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किया जाता रहा है कि जो सामाजिक मर्यादाओंका भले प्रकार पालन करता है, उनमें नहीं लगने देना वही पारलौकिक धर्म स्वीकार करनेका अधिकारी होता है, अन्य नहीं ।
मुनिके तो मात्र पारलौकिक धर्म ही होता है । पर गृहस्थके लौकिक धर्मके साथ पारलौकिक धर्म भी होता है और नहीं भी होता । जो गुरु साक्षीपूर्वक व्रत स्वीकार करते हैं उनके पारलौकिक धर्म अवश्य होता है । लौकिक धर्म उनके गौण रहता है । इसका अर्थ यह कि धर्म सम्बन्धी जो क्रियाएँ वे पहले लौकिक दृष्टिसे पालते थे वे पारलौकिक धर्मका अंग बन जाती हैं । तथा लौकिक क्रियाओं को वे उदासीन भावसे पालन करते हैं, उनका उल्लंघन नहीं करते । पर जो अपनी अशक्तिवश पारलौकिक धर्मको नहीं स्वीकार कर पाते उन्हें for धर्म में दृढ़ता बनाये रखनी होती है, इसके बिना सामाजिक व्यवस्था एक क्षण भी नहीं चल सकती । इसको ध्यान में रखकर यही समझना चाहिये कि जो मुनि होते हैं उनके तो शीलके अठारह हजार भेद व्रत रूपमें होते हैं, पर गृहस्थ उनका लौकिक दृष्टिसे पालन करते हैं । कि जैसे पुरुष सचित्त या अचित्त स्त्रीमूर्तिको न तो रागभावसे देखते ही हैं और न स्पर्श ही करते हैं । उसी प्रकार स्त्रियाँ भी चित्त और अचित्त पुरुषमूर्तिको न तो रागभावसे देखती ही हैं और न उन्हें स्पर्श ही करती हैं । श्री मन्दिरजीमें विराजमान तीर्थङ्करकी धातु-पाषाण आदिसे निर्मित जिनमूर्ति पुरुषमूर्ति ही है, इसलिये महिलाओं को चाहिये कि वे उनका अभिषेक करनेके लिए लालायित न हों। जो स्त्री धर्म है वे मन, वचन और कायसे उसे भली प्रकार पालन करें ।
इसका अर्थ यह है
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इसके बाद एक सवाल यह अवश्य उठता है कि यदि ऐसा है तो फिर स्त्रियाँ मुनियोंको आहार कैसे देती हैं । सो इसका उत्तर यह है कि जिस प्रकार स्त्रियाँ अतिथि आदिको आहार कराती हैं उसी प्रकार मुनिको भी आहार करानेको अधिकारिणी हैं । फिर भी वे एकाकिनी रहकर आहार नहीं देतीं, किन्तु सबके साथ रहकर आहार देती हैं । उसमें मुनि के शरीरको स्पर्श करने का कोई अवसर ही नहीं आता । मुनि आहारके शोधनमें और उसको लेने में व्यस्त रहता है इसलिए उसे पता ही नहीं चलता कि आहार देनेवाला कौन है । और महिला साधुको अन्तराय न हो जाय, इसलिए उसकी आँखें आहारसे शोधनमें लगी रहती हैं इसलिए उसका चित्त भी अन्यत्र नहीं जाता और इस प्रकार आहार विधि सम्पन्न हो जाती है । इसलिए महिला मुनिको
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नहीं उठता ।
आहार देती हैं अतः वह अभिषेक प्रक्षाल भी कर सकती हैं यह सवाल ही पर भी कि विषय पर
इस प्रकार इतने विवेचनसे यह निश्चित हो जाने करनेकी अधिकारिणी नहीं है थोड़ा अन्य प्रकारसे भी इस होता है ।
`चतुर्थं खण्ड : ५४७
किसी प्रकारका दोष
भावपाहुडमें एक गाथा आती है जिसमें दस प्रकारके अब्रह्मका त्याग कर नौ प्रकारके ब्रह्मचर्य के पालनेका विधान किया गया है । वह गाथा इस प्रकार है-
णवविहबंभं पयडहि अब्बंभं मेहुणसण्णासन्तो भमिओसि
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महिला भगवान् के अभिषेक - प्रक्षाल विचार कर लेना आवश्यक प्रतीत
दसविहं पमोत्तूण | भवण्णवे भीमे ||१८||
हे जीव हूँ ! दस प्रकारके अब्रह्मको छोड़कर नौ प्रकारके ब्रह्मचर्यको प्रगट कर, क्योंकि तँ मैथुन संज्ञामें आसक्त होकर भयंकर भवार्णवमें भ्रमण करता रहा ॥९८॥
यहाँ इस गाथामें दस प्रकारके अब्रह्म के त्यागके साथ नौ प्रकारके ब्रह्मचर्यके पालन करनेका उपदेश दिया गया है। दस प्रकारका अब्रह्म क्या है जिसका पुरुष और महिलाको त्याग करना चाहिये इसका निर्देश
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