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________________ चतुर्थखण्ड : ५५१ त्मक कार्योंकी ओर अधिक लक्ष्य देना होगा। आज प्रत्येक जाति रचनात्मक कार्योंमें ही अपनी शक्तिका व्यय करके अपनी अपनी संस्कृतिको सुदृढ़ करनेमें लगी हुई है । विरोध या मतभेद केवल जैनसमाजमें ही है ऐसा थोड़े ही है । इसका कटुफल तो प्रत्येक समाजको भोगना पड़ रहा है । परन्तु दूसरी समाजके विचारशील शिक्षितोंने अपने दृष्टिकोणको बिल्कुल ही बदल दिया है । वे देख रहे हैं कि आजके जमाने से हमारी संस्कृतिका मेल कैसे बैठेगा | उन्हें और बातोंकी चिंताकी अपेक्षा आजके जमाने में अपनी संस्कृतिको सर्वोत्कृष्ट सिद्ध करने की सबसे अधिक चिंता है । परन्तु यह बात केवल संस्कृति के गुणानुवादसे कभी भी पूरी नहीं हो सकती है । इसके लिए हमें अपनी संस्कृतिमेंसे वे उच्च आदर्शरूप साधारण तत्त्व ढूंढ़ निकालने होंगे जिसका बहुजन समाज के ऊपर प्रयोग करनेपर अनुकूल परिणाम सिद्ध होगा । यदि जैन विद्वान् इस कार्यको कर सकें तो संभव है कि उनकी संस्कृतिका बहुत कुछ अंश सारी समाजें आत्मसात् कर सकती हैं। यही तो आजकी भूख है । परन्तु यह कब हो, जबकि हमारी शिक्षण संस्थाओंमें सुधार किया जावे । शिक्षणसंस्थाओंके संचालक योग्य विद्वान् नियुक्त किये जावें । पूंजीपतियोंका काम केवल द्रव्य खर्च करनेका हो और शिक्षितोंका काम उनमें योग्य सुधारका । । जब हम इतना कर सकेंगे तभी यह कहा जा सकता है कि हमने धर्मकल्पवृक्षकी मूलको पानी सींचनेका काम किया । इसके बिना हम धर्मकी सच्ची उपासनासे कितने दूर हैं यह बारीकीसे विचार करनेवाले व्यक्ति को उसी समय मालूम पड़ सकता है मन्दिरोंमें हमें धर्मका शिक्षण मिलता है परन्तु उसका केवल परलोकसे ही सम्बन्ध है । हमें अपने जीवन में विशेषता उत्पन्न करनेके लिये इन शिक्षालयोंके शिक्षणकी ही आवश्यकता है । समाज सुधार और संस्कृतिका पोषण यह काम केवल शिक्षितोंके द्वारा ही हो सकता है । इसलिये समाज का कर्तव्य है कि उसने योग्य शिक्षित निर्माण करने के लिये ये इन धर्मदिनों में प्रतिज्ञा करनी चाहिये । धर्मायतन समझकर मंदिरोंकी व्यवस्थाकी ओर जितना ध्यान दिया जाता है उतना ही ध्यान इन शिक्षालयोंकी ओर देनेकी आवश्यकता है । धर्म, शिक्षित और समाजका सुधार इसी प्रकार हो सकता है। बाकी सब स्वांग ही समझना चाहिये । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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