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चतुर्थं खण्ड : ५११
मतसे जगतमें द्वयणुक आदि जितने भी कार्य होते हैं वे किसी न किसीके उपभोगके योग्य होनेसे उनका कर्ता कर्म ही है।
नैयायिकोंने तीन प्रकारके कारण माने है-समवायीकारण, असमवायीकारण और निमित्तकारण। जिस द्रव्यमें कार्य पैदा होता है वह द्रव्य उस कार्यके प्रति समवायीकारण है। संयोग असमवायीकारण है । तथा अन्य सहकारी सामग्री निमित्तकारण है। इसमें भी काल, दिशा, ईश्वर और कर्म ये कार्यमात्रके प्रति निमित्तकारण हैं । इनकी सहायताके बिना किसी भी कार्यकी उत्पत्ति नहीं होती।
ईश्वर और कर्म कार्यमात्रके प्रति साधारण कारण क्यों है इसका खुलासा उन्होंने इस प्रकार किया है कि जितने कार्य होते हैं वे सब चेतनाधिष्ठित ही होते हैं, इसलिये ईश्वर सबका साधारण कारण है ।
इसपर यह प्रश्न होता है कि जब सबका कर्ता ईश्वर है तब फिर उसने सबको एक-सा क्यों नहीं बनाया। वह सबको एकसे सुख, एकसे भोग और एक-सी बुद्धि दे सकता था। स्वर्ग मोक्षका अधिकारी भी सबको एकसा बना सकता था । दुखी, दरिद्र और निकृष्ट योनिवाले प्राणियोंकी उसे रचना ही नहीं करनी थी। उसने ऐसा क्यों नहीं किया? जगतमें तो विषमता ही विषमता दिखलाई देती है । इसका अनुभव सभीको होता है। क्या जीवधारी और क्या जड़ जितने भी पदार्थ हैं उन सबकी आकृति, स्वभाव और जाति जुदीजुदी हैं । एकका मेल दूसरेसे नहीं खाता । मनुष्यको ही लीजिए । एक मनुष्यसे दूसरे मनुष्यमें बड़ा अन्तर है। एक सुखी है तो दूसरा दुखी। एकके पास सम्पत्तिका विपुल भण्डार है तो दूसरा दाने-दानेको भटकता-फिरता है । एक सातिशय बुद्धिवाला है तो दूसरा निरा मूर्ख । मात्स्यन्यायका तो सर्वत्र ही बोलबाला है। बड़ी मछली छोटी मछलीको निगल जाना चाहती है । यह भेद यहीं तक सीमित नहीं है, धर्म और धर्मायतनोंमें भी इस भेदने अड्डा जमा लिया है। यदि ईश्वरने मनुष्यको बनाया है और वह मन्दिरोंमें बैठा है तो उस तक सबको क्यों नहीं जाने दिया जाता है। क्या उन दलालोंका, जो दुसरेको मन्दिर में जानेसे रोकते हैं, उसीने निर्माण किया है ? ऐसा क्यों है ? जब ईश्वरने ही इस जगतको बनाया है और वह करुणामय तथा सर्वशक्तिमान है तब फिर उसने जगतकी ऐसी विषम रचना क्यों की? यह एक ऐसा प्रश्न है जिसका उत्तर नैयायिकोंने कर्मको स्वीकार करके दिया है। वे जगतकी इस विषमताका कारण कर्म मानते हैं। उनका कहना है कि ईश्वर जगतका कर्ता है तो सही, पर उसने इसकी रचना प्राणियोंके कर्मानुसार की है। इसमें उसका रत्ती भर भी दोष नहीं है। जीव जैसा कर्म करता है उसीके अनुसार उसे योनि और भोग मिलते हैं । यदि अच्छे कर्म करता है तो अच्छी योनि और अच्छे भोग मिलते हैं और बुरे कर्म करता है तो बुरी योनि और बुरे भोग मिलते हैं । इसीसे कविवर तुलसीदासजीने अपने रामचरितमानसमें कहा है
करम प्रधान विश्व करि राखा ।
जो जस करहि सो तस फल चाखा ॥ ईश्वरवादको मानकर जो प्रश्न उठ खड़ा होता है, तुलसीदासजीने उस प्रश्नका इस छन्दके उत्तरार्ध द्वारा समर्थन करनेका प्रयत्न किया है।
नैयायिक जन्यमात्रके प्रति कर्मको साधारण कारण मानते हैं। उनके मतमें जीवात्मा व्यापक है इसलिये जहाँ भी उसके उपभोगके योग्य कार्यकी सृष्टि होती है वहाँ उसके कर्मका संयोग होकर ही वैसा होता है । अमेरिकामें बननेवाली जिन मोटरों तथा अन्य पदार्थोंका भारतीयों द्वारा उपभोग होता है वे उनके उपभोक्ताओंके कर्मानुसार ही निर्मित होते हैं। इसीसे वे अपने उपभोक्ताओंके पास खिंचे चले आते हैं । उपभोग योग्य वस्तुओंका इसी हिसाबसे विभागीकरण होता है। जिसके पास विपुल सम्पत्ति है वह उसके कर्मानुसार है
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