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पंचम खण्ड : ६१५
कम सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण प्राप्त होता है। सोलह कषायोंका उत्कृष्ट अद्धाच्छेद चालीस कोडाकोडी सागर प्रमाण है, क्योंकि संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवके इन कर्मोंका इतना उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है । नौ नोकषायोंका उत्कृष्ट अद्धाच्छेद एक आवलि कम चालीस कोडाकोड़ी सागर प्रमाण है। यद्यपि नौ नोकषाय बन्धप्रकृतियाँ हैं, परन्तु बन्धसे इनकी उक्त प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति प्राप्त नहीं होती।
विषय-परिचयके अन्तर्गत पण्डितजीने उक्त सभी विवरण दिया है। इसे पढ़कर तथा अध्ययन कर कोई भी विद्वान् उनके सैद्धान्तिक ज्ञानकी गहराईका अनुमान लगा सकता है। इतना ही नहीं, हिन्दी अनुवादके साथ उन्होंने लगभग प्रत्येक पृष्ठ पर जो विशेषार्थ दिया है, वह विशेष रूपसे मननीय है । इनके अध्ययनसे जहाँ विषय स्पष्ट हो जाता है, वहीं अन्य आचार्योंका मत, तुलनात्मक टिप्पणी एवं प्रकरणके अन्तर्गत अध्याहृत बातें भी स्पष्ट हो जाती है। उदाहरणके लिए विशेषार्थ है-क्षायिक सम्यक्त्वका उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर है। इसलिए इसमें चार घातिकर्मोंके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर कहा है । उपशमश्रेणिमें क्षायिक सम्यक्त्व भी होता है और इसमें चार घातिकर्मोके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त बन जाता है । इसलिए क्षायिक सम्यक्त्वमें इन कर्मोके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त कहा है । शेष कथन सुगम है ।
.. यहाँ पर अन्तर-प्ररूपणाकी दृष्टिसे निरूपण किया गया है । आचार्य यतिवृषभने अपने चूणि-सूत्रोंमें ओघसे मिथ्यात्वकी तीन वृद्धि, चार हानि और अवस्थित स्थितिविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल बतलाया है। आचार्य वीरसेन स्वामीने इसका विस्तारसे विवेचन किया है कि वह अन्तर काल कैसे प्राप्त होता है ? "महाबन्ध" में अनुभागबन्धके अधिकारके अन्तर्गत भगवन्त भूतबलिने उत्कृष्ट और जघन्य रूपोंमें नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय, भागाभाग, परिमाण, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर आदिकी प्ररूपणा की है। वहां यह कथन स्पष्ट है कि अनुभागके बन्धक जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर छह महीना है । अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका अन्तरकाल नहीं है । इनमें आभिनिबोधिक ज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, शुक्ल लेश्या वाले, भव्य, सम्यग्दृष्टि तथा क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीवोंकी परिगणनाकी गई है।
बन्धके समय कर्मका जो अनुभाग प्राप्त होता है उसका विपाक जीवमे, पुद्गलमें या जहाँ कहीं होता है, उसका विचार विपाकदेशमें किया गया है। विपाककी दृष्टिसे कर्मोके चार भेद किये गये है-जीवविपाकी, भवविपाकी, पुदगलविपाकी और क्षेत्रविपाकी । यद्यपि सभी कर्मोकी रचना परिणामोंसे होती हैं: निमित्त-भेदकी अपेक्षा उनमें भेद किया जाता है, किन्तु बन्धके समय प्रशस्त परिणामोंसे जिनको अनुभाग अधिक मिलता है उनको प्रशस्तकर्म और अप्रशस्त परिणामोंसे अधिक अनुभाग मिलने वालोंको अप्रशस्तकर्म कहा जाता है। चारों घातिया कर्म अप्रशस्त हैं और अघातिया कर्म प्रशस्त, अप्रशस्त दोनों प्रकारके है। विशुद्ध परिणामोंकी बहुलताकी दृष्टिसे सम्यक्त्वके सन्मुख मिथ्यादृष्टि नारकीमें जितनी विशुद्धता हो सकती है, उतनी वायुकायिक और अग्निकायिक जीवोंमें सम्भव नहीं है। इस प्रकार गति, परिणाम, काल आदिका विचार ओघ और आदेशसे किया गया है।
__कहीं-कहीं पण्डितजीको विशेषार्थ इतना लम्बा लिखना पड़ा है कि मूल भाग आधे पृष्ठको पूरे तीन तीन पृष्ठों में स्पष्ट करना पड़ा है । जिनागममें कई अपेक्षाओंसे विवेचन किया गया है । अकेले कालकी प्ररूपणा जघन्य और उत्कृष्टके भेदसे दो प्रकारसे की गई है । फिर, निर्देश भी दो प्रकारसे है-ओघ और आदेशसे । अतः विशेषार्थमें विशेष रूपसे स्पष्टीकरण आवश्यक था । कहा भी है
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