________________
पंचम खण्ड : ६५५
ध्वनि जब भी खिरती है, वह उसका स्वकाल है-अर्थात् पर्याय अपने समयपर ही प्रगट होती है; अनियतकालमें नहीं होती है।
(४) गुण, पर्यायको नियत और अनियत कहा है। वहाँ अपने स्वभावरूप संसारी जीव परिणमन नहीं करता है, उसे अनियत गुण, पर्याय वाला कहा है ।
(५) प्राग्भावका विनाश द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावपर निर्भर है-इसका अर्थ है कि द्रव्यका स्वकाल आदि आनेपर, परचतुष्टय निमित्त रूप होता है । किन्तु वह कार्यका जनक नहीं है।
(६) यद्यपि कार्य निमित्त-उपादानके सुयोग मिलनेपर होता है, किन्तु कार्योत्पत्ति समर्थ उपादानसे होती है । निमित्त उस समयपर उपस्थित अवश्य है, किन्तु वह नियामक कारण नहीं है। अतः कार्य अपने नियत समयपर ही होता है।
प्रतिशंका ३-केवलज्ञानकी अपेक्षा पर्यायोंका परिणमन क्रमबद्ध मानकर भी कार्य-कारणकी अपेक्षा उसकी सिद्धि करना चाहिए। अतः यह विचारणोय है कि वह कार्य अपने प्रतिनियत कारणोंसे जिस कालमें होता है, उसे ही कार्यका प्रधान कारण माना जाये ? अथवा कार्य जब होता है, तो अपने प्रतिनियत कारणोंसे ही होता है और जिस कालमें वह उत्पन्न होता है, वही उसका स्वकाल है । इसलिए कार्यके लिए अन्तरंग और बहिरंग दोनों कारण मानना चाहिए।
इसलिए विवक्षित कार्यके अनुरूप उपादान कारणके होते हुए भी यदि अन्य कारणोंकी अविकलता न होगी, तो कार्य सम्पन्न नहीं होगा। यदि सहकारी कारण अकिचित्कर हो तो उसका नाम सहकारी कारण नहीं हो सकता है। क्योंकि जीव और पुद्गलोंके परिणमन स्वपर प्रत्यय ही माने गये हैं । वस्तुके परिणमनमें विलक्षणताका नियामक निमित्त कारण ही है।
निर्जरा या संक्रमण आदिके लिए शास्त्रमें ऐसा कोई नियम नहीं है कि कर्मोके बन्धके समय ही उन कर्मों में ऐसी योग्यता स्थापित हो जाती है कि वे अमुक समयपर ही निर्जरित होंगे। हाँ यह बात अवश्य है कि बन्धके समय कुछ प्रदेशोंका उपशम, निधत्ति, निकाचित रूप बन्ध होना सम्भव है। किन्तु कारण-कलाप
भी जाता है। आपने स्वकाल शब्दका प्रयोग किया है. किन्तु अमतचन्द्राचार्यने ४७ शक्तियों में अकाल नय भी बतलाया है और पण्डित टोडरमलजीने कहा है-काललब्धि और नियति कोई वस्तु हो नहीं
। भगवानकी दिव्यध्वनि भी निमित्त पाकर अनियत समयमें भी खिरने लगती है। कर्म निर्जरा विपाक, और मुक्तिका भी कोई नियत समय नहीं है।
शंका ५ प्रतिशका ३ का समाधान-केवलज्ञानमें सब पदार्थोंकी पर्यायें झलकती हैं, अतः इससेो पदार्थोंका परिणमन सुनिश्चित तो है ही। तथा 'अष्टसहस्री' में यह भी कहा गया है कि जैसी भवितव्यत होती है, वैसे ही सब कारण मिल जाते हैं । अलंध्यशक्तिका अर्थ यह स्पष्ट किया है कि कार्य द्रव्य स्वभावको लांघकर कभी नहीं होता है। निश्चयसे कार्यकारण-व्यवस्था एक द्रव्यमें ही घटित होती है। अन्य द्रव्यके संयोगसे कार्य-कारण कहना व्यवहार कथन है । निमित्त कथनको यथार्थ कथन मानना दो द्रव्योंकी एकताको स्वीकार करना है जोकि असम्भव है ।
निर्जरा और मुक्तिका काल सुनिश्चित है, उपादान और निमित्त की आगममें समव्याप्ति कही है । अतः समर्थ उपादानकी उपस्थितिमें अन्य निमित्त कारणकी उपस्थिति बन जाती है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org