Book Title: Fulchandra Shastri Abhinandan Granth
Author(s): Jyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
Publisher: Siddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi

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Page 600
________________ चतुर्य खण्ड : ५६३ नामकर्म या नपुंसक (हिजड़ा) के योग्य आंगोपांग नामकर्मका उदय है उस महिलाके योग्य और नपुंसक (हिजड़े) के उसके योग्य यदि आंगोपांग है सो वे तो मुक्तिगमनके योग्य होते नहीं, क्योंकि उन दोनोंके प्रथम संहनन न होकर अन्त में तीन संहननोंमेंसे कोई एक संहनन ही होता है ऐसा श्वेताम्बर आगम भी कहता है । अब रहा पुरुषके योग्य मेहन आदि आंगोपांग नामकर्मके उदयकी बात सो ऐसे मनुष्यके पुरुषवेद नोकषायके उदयसे पुरुषवेद भी बन जाता है और मेहन आदि आंगोपांग नामकर्मके उदयसे मेहन आदि पुरुष चिह्नोंके साथ प्रथम संहनन भी बन जाता है, अतः यदि ऐसा मनुष्य चरमशरीरी है तो वह उसी भवसे मुक्तिका अधिकारी होता है। यहाँ हम यह बात अवश्य लिखना चाहेंगे कि यदि श्वेताम्बर परम्परा नपुंसकवेदसे मुक्तिगमन मानता है और उसका वह परम्परा हिजड़ा अर्थ करती है तो वह उसे दीक्षाके योग्य क्यों नहीं स्वीकार करती ? जैसे वह परम्परा महिलाको मुक्ति गमनके योग्य मानकर भी उसे दीक्षाके योग्य भी मानती है वैसे नपुंसक अर्थात् हिजड़ेको उसे योग्य क्यों नहीं मानती। इससे तो यही सिद्ध होता है कि आगममें जो स्त्रीवेद और नपुंसकवेदसे मुक्तिगमनका उल्लेख मिलता है तो वह वेदनोकषायके उदयसे हुए स्त्रीवेद और नपुंसकवेदकी अपेक्षासे ही मिलता है, आंगोपांग नामकर्मके उदयसे हुए द्रव्य स्त्रीवेद और द्रव्य नपुंसकवेदकी अपेक्षासे नहीं। आगे आगममें जो यह लिखा है कि स्त्रीवेदमें आहारक काययोग और आहारकमिश्रकाययोग नहीं होते, क्योंकि आहारक समुद्घात चौदह पूर्वधारी जीवके ही होता है । परन्तु स्त्रीके चौदह पूर्वोका ज्ञान नहीं पाया जाता । क्यों नहीं पाया जाता इसके उत्तरमें उनका कहना है कि 'वे तुच्छ, गारवबहुल, चंचल इंद्रिय और बुद्धि से दुर्बल होती हैं, वे बहुत अध्ययन नहीं कर सकतीं । अतः उनके दृष्टिवाद अंगका ज्ञान नहीं पाया जाता।' सप्ततिका प्रकरण, पृ० २४२ । सो इसका समाधान यह है कि जब महिला दृष्टिवाद अंग नहीं पढ़ सकती तो वह मुक्ति लाभ करने के लिये पात्र कैसे हो जाती हैं, क्योंकि उसको पात्र होनेके लिये पूर्वविद् होना आवश्यक है। अतः यही मानना चाहिये कि भगवती सूत्रका उक्त कथन वेदनोकषायके उदयसे हुए भाववेदकी अपेक्षासे ही वहाँ किया गया है, द्रव्यवेदको अपेक्षा नहीं। आगे उक्त पुस्तकका लेखक लिखता है कि 'स्त्रीमुक्ति गमन तो सूत्रोंमें अनेक स्थानोंपर आया है। जैसे स्थानांग (मरुदेवी आदि) समवायांग, भगवती, ज्ञाता धर्मकथा और अन्नगड़ आदि सूत्रोंमें सभी तीर्थकरोंके शासनमें स्त्रियाँ मोक्ष जाती है। किसीके शासनमें ज्यादा और किसीके शासनमें कम। मल्लिनाथ और मरुदेवी भरत और ऐरावत क्षेत्रके १९वें तीर्थकर भी स्वयं स्त्री ही थे। अनुत्तर विमानमें जानेवाले जीवोंमें केवल वज्र ऋषभनाराच संहनन ही भगवती श० २४ उ०२४ में बताया है और पण्णवणा पद २३ उ० २ में स्त्री उत्कृष्ट (३३ सागरका) आयुबन्ध कर सकती है ऐसा बताया है। अतः स्त्रीमें वज्रऋषभनाराचसंहनन होना सिद्ध है। दूसरे कर्म ग्रन्थकी १८वीं गाथाकी टीका व अर्थमें प्रथम संहनन वाला ही क्षपकश्रेणी कर सकता है और प्रथमके तीन संहनन वाले उपशमश्रेणी कर सकते हैं ऐसा बताया है।' यह उक्त पुस्तकके लेखकने द्रव्य स्त्रीके मुक्तिसिद्धिको लक्ष्यमें रखकर लिखा है। किन्तु इस पूरे कथनपर दृष्टिपात करनेसे द्रव्य स्त्रीका मुक्ति जाना सिद्ध नहीं होता । यथा (१) यहाँ जिन स्थानांग, समवामांग, भगवती आदिका उल्लेख कर द्रव्य स्त्रीका मुक्तिगमन लेखकने लिखा है । यहाँ ऐसा समझना चाहिए कि पूर्वोको रचना अनादिसे सदा काल एकसी चली आ रही है, जब Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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