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१२८ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ
वर्णीजी ने अपने जीवनका बहुभाग अपरिग्रहवादकी शिक्षामें बिताया है। कभी-कभी इस विषयकी चर्चा करते हए वे अपनेको खोये हुए सा अनुभव करने लगते है। यह उनका प्रतिदिनका कार्य है। इस विषयमें वे क्या कहते हैं यह उन्हींकी शब्दोंमें पढ़िये
'संसारमें जितने पाप हैं उनकी जड़ परिग्रह है। आज जो भारतमें बहुसंख्यक मनुष्योंका घात हो गया है तथा हो रहा है उसका मूलकारण परिग्रह ही है। यदि हम इससे ममत्व घटा देवें तो अगणित जीवोंका घात स्वयमेव न होगा। इस अपरिग्रहके पालनेसे हम हिंसा पापसे मुक्त हो सकते हैं और अहिंसक बन सकते हैं। श्री वीर प्रभुने तिलतुषमात्र परिग्रह न रखके पूर्ण अहिंसा व्रतको रक्षा कर प्राणियोंको बता दिया कि यदि कल्याण करनेकी अभिलाषा है तब दैगम्बर पदको अङ्गीकार करो । यही उपाय संसार बन्धनसे छूटनेका है।'
इस प्रकार हम देखते हैं कि विश्व में जितने भी सन्त पुरुष हए हैं उन्होंने एकमात्र यही शिक्षा दी है कि भौतिक साधनोंके बलपर कभी भी कोई व्यक्ति या राष्ट्र अपनी उन्नति करने में समर्थ नहीं होता है । इससे मात्र पशुता ही फूलती-फलती है। अध्यात्म जोवनको रक्षा सर्वोत्कृष्ट मार्ग
यह तो मानी हई बात है कि राष्ट्र या विश्व जिस नीतिको अपनाता है उसका प्रभाव व्यक्तिके जीवनपर अवश्य पडता है। ऐसे बहुत ही कम व्यक्ति हैं जो अपने मानवीय गुणों द्वारा राष्ट्र या विश्वको प्रभावित करते हैं। मुख्य प्रश्न समाजका है । उसने एक प्रकारसे अपने आध्यात्मिक जीवनको भुलासा दिया है। वह केवल भौतिक साधनोंके बलपर विश्व-शान्तिकी कल्पना किये हुए है। अशान्ति कोई नहीं चाहता पर इसे दूर कैसे किया जाय इस ओर किसीका ध्यान नहीं है।
जैसा कि हम पहले बतला आये हैं कि जीवनमें भौतिक साधनोंका स्थान है अवश्य, पर इसकी एक मर्यादा है। अध्यात्म जीवन व्यक्तिकी निजी सम्पत्ति है। सर्व प्रथम उसकी रक्षाको प्रमुखता देनी होगी। अपरिग्रहवादको शिक्षा इसका अपरिहार्य परिणाम है। राज्यकी नीति ऐसी होनी चाहिए जिससे इस दिशामें व्यक्तिको अधिकसे अधिक प्रभावित किया जा सके। महात्मा गांधीने इसकी महत्ता अनुभव की थी। उसे वे साकार रूप देना चाहते थे। लेकिन उनके बादका भारत कुछ और ही बनना चाहता है। शायद वह अमेरिका बनेगा। तब क्या वह विश्वको शान्तिका सन्देश देनेका अधिकारी रह सकेगा।
हम यह कभी भी मानने के लिये तैयार नहीं हैं, हम ही क्या कोई भी बुद्धिमान् व्यक्ति यह नहीं मान सकता कि पश्चिमीय ढंगपर कल-कारखानों, भौतिक प्रयोगशालाओं और यातायातके साधनोंका विस्तार करने पर भारत अपनी आध्यात्मिकताकी रक्षा कर विश्वको शान्ति पथपर ले चलने में समर्थ हो सकेगा। आजका अणुबम और हाइड्रोजन बम इसी नीतिका परिणाम है । युद्धसे युद्धको प्रोत्साहन मिलता है और आध्यात्मिकताका लोप होता है।
अर्थका सम्बन्ध मानव जीवनसे है अवश्य, लेकिन जीवनका एकमात्र यही प्रश्न मुख्य नहीं है । बल्कि व्यक्तिकी अपनी भावनाएँ भी उसके साथ हैं। इनमेंसे किसी एककी अवहेलना नहींकी जा सकती। आर्थिक ढाँचेको केवल निष्प्राण मशीन बनाना उचित नहीं है । आवश्यकता इस बातकी है कि प्रत्येक राष्ट ऐसी नीति स्वीकार करे जिससे आर्थिक सन्तुलनके साथ व्यक्तिको अपने आध्यात्मिक जीवनके विकासमें पूरी सुविधा मिलती रहे। १. जैन परम्पराके वर्तमान सन्त न्यायाचार्य पं० गणेशप्रसादजी वर्णी । २. वर्णीवाणी।
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