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तृतीय खण्ड : ८५ घटनाएँ सुनाते थे हृदय भर आता था। समाजमें उन्होंने जहाँ भी काम किया सम्मानकी अपेक्षा उन्हें असम्मान ही अधिक मिला । फिर भी उन्होंने अपने स्वाभिमानकी सदा रक्षा ही की है ।
गुरु गोपालदासजीकी कृपा से जब विद्वानोंकी परम्पराका सृजन हुआ तब विद्वानोंको अपने आर्थिक कष्टके निवारणके लिये अध्ययन अध्यापनकी सामाजिक सेवाएँ स्वीकार करना पड़ीं। परिणाम यह हुआ कि विद्वानोंको समाज अपना सेवक समझने लगी धीरे-धीरे उनके साथ पीरवयर्थी भिश्ती खर जैसा व्यवहार होने लगा । आदरणीय पं० जीने भी कहीं कहीं इस स्थितिका सामना किया । इस कारण मेरे हृदय में भी स्वाभिमान के संस्कार उदित होते थे। अपने अनुगतके लिये समर्पित होकर रहना पंडितजीका सहज स्वभाव था ।
मेरे सीधे हाथका अंगूठा बुरी तरह पक गया था। मैंने उसका बहुत कुछ उपचार किया लेकिन ठीक होना तो दूर रहा वह और अधिक पकता ही गया । पं० जी मुझे दवाखाना ले गये । रोगियोंकी भीड़के कारण पंडितजी मेरे साथ २-३ घंटे बैठे रहे । अंगूठा का आपरेशन होगा सुनकर मैं रोने लगा, पंडितजी ने मुझे धैयं बंधाया । और आपरेशन कराके मुझे सावधानीके साथ घरपर ले आये इस घटना के कारण वे मुझसे दूर रहते हुये भी चाहे जब निकट आ जाते हैं । बनारस में क्षय रोगसे पीड़ित होने पर भी भा० दि० जैन संघने भी जीवनकी रक्षा करने के लिए तन-मन-धनकी बाजी लगा दी थी। पंडितजी भी इसमें अनुमोदक थे ।
सोनगड़की मान्यताओं को लेकर यद्यपि पंडितजीके साथ मेरे मतभेद हैं फिर भी आजतक मनमें भेद कभी नहीं हुआ। पंडितकी जब कभी देहली आते हैं तो मैं बड़े स्नेहसे मिलता हूँ। सैद्धान्तिक मान्यताएँ तो पिता पुत्र, पति पत्नी और गुरु शिष्य आदिमें भी भिन्न-भिन्न देखी जाती हैं पर समझदार व्यक्तियों में इससे मनमुटाव नहीं होता ।
इन्दौर पहुँचा वहाँ मालूम हुआ कि मेरे स्नेही मित्र पं० मिलने की उत्सुकता हुई। जब मैं आश्रमके निकट पहुंचा दालान में स्नान करते हुये दिखाई
उनके शरीरकी यह दुर्दशा देखकर
अभी कुछ माह पहले मैं प्रवासमें घूमता हुआ फूलचन्द्रजी इंदौर उदासीन आश्रम में हैं। मुझे उनसे तो सड़क परसे एक सज्जन जिनका शरीर कंकाल जैसा था आश्रम के बाहर दिये । जब मैं बिल्कुल निकट पहुँचा तो मालूम हुआ पं० फूलचन्द्रजी हैं मेरी आँखमें आँसू आ गये । उधर उन्होंने जब कुछ देरमें मुझे पहचाना तो कहने लगे कि आपका स्वास्थ्य भी बहुत गिर गया है - आप भी इस शरोरके कारण मुझे एकदम पहचानने में नहीं आये हमारी परस्पर काफी देर तक सामाजिक चर्चाएँ होती रहीं। विद्वानोंके संबंध में पं० जी ने कहा कि अब विद्वानोंकी सृष्टि कम हो रही है। अब वे ही विद्वान् रहेंगे जिनके अध्ययनका क्रम तो नहीं रहेंगा फिर भी वे सप्ताह दो सप्ताहकी अवधि के अन्दर शिक्षण शिविरों में पड़कर विद्वान् बन जायेंगे । और श्रोता लोग उन्हींकी बातको समझेंगे । गहन अध्ययन, मनन, चिंतनकी अब कोई भी आवश्यकता नहीं है । मैं सुनकर हँसने लगा ।
पं० फूलचन्द्रजी अपना शेष जीवन अब इंदौर आश्रममें ही बिताना चाहते हैं। वे अब अपनी सभी घरेलू झंझटोंसे मुक्त होकर एकाकी निस्पृह चित्तसे समय व्यतीत करना चाहते हैं। अब आप प्रायः सामाजिक कार्यों में हाथ नहीं बटाते फिर भी धवला आदिके अध्ययन अध्यापन आदिमें अवश्य सम्मिलित होते हैं ।,
श्री पं० जी दीर्घजीवनकी मैं हार्दिक कामना करता हूँ।
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