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________________ ५८६ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ वहाँ द्रव्य स्त्रियोंका ही ग्रहण होता है किन्तु सत्प्ररूपणा के आलाप अधिकारमें पर्याप्त मनुष्यिनियोंके आलापों का निर्देश करते समय उनके १४ 'गुणस्थान बतलाये हैं । यह बात तभी बन सकती है जब कि पर्याप्त शब्दके साथ मनुष्यनी पदसे भावस्त्रीका ही ग्रहण किया जाता है । इन सब प्रमाणोंसे आगमकी स्थिति स्पष्ट होते हुए भी कुछ भाइयोंने यह अविवेकपूर्ण कार्य किया और कराया है । यह ऐसा कार्य है जो किसी भी तरह क्षमा करने योग्य नहीं कहा जा सकता। इससे केवली, श्रुत, संघ और धर्मका अवर्णवाद तो हुआ ही, साथ ही जैन परम्परा और भारतीय परम्पराकी श्रुत प्रतिष्ठाको भीषण धक्का लगा है । और दुराग्रह तथा हठवादके काले इतिहासमें 'दिगम्बर परम्परा' को नाम लिखानेका कुप्रसंग उपस्थित हुआ है । ताडपत्र या ताम्रपत्रका पुद्गल किसी व्यक्ति या व्यक्तियों के अधिकारकी वस्तु हो सकते हैं पर उसमें लिखा गया श्रुत और धर्म तो उन लोकोत्तर महापुरुषोंकी साधनाका श्रेयमार्ग प्रदर्शक फल है जिससे मार्गदर्शन पानेका प्राणी मात्रको अधिकार है । हम यह जानते हैं कि जिन भाइयोंने यह दुःसाहसका काम किया है वे अपनी भूलको कभी भी स्वीकार करनेवाले नहीं हैं । अतः इस सूत्रोच्छेदसे अपराधके परिमार्जन करनेका एक मार्ग यह हो सकता है कि १०-१५ ऐसे ताम्रपत्र तैयार किये जायें जिनमें ताड़पत्रके आधारसे ९३वाँ सूत्र अंकित रहे और इन भाइयोंकी काली करतूतको प्रकट करनेवाला इतिहास भी लिपिबद्ध रहे । इससे भविष्य में जब भी इस विषयकी गवेषणा होगी तब यह कार्य कुछ व्यक्तियोंकी करनी तक हो सीमित रह जायेगा । आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्तीने गोम्मटसार में यह गाथा तो उन व्यक्तियोंको लिखी है जो समझाने पर भी दुराग्रहवश सम्यक् - अर्थको नहीं मानना चाहते सुत्तादो तं सम्मं दरसिज्जंतं जदा ण सदृहदि । सो चेव हवइ पिच्छाइट्ठी जीवो तो पहुदी || अर्थात् सूत्रसे सम्यक् अर्थ दिखाने पर भी जो श्रद्धान नहीं करता वह व्यक्ति तभी से मिथ्यादृष्टि है । पर जिन्होंने इससे भी आगे बढ़कर सूत्रोच्छेदका दुष्कृत्य किया है उन्हें मिथ्यादृष्टि और निहनवी कहना भी कम है । सन्तोषकी बात इतनी ही रही कि, इस सूत्रोच्छेदक जमातमें श्री पं० खूबचन्द्रजी शास्त्रीने दृढ़ता से इस जघन्य कृत्यका विरोध किया और त्यागपत्र देकर अपने सम्यक्त्व की रक्षा तो की ही साथ ही समाजकी प्रतिष्ठाको भी बचाया । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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