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________________ चतुर्थ खण्ड : १६७ जो सूत्रार्थका ज्ञाता है, उत्तम प्रकारसे तपश्चर्या में रत है, जिसने सहनशक्ति बढ़ा ली है, जो शान्त और प्रशस्त परिणामवाला है, उत्तम संहननका धारी है, सब तपस्वियोंमें पुराना है, अपने आचारकी रक्षा करने में समर्थ है और जो देशकालका पूर्ण ज्ञाता है । जो इन गुणोंका धारी नहीं है, उसके एकलविहारी होनेपर गुरुका अपवाद होनेका, श्रुतका विच्छेद होनेका और तीर्थक मलिन होनेका भय बना रहता है। तथा स्वैराचारको प्रवृत्ति बढ़ने लगती है। और भी अनेक दोष हैं, इसलिए हर कोई साधु एकलविहारी नहीं हो सकता। जो इस प्रवृत्तिको प्रोत्साहन देते हैं, वे भी उक्त दोषोंके भागी होते हैं । प्रायः जो गारव दोषसे युक्त होता है, मायावी होता है, आलसी होता है, व्रतादिके पूर्णरूपसे पालन करनेमें असमर्थ होता है और पापबुद्धि होता है, वही गुरुको अवहेलना करके अकेला रहना चाहता है । १३. आर्यिका या अन्य स्त्रीके अकेली होनेपर उससे बातचीत नहीं करता और न वहाँ ठहरता ही है। १४. यदि बातचीत करनेका विशेष प्रयोजन हो तो अनेक स्त्रियोंके रहते हुए ही दूरसे उनसे बातचीत करता है। १५. आयिकाओं या अन्य व्रती श्राविकाओंके उपाश्रयमें नहीं ठहरता । १६. अपनी प्रभाववृद्धि के लिए मन्त्र, तन्त्र और ज्यो तषविद्याका उपयोग नहीं करता। १७. तैलमर्दन आदि द्वारा शरीरका संस्कार नहीं करता और सुगन्धित द्रव्योंका उपयोग नहीं करता। १८. शीत आदिको बाधासे रक्षाके उपायोंका आश्रय नहीं लेता। १९. वसतिका आदिका द्वार स्वयं बन्द नहीं करता तथा वहाँ आनेवाले अन्य व्यक्तिको नहीं रोकता । २०. दीपक या लालटेनकी रोशनीको कम-अधिक नहीं करता । बैटरी भी पासमें नहीं रखता । २१. उष्णताका वारण करनेके लिए पंखे आदिका उपयोग नहीं करता। २२. अपने साथ नौकर आदि नहीं रखता । २३. किसीके साथ विसंवाद नहीं करता। २४. तीर्थादिकी यात्राके लिए अर्थका संग्रह नहीं करता और न इसकी पूर्ति के लिए उपदेश देता है । २५. तथा यात्राके समय किसी प्रकारकी सवारीका उपयोग नहीं करता। पैदल ही विहार करता है। इन नियमों के सिवा और भी बहुतसे नियम है जिनका वह संयमकी रक्षाके लिए भले प्रकार पालन करता है। २. आर्यिकाओंके विशेष नियम उक्त धर्मका समग्ररूपसे आर्यिकाएँ भी पालन करती हैं। इसके सिवा उनके लिए जो अन्य नियम बतलाये गये हैं, उन्हें भी वे आचरणमें लाती हैं। वे अन्य नियम ये हैं-वे परस्परमें एक-दूसरेके अनुकूल होकर एक-दूसरेको रक्षा करती हुई रहती हैं । २. रोष, वैरभाव और मायाभावसे रहित होकर लज्जा और मर्यादाका ध्यान रखती हुई उचित आचारका पालन करती हैं। ३. सूत्रका अध्ययन, सूत्रपाठ, सूत्रका श्रवण, उपदेश देना, बारह अनुप्रेक्षाओंका चिन्तवन, तप, विनय और संयममें सदा सावधान रहती हैं। ४. शरीरका संस्कार नहीं करतीं। ५. सादा बिना रँगा हुआ वस्त्र रखती हैं। ६. जहाँ गृहस्थ निवास करते हैं, उस मकान आदिमें नहीं ठहरतीं । ७. कभी अकेली नहीं रहतीं । कमसे कम दो-तीन मिलकर रहती है। ८. विना प्रयोजनके किसीके घर नहीं जाती। यदि प्रयोजनवश जाना ही पड़े तो गणिनीसे अनुज्ञा लेकर मिलकर ही जाती हैं। ९. रोना, बालक आदिको स्नान कराना, भोजन बनाना, दाईका कार्य और कृषि आदि छह प्रकारका आरम्भ कर्म नहीं करतीं । १०. साधुओंका पाद-प्रक्षालन व उनका परिमार्जन नहीं करतीं। ११ वृद्धा आर्यिकाको मध्यमें करके तीन, पाँच या सात आर्यिकाएँ मिलकर एक-दूसरेकी रक्षा करती हुई आहारको जाती हैं । १२. आचार्यसे पाँच हाथ, उपाध्यायसे छह हाथ और अन्य साधुओंसे सात हाथ दूर रहकर गो-आसनसे बैठकर उनकी वन्दना करती हैं। जो साधु और आर्यिकाएँ इस आचारका पालन करते हैं, वे जगत्में पूजा और कीतिको प्राप्त करते हए अन्समें यथानियम मोक्ष-सुखके भागी होते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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