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६२२ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्रो अभिनन्दन-ग्रन्थ सर्वार्थसिद्धि : समालोचनात्मक अनुशीलन
डॉ. देवेन्द्रकुमार शास्त्रो, नोमच जैन साहित्यमें मूल रूपसे मोक्ष-मार्गको प्रकाशित करने वाले अनेक सत शास्त्रोंकी रचना विगत दो सहस्र वर्षोंके अन्तरालमें अनवच्छिन्न रूपमें होती रही है। प्राकृत भाषामें रचे गये ग्रन्थोंमें षट्खण्डागम, समयसार, प्रवचनसार, नियमसार, पंचास्तिकाय मुख्य हैं। सभी आचार्योने आत्माको केन्द्रमें रखकर सच्चे सुख या मोक्षकी प्राप्तिके लिए अलग-अलग शैलीमें मोक्ष-मार्गका निरूपण किया। संस्कृतमें रचे गये ग्रन्थामें आचार्य उमास्वामी कृत "तत्त्वार्थसूत्र" या मोक्षशास्त्र प्रमुख है। इस सूत्र ग्रन्थोंकी रचना विक्रमकी दूसरी शतीमें हुई थी। इसके आधार पर ही आचार्य अमृतचन्द्र कृत "तत्त्वार्थसार", श्रुतमुनि कृत "परमागमसार" तथा भ० सकलकीर्ति विरचित "तत्वार्थसारदीपक" आदि रचनाओंका निर्माण हुआ । “तत्त्वार्थसूत्र" पर सबसे अधिक टीकाएँ लिखी गई। सबसे बड़ी टीका “गन्धहस्तिमहाभाष्य" चौरासी हजार श्लोकप्रमाण आचार्य समन्तभद्र स्वामीने रची थी जो आज अनुपलब्ध है। आचार्य पूज्यपादस्वामी कृत "सर्वार्थसिद्धि" चार हजार श्लोकप्रमाण है। आचार्य अकलंकदेव विरचित "राजवार्तिक" सोलह हजार श्लोकप्रमाण टीका कही गई है। उपलब्ध टीकाओंमें सबसे बड़ी बीस हजार श्लोकप्रमाण "श्लोकवातिक" भाष्य है, जिसके रचयिता आचार्य विद्यानन्द स्वामी हैं। इनके अतिरिक्त ब्रह्म श्रुतसागर कृत "तत्त्वार्थवृत्ति", पं० वामदेव कृत "तत्त्वार्थसार", भास्करनन्दि विरचित "तत्त्वार्थसूत्रवृत्ति" तथा आचार्य प्रभाचन्द्र कृत "तत्त्वार्थवृत्ति पदविवरण इत्यादि रचनाएँ उपलब्ध होती हैं । बृहत्प्रभाचन्द्र कृत "तत्त्वार्थसूत्र' आचार्य उमास्वामोकी छाया ही प्रतीत होती है। इतना अवश्य है कि कुल १०७ सूत्रोंमें दसों अध्यायोंका सप्रमाण निरूपण किया गया है। प्रत्येक अध्यायमें सूत्रोंकी संख्या घटा दी गई और कहीं-कहीं स्पष्टीकरण तथा संक्षिप्तीकरणकी प्रवृत्ति लक्षित होती है।
___ "तत्त्वार्थसूत्र" जैनधर्मकी बाइबिल कही जाती है । यद्यपि इसमें अध्यात्म और आगम जैसा कोई विभाग नहीं है, किन्तु जो भी वर्णन किया गया है उसमें आत्माको मूल बिन्दु माना गया है । आत्माको शुद्धता
और अशुद्धता भावोंसे है । जैनधर्ममें भावकी प्रधानता है । इसका ही विस्तृत वर्णन टीका ग्रन्थों में पाया जाता है । आचार्य प्रभाचन्द्र कृत "तत्त्वार्थवत्तिपदविवरण" सर्वार्थसिद्धिकी विस्तत व्याख्या है। इससे आचार्य पूज्यपाद कृत "सर्वार्थसिद्धि" टीकाका विशेष महत्व द्योतित होता है। यह टीका प्राचीन होने पर भी कई विशेषताओं से युक्त है। टीका संक्षिप्त होनेपर भी सूत्रके प्रत्येक पदकी सटीक व्याख्या प्रस्तुत करने वाली है। इसमें न तो अति विस्तार है और न अति संक्षेप । दूसरी विशेषता यह है कि सम्पूर्ण टीका आगमके प्रमाणोंसे संवलित है । कहीं-कहीं यथावश्यक उद्धरण भी उद्धृत है। तीसरे, सूत्रके पूर्वापर सम्बन्ध, अत्यावश्यक प्रश्नोंका निर्देश तथा संक्षिप्त समाधान, न्याय हेतु आदिका सर्वत्र परिपालन लक्षित होता है ।।
टीकाका मुख्य स्रोत- ग्रन्थ है-षट्खण्डागम । षट्खण्डागम और कषायप्राभृत दिगम्बर जैन आम्नायके मूल ग्रन्थ माने जाते हैं । “षट्खण्डागम” का रचना-काल ईस्वी पूर्व प्रथम शताब्दी माना जाता है। वस्तुतः षट्खण्डागमकी रचना किसीने नहीं की, किन्तु संकलन किया गया। डॉ० ज्योतिप्रसाद जैनने आचार्य भूतबलिका समय ई० सन् ६६-९० माना है और षट्खण्डागमके संकलनका समय सन् ७५ निश्चित किया है। "सर्वार्थसिद्धि" की प्रस्तावनामें पण्डितजीने लिखा है-इन्द्रनन्दिने अपने श्रुतावतारमें षट्खण्डागम पर आ० कुन्दकुन्द की टीकाका भी उल्लेख किया है। इस आधारसे षट्खण्डागमका रचनाकाल प्रथम शताब्दीसे भी पूर्व ठहरता
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