Book Title: Fulchandra Shastri Abhinandan Granth
Author(s): Jyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
Publisher: Siddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi

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Page 671
________________ ६३२ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ जैनतत्त्वमीमांसा : एक समीक्षात्मक अध्ययन डॉ० उत्तमचन्द जैन, सिवनी जैन आम्नायकी प्राचीनतम परंपराकी एक कड़ी के रूपमें विश्रुत हैं - सिद्धान्ताचार्य, पंडितवर्य, श्रीमान् पं० फूलचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्री, बनारस, जिन्होंने आगम तथा परमागम रूप रत्नाकरकी अतल गहराईयों में डुबकियां लगाकर जिनागमसार रूप रत्नोंको खोज-खोजकर विद्वज्जनों तथा सामान्यजनों के समक्ष प्रस्तुत किया, साथ ही जैनसिद्धान्त एवं तत्त्वज्ञान परम्पराको सम्पोषित एवं संवद्धित भी किया । इसका ज्वलंत प्रमाण एवं अमर स्मारक स्वरूप है उनका प्रकृत ग्रंथ "जैनतत्त्वमीमांसा" । यद्यपि सर्वोत्कृष्ट सिद्धान्तग्रंथ षट्खण्डागमकी धवला टीका तथा कषायपाहुडकी जयधवला टीकाके सम्पादनका गुरुतर कार्य, खानियां तत्त्वचर्चाका ऐतिहासिक कार्य तथा अन्य मौलिक साहित्यका सृजन ये सभी कार्य पंडितजी विशिष्ट व्यक्तित्व एवं उत्कृष्ट कृतित्वके जीवन्त स्मारक हैं, तथापि इनमें अग्रणी, अद्वितीय और अमरकृति है उनकी " जैन तत्त्वमीमांसा" । सिद्धान्त ग्रंथोंके संपादन द्वारा आदरणीय पंडितजीने एक ओर तो श्रुतज्ञान रूप जिनवाणीकी प्रथम श्रुतस्कंधरूप सिद्धांतज्ञानधाराका सम्पोषण किया दूसरी ओर खानिया तत्त्वचर्चाक सम्पादन द्वारा तार्किक आचार्य समंतभद्रस्वामीकी तथोक्तिको याद कराया है कि "वादार्थी विचराम्यहं नरपते' शार्दूलविक्रीडितम्” । तीसरी ओर मौलिक साहित्य सृजन द्वारा अपनी वर्तमान प्रतिभा एवं व्यक्तित्वका प्रकाशन किया है तथा चौथी ओर जैनतत्त्वमीमांसा के प्रणयन द्वारा द्वितीय श्रुतस्कंध अथवा परमागमरूप जैन अध्यात्मके प्रयोजनभूत, मोक्षमार्गोपयोगी जैनतत्त्वों एवं सिद्धांतों का मर्मोद्घाटन किया है । इस प्रकार माननीय पंडितजीकी चौमुखी प्रतिभा, बहुश्रुतज्ञता, जिनागमतत्त्वमर्मज्ञता एवं सैद्धांतिक दृढ़ता क्रमशः विज्ञोंको वात्सल्यकारी, अल्पश्रुतज्ञोंको आश्चर्यकारी, कल्याणेच्छुकों को सन्मार्गप्रकाशनहारी तथा अनुदारजनोंको ईर्ष्याकारी सिद्ध हुई है । यहाँ हम उनकी अमूल्यकृति "जैनतत्त्वमीमांसा" का परिचय, प्रतिपाद्य एवं समीक्षण प्रस्तुत करनेका उद्यम करते हैं । जैनतत्त्वमीमांसा के दो संस्करण हमारे समक्ष हैं - प्रथम २०० पृष्ठीय लघुकाय पुस्तक तथा द्वितीय ४२२ पृष्ठीय बृहद्काय ग्रंथ । उक्त दोनों संस्करणोंमें आत्मनिवेदनके माध्यम से ग्रंथ रचनाका अपना उद्देश्य लेखक महोदय ने स्पष्ट किया है । द्वितीय संस्करणमें प्रथम संस्करणके वर्णित प्रकरणोंमें जो भी परिवर्धन या परिवर्तन किया है उसकी स्पष्ट सूचना की है - यथा प्रथम संस्करणमें तीसरे अध्यायका नाम " निमित्तकी स्वीकृति" तथा चौथेका नाम " उपादान और निमित्तमीमांसा" रखा था किंतु द्वितीय संस्करण में उनके परिवर्तित नाम क्रमशः -- "बाह्यसाधनमीमांसा” तथा “निश्चय उपादान मीमांसा" दिये हैं । पंडितजीने इन प्रकरणोंके नाम परिवर्तनका कारण सयुक्तिक एवं सप्रमाण स्पष्ट किया है। पांचवें "उभयनिमित्त मीमांसा" स्वतंत्र अध्यायके रखनेका कारण स्पष्ट करते हुए लिखा है कि “निश्चय उपादानके अनुसार प्रत्येक द्रव्यके कार्यरूप परिणत होते समय उसके अनुकूल बाह्य सामग्रीका योग नियमसे बनता ही है ।" इस तथ्यको हृदयंगम कराना मुख्य प्रयोजन रहा है । शेष अध्यायोंको प्रथम संस्करण अनुसार ही रखा गया है। पंडितजीने अपने निवेदनमें यह भी स्पष्ट किया है कि प्रकृत ग्रंथ में वर्णित विषयोंका याथातथ्य परिज्ञान न होनेसे स्वरूप विपर्यास, कारण विपर्यास एवं भेदाभेद विपर्यास बना ही रहता है जिससे अनेक शास्त्रोंमें पारंगत होकर प्रांजल वक्ता बन जाने पर भी उसकी मोक्षमार्ग की ओर गति नहीं हो पाती । यथार्थ में निश्चय व्यवहार मोक्षमार्गका प्रारंभ आगे पीछे नहीं अपितु एक साथ ही होता है | निश्चय मोक्षमार्गका अनुसर्ता व्यवहारमोक्षमार्ग होता है किंतु व्यवहारमोक्ष मार्गका अनुसर्ता निश्चय मोक्ष Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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