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________________ ३४८: सिद्धान्ताचार्य पं० फुलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ उनमें कहीं भी यह दिखायी नहीं देता। इसके साधुओंने जो मोरपीछी ले रखी है, उसका उल्लेख भी कहीं शास्त्रोंमें दिखायी नहीं देता। यह एक ऐसा उल्लेख है जिससे यह स्पष्ट हो जाता है कि परवार जातिके लिये जो 'पौरपाट' या 'पौरपट्ट' कहा गया है, वह सार्थक होनेके साथ ऐतिहासिक दृष्टिसे अर्थ विशेषको सूचित करनेवाला भी है। और यही कारण है कि प्राग्वाटवंशके अन्तर्गत अन्य जितने भी भेद-प्रभेद दिखायी देते हैं, उनसे इस (परवार) अन्वयकी अपनी विशेषता है और उसी विशेषताको सूचित करनेके लिये ही आजसे लगभग २ हजार वर्ष पूर्वसे ही इस अन्वयके एक मात्र मूल संघ कुन्दकुन्द आम्नायका उपासक होनेसे इस अन्वयको ऐतिहासिक लेखोंमें पौरपाट या पौरपट्ट कहा गया है। . यह बात सही है कि उत्तर कालमें इसके मूल नाममें परिवर्तन होकर किसी प्रतिमा लेखमें इसे 'परवार' लिखा गया है । यथा (१) सोनागिर पहाड़ से उतरते समय अन्तिम द्वारके पास एक काठमें जो भग्न प्रतिमायें विराजमान हैं, उनमेंसे एक प्रतिमापर यह लेख अंकित है-- ___ संवत् ११०१ वकागोत्रे परवार जातिय .. (२) विदिशा के बड़े मन्दिरसे प्राप्त एक जिनबिम्बपर यह लेख अंकित है-(पार्श्वनाथ-सफेद पाषाण-१६ अंगुल) . संवत् १५३४ वर्षे चैत्रमासे त्रयोदश्यां गुरुवासरे भट्टारकजी श्रीमहेन्द्रकीर्ति भद्दलपुरे श्रीराजारामराज्ये महाजन परवाल......""श्रीजिनचन्द्र (३) कुछ काल पहिले आगरामें एक शिक्षण-शिविर हुआ था। उसमें बाहरसे अनेक विद्वान् आये थे । उस समय जयपुरसे प्रदर्शनीके लिये हस्तलिखित शास्त्र आये थे। उनमें एक पुण्यास्रव हस्तलिखित शास्त्र था । उसके अंतमें यह प्रशस्ति अंकित थी, जो इस प्रकार है-- ___"संवत् १४७३ वर्षे कार्तिक सुदी ५ गुरुदिने श्रीमूलसचे सरस्वतीगच्छे नंदिसंघे कुन्दकुन्दाचार्यान्वये भट्टारकश्रीपद्मनंदिदेवास्तच्छिष्यमुनिश्रीदेवेन्दकोतिदेवाः । तेन निजज्ञानवर्णीकर्मक्षयार्थं लिखापितं शुभं । श्री मूलसंघे भट्टारक श्री भुवनकीर्ति तत्पट्टे भट्टारिक श्री ज्ञानभूषण पठनार्थं । नरहडो वास्तव्य परवाड़ज्ञातीय सा""काकाल भा० पुण्य श्री सुत सा-नेमिदास ठाकुर एतैः इदं पुस्तकं दत्तं । (४) साह बखतराम द्वारा लिखित बुद्धिविलास ग्रन्थके पृ० ८६ पर 'खांप वर्णन' शीर्षकके अन्तर्गत कवितामें ७४ जातियोंके नाम गिनाये हैं। उनमें पौरपाट (परवार) जातिका उल्लेख करते हुए लिखा है-- _ "सात खांप पुरवार कहाये, तिनके तुमको नाम सुनाये" ॥६७६॥ (५) परवार बन्धु मार्च १९४० के अंकमें बाबू ठाकुरदासजी (टीकमगढ़) ने कतिपय मूर्तिलेख प्रकाशित किये हैं। उनमें एक लेख ऐसा भी मुद्रित हुआ है, जिसमें इस अन्वयको 'परिपट' कहा गया है । यथा-- 'परपटान्वये शुके साधुनाम्रा महेश्वरः।' यह लगभग ११-१२वीं शताब्दीका लेख है। इस प्रकार सूक्ष्मतासे विचार करने पर प्रतिमालेखों आदिमें इस अन्वयके लिये यद्यपि अनेक नामोंका उल्लेख हुआ है। पर उन सबका आशय एकमात्र पौरपाट अन्वयसे ही रहा है। इस अन्वयके लिये ११वीं शताब्दीसे परवार नामका भी उल्लेख होने लगा था। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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