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३०० : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ
(३) इनमें वह उत्पाद और व्यय कैसे बनता है इसीके समर्थनमें 'अनन्तानामगुरु लघुगुणानां' इत्यादि वचन आया है । इस वचनमें अगुरुलघुगुणोंको अनन्त कह कर उनका उत्पाद व्यय स्वीकार किया गया है। किन्तु यदि प्रकृतमें 'अगुरुलघुगुण' पदसे इस नाम वाले गुण लिए जायें तो प्रत्येक द्रव्यमें एक तो वे अनन्त नहीं बनते, दूसरे स्वयं उनकी हानि-वृद्धि नहीं बनती क्योंकि गण अन्वय स्वभाव वाले होनेसे नित्य होते हैं। इसलिए स्वयं उनका उत्पाद-व्यय मानना आगम विरुद्ध है। अतः प्रकृतमें अगुरुलघुगुण पदसे अविभाग प्रतिच्छेदोंको ग्रहण करना चाहिए । इन चार द्रव्योंमें व्यंजन पर्यायें तो होती नहीं, मात्र अर्थपर्यायें ही होती हैं । और उनमें अविभाग प्रतिच्छेदोंके आधारपर स्वभावसे ही उत्पाद व्यय स्वीकार किया गया है । षड्गुणी हानि-वृद्धि के अनुसार किस समय अनन्तभाग वृद्धि आदिमेंसे पूर्व पर्यायको अपेक्षा उत्तर पर्यायमें कब कौन सी हानि या वृद्धि होती है उसी आधारपर उस पर्यायको अनन्तभाग वृद्धि या अनन्तभाग हानि आदि रूप स्वीकार किया जाता है। उदाहरणार्थ क्षीणकषाय गुणस्थानके अन्तिम समयमें जो श्रुतज्ञान होता है उससे सयोग केवलीके प्रथम समयमें केवलज्ञानको अनन्तगणवद्धि रूप स्वीकार किया गया है। इसी प्रकार सर्वत्र छहों द्रव्योंकी चाहे स्वभाव पर्यायें हों या जीवों और पुदगलोंकी उक्तरूपमें विभाव पर्यायें हों उनमें उत्पाद व्ययकी यह व्यवस्था चटित कर लेनी चाहिए।
(४) इस प्रकार यद्यपि इन द्रव्योंमें पर्यायोंका स्वभावसे ही उत्पाद और व्यय बन जाता है। किन्तु जबकि ये निष्क्रिय द्रव्य है तो इनमेंसे प्रारम्भके तीन द्रव्यों, जीवों और पुदगलोंकी गति आदिमें व्यवहार हेतु कैसे हो सकते हैं, क्योंकि लोकमें क्रियावान् जलादिमें ही मछली आदिके गमन आदिमें व्यवहार हेतुता देखी जाती है । इसी प्रश्न के उत्तरमें आचार्य देवने यह उत्तर दिया है कि ये तीनों द्रव्य, मछली आदिका जो गमन आदि होता है, उसमें बलाधानके व्यवहार हेतु होनेसे इनके निमित्तसे जोवों और पुद्गलोंकी गति आदि होती है ऐसा व्यवहार बन जाता है।
(५) अब प्रश्न यह है कि इनमें यदि पर प्रत्यय व्यवहार घटित करें तो किस प्रकार घटित किया जा सकता है ? इस प्रश्नका समाधान करते हुए आचार्य देव लिखते हैं कि अश्वादिकी गति आदिमें व्यवहारसे ये आश्रय निमित्त है। यतः अश्वादिकी गति आदिमें समय-समयमें भेद दिखलाई देता है और ये तीनों द्रव्य उसमें आश्रय निर्मित है अतः इनकी पर्यायोंमें भी प्रति समय भेद होना चाहिए, इस प्रकार इनमें भी पर प्रत्ययपनका व्यवहार किया जा सकता है ।
यहाँ उक्त कथनसे जो सबसे मौलिक बातका स्पष्टीकरण मिलता है वह यह है कि आचार्य देव अश्वादि की गति आदिके भेदके आधारपर इन द्रव्योंकी पर्यायोंके भेदको स्वीकार करके भी वे अश्वादिकी गति आदि धर्मादि द्रव्योंकी पर्यायोंके होनेमें व्यवहार हेतु हैं इसे नहीं स्वीकार कर रहे है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि धर्मादि चारों द्रव्योंकी सब स्वभाव पर्यायोंमें यथा जीवों और पुद्गलोंकी जितनी भी स्वभाव पर्यायें होती हैं उनम य परकी प्रेरणासे हई याये परक्रत हैं ऐसा व्यवहार लाग नहीं होनेसे इनकी स्वप्रत्यय पर्यायोम हो पारगणना की जाती है । आगममें कहीं भी इन पर्यायोंको स्व-पर प्रत्यय नहीं बतलाया गया है। यह केवल जैनतत्त्वमीमांसाकी मीमांसामेंकी गयी अपनी कल्पना है। जैनतत्वमीमांसाकी समालोचनामें इतनी बड़ी पुस्तक लिखी गयी पर वहाँ यह भेद नहीं किया जा सका कि विभाव पर्यायोंको स्व-पर प्रत्यय कहनेमें गभित तथ्य क्या है और आगममें सर्वत्र स्वभाव पर्यायोंको मात्र स्वप्रत्यय कहने में क्या हेतु है।
हम पहले उस पुस्तकसे दो अंश उद्धृत कर आए है, उनमें केवल अगुरुलघुगुणकी अर्थपर्यायोंको मात्र स्वप्रत्यय पर्याय स्वीकार किया गया है । पर इसकी पुष्टिमें कोई स्वतन्त्र आगम प्रमाण नहीं दिया गया हैं । इतना अवश्य है कि इसी पुस्तकके पृष्ठ ४८ में सर्वार्थसिद्धिके 'द्विविधः उत्पादः' इस वचनको उद्धृत कर 'अनन्तानामगुरुलघुगुणानां' का वहाँ वेकेटके भीतर 'अगुरुलघुगुणके अनन्त अविभाग प्रतिच्छेद रूप शक्त्यंशो'
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