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चतुर्थ खण्ड : ५९९
आमन्त्रण-पत्र मिलनेपर मैं सागर भागा गया। श्री चरणोंमें निवेदन किया मैं इस योग्य नहीं हूँ। बोले, एक दिन रुको, (बाईजीके हाथका) प्रेमसे भोजन करो, शान्तिसे बात करेंगे। मैंने समझा मेरी सुन ली गई, बड़ी प्रसन्नता हुई । अपने साथ बिठाकर प्रेमपूर्वक भोजन कराया । श्रद्धेय बाईजीके हाथका सुस्वादु भोजन पाकर मैं धन्य हो गया । भोजनके अन्तमें वहीं बोले-देखो बाईजी! यह बालक कैसा हठी है। मैं नागपुर वचन दे आया। यह मना करता है । यहाँ भगा आया । इसे समझा दो । यह अपना भविष्य नहीं देखता । बालक होनहार है, बन जायगा तो.... । मैं मुँह देखता रह गया । गुरु-कृपा मानकर नागपुर गया तो, पर साथमें समझा-बुझाकर श्री पं० हीरालालजी सिद्धान्तशास्त्रीको भी ले गया।
शिक्षामन्दिर सुचारुरूपसे चलने लगा। सुपरिन्टेन्डेन्टके पदपर स्व० श्री छोटेलालजी मास्टरकी नियुक्ति हुई। मंत्री स्व० श्रद्धेय कन्छेदीलालजी वकील थे। कुछ दिन तो मास्टर साहबने ठीक ढंगसे काम चलाया। बादमें अपना रंग जमानेके लिए उन्होंने कुछ ऐसी नीति अपनाई जिससे शिक्षामन्दिरकी प्रगति रुक गई। उनकी इसी नीतिके कारण मैं शिक्षामन्दिर छोड़कर बनारस चला आया । उस समय पूज्य श्री वहाँ विराजमान थे ही। पूरा समाचार जानकर उन्होंने मुझे अन्य दर्शनोंके शिक्षणके लिए विद्यालयमें स्थान दे दिया और २५) रु. माह वृत्ति निश्चित कर दी। किन्तु मैं उनके इस शुभाशीर्वादका अधिक समय तक लाभ न उठा सका। अपनी गह-सम्बन्धी आर्थिक कठिनाईके कारण मुझे अध्यापकी जीवन व्यतीत करनेके लिए विवश होना पड़ा।
मध्यका काल ऐसा बहुत है जो प्रकृतमें विशेष उल्लेखनीय नहीं है । सन् ४१ मे मथुरासंघने श्री जय
प्रकाशनका निर्णय लिया। उसका अनुवादादि कार्य सम्पन्न करनेके लिए मुझे बनारस आमन्त्रित किया गया। मैं जेलयात्रासे हई शारीरिक क्षतिको पूरा कर पुनः बनारस आ गया और इस मंगल कार्यमें जुट गया। इसी बीच अ० भा०दि० जैन विद्वत्परिषदकी स्थापना हुई । मैं उसका संयुक्त मंत्री हुआ । कार्यालयका भार मुझे ही सौंपा गया। निश्चय हुआ कि कटनीमें होनेवाले विशेष उत्सवके समय वहाँ इसका पूज्य श्री की अध्यक्षतामें प्रथम अधिवेशन किया जाय । उस समय पूज्य श्री पनागरमें विराजमान थे। निवेदन करनेके लिए मैं ही नियुक्त किया गया । मैं पनागर गया । पूज्य श्रीसे निवेदन किया । बहुत अनुनय-विनय करनेपर स्वीकृति मिल गयी । अधिवेशन तो निश्चित समयपर हुआ, पर इस दौड़-धूप और कार्याधिक्यके कारण मैं लीवर जैसे कठिन रोगसे इतना ग्रसित हआ कि लगभग सात माह तक अन्नके दर्शन करना भी दुर्लभ हो गया। केवल फलोंके रस और दूध पर ही मुझे रखा गया।
पण्डितकी आजीविका कितनी ? काम करो, वृत्ति लो। आजीविका बन्द हो गई। पासमें जो सोना-चाँदी था उसमेंसे कुछ हिस्सा बेचकर काम चलाने लगा। यह समाचार परम कृपालु पूज्य श्रीके कानों तक पहँचा। उनकी आत्मा द्रवीभत हो उठी। तत्काल उन्ह.ने आ० बाब रामस्वरूपजी बरुआसागर वालोंको संकेत कर ६००) रु. भिजवाये। मुझे गुरुकृपाका सहारा मिला, अच्छा होकर पुनः जयधवलाके सम्पादनमें जुट गया । यह पूज्य श्रीकी ही महती कृपा है कि मैं आज जीवित हूँ और धर्म-समाजके कार्योंमें योगदान कर रहा हूँ। श्री गणेशप्रसाद दि० जैन वर्णी ग्रन्थमालाकी मंगल स्थापना इन्हीं ६००) रु. के शुभ-संकल्पसे की गई थी। हालांकि मैं उन रुपयोंको कुछ काल बाद ही ग्रन्थमालामें जमा करा सका था। यह मेरा जीवनव्रत है कि जहाँ तक सम्भव होगा मैं अपने जीवनके अन्तिम क्षणतक उनकी पुण्यस्मृतिमें कुछ न कुछ कार्य करता रहूँगा।
चैत्रका महीना था। पूज्य श्री सोनागिर सिद्धक्षेत्रपर विराजमान थे। मैं और स्व० डा. महेन्द्रकुमारजी न्यायाचार्य झाँसीकी महावीर जयन्ती सम्पन्न कर श्री सिद्धक्षेत्रकी वन्दना और पूज्य श्रीके दर्शनोंके लिए सोनागिर गये। उस दिन आहारके लिए दो चौकाओंकी व्यवस्था थी। उनमेंसे एक चौका गया निवासिनी
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