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________________ ४०२ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ ठिकानेसारकी तीनों प्रतियोंमें ममलपाहुडका कौन फूलना किस निमित्त किस ग्राममें रचा गया, इसका कुछ विवरण लिपिबद्ध किया गया है। उससे उक्त तथ्यकी पुष्टिको परा बल मिलता है। इस परसे मुझे लगता है कि स्वामीजीने अपनी ग्रन्थ-रचनाका प्रारम्भ ममलपाहइसे ही किया होगा। मुनिपद अंगीकार करनेके बाद अवश्य ही उन्होंने अपने यातायातके क्षेत्रको सीमित कर दिया होगा। श्रावकके सात शीलोंको स्वामीजीने पाँच महाव्रतों के साथ मुनि-पदमें रहते हुए अपने अधिकतर समयको ध्यान अध्ययनमें ही लगाया होगा। स्पष्ट है कि उन्होंने अधिकतर मौलिक रचनाओंका सृजन श्रावक अवस्थामें ही कर लिया होगा। श्री जिन तारण तरणने जिन १५ ग्रन्थोंकी रचनाकी थी उनमें से १४ ग्रन्थ मुद्रित भी हो चुके हैं । उनके नाम हैं १. तारण श्रावकाचार २. पण्डित पूजा ३. मालारोहण ४. कमलबत्तीसी ५. ज्ञान समुच्चयसार ६. ममलपाहुण ७. उपदेश शुद्धसार ८. त्रिभंगीसार ९. चौबीसठाणा १०. सिद्धिस्वभाव ११. शून्य स्वभाव १२. रकतिका विशेष १३. नाममाला और १४. धर्मस्थवाणी। इनमेंसे प्रारंभके ९ ग्रन्थोंकी स्व० ० शीतल प्रसाद जी लिखित अन्वयार्थ सहित टीका भी प्रकाशित हो चुकी है। वे ग्रन्थ किस क्रमसे अनूदित होकर मुद्रित हुए उनका आनुपर्णा क्रम इस प्रकार है। क्र० ग्रन्थ नाम मुद्रण संवत् गाथा संख्या १. श्री तारण तरण श्रावकाचार वीर नि० सं० २४५९ ४६२ २. ज्ञान समुच्चय सार , २४६१ ९०७ ३. उपदेश शुद्धसार २४६२ ५८९ ४. ममलपाहुड भाग १ २४६३ ४९ फूलना तक ५. ममलपाहुड भाग २ २४६४ १०६ फूलना तक ६. त्रिभंगीसार २४६५ ७१ गाथा ७. कमल बत्तीसी " २४६५ ३२ ८. ममलपाहुड भाग ३ , , २४ १६४ फूलना तक अभी ३-४ वर्ष पूर्व हमें श्रीमन्त सेठ भगवानदासजीके बड़े सुपुत्र श्री भाई डालचन्द्रजीने एक गटकेका फोटो प्रिंट भेजा था। पत्र संख्या १४७ है। उसके बाद दुसरी कलमसे लिखे हुए १-२ पत्र और हैं। उनमेंसे दूसरे पत्रका प्रथम पृष्ठ त्रुटित है । प्रत्येक पत्र लगभग १३-१४ अंगुल लम्बा और ७ अंगुल चौड़ा है । हाँसिया छोड़ दिया गया है। प्रत्येक पृष्ठोंमें कमसे कम १४ और अधिकसे अधिक १८ पक्तियां है तथा एक पंक्तिमें अक्षर किसीमें कमसे कम १८ और किसीमें अधिकसे अधिक ३० है। इस कारण किसी पृष्ठमें अक्षर मोटे हैं और किसीमें सूक्ष्म है। इससे यह अन्तर पड़ा है। यह गुटका कब लिपिबद्ध किया गया इसका उल्लेख करते हुए श्रावकाचारके (पत्र ३११) के अन्तमें यह लेख लिपिबद्ध हुआ है इति सवगयारू जिन तरन नाम विरचित सम उत्पनिता ११ संवत् सोरहसौ वृषे वैसा भाग ६ सुदि लिखत । लगता है कि वैसाख सुदी ६ संवत् १६०० को श्रावकाचारकी प्रतिलिपि पूर्ण हुई होगी। कारण कि जिस तिथिको यह गुटका लिपिबद्ध होकर पूरा हुआ उसका प्रतिलिपिकारने स्वतन्त्र रूपसे उल्लेख करते हुए अन्तमें लिखा है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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