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________________ चतुर्थ खण्ड : ५२९ प्रकार अशुभ रागस्वरूप पञ्चेन्द्रियोंके विषय ग्रहणका निषेध हो जाता है उसी प्रकार व्यवहार रत्नत्रय का भी निषेध हो जाता है । द्रव्यानुयोगके व्याख्यानके समय यदि व्यवहार रत्नत्रयका निषेध होता है तो सुनने वालेको अटपटा नहीं लगना चाहिए । उन्हें यह समझना चाहिए कि निर्विकल्प अवस्थाके प्राप्त करनेके अभिप्रायसे ही यहाँ उपदेशमें सब प्रकारके विकल्पोंको छोड़नेका उपदेश दिया जाता है। यदि इस उपदेशको सुनकर कोई अपने व्यवहार रत्नत्रयको ही प्रवृत्तिमें त्याग बैठता है तो इससे वह अपना ही अहित करता है। इसमें उपदेष्टाको दोष नहीं दिया जा सकता और न उस प्ररूपणाको ऐकान्तिक ही कहा जा सकता है। निश्चय धर्म और व्यवहार धर्मका व्याख्यान नयाश्रित होनेसे एक कालमें एक धर्मका ही व्याख्यान हो सकता है । जिनवाणीका संकलन भी इसी दृष्टिसे भिन्न-भिन्न अनुयोगोंमें मुख्यतासे किया गया है हमें यह नहीं भूलना चाहिए । स्वाश्रित कथन निश्चयनयका विषय है और पराश्रित कथन व्यवहारनयका विषय है, लए जीवनमें स्वाश्रितपनेकी प्रसिद्धिके लिए पराश्रित व्यवहारका निषेध किया जाता है। दूसरे व्यवहारनय और उसका विषय निषेध्य इसलिए भी है, क्योंकि वह यथावस्थित वस्तुस्वरूप नहीं है । परमागममें इसीलिए निश्चयनयको प्रतिषेधक और व्यवहारनयको प्रतिषेध्य कहा गया है । एक बात यह भी है कि जीवनमें व्यवहार धर्म रूप प्रवृत्तिको साकार रूप देनेके लिए जैसे अशुभ प्रवृत्ति और अशुभ विकल्पका निषेध किया जाता है, उसे उपादेय नहीं माना जाता वैसे ही अपने जीवनको निश्चय धर्मस्वरूप बनानेके लिए उसके व्याख्यानमें शुभ अशुभ दोनों प्रकारकी प्रवृत्तियों और उनके विकल्पोंका भी निषेध किया जाता है । उन्हें उपादेय नहीं बतलाया जाता। शुभ और अशुभ भावकी निवृत्तिका नाम संवर है। द्रव्यानुयोग और चरणानुयोग दोनों परमागम स्वीकार करते हैं । मूलाचारकी टीकामें अहिंसा आदिको व्रत कहनेके कारणका निर्देश करते हुए बतलाया है कि सावद्यको निवृत्ति पूर्वक मोक्षमार्गके निमित्त रूप आचरणमें व्रत व्यवहार किया जाता है। इससे भी यही ज्ञात होता है कि जो स्वयं मोक्षमार्ग तो नहीं है, किन्तु जो आचरण उसका बाह्य निमित्त है उसे व्यवहार धर्म कहते हैं। इस प्रकार इतने ऊहापोहके आधारसे कार्य कारण भावका विचार करनेपर यह सूतरां फलित हो जाता है कि स्वभाव सम्मुख हुआ आत्मा मोक्षमार्गका उपादान निमित्त है। दर्शन मोहनीय आदि कर्मोंका उपशमादि उसका अन्तरंग निमित्त है और सच्चे देव-गुरु शास्त्रकी श्रद्धा व व्रतादि परिणाम उसका बाह्य निमित्त है। यहाँ कर्मके उपशमादिको अन्तरंग निमित्त और नोकर्मको बाह्य निमित्त कहा गया है । हैं वे दोनों जीवसे भिन्न ही और इस अपेक्षासे वे दोनों ही बाह्य निमित्त हैं। बाह्य और आभ्यन्तर उपाधिकी समग्रतामें कार्य होता है, स्वामी समन्तभद्रके इस वचनसे भी उक्त लक्ष्यकी पुष्टि होती है। यहाँ उपादान निमित्तको आभ्यन्तर उपाधि कहा गया है और बाह्य सभी प्रकारकी सामग्रीको बाह्य उपाधि कहा गया है, इसमें कर्म और नोकर्म दोनोंका ग्रहण हो जाता है। __ अन्यत्र (श्लोक वार्तिकमें) उपादाननिमित्तको निश्चय कारण भी कहा गया है। समर्थ उपादान कारण यह इसका दूसरा नाम है। इससे यह सुतरां फलित हो जाता है कि निश्चय कारणके अतिरिक्त कार्यके प्रति निमित्तभूत अन्य जितनी भी बाह्य सामग्री होती है वह सब जिनागममें व्यवहारसे ही हेतु मानी गई है। इसका कारण यह है कि जैसे उपादान द्रव्यसे अभिन्न होनेके कारण स्वयं कार्यरूप परिणमता है वैसे बाह्य सामग्री, जो प्रत्येक कार्यमें निमित्त व्यवहारको प्राप्त होती है, स्वयं उस कार्यरूप न परिणम कर उससे भिन्न रहकर ही अपना अन्य कार्य करती है। फिर भी उसमें निमित्त व्यवहार करनेका प्रथम कारण कालप्रत्यासत्ति है। अर्थात उक्त दोनोंके एक कालमें होनेके कारण इनमें परस्पर निमित्त-नैमित्तिक व्यवहार किया जाता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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