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________________ संयम शास्त्रों में संयम के दो भेद बताये है -- एक इन्द्रियसंयम और दूसरा प्राणिसंयम । संयमका स्वरूप बतलाते हुए आचार्योंने मनोनिग्रह, इन्द्रियविजय, कषायोंका जीतना और योगप्रवृत्तिका रोकना अत्यन्त आवश्यक बतलाया है। इससे यह बात सहज ही समझ में आ जाती है कि संयम में आत्मस्वरूपकी रक्षाकी अत्यन्त मुख्यता है । कारण, इन्द्रिय और मनके द्वारा पर-पदार्थके जान लेनेपर कषायसे उसमें इष्टानिष्ट बुद्धि होकर योग द्वारा यह आत्मा उनके ग्रहण और त्यागकी भावना उत्पन्न करता है, जो अपने लिए अपनी इच्छा के अनुकूल मालूम पड़ता है, उसे यह प्राप्त करना चाहता है और जो प्रतिकूल प्रतीत होता है, उसका त्याग करना चाहता है । यह वासना इस जीवकी अनादिकालसे चली आ रही है और इसीके आधीन होकर यह परवस्तु के ग्रहणका त्याग नहीं कर सकता है। इसलिए परवस्तु सम्बन्धी राग और द्वेषरूप परिणति के त्यागके लिये इन्द्रिय और मनको स्वाधीन रखना अत्यन्त आवश्यक है । परन्तु वे स्वाधीन तभी हो सकते हैं, जब हमारी राग और द्वेषरूप प्रवृत्ति कम होती जावे । तथा राग और द्वेषरूप प्रवृत्ति के कम करने के लिए हमें अपना शारीरिक, वाचनिक और मानसिक व्यापार भी कम करना होगा । हम मन, वचन और काय द्वारा परवस्तु के साथ जितना अधिक सम्बन्ध जोड़ेंगे उतना ही अधिक हमारा राग और द्वेष बढ़ता जावेगा और उस पदार्थको उतना ही अधिक जाननेकी उत्सुकता भी बढ़ेगी । यद्यपि किसी भी पदार्थको जानना अनिष्ट कर नहीं है, परन्तु किसी भी पदार्थके जाननेपर उसमें जो इष्टानिष्ट कल्पना होकर उसे ग्रहण करने और त्याग करनेके भाव होते हैं, वे ही हमारा अपाय करनेवाले हैं । रूप रसादिको विषय शब्दसे कहना उपचार मात्र है । विषय तो परपदार्थ में इष्टानिष्ट कल्पना ही है । जहाँपर किसी भी वस्तुके ग्रहण करनेपर हमारी आत्मामें ज्ञान के सिवाय दूसरा कोई भी विकल्प उत्पन्न नहीं होता है, वह अवस्था आत्माका निजधर्म है, अतएव उसका त्याग कभी भी नहीं हो सकता है । परन्तु वस्तुके जाननेके उत्तरक्षण में ही जहाँ आत्मा उस वस्तु से प्रभावित हो उठता है, आत्मामें ज्ञानके साथ दूसरे भावोंकी धारा बहने लगती हैं और इस तरह यह आत्मा धीरे-धीरे ज्ञानकी उत्सुकता से रहित होकर पदार्थके ग्रहण और त्यागकी उत्सुकता से आबद्ध हो जाता है । वहींसे उक्त पदार्थजन्य असंयमकी धारा इस आत्मामें प्रवाहित होने लगती है । इस तरह यह आत्मा अनन्त पदार्थोंके ग्रहण और त्यागसे अपनेको जोड़े हुए है अतएव यह स्वतः की रक्षाको भूलकर उनकी रक्षा और विनाशके प्रयत्नको अपनी ही रक्षा और विनाश समझता है । यही इसका महान् असंयम है, इस असंयमसे बचनेके लिए इसे परत्वमें परबुद्धि और निजत्व में निजबुद्धि तो करनी ही होगी । साथ ही इन पदार्थों में मेरा कल्याण होता है, इस भावनाको भी भुलाकर धीरे-धीरे पदार्थोंका त्याग करते जाना होगा, परन्तु यह त्याग द्वेषसे न होकर उदासीनता से होना चाहिए। द्वेषसे जिस वस्तुका त्याग किया जाता है यद्यपि वह पदार्थ अपने से दूर भी हो जाता है, परन्तु उस पदार्थ के निमित्तसे उत्पन्न हुई द्वेषरूप वासना दूर न हो कर वह इस आत्माको निरन्तर व्याकुलताका अनुभव कराती रहती है । इतने विवेचनसे यह सिद्ध हो जाता है कि इन्द्रिय द्वारा पदार्थ के ग्रहण करनेपर भी पदार्थोंमें जो इष्टानिष्ट कल्पना है, उसका त्याग करना सच्चा संयम है । इसीको इन्द्रिय- संयम कहते हैं । इसके साथ एक और महत्त्वकी बात है, वह यह कि परवस्तु के त्याग और निजत्वके ग्रहणके साथ अपने में अहिंसाकी भावना सतत जागृत रहनी चाहिए । अहिंसाका पालन केवल दूसरे जीवोंकी रक्षा के लिए ही किया जाता है यह बात नहीं है, किन्तु अहिंसा भावके १९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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