Book Title: Fulchandra Shastri Abhinandan Granth
Author(s): Jyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
Publisher: Siddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi

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Page 635
________________ मेरे जीवन-दाता वर्णीजी व्यक्ति आखिर व्यक्ति है । कालकी गति के साथ प्रत्येक व्यक्तिकी इह लीला समाप्त होना स्वाभाविक है । फिर भी कुछ व्यक्ति ऐसे अवश्य होते हैं जो कालपर भी विजय पाते हुए देखे जाते हैं । इह लीला समाप्त होनेपर भी अपने जीवित कार्यों द्वारा उनका चिरकाल तक अस्तित्व बना रहता है । इस कालमें जो इस गणनाके योग्य हैं उनमें श्रद्धेय वर्णीजी अन्यतम हैं । वे अब हमारे मध्य नहीं हैं। पर वे समाजके दृष्टि-ओझल हो जायेंगे यह सम्भव नहीं है । उन्होंने अपने जीवनकालमें रचनात्मक दृष्टिसे जिस इतिहासका निर्माण किया है। वह युग-युग तक उनकी जीवन कहानी मुखरित करता रहेगा । अभी मेरा शिक्षा - काल पूरा नहीं हुआ था कि जबलपुरमें शिक्षामन्दिर खुलनेवाला है और उसके प्रधानाचार्य श्रद्धेय पं० वंशीधरजी न्यायालंकार होने वाले हैं यह सुसमाचार मुझे जबलपुर खींचकर ले गया । जिस दिन मैं जिस गाड़ीसे अपने घर लौट रहा था, उसी गाड़ीसे श्रद्धेय वर्णीजीने भी सागरके लिये प्रस्थान किया । श्रद्धेय पंडित जी उनके साथ चल रहे थे। गाड़ी कटनी तक आती थी, इसलिये उनके साथ मैं भी वहीं रुक गया । मुझसे यह कहकर कि सामान छात्रावासमें रखा आओ, वे श्री जिनमन्दिरजीमें चले गये । सामान रखाकर पीछेसे मैं भी पहुँच गया । दर्शनविधि सम्पन्न होनेपर दोनों महानुभाव सामायिक करने लगे । मैं कर्मकाण्ड ग्रन्थका स्वाध्याय करने लगा । इसी बीच खबर पाकर अनेक श्रावक और श्राविकाएँ श्रद्धेय वर्णीजीके मुखसे अमृतवाणी सुनने और उनका पुनीत दर्शन करनेके लिये वहाँ एकत्रित हो गये । सामायिक विधि सम्पन्न होनेपर प्रवचन के लिये सबने श्रद्धेय वर्णीजीसे प्रार्थना की। मैंने अवसर देखकर चौकी उनके सामने रख दी । किन्तु उन्होंने स्वयं प्रवचन न कर मुझसे कहा - "भैया ! कौन ग्रन्थ है ?" " मैंने कहा - " कर्मकाण्ड वे बोले – “पढ़े हो ?" मैंने कहा - "हाँ, पढ़ा हूँ," पंडितजीकी ओर संकेत करते हुए पुनः कहा - "गुरुजीने ही पढ़ाया है ।" सुनूँगा और सब सुनेंगे। कहो भैया ! ठीक है न ।” कौन निषेध करे, सबने वे बोले - " तो सुनाओ, मैं संकोचवश हाँ भर दी । उनकी यह अनुग्रहपूर्ण वाणी सुनकर मैं तो गद्गद् हो गया । मिनट - दो मिनट स्तब्ध रहनेके बाद मैं अपनी शक्ति अनुसार व्याख्यान करने लगा । मेरे उस व्याख्यानको सुनकर वे पण्डितजीसे बोले, भैया ! बालक तो बुद्धिमान दिखाई देता है । इसे शिक्षामन्दिर में सहायक अध्यापक बना लेना | आपके पास अध्ययन भी करेगा और मध्यकी कक्षाओंके छात्रोंको अध्यापन भी करायेगा । फिर मुझे लक्ष्य कर बोले, भैया ! पत्रकी प्रतीक्षा नहीं करना । जिस दिन शिक्षामन्दिरका उद्घाटन हो, आ जाना। समझो, तुम्हारी नियुक्ति हो गई । अभी २५) रु० मासिक मिलेगा। आगे तरक्की हो जायगी । उनका यह प्रथम आशीर्वाद है जिसे पाकर मैं धन्य हो गया । शिक्षामन्दिरका उद्घाटन कर श्रावणमासमें पूज्य श्रीका नागपुर जाना हुआ पके लिए एक विद्वान्की याचना की । पं० फूलचन्द्रको बुला लेना यह कह कर वे Jain Education International For Private & Personal Use Only । समाजने उनसे दशलक्षण सागर लौट आये । मुझे www.jainelibrary.org

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