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________________ ८० : सिद्धान्ताचार्य पं० फलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ देशके असहयोग आन्दोलनमें भी श्री पं० जीने सक्रिय भाग लिया और जेलकी यात्रा भी की। सामाजिक सुधारके वे पक्षपाती रहे, पर आगमबाह्य सुधारकी बात उन्होंने स्वप्नमें भी नहीं की। इसीसे जब सुधारवादी नेताओंसे उनका मतभेद बना तो सामाजिक क्षेत्र छोड़कर साहित्यिक क्षेत्रको अपना प्रमुख कर्मक्षेत्र बनाया और आज भी उसीमें संलन्न है । पूज्य वर्णी गणेशप्रसाद जी तथा पं० देवकीनन्दनजीके वे अनन्यभक्त थे। आज भी ( उनके दिवंगत हो जाने पर भी उनको इन दोनों महानुभावों पर अमित श्रद्धा है । देवगढ़ गजरथके पक्ष प्रतिपक्ष में पं० देवकीनन्दनजीके प्रतिपक्षमें ये खड़े थे, गुरु शिष्यत्व संबन्धकी भी परवाह न कर वे अपने सिद्धान्तपर अटल रहे, पर गुरु भक्ति नहीं छोड़ी। वर्णी ग्रन्थमालाकी स्थापनाका श्रेय पं० फूलचन्द्रजीको ही है । सहयोगी बादमें अनेक हों पर मूल पुरस्कर्ता पं० फूलचन्द्रजी हैं उसके जन्म कालसे आज ४० वर्ष तक वे ही उसके निर्वाहक हैं। लाखों रुपयोंका व्यय, अनेक ग्रन्थोंका प्रकाशन केवल इस एक व्यक्तिकी श्रद्धा और शक्ति पर अवलम्बित रहा। लाखों रुपयोंका फंड आज भी वर्णी संस्थानमें है।। वर्णो ग्रन्थमालामें कई वर्षसे उसके मन्त्री थे। एक बार अध्यक्ष महोदयसे कुछ सैद्धान्तिक मतभेद हो गया। उनसे कहा गया कि आप उक्त चर्चाको बदलकर ग्रन्थ छापो । पंडितजीने कहा यह आगम सम्मत है । इसलिए मैं इसे नहीं बदल सकता । मैं इस ग्रन्थको ग्रन्थमाला से न छापूँगा, आपकी मर्यादाका ध्यान रखूगा अतः ग्रन्थ अन्यत्र से प्रकाशित कराया । ___ एक बार जब मैं सम्मेदशिखरजीकी यात्राके बाद बनारस आया तो पं० फूलचन्द्रजी कषायपाहुड़ ( जयधवला) के किन्ही भागोंका अनुवाद कर रहे थे। मैं दस दिन बनारस रहा । उन दस दिनोंमें पं० जीने एक लकीर भी नहीं लिखी पर अनेक ग्रन्थोंका आलोड़न ७-८ घंटे प्रतिदिन करते रहे। मैंने सहसा पूछा कि आपने कुछ इन दिनों लिखा नहीं ? तब आपकी आजीविका कैसे चलेगी? पं० जी का उत्तर उनकी आत्माका स्वच्छ प्रतिबिम्ब था __ उन्होंने यह उत्तर दिया कि अमुक पंक्ति अटक गई है उसका अर्थ अन्य आगम ग्रंथोंसे मेल नहीं खा रहा है । मैं गंभीरताके साथ यह देख रहा हूँ कि यहाँ क्या विवक्षा है और अन्यत्र किस विवक्षासे लिखा गया है । या इसका अर्थ सपझने में मेरी भूल है जबतक विषय स्पष्टरीत्या सुलझता नहीं, तबतक कलम कैसे चलाऊं। मैंने कहा कि ऐसी स्थितिमें आपका पारिवारिक व्यय तो नहीं चल सकेगा । उनका उत्तर था कि यह आप लोगोंके सोचनेका काम है मेरा नहीं। मैं तो ईमानदारीसे श्रम करके सिद्धान्तके रहस्योंको अन्य आचार्योंके मन्तव्योंके आधारपर खोलने पर ही अपनी कलम चलाऊँगा। ___ मैं चकि उस समय वर्णी ग्रन्थमालाका उपाध्यक्ष और भा० दि० जैन संघ मथुराका प्रधान मंत्री था। श्री पं० कैलाशचन्द्रकी साहित्य विभागके मंत्री थे। दोनोंने परस्पर विचार किया कि साहित्यका वह भी जैन आगम साहित्यके अनुवाद व सम्पादनका कार्य मिट्टी खोदनेकी मजदूरीका काम नहीं है कि जितनी खोदे उसी मापसे मजदुरी दी जाय । उपायान्तर न देखकर पारिश्रमिककी दर डेवढ़ी कर दी, भले इससे ग्रन्थ मँहगे पड़ेंग पर इन महान् ग्रन्थोंपर होने वाले श्रमको देखकर वह कुछ भी नहीं है। सूविख्यात पं० टोडरमल जी अपने युगके सुप्रतिष्ठित निष्णात विद्वान् थे। उन्होंने मोक्षमार्ग प्रकाशक तो लिखा पर अपने समयमें श्री गोम्मटसार जीवकांड, कर्मकाण्ड, लब्धिसार, क्षपणासार, त्रिलोकसार आदि प्राकृत भाषाके उत्कृष्ट कोटिके करणानुयोग ग्रन्थों की संस्कृत टीकाओंका हिन्दी अनुवाद भी किया था जो अपने में महान कार्य था। उनका क्षयोपशम इतना उत्कृष्ट था कि वे उन कठिनतर ग्रन्थोंका स्वबुद्धिसे सरलतम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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