीर इस संसारमें नहीं रहे थे और हमारे पुरखाओंने दीप-ज्योति जलाकर प्रतिज्ञाएँ की थी कि जिस अहिंसा, समता Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : ५९३ और वीररागताकी पुण्य-ज्योतिको महावीरने अपने जीवनमें जलाया था उसे हम बराबर 'ज्योतिसे ज्योति जले' के अमर नियमानुसार कायम रखेंगे और अपने जीवनसे विषमताओंको हटाकर मानव समत्व और अन्तः सर्वभूत महामैत्री अमृत आलोक फैलायेंगे । और महावीरके जीवन कालका वर्ष समाप्त कर अपने कन्धोंपर आये हुए सांस्कृतिक भारको उल्लास पूर्वक सम्हालनेके लिए नव-वर्षका आरम्भ कर रहे हैं। हम उन्हींकी सन्तान दीपक जलाते हैं, लक्ष्मीपूजन करते हैं, नव-वर्षका आरम्भ करते हैं पर उनकी अहिंसा ज्योतिको भूल गये । उस महावीर प्रभुका नाम लेकर ही शूद्रोंके मन्दिर प्रवेशका विरोध करते भी नहीं लजाते । जिस परिग्रह पिशाचसे पिंड छुड़ाकर वह ज्ञातृकुलका राजकुमार अपनी भरी जवानीमें निर्द्वन्द्व स्वतन्त्र और बाहर भीतरकी सब गाँठे खोलकर परम निर्ग्रन्थ बना उसी परिग्रह-पिशाचके आवेशोंमें अनेक प्रकारके ऊटपटांग नाटक करते हैं और धर्मके क्षेत्रमें उसी परिग्रहका प्रदर्शन कर उसीकी महत्ता स्थापनकर धर्मकी, महावीरकी और आत्माकी विडम्बना कर रहे हैं। जिस जन्मना वर्णव्यवस्था जाति-पाति आदिकी भेदक हिंसामय दीवालोंसे ऊपर उठकर उस सन्मतिको सब मनुष्यों को ही नहीं पशु-पक्षियों और जीव-मात्रको समान रूपसे बैठने के लिए समवशरण (समानतासे-समतासे बैठनेकी धर्म-सभा) बनाया गया था आज उसी समवशरणके प्रतीक मन्दिरोंमें हमने अनेक प्रकारके निषेध लगा रखे हैं, और बोलते हैं 'महावीरकी जय' । धिग् व्यापकं तपः। ___दीपावली हमें वही ज्योति देने आई है यदि हमारी विवेककी आँखें खुली हों। वह प्रतिवर्ष आती है-और कहती है-उत्तिष्ठत, जाग्रत-उठो, जागो और इस दिन महाप्रभुके अन्तिम उपदेश 'समयं गोयम मा पमायए' गौतम, क्षण भर भी प्रमाद न कर, पुण्य सन्देश देती है। हमें वह ज्योति मिले, हमारा वह नवोदय हो जिससे उस पुण्य पुरुषके समतामय समयसारसे जीवनको शम और सममय बनावें और श्रमसे स्वावलम्बनकी ओर बढ़े। nirm Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावना और विवेक भावना मनकी लहर है और विवेक वस्तुका यथार्थ विज्ञान | भावना सत्य हो सकती है परतथ्य ही नहीं। भक्तको अपनी भावनावश आँखोंके चारों ओर भगवान् ही भगवान् दिखाई देते है। इसीलिए तो कहा जाता है कि भगवान्के दर्शनके लिये भक्तकी भावनामयी आँखें चाहिए । पर विज्ञानको प्रयोगशालामें तो हाइड्रोजन और आक्सीजनसे ही पानी बन सकता है। नियत कार्यकारण भाव और पदार्थ स्थितिकी उपेक्षा यहाँ नहीं हो सकती । भावनासे कविता हो सकती है और उसके श्रवण मनन और निदिध्यासनसे व्यक्तिकी मुक्तिभी हो जाय पर यथार्थ विज्ञान और वस्तु व्यवस्था विवेक या विज्ञानसे ही हो सकती है। विवेकका सूर्य किसी भी कोनेमें अन्धकार नहीं रहने देना चाहता । भावना भवनाशिनी भी हो सकती है, पर यदि उसे विवेकसे ज्योति न मिले तो उसके भवपातिनी भी होने में सन्देह नहीं है। सर्वधर्म समभाव बहुत सुन्दर लगने वाली भावना है और विभिन्न मत वाले देशमें बुद्धि भेद और मतभंदके व्यावहारिक समाधानका एक अच्छा रास्ता भी है । यद्यपि 'अनेकान्त दर्शन' ने वस्तुके विराट स्वरूपके आधारसे वस्तुमें अनेक विरोधी धर्मोंका समन्वय किया है, पर इसने काल्पनिक मतवादोंके वस्तु-स्थिति-विहीन समन्वयका प्रयास नहीं किया। इसने वस्तुमें जो अनेक विरोधी धर्म हैं उनको दिखा कर यह बताया कि विभिन्न दष्टिकोणोंसे वस्तु अनन्त धर्मोंका आधार है, उनमें विरोधी भी धर्म हैं । परन्तु संघ रचना और धर्मका स्थायी आधार वे ही तत्त्व हो सकते हैं जिनसे व्यक्तिकी मुक्ति और समाजमें स्थायी शान्ति हो सकती है। उन्हीके समन्वयसे ही हम उन्नतिका द्वार खोल सकते हैं । वस्तु स्थितिसे विरुद्ध धर्मोके समन्वयका प्रयास स्थायी कल्याण नहीं कर सकता । उदाहरणार्थ हम ईश्वरकर्तृत्व और व्यक्तिस्वातन्त्र्यको ले लें। ईश्वरवादी जन्मसिद्ध ऊँच नीच व्यवस्था और अनन्त पदार्थोंपर प्रभुसत्तामें विश्वास करते हैं और उसका समस्त मतवाद शास्त्र पडित प्रचार आदि वर्ग संरक्षणको ध्रुवकील पर घूमता है जब कि द्रव्यस्वातन्त्र्यवादी प्रत्येक द्रव्यको अपने में परिपूर्ण और स्वतन्त्र मानता है । वह एक द्रव्यका दूसरे द्रव्यपर नैसर्गिक अधिकार नहीं मानता है । प्रभुसत्ता ही इसके मतसे मिथ्यात्व और हिंसा है, अनधिकार चेष्टा है, चाहे वह जन्मसिद्ध हो या कर्मसिद्ध । यह तो सहयोगमूलक गुणसिद्ध व्यवस्था पर विश्वास करता है। अब इसका समन्वय कीजिए । एक और प्रभुसत्ता है और दूसरी ओर व्यक्तिकी स्वतन्त्रता । एक ओर ईश्वर, उसका प्रतिनिधि राजा, उसके सर्वोच्च अंगसे उत्पन्न होने वाला और अपनेको सर्वश्रेष्ठ मानने वाला यज्ञजीवीवर्ग और दूसरी ओर स्वभावसिद्ध सृष्टि, सहयोग पद्धतिसे चुनी हुई गणतन्त्रीय व्यवस्था, गुण कर्मानुसार आजीविकाके लिये स्वीकृत वर्णव्यवस्था और सबको समान अवसर। इस ईश्वरवादमेंसे एक भावना तो निकाली जा सकती है कि-'हम सब एक ही ईश्वरको सन्तान है अतः हमें परस्पर भाईचारेसे रहना चाहिए।" पर इसके तत्वज्ञानका पाया वर्गस्वार्थका ही पोषण करता है और पदार्थोंको परावलम्बनके मुंहमें ढकेल देता है। इसलिये आवश्यकता विवेक की है। हमारी भावनाको ज्योति देने वाला तत्वज्ञान यथार्थ हो वस्तुस्पर्शी हो । भावनाओंसे तत्वज्ञान निष्पन्न न हो किन्तु तत्वज्ञानकी ज्योतिसे भावनायें अनुप्राणित हों । बुद्धने 'जगत् क्षणिक है, अनित्य है, शून्य है, निरात्मक है, अशुचि है ये भावनाएँ भाई थीं, और आत्मादिका तत्वज्ञान Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : ५९५ शिष्योंको अनुपयोगी बताया था जिसका परिणाम यह हुआ कि पीछे प्रत्येक भावनाने क्षणिकवाद शून्यवाद नैरात्म्यवाद आदि वादोंका रूप ले लिया और आत्मा लोक आदिके सम्बन्धमें आज भी कोई निश्चित तत्वज्ञान नहीं मिला । अतः ऐसा तत्वज्ञान और विवेक हमें पहले प्राप्त करना होगा जिसके आधारसे शान्ति और मुक्तिकी भूमिका तैयार की जा सके और जिसकी भावनासे अपने जीवनको भावित कर भावनाको भवनाशिनी साबित कर सकें। विपरीत मत वालोंके प्रति माध्यस्थ्य भाव रखना तो उचित है पर विपरीतता और अविपरीतताका विवेक तो हमें करना ही होगा। परस्पर विरोधी दो या अनेक धर्मोमेंसे अविरोधी सामान्य तत्व ढंढना जुदी बात है पर उनकी वे विशेषताएँ जिन पर कि उनकी भिन्नता कायम है, दृष्टिसे ओझल नहीं की जा सकतीं। यद्यपि अनेकान्तदर्शन और स्याद्वादने वस्तुस्थितिके आधारसे विभिन्न मतवादोंके निरीक्षणका प्रयत्न और उनके समन्वयको साकार रूप देनेका अद्वितीय प्रयास किया पर उसने वस्तु स्थितिका उल्लंघन कर कल्पित काम चलाऊ समन्वय नहीं किया । जो धर्म वस्तु में नहीं है उनसे इनकार किया। आचार्य हरिभद्र आदिने भी बौद्ध और सांख्योंका खण्डन किया पर उनके प्रति आदर भाव रख कर, उनकी नियत पर आक्षेप न करके । एक वैद्यको रोगीके हितकी कामना रहने पर भी औषधि विषयक विपर्यास हो सकता है। अतः केवल भावना ही नहीं विवेककी परम आवश्यकता है। आदरणीय प्रो० बेचरदास जी दोशीका केवली कौन' लेख हम इसी अंकमें प्रकाशित कर रहे हैं। 'केवलज्ञान या सर्वज्ञता हो सकती है या नहीं' यह विषय गम्भीर पर्यालोचनकी अपेक्षा करता है । उन्होंने जो सबके प्रति आदर भाव, परस्पर मैत्री, कटुताका अभाव आदि अहिंसक निष्कर्ष निकाले हैं उनसे सहमत होकर भी हम मतवादोंके विवेकज्ञानको गौण स्थान पर नहीं रख सकते । सम्यग्दर्शन हमें वैनयिकवृत्तिसे आगे ले जा कर विज्ञान ज्योतिमें खड़ा करता है और उनके यथार्थ बोधकी प्रेरणा देता है। ___ मतका अहंकार बुरा है विवेक बुरा नहीं । यह ठीक है कि अपने अपने द्रव्य क्षेत्र काल भावके अनुसार हितबुद्धिसे उन मतोंकी प्रवृत्ति हुई होगी और हमें उन्हीं द्रव्यकाल क्षेत्र भावकी परिधिमें बैठ कर ही उन मतोंकी उपयोगिताको आंकना चाहिए पर आज की द्रव्य क्षेत्र काल भावकी परिस्थितिमें हमें कोई एक या कुछ एक तो चुनने ही होंगे । इतना ही विवेक है और यही सम्यग्दर्शन है। Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरमशरीरी भगवान् बाहुबली अस्ति तावदस्मिन् देशे धन-धान्य समृद्धा बहुजनसंकुला धर्मतीथंस्वरूपा अयोध्यया नाम नगरी । पुराकाले तत्र भोगभूमिस्थितिप्रच्युतौ कर्मभूमिव्यवस्थाप्रवृत्ताणां च विश्वक्षत्रगणाग्रणीः नाभिराजोऽन्त्यो कुलकरोऽभवत् । तस्य जनताप्राणदायिनी परमसौभाग्यं भुंजन्ती सुमंगला मरुदेवी आसीत् । कालान्तरे श्री- ह्री-धृतिबुद्धि-कीर्तिलक्ष्म्यादि विविधाभिः देवीभिः परिवेष्टित जगद्धितकरं प्रथमतीर्थकरपदभाजं पुत्रं लेभे । अस्मिन्नेव भवेऽयं धर्मामृतं वर्षिष्यतीति स्वजनः सह इन्द्रेण स वृषभ इति नाम्ना आहूतः । अत्रान्तरे युवराजपदभाक् स भगवान् स्वपितृप्रेषितसर्वजनेभ्यः अस्यादिकर्मणां शिक्षां प्रदाय गृहस्थोचितवैवाहिककर्मणि तेन द्वे कन्ये परिगृहीते । तत्र ज्येष्ठा देवी यशस्वतीति नाम्ना कनिष्ठा देवी सुनन्देति नाम्ना ख्यातिं गते । अथ क्रमशः यशस्वी देवी पुत्राणां शतं कन्यामेकां च सुषुवे । तत्र ज्येष्ठः पुत्रः भरत इति नाम्ना कन्या ब्राह्मीति नाम्ना च ख्यातिं गतौ । तेन कारणेन देशोऽयं भारतवर्ष इति नाम्ना तथा पुरातनलिपिः ब्राह्मीति नाम्ना प्रसिद्धि गतौ । अस्मिन्नेवावसरे कनिष्ठा देवी बाहुबलीति नामकं पुत्रमेकं सुन्दरीति कन्यामेकां सुष । एवं स्वजनैः संवृतः स योगिराट् भगवान् स्वपितृदत्तसाम्राज्यपदं भुञ्जमानः प्रजारक्षणादिकर्मणि दत्तावधानः सुखेन कालमभवत् । अथान्येद्युः राजसभायां सिंहासनारूढं तं देव देवराट् साप्सराः सगन्धर्वः उपासदत् । ततः भक्तिनिर्भर: स देवराट् सप्रयोजनं नृत्यं प्रायूयुजत् । स भगवान् तद् दृष्ट्वा अन्यतमसंसर्गात् शुद्धः स्फटिक इव सानुरागो जातः । एतत् दृष्ट्वा इन्द्रेण चिन्तितं देवोऽयं राज्यभोगात् कथं विरज्येदिति प्रक्षीणायुजं नीलांजनानामकं पात्रं तस्मिन् कर्मेण प्रायुक्त । रसभावलयोपेतं नटन्ती सा आयुर्दीपसंक्षये क्षणाददृश्यतां प्राप । तदा तस्मिन्नेव क्षणे रसभंगभयात् इन्द्रोऽन्यां देवीं संदधे । एतत् किमिति विचार्यमाणस्य निर्वेदभावनोपेतस्य भोगात् विरज्यतः तस्य भगवतः महती वैराग्यभावना जाता । तेन चिन्तितम् - अहो इदं जगत् विनश्वरम्, लक्ष्मीः तडिद्वल्लरीव चंचला, यौवनं वपुः आरोग्यं ऐश्वर्यं च चलाचलम् इति संसृतिस्वरूपं परिज्ञाय निर्वेदवैराग्यपरः भवन् स भगवान् लौकान्तिकदेवैरनुमन्यमानः क्रमादयोध्यायः नातिदूरे नात्यासन्नं सिद्धार्थनामकं वनं सम्प्राप्य व्युत्सृष्टान्तरंग - बहिरंगसंतः सन् पञ्चपुष्टिकं केशान् लुञ्चमानः वीतरागप्रवणां जिनमुद्रामुपाददे । अत्रायं विशेष: यत् जिनमुद्रास्वीकरणात् पूर्वं तेन भगवता सर्वपुत्रेषु साम्राज्यस्य विभागः कृत आसीत् । तत्र अयोध्यायाः भोक्ता भरतः जातः । तथा दक्षिणदेशस्थ पोदनपुरसाम्राज्यस्य भोक्ता बाहुबली अभवत् । I अनन्तरं यदा भगवान् चतुःघाति कर्माणि हत्वा केवलज्ञान विभूत्या सम्पन्नोऽभवत् तदैव भरतराज्यस्यायुधशालायां चक्ररत्नं समुत्पन्नम् । तेन भरतराजः भरतवर्षस्य षट्खण्डानि विजित्य यदायोध्या परावृतस्तदा चक्ररत्नं नगराद्वहिः अवरुद्ध ं दृष्ट्वा चिन्तितवान् - अहो केन कारणेनेदं चक्ररत्नं नगरे न प्रविशति । तदनन्तरं समुचित - कारणं ज्ञात्वा मन्त्रिभिः निवेदितम् - भो स्वामिन् ! इदानीं यावत् तव बन्धुभिः तवाज्ञा नैव स्वीकृता अतः इदं चक्ररत्नं नगरे न प्रविशति । एतत् रहस्यं ज्ञात्वा तेन चकवर्तिनाज्ञापत्रं दत्वा स्वबन्धूनां समीपे दूताः प्रेषिताः । अन्ये सर्वे बान्धवः आज्ञापत्रं दृष्ट्वा परमनिर्विण्णाः सन्तः भगवत ऋषभदेवस्य समीपे गत्वा जिनदीक्षामादाय मुक्तिमार्गे रताः जाताः । केवलं बाहुबली तं दृष्ट्वा विचारयति यदहं मम पित्रा दत्तं राज्यं भुञ्जामि, नात्र भरतराजस्य Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थं खण्ड : ५९७ हस्तक्षेपं योग्यः । अतः आज्ञापत्रं अस्वीकुर्वता तेन दूतमुद्दिश्य प्रोक्तम् - गच्छ त्वं स्वस्वामिनं कथय कः कस्य आज्ञाकारी भवितुमर्हः ? इत्यस्य निर्णयो युद्धाभूमावेव भविष्यति । ततः दूतेनागत्यं यथा जातं निवेदितम् । एतत् श्रुत्वा भरतराजः क्रुद्धः भवत् युद्धाय सन्नद्धो जातः । तदनन्तरं पोदनपुरबहिर्भागे युद्धोचितरणभूमी उभयोः सैन्ययोः सम्मेलनं यदा जातं तदोभयपक्षवर्तिभिः मन्त्रिभिरेकत्रीभूय विचारितम् - एतौ चरमशरीरौ युद्धेन नानयोः काचित् क्षतिः भविष्यति । एतेन युद्धरतजनानामेव संक्षयः स्यादिति निश्चित्य तैः तयोः मात्रोरनुमति लब्ध्वा धम्यं युद्ध घोषितं कथितं च जनसंहारकारिणाऽकारणरणेनालम् । एतेन महानधर्मः गरीयान् यशोवधश्च स्यात् । इयं बलपरीक्षाऽन्यथाप्युपपद्यते । अतः युवयोरेव मध्ये जलयुद्ध ं दृष्टियुद्ध बाहुयुद्धमितित्रयात्मकं युद्ध ं भवतु । अनेनोपायेन यस्य विजयः स्यात् स उभाभ्यां स्वीकरणीय इति । ततः एवं प्रकारके त्रयात्मके युद्ध े सम्मतिं दत्वा तौ भ्रातरौ उभयप्रमाणीकृत्य प्रथम जलयुद्धरतौ जातौ । ततः कृच्छ्रादेवंप्रकारके त्रयात्मके युद्ध सम्मति, दत्वा तौ भ्रातरौ उभयपक्षवर्तिनः राज्ञः प्रमाणीकृत्य प्रथमं जलयुद्धरतौ जातौ । अस्मिन् युद्धे एकौऽपरस्योपरि स्वदोर्भ्यां अतिवेगेन जलं प्रक्षिपति । परं भरतेन मुक्तः जलौघः प्राशोः दौर्बल्यशालिनः मुखमप्राप्य आरात् समापतत् । एतेन अस्मिन् युद्धे भरतः पराजितो जातः । अनेनैव कारन भरतः दृष्टियुद्ध मुष्टियुद्ध े च पराजितो जातः । तदा क्रोधान्धेन निधीशिना चक्रिणा शत्रुक्षयकरं चक्रं स्मृतम् । स्मरणमात्रेण चक्ररत्नं समुपस्थितम् । स्वबान्धवाः चक्ररत्नेनावध्याः इति । नियमस्यावहेलनां कृत्वा बाहुबली स्वामिनः उपरि तत् प्रक्षिप्तः सन् तस्य प्रदक्षिणां कृत्वा तत्रैव तस्थौ । एतत् किं जातमिति विचार्यमाणः चक्री परं अनुशयं जगाम । तदा क्षीणप्रभं ज्येष्ठभ्रातारं दृष्ट्वा बाहुबली समुद्दिश्य अवदत् - भोबन्धो ! विपाककरोः साम्राज्यस्य कृते भवतैतत् किं कृतम् । अतः भवानेवेदं साम्राज्यं भुनक्तु । एतेन मम किमपि प्रयोजनं नास्ति । अहं तु तीर्थेश्वरस्य भगवतः समीपे गत्वा मोक्षमार्गरतो भवामि । ततः स स्वनन्दने महाबलिनि निक्षिप्तपोदनपुरराज्यधिगः तीर्थेश्वरस्य गुरो: परमाराधयन् जिनदीमुपाददे । तदनन्तरं जिनागमाध्ययनपरायणः सः गुरोरनुमति सम्प्राप्यैकविहारी भूत्सा आवर्ष प्रतिमायोगमातस्थे । तदवस्थायां तस्य शरीरं व्याप्तकीट-पतंगाभिः माधवीलताभिः निःसर्पत्सर्पः वाल्मीकैश्च व्याप्तं जातम् । वर्षान्ते यस्मिन्नेव क्षणे चक्रवर्तिना भरतेन तस्य महती पूजाऽरब्धा तस्मिन्नेव क्षणे स भगवान् बाहुबली चतुःघातिकर्माणि हत्वा केवलं ज्ञानविभूत्या सम्पन्नोऽभवत् । ततः स भगवान् तीर्थेश्वरवृषभेनाधिष्ठितं कैलाशमचलं सम्प्राप्य क्रमेण समस्तकर्माणि हत्वा च मोक्षलक्ष्म्यधिष्ठितो जातः । পেকক ক Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरे जीवन-दाता वर्णीजी व्यक्ति आखिर व्यक्ति है । कालकी गति के साथ प्रत्येक व्यक्तिकी इह लीला समाप्त होना स्वाभाविक है । फिर भी कुछ व्यक्ति ऐसे अवश्य होते हैं जो कालपर भी विजय पाते हुए देखे जाते हैं । इह लीला समाप्त होनेपर भी अपने जीवित कार्यों द्वारा उनका चिरकाल तक अस्तित्व बना रहता है । इस कालमें जो इस गणनाके योग्य हैं उनमें श्रद्धेय वर्णीजी अन्यतम हैं । वे अब हमारे मध्य नहीं हैं। पर वे समाजके दृष्टि-ओझल हो जायेंगे यह सम्भव नहीं है । उन्होंने अपने जीवनकालमें रचनात्मक दृष्टिसे जिस इतिहासका निर्माण किया है। वह युग-युग तक उनकी जीवन कहानी मुखरित करता रहेगा । अभी मेरा शिक्षा - काल पूरा नहीं हुआ था कि जबलपुरमें शिक्षामन्दिर खुलनेवाला है और उसके प्रधानाचार्य श्रद्धेय पं० वंशीधरजी न्यायालंकार होने वाले हैं यह सुसमाचार मुझे जबलपुर खींचकर ले गया । जिस दिन मैं जिस गाड़ीसे अपने घर लौट रहा था, उसी गाड़ीसे श्रद्धेय वर्णीजीने भी सागरके लिये प्रस्थान किया । श्रद्धेय पंडित जी उनके साथ चल रहे थे। गाड़ी कटनी तक आती थी, इसलिये उनके साथ मैं भी वहीं रुक गया । मुझसे यह कहकर कि सामान छात्रावासमें रखा आओ, वे श्री जिनमन्दिरजीमें चले गये । सामान रखाकर पीछेसे मैं भी पहुँच गया । दर्शनविधि सम्पन्न होनेपर दोनों महानुभाव सामायिक करने लगे । मैं कर्मकाण्ड ग्रन्थका स्वाध्याय करने लगा । इसी बीच खबर पाकर अनेक श्रावक और श्राविकाएँ श्रद्धेय वर्णीजीके मुखसे अमृतवाणी सुनने और उनका पुनीत दर्शन करनेके लिये वहाँ एकत्रित हो गये । सामायिक विधि सम्पन्न होनेपर प्रवचन के लिये सबने श्रद्धेय वर्णीजीसे प्रार्थना की। मैंने अवसर देखकर चौकी उनके सामने रख दी । किन्तु उन्होंने स्वयं प्रवचन न कर मुझसे कहा - "भैया ! कौन ग्रन्थ है ?" " मैंने कहा - " कर्मकाण्ड वे बोले – “पढ़े हो ?" मैंने कहा - "हाँ, पढ़ा हूँ," पंडितजीकी ओर संकेत करते हुए पुनः कहा - "गुरुजीने ही पढ़ाया है ।" सुनूँगा और सब सुनेंगे। कहो भैया ! ठीक है न ।” कौन निषेध करे, सबने वे बोले - " तो सुनाओ, मैं संकोचवश हाँ भर दी । उनकी यह अनुग्रहपूर्ण वाणी सुनकर मैं तो गद्गद् हो गया । मिनट - दो मिनट स्तब्ध रहनेके बाद मैं अपनी शक्ति अनुसार व्याख्यान करने लगा । मेरे उस व्याख्यानको सुनकर वे पण्डितजीसे बोले, भैया ! बालक तो बुद्धिमान दिखाई देता है । इसे शिक्षामन्दिर में सहायक अध्यापक बना लेना | आपके पास अध्ययन भी करेगा और मध्यकी कक्षाओंके छात्रोंको अध्यापन भी करायेगा । फिर मुझे लक्ष्य कर बोले, भैया ! पत्रकी प्रतीक्षा नहीं करना । जिस दिन शिक्षामन्दिरका उद्घाटन हो, आ जाना। समझो, तुम्हारी नियुक्ति हो गई । अभी २५) रु० मासिक मिलेगा। आगे तरक्की हो जायगी । उनका यह प्रथम आशीर्वाद है जिसे पाकर मैं धन्य हो गया । शिक्षामन्दिरका उद्घाटन कर श्रावणमासमें पूज्य श्रीका नागपुर जाना हुआ पके लिए एक विद्वान्की याचना की । पं० फूलचन्द्रको बुला लेना यह कह कर वे । समाजने उनसे दशलक्षण सागर लौट आये । मुझे Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : ५९९ आमन्त्रण-पत्र मिलनेपर मैं सागर भागा गया। श्री चरणोंमें निवेदन किया मैं इस योग्य नहीं हूँ। बोले, एक दिन रुको, (बाईजीके हाथका) प्रेमसे भोजन करो, शान्तिसे बात करेंगे। मैंने समझा मेरी सुन ली गई, बड़ी प्रसन्नता हुई । अपने साथ बिठाकर प्रेमपूर्वक भोजन कराया । श्रद्धेय बाईजीके हाथका सुस्वादु भोजन पाकर मैं धन्य हो गया । भोजनके अन्तमें वहीं बोले-देखो बाईजी! यह बालक कैसा हठी है। मैं नागपुर वचन दे आया। यह मना करता है । यहाँ भगा आया । इसे समझा दो । यह अपना भविष्य नहीं देखता । बालक होनहार है, बन जायगा तो.... । मैं मुँह देखता रह गया । गुरु-कृपा मानकर नागपुर गया तो, पर साथमें समझा-बुझाकर श्री पं० हीरालालजी सिद्धान्तशास्त्रीको भी ले गया। शिक्षामन्दिर सुचारुरूपसे चलने लगा। सुपरिन्टेन्डेन्टके पदपर स्व० श्री छोटेलालजी मास्टरकी नियुक्ति हुई। मंत्री स्व० श्रद्धेय कन्छेदीलालजी वकील थे। कुछ दिन तो मास्टर साहबने ठीक ढंगसे काम चलाया। बादमें अपना रंग जमानेके लिए उन्होंने कुछ ऐसी नीति अपनाई जिससे शिक्षामन्दिरकी प्रगति रुक गई। उनकी इसी नीतिके कारण मैं शिक्षामन्दिर छोड़कर बनारस चला आया । उस समय पूज्य श्री वहाँ विराजमान थे ही। पूरा समाचार जानकर उन्होंने मुझे अन्य दर्शनोंके शिक्षणके लिए विद्यालयमें स्थान दे दिया और २५) रु. माह वृत्ति निश्चित कर दी। किन्तु मैं उनके इस शुभाशीर्वादका अधिक समय तक लाभ न उठा सका। अपनी गह-सम्बन्धी आर्थिक कठिनाईके कारण मुझे अध्यापकी जीवन व्यतीत करनेके लिए विवश होना पड़ा। मध्यका काल ऐसा बहुत है जो प्रकृतमें विशेष उल्लेखनीय नहीं है । सन् ४१ मे मथुरासंघने श्री जय प्रकाशनका निर्णय लिया। उसका अनुवादादि कार्य सम्पन्न करनेके लिए मुझे बनारस आमन्त्रित किया गया। मैं जेलयात्रासे हई शारीरिक क्षतिको पूरा कर पुनः बनारस आ गया और इस मंगल कार्यमें जुट गया। इसी बीच अ० भा०दि० जैन विद्वत्परिषदकी स्थापना हुई । मैं उसका संयुक्त मंत्री हुआ । कार्यालयका भार मुझे ही सौंपा गया। निश्चय हुआ कि कटनीमें होनेवाले विशेष उत्सवके समय वहाँ इसका पूज्य श्री की अध्यक्षतामें प्रथम अधिवेशन किया जाय । उस समय पूज्य श्री पनागरमें विराजमान थे। निवेदन करनेके लिए मैं ही नियुक्त किया गया । मैं पनागर गया । पूज्य श्रीसे निवेदन किया । बहुत अनुनय-विनय करनेपर स्वीकृति मिल गयी । अधिवेशन तो निश्चित समयपर हुआ, पर इस दौड़-धूप और कार्याधिक्यके कारण मैं लीवर जैसे कठिन रोगसे इतना ग्रसित हआ कि लगभग सात माह तक अन्नके दर्शन करना भी दुर्लभ हो गया। केवल फलोंके रस और दूध पर ही मुझे रखा गया। पण्डितकी आजीविका कितनी ? काम करो, वृत्ति लो। आजीविका बन्द हो गई। पासमें जो सोना-चाँदी था उसमेंसे कुछ हिस्सा बेचकर काम चलाने लगा। यह समाचार परम कृपालु पूज्य श्रीके कानों तक पहँचा। उनकी आत्मा द्रवीभत हो उठी। तत्काल उन्ह.ने आ० बाब रामस्वरूपजी बरुआसागर वालोंको संकेत कर ६००) रु. भिजवाये। मुझे गुरुकृपाका सहारा मिला, अच्छा होकर पुनः जयधवलाके सम्पादनमें जुट गया । यह पूज्य श्रीकी ही महती कृपा है कि मैं आज जीवित हूँ और धर्म-समाजके कार्योंमें योगदान कर रहा हूँ। श्री गणेशप्रसाद दि० जैन वर्णी ग्रन्थमालाकी मंगल स्थापना इन्हीं ६००) रु. के शुभ-संकल्पसे की गई थी। हालांकि मैं उन रुपयोंको कुछ काल बाद ही ग्रन्थमालामें जमा करा सका था। यह मेरा जीवनव्रत है कि जहाँ तक सम्भव होगा मैं अपने जीवनके अन्तिम क्षणतक उनकी पुण्यस्मृतिमें कुछ न कुछ कार्य करता रहूँगा। चैत्रका महीना था। पूज्य श्री सोनागिर सिद्धक्षेत्रपर विराजमान थे। मैं और स्व० डा. महेन्द्रकुमारजी न्यायाचार्य झाँसीकी महावीर जयन्ती सम्पन्न कर श्री सिद्धक्षेत्रकी वन्दना और पूज्य श्रीके दर्शनोंके लिए सोनागिर गये। उस दिन आहारके लिए दो चौकाओंकी व्यवस्था थी। उनमेंसे एक चौका गया निवासिनी Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०० : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ ब्र० पतासीबाईने लगाया था । शुद्धिके पश्चात जब पूज्य श्री आहारके लिए उठे तो दूसरे चौकेवाला प्रौढ़ पुरुष आगे बढ़ा। यह देखकर ब्रह्मचारिणीजी भी आगे बढ़ने लगीं। दोनों में आगे बढ़नेकी एक प्रकारसे होड़-सी लग गई । यह दृश्य देखकर पूज्य श्री ठिठक गये, उस भाईसे बोले-भैया ! क्या करते हो, क्या आहार करानेके लिए यही दिन है, दूसरे दिन करा देना। देखते नहीं हो। ये बाईजी वृद्धा महिला है, तपस्याके कारण कृशशरीर है। थोड़ी तो दया करो। और यह कहकर लौट आये। कुछ देर रुकनेके बाद पुनः शुद्धि कर आहारको उठे । आहार करनेके बाद हम दोनोंसे बोले-भैया! आचारशास्त्र के अनुसार यदि हमसे कुछ प्रमाद हुआ है तो हम प्रायश्चित कर लेते हैं। हमसे वह दृश्य देखकर रहा नहीं गया, इसलिए दो शब्द मुखसे निकल गये । कैसी विडम्बना है, लोग मात्र आहार करानेमें ही धर्म समझते हैं । जहाँ आकुलता हो वहाँ धर्म कैसा ! हम दोनों पूज्य श्रीके ये वचन सुनकर अवाक् रह गये। ___ चौरासी-मथुरामें पंचकल्याण-प्रतिष्ठाका आयोजन था । पूज्य श्री वहाँ विराजमान थे। देशके कोनेकोनेसे बड़े-बड़े पुरुष आये हुए थे। हम पण्डितोंका भी पूरा मजमा हो गया था। एक दिन प्रमुख विद्वानोंने पूज्य श्रीको आहार देनेका संकल्प किया। प्रतिग्रह करनेके लिए खड़ा किसे किया जाय । सबने विचार कर परीक्षाके तौरपर मुझे खड़ा कर दिया। श्री मन्दिरके प्रांगणमें शुद्धिविधि सम्पन्न कर पूज्य श्री आहारके लिए उठे। किन्तु वे विरुद्ध दिशामें चले गये । ३०-४० चौके लगे थे। आशा-निराशाके झू लेमें मैं झूलता रहा । यह तो होनहार ही समझिये कि पूज्य श्री उन सब चौकोंमेंसे होते हुए वहाँ पधार गये जहाँ हम पण्डितोंने चौका लगा रखा था। मेरी श्रद्धा फलीभूत हुई। सोल्लास वातावरणमें आहारविधि सम्पन्न होनेपर आशीर्वादोंकी पुष्पवृष्टिसे मैं धन्य हो गया । वहीं दूसरे दिन पूज्य श्रीका प्रवचन हो रहा था। उसी समय एक भाईने आकर मेरे हाथमें तार थमा दिया । मैंने उसे खोले बिना ही कुरतेके ऊपरी जेबमें रख तो लिया, किन्तु बार-बार हाथ उस ओर जाने लगा। मन होता था कि खोलकर पढ़ लूं। मेरी यह मनःस्थिति और हाथकी हलन-चलन क्रिया पूज्य श्रीके दृष्टिसे ओझल न रह सकी। प्रवचनकी धारा बन्द कर बोले-भैया ! आकुलित होनेसे अच्छा तो यह है कि खोलकर पढ़ लो । मैं सिटपिटा गया । पुनः बोले-घबड़ाओ नहीं। तुम खोलकर पढ़ लो। उसके बाद ही मैं प्रवचन करूँगा। गुरु आज्ञा मानकर मैंने तारको खोलकर पढ़ाया। तारका आशय समझते ही मेरा चेहरा फीका पड़ गया। तारमें कोई अनहोनी बातका संकेत है, पूज्य श्रीको यह समझते देर न लगी। बोले-भैया ! अब तुम उठ जाओ, अपने कार्यमें लगो। चिन्ता न करो, सब अच्छा होगा। घटना तो अनहोनी थी ही । मेरी छोटी बेटी चि. पुष्पा तीसरे मंजिलसे गिर पड़ी थी, किन्तु वह पूज्य श्रीके आशीर्वादसे पूर्ववत् पुनः स्वस्थ हो गई। ललितपुरमें पूज्य श्रीका चातुर्मास प्रारम्भ हुआ। चातुर्मासकी समग्र व्यवस्था क्षेत्रपालजीमें की गई थी। मैं बीनामें घरपर अपना सामान रखकर एक झोला लेकर पूज्यश्रीके दर्शनके लिए ललितपुर चला गया। मुझे आया हुआ देखकर पूज्य श्रीने वहाँ उपस्थित समाजको संकेत कर दिया-इसे जाने नहीं देना। मैं निर्देशको टाल न सका। पांच माह तक उसी स्थितिमें रहा आया । वर्णी इण्टर कालेजकी स्थापना उसी चातुर्मासका सुफल है। मुझे अपने प्रदेशकी सेवा करनेका सुअवसर मिला। मैंने इसे पूज्य श्रीका शुभाशीर्वाद माना। चातुर्मास सानन्द सम्पन्न हो रहा था । भाद्रपदी दशलक्षणपर्व सम्पन्न हुआ ही था कि इसी बीच पूज्य श्रीको गुदाके बगलमें अदष्ट फोड़ेने दबोच लिया। चलने-बैठने में तकलीफ होने लगी। तब कहीं पता लग सका कि गुदाके मुखद्वारके बगलमें अदृष्ट फोड़ा अपना स्थान बना रहा है। जनतामें तरह-तरहकी बातें होने लगीं । कोई कहता चीरा लगना चाहिए, कोई इसका निषेध करता। बहुत विचारके याद चीरा लगाना निश्चित हुआ कि Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थखण्ड : ६०१ इंजक्शन लगाने न लगानेके विवादने सबको आ घेरा । जनता इंजक्शन लगाकर चीरा लगाया जाय इस पक्ष में न थी । पूज्य श्री के सामने भी यह प्रश्न उपस्थित हुआ । वे बोले - भैया ! इतनी चिन्ता क्यों करते हो। मैं स्वयं इंजक्शन लेकर चीरा लगवानेके पक्षमें नहीं हूँ । तब कहीं जनताने संतोषकी साँस ली । टीकमगढ़ से डाक्टर बुलाया गया । फोड़ा देखकर उसने कहा कि महाराजजी बिना इंजक्शन लगाये चीरा लगाना सम्भव नहीं है । किन्तु पूज्य श्रीने उसे समझाकर कहा - भैया ! आप चिन्ता क्यों करते हो, आप निर्द्वन्द्व होकर अपना काम करो । मेरे कारण आपको चीरा लगाने, उसे साफ करने और मलहम पट्टी करन में कोई दिक्कत नहीं होगी । बहुत समझाने-बुझानेके बाद उसे तैयार किया जा सका । पूज्यश्रीको भीतरके एक कमरे में पट्टेपर ओंधा लिटाया गया । मात्र मैं और स्व० श्री लाला राजकृष्णजी सम्हाल के लिये वहाँ रह गये और सबको अलग कर दिया गया । मैं पैरोंको सम्हाल रहा था और श्री राजकृष्णजी ऊपरी भाग को। डाक्टरने फोड़को साफ कर नस्तर लगाया । दुर्गन्धमय पू का फुव्वारा फूट पड़ा । फोड़ेने लगभग चार अंगुल गहरा स्थान बना लिया था । घेरा ६ इंचसे कम न होगा । इतना बड़ा फोड़ा होते हुए भी सजीव शरीरमें चीरा लगाया जा रहा है यह अन्दाज लगाना कठिन था । समाधिस्थ पुरुषकी जो स्थिति होती है उसी स्थितिमें पूज्य श्रीने स्वयंको पहुँचा दिया था । न हाथ हिले, न पैर हिले और न शरीरका शेष भाग ही हिला । ओंठ जैसे प्रारम्भ में बन्द थे, अन्त तक उसी तरह बन्द रहे आये । लगभग इस पूरी क्रियाको सम्पन्न करने में २०-२५ मिनट लगे होंगे । पर जो कुछ हुआ सब एक साँसमें हो गया। डाक्टरको आश्चर्य हो रहा था कि ऐसा भी कोई पुरुष हो सकता है ? सब क्रिया सम्पन्न कर अन्तमें जाते हुए वह कहने लगा-ये पुरुष नहीं, महापुरुष हैं । मुझे ऐसे महापुरुषकी यत्किचित् सेवा करनेका सुअवसर मिल सका, मैं धन्य हो गया । मेरा डाक्टरी करना आज सफल हुआ । मैंने आज जो पाठ पढ़ा है वह जीवन भर याद रहेगा । ललितपुर चातुर्मास समयका वर्णीजयन्तीका नजारा भी देखने लायक था । न भूतो न भविष्यति ऐसा वह महोत्सव था । गजरथ जैसे महोत्सवके समय जो जनसंमर्द दृष्टिगोचर होता है वही दृश्य वर्णीजयन्तीके समय दृष्टिगोचर हो रहा था । पूज्य श्री बुंदेलखण्डकी जनता के लिए देवतास्वरूप रहे हैं । उस दिन उसने उसी भावनासे उनके श्री चरणोंमे श्रद्धा सुमन अर्पित किये । पूज्यश्री के जीवन सम्बन्धी ऐसे उल्लेखनीय प्रसंग तो बहुत हैं । तत्काल मुझे एक ही प्रसंगका और उल्लेख करना है जो उनके अन्तिम जीवनसे सम्बन्ध रखता है । अन्तिम दिनोंमें पूज्य श्रीका चलना-फिरना बन्द हो गया था । वाचा ने अपना सूक्ष्मरूप धारण कर लिया था । इतना सब होनेपर भी पूज्यश्रीकी दृष्टि, श्रवण और स्मरण शक्ति बराबर उनका साथ दे रहीं थीं। जिस शारीरिक वेदनामें पूज्यश्रीके अन्तिम दिन व्यतीत हुए उसमें शायद 'कोई अपनेको स्थिर रखने में समर्थ होता । किन्तु उन धीर-गम्भीर महापुरुषकी बात निराली थी। उनकी आन्तरिक वेदनाको वे ही जानते थे । पर उन्होंने अपनी वाचिक या कायिक किसी भी चेष्टा द्वारा दूसरों पर उसे कभी भी प्रकट नहीं होने दिया । जब उनसे मुनिपद अंगीकार करने के लिये निवेदन किया गया तब उनके पिछी ग्रहण करनेके लिये यत्किचित् हाथ उठे और मुखसे अस्पष्ट ये शब्द प्रस्फुटित हो उठे - आत्मा ही आत्माके लिये शरण है और पूर्णरूपसे परिग्रह राहत होकर पूज्यश्रीने अपनी इहलीला समाप्त की । वे ऐसे महापुरुष थे, जिनकी शताब्दि - महोत्सवकी पुण्यबेलामें पुण्यस्मृतिस्वरूप श्रद्धा सुमन अर्पित करते हुए हम सब यही भावना करें कि जिस निष्काम भावसे वे अपने कर्तव्य पथपर अग्रसर होते रहे, उनके द्वारा बताये गये उस मार्गपर चलनेका हमें भी बल प्राप्त होवे । मैं स्वयं तो पूज्यश्री को अपने जीवनदाताके रूपमें स्मरण करता हूँ और जीवन भर स्मरण करत रहूँगा, यही मेरी उस महान दिवंगत आत्माके प्रति श्रद्धांजलि है । ७६ Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंगलस्वरूप गुरुजी अपनी शिक्षा समाप्त कर मोरेनाके जैन सिद्धान्त विद्यालयको छोड़े मुझे चालीस वर्षसे अधिक हो गया है। फिर भी मातृस्वरूप उस शिक्षा संस्थाका स्मरण होते ही चत्तमें विलक्षण सुखकी अनुभूति होने लगती है । मैंने अपने जीवनमें यदि कोई संस्था देखी है तो वह मोरेनाका जैन सिद्धान्त विद्यालय ही है जहाँ सब प्रकारको व्यवस्था होते हए भी शास्य-शासक भावका सर्वथा अभाव था । शिक्षागुरु और स्नातक सब स्वयं स्फूतिसे अपने-अपने कर्तव्यका समुचित रीतिसे पालन करते थे। वहाँ अनुशासन जीवनका अंग बना हुआ था, अनुशासन सिखाना नहीं पड़ता था। ऐसा उदात्त-मुक्त वातावरण मैंने अभी तक अन्य किसी भी जैन शिक्षा संस्थामें नहीं देखा। उस समय जो गुरुजन थे वे सभी अपने-अपने विषयके निष्णात विद्वान् थे। उनके निमित्त उन सब विद्वानोंका जीवन बना है जिन्होंने उनके पादमूलमें बैठकर शिक्षा प्राप्त की है। स्वर्गीय श्रद्धेय पं० खूबचन्दजी शास्त्री संस्थाके मंत्री थे। वे सभी स्नातकोंके प्रति पुत्रवत् स्नेह करते थे । उनके सम्बन्धमें स्वयं अनुभवी हुई एक घटना मुझे आज भी याद है। उसे भूलना सम्भव भी नहीं, क्योंकि उससे मुझे शिक्षा तो मिली ही, मार्गदर्शन भी प्राप्त हुआ। दशलक्षण पर्वके दिन थे। प्रतिदिन श्री जिनमन्दिरमें दोनों समय शास्त्र प्रवचन रखा गया। स्वयं पण्डितजी प्रवचनके समय नियमसे उपस्थित रहते थे। उपस्थित जनता चाहती थी कि शास्त्र प्रवचन वे स्वयं करें। किन्तु उन्होंने एक दिन भी शास्त्र प्रवचन स्वयं न करके मझे वह कार्य करनेको लगाया। था कि यह शिक्षा संस्था है, यहांकी प्रत्येक प्रवृत्ति ऐसी होनी चाहिए जिससे हमारे स्नातक योग्य शिक्षक और धर्मोपदेष्टा बनें । उनपर उपस्थित जनता बहुत नाराज होती रही, पर उन्होंने उसकी चिन्ता नहीं की। शिक्षा और उपदेशके क्षेत्रमें जो कुछ उन्हें देना था वे इस क्रियाके द्वारा मुझे दे गये। वे आज हमारे बीच में नहीं है, पर उनकी यह परिणति सबके लिए मार्गदर्शक है । श्री पं० मनोहरलालजी शास्त्री भी उस समय वहीं निवास करते थे, वे बड़े भद्रपरिणामी थे । यदाकदा मैं उनके पास जाता रहा। आजीविकामे आत्मनिर्भर बननेसे ही विद्या स्फुरायमान होती है यह मैंने उन्हींसे सीखा है। यद्यपि आज मोरेना विद्यालयका वह स्वरूप तो नहीं रहा। उस समय मैंने वहाँ एक विशेषता और देखी । वह यह कि वहाँके प्रबन्धक वर्गमें विद्वानोंकी ही प्रमुखता रही है। मेरी उपस्थितिमें एक बार प्रबन्ध समितिका अधिवेशन हुआ था। मैंने उसमें आये हुए श्रेष्ठिवर्गको मुँह ताकनेवाला ही पाया। यह उक्ति है तो कटक, परन्तु किसी भी शिक्षासंस्थामें प्राधान्य शिक्षासंस्थाके अनुरूप उन्हों शिक्षा विशारदोंका ही होना चाहिए, जिनके कारण वह शिक्षासंस्था कहलानेकी अधिकारिणी होती है। उसमें अर्थका प्राधान्य होते ही शिक्षकोंमें चाटुकारी आये बिना रह नहीं सकती। ऐसा ही इनमें कार्य-कारणभाव है। यहाँ आनेके पूर्व मैं श्री महावीर दि० जैन पाठशाला साढू मलका स्नातक रहा हूँ। मध्यमा तककी शिक्षा मैंने वहींपर स्व० पूज्य पं० घनश्यामदासजी न्यायतीर्थ आदि शिक्षा गुरुओंके पादमूलमें पाई है। पूज्य पं० घनश्यामदासजी व्युत्पन्न और स्वाभिमानी शिक्षा विशारद विद्वान् थे । मुझमें जो यत्किचित् व्युत्पत्ति है यह उन्हींकी देन है। Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड : ६०६ अधिकारियोंके रुखके कारण परीक्षा कालमें जो अव्यवस्था बनी उसकी भरपाई करनेके अभिप्रायवश गर्मियोंके अवकाशके बाद पूज्य पं० बंशीधरजी न्यायालंकार और स्व० पूज्य पं. देवकीनन्दनजी सिद्धान्तशास्त्री हम सब छात्रोंकी परीक्षा लेनेके लिए साढू मल बुलाये गये। इस वर्ष मैंने धर्मशास्त्रमें जीवकाण्डकी परीक्षा दी थी। इसलिए मुझसे अन्य प्रश्नोंके साथ यह पूछा गया कि जीवकाण्ड इस नाममें 'काण्ड' शब्द लगानेका क्या मतलब है ? मैने कहा-'काण्ड' पोर (पर्व) को कहते हैं । आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तीने जिस महाशास्त्रकी रचना की है उसका यह एक हिस्सा है, इसीलिए 'जीवकांड' इस नाममें 'काण्ड' शब्द जोड़ा गया है। मेरा उत्तर सही था या गलत, यह विशेष तो मैं उस समय नहीं समझता था, किन्तु मेरे उत्तर जीवनके निर्माणमें यह हेतु बना इसमें सन्देह नहीं। मेरे मोरेना पहुँचनेका यही कारण बना। रात्रिमें मैं दोनों विद्वानोंसे मिला । स्व० पूज्य पं० देवकीनन्दनजी बोले-इसमें सन्देह नहीं कि तुम्हारे गुरु श्री पं० घनश्यामदासजी व्युत्पन्न और कुशल अध्यापक हैं। किन्तु यहाँ तुम्हारा चतुर्मुखी विकास नहीं हो सकता । तुम प्रत्युत्पन्नमति मालूम देते हो। मोरेना विद्यालयका दरवाजा तुम्हारे लिए खुला हुआ है । सूरा क्या चाहता है- दो आँखें। किसी प्रकार १ माहके भीतर मैं मोरेना पहुँच गया। वहाँ कुछ दिन रहा, पर चित्त न लगनेसे भाग निकला और पुनः सादमल पहुँचा। तब तक साढूमल पाठशालाका नकशा ही बदल गया था। स्व० पूज्य पं० घनश्यामदासजी खेदखिन्न होकर साढ़मल पाठशाला छोड़ चुके थे। फिर भी इस पाठशालाके संस्थापक उदात्तमना श्रेष्ठिवर्य लक्ष्मीचन्दजीकी बीमारीके कारण मैं वहाँ रुक गया। एक दिन सेठजीने मुझे देख लिया। बड़े नाराज हुए और तत्काल प्रबन्ध कराकर मेरी इच्छाके विरुद्ध मुझे पुनः मोरेनाके लिए रवाना कर दिया । लाचार मैं मोरेना विद्यालयका स्थायी स्नातक बन गया। अभी तक मैं पूज्य गुरु गोपालदासजीके विषयमें कुछ नहीं जानता था इतना ही मालूम हुआ था कि वे बहुत बड़े विद्वान् थे और उन्होंने ही इस संस्थाकी स्थापना की है । एक दिन पर्यटनके समय स्व० पूज्य पं० देवकीनन्दनजीने गुरुजीके विषयमें एक संस्मरण सुनाया । बोले-कुछ वर्ष पूर्व बादमें परास्त करनेके अभिप्रायसे गुरुजीके सन्निकट एक विद्वान् पहुँचा । बोला-मैं आपसे वाद करना चाहता हूँ, आप संस्कृत भाषा जानते हैं क्या ? सावधान होकर गुरुजी बोले-अपना पक्ष उपस्थित कीजिए, अन्य बातोंसे आपको क्या मतलब ? अपना पक्ष रखते हुए वह विद्वान् बोला 'ईश्वर जगत्का कर्ता है, समर्थ होनेसे, घटनिर्माणमें निपुण कुम्भकारके समान। इससे जगत्कर्ताके रूपमें ईश्वरका अस्तित्व सिद्ध होता है।' गुरुजी यह सुनकर थोड़े मुस्कराये। धीरेसे उत्तर देते हए बोले'ईश्वर जगत्का कर्ता नहीं है, व्यापक होनेसे, आकाशके समान । अभी वादकी एक ही कोटि चली थी कि 'ईश्वर जगत्का कर्ता नहीं है, व्यापक होनेसे, आकाशके समान'। यह बुबुदाता हुआ वह चुप हो गया। इस अनुमान वाक्यका कैसे खण्डन किया जाय यह उसकी समझमें कुछ भी नहीं आया । प्रणत होकर वह गुरुजीकी अनुनय करने लगा । गुरुजीने उसे सान्त्वना दी है। मेरा यह संस्मरण सनना था कि मेरी गरुजीके प्रति श्रद्धा जाग उठी। खेद-खिन्न होकर मैं अपने मनमें विचार करने लगा कि मैं कितना मन्दभाग्य हूँ कि मुझे ऐसे महापुरुषके दर्शन करनेका सौभाग्य ही प्राप्त न । मैंने कार्यालयमें उनका चित्र तो देखा ही था। मनमें आया कि जब एकलव्यने मिट्रोके भनेको द्रोणाचार्य मानकर धनुर्विद्यामें अर्जुनके समान निपुणता प्राप्त की तो क्या मैं उनके चित्रका प्रतिदिन दर्शन Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०४ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनंदन-ग्रन्थ करके धर्मशास्त्रका अधिकारी नहीं बन सकूँगा ? मन कहने लगा-फूलचन्द्र चिन्ता क्यों करते हो, अपने विचारोंको कार्यान्वित करो, सफलता अवश्य मिलेगी। सच मानिये, जब तक मैं मोरेनामें रहा, कार्यालयके खुलने पर प्रतिदिन मैं उसके सामने जाता और उनके चित्रका दर्शन कर अपनेको धन्य मानने लगा। मेरी धर्मशास्त्रमें विशेष रुचि होनेका यदि किसीको पूरा श्रेय दिया जा सकता है तो वे है गुरु गोपालदासजी । मैंने उनके विषयमें और भी अनेक संस्मरण सुने हैं। किन्तु किसी भी स्नातकके लिए अपनी विद्यामें निपुणता प्राप्त करनेके लिए जितना यह संस्मरण उपयोगी है उतना अन्य नहीं। वह किसी भी विषयका स्नातक क्यों न हो, यह संस्मरण सबके लिए उपयोगी है। __ यहाँ मैं यह स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि इसके बाद मेरे जीवन पर अमिट छाप छोड़नेवाला इसके पूर्व कालीन विद्वानोंमें यदि कोई दूसरा विद्वान् हैं तो वह महापुरुष हैं—पण्डितप्रवर टोडरमलजी। इनके जीवन और साहित्यिक कार्योंसे भी मैंने बहुत बड़ी शिक्षा ली है। आज गुरुजी हमारे बीच में तो नहीं हैं। उनकी स्मृति और कार्यमात्र शेष है। उन्होंने शिक्षाके क्षेत्रमें एक युगका निर्माण किया है । वस्तुतः सब विद्वान् उसीके सुफल हैं। उन्होंने अपने जीवनमें जिस मार्गका अनुसरण किया उसपर सब विद्वान् तो न चल सके । परिस्थितिको ही इसके लिए दोषी ठहराया जा सकता है। किन्तु उन्होंने जो प्रकाश दिया वह आज भी सब विद्वानोंके हृदयोंको प्रकाशित कर रहा है। उनके दिवंगत होनेके बाद जिस उत्साह और निष्ठावश हम उनको स्मरण कर रहे हैं वह हम सब विद्वानोंका मार्ग-दर्शक बने यह भला कौन नहीं चाहेगा। मंगलस्वरूप गुरुजी हमारे मंगलपथके प्रदर्शक बनें, यह मनीषा जीवनभर हम सबको अनुप्राणित करती रहे यह कामना है। Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ASURG SOURYA SHOROVE AURAT खण्ड ५ OC नाल Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृतित्व समीक्षा १. धवला-जयधवलाके सम्पादन की विशेषताएँ २. महाबन्धकी सैद्धान्तिक समीक्षा ३. तत्त्वार्थसूत्रटीका : एक समीक्षा ४. पंचाध्यायोटीका : एक अध्ययन ५. सर्वार्थसिद्धि : समालोचनात्मक अनुशीलन ६. अमृतकलशके टीकाकार ७. जैनतत्त्वमीमांसा : एक प्रामाणिक कृति ८. जैनतत्त्वमीमांसा : एक समीक्षात्मक अध्ययन ९. ज्ञानपीठ-पूजाञ्जलि : एक अध्ययन १०. वर्ण, जाति और धर्म : एक चिन्तन ११. जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा : एक समीक्षा १२. लब्धिसार-क्षपणासार : एक अनुशीलन १३. आत्मानुशासन : एक परिशीलन १४. सम्यग्ज्ञानदीपिका : शास्त्रीय चिन्तन १५. सप्ततिका प्रकरण : एक अध्ययन १६. आलापपद्धति : एक समीक्षात्मक अध्ययन Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धवला, जयधवलाके सम्पादनकी विशेषताएँ ___डॉ० फूलचन्द्र जैन 'प्रेमी', वाराणसी आगपके पक्षधर विद्वानोंमें से पण्डित फलचन्द्रजी ही एकमात्र ऐसे विद्वान हैं जो लगभग अर्द्ध शताब्दी से जिनागमोंके सम्पादन, संशोधन एवं अनुवाद आदिके विभिन्न रचनामूलक कार्यों संलग्न हैं। इस वृद्धावस्था में भी उसी तत्परताके साथ आप सम्पादनके कार्य में जुटे रहते हैं। मनुष्यका किसी-न-किसी कार्यसे संयुक्त हो कर उसमें विशेष रूपसे निरन्तर लगे रहना स्वाभाविक है । पण्डितजीका उपयोग सन् १९३९ से शौरसेनी जैनागमों यथा-षटखण्डागम और कषायपाहड जैन महान और बहदकाय ग्रन्थोंकी टीकायेंबबल, जवववल ओर महाधवल इन ग्रन्थोंके सम्पादन तथा अनुवादमें लगा है। अभी कुछ माह पूर्व ही 'जयधवल' का पन्द्रहवाँ भाग प्रकाशित हुआ है । 'धवल' का भाग १ से लेकर ६ तक पुनः संशोधनकर चुके हैं। प्रथम भागका द्वितीय संस्करण जीवराज जैन ग्रन्थमाला, शोलापुरसे सन् १९७३ में प्रकाशित हुआ था। तबसे आजतक छह भाग मुद्रित हो चुके हैं। जयधवलाका प्रथम भाग भारतीय दिगम्बर जैन संघ, चौरासी मथुरासे सन् १९४४ में प्रकाशित हआ था। इसके सम्पादक पण्डित फुलचन्द्रजी शास्त्री, पण्डित कैलाशचन्द्रजी शास्त्री और पण्डित महेन्द्रकुमारजी रहे हैं । 'जयधवल' के कुल पन्द्रह भाग हैं। सभी भाग मथुरासे प्रकाशित हुए हैं। इन सभीका सम्पादन तथा राष्ट्र भाषामें अनुवाद विशेष रूपसे पं० फूलचन्द्रजीने ही किया है। मुझे पूज्य पण्डितजीको यह कार्य करते हुए देखने-समझनेका कई वर्षोंतक निकटसे सान्निध्य प्राप्त रहा है । मैंने देखा कि सम्पूर्ण ग्रन्थ और उसका विषय उन्हें जैसे प्रत्यक्ष है । मूल और टीका ग्रन्थकी भाषा भी उन्हें अपनी मातृभाषा जैसी ही लगती है। इतने क्लिष्ट विषयका सरल शब्दोंमें विवेचन विरले ही कर पाते हैं। प्रूफ भी वे स्वयं इसलिए देखते थे ताकि विषय-भाषा ओर पारिभाषिक शब्दोंकी दृष्टिसे कोई अशुद्धि न रह जाए। इनके इस सम्पादन कार्यकी कुछ अपनी मौलिक विशेषताएं इस प्रकार हैं १. मुद्रित प्रति तथा हस्तलिखित ताडपत्रीय प्रतियोंका उपयोग किया गया है । २. जहाँ-कहीं पाठमें व्यत्यय लक्षित हुआ है वहाँ आदर्श प्रति तथा प्राकृत व्याकरणका आश्रय लिया गया है। ३. पाठ-भेदमें एकरूपता बनाये रखनेका सर्वत्र ध्यान रखा गया है। ४. कर्नाटकीय लिपिमें भ्रमवश वाचनके कारण या प्रतिलिपिकारकी असावधानीसे जहाँ ऐसे पाठ परिलक्षित हुए हैं उनका निर्णय गल ग्रन्थके पाठोंसे करनेके अनन्तर ही अमुक पाठ-भेद किया गया है। ५. जो पाठ मूलमें स्खलित हैं या ताडपत्रके गल जानेसे जो नष्ट हो गये हैं उनका अर्थ तथा प्रकरण की दृष्टिसे उनके विषयमें विचारकर कोष्ठकमें दिया गया है । ६. जो पाठ मूलमें अर्थ और प्रकरणकी दृष्टिसे असंगत प्रतीत हुए, उनको उसी पृष्ठमें टिप्पणीमें दिखाकर मूलमें संशोधन कर दिया गया है । ७. जहाँ मूल और आदर्श प्रतिके पाठोंमें क्रम-दोष है उनमें संशोधन कर आगत पाठको पाद-टिप्पणीमें दे दिया गया है। ८. मात्राओंकी अशुद्धिको व्याकरणके नियमानुसार शुद्ध कर दिया गया है । Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०८ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ ९. आदर्श प्रतिमें कहीं संशोधन रूपमें शुद्ध प्रयोग लक्षित हुए और कहीं अशुद्ध ही रह गये, उन सबमें एकरूपता स्थापित की गई। . १०. वाक्य या शब्दकी पूर्ति बिन्दु रखकर की गई है । आवश्यकताके अनुरूप पूर्ति की गई है। जयधवलाके अनुवाद कार्यकी भी अपनी विशेषता है । भाषा सरल होनेपर भी विषयके अनुरूप है। विशेष रूपसे विशेषार्थ अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । इन विशेषार्थोंमें जबतक सिद्धान्तका सम्यक अध्ययन न हो, तबतक विषय के सामान्य सूत्र सझमें नहीं आते । जैसे कि “जयधवल" की आठवीं पुस्तकके छठे अधिकारमें यह कहा गया है-“वह शेष इक्कोस प्रकृतियोंका कदाचित् संक्रामक है और कदाचित् असंक्रामक है।" इसे विशेषार्थमें इस प्रकार स्पष्ट किया गया है-"सूत्र में यह बतलाया है कि जो मिथ्यात्वका संक्रामक है वह कदाचित् अप्रत्याख्यानावरणचतुष्क आदि २१ प्रकृतियोंका संक्रामक है और कदाचित् असंक्रामक । जब तक इन इक्कीस प्रकृतियोंका उपशम नहीं होता तब तक संक्रामक है और उपशम हो जानेपर असंक्रामक है। इसपर यह शंका हुई कि जो द्वितीयोपशमसम्यग्दष्टि २१ प्रकृतियोंका उपशम करता है उसके दर्शनमोहनीयत्रिकका भी उपशम रहता है, अतः जैसे उसके २१ प्रकृतियोंका संक्रप नहीं होता वैसे मिथ्यात्वका भी संक्रम नहीं होना चाहिये, इसलिए मिथ्यात्वका संक्रामक उक्त २१ प्रकृतियोंका असंक्रामक भी है यह कहना नहीं बनता है। इस शंकाका जो समाधान किया है, उसका भाव यह है कि दर्शनमोहनीयकी तीन प्रकृतियोंका उदयमें न आना यहीं उनका उपशम है, अतः उनका उपशम रहते हुए भी संक्रम बन जाता है। इसलिए चूर्णिसूत्रकारने जो यह कहा है कि 'जो मिथ्यात्वका संक्रामक है वह शेष २१ प्रकृतियोंका कदाचित् संक्रामक है और कदाचित् असंक्रामक है' सो इस कथनमें कोई बाधा नहीं आती है । आशय यह है कि उपशमनाके विधानानुसार २१ प्रकृतियोंका सर्वोपशम होता है, किन्तु तीन दर्शनमोहनीयका उपशम हो जानेपर भी उनका यथासम्भव संक्रम और अपकर्षण ये दोनों क्रियाएँ होती रहती है, अतः उक्त कथन बन जाता है।" इस प्रकार प्रकरण व सन्दर्भके अनुसार अनेक सूत्रोंका स्थान-स्थानपर स्पष्टीकरण किया गया है । उसके बिना अनुवाद मात्रसे कुछ समझमें नहीं आता । कहीं-कहीं विषयका स्पष्टीकरण करनेके लिए तुलनात्मक करणसे सम्बन्धित तथ्यकी व्याख्या की गई है। उदाहरणके लिए, कालानुग क्रमकी दृष्टिसे कहा गया है-'उपशम सम्यग्दृष्टियोंका नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य काल अन्तर्मुहर्त और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। अतः यहाँ सब प्रकृतियोंकी अल्पतर स्थितिका काल उक्त प्रमाण बतलाया है। इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंका भी जानना चाहिए। किन्तु सासादन सम्यग्दृष्टियोंका जघन्य काल एक समय है । अतः यहाँ जघन्य काल एक समय बतलाया है। उत्कृष्ट काल पूर्ववत् है। कार्मणकाययोग और अनाहारक जीवोंका सर्वदा काल है। यही बात औदारिकमिश्र की है । अतः यहाँ सब प्रकृतियोंके सम्भव पदोंका काल औदारिकमिश्रके समान बन जाता है। किन्तु सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतर स्थिति वालोके कालमें विशेषता है। बात यह है कि एक जीवकी अपेक्षा कार्मणकाययोग और अनाहारक अवस्थाका उत्कृष्ट काल तीन समयसे अधिक नहीं है और सम्यक्त्व तथा सम्यग्मिथ्यात्वकी सत्ता वाले जीव असंख्यात होते हुए भी स्वल्प है । अब यदि उपक्रम कालकी अपेक्षा विचार किया जाता है तो यहाँ आवलिके असंख्यातवें भागसे अधिक काल नहीं प्राप्त होता । अतः यहाँ दोनों प्रकृतियोंकी अल्पतर स्थिति वालोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आबलिके असंख्यातवें भाग प्रमाण बतलाया है।" .. उक्त विशेषार्थमें विभिन्न अपेक्षाओंसे विचारकर आचार्यके भावका स्पष्टीकरण किया गया है जो निःसन्देह सैद्धान्तिक समीक्षाकी दृष्टिसे आगम अनुकूल तथा प्रकरणोचित है। इसी प्रकारसे प्रकरणके अन्तर्गत जहाँ संक्षेपमें किसी प्रश्नका संकेतकर उसका समाधान किया है ( मूल में ), वहीं अनुवादमें 'शंका' तथा 'समा | Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम खण्ड : ६०९ धान लिखकर उनको अलग-अलग प्रस्तुत किया गया है। इनमें कई महत्वपूर्ण प्रश्न तथा उनके उत्तर सम्मि लित है। जैसेकि शंका-उपशपसम्यक्त्वके कालमें तीन दर्शनमोहनीयकी स्थिति निषेक द्वितीय स्थितिमें अवस्थित रहते हैं, अतः उनका गलन नहीं होनेके कारण अवस्थित काल अन्तर्मुहूर्त प्रमाण प्राप्त होता है, उसे यहाँ क्यों नहीं ग्रहण किया ? - समाधान —— नहीं, क्योंकि वहाँ पर तीनों कर्मोकी कर्मस्थितिके समयोंके प्रत्येक समयमें गलते रहनेपर स्थितिका अवस्थान माननेमें विरोध आता है। यदि कहा जाय कि निषेकोंको स्थितिपना प्राप्त हो जाएगा सो भी बात नहीं है, क्योंकि द्रव्यको पर्याय रूप माननेमें विरोध आता है। अर्थात् निषेक द्रव्य हैं और उनका एक समय तक कर्म रूप आदि रहना पर्याय है। चूंकि द्रव्यसे पर्याय कथंचित् भिन्न है, अतः पर्यायके विचारमें द्रव्यको स्थान नहीं । जिसके सम्यक्त्वकर्मकी सत्ता नहीं है ऐसा मिथ्यादृष्टि जीव जब सम्यक्त्वको ग्रहण करता है। तब उसके सम्यक्त्वके ग्रहण करने के प्रथम समयमें एक समय तक अवक्तव्यस्थितिविभक्ति होती है, क्योंकि पहले अविद्यमान सम्यक्त्व और सम्पग्मिथ्यात्व की इनके उत्पत्ति देखी जाती है। इस अवक्त व्यस्थितिविभक्तिका काल एक समय ही है, क्योंकि दूसरे समय में अल्पतर स्थितिविभक्ति उत्पन्न हो जाती है। करणानुयोगके इन महान् सैद्धान्तिक ग्रन्थोंमें जिनवाणीकी सूक्ष्मताके साथ अत्यन्त गम्भीरता पद-पद पर लक्षित होती है । यथार्थ में भगवन्त आचार्य भूतबलिके गूढ़ रहस्यको समझकर सरल भाषामें प्रकट करना अपने आप एक महान् कार्य है जो सभी दृष्टियोंसे श्लाघनीय है, विषय इतना सूक्ष्म और गहन है कि हम तुच्छ बुद्धि वाले उसकी क्या समीक्षाकर सकते हैं? केवल प्रस्तुतीकरण के सम्बन्धमें ही दो-चार शब्द कहकर अपने भाव प्रस्तुत कर सकते हैं । ---- कहना न होगा कि क्या भाव, क्या अर्थ, क्या सम्पादन और क्या सिद्धान्तशास्त्र ? सभी दृष्टियोंसे धवल, जयपवल आदि महान् ग्रन्थोंको अपने वास्तविक रूपमें प्रकटकर पण्डितजीने महान् आदर्श प्रस्तुत किया है। हम उनके प्रति प्रशंसाके भाव ही प्रकाशित कर सकते हैं । हमारा यह अभिप्राय कदापि नहीं है कि इतना अधिक कार्य सर्वांग सुन्दर है फिर भी प्रथम बारमें एक साथ इतना बड़ा कार्य देखकर यह आश्चर्य अवश्य होता है कि जो कार्य एक समृद्ध बड़ी संस्थाके माध्यम से कई विद्वान् मिलकर एक युगमें सम्पन्न कर पाते, वह अकेले व्यक्ति कुछ ही वर्ष में सम्पूर्ण कर दिया। इसलिये यदि यह कहा जाय कि जैन सिद्धान्त, आगम तथा अध्यात्मके क्षेत्रमें पण्डित फूलचन्द्र जी सिद्धान्ताचार्य किसी विश्वकोषसे कम नहीं है, तो अत्युक्ति न होगी तथा इस कार्यके द्वारा आदरणीय पण्डितजी स्वयं इस परम्पराकी महत्वपूर्ण कड़ी बन गये हैं। आदरणीय पण्डितजीको यह भी विशेषता रही है कि अच्छे सम्पादन, अनुवाद और विवेचन आदि कार्यों हेतु जहाँसे जो सहायता मिल सकती है, उसे लेने के लिए ही सदा तत्पर रहते हैं। महाबन्ध पुस्तक तृतीयके सम्पादकीयमें उन्होंने सम्माननीय बन्धु रतनचन्द्रजी मुस्तार तथा सहारनपुरके श्री नेमिचन्द्रजी वकील के सहयोग के प्रति आभार प्रकट किया है और लिखा है स्थितिबन्धका अन्तिम कुछ भाग अवश्य ही उन्होंने देखा है और उनके सुझावोंसे लाभ भी उठाया गया है। आशा है कि भविष्य में इस सुविधाके प्राप्त करनेमें सुधार होगा और उनका आवश्यक सहयोग मिलता रहेगा । वास्तवमें करणानुयोगका वास्तविक पारखी उनकी ही परख कर सकता है । हमने तो जो कुछ पढ़ा और समझा है उसके आधारपर इतना ही कह सकते हैं कि इस क्षेत्र में पण्डितजीका योगदान सचमुच महान् और गौरवपूर्ण है। वर्तमान और भावी पीढ़ी जिनवाणी सेवाके इस पुण्य कार्यको इस समय तथा आगे सदा-सदा याद करती रहेगी। ७७ Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१० : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ महाबन्धकी सैद्धान्तिक समीक्षा डॉ. देवेन्द्रकुमार शास्त्री, नीमच यह सुनिश्चित है कि भावकी दृष्टिसे जिनवाणी स्वतःसिद्ध, अनादि व अनिधन है। इसका प्रमाण यह है कि आज तक जितने भी तीर्थकर, वीतराग उपदेष्टा हए, उन सभी अनन्त ज्ञानियोंका मत एक है। वे अन्तरंग और बहिरंग दोनोंमें एक है। शब्दके द्वारा जो अर्थ प्रकाशित होता रहा, उसमें किसी भी प्रकारका विरोध व विसंगति नहीं है। सभी ज्ञानियोंका भाव एक ही परिलक्षित होता है। यही जिनागमकी प्रमुख विशेषता है। __ जिनवाणीका मूल आगम है । सम्प्रति जो उपलब्ध है, वह आगम ही है । आगम, सिद्धान्त और प्रवचन इन तीनों शब्दोंका अर्थ एक ही है। आगमके दो भेद कहे गये हैं-अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य । अंगप्रविष्ट बारह प्रकारका है। अंगप्रविष्टके बारह भेदोंको द्वादशांग कहते हैं। द्वादशांगका बारहवाँ भेद दृष्टिवाद है। उसके पाँच भेद हैं-परिकर्म, सूत्र, प्रथमानुयोग, पूर्वगत, चुलिका। इनमेंसे पूर्वगत चौदह प्रकारका है । अतः जिनवाणी ग्यारह अंग चौदह पूर्वके नामसे भी प्रसिद्ध है । चौदह पूर्वोमेंसे दूसरा पूर्व अग्रायणीय है। इसके चौदह अर्थाधिकार है । पाँचवाँ अर्थाधिकार चयनलब्धि है जिसे वेदनाकृत्स्न प्राभूत भी कहते है। इसके चौबीस अर्थाधिकार कहे गये हैं। उनमें से प्रारम्भके छह अर्थाधिकार है-कृति, वेदना, स्पर्श, कर्म, प्रकृति और बन्धन । इन चौबीसोंको अनुयोगद्वार कहा जाता है। अनुयोगद्वारके प्रारम्भिक छह अर्थाधिकारोंको "षट्खण्डागम" में निबद्ध किया गया है। दिव्यध्वनिसे प्रसूत द्वादशांग जिनवाणीके निबन्धक गणधर कहे जाते हैं । गणधरोंको परम्परासे पोषित आगम-परम्पराका संवहन करनेवाले आरातीय तथा सारस्वत आचार्योंने ही आज तक इसकी रचना की है। ग्रन्थ-लेखनकी परम्परा आचार्य पुष्पदन्त और भूतबलिसे प्रारम्भ हुई। उन्होंने द्वादशांग-सूत्रोंका संकलनकर छह खण्डोंमें निबद्ध किया, जिससे ग्रन्थका नाम “षटखण्डागम" प्रसिद्ध हआ। आचार्य वीरसेनने इसे "षटखण्डसिद्धान्त" नामसे अभिहित किया है । इन्द्रनन्दिके 'श्रुतावतार' के अनुसार 'षट्खण्डागभ' का प्रारम्भ आचार्य पुष्पदन्तने किया था । 'धवला' टीकासे भी इसका समर्थन होता है कि सत्प्ररूपणाके सूत्रोंके रचयिता आ० पुष्पदन्त हैं । दूसरे खण्डसे लेकर छठे खण्ड तककी रचना आ० भूतबलिनेकी थी। उन्होंने आचार्य पुष्पदन्त रचित सूत्रों को मिलाकर पाँच खण्डोंके छह हजार सूत्रोंकी रचना की तथा महाबन्ध नामक छठे खण्डके तीस हजार सूत्रोंकी रचना की । इस प्रकार अनुयोगद्वारके अन्तर्गत षट्खण्डागम एवं पाहुड़ों ( प्राभृतों ) की रचना की गई । अकेले अग्रायणी पूर्वके पंचम प्रकरणमें बीस पाहुडोंकी संख्या कही गई है। उनमेंसे चतुर्थ पाहुडका नाम 'कम्मपयडि' (कर्मप्रकृति) है । इस पाहुडके चौबीस अनुयोगद्वार हैं। द्वादशांग तथा चौदह पूर्वोके एकदेश ज्ञाता, परम प्रात स्मरणीय आचार्य धरसेनके प्रमुख शिष्यद्वय आचार्य पुष्पदन्त और भूतबलिने मिलकर जिस महान् अंगभूत 'षट्खण्डागम' की रचना की थी, उसका ही अन्तिम खण्ड 'महाबन्ध' है। इसे 'महाधवल' भी कहते हैं। 'महाधबल' का लाक्षणिक अर्थ है-अत्यन्त विशद । वास्तव में आ० वीरसेन कृत 'धवला' टीकाने 'षट्खण्डागम' के सूत्रोंकी विशद तथा स्पष्ट व्याख्या कर सिद्धान्त रूपी निर्मल जलको सबके लिए सुलभ कर दिया है । यद्यपि अनेक आचार्योंने 'षट्खण्डागम' की टीकाएँ रची, किन्तु जो प्रसिद्धि धवला, जयधवलाकी है, वह अन्य किसीको नहीं मिली। आचार्य गुणधर कृत 'कसायपाहुड' और उसके चूर्णिसूत्रोंकी विशद टीका 'जयश्वला' के नामसे आठ हजार श्लोकप्रमाण आचार्य-वीरसेन Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम खण्ड : ६११ जिनसेन विरचित उपलब्ध होती है । इन दोनों टीकाओं के नाम-सादृश्यपर महाबन्धको कालान्तर में महाघवल कहा जाने लगा । क्योंकि आ० वीरसेनके समयमें धवल, जयधवलकी प्रसिद्धि थी । वस्तुतः महाबन्धपर कोई टीका आज तक उपलब्ध नहीं है । ब्रह्म हेमचन्द्र कृत 'श्रुतस्कन्ध' में कहा गया है सत्तरसहस्वलो जयधवलो सट्ठिसहस्स बोधव्वो । महबंध चालीसं सिद्धततयं अहं वंदे ॥ अर्थात् - धवल टीका सत्तर हजार श्लोकप्रमाण है, जयधवल साठ हजार श्लोकप्रमाण है और महाबन्ध चालीस हजार श्लोकप्रमाण है । मैं इन तीनों सिद्धान्त ग्रन्थोंकी वन्दना करता हूँ । यहाँपर 'महाधवल' नामका उल्लेख नहीं है । षट्खण्डागमके प्रथम खण्डका नाम 'जीवट्ठाण' (जीवस्थान ) है । इसमें चौदह गुणस्थानों तथा चौदह मार्गणाओं की अपेक्षा सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर भाव, अल्पबहुत्व इन आठ अनुयोग द्वारा जीवका कथन किया गया है । दूसरे खण्ड में ग्यारह प्ररूपणाओं द्वारा कर्मका बन्ध करनेवाले जीवका वर्णन है । तीसरे खण्ड में मार्गणाओं की अपेक्षा किस गुणस्थानमें कितनी प्रकृतियाँ बँधती हैं, कितनी बन्ध-व्युच्छित्ति होती है, इत्यादि सविस्तार वर्णन मिलता है । चौथे खण्डमें वेदना अनुयोगद्वार में ज्ञानावरणदिक आठ कर्मोंकी द्रव्य वेदना, क्षेत्र वेदना, काल वेदना, भाव वेदना, प्रत्यय स्वामित्व वेदना तथा गति, अनन्तर, सन्निकर्ष, परिमाण, भागाभाग, अल्पबहुत्वका कथन । पाँचवें वर्गणा नामक खण्डमें कर्म प्रकृतियों तथा पुद्गलकी तेईस प्रकारकी वर्गणाओं का विस्तारसे वर्णन किया गया है । बन्धनके चार भेद कहे गये हैं—बन्ध, बन्धक बन्धनीय और बन्धविधान । प्रश्न यह है कि पाँचों खण्डोंमें कर्म विषयक लगभग सम्पूर्ण सामग्रीका निबन्धन हो जानेपर छठे खण्ड की क्या आवश्यकता थी ? इसका समाधान करते हुए पण्डितजी अपने लेखमें लिखते हैं- 'इस प्रकार उक्त पाँच खण्डों में निबन्ध विषयका सामान्य अवलोकन करनेपर विदित होता है कि उक्त पाँचों खण्डोंमें कर्म विषयक सामग्रीका भी यथासम्भव अन्य सामग्री के साथ यथास्थान निबद्धीकरण हुआ है । फिर भी, बन्धन अर्थाधिकारके बन्ध, बन्धक, बन्धनीय और बन्धविधान इन चारों अर्थाधिकारोंका समग्र भावसे निबद्धीकरण नहीं हो सका है । अतः इन चारों अर्थाधिकारोंको अपने अवान्तर भेदों के साथ निबद्ध करनेके लिए छठे खण्ड महाबन्धको निबद्ध किया गया है।' इससे स्पष्ट है कि 'महाबन्ध' का मूल आधार बन्धन नामक अर्थाधिकार है । यह पहले ही कहा जा चुका है कि 'षट्खण्डागम' में छह खण्ड हैं । उनके नाम इस प्रकार हैं - १. जीवट्ठाण (जीवस्थान), २. खुद्दाबंध ( क्षुल्लक बन्ध ), ३. बंधसामित्तविचय (बन्धस्वामित्व विचय), ४. वेयणा ( वेदना ), ५. वग्गणा ( वर्गणा ), ६. महाबंध ( महाबन्ध) | महाबन्ध में प्रमुख तत्त्व बन्धका विशदतासे विवेचन किया गया है । यद्यपि पाँचवें खण्ड में वर्गणाओंके तेईस भेदोंका सांगोपांग विवेचन हो चुका था, किन्तु बन्ध, बन्धक, बन्धनीय और बन्धविधानका श्रृंखला रूपमें क्रमबद्ध विवेचन नहीं हो पाया था, इसलिए उसे उपन्यस्त करनेके लिए इस खण्डकी आचार्य भूतबलीको अलग से संयोजना करनी पड़ी । प्रश्न यह है कि जीव द्रव्य स्वतन्त्र है और प्रत्येक पुद्गल द्रव्य स्वतन्त्र है । जब प्रत्येक द्रव्य स्वतन्त्र सत्ता सम्पन्न है, तो बन्ध-अवस्था कैसे उत्पन्न हो जाती है ? इसी प्रकार एक जीव द्रव्यकी मुक्त और संसारी ये दो अवस्थाएँ कैसे होती हैं ? यह तो सभी जानते हैं कि किसी भी कार्यके निष्पन्न होनेमें एक नहीं, अनेक कारण होते हैं। बिना कारणके कोई कार्य नहीं होता । वे कारण दो प्रकारके होते हैं—अन्तरंग और बहिरंग | उनमें अन्तरंग कारण प्रबल माना जाता है । आचार्य समन्तभद्र कहते हैं कि प्रत्येक द्रव्यके कार्य में बाह्य Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१२ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ और अन्तरंग उपाधिकी समग्रता होती हैं । उनकी मीमांसा कर आचार्यं भूतबलीने उक्त प्रश्नके उत्तर रूपमें महाबन्धको निबद्ध किया है । 'महाबन्ध' में मुख्य अधिकार चार हैं- प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्ध । इन चारों अधिकारोंका विशद विवेचन 'षट्खण्डागम' के इसे छठे खण्डमें अनुयोगद्वारों में विस्तार पूर्वक किया गया है । यह परमागम ग्रन्थ सात पुस्तकों में भारतीय ज्ञानपीठसे प्रकाशित हो चुका है। 'महाबन्ध' का प्रथम भाग सन् १९४७ में प्रकाशित हुआ था । इसका सम्पादन पं० सुमेरुचन्द्र दिवाकर शास्त्रीने किया था । महाबन्धकी पुस्तक २ से लेकर ७ तक छहों भागांका सम्पादन तथा हिन्दी अनुवाद पं० फूलचन्द्र सिद्धान्तशास्त्रीने अकेले ही अत्यन्त सफलता पूर्वक किया । उनके सम्बन्ध में डा० हीरालाल जैन और डॉ० आ० ने० उपाध्येके विचार हैं - ' इस खण्डके सम्पादक पं० फूलचन्द्रजी शास्त्री से विद्वत्समाज भलीभाँति परिचित है । धवल सिद्धान्तके सम्पादन व प्रकाशन - कार्यमें उनका बड़ा सहयोग रहा है और अब पुनः सहयोग मिल रहा है । उन्होंने इस खण्ड के सम्पादनका कार्य सहर्ष स्वीकार किया और आशातीत स्वल्प कालमें ही इतना सम्पादन और अनुवाद करके सिद्धान्तोद्धारके पुण्यकार्य में उत्तम योगदान दिया है । इस कार्यके लिए ग्रन्थमालाकी ओरसे हम उन्हें हार्दिक धन्यवाद देते हैं और आशा करते हैं कि वे ऐसी ही लगनके साथ शेष खण्डों का भी सम्पादनकर इस महान् साहित्यिक निधिको शीघ्र सर्वसुलभ बनानेमें सहायक होनेका पुण्य प्राप्त करेंगे । कार्य वेगसे किये जाने पर भी, सिद्धहस्त होने के कारण पण्डितजीके सम्पादन व अनुवाद कार्यसे हमें बड़ा सन्तोष हुआ है और भरोसा है कि पाठक भी इससे सन्तुष्ट होंगे । यह भी एक विचित्र संयोग तथा गौरवकी बात है कि जिन-जिन विद्वानों ने धवला, जयधवला, महाधवलादि ग्रन्थोंके सम्पादन एवं अनुवादमें सहयोग किया, उनमेंसे पण्डितजी आज भी सक्रिय हैं । उनके अनथक अध्यवसायसे भी ही जिनवाणीका अवशिष्ट भाग राष्ट्रभाषा के माध्यम से तथा मूल शुद्ध रूपमें जन-जनको सुलभ हो सका है । श्री भगवन्त भूतबलि भट्टारक प्रणीत महाबन्धके द्वितीय भाग में सर्वप्रथम स्थितिबन्धका विवेचन किया गया है । स्थितिबन्ध दो प्रकारका है - मूलप्रकृति स्थितिबन्ध और उत्तरप्रकृति स्थितिबन्ध | मूल प्रकृति स्थितिबन्धका विचार स्थितिबन्धस्थान- प्ररूपणा, निषेक- प्ररूपणा, आबाधाकाण्डक प्ररूपणा और अल्पबहुत्व इन चार अनुयोगों के द्वारा किया गया है । प्रथम भागमें प्रकृतिबन्धका अनुयोगद्वारोंमें विवेचन है । प्रकृतिबन्धको ओघ और आदेश प्रथम अर्थाधिकारमें विविध अनुयोगोंके द्वारा निबद्ध किया गया है । इस परमागममें जीवसे सम्बद्ध होने वाले कर्म, उनकी स्थिति और अनुभाग ( फल- दानकी शक्ति) के साथ ही संख्यामें वे प्रदेशोंकी अपेक्षा कितने होते हैं, इसका वर्णन किया गया है । 'कर्म' शब्दका प्रयोग तीन अर्थमें किया गया है - ( १ ) जीवकी स्पन्दन क्रिया, (२) जिन भावों से स्पन्दन क्रिया होती है उनके संस्कारसे युक्त कार्मण पुद्गल तथा (३) वे भाव जो कार्मण पुद्गलोंमें संस्कार के कारण होते हैं । जिन भावोंसे स्पन्दन क्रिया होती है वे भाव और स्पन्दन क्रिया अनन्तर समयमें निवृत्त हो जाती है । लेकिन संस्कारसे युक्त कार्मंण पुद्गल जीव साथ चिर काल तक सम्बद्ध रहते हैं । अपना काम पूरा करके ही वे निवृत्त होते हैं। सभी पुद्गल कर्म भावको प्राप्त नहीं होते हैं । मुख्य रूपसे पुद्गलोंकी २३ जातियाँ कही गई हैं । उनके नाम हैं- अणुवर्गणा, संख्याताणुवर्गणा, असंख्यताणुवर्गणा, अनन्ताणुवर्गणा, आहारवर्गणा, अग्राह्यवर्गणा, तैजसवर्गणा, अग्राह्यवर्गणा, भाषावर्गणा, अग्राह्यवर्गणा, मनोवर्गणा, अग्राह्यवर्गणा, कार्मण वर्गणा, ध्रुववर्गणा, सान्तर निरन्तर वर्गणा, शून्यवर्गणा, प्रत्येकशरीर वर्गणा, ध्रुवशून्य वर्गणा, बादरनिगोदवर्गणा, शून्य वर्गणा, सूक्ष्मनिगोद वर्गणा, शून्य वर्गणा, महास्कन्ध वर्गणा । ये २३ प्रकारकी पुद्गल वर्गणाएँ ही कर्म भावको प्राप्त होती हैं । इन वर्गणाओंमें से आहारवर्गणा, तैजसवर्गणा, भाषावर्गणा, मनोवर्गणा और कर्मणवर्गणा Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम खण्ड : ६१३ ये पाँच वर्गणाएँ जीव ग्रहण करता है। इनके अतिरिक्त वर्गणाएं अग्राह्य कही गई हैं। राग, द्वेष आदि परिणामोंके निमित्तसे जीवके आत्मा-प्रदेशोंके साथ कार्मण वर्गणाओंका जो संयोग होता है उसे 'बन्ध' कहा गया है । बन्धका अन्य कोई अर्थ नहीं है। . प्रश्न यह है कि मिथ्यादर्शन, रागादिके निमित्तसे कर्म भावको प्राप्त होनेवाली वर्गणाए कर्म रूप होकर जीवसे सम्बद्ध होकर रहती हैं या नहीं ? इसका समाधान विशेष रूपसे महाबन्धमें किया गया है। पण्डितजी ने अपने शब्दों में उसे संक्षेपमें इस प्रकार लिखा है-'परमागममें बन्ध दो प्रकारका बतलाया है-एक तादात्म्य सम्बन्ध रूप और दूसरा संयोग सम्बन्ध रूप। इनमेंसे प्रकृतमें तादात्म्य सम्बन्ध विवक्षित नहीं है। क्योंकि प्रत्येक द्रव्यका अपने गुण-पर्यायके साथ ही तादात्म्य रूप बन्ध होता है; दो द्रव्यों या उनके गुण-पर्यायोंके मध्य नहीं । संयोग सम्बन्ध अनेक प्रकारका होता है। सो उसमें भी दो या दो से अधिक परमाणुओं आदिमें जैसा श्लेष बन्ध होता है, वह भी यहाँ विवक्षित नहीं है । क्योंकि पुद्गल स्पर्शवान द्रव्य होनेपर भी जीव स्पर्शादि गुणोंसे रहित अमूर्त द्रव्य है । अतः जीव और पुद्गलका श्लेषबन्ध बन नहीं सकता । स्वर्णका कीचड़के मध्य रहकर दोनोंका जैसा संयोग सम्बन्ध होता है, ऐसा भी यहाँ जीव और कर्मका संयोग सम्बन्ध नहीं बनता । क्योंकि कीचड़के मध्य रहते हुए भी स्वर्ण कीचड़से अलिप्त रहता है। कीचड़के निमित्तसे स्वर्णमें किसी प्रकार का परिणाम नहीं होता। मात्र परस्पर अवगाह रूप संयोग सम्बन्ध भी जीव और कर्मका नहीं स्वीकार किया जा सकता, क्योंकि जीव-प्रदेशोंका विस्रसोपचयोंके साथ परस्पर अवगाह होने पर भी विस्रसोपचयोंके निमित्तसे जीवमें नरकादि रूप व्यंजन पर्याय और मिथ्यादर्शनादि भाव रूप किसी प्रकारका परिणाम नहीं होता। तब यहाँ किस प्रकारका बन्ध स्वीकार किया गया है ? ऐसा प्रश्न होने पर उसका समाधान यह है कि जीवके मिथ्यादर्शनादि भावोंको निमित्तकर जीव प्रदेशोंमें अवगाहन कर स्थित विस्रसोपचयोंके कर्म भावको प्राप्त होने पर उनका और प्रदेशोंमें परस्पर अवगाहन कर अवस्थित होना यही जीवका कर्मके साथ बन्ध है। ऐसा बन्ध ही प्रकृतमें विवक्षित है। इस प्रकार जीवका कर्मके साथ बन्ध होने पर उसकी प्रकृतिके अनुसार उस बन्धको प्रकृतिबन्ध कहते हैं 'प्रकृतिका' अर्थ स्वभाव है किन्तु वह जीवका स्वभाव न होकर कर्मपरमाणुओंका स्वभाव है। आगत कर्म-परमाणु जितने समय तक आत्माके साथ संयोग सम्बन्ध रूपसे रहते हैं, उस कालकी अवधिको स्थितिबन्ध कहते हैं। उन कर्म-परमाणुओंमें फल देनेकी शक्तिको अनुभाग बन्ध कहते हैं। आत्माके साथ संयोग सम्बन्ध रूपसे रहने वाले कर्म-परमाणुओंका ज्ञानावरणी, दर्शनावरणी आदि आठ कर्म रूपसे और उनकी उत्तर प्रकृतियोंके रूपसे जो बँटवारा होता है, उसे प्रदेशबन्ध कहते हैं। बन्धके इन चार भेदोंका 'महाबन्ध' में विस्तारके साथ वर्णन किया गया है। आचार्य भूतबलिने इतना विशद विवेचन किया है कि प्रारम्भके पाँच खण्डोंकी तुलनामें इसका परिमाण पंचगुना हो गया है । सभी दृष्टियोंसे यह जानने, समझने तथा हृदयंगम करने योग्य है। 'महाबन्ध' में बन्धविषयक सांगोपांग स्पष्ट विवेचन है । इसलिये किसी भी परवर्ती आचार्यको इस पर टीकाभाष्य या व्याख्या करनेकी आवश्यकता प्रतीत नहीं हुई। उदाहरणके लिए, षट्खण्डागमके छठे खण्डके तीसरे भागमें अनुभागबन्धकी प्ररूपणा है । अनुभागका अर्थ है-कर्मोंमें फल-दानकी शक्ति । गुणस्थानोंकी परिपाटीके अनुसार योगके निमित्तसे मूल तथा उत्तर प्रकृतियोंका बन्ध होता है । कषायके अनुसार उनमें न्यूनाधिक शक्तिका निर्माण होता है। शक्तिका कम-अधिक होना ही अनुभाग है। प्रत्येक कर्ममें अपनी-अपनी प्रकृतिके अनुसार अनुभाग-शक्ति प्रकट होती है । अतः प्रकृतिको सामान्य तथा अनुभागको विशेष भी कहा जाता है । यद्यपि मूल प्रकृतियोंके भेद-प्रभेद विशेष ही है, किन्तु फल-दानकी शक्तिकी तर-तमतासे वे सामान्य भी है। वस्तुतः प्रकृतिबन्धमें जो विशेषता लक्षित होती है उसका कारण मुख्य रूपसे अनुभाग बन्ध ही है । बन्धकी अपेक्षा अनुभाग दो Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१४ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ प्रकारका है-मूलप्रकृति अनुभाग बन्ध और उत्तरप्रकृति अनुभाग बन्ध । मूल प्रकृतियाँ आठ है । बन्धके समय इनमें फल-दानकी शक्ति उत्पन्न होती है उसे मूलप्रकृति अनुभागबन्ध कहते हैं। इसी प्रकारसे उत्तर प्रकृतियोंमें जो अनुभाग पड़ता है उसे उत्तरप्रकृति अनुभागबन्ध कहते हैं । प्रत्येक समयमें जो कर्म बँधता है उसका विभाग दो होता है-स्थितिकी अपेक्षा और अनभागकी अपेक्षा। प्रत्येक समयमें, आबाधा कालको छोड़कर, स्थिति कालसे लेकर जो कर्म-पुंज प्राप्त होता है उसे स्थितिकी अपेक्षा निषेक कहा जाता है। प्रत्येक समयमें वह अपनी स्थितिके अनुसार विभाजित हो जाता है। केवल आबाधाके कालमें निषेक-रचना नहीं होती। अनुभागकी अपेक्षा जघन्य अनुभाग वाले कर्म-परमाणुओंकी प्रथम वर्गणा होती है। उसके प्रत्येक परमाणुको वर्ग कहते हैं। क्रम-वृद्धि रूप फल-दानकी शक्तिको लिए हुए अन्तर रहित वर्गणाएँ जहाँ तक उपलब्ध होती है उसको स्पर्धक कहते हैं । स्पर्धक देशघाती और सर्वघातीके भेदसे दो प्रकारके होते हैं । इन दोनों प्रकारके स्पर्धकोंकी स्थिति निषेक-रचनाके प्रारम्भसे लेकर अन्त तक बनी रहती है। इन स्पर्धकोंमें मुख्य अन्तर यह है कि देशघाती स्पर्धक आठों कर्मोके होते हैं, किन्तु सर्वघाती स्पर्धक केवल चार घातिकर्मोके ही होते हैं। एक वर्गमें अनन्तानन्त अविभागी प्रतिच्छेद परिलक्षित होते हैं। वर्ग परस्पर मिलकर एक वर्गणाका निर्माण करते है। इस प्रकार अनन्तानन्त वर्गणाएँ मिलकर एक स्पर्धककी रचना करती है। इस तरहसे इस प्रकरणका विस्तारके साथ विवेचन किया गया है । संक्षेपमें, निम्नलिखित प्रकरण इस एक पुस्तकमें समाविष्ट हैं-१. निषेक-प्ररूपणा, २. स्पर्धक प्ररूपणा, ३. संज्ञा, ४. सर्व-नोसर्व बन्ध, ५. उत्कृष्ट अनत्कृष्ट बन्ध, ६. जघन्य-अजघन्य बन्ध, ७. सादि-अनादि-ध्रवअध्रुव बन्ध, ८. स्वामित्व बन्ध, ९. भुजगार बन्ध, १०. पद-निक्षेप, ११. वृद्धि, १२. अध्यवसानसमुदाहार, १३. जीवसमुदाहार। इसी प्रकार चौथी पुस्तकमें स्थितिविभक्ति अधिकार है। स्थिति दो प्रकारकी कही गई है-बन्धके समय प्राप्त होनेवाली और संक्रमण, स्थितिकाण्डकघात, अधः स्थिति गलन होकर प्राप्त होनेवाली स्थिति । इन सभी भेदोंका अनुयोगद्वारसे सविशद विवेचन किया गया है। अनुयोगद्वार इस प्रकार है-अद्धाच्छेद, सर्वविभक्ति, नोसर्वविभक्ति, उत्कृष्टविभक्ति, अनुत्कृष्टविभक्ति, जघन्यविभक्ति, अजघन्शदविभक्ति, सादिविभक्ति, अनादिविभक्ति, ध्रुवविभक्ति, अध्रुवविभक्ति, एक जीवकी अपेक्षा स्वामित्व, काल, अन्तर, नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय, परिमाण, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, सन्निकर्ष, भाव और अल्पबहुत्व । यद्यपि मूल प्रकृति की स्थितिविभक्ति एक है, उनमें अनुयोगद्वार सम्भव नहीं हैं; परन्तु उत्तरप्रकृतियोंकी अपेक्षा असंख्यात भेद हैं। कोई भी कर्म हो वह अपनी स्थितिके सब समयोंमें विभाजित हो जाता है। केवल बन्ध-समयसे लेकर प्रारम्भके कुछ समय ऐसे होते हैं जिनमें वह कर्मरूपको प्राप्त नहीं होता, उन समयोंको ही आबाधाकाल कहते हैं । उदाहरणके लिए, मोहनीय कर्मका सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरप्रमाण स्थित-बन्ध होने पर बन्ध-सम सात हजार वर्ष तक सभी समय खाली रहते हैं । पश्चात् प्रथम समयके बटवारेमें जो भाग आता है वह सबसे बड़ा होता है, अनन्तर हीन-हीन होता जाता है । मोहनीयकी जो उत्कृष्टस्थिति सत्तर कोड़ा-कोड़ी सागर कही गई है वह अन्तिम समयके बटवारेमें प्राप्त होनेवाले द्रव्यकी अपेक्षासे कही गई है। मोहनीयकी उत्तर प्रकृतियों की अपेक्षा मिथ्यात्वका उत्कृष्ट अद्धाच्छेद मोहनीय सामान्यके समान सत्तर कोडाकोड़ी सागर है। तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट अद्धाच्छेद अन्तर्मुहुर्त कम सत्तर कोडाकोड़ी सागर है, क्योंकि ये दोनों बन्ध प्रकृतियाँ न होकर संक्रम प्रकृतियाँ हैं । इसलिए जिस जीवने मिथ्यात्वका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध करके उसका काण्डकघात किये बिना अन्तर्मुहर्त कालके भीतर वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त किया है, उसके वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त करनेके प्रथम समयमें अन्तर्मुहूर्त कम मिथ्यात्वके सब निषेकोंका कुछ द्रव्य संक्रमणके नियमानुसार सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व रूपसे संक्रमित हो जाता है। इसलिए इन दो प्रकृतियोंका उत्कृष्ट अद्धाच्छेद अन्तर्महर्त Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम खण्ड : ६१५ कम सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण प्राप्त होता है। सोलह कषायोंका उत्कृष्ट अद्धाच्छेद चालीस कोडाकोडी सागर प्रमाण है, क्योंकि संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवके इन कर्मोंका इतना उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है । नौ नोकषायोंका उत्कृष्ट अद्धाच्छेद एक आवलि कम चालीस कोडाकोड़ी सागर प्रमाण है। यद्यपि नौ नोकषाय बन्धप्रकृतियाँ हैं, परन्तु बन्धसे इनकी उक्त प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति प्राप्त नहीं होती। विषय-परिचयके अन्तर्गत पण्डितजीने उक्त सभी विवरण दिया है। इसे पढ़कर तथा अध्ययन कर कोई भी विद्वान् उनके सैद्धान्तिक ज्ञानकी गहराईका अनुमान लगा सकता है। इतना ही नहीं, हिन्दी अनुवादके साथ उन्होंने लगभग प्रत्येक पृष्ठ पर जो विशेषार्थ दिया है, वह विशेष रूपसे मननीय है । इनके अध्ययनसे जहाँ विषय स्पष्ट हो जाता है, वहीं अन्य आचार्योंका मत, तुलनात्मक टिप्पणी एवं प्रकरणके अन्तर्गत अध्याहृत बातें भी स्पष्ट हो जाती है। उदाहरणके लिए विशेषार्थ है-क्षायिक सम्यक्त्वका उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर है। इसलिए इसमें चार घातिकर्मोंके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर कहा है । उपशमश्रेणिमें क्षायिक सम्यक्त्व भी होता है और इसमें चार घातिकर्मोके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त बन जाता है । इसलिए क्षायिक सम्यक्त्वमें इन कर्मोके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त कहा है । शेष कथन सुगम है । .. यहाँ पर अन्तर-प्ररूपणाकी दृष्टिसे निरूपण किया गया है । आचार्य यतिवृषभने अपने चूणि-सूत्रोंमें ओघसे मिथ्यात्वकी तीन वृद्धि, चार हानि और अवस्थित स्थितिविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल बतलाया है। आचार्य वीरसेन स्वामीने इसका विस्तारसे विवेचन किया है कि वह अन्तर काल कैसे प्राप्त होता है ? "महाबन्ध" में अनुभागबन्धके अधिकारके अन्तर्गत भगवन्त भूतबलिने उत्कृष्ट और जघन्य रूपोंमें नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय, भागाभाग, परिमाण, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर आदिकी प्ररूपणा की है। वहां यह कथन स्पष्ट है कि अनुभागके बन्धक जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर छह महीना है । अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका अन्तरकाल नहीं है । इनमें आभिनिबोधिक ज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, शुक्ल लेश्या वाले, भव्य, सम्यग्दृष्टि तथा क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीवोंकी परिगणनाकी गई है। बन्धके समय कर्मका जो अनुभाग प्राप्त होता है उसका विपाक जीवमे, पुद्गलमें या जहाँ कहीं होता है, उसका विचार विपाकदेशमें किया गया है। विपाककी दृष्टिसे कर्मोके चार भेद किये गये है-जीवविपाकी, भवविपाकी, पुदगलविपाकी और क्षेत्रविपाकी । यद्यपि सभी कर्मोकी रचना परिणामोंसे होती हैं: निमित्त-भेदकी अपेक्षा उनमें भेद किया जाता है, किन्तु बन्धके समय प्रशस्त परिणामोंसे जिनको अनुभाग अधिक मिलता है उनको प्रशस्तकर्म और अप्रशस्त परिणामोंसे अधिक अनुभाग मिलने वालोंको अप्रशस्तकर्म कहा जाता है। चारों घातिया कर्म अप्रशस्त हैं और अघातिया कर्म प्रशस्त, अप्रशस्त दोनों प्रकारके है। विशुद्ध परिणामोंकी बहुलताकी दृष्टिसे सम्यक्त्वके सन्मुख मिथ्यादृष्टि नारकीमें जितनी विशुद्धता हो सकती है, उतनी वायुकायिक और अग्निकायिक जीवोंमें सम्भव नहीं है। इस प्रकार गति, परिणाम, काल आदिका विचार ओघ और आदेशसे किया गया है। __कहीं-कहीं पण्डितजीको विशेषार्थ इतना लम्बा लिखना पड़ा है कि मूल भाग आधे पृष्ठको पूरे तीन तीन पृष्ठों में स्पष्ट करना पड़ा है । जिनागममें कई अपेक्षाओंसे विवेचन किया गया है । अकेले कालकी प्ररूपणा जघन्य और उत्कृष्टके भेदसे दो प्रकारसे की गई है । फिर, निर्देश भी दो प्रकारसे है-ओघ और आदेशसे । अतः विशेषार्थमें विशेष रूपसे स्पष्टीकरण आवश्यक था । कहा भी है Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१६ : सिद्धान्ताचार्य पं० फलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ "सब कर्मोंका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध उत्कृष्ट योगके सदभावमें होता है। और उत्कृष्ट योगका जघन्य काल एक रहस्यमय और उत्कृष्ट काल दो समय है। इसलिए यहाँ ओघसे आठों कर्मोके उत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल दो समय कहा है। यह सम्भव है कि अनुत्कृष्ट योग एक समय तक हो और अनुत्कृष्ट योगके सद्भावमें उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध सम्भव नहीं, इसलिए ओघसे आठों कर्माके अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जघन्य काल एक समय कहा है। अब शेष रहा आठों कर्मोके अनत्कृष्ट प्रदेशबन्धका उत्कृष्ट काल सो उसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है विशेषार्थमें यह ध्यान बराबर रखा गया है कि जो बात पहले लिख आये हैं उसकी पुनरावृत्ति न हो। इसलिए कहीं-कहीं संकेत या उल्लेख भी किया गया है। जैसे कि काल-प्ररूपणाके प्रकरणमें विशेषार्थ में लिखा गया है 'कालका खुलासा पहले जिस प्रकारकर आये हैं उसे ध्यानमें रखकर यहाँ भी कर लेना चाहिए । मात्र बादर पर्याप्त निगोदोंका उत्कृष्ट काल अन्तर्महर्त जानना चाहिए।' इस प्रकार आगम ग्रन्थोके सतत अभ्याससे जिन्होंने सिद्धान्तके प्ररूपणमें विशदता प्राप्त की है उनके सम्पादित ग्रन्थ स्वतः सिद्धान्तमय हैं. इसमें आश्चर्यकी क्या बात है? तत्त्वार्थसूत्रटीका : एक समीक्षा डॉ० पन्नालाल साहित्याचार्य, सागर तत्त्वार्थसूत्र के पूर्व जैन श्रुतमें तत्त्वोंका निरूपण भगवन्त पुष्पदन्त और भूतबलिके द्वारा प्रचारित सत् संख्या आदि अनुयोगोंके माध्यमसे होता था। इसका उल्लेख तत्त्वार्थसूत्रमें 'सत्संख्या क्षेत्र स्पर्शन कालाम्तर भावाल्प बहुत्वैश्च' सूत्रके द्वारा किया है। इस शैलीका अनुगमन करनेवाला आचार्य नेमिचन्द्रजीका गोम्मटसार है। उमास्वामी महाराजने तत्वार्थसूत्रमें जिस शंलीको अंगीकृत किया, वह सरल होनेसे सबको ग्राह्य हई। तत्त्वार्थसूत्रपर दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायोंमें विविध संस्कृत टीकाएँ लिखी गई है। आचार्य पज्यपादकी 'सवार्थसिद्धि' अकलंकदेव का राजवार्तिक विद्यानन्दका श्लोकवार्तिक और उमास्वातिका तत्वार्थाधिगमभाष्य अत्यन्त प्रसिद्ध टीकाएँ हैं । समन्तभद्र स्वामोके गन्धहस्ति महाभाष्यका उल्लेख मात्र मिलता है पर ग्रन्थ कहीं उपलब्ध नहीं हो रहा है। यह रही संस्कृत टीकाओंकी बात. परन्त तत्त्वार्थसत्रकी शैलीसे तत्वोंका निरूपण करनेवाले हरिवंशपुराण, आदिपुराण, पद्मपुराण तत्त्वार्थसार तथा पुरुषार्थसिद्धयपाय आदि अनेक स्वतन्त्र ग्रन्थ उपलब्ध है। तात्पर्य यह है कि यह तत्त्व-निरूपणकी शैली ग्रन्थकारोंको इतनी रुचिकर लगी कि पूर्व शैलीको एकदम भुला दिया गया है । "तत्त्वार्थसूत्र" पर अनेकों विद्वानोंने हिन्दी टीकाएँ लिखी हैं जो संक्षिप्त, मध्यम और विस्तृत सब प्रकारकी हैं। पं० सदासुखरायजी कासलीवालकी 'अर्थ प्रकाशिका' नामकी विस्तृत टीका है। उसमें प्रसङ्गोपान्त अनेक विषयोंका समावेश किया गया है । आधुनिक टीकाओंमें सिद्धान्ताचार्य पण्डित फूलचन्द्रजी शास्त्रीकृत और वर्णी ग्रन्थमालासे प्रकाशित टीका 'तत्त्वार्थसूत्र' हमारे सामने है। इस टीकामें पण्डितजीने टिप्पणमें श्वेताम्बर Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम खण्ड : ६१७ सम्प्रदायमें प्रचलित पाठ-भेदोंका भी समुल्लेख किया है तथा प्रश्नोत्तरकी पद्धतिको अपनाकर प्रसङ्गागत अ विषयोंको स्पष्ट किया है । पण्डित फूलचंद्रजी धवलादि ग्रन्थोंके माने हुए विद्वान् हैं । अतः उन्होंने बीच बीचमें उसके आश्रयसे विषयको स्पष्ट किया है । यथा प्रथमाध्याय में व्यञ्जनावग्रह और अर्थावग्रहके स्वरूप तथा भेदोंको स्पष्टकर यह प्रतिफलित किया है कि चक्षु और मन जहाँ अप्राप्यग्राही हैं, वहाँ शेष चार इन्द्रियाँ प्राप्यग्राही तथा अप्राप्यग्राही - दोनों प्रकारकी हैं । प्रमाण और नयोंका विवेचनकर उनका अन्तर बतलाया है तथा नैगमादि नयोंका विशद विवेचन किया है । द्वितीयाध्यायमें वेदोंके साम्य और वैषम्यका विषय स्पष्टकर अकालमरणके रहस्यको उद्घाटित किया है । औदारिकादि शरीरोंकी विशिष्टता प्रकट करते हुए आहारक और अनाहारकके स्वरूपकी चर्चाकी है । विग्रहगतिके भेद और उसमें पाई जानेवाली आहारक तथा अनाहारक अवस्थाको स्पष्ट किया है । भवस्थिति और कार्यस्थितिका अन्तर बतलाया है । ऋजुगतिवाला जीव अनाहारक क्यों नहीं होता है ? इसका प्रतिपादन किया है । तृतीयाध्यायके प्रारम्भमें लोककी आकृति तथा भेदोंकी चर्चाकर उसके चित्र देते हुए घनफल निकालने की विधिको दर्शाया है । अधोलोकका विस्तृत वर्णन कर रत्नप्रभा आदि पृथिवियोंके स्वरूपपर अच्छा प्रकाश डाला है । चतुर्थाध्यायमें वैमानिक देवोंकी स्थितिका वर्णन करते हुए घातायुष्क और अघातायुष्क देवोंकी चर्चा की है तथा घावायुष्क कहाँ तक उत्पन्न होते हैं उनकी आयु अन्यदेवोंकी आयुकी अपेक्षा कितनी अधिक होती है, यह स्पष्ट किया है । पञ्चमाध्यायमें जीवाजीवादि द्रव्योंकी चर्चा करते हुए आधुनिक विज्ञानका आश्रय लेकर षड्द्रव्योंका समर्थन किया है। खासकर धर्म अधर्मकी कल्पनाको स्पष्ट किया है । पञ्चमाध्यायका विवेचन प्रवचनकर्त्ता विद्वानों को खासकर देखना चाहिए इससे अनेक प्रवचनोंमें रोचकता और आकर्षण उत्पन्न होगा । परमाणुओंका परस्पर बन्ध क्यों होता है और किस स्थितिमें होता है यह सब विषय अत्यधिक स्पष्ट किया है । प्रसङ्गोपान्त विभिन्न उपादानकी चर्चाकी गई है । षष्ठ अध्यायमें सातावेदनीय, असातावेदनीय, दर्शनमोह और चारित्रमोहके आस्रवोंकी चर्चा करते हुए केवलीके कवलाहार क्यों नहीं होता है ? आदि विषयोंको स्पष्ट किया है । सप्तमाध्यायमें हिंसा-अहिंसा के स्वरूपका दिग्दर्शन कराते हुए रात्रिभोजन- परित्यागपर पर्याप्त प्रकाश डाला है और समाज में बढ़ते हुए शिथिलाचार पर खेद व्यक्त किया है । व्रतोंके अतिचारोंका भी स्वरूप चित्रण अच्छा हुआ । इसी अध्यायमें सल्लेखनाकी चर्चा करते हुए प्रश्नोत्तरोंके माध्यमसे स्पष्ट किया है कि सल्लेखना करनेवाला आत्मघाती नहीं है । अष्टमाध्यायमें कर्म तथा उसकी अवान्तर प्रकृतियोंकी चर्चा करते हुए सातावेदनीय तथा असातावेदनीय यतश्च जीव क्रियाकी प्रकृतियाँ हैं । अतः सुख दुःखका वेदन तो कराती हैं, परन्तु उनकी सामग्री एकत्रित नहीं करतीं । यह सामग्री अन्यान्य कर्मोंके उदयसे एकत्रित होती है । इस विषयकी विशद चर्चाकी है । प्रदेशबन्ध की चर्चा करते हुए कर्म के विषयमें विषद जानकारी दी है । नवमाध्यायमें, बारह अनुप्रेक्षाओं, बाईस परिषहों तथा धम्मंध्यान और शुक्लध्यानके भेदोंकी अच्छी चर्चाकी है । सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसाम्पराय और यथाख्यातचारित्र तथा अनशनादि तपोंका विशद वर्णन किया है । निर्जराके दश स्थानोंका स्पष्टीकरण भी उत्तम हुआ है । ७८ Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१८ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ दशमाध्यायमें केवलज्ञानकी प्राप्तिके कारणोंपर प्रकाश डालकर मोक्षका स्वरूप तथा मुक्त जीबोंमें जिन क्षेत्र, काल आदि १२ अनुयोगोंसे वैशिष्टय होता है उनका स्पष्टीकरण है। "तत्त्वार्थसूत्र" जिनागमका महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है, यह सर्वमान्य बात है। इसमें प्रथमानुयोगको छोड़कर शेष तीन अनुयोगोंका सार संगृहोत है। इसके विधिवत् स्वाध्यायसे जिनागमका अच्छा ज्ञान हो जाता है । पर्युषण पर्वमें इसीका प्रवचन सर्वत्र चलता है और अतिरिक्त समयमें भी सबलोग इसके प्रति अपार श्रद्धा रखते है । मेरी रायमें पंडित फूलचन्द्रजी द्वारा रचित इस हिन्दी टीकाको एक बार अवश्य पढ़ना चाहिए । पठन-पाठन के लिए तो यह छात्रोंके लिए बोझिल होगी, पर विद्वानोंको अपना ज्ञान परिपक्व करनेके लिए परमसहायक सिद्ध होगी। टीकामें कुछ विषय ऐसे अवश्य है जिनपर विद्वान् चर्चा किया करते हैं, पर उन अल्प विषयोंको गौणकर टीकाका स्वाध्याय करें और प्रवचनकर्ता इसे मनोयोग पूर्वक पढ़ें तो उनके ज्ञानमें परिपक्वता नियम से आवेगी। पंचाध्यायी टीका : एक अध्ययन पण्डित नाथूलाल शास्त्री, इन्दौर देशके लब्धप्रतिष्ठ प्रकाण्ड विद्वान सिद्धान्ताचार्य श्री पण्डित फूलचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्री, वाराणसीकी साहित्य सेवाओंके प्रति जितनी भी कृतज्ञता प्रदर्शित की जावे, थोड़ी है । उनकी अनेक महत्त्वपूर्ण रचनाओंमें एक पंचाध्यायी हिन्दी टीका भी है । अजमेर शास्त्र भण्डारसे प्राप्त हस्तलिखित पंचाध्यायीका अध्यापन श्री पण्डित बालदेवदासजीके बाद गह गोपालदासजी बरैयाने मुरैना महाविद्यालयमें श्री पण्डित वंशीधरजी न्यायालंकार, श्री पंडित मक्खनलालजी एवं श्री पंडित देवकीनन्दनजी व्याख्यानवाचस्पति आदि उनके प्रमुख शिष्योंको पढ़ाते हुए श्री पं० मक्खनलालजीसे उसका हिन्दी अनुवाद कराया था । वह अपूर्ण ग्रन्थ शास्त्री परीक्षाके पाठ्यक्रममें हो जानेसे व छात्रोंके पठन-पाठनमें उपयोगमें आने लगा है। पंचाध्यायी ग्रन्थको ग्रन्थकारने पाँच अध्यायोंमें लिखनेका संकल्प किया था परन्तु उपलब्ध ग्रन्थ केवल डेढ़ अध्यायमें ही है । सम्भव है लिखते हुए ग्रन्थकारका स्वर्गवास हो गया हो।। इस ग्रन्थके रचयिताके सम्बन्धमें श्री पंडित मक्खनलालजीने गम्भीर और महत्त्वपूर्ण रचनाकी दृष्टिसे आचार्य अमतचन्द्रके नामका उल्लेख किया है। पंडितजीने अपनी आलोचनात्मक ग्रन्थ "आगम मार्ग प्रकाश" में पंचाध्यायीके सम्बन्धमें विस्तारसे विवेचन किया है। श्री पंडित जुगलकिशोरजी मुख्तारने पंचाध्यायीके कर्ता पंडित राजमलजीको माना है । श्री पंडित फूलचन्द्रजीने भी इन्हींको उक्त ग्रन्थका कर्ता स्वीकार किया है। हमारी दृष्टिमें भी पंचाध्यायोकी रचना आचार्य अमृतचन्द्रकी नहीं है । पंचाध्यायीके जो शंका समा'धानके रूपमें अनेक श्लोक है, उनमें अधिक विस्तार हो गया है जो अमृतचन्द्र सूरीकी शैलीके अनुरूप नहीं । जबकि अमतचन्द्र सरीकी भाषामें प्रौढता और सूत्र रूप शब्दावली दृष्टिगोचर होती है। ग्रन्थकर्ता अपना नाम ग्रन्थके अन्तमें दिया करते हैं। जब यह ग्रन्थ पूर्ण ही नहीं हो सका तो ग्रन्थकर्ताको अपना परिचय देनेका अवसर Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम खण्ड : ६१९ ही कहाँ मिल सका ? पंचाध्यायीमें कतिपय स्थानोंपर "तदाह सूरिः" ऐसे वाक्य आनेसे यह प्रतीत होता है कि किसी प्राचीन आचार्य (अमृतचन्द्र सूरी) की रचनाको पंचाध्यायीकारने हृदयंगम कर अपनी इस कृतिकी रचना की है । स्वयं अमृतचन्द्र अपनेको सूरी बताकर उत्तर देवें यह असंगत मालूम होता है। श्री पंडित मक्खनलाल जी शास्त्रीके पंचाध्यायी हिन्दी अनुवादके पश्चात् सन् १९३२ में श्री पंडित देवकीनन्दन सिद्धान्तशास्त्रीने पंचाध्यायीकी हिन्दी गीता रचकर कारंजा आश्रमसे प्रकाशित कराई थी। उसमें शब्दानुगामी अर्थ और तात्पर्य का पूरा ख्याल रखा गया है। जबकि पूर्व टीकामें भावार्थ और उसके विस्तारको महत्त्व दिया गया है इससे कहीं-कहीं मूलका हार्द छूट सा गया है । तीसरी बार पंचाध्यायीकी टीका श्री पं० देवकीनन्दन और उसका सम्पादन श्री पण्डित फूलचन्द्र जीने किया जो सन् १९५० में "श्री गणेशप्रसाद वर्णी जैन ग्रन्थमाला", वाराणसीसे प्रकाशित हुई । इसमें मूलविषयको स्पर्श करते हुए स्वतन्त्र रूपसे विवेचन किया गया है। पंचाध्यायीका संक्षिप्त हिन्दी भाषा अनुवाद और नयकी दृष्टिसे विचार करते हुए श्री सरनारामजीने भी किया है । वर्णी ग्रन्थमालाकी इस पंचाध्यायीमें विषयको खूब स्पष्ट किया गया है। जिसमें श्री पंडित फूलचन्द्रजीका अपने गुरु श्री देवकीनन्दनजीके प्रति कृतज्ञता प्रकट करते हए विशेष हाथ है। इसकी प्रस्तावना भी पंडित फुलचन्द्रजीने ५२ लिखी है उसमें प्रस्तुत ग्रन्थका सार आ गया है। कविवर राजमलजीके, जिन्होंने पंचाध्यायीके प्रारम्भमें पंचम श्लोकमें अपनेको कवि लिखा है, "लाटी संहिता" ग्रन्थमें इसके सम्यक्त्वके सम्बन्धित ४२६ श्लोक समान रूपमें पाये जाते हैं। प्रस्तावनामें दर्शनका महत्त्व और दर्शनके विभिन्न भेदोंमें अन्तर बतलाते हुए सम्यकअनेकांत मिथ्या अनेकान्त एवं सम्यक्एकांतमिथ्या एकान्तका लक्षण लिखा है। द्रव्य और उसके भेद, जीवके स्वभाव आदिके विषयमें लिखते हुए आपने उसकी कमजोरी और उसके दूर करनेका उपायको रत्नत्रय बतलाया है। यहाँ जैन दर्शन का सार-व्यक्ति स्वातन्त्र्य पर अधिक जोर दिया है। मूल ग्रन्थकारने तत्त्व का लक्षण सन्मात्र मात्र बताते हुए उसे स्वतंत्र सिद्ध, अनादि, अनिधन, स्वसहाय और अखण्ड सिद्ध किया है वह सत् या सत्ता, द्रव्य पर्याय रूप है। द्रव्यार्थिक और पर्यायर्थिक नयका विषय है व नाना पदार्थों में स्थित है अतः नाना रूप है, सर्व पदार्थों में अन्वय रूपसे पायी जाती है, अतः एक है। विवक्षा भेदसे विश्व रूप-एक रूप, उत्पादादि त्रिलक्षणात्मक-त्रिलक्षणाभाव आदि प्रतिपक्ष रूपता उसमें पाई जाती है । इस विषयमें जगतके प्राणो अपने मनका समाधान जगतका कर्ता ईश्वर मानकर करते हैं, उसका समुचित उत्तर ग्रन्थकारने वस्तुको स्वतः सिद्ध अनादिअनंत सिद्ध करके दिया है। उसे स्व सहाय बताकर उसका स्वतन्त्र परिणमन फल सिद्ध किया है। वस्तु निर्विकल्प याने अखण्ड है इस प्रकार सामान्य या अभेददृष्टिसे निरूपण करनेके पश्चात् विशेष, पर्याय या व्यवहार दृष्टिसे द्रव्यका लक्षण-१. गुणपर्ययवद द्रव्यम् २. गुणसमुदायो द्रव्यं ३. समगुणपर्यायोद्रव्यम् ४. उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तम् सत्-सद्रव्यलक्षणं चार प्रकार किया है। यहाँ द्रव्य, तत्व, सत्व, अन्वय, वस्तु, अर्थ, सामान्य विविध ये पर्यायवाची शब्द होनसे उक्त द्रव्यका लक्षण बतलाया गया है। द्रव्यके प्रथम लक्षणमें द्रव्य अनंत गुणों और उनकी पर्यायों का पिण्ड माना है। अन्वयीगण और व्यतिरेकी पर्यायें हैं । यह गुण पर्याय वाला द्रव्य, गुण और पर्यायोंका समुदाय मात्र है इसलिए गुण समुदाय भी द्रव्य है । पहले दोनों लक्षण परस्पर पूरक हैं । गुण और पर्याय वाला या गुण वाला द्रव्य है, इस कथनसे गुण और पर्याय भिन्न दिखते हैं, इसलिये तीसरा द्रव्यका लक्षण समगुण पर्याय किया गया है। उसमें देश देशांस, गुण गुणांश द्रव्य है । जैसे स्कन्ध, शाखा आदि वृक्ष है, उसी तरह देश देशांश या गुण गुणांश द्रव्य है। इन तीन लक्षणोंके अतिरिक्त चौथे लक्षण उत्पादव्यय ध्रौव्य युक्तम् की आवश्यकता इसलिये है कि नित्यत्वकी गुणके साथ Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२० : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ व्याप्ति है। अत गण वाला द्रव्य ध्रौव्यवान सिद्ध होता है। यहाँ गण लक्ष्य है और ध्रौव्य लक्षण है इसलिए दोनों लक्षण वाला साध्य साधन भाव है । उत्पाद व्यय पर्यायें हैं और द्रव्य पर्याय वाला है। याने द्रव्य उत्पाद व्यय पर्याय वाला है। द्रव्यके ये दोनों लक्षणोंमें से किसी एकके काम चल सकता है इस प्रश्नका समाधान करते हुए ग्रन्थकारने लिखा है कि दोनों लक्षण एक दूसरेके अभिव्यंजक होते हैं इनका अलग-अलग निर्देश किया है । दोनों लक्षण एक दूसरेके पूरक हैं । अन्वय होनेसे गुणोंकी व्याप्ति नित्यताके साथ है और द्रव्य नित्यताका पर्यायवाची है। क्रमवर्ती और व्यतिरेकी होनेसे पर्यायोंकी व्याप्ति अनित्यताके साथ है और उत्पाद तथा व्यय अनित्य होते हैं । इस प्रकार गुरुपर्याय ये स्वभाववान या लक्ष्य स्थानीय है । और उत्पाद व्यय और ध्रौव्य ये स्वभाव या लक्षण स्थानीय है । किसी अपेक्षासे गुण नित्यानित्यात्मक है क्योंकि सत् अथवा द्रव्य व पर्याय गुणोंसे सर्वथा पृथक् नहीं है। आगे अनेकान्त दृष्टिसे वस्तुके विचारमें कथंचित् अस्ति नास्ति, नित्यानित्य, एक अनेक, तत् अतत् इन चार युगलोंके वस्तु गुंफित हैं, यह सिद्ध किया गया है । नयका स्वरूप ग्रन्थकारने लिखा है कि उदाहरण, हेतु और फलके साथ विवक्षित वस्तु के गुणोंको उसीका कथन करने वाला समीचीन नय है । इससे विपरीत नयाभास है। इस लक्षणसे जीव वर्णादि वाला, मनुष्य आदि शरीर रूप, गृह कुटुम्ब आदि सुखका कर्ता भोक्ता और ज्ञानज्ञेयका बोध्य बोधक सम्बन्ध । ये चारों नयाभास हैं। जबकि यह अन्यत्र उपचरित, अनुपचरित, असद्भूत व्यवहारनयके अन्तर्गत बताये गये हैं। किन्तु यहाँ ग्रन्थकारने नयका उक्त लक्षण बताकर इनका निषेध ठीक ही किया है। इसे अध्यात्म दृष्टिसे माना जाना चाहिए । इसी प्रकार सद्भूत अनुचरित और उपचरित तथा असद्भूत अनूपचरित और उपचरितके लक्षण और उदाहरण भी उक्त दृष्टिसे यहाँ दिये गये हैं। जो अनगारधर्मामृत और आलापपद्धतिसे भिन्न हैं व्यवहार नयके चारों भेदोंके उदाहरण निम्न प्रकार है : १. सद्भुत अनुपचरित - ज्ञान जीवका है। २. सदभूत उपचरित - अर्थ विकल्पात्मक ज्ञान । ३. असदभूत अनुपचरित = अबुद्धिपूर्वक क्रोधादि जीवके हैं । ४. असद्भुत उपचरित = बुद्धिपूर्वक क्रोधादि औदयिक भाव जीवके हैं। इस ग्रन्थके व्यवहार नय और निश्चय नयको क्रमशः प्रतिषेध्य तथा प्रतिषेधक या भूतार्थ अभूतार्थ होनेका कारण यह बताया है कि वास्तवमें पदार्थ एक और अखंड है, तब द्रव्य क्षेत्र आदिकी अपेक्षा उसमें भेद करते हैं, जो परमार्थ भूत नहीं है । व्यवहार नय इनकी अपेक्षा वस्तुको निषेध करता है अतः वह निश्चयनयापेक्षया प्रतिषेध्य अभूतार्थ और मिथ्या है । वस्तुका द्रव्य गुण और पर्यायरूप विभाग करना वास्तविक नहीं है और उस एक अखण्ड वस्तुको विषय करने वाला निश्चयनय है, जिसका अनुभव करने वाला सम्यक्दृष्टि है । ग्रन्थकारने निश्चयनयमें शुद्ध-अशुद्ध आदि भेद मानने वालोंको मिथ्यादृष्टि और सर्वज्ञकी आज्ञाका उल्लंघन करने वाला माना है क्योंकि आत्म शुद्धिके लिए जो उपयोगी हो वही माना जाना चाहिए। व्यवहार निश्चय सम्बन्धमें भी आत्म हितके सिवाय वस्तु विचारके समय ज्ञान दोनों नयोंका आश्रय होकर प्रवृत्त होता है। तथा निश्चयमें अनिर्वचनीय है इसलिए तीर्थ स्थापन हेतु वावदूक व्यवहारनय श्रेयस्कर है। इस प्रकार दोनों नयोंकी सापेक्षताको भी नहीं छोड़ा है। स्वानुभूतिके लिए व्यवहारनय जैसे विकल्परूप है वैसे निश्चयनय भी निषेधात्मक विकल्प रूप है अतः स्वानुभूति नयपक्षातीत है। स्वानुभूतिके समय मति श्रुत ज्ञानों (परोक्ष होनेपर भी) से जितना भी ज्ञान होता है वह प्रत्यक्ष ज्ञानके समान प्रत्यक्ष है। इसके सिवा शेष मति श्रुत ज्ञान प्रत्यक्ष नहीं। इन्द्रिय विषयोंको ग्रहण करने और आत्मा आदिको जानते समय ये दोनों ज्ञान परोक्ष ही है। अवधि और मनःपर्यायज्ञान (प्रत्यक्ष होनेपर भी) का विषय आत्मा नहीं है। आगे दूसरे Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम खण्ड : ६२१ अध्यायमें जीव और कर्मके अस्तित्वकी सिद्धि करते हुए ग्रन्थकारने अमूर्त जीव का मूर्त कर्मसे सम्बन्ध अनादि बताते हुए वैभाविक शक्तिका उल्लेख विशेष रूपसे किया है । जैसे जल स्वभावसे ठण्डा होता है पर अग्निका निमित्त पाकर वह गर्म हो जाता है वैसे ही वैभाविकी शक्ति का विशेष निमित्त निरपेक्ष परिणमन सिद्ध अवस्था है, पर कर्मके निमित्तसे उसका संसार अवस्था रूप विभाव परिणमन हो रहा है। इस प्रकार वैभाविक शक्तिके सदैव परिणमन करते रहने से एक विभाव परिणमन, जो कर्मके निमित्तसे होता है, दूसरा स्वभाव परिणमन जो विशेष निमित्त निरपेक्ष होता है । बंधका भी, जो संयोग विशेष है, सुन्दर लक्षण किया है। बंध जीव पुद्गलकी पर गुणाकार अर्थात् परतन्त्र होने रूप क्रिया अर्थात् स्वभाव च्युति या अशुद्धताका नाम है । ग्रन्थ सम्पादकजीने यहाँ पर गुणाकार या स्वभाव च्युतिको जीव पुद्गलके बन्धमें परस्पर निमित्त होना बताया है। इसी प्रकार उक्त वैभाविक शक्तिके सम्बन्धमें भी जीवके अपने उपादानकी योग्यतानुसार कार्य होना बताया है । ऐसे बहुतसे स्थल है जहाँ ग्रन्थकारके शब्दोंका स्पष्टीकरण करते हुए संपादकजी अपने पाठकोंको विषयका हार्द समझाते रहे हैं । चेतनाके कर्म फल, कर्म और ज्ञान चेतना ये तीन भेद कहे हैं । इनमें प्रथम एकेन्द्रियमें असंज्ञी पंचेन्द्री तक होते हैं, दूसरी संज्ञी पंचेन्द्र मिथ्यादृष्टि से बारहवें गुणस्थान तक होती है । तीसरी मुख्यतः केवली और सिद्ध जीवकी होती है । गौण रूपसे ज्ञान चेतना स्वरूपाचरण चारित्र के समान चौथे गुणस्थानसे प्रारंभ होकर तेरहवें गुणस्थान तक क्रमसे बढ़ती जाती है । सम्यक्दर्शनके प्रगट हो जाने पर सम्यक्ज्ञानकी विशेष अवस्थामें आत्मोपलब्धि होती है वह ज्ञान चेतना है । स्वानुभूति चौथे गुणस्थान में सम्यक्दर्शनके होने पर होती है । पंचाध्यायीके अनुसार दर्शन मोहके उपशमकादि होनेपर सम्यक दृष्टिको अपने आत्माका जो शुद्ध रूप होता है उसमें चारित्र मोह बाधक नहीं है । यह स्वानुभूति ज्ञान विशेष है । जो सम्यक्दर्शनके साथ रहती है । स्वानुभूतिकी सम्यक्त्वके साथ लब्धिरूपसे समव्याप्ति होते हुए भी स्वानुभूतिकी उपयोगात्मक दशाके साथ सम्यक्त्वकी विषम व्यापित बनती है । क्योंकि स्वानुभूति उपयोग में निरंतर नहीं रहती । पंचाध्यायी कार्यकी इस शुद्धात्मानुभूतिको आचार्य ज्ञानसागर जी ने एक आगमिक आत्मोपलब्धि २ मानसिक आत्मोपलब्धि ३. केवल आत्मोपलब्धि इनमेंसे आगमिक आत्मोपलब्धि माना है, जहाँ शुद्धात्माके विषयका श्रद्धान होता है, पर तदनुकूल आचरण नहीं रहता । इस ग्रन्थ में शंकाके सात सम्यक्त्वके प्रशम, संवेग, अनुकम्पा, आस्तिक्य गुण हैं यथा विस्तृत रूपसे निःशंकित आदि आठ अंग, भय तीन मूढ़ता, आचार्य, उपाध्याय व साधुके स्वरूप व उनकी चर्या तथा गृहस्थ धर्मकी विवेचना करते हुए पाँच भावों में औदयिक आदिका निरूपण किया है । वात्सल्य अंगके प्रथममें लिखा है कि जिनायतन और चतुः संघ में से किसी पर घोर उपसर्ग आने पर सम्यकदृष्टि उसे दूर करने हेतु सदा तैयार रहता है यदि आत्मिक सामर्थ्य नहीं है तो अपने पास मंत्र, तलवार और धन है तब तक उन पर उसकी आई बाधाको न देख सकता है और न सुन सकता है। गृहस्थकी यह विरोधी हिंसा अपरिहार्य है, जो आक्रमणका नहीं वरन् रक्षाका उपाय है। कुछ वेदके कथनमें ग्रन्थकारने मनुष्योंके एक ही भवमें एक भाव वेदके परिर्वतनका उल्लेख किया है । जब कि भाववेद एक भवमें जीवन भर एक रहता है। हाँ द्रव्य भेदमें परिवर्तन हो जाता है । श्री पंडित मक्खनलालजी या पंचाध्यायीकारको संभवतः धवलाटीकाके स्वाध्यायका अवसर नहीं मिला होगा । क्योंकि पंडितजीने इस ग्रन्थके संपादकका उक्त वेद विषयक मन्तव्यका खंडन किया है। इस प्रकार प्रस्तुत पंचाध्यायी ग्रन्थ एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ है । इसकी अनेक विशेषतायें | द्रव्यानुयोग और चरणानुयोग प्रधान यह ग्रन्थ है । विद्वान् संपादक महोदयने इसका सुन्दर संपादन कर इसे स्वाध्यायोपयोगी बना दिया है । वर्तमान में यह तृतीय प्रकाशन भी समाप्त हो चुका है । चतुर्थ प्रकाशन मुद्रित हो रहा है । Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२२ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्रो अभिनन्दन-ग्रन्थ सर्वार्थसिद्धि : समालोचनात्मक अनुशीलन डॉ. देवेन्द्रकुमार शास्त्रो, नोमच जैन साहित्यमें मूल रूपसे मोक्ष-मार्गको प्रकाशित करने वाले अनेक सत शास्त्रोंकी रचना विगत दो सहस्र वर्षोंके अन्तरालमें अनवच्छिन्न रूपमें होती रही है। प्राकृत भाषामें रचे गये ग्रन्थोंमें षट्खण्डागम, समयसार, प्रवचनसार, नियमसार, पंचास्तिकाय मुख्य हैं। सभी आचार्योने आत्माको केन्द्रमें रखकर सच्चे सुख या मोक्षकी प्राप्तिके लिए अलग-अलग शैलीमें मोक्ष-मार्गका निरूपण किया। संस्कृतमें रचे गये ग्रन्थामें आचार्य उमास्वामी कृत "तत्त्वार्थसूत्र" या मोक्षशास्त्र प्रमुख है। इस सूत्र ग्रन्थोंकी रचना विक्रमकी दूसरी शतीमें हुई थी। इसके आधार पर ही आचार्य अमृतचन्द्र कृत "तत्त्वार्थसार", श्रुतमुनि कृत "परमागमसार" तथा भ० सकलकीर्ति विरचित "तत्वार्थसारदीपक" आदि रचनाओंका निर्माण हुआ । “तत्त्वार्थसूत्र" पर सबसे अधिक टीकाएँ लिखी गई। सबसे बड़ी टीका “गन्धहस्तिमहाभाष्य" चौरासी हजार श्लोकप्रमाण आचार्य समन्तभद्र स्वामीने रची थी जो आज अनुपलब्ध है। आचार्य पूज्यपादस्वामी कृत "सर्वार्थसिद्धि" चार हजार श्लोकप्रमाण है। आचार्य अकलंकदेव विरचित "राजवार्तिक" सोलह हजार श्लोकप्रमाण टीका कही गई है। उपलब्ध टीकाओंमें सबसे बड़ी बीस हजार श्लोकप्रमाण "श्लोकवातिक" भाष्य है, जिसके रचयिता आचार्य विद्यानन्द स्वामी हैं। इनके अतिरिक्त ब्रह्म श्रुतसागर कृत "तत्त्वार्थवृत्ति", पं० वामदेव कृत "तत्त्वार्थसार", भास्करनन्दि विरचित "तत्त्वार्थसूत्रवृत्ति" तथा आचार्य प्रभाचन्द्र कृत "तत्त्वार्थवृत्ति पदविवरण इत्यादि रचनाएँ उपलब्ध होती हैं । बृहत्प्रभाचन्द्र कृत "तत्त्वार्थसूत्र' आचार्य उमास्वामोकी छाया ही प्रतीत होती है। इतना अवश्य है कि कुल १०७ सूत्रोंमें दसों अध्यायोंका सप्रमाण निरूपण किया गया है। प्रत्येक अध्यायमें सूत्रोंकी संख्या घटा दी गई और कहीं-कहीं स्पष्टीकरण तथा संक्षिप्तीकरणकी प्रवृत्ति लक्षित होती है। ___ "तत्त्वार्थसूत्र" जैनधर्मकी बाइबिल कही जाती है । यद्यपि इसमें अध्यात्म और आगम जैसा कोई विभाग नहीं है, किन्तु जो भी वर्णन किया गया है उसमें आत्माको मूल बिन्दु माना गया है । आत्माको शुद्धता और अशुद्धता भावोंसे है । जैनधर्ममें भावकी प्रधानता है । इसका ही विस्तृत वर्णन टीका ग्रन्थों में पाया जाता है । आचार्य प्रभाचन्द्र कृत "तत्त्वार्थवत्तिपदविवरण" सर्वार्थसिद्धिकी विस्तत व्याख्या है। इससे आचार्य पूज्यपाद कृत "सर्वार्थसिद्धि" टीकाका विशेष महत्व द्योतित होता है। यह टीका प्राचीन होने पर भी कई विशेषताओं से युक्त है। टीका संक्षिप्त होनेपर भी सूत्रके प्रत्येक पदकी सटीक व्याख्या प्रस्तुत करने वाली है। इसमें न तो अति विस्तार है और न अति संक्षेप । दूसरी विशेषता यह है कि सम्पूर्ण टीका आगमके प्रमाणोंसे संवलित है । कहीं-कहीं यथावश्यक उद्धरण भी उद्धृत है। तीसरे, सूत्रके पूर्वापर सम्बन्ध, अत्यावश्यक प्रश्नोंका निर्देश तथा संक्षिप्त समाधान, न्याय हेतु आदिका सर्वत्र परिपालन लक्षित होता है ।। टीकाका मुख्य स्रोत- ग्रन्थ है-षट्खण्डागम । षट्खण्डागम और कषायप्राभृत दिगम्बर जैन आम्नायके मूल ग्रन्थ माने जाते हैं । “षट्खण्डागम” का रचना-काल ईस्वी पूर्व प्रथम शताब्दी माना जाता है। वस्तुतः षट्खण्डागमकी रचना किसीने नहीं की, किन्तु संकलन किया गया। डॉ० ज्योतिप्रसाद जैनने आचार्य भूतबलिका समय ई० सन् ६६-९० माना है और षट्खण्डागमके संकलनका समय सन् ७५ निश्चित किया है। "सर्वार्थसिद्धि" की प्रस्तावनामें पण्डितजीने लिखा है-इन्द्रनन्दिने अपने श्रुतावतारमें षट्खण्डागम पर आ० कुन्दकुन्द की टीकाका भी उल्लेख किया है। इस आधारसे षट्खण्डागमका रचनाकाल प्रथम शताब्दीसे भी पूर्व ठहरता Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम खण्ड : ६२३ वास्तवमें पं० फलचन्द्र सिद्धान्तशास्त्रीने “सर्वार्थसिद्धि" की टीका लिखकर भावी पीढ़ियोंके लिए दिगम्बर जैन सिद्धांत-परम्पराका सच्चा मार्ग दर्शाया है । पण्डितजीने केवल टीकाके लिए टीका नहीं लिखी है, वरन् सम्पादनके मूल उद्देश्यका पालन पूर्ण रूपसे किया है । सम्पादनका उद्देश्य है-मूल रूपमें लेखककी कृति की पुनर्रचनाको मूलतः ज्योंका त्यों प्रस्तुत करना । ऐसी स्थितिमें यथार्थ सम्पादक प्रतिलिपि करते समय अपने मानसको मूल कृतिके साथ इस तरह संयोजित करता है कि उनके साथ पूर्ण तादात्म्य स्थापित हो जाता है । फिर. सम्पादकके मनमें केवल यही भाव बार-बार उदित होता है कि यदि मैं इस रचनाको लिखता. तो यहाँ पर क्या पाठ होता। अनन्तर अपने पाठकी प्रामाणिकताको साम्य प्रदर्शित करनेवाले अन्य पाठोंसे यथा हस्तलिखित प्रतियोंसे तुलना कर मूल रूप में स्थापित करता है। पण्डितजीने "सर्वार्थसिद्धि" की प्रस्तावनाके पूर्व "दो शब्द" में पाठ-भेदकी समस्याको सामने रखकर सैद्धान्तिक विवेचनके द्वारा समाधान खोजा है जो सम्पादकीय दृष्टिसे ऐसी रचनाओंके सम्पादन करते समय ध्यानमें रहना आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य भी है। इससे केवल पाठ-भेदकी समस्या ही नहीं सुलझती है, वरन् ग्रंथके मूल स्रोतका भी स्पष्ट पता लग जाता है । “तत्त्वार्थसूत्र" के ऐसे कई सूत्र हैं जिनकी प्ररूपणा तथा व्याख्या “षखण्डागम" के आधारसे की गई है। आचार्य पूज्यपादने अपने टीका ग्रन्थ "सर्वार्थसिद्धि" में "तत्त्वार्थसूत्र" के प्रथम अध्यायके "निर्देशस्वामित्व०" और "सत्संख्याक्षेत्र०" इस दो सूत्रोंकी व्याख्या "षटखण्डागम" के आधारसे ही की है। इतना ही नहीं, “तत्त्वार्थसूत्र" का पूरा पाँचवाँ अध्याय “पंचास्तिकाय", "प्रवचनसार" आदि ग्रन्थों पर आधारित है। इसकी व्याख्या में आचार्य कुन्दकुन्दकी अनेक रचनाओंके उद्धरण मिलते हैं । “तत्त्वार्थसूत्र" के सूत्रों पर “मूलाचार" तथा आ० समन्तभद्रके "रत्नकरण्डश्रावकाचार" का स्पष्ट प्रभाव लक्षित होता है । पं० जुगलकिशोर मुख्तारने "सर्वार्थसिद्धि पर समन्तभद्रका प्रभाव' शीर्षक लेखमें तुलना कर यह सिद्ध किया है कि आचार्य समन्तभद्रकी सभी रचनाओंका "सर्वार्थसिद्धि" की व्याख्या में उपयोग किया गया है। वास्तवमें आचार्य पूज्यपाद ऐसे सारस्वाचार्य हुए जिन्होंने सम्पूर्ण जिनागमका आधार लेकर टीका ग्रन्थकी रचना की। . "तत्त्वार्थसूत्र' एक ऐसा ग्रन्थ है जो दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों ही परम्पराओंमें आगमकी भाँति मान्य है। इसकी रचना सूत्र-शैलीमें होनेके कारण तथा विवेचन “तत्त्वार्थ' विषय पर होनेसे इसकी “तत्त्वार्थसूत्र' संज्ञा सार्थक है । किन्तु श्वेताम्बर-परम्पराके अनुसार वाचक उमास्वातिने सातवीं शताब्दीके उत्तरार्द्ध में या आठवीं शताब्दीके पूर्वार्द्ध में 'तत्त्वार्थाधिगम' नामक लघु ग्रन्थकी रचना की थी जो कालान्तरमें “तत्त्वार्थाधिगमभाष्य" नामसे प्रसिद्ध हुआ। फिर, तत्त्वार्थाधिगम सूत्र नाम प्रचलित हो गया । मूल तत्त्वार्थसूत्र में दस अध्याय हैं और तीन सौ सत्तावन सूत्र हैं । “सर्वार्थसिद्धि" की प्रस्तावनामें पण्डितजीने इस पर अच्छा विवेचन किया है। जो भी “तत्त्वार्थसूत्र" का मूल पाठी है, वह निष्पक्ष दृष्टिसे यह विचार कर सकता है कि श्वेताम्बरपरम्परा कुल ३४४ सूत्रोंको ही मूल रूपमें मानती है, तो यह मूल सूत्रोंमें कुछ परिवर्तन कर अपनी अनुसार स्वीकार करती है। विद्वानोंने इस सम्बन्धमें बहुत ऊहापोह किया और इस पर प्रकाश भी डाला । किन्तु पण्डितजीने दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों ही परम्पराओंको मूल रूपमें सामने रखकर यथार्थतः मूलका अनुसन्धान किया है । वे लिखते हैं-"वाचनके समय मेरे ध्यानमें यह आया कि सर्वार्थसिद्धिमें ऐसे कई स्थल हैं जिन्हें उसका मूल भाग माननेमें सन्देह होता है । किन्तु जब कोई वाक्य, वाक्यांश, पद या पदांश लिपिकार की असावधानी या अन्य कारणसे किसी ग्रन्थका मूल भाग बन जाता है, तब फिर उसे बिना आधारके पृथक् करने में काफी अड़चनका सामना पड़ता है।" वास्तवमें प्राचीन रचनाओंके सम्पादनकी यह मूल तथा अन्तरंग समस्या है। इस समस्याको जो सम्पादक पूरी ईमानदारीके साथ निभाता है, वही सम्पादनमें सफल होता है । Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२४ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ पण्डितजीकी यह समस्या मौलिक है कि आचार्य पूज्यपादने जब "तत्त्वार्थसूत्र" के प्रथम अध्यायके "निर्देशस्वामित्व०" सूत्रकी व्याख्या 'षट्खण्डागम' के आधारसे की है तो फिर कहीं कोई पंक्तिमें अन्तर क्यों है ? कहीं व्याख्याकारकी शिथिलता या असावधानीसे तो ऐसा नहीं हुआ? कोई भी कारण हो सकता है । लेकिन यह चिह्न भी स्पष्ट है कि आचार्य पूज्यपादने चारों गतियोंके आश्रयसे सम्यग्दर्शनके स्वामीका निर्देश किया है। तब फिर, पूर्व मुद्रित प्रतियों में ऐसा लिखा हुआ वाक्य क्यों मिलता है कि तिर्यचिनियों में क्षायिक सम्यग्दर्शनका अभाव है। यह स्पष्ट है कि दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों परम्पराओंके आगम ग्रन्थोंमें यह उल्लेख मिलता है कि सम्यग्दृष्टि मरकर किसी भी गतिके स्त्रीवेदियोंमें उत्पन्न नहीं होता। तब फिर, मल्लिको तीर्थंकर मानने और उनके पूर्वके महाबलके भवमें मायाचार करनेके कारण स्त्री नाम कर्मका बन्ध कर तीर्थकरकी पर्यायमें स्त्री होनेके औचित्यको कैसे सिद्ध किया जाये ? यह प्रश्न अवश्य श्वेताम्बर आगम ग्रन्थोंकी टीका लिखने वालोंके समक्ष रहा होगा। यद्यपि उन्होंने विचारकर यह स्पष्टीकरण किया भी है कि-"सम्यग्दृष्टि मरकर स्त्री नहीं होता, यह बाहुल्यकी अपेक्षा कथन है।" परन्तु इस प्रकारके कथनसे वास्तविकताका पता लगाने वालेका समाधान नहीं हो सकता। इसी प्रकारसे मुद्रित प्रतियोंमें विसंगत तथा भ्रमोत्पादक वाक्योंको भी सिद्धान्तका ज्ञाता बिना छान-बीन किये कैसे स्वीकार कर सकता है। अतः पण्डितजीने जब मुद्रित “सर्वार्थसिद्धि" में तिर्यंचनियोंमें क्षायिक सम्ग्यदर्शनका हेतु "द्रव्यवेदस्त्रीणां तासां क्षायिकासम्भवात्" यह वाक्य पढ़ा, तो असमंजसमें पड़ गये। क्योंकि यह वाक्य आगमके अनुकूल नहीं है । पण्डितजी के ही शब्दों में "हमारे सामने यह प्रश्न था । हम बहुत कालसे इस विचारमें थे कि यह वाक्य ग्रन्थका मूल भाग है या कालान्तरमें उसका अंग बना है। तात्त्विक विचारणाके बाद भी इसके निर्णयका मुख्य आधार हस्तलिखित प्राचीन प्रतियाँ ही थीं। तदनुसार हमने उत्तर भारत और दक्षिण भारतकी प्रतियोंका का मद्रित प्रतियोंसे मिलान करता प्रारम्भ किया। परिणामस्वरूप हमारी धारणा सही निकली। यद्यपि सब प्रतियोंमें इस वाक्यका अभाव नहीं है, पर उनमेंसे कुछ प्राचीन प्रतियां ऐसी भी हैं जिनमें यह वाक्य उपलब्ध नहीं होता है।" अपने अनुवादके सम्बन्धमें भी पण्डितजीने अप्रत्यक्ष रूपसे संकेत किया है। उनके ही शब्दोंमें-"इसी सूत्रकी व्याख्यामें दूसरो वाक्य "क्षायिकं पुनर्भाववेदेनैव" मुद्रित हुआ है। यहाँ मनुष्यिनियोंके प्रकरणसे यह वाक्य आता है। बतलाया यह गया है कि पर्याप्त मनुष्यिनियोंके ही तीनों सम्यग्दर्शनोंकी प्राप्ति सम्भव है, अपर्याप्त मनुष्यिनियों के नहीं । निश्चयतः मनुष्यनीके क्षायिक सम्यग्दर्शन भाववेदकी मुख्यतासे ही कहा है, यह द्योतित करनेके लिए इस वाक्यकी सृष्टि की गई है।" ___ भारतीय ज्ञानपीठसे प्रकाशित "सर्वार्थसिद्धि" के इस संस्करणकी कई विशेषताएं हैं। प्रथम आचार्य पूज्यपादने अपनी व्याख्यामें जिन आगमिक ग्रन्थोंके उद्धरण दिये हैं उनका नाम-निर्देश नहीं किया। पण्डितजीने टिप्पणमें अनेक स्थानोंपर मूलाचार, गोम्मटसार जीवकाण्ड, कर्मकाण्ड आदिका उल्लेख किया है। जहाँ वृत्तिमें पाठ-भेदका निर्देश किया गया है, वहाँ भी उसके मूल-स्रोतका या किसी नामका उल्लेख नहीं है। पण्डितजीने टिप्पणमें मूल पाठके साथ ग्रन्थका नामोल्लेख कर इस कमीको पूरा कर दिया है। प्रस्तुत संस्करण पाँच हस्तलिखित प्रतियोंके आधारपर सम्पादित तथा संशोधित किया गया है। इनके सिवाय दो मुद्रित संस्करणोंके आधारपर भी सम्पादन कर पाठ-भेद निश्चित किये गये हैं। अपने प्रारम्भिक "दो शब्द" में पृ० ५, ६-७ पर प्रथम अध्यायके तुलनात्मक पाठ दिये गये हैं जिनको देखकर अनुमान लगाया जा सकता है कि मुद्रित ग्रन्थोंमें पाठोंमें कितनी अशुद्धियाँ हैं । पण्डितजीके ही शब्द उनके सम्पादन कार्यके प्रति कितने सटीक हैं। वे लिखते हैं Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम खण्ड : ६२५ "हम यह तो नहीं कह सकते कि सर्वार्थसिद्धिका प्रस्तुत संस्करण सब दृष्टियोंसे अन्तिम है, फिर भी इसे सम्पादित करते समय इस बातका ध्यान अवश्य रखा गया है कि जहाँ तक बने इसे अधिक परिशुद्ध और मूलग्राही बनाया जाय।" इस सम्बन्धमें इतना कहना ही पर्याप्त है कि पण्डितजीने यह कार्य अत्यन्त सफलताके साथ निष्पन्न किया है। उनकी तरफसे कोई कमी नहीं दिखती है। इस संस्करणकी यह भी विशेषता है कि इसमें प्रत्येक शब्द, पद, वाक्यका पूर्ण रूपसे सरल हिन्दीमें अनुवाद किया गया है। प्रत्येक पृष्ठपर नीचेमें पाठ-भेदका निर्देश किया गया है। अनुवादकी विशेषता यह है कि यदि मूलका वाचन न कर केवल अनुवाद ही पढ़ा जाये, तो ऐसा नहीं लगता कि हम किसीका अनुवाद पढ़ ग्रन्थके अन्तमें परिशिष्ट १ में प्रत्येक अध्यायमें समाविष्ट सूत्र तथा उनके मुद्रित पृष्ठकी संख्याका निर्देश किया गया है। इससे सत्रका पता लगानेमें, ढंढने में बहुत सुविधा जान पड़ती है । "उदधत वा के अन्तर्गत सर्वार्थसिद्धिमें हस्तलिखित प्रतियोंके आधारसे जो गाथा, श्लोक या वाक्य उद्धृत मिलते हैं, वे जिन ग्रन्थोंके हैं उनकी सूची दी गई है। अन्तमें "शब्दानुक्रमणिका" संलग्न है जो प्रत्येक शब्द तथा अंगभूत विषय की जानकारी एवं शोध-कार्यके लिए विषय-सामग्रीका संकलन करनेके लिए विशेष रूपसे उपयोगी है। इस प्रकार प्रथम आवत्तिके रूपमें मई. १९५५ में प्रकाशित "सर्वार्थसिद्धि" का यह संस्करण बहुत उपयोगी सिद्ध हआ है। सम्प्रति मद्रण सम्बन्धी परिशद्धता तथा अनवाद विषयक विशद्धताके साथ इस संस्करण भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्लीको मुद्रण-प्रक्रियासे निर्गमित हो शीघ्र ही प्रकाशित होने वाला है। ऐसे सुन्दर प्रकाशनके लिए ज्ञानपीठ भी निःसन्देह गौरवान्वित हआ है । अमृतकलशके टीकाकार पं. जगन्मोहनलाल शास्त्री, कटनी आचार्य कुन्दकुन्दका "समयसार" अध्यात्म विषयका एकमात्र श्रेष्ठ ग्रन्थ है। यद्यपि और भी अनेक प्रन्थ बादमें रचे गए हैं, पर उन सब पर “समयसार" की ही छाप है । यह ग्रन्थ उस महापुरुषकी सम्पूर्ण जीवनकी अनुभूतिका निचोड़ है। भगवान महावीरके बाद श्रुतकी परम्परा मौखिक रूपमें चलती रही। जब श्रुतका बहत-सा अंश परम्परागत आचार्योंको विस्मृत हो गया, तब श्री १०८ आचार्य धरसेनने उसे लिपिबद्ध करनेके लिए अपना ज्ञान भूतबलि-पुष्पदन्त दो मुनियोंको दिया, जिन्होंने षट्खण्डागम सूत्रोंकी रचना की। यह लिपि रूपमें आगमकी सर्वप्रथम रचना की। इसका विषय करणातुयोग है; द्रव्यानुयोगका भी वर्णन यथास्थान है जिसके अन्तर्गत अध्यात्मके भी कहीं-कहीं दर्शन होते हैं, पर कुन्दकुन्दाचार्य तो भिन्न प्रकारकी धाराका प्रवाह बहा गए । ७९ Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२६ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ कहा जाता है कि आचार्य कुन्दकुन्ददेव विदेह क्षेत्र स्थित वर्तमान प्रथम तीर्थकर सीमंधर स्वामीके समवसरणमें गए थे। उन्हें चारणऋद्धि प्राप्त थी । सीमंधर तीर्थकरके मुखसे समवशरणमें साक्षात् उपदेश श्रवण करनेवाले इस युगके वे ही आचार्य हुए, शेष जो गुरु परम्परासे आगत आगमके अभ्यासी हुए । कुन्दकुन्द देव द्वारा रचित ग्रन्थों में जो विषय वर्णित है, उससे ऐसा लगता है कि जैनधर्मका सर्वस्व सार उसमें है। "मोक्षमार्ग स्वाश्रयसे हैं पराश्रयसे नहीं । कितना साफ सिद्धान्त है। पर छूटना ही तो मुक्ति है, तब वह परके आश्रयसे कैसे होगी? परकर्तृत्वका सर्वथा निषेध जिनशासनमें है । यह पर-कर्तृत्वका निषेध केवल जीव के लिए ही नहीं, षडद्रव्योंमें से कोई वस्तु परके कारण नहीं परणमती । परिणमन वस्तुका ही स्वभाव है । जो स्वभाव होता है, वह पर की अपेक्षासे नहीं होता, स्वयं स्वका भाव है।" आचार्य कुन्दकुन्दके समयसारपर पूज्य श्री १०८ आचार्य अमृतचन्द्रजीकी आत्मख्याति नामक संस्कृत टीका है, जिसकी संस्कृत भाषा बड़ी ही प्राञ्जल है, उत्कृष्ट कोटिकी है। फिर भी सरल और सरस है । इस ग्रन्थकी टीकाने कुन्दकुन्दका हृदय ही खोल दिया है । ऐसा लगता है मानों कुन्दकुन्दके हृदयमें ही अमृतचन्द्रका वास रहा हो । अमृतचन्द्र आचार्यकी आत्मख्याति संस्कृत टीकामें उनके द्वारा ही रचित अमृतमय घटकी तरह कलश रूप काव्य हैं. जिनमें उन गाथाओंका या उनकी टीकाका हार्द भर दिया गया है । इन कलशोंके ऊपर खण्डान्वय रूपसे प्रत्येक पदका अर्थ खुलासा करते हुए टीका श्री पं० राजमलजीने लिखी है। ये कविराज सुप्रसिद्ध अध्यात्म वेत्ता पं० बनारसीदासजीके पहिले हो गए हैं। कविवर बनारसीदासजीने इसके अध्ययनके पश्चात् स्वयं "नाटक समयसार" की उत्कृष्ट छन्दबद्ध रचनाकी है । पं० राजमलजी राजस्थानके थे। अतः राजस्थानान्तर्गत ढूंढ़ा दृढ़ प्रदेशमें प्रचलित ढूँढारी हिन्दी भाषामें उन्होंने यह टीका लिखी है। ___ यद्यपि ठेठ ( आधुनिक हिन्दी ) में भी इसकी टीकाएँ हुई हैं । तथापि ये सब इस टीकाके पश्चात् हुई हैं। फलतः सभी अन्य टीकाकारोंके लिए पण्डित राजालजीकी टीका प्रकाश स्तंभ रही है । दण्डान्वयी टीकाआमें कर्ता-कर्म-क्रिया इस क्रमसे रखे जाते है कि वाक्य विन्यास ठीक-ठीक हो जाय, पर खण्डान्वयी टीकामें प्रत्येक पदका अर्थ इस क्रमसे नहीं होता । यह क्रियासे प्रारम्भ होती हैं और प्रश्नपूर्वक पदस्थ विशेषणोंका अर्थ खुलता जाता है। पण्डित राजमलजीने इस पराधीनताको भी स्वीकार नहीं किया कि सर्वत्र खण्डान्वयके नियमोंका ही पालन किया जाय, किन्तु जहाँ जिस पदका या वाक्यका अधिक स्पष्टीकरण करना अभीष्ट है, वहाँ भावार्थके साथ-साथ टीकाको गति दी है। टीकाके अन्तमें भावार्थ भी प्रायः लिखा गया है और उसमें भावका पूरा स्पष्टीकरण कर दिया है। यह दिगम्बर जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट सोनगढ़ ( सौराष्ट्र) से प्रकाशित हुई है । इस टीकाके सम्पादक समाजके सुप्रसिद्ध निष्णात् विद्वान् आगप ग्रन्थोंके टीकाकार पण्डित फूलचन्द्र जी शास्त्री, वाराणसी हैं। भाषा टीकाकार पण्डित राजमलजीकी स्वयंकी भाषाको अक्षुण्ण रखते हुए भी पण्डितजीने यत्र तत्र आधुनिक हिन्दीमें भी भाव स्पष्ट किया है, जिससे ढूँढारी भाषाकी दुरूहता भी दूर हो गई है। पं० राजमलजी १७वीं शतीके विद्वान थे । इसी १७वीं शतीमें पण्डित बनारसीदासजी, पं० रूपचन्दजी, पं० चतुर्भुजजी, भैयाभगवतीदासजी आदि अनेक गण्यमान्य अध्यात्मरसिक विद्वान् हुए । पण्डित राजमलजीकी अनेक रचनाएं हैं, उनमें यह रचना प्रमुख है । Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम खण्ड : ६२७ पण्डित राजमलजी आध्यात्मिक सत्पुरुष थे । उनके प्रत्येक ग्रन्थ में अध्यात्मके दर्शन होते हैं । इस "समयसार कलश" टीकामें भी अनेक स्थान ऐसे हैं जहाँ उनकी श्रद्धा और विद्वत्ताका चमत्कार देखनेको मिलता है । कुछ नमूने पाठकोंके सामने प्रस्तुत हैं । सम्यग्दर्शन क्या है ? इस प्रश्नका उत्तर कलश ६ में दिया है उसका विवरण पण्डितजीके शब्दों में पढ़िए "संसारमें जीव द्रव्य नौ तत्त्व रूप परिणमा है, वह तो विभाव परणति है, इसलिए नवतत्त्व रूप वस्तु का अनुभव भी मिथ्यात्व है । जिस कारण यही जीव द्रव्य सकल कर्मोपाधिरहित जैसा है वैसा ही प्रत्यक्षपने उसका अनुभव निश्चयसे यही सम्यग्दर्शन है । भावार्थ इस प्रकार है -- सम्यग्दर्शन जीवका गुण है । वह गुण संसार अवस्थामें विभावरूप परिणमा है । वही गुण जब स्वभावरूप परिणमे तब मोक्षमार्ग है । " इस विवरणसे पण्डिजी ने यह स्पष्ट किया कि वर्तमान अवस्था जीवकी नवतत्त्वरूप है, यह सत्य है; तथापि यह जीवका स्वाभाविक परिणमन नहीं है । अतः नवतत्त्वरूप जीवकी श्रद्धा सम्यग्दर्शन नहीं है । तब नवतत्त्वरूप जीवका श्रद्धान करना ( सम्यग्दर्शन नहीं ) मिथ्यादर्शन है । सम्यग्दर्शनका विषयभूत आत्मा इन सब कर्मजनित उपाधियोंसे भिन्न शुद्धात्मदर्शन है । कर्मजनित उपाधि युक्तता असत्य नहीं है वह तो है, पर वह जीवका शुद्ध स्वभाव नहीं है अतः इस दृष्टिसे मिथ्या है नयसापेक्ष कथनकी दृष्टिसे मिथ्या है, तथापि आगे आठवें कलशकी टीकामें पण्डितजी स्पष्ट करते हैं कि "जीववस्तु अनादि कालसे धातु पाषाणके संयोग समान कर्म पर्यायसे मिली हुई होकर वह रागादि विभाव परिणामोंके साथ व्याप्य - व्यापक रूपसे स्वयं परिणमन देखा जाय, जीवका स्वरूप न देखा जाय तो जीव वस्तु नौ तत्त्व रूप है, भी है, सर्वथा झूठ नहीं हे क्योंकि विभावरूप रागादि शक्ति जीवमें ही है । " इस कथनसे व्यवहार सापेक्ष अर्थात् वर्तमान पर्याय दृष्टिसे जीवको देखा जाय तो नवतत्त्व रूप कहना सत्य है, पर उसीकी जीव द्रव्यके निरुपाधि स्वभावकी दृष्टिसे देखा जाय तो वह असत्य हैं इस तरह नयविवक्षाओं से बहुत स्पष्ट विवेचन किया है, विवादको कोई स्थान नहीं रह जाता । ऐसे शुभानुभवनको पण्डितजीने " प्रत्यक्षमने अनुभव" लिखा है और उसे मोक्षमार्ग कहा है यहाँ उन्होंने स्वयं प्रश्न उठाया है कि मिली चली आ रही है सो परिणमन कर रही है । वह ऐसा दृष्टिमें आता है । ऐसा "यहाँ कोई आशंका करेगा कि मोक्षमार्ग तो सम्यग्दर्शनज्ञान - चारित्र इन तीनोंके मिलनेसे होता है" इसका उत्तर दिया है कि शुद्धजीव स्वरूपका अनुभव करनेपर तीनों ही हैं ।" .....जीवका लक्षण चेतना है । वह चेतना तीन प्रकार की है— एक ज्ञानचेतना – एक कर्मचेतना, एक कर्म फल चेतना । उनमें से ज्ञानचेतना शुद्धचेतना है, शेष अशुद्ध चेतना हैं । उनमें अशुद्ध चेतना रूप वस्तुका स्वाद तो सर्वजीवों को अनादिसे ( ये सारी मिथ्यादृष्टि जीवोंको ) प्रकट ही है । उस रूप अनुभव सम्यक्त्व नहीं है, शुद्ध चेतना मात्र वस्तुका स्वाद ( अनुभव ) आवे, तो सम्यक्त्व है । उक्त कथनसे पण्डितजी स्पष्ट कर रहे हैं कि जिस शुद्ध चेतनाका अनुभव जीवको जब होता है, तब उस अनुभवका नाम ही सम्यग्दर्शन है, वह मोक्षमार्ग है और अविरत सम्यग्दृष्टिके सम्यक्त्वके साथ ज्ञान चारित्र भी है । भले ही वह संयमाचरण न हो, पर चारित्र गुण वहाँ है और वह मिथ्याचारित्र नहीं है, सम्यग्चारित्र है । आचार्य कुन्दकुन्दने संयमाचरणके न होनेपर भी सम्यग्दृष्टि ( असंयत ) के चारित्र हैं और वह समय - Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२८ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ चारित्र हैं, मिथ्याचारित्र नहीं, इसका स्पष्टीकरण उस चारित्रको “सम्यक्त्वाचरण" नाम देकर कर दिया है। "षट्खण्डागम" की धवला टीका खण्ड १ भाग ९ पुस्तक ६ के २२ वें सूत्र की टीकामें आचार्य वीरसेनने यह स्पष्ट किया है। वहाँ चारित्रका लक्षण पापनिवृत्ति क्रिया है और पापोंकी गणनामें मिथ्यात्वको सर्वप्रथम गिनाया है। इससे सम्यग्दृष्टिके तीनों हैं। पण्डित राजमलजीका कथन स्पष्ट आगमोनुमोदित है । उक्त ग्रन्थके शब्द इस प्रकार है : "पापक्रियानिवृत्तिश्चारित्रम् ।" घादि कम्माणि पापं । नेसि किरिया मिच्छत्तासंजमकषायाः । तेसिमभावो चारित्रम् । अर्थात् पापक्रियाकी निवृत्ति चारित्र है । घाति कर्म पाप है। उनकी क्रिया मिथ्यात्व-असंजम-कषाय स्पष्ट है कि मिथ्यात्व पापके अभावमें सम्यक्त्वाचरण चारित्र होता है। अतः सम्यग्दृष्टिके तीनों हैं, अतः वह मोक्षमार्ग है। आचार्य अमतचन्द्र करुणाको भीगकर २३वें कलशमें कहते हैं-कि हे भव्यजीव ! तू कुतूहलवश ही अथवा जैसे बने वैसे मर-पचकर भी एक बार शरीरका मोह छोड़, उसे अपना पड़ोसी तो मान, तुझे उससे पृथक् स्वयंका स्वरूप दर्शन होगा। इस भावको पण्डित राजमलजीके शब्दोंमें पढ़िये । "हे भव्यजीव ! अनादि कालसे जीवद्रव्य शरीरके साथ एक संस्कार रूप होकर चला आ रहा है। इसलिए उसे प्रतिबोधित किया जा रहा है। भो जीव ! जितनी शरीरादि पर्याय हैं वे सब पुद्गल की है तेरी नहीं। इसलिए इन पर्यायोंसे अपनेको भिन्न जान । भिन्न जान कर मुहर्तमात्र ( थोड़े काल ) शरीरसे भिन्न अपने शुद्ध चेतन द्रव्यका प्रत्यक्ष रूपसे आस्वाद ले ।""""कैसा भी करके किसी भी उपायसे मरकर भी शुद्ध जीव स्वरूपका अनुभव करो । चैतन्यका अनुभव से सहज साध्य है।" जिस काल जीवको स्वानुभव होता है उसी काल मिथ्यात्व परिणमनका अभाव होता है, जिस काल मिथ्यात्व परिणामका अभाव होता है, उस काल अवश्य अनुमान शक्ति प्रकट होती है । कुछ और भी यत्र-तत्र पण्डितजीने अपने विचार प्रकट किये हैं जो निम्नभांति है१. परद्रव्यकी अभिलाषा ही मिथ्यात्वरूप परिणाम है । (कलश १६७ टीका) २. चारगतिरूपपर्याय तथा पंचेन्द्रियोंके भोग समस्त आकुलता रूप है सम्यग्दृष्टि ऐसा ही अनुभव करता है । साता-असाता दोनों की सामग्री सम्यग्दृष्टिको अनिष्ट रूप ही है । (कलश १५२ की टीका) ३. रागादिपरिणामोंका का मिथ्यादृष्टि जीव है; सम्यग्दृष्टि जीव नहीं। वह उनको निजपरिणाम नहीं मानता, अतः स्वामित्व नहीं । ( कलश १७०) ४. जो द्रव्य जिसका कर्ता होता है, वही उसका भोक्ता होता है, अतः रागादिके कर्तृत्वके कारण मिथ्यादृष्टि ही उसके फलका भोक्ता होता है । कर्तृत्व-भोक्तृत्वका अन्योन्य सम्बन्ध है। ५. इस संसारमें भ्रमण करते हुए किसी भव्य जीवका निकट संसार आ जाता है, तब जीव सम्यक्त्व का ग्रहण करता है ( कलश १२) इस प्रकार ग्रंथके रहस्यका यत्र-तत्र पण्डितजीने उद्घाटन किया है। श्री पण्डित फूलचन्द्रजी शास्त्रीने अपनी भाषामें उसका स्पष्टीकरण किया है । टीका स्वाध्यायप्रेमियोंके लिए अवश्य पठनीय है । Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनतत्त्वमीमांसा : एक प्रामाणिक कृति भारतीय संस्कृतिकी मूल भित्तिके एवं वैशिष्ट्यपूर्ण हैं, इसमें सन्देह नहीं है वे आचार्य हों या दृष्टि सम्पन्न श्रावक हों, । रूपमें जैन संस्कृति जिन मौलिक तत्त्वोंपर सुस्थित है, वे तत्त्व स्वतन्त्र प्राचीन कालमें तथा वर्तमानमें भी जो दार्शनिक विचारवंत हुए हैं; उन्होंने जैन संस्कृति एवं उसके तत्त्वज्ञानपर मौलिक प्रकाश डाला । उसकी जो-जो विशेषताएँ आगम, तर्क तथा अनुभूतिके बलपर उन्होंने स्वयं अवगत कीं, उन्हें तत्त्वजिज्ञासु जनोंके सामने दिल खोलकर रखी हैं। उनका इस विषयका प्रामाणिक सूक्ष्म परिशीलन तथा सुव्यवस्थित विवेचन नई पीढ़ी के अभ्यासियोंके लिए बहुत उपर्युक्त एवं मननीय सिद्ध हुआ है । ज्ञान तथा अनुभववृद्ध श्रद्धेय पण्डितवर फूलचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्रीकी "जैनतत्त्वमीमांसा" यह एक ऐसी ही मौलिक एवं अनुपम कृति है, जो पण्डितप्रवर ये टोडरमलजी के सर्वतोभद्र "मोक्षमार्गप्रकाशक" के अनन्तर न केवल तत्त्वजिज्ञासुओंके लिए, अपितु जानकर विद्वानोंके लिए भी समीचीन दृष्टि प्रदान करनेवाली अतीव उपयुक्त तथा पुनः पुन अभ्यासकी वस्तु बनी प्रतीत होती है । इस ग्रन्थमें आगम तथा अध्यात्मको सुन्दर समन्वय करते हुए जैन दर्शन सम्बन्धी अनेक महत्त्वपूर्ण विशेषताओंका सूक्ष्म विवेचन हुआ है, जिससे कई गुत्थियाँ सहज सुलझती हैं, अनेक भ्रान्त धारणाएँ जड़ से दूर होती हैं, और जैन तत्त्वका वास्तविक मर्म सुस्पष्ट होता है । ३. बाह्यकारण मीमांसा ४. निश्चय - उपादान मीमांसा ५. उभय निमित्त मीमांसा पंचम खण्ड : ६२९ श्री माणिकचन्द्र जयवंतसा भिसीकर, बाहुबली प्रत्येक विषयका विवेचन करते समय जगह-जगहपर पूर्वाचार्योंके तलस्पर्शी सन्तुलित चिन्तनका प्रामाणिक आधार दिये जानेके कारण विषय सुस्पष्ट तो होता ही है, साथ-साथ उसकी महत्ता एवं विवेचनकी प्रामाणिकता भी दृग्गोचर होती है । सन्देहका पूरा निराकरण हो जाता है । इस एक ग्रन्थके अभ्यासपूर्ण मनन एवं चिन्तनसे जैन दर्शनकी पूरी मौलिक जानकारी पाठकोंको सहजमें होती और पूर्वाचार्योंके अनेक विस्तृत दार्शनिक ग्रन्थोंका सारभूत निचोड़ भी सामने आता है, जिससे मन अत्यधिक प्रसन्नताका अनुभव करता है । मान्यवर पण्डित फूलचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्री जैन सिद्धान्तके उच्चकोटिके दृष्टि सम्पन्न विद्वान् हैं । जैनाचार्यों के प्राचीनतम षट्खण्डागमका वर्षों तक उन्होंने अध्ययन-मनन करके उसका सुगम हिन्दी में अनुवाद भी किया है । कसायपाहुड ( जयधवला ) तथा मूलाचारका भी अनुवाद कार्य उनके द्वारा सम्पन्न हो रहा है । ऐसे अनुभवी विद्वान्की पैनी लेखनीसे यह कृती बनी है, इसीसे उसकी महत्ता एवं प्रामाणिकता ख्याल में आती है । हमारे सामने पण्डितजीके इस महत्त्वपूर्ण ग्रन्थका दूसरा संस्करण है, जिसे उन्होंने ही अशोक प्रकाशन मंदिर, रवीन्द्रपुरी, वाराणसीसे वीरनिर्वाण संवत् २५०४ में प्रकाशित किया है । इसके "आत्मनिवेदन" में वे लिखते हैं "इसमें प्रथम संस्करणकी अपेक्षा विषयको विशदताको ध्यान में रखकर पर्याप्त परिवर्धन किया गया है | साथ ही प्रथम संस्करणका बहुत कुछ अंश भी गर्भित कर लिया है । इसलिए इसे द्वितीय संस्करण या विषयके विस्तृत विवेचनकी दृष्टिसे दूसरा भाग भी कहा जा सकता है । ग्रन्थके कुल बारह प्रकरण है, जिनके नाम इस प्रकार हैं । १. विषय प्रवेश २. वस्तुस्वभावमीमांसा Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३० : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ ६. कर्तृकर्ममीमांसा ७. षट् कारक मीमांसा ८. क्रम नियमित पर्याय मीमांसा ९. सम्यक् नियति स्वरूप मीमांसा १०. निश्चय व्यवहार मीमांसा ११. अनेकान्त-स्याद्वाद मीमांसा १२. केवलज्ञान-स्वभाव मीमांसा इनमेंसे प्रत्येक प्रकरण अपनी-अपनी खास विशेषता रखता है, और उसे ध्यानपूर्वक आद्योपान्त पढ़नेसे जैन दर्शनके विविध मूल अंगोंका तलस्पर्शी ज्ञान होने में बहुत सहायता मिलती है। उनके सम्बन्धमें विद्वानोंमें भी जो गलत धारणाएं तथा वैसी प्ररूपणाएँ दृष्टिगोचर होती हैं, उन सबका शंका-समाधानके रूपमें सम्यक् प्रकारसे निरसन किया गया है । ऐसा एक भी विषय नहीं है जिसपर जिनागममें पर्याप्त प्रकाश न डाला गया हो। किन्तु उन सबका सुव्यवस्थित संकलन तथा उनपर पूर्वाचार्योंके वचनाधारसे किया गया संतुलित विवेचन पाठकों के सामने एकत्र आनेकी आवश्यकता थी, जो इस ग्रन्थसे पूरी हुई है। पण्डितजी इस सम्बन्धमें स्वयं लिखते हैं इसमें हमारा अपना कुछ भी नहीं है। जिनागमसे जो विषय अवलोकनमें आए, उन्हें ही यहाँ ग्रन्थरूपी मालामें पिरोया गया है । वह भी इसलिए कि मोक्षमार्गमें तत्वस्पर्शके समय इन सब तथ्योंको हृदयंगम कर लेना आवश्यक है । अन्यथा स्वरूप-विपर्यास, कारण-विपर्यास तथा भेदाभेद-विपर्यास बना ही रहता है, जिससे अनेक शास्त्रोंमें पारंगत होकर और प्रांजल वक्ता बन जानेपर भी इस जीवकी मोक्षमार्गमें गति होना संभव नहीं है।' आगे वे लिखते हैं-"यह ग्रन्थ परमत-खण्डनकी दृष्टिसे संकलित नहीं किया गया है। इसमें जिन तथ्योंको संकलित किया गया है वे जैनतत्त्वमीमांसाके प्राणस्वरूप है, इसलिए परमतखण्डनमें जहाँ प्रायः व्यवहारनयकी मुख्यता रहती है, वहाँ इसमें परमार्थप्ररूपणाको मुख्यता दी गई है, और साथ ही उसका व्यवहार भी दिखलाया गया है। नियम है कि पूर्णरूपसे निश्चयस्वरूप होनेके पूर्वतक यथासम्भव निश्चय-व्यवहारकी युति युगपत् बनी रहती है । यहाँसे निश्चय मोक्षमार्गका प्रारम्भ होता है, वहाँसे प्रशस्त रागरूप व्यवहार मोक्षमार्गका भी प्रारंभ होता है । न कोई पहले होता है, न कोई पीछे । दोनों एक साथ प्रादुर्भुत होते हैं। इतना अवश्य है कि निश्चय स्वरूप मोक्षमार्गके उदयकालमें उसके प्रशस्त रागरूप व्यवहार मोक्षमार्गकी चरितार्थता लक्ष्यमें न आवे, इस रूपमें बनी रहती है। और जब यह जीव अरुचिपूर्वक हटे बिना व्यवहार मोक्षमार्गके अनुसार बाह्य क्रियाकांडमें प्रवृत्त होता है, तब इसके जीवनमें निश्चय मोक्षमार्गकी जागरुकता निरन्तर बनी रहती है। वह दृष्टिसे ओझल नहीं होने पाती । यह इसीसे स्पष्ट है कि निश्चय मोक्षमार्गका अनुसरण व्यवहार मोक्षमार्ग करता है। व्यवहार मोक्षमार्गका अनुसरण निश्चय मोक्षमार्ग नहीं करता। क्योंकि जैसेजैसे निश्चय मोक्षमार्गसे जीवन पुष्ट होता जाता है, वैसे-वैसे व्यवहार मोक्षमार्ग निश्चय मोक्षमार्गका पीछा करना छोड़ता जाता है।" ___ इस ग्रन्थका प्रथम संस्करण १९६० में जब प्रकाशित हुआ, तब इसका सामूहिक स्वाध्याय परमपूज्य गुरुदेव १०८ श्री समन्तभद्र महाराज तथा विदुषी गजाबहनजीके साथ करनेका अवसर हमें प्राप्त हुआ था। तभीसे इस ग्रन्थकी मौलिकता एवं उपयोगिहा विशेष रूपसे प्रतीत हुई थी। उसके बाद इस ग्रन्थके विराधमें आलोचनात्मक कुछ पुस्तकें प्रकाशित हुई। लेकिन इस आलोचनामें निर्दोष तत्त्वमीमांसाके बजाय तत्त्वकी Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम खण्ड : ६३१ विडम्बना ही अधिकतर प्रतीत होती है, जिससे जैनदर्शनकी मूल भूमिकापर ही कुठाराघात किया गया हो। इसपर पण्डितजी लिखते है-“यह सब देखकर उनका चित्त करुणासे भर उठता है।" सच्चा जिनवाणीका सेवक इससे अधिक क्या लिखें ? विद्वान् लोग जिनागमका मुख रहते हैं। उन्हें चाहिए कि वे आगमके अनुसार समाजको सही मार्गदर्शन करे । भगवान अरिहंत देवने वीतराग धर्मका ही उपदेश दिया, जो आत्माका विशुद्ध रूप है। परमार्थस्वरूप शुद्धात्म प्राप्ति के लिए एक मात्र ज्ञानमार्गपर आरूढ़ होकर स्वभावसे शुद्ध त्रिकाली आत्माका अप्रमादभावसे अनुसरण करना यही उपाय है। उसकी प्रारम्भिक भूमिकामें ज्ञानधारा और कर्म ( राग ) धाराका समुच्चय भले ही बना रहे, किन्तु उसमें इतनी विशेषता है कि ज्ञानधारा स्वयं-निर्जरारूप है, इसलिए वही साक्षात मोक्ष का उपाय है। कर्मधारा बंधस्वरूप होनेसे उसके द्वारा संसार-परिपाटी बने रहनेका ही मार्ग प्रशस्त होता है। परमार्थसे न तो वह मोक्षमार्ग है, नहीं उसके लक्ष्यसे साक्षात् मोक्षमार्गकी प्राप्ति होना ही सम्भव है। जैनतत्वज्ञानी सम्बन्धी ऐसे सभी तथ्योंको आगमके आधारपर सुस्पष्ट करनेका प्रामाणिक प्रयत्न इस ग्रन्थमें लेखक द्वारा किया गया है। आज विज्ञानकी प्रगतिसे मानव अधिक चिकित्सक एवं चिन्तनशील बन रहा है। जीवनके प्रत्येक अंग का बारीकीसे अभ्यास करनेकी प्रवृत्ति बुद्धिवादी लोगोंमें बढ़ रही है। हर एक बातकी कारणमीमांसा कुछ बनियादी तत्वोंके आधारपर वे करना चाहते हैं। और तर्कसंगत विचारधारासे उनका जितना समाधान होता है, उतना अन्य विचारधारासे नहीं होता । उनके सामने पहला प्रश्न तो यह रहता है कि वर्तमानमें वह परतन्त्र क्यों है ? क्या अपनी स्वयंकी कमजोरीके कारण या परसत्ताके कारण अथवा कर्मकी सत्ता मानी जानेवाली हो तो उसकी बलवत्ताके कारण ? - इसके बाद इसीमेंसे दूसरा प्रश्न खड़ा होता है, कि वह इस परतन्त्रतासे मुक्त होकर स्वतन्त्र कब और कैसे बन सकेगा ? इन दोनों मूलभूत प्रश्नोंका मौलिक समाधान उसके अन्तर्गत नाना उपप्रश्न एवं उनके तर्कसंगत तथा आगमाधारित विस्तृत उत्तरोंके साथ इस ग्रन्थमें किया गया है । इससे सुबुद्ध पाठकोंकी अनेक भ्रान्त धारणाएँ दूर होकर जैन तत्त्वका सम्यक् रूप उनके सामने दर्पणवत् आता है, जिसे जानकर जिज्ञासुओंको विशेष संतोषका अनुभव होता है । इस ग्रन्थकी यही विशेषता है। वस्तुका सम्यक् निर्णय करनेमें ऐसी शंका समाधानरूप शैलीका बहुत अच्छा उपयोग होता है यह पण्डितप्रवर टोडरमलजीके "मोक्षमार्ग प्रकाशक" ग्रन्थसे सिद्ध हुआ है। इस जैनतत्त्वमीमांसामें पण्डितजीने उन सब प्रमुख विषयोंका समावेश कर लिया है, जिनका चिंतन-मनन आजकी स्थितिमें अत्यावश्यक था, जिनके सम्बन्धमें अभ्यासु विद्वानोंकी दृष्टि भी अधिक स्पष्ट एवं निर्मल होनेकी आवश्यकता थी। यह ग्रन्थ इस आवश्यकताकी पूर्ति करनेमें बहुत सहायक प्रतीत होता है, और वह भी सरल तथा सुबोध भाषामें । पण्डितजीका यह उपकार जिज्ञासु एवं विद्वद्वर्ग कभी नहीं भूलेगा। सिद्धान्त तथा आगममें भी विद्वानोंके लिए तो वह नया वरदान रूप सिद्ध होगा, इसमें संदेह नहीं है । इस ग्रन्थका दूसरा संस्करण भी अब अप्राप्य हुआ है, इसीसे उसकी उपयोगिता एवं लोकप्रियता स्पष्ट होती है । समाजके मान्यवर विद्वान् पण्डित जगन्मोहनलालजी इस पुस्तकके प्राक्कथनके अन्तके निचोड रूपसे सही लिखते हैं-'पण्डितजीके इस समयोपयोगी सांस्कृतिक एवं साहित्यिक सेवाकी जितनी प्रशंसा की जाय थोड़ी हैं। हमें विश्वास है कि समाज इससे उचित लाभ उठाकर अपनी ज्ञानवृद्धि करेगी।" हमें तो लगता है कि ज्ञानवृद्धिके साथ शुद्धात्मबोध भी यह ग्रन्थ अभ्यासकोंको सहायक सिद्ध होगा। Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३२ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ जैनतत्त्वमीमांसा : एक समीक्षात्मक अध्ययन डॉ० उत्तमचन्द जैन, सिवनी जैन आम्नायकी प्राचीनतम परंपराकी एक कड़ी के रूपमें विश्रुत हैं - सिद्धान्ताचार्य, पंडितवर्य, श्रीमान् पं० फूलचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्री, बनारस, जिन्होंने आगम तथा परमागम रूप रत्नाकरकी अतल गहराईयों में डुबकियां लगाकर जिनागमसार रूप रत्नोंको खोज-खोजकर विद्वज्जनों तथा सामान्यजनों के समक्ष प्रस्तुत किया, साथ ही जैनसिद्धान्त एवं तत्त्वज्ञान परम्पराको सम्पोषित एवं संवद्धित भी किया । इसका ज्वलंत प्रमाण एवं अमर स्मारक स्वरूप है उनका प्रकृत ग्रंथ "जैनतत्त्वमीमांसा" । यद्यपि सर्वोत्कृष्ट सिद्धान्तग्रंथ षट्खण्डागमकी धवला टीका तथा कषायपाहुडकी जयधवला टीकाके सम्पादनका गुरुतर कार्य, खानियां तत्त्वचर्चाका ऐतिहासिक कार्य तथा अन्य मौलिक साहित्यका सृजन ये सभी कार्य पंडितजी विशिष्ट व्यक्तित्व एवं उत्कृष्ट कृतित्वके जीवन्त स्मारक हैं, तथापि इनमें अग्रणी, अद्वितीय और अमरकृति है उनकी " जैन तत्त्वमीमांसा" । सिद्धान्त ग्रंथोंके संपादन द्वारा आदरणीय पंडितजीने एक ओर तो श्रुतज्ञान रूप जिनवाणीकी प्रथम श्रुतस्कंधरूप सिद्धांतज्ञानधाराका सम्पोषण किया दूसरी ओर खानिया तत्त्वचर्चाक सम्पादन द्वारा तार्किक आचार्य समंतभद्रस्वामीकी तथोक्तिको याद कराया है कि "वादार्थी विचराम्यहं नरपते' शार्दूलविक्रीडितम्” । तीसरी ओर मौलिक साहित्य सृजन द्वारा अपनी वर्तमान प्रतिभा एवं व्यक्तित्वका प्रकाशन किया है तथा चौथी ओर जैनतत्त्वमीमांसा के प्रणयन द्वारा द्वितीय श्रुतस्कंध अथवा परमागमरूप जैन अध्यात्मके प्रयोजनभूत, मोक्षमार्गोपयोगी जैनतत्त्वों एवं सिद्धांतों का मर्मोद्घाटन किया है । इस प्रकार माननीय पंडितजीकी चौमुखी प्रतिभा, बहुश्रुतज्ञता, जिनागमतत्त्वमर्मज्ञता एवं सैद्धांतिक दृढ़ता क्रमशः विज्ञोंको वात्सल्यकारी, अल्पश्रुतज्ञोंको आश्चर्यकारी, कल्याणेच्छुकों को सन्मार्गप्रकाशनहारी तथा अनुदारजनोंको ईर्ष्याकारी सिद्ध हुई है । यहाँ हम उनकी अमूल्यकृति "जैनतत्त्वमीमांसा" का परिचय, प्रतिपाद्य एवं समीक्षण प्रस्तुत करनेका उद्यम करते हैं । जैनतत्त्वमीमांसा के दो संस्करण हमारे समक्ष हैं - प्रथम २०० पृष्ठीय लघुकाय पुस्तक तथा द्वितीय ४२२ पृष्ठीय बृहद्काय ग्रंथ । उक्त दोनों संस्करणोंमें आत्मनिवेदनके माध्यम से ग्रंथ रचनाका अपना उद्देश्य लेखक महोदय ने स्पष्ट किया है । द्वितीय संस्करणमें प्रथम संस्करणके वर्णित प्रकरणोंमें जो भी परिवर्धन या परिवर्तन किया है उसकी स्पष्ट सूचना की है - यथा प्रथम संस्करणमें तीसरे अध्यायका नाम " निमित्तकी स्वीकृति" तथा चौथेका नाम " उपादान और निमित्तमीमांसा" रखा था किंतु द्वितीय संस्करण में उनके परिवर्तित नाम क्रमशः -- "बाह्यसाधनमीमांसा” तथा “निश्चय उपादान मीमांसा" दिये हैं । पंडितजीने इन प्रकरणोंके नाम परिवर्तनका कारण सयुक्तिक एवं सप्रमाण स्पष्ट किया है। पांचवें "उभयनिमित्त मीमांसा" स्वतंत्र अध्यायके रखनेका कारण स्पष्ट करते हुए लिखा है कि “निश्चय उपादानके अनुसार प्रत्येक द्रव्यके कार्यरूप परिणत होते समय उसके अनुकूल बाह्य सामग्रीका योग नियमसे बनता ही है ।" इस तथ्यको हृदयंगम कराना मुख्य प्रयोजन रहा है । शेष अध्यायोंको प्रथम संस्करण अनुसार ही रखा गया है। पंडितजीने अपने निवेदनमें यह भी स्पष्ट किया है कि प्रकृत ग्रंथ में वर्णित विषयोंका याथातथ्य परिज्ञान न होनेसे स्वरूप विपर्यास, कारण विपर्यास एवं भेदाभेद विपर्यास बना ही रहता है जिससे अनेक शास्त्रोंमें पारंगत होकर प्रांजल वक्ता बन जाने पर भी उसकी मोक्षमार्ग की ओर गति नहीं हो पाती । यथार्थ में निश्चय व्यवहार मोक्षमार्गका प्रारंभ आगे पीछे नहीं अपितु एक साथ ही होता है | निश्चय मोक्षमार्गका अनुसर्ता व्यवहारमोक्षमार्ग होता है किंतु व्यवहारमोक्ष मार्गका अनुसर्ता निश्चय मोक्ष Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम खण्ड : ६३३ मार्ग नहीं होता बल्कि जैसे-जैसे निश्चयमोक्षमार्गसे जीवन पुष्ट होता जाता है वैसे वैसे व्यवहार मोक्षमार्ग छूटता जाता है । उपर्युक्त तथ्योंके अतिरिक्त खांनिया तत्त्वचर्चाका संक्षिप्त इतिहास भी प्रस्तुत किया है । साथ ही यह भी स्पष्ट घोषणा की है कि जो विद्वान् वीतराग अर्हतकी आगम परम्पराको नहीं देखना चाहते, वे भट्टारक परंपराके समर्थनके साथ आम जनताका अपने पक्षपोषणार्थ दुरुपयोग करते हैं, निकृष्ट तरीकोंसे अध्यात्मके साहित्यका बहिष्कार करते हैं । अन्य कई प्रकारके षड्यंत्र रचकर अध्यात्मपक्ष पर अज्ञान आवरण डालने का प्रयास करते है, जो खेदकी बात है। इस प्रकार ग्रंथका आत्मनिवेदन अपने आपमें ग्रंथका हार्द एवं मर्म समाहित किये हए है। वयोवृद्ध विद्वान् पं० श्रीमान् जगन्मोहनलालजी शास्त्री कटनीने प्राक्कथन लिखकर ग्रंथकी महत्ता पर स्पष्ट प्रकाश डाला है। साथ ही विद्वानोंको सावधान करते हुए दिशानिर्देशके रूपमें लिखा है कि विद्वान् केवल समाजके मुख नहीं हैं। वे आगमके रहस्योद्घाटन के जिम्मेदार हैं। अतः उन्हें हमारे अमुक वक्तव्यसे समाजमें कैसी प्रतिक्रिया होती है, वह अनुकूल होती है या प्रतिकूल यह लक्ष्यमें रखना जरूरी नहीं है। यदि उन्हें किसी प्रकारका भय हो भी तो सबसे बड़ा भय आगम का होना चाहिए। विद्वानोंका प्रमुख कार्य जिनागमकी सेवा है, और यह तभी संभव है जब वे समाजके भयसे मुक्त होकर सिद्धांतके रहस्यको उसके सामने रख सकें । कार्य बड़ा है। इस कालमें इसका उनके ऊपर उत्तरदायित्व है, इसलिए उन्हें यह कार्य सब प्रकारकी मोह ममताको छोड़कर करना ही चाहिए। समाजका संधारण करना उनका मुख्य कार्य नहीं हैं ।' ये शब्द सचमुचमें विद्वानोंको प्रकाशस्तम्भ समान हैं । अस्तु । ___ तत्पश्चात् विषयप्रवेश प्रकरणसे ग्रन्थारम्भ होता है। समग्र ग्रन्थ १२ अधिकारोंमें विभाजित है, जो इस प्रकार है-(१) विषयप्रवेश, (२) वस्तुस्वभाव मीमांसा (३) बाह्यकारण मीमांसा, (४) निश्चय उपादानमीमांसा, (५) उभयनिमित्तंमीमांसा, (६) कर्तृकर्ममीमांसा (७) षट्कारकमीमांसा, (८) क्रमनियमित पर्यायमीमांसा, (९) सम्यक् नियतिमीमांसा, (१०) निश्चय व्यवहारमीमांसा, (११) अनेकांत-स्याद्वादमीमांसा तथा (१२) केवलज्ञान स्वभाव मीमांसा । प्रत्येक अध्याय अपने-अपने नाम द्वारा अपने प्रतिपाद्य विषयकी घोषणा करता है। प्रत्येक अध्यायगत प्रतिपाद्य विषयका सारांश इस प्रकार है . आचार्य अकलंकदेवने आप्तमीमांसा पद्य ५ में वस्तुका स्वरूप उत्पाद-व्यय तथा ध्रौव्यात्मक अर्थात त्रितयात्मक होता है' यह सिद्ध करते हुए एक उदाहरण दिया है कि स्वर्ण घटका इच्छुक एक मनुष्य स्वर्णकी घटपर्यायके नाश होनेपर दुःखी होता है, स्वर्ण मुकुटका इच्छुक दूसरा मनुष्य स्वर्णकी घटपर्यायके व्यय तथा मुकुट पर्यायकी उत्पत्ति होनेपर हर्षित होता है और मात्र स्वर्ण (द्रव्य) का इच्छुक तीसरा मनुष्य स् पर्यायके नाश तथा मुकुट पर्यायकी उत्पत्तिमें न तो दुःखी होता है और न ही हर्षित, किन्तु मध्यस्थ रहता है । इन तीन मनुष्योंके कार्य अहेतुक नहीं हो सकते । अतः सिद्ध है कि स्वर्णकी घट पर्यायके नाश तथा मुकुट पर्यायकी उत्पत्ति होने पर भी स्वर्णका न तो नाश होता है और न उत्पाद ही । स्वर्ण तो घट या मुकुट आदि अवस्थामें स्वर्ण ही बना रहता है । यह वस्तुस्वभावकी मीमांसाका सार है । बाह्यकारणकी मीमांसा दो दृष्टियोंसे की गई है प्रथम ऋजुसूत्रनय तथा द्वितीय नैगमनयकी दृष्टि । ऋजुसूत्रनय पर्यायाथिक नयोंमें प्रमुख है । वह-एक समयवर्ती पर्यायको विषय करता है अतः इस नयकी अपेक्षा उत्पाद और व्यय दोनों निर्हेतुक होते हैं। यह नय पर सापेक्ष कथनको विषय नहीं करता । देखिये जयधवला पुस्तक १ पृ० २०६-२०७ । नैगमनय द्रव्यार्थिक नयोंमें प्रमुख है। संकल्पप्रधान होनेसे यह नय सत्-असत् ८० Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३४ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ दोनोंको विषय करता है । साथ ही गौण मुख्य भावसे द्रव्य और पर्याय दोनोंको विषय करता है परन्तु मुख्यरूपसे इसका विषय उपचार है । देखिये जयधवला पु० १, पृ० २०१ । सामान्यतः कारणका लक्षण धवलाकार इस प्रकार किया है कि " जो जिसके होनेपर ही होता है, नहीं होनेपर नहीं होता । वह उसका कारण कहलाता है ।" देखिये घवला पुस्तक १२ पृ० २८९ । इससे स्पष्ट है कि कारण तथा कार्यमें अविनाभाव सम्बन्ध नियम रूपसे घटता है चाहे वह बाह्य साधन हो या अन्तरंग साधन । यद्यपि सहकारीकारण भिन्नद्रव्य है, भिन्नद्रव्यरूप सहकारी कारणके साथ एकद्रव्यप्रत्यासत्तिका अभाव है तथापि उनमें एककालप्रत्यासत्तिका सद्भाव होनेसे कारण कार्यभाव स्वीकार किया गया है । देखिये प्रमेयरत्नमाला अध्याय ३ सूत्र ६० की टीका । उपरोक्त कारण-कार्यपना परमार्थभूत नहीं है अपितु उपचरित मात्र है | उदाहरणार्थ - बुद्धिमान लोग ग्रहों तथा हस्तरेखाओं आदिसे आगामी घटनाओंका अनुमान कर लेते हैं । उसके वे ज्ञापक निमित्त हैं, उन होनेवाली घटनाओंके कारकनिमित्त नहीं हैं । इस तथ्यका समाधान घवला पु० ६, पृ० ४२३ के इस कथनसे होता है कि नारकियों को सम्यक्त्व की उत्पत्तिमें जो वेदना कारण होती है. वह वेदना ज्ञापक निमित्तमात्र है, कारक निमित्त नहीं । अन्यथा वेदना निमित्तसे सभी नारकियोंको नियमतः सम्यक्त्वकी उत्पत्तिका प्रसंग बनेगा, जो असम्भव है । निश्चय उपादानं मीमांसा - निश्चय उपादान कारणका स्वरूप निर्देश आचार्य विद्यानन्दस्वामीने अपने ग्रन्थ अष्टसहस्रीमें इस प्रकार किया है कि जो द्रव्य तीनों कालोंमें अपने रूपको छोड़ता हुआ और नहीं छोड़ता हुआ पूर्वरूपसे और अपूर्वरूपसे वर्त रहा है, वह उपादान कारण है । इससे स्पष्ट है कि द्रव्यका न तो केवल सामान्य अंश उपादान कारण होता है और न केवल विशेष अंश उपादान होता है किन्तु सामान्य विशेषात्मक द्रव्य ही निश्चय उपादान होता है । इस तथ्यका समर्थन आचार्य कार्तिकेयकृत कार्तिकेयानुप्रेक्षाकी गाथा २२५ से २८ द्वारा होता है । इसी ग्रन्थमें गाथा २३० में स्पष्ट घोषणा की गई है कि अनन्तरपूर्व परिणामयुक्त द्रव्य ही कारणरूपसे प्रवर्तित होता है और अनन्तर उत्तर परिणामसे युक्त वही द्रव्य नियमसे कार्य होता है । उभयनिमित्त मीमांसा - इस प्रकरणमें यह बात स्पष्ट की गई है कि निश्चय उपादानकारण नियमसे कार्यका नियामक होता है तथा व्यवहार (निमित्त ) कारण उसका अविनाभावी बाह्य अनुकूल रूपमें उपस्थित होता है किन्तु व्यवहारकारण निश्चयका स्थान नहीं ले सकता । इन दोनोंमें विन्ध्यगिरि तथा हिमगिरि समान अन्तर है, क्योंकि निश्चयकारण कार्यरूपद्रव्यके स्वरूपमें अन्तर्निहित रहता है तथा व्यवहारकारण बाह्य वस्तु है | आचार्य समन्तभद्रस्वामीने तो घोषणा की है कि बाह्य ( निमित्त) तथा अन्तरंग ( उपादान) की सन्निधि में ही सभी कार्य होते हैं ऐसा वस्तुगत स्वभाव है, अन्य प्रकारसे वस्तुस्वभावकी सिद्धि नहीं होती, इसलिए आप ऋषियों तथा बुद्धिमानों द्वारा पूज्य हो । (देखिये स्वयंभू स्तोत्र पद्य ६०) उन्होंने यह भी कहा कि गुण-दोष रूप कार्यकी उत्पत्ति में जो भी बाह्यवस्तु कारण कही जाती है वह निमित्तमात्र है, उस कार्यकी उत्पत्तिका मूलहेतु तो अभ्यन्तर ( उपादान) ही है, इसलिए अध्यात्म मार्गी जनोंको वह अभ्यन्तर कारण ही पर्याप्त है अर्थात् निमित्ताधीन - पराधीन दृष्टिका परित्याग तथा उपादान - स्वाधीन दृष्टिके आश्रयमें ही कल्याण निहित होता है । अस्तु ! (देखिये स्वयंभूस्तोत्र ५९ ) । कर्तृकर्ममीमांसा - यह प्रकरण मोक्षमार्गीको सर्वाधिक महत्त्वका है कारण कि कर्ता-कर्म की भूल समस्त तत्त्वोंकी भूलोंकी मूल है । कर्त्ता कर्मकी भूल मिटनेपर समस्त भूलें मिट जाती हैं। जो स्वतंत्रपने अपने Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम खण्ड : ६३५ कार्यको करे उसे कर्ता कहते हैं, जो कार्य होता है वही कर्म है। वास्तवमें समस्त द्रव्य में परस्पर कर्ताकर्म सम्बन्ध है ही नहीं, फिर भी भिन्न द्रव्यका भिन्न द्रव्यसे कर्ताकर्म सम्बन्ध कहना व्यवहार कथनमात्र है, निश्चयसे तो कर्ता-कर्म सम्बन्ध एक ही वस्तुमें घटित होता है। जो परिणमन करे वही कर्ता है, जो परिणाम है, वही कर्म है तथा जो परिणति है वही क्रिया है, परमार्थसे तीनों वस्तुमय है, वस्तुसे भिन्न नहीं है। इससे स्पष्ट है कि कर्ताकर्म सम्बन्ध एक ही द्रव्यमें तथा निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध दो द्रव्योंमें घटित होता है। अतः जिनागममें जहाँ भी बाह्यद्रव्यको कर्ता कहा गया हो, उसे उपचरित (व्यवहार) कथनमात्र समझना चाहिए । एक कार्यके दो कर्ता भी नहीं होते, दो कर्ताओंका एक कार्य नहीं होता क्योंकि एक एक ही रहता है, अनेक नहीं हो सकता । अस्तु । देखिये समयसारके कलश क्रमांक २००, २१०, ५१, ५४)।। षट्कारकमीमांसा–क्रियाके प्रतिप्रयोजकको कारक कहते हैं । कारक ६ होते हैं-कर्ता, कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादान और अधिकरण । ये षट्कारक भी एक ही द्रव्यमें घटित होते हैं तथा पर्याय दृष्टिसे एक ही पर्यायमें षटकारक होते हैं, अन्य द्रव्यके साथ कारकपना कहना उपचार मात्र जानना चाहिए-पर वास्तवमें अनादिकालसे जीव स्वाश्रयपनेको भलकर परद्रव्योंसे कारकपनेका विकल्प करके पराश्रित बना हुआ है अत. आत्मकल्याणार्थ, स्वाश्रित षटकारक दृष्टिका ग्रहण तथा पराश्रित षट्कारक दृष्टिका ग्रहण ही कार्यकारी है। क्रमनियमितपर्याय मीमांसा-यह प्रकरण पंडितजीने सविस्तार, सतर्क तथा सप्रमाण स्पष्ट किया है, जो स्पष्टीकरण उनके बाद क्रमबद्धपर्याय पर कलम चलाने वाले लेखकोंको मार्गदर्शक तथा मुख्य आधार । क्रमबद्ध पर्यायका अर्थ है. प्रत्येक कार्य अपने स्वकालमें ही होता है। तात्पर्य यह है कि सभी द्रव्योंकी उनके सभी गुणोंकी त्रिकालवर्ती पर्यायें अपने-अपने नियत कालमें ही होती है इसे ही क्रमबद्ध या क्रमनियमित पर्याय कहते हैं । सर्वज्ञ स्वभावकी स्वीकृतिमें सर्वद्रव्योंकी क्रमबद्धपर्यायोंकी स्वीकृति भी अनिवार्य है क्योंकि क्रमबद्ध पर्यायके निषेधमें सर्वज्ञस्वभावके निषेध होनेका प्रसंग बनता है। इस सिद्धान्तको स्वीकारनेसे अनादि संसारका मूल जो विकल्पजाल है वह स्वयमेव विनष्ट होने लगता है, मुक्ति, होनहार, काललब्धिका परिपाक, पूर्णसुख प्राप्तिका अवसर इत्यादि सभी क्रमबद्धमें समीप आने लगते हैं तथा इसके अस्वीकारसे मुक्तिका मार्ग एवं मुक्ति दोनों क्रमबद्ध में अत्यन्त दूर रहते हैं । कर्तापनेका जहर उतरने लगता है तथा अकर्तापनेका अमृतपान का लाभ होता है। उपरोक्त विषयोंकी मीमांसाके अतिरिक्त सम्यकनियतिस्वरूपमीमांसा, निश्चय-व्यवहार मीमांसा, अनेकान्त-स्याद्वाद मीमांसा तथा केवलज्ञान स्वभावमीमांसा इन प्रकरणोंपर सूविशद, सुस्पष्ट विवेचनके साथ यह अनोखा ग्रंथ समाप्त होता है। सारांश-साररूपमें हम कह सकते हैं कि "जैनतत्त्वमीमांसा" तत्त्वसे अनभिज्ञ जनोंको ज्ञानप्रदाता, जिनागम अभ्यासियोंको मुक्तिमार्गप्रदर्शक, वस्तुस्वरूपके गूढ़तम-सिद्धान्तोंकी गुत्थियाँ सुलझानेवाला, विज्ञजनोंके हृदय कमलोंको प्रफुल्लित करनेवाला अद्वितीय, अजोड़, अमरकृति एवं पंडितजीके व्यक्तित्वका अमर स्मारक स्वरूप ग्रन्थ है । यदि जिनागम सागरके मंथनसे प्राप्त नवनीतका रसास्वादन करना हो, जिन प्रवचनोंका परमामृत चखना हो, दर्शनविशुद्धि पाकर मुक्तिमार्गमें गति करना हो तो प्रत्येक आत्मा के लिए 'जैनतत्त्व. मीमांसा' अवश्य ही सदाशयताके साथ, गम्भीरतापूर्वक, अध्ययन, मनन एवं हृदयंगम करने योग्य है 'इत्यलं सुविज्ञेषु ।' Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३६ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ ज्ञानपीठ पूजाञ्जलि : एक अध्ययन श्री लक्ष्मीचन्द्र 'सरोज' जाबरा भारतीय ज्ञानपीठके संस्थापकोंकी यह भावना ज्ञानपीठ-पूजाञ्जलिके माध्यमसे प्रकट हई कि पूजा-ध्यान स्तोत्र-वाचन, सामायिक, आलोचना पाठ, आरती आदिको जिस परिपाटीने समाजकी धार्मिक भावनाको जागृत रखा और आध्यात्मिक शान्ति की ओर उन्मुख किया है, वह सुरक्षित रहे, उसका संवर्धन हो । ज्ञानपीठ पूजाञ्जलि द्वारा यह प्रयत्न विशेष रूपसे किया गया है कि शुद्धपाठ प्रस्तुत किया जावे और संस्कृत पूजाओंके हिन्दी अनुवाद द्वारा उनकी महत्ताको-उनके भावको बोधगम्य बनाया जावे। सामग्रीका वर्गीकरण दैनिक और नैमित्तिक आवश्यकताओंके आधार पर किया गया है जिसका सम्पादन पंडित फूलचन्द्र सिद्धान्तशास्त्रीने उत्तम रीतिसे किया है। पूजाञ्जलि निम्नलिखित सात विभागोंमें विभाजित है (१) सामान्य पूजा-पाठ (संस्कृत-हिन्दी ), (२) पर्व पूजादि (संस्कृत-हिन्दी), (३) तीर्थकर पूजा, (५) नैमित्तिक पूजा पाठ, (५) अध्याय पाठ, (६) स्तोत्रादि (संस्कृत हिन्दी) (७) आरती जापादि । पूजाञ्जलि' में संग्रहीत संस्कृत पूजाओंका संकल न बाबू छोटेलालजी कलकत्ताने किया और उनका सम्पादन आ० ने० उपाध्येने किया । डॉ० लालबहादुर शास्त्रीने कतिपय संस्कृत पूजाओंका अनुवाद किया था उससे भी यथोचित यथासम्भव सहायता ली गई। शेष सामग्रीका संकलन ज्ञानपीठके कार्यालयमें किया गया। इन पजाओंका हिन्दी अनुवाद ललित तथा मधुर भाषामें मूलगामी भावानुसार पं० फूलचन्द्र सिद्धान्तशास्त्रीने किया। संस्कृत पूजाओंके साथ होनेसे संस्कृत भाषाका, पूजाके भावका महत्त्व सुस्पष्ट हुआ है । प्राचीन जिनवाणी संग्रहोंमें जहाँ बड़ा टाइप चित्र थे वहाँ कागजी कंजूसीके कारण गद्य-पद्य भेद नहीं था। पूजाञ्जलि इसकी अपवाद है सुन्दर सम्पादन-प्रकाशन है। ___आलोचना पाठके रचयिता जौहरी लाल और कल्याण मन्दिर स्तोत्रके रचयिता कुमुदचन्द्र लिखना समुचित लगा । कुछ ग्रन्थोंमें भूधरदास और सिद्धसेन दिवाकर लिखा गया अनुचित ही लगा। सम्भवतः सर्वप्रथम पूजाञ्जलिमें ही पूजाकी महत्ता, मूलस्रोत और काल दोषज विकृतिका, प्राचीनअर्वाचीन पूजाका विधिवत् साधार विश्लेषण-विवेचन किया गया। पंडित प्रवर फूलचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्रीने जो प्रास्ताविक वक्तव्य प्रथम संस्करणमें लिखा था, वह अठारह पृष्ठोंकी परिधिमें पठनीय-मननीय-चिन्तनीय है । 