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६२४ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ
पण्डितजीकी यह समस्या मौलिक है कि आचार्य पूज्यपादने जब "तत्त्वार्थसूत्र" के प्रथम अध्यायके "निर्देशस्वामित्व०" सूत्रकी व्याख्या 'षट्खण्डागम' के आधारसे की है तो फिर कहीं कोई पंक्तिमें अन्तर क्यों है ? कहीं व्याख्याकारकी शिथिलता या असावधानीसे तो ऐसा नहीं हुआ? कोई भी कारण हो सकता है । लेकिन यह चिह्न भी स्पष्ट है कि आचार्य पूज्यपादने चारों गतियोंके आश्रयसे सम्यग्दर्शनके स्वामीका निर्देश किया है। तब फिर, पूर्व मुद्रित प्रतियों में ऐसा लिखा हुआ वाक्य क्यों मिलता है कि तिर्यचिनियों में क्षायिक सम्यग्दर्शनका अभाव है। यह स्पष्ट है कि दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों परम्पराओंके आगम ग्रन्थोंमें यह उल्लेख मिलता है कि सम्यग्दृष्टि मरकर किसी भी गतिके स्त्रीवेदियोंमें उत्पन्न नहीं होता। तब फिर, मल्लिको तीर्थंकर मानने और उनके पूर्वके महाबलके भवमें मायाचार करनेके कारण स्त्री नाम कर्मका बन्ध कर तीर्थकरकी पर्यायमें स्त्री होनेके औचित्यको कैसे सिद्ध किया जाये ? यह प्रश्न अवश्य श्वेताम्बर आगम ग्रन्थोंकी टीका लिखने वालोंके समक्ष रहा होगा। यद्यपि उन्होंने विचारकर यह स्पष्टीकरण किया भी है कि-"सम्यग्दृष्टि मरकर स्त्री नहीं होता, यह बाहुल्यकी अपेक्षा कथन है।" परन्तु इस प्रकारके कथनसे वास्तविकताका पता लगाने वालेका समाधान नहीं हो सकता। इसी प्रकारसे मुद्रित प्रतियोंमें विसंगत तथा भ्रमोत्पादक वाक्योंको भी सिद्धान्तका ज्ञाता बिना छान-बीन किये कैसे स्वीकार कर सकता है। अतः पण्डितजीने जब मुद्रित “सर्वार्थसिद्धि" में तिर्यंचनियोंमें क्षायिक सम्ग्यदर्शनका हेतु "द्रव्यवेदस्त्रीणां तासां क्षायिकासम्भवात्" यह वाक्य पढ़ा, तो असमंजसमें पड़ गये। क्योंकि यह वाक्य आगमके अनुकूल नहीं है । पण्डितजी के ही शब्दों में
"हमारे सामने यह प्रश्न था । हम बहुत कालसे इस विचारमें थे कि यह वाक्य ग्रन्थका मूल भाग है या कालान्तरमें उसका अंग बना है। तात्त्विक विचारणाके बाद भी इसके निर्णयका मुख्य आधार हस्तलिखित प्राचीन प्रतियाँ ही थीं। तदनुसार हमने उत्तर भारत और दक्षिण भारतकी प्रतियोंका का मद्रित प्रतियोंसे मिलान करता प्रारम्भ किया। परिणामस्वरूप हमारी धारणा सही निकली। यद्यपि सब प्रतियोंमें इस वाक्यका अभाव नहीं है, पर उनमेंसे कुछ प्राचीन प्रतियां ऐसी भी हैं जिनमें यह वाक्य उपलब्ध नहीं होता है।"
अपने अनुवादके सम्बन्धमें भी पण्डितजीने अप्रत्यक्ष रूपसे संकेत किया है। उनके ही शब्दोंमें-"इसी सूत्रकी व्याख्यामें दूसरो वाक्य "क्षायिकं पुनर्भाववेदेनैव" मुद्रित हुआ है। यहाँ मनुष्यिनियोंके प्रकरणसे यह वाक्य आता है। बतलाया यह गया है कि पर्याप्त मनुष्यिनियोंके ही तीनों सम्यग्दर्शनोंकी प्राप्ति सम्भव है, अपर्याप्त मनुष्यिनियों के नहीं । निश्चयतः मनुष्यनीके क्षायिक सम्यग्दर्शन भाववेदकी मुख्यतासे ही कहा है, यह द्योतित करनेके लिए इस वाक्यकी सृष्टि की गई है।"
___ भारतीय ज्ञानपीठसे प्रकाशित "सर्वार्थसिद्धि" के इस संस्करणकी कई विशेषताएं हैं। प्रथम आचार्य पूज्यपादने अपनी व्याख्यामें जिन आगमिक ग्रन्थोंके उद्धरण दिये हैं उनका नाम-निर्देश नहीं किया। पण्डितजीने टिप्पणमें अनेक स्थानोंपर मूलाचार, गोम्मटसार जीवकाण्ड, कर्मकाण्ड आदिका उल्लेख किया है। जहाँ वृत्तिमें पाठ-भेदका निर्देश किया गया है, वहाँ भी उसके मूल-स्रोतका या किसी नामका उल्लेख नहीं है। पण्डितजीने टिप्पणमें मूल पाठके साथ ग्रन्थका नामोल्लेख कर इस कमीको पूरा कर दिया है। प्रस्तुत संस्करण पाँच हस्तलिखित प्रतियोंके आधारपर सम्पादित तथा संशोधित किया गया है। इनके सिवाय दो मुद्रित संस्करणोंके आधारपर भी सम्पादन कर पाठ-भेद निश्चित किये गये हैं। अपने प्रारम्भिक "दो शब्द" में पृ० ५, ६-७ पर प्रथम अध्यायके तुलनात्मक पाठ दिये गये हैं जिनको देखकर अनुमान लगाया जा सकता है कि मुद्रित ग्रन्थोंमें पाठोंमें कितनी अशुद्धियाँ हैं । पण्डितजीके ही शब्द उनके सम्पादन कार्यके प्रति कितने सटीक हैं। वे लिखते हैं
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