Book Title: Fulchandra Shastri Abhinandan Granth
Author(s): Jyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
Publisher: Siddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi

View full book text
Previous | Next

Page 691
________________ ६५२ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ समाधान-नयचक्र आ० ७७में कहा है-व्यवहारसे बंध होता है और स्वभावका आश्रय लेनेसे मोक्ष होता है, इसलिए स्वभावकी आराधना कालमें व्यवहारको गौण करो । प्रथम पक्षने प्रतिशंकामें प्रवचनसार, पंचास्तिकाय, परमात्मप्रकाश द्रव्य-संग्रहके अनेक प्रमाण उपस्थित कर यह सिद्ध किया है कि व्यवहार धर्म निश्चय धर्मका साधक है, किन्तु यह कथन असद्भूत व्यवहारसे किया गया है । पं० प्रवर टोडरमलजीने मोक्षमार्ग प्रकाशकमें कहा है-सम्यग्दृष्टिके शुभोपयोग भये निकट शुद्धोपयोग प्राप्ति होय ऐसा मुख्य पना करि कहीं शुभोपयोगको शुद्धोपयोगका कारण भी कहिए है । पृ० ३७७ दिल्ली सं० बृहद्रव्यसंग्रह, पंचास्तिकाय टीका में जो व्यवहार धर्मको निश्चय धर्मका परंपरासे साधक कहा है, सो वह इसी अभिप्रायसे कहा है । वस्तुतः मोक्षमार्ग एक ही प्रकारका है, उसका कथन दो प्रकारका है। जहाँ निश्चय मोक्ष मार्ग होता है, उसके साथ मंदराग, रूप व्यवहार धर्मको भी मोक्षमार्ग आगममें कहा है। मो० मा० प्र० पृ० ३ ५-६६ में भी कहा है-निरूपण अपेक्षा दोय मोक्षमार्ग जानना एक निश्चय मोक्षमार्ग एक व्यवहार मोक्षमार्ग है। ऐसे दोय मोक्षमार्ग मानना मिथ्या है। बहुरि निश्चय व्यवहार दोऊनिक उपादेय माने हैं सो भी भ्रम है । जात निश्चय व्यवहारका स्वरूप तो परस्पर विरोध लिए है ? प्रवचनसारमें कहा है--वीतराग भावसे मोक्ष प्राप्त होता है और सराग भावसे देवादि पर्यायके वैभव क्लेश रूप बंधकी प्राप्ति होती है। प्रतिशंका -आपने जितने प्रमाण दिये हैं उनका मल प्रश्नसे कोई संबंध नहीं है । व्यवहार रत्नत्रय को व्यवहारनयका विषय बताया है । क्या बिना व्यवहारके निश्चय रत्नत्रय प्राप्त हो सकता है ? जबकि भेद रत्नत्रयको व्यवहार कहा है और अभेद रत्नत्रयको निश्चय कहा है। द्रव्यसंग्रह १३वीं गाथाकी टीकामें कहा है जो निश्चयको साध्य-साधक भावसे नहीं मानता है, वह मिथ्यादृष्टि है। नियमसार गाथा ५१ से ५५ रत्नत्रयका वर्णन करते हुए कहा है कि व्यवहारनयके चारित्रमें व्यवहार तप होता है और निश्चय चारित्रमें निश्चय तप होता है। इसीकी टीकामें कहा है--भेदोपचार रत्नत्रय भी आत्मसिद्धिके लिए परंपरा कारण है। __ आगममें देवशास्त्र गुरुके श्रद्धानको सम्यग्दर्शन कहा है। क्या यह श्रद्धा मात्र रागरूप है ? पुरुषार्थ सिद्धयुपाय श्लोक २२ में कहा है-निश्चय व्यवहार रत्नत्रय-परमात्मपद प्राप्त कराता है । इसी तरह पंचास्तिकाय, छहढाला, भावपाहुड, द्रव्यसंग्रह, परमात्म प्रकाशमें व्यवहार रत्नत्रयको निश्चयका कारण कहा है। समयसार गाथा १२ में भी कहा है--साधक अवस्था वाले जीव व्यवहार द्वारा उपदेश करने योग्य है। निश्चय तो साध्य है और बाह्याचार रूप व्यवहार सर्वत्र उसका साधन बतलाया गया है । समयसारमें भी अधःकर्म और औद्देशिकका निमित्त भूत आहारादि हैं, उसके त्यागके बिना द्रव्य प्रतिक्रमण नहीं होता और द्रव्य प्रतिक्रमणके बिना भाव प्रतिक्रमण नहीं होता है--ऐसा निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध है। अतः व्यवहार निश्चयका कारण है, यह बात सिद्ध होती है । प्रतिशंका ३ का समाधान-निश्चय रत्नत्रय स्वभावभाव है और निश्चयका सहचर होनेसे व्यवहार रत्नत्रय साधक तो नहीं हैं, निमित्तमात्र है। असद्भुत व्यवहारनयसे आगममें उसे साधक कहा है । यहां साधकका अर्थ निमित्त मात्र है। बृहद्रव्यसंग्रह गाथा ४५ की टीकामें कहा है-जो पांचों इन्द्रियों के विषयांका बाह्य त्याग है, वह उपचरित असद्भूत व्यवहारनयसे चारित्र है। वह वास्तवमें आत्मका धर्म नहीं है । निश्चय और व्यवहार चतुर्थादि गुणस्थानमें एक साथ रहते हैं । आगममें उपचरित असद्भत व्यवहार नयसे व्यवहार धर्मको निश्चयका साधन कहा है। यह दृष्टि हमेशा ध्यानमें रखेंगे, तो आगमके भावको समझ सकेंगे। सच्चे देव, शास्त्र, गुरुका श्रद्धान भी व्यवहार सम्यग्दर्शन है-यह निमित्त कथन है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 689 690 691 692 693 694 695 696 697 698 699 700 701 702 703 704 705 706 707 708 709 710 711 712 713 714 715 716 717 718 719 720