'कृतिकर्म-साधु और गृहस्थ दोनोंके कार्योंमें मुख्य आवश्यक है। यद्यपि साधु सांसारिक प्रयोजनोंसे मुक्त हो जाता है, फिर भी उसका चित्त भूलकर भी लौकिक समृद्धि, यश और अपनी पूजा आदिकी ओर आकृष्ट न हो और गमनागमन, आहार-ग्रहण आदि प्रवृत्ति करते समय लगे हुए दोषोंका परिमार्जन होता रहे, इसलिए साधु कृतिकर्मको स्वीकार करता है। गृहस्थकी जीवनचर्या ही ऐसी होती है कि जिसके कारण उसकी प्रवृत्ति निरन्तर सदोष बनी रहती है, इसलिए उसे भी कृतिकर्म करनेका उपदेश दिया जाता है। कृतिकर्मके मूलाचारमें चार पर्यायवाची नाम दिए हैं-कृतिकर्म, चितिकर्म, पूजाकर्म और विनयकर्म । इनकी व्याख्या करते हुए भूमि कामें स्पष्ट किया गया है कि जिस अक्षरोच्चार रूप वाचनिक क्रियाके परिणामोंकी विशुद्धि रूप मानसिक क्रियाके और नमस्कारादिरूप कायिक क्रियाके करनेसे ज्ञानावरणादि आठ प्रकारके कर्मोंका 'कृत्यते छिद्यते' छेद होता है उसे कृति कर्म कहते है। यह पुण्य संचयका कारण है इसलिए इसे चितिकर्म कहते हैं । इसमें चौबीस तीर्थंकरों और पाँच परमेष्ठी आदिकी पूजा की जाती है, इसलिए इसे पूजा कम Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम खण्ड : ६३७ भी कहते हैं तथा इसके द्वारा उत्कृष्ट विनय प्रकाशित होती है इसलिये इसे विनय कर्म भी कहते हैं । यहाँ विनयकी "विनीयते निराक्रियते" ऐसी व्युत्पत्ति करके इसका फल कर्मोकी उदय और उदीरणा आदि करके उनका नाश करना भी बतलाया गया है । तात्पर्य यह है कि कृतिकर्म जहाँ निर्जराका कारण है, वहाँ वह उत्कृष्ट पुण्य संचयमें हेतु है और विनय गुणका मूल है । इसलिए उसे प्रमाद रहित होकर साधुओं और गृहस्थोंको यथाविधि करना चाहिए। विचारणीय विषयमें पंडितजीने पूजाके आह्वान-स्थापन-सन्निधिकरणके विषयमें संकेत किया है । जैन परम्परामें स्थापना निक्षेपका बहुत महत्त्व है; इसमें सन्देह नहीं । पंडित प्रवर आशाधरजीने जिनाकारको प्रकट करने वाली मत्तिके न रहनेपर अक्षतादिमें भी स्थापना करनेका विधान किया है, किन्तु जहाँ साक्षात् जिनप्रतिमा विराजमान है, वहाँ क्या आह्वान आदि क्रियाका किया जाना आवश्यक है ? विसर्जन आकर पूजा स्वीकार करने वालेका किया जाता है, किन्तु जैन धर्मके अनुसार (न) कोई आता है और न पूजामें अर्पण किये भागको स्वीकारता है । इस स्थितिमें पूजाके अन्तमें विसर्जन करना क्या आवश्यक है ? आपने विसर्जन पाठके आह्वानं... मन्त्रहीनसे मिलते-जुलते ब्राह्मणधर्मके श्लोक देकर तुलनात्मक अध्ययनको बल दिया है । (१) सम्यग्दर्शन बोध-ते मंगलम् [मंगलाष्टक दूसरा श्लोक निर्दोष सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र यह पवित्र रत्नत्रय है । श्री सम्पन्न मक्ति नगरके स्वामी भगवान जिनदेवने इसे अपवर्ग देने वाला इस प्रकार जो यह तीन प्रकारका धर्म कहा गया है, वह तथा इसके साथ सक्ति सूधा, समस्त जिन प्रतिमा और लक्ष्मीका आधारभूत जिनालय मिलकर चार प्रकारका धर्म कहा गया, वह तुम्हारा मंगल करे । (:) दृष्टं जिनेन्द्र ""नूपुरनादरम्यम् [दृष्टाष्टक स्तोत्र ५वाँ श्लोक आज मैंने जो हिलती हुई सुन्दर मालाओंसे आकुल हुए भ्रमरोंके कारण ललित अलकोंकी शोभाको धारण कर रहा है और जो मधुर शब्द युक्त वाद्य और लयके साथ नृत्य करती हुई वारांगनाओंकी लीलासे हिलते हुए वलय और नूपुरके नादसे रमणीय प्रतीत होता है ऐसे जिनेन्द्र-भवनके दर्शन किए। (३) श्रीमज्जिनेन्द्र "मयाभ्यधायि [लघु अभिषेक पाठ १ला श्लोक] तीन लोकके ईश स्याद्वाद नीतिके नायक और अनन्त चतुष्टयके धनी श्रीसम्पन्न जिनेन्द्रदेवको नमस्कार करके मैंने मूल संघके अनुसार सम्यग्दृष्टि जीवोंके सुकृतको एक मात्र कारणभूत जिनेन्द्रदेवकी यह पूजा-विधि कही। (४) उदकचन्दन' "जिननाथमहं यजे (नित्यपूजा अर्घ-श्लोक) मैं प्रशस्त मंगलगानके (मंगल जिनेन्द्र स्तवनके) शब्दोंसे गुंजायमान जिनमन्दिरमें जिनेन्द्रदेवका जल, चन्दन, अक्षत, पुष्प, नैवेद्य, दीप, धूप, फल तथा अर्घसे पूजन करता हूँ। ५) प्रज्ञाप्रधाना" परमर्षयो नः (नित्यपूजा मुनि स्तवन ४ था श्लोक) प्रज्ञाश्रमण, प्रत्येक बुद्ध, अभिन्नदश पूर्वी, चतुर्दश पूर्वो, प्रकृष्टवादी और अष्टांग महानिमित्तके ज्ञाता मुनिवर हमारा कल्याण करें। (६) देवि श्री श्रुतदेवते""संपूजयामोऽधुना (देवशास्त्र गुरुपूजा ३रा श्लोक) हे देवि ! हे श्रुतदेवते ! हे भगवति !! तेरे चरण कमलोंमें भौंरेकी तरह मुझे स्नेह है। हे माता, मेरी प्रार्थना है कि तुम सदा मेरे चित्तमें बनी रहो । हे जिनमुखसे उत्पन्न जिनवाणी! तुम मेरो सदा रक्षा करो और मेरी ओर देखकर मुझपर प्रसन्न होओ । अब मैं आपकी पूजा करता हूँ। (७) बारह विह संजम""ते तरन्ति (देवशास्त्रगुरु पूजाकी जयमाला श्लोक (८वां) जो बारह प्रकारका संयम धारण करते हैं, चारों प्रकारकी विकथाओंका परित्याग करते हैं और जो बाईस परीषहोंको सहन करते हैं, वे मुनि संसार रूपी महासमुद्र को पार करते हैं । Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३८ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ (८) निज मनोमणि "सिद्धमहं परिपूजये (सिद्धपूजा भावाष्टक १ला श्लोक) अपने मन रूपी मणिके पात्रमें भरे हुए समता रस रूपी अनुपम अमृत रसकी धारासे केवलज्ञान रूपी कलासे मनोहर सहज सिद्ध परमात्माकी मैं पूजा करता हूँ। (९) जिनस्नानं'"सन्मार्गप्रभावना (षोडशकारण पूजा श्लोक १७वां) जिनदेवका अभिषेक, श्रुतका व्याख्यान, गीत-वाद्य तथा नृत्य आदि पूजा जहाँ की जाती है वह सन्मार्ग प्रभावना है। (१०) सच्चेण जि सोहइ तियस सेवा वहति (दशलक्षण पूजा गाथा ४ सत्यधर्म) सत्यसे मनुष्य जन्म शोभा पाता है, सत्यसे ही पुण्य कर्म प्रवृत्त होता है, सत्यसे सब गुणोंका समुदाय महानताको प्राप्त होता है और सत्यके कारण ही देव सेवा-व्रत स्वीकार करते हैं। अनूदित अंशोंको दृष्टिपथमें रखते हुए कहा जा सकता है कि अनुवाद बहुत अच्छा हुआ । अनावश्यक विस्तार-संक्षेप दोनों ही नहीं हैं। अनुवादकी भाषापर संस्कृतनिष्ठ शैलीका प्रभाव सुस्पष्ट लक्षित होता है । वास्तवमें विद्वान् सम्पादकने ज्ञानपीठ पूजाञ्जलिके प्रणयनमें पर्याप्त परिश्रम किया है । पूजाञ्जलि जैसा प्रयत्न अपनी दिशाका सुदृढ़ सशक्त चरण है और उसकी सफलताका बहुत कुछ श्रेय पंडित फूलचन्द्र सिद्धान्तशास्त्रीको है। उन्होंने स्वतन्त्र होकर जिन ग्रन्थोंके भाष्य लिखे, उनमें आपकी उच्चकोटिकी विद्वत्ता पग-पग पर लक्षित होती है। इसमें कोई सन्देह नहीं है कि "ज्ञानपीठ-पूजांजलि'के प्रास्ताविक वक्तव्यमें प्रकाशित पण्डितजीके विचार आज भी प्रेरणादायक, वतमान परिस्थितिमें जैन समाजको जागृत करने वाले, स्फति प्रदान करने वाले हैं। पण्डितजीने निष्कर्ष रूपमें यह तथ्य उजागर किया है कि वर्तमान पूजा-विधिमें कृति-कर्मका जो आवश्यक अंश छूट गया है, यथास्थान उसे अवश्य ही सम्मिलित कर लेना चाहिए और प्रतिष्ठा-पाठके आधारसे इसमें जिस तत्त्वने प्रवेश कर लिया है, उसका संशोधन कर देना चाहिए। क्योंकि पंचकल्याणक प्रतिष्ठा-विधिमें और देवपूजामें प्रयोजन आदिकी दृष्टिसे बहुत अन्तर है । प्रतिष्ठा-विधिमें प्रतिमाको प्रतिष्ठित करनेका प्रयोजन है और देव-पूजामें प्रतिमाको साक्षात् जिन मान कर उसकी उपासना करनेका प्रयोजन है। अतः समाजको इसी दृष्टिसे पूजा-पाठ करना चाहिए । इस प्रकार पूजाञ्जलि कई दृष्टियोंसे उपयोगी एवं महत्त्वपूर्ण है । भविष्यमें भी जैन विद्वान् इस प्रकारके संकलन तैयार कर जैन पजाविधिपर अधिक-से-अधिक शोधपर्ण विचार प्रकाशित कर सकेंगे। वर्ण-जाति और धर्म : एक चिन्तन डॉ. ज्योतिप्रसाद जैन, लखनऊ 'वर्ण, जाति और धर्म' श्री पं० फूलचन्द्र जी सिद्धान्तशास्त्री प्रणीत एक ऐसी विचारोत्तेजक, पठनीय एवं मननीय कृति है, जिसमें आधुनिक युगकी एक ज्वलन्त समस्याका आगम और युक्तिके आलोकमें विशद विवेचन तथा समाधान प्रस्तुत करनेका उत्तम प्रयास किया गया है। पुस्तक प्रणयनमें मुख्य प्रेरक स्व० साहू शान्तिप्रसाद जैन थे, जो अपने प्रगतिशील विचारों, सुलझी हुई समीचीन दृष्टि, उदाराशय, दानशीलता और Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम खण्ड: ६३९ समाजके सर्वतोन्मुखी उन्नयनकी उत्कट लगनके कारण न केवल प्रबुद्ध वर्गके, वरन् अपने समयमें अखिल जैन समाजके सर्वाधिक जनप्रिय नेता रहे। पुस्तकका प्रकाशन भी साहजी द्वारा संस्थापित भारतीय ज्ञानपीठसे उसकी मूत्तिदेवी ग्रन्थमालाके ग्रन्थांक ८ के रूपमें प्रथम बार सन् १९६३ ई० में हुआ था । प्रचारकी दृष्टिसे इस साधिक ४५० पृष्ठोंकी सुमुद्रित सजिल्द पुस्तकका मूल्य मात्र तीन रुपये रखा गया था। पुस्तककी भाषा और शैली विषयवस्तु के अनुरूप प्रौढ़, सरल-सुबोध, तार्किक एवं समीक्षात्मक है। प्रबुद्धचेता वर्ग में पुस्तकका स्वागत भी अच्छा हुआ। प्रारंभिक 'दो शब्दों में विद्वान लेखकने पुस्तक-प्रणयनके हेतुका संकेत करते हए बताया है कि भारतवर्ष में सद्यः प्रचलित जातिप्रथा, जो देश और समाजके लिए हानिकारक सिद्ध हुई हैं और हो रही है, मूलतः ब्राह्मणधर्मसे सम्बद्ध हैं, उस धर्मका वह वस्तुतः मूलाधार ही है जबकि जैनधर्मका जातिधर्मके साथ थोड़ा भी सम्बन्ध नहीं है । मल जैन साहित्य इकका साक्षी है। किन्तु मध्यकालमें जातिधर्मका व्यापक प्रचार होनेके कारण परवर्ती जैन साहित्यमें उसकी छाया स्पष्ट दृष्टिगोचर होती हैं । तथापि जिन आचार्योंने जाति, कुल, गोत्र आदिकी प्रथाको परिस्थितिवश धर्मका अंग बनानेका उपक्रम किया, उन्होंने भी उसे वीतराग भगवान्की वाणी या आगम कभी नहीं कहा-या तो उसका निषेध किया अथवा उसे गृहस्थके लौकिक धर्मका अंग प्रतिपादित किया, जिसमें ब्राहाणीय वेदों, मनुस्मति आदिको प्रमाण बताया, न आगमको नहीं। इस विषयपर जैन शास्त्रीय दृष्टिसे अभी तक कोई सांगोपांग मीमांसा नहीं हो पाई थी। स्व० साहजी जैसे क प्रबुद्ध सज्जनोंको यह कपी खटकती थी। अतः ५० फूलचन्द्रजीसे आग्रह किया गया और उन्होंने विचार एवं श्रमपूर्वक इस पुस्तकका प्रणयन किया । पुस्तकके दो भाग है-प्रथम भागमें १५ उपयुक्त शीर्षकोंके अन्तर्गत विवक्षित प्रकरणोंपर तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक दृष्टिसे विस्तृत ऊहापोह किया गया है; यथा-(१) धर्म महत्ता, व्याख्या, अवान्तर भेद एवं उनका स्वरूप, (२) व्यक्तिधर्म-आत्मधर्म या जिनधर्म, (३) समाज धर्म या लौकिक धर्म, (४) नोआगम भाव मनुष्योंमें धर्माधर्म-मीमांसा, (५) गोत्रमीमांसा, (६) कुल मीमांसा, (७) जातिमीमांसा, (८) वर्णमीमांसा, (९) ब्राह्मणवर्ण-मीमांसा, (१०) यज्ञोपवीत-मीमांसा (११) जिनदीक्षाधिकार-मीमांसा, (१२) आहारग्रहणमीमांसा, (१३) समवसरणप्रवेश-मीमांसा, (१४) जिनमन्दिरप्रवेश-मीमांसा, और (१५) आवश्यक षट्कर्ममीमांसा । तदनन्तर प्रकृतमें उपयोगी (१७) पौराणिक आख्यानोंका संक्षेपसार अपने मन्तव्योंके समर्थनमें दृष्टान्त रूपसे प्रस्तुत कर दिया गया है। दूसरे भागमें अपनी उपरोक्त मीमांसाओंके आधारभूत शास्त्रीय प्रमाणोंके भाषानुवाद सहित मूलपाठ भी दे दिये गये हैं, जिससे प्रबुद्ध पाठक स्वयं भी देख सकें कि उक्त मददोंके पीछे शास्त्राधार क्या और कितना है। साथ ही. "क्षेत्रकी दष्टिसे मनुष्योंमें धर्माधर्म मीमांसा और मीमांसापर भी शास्त्राधार निर्देशित कर दिये गये हैं।" इस प्रकार पुस्तकमें जाति-समस्यासे सम्बद्ध प्रायः सभी विषयोंका विशद विवेचन किया गया है। उक्त विवेचनोंसे जो निष्कर्ष प्राप्त किये हैं अथवा प्रतिपत्तियाँ प्रतिफलित की है, वे अधिकतर निर्विवाद एवं प्राह्य है, और जो कोई विवादस्थ भी है, वे भी पाठकको पुनः चिन्तन करनेके लिए विवश करती हैं । इस विषयमें सन्देहके लिए अवकाश नहीं है कि भारतीय परम्परामें जैनधर्म अपनी उदारता एवं व्यापक दृष्टिके कारण महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है । 'धर्म' शब्दकी एक व्याख्याके अनुसार 'वह ऐसा कर्तव्य है जो मानवमात्रके ही नहीं, प्राणीमात्रके ऐहिलौकिक और पारलौकिक जीवनको नियन्त्रित करके सबको सुपथपर ले चलने में सहायक होता है । वस्तुतः जिनधर्म, आत्मधर्म या व्यक्तिवादी धर्म है, जो बिना किसी भी भेदभावके समस्त Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४० : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ प्राणियोंकी ऐहिक एवं पारलौकिक उन्नति तथा सुखसुविधाका विचार करता है, जबकि सामाजिक या लौकिक धर्म केवल मनुष्योंके ही ऐहिक हितसाधन तक सीमित होता है और बहुधा अनगिनत विविध अन्धविश्वासों एवं रूढ़ियोंपर अवलम्बित रहता है । यही कारण है कि जिनधर्म रूपी आत्मधर्ममें जाति और कुलको स्थान नहीं है । प्रत्येक मनुष्य उसकी साधन द्वारा आत्मोन्नयन करनेका अधिकारी हैं। वर्ण, जाति, कूल, गोत्र आदिका अथवा अन्य भी कोई भेदभाव उसमें बाधक नहीं हैं। लौकिक-धर्म या समाज-धर्म इन आत्मधर्मसे भिन्न है। वह मूलतः ब्राह्मणवैदिक परम्पराकी देन है, जिसने शनैः शनैः वर्णाश्रम धर्मका रूप ले लिया । उस परम्परामें ब्राह्मण-क्षत्रियादि वर्णभेद मूलतः गुणकर्मानुसारी ही थे, किन्तु समयके साथ उनके जन्मतः हानेकी मान्यता रूढ़ हो गई । जैन गृहस्थोंके सामाजिक या लौकिक धर्मपर कालान्तरमें उक्त ब्राह्मणीय वर्णव्यवस्थाका प्रभाव पड़ा, और उन्होंने भी धीरे-धीरे उसे अपना लिया। किन्तु मूल जिनधर्मके स्वरूप एवं प्रकृतिसे उसकी कोई संगति नहीं हैं। इस प्रसंगमें आचार्य जिनसेनस्वामी प्रणीत 'आदिपुराण'को उक्त ब्राह्मण वैदिक प्रभाव-ग्रहणका मुख्यतया उत्तरदायी बताते हुए विद्वान् लेखकने उक्त पुराणकी पर्यालोचना की है। षट्खण्डागम सिद्धान्त, कषायप्राभृत आदि दिगम्बर आगमोंके तथा मूलाचार, भगवती आराधना, रत्नकरण्डश्रावकाचार, सर्वार्थसिद्धि, तत्त्वार्थराजवार्तिक जैसे प्रामाणिक प्राचीन शास्त्रोंके आधारसे उन्होंने निष्कर्ष निकाला है कि मनुष्योंके ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्य-शूद्रादि भेद उक्त साहित्यमें उपलब्ध नहीं होते, यह कि द्रव्यस्त्रियों एवं द्रव्य-नपुंसकोंको छोड़कर आगमप्रतिपादित पन्द्रह कर्मभूमियोंमें उत्पन्न जितने भी तथाकथित आर्य और म्लेच्छ मनुष्य हैं, उनमें सम्यक्त्व, संयमासंयम और संयम रूप पूर्ण धर्मकी प्राप्ति संभव है, और यह कि वर्णके आधारपर धर्माधर्मका विचार करनेकी पद्धति बहुत ही अर्वाचीन है । (पृ० १००)। गोत्र मीमांसाके संदर्भमें निकाले गये निष्कर्षोंके अनुसार गोत्रकर्म जीवविपाकी हैं, पुद्गल विपाकी नहीं हैं। गोत्रकर्मके उदयसे हुई जीवकी उच्च और नीच पर्यायोंका सम्बन्ध शरीरके आश्रयसे कल्पित किये गये कुल, वंश या जातिके साथ नहीं हैं । लोकमें जो उच्च कुल वाले माने जाते हैं उनमें भी बहुतसे मनुष्य भावसे नीचगोत्री हो सकते हैं, और नीचकुली माने जाने वालोंमें बहुतसे भावसे उच्चगोत्री हो सकते हैं। इक्ष्वाकुकुल आदि लौकिक मान्यताएँ काल्पनिक है; परमार्थ सत नहीं हैं। एक ही भवमें गोत्र परिवर्तन भी हो सकता है, यथा जो मनुष्य सकल संयमको धारण करते हैं उनके नियमसे नीचगोत्र बदल कर उच्चगोत्र हो जाता है। इसी प्रकार जो तिर्यंच संयमासंयम स्वीकार करता है, उसका भी नीचगोत्र बदल कर उच्च गोत्र हो जाता है। गोत्रका सम्बन्ध वर्णव्यवस्थाके साथ न होकर, प्राणीके जीवनके साथ होता है, और उसकी व्याप्ति चारों गतियोंके जीवोंमें देखी जाती है। आगममें उच्चगोत्रको भव प्रत्यय और गुणप्रत्यय, दोनों प्रकारका बताया है । सारांश यह है कि जिनके जीवनमें स्वावलम्बनकी ज्योति जगती रहती है, वे उच्चगोत्री होते है। और इनके विपरीत शेष मनुष्य या प्राणी नीचगोत्री होते हैं। लेखकका कहना है कि मध्यकालके पूर्व जैन वाङमयमें यह विचार ही नहीं आया था कि ब्राह्मणादि तीन वर्गों के मनुष्य ही दीक्षायोग्य है; अन्य नहीं हैं । विद्वान् लेखकने 'गोत्र-मीमांसा'का उपसंहार करते हुए एक बड़े ही मार्केकी बात कही है कि 'जो व्यक्ति आत्माकी स्वतन्त्रता स्वीकार करके स्वावलम्बनके मार्गपर चल रहा है, प्रकटमें भले ही वह जैन सम्प्रदायमें दीक्षित न हआ हो, तो भी प्रसंग आनेपर उसे जैन माननेसे अस्वीकार मत करिये । धर्म सनातन सत्य है। जैनधर्ममें; चाहे उच्चगोत्री हो या नीचगोत्री; आर्य हो या म्लेच्छ, अथवा ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम खण्ड : ६४१ शूद्र, कोई भी हो, सब मनुष्योंके लिए धर्मका द्वार समान रूपसे खुला हुआ है । उच्चगोत्री तो रत्नत्रयके पात्र हैं ही, जो नीचगोत्री हैं वह भी रत्नत्रयका पात्र हैं । धर्मकी महिमा बहुत बड़ी है । कुल शुद्धि जैसे कल्पित आवरणोंके द्वारा उसके प्रवाहको रोकना असम्भव है ( पृ० १३५ व १३८) " जाति-मीमांसा" में विद्वान् लेखकने प्रचलित जातिवादके अहितकर परिणामों तथा उसकी निस्सारता पर प्रकाश डाला है, और पाठकोंका ध्यान इस तथ्यकी ओर आकृष्ट किया है कि कुन्दकुन्द, समन्तभद्र, पूज्य - पाद, प्रभृति प्राचीन प्रामाणिक आचार्यपुंगवों तथा उनके परवर्ती जटासिंहनंदि, रविषेण, अकलंक, जिनसेन पुन्नाटसंघी, गुणभद्र, अमितगति, प्रभाचन्द्र, शुभचन्द्र आदि अनेक आचार्यप्रवरोंने जातिवादका निषेध ही किया है और गुणपक्षकी ही स्थापना की है। वस्तुतः प्राचीन आचार्योंने प्रायः सर्वत्र लौकिक जातिमद एवं कुलमदको नीचगोत्रके आस्रव-बन्धका मुख्य कारण घोषित किया है । वर्णमीमांसा में वर्णव्यवस्था सम्बन्धी ब्राह्मणधर्म तथा जैनधर्मकी दृष्टियोंकी तुलनात्मक समीक्षा करते हुए विद्वान लेखकने षट्कर्म व्यवस्था, शूद्र वर्ण और उनका कर्म, वर्ण और विवाह, स्पृश्यास्पर्श विचार आदि प्रसंगोपात्त प्रश्नोंका जैन दृष्टिसे समाधान किया है । उसी प्रकार, ब्राह्मण वर्णकी उत्पत्ति और उसके कर्मका उभय परम्पराओंकी दृष्टिसे विवेचन किया है और यह भी सिद्ध करनेका प्रयास किया है कि यज्ञोपवीत भी ब्राह्मण परम्पराकी ही देन है । जैन परम्परामें वह कभी स्वीकृत नहीं रहा । इस प्रसंग में पुस्तकके पृ ० २२८ पर किसी भूलसे पं० बनारसीदासके स्थान में पण्डित आशाघरका नाम छप गया है - उद्धृत घटना एवं पंक्तियाँ पं० बनारसीदास के 'अर्धकथानक' की हैं । “जिनदीक्षाधिकारमीमांसा' में आगम साहित्य, कुन्दकुन्दाचार्यकी कृतियों, मूलाचार, वरांगचरित, पद्मपुराण, हरिवंशपुराण आदि ग्रन्थोंके आधारसे निष्कर्ष निकाला गया है कि शुद्रवर्णके मनुष्य भी मुनि दीक्षा लेकर मोक्ष के अधिकारी हैं, और यह कि इस विषय में जैन परंपराके जितने भी सम्प्रदाय हैं, उनमें मतभेद नहीं रहा है ( पृ० २४० ) | आहारग्रहणमीमांसामें दान देनेका अधिकारी कौन है, देय द्रव्यकी शुद्धि, आहारके ३२ अन्तराय आदिका विवेचन है । समवसरणप्रवेशमीमांसा तथा जिनमन्दिर प्रवेश मीमांसाके प्रसंग में यह सिद्ध करनेका प्रयास किया गया है कि शूद्र जिनमन्दिर में जायें, इसका कहीं निषेध नहीं है ( पृ० २५२ व २५८ आदि) । आवश्यक-षट्कर्म-मीमांसामें भी महापुराणकारके मतकी पर्यालोचना की गई है, और कहा गया है कि 'जैनधर्म' वर्णाश्रम धर्मको प्रथा महापुराणके कर्ता आचार्य जिनसेनने चलाई है । इसके पहले जैनधर्ममें श्रावकधर्म और सुनिधर्म प्रचलित था, वर्णाश्रम धर्म नहीं । तीन वर्णके मनुष्य दीक्षाके योग्य हैं तथा वे ही इज्या आदि षट्कर्मके अधिकारी हैं, ये दोनों विशेषताएँ वर्णाश्रम धर्ममें ही पाई जाती हैं, श्रावकधर्म और मुनिधर्मका प्रतिपादन करनेवाले जैनधर्ममें नहीं । इसके अनुसार तो मनुष्यमात्र ( लब्धपर्याप्त और भोगभूमिजा मनुष्य नहीं ) श्रावकक्षा और मुनिदीक्षा अधिकारी हैं । तथा वे इन धर्मोका पालन करते हुए सामायिक आदि षट्कर्मो के भी अधिकारी हैं ( पृ० २८७ ) । विद्वान् लेखक अपने विषय विवेचनमें सर्वमान्य प्रामाणिक शास्त्रीय आधारों, पौराणिक दृष्टान्तों तर्क युक्तियों यथोचित अवलम्बन लिया है । उनके किन्हीं मन्तव्यों, निष्कर्षो तर्कों और शास्त्रीय व्याख्याओं से सम्भव है कि कहीं-कहीं किन्हीं पाठकोंको कोई मदभेद भी हो, तथापि समग्र विवेचनके उनके इस अन्तिम निष्कर्षसे कि --- ' आगमका सम्बन्ध केवल मोक्षमार्गसे है, सामाजिक व्यवस्थाके साथ नहीं । सामाजिक व्यव स्थाएँ बदलती रहती हैं, परन्तु मोक्षमार्गकी व्यवस्था त्रिकालाबाधित है । उसमें परिवर्तन नहीं हो सकताकिसी भी प्रबुद्ध एवं विवेकशील व्यक्तिको कोई आपत्ति हो सकती है, ऐसा प्रतीत नहीं होता । ८१ Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४२ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ वास्तवमें प्रचलित जातिप्रथा कभी और कहीं कैसी भी रही हो और किन्हीं परिस्थितियोंमें उपादेय या शायद आवश्यक भी रही हो, किन्तु काल-दोष एवं निहित स्वार्थोके कारण उसमें जो कुरूढ़ियाँ, कुरीतियाँ, विकृतियाँ एवं अन्धविश्वास घर कर गये हैं, और परिणामस्वरूप देशमें, राष्ट्रमें, समाजमें, एक ही धर्मसम्प्रदाय के अनुयायियोंमें जो टुकड़े-टुकड़े हो गये है, पारस्परिक फूट, वैमनस्य एवं भेदभाव खुलकर सामने आ रहे हैं, वैयक्तिक या समूह, सम्प्रदाय या समाज, देश या राष्ट्र किसीके लिए भी हितकर नहीं, अहितकर ही है, तथा प्रगतिके सबसे बड़े अवरोधक है। धर्मकी आड़ लेकर या कतिपय धर्मशास्त्रोंकी साक्षी देकर जो उनका पोषण किया जाता है, और उनका विरोध करनेवालोंका मुँह बन्द करनेका प्रयत्न किया जाता है, उससे यह आवश्यक हो जाता है कि व्यक्ति और समाज, दोनोंके ही हितमें धर्मके मर्मको धर्मकी मलाम्नायके प्रामाणिक शास्त्रोंसे जाना और समझा जाय । मनुष्य स्वयंको सदैवसे श्रेष्ठतम प्राणी कहता आया है। उसका यह दावा अनुचित भी नहीं है । मानवकी अदम्य जिज्ञासा एवं अप्रतिम बद्धि वैभवने प्राकृतिक-भौतिक जगतमैं ही नहीं, आध्यात्मिक जगतमें भी अनगिनत आविष्कार किये हैं। धर्म तत्त्व भी उसीकी एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण उपलब्धि हैं। धर्म सभी देशों और कालोंमें जन-जनके मानसको सर्वाधिक प्रभावित करनेवाला यही तत्त्व रहा है। साथ ही, प्रायः सभी धर्मप्रवर्तकोंने, उन्होंने भी जिन्होंने मनुष्येतर अन्य प्राणियोंकी उपेक्षा की, मनुष्योंको ऊँच-नीच आदिके पारस्परिक भेदभावोंसे ऊपर उठनेका ही उपदेश दिया। अतएव यहदी, ईसाई, मुसलमान, यहाँ तक कि बौद्ध एवं सिक्ख आदि कई भारतीय धर्म मी, मनुष्यमात्रकी समानताका-इगेलिटेरियनिगमका दावा करते हैं, और जातिवादको स्वीकार करते केवल ब्राह्मण वैदिक परम्परासे उद्भूत तथाकथित हिन्दूधर्म ही इसका अपवाद है । तथापि विडंबना यह है कि उन मूलतः समानतावादी एवं जातिवाद विरोधी सम्प्रदायोंमें भी ऊँच-नोचका वर्गभेदपरक जातिवाद किसी न किसी प्रकार या रूपमें घर कर ही गया । अन्तर इतना ही है कि उनमें उसकी जकड़ और पकड़ इतनी सख्त नहीं है जितनी कि हिन्दू धर्म में हैं । आजका प्रगतिशील प्रबुद्ध विश्वमानस ऐसे भेदभावोंकी मानवके कल्याण एवं उन्नयनमें बाधक समझता है और उनका विरोध करता है। ऐसी स्थितिमें यह अन्वेषण एवं गवेषणा करना कि निर्ग्रन्थ श्रमण तीथंकरों द्वारा पुरस्कृत जैनधर्मका इस विषयमें क्या दृष्टिकोण है, अत्यावश्यक हो जाता है। साथ ही यह देखना भी आवश्यक है कि क्या सामाजिक संगठनके हितमें भी उक्त भेदादिकी कोई उपयोगिता है, और हैं तो किस रूपमें तथा किस सीमा तक । इस प्रसंगमें भ्रान्तिके दो मुख्य कारण प्रतीत होते हैं-एक तो यह कि वर्ण-जाति-कुल-गोत्रमेंसे प्रत्येक शब्दके कई-कई अर्थ हैं-जिनागममें कर्म-सिद्धान्तानुसार उनमेंसे प्रत्येकका जो अर्थ है वह लोक व्यवहारमें प्रचलित अर्थसे भिन्न एवं विलक्षण हैं। दोनोंको अभिन्न मान लेनेसे भ्रान्त धारणाएँ बन जाती हैं। दूसरे, जो लौकिक, सामाजिक या व्यवहार धर्म हैं, वह परिस्थितिजन्य हैं, देशकालानुसार परिवर्तनीय या संशोधनीय हैं, इस स्थूल तथ्यको भूलकर उसे जिनधर्म-आत्मधर्म-निश्चयधर्म या मोक्षमार्गसे, जो कि शाश्वत एवं अपरिवर्तनीय हैं, अभिन्न समझ लिया जाता है। पक्षव्यामोह एवं कदाग्रहसे मुक्त होकर भ्रान्तिके जनक इन दोनों कारणोंकोजिनधर्मकी प्रकृति, उसके सिद्धान्त, तत्त्वज्ञान एवं मौलिक परम्पराके प्रतिपादक प्राचीन प्रामाणिक साहित्यके आलोकमें भलीभाँति समझकर प्रकृत विषयके सम्बन्धमें निर्णय करने चाहिए । इसका यह अर्थ भी नहीं है कि लौकिक, सामाजिक या व्यवहार धर्मको सर्वथा नकार दिया जाय-न वैसा सम्भव है और न हितकर ही। परन्तु उसमें युगानुसारी तथा क्षेत्रानुसारी आवश्यक परिवर्तन, संशोधनादि करने में भी संकोच नहीं करना चाहिए । व्यावहारिक, सामाजिक या लौकिक धर्मको व्यवस्थाएं, संस्थाएँ या प्रथाएँ रहेंगी ही, उनका रहना Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम खण्ड : ६४३ अपेक्षित भी है, किन्तु वे ऐसी हैं जो सम्यक्त्वको दूषित करने वाली न हों, उसकी पोषक हों-- मोक्षमार्गमें बाघक न हों, उसकी साधक हों । १८५७ ई० के स्वातन्त्र्य समरके उपरान्त जब इस महादेश पर अंग्रेजी शासन सुव्यवस्थित हो गया तो प्रायः समग्र देश में नवजागृति एवं अभ्युत्थानकी एक अभूतपूर्व लहर शनै शनैः व्याप्त होने लमी, जिससे जैन समाज भी अप्रभावित न रह सका । फलस्वरूप लगभग १८७५ से १९२५ ई० के पचास वर्षोंमें शिक्षा एवं धर्मप्रचारके साथ-साथ समाज सुधारके भी अनेक आन्दोलन और अभियान चले । धर्मशास्त्रोंका मुद्रण- प्रकाशन, शिक्षालयोंकी स्थापना, स्त्रीजातिका उद्धार, कुरीतियोंके निवारणके उपक्रम, कई अखिल भारतीय सुधारवादी संगठनोंका उदय तथा धार्मिक-सामाजिक पत्र-पत्रिकाओंका प्रकाशन आदि उन्होंके परिणाम थे । जातिप्रथाकी कुरीतियों एवं हानियों पर केवल तथाकथित बाबूपार्टी (आधुनिक अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त सुधारक वर्ग ) ने ही नहीं, तथाकथित पंडितदलके भी गुरु गोपालदास बरैया जैसे महारथियोंने आवाज उठाई । बा० सूरजभान वकील, पंडित नाथूराम प्रेमी, ब्र० शीतलप्रसाद आचार्य जुगलकिशोर मुख्तार प्रभृति अनेक शास्त्रज्ञ सुधारकोंने उस अभियानमें प्रभूत योग दिया । अनेक पुस्तकें व लेखादि भी लिखे गए । मुख्तार सा० की पुस्तकें जिनपूजाधिकार मीमांसा, शिक्षाप्रद शास्त्रीय उदाहरण, जैनधर्म सर्वोदय तीर्थ हैं, ग्रन्थपरीक्षाएँ आदि पण्डित दरबारी लाल सत्यभक्त की विजातीय विवाह मीमांसा, बा० जयभगवानकी वीरशासनकी उदारता, पण्डित परमेष्ठीदासकी जैनधर्मकी उदारता, जैसी पुस्तकें तथा विभिन्न लेखकोंके सैकड़ों लेख प्रकाशित हुए और सुधारकोंके मंचीय जो भी मिले भाषणों में समाजको झकझोरा । ममाजमें विचार परिवर्तन भी होने लगा । स्वतन्त्रता प्राप्तिके उपरान्त आधुनिक युगकी नई परिस्थितियोंसे उसमें और अधिक वेग आया। ऐसी स्थितिमें, जैसा कि स्व० साहू शान्तिप्रसादजी ने अनुभव किया था, विवक्षित विषयों पर जैनशास्त्रीय दृष्टिसे सांगोपांग मीमांसाकी आवश्यकता थी, जिसकी पूर्ति श्री पण्डित फूलचन्द्र जी सिद्धान्तशास्त्रीकी इस पुस्तक 'वर्ण, जाति और धर्म मीमांसा' से बड़े अंशों में हुई है । पुस्तक तलस्पर्शी और मौलिक हैं, और विवेचित विषयों के सम्बन्धमें समाजको दिशादर्शन देनेकी पूरी क्षमता रखती हैं । सबसे बड़ी बात यह है कि वह स्वतन्त्र विचारणाको प्रेरणा और प्रोत्सान देती है । पाठक पग-पग पर पुनः पुनः सोचने और अपनी पूर्व बद्ध धारणाओंमें संशोधन करनेके लिए विवश होता है । इस पुस्तक के प्रणयनके लिए पंडितजी साधुवादके पात्र तो हैं ही । जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा : एक समीक्षा आत्माका कल्याण या उत्कर्ष मोक्षमार्ग पर चलनेसे प्रारम्भ होता है । उस मोक्षमार्गको प्रशस्त करने के लिए जिनेन्द्रकी वाणी पथकी प्रज्ज्वलित प्रदीप है । यह जिनवाणी चार अनुयोगों में विभक्त हैं। ये चारों ही अनुयोग आत्मोत्थान के लिए अत्यन्त उपयोगी वीतराग मार्गको पुष्ट करते हैं । यद्यपि उनकी कथन पद्धति एक दूसरे से भिन्न मालूम पड़ती है । उनमें नय दृष्टिसे तो अन्तर दिखता है, किन्तु लक्ष्य और भाव सबका एकमात्र श्री प्रकाश हितैषी शास्त्री, दिल्ली Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४४ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थं शांति-पथका प्रदर्शन करना है । कुछ अनुयोगोंमें व्यवहार प्रधान कथन है, तो निश्चय उसमें गौण है । किसी में निश्चय प्रधान कथन है, तो उसमें व्यवहार गौण है । नयोंका अभाव किसी भी अनुयोग में देखने को नहीं मिलेगा । क्योंकि वस्तुस्वरूपको समझने के लिए दोनों नयोंका ज्ञान आवश्यक है । जिज्ञासु यदि किसी भी नय को अस्वीकार कर देगा तो वह मिथ्यादृष्टि ही बना रहेगा । वह आगमका भाव और वस्तुस्वरूपको कभी भी नहीं समझ सकता है । वस्तुस्वरूपका ज्ञान न होनेसे उसे सुख शान्तिका पथ मोक्ष मार्ग कभी प्राप्त नहीं हो सकता है । जहाँ ज्ञान दोनों नयों का आवश्यक है वहाँ श्रद्धा दोनों नयोंकी नहीं होती है। श्रद्धा उसीकी होती है जो अपनेसे पूज्य और बड़ा हो । अपनेको पूज्य भी वही है जिससे अपने सुखकी प्राप्ति रूप प्रयोजनकी पूर्ति हो । अतः श्रद्धा निश्चयनयके विषयभूत त्रिकाली ध्रुव स्वभावकी होती है । क्योंकि उसीका आश्रय लेनेसे मोक्षमार्ग या धर्मकी प्राप्ति होती है । व्यवहारनय अशुद्ध अवस्था या अखण्ड वस्तुको खण्ड करके बतलाता है । अर्थात् त्रिकाल वस्तुका स्वरूप जैसा है, व्यवहारनय वैसा नहीं बतलाता है । अतः ज्ञानका ज्ञेय होकर भी वह ध्यानका ध्येय या श्रद्धाका श्रद्धेय नहीं है । इसलिए श्रद्धाकी अपेक्षा हेय कहा गया है। क्योंकि उसकी श्रद्धा से या ध्यानसे मुक्तिका मार्ग या धर्मका प्रारम्भ नहीं होता है । यद्यपि हेय, उपादेयका निर्णय ज्ञान ही कराता है, किन्तु ज्ञान यह कभी नहीं कहता है कि ये विकारादि आत्माका असली स्वरूप है या आश्रय करने योग्य है । शुद्धाशुद्ध पर्याय या गुणभेद आदिको जानकर भी उससे उपेक्षित रहता है । इसलिए व्यवहारको हेय और निश्चयनयको उपादेय कहा गया है । समय-समय पर ऐसा जरूर देखा गया है कि धर्मोपदेशककी रुचि के अनुसार कभी-कभी निश्चय प्रधान कथन-शैलीको मुख्यता रही तो कभी व्यवहार शैलीकी प्रधानता रही है, वहाँ दूसरा धर्म गौण रहता है । पहला धर्म मुख्य हो जाता है । यदि इस दृष्टिसे श्रोतागण सुननेका प्रयास करें तो कभी बैर-विरोध नहीं बढ़ सकता है। यहाँ गौणका अर्थ अभाव नहीं है, किन्तु उसका सद्भाव होते हुए भी इस समय उसका प्रयोजन नहीं है, जिसका प्रयोजन है, वह कथनमें आ रहा है। ज्ञान दोनोंका किया जाता है, किन्तु ध्यान एकका ही किया जाता है । क्योंकि उपयोग एक समयमें एकको ही लक्ष्य बनाता है । एक समयमें दो उपयोग नहीं होते और दो समयमें एक उपयोग नहीं होता है । ध्यान भी उसीका किया जाता है, जिससे अपने प्रयोजनकी पूर्ति हो । संसारमें रहते हुए जीवका एकमात्र प्रयोजन सुख प्राप्ति है। वह सुखकी प्राप्ति अपने स्वभावके आश्रयसे होती है और त्रिकाली शाश्वत स्वभावको बतानेवाला निश्चयनय है । व्यवहारनय तो वस्तुके खण्ड रूप या मिश्रित अवस्थाका ज्ञान कराता है। जिसके ध्यानसे राग एवं संसारकी निश्चयनयको भूतार्थ और व्यवहारनयको अभूतार्थ कहा है । ही वृद्धि होती है । अतः आचार्यों ने आजसे कुछ दशाब्दियों पूर्व व्यवहार क्रिया काण्डका ही बाहुल्य रहा है । देखा-देखी परम्परा एवं भावशून्य धर्म क्रियाएँ, बल्कि यहाँ तक कि गृहीत मिध्यात्वका भी पोषण होता रहा है । लोग धीरणेन्द्र, पद्मावती आदि कुदेवोंकी पूजा जिनेन्द्र मन्दिरमें जिनेन्द्र भगवान् की तरह करते थे । अतः पण्डित टोडरमलजीको सत्यका प्रचार करनेके लिए महान् संघर्षका सामना करना पड़ा था, बल्कि इसी संघर्षको झेलते हुए उन्हें अपना बलिदान भी देना पड़ा था । ऐसा ही युग इस बीसवीं शताब्दी में आत्मवेत्ता, अध्यात्म शैलीके महान् प्रचारक सत्पुरुष श्री कानजी स्वामीके उद्भवके समय देखा गया है । यद्यपि इनके पूर्व ब्रह्मचारी शीतलप्रसादजी एवं विद्वद्भवर पूज्य Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम खण्ड ६४५ गणेशप्रसादजी वर्णी अध्यात्मकी ज्योति जला चुके थे, किन्तु उनके युग में इतना अधिक प्रचार-प्रसार नहीं हो सका था, जितना श्री सत्पुरुष कानजी स्वामी के युगमें हुआ । इनकी अध्यात्मकी कथन शैली इतनी आकर्षक एवं प्रभावशाली प्रमाणित हुई कि भारतके कोने-कोने से लोग सुननेके लिए उनके पास चले आते थे और सरल भाषामें अध्यात्मकी कथनीको सुनकर इतने प्रभावित हो जाते थे कि अपने नगर और गाँवोंमें जाकर अध्यात्मकी चर्चा वार्ता एवं स्वाध्यायमें समयसारादि अध्यात्म ग्रन्थोंका पठन-पाठन, अध्ययन मनन होने लगा। प्रति वर्ष इनके शिक्षण शिविर लगाये जाते जिनमें हजारों भाई-बहिनें जाकर अध्यात्मकी गहराइयोंमें प्रवेश करने लगे, गाँव-गाँव में अध्यात्मका शंखनाद गूंजने लगा । सभी स्थानोंमें निश्चय व्यवहार, निमित्त उपादान कर्ता-कर्म और सात तत्त्वोंकी चर्चा दिग्दिगंत व्याप्त होने लगा। किन्तु जो व्यवहार धर्मको ही सब कुछ माने बैठे थे उसमें ही अपने धर्म-कर्तव्यकी इतिश्री मानते थे । उन्हें यह अध्यात्मका प्रचार-प्रसार रुचिकर नहीं लगा । उनकी अपनी मान्यताकी नाव डगमगातीसी लगने लगी। अतः जिस तूफानी ढंगले अध्यात्मका प्रचार-प्रसार बढ़ता, उसी तूफानी ढंगसे उसका विरोध भी बढ़ने लगा इसके विरोधके लिए लुप्त प्रायः कुछ संस्थाओंका पुनरोदय हुआ । कुछ पत्र-पत्रिकाओंने विरोध करनेका बीड़ा ही उठा लिया था । गजटोंके पूरे पन्ने विरोधसे भरे जाते थे । इस विरोधने इतना उग्र रूप धारण कर लिया था कि समाज दो फिरकोंमें बँट गया । विरोध करने वाले भाइयोंने अध्यात्म प्रेमियोंका नाम 'सोनगढ़ी' या 'सोनगढ़पंथी' रख दिया और अपनेको आगमपंथी कहने लगे । इस विरोधकी पृष्ठभूमि में कुछ महाव्रती मुनि वर्गका भी सहयोग प्राप्त था । अनेक स्थानोंपर अध्यात्म प्रेमियोंका बहिष्कार किया जाने लगा। कहीं-कहीं पर तो भयंकर उपद्रव भा किये गये, जिसकी कभी कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। इसकी जानकारी पूज्य १०८ आचार्य शिवसागरजी महाराजके संघको हुई, तो आचार्यश्रीने यह भावना व्यक्त की कि दोनों ओरके विद्वान् यदि एक स्थान पर बैठकर तस्त्वचर्चा के द्वारा अपने आपसी मतभेद दूर कर लें तो समाजमें अनावश्यक बढ़ता हुआ विरोध शान्त हो सकता है। इस शुभ संकल्पको लेकर संघ में श्री प्र० सेठ हीरालालजी और ० लाइ मलजीने महाराजधीकी प्रेरणासे आपसमें सद्भावना स्थापित करनेके लिए एक सम्मेलन बुलानेका निश्चय किया। यह सम्मेलन दि० २०-८-६३ से १-१०-६३ तक जयपुर के पास प्राचीन स्थान खानियांमें चला था। इस चर्चाकी पृष्ठभूमिमें श्री पं० फूलचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्री द्वारा लिखित " जैनतत्त्वमीमांसा" ग्रन्थका प्रकाशन प्रमुख रूपसे रहा है । क्योंकि जिन विषयोंपर विरोध किया जाता था उनका विवेचन इस प्रकाशनमें विशद रूपसे किया गया था। आचार्य श्री शिवसागरजी महाराजके संघकी उपस्थितिमें समागत १७ विद्वानोंकी एक गोष्ठी हुई, कुछ नियम इस तत्वचर्चा के लिए निर्धारित किये गये । जिसमें वे इस प्रकार थे १. चर्चा वीतरागभावसे होगी । २. चर्चा लिखित होगी । २. वस्तु सिद्धिके लिए आगम ही प्रमाण होगा । ४. प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश और हिन्दीके ग्रन्थ प्रमाण माने जायेंगे । ५. चर्चा शंका समाधानके रूपमें होगी । Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४६ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ ६. दोनों ओरसे शंका-समाधानके रूपमें जिन लिखित पत्रोंका आदान-प्रदान होगा, उतमेंसे अपने-अपने पत्रोंपर अधिकसे अधिक ५-५ विद्वानों और मध्यस्थको सही होगी। इसके लिए दोनों पक्षोंकी ओरसे अधिकसे अधिक ५-५ प्रतिनिधि नियत होंगे। ७. किसी एक विषय संबंधी किसी विशेष प्रश्नपर शंका-समाधानके रूपमें पत्रोंका आदान-प्रदान अधिकसे-अधिक तीन बार तक होगा। दिनांक २२ अक्तूबर, १९६३ से पूज्य आचार्य श्री शिवसागरजी महाराजकी उपस्थितिमें २३ विद्वानोंकी उपस्थितिमें चर्चा विषयक नियमोंमें एक नियम यह भी स्वीकृत किया गया-८. चर्चामें सामाजिक, पंथसम्बन्धी तथा व्यक्तिके सम्बन्धमें कोई चर्चा न होगी। पश्चात श्रीमान् पं० वंशीधरजी न्यायालंकार इंदौर मध्यस्थ चने गये । प्रतिनिधियोंका चुनाव इस प्रकार किया गया, प्रथम पक्षकी ओरसे पांच प्रतिनिधियोंके नाम इस प्रकार प्रस्तुत हुए १.श्री पं० माणिकचंदजी न्यायाचार्य, फिरोजाबाद, २. श्री पण्डित मक्खनलालजी शास्त्री, मुरैना, ३. पंडित जीवंधरजी न्यायतीर्थ, इन्दौर, ४. श्री पंडित वंशीधरजी व्याकरणाचार्य, बीना, ५. पंडित पन्नालालजी साहित्याचार्य, सागर । २. द्वितीय पक्षकी ओरसे सिर्फ तीन नाम प्रस्तुत किये गये-१. श्री पं० फूलचन्द्रजी सिद्धांतशास्त्री और श्री नेमिचन्दजी पाटनी, आगरा और ३. श्री पं० जगन्मोहनलालजी शास्त्री, कटनी । चर्चा विषय पं० मक्खनलालजी द्वारा प्रस्तुत १. द्रव्य कर्मोके उदयसे संसारी आत्माका विकारभाव और चतुर्गति भ्रमण होता है या नहीं? २. जीवित शरीरकी क्रियासे आत्मामें धर्म अधर्म होता है या नहीं ? ३. जीवदयाको धर्म मानना मिथ्यात्व है क्या ? ४. व्यवहार धर्म निश्चयधर्म में साधक हैं या नहीं? ५. द्रव्योंमें होनेवाली सभी पर्यायें नियत क्रमसे ही होती हैं या अनियत क्रमसे भी। ६. उपादानकी कार्यरूप परिणतिमें निमित्त कारण सहायक होता है या नहीं? इन चर्चाओंके समाधानके लिए तीन-तीन दौर चले थे। सर्वप्रथम पूर्वपक्ष शंका रखता था, उसका समाधान पं० फूलचन्द्रजीको अपने सहयोगियोंके सहयोगसे दूसरे दिनके १ बजे तक सौंप देना होता था। शंका १-द्रव्यकर्मके उदयसे संसारी आत्माका विकारभाव और चतुर्गति भ्रमण होता है या नहीं ? समाधान--समयप्राभूत गाथा ८३ में कहा गया है कि कर्मके उदय और रागादि भावमें निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध तो हैं, किन्तु कर्ता-कर्म सम्बन्ध नहीं है। विकार कर्मके उदयमें होता है, यह बात सत्य है, किन्तु कर्मका उदय विकार नहीं कराता है। प्रवचनसारकी गाथा नं० ७७ और १६९ में भी यही कहा हैकि कर्मके योग्य कार्मण वर्गणा अपने आप जीवकी परिणतिको निमित्त करके कर्मभावको प्राप्त करते हैं। जीव कर्मोको परिणमाता नहीं है। समयसार गाथा १०५ का और उसकी टीकाका प्रमाण प्रस्तुत कर यह सिद्ध किया गया है कि कर्म जीवको विकार कराता है, यह मात्र उपचार कथन है। इसके पश्चात् पूर्व पक्षने पुनः प्रतिशंका उपस्थित करते हुए पंचास्तिकाय गाथा ५५-५८ आदिके अनेक प्रमाण देकर यह बतलानेका प्रयत्न किया कि कर्ममें भी ऐसी अपूर्व शक्ति है कि यह केवलज्ञानादिको रोके हए Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम खण्ड : ६४७ हैं। द्रव्यसंग्रह, प्रवचनसार, देवागम, समयसार, समयसारकलश, धवला, सर्वार्थसिद्धि आदि ग्रन्थोंके आधारसे कर्म और विकारी भावों में कर्ता-कर्म सम्बन्ध बतानेका प्रयत्न किया गया और उनको विकारक - विकार्यं सिद्ध किया गया तथा कार्मण वर्गणा स्वयं कर्मरूप परिणमन करती है। इसमें श्लोकके 'स्वयमेव' सुप्रसिद्ध शब्द का अर्थ 'अपने आप' न करके 'अपने रूप' परिणमन करती हैं यह अर्थ प्रकट किया गया है । इस प्रतिशंकाका समाधान करते हुए पं० फूलचन्द्रजी और सहयोगियोंने स्पष्टीकरण दिया कि हेतुकर्ता शब्दका व्यपदेश निमित्त कारणमें ही किया गया है, क्योंकि सभी निमित्त धर्म द्रव्यकी तरह उदासीन निमित्त ही हैं । चाहे उन्हें प्रेरक निमित्त कहो, चाहे अंतरंग निमित्त कहो, वह तो परद्रव्य ही हैं। इष्टोपदेश श्लोक ३५ के अनुसार कोई निमित्त अज्ञानीको ज्ञानी नहीं बना सकता और ज्ञानीको अनेक अज्ञानी मिलकर भी अज्ञानी नहीं बना सकते तथा कोई भी निमित्त अभव्यको भव्य और भव्यको अभव्य नहीं बना सकता है । "समयसार कलश" ५१ में कहा गया है कि जो परिणमन करता है, वही उसका कर्ता है । जो परिणमन होता है, वह कर्म है और जो परिणति होती है वह क्रिया है । वास्तवमें ये तीनों भिन्न नहीं है । निश्चयसे ये तीनों एक ही द्रव्य में घटित होते हैं । निमित्तकर्ताको उपचारसे ही कर्ता मानना युक्तिसंगत है । जहाँपर निश्चय उपादान होता है वहाँ अन्य द्रव्य उसका अविनाभाव सम्बन्धवश व्यवहार हेतु कहा जाता है। धवला पुस्तक ६ ० ५९ में कहा है- कर्मसंज्ञक पुद्गल द्रव्यमें उपचारसे कर्तापनेका आरोप किया जाता है । इसके पश्चात् तृतीय दौर में फिरसे पूर्व पक्षने प्रतिशंका उपस्थित की कि जो क्रोधादि विकार होते हैं, वह बिना कर्मोदयके होते हैं क्या या अन्य कर्मोदय के अनुरूप होते हैं संसारी जीवका चतुर्गति रूप भ्रमण प्रत्यक्ष देखा जाता है कि यह कर्माधीन हो रहा है। यदि बिना कर्मोदयके विकार स्वीकार किया आवे तो वह ज्ञानादिकी तरह स्वभाव बन जायगा । " समयसारकलश" में भी आत्माको भाव्य और फलदान शक्ति युक्त कर्मको भावक कहा गया है। इस प्रकार कमोंकी शक्तिको प्रदर्शित करनेवाले परमात्मप्रकाश, मूलाराधना, स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षा, इष्टोपदेश, उपासकाध्ययन, आत्मानुशासन, समयसारकला आविके प्रमाण देकर कमको विकारका कर्ता स्वीकार करनेकी प्रेरणा दी तथा उपचार कर्ताको निश्चयकर्ता बतलानेका प्रयत्न किया गया तथा उपादान और निमित्तकी समग्रताका अर्थ दो प्रकारसे किया गया। एक तो पद्गुणी हानिवृद्धि रूप परिणमन परनिरपेक्ष होता है, दूसरा अनुकूल निमित्तोंके सहयोगसे विकारी परिणमन होता है । भावलिंग की प्राप्ति के लिए द्रव्यलिंगकी प्राप्ति अनिवार्य कारण बतलाकर उपादानकी जागृतिमें निमित की अनिवार्यता सिद्ध की गई है । तथा यह शंका भी उठाई गई है कि जब उपादान अपना काम कर लेता है, तब निमित्तकी आवश्यकता ही क्या रह जाती है ? अतः दोनों कारणोंने कार्य होता है, ऐसा स्वीकार करो । इस प्रतिशंका ३ का समाधान करते हुए उत्तरपक्षने कहा कि कर्मका उदय निमित्त मात्र है, मुख्य कर्ता नहीं है । क्योंकि “समयसार कलश" ५३ में कहा गया है- दो द्रव्य एक होकर परिणमन नहीं करते, तथा दो द्रव्योंका एक परिणाम भी नहीं होता है, दो द्रव्योंकी एक परिणति (क्रिया) भी नहीं होती, क्योंकि जो अनेक द्रव्य हैं वे अनेक ही रहेंगे, एक नहीं होते । आगममें कथन अवश्य ही कहीं निमित्तकी मुख्यतासे होता है, कहीं उपादानकी मुख्यतासे परका संपर्क जीव अपनी इच्छासे करता है, परपदार्थ इसे बलात् अपने रूप नहीं परिणमा सकते हैं। निश्चयनय अभिन्न कर्ता-कर्म बतलाता है, व्यवहारनय भिन्न कर्ता-कर्म कहकर संयोगकी उपस्थितिका ज्ञान कराता है । Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४८ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ भावक भाव्यका आशय है कि जब तक जीव मोहोदयमें एकत्वबद्धि करता रहता है, तब तक मोहोदय भावक औरआत्माका विकारी भाव भाव्य कहलाता है। यदि मोहोदय बलात् विकार करावे, तो जीव कभी भी मोहको नष्ट कर ही नहीं सकता है। यह भावक भाव्य भाव व्यवहार कथन है। इसी प्रकार ज्ञानावरण कर्म भी केवलज्ञान आदिके घातनेमें निमित्त मात्र है । रागादिको पुद्गल कहनेका आशय यह है कि वे जीवके स्वभाव भाव नहीं है, तथा विकारी भावोंमें ज्ञान न होनेसे उन्हें पदगल कहा है, न कि वे रूप, रस, गंध, स्पर्शवाले पुद्गल हैं और न कर्मकृत पुदगल हैं। "तत्त्वार्थसूत्र" और "पुरुषार्थसिद्धयुपाय" में उसे जीवकृत परिणाम भी कहा है । वहाँ जीवकी अपनी कमजोरीका दर्शन कराया है । नियतनय और अनियत नयका अर्थ है-सब अवस्थाओंमें व्याप्त रहनेवाला त्रिकाली अन्वयरूप द्रव्य स्वभाव नियतनय है और परिवर्तनशील पर्याय स्वभाव अनियत है तथा पूर्वपक्षने असद्भूत व्यवहारनयको उपचारित मानना अस्वीकृत किया है, उसे आगमके परिप्रेक्ष्यमें देखें, तो उपचारका प्रसिद्ध लक्षण है-एक वस्तुके धर्मको दूसरेमें आरोपित करना उपचार या व्यवहार कहा है । उपचारके बाद भी जो उपचार किया जाता है वह उपचरित असदभत व्यवहारनय है। जैसे-कुंभकारका कर्म घट कहना। कुंभकार अपने योग और उपयोगका तो कदाचित् कर्ता कहा जा सकता है, किन्तु वह घटरूप परिणमित न होनेसे घटका कर्ता तो उपचारसे ही कहा जाता है । शंका-२-जीवित शरीरकी क्रियासे धर्म-अधर्म होता है या नहीं। समाधान-शरीर पुद्गल द्रव्यको पर्याय है अतः पुद्गलकी क्रियासे आत्माका धर्म अधर्म नहीं होता है। छह ढालामें कहा भी है, 'देहजीवको एक गिने बहिरातम तत्त्व मुधा है।" जो शरीर और आत्माकी क्रियाको एक मानता है, वह तत्त्वज्ञान रहित मूर्ख बहिरात्मा है अर्थात् अज्ञानी जीव शरीरकी क्रियासे धर्म अधर्म या पुण्यपाप मानते हैं। धर्मात्मा जीव शरीरकी क्रियासे आत्माको धर्म-अधर्म नहीं मानते हैं। इसके पश्चात् पुनः प्रतिशंका उपस्थित की गई कि प्रतिशंका २-जीवित शरीरको सर्वथा जड़ मान लेनेसे किसीकी भी हिंसा करनेपर हिंसाका पाप नहीं लगना चाहिये तथा जीवित शरीर चलता-फिरता है, इष्ट स्थानपर पहुँचता है। पूजा, व्रत, शील, संयम, दान देना, तप करना, उपदेश देना आदि सब क्रियायें शरीरसे ही होती हैं। "कायवाङ्मन. कमयोगः-सूत्रके अनुसार शरीर की क्रियासे आस्रव होता है । "तत्त्वार्थसूत्र में अजीवाधिकरण आस्रव शरीराश्रित क्रियासे होता है। वज्रवृषभनाराचसंहननसे शुक्लध्यान होकर मुक्ति प्राप्त होती है । उससे सातवाँ नरक भी मिलता है । प्रतिशंका २ का समाधान समयसार, गाथा १९ में कहा गया है जो कर्म, नोकर्मको अपना मानता है, वह अज्ञानी है । प्रवचनसार, गाथा १६० में कहा गया है-मैं शरीर, वाणी और मन नहीं हूँ। "नयचक्र" में कहा गया है-शरीरको जीवका कहना विजातीय असद्भूत व्यवहारनय है। स्वयंभूस्तोत्र ५९ में कहा गया है-गुण-दोष की उत्पत्तिमें बाह्यवस्तु निमित्त मात्र है तथा सावधानी वर्तते हुए द्रव्य हिंसा होने पर भी हिंसाका पाप नहीं लगता है। अतः पुण्य-पाप, धर्म-अधर्म परिणामीके अनुसार ही होता है । इस पर पुनः प्रतिशंका की गई प्रतिशंका ३-हमारा मूल प्रश्न यह था कि धर्म-अधर्ममें शरीरकी क्रिया कारण है या नहीं ? इसका उत्तर न देकर मात्र शरीरको जड़ बतलाया है, वह तो सभी मानते हैं । पं० फूलचंद्र जी ने धवला पु. १ पृ. Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम खण्ड :६४९ १५० पर स्वयं लिखा है-कि भव्य होते हुए भी कुछ जीव सिद्धत्व प्राप्त नहीं कर पाते हैं, उसका कारण तदनुकूल सामग्रीका न मिलना ही है। अतः योग्यता होते हुए भी बाह्य सामग्रीके अभावमें मुक्ति न मिलती है। मोतियाबिंद हो जानेसे आत्मा आंखोंसे नहीं देख पाती है। "तत्त्वार्थसूत्र" की टीकामें भी आपने पृ. २१८ पर स्वीकार किया है कि छात्र और अध्यापकके मिलनेपर ही ज्ञान प्राप्त होता है। उपादान हो और निमित्त न मिले तो कार्य नहीं होता है । तपकी साधनामें आवश्यक शरीर बलकी अपेक्षा होती है तथा बहिरंग संयमछेद काय चेष्टाको कहा गया है। तीन कर्मोकी स्थिति आयु कर्मके बराबर करनेके लिए बिना इच्छाके केवलीका समुद्घात होता है। यह शारीरिक समुद्घात संसार विच्छेदका कारण बनता है, अतः शरीरकी क्रियासे धर्म-अधर्म होता है। प्रतिशंका ३ का समाधान समयसार, गाथा १६७ में रागादि भावोंको ही बंधका कारण कहा है, रागरहित भाव बंधके कारण नहीं है। रत्नकरण्ड श्लोक ३ में रत्नत्रयको मुक्तिका कारण और मिथ्यात्वादिको ही संसारका कारण बतलाया है । सागारधर्मामृत अ०४ श्लोक २३ में कहा है कि यदि भाव ही बंध मोक्षके कारण न हो, तो जीवोंसे भरे इस लोकमें कहां विचरण करके मोक्ष प्राप्त कर सकता है अर्थात सूक्ष्म जीवोंकी हिंसा निरंतर होते रहनेसे मोक्ष कैसे प्राप्त कर सकते हैं ? "सर्वार्थसिद्धि" ग्रंथमें कहा गया है शुभ-परिणामके निमित्तसे शुभयोग और अशुभ परिणामके निमित्तसे अशुभयोग होता है । शरीरकी क्रिया शुभ-अशुभ नहीं होती, किन्तु शुभाशुभ परिणाम के निमित्तसे शुभाशुभयोग कहा जाता है। उत्तर पक्षने जो उदाहरण दिये है, उनसे उनकी मान्यता पुष्ट नहीं होती है। क्या बिना परिश्रमके विद्यार्थी विद्या सीख लेता है ? जब विद्यार्थी सफल हो जाता है, तब गुरु ने ज्ञान दिया-यह कहा जाता है । समुद्घात भी शरीरमात्र की क्रिया नहीं, अबुद्धिपूर्वक आत्म पुरुषार्थ से होता है। शंका नं० ३-जीवदयाको धर्म मानना मिथ्यात्व है क्या ? इसका समाधान करते हुए परमात्मप्रकाश अ. २ श्लोक ७१ में कहा है- शुभ परिणामसे पुण्य बंध, अशुभपरिणामसे पापबंध तथा शुभाशुभ भाव रहित वीतराग परिणामसे कर्मबंधन नहीं होता है। इसी प्रकार समयसार गाथा ६४ में भी कहा है । इसके पश्चात् पूर्व पक्षने प्रतिशंका उपस्थित की-कि जीवदया शुभ भाव है यह तो ठीक है, किन्तु उससे संवर, निर्जरा होती है। इसे भी स्वीकार कर लेना चाहिए, क्योंकि व्रत, समिति आदि को कार्तिकेयानप्रेक्षा, पद्मनंदि पंचविंशतिका, बोध पाहुड, धवला आदि ग्रंथमें भी संवरतत्त्व और धर्म कहा है। तथा धवला पु. १ पृ. ९ में अरहंत नमस्कारको असंख्यातगुणी निर्जराका कारण कहा है । तथा "भावसंग्रह" में पूजा व्रतादिको मोक्षका कारण कहा है। तथा पुण्यको मोक्षका कारण बताया है। 'परमात्मप्रकाश में इसे मोक्षका कारण कहा है अतः पुण्यबंध संसारका कारण कहना अनुचित है। प्रतिशंकाके समाधानमें उत्तर पक्षके २० प्रमाणोंका विश्लेषण करते हुए पुरुषार्थसिद्धयुपाय श्लोक २१२-२१३-२१४ का प्रमाण उपस्थित किया कि सम्यग्दर्शनादिसे निर्जरा होती है, और रागसे बंध होता है। समयसार गाथा १४० में भी कहा है कि रागसे बंध होता है, और वीतरागतासे निर्जरा होती है। अतः जीवदया राग रूप होने से पुण्य बंधका कारण है, उससे निर्जरा नहीं होती है। शुभरागका अन्तर्भाव कर्मचेतना में होता है, और यह कर्मचेतना सम्यग्दृष्टि धर्मात्माके होती नहीं। उसके सिर्फ ज्ञान चेतना होती है । अतः दयाभाव शुभराग रूप तो है, वीतराग धर्म नहीं है। प्रतिशंका ३-इस उत्तरके पश्चात पूर्व पक्ष ने पुनः अपनी प्रतिशंका रखते हुए कहा कि परमात्माप्रकाशमें शुभ परिणामको धर्म बतलाया है, उसे आप लोग स्वीकार क्यों नहीं करते ? आप आर्ष प्रमाणोंको ८२ Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -६५० : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ 33 स्वीकार न करके अतिसाहस कर रहे हैं । बोधपाहुड गा० २५ में दया से धर्म तथा धवला पु. १३ पृ. ३६२ में करुणाको जीवका स्वभाव कहा है "भावसंग्रह ४०४ में स्वीकार किया है कि सम्यग्दृष्टिका पुण्य, बंधका कारण नहीं है, नियमसे मोक्षका कारण है । सम्यकदृष्टिसे लेकर सातवें गुणस्थान तक मिश्रित शुभभाव हैं, उससे आस्रव, बंध और संवर, निर्जरा भी होती है ! सातवें तक शुद्धोपयोग तो होता ही नहीं है, वहां निर्जरा होती है। सम्यक्त्व के सम्मुख वाले जीवके भी शुभ परिणामसे असंख्यातगुणी निर्जरा स्थितिकाण्डक अनुभागकाण्डक करते ही हैं । का० अनु० में दयामय धर्म कहा है | नियमसार गाथा ६ में भी दयामय धर्म बतलाया है। इस प्रकार आत्मानुशासन, यशस्तिलक, मूलाचार, भावपाहुड, शीलपाड, मूलाराधना आदि ग्रन्थोंमें दयाको धर्म कहा है। पाँच पापोंके त्यागको सम्यग्चारित्र कहा है तथा सम्यग्वारित्र साक्षात् मोक्षका कारण है। जहां भी व्रतोंको छोड़नेका उपदेश दिया गया है, वहाँ मात्र व्रतोंमें रहने वाले रागांदाको छोड़नेका उपदेश है, न कि व्रतोंको छोड़ने का । व्रत तो बारहवें गुणस्थान तक पाये जाते हैं । प्रतिशंका ३ का समाधान जीवदया में स्वदया और परक्ष्या गर्भित है । किन्तु मूल प्रश्न परदयाको ध्यान में रखकर हो किया गया है। परदयाको पुण्य मानना मिथ्यात्व नहीं है। उत्तर पक्ष ने दयाको धर्म माननेके जो लगभग २० प्रमाण दिये हैं, ऐसे और भी हजारों प्रमाण मिल सकते हैं । किन्तु जितने भी रागरूप परिणाम हैं, वे कभी भी मोक्ष के कारण नहीं हो सकते हैं। परवया रूप भाव रागरूप ही है अतः वे मोक्षके कारण कदापि नहीं हो सकते हैं । परमात्मप्रकाश गाथा ७१ में भावोंके ३ भेद किये हैं- धर्म-अधर्म और शुद्ध । यहाँ शुभ भावको ही धर्म कहा गया है। अतः शुभभावको धर्म उपचारसे कहा गया है। परदयाके भाव गृहस्य मुनि सबको आता है। जीवदया धर्म है, इसके लिए जो अनेक प्रमाण दिये गये हैं, उसमें किस नयका यह कथन है, उस पर ध्यान न देकर व्यवहार धर्मको निश्चयधर्म मानकर अपनी बात सिद्ध करना चाहता है । किन्तु प्रवचनसार गाथा ११ में स्पष्ट कहा है कि शुद्धोपयोगसे जीव मोक्षसुख और शुभोपयोगसे स्वर्ग सुख पाता है। इस गाया ने आगम वाक्यका रहस्य खोलकर रख दिया है अतः शुभ भाव और शुद्धभावों का अन्तर स्पष्ट हो जाता है इससे यह निर्णय हो जाना चाहिए कि स्वदया वीतराग भाव रूप है, और परदया शुभभाव रूप है । पंचास्तिकाय गाथा १४७ में कहा है, जब विकारी आत्मा शुभ, अशुभ भाव करता है, तो वह नाबा प्रकारके कर्मों से बद्ध होता है। अतः शुभभावों से कर्मबंध होता है, यह बिल्लकुल स्पष्ट हो जाता है। प्रवचनसार गाथा १८१ में भी शुभ परिणाम पुण्य है तत्त्वार्थसार श्लोक २५-२६ में दयाको शुभास्रव बताया है । बोध प्राभृतके 'धम्मो दया विशुद्धो' का अर्थ स्वदयारूप वीतरागभाव है जो कि निर्जराका कारण है । धवला पुस्तक १३ में भी 'करुणाए जीवसहावस्स' करुणा ही जीव स्वभाव है, इसका अर्थ भी स्वदया है । भाव संग्रहकी गाया 'सम्माइट्टी पुष्णं... में सम्यग्दृष्टिका पुण्य बंध कारण नहीं है, उस व्यवहार कथनका आशय इतना है कि सम्यग्दृष्टि अल्पकालमें मुक्ति प्राप्त करेगा । उसका पुण्य अनंत संसारका कारण नहीं है । इस सबका सार इतना ही है कि दया शब्दका व्यवहार दो अर्थों में किया जाता है- एक स्वदपाके रूपमें, जो निर्जरा का कारण है और दूसरा परदयाके रूपमें, जो पुण्यबंधका कारण है । समयसार कलश १०७ में कहा है- कर्मस्वभावसे वर्तना ज्ञानका होना नहीं है, इसलिए शुभभाव मोक्षका हेतु नहीं है, क्योंकि वह पुद्गल स्वभाववाला है अतः आगम में रागांश बंधका कारण और रत्नत्रयांश संवर निर्जराका कारण है—यह स्पष्ट हो जाता है। राग और ज्ञानको भिन्न करना यही भेदज्ञानका फल है। सूर्योदयसे पूर्व और अंधकार मिले हुए प्रतीत होते हैं, किन्तु दोनों का स्वभाव अत्यन्त भिन्न है । प्रकाश । Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम खण्ड : ६५१ प्रथम पक्षने भोजन और काढेका एवं मिश्र गुणस्थानका उदाहरण दिया है। इससे यह सिद्ध नहीं होता है, कि मिले हुए पदार्थ एक ही कार्य करते हैं । भोजन या काढ़ेमें जिन द्रव्योंका सम्मिश्रण है, वे सब अपना अपना कार्य करते हैं तथा मिश्र गुणस्थान सर्वघाति प्रकृति होने से वह विभाव भाव है। वेदक सम्यक्त्व स्वभावभाव है, अतः मिश्रकी तुलना वेदक सम्यक्त्वसे नहीं की जा सकती है। चौथे गुणस्थानमें आंशिक शुद्धोपयोग होता है, वह निर्जराका कारण और जो रागांश शेष है, वह बंधका कारण होता है।। पंचास्तिकाय गाथा १४४ की टीकामें कहा है-शुभ अशुभ भावका निरोध करना संवर है । अतः शुभभाव संवरका विरोधी है, उससे संवर-निर्जरा कैसे हो सकती है। प्रवचनसार गाथा ८५ में मनुष्य तिर्यंचोंमें अज्ञानतापूर्वक करुणाको मोहका लक्षण कहा है। पंचास्तिकाय गाथा १७० की टीका में करुणाको मनः खेद कहा है। प्रथम पक्ष ने सम्यग्दृष्टिके शुभभावोंको वीतरागता और मोक्ष का हेतु कुछ शास्त्रीय प्रमाण देकर सिद्ध करना चाहा है और सम्यग्दृष्टिका शुभभाव कर्मचेतना न होकर ज्ञानचेतना माना गया है, जबकि कर्म चेतनाका लक्षण है-ज्ञान से भिन्न अन्य भावोंको मैं करता है-यह कर्मचेतना है।' इस लक्षण से शुभभावों का ज्ञान चेतना में कैसे अंतर्भाव हो सकता है ? क्योंकि शुभभावको विभाव भाव आगममें कहा है। "तत्त्वार्थसूत्र' में व्रतोंको आस्रव तत्त्वमें स्वीकार किया है। अतः शुभ भावरूप जीवदयाको धर्म मानना मिथ्यात्व ही सिद्ध होता है, क्योंकि शुभभाव आस्रव तत्त्व है और उसको संवर निर्जरा तत्त्व सिद्ध करने का प्रयत्न किया गया है। शंका नं०४ शंका--व्यवहार धर्म निश्चय धर्ममें साधक है या नहीं ? समाधान-उत्तर पक्षने उसका समाधान करते हुए बतलाया कि निश्चय धर्म पर निरपेक्ष होता है और व्यवहार धर्म पर सापेक्ष होता है, अतः यदि वास्तविक दृष्टिसे देखा जाये, तो व्यवहार धर्म निश्चय धर्मका साधक कैसे हो सकता है। क्योंकि विभाव पर्याय स्वपर सापेक्ष होती है और स्वभाव पर्याय पर निरपेक्ष होती है। ऐसा ही नियमसार गाथा १३-१४ और २८ में कहा है । व्यवहार धर्म निश्चय धर्मके साथ रहता है । इससे उसको सहचर होनेसे निमित्त मात्र कहा है; साधक नहीं है। प्रतिशंका-इस समाधानके बाद प्रथम पक्षने पुनः प्रतिशंका करते हुए बतलाया कि जब स्वभाव पर्याय पर निरपेक्ष है, तो विभाव धर्म सापेक्ष कैसे माना जा सकता है ? क्योंकि दोनों ही आत्माके धर्म है। पंचास्तिकाय गा० १५९ की टीकामें निश्चय व्यवहारको साध्य-साधन स्वर्ण और स्वर्ण पाषाणकी तरह माना है। इसीकी गा० १७२में भी कहा है कि 'जीव प्रथम व्यवहार रत्नत्रयसे शुद्धता करता है । जैसे धोबी मलिन वस्त्रको भिन्न साध्य-साधन शिलाके ऊपर साबुन आदिके द्वारा वस्त्रको स्वच्छ करते हैं। पश्चात् निश्चयनयकी मुख्यतासे रस्मत्रयमें सावधान होकर अंतरमें बैठते हैं। इसी ग्रन्थकी गा० १०५-१६०-१६१ में जयसेनाचार्यने व्यवहार मोक्षमार्गको निश्चय मोक्षमार्गका साधन कहा है । प्रवचनसार गा० २०२में पंचाचारसे शुद्धात्माकी प्राप्ति कही है। परमात्मप्रकाश, श्लोक ७ और द्रव्यसंग्रहमें भी साध्य-साधक भाव इन दोनों में बतलाया है। आपने व्यवहार धर्मको सहचर होनेसे निमित्त मात्र बतलाया है, किन्तु पदार्थमें सहचर भाव तो बहुतसे विद्यमान रहते हैं। फिर भी उनको साध्य-साधक भाव नहीं माना जाता है। अतः व्यवहार धर्म निश्चय धर्मका साधक मानने में कोई हानि नहीं है। Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५२ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ समाधान-नयचक्र आ० ७७में कहा है-व्यवहारसे बंध होता है और स्वभावका आश्रय लेनेसे मोक्ष होता है, इसलिए स्वभावकी आराधना कालमें व्यवहारको गौण करो । प्रथम पक्षने प्रतिशंकामें प्रवचनसार, पंचास्तिकाय, परमात्मप्रकाश द्रव्य-संग्रहके अनेक प्रमाण उपस्थित कर यह सिद्ध किया है कि व्यवहार धर्म निश्चय धर्मका साधक है, किन्तु यह कथन असद्भूत व्यवहारसे किया गया है । पं० प्रवर टोडरमलजीने मोक्षमार्ग प्रकाशकमें कहा है-सम्यग्दृष्टिके शुभोपयोग भये निकट शुद्धोपयोग प्राप्ति होय ऐसा मुख्य पना करि कहीं शुभोपयोगको शुद्धोपयोगका कारण भी कहिए है । पृ० ३७७ दिल्ली सं० बृहद्रव्यसंग्रह, पंचास्तिकाय टीका में जो व्यवहार धर्मको निश्चय धर्मका परंपरासे साधक कहा है, सो वह इसी अभिप्रायसे कहा है । वस्तुतः मोक्षमार्ग एक ही प्रकारका है, उसका कथन दो प्रकारका है। जहाँ निश्चय मोक्ष मार्ग होता है, उसके साथ मंदराग, रूप व्यवहार धर्मको भी मोक्षमार्ग आगममें कहा है। मो० मा० प्र० पृ० ३ ५-६६ में भी कहा है-निरूपण अपेक्षा दोय मोक्षमार्ग जानना एक निश्चय मोक्षमार्ग एक व्यवहार मोक्षमार्ग है। ऐसे दोय मोक्षमार्ग मानना मिथ्या है। बहुरि निश्चय व्यवहार दोऊनिक उपादेय माने हैं सो भी भ्रम है । जात निश्चय व्यवहारका स्वरूप तो परस्पर विरोध लिए है ? प्रवचनसारमें कहा है--वीतराग भावसे मोक्ष प्राप्त होता है और सराग भावसे देवादि पर्यायके वैभव क्लेश रूप बंधकी प्राप्ति होती है। प्रतिशंका -आपने जितने प्रमाण दिये हैं उनका मल प्रश्नसे कोई संबंध नहीं है । व्यवहार रत्नत्रय को व्यवहारनयका विषय बताया है । क्या बिना व्यवहारके निश्चय रत्नत्रय प्राप्त हो सकता है ? जबकि भेद रत्नत्रयको व्यवहार कहा है और अभेद रत्नत्रयको निश्चय कहा है। द्रव्यसंग्रह १३वीं गाथाकी टीकामें कहा है जो निश्चयको साध्य-साधक भावसे नहीं मानता है, वह मिथ्यादृष्टि है। नियमसार गाथा ५१ से ५५ रत्नत्रयका वर्णन करते हुए कहा है कि व्यवहारनयके चारित्रमें व्यवहार तप होता है और निश्चय चारित्रमें निश्चय तप होता है। इसीकी टीकामें कहा है--भेदोपचार रत्नत्रय भी आत्मसिद्धिके लिए परंपरा कारण है। __ आगममें देवशास्त्र गुरुके श्रद्धानको सम्यग्दर्शन कहा है। क्या यह श्रद्धा मात्र रागरूप है ? पुरुषार्थ सिद्धयुपाय श्लोक २२ में कहा है-निश्चय व्यवहार रत्नत्रय-परमात्मपद प्राप्त कराता है । इसी तरह पंचास्तिकाय, छहढाला, भावपाहुड, द्रव्यसंग्रह, परमात्म प्रकाशमें व्यवहार रत्नत्रयको निश्चयका कारण कहा है। समयसार गाथा १२ में भी कहा है--साधक अवस्था वाले जीव व्यवहार द्वारा उपदेश करने योग्य है। निश्चय तो साध्य है और बाह्याचार रूप व्यवहार सर्वत्र उसका साधन बतलाया गया है । समयसारमें भी अधःकर्म और औद्देशिकका निमित्त भूत आहारादि हैं, उसके त्यागके बिना द्रव्य प्रतिक्रमण नहीं होता और द्रव्य प्रतिक्रमणके बिना भाव प्रतिक्रमण नहीं होता है--ऐसा निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध है। अतः व्यवहार निश्चयका कारण है, यह बात सिद्ध होती है । प्रतिशंका ३ का समाधान-निश्चय रत्नत्रय स्वभावभाव है और निश्चयका सहचर होनेसे व्यवहार रत्नत्रय साधक तो नहीं हैं, निमित्तमात्र है। असद्भुत व्यवहारनयसे आगममें उसे साधक कहा है । यहां साधकका अर्थ निमित्त मात्र है। बृहद्रव्यसंग्रह गाथा ४५ की टीकामें कहा है-जो पांचों इन्द्रियों के विषयांका बाह्य त्याग है, वह उपचरित असद्भूत व्यवहारनयसे चारित्र है। वह वास्तवमें आत्मका धर्म नहीं है । निश्चय और व्यवहार चतुर्थादि गुणस्थानमें एक साथ रहते हैं । आगममें उपचरित असद्भत व्यवहार नयसे व्यवहार धर्मको निश्चयका साधन कहा है। यह दृष्टि हमेशा ध्यानमें रखेंगे, तो आगमके भावको समझ सकेंगे। सच्चे देव, शास्त्र, गुरुका श्रद्धान भी व्यवहार सम्यग्दर्शन है-यह निमित्त कथन है । Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम खण्ड : ६५३ रागमात्र व्यवहार धर्म नहीं है, किन्तु निश्चयके साथ देव, शास्त्र, गुरुका श्रद्धान, स्वाध्याय और व्रतपालनको व्यवहार रत्नत्रय कहा जाता है । शुभमें प्रवृत्ति और अशुभसे निवृत्ति यह व्यवहार चारित्र है । बृहद्द्रव्यसंग्रह, गाथा ४५ और पंचास्तिकाय गाथा १३६ मूलाचार गा० ७३-७४ पंचपरमेष्ठीकी भक्तिको शुभराग कहा है । व्यवहारका लक्षण है--जो जिस रूप न हो उसको उस रूप कहना व्यवहार है । जिसका आशय निकला कि वह वास्तवमें धर्म तो नहीं है, उपचारसे उसे धर्म कहा गया है। यदि निश्चय और व्यवहार दोनों ही धर्म हैं, तो फिर वे दो कहाँ रहे ? एक ही हुए। धर्मकी पद्धतिका कथन तो यह है-'शुभमें न मगन होय न शुद्धता विसरनी।' लक्ष्यमें आत्मप्राप्ति रूप धर्मको लेकर अशुभसे बचने के लिए शुभ क्रिया होती है। आत्माके अवलंबनसे संवर निर्जरा मोक्ष होता है और परावलम्बनसे आस्रव-बंध होता है। शुभाशुभ परिणामके निरोधको भावसंवर कहा है । पञ्चास्तिकाय आदि ग्रन्थोंके जितने भी प्रमाण दिये हैं, उन सबका आशय यही है। "बृहद्रव्यसंग्रह" गाथा १३ में कहा है-व्यवहारनयको साध्यभूत निश्चयनयका उपचरित हेतु स्वीकार न कर उसे परमार्थ मानता है, वह सम्यग्दृष्टि नहीं है। समयसार गाथा २७२में कहा है-उपचरित व्यवहारनयसे जो कुछ कहा जाता है, वस्तु वैसी न होनेसे यह निश्चयनयकी दृष्टिमें सर्वथा हेय है । प्रथम पक्षने “पुरुषार्थसिद्धयुपाय", "पञ्चास्तिकाय" और "छहढालाके जो प्रमाण उपस्थित किये हैं, वे सब इसी श्रेणीमें आते हैं। पद्मनदि पञ्चविंशतिका ७१/१६ का यह श्लोक महत्त्वपूर्ण है--सविकल्प अवस्थामें प्रमाण-नय-निक्षेप सब हैं। केवल निर्विकल्प अवस्थामें एक चेतन ही अनुभवमें आता है । यही आशय समयसार गाथा १२ का है। ___ जहाँ निश्चयनयका विषयभूत आत्मज्ञानका आश्रय नहीं है, वहाँ किसी भी प्रकारका व्यवहार ही नहीं है; क्योंकि 'मूलो नास्ति कुतोः शाखा ।' जब निश्चय नहीं, तो व्यवहार किसका नाम है ? अज्ञानी जीवको कोई नय होता ही नहीं है। प्रथम पक्षने निश्चयधर्मको लक्ष्य बताया है, किन्तु ऐसा नहीं है। वीतराग परणतिका नाम ही निश्चय धर्म है । लक्ष्यका नाम ही निश्चय नहीं है। प्रथम पक्षका यह लिखना उचित नहीं कि चौथे पाँचवें और छठवें गुणस्थानमें बाह्य पुरुषार्थ ही होता है, किन्तु इन गुणस्थानोंमें भी आत्मसाधनाके साथ बाह्य आचरण हेय बुद्धिसे चलता है । मूलाचारमें कहा है-बाह्य क्रिया करते हुए भी मुनिके जीवनमें निश्चय धर्म गौण नहीं हो सकता है । अधःकर्म और औद्देशिकके निमित्तोंके त्यागका प्रयोजन निमित्त-नैमित्तिकका ज्ञान कराना है । अर्थात् जब राग छूट जाता है तो रागके साधन भी छूटते चले जाते हैं। इस प्रकार व्यवहारनय निश्चयका साधक है, यह असद्भूत व्यवहार नयका कथन है। शंका ५-द्रव्योंमें होनेवाली सभी पर्यायें नियतक्रमसे होती हैं या अनियतक्रमसे भी? समाधान-द्रव्योंमें होनेवाली सभी पर्याय नियत क्रमसे ही होती हैं । स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षा गाथा ३२१-२२-२३ में कहा है--जीवका जन्म अथवा मरण जिस देश, जिस काल, जिस विधिसे होना है-उसी प्रकार होकर रहता है, ऐसा जिनेन्द्र भगवान्ने जाना है। उसे बदलनेके लिए इन्द्र अहमिन्द्र और जिनेन्द्र भगवान् भी समर्थ नहीं हैं । इस प्रकार जो निश्चयसे सब द्रव्यों और उनकी पर्यायोंको जानता है, वह शुद्ध सम्यग्दृष्टि है, जो शंका करता है, वह कुदृष्टि है। . अतः इस आर्ष वाक्यसे यह सिद्ध होता है कि सभी द्रव्योंकी सभी पर्याय नियत क्रमसे ही होती हैं। इसी ग्रन्थमें गाथा २३०में कहा है कि पूर्व पर्याययुक्त द्रव्य उपादान कारण जब होता है तब उत्तर पर्याय कार्य रूप प्रगट होती हैं। तत्त्वार्थश्लोकवातिक अ० १ पृ० ७१में इसी प्रकार कहा है । Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५४ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ प्रतिशंका २. इन गाथाओंका भाव तो निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्धको बताता है कि जन्म-मरण कर्माधीन है, उसे कोई नहीं बदल सकता है। इससे पूर्व गाथा ३११ से ३२० तक कुदेवोंके प्रति भक्तिभावके प्रति अरुचि पैदा करनेके लिए लिखा है कि कोई देवी देवता न तो धन देता है और न उपकार, अपकार करता है । यदि ये धन देने लगें, तो फिर पुण्य क्यों किया जावे ? इनमें सबसे प्रथम यह कहा है कि सम्यग्दृष्टि तत्त्वोंका अनेकान्त रूपसे श्रद्धान करता है। इस विचारको दृढ़ करनेके लिए उक्त तीन गाथाएँ कही है । गाथा २१९ में कहा है-पदार्थ नानाशक्ति युक्त है, किन्तु वह उसी रूपमें उत्पन्न होता है, जिसके अनुकूल द्रव्य, क्षेत्रादि निमित्त कारण जैसे मिल जाते हैं । इसी प्रकार गाथा २२३ की टीकामें कहा है। यदि परणति नियत समयपर होती है, तो फिर कभी अविपाक निर्जरा नहीं हो सकती है, जिससे मोक्षका अभाव हो जायगा। इस नियतवादको पंचसंग्रह, गोम्मटसारमें मिथ्यात्व कहा है । तत्त्वार्थ सूत्र में बाह्य निमित्त कारण मिलनेपर अकाल मृत्यु बतलाई है। तथा अकालमें दिव्यध्वनि खिरना, अनियतकालमें निर्जरा होना, संसारी जीवकी अनियत गुणपर्याय, क्रम-अक्रम परिणमन, द्रव्यकर्मकी अनियत पर्याय आदिसे पता चलता है कि पर्याय अनियत भी होती है। कोई भी कार्य उपादान और निमित्तके बिना उत्पन्न नहीं होता है। स्वपर प्रत्यय पर्याय निमित्त कारणके व्यापारके अनुकूल होती है और निमित्तका व्यापार नियत हो, ऐसा एकान्त नहीं है । जैसे आम धूप, छाया आदिके निमित्तसे शीघ्र देरसे पकते हैं । केवलज्ञानमें भी पर्यायें अनियत और नियत रूपसे झलकती है। केवलज्ञान ज्ञापक है; कारक नहीं। इसी प्रकार क्रम-अक्रमके विषयमें एकान्त नहीं, अनेकान्त है। अमृतचन्द्राचार्यने भी कालनय, अकालनयका उल्लेख किया है । अतः पर्यायें क्रम और अक्रमसे दोनों तरहकी होती है। प्रतिशंका २ का समाधान-इसका निश्चय और व्यवहारसे समाधान करते हुए द्वितीय पक्षने काव्य अनुवाद गाथा ३२३ के भावको समझाते हुए लिखा है स्वामी कार्तिकेयने निश्चयसे ऐसा जो मानता है, यह कथन सिद्ध करता है जो यथार्थमें ऐसा मानता है वह निश्चयसे वस्तुका यथार्थ स्वरूप है और द्रव्यकी सब पर्यायें कहनेसे शुद्ध अथवा अशुद्ध पर्यायें परकृत नहीं, स्वकृत हैं, और वे सब नियतक्रमसे होती है । 'समयसार में कहा है जो ऐसा मानता है कि मैं किसीको सुखी-दुखी करता हूँ या जीवन मरण देता हूँ, वह अज्ञानी है । अतः अशुद्ध पर्याय भी अपने समयपर होती है। (१) निर्जरा, उत्कर्षण, अपकर्षण आदिके लिए यह सिद्धान्त है कि बन्धकालमें जो स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध होता है, उस कालमें ही उन कर्मोकी ऐसी योग्यता स्थापित हो जाती है, जिससे नियतकाल आनेपर नियत परिणामों तथा बाह्य नोकर्मोंका निमित्त कर उन-उन कर्मोका अपकर्षणादि रूप परिणमन होता है। ऐसा न माननेपर कर्मशास्त्रकी सारी व्यवस्था ही गड़बड़ा जायगी और उपशमकरण, निधत्तिकरण, निकाचितकरणकी व्यवस्था ही नहीं बन सकेगी। (२) निमित्त उपादानकी उपस्थितिमें कार्यकी उत्पत्ति होती है, किन्तु निमित्त उपादानका कुछ भी कार्य नहीं करता है । क्योंकि दो द्रव्योंकी एक परणति नहीं होती, यह सिद्धान्त है। तथा एक द्रव्यकी स्व रूप और पररूप परिणति होती हो, ऐसा भी नहीं है । क्योंकि कर्ता-कर्म-क्रिया भाव निश्चयसे एक द्रव्यमें ही घटित होता है । दो पदार्थोंमें कर्ता-कर्म-क्रियाका सम्बन्ध व्यवहारसे कहा जाता है; होता नहीं। (३) भगवान्की वाणी अकालमें भी खिरती है, इसका उत्तर जयधवला पृ० ७६ में कहा है । दिव्य Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम खण्ड : ६५५ ध्वनि जब भी खिरती है, वह उसका स्वकाल है-अर्थात् पर्याय अपने समयपर ही प्रगट होती है; अनियतकालमें नहीं होती है। (४) गुण, पर्यायको नियत और अनियत कहा है। वहाँ अपने स्वभावरूप संसारी जीव परिणमन नहीं करता है, उसे अनियत गुण, पर्याय वाला कहा है । (५) प्राग्भावका विनाश द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावपर निर्भर है-इसका अर्थ है कि द्रव्यका स्वकाल आदि आनेपर, परचतुष्टय निमित्त रूप होता है । किन्तु वह कार्यका जनक नहीं है। (६) यद्यपि कार्य निमित्त-उपादानके सुयोग मिलनेपर होता है, किन्तु कार्योत्पत्ति समर्थ उपादानसे होती है । निमित्त उस समयपर उपस्थित अवश्य है, किन्तु वह नियामक कारण नहीं है। अतः कार्य अपने नियत समयपर ही होता है। प्रतिशंका ३-केवलज्ञानकी अपेक्षा पर्यायोंका परिणमन क्रमबद्ध मानकर भी कार्य-कारणकी अपेक्षा उसकी सिद्धि करना चाहिए। अतः यह विचारणोय है कि वह कार्य अपने प्रतिनियत कारणोंसे जिस कालमें होता है, उसे ही कार्यका प्रधान कारण माना जाये ? अथवा कार्य जब होता है, तो अपने प्रतिनियत कारणोंसे ही होता है और जिस कालमें वह उत्पन्न होता है, वही उसका स्वकाल है । इसलिए कार्यके लिए अन्तरंग और बहिरंग दोनों कारण मानना चाहिए। इसलिए विवक्षित कार्यके अनुरूप उपादान कारणके होते हुए भी यदि अन्य कारणोंकी अविकलता न होगी, तो कार्य सम्पन्न नहीं होगा। यदि सहकारी कारण अकिचित्कर हो तो उसका नाम सहकारी कारण नहीं हो सकता है। क्योंकि जीव और पुद्गलोंके परिणमन स्वपर प्रत्यय ही माने गये हैं । वस्तुके परिणमनमें विलक्षणताका नियामक निमित्त कारण ही है। निर्जरा या संक्रमण आदिके लिए शास्त्रमें ऐसा कोई नियम नहीं है कि कर्मोके बन्धके समय ही उन कर्मों में ऐसी योग्यता स्थापित हो जाती है कि वे अमुक समयपर ही निर्जरित होंगे। हाँ यह बात अवश्य है कि बन्धके समय कुछ प्रदेशोंका उपशम, निधत्ति, निकाचित रूप बन्ध होना सम्भव है। किन्तु कारण-कलाप भी जाता है। आपने स्वकाल शब्दका प्रयोग किया है. किन्तु अमतचन्द्राचार्यने ४७ शक्तियों में अकाल नय भी बतलाया है और पण्डित टोडरमलजीने कहा है-काललब्धि और नियति कोई वस्तु हो नहीं । भगवानकी दिव्यध्वनि भी निमित्त पाकर अनियत समयमें भी खिरने लगती है। कर्म निर्जरा विपाक, और मुक्तिका भी कोई नियत समय नहीं है। शंका ५ प्रतिशका ३ का समाधान-केवलज्ञानमें सब पदार्थोंकी पर्यायें झलकती हैं, अतः इससेो पदार्थोंका परिणमन सुनिश्चित तो है ही। तथा 'अष्टसहस्री' में यह भी कहा गया है कि जैसी भवितव्यत होती है, वैसे ही सब कारण मिल जाते हैं । अलंध्यशक्तिका अर्थ यह स्पष्ट किया है कि कार्य द्रव्य स्वभावको लांघकर कभी नहीं होता है। निश्चयसे कार्यकारण-व्यवस्था एक द्रव्यमें ही घटित होती है। अन्य द्रव्यके संयोगसे कार्य-कारण कहना व्यवहार कथन है । निमित्त कथनको यथार्थ कथन मानना दो द्रव्योंकी एकताको स्वीकार करना है जोकि असम्भव है । निर्जरा और मुक्तिका काल सुनिश्चित है, उपादान और निमित्त की आगममें समव्याप्ति कही है । अतः समर्थ उपादानकी उपस्थितिमें अन्य निमित्त कारणकी उपस्थिति बन जाती है। Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५६ : सिद्धान्ताचार्य पं० फलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ पांचवीं शंकामें तीसरी प्रतिशंका उठाकर प्रथम पक्षने कहा पर्यायका स्वकाल आनेपर कार्य होता, ऐसा मानकर स्वकालको प्रधानता देते हैं। हम उपादान और निमित्त दोनों कारणोंको प्रधान कहते हैं । अशुद्ध पर्याय स्वपरप्रत्यय आगममें कही है। तब आप परप्रत्ययको गौण क्यों कर देते हैं ? अष्टसहस्री पृ० १०५ में यदि सहकारी कारण अकिंचित्कर हो तो उसका कारण नाम नहीं पड़ सकता है। अतः जबतक निमित्त तदनुकूल व्यापार नहीं करता, तबतक उस उपादानकी विवक्षित कार्यरूप परणति नहीं होती है । अतः कार्यको निमित्ताधीन भी कहा जाये, तो कार्य अपने समयपर ही होता है, यह सिद्धान्त सिद्ध नहीं होता है। इस प्रतिशंका ३ का समाधान करते हुए द्वितीय पक्षने उत्तर दिया कि केवलज्ञान वस्तुस्वरूपका ज्ञापक है; कारक नहीं । कारकसाकल्यमें पाँच समवाय स्वीकृत किये गये हैं। निश्चयनयसे आचार्यांने कहा है-पर्याय स्वयं अपनी कर्ता स्वयं अपना कर्म और स्वयं अपना कार्य है। अतः कर्ता-कर्म-क्रियाके स्वतःसिद्ध होनेपर अन्य सहकारी कारण होते हैं, किन्तु कार्योत्पत्ति सहज स्वभावसे ही होती है। अतः पर्याय अपने क्रमसे अपने समयपर प्रकट होती है। क्योंकि पर्याय वस्तुका अपना सहज धर्म है। यह मोतीमालाकी तरह क्रमसे प्रकट होती रहती है। श्रुतज्ञान उन सब पर्यायोंको नहीं जानता है। इससे पर्यायें अनियत कैसे हो गई ? केवलज्ञानमें प्रकट होनेवाला पर्यायक्रम यथार्थ प्रतिभासित हो रहा है तब केवलज्ञानमें ज्ञात पर्यायोंका अक्रम, माना जाये, तो केवलज्ञान अप्रामाणिक हो जायगा। और केवलज्ञानमें ज्ञात क्रमसे ही पर्यायें होती है, तो क्रमबद्ध परिणमन सिद्ध ही है। इसमें पुरुषार्थहीनता भी नहीं, क्योंकि सिद्धोंकी तरह पदार्थका मात्र ज्ञाता बन जाना सबसे बड़ा पुरुषार्थ है। मन, वचन, कायको रोकनेमें सबसे बड़ा पुरुषार्थ है। नियतनय और अनियत नयका अर्थ है गुण हमेशा अनादि अनंत, शाश्वत हैं । पर्याय क्रमशः आती है । यहाँ अस्थिर होनेको अनियत कहा है। जो पांच समवायमेंसे सिर्फ नियतिसे कार्यसिद्धि मानते हैं, उनको गोम्मटसार नियतिवादी मिथ्यादृष्टि कहा है। क्योंकि कार्य पांचों समवायकी उपस्थितिमें होता है । अतः पर्याय नियतक्रम मानना आगमसम्मत है। खानियाँ तत्त्वचर्चा दूसरा भाग शंका ६-उपादानकी कार्यरूप परणतिमें निमित्तकारण सहायक होता है या नहीं ? समाधान-निमित्तकारणको आगममें व्यवहार कारण कहा है, वह निश्चय (वास्तविक) कारण नहीं है। प्रतिशंकाअन्तरंग कारणका अर्थ द्रव्य शक्तिसे है और बहिरंग कारणका मतलब बलाधानमें सहायक होना है। जैसे मिट्टी में घड़े बननेकी शक्ति है, किन्तु कुम्हारकी सहायताके बिना घटका उत्पाद असम्भव है। दोनों कारण मिलनेपर कार्य होता है ? इसका सीधा मतलब है कि कार्यकी उत्पत्तिमें दोनों कारण सहायक हैं; अन्यथा उनमें कारण व्यपदेश करना व्यर्थ ठहरता है । कारण कहते उसे हैं जिससे कार्यकी उत्पत्ति हो । - जैसे-जीवका राग कर्मबन्ध कराता है और कर्मोदयसे रागोत्पत्ति होती है। समयसारमें भी जीवका विकार हेतु अजीव पुद्गल है, ऐसा गाथा १३ की टीकामें कहा है। प्रतिशंका २ का समाधान-उभय हेतुसे कार्य होता है और उसमें यह माना जावे कि निमित्तके अनुसार कार्य होता है, तो अन्तरंग कारण उपादानका कार्य रह जाता है ? प्रथमपक्षके अनुसार व्यवहारकारण समर्थ कारण हआ और अन्तरंग निश्चयकारण अकिंचित्कर सिद्ध होता है। आगममें सहकारी कारण सापेक्ष Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम खण्ड : ६५७ विशिष्ट पर्यायशक्तिसे युक्त द्रव्यशक्ति ही कार्यकारी मानी गई है। क्योंकि पर्याय द्रव्यमेंसे प्रकट होती है; न बाहरसे आती है और न निकलकर बाहर जाती है। परकर्तृत्वको अध्यात्ममें मिथ्योत्वका महापाप माना है। आचार्य समन्तभद्र कहते हैं; जैसी भवितव्यता होती है वैसे सब कारण मिल जाते हैं। अतः कार्य उपादानके सामर्थ्य के अनुसार होता है । यदि निमित्ताधीन कार्य हो, तो पुरुषार्थका कोई महत्त्व ही नहीं रह जाता है। प्रतिशंका ३-आप निमित्तकारणको व्यवहारकारण मानकर निमित्तकी उपस्थिति मात्र मानते हैं, और अकिंचित्कर कहकर उसकी कुछ उपयोगिता नहीं मानते हैं। कार्यको स्वपर सापेक्ष आगमवाक्यकी अवहेलना करना क्या उपयुक्त है। क्या गेहूँकी पैदावार में किसान अकिंचित्कर है और यदि अकिंचित्कर है, तो आवश्यकता ही क्या रह जाती है। फिर किसानके बिना परिश्रमके गेहूंकी उत्पत्ति हो जाना चाहिए जो कि सर्वथा असंभव है । अकेले निमित्तसे कार्य होता है, ऐसा हम भी नहीं मानते हैं किन्तु उसके बिना कार्य भी तो नहीं होता, अतः वह आवश्यक और अनिवार्य कारण है। उसके अभावमें अथवा प्रतिकूल कारणोंके मिलने पर उपादानके रहते हए कार्य नहीं होता है। उपादानमें अनंत शक्तियां हैं, उनमें से जिस शक्तिके अनुरूप निमित्त मिल जाते हैं, उस शक्तिका विकास हो जाता है । प्रतिशंका ३ का समाधान-निश्चयनय कार्यकारण एक ही द्रव्यमें घटित होते हैं। व्यवहारनय घो का घड़ा कहता है, किन्तु घड़ा घी का नहीं होता है । इसी तरह अनुकूल निमित्त की उपस्थितिमें कार्य होता है, किन्तु कार्य उपादान शक्तिसे ही होता है। उपचरित असद्भूत व्यवहारसे निमित्तको कर्ता कहा जाता है। एक द्रव्यका दूसरे पर आरोप करना ही उपचार है। जब एक द्रव्य गुण, पर्याय दूसरे द्रव्य गुण पर्यायमें प्रवेश नहीं कर सकते, तब उनमें परिणमन कैसे करा सकता है ? उपादान कारणके कार्य सन्मुख होनेपर बाह्य सामग्रीका विस्रसा या प्रयोगसे योग मिलना ही है। यदि निमित्तसे कार्य होने लगे, तो समवसरणमें सबको मुक्ति प्राप्त हो जाना चाहिये; जबकि तीर्थकरकी उपस्थितिमें ही मारीच भ्रष्ट हो गया था । पर सापेक्षका अर्थ परकर्तृत्व न होकर धर्मद्रव्यकी तरह उदासीन निमित्त मात्र है । निमित्त नामकी कोई वस्तु नहीं है, किन्तु जिसकी अनुकूल उपस्थितिमें कार्य बनता है, उसका नाम निमित्त पड़ जाता है। एक प्रतिमा किसीको सम्यरदर्शनमें निमित्त बनती है, धर्मविरोधीको द्वेषभावमें निमित्त बनती है और चोरोंको चोरी करनेमें निमित्त बन जाती है । क्यों इन तीनों कार्यों में प्रतिमाका कर्तृत्व है। शंका ७-केवली भगवानकी सर्वज्ञता निश्चयसे है या व्यवहारसे ? यदि व्यवहारसे है तो वह सत्यार्थ है या असत्यार्थ ? इस सभी शंकाओं के तीन-तीन दौर चले थे, उन सबका सार यहाँ विस्तार भयसे कहेंगे। ____ आत्मज्ञता और सर्वज्ञताका क्या रूप है ? तथा ज्ञेयोंकी अपेक्षा आरोपित सर्वज्ञता सिद्ध हुई और यदि पर की अपेक्षा सर्वज्ञता है, तो वह असद्भूत व्यवहारनयका विषयभूत सर्वज्ञता है। क्योंकि स्वभावका अन्यत्र आरोप सो उपचार है। तथा अमतिक आत्मामें मूर्तिक पदार्थ कैसे भूल सकता है। अतः यह भी बात नहीं बैठती कि पदार्थ स्वयं झलकते हैं अथवा ज्ञान ज्ञेयाकार हो जाता है । क्योंकि अमूर्तिक द्रव्योंका आकार न होनेसे उनका आकार आत्मामें कैसे झलक सकता है ? शंका ७ का समाधान-यह निर्विवाद सत्य है कि आत्माका स्वभाव स्वपर प्रकाशक है तथा अतः जो स्वभाव होता है, वह पर निरपेक्ष होता है। आत्मज्ञतामें ही सर्वज्ञता भरी है। वीतरागी परमात्मा अपने उस ज्ञान स्वरूप आत्माको जान रहे हैं, जिसमें ज्ञेय भी प्रतिबिंबित हो रहे हैं। अमूर्तिक ज्ञान मूर्तिक, अमूर्तिक सभीको जानता है । क्षयोपशम ज्ञान भी मूर्तिक, अमूर्तिक पदार्थोंको जानता है। परज्ञानको व्यवहार इसलिए Page #697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५८ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ कहा है कि अपनी तरह परको तन्मय होकर नहीं जानते हैं। परकी अपेक्षा आ जानेसे भी परज्ञानको व्यवहार कहा है। ज्ञान स्वपरप्रकाशक है। स्व और परका भेद किया, यह सद्भूत व्यवहारनय है। ४७ शक्तियोंमें सर्वज्ञत्व शक्ति भी एक आत्मशक्ति है। वह असद्भूत व्यवहारनय