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-६५० : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ
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स्वीकार न करके अतिसाहस कर रहे हैं । बोधपाहुड गा० २५ में दया से धर्म तथा धवला पु. १३ पृ. ३६२ में करुणाको जीवका स्वभाव कहा है "भावसंग्रह ४०४ में स्वीकार किया है कि सम्यग्दृष्टिका पुण्य, बंधका कारण नहीं है, नियमसे मोक्षका कारण है । सम्यकदृष्टिसे लेकर सातवें गुणस्थान तक मिश्रित शुभभाव हैं, उससे आस्रव, बंध और संवर, निर्जरा भी होती है ! सातवें तक शुद्धोपयोग तो होता ही नहीं है, वहां निर्जरा होती है। सम्यक्त्व के सम्मुख वाले जीवके भी शुभ परिणामसे असंख्यातगुणी निर्जरा स्थितिकाण्डक अनुभागकाण्डक करते ही हैं । का० अनु० में दयामय धर्म कहा है | नियमसार गाथा ६ में भी दयामय धर्म बतलाया है। इस प्रकार आत्मानुशासन, यशस्तिलक, मूलाचार, भावपाहुड, शीलपाड, मूलाराधना आदि ग्रन्थोंमें दयाको धर्म कहा है।
पाँच पापोंके त्यागको सम्यग्चारित्र कहा है तथा सम्यग्वारित्र साक्षात् मोक्षका कारण है। जहां भी व्रतोंको छोड़नेका उपदेश दिया गया है, वहाँ मात्र व्रतोंमें रहने वाले रागांदाको छोड़नेका उपदेश है, न कि व्रतोंको छोड़ने का । व्रत तो बारहवें गुणस्थान तक पाये जाते हैं ।
प्रतिशंका ३ का समाधान
जीवदया में स्वदया और परक्ष्या गर्भित है । किन्तु मूल प्रश्न परदयाको ध्यान में रखकर हो किया गया है। परदयाको पुण्य मानना मिथ्यात्व नहीं है। उत्तर पक्ष ने दयाको धर्म माननेके जो लगभग २० प्रमाण दिये हैं, ऐसे और भी हजारों प्रमाण मिल सकते हैं । किन्तु जितने भी रागरूप परिणाम हैं, वे कभी भी मोक्ष के कारण नहीं हो सकते हैं। परवया रूप भाव रागरूप ही है अतः वे मोक्षके कारण कदापि नहीं हो सकते हैं । परमात्मप्रकाश गाथा ७१ में भावोंके ३ भेद किये हैं- धर्म-अधर्म और शुद्ध । यहाँ शुभ भावको ही धर्म कहा गया है। अतः शुभभावको धर्म उपचारसे कहा गया है। परदयाके भाव गृहस्य मुनि सबको आता है। जीवदया धर्म है, इसके लिए जो अनेक प्रमाण दिये गये हैं, उसमें किस नयका यह कथन है, उस पर ध्यान न देकर व्यवहार धर्मको निश्चयधर्म मानकर अपनी बात सिद्ध करना चाहता है । किन्तु प्रवचनसार गाथा ११ में स्पष्ट कहा है कि शुद्धोपयोगसे जीव मोक्षसुख और शुभोपयोगसे स्वर्ग सुख पाता है। इस गाया ने आगम वाक्यका रहस्य खोलकर रख दिया है अतः शुभ भाव और शुद्धभावों का अन्तर स्पष्ट हो जाता है इससे यह निर्णय हो जाना चाहिए कि स्वदया वीतराग भाव रूप है, और परदया शुभभाव रूप है ।
पंचास्तिकाय गाथा १४७ में कहा है, जब विकारी आत्मा शुभ, अशुभ भाव करता है, तो वह नाबा प्रकारके कर्मों से बद्ध होता है। अतः शुभभावों से कर्मबंध होता है, यह बिल्लकुल स्पष्ट हो जाता है। प्रवचनसार गाथा १८१ में भी शुभ परिणाम पुण्य है तत्त्वार्थसार श्लोक २५-२६ में दयाको शुभास्रव बताया है । बोध प्राभृतके 'धम्मो दया विशुद्धो' का अर्थ स्वदयारूप वीतरागभाव है जो कि निर्जराका कारण है । धवला पुस्तक १३ में भी 'करुणाए जीवसहावस्स' करुणा ही जीव स्वभाव है, इसका अर्थ भी स्वदया है । भाव संग्रहकी गाया 'सम्माइट्टी पुष्णं... में सम्यग्दृष्टिका पुण्य बंध कारण नहीं है, उस व्यवहार कथनका आशय इतना है कि सम्यग्दृष्टि अल्पकालमें मुक्ति प्राप्त करेगा । उसका पुण्य अनंत संसारका कारण नहीं है ।
इस सबका सार इतना ही है कि दया शब्दका व्यवहार दो अर्थों में किया जाता है- एक स्वदपाके रूपमें, जो निर्जरा का कारण है और दूसरा परदयाके रूपमें, जो पुण्यबंधका कारण है । समयसार कलश १०७ में कहा है- कर्मस्वभावसे वर्तना ज्ञानका होना नहीं है, इसलिए शुभभाव मोक्षका हेतु नहीं है, क्योंकि वह पुद्गल स्वभाववाला है अतः आगम में रागांश बंधका कारण और रत्नत्रयांश संवर निर्जराका कारण है—यह स्पष्ट हो जाता है। राग और ज्ञानको भिन्न करना यही भेदज्ञानका फल है। सूर्योदयसे पूर्व और अंधकार मिले हुए प्रतीत होते हैं, किन्तु दोनों का स्वभाव अत्यन्त भिन्न है ।
प्रकाश
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