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६५८ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ
कहा है कि अपनी तरह परको तन्मय होकर नहीं जानते हैं। परकी अपेक्षा आ जानेसे भी परज्ञानको व्यवहार कहा है। ज्ञान स्वपरप्रकाशक है। स्व और परका भेद किया, यह सद्भूत व्यवहारनय है। ४७ शक्तियोंमें सर्वज्ञत्व शक्ति भी एक आत्मशक्ति है। वह असद्भूत व्यवहारनय विषय आत्मपदार्थ वस्तु नहीं है । अत: व्यवहारनयका विषय होनेसे सर्वज्ञता असत्य नहीं है।
शंका ८ - दिव्यध्वनिका केवलज्ञान अथवा केवलीकी आत्मासे कोई सम्बन्ध है या नहीं? यदि है तो कौनसा सम्बन्ध है ? वह सत्यार्थ है या असत्यार्थ ? दिव्यध्वनि प्रामाणिक है या अप्रामाणिक ? यदि प्रामाणिक है तो उसकी प्रामाणिकता स्वाश्रित है या केवली भगवान्की आत्माके सम्बन्धसे ?
. आपके वचन युक्ति और शास्त्रसे अविरुद्ध हैं ऐसा कथन आगममें आता है तथा वक्ताकी प्रमाणतासे वचनोंकी प्रामाणिकता होती है। अर्थात् दिव्यध्वनिकी प्रामाणिकता केवलज्ञानीके आश्रित है; न कि स्वाश्रित । धवलमें भी कहा है-रागी, द्वेषी असत्य बोलता है, वीतरागी सत्य ही बोलता है। जिनेन्द्रका उपदेश द्रव्यश्रुत है, इत्यादि कथन आगममें भरा पड़ा है । अतः वचनों द्वारा पदार्थज्ञान पुरुष-व्यापार की अपेक्षा रखता है।
शंका ८ का समाधान-दिव्यध्वनि और केवलज्ञानका निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध तो है. किन्तु उपादान-उपादेय सम्बन्ध नहीं है। दिव्यध्वनि वीतरागीकी खिरती है। अतः उसमें पुरुष प्रयत्न तो सम्भव ही नहीं है। वचन-वर्गणाका योग और भव्य जीवोंके भाग्यसे सहज ही वाणी खिरती है। आत्मा चेतन पदार्थ है और भाषा अचेतन पदार्थ है । अतः आत्मा वाणीका कर्ता कैसे हो सकता है ? उपचरित असद्भूत व्यवहारनयसे ही पुरुष वाणीका कर्ता कहा जाता है । क्योंकि भिन्न दो द्रव्योंमें उपचारसे ही कर्तृत्वका कथन होता है । दिव्यध्वनिकी प्रामाणिकता अपने उपादानकी अपेक्षा स्वाश्रित है। निमित्तकी अपेक्षा पराश्रित कही गई है। सत्यभाषाका उपादान सत्यभाषा वर्गणा है। अनुभय भाषाका उपादान अनुभय भाषा वर्गणा है।
कार्य के प्रति निमित्त और उपादानकी समव्याप्ति होती है। दिव्यध्वनिको ज्ञानका कार्य कहना निमित्त कथन है । प्रत्येक द्रव्यका परिणमन स्वतंत्र होनेसे वाणी अपनी योग्यतासे अपने स्वकालमें स्वयं खिरती है। वाणी वैनसिक और प्रायोगिक दो रूपोंमें प्रयुक्त होती है। उसे प्रायोगिक कहना यह भी निमित्त कथन है। निमित्त प्रधान कथन तो होता है, किन्तु कार्य उपादानकी अपनी योग्यतासे होता है।
शंका ९-सांसारिक जीव बद्ध है या मुक्त ? यदि बद्ध हैं तो किससे बँधा हुआ है और किसीसे बँधा हुआ होनेसे परतंत्र है या नहीं ? यदि वह बद्ध है, तो उसके बन्धनोंसे छूटनेका उपाय क्या है ?
क्योंकि आगममें स्पष्ट कहा है-जब आत्मा मन वचन कायकी क्रिया करता है तब कर्मोंसे बँध ही जाता है। और इस बंधके कारण दर्शन, ज्ञान, चारित्र विकृत होकर मिथ्यात्व अज्ञान असंयम रूप प्रवृत्ति करते हैं । कर्मोंके अभावसे यह जीव मुक्त हो जाता है। अतः कर्मबद्ध होकर जीव संसारमें परिभ्रमण कर रहा है और कर्मोसे छटकर मुक्त हो जाता है। आगममें यह भी कहा है-जब कर्म बलवान होता है, तो जीव दुखी हो जाता है और जब जीव बलवान होता है तो सुखी हो जाता है। यह भी कहा गया है कि कर्म जीवको प्रेरित करता है और जीव कर्मको प्रेरित करता है। इसीलिए ज्ञानावरणी कर्म ज्ञान को रोकता है आदि आगम स्पष्ट कह रहा है कि जीव कर्मोंसे बँधा है। और कर्मोदयके कारण ही सुखी दुखी होकर संसार परिभ्रमण कर रहा है।
समाधान-अशुद्ध निश्चयनयसे जीव रागादि भावोंसे विकारी हैं। असद्भत व्यवहारनयमें कर्मोसे बद्ध कहा जाता है। यह सब उपचारसे पर्यायका कथन किया है। निश्चयनय या द्रव्य स्वभावसे तो जीव अबद्ध-अस्पष्ट अखण्ड एवं त्रिकाल शुद्ध है जैसा कि समयसार आदि अध्यात्म ग्रन्थोंमें कहा गया है । कर्म और
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