विषय आत्मपदार्थ वस्तु नहीं है । अत: व्यवहारनयका विषय होनेसे सर्वज्ञता असत्य नहीं है। शंका ८ - दिव्यध्वनिका केवलज्ञान अथवा केवलीकी आत्मासे कोई सम्बन्ध है या नहीं? यदि है तो कौनसा सम्बन्ध है ? वह सत्यार्थ है या असत्यार्थ ? दिव्यध्वनि प्रामाणिक है या अप्रामाणिक ? यदि प्रामाणिक है तो उसकी प्रामाणिकता स्वाश्रित है या केवली भगवान्की आत्माके सम्बन्धसे ? . आपके वचन युक्ति और शास्त्रसे अविरुद्ध हैं ऐसा कथन आगममें आता है तथा वक्ताकी प्रमाणतासे वचनोंकी प्रामाणिकता होती है। अर्थात् दिव्यध्वनिकी प्रामाणिकता केवलज्ञानीके आश्रित है; न कि स्वाश्रित । धवलमें भी कहा है-रागी, द्वेषी असत्य बोलता है, वीतरागी सत्य ही बोलता है। जिनेन्द्रका उपदेश द्रव्यश्रुत है, इत्यादि कथन आगममें भरा पड़ा है । अतः वचनों द्वारा पदार्थज्ञान पुरुष-व्यापार की अपेक्षा रखता है। शंका ८ का समाधान-दिव्यध्वनि और केवलज्ञानका निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध तो है. किन्तु उपादान-उपादेय सम्बन्ध नहीं है। दिव्यध्वनि वीतरागीकी खिरती है। अतः उसमें पुरुष प्रयत्न तो सम्भव ही नहीं है। वचन-वर्गणाका योग और भव्य जीवोंके भाग्यसे सहज ही वाणी खिरती है। आत्मा चेतन पदार्थ है और भाषा अचेतन पदार्थ है । अतः आत्मा वाणीका कर्ता कैसे हो सकता है ? उपचरित असद्भूत व्यवहारनयसे ही पुरुष वाणीका कर्ता कहा जाता है । क्योंकि भिन्न दो द्रव्योंमें उपचारसे ही कर्तृत्वका कथन होता है । दिव्यध्वनिकी प्रामाणिकता अपने उपादानकी अपेक्षा स्वाश्रित है। निमित्तकी अपेक्षा पराश्रित कही गई है। सत्यभाषाका उपादान सत्यभाषा वर्गणा है। अनुभय भाषाका उपादान अनुभय भाषा वर्गणा है। कार्य के प्रति निमित्त और उपादानकी समव्याप्ति होती है। दिव्यध्वनिको ज्ञानका कार्य कहना निमित्त कथन है । प्रत्येक द्रव्यका परिणमन स्वतंत्र होनेसे वाणी अपनी योग्यतासे अपने स्वकालमें स्वयं खिरती है। वाणी वैनसिक और प्रायोगिक दो रूपोंमें प्रयुक्त होती है। उसे प्रायोगिक कहना यह भी निमित्त कथन है। निमित्त प्रधान कथन तो होता है, किन्तु कार्य उपादानकी अपनी योग्यतासे होता है। शंका ९-सांसारिक जीव बद्ध है या मुक्त ? यदि बद्ध हैं तो किससे बँधा हुआ है और किसीसे बँधा हुआ होनेसे परतंत्र है या नहीं ? यदि वह बद्ध है, तो उसके बन्धनोंसे छूटनेका उपाय क्या है ? क्योंकि आगममें स्पष्ट कहा है-जब आत्मा मन वचन कायकी क्रिया करता है तब कर्मोंसे बँध ही जाता है। और इस बंधके कारण दर्शन, ज्ञान, चारित्र विकृत होकर मिथ्यात्व अज्ञान असंयम रूप प्रवृत्ति करते हैं । कर्मोंके अभावसे यह जीव मुक्त हो जाता है। अतः कर्मबद्ध होकर जीव संसारमें परिभ्रमण कर रहा है और कर्मोसे छटकर मुक्त हो जाता है। आगममें यह भी कहा है-जब कर्म बलवान होता है, तो जीव दुखी हो जाता है और जब जीव बलवान होता है तो सुखी हो जाता है। यह भी कहा गया है कि कर्म जीवको प्रेरित करता है और जीव कर्मको प्रेरित करता है। इसीलिए ज्ञानावरणी कर्म ज्ञान को रोकता है आदि आगम स्पष्ट कह रहा है कि जीव कर्मोंसे बँधा है। और कर्मोदयके कारण ही सुखी दुखी होकर संसार परिभ्रमण कर रहा है। समाधान-अशुद्ध निश्चयनयसे जीव रागादि भावोंसे विकारी हैं। असद्भत व्यवहारनयमें कर्मोसे बद्ध कहा जाता है। यह सब उपचारसे पर्यायका कथन किया है। निश्चयनय या द्रव्य स्वभावसे तो जीव अबद्ध-अस्पष्ट अखण्ड एवं त्रिकाल शुद्ध है जैसा कि समयसार आदि अध्यात्म ग्रन्थोंमें कहा गया है । कर्म और Page #698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम खण्ड : ६५९ विकारका निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध तो है, किन्तु कर्ता-कर्म सम्बन्ध बिलकूल नहीं है। विकार उत्पन्न, नाश होता है, अतः वह विकारी पर्याय है। द्रव्य स्वभावमें रागादिका भी प्रवेश नहीं, तब कर्मादिका प्रवेश तो असम्भव ही है । क्योंकि सभी द्रव्य अपने-अपने चतुष्टयको छोड़कर परद्रव्यमें प्रवेश नहीं करते हैं । अपने ही चतुष्टयमें रहते हैं। कर्म विकार भी नहीं कराता है, जीव अपनी कमजोरीसे स्वयं कर्मादिके उदयानुसार पर पदार्थोंमें तन्मय होकर विकार करता है। कर्म घुमाता है, यह उपचार कथन है। यदि घुमाता हो तो कोई जीव संसारसे छूट ही नहीं सकता है । संसार भ्रमण और सुख-दुःखका मूल कारण तो अज्ञानता है । कहा भी है"मैं भ्रम्यो अपनपो विसरि आप, अपनाये बहुविध पुण्य पाप ।' शंका १०-जीव तथा पुद्गलका एवं द्वयणक आदि स्कन्धोंका बंध वास्तविक है या अवास्तविक ? यदि अवास्तविक है, तो केवली उसे जानते हैं या नहीं? ... समाधान-प्रश्नोत्तर ९ की तरह जोव और पुद्गलका या स्कंधोंका व्यवहारसे बंध कहा जाता है। निश्चयदृष्टिसे प्रत्येक द्रव्य व प्रत्येक परमाणु अपने द्रव्य स्वभावको कभी नहीं छोड़ता है । अतः स्वतंत्र एवं अबंध स्वरूप ही है । एक द्रव्य दूसरे द्रव्य, एक गुण दूसरे गुण रूप परिणमन नहीं करता अतः द्रव्यस्वभाव अबंध स्वरूप ही है। शंका ११-परिणमनमें स्वप्रत्यय और स्वपर प्रत्यय दो भेद हैं, उनमें वास्तविक अन्तर क्या है ? समाधान-समस्त द्रव्योंकी अगुरुलघु गुण षड्गुण हानि वृद्धि परिणमनस्वभाव पर्याय या स्वप्रत्यय है, पर निमित्त पूर्वक जो पर्याय होती है; वह स्वपर प्रत्यय परिणमन है । पर निमित्तकी उपस्थितिमें होनेवाली पर्यायको स्वपर प्रत्यय परिणमन कहते हैं। परिणमनको पर प्रत्यय कहना उपचार कथन है। क्योंकि अन्यत्र प्रसिद्ध धर्मका अन्यत्र समारोप करना, असद्भूत व्यवहारनय या उपचार है । __ शंका १२--कुगुरु, कुदेव, कुशास्त्रकी श्रद्धाके समान सुदेव, सुशास्त्र और सुगुरुकी श्रद्धा भी मिथ्यात्व है, क्या ऐसा मानना या कहना शास्त्रोक्त है ? समाधान-कुगुरु आदि श्रद्धान गृहीत मिथ्यात्व है और सुगुरु आदि श्रद्धान व्यवहार सम्यग्दर्शन है। सम्यग्दृष्टिके सच्चे देव, शास्त्र, गुरुकी श्रद्धा होती ही है । शंका १३-पुण्यका फल जब अरहंत तक होना कहा गया है जिससे यह आत्मा तीन लोकका से सर्वातिशायी पुण्य बतलाया है ।ऐसे पुण्यको हीनोपमा देकर त्याज्य कहना और मानना क्या शास्त्रोक्त है ? समाधान-उपदेश प्रयोजन और आवश्यक हितकी दृष्टिसे दिया जाता है । जहाँ मोक्षमार्ग और सम्यग्दर्शन प्राप्त करनेके लिए सात तत्त्वोंका यथार्थ श्रद्धान करनेका उपदेश है, वहाँ सभी प्रकारके पुण्यको आस्रवमें ही गिनाया है । तथा आस्रवसे बंध और बंधसे संसार होता है, ऐसा जिनागममें कहा गया है । किन्तु नरकादि अधोगतिके कारण पापसे बचनेके लिए पुण्य करनेका उपदेश भी जिनागममें बहुलतासे दिया गया है । आस्रव तत्त्वको आस्रव स्वीकार करना, यही उपदेश तो दिया गया है। उसको संवर, निर्जरा तत्त्व या मोक्षमार्ग मत मातो, इसी मान्यताको छुड़ानेका नाम हेय है। पुण्य नहीं छुड़ाया है, उसको धर्म माननेकी गलत मान्यता छुड़ाई है । कोई भी पुण्य हो, वह आस्रव तत्त्व है। आस्रव तत्त्व राग भाव होने से उसे राग भाव ही मानो, वीतराग भाव मत मानो । तत्त्वनिर्णय कराने के लिए जिनागममें ऐसा ही उपदेश है। पुण्यको जहाँ Page #699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६० : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थं कहीं मोक्षमार्ग या धर्म भी कहा गया है, यह उपचरित कथन ही है। निश्चयसे वह शुभरागभाव है। वीतराग भाव नहीं है । पुण्यपाप रहित भाव ही वीतरागभाव है । शंका १४ – पुष्य अपनी चरम सीमाको पहुँचकर अथवा आत्मा - स्वतः छूट जाता है या उसको छुड़ाने के लिए किसी उपदेश या प्रयत्न की जरूरत होती है ? समाधान -- इसका समाधान भी १३वीं शंकाके समाधानमें दिया गया है कि पहले पुण्यकी गलत मान्यता छुड़ाई जाती है फिर जैसे-जैसे शुद्ध परणति बढ़ती जाती है, वैसे-वैसे ही पुण्य भाव छूटता जाता है । शुद्धस्वभाव रूप परिणत होनेपर शंका १५ - जब अभाव चतुष्टय वस्तु स्वरूप है, ता वे कार्य व कारण रूप क्यों नहीं माने जा सकते ? तदनुसार घातिया कर्मोंका ध्वंस केवलज्ञानको क्यों उत्पन्न नहीं करता ? तत्त्वार्थसूत्रमें चार घातियाके अभावसे केवलज्ञानकी प्राप्ति स्वीकार की गई है। समाधान - अभाव चतुष्टयको जिनागममें भावान्तर स्वभाव स्वीकार किया गया है, किन्तु घातिया कर्मोंके अभावसे केवलज्ञानकी प्राप्ति होती है, यह उपचार कथन है । कर्म पुद्गल हैं, उनके अभावसे चेतनको लाभ हो, ऐसा वस्तुका स्वभाव नहीं । हाँ अज्ञानके अभावसे पूर्णज्ञान प्रगट हुआ है, उस अज्ञानमें ज्ञानावरणी कर्म निमित्त थे, अतः निमित्तके अभाव में नैमित्तिक भावोंके अभावसे केवलज्ञान प्रकट हुआ है । पूर्वकी अज्ञान पर्यायका नाश, ज्ञान के पूर्ण विकास ये दोनों एक समय में हुए हैं । यथार्थ बात यह है कि ज्ञानकी परिणति जैसे-जैसे स्वभावमें स्थिर होती जाती है, तसे तसे ज्ञानका विकास होता हुआ वह पूर्णताको प्राप्त हुआ है । उसी समय अज्ञान भी क्रमशः नष्ट होकर पूर्ण विलयको प्राप्त हो जाता है । जैसे सूर्यका प्रकाश होनेपर अन्धकार भाग जाता है, अन्धकार स्वतः नहीं भागता है, उस समय कर्म भी नाशको प्राप्त हो जाता है । केवलज्ञान अपने पुरुषार्थसे उत्पन्न हुआ है; न कि कमकी कृपासे । शंका १६ – निश्चय और व्यवहार नयका स्वरूप क्या है ? व्यवहारनयका विषय असत्य है क्या ? असत्य है तो अभावात्मक है या मिथ्यारूप है ? समाधान – जैन शासन में दो नयोंसे वस्तु स्वरूपका निर्णय किया जाता है। उसमें वस्तुका त्रिकाल स्वभाव क्या है इसका निर्णय निश्चयसे होता है तथा गुणभेद या विविध अवस्थाओंका निर्णय व्यवहार नयसे होता है । अतः ज्ञान दोनों नयोंका करना अत्यन्त आवश्यक है, क्योंकि यदि निश्चयनयका ज्ञान नहीं होगा, तो व्यवहारनयकी विषयभूत शुद्धाशुद्ध पर्यायोंको ही अपना स्वरूप मानकर पर्यायबुद्धि जो कि अनादि कालसे लगी हुई है, उसीमें तन्मय होकर मिथ्यादृष्टि ही बना रहेगा और यदि व्यवहारनयकी विषयभूत अपनी वर्तमान पर्यायके अपराधका ज्ञान नहीं करेगा, तो फिर कभी अपराध दूर करनेका भी प्रयत्न नहीं करेगा । किन्तु व्यवहार नयकी विषयभूत वर्तमान पर्याय आत्माका असली स्वभाव नहीं है । एवं विकारका आश्रय करने से विकार नष्ट नहीं होता है, किन्तु विकार रहित आत्मस्वभावका श्रद्धान ज्ञान आचरण करनेसे विकार नष्ट होता है। अतः निश्चयनयका विषय त्रिकाली स्वभावको उपादेय कहा है। तथा व्यवहारका विषय गुणभेद या पर्यायभेद अनुभव अवस्थामें छूट जाता है, अतः व्यवहारनयको हेय कहा है। क्योंकि रागादि आत्माका स्वभाव नहीं है । अतः व्यवहार शान करने योग्य है, किन्तु आश्रय करने योग्य नहीं है। इसीसे उसे हेम कहा है । जहाँ भी निश्चय धर्म और व्यवहारधर्म इस प्रकार दो भेद किये हैं, वहाँ वीतरागताको निश्चयधर्म और उसके साथ चलने वाले शुभभावको व्यवहार धर्म कहा है। इनमें से यथार्थ धर्म तो वीतरागता ही है, सहचर होनेसे शुभरागको आरोपित धर्म कहा जाता है । Page #700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम खण्ड : ६६१ शंका १७ – उपचारका लक्षण क्या है ? निमित्त कारण और व्यवहारनयमें यदि क्रमशः कारणता और नयत्वका उपचार है, तो इनमें उपचार लक्षण घटित कीजिए । समाधान - परके संबंघसे जो व्यवहार किया जाता है उसे उपचार कहते हैं, जैसे मिट्टी के घड़ेको घीका घड़ा कहना उपचार है । या जीवको वर्णादिवान कहना उपचार कथन 1 वस्तुके भिन्न कर्ता - कर्मादि बतलाना व्यवहार या उपचार है, किन्तु अभिन्न कर्ता-कर्म बतलाना निश्चय है । उपचार में भी कारण शब्दका प्रयोग इसलिए किया है कि निमित्त और उपचार से साथ कार्यकी बाह्य व्याप्ति है । निमित्तसे कथन होता है । कार्य निमित्तकी उपस्थितिमें उपादानसे होता है । जैसे सम्पत्ति आदिकी प्राप्ति अपने भाग्यसे होती है, उसमें सहयोगी निमित्त बन जाते हैं । अतः व्यवहार इसलिए अभूतार्थ कहा जाता कि जैसा वह कहता है, वस्तुका वह असली स्वरूप नहीं हैं और निश्चय इसलिए भूतार्थ कहा जाता है क्योंकि उसका विषय ही वस्तुका असली स्वरूप है । इस प्रकार खानिया चर्चाके अध्ययन मननसे ज्ञात होता है, जितने भी कुछ तथ्य विवादास्पद बना दिये गये । यदि मध्यस्थ होकर शान्तिसे उनका निर्णय करें तो सभी विवाद सुलझ सकते हैं । पूज्य आचार्य श्री शिवसागर महाराजने इसीलिए इस तत्वचर्चाके आयोजन करनेकी प्रेरणा दी थी। इस तत्त्वचर्चा में आदरणीय पण्डित फूलचन्द्र जी सिद्धान्तशास्त्रीकी चारों अनुयोगोंके अधिकार पूर्ण विद्वत्ताका परिचय मिल जाता है । ऐसे विद्वान् कम ही देखनेको मिलते हैं, जिनका चारों अनुयोगोंका इतना सुलझा हुआ सुस्पष्ट अगाध ज्ञान हो । तत्त्वज्ञानका यथार्थज्ञान प्राप्त करनेके लिए जिज्ञासु बंधुओंको खानिया तत्त्वचर्चाका अध्ययन-मनन अवश्य ही करना चाहिए । लब्धिसार-क्षपणासार : एक अनुशीलन पं० नरेन्द्रकुमार भिसीकर, शोलापुर चार अनुयोगोंके रूपमें उपलब्ध जिनागममें आत्म-तत्त्व और उसकी विशुद्धिका ही मुख्यता से वर्णन किया गया है । करणानुयोगका मूलसार लेकर "लब्धिसार" में सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र तथा उसकी उत्पत्तिके फलका सांगोपांग विवेचन किया गया है । औपशमिक, क्षायोपशमिक और क्षायिक तीनों प्रकारके सम्यग्दर्शनोंमें आत्मविशुद्धि ही मुख्य है । यथार्थमें सम्यग्दर्शन के तीन भेद निमित्तकी अपेक्षा वर्णित किए गये हैं । उक्त ग्रन्थमें आत्मा के दर्शन और चारित्र गुण रूप शक्तियोंके प्रकट होनेकी योग्यता रूप लब्धिका विशद विवेचन किया गया है । इसलिये इसका नाम “लब्धिसार" सार्थक है । मुख्य रूप से दर्शनलब्धि और चारित्रलब्धिका स्वरूप और उनके भेदोंका तथा उनकी कारण सामग्रीका वर्णन छह अधिकारोंमें किया गया है । अधिकारोंका विभाजन इस प्रकार किया गया है : ( १ ) प्रथमोपशम सम्यक्त्व लब्धि, (२) क्षायिक सम्यक्त्व लब्धि, (२) देशसंयम लब्धि, (४) सकलसंयम लब्धि, (५) औपशमिक चारित्र लब्धि, (६) क्षायिक चारित्र लब्धि | Page #701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६२ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ उक्त सम्पूर्ण विवेचन “कषायप्राभृत" (कसायपाहुड) की टीका जयधवलाके पन्द्रह अधिकारों में से पश्चिमस्कन्ध नामके पन्द्रहवें अधिकारके अनुसार किया गया है। यथार्थमें महान् सिद्धान्त ग्रन्थके आधार पर ही इसकी रचना हुई। क्योंकि षट्खण्डागम जीवस्थानको छोड़कर शेष पाँच खण्डोंकी आधारभूत वस्तु "महाकम्मपयडिपाहड" है । जीवस्थानकी सामग्री अन्य मूल अंगपूर्वकी है । अतः आगमके अनुसार इनमें तत्त्वप्ररूपणा । “पटखण्डागम" और "कषायप्राभत" मल आगम साहित्य है। "लब्धिसार"की संस्कृत टीकासे स्पष्ट हो जाता है कि रचनाकार ने मूल आगमके अनुसार ही विषयको रचनाबद्ध किया है । दिगम्बर जैन वाङ्मय में आगम-साहित्य गुरु-परम्परासे क्रमिक वाचनाके रूपमें उपलब्ध होता है । “महाक म्मपयडिपाहुड" में आठ कर्मोके विवेचनकी प्ररूपणा तथा "पेज्जदोसपाहुड में केवल मोहनीय कर्मकी विशद प्ररूपणा उपलब्ध होती है । इनके अतिरिक्त आचार्य यतिवृषभ रचित "कसायपाहुड'की सूत्र-गाथाओं पर चूर्णिसूत्रोंकी रचना भी समपलब्ध है। आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तीने इन तीनों सिद्धान्ध-ग्रन्थोंके आधार पर तीन रचनाएं निबद्ध की, जिनके नाम है-गोम्मटसार, लब्धिसार और त्रिलोकसार । "क्षपणासार" कोई स्वतन्त्र रचना नहीं है। इसका अन्तर्भाव 'लब्धिसार" में ही हो जाता है। क्षपणासार-गर्भित "लब्धिसार'की रचना ६५३ गाथाओं में निबद्ध है। इस ग्रन्थके सम्यक् अनुशीलनसे यह तथ्य स्पष्ट हो जाता है कि आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तीने साठ सहन इलोकप्रमाण "जयधवला" टीकाका सार ग्रहण कर ६५३ गाथाओंमें संकलित कर दिया। आचार्यप्रवरकी यह महती विशेषता है कि उन्होंने गागरमें सागर भर दिया। "जयधवला"का कोई भी विषय इस ग्रन्थमें निबद्ध होने से छूटा नहीं है। पण्डितप्रवर टोडरमलजीने स्पष्ट रूपसे उल्लेख किया है कि इस ग्रन्थका प्रकाश धवलादि शास्त्रोंके अनुसार किया गया है। इस ग्रन्थका महत्त्व इससे भी स्पष्ट है कि इस पर संस्कृत टीकाएं लिखी गई । केशववर्णीकी संस्कृत टीका प्रसिद्ध है । “लब्धिसार"के छह अधिकारोंमें से पांचवें चारित्रमोहनीय उपशमना अधिकार तक संस्कृत टीका पाई जाती है। कर्म-क्षपणाके अधिकारकी गाथाओंका विशदीकरण माधवचन्द्र विद्यदेवके संस्कृत गद्यरूप "क्षपणासार"के अभिप्रायके अनुसार इस ग्रन्थमें सम्मिलित किया गया है । इसलिये इस ग्रन्थका नाम लब्धिसार-क्षपणासार रखा गया है। सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका टीका संस्कृत टीकाओं की भाँति आचार्यकल्प पण्डितप्रवर टोडरमलजी कृत "सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका" मूल आगमानुसारिणी विशद तथा सुबोध टीका है । इस टीका का अध्ययन करनेसे पण्डितप्रवर के तलस्पर्शी ज्ञानका सहज ही अनुमान हो जाता है। सिद्धान्तशास्त्री पं० फूलचन्द्रजीके शब्दोंमें "पण्डितजीने अपनी टीकामें जितना कुछ लिपिबद्ध किया है, उसे यदि हम उक्त संस्कृत वृत्तियों और "क्षपणासार''का मूलानुगामी अनुवाद कहें, तो भी कोई अत्युक्ति नहीं होगी। इतना अवश्य है कि जहां आवश्यक समझा वहाँ भावार्थ आदि द्वारा उन्होंने उसे विशद अवश्य किया है । "इसमें कोई सन्देह नहीं है कि वर्तमान में यदि “सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका" टीका न होती, तो करणानुयोगका दुरूह विषय विद्वानोंकी समझके भी बाहर रहता। पण्डितप्रवर टोडरमलजीकी ही दर्गम घाटीमें प्रवेश कर अध्यात्मके आलोकका प्रकाश किया, जिसे भावी पीढ़ियां सतत मार्ग-दर्शनके रूपमें 'सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका'को स्मरण करती रहेंगी। जो महान् कार्य श्रीमन्नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तीने गाथाओंमें 'लब्धिसार'की रचनाको प्रकाशित कर किया, वही कार्य आचार्यकल्प पण्डित टोडरमलजीने देशी भाषा वच निकाके माध्यम से किया । यदि पण्डितजीने यह टोका न लिखी होती, तो बीसवीं शताब्दीके विद्वान् करणानुयोगके गहन-गम्भीर पारावारमें प्रवेश नहीं कर पाते । आधुनिक युगमें विद्वानोंके गुरुओंके भी गुरु पण्डितप्रवर गोपालदासजी बरैयासे Page #702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम खण्ड : ६६३ लेकर आज भी यत्र-तत्र दृष्टिगोचर होने वाले विद्वान् करणानुयोगका रहस्य समझने वाले अवश्य ही "सम्यग्ज्ञान चन्द्रिका” से उपकृत हुए हैं। पंडितप्रवर टोडरमल जीकी इस टीकाकी यह विशेषता है कि मूल भावको सुरक्षित रख कर वह गाथाके अर्थ, भावार्थ आदिको स्पष्ट करनेवाली प्राचीन पद्धतिका अनुकरण नहीं करती, किन्तु नवीन शैली में भावोंके परतोंको सरल शब्दों में न कम और न अधिक पदोंकी रचना कर मूल विषयको व्यवस्थित क्रमसे स्पष्ट करते हुए आगे बढ़ते हैं । यही कारण है कि "लब्धिसार" की वचनिकामें जहाँ-कहीं संस्कृतवृत्तिकी छाया लक्षित होती है, वहीं कोई भी ऐसा स्थल नहीं है जहाँ अर्थ संदृष्टि या बीजगणितीय पद्धतिका अनुगमन किया गया हो । सर्वत्र अपनी बोलचालकी भाषामें भावोंको स्पष्ट किया गया है । सन् १९८० में श्री परमश्रुत प्रभावक मण्डल, श्रीमद्राजचन्द्र आश्रम, अगाससे पं० फूलचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्री द्वारा सम्पादित लब्धिसार ( क्षपणासारगर्भित ) की पण्डितप्रवर टोडरमलजी कृत “सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका" भाषा टीका सहित प्रकाशित हुई है। इस टीकाको सर्वप्रथम देखकर मुझे यह कुतूहल हुआ कि सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका टीकाके उपरान्त पं० फुलचन्द्रजीके सम्पादनकी इसमें क्या विशेषता है ? क्योंकि पण्डितप्रवर टोडरमलजीकी विशेषता तो उनकी प्रस्तावना पढ़ते ही स्पष्ट हो जाती है । वे कहते हैं - " शक्तिका अविभाग अंशताका नाम अविभागप्रतिच्छेद है । बहुरि तिनके समूह करि युक्त जो एक परमाणुताका नाम वर्ग है । बहुरि समान अविभागप्रतिच्छेद युक्त जे वर्ग तिनके समूहका नाम वर्गणा है । तहाँ स्तोक अनुभाग युक्त परमाणुका नाम जघन्य वर्ग है । तिनके समूहका नाम जघन्य वर्गणा है ।" इसी प्रकार - च्या गति वाला अनादि वा सादि मिध्यादृष्टि सज्ञी पर्याप्त गर्भज मन्द कषायरूप जो विशुद्धता ताका धारक, गुण-दोष विचार रूप जो साकार ज्ञानोपयोग ता करि संयुक्त जो जीव सोई पाँचवीं करणलब्धि विषै उत्कृष्ट जो अनिवृत्तिकरण ताका अन्त समय विषै प्रथमोपशम सम्यक्त्वको ग्रहण करें । इहाँ ऐसा जाननापण्डितप्रवर टोडरमलजी इसे विशद करते हुए कहते हैं " जो मिथ्यादृष्टि गुणस्थानते छूटि उपशम सम्यक्त्व होइ ताका नाम उपशम सम्यक्त्व है । बहुरि उपशमश्रेणी चढ़ता क्षयोपशम सम्यक्त्व तैं जो उपशम सम्यक्त्व ताका नाम द्वितीयोपशम सम्यक्त्व है, तातैं मिथ्यादृष्टिका ग्रहण किया है । बहुरि सो प्रथमोशम सम्यक्त्व तिर्यंच गति विषै असंज्ञी जीव हैं तिनकैं न हो है । अर मनुष्य तियंचविषै लब्धि- अपर्याप्तक अर सम्मूर्छन है तिनकैं न हो है । बहुरि च्यारयो गति विषै संक्लेशता करि युक्त जीवकै न हो है । बहुरि अनाकार दर्शनोपयोगका धारीकै न हो हैं, जातैं तहाँ तत्त्वविचार न संभव है । बहुरि आगे तीन निद्रा उदयका अभाव कहेंगे, यातें सूता जीव के न हो है, तातें अभव्यकें न हो है। ए भी विशेषण इहां संभव हैं ॥१२॥ " सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका" के इस विवेचनका अधिक स्पष्टीकरण करनेके निमित्त सिद्धान्तशास्त्री पंडित फूलचन्द्रजी ने अनेक स्थलों पर "विशेष" तथा टिप्पणीके रूपमें हिन्दी भाषामें टीकाकी है । उक्त स्थल पर वे लिखते हैं- “विशेष—यहाँ मुख्य रूपसे तीन बातोंका स्पष्टीकरण करना है - ( १ ) जिस अनादि मिथ्यादृष्टि भव्य जीवका संसार में रहनेका काल अधिक-से-अधिक अर्द्ध पुद्गल परिवर्तनप्रमाण शेष रहता है, वह उक्त कालके प्रथम समय में प्रथमोपशम सम्यक्त्वके योग्य अन्य सामग्री के सद्भावमें उसे ग्रहण कर सकता । उस समय उसे प्रथमोपशम सम्यक्त्वको प्राप्ति नियमसे होती है, ऐसा कोई नियम नहीं है । मुक्त होनेके पूर्व इस कालके मध्यमें कभी भी वह प्रथमोपशम सम्यक्त्वको प्राप्त करता है । प्रथमोपशम सम्यक्त्वके छूटनेपर सादि मिथ्यादृष्टि जीव पुनः पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण कालके जानेपर ही उसे प्राप्त करनेके योग्य होता है, इसके Page #703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६४ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ पूर्व नहीं । (:) संस्कृत टीकामें 'शुद्ध' पदका शुभ लेश्यारूप अर्थ किया है। किन्तु नरकगतिमें शुभ लेश्याओंकी प्राप्ति सम्भव नहीं है । जीवस्थान-चलिकामें 'विशुद्ध' पदके स्थानमें 'सर्वविशुद्ध' पद आया है । वहाँ इस पदका अर्थ 'जो जीव अधःप्रवृत्तकरण आदि तीन करण करनेके सन्मुख है' यह जीव लिया गया है । प्रकृतमें 'विशुद्ध' पदका यही अर्थ ग्रहण करना चाहिए। (३) यहाँ गाथामें अनिवृत्तिकरणके अन्तिम समयमें यह जीव प्रथमोपशम सम्यक्त्वको प्राप्त करता है, ऐसा कहा गया है सो उसका आशय यह लेना चाहिए कि अनिवृत्तिकरणके अन्तिम समयके व्यतीत होनेपर अगले समयमें यह जीव प्रथमोपशम सम्यक्त्वको प्राप्त करता है। शेष कथन सुगम है।" इसी प्रकार पण्डितप्रवर टोडरमलजीने स्थितिबन्धापसरणके कालका मूल गाथाके अनुसार यही अर्थ किया-"बहरि स्थितिबन्धापसरण काल अर स्थितिकाण्डोत्करण काल ए दोऊ समान अन्तम हर्त मात्र हैं।" इसे समझानेके लिए पं० फलचन्द्रजी लिखते हैं-"विशेष-करण परिणामोंके कारण उत्तरोत्तर विशुद्धिमें वृद्धि होते जानेके कारण अपूर्वकरणसे लेकर जिस प्रकार एक-एक अन्तर्महर्त कालके भीतर एक-एक स्थितिकाण्डकका उत्कीरण नियमसे होने लगता है, उसी प्रकार उत्तरोत्तर स्थितिबन्धमें भी अपसरण होने लगता है । इन दोनोंका काल समान अन्तर्महर्त प्रमाण है। उसमें भी प्रथम स्थितिकाण्डकघात और प्रथम स्थितिबन्धापसरणमें जितना काल लगता है, उससे दूसरे आदि स्थितिकाण्डकघात और स्थितिबन्धापसरणोंमें उत्तरोत्तर विशेष हीन काल लगता है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि स्थितिकाण्डकघात और स्थितिबन्धापसरणोंका एक साथ प्रारम्भ होता है और एक साथ समाप्ति होती है। प्रकृतमें उपयोगी विशेष व्याख्यान टीकामें किया ही है।" पं० फूलचन्द्रजीने विशेष टिप्पणोंमें जो खुलासा किया है, उससे उनके करणानुयोग विषयक विशिष्ट ज्ञान तथा जयधवलादि ग्रन्थोंका यथावसर प्रामाणिक उपयोग भलीभाँति लक्षित होता है। स्वयं पंडितजीने स्थान-स्थान पर तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया है । प्रस्तावनामें वे स्वयं लिखते हैं-"इस प्रकार लब्धिसारकी संस्कृत टीकामें जहाँ यह नियम किया गया है कि तिथंच और मनुष्य प्रथमोपशम सम्यक्त्वका प्रारम्भ पीतलेश्याके जघन्य अंशमें ही करता है, वहीं 'जयधवला' में 'जहण्णए तेउलेस्साए' पदका यह स्पष्टीकरण किया गया है कि तिर्यंच और मनुष्य यदि अतिमन्द विशुद्धि वाला हो तो भी उसके कम-से-कम जघन्य पीतलेश्या ही होगी। इससे नीचेकी अशुभ लेश्या नहीं होगी। तात्पर्य यह है कि प्रथमोपशम सम्यक्त्वका प्रारम्भ करनेवाले तिर्यंच और मनुष्यके कृष्ण, नील और कापोतलेश्या नहीं होती।" इतना ही नहीं, स्वयं पण्डितजीने अपने सम्पादनके सम्बन्धमें 'प्राक्कथन' में स्पष्ट किया है-"मुझे सूचित किया गया था कि संस्कृत वृत्ति और सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका टीका सहित ही इसका सम्पादन होना है। आप जहाँ भी आवश्यक समझें, मूल विषयको स्पष्ट करते जायें और श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तीने किस मूल सिद्धान्त ग्रन्थके आधारसे इसकी संकलना की है, उसे भी अपनी टिप्पणियों द्वारा स्पष्ट करते जायें। यह मेरी उक्त ग्रन्थके सम्पादनकी रूपरेखा है। अतः मैंने उक्त ग्रन्थके सम्पादनमें इस मर्यादाका पूरा ध्यान रखकर ही इसका सम्पादन किया है।" निश्चित ही पण्डितजीने अपनी मर्यादाका पालन कर ऐसे सुन्दर विशेष टिप्पण लिखे हैं कि उनके आधार पर एक स्वतंत्र ग्रंथ बन सकता है। कहीं-कहीं पर ये 'विशेष' एकसे अधिक पृष्ठोंके मुद्रित रूपमें हैं। जैसेकि पृ० ३२-३३, ४०, ४९-५०, ९५, ९९-१००, १३५-३६, ३७, ३८, १४०-४१, १५६-५७, १६०६१, १६३-६४, १७५-७६, २०५, २०७, २११-१२, २१८-१५, २६१, २७१-७२-७३, ३४९-५०, ३८२८३, ३८५-८६-८७, ४०४-५, ४४३.४४, ४७६-७७, इत्यादि द्रष्टव्य है । कहीं-कहीं पण्डितप्रवर टोडरमल Page #704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम खण्ड : ६६५ जीकी टीका विशद तथा लम्बी है। विषय को अत्यन्त स्पष्टताके साथ प्रस्तुत किया गया। जहाँ-कहीं अधिक स्पष्टता आवश्यक प्रतीत हुई है अथवा संकेत मात्र मिले हैं, वहीं विशदीकरण किया गया है । उदाहरणके लिए पं० टोडरमलजी लिखते हैं-इन अठाईस गाथानिका अर्थ रूप व्याख्यान क्षपणासार विष नाहीं लिख्या । इहाँ मोकुं प्रतिभास्या तैसे लिख्या है।' पं० फूलचन्द्रजी इसपर विशेष लिखते हुए कहते हैं-'इसका चूर्णिसूत्रों और जयधवला टीका द्वारा इस प्रकार स्पष्टीकरण किया है-विवक्षित समयमें प्रदेशोदय अल्प होता है। अनन्तर समयमें असंख्यातगुणा होता है। इसी प्रकार सर्वत्र जानना चाहिए । 'द्रव्यका संक्रम होता है, ऐसा यहाँ समझना चाहिए।' ये जो करणानयोगको समझने के लिए स्थान-स्थानपर पण्डितजीने सूत्र (कुंजी) दिए हैं. वे वास्तवमें अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। उसको ध्यानमें लिए बिना स्वाध्यायी शास्त्र समझ नहीं सकते हैं । यह अवश्य है कि कहीं-कहीं विस्तारके भयसे तथा एक ही स्थानपर विशद वर्णन होनेसे पण्डितजीने यह कहकर छोड़ दिया है कि इस बातोंका खुलासा अमुक ग्रन्थमें किया गया है। उनके ही शब्दोंमें 'इसके अन्तमें कार्यविशेष आदिको सूचित करने वाली चार गाथाओंमें निर्दिष्ट सभी बातोंका खुलासा 'जयधवला' पु० २१४-२२२ में किया ही है सो उसे वहाँसे जान लेना चाहिये । यहाँ मुख्यतया उपशमश्रेणिमें होनेवाले उपयोग और वेदके विषयमें विचार करना है। 'जयधवला' में उपयोगके प्रसंगसे दो उपदेशोंका निर्देश किया गया है। वास्तवमें प्रकरणके अनुसार जहाँ जितना आवश्यक है, वहाँ उतना ही स्पष्टीकरण, निर्देश तथा संकेत पण्डितजीने किया है। जिनागमके अपने अध्ययनका पूरा-पूरा उपयोग पण्डितजीने इस टीकामें किया है। अनेक स्थलोंपर जिस अर्थमें शब्दका प्रयोग हुआ है, उसका प्रामाणिक रूपसे उल्लेख किया गया है । अर्थका स्पष्टीकरण करते समय पण्डितजीने जयधवलादि मूल आगम ग्रन्थों, चणिसूत्रों, संस्कृत टीका तथा सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका टीकाको सभी स्थलोंपर अपने सामने रखा है। इस प्रकारका तुलनात्मक अध्ययन करनेवाले बहुत विरल है । यही इस टीकाकी महान् उपलब्धि है । गाथा ४३५ का विशेष लिखते हुए पण्डितजी स्पष्ट करते हैं। उनके ही शब्दोंमें 'प्रकुतम हिन्दो टीकाकार पण्डितप्रवर टोडरमलजी सा० ने पर्याप्त प्रकाश डाल ही दिया है। यहाँ इतना बतला देना आवश्यक प्रतीत होता है कि बन्धकी अपेक्षा तीनों वेदोंमेंसे यहाँ एक पुरुषवेदका ही बन्ध होता है, किन्तु जो जिस वेदके उदयसे क्षपक श्रेणी चढता है. मात्र उसीका उदय रहता है। इसलिये परुषवेदके उदयसे श्रेणीपर चढ़े हए जीवके पुरुषवेदकी अपेक्षा बन्ध और उदय दोनों पाये जाते हैं। हाँ, अन्य दोनों वेदोंमेंसे किसी भी वेदकी अपेक्षा श्रेणी पर चढ़े हुए जीवके पुरुषवेदका मात्र बन्ध हो पाया जाता है। इसी प्रकार यथासम्भव चारों संज्वलन कषायोंकी अपेक्षा भी विचार कर लेना चाहिए । उक्त कषायोंमेंसे किसी भी कषायके उदयसे श्रेणि-आरोहण करे, तो भी यथास्थान बन्ध चारोंका होता है। इस प्रकार इन सब व्यवस्थाओंको ध्यानमें रखकर यहाँ अन्तरकरण सम्बन्धी अन्य व्यवस्थाएँ घटित कर लेनी चाहिए। विशेष स्पष्टीकरण हिन्दी टीकामें किया ही है ।' इस प्रकार पण्डितजीने 'सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका के भावको स्थान-स्थानपर खोल कर स्पष्ट किया है। जहाँ-कहीं पण्डितप्रवर टोडरमलजीने संस्कृत वृत्तिके भावको अपने शब्दोंमें लिखकर स्पष्ट किया, वहीं पं० फूलचन्द्रजीने अधिक-से-अधिक स्पष्ट तथा विशद करने के लिए चूणिसूत्रों तथा जयधवलादि ग्रन्थोंके अनुसार विशेष शीर्षक देकर स्पष्टीकरण किया है। यदि शोध व अनुसन्धानकी दृष्टिसे विचार किया जाए, तो पण्डितजीने पण्डितप्रवर टोडरमलजीके कार्यको ही आगे बढ़ाया है। इसमें कोई सन्देह नहीं है कि जो साहित्यिक कार्य उन्होंने अठारहवीं शताब्दीमें किया था, वही कार्य नई भाषा-शैली में पं० फूलचन्द्रजीने किया है। Page #705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६६ : सिद्धान्ताचार्यं पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ संक्षेपमें, पण्डितजी द्वारा लिखित इस टीकाको निम्नलिखित विशेषताएँ कही जा सकती हैं(१) यह किसी टीकाकी टीका-टिप्पणी न होकर टीकाका विशदीकरण मात्र है । (२) विषयके प्रामाणिक विवेचन तथा स्पष्टीकरण हेतु स्थान-स्थानपर सीधे शब्दों में या भावोंमें जिनागमको उद्धृत किया गया है। (३) टीका-टिप्पणी करते समय तुलनात्मक विवेचन किया गया है । इस प्रकारकी टीकासे भविष्य में करणानुयोगके तुलनात्मक अध्ययनको बल मिलेगा । (४) भाषाशास्त्रीय होनेपर भी सरल है । करणानुयोगके किसी एक ग्रन्थका सम्यक् स्वाध्यायी सरलतासे इसे समझ सकता है। यद्यपि पण्डितप्रवर टोडरमलजीने हिन्दी टीकाको बहुत सरल बना दिया है, फिर भी कहीं विषय की गम्भीरता रह गई है, तो उसे स्पष्ट करनेमें पण्डितजीका अध्ययन व श्रम सार्थक हुआ है । (५) जहाँ-कहीं अर्थ लगाने में विद्वान् भी भूल करते हैं, विशेषकर उनका स्पष्टीकरण पण्डितजीकी इस टीका हो गया है । अतः स्वाध्यायी एवं विद्वानोंके लिए यह विशेष रूपसे उपयोगी है । (६) अपनी चौंतीस पृष्ठीय प्रस्तावना में ग्रन्थ-परिचयके साथ ही 'सैद्धान्तिक चर्चा' के अन्तर्गत मूल विषयका परिचय तथा अर्थसंदृष्टिका पृथक विवरण दिया गया है जो प्रत्येक स्वाध्यायी के लिए पढ़ना अनिवार्य है । (७) लब्धिसारकी वृत्तिकी रचनाके सम्बन्धमें पण्डितजीकी इस सम्भावनाको नकारा नहीं जा सकता कि हमारे सामने ऐसा कोई तथ्य नहीं है जिससे सिद्धान्तचक्रवर्ती नेमिचन्द्रको इसका रचयिता स्वीकार किया जाए। इतना अवश्य कहा जा सकता है कि इसकी रचनाकी शैली आदिको देखते हुए उसी कालके उक्त भट्टारकोंके सम्मिलित सहयोगसे इसकी रचना की गई होगी। यदि किसी एक भट्टारककी रचना होती तो अन्य इसका उल्लेख अवश्य करते । (८) मूल गाथाओं के सम्पादनमें भी पण्डितजी ने अपने दायित्वका पूर्ण निर्वाह किया है । अत मुद्रित प्रतिमें जहाँ जहाँ संस्कृत शब्द हैं, वहाँ वहाँ पण्डितजीने स्वविवेकशालिनी बुद्धिसे प्राकृत शब्दान्तर वाले पाठोंका अधिग्रहण किया है । मूल गाथाके पाठोंमें किए गये इस परिवर्तनका उल्लेख पण्डितजीने अपने 'प्राक्कथन' में किया है । छन्द तथा भावकी दृष्टिसे इन पाठोंमें अधिकतर 'ओकार' से प्रारम्भ होने वालोंके स्थानपर 'उकार' बहुल हैं । (९) गाथा १६७ की संस्कृत वृत्ति और हिन्दी टीका दोनों नहीं हैं। पण्डितजीने इनकी पूर्ति कर दी है। अर्थ के साथ ही विशेष भी दिया है। इसी प्रकार गाथा ४७५ का उत्तरार्द्ध त्रुटित होनेसे पण्डितप्रवर टोडरमलजी समझ में न आनेसे उसका अर्थ नहीं लिख सके । पं० फूलचन्द्रजीने 'जयधवला' से उक्त अंशकी पूर्ति कर विशेष में सम्पूर्ण गाथाके अर्थका स्पष्टीकरण किया है । इन विशेषताओंको देखकर यह निश्चित ही कहा जा सकता है कि टोकाके सम्पादनमें तथा टीकाटिप्पण लिखने में पण्डितजीने जिस सूझ-बूझका परिचय दिया है, वह यथार्थ में सम्पादन के क्षेत्रमें मानदण्ड स्थापित करने वाला है । वर्तमान अनुसन्धित्सुओं को इससे प्रेरणा ग्रहण कर शोध व अनुसन्धान- जगत्में नये क्षितिजोंको प्रकाशित करनेमें इसका भरपूर उपयोग करना चाहिए । Page #706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचम खण्ड : ६६७ आत्मानुशासन : एक परिशीलन डॉ० दरबारीलाल कोठिया, वाराणसी "आत्मानुशासन'' जैन वाङ्मयका एक ऐसा ग्रन्थ-रत्न है, जिसे समग्रभावसे जीवनमें उतार लेने पर व्यक्ति स्वर्णके समान निर्मल एवं आदर्श बन सकता है। यह 'षट्खण्डागम' को धवला और कषायपाहुड' की जयधवला टीकाओंके कर्ता आचार्य वीरसेनके प्रतिभाशाली प्रधान शिष्य आचार्य जिनसेनके प्रज्ञावान विनीत शिष्य भदन्त गुणभद्राचार्यको श्रेष्ठतम कृति है। धर्म, नीति और अध्यात्म इन तीनोंका इसमें प्रसाद गुण युक्त संस्कृत-भाषामें पद्य शैलीमें प्रतिपादन किया गया है। इसपर एक संस्कृत-टीका है जो प्रभाचन्द्रकर्तक है । ये प्रभाचन्द्र कौन है ? इस विषय में विद्वानोंमें मतभेद है । कुछ तो इन प्रभाचन्द्र को प्रमेयकमलमार्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्र के कर्ता तार्किक प्रभाचन्द्र बतलाते हैं और कुछ उनके उत्तरवर्ती १३वीं शतीके अन्तिम चरणमें होनेवाले प्रभाचन्द्रको इस टीकाका कर्ता मानते हैं। इसका विशेष ऊहापोह हमने अन्यत्र किया है। संस्कृत-टीकाके अतिरिक्त आत्मानुशासन पर तीन हिन्दी टीकाएँ और एक मराठी टीका, ये चार टीकाएँ लिखी गयी हैं। इनमें सबसे प्राचीन पण्डित टोडरमलजी की हिन्दी-टीका है, जो राजस्थानकी ढूँढारी हिन्दीमें है और जो प्रकाशित भी हो चुकी है । दूसरी हिन्दी-टीका पण्डित वंशीधरजी शास्त्री सोलापुर द्वारा रची गयी है। यह हिन्दी-टीका खड़ी बोलीमें है और जैन ग्रन्थरत्नाकर, बम्बईसे प्रकाशित हुई है। तीसरी हिन्दीटीका पण्डित बालचन्द्रजी शास्त्री कृत है, जो जीवराज ग्रन्थमाला सोलापुरसे ई० १९६१ में प्रकाशित है। मराठी टीका स्व० ब्र० जीवराज गौतमचन्दजी दोशी सोलापुरने लिखी है, जो प्रायः पंडित टोडरमलजीकी हिन्दी-टीका पर आधत है और जो उक्त जीवराज ग्रन्थमालासे वी०नि० सं० २४३५में प्रकाशित है।। . प्रस्तुतमें समीक्ष्य है-पंडित फूलचन्द्रजी सिद्धान्त शास्त्री द्वारा सम्पादित एवं श्री गणेश वर्णी दि. जैन संस्थान, वाराणसीसे प्रकाशित पंडित टोडरमलकृत ढंढारी हिन्दी टीका सहित आत्मानुशासन । इस संस्करणकी अपनी अन्य विशेषता है। विद्वद्वर पंडित फूलचन्द्रजी ने इसके साथ जो प्रस्तावना दी है, वह विशेष लम्बी तो नहीं है, किन्तु उसमें जिन मुद्दों पर विमर्श किया गया है वह न केवल महत्त्वपूर्ण है, अपितु गम्भीरताके साथ ध्यातव्य भी है। हम यहाँ उन मुद्दोंमेंसे दो-एक मुद्दोंका संकेत करते हैं १. आजकल मिथ्यात्व बन्धका कारण है या नहीं, इस विषयकी चर्चा विशेष हो रही है। जो मिथ्यात्वको बन्धका कारण नहीं मानते उनका समाधान पंडितजीने आगमके विपुल प्रमाण देकर सिद्ध किया है कि आगममें मिथ्यात्वको सबसे सबल बन्धका कारण बतलाया गया है। उनका कहना है कि पहला गुणस्थान मिथ्यात्व है। उसमें जिन १६ प्रकृतियोंकी बन्धव्युच्छित्ति होती है उनमें मिथ्यात्व ध्रुवबन्धिनी प्रकृति है। मिथ्यात्वरूप परिणामके साथ उसका बन्ध नियमसे होता ही रहता है। अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना करनेवाला जीव सम्यक्त्व आदिरूप परिणामोंसे च्युत होकर यदि मिथ्यात्व गुणस्थानमें आता है, तो उसके प्रारम्भसे ही अनम्तानुबन्धी चतुष्कका बन्ध होकर भी एक आवलिकाल तक अपकर्षणपूर्वक उसकी उदय-उदीरणा नहीं होती, ऐसा नियम है। अतः ऐसे जीवके एक आवलि काल तक अनन्तानुबन्धी क्रोधादिरूप परिणामके न होने पर भी मिथ्यात्व परिणाम निमित्तक मिथ्यात्व प्रकृतिका बन्ध होता है । साथ ही शेष १५ प्रकृतियोंका भी यथासम्भव बन्ध होता है । Page #707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६८ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थे इसी प्रकार मिथ्यात्व बन्धका प्रधान कारण है, इसे पंडितजीने कई तरहसे सिद्ध किया है। इससे पूर्व प्रकृति, प्रदेश, स्थिति और अनुभाग बन्धोंमें आदिके दो बन्धोंको योग निमित्तक और अन्य दो को कषाय निमितक बतलानेके आगमके अभिप्रायको स्पष्ट करते हुए कहा है कि यह ऋजुसूत्र नयकी अपेक्षासे प्रतिपादन है और मिथ्यात्व आदि पाँचको बन्ध-कारण बतलानेमें नैगम, संग्रह और व्यवहार नयकी विवक्षा है। दोनों ही कथन नय-विवक्षासे अपनी-अपनी जगह आगमानुसार ही है । इस सम्बन्धमें किया गया विस्तृत विवेचन उनकी विशेषज्ञताको स्पष्ट प्रकट करता है। २. मुनि-मार्गमें आज जो शैथिल्य दृष्टिगोचर हो रहा है, उसके सम्बन्धमें भी पंडितजी ने बड़े स्पष्ट रूपमें लिखा है कि साधुको आगमचक्षु कहा गया है । अतः उसे सर्वप्रथम आगमका अभ्यासी होना चाहिए । आत्मानुशासनकी गाथा १६९ आदिके द्वारा साधुको आगम-निष्णात होने पर बल देते हुए पंडितजीने बतलाया है कि जो साधु अपने मनरूपी मर्कटको अपने वशमें रखना चाहता है, उसे अपने चित्तको सम्यक् श्रतके अभ्यासमें नियमसे लगाना चाहिए। रयणसार' के आधारसे आपने लिखा है कि जैसे श्रावक धर्ममें दान और पूजा मुख्य हैं। इनके बिना वह श्रावक नहीं हो सकता । वैसे ही मुनिधर्मसें ध्यान और अध्ययन ये दो कार्य मुख्य हैं । इनके बिना मुनि नहीं। इसी प्रसंगमें पंडितजीने लिखा है कि मोक्षमार्गमें आगम सर्वोपरि है। उसके हार्दको समझे बिना कोई भी संसारी प्राणी मोक्षमार्गके प्रथम सोपानस्वरूप सम्यक्दर्शनको भी प्राप्त नहीं कर सकता। - आत्मानुशासनके प्रारम्भमें सम्यकदर्शनके जिन दस भेदोंका कथन किया गया है, उनमेसे अवगाढ़ सम्यग्दर्शन तो सकल श्रुतके धारी श्रुतकेवलीके ही होता है । इससे ही साधुकी श्रुताधारता स्पष्ट हो जाती है । परमावगाढ़ सम्यग्दर्शन केवलोके ही होता है। पर उनका यह केवलज्ञान श्रुतसे ही होता है और श्रुतका जनक होता है । यही कारण है कि समन्तभद्र स्वामीने भी गुरुको 'ज्ञान-ध्यान तपोरक्तः' बताते हुए उसे 'ज्ञान-रत' प्रथमतः कहा है। इसी सन्दर्भ में मुनि-मार्ग में आये शैथिल्यके समर्थक उल्लेखोंको भी प्रस्तुत करके आचार्य अकलंक और आचार्य विद्यानन्दके विवेचनों द्वारा उनकी कड़ी समीक्षा की है जो उचित है। इस संस्करणकी एक विशेषता यह है कि आचार्यकल्प पं० टोडरमलजी द्वारा ढूढारी भाषामें लिखी गयी टीकाको ही इसमें दिया गया है । उसे खड़ी बोलीमें परिवर्तित नहीं किया गया है। इसका मुख्य कारण उस भाषा-बोलीको सुरक्षित रखना है, क्योंकि ढूंढारी भाषा भी हिन्दी भाषाका एक उपभेद है । और विविध प्रदेशोंमें बोली जानेवाली इन हिन्दी भाषाओं (हिन्दी भाषाके उपभेदों) की सुरक्षा तभी सम्भव है, जब उनमें लिखे साहित्यको हम ज्यों-का-त्यों प्रकाशित करें। इस दिशामें पण्डितजी तथा श्री गणेश वर्णी दि. जैन संस्थान वाराणसीका यह प्रयत्न निश्चय ही इलाध्य है । Page #708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम खण्ड: ६६९ सम्यग्ज्ञान दीपिका : शास्त्रीय चिन्तन डॉ. देवेन्द्रकुमार शास्त्री पण्डितजीने जहाँ जयधवल, महाधवल, महाबन्ध, लब्धिसार, सर्वार्थसिद्धि आदि महान् ग्रन्थोंका सम्पादन तथा हिन्दी अनुवाद किया, वहीं आचार्य अमृतचन्द्र सूरि कृत "समयसारकलश" तथा देवसेनसूरि विरचित "आलापद्धति" का भी सम्पादन एवं संशोधन किया। संशोधकके रूपमें पण्डितजीका स्थान विशिष्ट है। इसके अतिरिक्त बीसवीं शतीमें होनेवाले क्षल्लक धर्मदासजी रचित "सम्यग्ज्ञानदीपिका" का आजकी भाषामें सरल अनुवाद भी आपने किया। यह देखकर और जानकर किंचित आश्चर्य अवश्य हआ। क्योंकि पण्डितजीकी पैनी दृष्टि हर किसी रचनापर ठहर कर उसे अपने अध्ययन-लेखनका विषय नहीं बनाती। किसी महत्त्वपूर्ण रचना पर ही उनकी लेखनी चलती है। वास्तवमें ऊपरसे अति सामान्य दिखनेवाली “सम्यग्ज्ञान-दीपिका" अत्यन्त महत्त्वपूर्ण रचना है। इसे एक बार ध्यानसे पूरा पढ़े बिना कोई इस बातको स्वीकार नहीं कर सकता। यदि यह सर्वाशमें सच है कि आचार्य कुन्दकुन्द कृत "समयसार" को सम्यक् रूपसे हृदयंगम किए बिना कोई अपनी दृष्टिको निर्मल नहीं बना सकता, तो यह भी सच है कि “सम्यग्ज्ञानदीपिका" को पूर्णतः स्वीकार किए बिना हमारा ज्ञान निर्मल नहीं हो सकता। पहले कभी विद्वानोंका ध्यान इस रचना की ओर नहीं गया, इसलिए यह उपेक्षित रहा। क्षुल्लक ब्र० धर्मदासने वि० सं० १९४६ में माघ की पूर्णिमाके दिन इसे रचकर प्रकाशित किया था। इसका दूसरा संस्करण अमरावतीसे वि० सं० १९९० में प्रकाशित हुआ था। तदनन्तर श्री दि० जैन मुमुक्षु मण्डल, भावनगर ( सौराष्ट्र ) से वि० सं० २०२६ में प्रकाशित हुआ । यह रचना मूलमें पुरानी हिन्दीमें कही गई है, जिसका हिन्दी रूपान्तरण पं० फूलचन्द्रजीने किया है। इसके पूर्व गुजरातीमें अनूदित दो आवृत्तियां सोनगढ़से प्रकाशित हो चुकी थीं। रचनाके सम्बन्धमें जिज्ञासावश सहज ही कई प्रश्न उठते हैं । प्रथम जिनकी रचनाकी इतनी प्रशंसा की जा रही है, वे कौन थे? उन्होंने स्वयं प्रथम भूमिकामें अपने सम्बन्धमें इस प्रकार लिखा है-"मेरे शरीरका नाम क्ष ल्लक ब्रह्मचारी धर्मदास है । "झालरापाटनमें सिद्धसेन मुनि मेरे दीक्षा-शिक्षा, व्रत-नियम और व्यवहार वेशके दाता गुरु है तथा वराड देशमें मुकाम कारंजा पट्टाधीश श्रीमत्देवेन्द्रकीर्तिजी भट्टारकके उपदेश द्वारा मुझे स्व-स्वरूप स्वानुभवगम्य सम्यग्ज्ञानमयी स्वभाव वस्तु की प्राप्त की प्राप्ति देनेवाले श्रीसद्गुरु देवेन्द्रकीर्तिजी हैं, इसलिए मैं मुक्त हैं, बन्ध-मोक्षसे सर्वथा प्रकार वसर्जत सम्यग्ज्ञानमयी स्वभाववस्तु हूँ। ''वही स्वभाववस्तु शब्द-वचन द्वारा श्रीमत्देवेन्द्रकीर्ति तत्पट्टे रतनकीतिजीको मैं भेंट स्वरूप अर्पण कर चुका हूँ। तथा खानदेश मुकाम पारोलामें सेठ नानाशाह तत्पुत्र पीताम्बरदासजी आदि बहुतसे स्त्री-पुरुषोंको तथा आरा, पटना, छपरा, बाढ़, फलटन, झालरापाटन, बुरहानपुर आदि बहुतसे शहर ग्रामोंमें बहुतसे स्त्री-पुरुषोंको स्वभाव-सम्यग्ज्ञानका उपदेश दे चुका हूँ। पूर्वमें लिखा हुआ सब व्यवहारगर्भित समझना । तथा सर्व जीव-राशि जिस स्वभावसे तन्मयी है, उसी स्वभावकी स्वभावना सर्व ही जीव-राशिको होओ-ऐसे मेरे अन्तःकरण में इच्छा हुई है। उस इच्छाके समाधानके लिए यह पुस्तक बनाई है और इसकी पाँच सौ पुस्तक छपाई है। केवल इतना ही उनका परिचय नहीं है, वास्तविक तो यह है-“उस वस्तुका लाभ वा प्राप्तकी प्राप्ति होने योग्य थी, वह हमको हुई । यथा होनी थी सो हो गई, अब होने की नाहिं । धर्मदास क्षुल्लक कहे, इसी जगतके मांहि ॥ Page #709 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७० : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ क्षुल्लकजी प्राकृत, संस्कृत, हिन्दी आदि भाषाओंके तथा सभी अनुयोगोंके अच्छे ज्ञाता थे । संस्कृत और हिन्दी पद्य-रचना पर उनका समान अधिकार था। रस, अलंकार, छन्दशास्त्र, न्यायशास्त्र आदिके ज्ञाता विद्वान् लेखक थे। ___ इस ग्रन्थमें मुख्य रूपसे आत्माके शुद्ध स्वभावका वर्णन किया गया है। क्योंकि वही आत्मज्ञान कराने के लिए प्रकट रूपसे दीपकके समान है। आत्मज्ञानके मायने सम्यग्ज्ञान है। सम्यग्ज्ञानको भेद-विज्ञान भी कहा जाता है । भेद-विज्ञान होनेपर आत्मा स्वयं स्वरूपसे उद्भासित हो जाता है। स्व-प्रकाशक होनेसे पर-प्रकाशकत्व सार्थक हो जाता है। अपनी प्रस्तावनामें ग्रन्थकारने कई महत्वपूर्ण बातें कही हैं जिससे सहज ही अनुमान हो जाता है कि यह अपूर्व शास्त्र है। उनके ही शब्दोंमें-"इस ग्रन्थमें केवल स्व-स्वभाव, सम्यग्ज्ञानानुभव सूचक शब्द-वर्णन है । कोई दृष्टान्तमें तर्क करेगा कि-"सूर्यमें प्रकाश कहाँसे आया ?" उसे स्व-सम्यग्ज्ञानानुभव जो इस ग्रन्थका सार है, उसका लाभ नहीं होगा।" इससे स्पष्ट है कि यह एक आध्यात्मिक शास्त्र है। अध्यात्मकी भाषा लौकिक भाषासे कुछ विलक्षण होती है। जहाँ भाषा सामान्य होती है, वहाँ अर्थ विशिष्ट होता है। कहीं-न-कहीं शब्द या अर्थमें सांकेतिक विशिष्टता झलकती है । जैसा कि आचार्य कुन्दकुन्ददेवने “अष्टपाहुड" में वर्णन किया है, ठीक वैसा ही यहाँ लिखते हुए कहते हैं-''जिस अवस्थामें स्व-सम्यग्ज्ञान सोता है, उस अवस्थामें तन-मन-धन वचनादिसे तन्मयी यह जगत्-संसार जागता है तथा जिस अवस्थामें यह जगत्-संसार सोता है, उस अवस्थामें स्व-सम्यग्ज्ञान जागता है-यह विरोध तो अनादि, अचल है और वह तो हमसे, तुमसे, इससे या उससे मिटनेका नहीं है, मिटेगा नहीं और मिटा नहीं था ।" क्षुल्लकजीने यह पुस्तक केवल जैनोंके लिए ही नहीं, सभी पढ़ने योग्य मनुष्योंके लिए लिखी थी। यद्यपि पूरी पुस्तक गद्यमें है, किन्तु स्थान-स्थानपर दोहे-चौपाईमें भी भावोंको समेट कर प्रकट किया है। कहीं लोगोंको यह भ्रम न हो कि यह पुस्तक तो केवल जैनोंके लिए है। अतः स्पष्ट करते हुए वे लिखते है-“यह पुस्तक जैन, विष्णु आदि सभीको पढ़ने योग्य है, किसी विष्णुको यह पुस्तक पढ़नेसे भ्रान्ति हो कि यह पुस्तक जैनोक्त है-उससे कहता हूँ कि इस पुस्तककी भूमिकाके प्रथम प्रारम्भमें ही जो मन्त्र नमस्कार है, उसे पढ़कर भ्रान्तिसे भिन्न होना। स्वभावसूचक जैन, विष्णु आदि आचार्योंके रचे हुए संस्कृत काव्यबद्ध, गाथाबद्ध ग्रन्थ अनेक है, परन्तु यह भी एक छोटी-सी अपूर्व बस्तु है । जिस प्रकार गुड़ खानेसे मिष्टताका अनुभव होता है, उसी प्रकार इस पुस्तकको आदिसे अन्त तक पढ़नेसे पूर्णानुभव होगा। बिना देखे, बिना समझे वस्तुको कुछके बदले कुछ समझता है । वह मूर्ख है । जिसे परमात्माका नाम प्रिय है, उसे यह ग्रन्थ अवश्य प्रिय होगा।" इस ग्रन्थकी प्रमुख विशेषता है-दृष्टान्तोंका प्रमुखतासे प्रयोग । स्थान-स्थानपर प्रत्येक बातको दृष्टान्त के द्वारा समझाया गया है। लिखनेकी शैली ही दृष्टान्तमूलक है। उदाहरणके लिए, जैसे हरे रंगकी मेंहदीमें लाल रंग है परन्तु वह दिखाई देता नहीं, पत्थरमें अग्नि है परन्तु वह दिखाई देती नहीं, दूधमें घी है परन्तु वह दिखाई देता नहीं तथा फूलमें सुगन्ध है परन्तु वह ( आँखोंसे ) दिखाई देती नहीं, वैसे ही जगतमें स्वसम्यग्ज्ञानमयी जगदीश्वर है परन्तु चर्मनेत्र द्वारा वह दिखाई देता नहीं। पर किसीको सद्गुरुके वचनोपदेश द्वारा तथा काललब्धिके पाक द्वारा स्वभाव-सम्यग्ज्ञानसे तन्मय ( जगदीश्वर ) स्वभाव-सम्यग्ज्ञानानुभवमें दिखाई देता है।" इस प्रकार एक ही बातको समझानेके लिए विविध दृष्टान्तोंका एक साथ दृष्टान्त-मालाके रूपमें प्रयोग किया गया है । एक उदाहरण है Page #710 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम खण्ड : ६७१ "पूर्वकर्मवश वह अन्य वृत्तिमें लग जाय, तब वह स्व-सम्यग्ज्ञानानुभवको भूल भी जाता है, परन्तु जब याद करे तब साक्षात् स्वानुभवमें आता है । इसी विषयमें तीन दृष्टान्त हैं-( १ ) जैसे एक बार चन्द्रको देख लेनेके बाद चन्द्रका अनुभव जाता नहीं, ( २ ) एक बार गुड़को खानेके बाद गुड़का अनुभव जाता नहीं, (३) तथा एक बार भोग भोगनेके बाद भोगका अनुभव जाता नहीं।" - स्व-सम्यग्ज्ञानको समझानेके लिए दर्पणका, पेटी तिजोरीमें रखकर भूले हुए रत्नका दृष्टान्त देकर फिर ये तीन दृष्टान्त दिये गए हैं। प्रत्येक बातको लेखक दृष्टान्तसे प्रारम्भ करता है । जैसे कि "जैसे बाजीगर अनेक प्रकारका तमाशा, चेष्टा करता है, परन्तु स्वयं अपने दिलमें जानता है कि मैं जो ये तमाशे, चेष्टाएँ करता हूँ, वैसा मैं मूल स्वभावसे ही नहीं हूँ। "जैसे खड़िया मिट्टी आप स्वयं ही श्वेत है और परको, भीत आदिको श्वेत करती है, परन्तु स्वयं भीत आदिसे तन्मय होती नहीं। वैसे ही सम्यग्ज्ञान है वह सर्व संसार आदिको चेतनवत् करके रखता है, परन्तु स्वयं संसार आदिसे तन्मय होता नहीं।" विद्वान् लेखकने एक बात ही कई प्रकारके दृष्टान्तोंसे विविध स्थानोंपर समझाया है। पद-पदपर वे अपने सम्यग्ज्ञानके अनुभवको ही सुनाते हैं। लगता है कि कोई अनुभवी निश्छलताके साथ सहज स्नेहवश सी -सरल शब्दोंमें अपनी बात सुना रहा है । उनके ही शब्दोंमें _ 'स्व-सम्यग्ज्ञानानुभव सुनो । जैसे कोई पुरुष पानीसे भरे हुए घटमें सूर्य के प्रतिबिम्बको देखकर सन्तुष्ट था, उससे यथार्थ सूर्यके जाननेवाले पुरुषने कहा कि तू ऊपर आकाशमें सूर्य है उसे देख, तब वह पुरुष घटमें सूर्यको देखना छोड़कर ऊपर आकाशमें देखने लगा। तब यथार्थ सूर्यको देखकर उसने अपने अन्तःकरणमें विचार किया कि जैसा सूर्य ऊपर आकाशमें दिखाई देता है, वैसा ही घटमें दिखाई देता है । जैसा यहाँ, वैसा वहाँ तथा जैसा वहाँ, बैसा यहाँ, अथवा न यहाँ, न वहाँ अर्थात जैसा है, वैसा जहाँका तहाँ, वैसा ही स्वसम्यग्ज्ञानमयी सूर्य है, वह तो जैसा है वैसा, जहाँका तहाँ स्वानुभव गम्य है। वह जो है, उसे नय, न्याय और शब्दसे तन्मय हो रहे पण्डित उस स्वानुभवगम्य सम्यग्ज्ञानमयी परब्रह्म परमात्माकी अनेक प्रकारसे कल्पना करते हैं, वह वृथा है।' कहीं-कहीं बहुत ही कम शब्दोंमें हृदयको छूती हुई भाषामें भाव प्रकट किए गये हैं। छोटे-छोटे वाक्योंसे रस टपकता हुआ जान पड़ता है। जैसे कि___ 'जैसा बीज वैसा उसका फल । जैसे जो नेत्रसे देखता है परन्तु नेत्रको नहीं देखता है, वह स्यात् अन्धेके समान है : वैसे ही जो ज्ञानसे जानता है परन्तु ज्ञानको नहीं जानता है, वह स्यात् अज्ञानके समान है।' इसी प्रकार ___ 'जैसे सूर्यके प्रकाशमें अन्धकार कहाँ है और सूर्यको निकाल लिया जाये तो प्रतिबिम्ब कहाँ है ? आत्मज्ञानी जीवके लिये जगत्-संसार मृगजलके समान है, परन्तु सूर्य न हो तो मृगजल कहाँ है ? वैसे ही गुरुके उपदेश द्वारा आपमें आपमयी आपको आपमें ही खेंच लेनेके बाद आकार कहाँ है ? वैसे ही यह जगत्-संसार है सो भ्रम है, भ्रम उड़ गया तो जगत्-संसार कहाँ है ?' कहीं-कहीं दृष्टान्त भी तर्कपूर्ण तथा सरल शब्दोंमें सहज भावसे अभिव्यक्त हए हैं। जैसे कि-'जैसे आकाशको धुलि-मेघादिक नहीं लगते, वैसे ही स्व-सम्यग्ज्ञानको पाप-पुण्य तथा पाप-पुण्यका फल नहीं लगता।' इसी प्रकार __ 'जैसे घटके भीतर, बाहर और मध्यमें आकाश है, वह घटको कैसे त्यागे और ग्रहण भी कैसे करे ? वैसे ही इस जगत-संसारके भीतर, बाहर और मध्यमें स्व-सम्यग्ज्ञान है, वह क्या त्यागे और क्या ग्रहण करे?' तथा Page #711 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७२ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ 'जैसे समुद्रके ऊपर कल्लोल उपजती है, विनशती है, वैसे ही स्व-सम्यग्ज्ञानमयी समुद्र में वह स्वप्नसमयका जगत् उपजता है और जाग्रत समयका जगत् विनशता है, जाग्रत समयका जगत् उपजता है और स्वप्न-समयका जगत् विनशता है।' इस प्रकारके दृष्टान्तोंसे सम्पूर्ण ग्रन्थ व्याप्त है । एकके बाद एका दृष्टान्तोंका ऐसा संग्रह किया है और कहनेकी शैली भी ऐसी है कि पाठक पढ़ते ही विस्मित हो जाता है। ग्रन्थके अन्तमें अकिंचन भावना है और सबसे अन्त में है-भेद-विज्ञान । भेद-विज्ञानमें पुनः आत्माकी चर्चा की गई है, आत्मज्ञान या सम्यग्ज्ञानको ही आदिसे अन्त तक एक ही शैलीमें निरूपित किया गया है। ग्रन्थके अनुवादकी यह विशेषता है कि हमें यह पता नहीं चलता है कि यह भाषा पण्डित फूलचन्द्रजीकी है या क्षु० ब्र० धर्मदासजी की है। पण्डित जीने यथास्थान अधिक-से-अधिक ग्रन्थ-लेखकके शब्दोंको ही दुहराया है। शैली भी रूपान्तरणके पश्चात् लेखककी ज्यों-की-त्यों बनी रही है। यह अनुवादकी बहुत बड़ी । भाषा सरल होनेपर भी संस्कृतनिष्ठ है। लेकिन अनुवाद से पण्डितजीके संस्कृतनिष्ठ होनेका आभास नहीं मिलता, वरन् मूल लेखकके संस्कृतनिष्ठ होनेका प्रतिभास होता है। लेखकने यद्यपि ग्रन्थ गद्यमें लिखा है, किन्तु उसकी कवित्व शक्तिका परिचय भी मिल जाता है। संस्कृतमें भी काव्य रचनाका उनका अच्छा ज्ञान था। इसका प्रमाण उनका लिखा हआ निम्नलिखित श्लोक है श्रीसिद्धसेनमुनि-पाद-पयोज-भक्त्या, देवेन्द्रकीर्ति गुरुवाक्य-सुधारसेन । जाता मतिविबुधमण्डनेच्छोः श्रीधर्मदासमहतो महतो विशुद्धा ॥ विद्वान् लेखकने सभी शास्त्रीय विषयोंको महान आध्यात्मिक ग्रन्थोंका आधार लेकर ही लिखा है। उदाहरणके लिए. "भेदज्ञान-विवरण" का प्रकरण "समयसार" के संवर अधिकारकी प्रथम दो गाथाओंकी आत्मख्याति टीकापर आधारित है । लेखकने कई स्थानोंपर "समयसार-कलश" के श्लोक उद्धृत किए हैं । एक स्थानपर शास्त्रका प्रमाण शब्दोंमें न देकर भावरूपमें ऐसा लिखते हैं-'शास्त्रमें लिखते हैं कि मुनि बाईस परीषह सहन करता है, तेरह प्रकारका चारित्र पालता है, दशलक्षण धर्म पालता है, बारह भावनाओंका चिन्तवन करता है और बारह प्रकारके तप तपता है इत्यादि मुनि करता है। अब यहाँ ऐसा विचार आता है कि मुनि तो एक और परीषह बाईस, चारित्र तेरह प्रकारका, दशलक्षण धर्म व एक धर्मके दशलक्षण, बारह तप और बारह भावना इत्यादिक बहत ? मुनि कुछ और है तथा बाईस परीषह कुछ और हैं, बाईस परीषहका तथा मुनिका अग्नि-उष्णताके समान व सूर्य-प्रकाशके समान मेल नहीं है। " आकाशमें सूर्य है । उसका प्रतिबिम्ब घी-तेलसे तप्त कढ़ाई में पड़ता है। तो भी उस सूर्य के प्रतिबिम्बका नाश होता नहीं । काँचके महलमें कुत्ता अपना ही प्रतिबिम्ब देखकर भों-भों करके मरता है । स्फटिककी भीतमें हाथी अपनी ही प्रतिच्छाया देखकर स्वयं ही भीतसे भिड़-भिड़ाकर अपना दाँत स्वयं तोड़कर दुःखी हुआ। इस प्रकार एकके पश्चात् एक कई दृष्टान्त एक साथ एक ही बातको स्पष्ट करने के लिए दिये गये हैं । इतना ही नहीं इसपर भी यदि किसोको समझमें न आये, तो सम्बन्धित चित्र भो दिए गए हैं। पूरी पुस्तकमें कुल २२ चित्र दिए गए हैं । चित्रके नीचे उस विषयका शीर्षक भी दिया गया है । उदाहरणके लिए, पृ० ६३ पर “षट् मतवाले' शीर्षक एक चित्र है। उसके नीचे लेखकको अपनी भाषामें निम्नांकित तीन पंक्तियाँ हैं"स्वस्वरूपस्वानुभवगम्य सम्यक्ज्ञानमयि स्वभाववस्तुको यथार्थ स्वरूपानुभव समज करिकै षट् जन्मांधवत ये हैं जैन, शिव, विष्णु, बौद्धादिक षट् मतवाले परस्पर विवाद विरोध करते हैं।' इसी प्रकार पृ० १२९ पर दो चित्र Page #712 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम खण्ड: ६७३ मुद्रित हैं जो इस प्रकार हैं- "सिंध आपको छाया कूपमै देष कारकै आपही अपणास्वरूप भूलि करिकै आपही कूपमै पड़के दुष अनुभव भोग मरता है।" इसका हिन्दी अनुवाद है-सिंह अपनी छाया कुएंमें देखकर तथा स्वयं अपना स्वरूप भूलकर कुएंमें गिरता है और दुःखी होकर मरता है । दूसरे चित्रके नीचे लिखा है-“वानर कुंभ मै मूठो बाँधि सो छोडता नाही जाणता है के कोई मोकू पकड लिया।" इसका अनुवाद है-बन्दरने घड़े मुट्ठी बाँधी है, उसे छोड़ता नहीं और मानता है कि मुझे किसीने पकड़ लिया। ग्रन्थमें नयके द्वारा आत्मवस्तुका जो वर्णन किया गया है, वह "प्रवचनसार" की तत्त्वप्रदीपिका टीकाके अनुसार है। पं० बनारसीदासकृत "समयसार नाटक" के अनेक उद्धरण दोहा-कवित्त रूपमें ज्यों-केत्यों उद्धृत लक्षित होते हैं। इनके अतिरिक्त आचार्यकल्प पं० टोडरमल कृत "मोक्षमार्गप्रकाशक" एवं "त्रिलोकसार", "द्रव्यसंग्रह", सर्वार्थसिद्धि तथा समयसार आदि ग्रन्थोंके आधारपर इस ग्रन्थकी रचना परिलक्षित होती है । अतः केवल दृष्टान्तोंका ऊहापोह या आलोचना न कर हम विषयको गम्भीरताका विचारकर समझनेका प्रयत्न करें, तो निःसन्देह "सम्यग्ज्ञान" पर प्रकाश डालनेवाला यह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ सिद्ध होता है । सम्यग्ज्ञानकी महिमा, उसका स्वरूप और प्राप्तिका वर्णन बहत ही सरल और सुन्दर शब्दोंमें किया गया है । अतः स्वाध्यायियोंको अवश्य पढ़ना चाहिए । सप्ततिकाप्रकरण : एक अध्ययन डॉ० देवेन्द्र कुमार शास्त्री, नीमच श्रद्धेय पण्डित फूलचन्द्रजीका साहित्यिक क्षेत्र केवल दिगम्बर साहित्य तक ही सीमित नहीं है, वरन् श्वेताम्बरीय साहित्यका भी उनका अध्ययन गहन, मनन पूर्ण तथा तुलनात्मक है। सुप्रसिद्ध विद्वान् पं० सुखलाल संघवीकी प्रेरणासे उन्होंने छठे कर्मग्रन्थका सम्पादन तथा हिन्दी अनुवाद अत्यन्त सफलताके साथ सम्पन्न किया । प्रकाशक बा० दयालचन्द जौहरीने पण्डितजीके सम्बन्धमें अपना अभिप्राय निम्नलिखित शब्दोंमें व्यक्त किया है "पं० फूलचन्द्रजी शास्त्री अपने विषयके गम्भीर अभ्यासी हैं। उन्होंने दिगम्बरीय कर्मशास्त्रोंका तो आकलन किया ही है, परन्तु इसके साथ ही श्वेताम्बरीय कर्मशास्त्रके भी पूर्ण अभ्यासी हैं । अपने इस अनुवादमें उन्होंने अपने चिरकालीन अभ्यासका पूर्ण उपयोग किया है और प्रत्येक दृष्टिसे ग्रन्थको सर्वाङ्ग सम्पूर्ण बनानेका पूर्ण प्रयत्न किया है।" ८५ Page #713 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७४ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ इस टीकाकी सबसे बड़ी विशेषता है-विशेषार्थ । यद्यपि विशेषार्थ अर्थ लिखते समय पण्डितजीने श्वेताम्बर आगम-साहित्यके सप्रसिद्ध टीकाकार मलयगिरिको टीकाको सम्मख रखकर लिखा है. फिर भी, इसकी अपनी विशेषता है । कहीं-कहीं पर पं० जयसोम रचित गुजराती टब्बाका भी उपयोग किया गया है । इतनेपर भी जहाँ-कहीं विषय स्पष्ट नहीं हुआ है, वहाँ कोष्ठकोंका प्रयोग किया गया है। क्योंकि कर्मशास्त्रका विषय ऐसा जटिल है कि सरलतासे सबको समझमें नहीं आता। अतः सर्वत्र सरल शब्दोंमें स्पष्ट करनेका पूर्ण प्रयत्न किया गया है। इस टीकाकी दूसरी विशेषता है-टिप्पणियोंका प्रयोग । टिप्पणियाँ दो प्रकारकी हैं- प्रथम वे टिप्पणियाँ हैं जिनमें सन्दर्भित विषयका गाथाओंके साथ साम्य सूचित होता है। दूसरे प्रकारकी टिप्पणियाँ वे हैं जिनमें श्वेताम्बर-दिगम्बर विषयक मत-भेदकी चर्चा की गई है । ये सभी टिप्पणियाँ अत्यन्त उपयोगी हैं । शोध तथा अनुसन्धान करने वाले इस विषयके शोधार्थियोंके लिए इस प्रकारकी सामग्री विशेष रूपसे महत्त्वपूर्ण है । सभी टिप्पणियाँ हिन्दीमें हैं और सम्बद्ध विषयकी पुष्टिमें आगमके प्रमाण प्रस्तुत किये गये हैं। ऐसे आलोचनात्मक तथा गम्भीर विषयका सांगोपांग विवेचन थोड़े-से शब्दोंमें प्रस्तुत करना साधारण लेखकका कार्य नहीं हो सकता । इतना ही नहीं, मतभेदसे सम्बन्धित विषयों पर सन्तुलित भाषामें निष्पक्ष रूपसे यत्र तत्र संकेत या निर्देश करना प्रकाण्ड विद्वानका ही कार्य हो सकता है। वास्तवमें बिना भेद-भावके अनेक दिगम्बर विद्वानोंने श्वेताम्बर तथा दिगम्बर दोनों तरहके साहित्य की भरपूर सेवा की है। पं० कैलाशचन्द्रजीने सन् १९४० के लगभग पंचम कर्मग्रन्थका हिन्दी अनुवाद किया था और उक्त षष्ठ कर्मग्रन्थका अनुवाद पं० फूलचन्द्रजीने सन् १९४२ में पूर्ण किया । उन दिनों प्रकाशन की व्यवस्था न होनेसे सन् १९४८ से पूर्व प्रकाशित नहीं हो सका । इसका प्रकाशन श्री आत्मानन्द जैन पस्तक प्रचारक मण्डल, रोशन महल्ला, किया गया। इसमें कोई सन्देह नहीं है कि विश्व-साहित्यमें 'कर्मके' सम्बन्धमें जैसा स्वतन्त्र एवं सांगोपांग विशद विवेचन जिनागममें उपलब्ध होता है, वैसा अन्यत्र नहीं है । जैनदर्शन कर्मको स्वतन्त्र रूपसे स्वीकार करता है । यद्यपि भारतीय दर्शन कर्मके अस्तित्वको स्वीकार करते हैं, किन्तु उससे सम्बन्धित विस्तृत तथा स्वतन्त्र वर्णन उनमें नहीं पाया जाता । यह सुनिश्चित है कि तीर्थंकर महावीरकी दिव्यध्वनिसे प्रसूत उपदेशोंका संकलन करते समय कर्म विषयक साहित्यकी भी स्वतन्त्र संकलना की गई थी। उनके सम्पूर्ण उपदेश द्वादशांगमें निबद्ध हुए थे। अन्तिम बारहवां अंग बहुत विशाल था। उसके पांच भेद थे-परिकर्म, सूत्र, प्रथमानुयोग, पूर्वगत और चूलिका । इनमेंसे पूर्वगतके चौदह भेद थे। इन भेदोंमेंसे आठवेंका नाम कर्मप्रवाद था। कर्म विषयक सम्पूर्ण हित्य इसीके अन्तर्गत संकलित किया गया था। किन्तु कालके सुदीर्घ अन्तरालमें धारणा-शक्तिके ह्रास होनेके साथ ही शनैः-शनैः कर्म-प्रवादका पूर्ण लोप हो गया । वाचनाकी क्रमिक परम्पराके आधार पर केवल अग्रायणीयपूर्व और ज्ञानप्रवादपूर्वका ही कुछ अंश अवशिष्ट रहा । वर्तमानमें उपलब्ध मल कर्म-साहित्यको संकलनाका आधार अग्रायणीय और ज्ञानप्रवाद कहा जा सकता है। किन्तु ऐसा निर्णय करते समय बहुत छान-बीनकी आवश्यकता है । पं० फूलचन्द्रजीके शब्दोंमें अग्रायणीय पूर्वकी पांचवी वस्तुके चौथे प्राभृतके आधारसे षट्खण्डागम, कर्मप्रकृति, शतक और सप्ततिका इन ग्रन्थोंका संकलन हुआ था। और ज्ञानप्रवाद पूर्वकी दसवीं वस्तुके तीसरे प्राभृतके आधार से कषायप्राभृत का संकलन हुआ था। इनमेंसे कर्मप्रकृति, यह ग्रन्थ श्वेताम्बर परम्परामें माना जाता है। कषायप्राभूत और षट्खण्डागम ये दो दिगम्बर परम्परामें माने जाते है तथा कुछ पाठ-भेदके साथ शतक और सप्ततिका ये दो ग्रन्थ दोनों परम्पराओंमें माने जाते हैं। वास्तव में समय ज्यों-ज्यों बीतता Page #714 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम खण्ड : ६७५ जाता है त्यों-त्यों मान्यता विषयक भेद-परम्पराकी खाई चौड़ी होती जाती है और हम भेद प्रदर्शित करने वाले मान्य ग्रन्थोंको भी छोड़ते जाते है । क्योंकि आजकी पीढ़ीको इतना अवकाश कहाँ है जो यह निर्णय कर सके कि समीचीन क्या-कौन है ? अतः ऐसी रचनाओंको दिनोंदिन भूलते जाते हैं या भुलाते जा रहे हैं। क्यों न भूलें ? इस उलझनमें कौन पड़ना चाहता है ? बौद्धिक विवाद या मतभेदोंका सिरनामा पुराने पण्डितोंके माथे ही था । भले ही पण्डितजी इसके अपवाद रहे हों ? वास्तविकताको कौन जानता हुआ सामने नहीं रखना चाहेगा। कलमके धनी और आगम तथा सिद्धान्तके रहस्यको हृदयंगम करने वाले पण्डितजीने इन सभी तथ्योंका पूर्ण विवरण प्रस्तुत करनेमें किसी प्रकारकी न्यूनता प्रदर्शित नहीं होने दी। इस दृष्टिसे उनको प्रस्तावना अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। लगभग साठ पृष्ठोंकी प्रस्तावनामें पण्डितजीने जहाँ कर्म-साहित्यकी क्रम परम्पराका निर्देश किया है, वहीं "सप्ततिका" संज्ञक अन्य रचनाओंका भी विचार किया गया है। केवल यही नहीं, सप्ततिकाओंमें संकलित विषयका आपने सूक्ष्मता तथा गम्भीरताके साथ विवेचन किया है। उदाहरणके लिए, सप्ततिकाका नाम ७० गाथाओंके आधार पर होने पर भी विभिन्न स्थानोंसे प्रकाशित गाथाओंकी संख्याकी भिन्नता, अन्तर्भाष्य गाथाओंके सम्मिलित हो जानेसे चणियोंमें गाथाओंकी संख्यासे टीकाओंकी गाथा-संख्याकी भिन्नता परिलक्षित होना, इस सप्ततिकामें उपशमना और क्षपणाकी कुछ मुख्य प्रकृतियोंका ही निर्देश होना, किन्तु दिगम्बर-परम्पराको सप्ततिकामें सम्बन्धित सभी प्रकृतियों की संख्याका निर्देश, प्राकृत पंचसंग्रहको प्राचीनता, दिगम्बर परम्पराके पंचसंग्रहका संकलन सम्भवतः धवलाके पूर्व ही हो गया था ये कुछ उल्लेख ऐसे तथ्य हैं जिनके आधार पर गोम्मटसार (जीवकाण्ड, कर्मकाण्ड) की प्रामाणिकता तथा विषयके सांगोप का विवरण दिगम्बर-परम्परा में ही उपलब्ध होता है । कर्म-मीमांसाके अन्तर्गत पण्डितजीने बन्ध होनेके लिए जीव और पुद्गलकी योग्यताको ही मूल रूपमें माना है। जीवमें मिथ्यात्वादि रूप योग्यता संश्लेषपुर्वक ही होती है, इसलिये उसे अनादि माना गया है। किन्तु पुद्गलमें स्निग्ध या रूक्ष गुण रूप योग्यता संश्लेषके बिना भी पाई जाती है, इसलिये वह अनादि और सादि दोनों प्रकारकी मानी गई है। संसार और कर्मका अन्वय-व्यतिरेक सम्बन्ध है। जब तक यह सम्बन्ध है, तब तक जीवके राग-द्वेष रूप परिणाम होते रहते हैं। परिणामोंसे कर्म बंधते हैं। कर्मसे गतियों में जन्म लेना पड़ता है. भव-भ्रमण होता है। संसारी जीवके प्रत्येक समयमें जो परिस्पन्दात्मक क्रिया होती है, वह कर्म कही जाती है । परिस्पन्दात्मक क्रिया सब पदार्थों में नहीं होती। यह क्रिया पुद्गल और संसारी जीवके हो पाई जाती है। जीव की विविध अवस्थाओंके होनेका मुख्य कारण कर्म है। अपने-अपने कर्मके अनुरूप भिन्न-भिन्न अवस्थाएँ होती हैं। उक्त कर्म-मीमांसाके प्रसंगमें पण्डितजीने एक महत्त्वपूर्ण मुद्दा उठाया है कि कर्मकी कार्य-मर्यादा क्या है ? किन्तु अधिकतर विद्वानोंका यह विचार है कि बाह्य सामग्रीकी प्राप्ति भी कर्मसे होती है। इस सम्बन्धमें पण्डितजीने "मोक्षमार्गप्रकाश'' तत्त्वार्थराजवार्तिक, पुराणादिका उल्लेख किया है और बताया है कि कर्मके दो भेद है-जीवविपाकी और पद गलविपाकी। जीवको विभिन्न अवस्थाओं तथा परिणामोंके होनेमें जो निमित्त होते हैं वे जीवविपाकी कर्म हैं । जिससे विविध प्रकारके शरीर, वचन, मन और श्वासोच्छवासकी प्राप्ति होती है वे पुद्गलविपाकी कर्म है। इन दोनोंमें से एक भी बाह्य सामग्रीकी प्राप्त करानेका कार्य नहीं करता है। अत. किसके परिणामसे बाह्य सामग्रीकी प्राप्ति होना मानी जाये? इसका समाधान करते हए स्वयं पण्डितजी निष्कर्ष रूप में कहते हैं श्वेताम्बर कर्म-ग्रन्थोंमें भी इन कर्मोका यही अर्थ किया Page #715 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७६ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ गया है । ऐसी हालत में इन कर्मोंको अनुकूल व प्रतिकूल बाह्य सामग्रीके संयोग-वियोग में निमित्त मानना उचित नहीं है । वास्तवमें बाह्य सामग्रीकी प्राप्ति अपने-अपने कारणोंसे होती है। इसकी प्राप्तिका कारण कोई कर्म नहीं है । पण्डितजीने आचार्य वीरसेन स्वामी और आचार्य पूज्यपाद स्वामी दोनोंके मतोंका उल्लेख करते हुए स्पष्ट रूपमें बताया ( आज से ४२ वर्ष पूर्व ) कि तत्त्वतः बाह्य सामग्रीकी प्राप्ति न तो साता - असाताका फल है और न लाभान्तराय आदि कर्मके क्षय व क्षयोपशमका फल है; परन्तु बाह्य सामग्री अपने-अपने कारणों से प्राप्त होती है । अपने-अपने कारण क्या हैं ? इनका भी पण्डितजीने उल्लेख किया है। हम सब जानते हैं कि पैसा कमाना हो, तो व्यापार या उद्योगके साधन जुटाना, रकमको व्याज पर लगाना, सेठ साहुकार तथा व्यापारियों से मित्रता स्थापित करना आदि जितने बाह्य साधन हो सकते हैं और उनमेंसे जितने, जो कुछ हम अपना सकते हैं, उन सभी साधनोंसे बाह्य सामग्री की प्राप्ति होती है । लौकिक व्यवहारका अपलाप नहीं किया जा सकता। यदि बाहरी सामग्री देने वाले एक मात्र कर्म हों, तो औरोंको तो नहीं पर जैनोंको कम-से-कम हाथ पर हाथ रख कर बैठ जाना चाहिये था; कुछ कमाने-धमानेकी क्या आवश्यकता थी ? आगममें व्यवहारकी सर्वथा अवहेलना नहीं है । इसी बातको स्पष्ट करते हुए पण्डितजी आगे लिखते हैं- - इस प्रत्यक्ष, 'यद्यपि जैनदर्शन कर्मको मानता है, तो भी वह यावत् कार्यके प्रति उसे निमित्त नहीं मानता । वह जीवकी विविध अवस्थाएँ - शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छ्वास, वचन और मन इनके प्रति कर्मको निमित्त कारण मानता है । उसके तसे अन्य कार्य अपने-अपने कारणोंसे होते हैं । कर्म उनका कारण नहीं है । उदाहरणार्थ, पुत्र का प्राप्त होना, उसका मर जाना, रोजगार में नफा-नुकसान का होना, दूसरेके द्वारा अपमान या सम्मान किया जाना, अकस्मात् मकानका गिर पड़ना, फसलका नष्ट हो जाना, ऋतुका अनुकूल-प्रतिकूल होना, अकाल या सुकालका पड़ना, रास्ता चलते-चलते अपघातका हो जाना, किसीके ऊपर बिजलीका गिरना, अनुकूल व प्रतिकूल विविध प्रकारके संयोगों व वियोगों का मिलना आदि ऐसे कार्य हैं, जिनका कारण कर्म नहीं है । भ्रम से इन्हें कर्मोंका कार्य समझा जाता है । वास्तवमें जैनधर्ममें भावकी प्रधानता है, कर्मकी नहीं । अतः विद्वान् लेखकने जो मन्तव्य दिया है, वह जैन आगमोंसे ही उद्धृत है जो मान्य है । संक्षेपमें, टीकाकी सभी विशेषताओंके साथ ही विवेचन भी अनुसन्धानपूर्ण तथा आगमकी सम्यक् दृष्टिको दर्शाने वाला है । आगमका सही निर्णय ही हमारे जीवनके लिए और धर्म-पालनके लिए उपयोगी रहा है, है और बना रहेगा । Page #716 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम खण्ड : ६७७ आलापपद्धति : एक समीक्षात्मक अध्ययन • डॉ. देवेन्द्रकुमार शास्त्री श्रीमद्देवसेनसूरि विरचित "आलापपद्धति" एक महत्त्वपूर्ण संस्कृत गद्यमें लिखित नय-प्ररूपक रचना है। सर्वप्रथम यह रचना सन १९०५ में सनातन जैन ग्रन्थमालासे प्रथम गच्छकमें प्रकाशित हुई थी। इसकी भाषा सरल होनेके कारण इसका प्रचार बहुत अधिक हआ। मल आलापपद्धति कई बार मद्रित हो चुकी । इसका एक संस्करण श्री सकल दिगम्बर जैन पंचान, नातेपते (सोलापूर) से वीर सं० २४६० में प्रकाशित हुआ था । मूलके साथ इसमें हिन्दी अनुवाद भी भावार्थ सहित है । अनुवादक हैं - न्यायवाचस्पति पं० हजारीलाल न्यायतीर्थ । इसके सम्पादक व संशोधक हैं-पं० फूलचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री। अनुवादमें पण्डितजीने कहींकहीं परिवर्तन, परिवर्द्धन तथा यथोचित संशोधन किया है। प्रस्तावना पण्डितजीकी लिखी हुई है जो अत्यन्त संक्षिप्त होनेपर भी महत्त्वपूर्ण है । पण्डितजी लिखते हैं "वैसे तो जैनधर्म का साहित्यिक भण्डार अपरिमित है और उसमें गुण, पर्याय और स्वभाव आदिका वर्णन करनेवाले कई महत्त्वशाली ग्रन्थ है । परन्तु इस ग्रन्थमें जिस पद्धतिके अनुसार विषय-विवेचन किया गया है वह पद्धति निराली और अपूर्व है। इसमें गुण, पर्याय, स्वभाव, उपनय गुणोंकी व्युत्पत्ति, पर्यायकी व्युत्पत्ति, स्वभावोंकी व्युत्पत्ति, स्वभाव और गुणोंमें भेद, पदार्थों को सर्वथा अस्ति आदि एक स्वभाव मानने में दूषण, नय-दृष्टिसे वस्तु-स्वभाव-वर्णन, प्रमाणका लक्षण, व्युत्पत्ति और उसके भेद, नयका लक्षण, व्युत्पत्ति और उसके भेद, द्रव्याथिक और पर्यायार्थिक नयकी तथा उनके भेदों की व्युत्पत्ति और नय तथा उपनयोंके स्वरूपका वर्णन है । इस ग्रन्थकी रचना संस्कृत गद्यमें है, भाषा सरल है। बीच-बीचमें दूसरे ग्रन्थोंके भी श्लोक रूपमें मल विषयकी पुष्टि करनेवाले प्रमाण उद्धत किये हैं। इस ग्रन्थके कर्ता श्री देवसेनसूरि है । आलापपद्धतिके सिवाय आपने दर्शनसार, भावसंग्रह, आराधनासार और तत्त्वसार आदि कई महत्त्वपूर्ण ग्रन्थोंकी रचना की है।" पण्डितजीकी टिप्पणियाँ अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं । "आलापपद्धति" में निश्चय नयके नौ भेद माने गये हैं-द्रव्यार्थिक, पर्यायार्थिक, नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़, एवंभूत । इसकी टिप्पणीमें आप लिखते हैं-पंचाध्यायीकारने निश्चयनयको एक ही माना है, अनेक नहीं । क्योंकि जो पुरुष एक निश्चयनयको शुद्ध द्रव्यार्थिक, अशुद्ध द्रव्यार्थिक आदि रूपसे अनेक और सोदाहरण मानते हैं, वे अज्ञानी, मिथ्यादृष्टि तथा सर्वज्ञकी आज्ञाका उल्लंघन करनेवाले हैं, ऐसा पंचाध्यायीकारने कहा है। इसलिए उन्होंने शुद्ध द्रव्याथिक, अशद्ध द्रव्याथिक आदि सम्पूर्ण भेदोंको व्यवहारनयमें हो गर्भित किया है। और उस व्यवहारनयको मिथ्या तथा त्याज्य माना है। केवल एक निश्चयनयको ही यथार्थ और उपादेय माना है।" इस प्रकारकी टिप्पणियोंके अध्ययनसे यह स्पष्ट हो जाता है कि प्रारम्भसे ही पण्डितजीकी प्रवृत्ति तुलनात्मक अध्ययन की रही है। बड़े नयचक्रकी गाथाओंसे "आलापपद्धति" के सूत्रोंका साम्य स्थान-स्थानपर दर्शाया गया है । यथा-"कर्मोपाधिसापेक्षो शुद्धद्रव्यार्थिकः यथा-कर्मोपाधिजभाव आत्मा ।" इसकी टिप्पणी है-भावे सरायमादी सव्वे जीवंमि जो दु जपेदि । सो हु असुद्धो उत्तो कम्माणोवाहि सावेक्खो ॥ नय० २१ कहीं-कहीं पर "आलापपद्धति तथा माइल्ल धवल 'नयचक्र" में अत्यन्त साम्य है। जैसे कि-उत्पादव्ययगौणत्वेन सत्ताग्राहकः शुबद्रव्यार्थिको यथा-द्रव्यं नित्यम् । Page #717 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७८ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ टिप्पणी है-उप्पादवयं गौणं किच्चा जो गहइ केवला सत्ता । भण्णइ सो सुद्धणओ इह सत्तागाहओ समए । नय० गा० १९१ न्यायवाचस्पति पं० हजारीलालका अनुवाद केवल शब्दार्थमात्र नहीं है। प्रत्येक विषयको उन्होंने स्पष्ट किया है। इसके साथ ही पं० फूलचन्द्रजीके टिप्पणोंसे उसमें नवीनता परिलक्षित होने लगी है। उदाहरणके लिए, मन पर्ययज्ञानके सम्बन्धमें पं. हजारीलालने लिखा था-"द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी मर्यादा लिए हुए बिना किसीकी सहायताके जो चिंतित, अचिंतित, अर्धचिंतित आदि अनेक भेदरूप दूसरेके मनमें स्थितरूपी' अर्थको स्पष्ट जानता है उसको मन पर्ययज्ञान कहते हैं। यह ज्ञानरूपी पुद्गल द्रव्यकी सम्पूर्ण पर्यायोंको न जानकर कुछ पर्यायोंको जानता है, इसलिए देश कहलाता है । और जितनी पर्यायोंको जानता है, उतनी पर्यायोंको इन्द्रिय व मनकी सहायताके बिना ही स्पष्ट रूपसे प्रत्यक्ष जानता है, इसलिए प्रत्यक्ष कहलाता है।" इस पर पण्डितजीकी टिप्पणी है इसी प्रकारसे नयके प्रकरणमें अनेक पृष्ठोंपर “तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक' के उद्धरण देकर टिप्पणी लिखे गये हैं । अनुवादमें भी इतना जोड़ा गया दिखता है-' इस प्रकार कालादिकके भेदसे भी पदार्थमें भेद नहीं माननेसे जो दूषण आते हैं, उनका यहाँपर संक्षेपमें ही उल्लेख किया गया है। जिनको इस विषयमें विशेष जाननेको इच्छा हो वे 'इलोकवार्तिक" को देखें ।" कहीं-कहीं इन टिप्पणोंमें विस्तार के भयसे संक्षेपमें सार प्रकट किया गया है जो साधारण पाठकोंके लिए ही नहीं, विद्वानोंके लिए भी महत्त्वपूर्ण है । उदाहरणके लिए, अनुवादमें एक पंक्ति है--"इसके सिवाय इन सातों ही नयोंमें-से पूर्वपूर्वके नय व्यापक होनेसे कारण रूप तथा प्रतिकूल महाविषय वाले हैं।" इसे स्पष्ट करनेके लिए पण्डितजीने टिप्पणीमें ५-६ पंक्तियाँ लिखकर फिर लिखा है-“सारांश यह है कि सातों नयोंमेंसे नैगमनय केवल कारण रूप है और एवंभूतनय केवल कार्यरूप है। तथा शेष पाँच नय पूर्व-पूर्वके नयोंकी अपेक्षासे कार्यरूप और आगे-आगेके नयोंकी अपेक्षासे कारण रूप हैं।" प्रमेयका लक्षण है-प्रमाणेन स्वपरत्वरूपपरिच्छेद्यं प्रमेयम् । इसका टिप्पणी है-१. "प्रमाणेन स्वपरस्वरूपपरिच्छेदकेन परिच्छयं प्रमेयं", ऐसा पाठ होता तो बहुत अच्छा था । इस प्रकारसे कई पाठ सुझाये गये हैं। टिप्पणियोंमें यथास्थान पाठोंका उल्लेख किया गया है। १. मन पर्ययज्ञानरूपी द्रव्यके सम्बन्धसे संसारी जीवको भी जानता है। . २. "परकीयमनसि व्यवस्थितोऽर्थः मनः तत् पर्येति गच्छति जानातीति मनःपर्ययः" अर्थात् दूसरेके मनमें स्थित अर्थको मन कहते है। और उस मनको जो जानता है उसको मनःपर्ययज्ञान कहते हैं। ३. पंचाध्यायीकार ने मनःपर्ययज्ञानमें भी मनकी सहायता मान करके मनःपर्ययज्ञान मनकी सहायतासे उत्पन्न होता है, इसलिए देश कहलाता है । और शेष इन्द्रियोंकी सहायतासे उत्पन्न नहीं होता है, इसलिए प्रत्यक्ष कहलाता है ऐसा माना है। मनःपर्य यज्ञानके अन्य दो भेद हैं-प्रतिपाती, अप्रतिपाती। प्रतिपाती उपशमश्रेणीकी अपेक्षा कहा गया है । अप्रतिपाती मनःपर्ययज्ञान क्षपकश्रेणीकी अपेक्षा कहा गया है। इसी प्रकार-"किसी-किसीने अतीतवर्तमाल, वर्तमानातीत, अनागतवर्तमान, वर्तमानानागत, अनागतातीत और अतीतानागत इस तरह नैगमनयके छह भेद माने हैं, परन्तु ये सब भेद नैगमनयके भूत, भावि आदि उक्त तीनों भेदोंमें ही भित हो जाते हैं । श्लोकवातिककारने द्रव्यनगम पर्यायनगम आदि रूपसे नैगमनयके ९ भेद माने हैं।" (पृ. ६४ की टिप्पणी) Page #718 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम खण्ड : ६७९ उक्त ग्रन्थका अनुवाद भी बहुत सरल तथा सुन्दर हुआ है। शुद्ध स्वभाव और अशुद्ध स्वभावकी व्युत्पत्ति की गई है-शुद्धं केवलभावमशुद्धं तस्यापि विपरीतम् । इसका अर्थ किया गया है-केवल भावको अर्थात् परका जिसमें कुछ भी सम्बन्ध नहीं है ऐसे भावको शुद्ध स्वभाव कहते हैं । और शुद्ध स्वभावसे विपरीत भावको अशुद्ध स्वभाव कहते हैं। भावार्थ--शुद्ध भावोंकी अपेक्षासे द्रव्य शुद्ध स्वभाववाला और अशुद्ध भावोंकी अपेक्षासे द्रव्य अशुद्ध स्वभाववाला कहलाता है। "लक्षण" का अर्थ गुण किया गया है। टिप्पणमें इसका स्पष्टीकरण है-यहाँ पर "लक्षण" शब्दसे गुणका ग्रहण किया गया है, क्योंकि लक्षण, शक्ति, धर्म, स्वभाव, गुण और विशेष आदि ये सब शब्द एक गुण रूप अर्थके ही वाचक हैं अर्थात् गुणके नाम है । पंचाध्यायीमें भी कहा है शक्तिर्लक्ष्म विशेषो धर्मो रूपं गुणः स्वभावश्च । प्रकृतिः शीलं चाकृतिरेकार्थवाचका अमी शब्दाः ।।४८।। संक्षेपमें, शास्त्राकार १३९ पृष्ठोंमें मुद्रित उक्त ग्रन्थ नयोंको समझनेके लिए एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है । अनुवादकी दृष्टिसे यह एक सफल रचना है । अनुवाद करनेवालोंकी इस प्रकारके ग्रन्थोंको सामने रखकर आदर्श मानककी अवधारणा निर्धारित करनी चाहिए। इससे सरलतया भाषान्तरणका रहस्य बुद्धिगम्य हो सकता है। Page #719 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #720 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मटक : कमल प्रिटिग प्रेस. भेलपुर, वाराणसा-१०