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सम्प्रदाय जाति और प्रान्तवाद
भारतवर्षके पतनके कारणोंमें सम्प्रदायवाद, जातिवाद और प्रान्तवाद मुख्य हैं । पुराने इतिहासको देख जाइये कहीं सम्प्रदाय कहीं जाति और कहीं प्रान्तवादने अपना काला रूप दिखा कर भारतको भौगोलिक अखण्डता भी प्राप्त नहीं होने दी।
सामन्तवादने अपन पनपनेके लिए यही स्तम्भ खड़े किये और सच पछा जाय तो मानवताको खण्डखण्ड करके वर्गविशेषके अहंकार और उसे विशेष संरक्षण देनेके लिए ये ही सस्ते आधार रहे हैं । अंगरेजोंने इन्हीं अस्त्रोंके सहारे भेदनीतिसे भारतवर्षको न केवल राजनैतिक गुलामीमें ही जकड़ कर अपना उल्लू सीधा किया किन्तु इसे सदाके लिए सांस्कृतिकहीनता और विनाशके गहरे गर्तमें गिरानेका रास्ता खोल दिया । पाकिस्तानकी सृष्टि करके उन्होंने सम्प्रदाय प्रान्त और जाति इन तीनों विषबेलोंकी जड़ें गहरी पहुँचा दी हैं ।
___इन सबके बावजूद पूज्य बापुके नेतृत्वमें भारतवर्षने खंडित स्वतन्त्रता प्राप्त की। भारतवर्षके नक्शेसे पीला कोढ़ समाप्त होकर आज वह भौगोलिक इकाई पा गया है। पर, सम्प्रदाय जाति और प्रान्तवादकी सहस्रमुखी ज्वालाओंसे स्वातन्त्र्यका नव विकसित कुसुम झुलसा जा रहा है। कांग्रेस कमेटियोंके चुनाव, जनपद निर्वाचन, विधान सभाओंके चनाव, नौकरी कन्ट्रोलके लायसेंस आदि जहाँ भी देखिये वहाँ इन्हींके नामपर अपना स्वार्थ साधा जा रहा है। शिक्षाका पुनीत क्षेत्र भी इस गन्दगीसे अछूता नहीं रहा है । आखिर जो विष भारतके हृदय और मस्तिष्कमें पीढ़ियोंसे व्याप्त हो रहा है वह अवसर आनेपर अपना दुष्प्रभाव दिखाये बिना रह ही नहीं सकता।
इतनी ही आशाकी नवकिरण है, कि कांग्रेस तथा भारतकी विधान सभाने सिद्धान्ततः भारतको असाम्प्रदायिक राज्य घोषित किया है और धर्म-जाति वंश और परम्परागत संरक्षणोंको समाप्त कर सबको समान अधिकार दिये हैं।
जैन धर्मने संसारके प्रत्येक पदार्थको अनेक धर्मवाला विविध विशेषताओं और विचित्रताओंका अविरोधी आधार माना है। उसने एकमें अनेकता और अनेक तामें एकताका सुन्दर समन्वय किया है । अहिंसाकी उच्च भूमिकाका निर्वाह बिना इस समन्वयके हो ही नहीं सकता था। उसकी दृष्टिमें भारतवर्ष अनेक जाति सम्प्रदाय और प्रान्त आदिका अविरोधी अखण्ड आधार है। यह अपने में एक और अखण्ड है। प्रत्येक सम्प्रदाय जाति और प्रान्तका उसपर समान अधिकार है। हमें इनमें नये दृष्टिसे अविरोध स्थापित करके सबमें अनुस्यूत अखण्ड भारतीयत्वका दर्शन करना है । जाति, सम्प्रदाय और प्रान्तका भेद बुरा नहीं है, बुरा है इनका अहंकार और उसके कारण पनपने वाला मातवाद । एक सम्प्रदाय जब अपनी बात कहता है
आर दूसर सम्प्रदायोकी बुराई न कर उनके प्रति तटस्थ भाव रखता है तब तक वह सत्सम्प्रदाय है। पर जब वह दूसरे सम्प्रदायोंका तिरस्कार और द्वेष करता है तब वह 'सत्' की सीमासे 'असत्' में जा पहुँचता है । असलमें सम्प्रदायकी जड़ मस्तिष्कमें न हो कर हृदयमें होती है और हृदय परिवर्तनके बिना दूसरे सम्प्रदायोंकी बुराई या उनके प्रति घृणाका भाव फैलानेसे हमारी अखण्डताका विनाश ही होता है।
जातिकी जड़ रक्तमें ही पहुँची है । सबको अपनी जाति अर्थात् रक्तश्रेष्ठताका अभिमान है। वैसे देखा जाय तो पौद्गलिक जड़ रक्तसे श्रेष्ठताका कोई खास सम्बन्ध नहीं है। एक ही रक्तसे उत्पन्न दो बालक
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