SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 402
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ संवत् सत्रह से चालिस अन इक तह भयो । उज्वल फागुन मास दसमि सो मह गयो । पुनरवसू नक्षत्र सुद्ध दिन सोदयो । पुनि नरेन्द्रकीरति मुनिराई सुभग संजम लह्यो || वि० सं० १७४६ माघ सुदि ६ सोमवारको चांदखेडीमें हाडा माधोसिंह के अमात्य श्री कृष्णदास वघेरवालने आमेर के भट्टारक श्री जगत्कीर्तिके तत्त्वावधान में बृहत्पंचकल्याणक प्रतिष्ठा कराई थी । उसमें चंदेरी पट्टके भट्टारक श्री सुरेन्द्रकीर्ति भी सम्मिलित हुए थे । इस सम्बन्धकी प्रशस्ति चाँदखेडीके श्री जिनालय में प्रदेश द्वारके बाहर बरामदे एक स्तम्भपर उत्कीर्ण है । उसमें चंदेरी, सिरोंज और विदिशा ( भेलसा) पट्टको परवारपट्ट कहा गया है । उसका मुख्य अंश इस प्रकार है : चतुर्थं खण्ड : ३६५ ॥१॥ संवत् १७४६ वर्ष माह सुदि ५ षष्ठयां चन्द्रवासरान्वितायां श्री मूलसंघे बलात्कारगणे सरस्वतीगच्छे कुन्दकुन्दाचार्यान्वये सकलभूमंडलबलयैकभूषण सरोजपुरे तथा चेदिपुर- भद्दिलपुरवनंस परिवारपट्टान्वये भट्टारक श्री धर्मकीर्तिस्तत्पट्टे भ० श्री पद्मकीर्तिस्तत्पट्टे भट्टारक श्रीसककीर्तिस्तत्पट्टे ततो भट्टारक श्री सुरेन्द्रकीर्ति तदुपदेशात्" || मालूम पड़ता है कि चंदेरी और सिरोंज भट्टारक पट्टोंकी स्थापना परवार समाजके द्वारा ही की जाती थी, इसलिए इन पट्टोंको परवारपट्ट कहा गया है। इस नामकरणसे ऐसा भी मालूम पड़ता है कि इन दोनों पट्टोंपर परवार समाज के व्यक्तिको ही भट्टारक बनाकर अधिष्ठित किया जाता था। सिरोंजके लिए पट्टाभि - षेकका विवरण हमने प्रस्तुत किया ही है। उससे भी इसी तथ्य की पुष्टि होती है । विदिशामें कोई स्वतन्त्र भट्टारक गद्दी नहीं थी किन्तु वहाँ जाकर भट्टारक महीनों निवास करते थे और वह मुख्य रूपसे परवार समाजका ही निवास स्थान रहा चला आ रहा है, इसलिए उक्त प्रशस्तिमें भद्दलपुर (विदिशा) का भी समावेश किया गया है । चंदेरी पट्टकी अपेक्षा उत्तरकालमें सिरोंजपट्ट काफी दिनों तक चलता रहा इसकी पुष्टि गुनाके दि० जैन मन्दिरसे प्राप्त इस यंत्र लेखसे भी होती है । यंत्र लेख इसप्रकार है : सं० २८७१ मासोत्तममासे माघमासे शुक्लपक्षे तिथौ ११ चन्द्रवासरे श्रीमूलसंघे बलात्कारगणे सरस्वतीगच्छे कुन्दकुन्दाचार्यान्वये सिरोंजपट्टे भट्टार्कश्री राजकीर्ति आचार्य देवेन्द्रकीर्ति उपदेशात् ग्याति परिवारि राउत ईडरोमूरी चौधरी घासीरामेन इदं यंत्र करापितं । सिरोंज पट्टके ये अन्तिम भट्टारक जान पड़ते हैं । पौरपाट (परवार) भट्टारक श्री भट्टारक पद्मनंदी के तीन शिष्य थे - शुभचंद्र सकलकीर्ति और देवेन्द्रकीति । इनमें से भ० देवेन्द्रकीर्ति ने सबसे पहले गांधार (गुजरात) में भट्टारक पट्टकी स्थापना की थी। उसके बाद वे उस पट्टको रांदेर ले आये थे । यहीं पर उन्होंने विद्यानंदीको पट्टपर स्थापित करके वे स्वयं चंदेरी चले आये थे और यहाँ उन्होंने भट्टारक पट्टको स्थापित किया था । इसका विशेष विवरण मूर्तिलेख संग्रह ( मूलचंद किसनदास कापड़ियाने वीर सं० २४९० ता० १४-८-६४ ) गुजराती प्रकाशन देखनेको मिलता है । उसके कि वि० संवत् १४६१ में भ० देवेन्द्रकीर्तिने गांधारसे भट्टारक पट्टको लाकर रांदेर में स्थापित किया और भ० विद्यानंदी उसी पट्टको वि० संवत् १५१८ में सूरत ले आये । चंदेरीके पृ० ३५ पर लिखा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy