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५५० : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ
हमारी शिक्षण संस्थाओंमें जो अधिकारी होते हैं वे प्रायःकर शिक्षणके ज्ञाता न होकर अशिक्षित ही हआ करते हैं। इसलिये उनका शिक्षणसंस्थाओंकी अन्तरंग व्यवस्थापर बिल्कुल ही ध्यान नहीं जाता है । उनकी सबसे बड़ी चिंता बजटकी पूर्ति ही रहती है। वे इसका थोड़ा भी विचार नहीं कर पाते कि इस संस्थासे बालकोंके ऊपर क्या परिणाम होता है। इसमें और क्या सुधार करना चाहिये जिससे इस संस्थासे निकले हुये बालक प्रखर विद्वत्ताके साथ समाजके नेता बनें । इस व्यवहारका बालकोंके ऊपर जो परिणाम होना चाहिये वही होता है और वे भी अपने समयको ‘इसको वजीफा अधिक मिलता है मुझे कम मिलता है,' इत्यादि क्षुद्र बातोंमें व्यतीत कर देते हैं ।
उन्हें अपनी बौद्धिक और मानसिक शक्तिके बढ़ानेके लिये थोडा भी अवसर नहीं मिलता । सभा सोसाइटियोंमें कभी यदि विद्यार्थी भाग भी लेते है तो वहाँ पर वे रूक्ष विषय रक्खे जाते है जिनका उनके जीवनसे विशेष कुछ सम्बन्ध ही नहीं होता है । अध्यापकोंका काम किताबी शिक्षणके दे देनेमें और सुपरिन्टेन्डेन्टका काम रजिस्टर हाजिरीके भरनेमेही पूरा हो जाता है । यह दोष केवल कर्मचारियोंका ही हो यह बात नहीं है। संस्थाओंकी रचना ही इस ढंगसे की गई है कि वहाँपर दूसरे विषयोंके विचारके लिये गुंजाईश ही नहीं है। सरकारी संस्थाओं और इन धार्मिक संस्थाओंमें यदि थोड़ा बहत भेद कहा जा सकता है तो केवल इतना ही कि सरकारी संस्थाएँ सरकारके नियंत्रणमें चालू हैं और ये संस्थाएँ समाजके नियंत्रणमें चलाई जाती हैं। उनकी कार्यपद्धतिमें कोई भी अन्तर नहीं दिखाई देता है। जिस प्रकार सरकारी संस्थाओंसे गुलामवृत्तिके और स्वाभिमानको खोये हये शिक्षित तैयार होते हैं वही स्थिति तो आज हमारी धार्मिक संस्थाओंकी है। इससे न तो समाजकी ही भूख भग सकती है और न धर्मके सम्बन्धमें कोई ठोस काम ही हो सकता है, ऐसी संस्थाओंसे निकलनेवाले विद्वानोंकी मनोवृत्ति यदि दुबली हो तो इसमें आश्चर्य ही क्या ? शिक्षणकी कमजोरी
संस्थाओंमें छात्रोंको जिन ग्रन्थोंके आधारसे शिक्षण दिया जाता है वे ग्रंथ प्रौढ़ और तात्विक विवेचन करनेवाले हुये तो भी केवल इतनेसे ही विद्यार्थियोंकी बुद्धिमें प्रौढ़ता थोड़े ही आ सकती है । जहाँ तक अनुभवमें तो यही आता है कि दर्शनशास्त्रके उच्च और आदर्श ग्रंथ अष्टसहस्रो जैसे ग्रन्थों का अध्ययन किया हआ भी विद्यार्थी दर्शन शब्दकी समग्र व्याख्या करने में असमर्थ ही ठहरता है। इसका कारण क्या है, इधर हमारी शिक्षण संस्थाओंका बिल्कुल ही ध्यान नहीं जाता है। मनुष्य एक प्रयोगमें असफल हो जानेपर भी उसमें वह सुधारणा करता है परन्तु हमारी संस्थाओंमें इस ओर बिल्कुल ही ध्यान नहीं दिया जाता है। यही कारण है कि शिक्षणकी कमजोरी विद्यार्थियों के शिक्षण संस्थाको छोड़ कर कार्यक्षेत्रमें आ जानेपर भी अंत तक खटकती रहती है। हमें अपने धर्मग्रन्थोंका और उसकी विवेचन पद्धतिका अभिमान होना ही चाहिये परन्तु विद्यार्थी प्रतिपाद्य विषयको अधिकसे अधिक किन तरीकोंसे हृदयंगम कर सकेगा इस ओर ध्यान देना और तदनुकूल साधन सामग्रीका एकत्रित करना भी तो अत्यंत जरूरी है नहीं तो शिक्षणका निकम्मापन शिक्षितोंके हृदयोंको खोखला किये बिना नहीं रहेगा। आजकी भूख
आज कल विद्वानोंका सम्बन्ध केवल अपने धर्म और समाजसे ही न होकर उसका क्षेत्र बढ़ रहा है। एक समय था जबकि मनुष्यकी भावनाएँ प्रादेशिक या अपनी संस्कृतिके अन्दर रहते हए भी उनका काम चल जाता था। परन्तु आज केवल उतनी भावनाओंसे कोई भी समाज या धर्म आगे आनेका प्रयत्न करे तो यह उसका अट्टहास होगा। आज हमें परस्परकी कलहके कारणोंकी मीमांसाको छोड़कर रचना
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