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पंचम खण्ड : ६२३
वास्तवमें पं० फलचन्द्र सिद्धान्तशास्त्रीने “सर्वार्थसिद्धि" की टीका लिखकर भावी पीढ़ियोंके लिए दिगम्बर जैन सिद्धांत-परम्पराका सच्चा मार्ग दर्शाया है । पण्डितजीने केवल टीकाके लिए टीका नहीं लिखी है, वरन् सम्पादनके मूल उद्देश्यका पालन पूर्ण रूपसे किया है । सम्पादनका उद्देश्य है-मूल रूपमें लेखककी कृति की पुनर्रचनाको मूलतः ज्योंका त्यों प्रस्तुत करना । ऐसी स्थितिमें यथार्थ सम्पादक प्रतिलिपि करते समय अपने मानसको मूल कृतिके साथ इस तरह संयोजित करता है कि उनके साथ पूर्ण तादात्म्य स्थापित हो जाता है । फिर. सम्पादकके मनमें केवल यही भाव बार-बार उदित होता है कि यदि मैं इस रचनाको लिखता. तो यहाँ पर क्या पाठ होता। अनन्तर अपने पाठकी प्रामाणिकताको साम्य प्रदर्शित करनेवाले अन्य पाठोंसे यथा हस्तलिखित प्रतियोंसे तुलना कर मूल रूप में स्थापित करता है।
पण्डितजीने "सर्वार्थसिद्धि" की प्रस्तावनाके पूर्व "दो शब्द" में पाठ-भेदकी समस्याको सामने रखकर सैद्धान्तिक विवेचनके द्वारा समाधान खोजा है जो सम्पादकीय दृष्टिसे ऐसी रचनाओंके सम्पादन करते समय ध्यानमें रहना आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य भी है। इससे केवल पाठ-भेदकी समस्या ही नहीं सुलझती है, वरन् ग्रंथके मूल स्रोतका भी स्पष्ट पता लग जाता है । “तत्त्वार्थसूत्र" के ऐसे कई सूत्र हैं जिनकी प्ररूपणा तथा व्याख्या “षखण्डागम" के आधारसे की गई है। आचार्य पूज्यपादने अपने टीका ग्रन्थ "सर्वार्थसिद्धि" में "तत्त्वार्थसूत्र" के प्रथम अध्यायके "निर्देशस्वामित्व०" और "सत्संख्याक्षेत्र०" इस दो सूत्रोंकी व्याख्या "षटखण्डागम" के आधारसे ही की है। इतना ही नहीं, “तत्त्वार्थसूत्र" का पूरा पाँचवाँ अध्याय “पंचास्तिकाय", "प्रवचनसार" आदि ग्रन्थों पर आधारित है। इसकी व्याख्या में आचार्य कुन्दकुन्दकी अनेक रचनाओंके उद्धरण मिलते हैं । “तत्त्वार्थसूत्र" के सूत्रों पर “मूलाचार" तथा आ० समन्तभद्रके "रत्नकरण्डश्रावकाचार" का स्पष्ट प्रभाव लक्षित होता है । पं० जुगलकिशोर मुख्तारने "सर्वार्थसिद्धि पर समन्तभद्रका प्रभाव' शीर्षक लेखमें तुलना कर यह सिद्ध किया है कि आचार्य समन्तभद्रकी सभी रचनाओंका "सर्वार्थसिद्धि" की व्याख्या में उपयोग किया गया है। वास्तवमें आचार्य पूज्यपाद ऐसे सारस्वाचार्य हुए जिन्होंने सम्पूर्ण जिनागमका आधार लेकर टीका ग्रन्थकी रचना की। .
"तत्त्वार्थसूत्र' एक ऐसा ग्रन्थ है जो दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों ही परम्पराओंमें आगमकी भाँति मान्य है। इसकी रचना सूत्र-शैलीमें होनेके कारण तथा विवेचन “तत्त्वार्थ' विषय पर होनेसे इसकी “तत्त्वार्थसूत्र' संज्ञा सार्थक है । किन्तु श्वेताम्बर-परम्पराके अनुसार वाचक उमास्वातिने सातवीं शताब्दीके उत्तरार्द्ध में या आठवीं शताब्दीके पूर्वार्द्ध में 'तत्त्वार्थाधिगम' नामक लघु ग्रन्थकी रचना की थी जो कालान्तरमें “तत्त्वार्थाधिगमभाष्य" नामसे प्रसिद्ध हुआ। फिर, तत्त्वार्थाधिगम सूत्र नाम प्रचलित हो गया । मूल तत्त्वार्थसूत्र में दस अध्याय हैं और तीन सौ सत्तावन सूत्र हैं । “सर्वार्थसिद्धि" की प्रस्तावनामें पण्डितजीने इस पर अच्छा विवेचन किया है। जो भी “तत्त्वार्थसूत्र" का मूल पाठी है, वह निष्पक्ष दृष्टिसे यह विचार कर सकता है कि श्वेताम्बरपरम्परा कुल ३४४ सूत्रोंको ही मूल रूपमें मानती है, तो यह मूल सूत्रोंमें कुछ परिवर्तन कर अपनी अनुसार स्वीकार करती है। विद्वानोंने इस सम्बन्धमें बहुत ऊहापोह किया और इस पर प्रकाश भी डाला । किन्तु पण्डितजीने दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों ही परम्पराओंको मूल रूपमें सामने रखकर यथार्थतः मूलका अनुसन्धान किया है । वे लिखते हैं-"वाचनके समय मेरे ध्यानमें यह आया कि सर्वार्थसिद्धिमें ऐसे कई स्थल हैं जिन्हें उसका मूल भाग माननेमें सन्देह होता है । किन्तु जब कोई वाक्य, वाक्यांश, पद या पदांश लिपिकार की असावधानी या अन्य कारणसे किसी ग्रन्थका मूल भाग बन जाता है, तब फिर उसे बिना आधारके पृथक् करने में काफी अड़चनका सामना पड़ता है।" वास्तवमें प्राचीन रचनाओंके सम्पादनकी यह मूल तथा अन्तरंग समस्या है। इस समस्याको जो सम्पादक पूरी ईमानदारीके साथ निभाता है, वही सम्पादनमें सफल होता है ।
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