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हिंसा और अहिंसा
"प्रमत्त योगात प्राणव्यपरोपणं हिंसा" इस सूत्रमें प्रमत्तयोगसे प्राणोंको विनाश करनेको हिंसा बतलाया है। इससे ज्ञात होता है कि यद्यपि प्राणोंका विनाश करना हिंसा है, पर वह प्रमत्तयोगसे किया हुआ होना चाहिए । जो प्राणोंका विनाश प्रमत्त योगसे अर्थात् राग-द्वेष रूप प्रवृत्तिके कारण होता है वह तो हिंसा है शेष नहीं, यह इस सूत्रका तात्पर्य है। यहाँ प्रमत्त योग कारण है और प्राणोंका विनाश कार्य है। आगममें प्राण दो तरहके बतलाये हैं-द्रव्य प्राण और भाव प्राण । प्रमत्तयोगके होनेपर द्रव्यप्राणोंका विनाश होता ही है ऐसा कोई नियम नहीं है, हिंसाके अन्य निमित्त मिल जानेपर द्रव्यप्राणोंका विनाश होता भी है और नहीं मिलनेपर नहीं भी होता है । इसी प्रकार कभी-कभी प्रमत्तयोगके नहीं रहने पर भी द्रव्यप्राणोंका विनाश देखा जाता है। उदाहरणार्थ-साघु ईयर्यासमितिपूर्वक गमन करते हैं। उनके रंचमात्र भी प्रमत्त योग नहीं होता, तथापि कदाचित् गमन करनेके मार्गमें अचानक क्षुद्र जन्तु आकर और पैरसे दबकर मर जाता है। यहाँ प्रमत्तयोगके नहीं रहनेपर भी प्राण व्यपरोपण है, इसलिए मुख्यतया प्रमत्तयोगसे जो भाव प्राणोंका विनाश होता है वह हिंसा है, ऐसा यहाँ तात्पर्य समझना चाहिए । हिंसाका मथितार्थ
जैन आगममें हिंसा विकारका पर्यायवाची माना गया है । जीवनमें जो भी विकार विद्यमान है उससे प्रतिक्षण आत्मगुणोंका ह्रास हो रहा है। वह विकारभाव कभी-कभी भीतर ही भीतर काम करता रहता है
और कभी-कभी बाहर प्रस्फुटित होकर उसका काम दिखाई देने लगता है। किसी पर क्रोध करना, उसको मारनेके लिए उद्यत होना, गाली देना, अपमान करना, झूठा लांछन लगाना, सन्मार्गके विरुद्ध साधनोंको जुटाना आदि उस विकारके बाहरी रूप हैं और आत्मोन्नति या आत्मोन्नतिके साधनोंसे विमुख होकर रागद्वेष रूप परिणतिका होना, उसका आभ्यान्तर रूप है। ऐसे विकार भावसे आत्मगुणोंका हनन होता है, इसलिए तत्त्वतः इसीका नाम हिंसा है।
__ मुख्यतया प्रत्येककी दृष्टि अपने जीवनके संशोधनकी न होकर बाहरकी ओर जाती है। वह इतना ही विचार करता है कि मैंने अन्य जीवोंपर दया की, उन्हें नहीं मारा तो मेरे द्वारा अहिंसाका पालन हो गया । वह अपने जीवनका रंचमात्र भी संशोधन नहीं करता, भीतर छिपे हुए विकारभावको नहीं देखता । इससे वह हिंसाको करते हए भी अपनेको अहिंसक समझ बैठता है। जगतमें जो विशृंखलता फैली हुई है वह इसका प्रांजल उदाहरण है । तत्त्वतः भूल कहाँ हो रही है उसकी खोज होनी चाहिए। इसके बिना हिंसासे अपनी रक्षा नहीं हो सकती और न अहिंसाका मर्म ही समझमें आ सकता है। जीवनकी सबसे बड़ी भूल ही हिंसाका कारण है
मनुष्यके जीवनमें यह सबसे बड़ी भूल है, जिससे वह ऐसा मान बैठा है कि दूसरेका हिताहित करना मेरे हाथमें है । जिसने जितने अधिक बाहरी साधनोंका संचय कर लिया है वह उतना अधिक अपनेको शक्तिमान् अनुभव करता है । साम्राज्य-लिप्सा, पूँजीवाद, वर्गवाद और संस्थावाद इसका परिणाम है । ईश्वरवादको इसी मनोवृत्तिने जन्म दिया है। जगत्में बाहरी विषमताका बीज यही है। अतीत कालमें जो संघर्ष हुए या वर्तमानमें जो भी संघर्ष हो रहे हैं उन सबका कारण यही है। जब मनुष्य अपने जीवनमें इस तत्त्वज्ञानको
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