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पंचम खण्ड : ६२७
पण्डित राजमलजी आध्यात्मिक सत्पुरुष थे । उनके प्रत्येक ग्रन्थ में अध्यात्मके दर्शन होते हैं । इस "समयसार कलश" टीकामें भी अनेक स्थान ऐसे हैं जहाँ उनकी श्रद्धा और विद्वत्ताका चमत्कार देखनेको मिलता है । कुछ नमूने पाठकोंके सामने प्रस्तुत हैं ।
सम्यग्दर्शन क्या है ? इस प्रश्नका उत्तर कलश ६ में दिया है उसका विवरण पण्डितजीके शब्दों
में पढ़िए
"संसारमें जीव द्रव्य नौ तत्त्व रूप परिणमा है, वह तो विभाव परणति है, इसलिए नवतत्त्व रूप वस्तु का अनुभव भी मिथ्यात्व है । जिस कारण यही जीव द्रव्य सकल कर्मोपाधिरहित जैसा है वैसा ही प्रत्यक्षपने उसका अनुभव निश्चयसे यही सम्यग्दर्शन है ।
भावार्थ इस प्रकार है -- सम्यग्दर्शन जीवका गुण है । वह गुण संसार अवस्थामें विभावरूप परिणमा है । वही गुण जब स्वभावरूप परिणमे तब मोक्षमार्ग है । "
इस विवरणसे पण्डिजी ने यह स्पष्ट किया कि वर्तमान अवस्था जीवकी नवतत्त्वरूप है, यह सत्य है; तथापि यह जीवका स्वाभाविक परिणमन नहीं है । अतः नवतत्त्वरूप जीवकी श्रद्धा सम्यग्दर्शन नहीं है । तब नवतत्त्वरूप जीवका श्रद्धान करना ( सम्यग्दर्शन नहीं ) मिथ्यादर्शन है । सम्यग्दर्शनका विषयभूत आत्मा इन सब कर्मजनित उपाधियोंसे भिन्न शुद्धात्मदर्शन है ।
कर्मजनित उपाधि युक्तता असत्य नहीं है वह तो है, पर वह जीवका शुद्ध स्वभाव नहीं है अतः इस दृष्टिसे मिथ्या है नयसापेक्ष कथनकी दृष्टिसे मिथ्या है, तथापि आगे आठवें कलशकी टीकामें पण्डितजी स्पष्ट करते हैं कि
"जीववस्तु अनादि कालसे धातु पाषाणके संयोग समान कर्म पर्यायसे मिली हुई होकर वह रागादि विभाव परिणामोंके साथ व्याप्य - व्यापक रूपसे स्वयं परिणमन देखा जाय, जीवका स्वरूप न देखा जाय तो जीव वस्तु नौ तत्त्व रूप है, भी है, सर्वथा झूठ नहीं हे क्योंकि विभावरूप रागादि शक्ति जीवमें ही है । " इस कथनसे व्यवहार सापेक्ष अर्थात् वर्तमान पर्याय दृष्टिसे जीवको देखा जाय तो नवतत्त्व रूप कहना सत्य है, पर उसीकी जीव द्रव्यके निरुपाधि स्वभावकी दृष्टिसे देखा जाय तो वह असत्य हैं इस तरह नयविवक्षाओं से बहुत स्पष्ट विवेचन किया है, विवादको कोई स्थान नहीं रह जाता ।
ऐसे शुभानुभवनको पण्डितजीने " प्रत्यक्षमने अनुभव" लिखा है और उसे मोक्षमार्ग कहा है यहाँ उन्होंने स्वयं प्रश्न उठाया है कि
मिली चली आ रही है सो परिणमन कर रही है । वह ऐसा दृष्टिमें आता है । ऐसा
"यहाँ कोई आशंका करेगा कि मोक्षमार्ग तो सम्यग्दर्शनज्ञान - चारित्र इन तीनोंके मिलनेसे होता है" इसका उत्तर दिया है कि शुद्धजीव स्वरूपका अनुभव करनेपर तीनों ही हैं ।" .....जीवका लक्षण चेतना है । वह चेतना तीन प्रकार की है— एक ज्ञानचेतना – एक कर्मचेतना, एक कर्म फल चेतना । उनमें से ज्ञानचेतना शुद्धचेतना है, शेष अशुद्ध चेतना हैं । उनमें अशुद्ध चेतना रूप वस्तुका स्वाद तो सर्वजीवों को अनादिसे ( ये सारी मिथ्यादृष्टि जीवोंको ) प्रकट ही है । उस रूप अनुभव सम्यक्त्व नहीं है, शुद्ध चेतना मात्र वस्तुका स्वाद ( अनुभव ) आवे, तो सम्यक्त्व है ।
उक्त कथनसे पण्डितजी स्पष्ट कर रहे हैं कि जिस शुद्ध चेतनाका अनुभव जीवको जब होता है, तब उस अनुभवका नाम ही सम्यग्दर्शन है, वह मोक्षमार्ग है और अविरत सम्यग्दृष्टिके सम्यक्त्वके साथ ज्ञान चारित्र भी है । भले ही वह संयमाचरण न हो, पर चारित्र गुण वहाँ है और वह मिथ्याचारित्र नहीं है, सम्यग्चारित्र है । आचार्य कुन्दकुन्दने संयमाचरणके न होनेपर भी सम्यग्दृष्टि ( असंयत ) के चारित्र हैं और वह समय
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