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पंचम खण्ड : ६५१
प्रथम पक्षने भोजन और काढेका एवं मिश्र गुणस्थानका उदाहरण दिया है। इससे यह सिद्ध नहीं होता है, कि मिले हुए पदार्थ एक ही कार्य करते हैं । भोजन या काढ़ेमें जिन द्रव्योंका सम्मिश्रण है, वे सब अपना अपना कार्य करते हैं तथा मिश्र गुणस्थान सर्वघाति प्रकृति होने से वह विभाव भाव है। वेदक सम्यक्त्व स्वभावभाव है, अतः मिश्रकी तुलना वेदक सम्यक्त्वसे नहीं की जा सकती है। चौथे गुणस्थानमें आंशिक शुद्धोपयोग होता है, वह निर्जराका कारण और जो रागांश शेष है, वह बंधका कारण होता है।।
पंचास्तिकाय गाथा १४४ की टीकामें कहा है-शुभ अशुभ भावका निरोध करना संवर है । अतः शुभभाव संवरका विरोधी है, उससे संवर-निर्जरा कैसे हो सकती है। प्रवचनसार गाथा ८५ में मनुष्य तिर्यंचोंमें अज्ञानतापूर्वक करुणाको मोहका लक्षण कहा है। पंचास्तिकाय गाथा १७० की टीका में करुणाको मनः खेद कहा है।
प्रथम पक्ष ने सम्यग्दृष्टिके शुभभावोंको वीतरागता और मोक्ष का हेतु कुछ शास्त्रीय प्रमाण देकर सिद्ध करना चाहा है और सम्यग्दृष्टिका शुभभाव कर्मचेतना न होकर ज्ञानचेतना माना गया है, जबकि कर्म चेतनाका लक्षण है-ज्ञान से भिन्न अन्य भावोंको मैं करता है-यह कर्मचेतना है।' इस लक्षण से शुभभावों का ज्ञान चेतना में कैसे अंतर्भाव हो सकता है ? क्योंकि शुभभावको विभाव भाव आगममें कहा है।
"तत्त्वार्थसूत्र' में व्रतोंको आस्रव तत्त्वमें स्वीकार किया है। अतः शुभ भावरूप जीवदयाको धर्म मानना मिथ्यात्व ही सिद्ध होता है, क्योंकि शुभभाव आस्रव तत्त्व है और उसको संवर निर्जरा तत्त्व सिद्ध करने का प्रयत्न किया गया है। शंका नं०४
शंका--व्यवहार धर्म निश्चय धर्ममें साधक है या नहीं ?
समाधान-उत्तर पक्षने उसका समाधान करते हुए बतलाया कि निश्चय धर्म पर निरपेक्ष होता है और व्यवहार धर्म पर सापेक्ष होता है, अतः यदि वास्तविक दृष्टिसे देखा जाये, तो व्यवहार धर्म निश्चय धर्मका साधक कैसे हो सकता है। क्योंकि विभाव पर्याय स्वपर सापेक्ष होती है और स्वभाव पर्याय पर निरपेक्ष होती है। ऐसा ही नियमसार गाथा १३-१४ और २८ में कहा है । व्यवहार धर्म निश्चय धर्मके साथ रहता है । इससे उसको सहचर होनेसे निमित्त मात्र कहा है; साधक नहीं है।
प्रतिशंका-इस समाधानके बाद प्रथम पक्षने पुनः प्रतिशंका करते हुए बतलाया कि जब स्वभाव पर्याय पर निरपेक्ष है, तो विभाव धर्म सापेक्ष कैसे माना जा सकता है ? क्योंकि दोनों ही आत्माके धर्म है। पंचास्तिकाय गा० १५९ की टीकामें निश्चय व्यवहारको साध्य-साधन स्वर्ण और स्वर्ण पाषाणकी तरह माना है। इसीकी गा० १७२में भी कहा है कि 'जीव प्रथम व्यवहार रत्नत्रयसे शुद्धता करता है । जैसे धोबी मलिन वस्त्रको भिन्न साध्य-साधन शिलाके ऊपर साबुन आदिके द्वारा वस्त्रको स्वच्छ करते हैं। पश्चात् निश्चयनयकी मुख्यतासे रस्मत्रयमें सावधान होकर अंतरमें बैठते हैं।
इसी ग्रन्थकी गा० १०५-१६०-१६१ में जयसेनाचार्यने व्यवहार मोक्षमार्गको निश्चय मोक्षमार्गका साधन कहा है । प्रवचनसार गा० २०२में पंचाचारसे शुद्धात्माकी प्राप्ति कही है। परमात्मप्रकाश, श्लोक ७ और द्रव्यसंग्रहमें भी साध्य-साधक भाव इन दोनों में बतलाया है।
आपने व्यवहार धर्मको सहचर होनेसे निमित्त मात्र बतलाया है, किन्तु पदार्थमें सहचर भाव तो बहुतसे विद्यमान रहते हैं। फिर भी उनको साध्य-साधक भाव नहीं माना जाता है। अतः व्यवहार धर्म निश्चय धर्मका साधक मानने में कोई हानि नहीं है।
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