Book Title: Fulchandra Shastri Abhinandan Granth
Author(s): Jyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
Publisher: Siddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi

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Page 670
________________ पंचम खण्ड : ६३१ विडम्बना ही अधिकतर प्रतीत होती है, जिससे जैनदर्शनकी मूल भूमिकापर ही कुठाराघात किया गया हो। इसपर पण्डितजी लिखते है-“यह सब देखकर उनका चित्त करुणासे भर उठता है।" सच्चा जिनवाणीका सेवक इससे अधिक क्या लिखें ? विद्वान् लोग जिनागमका मुख रहते हैं। उन्हें चाहिए कि वे आगमके अनुसार समाजको सही मार्गदर्शन करे । भगवान अरिहंत देवने वीतराग धर्मका ही उपदेश दिया, जो आत्माका विशुद्ध रूप है। परमार्थस्वरूप शुद्धात्म प्राप्ति के लिए एक मात्र ज्ञानमार्गपर आरूढ़ होकर स्वभावसे शुद्ध त्रिकाली आत्माका अप्रमादभावसे अनुसरण करना यही उपाय है। उसकी प्रारम्भिक भूमिकामें ज्ञानधारा और कर्म ( राग ) धाराका समुच्चय भले ही बना रहे, किन्तु उसमें इतनी विशेषता है कि ज्ञानधारा स्वयं-निर्जरारूप है, इसलिए वही साक्षात मोक्ष का उपाय है। कर्मधारा बंधस्वरूप होनेसे उसके द्वारा संसार-परिपाटी बने रहनेका ही मार्ग प्रशस्त होता है। परमार्थसे न तो वह मोक्षमार्ग है, नहीं उसके लक्ष्यसे साक्षात् मोक्षमार्गकी प्राप्ति होना ही सम्भव है। जैनतत्वज्ञानी सम्बन्धी ऐसे सभी तथ्योंको आगमके आधारपर सुस्पष्ट करनेका प्रामाणिक प्रयत्न इस ग्रन्थमें लेखक द्वारा किया गया है। आज विज्ञानकी प्रगतिसे मानव अधिक चिकित्सक एवं चिन्तनशील बन रहा है। जीवनके प्रत्येक अंग का बारीकीसे अभ्यास करनेकी प्रवृत्ति बुद्धिवादी लोगोंमें बढ़ रही है। हर एक बातकी कारणमीमांसा कुछ बनियादी तत्वोंके आधारपर वे करना चाहते हैं। और तर्कसंगत विचारधारासे उनका जितना समाधान होता है, उतना अन्य विचारधारासे नहीं होता । उनके सामने पहला प्रश्न तो यह रहता है कि वर्तमानमें वह परतन्त्र क्यों है ? क्या अपनी स्वयंकी कमजोरीके कारण या परसत्ताके कारण अथवा कर्मकी सत्ता मानी जानेवाली हो तो उसकी बलवत्ताके कारण ? - इसके बाद इसीमेंसे दूसरा प्रश्न खड़ा होता है, कि वह इस परतन्त्रतासे मुक्त होकर स्वतन्त्र कब और कैसे बन सकेगा ? इन दोनों मूलभूत प्रश्नोंका मौलिक समाधान उसके अन्तर्गत नाना उपप्रश्न एवं उनके तर्कसंगत तथा आगमाधारित विस्तृत उत्तरोंके साथ इस ग्रन्थमें किया गया है । इससे सुबुद्ध पाठकोंकी अनेक भ्रान्त धारणाएँ दूर होकर जैन तत्त्वका सम्यक् रूप उनके सामने दर्पणवत् आता है, जिसे जानकर जिज्ञासुओंको विशेष संतोषका अनुभव होता है । इस ग्रन्थकी यही विशेषता है। वस्तुका सम्यक् निर्णय करनेमें ऐसी शंका समाधानरूप शैलीका बहुत अच्छा उपयोग होता है यह पण्डितप्रवर टोडरमलजीके "मोक्षमार्ग प्रकाशक" ग्रन्थसे सिद्ध हुआ है। इस जैनतत्त्वमीमांसामें पण्डितजीने उन सब प्रमुख विषयोंका समावेश कर लिया है, जिनका चिंतन-मनन आजकी स्थितिमें अत्यावश्यक था, जिनके सम्बन्धमें अभ्यासु विद्वानोंकी दृष्टि भी अधिक स्पष्ट एवं निर्मल होनेकी आवश्यकता थी। यह ग्रन्थ इस आवश्यकताकी पूर्ति करनेमें बहुत सहायक प्रतीत होता है, और वह भी सरल तथा सुबोध भाषामें । पण्डितजीका यह उपकार जिज्ञासु एवं विद्वद्वर्ग कभी नहीं भूलेगा। सिद्धान्त तथा आगममें भी विद्वानोंके लिए तो वह नया वरदान रूप सिद्ध होगा, इसमें संदेह नहीं है । इस ग्रन्थका दूसरा संस्करण भी अब अप्राप्य हुआ है, इसीसे उसकी उपयोगिता एवं लोकप्रियता स्पष्ट होती है । समाजके मान्यवर विद्वान् पण्डित जगन्मोहनलालजी इस पुस्तकके प्राक्कथनके अन्तके निचोड रूपसे सही लिखते हैं-'पण्डितजीके इस समयोपयोगी सांस्कृतिक एवं साहित्यिक सेवाकी जितनी प्रशंसा की जाय थोड़ी हैं। हमें विश्वास है कि समाज इससे उचित लाभ उठाकर अपनी ज्ञानवृद्धि करेगी।" हमें तो लगता है कि ज्ञानवृद्धिके साथ शुद्धात्मबोध भी यह ग्रन्थ अभ्यासकोंको सहायक सिद्ध होगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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