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________________ ४०६ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ वह प्रायः ब्रह्मचर्य पूर्वक व्रती अवस्थामें ही लिखा है इसलिए भी उन्होंने मुख्यतया श्रावकाचारकी रचना करना इष्ट रखा होगा। यह कहना कि उनके काल तक इस आगमिक परम्पराका लोप हो गया होगा जैसा कि बहुलतासे इस कालमें देखा जाता है, ठीक नहीं है. क्योंकि पण्डित प्रवर आशाधरजी १३वीं शताब्दीमें मनीषी विद्वान हो गये हैं। वे भी स्वरचित सागारधर्मामृतमें आडंगफैर्वमथार्थ संग्रहमधीज्ये इन शब्दों द्वारा उसी परम्पराका स्मरण कराते हैं । अतः यह मानने में आपत्ति नहीं है कि स्वामीजीने वे धर्मभीरु समाजको मार्गी बनाये रखनेके लिए सर्वप्रथम श्रावकाचारकी रचना की होगी। अब देखना यह है कि स्वयं अपने द्वारा रचित अन्य ग्रन्थोंकी रचनाका उन्होंने क्या क्रम स्वीकार किया होगा। स्वामीजीने ज्ञानपिण्ड पद्ध डिकाको मिलाकर जिन पन्द्रह ग्रन्थोंकी रचना की है उनमेंसे एक ग्रंथके अन्तमें तो पाहड शब्द लगा हुआ है और तीन ग्रन्थोंके अन्तमें सार शब्द लगा हआ है। जिन ग्रन्थों के अन्तमें सार शब्द लगा हुआ है वे हैं-ज्ञान समुच्चयसार, उपदेश शुद्धसार और त्रिभंगीसार । यह सार शब्द समयसार, प्रवचनसार और नियमसारके अन्तमें भी लगा हआ है। हैं ये तीनों ग्रन्थ पाहुड ही। इस आधार पर यह माना जा सकता है कि स्वामीजीने भी स्वरचित तीन ग्रन्थोंके अन्तमें पाहुडके अर्थमें ही सार शब्दका प्रयोग किया होगा। और ऐसा मानने में कुछ अपवादको छोडकर कोई आपत्ति भी नहीं दिखाई देती, क्योंकि चौदह पूर्वीके अन्तर्गत जिस साहित्यकी परिगणना की जा सकती है उसके अधिकतर लक्षण स्वामीजी द्वारा रचित उक्त तीन ग्रन्थोंमें बहलतासे उपलब्ध होते हैं। पाहुड शब्दका जब "पदोंसे स्फुट" अर्थ लिया जाता है तब जिस अर्थका हमने पूर्व में स्पष्टीकरण किया है वह अर्थ इन ग्रन्थोंमें बहुलतासे घटित हो जाता है इसमें सन्देह नहीं। किन्तु जब पाहुडशब्दका उपहार अर्थ लिया जाता है तब आनन्दको उत्पन्न करने वाले होनेसे इन तीन ग्रंथोंको इस अर्थमें भी प्रभूत मानने में आपत्ति नहीं, क्योंकि जो भव्य जीव अन्तिम तीर्थकर भगवान महावीरकी दिव्यध्वनिको केन्द्रमें रखकर इन ग्रन्थोंका स्वाध्याय करता है वह अवश्य ही अक्षयानन्त आनन्दका भागी होता है। मात्र दृष्टि किसी सीमामें बंधी हुई न होकर सम्यक् पूर्व परम्पराको अनुसरण करने वाली होनी चाहिए। यह तो तीनों ठिकानेसारोंके उल्लेखसे ही स्पष्ट हो जाता है कि ममलपाहुड़के सभी फूलनोंकी रचना एक कालमें नहीं हुई थी। साथ ही "मुखसे फूल झड़े” इस अर्थमें ही सम्भवतः सभी फूलनोंको फूलना कहा जाने लगा जान पड़ता है, इसलिए ममलपाइड एक कालकी रचना न होनेके कारण श्रावकाचारके बाद ज्ञानसमुच्चयसार स्वीकार कर लेना उपयुक्त प्रतीत होता है। लगता है कि स्वामीजीने ज्ञान समुच्चय यह नामकरण मुख्यतया समयसारके ही अन्तिम अधिकार सर्वविशद्धिज्ञानाधिकारके अर्थमें ही किया जान पड़ता है इसलिए उसे तीसरे स्थानपर रखा गया है । इसके बाद त्रिभंगीसार क्रम प्राप्त है, इसलिए उसे चौथे स्थानपर रखा है। अब रहे शेष ग्रन्थ सो उनमेंसे चौवीसठाणा यह करणानुयोग सम्बन्धी ग्रन्थ होनेसे इसका भी अन्तर्भाव पूर्वश्र तमें होता है, इसलिए उसकी परिगणना पाँचवें स्थानपर करना न्यायसंगत है । इसके बाद पण्डितपूजा, मालारोहण और कमल बत्तीसीको क्रमसे रखा जा सकता है । यद्यपि इस क्रममें कुछ विचार है जिसका निर्देश हम उन ग्रन्थोंका विस्तृत परिचय लिखते समय करावेंगे। स्वामीजी द्वारा रचित सब ग्रन्थोंमें उक्त नौ ग्रन्थ मुख्य हैं, इसलिए हमने इन नौ ग्रन्थोंके रचनाक्रमपर ही मुख्यरूपसे प्रकाश डाला है। आगे रचना क्रम विचारके लिए जो ग्रन्थ रह जाते हैं उनमेंसे छद्मस्थ१. सारसर धर्मामृतअ. २, श्लो. २१ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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