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पंचम खण्ड : ६१३
ये पाँच वर्गणाएँ जीव ग्रहण करता है। इनके अतिरिक्त वर्गणाएं अग्राह्य कही गई हैं। राग, द्वेष आदि परिणामोंके निमित्तसे जीवके आत्मा-प्रदेशोंके साथ कार्मण वर्गणाओंका जो संयोग होता है उसे 'बन्ध' कहा गया है । बन्धका अन्य कोई अर्थ नहीं है। . प्रश्न यह है कि मिथ्यादर्शन, रागादिके निमित्तसे कर्म भावको प्राप्त होनेवाली वर्गणाए कर्म रूप होकर जीवसे सम्बद्ध होकर रहती हैं या नहीं ? इसका समाधान विशेष रूपसे महाबन्धमें किया गया है। पण्डितजी ने अपने शब्दों में उसे संक्षेपमें इस प्रकार लिखा है-'परमागममें बन्ध दो प्रकारका बतलाया है-एक तादात्म्य सम्बन्ध रूप और दूसरा संयोग सम्बन्ध रूप। इनमेंसे प्रकृतमें तादात्म्य सम्बन्ध विवक्षित नहीं है। क्योंकि प्रत्येक द्रव्यका अपने गुण-पर्यायके साथ ही तादात्म्य रूप बन्ध होता है; दो द्रव्यों या उनके गुण-पर्यायोंके मध्य नहीं । संयोग सम्बन्ध अनेक प्रकारका होता है। सो उसमें भी दो या दो से अधिक परमाणुओं आदिमें जैसा श्लेष बन्ध होता है, वह भी यहाँ विवक्षित नहीं है । क्योंकि पुद्गल स्पर्शवान द्रव्य होनेपर भी जीव स्पर्शादि गुणोंसे रहित अमूर्त द्रव्य है । अतः जीव और पुद्गलका श्लेषबन्ध बन नहीं सकता । स्वर्णका कीचड़के मध्य रहकर दोनोंका जैसा संयोग सम्बन्ध होता है, ऐसा भी यहाँ जीव और कर्मका संयोग सम्बन्ध नहीं बनता । क्योंकि कीचड़के मध्य रहते हुए भी स्वर्ण कीचड़से अलिप्त रहता है। कीचड़के निमित्तसे स्वर्णमें किसी प्रकार का परिणाम नहीं होता। मात्र परस्पर अवगाह रूप संयोग सम्बन्ध भी जीव और कर्मका नहीं स्वीकार किया जा सकता, क्योंकि जीव-प्रदेशोंका विस्रसोपचयोंके साथ परस्पर अवगाह होने पर भी विस्रसोपचयोंके निमित्तसे जीवमें नरकादि रूप व्यंजन पर्याय और मिथ्यादर्शनादि भाव रूप किसी प्रकारका परिणाम नहीं होता। तब यहाँ किस प्रकारका बन्ध स्वीकार किया गया है ? ऐसा प्रश्न होने पर उसका समाधान यह है कि जीवके मिथ्यादर्शनादि भावोंको निमित्तकर जीव प्रदेशोंमें अवगाहन कर स्थित विस्रसोपचयोंके कर्म भावको प्राप्त होने पर उनका और प्रदेशोंमें परस्पर अवगाहन कर अवस्थित होना यही जीवका कर्मके साथ बन्ध है। ऐसा बन्ध ही प्रकृतमें विवक्षित है। इस प्रकार जीवका कर्मके साथ बन्ध होने पर उसकी प्रकृतिके अनुसार उस बन्धको प्रकृतिबन्ध कहते हैं 'प्रकृतिका' अर्थ स्वभाव है किन्तु वह जीवका स्वभाव न होकर कर्मपरमाणुओंका स्वभाव है। आगत कर्म-परमाणु जितने समय तक आत्माके साथ संयोग सम्बन्ध रूपसे रहते हैं, उस कालकी अवधिको स्थितिबन्ध कहते हैं। उन कर्म-परमाणुओंमें फल देनेकी शक्तिको अनुभाग बन्ध कहते हैं। आत्माके साथ संयोग सम्बन्ध रूपसे रहने वाले कर्म-परमाणुओंका ज्ञानावरणी, दर्शनावरणी आदि आठ कर्म रूपसे और उनकी उत्तर प्रकृतियोंके रूपसे जो बँटवारा होता है, उसे प्रदेशबन्ध कहते हैं। बन्धके इन चार भेदोंका 'महाबन्ध' में विस्तारके साथ वर्णन किया गया है। आचार्य भूतबलिने इतना विशद विवेचन किया है कि प्रारम्भके पाँच खण्डोंकी तुलनामें इसका परिमाण पंचगुना हो गया है । सभी दृष्टियोंसे यह जानने, समझने तथा हृदयंगम करने योग्य है।
'महाबन्ध' में बन्धविषयक सांगोपांग स्पष्ट विवेचन है । इसलिये किसी भी परवर्ती आचार्यको इस पर टीकाभाष्य या व्याख्या करनेकी आवश्यकता प्रतीत नहीं हुई। उदाहरणके लिए, षट्खण्डागमके छठे खण्डके तीसरे भागमें अनुभागबन्धकी प्ररूपणा है । अनुभागका अर्थ है-कर्मोंमें फल-दानकी शक्ति । गुणस्थानोंकी परिपाटीके अनुसार योगके निमित्तसे मूल तथा उत्तर प्रकृतियोंका बन्ध होता है । कषायके अनुसार उनमें न्यूनाधिक शक्तिका निर्माण होता है। शक्तिका कम-अधिक होना ही अनुभाग है। प्रत्येक कर्ममें अपनी-अपनी प्रकृतिके अनुसार अनुभाग-शक्ति प्रकट होती है । अतः प्रकृतिको सामान्य तथा अनुभागको विशेष भी कहा जाता है । यद्यपि मूल प्रकृतियोंके भेद-प्रभेद विशेष ही है, किन्तु फल-दानकी शक्तिकी तर-तमतासे वे सामान्य भी है। वस्तुतः प्रकृतिबन्धमें जो विशेषता लक्षित होती है उसका कारण मुख्य रूपसे अनुभाग बन्ध ही है । बन्धकी अपेक्षा अनुभाग दो
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