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६१२ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ
और अन्तरंग उपाधिकी समग्रता होती हैं । उनकी मीमांसा कर आचार्यं भूतबलीने उक्त प्रश्नके उत्तर रूपमें महाबन्धको निबद्ध किया है ।
'महाबन्ध' में मुख्य अधिकार चार हैं- प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्ध । इन चारों अधिकारोंका विशद विवेचन 'षट्खण्डागम' के इसे छठे खण्डमें अनुयोगद्वारों में विस्तार पूर्वक किया गया है । यह परमागम ग्रन्थ सात पुस्तकों में भारतीय ज्ञानपीठसे प्रकाशित हो चुका है। 'महाबन्ध' का प्रथम भाग सन् १९४७ में प्रकाशित हुआ था । इसका सम्पादन पं० सुमेरुचन्द्र दिवाकर शास्त्रीने किया था । महाबन्धकी पुस्तक २ से लेकर ७ तक छहों भागांका सम्पादन तथा हिन्दी अनुवाद पं० फूलचन्द्र सिद्धान्तशास्त्रीने अकेले ही अत्यन्त सफलता पूर्वक किया । उनके सम्बन्ध में डा० हीरालाल जैन और डॉ० आ० ने० उपाध्येके विचार हैं - ' इस खण्डके सम्पादक पं० फूलचन्द्रजी शास्त्री से विद्वत्समाज भलीभाँति परिचित है । धवल सिद्धान्तके सम्पादन व प्रकाशन - कार्यमें उनका बड़ा सहयोग रहा है और अब पुनः सहयोग मिल रहा है । उन्होंने इस खण्ड के सम्पादनका कार्य सहर्ष स्वीकार किया और आशातीत स्वल्प कालमें ही इतना सम्पादन और अनुवाद करके सिद्धान्तोद्धारके पुण्यकार्य में उत्तम योगदान दिया है । इस कार्यके लिए ग्रन्थमालाकी ओरसे हम उन्हें हार्दिक धन्यवाद देते हैं और आशा करते हैं कि वे ऐसी ही लगनके साथ शेष खण्डों का भी सम्पादनकर इस महान् साहित्यिक निधिको शीघ्र सर्वसुलभ बनानेमें सहायक होनेका पुण्य प्राप्त करेंगे । कार्य वेगसे किये जाने पर भी, सिद्धहस्त होने के कारण पण्डितजीके सम्पादन व अनुवाद कार्यसे हमें बड़ा सन्तोष हुआ है और भरोसा है कि पाठक भी इससे सन्तुष्ट होंगे ।
यह भी एक विचित्र संयोग तथा गौरवकी बात है कि जिन-जिन विद्वानों ने धवला, जयधवला, महाधवलादि ग्रन्थोंके सम्पादन एवं अनुवादमें सहयोग किया, उनमेंसे पण्डितजी आज भी सक्रिय हैं । उनके अनथक अध्यवसायसे भी ही जिनवाणीका अवशिष्ट भाग राष्ट्रभाषा के माध्यम से तथा मूल शुद्ध रूपमें जन-जनको सुलभ हो सका है ।
श्री भगवन्त भूतबलि भट्टारक प्रणीत महाबन्धके द्वितीय भाग में सर्वप्रथम स्थितिबन्धका विवेचन किया गया है । स्थितिबन्ध दो प्रकारका है - मूलप्रकृति स्थितिबन्ध और उत्तरप्रकृति स्थितिबन्ध | मूल प्रकृति स्थितिबन्धका विचार स्थितिबन्धस्थान- प्ररूपणा, निषेक- प्ररूपणा, आबाधाकाण्डक प्ररूपणा और अल्पबहुत्व इन चार अनुयोगों के द्वारा किया गया है । प्रथम भागमें प्रकृतिबन्धका अनुयोगद्वारोंमें विवेचन है । प्रकृतिबन्धको ओघ और आदेश प्रथम अर्थाधिकारमें विविध अनुयोगोंके द्वारा निबद्ध किया गया है । इस परमागममें जीवसे सम्बद्ध होने वाले कर्म, उनकी स्थिति और अनुभाग ( फल- दानकी शक्ति) के साथ ही संख्यामें वे प्रदेशोंकी अपेक्षा कितने होते हैं, इसका वर्णन किया गया है । 'कर्म' शब्दका प्रयोग तीन अर्थमें किया गया है - ( १ ) जीवकी स्पन्दन क्रिया, (२) जिन भावों से स्पन्दन क्रिया होती है उनके संस्कारसे युक्त कार्मण पुद्गल तथा (३) वे भाव जो कार्मण पुद्गलोंमें संस्कार के कारण होते हैं । जिन भावोंसे स्पन्दन क्रिया होती है वे भाव और स्पन्दन क्रिया अनन्तर समयमें निवृत्त हो जाती है । लेकिन संस्कारसे युक्त कार्मंण पुद्गल जीव साथ चिर काल तक सम्बद्ध रहते हैं । अपना काम पूरा करके ही वे निवृत्त होते हैं। सभी पुद्गल कर्म भावको प्राप्त नहीं होते हैं । मुख्य रूपसे पुद्गलोंकी २३ जातियाँ कही गई हैं । उनके नाम हैं- अणुवर्गणा, संख्याताणुवर्गणा, असंख्यताणुवर्गणा, अनन्ताणुवर्गणा, आहारवर्गणा, अग्राह्यवर्गणा, तैजसवर्गणा, अग्राह्यवर्गणा, भाषावर्गणा, अग्राह्यवर्गणा, मनोवर्गणा, अग्राह्यवर्गणा, कार्मण वर्गणा, ध्रुववर्गणा, सान्तर निरन्तर वर्गणा, शून्यवर्गणा, प्रत्येकशरीर वर्गणा, ध्रुवशून्य वर्गणा, बादरनिगोदवर्गणा, शून्य वर्गणा, सूक्ष्मनिगोद वर्गणा, शून्य वर्गणा, महास्कन्ध वर्गणा । ये २३ प्रकारकी पुद्गल वर्गणाएँ ही कर्म भावको प्राप्त होती हैं । इन वर्गणाओंमें से आहारवर्गणा, तैजसवर्गणा, भाषावर्गणा, मनोवर्गणा और कर्मणवर्गणा
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