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चतुर्थखण्ड : २४९
के हैं तो अध्यात्मशास्त्रोंमें 'ये हैय है' ऐसा उपदेश क्यों दिया जाता है। ये सब आत्माके निजस्वरूप हैं इनका श्रद्धान करना चाहिये' इत्यादि उपदेश देना चाहिये था । उसी तरह तत्त्वार्थसूत्र के दशवें अध्यायमें 'औपशमिकादिव्यत्वानां च ' ऐसा कथन करके सिद्धजीवके इनका निषेध क्यों किया जाता है, मेरी प्रार्थना है कि पंडितजी दोनों दृष्टिकोणोंको प्रतिपादन करनेवाले दोनों शास्त्रोंका समन्वय करके इस विषयका विचार करेंगे । यह तो निश्चित ही है कि क्षायोपशमिक और औपशमिक आदि भावोंमें आत्मा उपादान कारण है तथा औद यिक भावोंमें जितने जीवविपाकी है उनमें आत्मा और पुद्गलविपाकी भावोंमें पुद्गल उपादान कारण है इस लिये उपादान कारणकी मुख्यतासे वे भाव उस उसके कहे जायेंगे। परन्तु यहाँपर प्रयोजन शुद्ध जीवके स्वरूपके प्रतिपादन करनेका होनेके कारण पुद्गलनिमित्तक अथवा पुद्गलउपादान कारणका जितने भी भाव हैं उन सबको पौद्गलिक कहा जाता है कारण उन भावोंका व्याप्यव्यापक संबंध कर्मके साथ है। इसका हम पहले ही खुलासा कर आये हैं । क्षायोपशमिक आदि भाव हेय हैं इसमें प्रमाण
कम्मुदयज पज्जाया हे खाओवमियणाणं खु। सगव्वमुवादेयं णिच्छित्ति होदि सण्णाणं ||४|| - द्वादशानुप्रेक्षा. कर्मके उदयसे उत्पन्न होनेवाली पर्यायें और क्षायोपशमिक ज्ञान हेय हैं। तथा निज द्रव्य उपादेय है ऐसा निश्चय होना सम्यग्ज्ञान है ।
पदार्थ जिस समय जिस परिणाम - अवस्थारूपसे परिणत होता है उस समय वह तत्स्वरूप माना ता है । इस नियमसे वह उस समय तन्मय होता है । वह अवस्था उस पदार्थसे अभिन्नरूप रहती है । जैसे धर्म परिणत आत्मा धर्म माना जाता है । यह भावमन जीवसे कथंचित् अभिन्न है कारण नोइन्द्रियाकरणकर्मके क्षयोपशम से आत्मप्रदेश भावमनरूपसे परिणत होते हैं । इसलिये मन यह आत्मासे और आत्मा मनसे कथंचित् अभिन्न है और मनके अभाव होनेपर भी आत्मा रहता है [ वह भावमन आत्मामें रहता है] उस ( भावमन) का अभाव [अत्यन्ताभाव] नहीं होता है इसलिये वह भावमन कथंचित् भिन्न है [संज्ञा, लक्षण, प्रयोजन इसकी अपेक्षासे भिन्न है ]
भावमन कहीं पर भी नहीं
नोइन्द्रियावरणकर्मके
विचार —- जो पदार्थ जिस समय जिस अवस्था रूपसे परिणत होता है वह पदार्थ उस समय उस रूप माना जाता है इसमें मुझे कुछ भी विशेष विवाद नहीं है । परन्तु आगे चलकर पंडितजी ने जो भावमनको कथंचित् अभिन्न सिद्ध करनेके लिये नोइंद्रियावरण कर्मके क्षयोपशमसे भावमनरूप आत्मप्र देश परिणत होते हैं ऐसा लिखा है इस विषयमें जरूर आपत्ति है वह यह कि आत्मप्रदेशों को तो कहा है। हाँ आत्मप्रदेश द्रव्यमनरूप अवश्य परिणत होते हैं उसमें भी कारण नोइन्द्रियावरण कर्मका क्षयोपशम न होकर पुद्गल विपाकी अंगोपांगनामकर्मका उदय ही समझना चाहिये क्षयोपशम भावमन अवश्य होता है। परन्तु वह ज्ञानविशेष है आत्माके प्रदेश विशेष नहीं भावमन वह ज्ञान विशेष होते हुए भी निश्चय दृष्टिसे उसे आत्माका न कहना इसमें कारण उसका विभावरूप होना ही है । यहाँपर उसे आत्मा से कथंचित् भिन्न और कचित् अभिन्न सिद्ध करनेमें विशेष प्रयोजन ही नहीं है। यह कथन तो तब उपयोगी था जब कि मनको आत्मासे सर्वथा भिन्न माना जाता अथवा गुण गुणी आदिमें सर्वथा भेद या अभेद माना जाता । यहाँपर तो तत्त्वचर्चाका दृष्टिकोण ही दूसरा हैं । यहाँपर तो यह विचार करना है कि पर वस्तुके सम्बन्धसे रहित ऐसा शुद्ध आत्मा और परवस्तुसे सम्बन्धको प्राप्त ऐसा अशुद्ध आत्मा इन दोनोंमें जब भेद देखना होगा तो सम्बन्धसे उत्पन्न होनेवाले धर्मोंको किसका कहना चाहिये । यदि स्वरूपदृष्टिसे उन धर्मीको आत्माका कहा जाय तो स्वतन्त्र शुद्ध अवस्थाका अशुद्ध अवस्थासे क्या फरक रहेगा ।
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