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पंचम खण्ड : ६५७
विशिष्ट पर्यायशक्तिसे युक्त द्रव्यशक्ति ही कार्यकारी मानी गई है। क्योंकि पर्याय द्रव्यमेंसे प्रकट होती है; न बाहरसे आती है और न निकलकर बाहर जाती है। परकर्तृत्वको अध्यात्ममें मिथ्योत्वका महापाप माना है। आचार्य समन्तभद्र कहते हैं; जैसी भवितव्यता होती है वैसे सब कारण मिल जाते हैं। अतः कार्य उपादानके सामर्थ्य के अनुसार होता है । यदि निमित्ताधीन कार्य हो, तो पुरुषार्थका कोई महत्त्व ही नहीं रह जाता है।
प्रतिशंका ३-आप निमित्तकारणको व्यवहारकारण मानकर निमित्तकी उपस्थिति मात्र मानते हैं, और अकिंचित्कर कहकर उसकी कुछ उपयोगिता नहीं मानते हैं। कार्यको स्वपर सापेक्ष आगमवाक्यकी अवहेलना करना क्या उपयुक्त है। क्या गेहूँकी पैदावार में किसान अकिंचित्कर है और यदि अकिंचित्कर है, तो आवश्यकता ही क्या रह जाती है। फिर किसानके बिना परिश्रमके गेहूंकी उत्पत्ति हो जाना चाहिए जो कि सर्वथा असंभव है । अकेले निमित्तसे कार्य होता है, ऐसा हम भी नहीं मानते हैं किन्तु उसके बिना कार्य भी तो नहीं होता, अतः वह आवश्यक और अनिवार्य कारण है। उसके अभावमें अथवा प्रतिकूल कारणोंके मिलने पर उपादानके रहते हए कार्य नहीं होता है। उपादानमें अनंत शक्तियां हैं, उनमें से जिस शक्तिके अनुरूप निमित्त मिल जाते हैं, उस शक्तिका विकास हो जाता है ।
प्रतिशंका ३ का समाधान-निश्चयनय कार्यकारण एक ही द्रव्यमें घटित होते हैं। व्यवहारनय घो का घड़ा कहता है, किन्तु घड़ा घी का नहीं होता है । इसी तरह अनुकूल निमित्त की उपस्थितिमें कार्य होता है, किन्तु कार्य उपादान शक्तिसे ही होता है। उपचरित असद्भूत व्यवहारसे निमित्तको कर्ता कहा जाता है। एक द्रव्यका दूसरे पर आरोप करना ही उपचार है। जब एक द्रव्य गुण, पर्याय दूसरे द्रव्य गुण पर्यायमें प्रवेश नहीं कर सकते, तब उनमें परिणमन कैसे करा सकता है ? उपादान कारणके कार्य सन्मुख होनेपर बाह्य सामग्रीका विस्रसा या प्रयोगसे योग मिलना ही है। यदि निमित्तसे कार्य होने लगे, तो समवसरणमें सबको मुक्ति प्राप्त हो जाना चाहिये; जबकि तीर्थकरकी उपस्थितिमें ही मारीच भ्रष्ट हो गया था । पर सापेक्षका अर्थ परकर्तृत्व न होकर धर्मद्रव्यकी तरह उदासीन निमित्त मात्र है । निमित्त नामकी कोई वस्तु नहीं है, किन्तु जिसकी अनुकूल उपस्थितिमें कार्य बनता है, उसका नाम निमित्त पड़ जाता है। एक प्रतिमा किसीको सम्यरदर्शनमें निमित्त बनती है, धर्मविरोधीको द्वेषभावमें निमित्त बनती है और चोरोंको चोरी करनेमें निमित्त बन जाती है । क्यों इन तीनों कार्यों में प्रतिमाका कर्तृत्व है।
शंका ७-केवली भगवानकी सर्वज्ञता निश्चयसे है या व्यवहारसे ? यदि व्यवहारसे है तो वह सत्यार्थ है या असत्यार्थ ? इस सभी शंकाओं के तीन-तीन दौर चले थे, उन सबका सार यहाँ विस्तार भयसे कहेंगे।
____ आत्मज्ञता और सर्वज्ञताका क्या रूप है ? तथा ज्ञेयोंकी अपेक्षा आरोपित सर्वज्ञता सिद्ध हुई और यदि पर की अपेक्षा सर्वज्ञता है, तो वह असद्भूत व्यवहारनयका विषयभूत सर्वज्ञता है। क्योंकि स्वभावका अन्यत्र आरोप सो उपचार है। तथा अमतिक आत्मामें मूर्तिक पदार्थ कैसे भूल सकता है। अतः यह भी बात नहीं बैठती कि पदार्थ स्वयं झलकते हैं अथवा ज्ञान ज्ञेयाकार हो जाता है । क्योंकि अमूर्तिक द्रव्योंका आकार न होनेसे उनका आकार आत्मामें कैसे झलक सकता है ?
शंका ७ का समाधान-यह निर्विवाद सत्य है कि आत्माका स्वभाव स्वपर प्रकाशक है तथा अतः जो स्वभाव होता है, वह पर निरपेक्ष होता है। आत्मज्ञतामें ही सर्वज्ञता भरी है। वीतरागी परमात्मा अपने उस ज्ञान स्वरूप आत्माको जान रहे हैं, जिसमें ज्ञेय भी प्रतिबिंबित हो रहे हैं। अमूर्तिक ज्ञान मूर्तिक, अमूर्तिक सभीको जानता है । क्षयोपशम ज्ञान भी मूर्तिक, अमूर्तिक पदार्थोंको जानता है। परज्ञानको व्यवहार इसलिए
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