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६०० : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ
ब्र० पतासीबाईने लगाया था । शुद्धिके पश्चात जब पूज्य श्री आहारके लिए उठे तो दूसरे चौकेवाला प्रौढ़ पुरुष आगे बढ़ा। यह देखकर ब्रह्मचारिणीजी भी आगे बढ़ने लगीं। दोनों में आगे बढ़नेकी एक प्रकारसे होड़-सी लग गई । यह दृश्य देखकर पूज्य श्री ठिठक गये, उस भाईसे बोले-भैया ! क्या करते हो, क्या आहार करानेके लिए यही दिन है, दूसरे दिन करा देना। देखते नहीं हो। ये बाईजी वृद्धा महिला है, तपस्याके कारण कृशशरीर है। थोड़ी तो दया करो। और यह कहकर लौट आये। कुछ देर रुकनेके बाद पुनः शुद्धि कर आहारको उठे । आहार करनेके बाद हम दोनोंसे बोले-भैया! आचारशास्त्र के अनुसार यदि हमसे कुछ प्रमाद हुआ है तो हम प्रायश्चित कर लेते हैं। हमसे वह दृश्य देखकर रहा नहीं गया, इसलिए दो शब्द मुखसे निकल गये । कैसी विडम्बना है, लोग मात्र आहार करानेमें ही धर्म समझते हैं । जहाँ आकुलता हो वहाँ धर्म कैसा ! हम दोनों पूज्य श्रीके ये वचन सुनकर अवाक् रह गये।
___ चौरासी-मथुरामें पंचकल्याण-प्रतिष्ठाका आयोजन था । पूज्य श्री वहाँ विराजमान थे। देशके कोनेकोनेसे बड़े-बड़े पुरुष आये हुए थे। हम पण्डितोंका भी पूरा मजमा हो गया था। एक दिन प्रमुख विद्वानोंने पूज्य श्रीको आहार देनेका संकल्प किया। प्रतिग्रह करनेके लिए खड़ा किसे किया जाय । सबने विचार कर परीक्षाके तौरपर मुझे खड़ा कर दिया। श्री मन्दिरके प्रांगणमें शुद्धिविधि सम्पन्न कर पूज्य श्री आहारके लिए उठे। किन्तु वे विरुद्ध दिशामें चले गये । ३०-४० चौके लगे थे। आशा-निराशाके झू लेमें मैं झूलता रहा । यह तो होनहार ही समझिये कि पूज्य श्री उन सब चौकोंमेंसे होते हुए वहाँ पधार गये जहाँ हम पण्डितोंने चौका लगा रखा था। मेरी श्रद्धा फलीभूत हुई। सोल्लास वातावरणमें आहारविधि सम्पन्न होनेपर आशीर्वादोंकी पुष्पवृष्टिसे मैं धन्य हो गया ।
वहीं दूसरे दिन पूज्य श्रीका प्रवचन हो रहा था। उसी समय एक भाईने आकर मेरे हाथमें तार थमा दिया । मैंने उसे खोले बिना ही कुरतेके ऊपरी जेबमें रख तो लिया, किन्तु बार-बार हाथ उस ओर जाने लगा। मन होता था कि खोलकर पढ़ लूं। मेरी यह मनःस्थिति और हाथकी हलन-चलन क्रिया पूज्य श्रीके दृष्टिसे ओझल न रह सकी। प्रवचनकी धारा बन्द कर बोले-भैया ! आकुलित होनेसे अच्छा तो यह है कि खोलकर पढ़ लो । मैं सिटपिटा गया । पुनः बोले-घबड़ाओ नहीं। तुम खोलकर पढ़ लो। उसके बाद ही मैं प्रवचन करूँगा। गुरु आज्ञा मानकर मैंने तारको खोलकर पढ़ाया। तारका आशय समझते ही मेरा चेहरा फीका पड़ गया। तारमें कोई अनहोनी बातका संकेत है, पूज्य श्रीको यह समझते देर न लगी। बोले-भैया ! अब तुम उठ जाओ, अपने कार्यमें लगो। चिन्ता न करो, सब अच्छा होगा। घटना तो अनहोनी थी ही । मेरी छोटी बेटी चि. पुष्पा तीसरे मंजिलसे गिर पड़ी थी, किन्तु वह पूज्य श्रीके आशीर्वादसे पूर्ववत् पुनः स्वस्थ हो गई।
ललितपुरमें पूज्य श्रीका चातुर्मास प्रारम्भ हुआ। चातुर्मासकी समग्र व्यवस्था क्षेत्रपालजीमें की गई थी। मैं बीनामें घरपर अपना सामान रखकर एक झोला लेकर पूज्यश्रीके दर्शनके लिए ललितपुर चला गया। मुझे आया हुआ देखकर पूज्य श्रीने वहाँ उपस्थित समाजको संकेत कर दिया-इसे जाने नहीं देना। मैं निर्देशको टाल न सका। पांच माह तक उसी स्थितिमें रहा आया । वर्णी इण्टर कालेजकी स्थापना उसी चातुर्मासका सुफल है। मुझे अपने प्रदेशकी सेवा करनेका सुअवसर मिला। मैंने इसे पूज्य श्रीका शुभाशीर्वाद माना।
चातुर्मास सानन्द सम्पन्न हो रहा था । भाद्रपदी दशलक्षणपर्व सम्पन्न हुआ ही था कि इसी बीच पूज्य श्रीको गुदाके बगलमें अदष्ट फोड़ेने दबोच लिया। चलने-बैठने में तकलीफ होने लगी। तब कहीं पता लग सका कि गुदाके मुखद्वारके बगलमें अदृष्ट फोड़ा अपना स्थान बना रहा है। जनतामें तरह-तरहकी बातें होने लगीं । कोई कहता चीरा लगना चाहिए, कोई इसका निषेध करता। बहुत विचारके याद चीरा लगाना निश्चित हुआ कि
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