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६४२ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ
वास्तवमें प्रचलित जातिप्रथा कभी और कहीं कैसी भी रही हो और किन्हीं परिस्थितियोंमें उपादेय या शायद आवश्यक भी रही हो, किन्तु काल-दोष एवं निहित स्वार्थोके कारण उसमें जो कुरूढ़ियाँ, कुरीतियाँ, विकृतियाँ एवं अन्धविश्वास घर कर गये हैं, और परिणामस्वरूप देशमें, राष्ट्रमें, समाजमें, एक ही धर्मसम्प्रदाय के अनुयायियोंमें जो टुकड़े-टुकड़े हो गये है, पारस्परिक फूट, वैमनस्य एवं भेदभाव खुलकर सामने आ रहे हैं, वैयक्तिक या समूह, सम्प्रदाय या समाज, देश या राष्ट्र किसीके लिए भी हितकर नहीं, अहितकर ही है, तथा प्रगतिके सबसे बड़े अवरोधक है। धर्मकी आड़ लेकर या कतिपय धर्मशास्त्रोंकी साक्षी देकर जो उनका पोषण किया जाता है, और उनका विरोध करनेवालोंका मुँह बन्द करनेका प्रयत्न किया जाता है, उससे यह आवश्यक हो जाता है कि व्यक्ति और समाज, दोनोंके ही हितमें धर्मके मर्मको धर्मकी मलाम्नायके प्रामाणिक शास्त्रोंसे जाना और समझा जाय ।
मनुष्य स्वयंको सदैवसे श्रेष्ठतम प्राणी कहता आया है। उसका यह दावा अनुचित भी नहीं है । मानवकी अदम्य जिज्ञासा एवं अप्रतिम बद्धि वैभवने प्राकृतिक-भौतिक जगतमैं ही नहीं, आध्यात्मिक जगतमें भी अनगिनत आविष्कार किये हैं। धर्म तत्त्व भी उसीकी एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण उपलब्धि हैं। धर्म सभी देशों और कालोंमें जन-जनके मानसको सर्वाधिक प्रभावित करनेवाला यही तत्त्व रहा है। साथ ही, प्रायः सभी धर्मप्रवर्तकोंने, उन्होंने भी जिन्होंने मनुष्येतर अन्य प्राणियोंकी उपेक्षा की, मनुष्योंको ऊँच-नीच आदिके पारस्परिक भेदभावोंसे ऊपर उठनेका ही उपदेश दिया। अतएव यहदी, ईसाई, मुसलमान, यहाँ तक कि बौद्ध एवं सिक्ख आदि कई भारतीय धर्म मी, मनुष्यमात्रकी समानताका-इगेलिटेरियनिगमका दावा करते हैं, और जातिवादको स्वीकार करते केवल ब्राह्मण वैदिक परम्परासे उद्भूत तथाकथित हिन्दूधर्म ही इसका अपवाद है । तथापि विडंबना यह है कि उन मूलतः समानतावादी एवं जातिवाद विरोधी सम्प्रदायोंमें भी ऊँच-नोचका वर्गभेदपरक जातिवाद किसी न किसी प्रकार या रूपमें घर कर ही गया । अन्तर इतना ही है कि उनमें उसकी जकड़ और पकड़ इतनी सख्त नहीं है जितनी कि हिन्दू धर्म में हैं । आजका प्रगतिशील प्रबुद्ध विश्वमानस ऐसे भेदभावोंकी मानवके कल्याण एवं उन्नयनमें बाधक समझता है और उनका विरोध करता है। ऐसी स्थितिमें यह अन्वेषण एवं गवेषणा करना कि निर्ग्रन्थ श्रमण तीथंकरों द्वारा पुरस्कृत जैनधर्मका इस विषयमें क्या दृष्टिकोण है, अत्यावश्यक हो जाता है। साथ ही यह देखना भी आवश्यक है कि क्या सामाजिक संगठनके हितमें भी उक्त भेदादिकी कोई उपयोगिता है, और हैं तो किस रूपमें तथा किस सीमा तक ।
इस प्रसंगमें भ्रान्तिके दो मुख्य कारण प्रतीत होते हैं-एक तो यह कि वर्ण-जाति-कुल-गोत्रमेंसे प्रत्येक शब्दके कई-कई अर्थ हैं-जिनागममें कर्म-सिद्धान्तानुसार उनमेंसे प्रत्येकका जो अर्थ है वह लोक व्यवहारमें प्रचलित अर्थसे भिन्न एवं विलक्षण हैं। दोनोंको अभिन्न मान लेनेसे भ्रान्त धारणाएँ बन जाती हैं। दूसरे, जो लौकिक, सामाजिक या व्यवहार धर्म हैं, वह परिस्थितिजन्य हैं, देशकालानुसार परिवर्तनीय या संशोधनीय हैं, इस स्थूल तथ्यको भूलकर उसे जिनधर्म-आत्मधर्म-निश्चयधर्म या मोक्षमार्गसे, जो कि शाश्वत एवं अपरिवर्तनीय हैं, अभिन्न समझ लिया जाता है। पक्षव्यामोह एवं कदाग्रहसे मुक्त होकर भ्रान्तिके जनक इन दोनों कारणोंकोजिनधर्मकी प्रकृति, उसके सिद्धान्त, तत्त्वज्ञान एवं मौलिक परम्पराके प्रतिपादक प्राचीन प्रामाणिक साहित्यके आलोकमें भलीभाँति समझकर प्रकृत विषयके सम्बन्धमें निर्णय करने चाहिए । इसका यह अर्थ भी नहीं है कि लौकिक, सामाजिक या व्यवहार धर्मको सर्वथा नकार दिया जाय-न वैसा सम्भव है और न हितकर ही। परन्तु उसमें युगानुसारी तथा क्षेत्रानुसारी आवश्यक परिवर्तन, संशोधनादि करने में भी संकोच नहीं करना चाहिए । व्यावहारिक, सामाजिक या लौकिक धर्मको व्यवस्थाएं, संस्थाएँ या प्रथाएँ रहेंगी ही, उनका रहना
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