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चतुर्थ खण्ड : ११३
स्वीकार कर लेता है कि अन्यसे अन्यका हित या अहित होता है तब उसकी अंतर्मुखी दृष्टि फिर कर बहिर्मुखी हो जाती है। वह बाह्य साधनोंके जटाने में लग जाता है. उनके जटानेमें सफल होने पर उसे अ मानता है । जीवनमें बाह्य साधनोंको स्थान नहीं है यह बात नहीं है किन्तु इसकी एक मर्यादा है । दृष्टिको अन्तर्मुखी रखते हुए अपने जीवनकी कमजोरीके अनुसार बाह्य साधनोंका आलम्बन लेना एक बात है किन्तु इसके विपरीत बाह्य साधनोंको ही सब कुछ मान बैठना दूसरी बात है।
तत्त्वतः प्रत्येक पदार्थ स्वतन्त्र और अपनेमें परिपूर्ण है। उसमें जो भी परिवर्तन होता है वह उसकी अपूर्णताका द्योतक न होकर उसकी योग्यतानुसार ही होता है, इसलिए किसी भी पदार्थको शक्तिका संचय करनेके लिए किसी दूसरे पदार्थकी आवश्यकता नहीं लेनी पड़ती। निमित्त इतना बलवान नहीं होता कि वह अन्य द्रव्यमें कुछ निकाल दे या उसमें कुछ मिला दे। द्रव्यमें न कुछ आता है और न उसमेंसे कुछ जाता ही है । अनन्तकाल पहले जिस द्रव्यका जो स्वरूप था आज भी वह जहाँका तहाँ और आगामी कालमें भी वह वैसा ही बना रहेगा। केवल पर्याय क्रमसे बदलना उसका स्वभाव है, इसलिए इतना परिवर्तन इसमें होता रहता है। माना कि यह परिवर्तन सर्वथा अनिमित्तक नहीं होता है, किन्तु इसका यह भी अर्थ नहीं कि निमित्ताधीन होता है । जैसे वस्तुकी कार्यमर्यादा निश्चित है, वैसे सब प्रकारके निमित्तोंकी कार्यमर्यादा निश्चित नहीं। धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, कालद्रव्य और आकाशद्र व्य--ये ऐसे निमित्त है जो सदा एक रूपमें कार्य के प्रति निमित्त होते हैं। धर्मद्रव्य सदा गतिमें निमित्त होता है। अधर्मद्रव्य स्थितिमें निमित्त होता है। कालद्रव्य प्रति समयकी होनेवाली पर्यायमें निमित्त होता है और आकाश द्रव्य अवगाहनामें निमित्त होता है। इन द्रव्योंके निमित्तत्वकी यह योग्यता नियत है। इसमें त्रिकालमें भी अन्तर नहीं आता। इन द्रव्योंका अस्तित्व भी इसी आधारपर माना गया है। किन्तु इनके सिवा प्रत्येक कार्यके प्रति जो जुदे-जुदे निमित्त माने गये हैं, वे पदार्थके स्वभावगत कार्यके अनुसार ही निमित्त कारण होते हैं। वे अमुक ढंगसे कार्यके प्रति निमित्त हैं ऐसी व्यवस्था उनकी निश्चित नहीं है । उदाहरणार्थ एक युवती एक ही समयमें साधुके लिए वैराग्यके होने में निमित्त होती है और रागीके लिए रागके होने में निमित्त होती है । इसका यही अर्थ है कि जिस पदार्थकी जिस काल में जिस प्रकारके स्वभावगत कार्यमर्यादा होती है, उसीके अनुसार अन्य पदार्थ उसके होने में निमित्त कारण होता है। इसलिए जीवनमें निमित्तका स्थान होकर भी वस्तुकी परिणतिको उसके आधीन नहीं माना जा सकता। यह तात्त्विक मीमांसा है, जिसका सम्यग्दर्शन न होनेके कारण ही जीवनमें ऐसी भूल होती है जिससे यह दूसरेके बिगाड़-बनावका कर्ता अपनेको मानता है और बाह्य साधनोंके जुटानेमें जुटा रहता है । तात्त्विक दृष्टिसे विचार करनेपर इस परिणतिका नाम ही हिंसा है । हमें जगत्में जो विविध प्रकार मूलक वृत्तियाँ दिखलाई देती हैं वे सब इनके परिणाम हैं। जगत्की अशान्ति और अव्यवस्थाका भी यही कारण है । एक बार जीवनमें भौतिक साधनोंने प्रभुता पाई कि वह बढ़ती ही जाती है । धर्म और धर्मायतनोंमें भी इसका साम्राज्य दिखलाई देने लगा है।
अधिकतर पढ़े-लिखे या त्यागी लोगोंका मत है कि वर्तमानमें जैनधर्मका अनुयायी राजा न होने के कारण अहिंसा धर्मकी उन्नति नहीं हो रही है। मालूम पड़ता है कि उनका यह मत आन्तरिक विकारका ही द्योतक है। तीर्थंकरोंका शारीरिक बल ही सर्वाधिक माना गया है, किन्तु उन्होंने स्वयं अपने जीवनमें ऐसी असत्कल्पना नहीं की थी और न वे शारीरिक बल या भौतिक बलके सहारे धर्मका प्रचार करनेके लिए उद्यत ही हुए थे । भौतिक साधनोंके प्रयोग द्वारा किसीके जीवन की शुद्धि हो सकती है यह त्रिकाल में भी सम्भव नहीं है । उन्मादसे उन्मादकी ही वृद्धि होती है । यह भौतिक साधनोंका उन्माद ही अधर्म है। इससे आत्माकी निर्मलताका लोप होता है और वह इन साधनोंके बलपर संसारपर छा जाना चाहता है। उत्तरोत्तर उसकी
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