Book Title: Fulchandra Shastri Abhinandan Granth
Author(s): Jyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
Publisher: Siddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi

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Page 684
________________ पंचम खण्ड ६४५ गणेशप्रसादजी वर्णी अध्यात्मकी ज्योति जला चुके थे, किन्तु उनके युग में इतना अधिक प्रचार-प्रसार नहीं हो सका था, जितना श्री सत्पुरुष कानजी स्वामी के युगमें हुआ । इनकी अध्यात्मकी कथन शैली इतनी आकर्षक एवं प्रभावशाली प्रमाणित हुई कि भारतके कोने-कोने से लोग सुननेके लिए उनके पास चले आते थे और सरल भाषामें अध्यात्मकी कथनीको सुनकर इतने प्रभावित हो जाते थे कि अपने नगर और गाँवोंमें जाकर अध्यात्मकी चर्चा वार्ता एवं स्वाध्यायमें समयसारादि अध्यात्म ग्रन्थोंका पठन-पाठन, अध्ययन मनन होने लगा। प्रति वर्ष इनके शिक्षण शिविर लगाये जाते जिनमें हजारों भाई-बहिनें जाकर अध्यात्मकी गहराइयोंमें प्रवेश करने लगे, गाँव-गाँव में अध्यात्मका शंखनाद गूंजने लगा । सभी स्थानोंमें निश्चय व्यवहार, निमित्त उपादान कर्ता-कर्म और सात तत्त्वोंकी चर्चा दिग्दिगंत व्याप्त होने लगा। किन्तु जो व्यवहार धर्मको ही सब कुछ माने बैठे थे उसमें ही अपने धर्म-कर्तव्यकी इतिश्री मानते थे । उन्हें यह अध्यात्मका प्रचार-प्रसार रुचिकर नहीं लगा । उनकी अपनी मान्यताकी नाव डगमगातीसी लगने लगी। अतः जिस तूफानी ढंगले अध्यात्मका प्रचार-प्रसार बढ़ता, उसी तूफानी ढंगसे उसका विरोध भी बढ़ने लगा इसके विरोधके लिए लुप्त प्रायः कुछ संस्थाओंका पुनरोदय हुआ । कुछ पत्र-पत्रिकाओंने विरोध करनेका बीड़ा ही उठा लिया था । गजटोंके पूरे पन्ने विरोधसे भरे जाते थे । इस विरोधने इतना उग्र रूप धारण कर लिया था कि समाज दो फिरकोंमें बँट गया । विरोध करने वाले भाइयोंने अध्यात्म प्रेमियोंका नाम 'सोनगढ़ी' या 'सोनगढ़पंथी' रख दिया और अपनेको आगमपंथी कहने लगे । इस विरोधकी पृष्ठभूमि में कुछ महाव्रती मुनि वर्गका भी सहयोग प्राप्त था । अनेक स्थानोंपर अध्यात्म प्रेमियोंका बहिष्कार किया जाने लगा। कहीं-कहीं पर तो भयंकर उपद्रव भा किये गये, जिसकी कभी कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। इसकी जानकारी पूज्य १०८ आचार्य शिवसागरजी महाराजके संघको हुई, तो आचार्यश्रीने यह भावना व्यक्त की कि दोनों ओरके विद्वान् यदि एक स्थान पर बैठकर तस्त्वचर्चा के द्वारा अपने आपसी मतभेद दूर कर लें तो समाजमें अनावश्यक बढ़ता हुआ विरोध शान्त हो सकता है। इस शुभ संकल्पको लेकर संघ में श्री प्र० सेठ हीरालालजी और ० लाइ मलजीने महाराजधीकी प्रेरणासे आपसमें सद्भावना स्थापित करनेके लिए एक सम्मेलन बुलानेका निश्चय किया। यह सम्मेलन दि० २०-८-६३ से १-१०-६३ तक जयपुर के पास प्राचीन स्थान खानियांमें चला था। इस चर्चाकी पृष्ठभूमिमें श्री पं० फूलचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्री द्वारा लिखित " जैनतत्त्वमीमांसा" ग्रन्थका प्रकाशन प्रमुख रूपसे रहा है । क्योंकि जिन विषयोंपर विरोध किया जाता था उनका विवेचन इस प्रकाशनमें विशद रूपसे किया गया था। आचार्य श्री शिवसागरजी महाराजके संघकी उपस्थितिमें समागत १७ विद्वानोंकी एक गोष्ठी हुई, कुछ नियम इस तत्वचर्चा के लिए निर्धारित किये गये । जिसमें वे इस प्रकार थे १. चर्चा वीतरागभावसे होगी । २. चर्चा लिखित होगी । २. वस्तु सिद्धिके लिए आगम ही प्रमाण होगा । ४. प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश और हिन्दीके ग्रन्थ प्रमाण माने जायेंगे । ५. चर्चा शंका समाधानके रूपमें होगी । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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