Book Title: Fulchandra Shastri Abhinandan Granth
Author(s): Jyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
Publisher: Siddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi

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Page 656
________________ पंचम खण्ड : ६१७ सम्प्रदायमें प्रचलित पाठ-भेदोंका भी समुल्लेख किया है तथा प्रश्नोत्तरकी पद्धतिको अपनाकर प्रसङ्गागत अ विषयोंको स्पष्ट किया है । पण्डित फूलचंद्रजी धवलादि ग्रन्थोंके माने हुए विद्वान् हैं । अतः उन्होंने बीच बीचमें उसके आश्रयसे विषयको स्पष्ट किया है । यथा प्रथमाध्याय में व्यञ्जनावग्रह और अर्थावग्रहके स्वरूप तथा भेदोंको स्पष्टकर यह प्रतिफलित किया है कि चक्षु और मन जहाँ अप्राप्यग्राही हैं, वहाँ शेष चार इन्द्रियाँ प्राप्यग्राही तथा अप्राप्यग्राही - दोनों प्रकारकी हैं । प्रमाण और नयोंका विवेचनकर उनका अन्तर बतलाया है तथा नैगमादि नयोंका विशद विवेचन किया है । द्वितीयाध्यायमें वेदोंके साम्य और वैषम्यका विषय स्पष्टकर अकालमरणके रहस्यको उद्घाटित किया है । औदारिकादि शरीरोंकी विशिष्टता प्रकट करते हुए आहारक और अनाहारकके स्वरूपकी चर्चाकी है । विग्रहगतिके भेद और उसमें पाई जानेवाली आहारक तथा अनाहारक अवस्थाको स्पष्ट किया है । भवस्थिति और कार्यस्थितिका अन्तर बतलाया है । ऋजुगतिवाला जीव अनाहारक क्यों नहीं होता है ? इसका प्रतिपादन किया है । तृतीयाध्यायके प्रारम्भमें लोककी आकृति तथा भेदोंकी चर्चाकर उसके चित्र देते हुए घनफल निकालने की विधिको दर्शाया है । अधोलोकका विस्तृत वर्णन कर रत्नप्रभा आदि पृथिवियोंके स्वरूपपर अच्छा प्रकाश डाला है । चतुर्थाध्यायमें वैमानिक देवोंकी स्थितिका वर्णन करते हुए घातायुष्क और अघातायुष्क देवोंकी चर्चा की है तथा घावायुष्क कहाँ तक उत्पन्न होते हैं उनकी आयु अन्यदेवोंकी आयुकी अपेक्षा कितनी अधिक होती है, यह स्पष्ट किया है । पञ्चमाध्यायमें जीवाजीवादि द्रव्योंकी चर्चा करते हुए आधुनिक विज्ञानका आश्रय लेकर षड्द्रव्योंका समर्थन किया है। खासकर धर्म अधर्मकी कल्पनाको स्पष्ट किया है । पञ्चमाध्यायका विवेचन प्रवचनकर्त्ता विद्वानों को खासकर देखना चाहिए इससे अनेक प्रवचनोंमें रोचकता और आकर्षण उत्पन्न होगा । परमाणुओंका परस्पर बन्ध क्यों होता है और किस स्थितिमें होता है यह सब विषय अत्यधिक स्पष्ट किया है । प्रसङ्गोपान्त विभिन्न उपादानकी चर्चाकी गई है । षष्ठ अध्यायमें सातावेदनीय, असातावेदनीय, दर्शनमोह और चारित्रमोहके आस्रवोंकी चर्चा करते हुए केवलीके कवलाहार क्यों नहीं होता है ? आदि विषयोंको स्पष्ट किया है । सप्तमाध्यायमें हिंसा-अहिंसा के स्वरूपका दिग्दर्शन कराते हुए रात्रिभोजन- परित्यागपर पर्याप्त प्रकाश डाला है और समाज में बढ़ते हुए शिथिलाचार पर खेद व्यक्त किया है । व्रतोंके अतिचारोंका भी स्वरूप चित्रण अच्छा हुआ । इसी अध्यायमें सल्लेखनाकी चर्चा करते हुए प्रश्नोत्तरोंके माध्यमसे स्पष्ट किया है कि सल्लेखना करनेवाला आत्मघाती नहीं है । अष्टमाध्यायमें कर्म तथा उसकी अवान्तर प्रकृतियोंकी चर्चा करते हुए सातावेदनीय तथा असातावेदनीय यतश्च जीव क्रियाकी प्रकृतियाँ हैं । अतः सुख दुःखका वेदन तो कराती हैं, परन्तु उनकी सामग्री एकत्रित नहीं करतीं । यह सामग्री अन्यान्य कर्मोंके उदयसे एकत्रित होती है । इस विषयकी विशद चर्चाकी है । प्रदेशबन्ध की चर्चा करते हुए कर्म के विषयमें विषद जानकारी दी है । नवमाध्यायमें, बारह अनुप्रेक्षाओं, बाईस परिषहों तथा धम्मंध्यान और शुक्लध्यानके भेदोंकी अच्छी चर्चाकी है । सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसाम्पराय और यथाख्यातचारित्र तथा अनशनादि तपोंका विशद वर्णन किया है । निर्जराके दश स्थानोंका स्पष्टीकरण भी उत्तम हुआ है । ७८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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