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१४६ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ
जागृत होनेसे ही अपने आत्माकी सच्ची रक्षा होती है। दूसरे जीवोंकी रक्षा तो उस अहिंसा भावके जागृत करनेके लिए निमित्तमात्र है। जब तक दूसरे जीवोंकी रक्षाकी मुख्यता रहती है तब तक परजीवकी रक्षासे उत्पन्न होनेवाले भावका दयामें अन्तर्भाव होता है और धीरे धीरे जब यह आत्मा दयाकी पूर्ण विकसित अवस्था तक पहुँचकर अपने में समता तत्त्वका अनुभव करने लगता है, तब दयाका रूपान्तर अहिंसामें हो जाता है । यही प्राणिसंय मकी पूर्णत्वावस्था है। इस तरह संयमके दो भाग हो जानेपर भी उनका अर्थ एक ही है। इस संयमकी प्राप्तिके लिए क्रमिक त्यागकी अत्यन्त आवश्यकता है। अक्रमसे किया गया त्याग हमें संयम तक न पहुँचाकर असंयममें ही संयमका अभिमान करनेके लिए सहायक होता है।
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