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________________ सम्पादकीय भारतीय संस्कृति, समाज और साहित्य इन तीनोंकी मूल चेतना एक है। वैदिक तथा श्रमण, ऋषि और मुनि, बार्हत और आर्हत जैसे भेद केवल बाह्य रूपोंको विविध दृष्टिकोणोंसे समझनेके लिए है। मूलतः उन सबमें सांस्कृतिक प्रवाह एक है । हमारी संस्कृति जिस अहिंसाके धरातल पर सुस्थित है, वह अविचल है । इतिहासकी घटनाओंमें ऐसी परिस्थितियाँ भले ही उत्पन्न होती रही हो, किन्तु संस्कृतिका मूल स्वरूप सदा अक्षुण्ण रहा है। शत-सहस्र शताब्दियोंसे अनादि, अनिधन किंवा सनातन परम्परागत श्रुतकी गरिमासे मण्डित सारस्वत आचार्यों, मेधावी श्रुतनिष्ठ साधकों, साधुओं एवं पण्डितोंसे यह परम्परा सदा प्रवर्तमान रही है। आज हमारे देशमें जो भी विद्वान् दृष्टिगोचर हो रहे हैं वे श्रुतदेवीके सच्चे उपासक हैं। उनकी विद्वत्ता साधनाके आयामों में ही परिलक्षित होती है । वे किसी जाति तथा समाजमें उत्पन्न होनेपर भी मानवीय चेतनाके अखण्ड रूप हैं । उनकी विलक्षणता मानव जातिका सुन्दर इतिहास है । भारतीय संस्कृति और उसके इतिहासकी मूल धारासे जैनधर्म उसी प्रकार संपक्त है, जैसे दूधमें मिठास । अतः भारतीय संस्कृतिके उन्नयनमें जैन विद्वानों तथा पण्डितोंका महत्त्वपूर्ण अवदान रहा है। जिन तपःपूत साधकोंने अपनी साधनाके द्वारा आत्मनिष्ठा, गुरुता तथा आर्दश मानकको परम्परागत विशेषताओंके रूपमें उजागर कर नवल धवल आयामोंमें विभिन्न पक्षोंको समायोजित कर उदात्त धरातल पर प्रतिष्ठित तथा प्रकाशित किया, उन सारस्वत विद्वानोंमें पण्डितजीका विशिष्ट स्थान है। भारतीय साहित्यके इतिहासमें, जैनदर्शन तथा तत्त्वज्ञान के मनीषियोंमें उनका नाम उल्लेखनीय रहेगा। प्राच्य विद्याके क्षेत्रमें जर्मन विद्वानोंने जो उल्लेखनीय कार्य किया, उनसे कम महत्त्वका काम पण्डित जीने नहीं किया। जैनधर्मकी मूल आगम श्रुतको प्रकाशित करने वाले शुद्ध पाठोंसे समन्वित तथा आधुनिक सम्पादन विधिसे सम्पादित सिद्धान्त ग्रन्थोंका प्रकाशन अपने आपमें महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक घटना है। इस महान् कार्यमें पण्डितजीका सहयोग रहा है। प्राकृत भाषामें रचित इन महान् सैद्धान्तिक ग्रन्थोंका सम्पादन तथा हिन्दी अनुवाद करना महती साधना एवं दीर्घकालीक श्रुताभ्यासका परिणाम है। साधारण लेखक तथा सामान्य पाठककी पहुँच उन तक नहीं है। आगम तथा सिद्धान्त ग्रन्थोंका जिनका विशिष्ट अध्ययन है, वे ही इनका वाचन कर फलश्रुति उपलब्ध कर सकते हैं। आगमके आजीवन अभ्यासी पं० फलचन्द्रजीकी महती श्रुत-साधनाका ही यह परिणाम है कि “षखण्डागम" का रहस्य हिन्दी अनुवादके माध्यमसे पूर्व-पश्चिम जगतके समक्ष स्पष्ट हो सका है । बीसवीं शताब्दीकी पण्डित-परम्परामें आगमका भाव खोलने में सक्षम विद्वान के रूप में सदा स्मरणीय रहेंगे। दिगम्बर जैन पण्डितोंकी परम्परामें वर्तमान पण्डित कैलाशचन्द्रजी, पण्डित फुलचन्द्रजी तथा पण्डित जगन्मोहनलालजी ऐसे सुमेरु-माणिक्य हैं जो सम्यक् श्रद्धान, ज्ञान और चारित्रके प्रतीक हैं। वीतराग धर्म, दर्शन, साहित्य एवं तीर्थमें इनकी श्रद्धा अगाढ़ एवं अविचल है । ये स्वयं जीवन्त तीर्थके समान है। इन सभी विद्वानोंने अपने गम्भीर अध्ययन, लेखन, सम्पादन, प्रवचन, अध्यापन, शोध तथा अनुसन्धान-कार्य, संस्थानिर्माण एवं संचालन, पत्रकारिता आदि साहित्यिक प्रवृत्तियोंसे लेकर सामाजिक, सांस्कृतिक तथा आध्यात्मिक सभी प्रवृत्तियोंमें विशिष्ट सहयोग देकर समाजमें स्थायी कीर्तिमान स्थापित किया है। आदरणीय पण्डितजी इन सभी कार्योंमें अग्रणी रहे हैं । समाजको समयपर नवीन दिशाकी ओर उन्मुख करनेमें आपकी सूझ-बूझ विलक्षण तथा प्रशंसनीय रही है। किन्तु आप स्वयं समाजके आन्तरिक कलहों, विवादों और समस्याओंसे दूर रहे है । आपके व्यक्तित्वमें यह विरोधाभास भासित होता रहा है । वास्तवमें आपका जीवन विरोधाभासोंसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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