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६४० : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ
प्राणियोंकी ऐहिक एवं पारलौकिक उन्नति तथा सुखसुविधाका विचार करता है, जबकि सामाजिक या लौकिक धर्म केवल मनुष्योंके ही ऐहिक हितसाधन तक सीमित होता है और बहुधा अनगिनत विविध अन्धविश्वासों एवं रूढ़ियोंपर अवलम्बित रहता है ।
यही कारण है कि जिनधर्म रूपी आत्मधर्ममें जाति और कुलको स्थान नहीं है । प्रत्येक मनुष्य उसकी साधन द्वारा आत्मोन्नयन करनेका अधिकारी हैं। वर्ण, जाति, कूल, गोत्र आदिका अथवा अन्य भी कोई भेदभाव उसमें बाधक नहीं हैं। लौकिक-धर्म या समाज-धर्म इन आत्मधर्मसे भिन्न है। वह मूलतः ब्राह्मणवैदिक परम्पराकी देन है, जिसने शनैः शनैः वर्णाश्रम धर्मका रूप ले लिया । उस परम्परामें ब्राह्मण-क्षत्रियादि वर्णभेद मूलतः गुणकर्मानुसारी ही थे, किन्तु समयके साथ उनके जन्मतः हानेकी मान्यता रूढ़ हो गई । जैन गृहस्थोंके सामाजिक या लौकिक धर्मपर कालान्तरमें उक्त ब्राह्मणीय वर्णव्यवस्थाका प्रभाव पड़ा, और उन्होंने भी धीरे-धीरे उसे अपना लिया। किन्तु मूल जिनधर्मके स्वरूप एवं प्रकृतिसे उसकी कोई संगति नहीं हैं। इस प्रसंगमें आचार्य जिनसेनस्वामी प्रणीत 'आदिपुराण'को उक्त ब्राह्मण वैदिक प्रभाव-ग्रहणका मुख्यतया उत्तरदायी बताते हुए विद्वान् लेखकने उक्त पुराणकी पर्यालोचना की है।
षट्खण्डागम सिद्धान्त, कषायप्राभृत आदि दिगम्बर आगमोंके तथा मूलाचार, भगवती आराधना, रत्नकरण्डश्रावकाचार, सर्वार्थसिद्धि, तत्त्वार्थराजवार्तिक जैसे प्रामाणिक प्राचीन शास्त्रोंके आधारसे उन्होंने निष्कर्ष निकाला है कि मनुष्योंके ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्य-शूद्रादि भेद उक्त साहित्यमें उपलब्ध नहीं होते, यह कि द्रव्यस्त्रियों एवं द्रव्य-नपुंसकोंको छोड़कर आगमप्रतिपादित पन्द्रह कर्मभूमियोंमें उत्पन्न जितने भी तथाकथित आर्य और म्लेच्छ मनुष्य हैं, उनमें सम्यक्त्व, संयमासंयम और संयम रूप पूर्ण धर्मकी प्राप्ति संभव है, और यह कि वर्णके आधारपर धर्माधर्मका विचार करनेकी पद्धति बहुत ही अर्वाचीन है । (पृ० १००)।
गोत्र मीमांसाके संदर्भमें निकाले गये निष्कर्षोंके अनुसार गोत्रकर्म जीवविपाकी हैं, पुद्गल विपाकी नहीं हैं। गोत्रकर्मके उदयसे हुई जीवकी उच्च और नीच पर्यायोंका सम्बन्ध शरीरके आश्रयसे कल्पित किये गये कुल, वंश या जातिके साथ नहीं हैं । लोकमें जो उच्च कुल वाले माने जाते हैं उनमें भी बहुतसे मनुष्य भावसे नीचगोत्री हो सकते हैं, और नीचकुली माने जाने वालोंमें बहुतसे भावसे उच्चगोत्री हो सकते हैं। इक्ष्वाकुकुल आदि लौकिक मान्यताएँ काल्पनिक है; परमार्थ सत नहीं हैं। एक ही भवमें गोत्र परिवर्तन भी हो सकता है, यथा जो मनुष्य सकल संयमको धारण करते हैं उनके नियमसे नीचगोत्र बदल कर उच्चगोत्र हो जाता है। इसी प्रकार जो तिर्यंच संयमासंयम स्वीकार करता है, उसका भी नीचगोत्र बदल कर उच्च गोत्र हो जाता है। गोत्रका सम्बन्ध वर्णव्यवस्थाके साथ न होकर, प्राणीके जीवनके साथ होता है, और उसकी व्याप्ति चारों गतियोंके जीवोंमें देखी जाती है। आगममें उच्चगोत्रको भव प्रत्यय और गुणप्रत्यय, दोनों प्रकारका बताया है । सारांश यह है कि जिनके जीवनमें स्वावलम्बनकी ज्योति जगती रहती है, वे उच्चगोत्री होते है। और इनके विपरीत शेष मनुष्य या प्राणी नीचगोत्री होते हैं। लेखकका कहना है कि मध्यकालके पूर्व जैन वाङमयमें यह विचार ही नहीं आया था कि ब्राह्मणादि तीन वर्गों के मनुष्य ही दीक्षायोग्य है; अन्य नहीं हैं । विद्वान् लेखकने 'गोत्र-मीमांसा'का उपसंहार करते हुए एक बड़े ही मार्केकी बात कही है कि 'जो व्यक्ति आत्माकी स्वतन्त्रता स्वीकार करके स्वावलम्बनके मार्गपर चल रहा है, प्रकटमें भले ही वह जैन सम्प्रदायमें दीक्षित न हआ हो, तो भी प्रसंग आनेपर उसे जैन माननेसे अस्वीकार मत करिये । धर्म सनातन सत्य है। जैनधर्ममें; चाहे उच्चगोत्री हो या नीचगोत्री; आर्य हो या म्लेच्छ, अथवा ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य,
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